उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। — पूज्य गुरुदेव
(दिनांक २७-९-७९ को शातिकुञ्ज परिसर में दिया गया प्रवचन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
द्रौपदी की पुकार
देवियो! भाइयो!! स्वर्गलोक में कोहराम मचा हुआ था। विष्णु भगवान के कान में एक आवाज बराबर आ रही थी कि हमारी सहायता कीजिए, मदद कीजिए। उसी वक्त नारद जी आ गए। नारद जी से भगवान विष्णु जी ने पूछा—"नारद जी! क्या बात है? कौन हल्ला मचा रहा है? कौन शोर मचा रहा है और हमारी नींद में खलल डाल रहा है?" नारद जी ने कहा—"महाराज जी! द्रौपदी मुसीबत में पड़ गई है और वही चिल्ला रही है कि भगवान हमारी सहायता कीजिए।" भगवान ने कहा—"नारद जी! हमारे यहाँ सहायता करने का कोई विधान नहीं है। हमारे यहाँ एक ही विधान है—कर्म और उसका फल। सारी सृष्टि हमने इसी आधार पर बनाई है। आदमी अपना कर्म करते हैं और उसका फल पाते रहते हैं। कितने आदमी हैं, जिनमें से कोई दुःख पाता रहता है, किसी का ऑपरेशन होता रहता है। किसी को कष्ट होता रहता है, किसी को क्या होता रहता है। नारद जी! हम किस-किस की सहायता करेंगे? अगर हम सहायता करेंगे, कर्मों की व्यवस्था करना हमारे लिए कठिन हो जाएगा। हम किसी द्रौपदी की कोई सहायता नहीं कर सकते।"
नारद जी ने कहा—"महाराज जी! फिर कैसे बात बनेगी?" भगवान ने कहा—"नारद जी! हम कुछ नहीं कर सकते, हम मजबूर हैं।" हमने दुनिया बनाई है और दुनिया में कायदे-कानून बनाए हैं। कायदे और कानून का उल्लंघन करके कोई व्यक्ति विशेष हमसे प्रार्थना करता है और हमारी मिन्नतें करता है कि प्रार्थना और मिन्नतों के आधार पर हम उसके साथ रिआयत करेंगे। प्रार्थना और मिन्नतों के आधार पर अगर हम लोगों के साथ में रिआयतें करने लगेंगे तो हमारी सृष्टि की रचना गड़बड़ा जाएगी और हमारे लिए कायदे-कानून बाकी नहीं रह जाएँगे। फिर लोग मिन्नतें करेंगे, प्रार्थना करेंगे और हमारी मदद माँगेंगे, फिर कोई पुरुषार्थ नहीं करेगा। इसलिए हमने कोई ऐसा कानून बनाया ही नहीं है कि हम किसी की प्रार्थना को सुनें और किसी की सहायता करें। नारद जी ने कहा—"महाराज जी! क्या कोई उपाय नहीं है कि जिससे आप द्रौपदी की सहायता कर सकें?" उन्होंने कहा—"सिर्फ एक उपाय है— द्रौपदी के किए हुए कोई शुभ कर्म हों, तब हम उनका बदला जरूर चुकाएँगे। तब हम उनका बदला चुकाए बिना रह नहीं सकते। बस, शर्त यही है कि उसने कोई शुभ कर्म किए हों।"
शुभ कर्मों का खाता
द्रौपदी के शुभ कर्मों के बारे में जानने के लिए मुनीम जी को बुलाया गया। पूछा गया कि देखिए द्रौपदी का कोई शुभ कर्म है क्या? शुभ कर्मों का खाता खोलकर जब देखा गया तो एक शुभ कर्म मिल गया। क्या शुभ कर्म मिल गया? शुभ कर्म किसे कहते हैं? बेटे! शुभ कर्म दो हैं और कोई तीसरा शुभ कर्म नहीं है। एक शुभ कर्म है—अपने कुसंस्कारों को धोना, यह भी शुभ कर्म है, अपना उज्ज्वल चरित्र और उज्ज्वल चिंतन बना लेना, यह भी शुभ कर्म है। दूसरा शुभ कर्म है—सत्प्रवृत्तियों की सहायता करना। हरेक की सहायता करना नहीं है, चोरों की सहायता करना नहीं है, डाकुओं की सहायता करना नहीं है, उचक्कों की सहायता करना शुभ कर्म नहीं है। हरेक की सहायता करने का मतलब यह हो सकता है कि भाई साहब! हमने धर्मशाला बना दी। किसके लिए बना दी? उनके लिए बना दी है कि जो अपने ब्याह-शादी के लिए ठहरेंगे। ब्याह-शादी में ठहरने वाले लोग कौन हैं? भूखे हैं? भिखारी हैं? दरिद्र हैं? दुखी हैं? कंगाल हैं? कोढ़ी हैं? नहीं साहब! ये तो नहीं हैं तो फिर क्यों धर्मशाला बनाई, उनके लिए तो होटल बनाना चाहिए था। होटल में इनको ठहराने के लिए प्रत्येक बराती से पाँच-पाँच रुपये फीस वसूल करनी चाहिए थी। साहब! आप तीन दिन ठहरे हैं, खाना खाया है, कोका-कोला पिया है, पैसे निकालिए। नहीं साहब! फोकट में ठहराएँगे तो पुण्य होगा। नहीं बेटे! मेरी दृष्टि से इसमें कोई पुण्य नहीं हो सकता। ईमानदारी हो भी सकती है, लेकिन पुण्य का इससे कोई ताल्लुक नहीं है। पुण्य किसे कहते हैं? पुण्य उसे कहते हैं, जिसमें शुभ कर्मों के लिए, सत्प्रवृत्तियों के लिए जो मदद करने के लिए सहायता मिलती है, वह पुण्य होता है।
ब्याज अनंत गुना
मुनीम जी को कहा गया कि पुण्य का खाता देखिए कि क्या द्रौपदी का कोई पुण्य है। पुण्य का खाता तलाश किया गया। फिर क्या मिल गया? उसमें एक घटना मिल गई। नारद जी भी खुश हो गए और भगवान जी भी खुश हो गए। भगवान ने कहा कि अब हमारे लिए रास्ता खुल गया। अब हम द्रौपदी की जरूर सहायता करेंगे। घटना क्या थी। छोटी-सी घटना थी। एक महात्मा जी यमुना जी में नहाने के लिए आए। द्रौपदी भी नहाने के लिए गई थी। दोनों यमुना जी में नहा रहे थे। महात्मा जी के पास एक लँगोटी पहनने की थी और एक बदलने की थी, जिसे उन्होंने यमुना जी के किनारे पर रख दिया। हवा का एक झोंका आया और बदलने वाली लँगोटी उड़कर यमुना जी में बह गई। संयोग की बात, पुरानी वाली लँगोटी जो पहने हुए थे, वह फट गई। वे मुश्किल में पड़ गए। अब तो वे क्या पहनें और कैसे घर जाएँ? वे बहुत दुखी हुए और बोले—"अब तो सवेरा हो गया, ऐसे में नंगे घर कैसे जाएँगे? फटे हुए कपड़े पहनकर कैसे जाएँगे?" इसलिए वे पास वाली एक झाड़ी में जाकर छिप गए और सोचा कि शाम को अँधेरा हो जाएगा, तब हम अपनी कुटिया में जाएँगे।
महात्मा जी शरम के मारे चुपचाप एक झाड़ी में छिपे बैठे थे। द्रौपदी ने ये सब बातें देख ली थीं। वह धीरे-धीरे झाड़ी के पास आई और आने के पश्चात महात्मा जी को आवाज दी। पिताजी! हाँ बेटी! क्या कहना है? पिताजी! यह कहना है कि आपकी लँगोटी फट गई है और दूसरी नदी में बह गई है। हाँ बेटी! बह गई है तो आइए, इनसान की शरम एक है। आपकी शरम को हम बँटाते हैं। इनसानियत की शरम को हम जाने नहीं देंगे। उसने अपनी एक-तिहाई धोती फाड़ी और महात्मा जी के हवाले कर दी और कहा—"पिताजी! आप आधे कपड़े को पहन करके लँगोटी बना लीजिए और आधे कपड़े से अपना काम चला लीजिए। दो तिहाई धोती हमारे लिए काफी है। इससे हम भी अपनी शरम बचा लेंगे और आप भी अपनी शरम बचा लीजिए।" उन्होंने वो लँगोटी ले ली। लँगोटी पहन करके महात्मा जी ने कहा—"बेटी! आपने हमारी शरम बचाई, भगवान आपकी शरम बचाएँगे।" यह कहते हुए महात्मा जी अपने घर चले गए। द्रौपदी का पुण्य—कपड़ा दान का पुण्य भगवान के खाते में जमा हो गया और ब्याज समेत बढ़ते-बढ़ते अनंत गुना हो गया।
जमा तो हो पहले
मित्रो! ब्याज की दर बहुत अधिक होती है। आपको मालूम नहीं है। बच्चा जिस दिन पैदा हो, उस दिन बच्चे के नाम से आप एक हजार रुपये बैंक में जमा करा दें, उनचास वर्ष में एक लाख अट्ठाईस हजार रुपये मिल जाएँगे। यह गलत नहीं है, बिलकुल सही है। बैंक वालों ने मुझे हिसाब करके समझाया कि सात वर्ष में यह पैसा दूना हो जाता है और फिर सात वर्ष में दूना.......। इस तरह सात का चक्कर बन जाता है और ब्याज सहित एक लाख अट्ठाईस हजार रुपये हो जाते हैं। यह मैं ब्याज की बात कह रहा हूँ। मूल से ज्यादा ब्याज होती है। बेटे! भगवान के यहाँ ब्याज बहुत ज्यादा मिलती है, शर्त यही है कि आपने जमा किया हो, तब। द्रौपदी ने भगवान के बैंक में जमा किया था और जमा करने के बाद में भगवान आए उस कपड़े का गट्ठर सिर पर लादकर स्वयं आए। कपड़े का गट्ठर गरुड़ जी की पीठ पर लादकर भगवान जी जब भागे तो गरुड़ जी धीरे चलने लगे तो उन्होंने कहा कि आप बुड्ढे हो गए हैं और आप तेजी से नहीं चल सकते हैं। हमारे भक्त को जरूरत है, इसलिए भक्त की सहायता करने हम स्वयं जाएँगे।
भज सेवायाम्
भक्त किसे कहते हैं? जरा बताना तो सही, जिसकी सहायता स्वयं भगवान करते हैं। नहीं साहब! हम भी भक्त हैं और भगवान जी को हमारी सहायता करनी चाहिए। अच्छा! तो आप भक्त हैं। तो पहले यह बताइए कि भक्त का मतलब क्या होता है? भक्त किसे कहते हैं? अच्छा, आप भजन करते हैं तो यही बता दीजिए कि
