उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
माध्यम नहीं, लक्ष्य समझना जरूरी
देवियो, भाइयो! विद्यार्थी बी०ए० पास करते हैं, एम०ए० पास करते हैं, पी० एच० डी० करते हैं, किससे लिखते हैं? पार्कर की कलम से लिखते हैं। क्या कलम आवश्यक है? हों बहुत आवश्यक है, लेकिन अगर आपका यह ख्याल है कि कलम के माध्यम से आप तुलसीदास बन सकते हैं, कबीरदास बन सकते है और एम०ए० पास कर सकते हैं, पी० एच०डी ० पास कर सकते हैं तो आपका यह ख्याल एकांगी है और गलत है। जब दोनों का समन्वय होगा तो विश्वास रखिए कि जो लाभ आपको मिलना चाहिए वह जरूर मिलकर रहेगा। किसका समन्वय? कलम का समन्वय, हमारे ज्ञान और विद्या, अध्ययन का समन्वय। ज्ञान हमारे पास में हो, विद्या हमारे पास में हो, अध्ययन हमारे पास में हो और कलम हमारे पास बढ़िया से बढ़िया हो तो आप क्या ख्याल करते हैं कि उससे आप वह सब पूरा कर सकते हैं? नहीं, पूरा नहीं कर सकते।
इसी तरह अच्छी साइकिल हमारे पास हो तो हम ज्यादा अच्छा सफर कर सकते हैं, लेकिन साइकिल के साथ साथ हमारी टाँगों में कूबत भी होनी चाहिए। टाँगों में बल नहीं है तो साइकिल चलेगी नहीं। सीढ़ी अच्छी होनी चाहिए जीना अच्छा होना चाहिए ताकि उसके ऊपर चढ़कर हम छत तक जा पहुँचे, लेकिन जीना काफी नहीं है। टाँगों की ताकत भी आपके पास होनी चाहिए। टाँगों में ताकत नहीं होगी तो आपके पास जीना अच्छा बना हुआ है, सीढ़ियाँ अच्छी बनी हुई हैं तो भी आप छत तक नहीं पहुँच सकते।
मित्रो! माध्यमों की अपने आप में एक बड़ी उपयोगिता है और उनकी बड़ी आवश्यकता है। मूर्तियाँ किससे बनती हैं? छेनी-हथौड़े से बनती हैं। अच्छा, एक पत्थर का टुकड़ा हम आपको देंगे और छेनी-हथौड़ा भी देंगे। आप एक मूर्ति बनाकर लाइए। एक हनुमान जी की मूर्ति बनाकर लाइए। अरे साहब! हमने तो पत्थर में छेनी मारी और वह तो टुकड़े-टुकड़े हो गया। हनुमान जी नहीं बने? नहीं साहब, हनुमान जी नहीं बन सकते। तो आप छेनी की क्या करामात कह रहे थे? फिर आप हथौड़े की करामात क्या कह रहे थे? हथौड़े और छेनी की करामात है जरूर, हम इसे मानते हैं। जितनी भी मूर्तियाँ दुनिया में बनी हैं, वे सारी की सारी मूर्तियों छेनी और हथौड़े से ही बनी हैं, लेकिन छेनी और हथौड़े के साथ-साथ उस कलाकार और मूर्तिकार के मस्तिष्क और हाथों को भी सधा हुआ होना चाहिए। हाथ सधे हुए नहीं हैं, मस्तिष्क सधा हुआ नहीं है और छेनी हथौड़ी आपके पास है तो आप मूर्ति नहीं बना सकते।
चित्रकारों ने बढ़िया से बढ़िया चित्र किस माध्यम से बनाए हैं? ब्रुश के माध्यम से। ब्रुश से क्या बनता है? तसवीरें बनती हैं, पेंटिंग बनती हैं। अच्छा चलिए हम आपको एक ब्रुश जैसा भी आप चाहें, मँगा सकते हैं और आप एक पेंटिंग बनाकर दिखाइए एक तसवीर बनाकर दिखाइए। नहीं साहब, हमसे नहीं बन सकती। हमने आपको ब्रुश दिया था। ब्रुश तो आपने अच्छा दिया था; ब्रुश सही भी था बिलकुल सही तसवीरें बनतीं, यह बात भी सही हैं। चूँकि हमारे पास खाली ब्रुश था, चित्रकला के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, इसलिए हम उसमें सफल न हो सके और चित्र नहीं बन सका।
क्रियायोग एवं भावयोग
आध्यात्मिकता के दो भाग, दो हिस्से हैं। एक हिस्सा वह है, जिसको ''क्रियायोग'' कहते हैं और दूसरा हिस्सा वह हैं, जिसको हम ''भावयोग'' कहते हैं। क्रियायोग के माध्यम से हमको भावयोग जाग्रत करना पड़ता है। अमल में शक्ति इस शरीर में नहीं है, वस्तुओं में नहीं है! धूपबत्तियों में क्या ताकत हो सकती है? वह हवा को ठीक कर सकती है। दीपक में क्या ताकत हो सकती है? वह उजाला कर सकता है। हमारी जीवात्मा में क्या दीपक बल दे सकता है? नहीं, दीपक जीवात्मा में कोई बल नहीं दे सकता, क्योंकि वह वस्तु है, पदार्थ है, मैटर है, जड़ है। जड़ चीजें हमको फायदा दे सकती हैं, लेकिन चेतना को कोई लाभ नहीं दे सकती। सूर्यनारायण को जो पानी हम चढ़ाते हैं तो क्या वह हमारी आत्मा को बल दे सकता है? नहीं बेटे, सूर्यनारायण को चढ़ाया हुआ पानी उस जमीन को तो गीली कर सकता है, जहाँ पर आपने पानी फैला दिया था। हमारी आत्मा को बल नहीं दे सकता और क्या सूर्यनारायण तक वह जल पहुँच सकता है? नहीं पहुँच सकता। देख लीजिए आपका चढ़ाया हुआ जल जमीन पर पड़ा हुआ है, सूर्यनारायण तो लाखों मील दूर हैं। कैसे पहुँच सकता है।
फिर आप क्या कह रहे थे? बेकार की बातें बताते हैं आप हमको। नहीं बेटे, हम बेकार की बातें नहीं बताते। हम तो ये बताते हैं कि क्रियायोग के माध्यम से भावयोग का जागरण करने का उद्देश्य पूरा होता है। एक मीडियम होता है और एक लक्ष्य होता है। एक ''एम'' होता है। दोनों को अगर आप मिलाकर चलेंगे, तब तो कुछ बात बनेगी और अगर आप दोनों को मिलाकर नहीं चलेंगे तो वही होगा जो आज एकांगी क्रियायोग से हो रहा है। एकांगी ''क्रियायोग'' आज बादलों की तरह से, आसमान की तरह से, रावण के चेहरे के तरीके से बढ़ता हुआ चला जा रहा है और प्राण उसमें से निकलता हुआ चला जा रहा है। इससे हर आदमी को शिकायत करनी पड़ती है कि हमारा अध्यात्म से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता और अध्यात्म से कोई लाभ नहीं होता और अध्यात्म से हमको भगवान नहीं मिलते और अध्यात्म से हमको शांति नहीं मिलती। अध्यात्म से हमें अमुक नहीं मिलता। बेटे, कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि तेरे पास क्रियायोग है। क्रियायोग का उद्देश्य भावयोग का समर्पण है, अगर यह बात आपकी समझ में आ जाए तो आपको कम से कम रास्ता जरूर मिल जाएगा।
वास्तविकता को समझें
