उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
उन्नति के मार्ग पर सबसे बड़ी रुकावट वह है, जिसके कारण से हमारे पैर रुक जाते हैं। प्रायश्चित की प्रक्रिया इसीलिए है कि हमने भूतकाल में जो गलतियाँ की हैं, उनकी रोकथाम कर सकें। इस संसार का यह नियम है कि जो गलतियाँ होती हैं, भूलें होती हैं, उसका दण्ड तो मिलता-ही है। हमारे लिए सबसे बड़ा व्यवधान यही है कि पिछली गलतियाँ, वह रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है और हमको उन्नति नहीं करने देतीं। अगर हम अपने ध्यान, जप और साधना में समर्थ हो जाएँ तब? तब फिर उन गलतियों का दण्ड कैसे मिलेगा? पापों का प्रायश्चित कैसे होगा? उज्ज्वल भविष्य तो सुख और शान्ति का हो जाएगा, फिर पापों का क्या होगा? पाप इतनी छोटी बात नहीं हैं कि आप गंगा नहा करके या उसका प्रायश्चित करके, प्रार्थना करके खत्म कर सकें। वह आपके जीवन की कोई महत्त्वहीन घटना नहीं है। बुरे कामों का। अच्छे फलों की ही क्यों आशा करते हैं? जब आप अच्छे फलों की आशा करते हैं कि हमने यह अच्छा किया है, विद्या पढ़ी है, तो हमको उत्तीर्ण होना चाहिए, हमने मेहनत की है, तो हमको इनाम मिलना चाहिए, हमने ब्याह-शादी की है, तो हमारी घर-गृहस्थी चलनी चाहिए। जब आप श्रेष्ठ कामों के बारे में यह विश्वास करते हैं, कि हमको अपने कर्मों का अच्छा फल मिलना ही चाहिए, फिर आप एक और बात क्यों भूल जाते हैं कि हमने जो बुरे कर्म किये हैं या भूलें की हैं, उनका दण्ड मिलना चाहिए। उसके बारे में फिर क्यों उपेक्षा करते हैं? इसकी उपेक्षा कीजिए न कि हम खेती करेंगे नहीं, पैदा हुआ तो क्या हुआ, हम विद्या पढ़ेंगे नहीं, पढ़ना आया तो क्या हुआ? आप यह क्यों सोचते हैं कि हमारे अच्छे कर्मों का फल तो हमको मिलना चाहिए और बुरे कर्मों के बारे में इतने ज्यादा लापरवाह हैं कि आप यह ख्याल कर लें कि हम राम नाम लेंगे, पंचामृत पी लेंगे, गंगाजी में डुबकी मार लेंगे, फलाना कर लेंगे, तो ऐसे दिल्लगी, मजाक जैसे छोटे-छोटे कारणों से आप छुटकारा पा जाएँगे? ऐसा कैसे हो सकता है? यह मुमकिन नहीं है। जहर खाया है, तो आपको मरना पड़ेगा अथवा जहर को सारी नसों में से निकालना पड़ेगा। नहीं साहब, जहर खा लिया है, तो क्या हुआ, प्रार्थना कर लेंगे, फाँसी लगा ली है, तो क्या हुआ, प्रार्थना कर लेंगे, रेल की पटरी पर बैठ करके सिर कटा लिया है, तो क्या हुआ, प्रार्थना कर लेंगे। नहीं भाईसाहब, ऐसी कल्पना मत कीजिए बच्चों जैसी। आप जरा समझदारों की तरह बात कीजिए। पाप भी आपके जीवन की एक इकाई है। आपने गलतियाँ की हैं और अपने शरीर को कमजोर बना डाला है। आप पापकर्म से कैसे बचेंगे? पढ़ेंगे के समय में और पढ़ने के दिनों में लापरवाही बरती आपने और पढ़ने से इनकार कर दिया। अब आप बिना पड़े हैं, दम्भ से बचिए न जरा। नहीं साहब, हम तो प्रार्थना करेंगे, भगवान की पूजा करेंगे और विद्वान हो जाएँगे। आपने विद्वान बनने के लिए जो करना चाहिए