भजन किसे कहते हैं? पहले हम यहीं से शुरू करते हैं। आपने भजन के साथ खिलवाड़ की है। कई बार मुझे बहुत गुस्सा आता है। अरे साहब! मैं तो भजन का प्रचारक हूँ, भजन पर विश्वास करता हूँ, पूजा करता हूँ। बेटे! आपका यह भजन एकांगी है, लूला है, लँगड़ा है, काना है, कुबड़ा है, गूँगा और बहरा है। इस गूँगे भजन से, जिसे आप लोगों ने पकड़ रखा है, मैं नफरत करता हूँ। यह लँगड़ा भजन, पंगु भजन, मरा हुआ भजन सब आपके हिस्से में आया है। जिंदा भजन किसे कहते हैं, जरा बताना? संस्कृत में भजन शब्द जिससे बना है, पहले इसे देखिए कि इसका क्या अर्थ है? पहले इसके माने बताइए, तब आगे चलिए। भज सेवायाम्—अर्थात भज् धातु सेवा शब्द से भजन बना है। सेवा करना, परोकार, परमार्थ, लोकहित, जनकल्याण इन शब्दों को मिला करके भजन बनता है।
मित्रो! आपने तो माला घुमाने, जीभ की नोंक से रह-रह, बक-बक.......करने को भजन मान लिया है। यह तो भजन की शुरुआत है, अंत नहीं। आपका भजन समग्र नहीं है, सर्वांगपूर्ण नहीं है, समर्थ नहीं है और जीवंत नहीं है। फिर इससे आपको क्या फल मिलने वाला है? आप भजन करना चाहते हैं तो उसका स्वरूप समझिए। भजन करेंगे और उसका स्वरूप नहीं समझेंगे तो मुश्किल हो जाएगी। भजन के साथ में परमार्थ जुड़ा हुआ है, भजन के साथ लोक-मंगल जुड़ा हुआ है, भजन के साथ लोकसेवा जुड़ी हुई है। प्राचीनकाल के सारे के सारे ऋषियों से लेकर भगवान के भक्तों को हम देखते हैं तो उनमें से हरेक के जीवन में अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई मिलती है—सेवा। जिसका हवाला मैं दे रहा था और कह रहा था कि हमारा भजन, हमारी उपासना चार चीजों से सार्थक होती है। उनमें से एक का नाम है—'साधना,' दूसरे का नाम है—'स्वाध्याय', तीसरे का नाम है—'संयम'। ये तीनों बातें वो हैं, जो व्यक्ति निर्माण से ताल्लुक रखती हैं, जिनको मैंने कल आपको बताया था। इससे आत्मकल्याण का, आत्मसंशोधन का उद्देश्य पूरा होता है।
सेवा से भगवान होते हैं प्रसन्न
मित्रो! भजन के लिए आत्मपरिष्कार ही काफी नहीं है। इसमें चौथा एक और पक्ष रह जाता है, जिससे भगवान प्रसन्न होते हैं। यह एक उच्चस्तर का संशोधन है, जिसका उद्देश्य है—जीवन को पूर्णता की स्थिति तक ले जाना, जीवन को समुन्नत बनाना, अपने आप की उन्नति करना। यह श्रेष्ठ किसका स्वार्थ है, जिससे हमारा कल्याण होता है। वह कौन-सा पक्ष है, जिससे भगवान प्रसन्न होते हैं? भगवान उससे प्रसन्न होते हैं, जिससे उनका काम होता है। भगवान का क्या काम होता है? भगवान का काम यह होता है कि उनने अपनी इस खूबसूरत दुनिया को बनाया और यह उम्मीद की कि हमारा कोई बड़ा बेटा हमारी हुकूमत को और हमारे राज्य को सुव्यवस्थित बनाने के लिए कोशिश करेगा। युवराज कौन होता है? युवराज वो होता है, जो बाप का हाथ बँटाता है और बाप के कामों को अपने कंधे पर उठाता है, युवराज उसी को कहते हैं। मनुष्य, भगवान का युवराज है। भगवान को उससे बहुत अपेक्षा है। उसने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है, इतना दिया है कि आपको मैं क्या कह सकता हूँ? आपको ऐसे हाथ दिए, आपको ऐसा सुख दिया, ऐसी आपको जिंदगी दी कि उसे कितने उपहारों से लाद दिया। क्यों लाद दिया? क्योंकि उसकी आपसे एक अपेक्षा है, एक आशा है। उसकी भी एक अभिलाषा है, उमंग है। भगवान की इनसान से क्या अभिलाषा है? भगवान की यह अभिलाषा है कि उसकी सुंदर दुनिया को ज्यादा समुन्नत और ज्यादा शानदार बनाने के लिए उसका बड़ा बेटा उनका हाथ बँटाएगा। चिंतन की दृष्टि से शालीनता और व्यवहार की दृष्टि से सुव्यवस्था, इन दोनों से हाथ बँटाएगा।
भगवान की हमसे उम्मीदें
मित्रो! भगवान की एक ही अपेक्षा थी। उसने बड़ी-बड़ी उम्मीदें रखी थीं हमसे। माँ बेटे को पैदा करती है और बड़ी उम्मीदें रखती है कि बेटा बड़ा हो जाएगा, इसकी बहू आएगी, हमारी सेवा करेगी। वह बच्चे को दूध तो पिलाती रहती है, पर अपेक्षा उस बेचारी माँ की भी है। जब उसकी दोनों में से एक भी अपेक्षा पूरी नहीं होती तो माता को निराशा होती है, बाप को निराशा होती है, ऐसे बच्चे को पालने के ऊपर। इसी तरह भगवान को, जिसने इनसान को इतना ज्यादा वैभव दे दिया और इनसान ने वैभव के बदले में उसे अँगूठा दिखाया तो भगवान को बहुत नाउम्मीदी, बहुत निराशा होती है। वह कहता है कि हमारी दुनिया को सुंदर बनाने में, श्रेष्ठ बनाने में इसका कोई योगदान न मिल सका। इसकी कोई सहायता न मिल सकी; जबकि हमने इसकी जरूरतें कम से कम रखी थीं और उसके खाने-कमाने के लिए साधन इतने ज्यादा रखे थे, जो और किसी के पास नहीं थे। गधे का पेट इतना बड़ा और खाने-कमाने का हाथ है ही नहीं, जरा से दाँत, उसी से वह घास खाता रहता है, चबाता रहता है और इतना बड़ा पेट भरता रहता है। आदमी का छह इंच का पेट और छह फुट के हाथ और वे भी ऐसे शानदार कि कमाल के हैं। ऐसी कोई मशीन नहीं है, जितनी जगह से ये उँगलियाँ मुड़ सकती हैं। ये बीस जगह से मुड़ सकती हैं। पैर मुड़ सकते हैं, हाथ मुड़ सकते हैं। ऐसे शानदार हाथ दुनिया के परदे पर एक भी नहीं हैं। उसने इतनी शानदार अक्ल और इतने शानदार हाथ दे दिए कि आप एक घंटे की कमाई से, मशक्कत से अपना पेट भर सकते हैं। बाकी सारे के सारे काम भगवान की सहायता के लिए कर सकते हैं।
एक राजा और दो माली
साथियो! आपको भगवान का हाथ बँटाना चाहिए था। अगर आप भगवान का हाथ बँटाते तो वह खुश होता, लेकिन आपने हाथ नहीं बँटाया तो वह क्यों खुश होने लगा? इस संदर्भ में मुझे एक कहानी याद आ गई। एक राजा ने दो माली नौकर रखे और दोनों को एक-एक बगीचा दे दिया और कहा कि जाइए अपने-अपने बगीचे सँभालिए। एक माली ने अपने बगीचे को बहुत शानदार ढंग से, बहुत समुन्नत एवं सुंदर ढंग से सजाकर ठीक कर दिया और दूसरे माली ने वो काम किया, जो आप करते रहते हैं। आप क्या करते रहते हैं? चौकी, चौकी पर एक खिलौना, खिलौने पर एक हाथी, हाथी पर एक घंटी, घंटी पर एक.... | आपने ये सारे के सारे खिलौने जमा कर लिए और सवेरे से टनन्-टनन्, घनन्-घनन् जय महादेवा, जय देवा कहते हुए बस, घंटी घुमाते रहे। बस, आप इसी धंधे को करते रहते हैं और जो फर्ज आपके जिम्मे सौंपे गए थे, जिम्मेदारियाँ सौंपी गईं थीं, वे सब खतम हो गए। दूसरे माली ने भी वही किया और एक साल के भीतर बगीचे को तबाह कर दिया। कैसे तबाह कर दिया? जैसे कि आपने अपने बगीचे को तबाह कर दिया। आपने अपना दिमाग खराब कर लिया, अपना खानदान तबाह कर दिया और अपना समाज तबाह कर दिया। आप किसी के कुछ भी काम न आ सके, लेकिन क्या करते रहे? वही माला, वही घंटी, टनन्-टनन्..... करते रहे।
फिर क्या हुआ? साल भर बाद जब राजा आया और दोनों मालियों की तलाश कराई। एक माली से पूछा कि आपने बगीचे को कैसे खराब कर दिया? साहब! आपका भजन किया। भजन क्या होता है? भजन वह होता है, जिसमें सारे कर्त्तव्य, सारे फर्ज और सारे उत्तरदायित्व को लात मार दी जाती है और घनन् घनन्, टनन्-टनन्, ऊँ चामुण्डायै विच्चे......ये होता रहता है। ये भी भजन होता है कहीं? हाँ साहब! सारे दिन यही भजन करता रहा, जिसकी वजह से बगीचा नष्ट हो गया। राजा ने कहा—"अच्छा इसको निकाल दो।" साहब! हम तो आपके भक्त हैं, आपके शरणागत हैं। चल बेईमान कहीं के, सारे बगीचे का नाश कर दिया तूने। उसे लात मारकर भगा दिया गया। अब दूसरे माली से पूछा गया कि आपने क्या किया बगीचे को? राजा सादा लिबास में थे। उसने पूछा—"इसका मालिक कौन है? कोई राजा साहब हैं। नाम मालूम है? नाम हमको मालूम नहीं। शक्ल मालूम है? नहीं साहब! शक्ल भी नहीं मालूम, नाम भी नहीं मालूम, रूप भी नहीं मालूम, फिर आपने राजा साहब को नमस्कार किया? हाँ, जब हमको नौकर रखा था, तब नमस्कार किया था। फिर आइंदा मिलेंगे तो क्या नमस्कार करेंगे? बीच में नमस्कार नहीं करते, लेकिन राजा साहब का नमक खाते हैं, उनके बताए हुए उत्तरदायित्व को समझते हैं, इसलिए हमने बगीचे को शानदार और समुन्नत बना दिया।" राजा साहब बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा—"आप हमारा नाम नहीं जानते हैं तो क्या? आपको हमारी शक्ल नहीं मालूम तो क्या? हमारे फर्ज और कर्त्तव्य तो आपने निभा दिए। आप हमारे सच्चे भक्त हैं।" उसकी नौकरी में तरक्की कर दी गई और इनाम दिया गया।
भजन का मर्म समझें