आप भजन करें तो आपकी मरजी, न करें तो आपकी मरजी, लेकिन मैं यह जरूर चाहता हूँ कि आपको वास्तविकता की जानकारी होनी ही चाहिए। अगर आपको वास्तविकता की जानकारी नहीं है तो आप उसी तरीके से अज्ञान मैं भटकने वाले लोग हैं, जैसे कि दूसरे लोग और तीसरे लोग अज्ञान में भटकते हैं। आपकी पूजा-उपासना भी अज्ञान में भटकने के अलावा और कुछ नहीं हो सकती है। अगर आपने यह ख्याल करके रखा है कि इस कर्मकाण्ड के माध्यम से, क्रियायोग के माध्यम से आप लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं तो यह लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। लक्ष्य कैसे पूरा हो सकता है? लक्ष्य को पूरा कौन करता है? आत्मा को भगवान की शक्तियाँ कहाँ से मिलती हैं? आत्मा क्या होती है? इस पर विचार करना चाहिए। हमारी चेतना ही परमपिता परमात्मा की चेतना के साथ में मिल सकती है। चेतना के साथ चेतना मिल सकती है। जड़ के साथ जड़ मिल सकता है, आप यह ध्यान रखिए।
मित्रो! चेतना हमारी जीवात्मा है और वह विचारपरक है, भावपरक है, संवेदनापरक है और भगवान? भगवान भी विचारपरक है, भावनापरक है और संवेदनापरक है। दोनों की भावना और विचारणा जिस दिन मिलेगी, उस दिन आपको भगवान के मिलने का आनंद मिल जाएगा। आपको साक्षात्कार का आनंद मिल जाएगा। युग निर्माण का साक्षात्कार मिल जाएगा। जब तक आप मैटर को मैटर से पकड़ने की कोशिश करेंगे, उस दिन तक अज्ञान में भटकने वाले लोगों में आपका नाम भी लिखा जा सकता है। अज्ञान में भटकने वाले लोग वह हैं, जो आँखों के द्वारा मिट्टी से बने हुए शरीरों को देखने के बारे में ख्वाब देखते रहते हैं कि भगवान जी का साक्षात्कार होना चाहिए। अच्छा साहब! कैसा भगवान जी का साक्षात्कार चाहते हैं? हम तो ऐसे रामचंद्र जी का साक्षात्कार चाहते हैं, जो तीर-कमान लेकर घूमते रहते हों। अच्छा तो शरीर किस चीज का बना हुआ होगा, जो आप देखना चाहते हो? साहब, शरीर तो आखिर शरीर ही है, जो मिट्टी-पानी का बनता है, तो आप मिट्टी-पानी के रामचंद्र जी को देखना चाहते हो? हाँ साहब, मिट्टी-पानी के रामचंद्र जी को देखना चाहते हैं।
और किसको देखना चाहते हो? तीर-कमान वाले को देखना चाहते हैं। तीर-कमान किसका बनता है? बाँस का बनता है। बाँस का तीर-कमान धारण करने वाले, मोर-मुकुट पहनने वाले और हाड़-मास का शरीर धारण करने वाले भगवान को आप देखना चाहते हैं? आप उन्हें किससे देखना चाहते हैं? आँख से देखना चाहते हैं। आँखें किस चीज की बनी हुई हैं? चमड़े की बनी हुई हैं, माँस की बनी हुई हैं। तो आप माँस से माँस को देखना चाहते हैं? यही मतलब है न आपका? आप मैटेरियल से मैटेरियल को देखना चाहते हैं। प्रकृति से प्रकृति को देखना चाहते हैं। फिर तो आपको भौतिकवादी कहना चाहिए। यह अध्यात्मवाद नहीं हो सकता।
अध्यात्म का मर्म
अध्यात्मवाद क्या होता है? अध्यात्म उस चीज का नाम है, जिसमें वस्तुओं का प्रयोग तो करते हैं, समर्थ चीजों का प्रयोग तो करते हैं, मसलन पानी का प्रयोग, चावल का प्रयोग, अक्षत का प्रयोग, शक्कर का प्रयोग, घी का प्रयोग, धूप का प्रयोग, दीप का प्रयोग आदि वस्तुओं का प्रयोग करते हैं और साथ ही साथ कर्मकाण्डों का प्रयोग, क्रिया कलापों का प्रयोग करते हैं। इसमें शरीर को हिला डुलाकर काम करते हैं, जैसे माला घुमाना आदि! माला किससे घुमाते हैं, हाथ मे घुमाते हैं। माला किसकी होती है? लकड़ी की बनी होती है। क्या क्या चीजें होती हैं, जो हाथ से घुमाई जाती हैं? बेटे, यह सब मैटेरियल है। जो मैटेरियल या भौतिक चीजें हैं, उनके उपयोग का क्या उद्देश्य होना चाहिए? साहब। भौतिक से तो भौतिक चीजें ही मिलेगी। हाँ बेटे, चरखा कातने से अठन्नी मिल सकती है। माला घुमाने से चवन्नी मिल सकती है। महाराज जी! भगवान की बात कहिए न। नहीं बेटे! भगवान से माला का क्या ताल्लुक हो सकता है? तो फिर आप किसलिए माला कराते हैं? माला इसलिए कराते हैं कि आपकी समझ में आ जाए कि किस तरीके से हम अपनी सारी अक्ल, सारी शक्ति इस बात में झोंकना चाहते हैं।
मित्रो! आप एक बात समझ लें कि जो भी क्रियायोग है, उसका मकसद केवल मनुष्य की भावना का विकास करना है, भावना का परिष्कार करना है। भावना का विकास और परिष्कार करने में, भावना का शोधन करने में, आपकी संवेदनाओं को जगाने में अगर हमारी क्रिया सफल होती है तो हमारी साधना भी सफल होती है। अगर हमारी भावना से वे दूर रहते हैं, भावना को छू नहीं पाते, केवल भौतिक क्रिया-कलाप से भौतिक चीजों की कामना में हम डूबे रहते हैं तो यह खाली भौतिकवाद है। भौतिकवाद के लिए हम अलग हैं और अध्यात्मवाद के लिए अलग। भौतिकवाद कीमत के बदले में कीमत चुकाना चाहता है। आप आठ घंटे काम कीजिए हम आपको छह रुपए चुका सकते हैं। आप चार घंटे काम कीजिए, हम आपको तीन रुपए दे सकते हैं। पदार्थ की कीमत पदार्थ है। आपने कितनी माला जपीं, उसके बदले में हम आपको उतने पैसे दे सकते हैं। आप चार रुपए रोज कमाते हैं तो फिर एक घंटा और भजन कीजिए हम आपको अठन्नी देंगे। आप अठन्नी ले जाइए। नहीं साहब! हम शांति चाहते हैं, सिद्धि चाहते हैं, मुक्ति चाहते हैं और भगवान का अनुग्रह चाहते हैं। बेटे, इसका ताल्लुक भावना से है।
कर्मकाण्ड नहीं, भावना प्रधान
मित्रो! कर्मकाण्ड, क्रियाकृत्य आवश्यक हैं और वांछनीय भी, लेकिन आफत तब आ जाती है, जब आप कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मान बैठते हैं और भावना के संशोधन और परिष्कार की जरूरत नहीं समझते। आपको भावना के संशोधन की जरूरत समझनी चाहिए और कर्मकाण्डों को माध्यम समझना चाहिए और उसी के अनुरूप उनका उपयोग करना चाहिए। इसके कितने ही उदाहरण मैंने आपको दिए हैं। उदाहरण के लिए अच्छी चिट्ठी लिखने के लिए अच्छा लेख लिखने के लिए आपको कलम की जरूरत है। मैंने किससे कहा कि कलम की जरूरत नहीं है। बिना कलम के हम चिट्ठी नहीं लिख सकते। हमारी कलम जब खराब हो जाएगी तो हम चिट्ठी नहीं लिख सकते। इस तरह जब हमारी जबान में छाले हो जाएँगे तो हम व्याख्यान नहीं कर सकते। इन मीडियमों की, माध्यमों की हमको बेहद जरूरत है।
