उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
मेरे प्यारे बच्चो!
हमारे तुम सबके बीच आने का एक ही उद्देश्य है कि हम समाज को सही व्यक्ति देकर जाएँ। व्यक्ति होते तो यह सारा समाज नया हो जाता। सारे समाज का कायाकल्प हो जाता। पचास आदमी गाँधी के, बुद्ध के साथ थे। वे युग-परिवर्तन कर सके, क्योंकि उनके पास काम के इनसान थे। विवेकानन्द के पास निवेदिता व कुछ काम के व्यक्ति थे। आज जहाँ देखो, वहीं जानवर नजर आते हैं। यदि काम के इनसान होते तो जमीन पलट दी गई होती। तुम सब यहाँ आए हो तो काम के आदमी बन जाओ। हमने जीवन भर व्यक्ति के मर्म को छुआ है व अपना ब्राह्मण स्वरूप खोलकर रख दिया है। नतीजा यह कि हमारे साथ अनगिनत आदमी जुड़े। तुम यदि सही अर्थों में जुड़े हो तो अपना भीतर वाला हिस्सा भी लोकसेवी का बना लो व समाज के लिए कुछ कर डालने का संकल्प ले डालो।
यहाँ शान्तिकुञ्ज में न्यूनतम पाँच सौ कार्यकर्ताओं की, आदमियों की सही मायने में जरूरत है। आदमियों के लिए जमीन प्यासी है व आकाश प्यासा है। यदि पूर्ति हो जाए तो सारा सपना हमारा पूरा हो जाए। हमने ठहरने, खाने-पीने की सारी व्यवस्था कर दी है। यहाँ आने वाला हर व्यक्ति अध्यात्म के, समाज-सेवा के रंग में रँग कर जाए, यही हमारा उद्देश्य है। यह काम अकेले सम्भव नहीं है। तुम्हारा सहयोग इसके लिए हमें चाहिए। इसके लिए हमें तुमसे और कुछ भी नहीं केवल व्यक्तित्व की साधना व तुम्हारा निष्काम समर्पण चाहिए।
गाँधी जी ने अपने साथ में रहने वाले सभी व्यक्तियों का व्यक्तित्व बना दिया था। वे, जो पूरी तरह जुड़े धन्य हो गए। श्रेय-सौभाग्य के अधिकारी बने। तुम भी सही अर्थों में जुड़ जाओ तो तुम सबका व्यक्तित्व बने, सभी सँवर जाएँ। आज से ६३ वर्ष पूर्व हमने वसन्त पर्व पर अपने भगवान से दीक्षा ली थी। यह कहा था कि अब ‘मैं’ समाप्त होता हूँ व ‘आप’ जीवित होते हैं। आपकी इच्छा प्रमुख मेरी इच्छा गौण। समर्पण किया था हमने। अनगिनत उसकी उपलब्धियाँ हैं। हमारा व्यक्तित्व हमारी मार्गदर्शक सत्ता ने शानदार बना दिया। तुम सबका भी ऐसा ही बन जाए, यदि तुम मन व आत्मा से समर्पण कर दो। यह हम कह इसलिए रहे हैं कि कहीं भावावेश में घर छोड़कर आए हो व मन में तुम्हारे दुःख-क्लेश बना रहे, इसके स्थान पर एक ही बार में सारी स्थिति स्पष्ट हो जाए। कहीं के तो बन सको तुम।
हमने जो समर्पण किया, उसके बदले में हमारी मार्गदर्शक सत्ता ने हमें स्वयं सौंप दिया। हमारे अन्दर प्रभावोत्पादकता भर दी। वाणी में, लेखनी में, व्यक्तित्व में दैनन्दिन आचरण में। यही तुम्हारे अन्दर भी आ जाएगी। भगवान् के हम कोई सम्बन्धी थोड़े ही हैं, जो उनने हमारे साथ कोई विशेष पक्षपात किया हो तब तुम्हें भी क्यों नहीं वही सब मिल सकता है जो हमें मिला। बस कसौटी एक ही ‘अहं’ को गलाना, विसर्जन, समर्पण। जब तक अहंकार जिन्दा है, आदमी दो कौड़ी का है। जिस दिन यह मिट जाएगा आदमी बेशकीमती हो जाएगा। ‘अहं’ ही है, जिसके कारण न सिद्धान्त, न सेवा, न आदर्श आ पाते हैं। व्यक्ति लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करके भी उच्छृंखल स्तर का अनगढ़ बना रहता है। तुम्हें ईसामसीह की बात सुनाता हूँ। उनके शिष्य ने उनसे कहा कि हम भी आपके समान महान और बड़ा बनना चाहते