मित्रो! आपकी समझ में भजन का मतलब आया कि नहीं? अभी भी आप भजन का मतलब नहीं समझे क्या कि भगवान आपसे क्या अपेक्षा रखता है? अगर आपका ख्याल यह है कि भगवान इनसान से यह चाहता है कि उसका नाम जपा जाए और उसे छोटे-छोटे उपहार दिए जाएँ तो आपका यह ख्याल गलत है। उपहार से क्या मतलब है? उपहार से मतलब है—चंदन, धूप, दीप, नैवेद्य आदि चीजें दी जाएँ। अगर भगवान ऐसी अपेक्षाएँ करता है कि हमारी खुशामदें की जाएँ, मिन्नतें की जाएँ, हमको उपहार दिए जाएँ तो मैं भगवान को बहुत घटिया आदमी मानता हूँ और यह कहता हूँ कि उनकी महानता का मापदंड दो कौड़ी का है। जिसकी महानता का मापदंड दो कौड़ी का हो, ऐसा भगवान बहुत छोटी तबीअत का, वाहियात और बहुत घटिया है। जो इनसान से यह अपेक्षा करता है कि हमारी पूजा की जाए और हमारी मिन्नतें की जाएँ। हमारी खुशामदें की जाएँ और हमको उपहार दिए जाएँ तो हम आपकी सहायता करेंगे। अगर ऐसा ही स्तर भगवान का है तो यह पूजा करने के लायक नहीं हो सकते। वह तो घटिया है ही, हमको भी घटिया होना पड़ेगा। यह घटियापन जो आपने बनाकर रखा है, मानकर रखा है, भगवान की भक्ति का स्वरूप नहीं है, जो होना चाहिए।
सच्ची स्वार्थ सिद्धि
भगवान की भक्ति का सही स्वरूप क्या है? भगवान की भक्ति का स्वरूप यह है—इसमें आप दो बातें करें। एक तो आप अपने जीवन का लक्ष्य पूरा करें। चौरासी लाख योनियों में घिसटने के बाद में सिर्फ एक नायाब मौका मिला है कि आप अपने कुसंस्कारों को धोएँ, अपने चिंतन और चरित्र को ऊँचा उठाएँ और क्रमश: उन्नति करते हए चले जाएँ और अपना स्वार्थ सिद्ध करें। स्वार्थ सिद्धि का क्या अर्थ है? आप अपने आत्मा से देवात्मा बन जाएँ, देवात्मा से परमात्मा बन जाएँ, ऋषि बन जाएँ, तपस्वी बन जाएँ और ऐतिहासिक महामानव बन जाएँ। यह क्या है? यह आपका स्वार्थ है अर्थात आपकी सच्ची स्वार्थ सिद्धि इसी में है। आपका प्रमोशन इसी में है। आपकी पदोन्नति इसी में है। आपके लक्ष्य की प्राप्ति इसी में है। यह तो आपकी स्वार्थ सिद्धि है, लेकिन भगवान की? भगवान से इसका कोई ताल्लुक नहीं है। आप इसे पा लेंगे तो ठीक है। यह आपकी खुशी होगी, लेकिन भगवान का एक काम पड़ा हुआ है। उसने इतना बड़ा बगीचा बनाया। इतनी बड़ी दुनिया उसने बनाई है और वह चाहता है कि कोई असिस्टेंट आ जाए और दुनिया को बेहतरीन बनाने के लिए उसकी मदद करे। भगवान अपने मददगार चाहता है। हम भी तो आपको अपने मददगार के रूप में चाहते हैं। हम आपकी सहायता करते हैं, पर हम भी एक बात चाहते रहते हैं कि आप हमारी मदद करें।
शर्त एक ही
मित्रो! हमारा गुरु हमारी सहायता करता रहता है। आपको मालूम है कि जब हम तेरह साल के थे, तब से वह हमारी मदद करता आ रहा है, परंतु उसमें भी एक 'पर' लगा हुआ है। क्या 'पर' लगा हुआ है? उसके पीछे एक कामना छिपी हुई है। वह जो काम करना चाहता है, वह अंधे के तरीके से, पंगे के तरीके से कर नहीं सकता और हम अंधे के तरीके से बेकार हैं। इसलिए पंगा हमारा गुरु और अंधे हम। वह अपने आप से कुछ कर नहीं सकता, क्योंकि जिस जगह में वह कैद है, जिस गुफा में कैद है, वहाँ से लोगों के संपर्क में आना, लोगों से बात-चीत करना, लोगों के साथ व्यवस्था बनाना उसके बूते का नहीं है। वह दूसरों से इस काम को कराना चाहता है। इसलिए क्या काम करता रहता है? हमारी नौकरी भेजता है, सहायता भेजता है, हमारा वेतन भेजता है। वह हमारा सारा इंतजाम करता है, हमको बँगले भेजता है, क्योंकि वह हमसे काम कराना चाहता है। क्यों साहब! आज से हम काम करना बंद कर दें तब? तब मेरा अपना ऐसा विश्वास है कि जो चीजें वहाँ से आती हैं, वे सब आना बंद हो जाएँगी। तब सहायता मिलेगी? नहीं, मेरा पक्का विश्वास है कि फिर नहीं मिलेगी। आप पर कोई कृपा बरसेगी? मैं यकीन के साथ कहता हूँ कि वह एकदम से बंद हो जाएगी। जिस दिन हमारी नीयत में यह भाव आया कि हमारे गुरुदेव की कृपा और अनुग्रह का फायदा सिर्फ हमको मिलना चाहिए और हमारे स्वार्थों की सिद्धि होनी चाहिए और हमें उनके किसी काम नहीं आना चाहिए, तब? तब मेरा ऐसा ख्याल है की सारी सहायता बंद हो जाएगी, एक सेकंड में टेलीफोन कट जाएगा और यह कह देगा कि आप जाइए, अपने घर जाइए। फिर हम दोनों के बीच में जो म्युचुअल कोऑपरेशन था, एक एग्रीमेंट था कि हम आपका काम करेंगे और उनने कहा था कि हम आपकी मदद करेंगे, वह सब समाप्त हो जाएगा।
भगवान की शर्त—हम परमार्थ करें
साथियो! भगवान और भक्त के बीच एक एग्रीमेंट होता है, एक इकरारनामा होता है, आपको मालूम होना चाहिए। भगवान कहता है कि हम आपकी सहायता करेंगे, पर हमारी एक शर्त है, ध्यान रखिए। भाई साहब! बिना शर्त की सहायता करेंगे? नहीं बेटे! बिना शर्त के कोई सहायता नहीं करता। भगवान की भी एक शर्त है। क्या शर्त है? यही कि आप भगवान के काम आएँ, भगवान की सेवा करें। भगवान की मदद करें। भगवान की मदद क्या हो सकती है? भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, जिसको आप खाना खिलाएँगे, पानी पिलाएँगे, कपड़ा पहनाएँगे। आपके कपड़े की भगवान को कोई जरूरत नहीं है। उन्हें पानी पीना होगा तो गंगा जी से पी लेंगे। नहीं साहब! भगवान जी को कपड़े पहनाएँगे। आप तो बेकार की बातें करते हैं और भगवान का अपमान करते हैं। सारे संसार में इतने बड़े क्षेत्र में फैले हुए भगवान को आप कपड़ा कैसे पहनाएँगे? नहीं साहब! हम भगवान को खाना खिलाएँगे, भोग लगाएँगे। खबरदार! अगर आपने बेकार की बातें की तो? अरे साहब! हम भगवान पर चंदन चढ़ाएँगे, फूल चढ़ाएँगे। कहाँ पर फूल चढ़ाएँगे, जगह तो बताइए? कितना बड़ा भगवान है, आप कहाँ पर चंदन चढ़ाते फिरेंगे? आप ये हिमाकत मत कीजिए।
(क्रमश:)
(गतांक से आगे)
[अपनी अमृतवाणी के इस प्रसंग में विगत अंक में पूज्यवर ने कहा कि कर्मों का सिद्धांत अटल है। द्रौपदी की पुकार पर उसका खाता खोलकर देखा गया तो शुभकर्म मिला। उसी के बदले वासुदेव ने उसकी मदद की। भगवान के यहाँ जमा पुण्य के ब्याज की दर बहुत अधिक होती है। इसी प्रसंग में आगे उनने 'भज् सेवायाम्' के माध्यम से भजन की सच्ची व्याख्या सेवा के रूप में की। भगवान चाहते हैं कि सृष्टि का युवराज—उनका बड़ा बेटा मनुष्य इस वसुधा को और सुंदर बनाए। एक राजा के दो माली की घटना से भी उनने यह समझाने का प्रयास किया कि हम सही अर्थों में अध्यात्म के मर्म को समझें एवं परमार्थ को सच्चा स्वार्थ मानें। अपने गुरुदेव का उदाहरण देते हुए परमपूज्य गुरुदेव बताते हैं कि हम उनका काम करते हैं, इसीलिए वे हमारी मदद करते हैं। भगवान की भक्त से एक ही शर्त है, आप भगवान के काम आएँ, उनकी सेवा करें, पूजा आदि का कर्मकांड नहीं। हर व्यक्ति में छिपे भगवान को पहचानकर उसकी सेवा-सहायता करें। यही सच्ची सेवा है, परमार्थ है। आगे देखते हैं, वे क्या कहते हैं—]
भगवान को हमने गढ़ा है
मित्रो! भगवान इनसान नहीं है, फिर आप समझ लीजिए। भगवान एक शक्ति का नाम है। इस शक्ति को हमने अपनी जरूरत के मुताबिक अपने ध्यान की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए व्यक्ति के रूप में गढ़ लिया है। अगर मेंढ़क भगवान को बनाएगा तो मेंढक के तरीके से बनाएगा और मेंढक भगवान के भक्त होंगे। आपको मालूम है कि नहीं, अगर कभी भगवान ने मेंढ़कों की बिरादरी में जन्म लिया होगा तो वे मेंढ़क की शक्ल बनाएँगे। अगर कहीं हिरनों की दुनिया हुई और हिरनों ने भक्ति का सिद्धांत सीख लिया तो आप यकीन रखिए कि भगवान हिरन के रूप में आएँगे, इनसान के रूप में नहीं आएँगे। अगर मच्छरों की दुनिया कहीं हुई और मच्छरों की दुनिया में भगवान की भक्ति का विस्तार कहीं फैल गया तब? भगवान क्या इनसान के रूप में आएँगे? नहीं, इनसान के रूप में नहीं, मच्छर के रूप में आएँगे, क्योंकि यह जीव, यह प्राणी जिस स्तर का है, उसी स्तर का भगवान गढ़ लेता है। गढ़ लेता है? अरे बाबा! सुनता है कि नहीं, गढ़ लेता है। हमने भगवान गढ़ा हुआ है। किसका गढ़ा हुआ है? अपने ध्यान की, धारणा की, भावना की परिपुष्टि के लिए हमने भगवान को गढ़ा है। तो क्या भगवान की शक्ल नहीं है? नहीं, भगवान की शक्ल नहीं हो सकती।
साथियो! जिसकी कोई शक्ल नहीं हो सकती, उसको आप क्या चीज खिलाएँगे? अरे साहब! हम तो चंदन चढ़ाएँगे, अक्षत चढ़ाएँगे..........। क्या चढ़ाएँगे और कहाँ चढ़ाएँगे? चंदन चढ़ाने से, अक्षत चढ़ाने से, चीज खिलाने से, उसकी प्रशंसा करने से क्या वह प्रसन्न हो जाएगा? बेटे! ये चीजें बच्चों को शोभा देती हैं। नहीं साहब! हम आपकी प्रशंसा करेंगे। प्रशंसा वाली बात से मुझे एक कहानी याद आ गई—
यह झूठी प्रशंसा : तरह-तरह के कर्मकांड