आपकी जीभ तो है, लेकिन उसके द्वारा आप ज्ञान का आनंद नहीं बता सकते, जो कि एक विकसित एवं परिष्कृत व्यक्तित्व के द्वारा होना चाहिए। तो गुरुजी, हमें भी व्याख्यान सिखा दीजिए जैसा कि आप देते हैं। बेटे, याद कर ले और तू भी वैसा ही व्याख्यान किया कर। महीने-पंद्रह दिन में तुझे अभ्यास हो जाएगा। अगर किसी ने पकड़ लिया और कहा कि अमुक विषय पर बोलिए तब? तब बेटे कह देना कि मैंने इतनी ही नकल की हैं। अब मैं कहाँ से बोल सकता हूँ? अरे महाराज, आप अपने जैसा विद्वान बना दीजिए। अरे बेटा, यह ज्ञान की साधना है, अक्षरों की नकल करने से नहीं हो सकता।
इसलिए कर्मकाण्डों की बावत आपको एक बात साफ−तौर से समझ लेनी चाहिए। कर्मकाण्ड बेहद जरूरी और बेहद आवश्यक हैं। कर्मकाण्ड की जमीन आसमान जैसी आवश्यकता है, लेकिन कर्मकाण्ड अधूरा और अपंग है। वह कब अधूरा और अपंग है? जब तक उसका हमारे भावना क्षेत्र पर प्रभाव न पड़े और उसका संशोधन न हो। भाव संवेदनाओं की जाग्रति न हो, भावनाओं में कोई हेर फेर नहीं हुआ हो। भावना और चिंतन हमारा जहाँ का तहाँ बना रहा तो आप विश्वास रखना, आपको हमेशा शिकायत करनी पड़ेगी कि हमारी पूजा बेकार जा रही है। हमारा भजन बेकार जा रहा है। हमारी उपासना बेकार चली गई, हमारा अनुष्ठान बेकार चला गया। यही एक भूल है, जिसकी चट्टान से टक्कर खाकर बहुत सारे जहाज डूब गए; बहुत सी नावें डूब गईं और लोगों के भजन डूब गए और संन्यास डूब गए। उपासनाएँ डूब गईं और सब कुछ डूब गया। लेकिन जिन्होंने टक्कर खाकर यह समझ लिया कि कर्मकाण्ड काफी नहीं है, वे भवसागर से पार हो गए। कर्मकाण्ड आवश्यक तो हैं, महत्त्वपूर्ण तो हैं, पर काफी नहीं हैं। वे एकांगी और अपूर्ण हैं।
साधना-एक समग्र उपचार
मित्रो! आप यह ध्यान रखें कि दोनों का उसी प्रकार घनिष्ठ संबंध है, जिस प्रकार शरीर और प्राण का है। शरीर और प्राण को मिला देने से ही व्यक्ति जीवंत कहलाते हैं। उसी तरीके से भाव-संवेदनाओं के परिष्कार एवं विचारणाओं के परिष्कार के साथ-साथ में जप के पूजा के और उपासना के क्रियाकृत्य, कर्मकाण्ड जब मिल जाते हैं तो एक समूची बात बन जाती है। मित्रो! हम एक समूचे आदमी हैं। बोलते हैं, चलते हैं लेकिन आर प्राण शरीर में से निकल जाए तो हवा में घूमने वाला प्राण आपके किसी काम का नहीं हो सकता। फिर आप कहें कि गुरुजी! जरा व्याख्यान दीजिए। अरे बेटे, हम तो भूत हैं और भूत कैसे व्याख्यान दे सकते हैं? गुरुजी! हम तो आपके पैर छूना चाहते हैं। बेटे, हम तो हवा में घूम रहे हैं, हमारे पर कैसे छू सकते हैं? अच्छा साहब! तो गुरुदीक्षा ही दे दीजिए। अरे भाई! हम मरने के लिए बैठे हैं, अब गुरुदीक्षा का समय चला गया। अब तु कैसे गुरुदीक्षा ले सकता है?
मित्रो! मरा हुआ शरीर बेकार है और मरा हुआ प्राण बेकार है। इसी तरह भाव-संवेदना के बिना कर्मकाण्ड क्रियाकृत्य बेकार हैं। कर्मकाण्डों को जीवंत बनाने के लिए भाव संवेदनाओं को जगाने की बेहद आवश्यकता है। हम किसी भूखे प्यासे, गरीब, दुखियारे के काम आएँ और उसकी सेवा सहायता करें तो उससे हमारी भाव-संवेदना जाग्रत हो सकती है, परंतु भाव संवेदना जगाने के लिए-कर्मकाण्डों की आवश्यकता को भी समझें। नहीं साहब! हम तो बड़े दयालु हैं। अच्छा! आपके अंदर बहुत दया है तो क्या आप किसी के काम आ सकते हैं? नहीं साहब! हम किसी के काम नहीं आ सकते। हम किसी की सेवा-सहायता नहीं कर सकते। तब फिर आप दयालु कैसे? किस बात के? भाव-संवेदनाएँ भी अपूर्ण हैं, अगर वे क्रिया-काण्डों के साथ समन्वित नहीं हैं। दोनों का समन्वय जरूरी है।
भावनाओं को परिष्कृत करें
मित्रो! अगर हमको दयालु बनना है तो हमें लोगों की सेवा करनी चाहिए सहायता करनी चाहिए। दुखी आदमी के काम आना चाहिए। उसके प्रति हमारी आँखों में आँसू होने चाहिए। हमारे हृदय में भावनाओं का विकास होना चाहिए अगर हम अपने भीतर विशालता विकसित करना चाहते हैं। जब हमको ज्ञान इकट्ठा करना है तो किताबों की जरूरत पड़ेगी। ज्ञानवृद्धि के लिए पुस्तकों को पढ़ना आवश्यक है, लेकिन अगर हमको ज्ञान, बुद्धि नहीं बढ़ानी है, हमको नहीं पढ़ना है तो बहुत सी पुस्तकें लाकर जमा कर लें, उससे कोई लाभ नहीं। देखिए गुरुजी! यह रामायण की किताब, यह भागवत् की किताब, ये वेदों की किताबें, चारों वेद हमने आपके यहाँ से मँगाए थे, ये सब रखे हुए हैं। बेटा, बड़ी अच्छी बात है। कोई आएगा तो कह नहीं सकता कि तू वेदपाठी नहीं है। अच्छा बता, तूने इन्हें पढ़ा है क्या? अरे महाराज जी! पढ़ा-वढ़ा तो क्या, मँगाकर रख लिया है। इससे मेरे घर में बड़ा पुण्य हो जाएगा नहीं बेटे, इससे क्या पुण्य हो सकता है? ठीक है, तूने हमारी किताब खरीदी। इससे आठ आने हमें मिल गए तेरी प्रशंसा हो गई। तूने वेदों की पुस्तक मँगा ली, दोनों का उद्देश्य पूरा हो गया। तू अपने घर, हम अपने घर। महाराज जी! तो क्या वेदों का ज्ञान हमें नहीं मिलेगा? नहीं बेटे, कोई ज्ञान नहीं मिलेगा, क्योंकि वेदों को तूने पढ़ा तो है नहीं।
साथियो! अध्यात्म के बारे में यदि आप भावनाओं को परिष्कृत करने की बात समझ जाएँ तो मैं समझ लूँगा कि पचास फीसदी मंजिल आपने पूरी कर ली और आपको आध्यात्मिकता का लाभ उठाने का मौका मिल गया। अगर आपको यह भारी मालूम पड़ता है, कठिन मालूम पड़ता है तो आप अपने पैर इसमें न डालिए। इसमें बड़ा झगड़ा है। साहब! हमें क्या पता था कि इसमें बड़ा झगड़ा है। हमने तो समझा था कि हनुमान चालीसा पढ़ने से हनुमान जी खुश हो जाते हैं, पर अब तो वे खुश नहीं होंगे। हाँ बेटे? पाँच पैसे का तूने हनुमान चालीसा खरीद लिया और तीन घंटे जप कर लिया, अब जो गलती हो गई सो हो गई, अब अपने पैर पीछे ले जा। सारी जिंदगी भर हनुमान चालीसा पढ़ने से तेरा कोई फायदा नहीं हो सकता। अगर हनुमान जी से फायदा उठाना चाहता है तो कर्मकाण्डों के साथ-साथ भावनाओं का समन्वय कर। जिस दिन यह बात तेरी समझ में आ जाएगी, बस समझना चाहिए कि रास्ता खुल गया। तेरे लिए द्वार खुल गया है।
