उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ -
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! यहाँ इस शिविर में आपको गायत्री साधना करने के लिए बुलाया गया है। गायत्री की साधना के सम्बन्ध में आपको क्यों बुलाना पड़ा? इससे पहले भी हम आपको कई बार साधना करा चुके हैं, आपको बता चुके हैं, फिर क्या जरूरत पड़ गई इस साधना को सिखाने की-इस साधना को बताने की। मित्रो! बहुत समय से हम आपको गायत्री उपासना का कर्मकाण्ड एवं क्रिया-कलाप समझाते रहे हैं कि पावन गायत्री मंत्र क्या होता है और गायत्री उपासना कैसे की जा सकती है? कर्मकाण्ड तो कलेवर मात्र है। यह उपासना का शरीर मात्र है, जिसे अभी हमने आपको बताया।
शरीर किसे कहते हैं? शरीर उसे कहते हैं जो दिखाई पड़ता है, जो देखा जा सकता है, जो अनुभव में लाया जा सकता है। हमारा शरीर आपके सामने बैठा हुआ है, कैसा है? इसमें उँगलियाँ हैं, हाथ हैं, नाक है, कान हैं, दाँत हैं, बाल हैं। इसे हम देखते हैं। छू भी सकते हैं इस शरीर को, लेकिन इसके भीतर एक ऐसी विशेषता छिपी हुई है, जिसे आप देख भी नहीं सकते और सुन भी नहीं सकते। केवल अपने गहन अनुभव के द्वारा ही इसको जाना जा सकता है। आपका प्राण कैसा है बताएँ। साहब, प्राण दिखाई तो नहीं पड़ता। कितना शक्तिशाली है, मालूम नहीं पड़ता। कितना ज्ञानवान है, मालूम नहीं पड़ता। कितना चरित्रवान है, मालूम नहीं पड़ता। आँखों से मालूम नहीं पड़ सकता, दिखाई नहीं पड़ सकता। केवल विचारणा के द्वारा आप यह जान सकते हैं कि आपके शरीर में कोई प्राण होगा। फिर आप उससे भी गहराई में जानना चाहें तो यह जान सकते हैं कि आचार्य जी का प्राण कितना शक्तिशाली होगा कितना सामर्थ्यवान, कितना महत्त्वपूर्ण होगा, कितना विकसित होगा। आप ज्यादा खोज-बीन करेंगे तो ही आपको यह मालूम पड़ेगा। ज्यादा खोज-बीन नहीं करेंगे तो आपको केवल हमारा शरीर दिखाई पड़ेगा।
दर्शन का मर्म समझें
वस्तुतः दर्शन करने, सुनने की चीज नहीं। असल में जो फायदा उठाना चाहते हैं, वह किससे मिल सकता है? जीवात्मा के आशीर्वाद से। शरीर का कोई आशीर्वाद नहीं है। हमारा आशीर्वाद हमारी भावनाओं में जुड़ा हुआ है, हमारे स्नेह में जुड़ा हुआ है, हमारे सिद्धांतों में जुड़ा हुआ है, हमारे मन में जुड़ा हुआ है। अगर स्नेह के साथ में तुम्हें कोई आशीर्वाद दे या परामर्श दे तो उसका कोई असर शरीर पर पड़ेगा क्या? शरीर पर कोई असर नहीं पड़ सकता। गायत्री उपासना-गायत्री साधना के क्रियापरक कर्मकाण्ड की तुलना शरीर के कलेवर से की जा सकती है। शरीर और चेतना दो भिन्न चीजें हैं। इससे शरीर का लाभ है क्या? शरीर का भी लाभ है। हम क्या सेवा कर सकते हैं हाथ से? हम आपके लिए पानी पिला सकते हैं, तेल मालिश कर सकते हैं, हजामत बना सकते हैं। और क्या कर सकते हैं? पैर दाब सकते हैं, हाथ-पाँव से यही सेवा कर सकते हैं, लेकिन हम अपने ज्ञान के द्वारा आपका कायाकल्प कर सकते हैं और अपनी ज्ञान की भावनाओं के द्वारा कोई आशीर्वाद देना चाहें तो आपके जीवन का विकास कर सकते हैं। शरीर की अपेक्षा प्राण बहुत बलवान है। शरीर हमारा वैसे भी कमजोर है, छोटा है लेकिन प्राण की शक्ति असीमित है। इसी तरह गायत्री उपासना का कर्मकाण्डपरक क्रियाकृत्य भी है। गायत्री साधना का यह कर्मकाण्ड आप लोगों ने बहुत समय से सीखा है और जाना है। एक खास बात मैं समझता हूँ कि इतना लाभ तो जरूर हुआ होगा कि मन की एकाग्रता हुई होगी। गायत्री उपासना आप बहुत दिनों से करते रहे हैं फिर क्या लाभ हुआ? अपनी दिशाएँ अस्वस्थ हों तो प्रगति रुक गई होगी उससे। और क्या लाभ हुआ होगा और कोई खास लाभ तो नहीं हुआ होगा, क्योंकि आपकी उपासना क्रिया-कलाप तक सीमित थी, कलेवर तक सीमित थी। यह भजन था उसका, कलेवर था, शरीर था जो कि बहुत दिनों से आपको हम सिखाते हुए चले आ रहे थे। उसमें क्रियाएँ करनी होती थीं। किससे? शरीर से, अब तक आपने कलेवर सीखा होगा। उसमें क्रियाएँ करनी पड़ती थीं।