उष्ट्राणाम् विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्धभाः।
परस्परं प्रशंसन्ति अहो रूपं अहो ध्वनिः॥
गधा और ऊँट, दोनों के ब्याह हुए। दोनों एकदूसरे के ब्याह में गए। ऊँट के ब्याह में गधा गया। उसने कहा—"अहो रूपम् !" अर्थात रूप तो आपका ही है। आपके बराबर सुंदर रूप तो और किसी का है ही नहीं। किसके रूप की बात हो रही है? ऊँट के। आपकी शक्ल भगवान ने जैसी बनाई है, सो आप ही आप हैं। जब ऊँट गधे के ब्याह में गया तो उसने कहा—"अहो ध्वनिः !" अर्थात आपकी जैसी ध्वनि तो बस एक कोयल की है और एक आपकी। किसकी? गधे की। आपस की यह प्रशंसा किसकी है? आपकी। आप कहते हैं भगवान जी! आप ऐसे हैं और आप भगत जी, बहुत अच्छे हैं। भगत जी आप तो आप ही हैं। उनने कहा कि भगवान जी! आप तो आप ही हैं। प्रशंसा के सहारे पर, जीभ की नोंक के सहारे पर, मंत्रों के सहारे पर, अक्षरों के उच्चारण के सहारे पर आप भगवान से सब कुछ पा लेना चाहते हैं।
कीमत चुकाएँ, योग व तप द्वारा
मित्रो! आपके लिए ये सहारा नहीं हैं। बेशकीमती चीजें पाने के लिए आदमी को उनकी कीमतें चुकानी चाहिए। भक्ति के चमत्कार कभी आपने सुने हैं? आपने भक्ति के चमत्कार देखे हैं? न तो आपने देखे हैं और न आपने सुने हैं। आपने तो सिर्फ कहानियाँ सुनी हैं। भक्ति के चमत्कार और भक्ति के सिद्धांत सुने हों तो आपको ध्यान रखना पड़ेगा कि भक्त के जीवन में भक्ति जीवन का अंग होती है। भक्ति पूजा तक सीमित नहीं रहती, वह जीवन का अंग होती है। भक्ति जीवन का अंग कैसे हो सकती है, कल मैं यह बता रहा था। व्यक्तित्व का संशोधन करने के लिए उसे दो काम करने पड़ते हैं। इसमें उसको चौबीसों घंटे अपने आप अपनी धुलाई और धुनाई करनी पड़ती है। अपनी गंदगी को दूर करने के लिए अपने ऊपर डंडा लेकर वह इस कदर हावी हो जाता है। अपनी अवांछनीयता और अनैतिकता को दूर करने के लिए आदमी को इतना जागरूक और इतना सतर्क, इतना सशक्त रहना पड़ता है। तपश्चर्या इसी का नाम है। भगवान को पाने के एक तरीके का नाम है तप और दूसरा है योग। तप किसे कहते हैं? जीवन के संशोधन का नाम है तप, जो कल मैं आपको बता चुका हूँ।
घुला देना अर्थात योग
साथियो! कल मैं क्या कर रहा था? तप की व्याख्या कर रहा था। आज आप क्या कर रहे हैं? आज मैं योग की व्याख्या कर रहा हूँ, क्योंकि भगवान को पाने के सिर्फ दो ही तरीके हैं। तीसरा तरीका आज तक न हुआ है और न कभी हो सकता है। योग क्या होता है? बेटे! घुला देना, मिला देने का नाम योग है। जब हम किसी के साथ किसी को घुला देते हैं तो योग हो जाता है। जब स्त्री अपने आप को पति के साथ में घुला देती है तो पति की दौलत की स्वामिनी हो जाती है। मर्द के खानदान की स्वामिनी हो जाती है। जब वह अपने आप को घुला देती है तो पति की संपदा पर अधिकार जमा लेती है। बूँद जब अपने आप को समुद्र में घुला देती है तो समूचे सागर पर हावी हो जाती है। नाला अपने आप को नदी में घुला देता है तो नदी हो जाता है। जब आप भगवान में अपने आप को घुला देते हैं तो आप भगवान हो जाते हैं; देवता हो जाते हैं; ऋषि हो जाते हैं; महापुरुष हो जाते हैं; सिद्ध पुरुष हो जाते हैं; चमत्कारी हो जाते हैं। शर्त यही है कि आप अपने आप को घुला दें। घुला देने का तरीका क्या है? योग है। योग किसे कहते हैं? बेटे! घुला देने को योग कहते हैं। घुला देना किसे कहते हैं? घुला देना यह है कि आदमी अपनी हस्ती को भगवान के सुपुर्द कर देता है। सुपुर्द कर देने का मतलब वह नहीं है, जो आप बार-बार कहते रहते हैं। आपको एक दिन हमने यह कहते हुए सुना था "सौंप दिया सब भार, भगवान तुम्हारे हाथों में।" अरे जालिम! अपनी जीभ बंद कर। क्या कह रहा है? इसका क्या अर्थ है? यह भी तुझे मालूम है कि नहीं। नहीं महाराज जी! भगवान को क्या अर्थ मालूम? जो हम कह देंगे, सोई समझ जाएगा। नहीं बेटे! भगवान बहुत अक्लमंद आदमी का नाम है। जो आप जीभ से कहते हैं, उसको वह नहीं समझता। जो आप दिल से कहते हैं, जो आपका ईमान कहता है, वह उसे समझता है। आपके जबान की कीमत क्या है? दो कौड़ी है।
सारे दिन झूठ
नेता जी वोट माँगने आते हैं, सारे दिन झूठ बोलते हैं। क्यों साहब! आप तो हमारी पार्टी को वोट देंगे? हाँ, आपकी पार्टी को देंगे। कौन सी पार्टी है आपकी? आपने तो पहले ही कह दिया था कि कांग्रेस को वोट देंगे। अरे साहब! ध्यान नहीं रहा। आप तो वो मालूम पड़ते हैं—जनसंघ वाले, पर वो तो खतम हो गया। तो अब कौन से हैं? जनता पार्टी वाले हैं। ठीक है तो हम भी जनता पार्टी में हैं। आप भी जनता और हम भी जनता। हाँ, ठीक बात है। अब कौन से आ गए? किसको वोट देंगे? आपकी पार्टी को देंगे। आपकी पार्टी कौन सी है? जो भी आपकी पार्टी है, उसी को दे देंगे। नहीं साहब! आप बताइए तो सही कि आपकी कौन सी पार्टी है? भाई! हम तो हैं हलधर—किसान पार्टी के। ठीक है, आप भी हल चलाते हैं, हम भी हल चलाते हैं। आपको ही वोट देंगे। इसके बाद कौन आ गए? गाय-बछड़े वाले। अरे भाई! किसको वोट देंगे? जो आपकी पार्टी है, उसी को वोट देंगे। गाय का दूध हमारा बच्चा पीएगा और बैलों को हम खेत में चलाएँगे। आपकी और हमारी पार्टी एक है। हम आपको ही वोट देंगे। सारे दिन नेताओं की तरह से आप झूठ का इस्तेमाल करते रहते हैं।
जीभ से भगवान को न बहकाएँ
मित्रो! इसी तरह आप भगवान के लिए भी झूठ का इस्तेमाल करते हैं और कहते हैं कि हे भगवान! हम आपकी शरण में आ गए हैं, आपके चरणों में आ गए हैं। अरे बेहूदे, बेकार की बातें मत बक, कोई सुन लेगा। भगवान को मत बहका कि हम आपकी शरण में आ गए हैं, हम आपके भक्त हैं, हम आपके सेवक हैं। अपनी जीभ को काबू में रख और यह जान ले कि हम क्या कर रहे हैं और क्या कह रहे हैं। इसका क्या अर्थ होता है, यह भी मालूम है तुझे? यह जो तू कह रहा है, इसको कार्यान्वित कैसे किया जाएगा, यह भी तुझे मालूम है? नहीं साहब! हमें क्या मालूम है। हमने तो जीभ से कह दिया। एक पंडित जी ने बता दिया था कि यह-यह कहते रहना, सोई भगवान समझ जाएगा और हम जीभ से भगवान को बहका लेंगे। जीभ से भगवान को मत बहकाइए।
भक्तों का इतिहास
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको भगवान का प्यार पाने के लिए, भगवान का अनुग्रह पाने के लिए, भगवान की सहायता पाने के लिए, भगवान की कृपा पाने के लिए। आपको एक काम करना चाहिए और वह है—आप भगवान की इच्छा पूरी कीजिए। क्या इच्छा पूरी करें? लोक-मंगल के लिए। लोक-मंगल के लिए, लोकहित के लिए, जनकल्याण के लिए प्राचीनकाल के भक्तों का इतिहास देखिए कि प्रत्येक भक्त के जीवन में परमार्थपरायणता जुड़ी हुई है। आपको तो मालूम नहीं है। आप तो यह समझ बैठे हैं कि भक्त उसे कहते हैं, जो कोठरी में जा बैठता है। न जाने आपको किसने बहका दिया है। चलिए हम आपको भक्तों का इतिहास बताते हैं। विवेकानंद का इतिहास देखिए। दो घंटे ध्यान करते थे और सारी जिंदगी उनने लोक-मंगल में लगा दी। भगवान बुद्ध का इतिहास देखिए। सारी जिंदगी में उनने क्या-क्या किया? शंकराचार्य के इतिहास को देखिए कि उनने जिंदगी भर क्या किया? ऋषियों में से प्रत्येक का इतिहास देखिए। नागार्जुन का इतिहास देखिए। चाणक्य का इतिहास सुनाइए, चरक का इतिहास सुनाइए। वाग्भट्ट का इतिहास, व्यास का इतिहास सुनाइए। ऋषियों में से हरेक का इतिहास सुनाइए। थोड़े समय तक वे राम-नाम लेते रहे होंगे, यह तो मैं नहीं कहता कि उनने राम का नाम नहीं लिया और गीता, रामायण उनने नहीं पढ़ी। अपना संशोधन करने के लिए जरूर पढ़ी होगी, लेकिन बाकी समय में भगवान का काम किया है। लोकहित के काम किए हैं, परमार्थ के काम किए हैं, जनकल्याण के काम किए हैं। आपके सामने तो जहाँ जनकल्याण के काम आते हैं, परमार्थ के काम आते हैं, वहाँ आप अँगूठा दिखाते हैं और यह कहते हैं कि भक्ति हमारे भीतर आ गई।
भगवान दो रूपों में आते हैं