गीता और रामायण का शिक्षण
मित्रो! अब तो आप समझ गए होंगे कि वास्तविकता क्या है? गीता और रामायण जिसका हम यहाँ से प्रचार करते हैं, उसका हम यहाँ पर विद्यालय बनाने वाले हैं। गीता और रामायण को हम नियमित रूप से पढ़ाएँगे और हमारा विश्वास है कि रामचरित और कृष्णचरित के माध्यम से हम व्यक्ति और समाज दोनों की समस्याओं का समाधान करने में समर्थ होंगे। व्यक्ति को कैसा होना चाहिए? व्यक्तिगत जीवन का परिष्कार कैसे होना चाहिए? यह हम रामायण के द्वारा लोगों को सिखा देंगे, यह हमें पूरा विश्वास है। रामायण में वे सारी की सारी चीजें विद्यमान हैं, जो व्यक्ति और परिवार दोनों को ठीक और समन्वित बना सकती हैं। इसलिए हम रामायण का उपयोग करेंगे, गीता, भागवत् तथा कृष्णचरित का उपयोग करेंगे । भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और कृष्ण पूर्ण पुरुष हैं। सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने के लिए मनुष्य की नीतियाँ क्या होनी चाहिए? दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? समाज के साथ में अपनी डीलिंग करने के लिए लोक-व्यवहार के लिए समाज की कुरीतियों का समाधान करने के लिए जो शिक्षाएँ हमें कृष्णचरित से मिलती हैं, रामचंद्र जी से नहीं मिलतीं। वे एकांगी हैं। पिताजी ने वनवास दे दिया। अरे साहब! पिताजी ने निकाल दिया तो चलो जंगल में। पिताजी गलती करते हैं तो करते हैं, हमको तो गलती नहीं करनी चाहिए। हम तो पिताजी की आज्ञा मानकर जाएँगे। उनका जीवन एकांगी है? किनका? राम का। ठीक है कि प्रजा के हित का ध्यान रखना चाहिए प्रजा का कहना मानना चाहिए लेकिन सीताजी के साथ क्यों अन्याय करना चाहिए? यह एकांगी जीवन है। एकांगी जीवन में राम ने मर्यादाओं का पालन किया।
पूर्णपुरुष श्रीकृष्ण
कृष्ण? कृष्ण को हम पूर्ण पुरुष कहते हैं। पूर्ण पुरुष क्यों? क्योंकि उनके जीवन में इन सारी बातों का समन्वय है। जहाँ उन्होंने त्याग की जरूरत समझी है, सेवा की जरूरत समझी है, दान देने की जरूरत समझी है, सबको दान देते चले गए हैं। उन्होंने निस्पृह योगी की तरह जीवन जिया और 'जहाँ उन्होंने जरूरत समझी है, वहाँ चालाक के साथ चालाकी, बेईमान के साथ बेईमानी और झूठ के साथ झूठ की भूमिका निभाई है। भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण व्यक्ति हैं, पूर्ण पुरुष हैं। मित्रो! दोनों ग्रंथों के माध्यम से अब हम समाज को नए रूप से उठाने के लिए तैयार हो गए हैं, प्रतिबद्ध हो गए हैं। हम लोगों को रामचरित पढ़ाएँगे, जो उन्होंने अब तक पढ़ा ही नहीं। अब हम ''हरे रामा, हरे कृष्णा'' का आन्दोलन नए ढंग से चलाएँगे। हम लोगों को यह बताएँगे कि ताली बजाने से, खंजरी बजाने से, करताल बजाने से और उदक फुदक मचाने से राम का नहीं हो सकता। ''हरे रामा हरे कृष्णा'' के पीछे जो एक प्रेरणा है, जो एक दिशा है, जो भावना है, जो चेतना है, जो आग उसके पीछे जल रही है, उससे हमें गरम होना पड़ेगा। इसलिए हम रामचरित और कृष्णचरित के माध्यम से अब खड़े हुए हैं।
रामचरित और कृष्णचरित के बारे में जिन पुस्तकों का हमने चयन किया है, उनके बारे में मैं एक बार चुपचाप विचार करने लगा कि अरे भाई ये किसकी किताबें हैं गीता लड़ाई-झगड़े की किताब है? धत् तेरे की! कहाँ एक ओर ''द्यौ शांति अंतरिक्ष शांति.... की किताबें पढ़ने चले हो और अब दूसरी ओर लड़ाई-झगड़े की किताब लेकर चल दिए लोगों को पढ़ाने। अरे रामचंद्र के जीवन में सब लड़ाई-झगड़ा भरा पड़ा है। विश्वामित्र उनको अपने यहाँ ले गए और उन्होंने ताड़का को मारा, सुबाहु को मारा, मारीच को मारा, खर-दूषण को मारा, मेघनाद को मारा, कुम्भकरण को मारा और रावण को मारा। मारकाट-मारकाट सब तरफ मारकाट मची हुई है। धत् तेरे की! ये कौन सी किताब ले आए गुरुजी? आप तो पहले शांति की किताब ले आए थे, पर अब तो आप अशांति की किताब लाए हैं। शान्तिकुञ्ज में अशांति की किताब! बेटे, तो मैं क्या कर सकता हूँ! हमारे ऋषियों ने यही बताया था कि रामचंद्र जी का जीवन ऐसे पढ़ना चाहिए।
गीता का मर्म
मित्रो! जब श्रीकृष्ण भगवान की किताब पढ़ी तो यह पाया कि भई! यह क्या चक्कर है? ये सब क्या गड़बड़ हो गया है? अर्जुन बेचारा तो कह रहा था कि हम तो चाय की केंटीन चलाएँगे और गुजारा करेंगे और अपनी मौज किया करेंगे। हम तो होटल चलाएँगे और चना-चिरवा बेचेंगे तथा पच्चीस रुपए रोज कमाएँगे। बहुत से आदमी होटल चलाते हैं। हम भी अपने बच्चों का पालन कर लेंगे। आप हमें लड़ाई झगड़े में क्यों फँसाते हैं? इस पर श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को खूब गालियाँ सुनाईं और कहा- ''तू क्लीव है, नपुंसक है, तू ऐसा है, तू वैसा है।'' हजार गालियाँ सुनाईं और हजार खुशामदें भी कीं। कहा मारने के बाद चारों ओर तेरा सुयश गूँजेगा। उन्होंने कहा-
''हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।'' कैसी-कैसी चालाकियाँ कैसी-कैसी बातें कीं कि तू जीता तो राजा बन जाएगा और मारा गया तो मोक्ष मिलेगा। कैसी-कैसी बातें बताईं और जब नहीं माना, तो कहने लगे कि तू कायर है, नपुंसक है, उष्ण है, बेवकूफ है। चल-लड़ाई कर, मर। जब अर्जुन का विवेक जगा, तब उसने कहा- ''करिष्ये वचनं तव'' अर्थात जैसा आप कहेंगे वैसा हम मानेंगे और करेंगे।
अरे बाबा! ये किसकी किताब है? बेटे ये लड़ाई की किताब है, झगड़े की किताब है, मार-काट की किताब है, हत्याखोरी की किताब है, खून बहाने की किताब है। तो महाराज जी! आप शान्तिकुञ्ज में खून-खराबे की किताब काहे को लिए फिरते हैं? बेटे, इस बात की जरूरत थी। फिर मैं इस बात पर विचार करने लगा कि क्या गीता की किताब मुझे पढ़नी चाहिए थी और लोगों को पढ़ानी या बतानी चाहिए थी?