चलें उच्चस्तरीय शिक्षण की ओर
अब हमें आपको उच्चस्तरीय शिक्षा देनी चाहिए। दूसरी बातें बतानी चाहिए ताकि उसका वास्तविक लाभ उठा सकें, अब आपको वास्तविक लाभ उठाने के लिए हमने इस शिविर में बुलाया है, वह उपासना जो आदमी को समर्थ बना सकती है, वह उपासना जो आदमी को शक्तिवान बना सकती है, वह उपासना जो आदमी को सिद्धपुरुष बना सकती है, वह उपासना जो इस भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही जीवनों में आदमी को उठाकर कहीं से कहीं ले जा सकती है। उसका मूल, उसका प्राण हम आपको सिखाएँ यही उद्देश्य है इस शिविर का :: यह गायत्री का प्राण, साधना का प्राण है। चलिए हमारे साथ-साथ गहराई में डुबकी लगाइए ताकि आपको गायत्री की बावत अब तक जो जानकारी है, उसकी अपेक्षा अधिक जानकारी मिले।
साधना का अर्थ कर्मकाण्ड मात्र पूरा कर लेना नहीं है और न ही गायत्री कोई देवी है। अब हम आपको जवानों की, फिलासफरों की, दार्शनिकों की, विचारशीलों की गायत्री समझाना चाहेंगे, अब आपको साहसियों की विचारशीलों की, तपस्वियों की साधना सिखाना चाहूँगा। मैं समझता हूँ कि-अब आप बच्चे नहीं रहे, वरन जवान हो गए हैं, इसलिए जवानों से जवानों की बात कहनी चाहिए। बच्चों को बच्चों की सी बात कहनी चाहिए। जवानों को गायत्री की शिक्षा क्या है? भाइयो! मैं क्या कह सकता हूँ आपसे, गायत्री की कितनी शिक्षाएँ हैं? आज में पहले यही बताना चाहूँगा आपको कि गायत्री की शिक्षाएँ और प्रेरणाएँ क्या हैं? फिर गायत्री उपासना और साधना के रहस्य समझाऊँगा। यह सारे के सारे रहस्य इस शिविर में बताते हुए चला जाऊँगा, जिसके लिए मैंने आपको बुलाया है।
गायत्री का पौराणिक पक्ष क्या है?
अब मैं आपको चलिए यह समझाने की कोशिश करता हूँ कि गायत्री क्या है? पौराणिक कथाएँ हमारे सामने हैं। इनके माध्यम से हम आपको यह आसानी से समझा सकते हैं कि गायत्री माता क्या हो सकती हैं? एक पौराणिक कथा आती है राजा विश्वामित्र की। वे गुरु वसिष्ठ के आश्रम में गए। गुरु वसिष्ठ का आश्रम जंगल में था। छोटी सी, जरा सी झोपड़ी थी। अकेले में रहते थे, बिना किसी सामान के। कमण्डलु में खाना खा लेते थे और अपने वस्त्रों को बिछाकर गुजारा कर लेते थे। बड़े संतोषी ब्राह्मण थे। गुरु वसिष्ठ के आश्रम में संपन्न राजा विश्वामित्र गए। वे जंगल में किसी काम से सेना-समेत गए थे। उन्होंने आवश्यक समझा कि गुरु वसिष्ठ के पास चलें और प्रणाम कर आएँ। राजा विश्वामित्र प्रणाम करने गए। गुरु वसिष्ठ ने पूछा-दोपहरी में आप लोग यहाँ कैसे आए? महाराज जी! हम लोग रास्ता भूल गए हैं और सेना के साथ यहाँ पर आ पहुँचे। आप लोगों ने खाना भी नहीं खाया होगा। कहाँ पर खाना खाते, महाराज जी! यहाँ पर पात्र भी नहीं हैं, भोजन का सामान भी नहीं है। भोजन का सामान पीछे रह गया है। यहाँ पर भटक गए हैं, पानी मिल जाए वही बहुत है। वसिष्ठ ने कहा-हमारे यहाँ दरवाजे पर आप आए हैं। अत: आप हमारे अतिथि हुए इसलिए अतिथि का सत्कार करना, स्वागत करना हमारा कर्तव्य है। आप भूखे भी हैं और प्यासे भी हैं। हम चाहते हैं कि आपके भोजन का प्रबंध करें। अरे, महाराज जी अकेले से क्या फायदा, इतनी बड़ी सेना भी साथ है, इसके भोजन का आप प्रबंध जब तक नहीं करेंगे, तब तक बात कैसे बनेगी? अच्छा तो चलिए अभी हम करते हैं। उनके पास एक नंदिनी नाम की गाय थी। कामधेनु की बेटी नंदिनी। उन्होंने कहा-'' नंदिनी हजारों की संख्या में आए हुए हैं मेहमान। उनके भोजन का प्रबंध होना चाहिए। '' नंदिनी ने सिर हिला दिया, ठीक है अभी होता है। राजा से कहा गया कि आइए आप सबको भोजन करा ले जाइए। सब लोग बैठ गए।