था, वह किया था क्या? नहीं किया था। फिर क्या मतलब है? नहीं, हम तो पूजा करने मात्र से बन जाएँगे। नहीं भाईसाहब, ऐसा नहीं हो सकता। आप वास्तविकता को समझिए तो सही। यहाँ आ करके भी वास्तविकता को नहीं समझेंगे, आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद भी वास्तविकता और सच्चाई अगर आपकी समझ में न आ सकी, तो इसमें प्रवेश करने का क्या फायदा हुआ? आप अज्ञान में ही फँसे रहे, भ्रम में ही फँसे रहे और आप अज्ञान और भ्रमों को ही छाती से लगाए रहे, तो क्या बात बनी? आप यहाँ अध्यात्म को सच्चाई का प्रतीक मानिये और यह मानकर चलिए कि कर्मफल एक वास्तविकता है और उसमें जो भूतकाल के कर्म हैं, वह भी ज्यों के त्यों हैं।
पिताजी ने आपके लिए कर्ज लिया था और उससे आपने डिग्री हासिल की थी, लेकिन पिताजी के मरने के बाद में वह डिग्री आपको भुगतानी पड़ेगी, चाहे आपका मकान बिके या आपकी जमीन बिके। साहब हम तो क्षमा माँगेंगे, पुरानी बात तो पुरानी हो गई। पुरानी बात कैसे हो गई? बैंक से आप कर्जा लाए थे और बैंक का कर्जा बढ़ते-बढ़ते दुगुना हो गया है, अब आप चुकायेंगे कि नहीं, चुकायेंगे। नहीं साहब, बैंक मैनेजर से प्रार्थना करेंगे, हाथ जोड़ेंगे, पैर छुएँगे, पंचामृत पिलाएँगे और माफ करा लेंगे। आप यह बेकार की बात मत कीजिए। बेकार की बात करने से आपको भ्रमित, घृणित और अज्ञानियों की श्रेणी में गिना जाएगा। आप भ्रमग्रस्त मत रहिए और अज्ञानियों की श्रेणी में अपने आपको शामिल मत कराइए। भूतकाल के पापों से या भूतकाल की घटनाओं से आप प्रभावित हैं, तो भूतकाल को मजाक में नहीं उड़ा सकते। भूतकाल में जो आपने किया था, लड़ाई-झगड़े किए थे, किसी आदमी का कत्ल कर दिया था, तो आप पर मुकदमा चलेगा और आप फाँसी के लिए तैयार रहिए। नहीं साहब, भूतकाल को छोड़िए, जो मार डाला, सो मार डाला और मर गया, सो मर गया। आप यों कहेंगे कैसे? भूतकाल ऐसे मजाक की चीज है? मजा की चीज नहीं है। आप ऐसा मत कीजिए। आप वास्तविकता से इतनी दूर रहेंगे, तो फिर वहाँ नहीं पहुँच सकेंगे, जहाँ आपको वास्तविकता के सहारे पहुँचना है। पापों का प्रायश्चित एक बहुत बड़ी बात है। हिन्दू धर्म में पाप प्रायश्चित का ही नाम है। गंगा में स्नान के बारे में जो कहा गया है, उसका मतलब केवल यह है कि उससे हमारी पाप करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगे, हमारा पाप करने को जो मन चलता है, वह न चले, भविष्य में हम वह सब काम न करें, जिससे हमारे अहम् को प्रेरणा मिल जाए, प्रोत्साहन मिल जाए, वातावरण मिल जाए, यह मतलब है। यह मतलब नहीं है कि आप भूतकाल में जो कर चुके हैं, उसके दण्डों से आपको राहत मिल जाएगी। ऐसा नहीं हो सकता। आपके ऊपर जो बुरे कामों का किया हुआ कर्ज है, उससे भी निपटिए और जिन बुरे कर्मों का वातावरण बना रखा है, जरा उसको भी ठीक कीजिए। आपने जो-जो गलतियाँ कर रखी हैं, जरा उनको भी फिर से एक बार सुधारिए। नहीं सुधार पायेंगे, तो भावी उन्नति का दरवाजा बन्द है।
