उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। — पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
किसलिए यहाँ बुलाया?
देवियो, भाइयो! आज हमारा साधना सत्र समाप्त हो रहा है। आइए जरा समीक्षा करें कि हमें यहाँ किस उद्देश्य के लिए बुलाया गया था और क्या कार्य संपन्न हो सका और क्या नहीं हो सका, समीक्षा करें। ये शिविर किस काम के लिए लगाए जा रहे हैं, आप इसका अंदाजा लगा सकते हैं। अगर आपका ये ख्याल हो कि गुरुजी को मजमा इकट्ठा करने का और भीड़ लगाने का बड़ा शौक है, इसलिए कोई न कोई बहाना बना करके बार-बार यहाँ शिविर लगा लेते हैं, ताकि उनके आश्रम की रौनक बनी रहे। यहाँ भीड़-भाड़ बनी रहे, हल्ला-गुल्ला मचता रहे, ताकि लोग समझें कि इनके कितने अधिक चेले-चपाटे हैं? आपका यही ख्याल है न? नहीं साहब! हमारा यह ख्याल नहीं है। मित्रो ! मेरी जिंदगी के दिन इतने नजदीक आते चले जा रहे हैं कि मैं समय के एक-एक क्षण को कितना मूल्यवान समझ करके इस्तेमाल कर रहा हूँ, आपको यह जानना चाहिए। व्याख्यानों के लिए मैं आपको यहाँ नहीं बुलाता हूँ, क्योंकि व्याख्यानों पर से मेरा विश्वास धीरे-धीरे कम होता हुआ चला जा रहा है। व्याख्यानों से अगर लोगों का कुछ फायदा हुआ होता तो अब तक न जाने कितने हजारों-लाखों आदमी बना करके मैंने तैयार कर दिए होते।
व्याख्यान के लिए नहीं
मित्रो! व्याख्यान से लोगों को जानकारियाँ मिलती हैं। आज लोग इतने ढीठ हो गए हैं कि रोजाना रामायण सुनते हैं, भागवत सुनते हैं और यह ख्याल करते हैं कि इन्हें सुनने से ही उद्धार हो जाता होगा। इसलिए कथा सुन करके अपना कर्त्तव्य पूरा कर लेते हैं। सत्यनारायण की कथा, भागवत की कथा, अमुक की कथा सुनिए-कहिए। इस सुनने-कहने को ही सब कुछ मान लेते हैं। मित्रो! ऐसे जमाने में, मेरा विश्वास है कि अब कहना-सुनना बेकार है। आदमी जब कहने-सुनने की कोई वकत न समझता हो, जीवन के पाठ की कोई अहमियत न समझता हो और यह मान लेता हो कि कह दिया तो सही है, सुन लिया तो सही है, मेरा तो मानना है कि ऐसे जमाने की बात करना अपने समय को बरबाद करना है। हमारी जीभ बिलकुल बेकार है। इस जीभ से निकली हुई आवाज और शब्द लोगों के कान से टक्कर खाते हैं और हवा में गायब हो जाते हैं। इससे क्या फायदा होता है? बेटे! कुछ फायदा नहीं होता। हमने रेडियो पर हजारों बार गीता सुनी है, भागवत सुनी है। इसका कुछ फायदा हुआ? नहीं हुआ। बेटे! अब जबान पर से मेरा विश्वास कम होता चला जाता है।
पचाने व हजम करने के लिए
तब क्या आपको यहाँ व्याख्यान देने के लिए बुलाता हूँ? नहीं बेटे! मैं व्याख्यान देने के लिए आपको नहीं बुला सकता और इसके लिए अपना अमूल्य समय खरच नहीं कर सकता। फिर आपने किस काम के लिए बुलाया है? बेटे! मैंने किसी खास मकसद के लिए बुलाया है। चूँकि आपका समय इतना लंबा है—बारह घंटे, चौबीस घंटे। इसको कहीं न कहीं इस्तेमाल करना था, नहीं तो आप बोर हो जाते। आप बोर न होने पाएँ, इसलिए हमने व्याख्यान का इंतजाम भी रखा, हवन का इंतजाम रखा, विचार गोष्ठियों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी इंतजाम रखा, ताकि आप यहाँ शांति से जितने समय रहना था, उतना समय व्यतीत करें। इसलिए मनोरंजन का भी थोड़ा-सा क्रम बनाया था। असल में आपको बुलाने का हमारा मकसद अलग था। हमारे बुलाने का मकसद ठीक वही था, जिसके लिए हमारे गुरुदेव हमको बार-बार बुलाते रहते हैं। अब तक की हमारी जिंदगी में हमारे गुरु ने हमें अपने पास चार बार बुलाया है और अपने पास चार-चार दिन तक रखा है और एक-एक साल तक के लिए यह कहा कि हमने जो सिखाया है, सुनाया है, इसको हजम कर। मित्रो! खाना तो हम पंद्रह मिनट में खाकर समाप्त कर देते हैं, परंतु उसे पूरी तरह हजम करने के लिए बारह घंटे चाहिए। चार दिन हमारे गुरु ने दिया और ये कहा कि जो दिया है, उसे हजम कीजिए। एक साल तक बैठा-बैठा मैं उनकी शिक्षाओं को हजम करता रहा। चार बार मैं हिमालय गया हूँ और चार दिन उनकी शिक्षा पाई है और बारह महीने उसको हजम किया है।
प्राणशक्ति का संचार था, मुख्य उददेश्य
मित्रो! इसीलिए हमने आपको यहाँ बुलाया और सोचा कि आपसे कुछ कहूँ। हमारे गुरु जब हमें बुलाते हैं, तब प्राण देकर विदा करते हैं। उनकी शक्ति लेकर मैं आता हूँ। बैटरी जब डिस्चार्ज हो जाती है, तब हम उसे चार्जर में लगा देते हैं। चार्जर में से करेंट चालू हो जाता है और बैटरी चार्ज हो जाती है। जब मैं उनके पास गया तो उन्होंने समझा कि यह लड़का थक गया है। इसकी शक्ति कम पड़ गई है, काम करने की ताकत में कमी आ गई है। इसका प्राण कम हो गया है, आत्मबल कम हो गया है। तब उन्होंने मुझे चार्जर में लगाकर मेरी बैटरी को फिर से चार्ज कर दिया और मैं जलता हुआ, दनदनाता हुआ, धुआँ उड़ाता हुआ आ गया। आप सच मानिए, इसी मकसद से मैंने आपको बुलाया है कि आप यहाँ आएँ और जो कार्य विचारों के द्वारा संभव नहीं था, वह हम अपने नजदीक बुलाकर पूरा करें। विचार किताबों के द्वारा फैलाए जा सकते हैं, अखबारों के द्वारा फैलाए जा सकते हैं, रेडियो के द्वारा फैलाए जा सकते हैं, टेपरिकॉर्डर के द्वारा फैलाए जा सकते हैं। वाणी और लेखनी के द्वारा फैलाए जा सकते हैं। विचार हवा में फैल सकते हैं और दूर-दूर तक जा सकते हैं, लेकिन प्राण दूर तक नहीं जा सकता। प्राण में एक अच्छाई भी है और एक बुराई भी है। प्राण अपने समीप के लोगों पर काम करता रहता है, दूर वालों पर काम नहीं करता। अँगीठी हम जला देते हैं तो उसकी लौ पास वाले को गरम कर देती है, पर दूर वालों को नहीं करती। ऋषियों के आश्रम में सिंह और गाय एक साथ बैठकर पानी पी लेते हैं, लेकिन वे वहीं तक साथ-साथ बैठते थे, जब तक वे आश्रम में रहते थे। आश्रम से विदा हुए तो शेर ने गाय पर हमला किया और गाय को खा लिया। आश्रम में रहते समय दोनों के बीच जो मुहब्बत थी, वह विदा हो गई।
वातावरण की विशेषता