पौराणिक खंड की यह कहानी अभी खत्म नहीं हुई। मित्रो, कहानी में एक और बात शामिल होती है। जब सब लोगों ने भोजन कर लिया तब विश्वामित्र ने पूछा-महाराज जी ये सब आपने कहाँ से पाया? सामान तो था नहीं आपके पास, इतना दही, भोग, इतना चमत्कार, इतनी सिद्धि, इतना धन, इतनी विशेषताएँ कहाँ से पा लीं। उन्होंने इशारा किया नंदिनी की ओर। ये नंदिनी है। नंदिनी के पास सब कुछ है। यह कामधेनु है। इसकी छाया में बैठकर हर चीज प्राप्त हो जाती है। सभी कामनाओं को पूरा करती है, इसलिए इसे कामधेनु कहा गया है। विश्वामित्र ने कामधेनु को छीनना, हड़पना चाहा और बोले-'' '' यदि कामधेनु हमें मिल जाए तो कितना अच्छा हो। '' गुरु वसिष्ठ बहुत नाराज होते हैं, पौराणिक कथा के मुताबिक़। उन्होंने कहा-हमारी गाय को आप नहीं ले जा सकते। राजा विश्वामित्र ने कहा-हम आपकी गाय को अवश्य ले जाएँगे। अच्छा तो आप लेकर दिखाइए। विश्वामित्र गाय को जबरदस्ती लेने के लिए चले। तो गुरु वसिष्ठ ने नंदिनी को आज्ञा दी --इन सबकी अक्ल ठिकाने कर दो। नंदिनी ने अपनी सींगों से मार मारकर सारी सेना को परास्त कर दिया। सेना भाग खड़ी हुई और राजा भी भाग खड़ा हुआ। विश्वामित्र ने इस धारणा पर विचार किया कि क्या गाय इतना धन और वैभव इकट्ठा कर सकती हे? एक गाय इतना युद्ध कर सकती है? यह गाय बड़ी जबरदस्त है। इस गाय को प्राप्त करने के लिए हमको प्रयत्न करना चाहिए। गुरु वसिष्ठ ने जिस तरह प्रयत्न किया तो, बस उसी तरह विश्वामित्र अपना राजपाट घर वालों को देकर के जंगल में आ गए और उसी नंदिनी की कृपा पाने के लिए प्रयत्न करने लगे। विश्वामित्र ने कहा-'धिक बलम् छत्रिय बलम् ब्रह्मतेजो बलम् बलम्'। भौतिक बल, सांसारिक बल जिसमें धन भी आता है, श्रम, समय भी आता है, रूप भी आता है; बुद्धिबल भी आता है, ये सारे के सारे हैं, जिनको हम भौतिक बल कहते हैं। धिक अर्थात छोटे हैं, नगण्य-नाचीज हैं। ब्रह्म तेजो बलम् बलम् अर्थात अगर कोई श्रेष्ठ बल है, तो वह है ब्रह्मबल, आत्मा का बल। इसे ही प्राप्त करना चाहिए।
सब गाथा खत्म हो गई। पौराणिक कहानी खत्म हो गई। क्या अर्थ निकला? प्राय: पौराणिक कहानियों को लोग इतिहास मान लेते हैं। गलती तो गलती है, मैं क्या कह सकता हूँ। वास्तव में यह अलंकार है। अलंकार की दृष्टि से ऋषियों ने बड़े महत्त्वपूर्ण विषयों को समझाने की कोशिश की है। सारे आर्ष ग्रंथों, अठारह पुराणों के मैंने भाष्य किए हैं। पुराणों को लोग इतिहास मान बैठते हैं और फिर यह कहते हैं कि पुराणों में गप्पें लिखी हैं। लेकिन बेटे पंचतंत्र की किताबों में भी गप्पें लिख रही हैं, जैसे कौवे से लोमड़ी ने कहा-अरे भाई साहब! गाना गा दीजिए। अच्छा तो मैं गाना गाता हूँ रोटी का टुकड़ा मुँह में से गिरा और लोमड़ी लेकर के भाग गई। क्यों साहब, लोमड़ी की बातचीत कौवा सुन सकता है? नहीं! तो क्या कौवे की बात-चीत लोमड़ी समझ सकती हैं? नहीं बेटे! ये झूठ नहीं है। बालकों को आकर्षक ढंग से, पहेली के ढंग से, प्रिय बुजुर्गों के ढंग से उनको महत्त्वपूर्ण बात समझा देती है, तो क्या हर्ज है। उसमें मनोरंजन भी रहता है, आकर्षण भी रहता है। इसी तरह का शिक्षण है पुराणों में। कोई क्या समझे, पुराणों में विचित्र कहानियाँ हैं। कहानियों के माध्यम से लोगों को शिक्षण देने की कोशिश की है। बताने की कोशिश की है, बड़े महत्त्वपूर्ण विषयों को, जो साधारणत: समझ में नहीं आते हैं, कठिन विषयों, जटिल विषयों, फिलॉसफी को समझाने के लिए कथानकों का माध्यम लिया गया है। यह कथा जो मैं अभी अभी आपको सुना चुका हूँ इसका क्या अर्थ होता है? आत्मबल, आत्मशक्ति संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। इसे प्राप्त करने के लिए गायत्री का, ऋतम्भरा प्रज्ञा का अवलंबन लेना होता है।
गायत्री है ऋतम्भरा प्रज्ञा