बेटे! भक्ति जब आती है तो करुणा लेकर आती है। जब वह करुणा लेकर आती है तो आदमी दूसरों की सहायता किए बिना, सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन में योगदान दिए बिना रह नहीं सकता। आदमी के भीतर जब करुणा आएगी तो वह बिखरती चली जाएगी। भगवान जब मनुष्य के अंतराल में आते हैं तो संग्रही, विलासी के रूप में नहीं आते। वासना के रूप में नहीं आते। कैसे आते हैं भगवान? अरे साहब! भगवान रात को आते हैं और सपने में आते हैं, वंशी बजाते आते हैं, घोड़े पर सवार होकर आते हैं, बैल पर सवार होकर आते हैं। बेकार की, पागलपन की बातें करना बंद कीजिए। भगवान इस तरह से नहीं आते, आप समझते क्यों नहीं। भगवान किसी के भीतर आते हैं तो दो तरीके से आते हैं—एक तो वे इस माने में आते हैं कि आदमी को आत्मसंशोधन के लिए मजबूर कर देते हैं। अपनी समीक्षा करने के लिए, अपने दोष और दुर्गुणों को देखने के लिए, अपने आप को बेहतरीन बनाने के लिए, भगवान जब आते हैं तो बाध्य कर देते हैं और निरंतर यह कहते रहते हैं कि अपने आप को धो, अपने आप को साफ कर, अपने आप को उज्ज्वल बना, ताकि मैं तुझे गोदी में लेने में समर्थ हो सकूँ। चलिए, हम एक उदाहरण देकर आपको समझाते हैं। एक बच्चे ने कहा—"मम्मी! हमको गोदी में ले लीजिए।" मम्मी ने कहा—"बेटे! जरा-सा ठहरना पड़ेगा।""क्यों?""तैने टट्टी कर ली है और देख तूने उसमें हाथ खराब कर लिया है और कपड़ा खराब कर लिया है।""नहीं मम्मी! गोदी में ले लो।""नहीं बेटे! जरा तुझे ठहरना ही पड़ेगा।" "हमको कब तक ठहरना पड़ेगा मम्मी?" "जब तक कि आपके कपड़े नहीं धोए जाएँगे, जब तक कि आपका शरीर नहीं धोया जाएगा। जब तक धो नहीं लेंगे, तब तक हम गोदी में नहीं ले सकते।" "नहीं मम्मी! गोदी में उठा लीजिए। आप तो मम्मी हैं।" "हाँ बेटे! मम्मी हैं, पर अभी गोदी में नहीं लेंगे।"
भजन : जीवन की एक पद्धति
बच्चे हमको प्राणों से भी अधिक प्यारे लगते हैं, पर आप गोदी में चढ़ने के हकदार उससे पहले नहीं हो सकते। कब तक? जब तक कि आपने अपने आप को धोया नहीं। आप क्यों नहीं समझते इस मोटी-सी बात को? आपने इतनी मोटी बात को समझने से इनकार क्यों कर दिया? नहीं साहब! भगवान गोदी में ले लेगा। किस कीमत पर भगवान गोदी में ले लेगा, जरा बताना तो सही? भजन की कीमत पर ले लेगा। क्या होता है भजन? बकवास को भजन कहते हैं? अक्षरों के उच्चारण को भजन कहते हैं? अक्षरों के उच्चारण को भजन किसने कहा था? भजन में अक्षरों का उच्चारण भी शामिल है, लेकिन अक्षरों के उच्चारण तक भजन को हम सीमाबद्ध नहीं कर सकते। भजन जीवन की एक पद्धति है, आध्यात्मिक जीवन की एक शैली है, जीवनयापन करने का एक विधान है। इसमें दो बातें अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई हैं—एक, आदमी के व्यक्तिगत जीवन का संशोधन अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है और दूसरा लोकहित जुड़ा हुआ है। प्राचीनकाल के प्रत्येक ऋषि का उदाहरण आप सुन लीजिए। भगीरथ से लेकर एक भी आदमी आप बताइए, जिसने कि लोकहित के लिए, परमार्थ प्रयोजनों के लिए आपके तरीके से अँगूठा दिखा दिया हो। जहाँ उनने ये बहाने बनाए हों कि हमें परमार्थ के लिए टाइम नहीं है। परमार्थ के लिए हमें फुरसत नहीं है। हम व्यस्त रहते हैं, हमको आर्थिक तंगी है, हमारा दिमाग खाली नहीं है। हमारा मन नहीं लगा। आप हमेशा निन्यानवे बहाने बनाते रहते हैं। जहाँ भगवान की अपेक्षा है, जहाँ भगवान आपसे माँगता है, वहाँ आप अँगूठा दिखाते रहते हैं। भक्त ऐसे होते हैं? नहीं, भक्त ऐसे नहीं होते।
बगदाद की जमीला
मित्रो! भक्त वजनदार होते हैं, भारी-भरकम होते हैं। भक्त दयालु होते हैं और भगवान की दुनिया का ख्याल रखते हैं। किस तरह का ध्यान रखते हैं? बेटे ! इस संदर्भ में मैं आपको द्रौपदी के तरीके से एक और घटना सुनाना चाहता हूँ। घटना बगदाद की है। एक बार बगदाद की जमीला ने अपनी सारी जिंदगी भर की कमाई के पैसे जमा करके रखे थे कि हम भी काबा जाएँगे। मुसलमान धर्म में यह बात लिखी हुई है कि आदमी को कोशिश करनी चाहिए कि एक बार वह हज करने के लिए काबा जरूर जाए। जमीला ने कुरआन में पढ़ रखा था, इसलिए उसने अपने पैसे बचाकर रखे थे कि जब-कभी मौका आएगा तो मैं भी वहाँ जाऊँगी और एक बार हज करूँगी। पैसे थे, तैयारी भी हो गई थी, लेकिन उस साल क्या हो गया? उस साल सब जगह बड़े जोर का अकाल पड़ गया। मनुष्य भूखे मरने लगे, बच्चे भूखे मरने लगे। पैसे-पैसे के लिए त्राहि-त्राहि होने लगी। सब तड़पने लगे। दवा का कहीं इंतजाम नहीं, बच्चों के लिए दूध का कहीं इंतजाम नहीं रहा। काबा-हज जाने के लिए जमीला ने जो पैसा बचा रखा था, वह सब उस काम में लगा दिया। उसने कहा कि इन बच्चों को जिंदा रहना चाहिए। बच्चों की जिंदगी की हिफाजत करने के लिए हमारा पैसा खरच कर दिया जाना चाहिए। उनने वह सारा-का-सारा पैसा, जो हजयात्रा के लिए बचाकर रखा था, खरच कर डाला। लोगों ने पूछा—"अब आप हजयात्रा पर कैसे जाएँगी?" उसने कहा—"अब हम कैसे जा सकते हैं। हज के लिए किराया फिर कहाँ से लाएँगे? अब हमारे लिए हज जाना मुश्किल है।" यह कौन कह रहा है? बगदाद की जमीला कह रही है।
हज कबूल हुआ
खुदाबंद करीम के यहाँ मीटिंग बैठी। हर साल खुदाबंद करीम काबा जाने वालों में से कुछ आदमियों की हजयात्रा कबूल करते थे। बाकी की नाकबूल कर देते थे। जितने लोग हज करने जाते थे, सबकी यात्रा कबूल नहीं होती थी। आप भी ध्यान रखना। भगवान आप में से हरेक की तीर्थयात्रा कबूल नहीं करता। आपने कर दी, आपकी मरजी। आपने अरजी लगा दी, अब कबूल करना, न करना उसकी मरजी है कि किसकी कबूल होगी और किसकी नहीं होगी। कबूल होना अलग बात है और करना बात अलग है। दोनों बातें एक नहीं हो सकतीं। आपने कर दी और वह कबूल हो जाएगी, ऐसा नहीं हो सकता। अरजियाँ कितनी जाती हैं। उनमें से सलेक्शन किस-किस का होता है। हर एक का सलेक्शन नहीं हो सकता। इसलिए क्या हुआ? खुदाबंद करीम के यहाँ जब मीटिंग बैठी तो उसमें यह पता लगाया गया कि इस बार किस-किस की यात्रा कबूल हुई। फरिश्ते बैठे हुए थे। उनने बताया कि खुदाबंद करीम ने आज की मीटिंग में इस साल में केवल एक आदमी की हजयात्रा कबूल की और बाकी की नाकबूल कर दी। किसकी कबूल की? उसका नाम था जमीला।
इस पर बाकी फरिश्तों ने आपत्ति की। जिब्रायल कहने लगा—"हुजूर! जमीला को हमने नहीं देखा। हम तो काबा के दरवाजे पर चौकीदारी करते थे और हमारे पास सारे-के-सारे लोगों के नाम नोट हैं, लेकिन जमीला का तो कहीं नाम भी नहीं है। आपने जमीला की हजयात्रा कैसे कबूल कर ली, वह तो गई भी नहीं।" खुदाबंद करीम ने कहा—"हमारी निगाह में जो हज है, वह ईमान के द्वारा होना चाहिए, पैरों के द्वारा नहीं। पैरों के द्वारा तो पोस्टमैन भी घूमते रहते हैं। पैरों के द्वारा दूसरे लोग भी घूम सकते हैं। ग्वाले सारे दिन घूमते रहते हैं। भिखारी भी घूमते रहते हैं। घूमने से क्या हो सकता है ! घूमने से कुछ नहीं होता। हमने कबूल कर लिया। किसका हज कबूल कर लिया? जमीला का।।
आत्मशोधन का महत्त्व समझें
साथियो! मैं क्या कह रहा था? यह कह रहा था कि अगर आप अपने जीवन में भजन का मूल्य समझते हों, भगवान का मूल्य समझते हों और यह समझते हों कि इसका हमारे जीवन से ताल्लुक है और भजन को हमारे जीवन में प्रवेश करना चाहिए तो फिर मैं आपसे बार-बार यह प्रार्थना करूँगा कि जीवन का चौथा वाला चरण, जो प्रत्यक्षतः भगवान से संबंध रखता है, उसका सदुपयोग कीजिए। उससे कम कीमत पर भगवान प्रसन्न नहीं होते और भगवान को इससे ज्यादा कीमत चुकाने की किसी से अपेक्षा नहीं है। आप ज्यादा कीमत क्यों चुकाएँगे? आपने तो एक गलती कर डाली है। आपने भजन का एक हिस्सा पकड़ लिया है। ईश्वरप्राप्ति के एक हिस्से में वह भी एक हिस्सा है। आपने सबसे सरल वाला वह प्वाइंट पकड़ लिया है, जिसमें 'हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए।' आपने रंग चोखा वाला भजन पकड़ लिया है। भजन के अलावा और कुछ नहीं है क्या? जीवन का संशोधन और आत्मसंशोधन कुछ नहीं है क्या? अपने आप का सुधार कुछ नहीं है क्या? स्वाध्याय की, संयम की क्या जरूरत हो सकती है? अरे साहब! बड़ी मुश्किल आ जाएगी। हम अपने मन के ऊपर, विचारों के ऊपर कैसे नियंत्रण कर पाएँगे, कैसे संयम कर पाएँगे? यह तो बहुत कठिन है। तो क्या करेंगे? बस, वही सबसे सरल वाला हिस्सा पकड़ लिया है। यह भूल गए कि उपासना चार चरणों वाली होती है। उपासना का संवर्द्धन करने के लिए, उपासना को परिपक्व करने के लिए, उपासना को मजबूत बनाने के लिए, उपासना को सामर्थ्यवान, सिद्ध और चमत्कारी बनाने के लिए इन चार चीजों की जरूरत होती है। यह मैं कल आपको बता चुका हूँ। अब मैं आपकी समझदारी के लिए क्या कहूँ!