हम तो क्षत्रिय हैं
क्या बात बतानी चाहिए थी? आप कौन हैं? हम तो साहब! यदुवंशी राजपूत हैं तो आप में कोई ब्राह्मण भी है क्या? नहीं साहब! ब्राह्मण तो नहीं है। अच्छा तो कोई बनिया होगा, कोई पोरवाल होगा, अग्रवाल होगा, खंडेलवाल होगा आप में से कोई? नहीं साहब! हम कोई खंडेलवाल नहीं, हममें से कोई अग्रवाल नहीं। तो आप में से कोई पंडित जी हो सकते हैं, कोई गौड़, कान्यकुब्ज, सनाढ्य, सारस्वत तो होंगे ही। नहीं महाराज जी। हम यह भी नहीं हैं। हम तो क्षत्रिय हैं। राम और कृष्ण दोनों के दोनों, जिनका चरित्र हम आपको पढ़ाने वाले हैं, जिनकी शिक्षाएँ हम आपको देने वाले हैं और जिनके हम अनुयायी बनाने वाले हैं और आपको जिनका अनुचर बनाने वाले हैं, वे कौन हो सकते हैं? वे बहादुर हो सकते हैं। क्षत्रिय से मतलब हमारा जाति-बिरादरी से नहीं है। जाति बिरादरी का मैं कायल नहीं हूँ। आप हमारे चौके में रोटी खाते हैं। मैंने कब पूछा आपसे कि आप बनिया हैं कि शूद्र हैं कि राजपूत, कौन हैं आप? आप इनसान हैं और भगवान के भक्त हैं और गायत्री के उपासक हैं। इतना परिचय मेरे लिए काफी है।
मित्रो! गायत्री तपोभूमि में जब मैंने हजार कुण्डीय यज्ञ किया था तो एक बार पण्डों से झगड़ा हो गया। पण्डों ने कहा कि इनके चेलों को भड़काना चाहिए और कहना चाहिए कि ये तो ब्राह्मण नहीं हैं। तो कौन हैं? बढ़ई हैं। बढ़ई कौन होता है? वो जो लकड़ी का धंधा' करता है। ये वही हैं और अब बामन बन गए हैं। लोगों ने मुझसे पूछा-क्यों साहब! आप तो बढ़ई हैं? नहीं बेटा, तुझसे समझने में गलती हुई है। तो कौन हैं आप? आपकी बिरादरी क्या है? हम तो धोबी और सफाईकर्मी हैं।
कोई मुझसे जब मेरी अच्छी बिरादरी जानना चाहता है तो हम कहते हैं कि धोबी हैं और जब खराब बिरादरी जानना चाहता है तो कहते हैं कि हम सफाईकर्मी हैं। तो गुरुजी! आप धोबी और सफाईकर्मी कैसे हैं? बेटे, धोबी ऐसे हैं कि मैं कपड़े धोना चाहता हूँ और सफाईकर्मी ऐसे हैं कि गंदगी साफ करना चाहता हूँ। मेरा मकसद एक है- मैं झाडू लेकर अवतरित हुआ हूँ, बुहारी लेकर अवतरित हुआ हूँ। मन मस्तिष्क के भीतर वाले और बाहर वाले हिस्से की सफाई के अतिरिक्त मेरे अवतरण का और कोई मकसद नहीं है। मैंने अपने आपकी सफाई एवं आगे की सफाई करने के लिए कसम खाई है। अपना कपड़ा धोने के लिए तथा दूसरों के कपड़े धोने के लिए मैंने कसम खाई है। इसलिए मुझे धोबी होना चाहिए। अच्छा तो आप ब्राह्मण हैं? बेटे, मैं नहीं कह सकता, क्योंकि ब्राह्मण होने के नाम पर यदि तू मेरी पूजा करता हो तो मत कर। अगर तूने यह समझकर गुरुदीक्षा ली हैं कि मैं पंडित हूँ, ब्राह्मण हूँ, तो बेटे मैं इनकार करता हूँ और अपनी गुरुदीक्षा वापस लेता हूँ और तूने जो सवा रुपया गुरुदक्षिणा दी थी, वह भी तू वापस ले जा। इसलिए जन्म के आधार पर मैं बहस नहीं करता। मैं यह बात कर्म के आधार पर कहता हूँ। मनुष्य जाति के आधार पर नहीं, अपने कर्म के आधार पर ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि बनता है। यही सनातन सत्य है।
अध्यात्म एक प्रकार का समर
मित्रो! कर्म के आधार पर प्रत्येक अध्यात्मवादी को क्षत्रिय होना चाहिए, क्योंकि, “सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्“ अर्थात् इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय ही लड़ते हैं। बेटे, अध्यात्म एक प्रकार की लड़ाई हैं। स्वामी नित्यानंद जी की बंगला की किताब है ‘साधना समर’। ‘साधना समर’ को हमने पढ़ा, बड़े गजब की किताब है। मेरे ख्याल से हिंदी में इसका अनुवाद शायद नहीं हुआ है। उन्होंने इसमें दुर्गा का, चंडी का और गीता का मुकाबला किया है। दुर्गा सप्तशती में सात सौ श्लोक हैं और गीता में भी सात सौ श्लोक हैं। दुर्गा सप्तशती में अठारह अध्याय हैं, गीता के भी अठारह अध्याय हैं। उन्होंने ज्यों-का-त्यों सारे-के सारे दुर्गा पाठ को गीता से मिला दिया है और कहा है कि साधना वास्तव में समर है। समर मतलब लड़ाई, महाभारत। यह महाभारत हैं, यह लंकाकाँड है। इसमें क्या करना पड़ता है? अपने आप से लड़ाई करनी पड़ती है, अपने आपकी पिटाई करनी पड़ती है, अपने आप की धुलाई करनी पड़ती है और अपने आपकी सफाई करनी पड़ती है। अपने आप से सख्ती से पेश आना पड़ता है।
हम बाहर वालों के साथ जितनी भी नरमी कर सकते हैं, वह करें। दूसरों की सहायता कर सकते हैं। उन्हें क्षमा कर सकते हैं, दान दे सकते हैं, उदार हो सकते हैं, दूसरों को सुखी बनाने के लिए जितना भी, जो कुछ भी कर सकते हों, करें। लेकिन आने साथ, अपने साथ हमको हर तरह से कड़क रहना चाहिए। अपनी शारीरिक वृत्तियों और मानसिक वृत्तियों के विरुद्ध हम जल्लाद के तरीके से, कसाई के तरीके से इस तरह से खड़े हो जाएँ कि हम तुमको पीटकर रहेंगे, तुमको मसल कर रहेंगे, तुमको कुचलकर रहेंगे। अपनी इंद्रियों के प्रति हमारी बगावत इस तरह की होनी चाहिए और अपनी मनः स्थिति के विरुद्ध बगावत इस स्तर की होनी चाहिए। हम अपनी मानसिक कमजोरियों को समझें, न केवल समझें, न केवल क्षमा माँगें, वरन् उनको उखाड़ फेंकें। गुरुजी, क्षमा कर दीजिए। बेटे, क्षमा का यहाँ कोई लाभ नहीं, अंग्रेजों के जमाने में जब काँग्रेस का आँदोलन शुरू हुआ था, तब यह प्रचलन था कि माफी मांगिए, फिर छुट्टी पाइए। जब अँग्रेजों ने देखा कि ये तो माफी माँग कर छुट्टी ले जाते हैं फिर दुबारा आ जाते हैं। उन्होंने कहा ऐसा ठीक नहीं है, जमानत लाइए पाँच हजार रुपये की। जो जमानत लाएगा, उसी को हम छोड़ेंगे, नहीं तो नहीं छोड़ेंगे। माफी ऐसे नहीं मिल सकती। फिर पाँच-पाँच हजार की जमानतें शुरू हुईं। जिनको जरूरी काम थे, उन्हें इस तरह की जमानत पर छोड़ देते थे। फिर पाँच हजार की इन्क्वायरी शुरू हुई। उन्हीं सी.आई.डी. ने रिपोर्ट दी कि साहब, ये जमानत पर चले जाते हैं और पाँच हजार से ज्यादा का आपका नुकसान कर देते हैं। फिर उन्होंने जमानतें भी बंद कर दीं।
अपने साथ कड़ाई करिए
मित्रों! भगवान ने भी ऐसा किया है कि माफी देने का रोड-रास्ता बंद कर दिया है किसी को माफी दीजिए गुरुजी! माफी कहाँ है यहाँ, दंड भोग। इसलिए क्या करना पड़ेगा? अपने साथ में कड़ाई करने की जिस दिन आप कसम खाते हैं, जिस दिन आप प्रतिज्ञा करते हैं कि हम अपनी कमजोरियों के प्रति कड़क बनेंगे। अपनी शारीरिक कमजोरियोँ के तई और अपनी मानसिक कमजोरियों के तई कड़क बनेंगे। बेटे, दोनों क्षेत्रों में इतनी कमजोरियों भरी पड़ी है कि इन्होंने हमारा भविष्य चौपट कर डाला, व्यक्तित्व का सत्यानाश कर दिया। आध्यात्म यहाँ से शुरू होता है। यहाँ से भी भगवान को मानने वाली बात शुरू होती है, भगवान का दर्शन शुरू होता हैं अंगार के ऊपर चढ़ी हुई परत को जिस तरह हम साफ कर देते है और वह चमकने लगता है, उसी तरह हमारी आत्मा पर मलीनताओं की जो परत चढ़ी हुई हैं। मलीनताओं की इन परतों को हम धोते हुए चले जाएँ तो भीतर बैठे हुए भगवान का, आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है।