गायत्री का ही दूसरा नाम ऋतम्भरा प्रज्ञा है। ऋतम्भरा प्रज्ञा, इसका नाम गायत्री है। कितनी शिक्षाएँ इसमें हैं? नंदिनी की तरह यह भी काम कर सकती है। एक काम यह कर सकती है-जो पाप, ताप, शोक संताप, कष्ट और अभाव हमारे जीवन में हैं, उन्हें यह उसी तरह सींगों से मारकर भगा सकती है जैसे कि विश्वामित्र और उनकी सेना को जो गुरु वसिष्ठ को हैरान करने और नंदिनी को हैरान करने के लिए आए थे, तो नंदिनी ने उनको मार गिराया और सफाया कर दिया था। इसी तरीके से अपने जीवन की मौलिक कठिनाइयों और बाधाएँ जो हमको रास्ते पर चलने में रुकावट डालती है, उन सारी की सारी कठिनाइयों को, हमारी भ्रामक मनःस्थितियों को, भ्रामक यश-लिप्सा को ऋतम्भरा प्रज्ञा मारकर भगा सकती है। इस कहानी का यही अर्थ है कि यह मनुष्य की भौतिक और आत्मिक सफलताओं का द्वार खोल सकती है। अब आप आध्यात्मिकता की ताकत को देने:, जो दुनिया की सबसे खड़ी ताकत है, इनके मुकाबले दुनिया के परदे पर कोई नहीं है, क्योंकि ये चेतना की ताकत है। जड़ की ताकत सीमित है जड़ क्या है? जड़ हमारा शरीर है? जड़ क्या है? जड़ हमारा पैसा है। जड़ क्या है? जड़ हमारा व्यापार है। दिमाग भी हमारा जड़ पदार्थ का बना है, जिसे ज्ञानेंद्रिय कहा जाता है ये भी जड़ है। पदार्थ की सीमा हैं। पैसे की शक्ति बुद्धि की शक्ति सब शक्तियाँ जड़ हैं। जड़ के द्वारा जो फायदा मिल सकता है; चेतना के द्वारा उससे हजारों गुना फायदा हो सकता है; लाखों गुना ज्यादा फायदा हो सकता है चेतना की शक्ति अगर हमारे पास हो, जिसे हम ब्रह्मबल कहते हैं और आत्मबल कहते हैं, तो फिर उसका कहना ही क्या?
मित्रो! मैं कहानी का अर्थ समझाना चाहूँगा आपको, ताकि गायत्री की परिभाषा समझ में आ जाए कि गायत्री क्या हो सकती है एवं क्यों इसका दूसरा नाम ऋतम्भरा प्रज्ञा है। एक कहानी सावित्री और सत्यवान की है। एक लड़की बड़ी रूपवती, बड़ी कुलवती, बड़ी सुंदर, ऐसी सुंदर जिसकी ख्याति संसार भर में फैल गई। सभी राजकुमार उसे देखकर यही कहते कि यह तो बड़ी सुंदर राजकुमारी है। यदि वह हमको मिल जाती तो अच्छा होता। लड़की के पिता के सामने सभी राजकुमार हाथ पसारने लगे और कहने लगे कि इसे हमको दीजिए। लड़की ने अपने पिता से कहा कि हमको अपनी मरजी का दूल्हा चुनने दीजिए। अच्छा तो आप चुन लें। ठीक है। रथ पर सवार होकर सेना को साथ लेकर सावित्री रवाना हुई। रवाना होते-होते वह सारे देशों के राजकुमारों से मिली और यह पता लगाया कि हमारे लिए कोई दूल्हा है क्या? कोई भी दूल्हा उसको पसंद नहीं आया। जंगल में एक दिन निकलकर जा रही थी सावित्री रथ समेत। उसने एक लड़के को देखा। वह एक लकड़हारा था। लकड़हारा बड़ा तेजस्वी मालूम पड़ता था और चेहरे पर उसके यशस्विता भी टपक रही थी। दृढ़ निश्चय भी टपक रहा था। सावित्री ने उसको रोका और पूछा लकड़हारे तुम कौन हो और कैसे हो? उसने कहा लकड़हारा तो इस समय पर हूँ पर पहले लकड़हारा नहीं था। हमारे माता पिता अंधे हो गए हैं। यहाँ जंगल में जाकर तप करते हैं उन्हीं की रक्षा करने के लिए हमने यह आवश्यक समझा कि उनको भोजन कराने से लेकर के सेवा करने तक के लिए हमको कुछ काम करना चाहिए और जिम्मेदारी को निभाना चाहिए। इस जंगल में और तो कोई पेशा है नहीं, लकड़ी काटकर ले जाते हैं और गाँव में बेच देते हैं, पैसे लाते हैं और उनका सामान खरीदकर लाते हैं। माता पिता को रोटी खिलाते हैं, सेवा करते हैं। आपने अपने भविष्य के बारे में क्या सोचा है? भविष्य के बारे में, क्या शादी नहीं करना चाहते। अभी हमारे माता पिता का कर्ज हमारे ऊपर रखा हुआ है, अभी हम शादी कैसे कर सकते हैं? सावित्री ने कहा --तुम कुछ और नहीं कर सकते क्या? पैसा नहीं कमा सकते? पैसे कमा करके हम क्या करेंगे? कर्तव्यों का वजन हमारे ऊपर रखा है। पहले कर्तव्यों का वजन तो कम कर लें, तब संपत्तिवान बनने की बात सोची जाएगी या शादी करने की बात देखी जाएगी। अपनी सुविधा की बात बहुत पीछे की है। पहले तो वह करेंगे जो हमारे ऊपर कर्ज के रूप में विद्यमान है, इसलिए माता-पिता, जिन्होंने हमारे शरीर का पालन किया, पहला काम उनकी सेवा का करेंगे, इसके बाद और बातों को देखेंगे। पढ़ना होगा तो पीछे पढ़ेंगे। नौकरी करनी होगी तो पीछे करेंगे या शादी करनी होगी तो पीछे करेंगे, अभी तो हमको कर्ज चुकाना है, माता-पिता की सेवा करनी है।