मैं आपसे यह कह रहा था कि आप आध्यात्मिक उन्नति के लिए पूजा करते हैं, तो आपको मुबारक, आप उपवास रखते हैं, बहुत अच्छी बात, आप यहाँ अनुष्ठान करते हैं, इससे अच्छी बात क्या हो सकती है? लेकिन इसके साथ-साथ यह मत भूलिए कि इनके जो मुनासिब लाभ हैं, वह आपको उस समय तक नहीं मिल सकेंगे जब तक कि पिछले वाले दबाव आप पर पड़े हुए हैं। पिछले वाले पाप एक ऐसा वातावरण बनाते हैं, जिससे न आपकी पूजा सफल हो सकती है, न उपासना सफल हो सकती है, न आपका मन लग सकता है, न ध्यान लग सकता है। क्यों? क्योंकि आपको दण्ड मिल रहे हैं। दण्ड नहीं मिलेंगे तो आपका ध्यान लग जाएगा। ध्यान लग जाएगा फिर पाप का दण्ड कहाँ जाएगा? इसीलिए वह आसुरी शक्तियाँ शुभ-कर्मों में बराबर विघ्न उपस्थित करती रहती है। आसुरी शक्तियों से क्या मतलब है? आसुरी शक्तियों से कोई मतलब नहीं है, आपका किसी से वैर नहीं है, फिर कोई आपको बेकार ही हैरान नहीं कर सकता। आसुरी शक्तियाँ बेकार ही हैरान क्यों करेंगी? केवल आपके पाप कर्म ही वह आसुरी शक्तियाँ हैं, जो आपको हैरान कर देती हैं और आपको अच्छे कर्म में सफलता मिलने पर अवरोध खड़ा कर देती हैं, उनसे आपको लड़ना ही पड़ेगा। भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए आप जप करते हैं, तप करते हैं, अनुष्ठान करते हैं—भगवान को प्राप्त करने के लिए, मनोकामनाएँ पूरी करने के लिए तो फिर उज्ज्वल भविष्य में रुकावट डालने वाले जो पिछले वाले पाप कर्म हैं, वही हैं, आसुरी शक्तियाँ उन्हीं का नाम है। उन आसुरी शक्तियों से निपटने की भी कोशिश नहीं करेंगे, तो वह हमला करके आपके अच्छे प्रयासों को मटियामेट करके रख देंगी। खेती आपने की है। जंगली जानवर जो हमला करते हैं, तो रातभर में सारी-की फसल को खा-पी करके बराबर कर देते हैं। आप जानवरों को रोकेंगे नहीं? कृपा करके रोकिए, नहीं तो फिर यह हो जाएगा कि आप चाहे जितना पानी लगाते रहिए, खाद लगाते रहिए, बीज बोते रहिए, फसल के नाम पर आपको कोई भी चीज हाथ लगने वाली नहीं है। तब? तब मैं यही कह रहा था आपसे कि आपको इस महत्त्वपूर्ण बात के ऊपर गौर करना चाहिए।
आपको एक घटना सुनाता हूँ। एक बार स्वामी माधवाचार्य जी वृन्दावन रहते थे। उन्होंने तेरह साल तक गायत्री के अनुष्ठान किए, लेकिन उन अनुष्ठानों का कोई परिणाम उनको नहीं मिला। न उनको आत्मशान्ति मिली, न भगवान का साक्षात्कार हुआ, न कोई मनोकामना पूरी हुई, न कोई सन्तोष हुआ, कुछ नहीं हुआ। तब? तब बड़े खिन्न हुए, दुःखी हुए कि हमको सफलता के कोई चिन्ह नजर नहीं आते हैं, तो स्तुति करने का क्या फायदा? उन्होंने गायत्री अनुष्ठान तेरह वर्षों तक करने के बाद में वृन्दावन त्याग दिया और वृन्दावन त्यागने के बाद में बनारस चले गए। वह वहाँ काशी के मणिकर्णिका घाट पर बैठे हुए थे, आँखों में आँसू भरे हुए थे, बड़े दुःखी थे। एक साधक का रूप और दुःखी देख करके एक महात्मा उधर से निकले, उन्होंने पूछा—भाई क्या बात