आप भी उस जाट की तरह हैं
मित्रो! आपकी समझदारी तो मुझे ऐसी मालूम पड़ती है कि जैसे राजस्थान का एक जाट था। उसकी समझदारी जैसी है आपकी समझदारी। क्या समझदारी थी उसकी? राजस्थान का एक जाट मेले में गया। वहाँ बहुत तेज धूप पड़ रही थी। राजस्थान में धूप बहुत पड़ती है। कहीं कोई छाया भी नहीं थी, कहीं पेड़ भी नहीं थे। रेगिस्तान था, जहाँ मेला लग रहा था। उसने आवाज लगाई और लोगों से कहा कि हमारे पास एक खाट बिकाऊ है। खाट माने चारपाई। लोगों ने सोचा कि गरम रेत में, जहाँ पैर जलते हैं, यदि चारपाई मिल जाए तो रात को उस पर सो जाएँगे और दिन में उसको खड़ा करके उसकी छाया में बैठे रहेंगे। जाट ने आवाज लगानी शुरू कर दी कि हमारे पास चारपाई बिकाऊ है। लोगों ने कहा कि कहाँ है चारपाई और उसका कितना दाम है? दाम भी बहुत कम बता दिया। कह दिया कि दो रुपये की चारपाई है। दो रुपये की चारपाई है, दो रुपये की चारपाई है तो हम फौरन ले लेंगे। वह चिल्लाता रहा कि चारपाई बिकाऊ है..........। लोगों ने कहा कि दीजिए न हमको। दो रुपये हम आपको दे रहे हैं, लीजिए दो रुपये। अच्छा तो आप ऐसा कीजिए कि जो-जो खरीददार हैं, वहाँ उस पेड़ के पास चलिए, वहीं पर हम आपको चारपाई देंगे। उसमें जो कमी है, वह आप देख लेना, फिर चारपाई खरीद लेना। बहुत सारे लोग आ गए। अच्छा, आप सब बैठ जाइए। अब हम चारपाई के गुण-दोष बताते हैं, फिर आप लेना। दो रुपये में कहीं चारपाई नहीं मिलती। इसमें कुछ कमी है, इसलिए सस्ते में दे रहे हैं। पहले आप सुन लीजिए, फिर लेना हो तो लेना, नहीं तो मत लेना। शांतिपूर्वक सब बैठ गए। उसने कहा कि चारपाई में थोड़ी कमी है, तीन पाये नहीं हैं। इसमें दो पाटी नहीं हैं। दो सेरे नहीं हैं। और कुछ कमी है? हाँ, थोड़ी कमी और रह गई है इसमें। बीच का झाबड़-झोल नहीं है। (बीच में जो रस्सी बुनी जाती है, उसे देहात में झाबड़-झोल कहते हैं)। दो सेरे नहीं हैं, तीन पाये नहीं हैं, दो पाटी नहीं हैं, बीच का झाबड़-झोल नहीं है, फिर क्या है इसमें? उसने थैले में से एक पाया निकालकर दिखा दिया और कहा कि इसे ले जाइए। लोगों ने कहा—धत तेरे की, इसका हम क्या करेंगे।
आप केवल माला का आसरा लिए बैठे हैं
मित्रो! यह किसकी कहानी है? आपकी कहानी है। आप कौन हैं? आप तो बेअकल जाट हैं, जो एक पाये की चारपाई लिए फिरते हैं। चारपाई माने माला। केवल माला लिए बैठे हैं। आप लोगों की जिंदगी का अधिकांश भाग माला के सुपुर्द हो गया। बेटे! माला के ऊपर मैं निछावर हूँ, माला जपते-जपते मेरी उँगलियाँ घिस गईं। अभी भी इस बुढ़ापे में चार घंटे बैठ जाते हैं। एक बजे रात्रि में अपनी माला लेकर चुपके से बैठ जाते हैं और चार बजे तक, जब आपको अपनी सबसे प्यारी चीज नींद पसंद आती है, हमको नींद से भी बेहतर माला लगती है। माला को हम छाती से लगाते हैं। माला की हम इज्जत करते हैं। माला हमारे रोम-रोम में बसी है। हम माला को गाली देंगे? हम कोई नास्तिक हैं? हम कम्युनिस्ट हैं? हम कौन हैं?
माला के साथ सेवा
हम तो आपको इस बात का एहसास करा देना चाहते हैं कि माला चाहे जैसी चमत्कारी क्यों न हो, यह उस वक्त तक किसी का काम नहीं करेगी और न ही आज तक किसी का काम किया है, जब तक कि आप उसमें दूसरी चीजों की सहायता पैदा न कर दें। माला के साथ आपके जीवन में सेवा के लिए भी स्थान रहना चाहिए। आपको अपने समय का एक हिस्सा भगवान के लिए भी लगाना चाहिए। आप अपने समय का एक हिस्सा अपने लिए लगाएँ, घर वालों के लिए लगाएँ। सात घंटे सोया करें। आठ घंटे रोटी कमा करके अपने बाल-बच्चों का पेट भरा करें। सात और आठ घंटे मिलाकर पंद्रह घंटे हो गए। पाँच घंटे आप निजी कामों के लिए रखें अर्थात नहाने-धोने, खाने-पीने आदि के लिए फिर भी आप चौबीस घंटों में चार घंटे भगवान के लिए लगा सकते हैं।
(क्रमश:-समापन अगले अंक में)
(समापन किस्त)
[अपनी अमृतवाणी में प्रारंभ में पूज्यवर ने कर्मों के सिद्धांत की चर्चा की। भगवान यही चाहता है कि हम उसके काम आएँ। सच्ची सेवा, परमार्थ में ही सबका सही माने में स्वार्थ छिपा है। विगत अंक में उनने कहा कि हम भगवान की तारीफ करते हैं, झूठी प्रशंसा करते हैं, भाँति-भाँति के रूप गढ़ते हैं, पर उसके मर्म को, उसको तत्त्व से नहीं पहचानते। जीभ की नोंक के सहारे आप भगवान से सब कुछ पा नहीं सकते। भगवान को पाने के दो ही तरीके हैं—तप और योग। हम स्वयं को भगवान में घुला दें। भक्ति जब भी आती है, करुणा लेकर आती है। वह न जागी और हम माला लिए बैठे रहे तो किस काम की यह पूजा! अब आगे पढ़ें—]
भगवान की दावत
मित्रो! खासतौर से परमार्थ या लोक-मंगल क्या हो सकता है? सबसे बेहतरीन तो यही है कि अब भगवान ने आपको अपने व्यक्तिगत कामों में शरीक होने के लिए दावत दी है। और कभी मिलेगा ऐसा अवसर? कभी नहीं मिल सकेगा। एक समय था, जब भगवान ने ग्वाल-बालों को दावत दी थी। क्या कहा था? आप हमारे निजी कामों में शरीक हो सकते हैं और जो काम हम कर सकते हैं, उसमें भी आप सहायक बन करके अपना दरजा हमारे बराबर बना सकते हैं। ग्वाल-बालों ने गोवर्धन उठाने में अपनी लाठी लगा दी और अपना दरजा भगवान कृष्ण के बराबर बना लिया। इसी तरह जब भगवान राम थे, तब उनने अपने व्यक्तिगत कामों में दखल देने के लिए रीछ-वानरों से कहा था कि आप हमारी मदद कीजिए। रीछ-वानरों, नल-नील ने पुल बनाया। हनुमान जी ने बहुत से काम किए। गिलहरी ने एक काम किया, गिद्ध ने दूसरा काम किया और उनके व्यक्तिगत कामों में सहायता देने वाले धन्य हो गए, निहाल हो गए। गांधी जी के कामों में सहायता देने वाले धन्य हो गए।
साथियो! यह समय भी एक बेहतरीन समय है। भगवान का अवतार होने वाला है। जिसको हम प्रज्ञावतार कहते हैं, उसका अवतार होने वाला है। क्यों साहब! अवतार होने वाला है? हाँ बेटे! अवतार होने वाला है, आप निश्चिंत रहिए। आज वे परिस्थितियाँ आ गई हैं, जिनके लिए भगवान ने आश्वासन दिया था कि असंतुलन को दूर करने के लिए संतुलन लाएँगे। आज मनुष्यता चौराहे पर खड़ी हुई है। आदमी विनाश के रास्ते पर जाने ही वाला है। अब देर नहीं लगेगी, बस, एक धक्के की जरूरत है। एक धक्का लगा नहीं कि सारी इनसानियत खतम हो जाएगी और यहाँ रहने वाला कोई नहीं होगा। आज इनसानियत सामूहिक आत्महत्या करने पर उतारू हो गई है। आप परिस्थितियों को समझते नहीं हैं, लेकिन हम समझते हैं कि आज का इनसान कहाँ जा पहुँचा है और जरा सी मुसीबत आने के बाद में इसका क्या हो सकता है? एक रास्ता वह है, जिसमें आदमी के उत्थान की गुंजाइश है। इसमें आदमी का स्वरूप बदल सकता है, भविष्य बदल सकता है। हम ठीक चौराहे पर खड़े हुए हैं और भगवान से कह रहे हैं—सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ आज इनसानियत का रथ दो चौराहों के बीच खड़ा हुआ है।
भगवान के साथ काम करने का समय
मित्रो! आप ऐसे शानदार समय में पैदा हुए हैं कि आप चाहें तो ऐसे शानदार समय में भगवान के साथ में, भगवान के साथियों में, भगवान का हाथ बँटाने वालों में, भगवान के पार्षदों में अपना नाम लिखा सकते हैं। पार्षद कौन हैं? नए युग का निर्माण करने के लिए जो पुकार हुई है, समय की पुकार हुई है, उसको सुनने वाली, उसमें शरीक होने वाली जाग्रत आत्माएँ-पुण्यात्माएँ ही पार्षद हैं। आपको मालूम है कि जब सूरज निकलता है तो सबसे पहले पहाड़ों की चोटियों पर निकलता है। नीचे बाद में आता है, पहले चोटियों पर दिखाई पड़ता है। भगवान की पुकार, युग की पुकार सबसे पहले उन लोगों पर आई है, जिनकी जीवात्मा जाग्रत है। जो आदमी सो रहे हैं, उनसे क्या कहना है ! जो मरे हुए हैं, उनसे क्या कहना है ! आज का जो समय है, आज का जो युग है, वह आपत्तिकाल का समय है। इस आपत्तिकाल में अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को, अपने लोभ को आप चाहें तो सुधार सकते हैं। नहीं चाहें तो फिर मरें उसी में। सभी तो मर रहे हैं, फिर आप कहाँ अलग हो सकते हैं ! कोई औलाद के लिए मर रहा है, कोई पेट के लिए मर रहा है। मक्खी-मच्छरों से लेकर कीड़े-मकोड़े तक पेट के लिए मर रहे हैं। इसमें इनसान भी शामिल है। आज सबके सामने दो ही मुख्य काम हैं—एक पेट भरना चाहिए और दूसरे औलाद पैदा होनी चाहिए। लोभ और मोह के अलावा कोई दूसरा मकसद ही नहीं है। नहीं साहब! भजन का है। भजन किस बात का है? कुछ भी नहीं है। हमें तो कुछ भी नहीं मालूम पड़ता है। आपने अगर भजन किया होता तो आपके भीतर से कोई हेर-फेर न होता क्या? शराब पीने वाले की जिंदगी में हेर-फेर दिखाई पड़ता है। बुखार आने वाले की जिंदगी में हेर-फेर दिखाई पड़ता है। इसी तरह भगवान के भक्त की जिंदगी में हेर-फेर दिखाई पड़ेगा। उसके चिंतन में परिवर्तन आएगा। आप भजन करते हैं तो आपके विचारों में परिवर्तन आना चाहिए, खासतौर से इस जमाने में, जब प्रज्ञा का अवतार होने वाला है।
गायत्री : ऋतंभरा प्रज्ञा