मित्रो! वातावरण का एक महत्त्व होता है और एक महत्त्व क्षमताओं का, प्रतिभाओं का होता है। मुरगी जिस तरीके से अपने अंडे को छाती के नीचे लगा करके गरम करती है और बच्चा पैदा करती है, असल में मेरा मकसद वही था। यहाँ के विशेष वातावरण में आपको बुलाना भी मेरा एक मकसद था। हमारे गुरु ये कहते थे कि अपने घर में रहकर के वो नसीहत नहीं पा सकते, जो इस वातावरण से पा सकते हैं। वातावरण में अपने आप में एक विशेषता होती है। वातावरण में अपने आप में नवीनता होती है, एक क्षमता होती है। यह स्थान, जहाँ हम बैठे हुए हैं, इसका वातावरण बनाने के लिए हमने कोशिश की। जहाँ पर आप बैठे हुए हैं, आज से साठ वर्ष पहले यहाँ गंगा की धारा बहती थी। जिस बाँध पर आप घूमने जाते हैं, उस स्थान को सरकार ने मुनासिब समझा कि गंगा ने बहुत सारी जमीन घेर रखी है, इसलिए थोड़ी-सी जमीन पर बाँध बना दिया जाए तो कोई हर्ज नहीं है। सो बाँध बना दिया गया और गंगा का पानी उधर बहने लगा। अब ये जमीन निकाल ली गई है। यहाँ लोगों ने घर बना लिए हैं और खेती-बारी होती है।
सप्त सरोवर में जलता अखण्ड दीपक
मित्रो! आप यहाँ साठ वर्ष पहले आते तो यहाँ पानी की धाराएँ बह रही होती। यहाँ सात धाराएँ थीं, जिनके नाम से यह क्षेत्र 'सप्त सरोवर' के नाम से मशहूर है, जहाँ सात ऋषियों ने तप किए थे। पाँच धाराएँ तो अभी भी बाकी हैं, दो धाराएँ गायब हो गईं। पहले पूरे क्षेत्र में पानी चल रहा था। हमने आपको गंगाजी के बीचोबीच जप करने के लिए और तप करने के लिए बुलाया है। सातों ऋषियों ने हजारों वर्षों तक जिस स्थान पर तप किया था, उस स्थान पर जप-तप करने के लिए आपको बुलाया है। ये पुराने संस्कार इस भूमि में हैं और इन पुराने संस्कारों के अलावा हमने नए संस्कार पैदा किए हैं। अलादीन का हमारा चिराग यहीं जलता रहता है। सारी जिंदगी भर की हमारी कमाई क्या है? बेटे! हमारी कमाई इतनी कीमती है, जिसको हम किसी को देना नहीं चाहते। इसे हम अपनी छाती से लगाकर रखते हैं। हमारे गुरु ने अखण्ड दीपक जलाने के लिए हमसे कहा था, जिसके आधार पर हमने 'अखण्ड ज्योति' पत्रिका निकाली। वह अखण्ड दीपक कितना बड़ा हो गया? वह पचपन साल पुराना हो गया है। उस दीपक को हमने कितना घी पिलाया है? बेटे! हम कुछ कह नहीं सकते। एक-एक साल में पाँच-पाँच मन घी पिलाया हो तो लगभग ढाई सौ मन घी पीकर वह इतना मोटा पहलवान हो गया है कि चाँदगीराम पहलवान ने उतना घी नहीं खाया होगा।
अलादीन का चिराग है यह
हमारा यह अखण्ड दीपक बड़ा पहलवान और मजबूत है। यह हमारा अलादीन का चिराग है और जब हम इसके नीचे बैठते हैं तो हमको दूर-दूर की बातें दिखाई पड़ती हैं। जब हमारे जीवन में अंधकार छाया होता है तो हम उस दीपक के नीचे जा बैठते हैं तो प्रकाश मिलता है। किसका भविष्य क्या हो सकता है? किसके लिए हमको क्या करना चाहिए? क्या नहीं करना चाहिए? ये सारी की सारी बातें हम खुली किताब के तरीके से अखण्ड दीपक के नीचे देख लेते हैं। वो दीपक अपना प्रकाश फैलाता है। उसका प्रकाश रहता तो एक कोठरी में है, लेकिन आप यकीन मानिए कि सारे के सारे वातावरण में हमारे अखण्ड दीपक का प्रकाश छाया रहता है। जहाँ आप बैठे हुए हैं, वहाँ भी। यहाँ हमने गायत्री माता की स्थापना की है। हमने यहाँ पर नियमित दैनिक यज्ञ की व्यवस्था की है। यहाँ लोग संयम से रहते हैं, ब्रह्मचर्य से रहते हैं। यहाँ पर जो देव कन्याएँ हैं, उनका नाम ब्राह्मण है। पुराने समय में जो ब्राह्मण रहे होंगे और उनकी पूजा की जाती रही होगी। आज तो मुझे कहीं ब्राह्मण दिखाई नहीं पड़ते, इसलिए मैंने कन्या पूजन का प्रबंध करा दिया है। नवरात्रों में नवदुर्गा की पूजा होती थी, कन्याओं की पूजा होती थी। अब कन्याभोज के नाम से ब्रह्मभोज को सम्मिलित कर लिया है। हमने यह कहा है कि अब ब्रह्मभोज कराने लायक कोई ब्राह्मण दिखाई नहीं पड़ता है, इसलिए ब्राह्मण भोज आप न कराएँ तो कोई हर्ज की बात नहीं है, लेकिन कन्याभोज करा लीजिए। कन्या भी हमारी दृष्टि से ब्राह्मण है, क्योंकि उसके अंदर जन्मजात रूप में दिव्य तत्त्व समाए रहते हैं। कन्याओं के अंदर जो विशेषताएँ हैं, उनको देख करके कन्या पूजन का, कुमारी पूजन का इतना ज्यादा महत्त्व बताया गया है।
हमारी गरमी का लाभ उठाएँ
मित्रो! ये कन्याएँ यहाँ इस भूमि पर निवास करती हैं। इस भूमि पर हम रहते हैं, माताजी रहती हैं। चलिए मैं आपको यहाँ की और विशेषताएँ बताता हूँ कि शान्तिकुञ्ज का वातावरण, जहाँ यह बना हुआ है, वो ऐसा है कि अगर आप लोग निवास करते रहें, भजन न भी करें, तब भी आप पाएँगे कि यहाँ कोई नवीनता मिलती है। यहाँ कोई शक्ति मिलती है, कोई सामर्थ्य मिलती है, इस वातावरण में। जिस तरह से मेरे गुरु मुझे हिमालय के दिव्य वातावरण में बुलाते हैं, ऐसा ही मैंने यहाँ छोटा-मोटा वातावरण बनाने की कोशिश की है कि इसमें आपको रखें, ताकि आप मेरे विचार, मेरी प्रेरणा, मेरी दिशा और मेरी आकांक्षा को समझ पाने में समर्थ हो सकें। मित्रो! हमारा एक उद्देश्य यह है कि इस वातावरण में आप थोड़े दिन तक हमारे पास रहें और हमारे पास की गरमी का फायदा उठाएँ। यह एक उद्देश्य हुआ। हमारा दूसरा उद्देश्य यह था कि हमें आपको कुछ कहना भी था। व्याख्यानों में तो हम उन बातों को नहीं कह सके, क्योंकि हम समझते हैं कि बेकार की बकवास करने से कुछ फायदा नहीं हो सकता। इसमें आपको मनोरंजन की दृष्टि से आध्यात्मिकता के मोटे-मोटे प्राथमिक सिद्धांत समझाने की कोशिश की, जिससे अगर आपके ऊपर आध्यात्मिकता के बारे में वहम छाए हुए हों, जैसा कि आम लोगों के ऊपर छाए रहते हैं तो कम से कम आप उन वहम को दूर कर ले जाएँ। आध्यात्मिकता का वास्तविक स्वरूप क्या हो सकता है? यह आप समझ जाएँ। अध्यात्म मार्ग पर चलना है तो किस तरीके से चलना पड़ेगा, इसकी जानकारी लेकर जाएँ। पहले अज्ञान को मिटा दें और सही जानकारी लेकर के चले जाएँ तो पहला उद्देश्य पूरा हो सकता है। इसी ख्याल से हमने कई तरह के व्याख्यान दिए।
किस वाणी से किया व्याख्यान?