है? कैसे दुःखी हो रहा है? कौन है तू? तो वह बोले—हम साधना करने वाले एक व्यक्ति हैं और तेरह वर्ष तक गायत्री की उपासना करते रहे, लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं निकला, हम बहुत खिन्न हैं और यह सोचते हैं कि उपासना से कोई लाभ नहीं है, खासतौर से गायत्री का कोई फल नहीं हो सकता, ऐसे हमारे विचार हैं। महात्मा जी हँसने लगे। उन्होंने कहा—अच्छा एक काम कीजिए, गायत्री के बारे में तो हमारी कोई जानकारी नहीं है, हम तो तान्त्रिक और कापालिक विद्याओं को जानते हैं। तू तान्त्रिक और कापालिक विद्या को सीख ले। एक साल के अन्दर तुझे कुछ चमत्कार दीखने लगेंगे, अनुभव हो जाएगा तथा चमत्कार पर तेरा विश्वास बढ़ जाएगा, इसलिए चमत्कार दिखाने की दृष्टि से तुझे हम एक साल की तान्त्रिक उपासना करने की सलाह देते हैं। स्वामी माधवाचार्य जी ने मान लिया। फिर उनको मणिकर्णिका घाट पर तन्त्र सम्बन्धी आवश्यक ज्ञातव्य बताया और यह कहा—एक साल तक तुमको इसी मर्यादा में रहना पड़ेगा। इससे बाहर जाना मना है। इसी में नहाना है, इसी में टट्टी जाना है, इसी में खाना पकाना है, इसी में सोना, उठना, बैठना, किसी भी कीमत पर मरघट की सीमा से बाहर मत जाना। ऐसा ही उन्होंने किया। एक साल तक उनको जो भैरव का मन्त्र बताया गया था, उसको वह जपते रहे। भैरव कभी शेर के रूप में आते, कभी औरत के रूप में आते, कभी डराते, कभी पैसा ले करके आ जाते, लेकिन माधवाचार्य जी से उन्होंने कह दिया था कि तू अपने काम में ही लगे रहना, दुनिया की बातों से प्रभावित मत होना। साधक को दुनिया की बातों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। अपनी साधना को ही सब कुछ मानकर चलना चाहिए। वैसा ही हुआ। माधवाचार्य अपने गुरु के कहने के मुताबिक़ सब कुछ करते रहे। जो कोई आते रहे, सबको फटकारते रहे—आप लोग चले जाइए, हम तो साधना कर रहे हैं। एक दिन, साल जब पूरा हो गया, तब भैरव जी ने दर्शन दिए, उन्होंने कहा—जिसका तू जप कर रहा है, वह मैं ही हूँ। हमारा नाम भैरव है और हम आ गए। अब तू हमसे वरदान माँग। उन्होंने कहा कि पहली माँग तो यह कि आप मुझे यह यकीन करा दीजिए कि आप भैरव ही हैं। अब तक पूरे साल में यही खुराफात होती रही है कि कोई शेर बनकर आ गया, तो कोई भूत बनकर आ गया—कोई भैंसा बनकर आ गया, तो कोई औरत बनकर आ गया। रोज यहाँ मेरे साथ में दिल्लगीबाजी होती है। अगर आप भैरव हैं, तो फिर मैं आपकी सूरत देखना चाहता हूँ और यह विश्वास करना चाहता हूँ कि आज मेरे साथ में कोई दगाबाजी तो नहीं हो रही है। आप सामने आइए और प्रगट हो जाइए। पहला वरदान माँगूँगा। आज तो बस इतना ही माँगना है। भैरव ने कहा—हम आपको दर्शन तो नहीं दे पायेंगे, आपकी पीठ पीछे खड़े होकर बात कर सकते हैं, लेकिन आपको दर्शन नहीं दे पायेंगे। माधवाचार्य ने सन्देह से पूछा कि दर्शन क्यों नहीं दे पायेंगे? उन्होंने कहा—तेरे चेहरे पर गायत्री की शक्ति और तेजस् के आगे खड़े नहीं हो