मंत्र नहीं, मर्म से जानें
क्यों साहब लक्स साबुन से हम कपड़ा धोएं कि हमाम से धोएँ या सर्फ से धोएँ। बेटे, मेरा दिमाग मत खा। तू चाहे तो सर्फ से धो सकता है, लक्स से-सम्राट से धो सकता है, हमाम से धो सकता है, नमक से, रीठा से धो सकता है। महाराज जी! क्या गायत्री मंत्र से मेरा उद्धार हो जाएगा? चंडी के मंत्र के उद्धार हो जाएगा या हनुमान जी के मंत्र से उद्धार होगा? बेटे, इसमें बस इतना फर्क है जितना कि सर्फ और सनलाइट में फर्क होता है और कोई खास बात नहीं है। हनुमान जी के मंत्र से भी साफ हो सकता है। तू हिंदू है या मुसलमान है तो भी साफ हो सकता है। बस तू ठीक तरीके से इस्तेमाल कर! गुरुजी! गायत्री मंत्र से मुक्ति मिल जाती है या ‘राम रामाय नमः’ से? बेटे अब मैं इससे कहीं आगे चला गया हूँ। अब मैं यह बहस नहीं करता कि गायत्री मंत्र का जप करेंगे तो आपकी मुक्ति होगी और हनुमान जी का जप करेंगे, तो मुक्ति नहीं होगी। बेटे, सब भगवान के नाम हैं साबुन में केवल लेबल का फर्क है, असल में उनका उद्देश्य एक है।
मित्रों! साधना का उद्देश्य एक है कि हमारी भीतर वाली मनः स्थिति की सफाई होनी चाहिए, जो हमारी शरीर की विकृतियों और मानसिक विकृतियों के लिए जिम्मेदार है। हमारी मानसिक और शारीरिक विकृतियाँ ही है, जिन्होंने हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी की हैं। अगर हम इस दीवार को नहीं हटा सकते, तो हमारे पड़ोस में बैठा हुआ भगवान हमें साक्षात्कार नहीं दे सकता। बेटे, भगवान ओर हम में दीवार का फर्क है, जिससे भगवान हमसे कितनी दरी पर है? गुरुजी! भगवान तो लाखों-करोड़ों कि.मी. दूर रहता है? नहीं बेटे, करोड़ों कि.मी. दूर नहीं रहता। वह हमारे हृदय की धड़कन में रहता है, लपडप के रूप में हमारी साँसों में प्रवेश करता है। हमारी नसों में गंगा-जमुना की तरह से उसी का जीवन प्रवाहित होता है। हमारा प्राण भगवान है और हमारे रोम-रोम में समाया हुआ है। तो दूर कैसे हुआ? दूर ऐसे हो गया कि हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी हो गई। उस दीवार को गिराने के लिए जिस छैनी-हथौड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है, उसका नाम है पूजा और पाठ।
पहले थ्योरी समझें
पूजा ओर पाठ किस चीज का नाम है? दीवार को गिरा देने का, इसी ने हमारे और भगवान के बीच में लाखों कि.मी. की दूरी खड़ी कर दी है, जिससे भगवान हमको नहीं देख सकता और हम भगवान को नहीं देख सकते। हम इस दीवार को गिराना चाहते है। उपासना का वास्तव में यही मकसद है। छैनी और हथौड़े को जिस तरह से हम दीवार गिराने के लिए इस्तेमाल करते हैं, उसी तरीके से अपनी सफाई करने के लिए पूजा पाठ के , भजन के कर्मकांड का, क्रियाकृत्य का उपयोग करते है। भजन उसी का उद्देश्य पूरा करता है। यह मैं आपको फिलॉसफी समझना चाहता था। अगर आप अध्यात्म की फिलॉसफी समझ जाए, इस थ्योरी को समझ जाए तो आपको प्रेक्टिस से फायदा हो सकता है। नहीं साहब, हम तो प्रेक्टिस से इम्तिहान देंगे, थ्योरी में नहीं देंगे, किसका इम्तिहान देना चाहते है? हम तो साहब वाइवा देंगे और थ्योरी के परचे आएंगे तो? थ्योरी, थ्योरी के झगड़े में हम नहीं पड़ते, हम तो आपको सुना सकते हैं। हम फिजिक्स जानते हैं। देखिए ये हाइड्रोजन गैस बना दी। देखिए ये शीशी इसमें डाली और ये शीशी इसमें डाली, बस ये पानी बन गया। अच्छा अब आप हमको साइंस में एम एससी की उपाधि दीजिए। गैस क्या होती है? गैस, गैस क्या होती है, हमें नहीं मालूम। इस शीशी में से निकाला ओर इस शीशी में डाला, दोनों को मिलाया, पानी बन गया। अब आपको शिकायत क्या है इससे? नहीं साहब, आपको साइंस जाननी पड़ेगी, फिजिक्स पढ़नी पड़ेगी तब सारी बातें जानेंगे। नहीं साहब जानेंगे नहीं।
बेटे , आपको जानना चाहिए और करना चाहिए। जानकारी और करना दोनों के समन्वय का नाम एक समग्र अध्यात्मवाद होता है। मैंने आपको अध्यात्म के बारे में इन थोड़े से शब्दों में समझाने की कोशिश की कि आप क्रिया कृत्यों के साथ साथ आत्म संशोधन की प्रक्रिया को मिलाकर रखें तो हमारा उद्देश्य पूरा हो सकता है। बच्चों को यही करना पड़ता है। पूजा का हर काम बड़ा कठिन है। नहीं साहब! सरल बता दीजिए। सरल तो एक ही काम है और वह है मरना। मरने से सरल कोई काम नहीं है। जिंदगी, जिंदगी बड़ी कठिन है। जिंदगी के लिए आदमी को संघर्ष करना पड़ता है, लड़ना पड़ता है। प्रगति के लिए हर आदमी को लड़ना पड़ा, संघर्ष करना पड़ा। मरने के लिए क्या करना पड़ता है? मरने के लिए तो कुछ भी नहीं करना पड़ता। छत के ऊपर चढ़कर चले जाओ और गिरो, देखो अभी खेल खत्म। गंगाजी में चले जाओ झट से डुबकी मारना, बहते हुए चले जाओगे। बेटे,मरना ही सरल है। पाप ही सरल है, पतन ही सरल है। अपने आपका विनाश ही सरल है। दियासलाई की एक तीली से अपने घर को आग लगा दीजिए। आपका घर जो पच्चीस हजार रुपये का था, एक घंटे में जलकर राख हो जाएगा। तमाशा देख लीजिए। आहा गुरुजी! देखिए हमारा कमाल, हमारा चमत्कार। क्या चमत्कार है? देखिए पच्चीस हजार रुपये का सामान था, हमारे घर में, हमने दियासलाई की एक तीली से जला दिया। कमाल है न वाह भई वाह! बहादुर हो तो ऐसा, जो एक तीली से पच्चीस हजार रुपये जला दे।
कमाना कठिन गंवाना सरल
मित्रो! पच्चीस हजार रुपये कमाना कितना कठिन होता है, कितना जटिल होता है, आप सभी जानते है। इसी तरह जीवन को, व्यक्तित्व को बनाना, विकसित करना कितना कठिन, कितना जटिल है। यह उन लोगों से पूछिए जिन्होंने सारी जिंदगी मेहनत मशक्कत की और आखिर के दिनों में पंद्रह हजार रुपये का मकान बना पाए। देखिए साहब, अब हम मर रहे हैं, लेकिन हमने इतना तो कर लिया कि अपने बाल बच्चों के लिए एक मकान बनाकर छोड़े जा रहे है। निज का मकान तो है। पंद्रह हजार रुपये बेटा क्या है? पंद्रह हजार रुपये हमारी सारी जिंदगी की कीमत है। जिंदगी की कीमत किसे कहते है? अपने व्यक्तित्व को बनाना, अपने जीवन को बनाना, अपनी जीवात्मा को महात्मा, देवात्मा बनाना और परमात्मा बनाना, यह विकास कितना बड़ा हो सकता है? इसके लिए कितना संघर्ष करना चाहिए, कितनी मेहनत करनी चाहिए, कितना परिश्रम और कितना परिष्कार करना चाहिए।