साथियो! गायत्री को मैं ऋतंभरा प्रज्ञा कहता हूँ, वेदमाता कहता हूँ, देवमाता कहता हूँ, विश्वमाता कहता हूँ। आप जाने क्या कहते हैं? आपकी परिभाषा तो मेरी समझ में नहीं आती। आप तो इसे घर में भूत-पलीद आ जाए तो उसे भगाने का मंत्र कहते हैं, भैंस का दूध बढ़ाने का मंत्र कहते हैं। और किसका मंत्र कहते हैं? बेटियों के बाद बेटा पैदा करने वाला मंत्र कहते हैं। घर के अंदर जमीन में जो रुपया दबा पड़ा है, उसका पता लगाने वाला मंत्र कहते हैं। गायत्री को और किसका मंत्र कहते हैं? नौकरी में तरक्की कराने का मंत्र कहते हैं। भगवान करे, आपका मंत्र आपको मुबारक हो। आप ही ऐसे मंत्र को जपा करें और आप ही स्वयं मरें। हमारा मंत्र बहुत शानदार है। प्रज्ञावतार, जो भगवान के अवतार के रूप में आज और कल में अवतरित होने वाला है, वह बहुत शानदार है। कैसा शानदार है? यह गायत्री मंत्र, जिसके अंदर ऐसी शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं, जो भावी मनुष्य जाति के लिए आचार-संहिता बन सकती हैं। जो भविष्य के लिए सारे विश्व का संविधान बन सकती हैं। यह गायत्री मंत्र मनुष्य के लिए नीति, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र आदि का सारे का सारा आधार बन सकता है। गायत्री मंत्र ऐसा है, जिसकी संहिताएँ सारी मनुष्य जाति को एक मरकज़ पर अर्थात एक केंद्र पर एकत्र कर सकती हैं। भाषाएँ एक, धर्म एक, संस्कृति एक, राष्ट्र एक अर्थात सारे के सारे विश्व को एकता के सूत्र में बाँध लेने की सारी संभावनाएँ इसमें भरी पड़ी हैं। उन समस्त समस्याओं का समाधान भी इससे हो सकता है, जिनकी वजह से वातावरण विकृत हो गया है और विकृत वातावरण की वजह से प्रकृति कृत्याघात के तरीके से विनाश करने के लिए उतारू हो गई है।
प्रकृति रुष्ट : चिंतन विकृत
मित्रो! आपने देखा नहीं, रोज कैसी-कैसी भयंकर घटनाएँ घटित हो रही हैं, जो पहले इतिहास में कभी सुनने को भी नहीं मिली थीं। जैसे—अभी एक बाढ़ आई थी, जिसमें बाढ़ का पानी एकदम चढ़ गया और हजारों आदमियों को बहाकर और डुबाकर रख गया—कभी आपने सुना है? नहीं साहब! हमने तो नहीं सुना। अभी जो आंध्र में तूफान आया था, आपको मालूम है? नहीं साहब! हमें तो पता ही नहीं है। बेटे! यह विनाशलीला है, जो हर जगह आए दिन होती रहती है। नेचर नाराज हो गई है। और क्या हो रहा है? वातावरण के प्रदूषित होने की वजह से हर आदमी की अक्ल खराब हो गई है। आपने सुना होगा कि कभी दुश्मन देश पर गैस डाल देते हैं तो आदमी पागल हो जाते हैं, बीमार हो जाते हैं। यहाँ नेचर ने गैस डाल दी है। इससे आदमी कायिक दृष्टि से बीमार हो गया है। चाल-चलन की दृष्टि से बीमार हो गया है। आदमी को सिवाय अनैतिक आचरण के दूसरी बात समझ में नहीं आती। चरित्र की बात कहते हैं तो उसे मखौल में उड़ा देता है और सिवाय बीमारों के तरीके से जो काम आदमी को नहीं करने चाहिए, उन्हीं कामों को करने पर उतारू हो गया है। आज आदमी शरीर की दृष्टि से बीमार, कृत्यों की दृष्टि से बीमार, आचरण की दृष्टि से बीमार है। इसी को मैं बीमारी कहता हूँ। बुखार को मैं बीमारी नहीं कहता। मैं तो उसे बीमारी कहता हूँ कि जिसमें आदमी विकृत आचरण करने पर उतारू हो जाता है। आज शरीर से अधिक दिमाग बीमार है। अचिंत्य चिंतन—जिसे सोचने की जरूरत नहीं है, जिस पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है, जिसके ऊपर विचार करने की कतई जरूरत नहीं है। यह अचिंत्य चिंतन क्या है? यह एक दिमागी बीमारी है, दिमाग खराब होने की बीमारी है। नेचर ने वातावरण के दूषित होने की वजह से इनसान के भीतर शारीरिक दृष्टि से एवं मानसिक दृष्टि से जो विकृतियाँ पैदा की हैं, बेटे! उन्हें देखकर मैं हैरान हूँ।
अवतार प्रवाह के रूप में आता है
इसके लिए क्या करना पड़ेगा? वह काम, जो भगवान अपने हाथ से करने वाले हैं, संतुलन बनाने वाले हैं। सृष्टि को ठीक करने वाले हैं। आदमी के चिंतन और चरित्र को फिर से सही रास्ते पर लाने वाले हैं। वे किस तरीके से लाएँगे? व्यक्ति के रूप में अवतरित होकर? नहीं बेटे! भगवान जब कभी अवतार रूप में आते हैं तो व्यक्ति के रूप में नहीं आते। वे हवाओं के रूप में आते हैं, प्रवाह के रूप में आते हैं, आंदोलनों के रूप में आते हैं। रामचंद्र जी जब आए थे, तब? तब वे अकेले नहीं आए थे। निन्यानवे आदमी साथ में आए थे। रामचंद्र जी अवतार थे? हाँ, अवतार थे। अवतार कोई अकेला आता है? कोई अवतार कभी अकेला नहीं आता। निन्यानवे आदमी साथ में आते हैं और उसमें से एक आदमी को श्रेय मिल जाता है। रामचंद्र जी को श्रेय मिल गया, ठीक है। उनको श्रेय मुबारक हो। तो फिर लक्ष्मण जी का कोई योगदान था? हाँ साहब! था तो उनका भी योगदान। और हनुमान जी का? हनुमान जी का भी था। सुग्रीव और जामवंत का? सुग्रीव और जामवंत का भी योगदान था। और विभीषण का? विभीषण का भी था। विभीषण का योगदान नहीं होता तो यह पता ही नहीं चलता कि रावण का मकान कहाँ है, लंका कहाँ है और वहाँ तक जाने का रास्ता कहाँ है? तो क्या रामचंद्र जी ने रावण को मारा था? नहीं, निन्यानवे आदमियों ने मिलकर के रावण को मारा था।
निष्कलंक प्रज्ञावतार
इसलिए मित्रो! इतने बड़े महापरिवर्तन अकेले नहीं हो सकते। क्या श्रीकृष्ण भगवान ने महाभारत किया था? हाँ, किया था, लेकिन अकेले नहीं, वरन निन्यानवे आदमियों ने किया था महाभारत। युग बदलने में एक आदमी काम नहीं करता। सारा समाज करता है, समूह करता है और एक फिजा आती है, हवा आती है और लोगों को विवश कर देती है। गांधी जी ने अंगरेजों को भगा दिया था? हाँ, भगा दिया था। भगाना था तो छह वर्ष की जेल में क्यों चले गए थे? उन्हें बर्मा की जेल में रंगून भेज दिया गया था, तब क्यों नहीं छुड़ा लिया था अपने को? बेटे! ये अकेले नहीं आते, समूह आता है। प्रज्ञावतार जो इस समय आने वाला है, जिसको हम निष्कलंक कहते हैं। निष्कलंक कौन हो सकता है? विवेक। नहीं साहब! निष्कलंक तो इनसान होते हैं। नहीं, कोई इनसान निष्कलंक नहीं हुआ करता। रामचंद्र जी? रामचंद्र निष्कलंक नहीं थे। धोबी ने कहा था कि आपने अपनी बीबी को क्यों रख लिया, निकालिए उन्हें। उन बेचारों ने निकाल दिया। श्रीकृष्ण भगवान निष्कलंक थे? मालूम नहीं है। स्यमंतक मणि की चोरी लग गई थी उन्हें। श्रीकृष्ण भगवान को भी कलंक लगा? हाँ, उनको भी कलंक लग गया था। इनसानों में से सबको कलंक लगा है। फिर निष्कलंक कौन हो सकता है? निष्कलंक एक ही हो सकता है और उसका एक ही नाम है—विवेक। ऋतंभरा प्रज्ञा।
अवतार का साथ दीजिए
ऋतंभरा प्रज्ञा का निष्कलंक अवतार इस जमाने में होने वाला है और वह समय अब आ गया है। आप क्या कर सकते हैं? आप उसका हाथ बँटा सकते हैं। आप उसके कंधे से कंधा मिलाकर चल सकते हैं। जिस तरीके से ग्वाल-बालों ने गोवर्धन उठाने में भगवान श्रीकृष्ण का साथ दिया था, अब वैसा ही योगदान देने का मौका है। उसका लाभ आपको मिलेगा, अगर आप चाहें तो, नहीं चाहें तो कोई बात नहीं। लेकिन आपके भीतर तो एक ही बात भरी हुई है कि हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। चलिए, अब तो मैं इस पर भी आ गया कि आपकी मनोकामना पूरी करेंगे। तो फिर भाई साहब! यह इतना बड़ा काम करेगा कौन? भगवान करेंगे। बेटे! हमने आपको यह पहले ही बता दिया है कि भगवान नहीं करते। इनसानों की सहायता करना भगवान का काम नहीं है। सदावर्त खोलना भगवान का काम नहीं है। अस्पताल बनाना भगवान का काम नहीं है। प्याऊ बनाना भगवान का काम नहीं है। किसका काम है? इनसानों का काम है। ऐसे इनसान, जो समर्थ हों, जिनके अंदर दया हो। यह अस्पताल किनने बनवाया है? उनने बनवाया है, जिनमें दया भी है और सामर्थ्य भी है। संपन्नता और दया दोनों जिनके भीतर हैं, अस्पताल उनका बनवाया हुआ है। यह अन्नक्षेत्र किनका फला हुआ है? उनका फला हुआ है, जिनके पास संपन्नता भी है और दया भी है। आज मनुष्य जाति को ऐसे ही आदमियों की जरूरत है।
मनोकामनाएँ भगवान को अर्पित कर दें
फिर मनोकामना कौन पूरी करता है? बेटे! भगवान मनोकामना पूरी नहीं करते। नहीं साहब! भगवान मनोकामना पूरी करते हैं। नहीं बेटे! भगवान नहीं करते। आपको ध्यान नहीं है क्या? नारद जी का उदाहरण तो आपको मालूम होगा? नारद जी एक बार भगवान जी के पास गए और बोले कि भगवन्! हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। भगवान ने कहा—"भक्त और मनोकामना? यह संगति कैसे आ गई नारद? दुनिया में दो ही मनोकामनाएँ हैं—एक कामिनी, दूसरी कांचन। तीसरी और कोई मनोकामना है ही नहीं। बता, तुझे कहाँ से मिल जाएगी कामिनी और कांचन?" नारद जी ने कहा कि स्वयंवर में देखा था। एक जवान लड़की थी, उसका विवाह होने वाला था और ब्याह के साथ में लंबा-चौड़ा दहेज मिलने वाला था। राजपाट भी मिलने वाला था। यह देखकर नारद जी के मुँह में पानी आ गया था। उनने कहा कि भगवान की कृपा हो जाए। भगवान ने नारद की उपेक्षा कर दी तो उनने समझा कि भगवान शायद चुप हो गए हैं और मनोकामना पूरी कर दी है। लड़की ने जब किसी और से शादी कर ली तो नारद जी भगवान के पास आए और गालियाँ देने लगे। भगवान ने कहा कि नारद! जब से सृष्टि बनी है, तब से लेकर आज तक एक भी आदमी का नाम बता दो कि जिस भक्त की मनोकामना मैने पूरी की हो—क्या मैंने प्रह्लाद की मनोकामना पूरी की? हरिश्चंद्र और भगीरथ की मनोकामना पूरी की? क्या मैंने ऋषियों की मनोकामना पूरी की? हरेक को सताया है, जलाया है, सोने की तरह से तपाया है। फिर तू कहाँ से मनोकामना लेकर आ गया। बेटे! भगवान के यहाँ मनोकामना की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए क्या गुंजाइश है कि आप अपनी मनोकामनाओं को भगवान के सुपुर्द कर दें? सुपुर्द करने के पश्चात भगवान का प्यार पाएँ।
सबसे कीमती उपहार : भगवान का प्यार