सकते। इसलिए सामने आने की हमारी हिम्मत नहीं है। पीठ पीछे तू जो कुछ हमसे पूछना चाहता है, वह पूछ! बात तो कर ही रहे हैं, यकीन भी कर ले कि हम भैरव हैं। नहीं महाराज जी मुझे यकीन नहीं होता, सामने आ जाइए। नहीं, सामने तो नहीं आ सकते। फिर वजह क्या है? तुझे बता तो दिया। तेरी आँखों में गायत्री का इतना तेजस्, चेहरे में इतना ओजस् और वर्चस् छाया है कि उसके सामने रह सकना हमारे लिए मुमकिन नहीं है। उनको बहुत आश्चर्य हुआ कि हमारी आँखों में गायत्री का इतना जबर्दस्त तेज है, जिसकी वजह से भैरव हमारे सामने तक नहीं आ सकते। तो उन्होंने कहा—महाराज फिर एक वरदान और माँगता हूँ मैं आपसे। आप दर्शन नहीं देना चाहते तो मत दीजिए। आप एक इच्छा और पूरी कर दीजिए। क्या? आप यह इच्छा पूरी कर दीजिए कि मेरा गायत्री का तेरह वर्षों का जप और अनुष्ठान क्यों बेकार चला गया? तो भैरव ने कहा—तेरे इस सवाल का मतलब हम बता देंगे, चल आँखें बन्द कर। आँखें बन्द कर लीं, फिर उन्होंने एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा, तीसरे के बाद चौथा इस तरह तेरह जन्मों का दृश्य दिखाया। उसमें उन्होंने बुरे-बुरे कर्म किये थे। किसी में हत्या, किसी में चोरी, किसी में डाका, किसी में कुछ, किसी में कुछ। उनकी तेरह जन्मों में बड़ी घिनौनी जिन्दगी थी। उन्होंने कहा—देख तेरह वर्ष का जो तेरा उपवास है, अनुष्ठान है, एक-एक वर्ष का उपवास-अनुष्ठान, एक-एक जन्म के लिए पूरे हो गये। अब तू जा, चौदहवीं बार फिर अनुष्ठान कर। अबकी बार तेरा साक्षात्कार होगा। अबकी बार जो गायत्री का लाभ मिलना चाहिए था, मिल जाएगा। माधवाचार्य प्रसन्न हो गए, फिर वह वापस चले आये। अपनी छोड़ी हुई साधना को फिर करने लगे। गायत्री उपासना का चौदहवाँ वर्ष जो उन्होंने किया, उसका परिणाम मिला, गायत्री का साक्षात्कार हुआ, उन्होंने पूछा—क्या वरदान चाहते हो, तो माधवाचार्य ने कहा—मैं कोई अजर-अमर ऐसा काम करके दिखा दूँ, जिससे कि दुनिया मुझे याद करती रहे। उन्होंने फिर ‘माधवनिदान’ नाम का प्रख्यात ग्रन्थ लिखा। इसे गायत्री ने माधवाचार्य के सिर पर अदृश्य रूप में प्रकट होकर लिखवाया।
आप समझ गए न, उनकी इच्छा कब और कैसे पूरी हुई? आप यह बात नोट कीजिए, आपको पिछले वाले पापों से निजात पाने के लिए कुछ-न करना ही होगा। क्या करना चाहिए? इस ओर ध्यान दीजिए। भविष्य के निर्माण की ओर ध्यान दें, यह तो बहुत अच्छी बात है, पर भूतकाल को भुला मत दीजिए। आप यह विचार कीजिए कि आपने कितनी गलतियाँ की, उनकी एक बार लिस्ट बना लीजिए। गलतियाँ दो तरह की होती हैं—एक गलतियाँ वह, जो आपने दूसरों को नुकसान पहुँचाने के लिए की हैं और एक गलतियाँ वह, जो आपने अपनी उन्नति में रुकावट डाल करके आलस्य और प्रमाद के रूप में की हैं। इन दोनों गलतियों को आप नोट कर लीजिए और एक फेहरिस्त बना लीजिए। आप नोट कर लेंगे और फेहरिस्त बन लेंगे, तो पता चलेगा कि कितना बड़ा जखीरा अपनी बुराइयों का, अपने ही सिर पर