मित्रो! अभी तक जो व्याख्यान दिए हैं, वे चमड़े की जीभ से-बैखरी वाणी से दिए गए हैं। बैखरी वाणी कोई खास फायदा नहीं कर सकती। हमारे पास जो दूसरी वाणियाँ हैं, जिनको हम मध्यमा वाणी कहते हैं, परा वाणी कहते हैं, पश्यंती वाणी कहते हैं। ये चार वाणियाँ हैं। जैसे ब्रह्माजी ने चार मुखों से चार वेद बनाए। उनकी चार जीभ थीं। साँप की दो जीभ होती हैं और आत्मा की चार जीभें होती हैं। चार जिह्वाओं से हम बोलते रहते हैं। बैखरी वाणी की जबान लपालप चलती रहती है। यह सबसे कमजोर वाणी है और सबसे वाहियात वाणी है। यह धोखा भी कर सकती है, छल-फरेब भी कर सकती है। उलटी बात को सीधा कर सकती है और सीधी बात को उलटा कर सकती है, वकीलों के तरीके से। यह जीभ हमारी बड़ी कमजोर है, लेकिन हमारी मध्यमा वाणी, परा और पश्यंती वाणियाँ ऐसी हैं, जो हमारी जीवात्मा में से निकलती हैं, चरित्र में से निकलती हैं। इसमें दो बातें नहीं हो सकतीं। जैसा भी कुछ हमारे भीतर है, वैसा ही हम आपसे कह सकते हैं, अलग बात नहीं कह सकते। बैखरी वाणी से एक वेश्या भी सुनकर व्याख्यान कर सकती है, लेकिन जहाँ तक उसकी मध्यमा वाणी का संबंध है तो वह अगर वेश्या है तो उसे वेश्यापन का ही उपदेश करना पड़ेगा, वह दूसरा उपदेश नहीं कर सकती। इसलिए हमने यहाँ जरूरी समझा कि जैसे भी हम कुछ हैं, उसके हिसाब से हम आपको मध्यमा वाणी से व्याख्यान करें, परा वाणी से व्याख्यान करें, पश्यंती वाणी से व्याख्यान करें। इन दस दिनों में हम बराबर इन्हीं वाणियों से व्याख्यान करते रहे।
हमने आपको हर पल सुनाया, प्यार बाँटा
साथियो! जब आप सो गए हैं, तब हमने अपने व्याख्यान देने शुरू किए। हम आपके नजदीक बैठे रहे, पीठ थपथपाते रहे, गोदी से लगाते रहे. और एक बहुत बड़ी कीमती बात समझाने की कोशिश करते रहे। मालूम नहीं आपने सुना कि नहीं सुना, मालूम नहीं आप सुनेंगे कि नहीं सुनेंगे। मालूम नहीं आप उसको मानेंगे कि नहीं मानेंगे, क्योंकि बेटे! चाहे हमारा कहना हो, चाहे भगवान का कहना हो, आप अपनी इच्छा के मालिक हैं। आप चाहें तो हमारी बात सुनें और चाहें तो हमें ठोकर मारकर भगा दें। बाहरी लोकाचार की बात अलग है, लेकिन आपके भीतर का आपका किला सुरक्षित है। इसमें आपकी मरजी के बिना, किसी का प्रवेश नहीं हो सकता। सूरज आपके कमरे में प्रवेश नहीं कर सकता! वक्त आने दीजिए, आप देखेंगे कि कौन-सा सूरज है, जो आपके कमरे में आ सकता है? आपकी मरजी के बिना आपके कमरे में कोई सूरज नहीं आ सकता। आप अपने दरवाजे बंद कर लीजिए, फिर आप देखेंगे कि कौन-सी हवा आपके कमरे में आ सकती है? आप अपने ट्रांजिस्टर पर जो कोई स्टेशन सुनना चाहेंगे, सिर्फ वही बोल सकता है, दूसरे की कोई ताकत नहीं है, जो आपको एक आवाज भी सुना दे। एक ही समय में रेडियो पर सैकड़ों स्टेशन बोल रहे हैं, लेकिन आपने जहाँ भी अपना नंबर लगा रखा है, सिर्फ वही बोलेगा, बाकी सब बंद हो जाएँगे, झक मारेंगे और वापस चले जाएँगे। आप जिस भाषा में सुनने वाले हैं और जो स्टेशन लगा रखा है, बस वही आवाज आने वाली है, बाकी कोई आवाज नहीं आ सकती।
आपने हमारे निर्देश स्वीकार किए?