अगर आपके मन में यह बात नहीं आई और आप यही कहते रहे कि सरल रास्ता बताइए, सस्ता रास्ता बताइए, तो मैं यह समझूंगा कि आप जिस चीज को बनाना चाहते है, असल में उसकी कीमत नहीं जानते। कीमत जानते होते तो आपने सरल रास्ता नहीं पूछा होता। आप इंग्लैंड जाना चाहते हैं? अच्छा साहब, इंग्लैंड जाने के लिए छह हजार रुपये लाइए, आपको हवाई जहाज का टिकिट दिलवाएं। नहीं साहब, इतने पैसे तो नहीं खरच कर सकते। क्या करना चाहते हैं? सरल रास्ता बताइए इंग्लैंड जाने का। इंग्लैंड जाने का रास्ता जानना चाहते हैं? कैसा सरल रास्ता बताऊं बेटे? बस गुरुजी ज्यादा से ज्यादा मैं छह नए पैसे खरच कर सकता हूँ पहुंचा दीजिए न। अच्छा ला छह नए पैसे। इंग्लैंड अभी चुटकी में पहुंचाता हूँ ये देख हरिद्वार में बैठा था और पहुंच गया इंग्लैंड देख ये लिखा हुआ है इंग्लैंड। अरे महाराज जी, यह तो आप चालाकी की बात कहते हैं। अच्छा बेटे, तू क्या कर रहा था? तू चालाकी नहीं कर रहा था। नहीं महाराज जी, भगवान तक पहुंचा दीजिए, मुफ्त में अपनी सिद्धि से पहुंचा दीजिए। यहां पहुंचा दीजिए, वहां पहुंचा दीजिए। पागल कही का, पहुंचा दे तुझे जहन्नुम में। तू कही नहीं जा सकता, जहां है वही बैठा रह।
कीमत चुकाइए
इसलिए मित्रो! ऊंचा उठने और श्रेष्ठ बनने के लिए जिस चीज की, जिस परिश्रम की जरूरत है, उसके लिए आप कमर कसकर खड़े हो जाइए, कीमत चुकाइए और सामान खरीदिए। पाँच हजार रुपये लाइए, हीरा खरीदिए। नहीं साहब, पाँच पैसे का हीरा खरीदूंगा। बेटे, पाँच पैसे का हीरा न किसी ने खरीदा है और न कही मिल सकता है। सस्ते में मुक्ति बेटे हो ही नहीं सकती। अगर तुम कठिन कीमत चुकाना चाहते हो तो सुख शाँति पा सकते हो। सुख और शाँति पाने के लिए हमको कितनी मशक्कत करनी पड़ी है, आप इससे अंदाजा लगा लीजिए। सुख बड़ा होता है या शाँति? पैसे वाला बड़ा होता है या ज्ञानवान? बनिया बड़ा होता है या पंडित? तू किसको प्रणाम करता है- बनिया को या पंडित को और किसके पैर छूता है? लालाजी के या पंडित जी के? पंडित जी के क्यों? क्योंकि वह बड़ा होता है। ज्ञान बड़ा होता है और धन कमजोर होता है। इसलिए सुख की जो कीमत हो सकती है, शाँति की कीमत उससे ज्यादा होनी चाहिए। सुख के लिए जो मेहनत, जो मशक्कत, जो कठिनाई उठानी पड़ती है, शाँति के लिए उससे ज्यादा उठानी पड़ती है और उठानी भी चाहिए। आपको यदि यह सिद्धाँत समझ में आ जाए तो मैं समझूंगा कि आपने कम से कम वास्तविकता की जमीन पर खड़ा होना तो सीख लिया। आप इस पर अपनी इमारत भी बना सकते है और जो चीज पाना चाहते है वह पा भी सकते है।
इतना बताने के बाद अब मैं आपको क्रियायोग की थोड़ी सी जानकारी देना चाहूंगा। उपासना की सामान्य प्रक्रिया हम आपको पहले से बताते रहे है। उसमें सबसे पहला प्रयोग चाहे वह उपासना के पंचवर्षीय साधनाक्रम में शामिल हो, चाहे हवन में, चाहे अनुष्ठान में, पाँच कृत्य आपको अवश्य करने पड़ते है- यह आत्मशोधन की प्रक्रिया पाँच है-(1) पवित्रीकरण करना (2) आचमन करना (3) शिखाबंधन (4) प्राणायाम और (5) न्यास। इन चीजों के माध्यम से मैंने आपको एक दिशा दी है, एक संकेत दिया है। हमने यह नियम बनाया है कि आपको स्नान करना चाहिए, प्राणायाम करना चाहिए न्यास करना चाहिए। इन माध्यमों से आपको अपनी प्रत्येक इंद्रिय का परिशोधन करना चाहिए।
आत्मशोधन
मित्रों! हमारी हर चीज संशोधित और परिष्कृत होनी चाहिए, स्नान की हुई होनी चाहिए। न्यास में हम प्रत्येक इंद्रिय के परिशोधन की प्रक्रिया की ओर आपको इशारा करते है और कहते है कि इन सब इंद्रियों को आप सही कीजिए, इंद्रियों को ठीक कीजिए। न्यास में हम आपको आंख से पानी लगाने के लिए कहते है, मुंह से, वाणी से पानी लगाने के लिए कहते है। पहले आप इनको धोइए। मंत्र का जप करने से पहले जीभ को धोकर लाइए। तो महाराज जी! जीभ का संशोधन पानी से होता है? नहीं बेटे, पानी से नहीं होता। पानी से इशारा करते हैं जिह्वा के संशोधन का, इंद्रियों के संशोधन का। जिह्वा का स्नान कही पानी पीकर हो सकता है? नहीं, असल में हमारा इशारा जिह्वा के प्राण की ओर है, जिसका शोधन करने के लिए अपने आहार और विहार दोनों का संशोधन करना पड़ेगा।
मित्रो! हमारी वाणी दो हिस्सों में बांटी गई है, एक को ‘रसना’ कहते हैं, जो खाने के काम आती है ओर दूसरी को वाणी का भाग कहते हैं, जो बोलने के काम आती है। खाने के काम से मतलब यह है कि हमारा आहार शुद्ध और पवित्र होना चाहिए, ईमानदारी का कमाया हुआ होना चाहिए। गुरुजी! मैं तो अपने हाथ का बनाया हुआ खाता हूँ। नहीं बेटे, अपने हाथ से बनाता है कि पराये हाथ का खाता है, यह इतना जरूरी नहीं है। ठीक है सफाई का ध्यान होना चाहिए, गंदे आदमी के हाथ का बनाया हुआ नहीं खाना चाहिए, ताकि गंदगी आपके शरीर में न जाए, लेकिन असल में जहाँ तक आहार का संबंध है, जिह्वा के संशोधन का संबंध है, उसका उद्देश्य यह है कि हमारी कमाई अनीति की नहीं होनी चाहिए, अभक्ष्य की नहीं होनी चाहिए। आपने अनीति की कमाई नहीं खाई है, अभक्ष्य की कमाई नहीं खाई है, दूसरों को पीड़ा देकर आपने संग्रह नहीं किया है। दूसरों को कष्ट देकर, विश्वासघात करके आपने कोई धन का संग्रह नहीं किया है तो आपने चाहे अशोका होटल में बैठकर प्लेट में सफाई से खा लिया हो, चाहे पत्ते पर खा लिया हो, इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं है।
अपने श्रम की कमाई खाएँ
मित्रों! ईमानदारी का कमाया हुआ धान्य, परिश्रम से कमाया हुआ धान्य नहीं है। ध्यान रखें, हराम की कमाई को भी मैंने चोरी का माना है। जुए की कमाई, लाटरी की कमाई, सट्टे की कमाई ओर बाप दादाओं की दी हुई कमाई को भी मैंने चोरी का माना है। हमारे यहाँ प्राचीनकाल से ही श्राद्ध की परंपरा है। श्राद्ध का मतलब यह था कि जो कमाऊ बेटे होते थे, बाप दादो की कमाई को श्राद्ध में दे देते थे, अच्छे काम में लगा देते थे, ताकि बाप की जीवात्मा, जिसने जिंदगी भर परिश्रम किया है, उसकी जीवात्मा को शाँति मिले। हम तो अपने हाथ पांव से कमाकर खाएंगे। ईमानदार बेटे यही करते थे। ईमानदार बाप यही करते थे कि अपने बच्चों को स्वावलंबी बनाने के लिए उसे इस लायक बनाकर छोड़ा करते थे कि अपने हाथ पांव की मशक्कत से वे कमाए खाएं।