लाद के रखा है, इसको दूर करने के की कोशिश कीजिए। क्या कोशिश करें? यही तो एक विकल्प है। एक काम यह कीजिए कि अपना जी खोल करके अपने मन की गाँठ को हल्का कर लीजिए, जैसा कोई चीज खा जाते हैं, गन्दी चीज खा जाते हैं, तो उलटी कराई जाती है। आप मुँह के रास्ते उलटी कर दीजिए। आपने जो कुछ भी पाप-कर्म किये हैं, उन सबको एक बार जी खोल के कह दीजिए। किससे कहें? दूसरों के सामने तो मैं आपको सलाह नहीं दे सकता कि आप हर एक के सामने कहते फिरें, क्योंकि दूसरे आदमी इसका गलत फायदा उठाते हैं, नाजायज फायदा उठाते हैं। हमको हजारों घटनाएँ याद हैं। स्त्रियों से उनके पतियों ने कसम खिलाकर उगलवा लिया कि उनसे क्या गलती हो गई, फिर जिन्दगी भर के लिए उनकी एसी फजीहत की कि वह बेचारी सोचती रहीं कि सच्चाई अगर हम न बताते, तो नफे में रहते। दुनिया बड़ी निकम्मी है, दुनिया बड़ी पाजी है। आप हर आदमी से अपनी कमजोरियाँ कहते फिरें, ऐसा तो मैं नहीं कहूँगा, लेकिन आपको मेरी एक सलाह है कि एक बार अपना जी खोलकर हमसे सब कुछ कह दीजिए। अपनी हर घटना को बता दीजिए, विस्तार से बता दीजिए, कहीं दुराव न हो, कहीं छुपाव न हो। आप क्या करेंगे? अरे भाई साहब! हमें क्या करना है? हर आदमी गलतियों से भरा पड़ा है। आपकी गलतियों में मुझे जायका लेने का, मजा लेने का, दिल्लगीबाजी करने का और बकवास करने का हमारे पास कहाँ समय है? हमारे यहाँ तो केवल दुःखी-ही आते हैं। धोबी की दुकान है। हर आदमी मैला कपड़ा ले करके आता है और हम धोते रहते हैं। हमको न किसी से व्यंग्य करने की फुर्सत है, न मजाक करने की फुर्सत है, न घृणा करने की फुर्सत है, केवल धोबी के तरीके से लोगों के कपड़े धोने की फुर्सत है, इसलिए आपको अपने मन के पापों को एक बार ठीक कर लेना चाहिए।
यही ईसाई धर्म में भी होता है। ईसाई धर्म में जब आदमी मरने को होता है, तो जीवन की सारी-की बातें, बुरी-से घटनाएँ पादरी के सामने कह देते हैं। पादरी प्रार्थना करता है—इन्होंने जी खोलकर कह दिया, पाप हल्का हुआ भगवान तुम्हारे मन को शान्ति दे। आप भी जो यहाँ कल्प-साधना शिविर में आये हैं, तो अपने भीतर के संचित किये हुए पाप-कर्मों को जी खोलकर कह दें—एक तो काम यह हुआ। दूसरा, आपने जो पाप-कर्म किये थे, भविष्य में वह न करें, इसके लिए ऐसा दबाव डालिए, ताकि आपको यह ख्याल रहे कि हमने गलती की थी और अब गलती नहीं करेंगे। इसके लिए यदि मन पर दबाव नहीं डालेंगे, तो फिर आप ऐसे ही हो जाएँगे, जो पहले करते रहे हैं, फिर वैसा ही करने लगेंगे। जब आपको नफरत ही नहीं हुई, जब आपको कोई दुःख ही नहीं हुआ, जब कोई प्रायश्चित ही नहीं हुआ, तब फिर यह कैसे विश्वास करें कि भविष्य में आप ऐसा नहीं करेंगे। इसलिए भविष्य में न करने की दृष्टि से एक काम बहुत जरूरी है कि आप अपने आपको थोड़ा-सा कष्ट दें। चान्द्रायण व्रत इसी कष्ट का नाम है। आपको भी यहाँ तपश्चर्या कराई जा रही है। तपश्चर्या का मतलब यही है कि आपको जो कष्ट मिले, उससे