लकड़हारे की बात सुनकर राजकुमारी रुक गई। अब वह विचार करने लगी कि बाहर से ये लकड़हारा है, लेकिन भीतर से कितना शानदार है। कितना शानदार इसका कलेजा, कितना शानदार इसका दिल, कितना शानदार इसकी जीवात्मा। इसने अपने सुख और भौतिक सुविधाओं को लात मार दी और अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता दी। यह बड़ा जबरदस्त है। लकड़हारा है तो क्या हुआ। लकड़हारे से सावित्री ने कहा कि हम तो दूल्हा तलाश करने 'चले थे, अब हम आपसे ही ब्याह करेंगे। अब हम आपको ही माला पहनाना चाहते हैं। वह हँसा, उसने कहा-हमको अपने पेट का तो गुजारा करना ही मुश्किल पड़ता है फिर तुम्हारा गुजारा कैसे कर सकते हैं? उसने कहा-हम पेट पालने के लिए आपकी सहायता माँगने के लिए नहीं आए? आपकी सहायता करने के लिए आए हैं। हम बहुत बड़े मालदार हैं। हमारा बाप बहुत बड़ा मालदार है, हमारे पास बहुत सारा पैसा है। हम आपकी सेवा कर सकते हैं? यह सुनकर राजकुमार -नारद बोला जी बता गए थे कि एक साल बाद हमारी मृत्यु होने वाली है। सावित्री ने कहा कि हमारे पास इतनी विशेषता है कि हम आपकी जान बचा सकते हैं। हम आपको सम्पन्न बना सकते हैं। आपको यशस्वी बना सकते हैं। हम आपको सब कुछ उपलब्ध करा सकते हैं। हम बड़े मालदार हैं---और सावित्री ने गले में माला पहना दी। क्या आपने सावित्री सत्यवान की कहानी पढ़ी है? पढ़ी होगी तो जानते होंगे कि फिर क्या हुआ था? राजकुमारी से विवाह करने के बाद सत्यवान के जीवन में एक वक्त ऐसा भी आया था, जब यमराज आए थे और सत्यवान का प्राण निकालकर ले गए थे। तब सावित्री ने कहा था-नहीं, यमराज बड़े नहीं हो सकते। हम बड़े हैं। आखिर सावित्री ने यमराज से अपने पति का प्राण छीन लिया था। आपने सुना है या नहीं सुना है। हमें नहीं मालूम, पर यह एक कहानी है, जो गायत्री का प्राण, गायत्री की जीवात्मा, गायत्री की वास्तविकता और गायत्री की फिलॉसफी है। आप इस फिलॉसफी की गहराई में जाइए किनारे पर बैठकर गायत्री का भजन करेंगे तो उससे क्या मिलेगा? यह तो किनारे बैठकर किनारे का भजन है। अरे डुबकी मार करके गायत्री के भजन की वास्तविक स्थिति ढूँढ़कर के ला। जहाँ से लोग शक्तिवान बन जाते हैं, चमत्कारी बन जाते हैं वहाँ तक डुबकी मार। वहाँ तक डुबकी नहीं मारेगा, किनारे तक बैठा रहेगा।
सावित्री किसे कहते हैं? सावित्री बेटे गायत्री का ही दूसरा नाम है और सत्यवान? सत्यवान उसे कहते हैं, जिस साधक ने अपना जीवन समय के लिए सिद्धांतों के लिए अर्थात आदर्शों के लिए समर्पित किया है, उस आदमी का नाम है सत्यवान। सावित्री गायत्री के लिए यह आवश्यक है कि उसका भक्त सत्यवान हो अर्थात सिद्धान्तवादी हो, आदर्शवादी हो। उत्कृष्ट चिंतन में लगा हो। कर्तव्यों में लगा हुआ हो। इस तरह का अगर कोई व्यक्ति है, तो उसे गायत्री का साधक कह सकते हैं। साधना के लिए पकड़ना पड़ेगा चेतना का स्तर, जहाँ शक्तियाँ निवास करती हैं, जहाँ भगवान निवास करते हैं, जहाँ आस्थाएँ निवास करती हैं। उस स्थान का नाम, उस स्तर का नाम वह भूमि है, जिसे दिव्यलोक कहते हैं, जहाँ गायत्री भी निवास करती है, चेतना निवास करती है, जिसको हमने ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा है। चलिए हमें ऋतम्भरा प्रज्ञा ही कहने दीजिए। ऋतम्भरा प्रज्ञा क्या है? वह प्रज्ञा, वह धारणा, वह निष्ठा जो आदमी को ऊँचा उठा देती है, ऊँचा उछाल देती है। जिसकी प्रेरणा से आदमी ऊँची बातों पर विचार करता है और नीची बातों से ऊँचा उठता चला जाता है, उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञावान के सामने, आदर्श रहते हैं, ऊँचाई रहती है।