मित्रो! आप अपनी दुनिया के सौ फीसदी मालिक हैं और भगवान अपनी दुनिया का मालिक है। एक दिन मैंने आपसे कहा था कि आप नंबर दो के भगवान हैं। आपकी भी एक हुकूमत है। आपकी भी मिल्कियत है और आप भी अपने में स्वामी हैं। और वो हैं—आप अपने आप में! आपकी दुनिया सिर्फ आपकी है, वहाँ और किसी की पहुँच नहीं है। अगर हम कहें कि आप हमको प्रवेश करने दीजिए, हम भीतर जाएँगे और आप अपने दरवाजे पर 'नो एडमीशन' का बोर्ड लगा दीजिए। फिर हम आपकी मरजी के बिना कैसे घुस सकते हैं? इस शिविर में हमने आपको, जो शिक्षाएँ दीं, जो आपसे प्रार्थना की, आपने उसे स्वीकार किया या नहीं किया, यह बेटे! हम बिलकुल नहीं कह सकते। यह आपकी मरजी के ऊपर है कि आप चाहें तो इनकार कर दें और हमें मारकर भगा दें। हमने इस शिविर में आपको बहुत कीमती बातें बताईं। इससे ज्यादा कीमती बातें न हमारे पास कहने के लिए हैं और न आपके पास सुनने के लिए हो सकती हैं, जो बातें हमने आपसे इस शिविर में कही हैं।
आप विशेष, यह समय विशेष
मित्रो! इस शिविर में एक बात हमने आपसे यह कही कि आप लोग कोई विशेष जीवात्मा हैं, जो किसी विशेष उद्देश्य के लिए और किसी विशेष मकसद के लिए जन्म लेकर के आए हैं। हमने आपको कहा कि आप विशेष उद्देश्य और मकसद के लिए भगवान द्वारा भेजे गए हैं और किसी खास काम के लिए आए हैं। ये दो बातें हुईं। तीसरी बात हमने यह कही कि जिस समय में हम और आप जिंदा हैं, यह अनोखा समय है। ऐसा समय फिर दोबारा नहीं आ सकता। आप इस समय की कीमत को समझिए। आप जिस उद्देश्य को लेकर, जन्म लेकर के आए हैं, उसकी महत्ता को समझिए। आप अपनी गरिमा को, गौरव को समझिए। ये तीन बातें आप समझ पाएँ तो मजा आ जाए। फिर आपको अपनी दिशा को समझने में सफलता मिल सकती है। फिर हमने आपसे यह कहा है कि आप एक विशेष जीवात्मा हैं। विशेष जीवात्मा क्यों हैं? विशेष जीवात्मा इसलिए हैं कि जब रामचंद्र जी अवतार लेकर के धरती पर आए तो देवताओं ने कहा—"अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।" आप अकेले किसी को मार तो सकते हैं, पर दुनिया की फ़िजा नहीं बदल सकते। इसलिए आपको सहायकों की जरूरत है, सेक्रेट्रियों की जरूरत है, सहयोगियों की जरूरत है। इस पर भगवान ने कहा कि मनुष्य तो बड़े निकम्मे हो गए हैं, बड़े चालाक और मक्कार हो गए हैं। मनुष्यों से कोई आशा नहीं की जा सकती। तब देवताओं ने क्या किया? किसी ने रीछ-वानरों का रूप बनाया, किसी ने कुछ रूप बनाया और धरती पर आ गए। रीछ-वानरों ने फिर, वो काम किए, जो मनुष्य नहीं कर सके।
देवताओं ने रीछ-वानरों को चुना
मित्रो! मनुष्य डर गए थे कि कहीं राक्षस हमें मार डालेंगे तो हम क्या करेंगे? राक्षस हमारी जमीन छीन लेंगे तो हम क्या करेंगे? राक्षस हमसे अगर यह कहेंगे कि आप अपनी चाल बदल लीजिए तो हम क्या करेंगे? इसलिए मनुष्यों की चालाकी को देखकर देवताओं ने यह समझा कि यदि हम मनुष्यों के शरीर में प्रवेश कर जाएँ तो शायद हमारी भी ऐसी ही मिट्टी पलीद हो जाएगी, इसलिए मनुष्यों के शरीर में प्रवेश नहीं कर सकते। हम दूसरे जानवरों के शरीर में प्रवेश करेंगे। रीछ-वानरों के रूप में देवताओं ने जाकर धरती पर जन्म लिए और भगवान के वे काम कर दिखाए, जो मनुष्य नहीं दिखा सके। जब त्याग करने का समय आया तो देवताओं ने रीछ-वानरों के रूप में दिखाया। कष्ट सहन करने और सिद्धांत पालन करने का समय आया तो रीछ-वानरों ने करके दिखाया। मित्रो! जब भगवान श्रीकृष्ण आए तो उस जमाने में भी देवता अवतार लेकर आए थे। पाँच पांडवों के रूप में कुंती ने पाँच देवताओं को पहले से बुलाकर रखा था। सूर्य नारायण के रूप में उन्होंने कर्ण को, इंद्र के रूप में अर्जुन को, धर्मराज के रूप में युधिष्ठिर को, पवन देवता के रूप में भीम को और अश्विनी कुमारों के रूप में नकुल-सहदेव को बुला करके रखा था।
अपने आप को पहचानें, आप कौन हैं?
मित्रो! न केवल इतने देवता आए थे, वरन बहुत सारे देवता आए थे। जब गोवर्द्धन उठाने का वक्त आया था तो वे गोप-गोपियों के रूप में पर्वत उठाने में अपनी ताकत लगाने आए थे। कंस के डर के मारे अमीर लोग नहीं आए थे। उन्होंने समझा कि कंस हमको कष्ट दे सकता है और मुसीबतें पैदा कर सकता है, इसलिए हम इस झमेले में नहीं पड़ेंगे, लेकिन उन ग्वालों ने कंस का मुकाबला किया, इंद्र का मुकाबला किया। दोनों में गोपों ने श्रीकृष्ण का सहयोग किया। मैं भगवान तो नहीं हूँ, श्रीकृष्ण भी नहीं हूँ और राम भी नहीं हूँ, लेकिन मैं यह कहता हूँ कि गांधी जी के साथ ढेरों के ढेरों लोग जिस तरीके से आए थे, भगवान बुद्ध के साथ जिस तरीके से लाखों शिष्य और शिष्याएँ आई थीं, कम से कम उतनी तो अपनी महत्ता है ही। आप भी उसी श्रेणी के लोगों में से हैं। आप अपने आप को देखें, जानें और अपने आप को समझें। आप कीड़े-मकोड़े नहीं हैं, मक्खी-मच्छर नहीं हैं, आप बंदर नहीं हैं, आप अपने आप को देखिए। मच्छर और बंदर कौन होते हैं? बंदर और मच्छर वो होते हैं, जिनके सामने दो मकसद हैं। उन दो मकसदों से हम पहचान सकते हैं कि ये जानवर हैं, कीड़ा हैं या इनसान हैं या भगवान हैं। हमारे पास इसकी दो कसौटी हैं। आप किस उद्देश्य के लिए जिंदा हैं? पेट भरने और औलाद पैदा करने के लिए जिंदा हैं? हाँ साहब! पेट भरने और औलाद पैदा करने के अलावा हमारा तीसरा कोई उद्देश्य नहीं है। इसके अतिरिक्त न हमारी कोई इच्छा है, न आकांक्षा है, न कोई हमारा मन है और न हमारा कोई मकसद है। बस, दो काम हमारे पूरा कर दीजिए, एक हमको पैसा दिला दीजिए और दूसरा हमारी औलाद को मालदार बना दीजिए। इसके अलावा हम तीसरी बात सुनना नहीं चाहते। तब मैं आपको कीड़ा कह सकता हूँ, नर-कीटक कह सकता हूँ, नर-पामर कह सकता हूँ। शक्ल तो आपकी इनसान की है। आपने एम० ए० भी कर लिया है, मकान भी बना लिया है, आप मिठाई भी खाते हैं और सिनेमा भी देखते हैं, वह सब आपको मुबारक हो, लेकिन आपको मनुष्यता की और जिंदगी की कसौटी पर कसने के बाद एक ही बात कह सकता हूँ कि आप कीड़े-मकोड़े से बढ़कर नहीं हैं।