आपको याद बना रहे, कि हमने जिस पाप के प्रायश्चित के निमित्त कष्ट उठाया था, वह पाप आइन्दा नहीं करेंगे। आइन्दा नहीं करने के लिए कष्ट उठाना पड़ता है, आइन्दा याद बनी रहे, इसलिए तपश्चर्या की जाती है। पिछला जो हो गया है, गलती हो गई है, वह स्वतः दूर हो जाएगी, यह वहम निकाल दीजिए। इसका तो एक ही उपाय है कि आपने जो गड्ढा खोदा है, उसको पूरा करना चाहिए। गड्ढे को अगर पूरा नहीं करेंगे, तो गड्ढा बना रहेगा, आप खाई में गिरेंगे, आपकी टाँग टूट जाएगी और दूसरों की टाँग टूटेगी। इसका कोई दूसरा उपाय है ही नहीं, सिवाय इसके कि आपने जो खाई खोदी है, उसको पूरा कीजिए, जो गड्ढा बना दिया है, उसमें मिट्टी डालिए, समतल बना दीजिए। यही तो प्रायश्चित है और क्या प्रायश्चित हो सकता है? इस प्रायश्चित को हमारे यहाँ इष्टापूर्ति कहते हैं, क्षतिपूर्ति भी कहते हैं। आपने जो नुकसान किया है चुकाइए। बैंक से रुपया ले करके भाग गए हैं? हाँ, साहब पन्द्रह हजार रुपया ले करके भाग गए थे और हमारा वारण्ट है। आप ऐसा कीजिए बैंक वालों से मिलिए और खबर भेजिए। पन्द्रह हजार में से एक हजार रुपया हमने खर्च कर डाला है और चौदह हजार बचा। चौदह हजार रुपया उसको रिफण्ड कर दीजिए, बाकी एक हजार रुपयों की किस्तें कर लीजिए, फिर आप पर जो मुकदमा चलने वाला है, उससे आप बच जाएँगे। इसलिए क्या करना चाहिए कि आप उस खामियाजे को पूरा कीजिए। खामिखाजे को पूरा नहीं करेंगे, तब फिर बात कैसे बनेगी? इष्टापूर्ति का मतलब क्षतिपूर्ति होता है, जो प्रायश्चित का बहुत महत्त्वपूर्ण अंग होता है। इसलिए कर्ज आपको चुकाना ही चाहिए। किसको चुकायें? जिसका नुकसान किया था, उसको तो आप चुकायेंगे नहीं, लेकिन सारा समाज एक है, एक कड़ी से जुड़ा हुआ है, इसलिए आप एक कड़ी में जुड़े हुए सारे समाज को यह मानकर चलिए कि किसी भी हिस्से पर नुकसान पहुँचाया है, तो कोई बात नहीं, दूसरे तरीके से पूरा कर देंगे।
मान लीजिए आप किसी के कान पकड़ने की गुस्ताख़ी करें तब? तब उसके पैर छू करके प्रणाम कर लीजिए। अरे साहब! हमसे गलती हो गई, माफ कर दीजिए, पैर छूते हैं आपके। कान पकड़ा था तो कान को छूना जरूरी नहीं है, आप पैर को भी छू सकते हैं। सारा समाज एक है। इसके किसी हिस्से को आपने नुकसान पहुँचाया है, तो आप उस नुकसान को पूरा करने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति के साथ में भलाई का सलूक कर सकते हैं। जो आदमी मर गया, जिसका आपने बेईमानी के साथ पैसा हजम कर लिया था, अब कैसे उसका पैसा चुकायेंगे? नहीं साहब, हम तो उसी को चुकायेंगे, लेकिन कैसे चुकायेंगे? वह तो मर गया। किसी लड़की का चाल-चलन खराब किया था। अब आप बताइए उसके चाल-चलन को ठीक कैसे करेंगे? नहीं साहब, हम तो क्षमा माँगेंगे। क्षमा मागेंगे लेकिन वह लड़की अब किसी की घरवाली हो गई और जिसके बेटे भी बड़े हैं, सास-ससुर भी हैं, वहाँ उनसे कहते फिरें, साहब हमने इस लड़की का चाल-चलन खराब किया था और अब हम