हैं। हम क्या करें? तो उन्होंने एक ही जवाब दिया-बच्चों जीवन भर मैं तिनका बना, विनम्र बना, गला तथा इसलिए इतने बड़े वृक्ष के रूप में विकसित हो सका। अपनी इच्छा समाप्त कर दीं तो सही अर्थों में बड़े बन गए। पहले तुम सब भी तिनके के समान छोटे बनो। तुम वैसा बन गए तो पेड़ बन सकोगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। वास्तव में सेण्टपाल भी इसी प्रकार सच्चे ईसाई थे। वे ईसा के बाद विकसित हुए। उनकी पीढ़ी के दूसरे महापुरुष भी विनम्रता-सेवा भावना, निरहंकारिता के कारण ही बने।
व्यक्ति को पहचानने की एक ही कसौटी है कि उसकी वाणी घटिया है या बढ़िया। व्याख्यान कला अलग है। मंच पर तो सभी शानदार मालूम पड़ते हैं। प्रत्यक्ष सम्पर्क में आते ही व्यक्ति नंगा हो जाता है। जो प्राण वाणी में है, वही परस्पर चर्चा-व्यवहार में परिलक्षित होता है। वाणी ही व्यक्ति का स्तर बताती है। व्यक्तित्व बनाने के लिए वाणी की विनम्रता जरूरी है। प्याज खाने वाले के मुँह से, शराब पीने वाले मसूड़े के मुँह से जो बदबू आती है, वाणी की कठोरता ठीक इसी प्रकार मुँह से निकलती है। अशिष्टता छिप नहीं सकती। यह वाणी से पता चल ही जाती है। अनगढ़ता मिटाओ, दूसरों का सम्मान करना सीखो। तुम्हें प्रशंसा करना आता ही नहीं, मात्र निन्दा करना आता है। व्यक्ति के अच्छे गुण देखो, उनका सम्मान करना सीखो। तुरन्त तुम्हें परिणाम मिलना चालू हो जाएँगे। वाणी की विनम्रता का अर्थ चाटुकारिता नहीं है। फिर समझो इस बात को, कतई मतलब नहीं है चापलूसी-वाणी की मिठास से। दोनों नितान्त भिन्न चीजें हैं। दूसरों की अच्छाइयों की तारीफ करना, मीठी बोलना एक ऐसा सद्गुण है, जो व्यक्ति को चुम्बक की तरह खींचता व अपना बनाता है। दूसरे सभी तुम्हारे अपने बन जाएँगे, यदि तुम यह गुण अपने अन्दर पैदा कर लो। इसके लिए अन्तः के अहंकार को गलाओ। अपनी इच्छा, बड़प्पन, कामना, स्वाभिमान को गलाने का नाम समर्पण है, जिसे तुमसे करने को मैंने कहा है व इसकी अनन्त फलश्रुतियाँ सुनाई हैं। अपनी इमेज विनम्र से विनम्र बनाओ। मैनेजर की, इंचार्ज की, बॉस की नहीं, बल्कि स्वयंसेवक की। जो स्वयंसेवक जितना बड़ा हैं, वह उतना ही विनम्र है, उतना ही महान बनने के बीजांकुर उसमें हैं। तुम सबमें वे मौजूद हैं। अहं की टकराहट बन्द होते ही उन्हें अन्दर टटोलो कि तुमने समर्पण किया है कि नहीं। पर्यवेक्षण इस श्रावणी पर्व पर अपने अन्तरंग का करो।
हमारी एक ही महत्त्वाकाँक्षा है कि हम सहस्रभुजा वाले सहस्रशीर्षा पुरुष बनना चाहते हैं। तुम सब हमारी भुजा बन जाओ, हमारे अंग बन जाओ, यह हमारी मन की बात है। गुरु-शिष्य एक-दूसरे से अपने मन की बात कहकर हल्के हो जाते हैं। हमने अपने मन की बात तुमसे कह दी। अब तुम पर निर्भर है कि तुम कितना हमारे बनते हो? पति-पत्नी की तरह, गुरु व शिष्य की आत्मा में भी परस्पर ब्याह होता है, दोनों एक-दूसरे से घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। समर्पण का अर्थ है-दो का अस्तित्व मिटाकर एक हो जाना। तुम भी अपना अस्तित्व मिटाकर हमारे साथ मिला दो व अपनी क्षुद्र महत्त्वाकाँक्षाओं को हमारी अनन्त आध्यात्मिक महत्त्वाकाँक्षाओं में विलीन कर दो। जिसका अहं जिन्दा है, वह वेश्या है। जिसका अहं मिट गया, वह पवित्रता है। देखना है कि हमारी भुजा, आँख, मस्तिष्क बनने के लिए तुम कितना अपने अहं को गला पाते हो? इसके लिए निरहंकारी बनो। स्वाभिमानी तो होना चाहिए, पर निरहंकारी बनकर। निरहंकारी का प्रथम चिह्न है वाणी की मिठास।