(क्रमश:)
कीड़े-मकोड़ों की जिंदगी
मित्रो! कीड़े-मकोड़े इसलिए जिंदा हैं कि वे पेट की भूख से काँप जाते हैं। ठीक इसी तरह पेंडुलम के तरीके से भूख आदमी को मजबूर करती है कि काम कीजिए। चिड़िया से लेकर बंदर तक, हर प्राणी पेट भरने के लिए काम करता रहता है। मनुष्य जरा होशियार है, इसलिए उसका पेट भरना पैसे के रूप में चला गया है, दौलत के रूप में चला गया है, जमाखोरी के रूप में चला गया है, मालदारी के रूप में चला गया है। यद्यपि बात वहीं की वहीं है—'पेट और पैसा।' नंबर दो—मनुष्यों के ऊपर जब जवानी आती है, तब उनके ऊपर एक ऐसा फितूर चढ़ता है, पागलपन आता है। नेचर आदमी को उबालती है और ये कहती है कि 'रेस' अर्थात जाति-वंश कायम रहना चाहिए। बस, हमारी अकल खराब हो जाती है और शादी का फितूर और ऐसा भूत सवार होता है कि हम ब्याह-शादी कर लेते हैं। शादी-ब्याह का मतलब? प्रकृति हमको दंड देती है और हम से बच्चे पैदा कराना शुरू कर देती है, हर साल ढेरों के ढेरों पिल्ले पैदा कराना शुरू कर देती है। प्रकृति हमारे लिए इतना बड़ा जाल बुनकर तैयार कर देती है कि जिससे हमारा दिमाग बराबर काम में लगा रहे, चैन से बैठने न पाए। व्यक्ति सदैव यह सोचता रहे कि यह बच्चा पैदा हो गया है, इसको पढ़ाएँगे-लिखाएँगे, इसकी शादी करेंगे। इसके लिए मकान बनाएँगे, संपत्ति बनाएँगे। इस तरह बच्चे पर बच्चे पैदा करते जाते हैं और उसी ताने-बाने को पूरा करने में मरते-खपते रहते हैं।
नर-कीटकों व हममें अंतर
मित्रो! इसका सारा का सारा रहस्य यह है कि नेचर या प्रकृति चाहती है कि प्राणी काम-धंधों में लगा रहे और अपनी जिंदगी का गुजारा करता रहे। पेट भरने के लिए और औलाद पैदा करने के लिए तथा वासना-तृष्णा एवं अहंता को पूरा करने का ताना-बाना हम सारी जिंदगी भर बुनते रहते हैं। बस, यही जिंदगी है। किसकी? कीड़े-मकोड़ों की, पशु-पक्षियों की। मित्रो! इनसान की जिंदगी ऐसी नहीं हो सकती। इनसान को जो विशेषताएँ भगवान ने दी हैं, वे एक अमानत के रूप में दी हैं, एक धरोहर के रूप में दी हैं, ताकि वह दुनिया को शानदार और सुंदर बनाने के लिए कुछ काम करने में समर्थ हो सके। जीवन इसीलिए मिला है, खासतौर से आपकी जिंदगी। आपमें से हर आदमी की जिंदगी देवताओं की जिंदगी रही है। आप नहीं समझते कि आपके और हमारे बीच में जो मुहब्बत है, इसका कारण क्या हो सकता है? आप यह समझते हैं कि आपने हमारे अखबार और किताबें पढ़ी हैं, इसलिए हमारे और आपके बीच में प्यार-मुहब्बत है। चलिए मैं यह पूछता हूँ कि आपने किसी और की किताबें पढ़ी हैं कि नहीं? हाँ साहब! हजारों किताबें पढ़ी हैं। तो आपको किसी के साथ मुहब्बत है? नहीं साहब! किसी के साथ नहीं है। अच्छा अब आप यह बताइए कि आपने किसी के व्याख्यान सुने हैं कि नहीं? हाँ साहब! हजारों व्याख्यान सुने हैं। व्याख्यान सुनाने वालों के प्रति आपका कोई मोह इकट्ठा हुआ कि नहीं? नहीं साहब! हम तो ताली बजाकर आ गए कि वह बहुत अच्छा बोलता है, लेकिन उससे हमें कोई प्यार मुहब्बत नहीं हो सकी।
हमारा-आपका संबंध
मित्रो! हम और आप जिस मुहब्बत की जंजीर में बँधे हैं, आप उसकी समीक्षा क्यों नहीं करते? हम एक बहुत ही मधुर जंजीर में बँधे हुए हैं और यह प्यार एवं मुहब्बत की जंजीर है। यह हमारे और आपके जन्म-जन्मांतरों से साथ-साथ चली आ रही है। हमको भी जन्म लेकर के आना पड़ा और आपको भी जन्म लेकर के आना पड़ा। अगर हम गाँधी हैं तो आप हमारे सत्याग्रहियों के रूप में आए हैं। अगर हम बुद्ध हैं तो आप भिक्षुओं के रूप में आए हैं। अगर हम राम हैं तो आप रीछ-वानरों के रूप में आए हैं। अगर कृष्ण हैं तो आप गोपों के रूप में आए हैं। हम और आप साथ-साथ न जाने कितने जन्म बिताते चले आए हैं। अब हम फिर से आपको याद दिलाते हैं कि आपका जन्म किसी खास मकसद के लिए हुआ है। मकसद यह है कि आज सारी मनुष्यता ठीक चौराहे पर खड़ी है और उसका फैसला ज्यादा समय तक ठहरने वाला नहीं है। हम समझते हैं कि सौ वर्षों के भीतर फैसला इधर या उधर होने वाला है। विज्ञान जिस स्पीड से चल रहा है, दुनिया जिस स्पीड से चल रही है, समय की गति जिस स्पीड से चल रही है, उसके लिए सौ वर्ष पर्याप्त होने चाहिए। लाखों वर्षों में जब मनुष्य जाति के भाग्य का फैसला न हो सका तो क्या अगले सौ वर्षों में होगा? तब या तो दुनिया मर जाएगी या जिंदा रहेगी या फिर पूरी तरह से हमारा सफाया हो जाएगा या फिर सौ वर्ष के बाद हम एक बेहतरीन दुनिया में रह रहे होंगे। इससे ज्यादा समय इसमें नहीं लग सकता।