अपने हाथ की कमाई, पसीने की कमाई खा करके कोई आदमी बेईमान नहीं हो सकता, चोर नहीं हो सकता, दुराचारी नहीं हो सकता, व्यभिचारी नहीं हो सकता, कुमार्गगामी नहीं हो सकता। जो अपने हाथ से कमाएगा, उसे मालूम होगा कि खरच करना किसे कहते हैं। जो पसीना बहाकर कमाता है, वह पसीने से खरच करना भी जानता है। खरच करते समय उसको कसक आती है, दर्द आता है, लेकिन जिसे हराम का पैसा मिला है, बाप दादों का पैसा मिला है, वह जुआ खेलेगा, शराब पिएगा और बुरे से बुरा कर्म करेगा। कौन करेगा पाप? किसको पड़ेगा पाप? बाप को। क्यों पड़ेगा? मैं इसे कमीना कहूंगा, जिसने कमा कमाकर किसी को दिया नहीं। बेटे को दूंगा, सब जमा करके रख गया है दुष्ट कही का। वह सब बच्चों का सत्यानाश करेगा। मित्रो! हराम की कमाई एक और बेईमानी की कमाई दो, दोनों में कोई खास फर्क नहीं है, थोड़ा सा ही फर्क है। ईमानदारी और परिश्रमी व्यक्ति हराम की और बेईमानी की कमाई नहीं खाते।
वाणी का सुनियोजन करिए
मित्रो! आपकी जिह्वा इस लायक है कि इससे जो भी आप मंत्र बोलेंगे, सही होते हुए चले जाएंगे और सार्थक होते चले जाएंगे, अगर आपने जिह्वा का ठीक उपयोग किया है तब और आपने दूसरों को बिच्छू के से डंक चुभोए नहीं है, दूसरों का अपमान किया नहीं है। दूसरों को गिराने वाली सलाह दी नहीं है , दूसरों की हिम्मत तोड़ने वाली सलाह दी नहीं है। जो यह कहते हैं कि हम झूठ नहीं बोलते। अरे! झूठ तो नहीं बोलता, पर दूसरों का दिल तोड़ता है दुष्ट। हमें हर आदमी की हिम्मत बढ़ानी चाहिए और ऊंचा उठाना चाहिए। आप तो हर आदमी को मार गिरा रहे हैं, उसे डिमारलाइज कर रहे हैं। आपने कभी ऐसा किया है कि किसी को ऊंचा उठाने की बात की है। आपने तो हमेशा अपनी स्त्री को गाली दी कि तू बड़ी पागल है, बेवकूफ है, जाहिल है। जब से घर में आई है सत्यानाश कर दिया है। जब से वह आपके घर आई, तब से हमेशा बेचारी की हिम्मत आप गिराते हुए चले गए। उसका थोड़ा बहुत जो हौसला था, उसे आप गिराते हुए चले गए।
महाभारत में कर्ण और अर्जुन दोनों का जब मुकाबला हुआ तो कृष्ण भगवान ने शल्य को अपने साथ मिला लिया। उससे कहा कि तुम एक काम करते रहना, कर्ण की हिम्मत कम करते जाना। कर्ण जब लड़ने के लिए खड़ा हो तो कह देना कि अरे साहब! आप उनके सामने क्या है? कहा भगवान और अर्जुन और कहा आप सूत के बेटे, दासी के बेटे? भला आप क्या कर सकते है? देखिए अर्जुन सहित पांचों पाँडव संगठित है। वे मालिक है और आप नौकर है। आपका और उनका क्या मुकाबला? बेचारा कर्ण जब कभी आवेश में आता, तभी वह शल्य ऐसी फुलझड़ी छोड़ देता कि उसका खून ठंडा हो जाता। आपने भी हरेक का खून ठंडा किया है। आपने झूठ बोलने से भी ज्यादा जुर्म किया है। एक बार आप झूठ बोल सकते थे।
आपके झूठ में इतनी खराबी नहीं थी, जितनी कि आपने हर आदमी को जिसमें आपके बीबी बच्चे भी शामिल हो, आपने हरेक को नीचे गिराया। आपने किसी का उत्साह बढ़ाया, हिम्मत बढ़ाई? किसी की प्रशंसा की? नहीं, आपने जीभ से प्रशंसा नहीं की, हर वक्त निंदा की, इसकी निंदा की, उसकी निंदा की। आप निंदा ही करते रहे। मित्रो! हमारी जीभ लोगों का जी दुखाने वाली, टोचने वाली नहीं होनी चाहिए। टोचने वाली जीभ से जब भी हम बोलते है, कड़ुवे वचन बोलते है। क्या आप मीठे वचन कहकर वह काम नहीं करा सकते, जो आप कड़ुवे वचन बोलकर या गाली देकर कराना चाहते है, वह प्यार भरे शब्द, सहानुभूति भरे शब्द कहकर नहीं करा सकते? करा सकते है।
जिह्वा ही नहीं, हर इंद्रिय का सदुपयोग करें
मित्रो! ये जिह्वा का संकेत है, जो हम बार बार पानी पीने के नाम पर, पवित्रीकरण के नाम पर, आचमन करने के नाम पर आपको सिखाते है और कहते है कि जीभ को धोइए, जीभ को साफ कीजिए। जिह्वा को आप ठीक कर लें तो आपका मंत्र सफल हो जाएगा। तब राम नाम भी सफल हो सकता है, गायत्री मंत्र भी सफल हो सकता है और जो भी आप चाहें सफल हो सकता है।
यह आत्मसंशोधन की प्रक्रिया है। जीभ का तो मैंने आपको एक उदाहरण दिया है। इसके लंबे में कहा तक जाऊँ कि आपको सारी की सारी इंद्रियों का वर्णन करूं और उनके संशोधन की प्रक्रिया बताऊं कि आप अमुक इंद्रिय का संशोधन कीजिए। आंखों का संशोधन कीजिए। आंखों में जो आपके शैतान बैठा रहता है, जो छाया के रूप में प्रत्येक लड़की को आपको वेश्या दिखाता है। स्कूल पढ़ने कौन जाती है वैश्या ये कौन बैठी है वेश्या! सड़क पर कौन जाती है? गंगाजी पर कौन नहा रही है? सब वेश्या । अरे साहब! दुनिया में कोई सती साध्वी, बेटी,माँ,बहन कोई है? नहीं साहब! दुनिया में कोई बहन नहीं होती, कोई बेटी नहीं होती। जितनी भी रेलगाड़ियों में चल रही है, जितनी भी गंगाजी में नहाती है, जो स्कूल जा रही है, ये सब वेश्या है। नहीं बेटे, ये वेश्या कैसे हो सकती है। तेरी भी तो कन्या होगी? तेरी भी तो लड़की स्कूल जा रही होगी। वह भी फिर वेश्या है क्या? नहीं साहब! हमारी लड़की तो वेश्या नहीं है। बाकी सब वेश्या है। ये कैसे हो सकता है? बेटे, यह तेरे आँखों का राक्षस, आंखों का शैतान, आंखों का पशु और आंखों का पिशाच तेरे दिल दिमाग में छाया हुआ है। यही तुझे यह दृश्य दिखाता है। इसका संशोधन कर, फिर देख तुझे हर लड़की में, हर नारी में अपनी बेटी, अपनी बहन ओर अपनी माँ की छवि दिखाई देगी।
दृष्टि बदले, अपने आपे को संशोधित करें
बेटे, इन आंखों से देखने की जिस चीज की जरूरत है, वह माइक्रोस्कोप तेरे पास होना चाहिए। क्या देखना चाहता है? गुरुजी। सब कुछ देखना चाहता हूँ। बेटे, इन आँखों से नहीं देखा जा सकता । इसको देखने कि लिए माइक्रोस्कोप के बढ़िया वाले लेंस चाहिए। कौन से बढ़िया वाले लेंस “दिव्य ददामि ते चक्षुः” तुझे अपनी आँखों में दिव्यचक्षु को फिट करना पड़ेगा। फिर देख कि तुझे भगवान दिखाई पड़ता है कि नहीं पड़ता। “सियाराममय सब जग जानी” की अनुभूति होती है कि नहीं। फिर जर्रे जर्रे में भगवान, पत्ते पत्ते में भगवान तुझे दिखाई पड़ सकता है, अगर तेरी आँखों के लेंस सही कर दिए जाए तब। अगर लेंस यही रहे तो बेटे, फिर तुझे पाप के अलावा, शैतान के अलावा, हर जगह चालाकी, बेईमानी, हर जगह धूर्तता और दुष्टता के अलावा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ सकता।
मित्रो! अध्यात्म पर चलने के लिए आत्मसंशोधन की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। पूजा उपासना के सारे कर्मकाँड, सारे के सारे क्रिया कृत्य आत्मसंशोधन की प्रक्रिया की ओर इशारा करते है। मैंने आपको जो समझना था, वह सूत्र बता दिया। हमारा अध्यात्म यही से शुरू होता है। इसलिए यह जप नहीं हो सकता, भजन नहीं हो सकता, कुछ नहीं हो सकता। केवल यही से अर्थात् आत्म संशोधन से हमारा अध्यात्म शुरू होता है। आत्मसंशोधन के बाद ही देवपूजन होता है। देवता बनकर ही देवता की पूजा की जाती है।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