वाणी व्यक्तित्व का हथियार है। सामने वाले पर वार करना हो तो तलवार नहीं, कलाई नहीं, हिम्मत की पूछ होती है। हिम्मत न हो तो हाथ में तलवार भी हो, तो बेकार है। यदि वाणी सही है तो तुम्हारा व्यक्तित्व जीवन्त हो जाएगा, बोलने लगेगा व सामने वाले को अपना बना लेगा। अपनी विनम्रता, दूसरों का सम्मान व बोलने में मिठास, यही व्यक्तित्व के प्रमुख हथियार हैं। इनका सही उपयोग करोगे तो व्यक्तित्व वजनदार बनेगा।
तुम्हीं को कुम्हार व तुम्हीं को चाक बनना है। हमने तो अनगढ़ सोना, चाँदी ढेरों लगाकर रखा है, तुम्हीं को साँचा बनकर सही सिक्के ढालना है। साँचा सही होगा तो सिक्के भी ठीक आकार के बनेंगे। आज दुनिया में पार्टियाँ तो बहुत हैं, पर किसी के पास कार्यकर्ता नहीं हैं। ‘लेबर’ सबके पास है, पर समर्पित कार्यकर्ता जो साँचा बनता है व कई को बना देता है अपने जैसा, कहीं भी नहीं है। हमारी यह दिली ख्वाहिश है कि हम अपने पीछे छोड़कर जाएँ। इन सभी को सही अर्थों में ‘डाई’ एक साँचा बनना पड़ेगा तथा वही सबसे मुश्किल काम है। रॉ मेटेरियल तो ढेरों कहीं भी मिल सकता है। पर ‘डाई’ कहीं-कहीं मिल पाती है। श्रेष्ठ कार्यकर्ता श्रेष्ठ ‘डाई’ बनता है। तुम सबसे अपेक्षा है कि अपने गुरु की तरह एक श्रेष्ठ साँचा बनोगे।
तुमसे दो और अपेक्षाएँ हैं-एक श्रम का सम्मान। यह भौतिक जगत का देवता है। मोती-हीरे श्रम से ही निकलते हैं। दूसरी अपेक्षा यह कि सेवा-बुद्धि के विकास के लिए सहकारिता का अभ्यास। संगठन शक्ति सहकारिता से ही पहले भी बढ़ी है, आगे भी इसी से बढ़ेगी।
हमारे राष्ट्र का दुर्भाग्य यह है कि श्रम की महत्ता हमने समझी नहीं। श्रम का माद्दा इस सबमें असीम है। हमने कभी उसका मूल्यांकन किया ही नहीं। हमारा जीवन निरन्तर श्रम का ही परिणाम है। बीस-बीस घण्टे तन्मयतापूर्वक श्रम हमने किया है। तुम भी कभी श्रम की उपेक्षा मत करना। मालिक बारह घण्टे काम करता है, नौकर आठ घण्टे तथा चोर चार घण्टे काम करता है। तुम सब अपने आपसे पूछो कि हम तीनों में से क्या हैं? जीभ चलाने के साथ कठोर परिश्रम करो, अपनी योग्यताएँ बढ़ाओ व निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ते जाओ।
दूसरी बात सहकारिता की है। इसी को पुण्य परमार्थ, सेवा, उदारता कहते हैं। अपना मन सभी से मिलाओ। मिल-जुलकर रहना, अपना सुख बाँटना, दुःख बँटाना सीखो। यही सही अर्थों में ब्राह्मणत्व की साधना है। साधु तुम अभी बने नहीं हो। मन से ब्राह्मणत्व की साधना करोगे तो पहले ब्राह्मण बनो। साधु अपने आप बन जाओगे। पीले कपड़े पहनते हो कि नहीं, पर मन को पीला कर लो। सेवाबुद्धि का, दूसरों के प्रति पीड़ा का, भाव-सम्वेदना का विकास करना ही साधुता को जगाना है। आज इस वर्ष श्रावणी पर्व पर तुमसे कुछ अपेक्षाएँ हैं। आशा है तुम इन्हें अवश्य पूरा करोगे व हेमाद्रि संकल्प लोगे। यही आत्मा की हमारी वाणी है, जो तुमसे कुछ कराना चाहती है, इतिहास में तुम्हें अमर देखना चाहती है। देखना है कितना तुम हमारी बात को जीवन में उतार पाते हो।