संधिकाल के अतिवाद
मित्रो! यह युगसंध्या है, युग के परिवर्तन का काल है। युग बदल रहा है। इसमें दो बातें होनी हैं या तो विज्ञान के चरण जिस दिशा में चल रहे हैं, एटॉमिक हथियार जिस स्पीड से बन रहे हैं, अगर वे बनते और चलते रहे तो आप देखना कि क्या होगा? कोई भी पागल आदमी, जैसे कि बंगाल में एक पागल आदमी ने दो मुजरिमों को मारकर खतम कर दिया। किसी दिन इसी तरीके से कोई पागल आदमी उठेगा, उसके पास आधुनिक हथियार होंगे और उनसे वह तबाही मचा देगा। आज आदमी किस कदर स्वार्थी और चालाक होता चला जा रहा है, जिसे देखकर मुझे हैरत होती है। भगवान का नाम भी अब उसी दलदल में धँसता चला जा रहा है। अब अध्यात्म भी उसी नरक में समा गया और उसी कीचड़ में समाकर खतम हो गया। गंदे नाले में भगवान भी गिरा और अध्यात्म भी गिरा। गंदे नाले में गुरुपूजा भी गई और उपासना भी उसी गंदे नाले में गिर पड़ी। सबका सत्यानाश हो गया। आत्मा का विकास करने के लिए, चरित्रनिष्ठा पैदा करने के लिए वे सारे के सारे उद्देश्य थे, लेकिन ये सब भी इसी नरक में आ गिरे। भगवान से लेकर पूजा पाठ तक सब कुछ इसी नरक में पड़े हुए हैं। सब तरफ पैसा लाइए। कौन-सी देवी की पूजा करने गए थे? मनसा देवी की पूजा करने गए थे। मनसा देवी से क्या माँगने गए थे? पैसा। धत् तेरे की। पैसे के लिए मनसा देवी या मनसा देवी के लिए पैसा? नहीं साहब। पैसे के लिए मनसा देवी। ठीक है, बेटे! मैं समझता हूँ कि तेरा भजन मनोकामना के लिए, गुरु भी मनोकामना के लिए, मंत्र भी मनोकामना के लिए रह गया है। हमारा उद्देश्य केवल भौतिकता रह गया, केवल हमारा स्वार्थ रह गया, चालाकी रह गई, मक्कारी रह गई, बेईमानी रह गई। इसके लिए पूजा-भजन काम आता हो तो आए, इसके लिए गुरु काम आता हो तो आए, इसके लिए कोई मंत्र काम आता हो तो आए। किसी काम के लिए भगवान काम में आता हो तो आए। भगवान से हमें कोई मुहब्बत नहीं है, देवता से हमें कोई मुहब्बत नहीं है, मंत्र से हमें कोई मुहब्बत नहीं है। ये चीजें अगर हमारे फायदे की हो सकती हों तो ठीक है, नहीं तो हम हजार गालियाँ सुनाएँगे।
निष्ठुर होता जा रहा आदमी
बेटे! अध्यात्म का सफाया हो गया और अगर इसी तरह अध्यात्म का सफाया होता रहा तो आदमी जैसे आज चालाक, धूर्त, नीरस और निष्ठुर बनता जाता है, आने वाले दिनों में एक आदमी दूसरे आदमी को भेड़िये के तरीके से फाड़कर खा जाएगा। आज तो आदमी बकरी को खाता है, जानवरों को खाता है, मुरगे को खाता है, लेकिन जरूरी नहीं है कि सौ वर्ष बाद आप मुरगी को खाएँ। सौ वर्ष बाद अगर डॉक्टर यह कहेगा कि आपके बेटे में विटामिन 'ए' ज्यादा होता है और उसका भी माँस की अपेक्षा रक्त जल्दी हजम हो सकता है। बनावट के हिसाब से जल्दी पचने लायक जो चीजें हैं, उनमें से खून जल्दी हजम हो सकता है। जबकि जानवर का माँस देर से हजम होगा। अगर वैज्ञानिकों ने यह कहना शुरू कर दिया कि इनसान का माँस जल्दी हजम हो सकता है तो बस, आदमी यही किया करेगा। आप देख लेना, जिस तरीके से व्यक्ति बकरी के बच्चे को मारकर-भूनकर खा जाता है, उसी तरीके से अपने बच्चे को मारकर वह खाने लगेगा, आप देख लेना। आदमी जिस नीयत से, जिस उद्देश्य से अपने खाने की चीजों के बारे में, माँसाहार के बारे में जो सिद्धांत कायम कर रहा है, अगर वह उन सिद्धांतों पर कायम रहता है तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि सौ वर्ष बाद मनुष्य-मनुष्य के माँस को खाना ज्यादा फायदेमंद समझेगा और तब आदमी आदमी को मारकर खाया करेगा।
बहुप्रजनन की बेवकूफी
मित्रो! अगले दिनों यदि नीति के सिद्धांतों, धर्म के सिद्धांतों, दया के सिद्धांतों, परोपकार के सिद्धांतों, चरित्रनिष्ठा के सिद्धांतों आदि का सफाया हो जाएगा तब? तब हमको भय है कि जब मछली-मछली को खा सकती है तो आदमी-आदमी को क्यों नहीं खा सकता? सौ वर्ष बाद अगर यही निष्ठाएँ और मान्यताएँ बनती रहीं तो दुनिया का सफाया होकर रहेगा। हमारा ख्याल है कि अगर आदमी यही बेवकूफी करता रहा, जो आज कर रहा है तो सौ वर्ष बाद दुनिया का सफाया हो जाएगा। कौन-सी बेवकूफियाँ हैं? औलाद की। लोग अंधाधुंध औलाद पैदा कर रहे हैं। ये जाहिल यह नहीं समझते हैं कि आखिर हम क्या कर रहे हैं? औरतों के स्वास्थ्य को खराब कर रहे हैं। अपने ऊपर आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ा रहे हैं। बच्चों का भविष्य खराब कर रहे हैं और सारे देश की तबाही और बरबादी कर रहे हैं। हर आदमी बच्चा पैदा करने पर उतारू हो गया है और यह समझता है, खुशियाँ मनाता है कि हमारे बेटा पैदा हो गया। वह यह नहीं समझता कि क्या कर रहा है। जापान के लोग छोटे से जखीरे में रहते हैं। जगह नहीं है उनके पास, इसलिए सौ में से पचास लोग फैमिली प्लानिंग का ऑपरेशन कराते हैं। शादी-ब्याह करने से पहले वे यह सोचते हैं कि ऐसी स्थिति में हमारे बच्चे कहाँ जाएँगे? जापान जरा-सा देश है, जहाँ आगे फैलने की जगह नहीं है, पीछे हटने की जगह नहीं है। चारों ओर समुद्र फैला हुआ है। समुद्र में गिरेंगे, हम कहाँ जाएँगे, इसलिए हर आदमी ये समझता है कि हमको फैमिली प्लानिंग करने के बाद शादी-ब्याह करना चाहिए। बहुत थोड़े आदमी हैं, जो बच्चे पैदा करते हैं, बाकी लोग नहीं करते, परंतु हमारे ऊपर तो जहालत का भूत ऐसे सवार हो गया है कि ब्याह हुआ तो बच्चा पहले होना चाहिए। ब्याह को एक साल हो गया, बच्चा तो हुआ ही नहीं, यह सोचकर परेशान हो जाते हैं।