नासमझी पर विजय प्राप्त कराने वाली मनःस्थिति है-गायत्री
बेटे! ऋतम्भरा प्रज्ञा किसको कहते हैं? ऋतम्भरा प्रज्ञा उसे कहते हैं, जो आदमी को उछाल देती है, ऊपर की तरफ। ऊँचे उठे हुए व्यक्ति का दायरा बड़ा हो जाता है और विचार करने का, देखने का और सोचने का स्तर ऊँचा उठ जाता है, तब जबकि ऋतम्भरा प्रज्ञा जग जाती है। ऐसे व्यक्ति के लिए वे सभी वस्तुएँ-चीजें बिलकुल नाचीज हैं, जिनकी जीवन में कुछ खास अहमियत नहीं है। आदमी की दैनिक जीवन की जरूरतें बिलकुल थोड़ी सी हैं, नगण्य हैं। पेट भरने को जरा सा मुट्ठी भर अनाज चाहिए तन ढकने को मुट्ठी भर कपड़ा चाहिए और रहने को जरा सी जगह चाहिए। आदमी की जरूरतें इतनी कम हैं कि छह फुट लंबे आदमी का पेट आसानी से भरा जा सकता है और आदमी खुशी की जिंदगी जी सकता है, पर आदमी जिस बेअक्ली की वजह से, जिस बेवकूफी की वजह से सारी जिंदगी दु:खों में व्यतीत कर देता है कष्टों में व्यतीत कर देता है, चिन्ताओं में व्यतीत कर देता है, वह बेटे, नासमझी हैं। इस नासमझी पर विजय प्राप्त करने वाली जो हमारी मन:स्थिति है, उसका नाम है ऋतम्भरा प्रज्ञा। जीवन का लक्ष्य क्या हो सकता है? जीवन में शांति कहाँ से आ सकती है? जीवन की दबी हुई सामर्थ्यों को हम कैसे विकसित कर सकते हैं? ये हमारी मूर्च्छित सामर्थ्य है शोचनीय सामर्थ्य है, गई --गुजरी सामर्थ्य है, लेकिन इससे अत्यधिक महत्त्वपूर्ण जो सामर्थ्य हैं, उनको विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए ये समझ और ये अक्ल जहाँ से आती है, उसका नाम ऋतम्भरा प्रज्ञा है।
गायत्री किसका नाम है? ऋतम्भरा प्रज्ञा का। गायत्री किसे कहते हैं? ऋतम्भरा प्रज्ञा को। गायत्री कोई देवी नहीं होती, कोई देवता नहीं होता। ऋतम्भरा प्रज्ञा का ही नाम गायत्री है। वास्तव में अगर यही ऋतम्भरा प्रज्ञा हमारे ऊपर प्रसन्न हो जाए तो हमको मालदार कर सकती है, सावित्री और सत्यवान के तरीके से। अगर वही गायत्री जिसको हमने ऋतम्भरा प्रज्ञा के नाम से कहा है, हम पर प्रसन्न हो जाए तो हमको गुरु वसिष्ठ बना सकती है, विश्वामित्र बना सकती है और हम विश्वामित्र के तरीके से राजपाट को भी ठोकर मार दें और ऋतम्भरा प्रज्ञा को प्राप्त करने के लिए कोशिश करें। ऋतम्भरा प्रज्ञा अर्थात गायत्री को प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना होगा या क्या करना चाहिए? पुराणों की कहानियाँ जिसको आपने सब कुछ मान लिया है। जिसको आपने जाने क्या मान लिया है, जाने क्यों मान लिया है? ऋतम्भरा प्रज्ञा गायत्री मंत्र की शक्ल और सूरत हमको बताइए कि गायत्री माता किसे कहते हैं? गायत्री माता उसे कहते हैं बेटे, जो एक जवान महिला है। जवान महिला के दो पैर हैं। एक भौतिक पहलू और दूसरा आध्यात्मिक पहलू। भौतिक पहलू यह होता है कि इसकी नाक कैसी है? कान कैसे हैं? मुँह कैसा है? दाँत कैसे हैं? ये किस काम आ सकता है? यह रूप और सौंदर्य के देखने में काम आ सकता है? कामवासना के सेवन करने में आता है। हँसी मजाक करने के काम आता है। ये कलेवर, कलेवर हैं। कलेवर स्थूल हैं, लेकिन नारी की जो छवि, गायत्री माता की छवि के रूप में हमने आपको बताई थी, उसके अंदर एक और विशेषता है। नारी के भीतर नारी का प्राण है। नारी का प्राण क्या है? नारी किसे कहते हैं? देवता कभी देखे हैं आपने? नहीं साहब, देवता हमने नहीं देखे। सपने में देखे हैं, अच्छा आइए हम आपको देवता दिखा सकते हैं। दिखाइए? अच्छा तो हम आपको पहले देवी दिखा दें तो फिर ऐतराज तो नहीं है आपको, नहीं साहब? देवी नहीं दिखा सकते हैं, तो आप भले ही देवता दिखा दीजिए। पहले आप दिखा दीजिए कुछ भी।