माफी माँगते हैं। इस तरह आप भी पिटेंगे और वह लड़की भी मरेगी। जरूरी नहीं है कि जिस आदमी का आपने नुकसान किया है, उसी को लाभ दें। सारा समाज एक है, इसलिए यह बात सही है कि सारे-के संसार के तालाब में एक बड़ा ढेला फेंका और लहरें पैदा कर दीं। बुराई पैदा करने का मतलब एक व्यक्ति को ही नुकसान पहुँचाना नहीं है, बल्कि सारे समाज को नुकसान पहुँचाना है। बुरी आदतें आपने एक को सिखा दीं, शराब पीना आपने एक को सिखा दिया, वह फिर दूसरे को सिखाएगा, दूसरा तीसरे को सिखाएगा, तीसरा चौथे को, सिखाएगा, यह तो एक लहर है। बुराइयों की भी एक लहर है और अच्छाइयों की भी एक लहर है। आपने बुराइयों की एक बार लहरें पैदा की थीं, अब उसका प्रायश्चित एक ही हो सकता है कि आप अच्छाइयों की लहरें पैदा करें और उस अच्छाइयों की लहर को पैदा करके वातावरण ऐसा बनाएँ, जिससे की उसका खामियाजा पूरा हो सके, खाई पाटी जा सके, उस छेद को बन्द किया जा सके।
आप इस प्रायश्चित की तैयारी कीजिए। आपने क्या-क्या नुकसान पहुँचाया, उसका मूल्यांकन कीजिए। आपने कितने लोगों का समय खराब किया, दिल दुखाया, कितने आदमियों को आर्थिक हानि पहुँचाई, कितने आदमियों का चाल-चलन खराब किया, इन सारी बातों को एक कागज पर नोट कर लीजिए और आप उसी के समान लाभ ब्याज समेत दे सकते हो, तो क्या कहना? आपने जो कर्जा लिया है, उसे ब्याज समेत चुकाइए। नुकसान पहुँचाया है, उसे ब्याज समेत चुकाइए और अगर ब्याज समेत नहीं भी चुका सकते, तो कम-से उतना तो फायदा कीजिए, उतनी तो सेवाएँ कीजिए, उतना तो पुण्य कीजिए, जितना कि आपने पाप कमाया है। पाप और पुण्य को बराबर कर देना है। यदि ज्यादा हो सके तो, फिर ज्यादा कर दीजिए। फिर वह ब्याज चुकाने वाली ईमानदारी में शामिल हो जाएगा। ऐसा करने से आपके पुण्य का पलड़ा भारी हो जाएगा और अगले जन्म में काम आएगा। फिलहाल इतना न कर सके, तो आपको किसी-न रूप से यहाँ इस शिविर में आ करके यह विचार करना चाहिए कि हमने पिछले दिनों जो गलतियाँ की हैं और आज तक जो करते रहे हैं, इसका इस समय तो हम प्रायश्चित करते हैं दण्ड भुगतते हैं, थोड़ा-सा अपने आपको कठिनाई में डालते हैं, कसम खाते हैं भविष्य में ऐसा न करने की यह तो करना ही करना चाहिए, लेकिन मूल बात है नुकसान का खामियाजा चुकाना। खामियाजा अगर चुका देंगे, तब आपके पाप दूर हो जाएँगे और आपकी उपासना के मार्ग में, आत्मिक उन्नति के मार्ग में पग-पग पर जो रुकावटेंं आती हैं, उनके आने का सिलसिला बन्द हो जाएगा। रुकावटें आप पार कर लेंगे, तो उन्नति आपकी कोई कठिन नहीं है। भगवान बनना आपके लिए कठिन नहीं है, शर्त एक ही है कि आपने अपने पिछले पाप और गुनाहों की, जो खाई इकट्ठी कर ली है, पर्वत इकट्ठे कर लिए हैं, उसको पाटें, लेबिल एक-सा करें और फिर आप रास्ता चलते चले जाएँ। यह करना बहुत आवश्यक है। इस शिविर में आप यह बात विशेष रूप से ध्यान में रखें। हमारी बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