किए जा रहे सत्प्रयास
मित्रो! अगर यही बेवकूफियाँ जारी रहीं तो आप देख लेना, सौ वर्ष बाद हवा के लिए मुश्किल पड़ जाएगी। पानी के लिए मुश्किल पड़ जाएगी। अभी भी स्कूलों में जगह नहीं है, नौकरी में अभी जगह नहीं है, सड़कों पर यातायात के लिए अभी भी जगह नहीं है। जब अभी सब जगह स्थान की कमी पड़ रही है तो सौ वर्ष बाद तो खड़े होने की जगह नहीं बचेगी। बच्चे जिस चक्रवृद्धि ब्याज की दर से बढ़ते चले जा रहे हैं, दो के चार, चार के आठ, आठ के सोलह, सोलह के बत्तीस के हिसाब से बढ़ते चले जा रहे हैं। अगर दुनिया की चाल बच्चे पर बच्चे के इसी हिसाब से बढ़ी तो आप देख लेना कि सौ वर्ष बाद क्या होता है? तब दुनिया का सफाया हो जाएगा, खातमा हो जाएगा। आज हम एक चौराहे पर खड़े हुए हैं। इसलिए हम जो शुरुआत करते हैं कि जमीन का वातावरण, समाज का वातावरण स्वर्गीय होना चाहिए, प्यार और मुहब्बत से भरा हुआ होना चाहिए। एक आदमी, दूसरे आदमी के लिए त्याग करना सीखे, सहायता करना सीखे। हर आदमी अपने ऊपर संयम रखना और अंकुश रखना सीखे। हम यही देवत्व की शिक्षाएँ, चरित्रनिष्ठा की शिक्षाएँ, समाजनिष्ठा की शिक्षाएँ दे रहे हैं और अगर ये फलने-फूलने लगी तो आप देखना कि सौ वर्ष बाद ये दुनिया कितनी बेहतरीन होती है, कितनी शानदार दुनिया होती है, कितनी उन्नतिशील दुनिया होती है, आप देख लेना।
चौराहे पर खड़ी मानव जाति
मित्रो ! इस समय हम चौराहे पर खड़े हुए हैं या तो हम मरेंगे या हम जिएँगे या हमारा भविष्य घोर अंधकार में जाने वाला है या फिर हमारा भविष्य बेहतरीन होने वाला है, जैसा कि दुनिया में कभी न हुआ था, ऐसा हमारा बेहतरीन भविष्य बनने वाला है। हम ठीक चौराहे पर खड़े हुए हैं। इस समय के लिए आपकी भूमिका और आपकी जिम्मेदारी बहुत बड़ी है। सवेरे का समय—प्रात:काल का समय संध्यावंदन का होता है। उस समय काम बंद कर देते हैं और भगवान का भजन करते हैं। इस युग की संध्या ऐसी है, जिसमें आपको पेट पालने के लिए और औलाद पैदा करने के लिए सरंजाम जुटाने से बाज आना चाहिए और आपको अपनी वो जिम्मेदारियाँ जिसके लिए भगवान ने आपको भेजा था, पूरी करने के लिए ध्यान देना चाहिए। यह एक विशेष समय है और आप एक विशेष व्यक्ति हैं। आप किसी भी योनि में पेट भर सकते हैं और औलाद पैदा कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि आप किसी भी योनि में रहें, इसमें कभी रुकावट नहीं आ सकती। चाहे आप बंदर हो जाएँ तब और चाहे सूअर हो जाएँ तब दो काम कभी भी कर सकते हैं, जिन कामों को करने में आप अभी भी लगे हुए हैं।
यह समय दोबारा नहीं आने वाला
मित्रो! आप बेहतरीन काम कीजिए। युग की समस्याओं के संबंध में अपना रोल प्ले कीजिए। आप अपनी गरिमा को समझिए और अपनी विशेष जिम्मेदारियों को निभाइए। ऐसा समय लाखों वर्षों बाद आता है और लाखों वर्षों पीछे आएगा। बाकी तो समय सब आ जाएँगे, पर यह समय दोबारा नहीं आ सकता। जिस जमाने में कांग्रेस का आंदोलन हुआ था, उसमें लोग सम्मिलित हो गए और तीन-तीन महीने की जेल काटकर आए। उनको अब पेंशन मिल रही है। डेढ़ सौ से लेकर ढाई सौ रुपये तक पेंशन मिल रही है। उस जमाने में तीन महीने की जेल काटने वाले आज मिनिस्टर बने हुए हैं और मुख्यमंत्री बने हुए बैठे हैं। गुरुजी! हमको भी आप जेल भिजवा दीजिए और हम भी तीन महीने की जेल काटने को तैयार हैं। दो सौ रुपये पेंशन हमको भी मिल जाएगी। बेटे! वह समय अब चला गया, अब यह नहीं हो सकता। नहीं साहब! आप तो जेल भिजवा दीजिए, हम तो जाएँगे। तो बेटे! अपने पड़ोसी से मार-पीट कर ले, पुलिस पकड़ ले जाएगी और तुझे जेल हो जाएगी। तो गुरुजी! क्या इससे दो सौ रुपये महीना मिलेगा? नहीं बेटे! अब वो समय चला गया, तेरी जिंदगी में अब दोबारा समय नहीं आ सकता। नहीं साहब! हम छह महीने के लिए किसी और जगह मिनिस्टर बन जाएँगे। नहीं बेटे! वो वक्त गया, अब दोबारा नहीं आ सकता।
समय की गरिमा समझें
मित्रो! हम एक ऐसे समय में जिंदा हैं, जो दोबारा नहीं आ सकता, यह भूमिकाएँ आपको बार-बार अदा करने के लिए नहीं मिल सकतीं। कौन-सी? इस समय की। महाराज जी! हम भी हनुमान बनना चाहते हैं? बेटे! अब तू नहीं बन सकता, क्योंकि जब रावण का जमाना था, रामचंद्र जी का जमाना था, उस जमाने में तू हनुमान बन सकता था। नहीं साहब! हम अभी भी बनेंगे। नहीं बेटे! अब चांस चला गया, अब तू नहीं बन सकता। इसलिए आप समय की महत्ता को समझिए, समय की गरिमा को समझिए और अपनी विशेष जिम्मेदारी को समझिए। इसीलिए हमने आपको जगाने की कोशिश की है। मालूम नहीं कि आप जागे कि नहीं जागे। हमने आपको बार-बार हिलाया-डुलाया और कुंभकर्णी नींद से जगाने का प्रयत्न किया, पर आप इतने बड़े हैं कि "दुइ-दुइ योजन मूँछे ठाढ़ी। योजन चार नासिका बाढ़ी॥" आप में से हर आदमी की चार-चार योजन की नाक हैं और दो-दो योजन की मूँछे हैं, आप कुंभकर्ण हैं, अब तो जाग जाइए। अरे साहब! अब क्या जागना है। अभी तो हम छह महीने सोएँगे, फिर का फिर देखा जाएगा। अरे बाबा! तब तो यहाँ सब कुछ सफाया हो जाएगा। रामचंद्र जी के बंदर सबको मार डालेंगे। अरे साहब! अरे वे सबको मार डालेंगे तो हम बंदरों को मार डालेंगे, अभी तो आप हमको सोने दीजिए, बड़ी गहरी नींद आ रही है।