चलिए हम आपको पहले दिखाते हैं एक महिला की तसवीर, हम आपके सामने पेश करते हैं एक महिला को, देवी के रूप में। देवी के रूप में जब हम देखते हैं, किसी स्त्री के भीतर प्रवेश करते हैं, उसकी अंतरात्मा में झाँकते हैं तो उसके अंदर साक्षात देवी का दर्शन होता है। समर्पण की देवी, प्रेम की देवी, स्नेह की देवी, बलिदान की देवी, जिसने अपनी सारी जिंदगी, सारी महत्त्वाकांक्षाओं को समाप्त किया, कोई विवाह करके आई, समर्पित जीवन लेकर आई। पति के आगे उसने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। उसने कहा-आप जैसा हुक्म करेंगे, वैसा हम करेंगे। जो आप खिलाएँगे वह हम खाएँगे, आप जो काम करने के लिए कहेंगे, वह हम करेंगे। बेपैसे के गुलाम होकर के हम रहेंगे। जैसे भी आप रखें हम रह लेंगे, गाली देंगे आप तो भी हम बरदाश्त करेंगे। हम आपके इशारे पर आपकी छाया के तरीके से रहेंगे। समर्पण कौन कर सकता है? समर्पण बेटा बहुत मुश्किल है। गीता में भगवान कह गए है-मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय ।निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:।
उन्होंने कहा-अरे! मूर्खों अपनी अक्ल तो हमको दे दो। अपनी इच्छाएँ हमको दे दो। अपना सामान हमको दे दो। लेकिन उनकी बात को मंजूर नहीं किया। हर एक ने कहा-हम आपको अक्षत चढ़ा सकते हैं, चंदन चढ़ा सकते हैं और आपकी आरती उतार सकते हैं लेकिन देने के लिए अँगूठा है। हम भी यही कहते और करते रहे, लेकिन हमारी देवी ने समर्पण करके दिखा दिया। बेटे देवी है इसके भीतर। कौन सी देवी है? समर्पण जिसका उद्देश्य है। समर्पण जिसका स्वभाव, समर्पण जिसकी प्रकृति है।
मित्रो! देवी है वह। कौन? जिसने एक नन्हे से भ्रूण-कलल को अपने कलेजे में छिपाकर रखा और नौ महीने तक अपना रक्त और अपना माँस और अपनी हड्डियाँ निचोड़कर के खिलाती रही और पिलाती रही और अपने शरीर में से छह पौंड का-साढ़े सात पौंड का एक बच्चा पैदा कर दिया। साढ़े छह पौंड खून आप दीजिए हमको। नहीं महाराज जी, हम तो नहीं दे सकते। बेटे? हमारे शरीर में खून की कमी है और डॉक्टर ने कहा है कि इसमें आधा पौंड खून चढ़ा दे गुरुजी के तो हम मोटे हो जाएँगे। अपना खून दे जा। नहीं महाराज जी, हम तो नहीं दे सकते। आधा पौंड भी नहीं दे सकता। लेकिन बेटे, साढ़े छह पौंड रक्त और माँस और हड्डियों में से हड्डियाँ निकाल करके उसने दी जब बच्चा पैदा हुआ। बच्चा पैदा होने के समय में कितनी मुसीबतें उठाई और पैदा होने के पश्चात् अपनी छाती का दूध लाल रंग के खून को सफेद रंग के दूध में बदलकर के पिलाती रही बच्चे को। रात को वह टट्टी करता रहा, पेशाब करता रहा, चिल्लाता रहा, नींद हराम करता रहा। सारी रात माँ गीले में सोती रही और उसे सूखे में सुलाती रही। किसी ने कहा-ये बड़ा अभागा बच्चा है, क्यों पैदा हो गया। वह कहती रही यह तो हमारा भाग्य है, जो हमारी गोदी में बच्चा आ गया। बेटे इसे कह सकता हूँ। यह देवी है। नारी का अर्थ है --देवी। अगर आप गहराई में प्रवेश करें तब, और अगर बाहर से देखें तो नारी का अर्थ है भोग्या। उसके कान को देखिए अलग --अलग स्थान को देखिए कामुकता के हिसाब से देखिए वासना के हिसाब से देखिए तो वह भोग्या है। लेकिन अगर आप गहराई में जाएँ तो वह देवी है।
फोटो को नहीं देखें, तत्त्वदर्शन को समझिए