भगवान का प्यार पाने से क्या हो सकता है! इससे आपको खाने की ताकत तो नहीं मिल सकती, लेकिन खिलाने की मिल सकती है। आप फिर ध्यान रखना कि इससे आपको अपने व्यक्तिगत जीवन में लाभ उठाने की छूट नहीं मिल सकती, दूसरों को लाभ देने की मिल सकती है। अगर आपको ऐसा सिद्धपुरुष बनना हो तो मैं आपकी सहायता करने को तैयार हूँ। मेरे गुरु ने इसी शर्त पर सहायता की है कि आप खा नहीं सकते, खिला सकते हैं। बेटे! हमने गुरु का दिया हुआ खाया नहीं, जिंदगी भर दूसरों को खिलाया है। गुरु ने आपको क्या दिया है? हमको क्या दिया है? यही पूछना चाहते हैं न आप? चलिए, हम आपकी भाषा में ही बोलते हैं कि गुरु ने हमारा दिवाला निकाल दिया है। पैसे की दृष्टि से खाली कर दिया। शरीर की दृष्टि से खाली कर दिया। अक्ल की दृष्टि से खाली कर दिया। हम क्या हैं? बाँसुरी की तरह से छूँछ हैं। कुछ और है आपके पास? नहीं बेटे! हम खालिस ब्राह्मण हैं। खालिस ब्राह्मण क्या कर सकते हैं? शरीर को ढकने के लिए हमको कपड़े की जरूरत पड़ती है, इसलिए कपड़े पहनने पड़ते हैं। समाज में रहते हैं तो नंगे-उघारे भी नहीं रह सकते। लँगोटी लगाकर भी नहीं रह सकते और रोटी खाए बिना भी नहीं रह सकते। इसके लिए तो हम गुनहगार हैं। इन दो गुनाहों के अतिरिक्त आप सही मानिए कि जो कुछ भी हमारे गुरु ने सांसारिक दृष्टि से दिया, सब छीन लिया। बेटे! हम निहंग हैं। आप सुनते क्यों नहीं हैं कि सांसारिक दृष्टि से जो आप भगवान से माँगते हैं, वह नहीं मिलता। उसे आप मशक्कत से पा सकते हैं, योग्यता से पा सकते हैं अथवा बेईमानी से पा सकते हैं। भगवान कीमती चीज है और जब कभी वह आपको देगा तो ऐसी शानदार चीज देगा, जिससे आप अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के अलावा असंख्यों की आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ हो सकें। यह भी एक शान है, आनंद है। खाने का भी आनंद होगा, यह तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन आपने कभी किसी को खिलाया भी है अभागो? यहाँ से माँग लाए, वहाँ से माँग लाए, उसका वरदान माँग लाए, उसकी कृपा लाए, उसका आशीर्वाद लाए। यह भी कोई माँगने की चीज है! यह भी कोई शान है! इसमें भी कोई तेरी इज्जत है? बेटे! इज्जत इसमें नहीं है।
देने का आनंद जानो
चलिए, मैं आपसे आध्यात्मिक दृष्टि से सिद्धियों की बात कहता हूँ। सिद्धियों की बात वो है, जिसमें आदमी दूसरों को लाभ देने में समर्थ हो सके। दूसरों की मुसीबतों में हाथ बँटा सके। दूसरों के आँसुओं को पोंछने में समर्थ हो सके। ऐसी शक्ति मिल सकती है? मैं आपको अपने लंबे अनुभवों की साक्षी देकर के यकीन दिलाता हूँ कि आपके लिए ऐसी शक्तियों का, सिद्धियों का और शांति का दरवाजा खुला हुआ है, जिससे आप अपनी जीवात्मा की आवश्यकताएँ पूरी कर सकते हैं। शरीर की बात तो मैं नहीं कह सकता कि उसकी हवस पूरी हो जाएगी। तो क्या आप शरीर की हवस पूरी कर देंगे? बेटे! हम नहीं पूरी कर सकते, क्योंकि यह हमारी सामर्थ्य से बाहर है। आदमी की हवस इतनी शैतान है कि इसे कोई पूरा नहीं कर सकता। तो आप पूरी कर दीजिए? बेटे! हमारी सामर्थ्य में नहीं है तो हम कैसे पूरी कर देंगे, लेकिन आप वह अध्यात्म, जो कि चार चीजों से जुड़ा हुआ है, जिसका एक अंश सेवा है। इस सेवा वाले अंश को अगर आप अपना लें तो भगवान के द्वारा जो दिए हुए अनुदान हैं, वे लोगों के द्वारा हजार गुना होकर आपको सिद्धियों के रूप में, चमत्कारों के रूप में, पराक्रम के रूप में और दूसरी चीजों के रूप में मिल सकते हैं। लेकिन आप इनको भी खा नहीं सकते। खिलाने का जायका क्या होता है, यह आपको कैसे बता दें? अगर खिलाने का जायका, खिलाने का आनंद पूछना हो तो किसी माँ से पूछना कि माताजी! आप अपनी छाती का दूध निकाल करके इस बच्चे को पिलाती हैं तो आपको अच्छा लगता है? हाँ बेटे! जब हमारा बच्चा दूध पीता है, तब बहुत अच्छा लगता है। और जब आपकी छाती में से दूध नहीं निकलता तो? तब बच्चा रोता है और हमको तब बड़ा कष्ट होता है और हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान! किसी तरीके से हमारी छाती में दूध आ जाए तो हम बच्चे को पिला दें। आपसे मैं कैसे कहूँ कि देने में क्या आनंद होता है। आपने कभी दिया है? अभागो! निष्ठुरो! कंजूसो! स्वार्थियो! देना किसे कहते हैं, यह जाना है कभी? अरे कृपणो! देने से आदमी देवता हो जाता है। हर आदमी को भगवान यही सिखाता है कि सेवा की शरण में जाइए, मदद कीजिए।
उदात्त जीवन : श्रेष्ठ जीवन
किसकी मदद करें? मित्रो! भगवान के दो हाथ हैं। एक हाथ से वह पीड़ित होकर के माँगता है, पतित होकर के माँगता है। आप पतितों की सहायता कीजिए, पीड़ितों की सहायता कीजिए। पीड़ितों की और पतितों की आप सहायता न करें तब? तब बेटे! मुश्किल है। तब आपको भगवान मिल पाएगा? भगवान का अनुग्रह आपको मिल जाएगा? मैं सोचता हूँ कि तब भगवान आपको नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि आपके अंदर न करुणा है, न आपके भीतर सदाशयता है। आपके भीतर तो केवल हवस काम करती है और इस हवस की आग में आप उन्हें भी जलाना चाहते हैं, जिसमें आप जल गए; आपका परलोक जल गया; आपका ध्यान जल गया; आपका कुटुंब जल गया। अब कौन रह गया है? अब संतोषी माता और रह गई है और जो कोई भी रह गया है, उसे भी इसी नरक में जला डालिए अभागो! जिसमें कि आप जल रहे हैं। हवसों की आग, ख्वाहिशों की आग, वासनाओं की आग, तृष्णाओं की आग में संतोषी माता को भी भून डालिए। अरे अभागो! अपने आप को भूनिए, परंतु उनको तो अपनी जगह पर रहने दीजिए। क्या कीजिए? उदात्त जीवन, श्रेष्ठ जीवन, परोपकारी जीवन, शानदार जीवन, दूसरों के दु:खों में सम्मिलित होने वाला जीवन, संसार में सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन करने वाला जीवन जिएँ। यही अध्यात्म है। यदि आपको यह सब आ गया तो आप निहाल हो जाएँगे।
शामिल हों इस अनुष्ठान में
महाराज जी! इससे और कुछ संपदा आएगी कि नहीं आएगी? बेटे! संपदा तो आएगी, पर बाँटने के लिए आएगी। बाँटने से हमें क्या फायदा? बेटे! बाँटने से अगर आपको यह मालूम पड़ता हो कि यह भी कोई आनंददायक चीज है। बाँटने से भी आदमी को संतोष मिल सकता है। बाँटने से भी आदमी आँखों में आशा लिए हँसता-मुस्कराता हुआ चला जाता है। उसके आशीर्वाद में कोई दम है, कोई जान है तो आइए, इस साधना को आरंभ करना शुरू कीजिए, जो आदमी के व्यक्तिगत जीवन को उदार बनाती है, उदात्त बनाती है। जो आदमी को कृपण नहीं बनाती है, जो आदमी को हवस, वासना और तृष्णा में डूबा हुआ नहीं रहने देती। अगर आप इस तरह की उपासना करने के लिए रजामंद हों तो आइए, इस अनुष्ठान में सम्मिलित हो जाइए। हम भगवान से प्रार्थना करेंगे कि वह आपकी बात को सुने और आपकी सहायता करे और जो आपने दिया है, उससे दस हजार गुना लाकर के वापस करे। अगर ऐसा हो पाया तो आप धन्य हो जाएँगे। सांसारिक दृष्टि से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी आप मालदार हो जाएँगे। अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए मालदार हो जाएँगे। अपने लिए तो आप वैसे भी नहीं हैं। आपके पास क्या है? आपने जो कमाया था, सारा पैसा बेटे के हाथ में चला गया। अब आपके पास कहाँ है? जिंदा में आपके पास है नहीं तो मरने के बाद क्या हो सकता है!
सेवा से ही फलित होगी साधना
इसलिए मित्रो! आपके पास होने लायक एक ही चीज है कि आप अपनी गरिमा का संवर्द्धन करें। अपनी भावनाओं का संवर्द्धन करें। अपनी आत्मा का संवर्द्धन करें। अगर आपने यह कर लिया, तब क्या हो सकता है। आप जो चाहते हैं कि हमको मिले तो फिर भी वह नहीं मिलेगा। सेंट हेलना की जेल में नेपोलियन को नहीं मिला। सिकंदर को नहीं मिला, फिर आप किस खेत की मूली हैं! यह सब देखने-दिखाने भर की है, मालिक तो कोई और ही है। आपकी जिंदगी में आपका बेटा मालिक हो गया। मरने के बाद में आपके दूसरे मालिक बन जाएँगे। तेरे पास कहाँ है अभागे! किसी तरीके से दो रोटी खा लेता है, यह भी बहुत है तेरे लिए। वह भी जाने हजम होती है कि नहीं—परेशानियों की वजह से, चिंताओं की वजह से, हैरानियों की वजह से। तेरे हिस्से में है क्या? अगर आपको अपने हिस्से में लाना है तो वही चीज लानी पड़ेगी, जिसका मैंने निवेदन किया। आपको वह उपासना करनी पड़ेगी, जिसमें जीवन के परिष्कार के लिए और भगवान के संतोष के लिए दोनों पहलू समान रूप से जुड़े हुए हों। दोनों कदम—लेफ्ट-राइट, उदात्त और उदार, श्रेष्ठ और शालीन, पवित्र और सेवाभावी—यही दो कदम हैं, जिन्हें आगे बढ़ाते हुए आप जीवन-लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। भगवान के अनुग्रह तक पहुँच सकते हैं और भगवान का अनुग्रह एवं जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने वालों ने जिंदगी के जो आनंद उठाए हैं, वे आप भी उठा सकते हैं। शर्त यही है कि आप अपनी उपासना को भजन से आरंभ तो करें, पर उसे वहीं तक सीमित न करें। उसके साथ-साथ में जीवन की साधना, स्वाध्याय, विचारों का परिमार्जन, संयम, अपनी जिंदगी के छिद्रों का निराकरण और सेवा, इनको आप मिला दीजिए, फिर देखिए कि आपकी उपासना फलित होती है कि नहीं? आप सिद्धपुरुष बनते हैं कि नहीं? आप चमत्कृत होते हैं कि नहीं? भगवान आपके घर में सेवा-सहायता करने के लिए आते हैं कि नहीं? ऐसी है साधना, जिसको मैंने किया। मैं चाहता हूँ कि आपमें से हरेक आदमी को उसी तरीके से साधना करनी चाहिए जो कि सफल होती है और होती रहेगी।
आज की बात समापत।
॥ॐ शान्तिः॥