बेटे! मैं यह कह रहा था आपसे कि चमड़े की आँख से नारी को देखने की अपेक्षा ऋतम्भरा प्रज्ञा की आँखों से, दिव्य चक्षु से देखना शुरू कीजिए। हमने आपको अभ्यास कराया था गायत्री माता का फोटो दे करके किं आप इनको माता के रूप में देखिए। बेटे! यह माता नहीं हैं तो क्या है? शिवाजी ने एक मुसलमान महिला को देखा, जो उसके लिए लाई गई थी। उसे देखते ही उन्होंने कहा-यह तो मेरी माँ हो सकती है। यदि ऐसी खूबसूरत हमारी माँ होती तो हम भी इतने खूबसूरत क्यों न होते? उस खूबसूरत औरत में उन्होंने अपनी माँ को देखा और माता को देखकर के विदा कर दिया। विदा करने के बाद में देवी ने प्रसन्न होकर के उनके हाथ में अक्षय तलवार दी और कहा कि यह तलवार अक्षय है। शिवाजी जहाँ चाहे लड़ेगा, इसकी कभी हार नहीं हो सकती। यह कौन सी देवी थी? यह वो देवी थी जिसके नारी के रूप में, एक खूबसूरत महिला के रूप में शिवाजी ने अपनी माता का साक्षात्कार किया और गाण्डीव क्या था? कहाँ से आया था गाण्डीव? वहीं से आया था जहाँ गहराई की दृष्टि से ऋतम्भरा प्रज्ञा मिली थी। नारी को उसने प्रज्ञा से देखा। जब देवताओं की सहायता करने के लिए अर्जुन स्वर्गलोक में गए और स्वर्गलोक में प्रसन्न होकर के देवताओं ने उस लोक की सबसे ज्यादा सुंदर महिला को उनके पास भेजा। उस महिला को देखकर उन्होंने पूछा-क्यों आई है? बेचारी क्या कहती? कहने लायक बात हो तो बताए। देवताओं का उद्देश्य बता करके बेचारी अपने ढंग से कहने लगी। पुराने समय की भाषा अलग थी, उसने कहा-आपके जैसा बच्चा हमारे पेट में हो जाता तो कितना अच्छा होता। उद्देश्य अर्जुन समझ गया। उसने कहा-मेरे दरवाजे से खाली हाथ तो कोई गया नहीं, मैं आपकी भी सहायता करूँगा और आपको मेरे जैसा ही बच्चा पैदा हो जाएगा। लेकिन जो तरीका आप चाहती हैं, वह सही नहीं है। आप क्या हैं? आप मेरी माँ कुंती के समान हैं और मैं आपका बेटा, ठीक है, यह कहकर वह चली गई और उसने जाकर अपने देवताओं को बताया। जब मैं गई तो उसने मेरे चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाई और कहा-आप हमारी माँ और मैं आपका बेटा! हमने उसके मस्तक पर हाथ रखा कि तू हमारा बेटा है। मेरे से वह काम नहीं हो सका, जिसके लिए भेजा गया था। देवताओं ने कहा-ठीक है यदि वह ऐसा शालीन है, ऐसी मजबूत ऋतम्भरा प्रज्ञा वाला है तो हम उसे जरूर अनुदान वरदान देंगे।
यह है अध्यात्म शक्ति, आत्मशक्ति, आत्म चेतना, जिसकी हम उपासना कराते हैं। अर्जुन की उपासना को देखकर देवताओं ने कहा-इसे कोई बड़ा उपहार देना चाहिए कोई बड़ा चमत्कार देना चाहिए कोई बड़ी सिद्धि देनी चाहिए कोई बड़ा वैभव देना चाहिए कोई बड़ा यश देना चाहिए। अर्जुन को देवताओं ने गाण्डीव दिया। देवताओं से गाण्डीव लेकर के आए थे अर्जुन। गाण्डीव किसे कहते हैं? बेटे! बाँस के बने हुए तीर-कमान को कहते हैं। यह गाण्डीव कितना जबरदस्त था कि इसने अकेले ही महाभारत पर विजय प्राप्त कर ली। इतना ही जबरदस्त हो सकता है गाण्डीव। गाण्डीव किसे कहते हैं? तलवार में ताकत होती है। नहीं बेटे! आत्मबल में ताकत होती है। तो क्या कलाई में ताकत होती है? बेटे! कलाई में ताकत होती है। कलाई में दरद हो रहा है या कलाई नहीं होगी तो तलवार क्या काम करेगी? कलाई में दरद हो रहा है तो भी तलवार चला, हमने तुझे २५० रुपए की तलवार दी है। अरे साहब! तलवार कौन उठाएगा, हमारे तो हाथ में दरद होता है। हाँ बेटे। तलवार नहीं चलती, हाथ नहीं चलते, हिम्मत चलती है। पुरानी बंदूकों को देखकर लोग शोर मचाते हैं। बंदूक लिए जो व्यक्ति फिरता है, अगर हाथ में ताकत नहीं है तो चोर आता है और चाँटा मारता है और बंदूक भी छीन ले जाता हैं और कारतूस भी छीन ले जाता है। बंदूक चलती हैं? नहीं बेटे! कलाई चलती है? नहीं हिम्मत चलती है। इसलिए जो कुछ भी दिया होगा, मैं समझता है देवताओं ने अर्जुन को तो क्या दिया होगा? आत्मबल दिया होगा जो दुनिया की सबसे बड़ी सबसे बड़ी ताकत और सबसे बड़ा वैभव है। उससे बड़ा कोई वैभव नहीं हो सकता। किस कीमत पर दिया था? गायत्री को माता माना था। स्त्री को माता माना था। ये क्या बात कह रहा हूँ मैं। ऋतम्भरा प्रज्ञा का यह एक नमूना है। नारी के भीतर गहराई में जाइए और उसके भीतर देवी को देखिए। आज की बात समाप्त।
।।ॐ शान्ति:।।