जागें, शीघ्र जागें
मित्रो! बेचारा रावण कुंभकर्ण को जगाने की कोशिश करता रहा, पर वह अभागा जगा ही नहीं और जब जागा तो ऐसे समय पर जागा, जब सारे का सारा खेल खतम हो चुका था और सारी लंका जलकर खतम हो चुकी थी। मैंने आप में से हर कुंभकर्ण को जगाने की कोशिश की। अच्छा होता आप समय रहते जाग पाएँ, पर आप जाग जाएँगे कि नहीं, मुझे मालूम नहीं है। आपको तो एड़ी से लेकर चोटी तक का शरीराध्यास समा गया है। आप अब शरीर हैं, अब आप जीवात्मा नहीं रहे। अब आप सिद्धांतवादी नहीं हैं, आदर्शवादी नहीं हैं, अब आप केवल मिट्टी के लौंदे हैं, माँस के लोथड़े हैं, जो पाँव के नाखून से लेकर चोटी तक सिवाय शरीराध्यास के दूसरी बात विचार ही नहीं सकते। शरीर का सुख, शरीर का लाभ, शरीर के संबंधियों का लाभ, शरीर की सुविधाएँ, जवान बना दीजिए, बुढ़ापा दूर कर दीजिए, बीमारी दूर कर दीजिए, पैसा दिलवा दीजिए, औलाद पैदा करा दीजिए आदि के अतिरिक्त आप कुछ सोचना ही नहीं चाहते। आप शरीर में इस कदर डूब गए हैं और मसरूफ हो गए हैं कि आपके अंदर प्राण है कि नहीं, आपके अंदर आत्मा है कि नहीं और आपके अंदर भगवान है कि नहीं मुझे संदेह होता है। मुझे यह संदेह होता है कि आप मिट्टी और माँस के लोथड़े के सिवाय कुछ रह नहीं गए हैं।
आज से कमर कसें
साथियो! मैंने आपको जगाने के लिए कोशिश की कि आपकी जीवात्मा जाग पड़े तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आप दूसरे भी काम कर सकते हैं। आज से अगर आप कमर बाँधकर खड़े हो जाएँ तो जितनी जिंदगी बाकी रही है, उसमें आप अजामिल की तरह, आम्रपाली की तरह, अंगुलिमाल की तरह शेष जीवन में संत बन सकते हैं, कृष्णदास बन सकते हैं, सूरदास बन सकते हैं, वाल्मीकि बन सकते हैं। कैसे-कैसे निकम्मे आदमी क्या से क्या बन गए, अगर आप जाग पाएँ तो मजा आ जाए। अभी जो शक्तियाँ, जो ताकत, जो श्रम आप इन बेकार के वाहियात कामों में लगाते चले जा रहे हैं, अगर आप अपने जीवन की धारा बदल सकते हों, दिशा बदल सकते हों तो आपके जीवन में कितना-कितना कायाकल्प हो सकता है और कितना सुखद दृश्य उत्पन्न हो सकता है। अभी मैं आपको यही सिखाता और समझाता चला आया हूँ। मालूम नहीं मेरा सिखाना और समझाना आपके काम आया कि नहीं? आपके पत्थर जैसे दिल के ऊपर पानी की बूँदें गिरीं कि नहीं? अगर आपके ऊपर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ होगा तो हम इन शिविरों को समाप्त कर देंगे। हमने आपको शिविर में इसलिए बुलाया था कि हमारी बातों को आप सुनेंगे-समझेंगे और जीवन में उतारेंगे। गुरुजी! आपको तो मालूम ही है कि आपकी ये बेकार की बातें सुनने के लिए हम थोड़े ही आए थे। तो किस काम के लिए आए थे? महाराज जी! हम तो मनोकामना पूरी कराने के लिए आए थे। हमने तो यह समझा था कि चलो गुरुजी अनुष्ठान वगैरह कराएँगे तो कुछ वो भी कर लेंगे। थोड़ा-बहुत उलटा-पलटा, नहीं होगा तो सत्संग सुन लेंगे और कुछ नहीं होगा तो बार-बार उनसे मिलते रहेंगे और कहते रहेंगे कि महाराज जी! हमारा यह काम करा दीजिए।
जाल मत बुनिए
अपना स्वार्थ साधने के लिए लोग न जाने क्या-क्या चक्कर चलाते और बहानेबाजी करते रहते हैं। कोई बहाने से यह कहता है कि गुरुजी आपकी शाखा तो बंद हो गई, ठंढी पड़ गई। बेटे! हमारी शाखा कैसे ठंढी हो गई? अरे साहब! हमको बड़ी फिकर रहती है, चिंता रहती है कि आपकी शाखा ठंढी हो गई। तो बेटे! तुझे किस बात की फिकर रहती है? साहब! हमारे ऊपर इनकम टैक्स का मुकदमा चल रहा है और हमारी मौसी को जुकाम होता रहता है, इसलिए हमको चिंता बनी रहती है। आप हमारी मौसी का जुकाम ठीक कर दीजिए और इनकम टैक्स का मुकदमा जिता दीजिए तो हमारी चिंता दूर हो जाएगी। तब हम आपका काम करेंगे और तब आपकी शाखा चलेगी। अच्छा, तो यह मामला है। जाल बुनकर के लाया है हमारे लिए। इस कीमत पर हमको नहीं चलानी है शाखा। तू अभी बंद कर दे शाखा को। कल जो तेरी शाखा बंद होती हो तो भगवान करे अभी बंद हो जाए। इस कीमत पर शाखा चलानी होगी तो बेटे! हम नौकर रख लेंगे। इसके लिए हम तेरे संतान पैदा करें और उसके लिए अपना तीन साल दें। हमारी और हमारे समय की कीमत तुझे मालूम है कि क्या है? हमारा समय बड़ा कीमती है।
कोई शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं
तू हमको कितने रुपये का नौकर समझता है? चल यही मान ले और हमको नौकर रखकर के देख। दो चार हजार रुपये हम कमा लेते हैं कि नहीं। चार हजार रुपये महीने हम कमा सकते हों तो बारह महीने के अड़तालीस हजार रुपये होते हैं हमारे समय की कीमत? तीन साल का तप देकर के तेरे बेटा पैदा कराएँगे तो अड़तालीस हजार रुपये के हिसाब से तीन साल का कितना होता है? डेढ़ लाख रुपये होता है। डेढ़ लाख रुपये देंगे, तेरी संतान पैदा कराएँगे, तब तेरी चिंता दूर होगी, तब तेरा उत्साह बढ़ेगा और तब तू हमारी शाखा चलाएगा? बेटे ! डेढ़ लाख रुपये में तो हम सौ-सौ रुपये महीने के तेरे जैसे हजार आदमी नौकर रखेंगे और काम करा लेंगे। पागल कहीं का, शाखा के बहाने बनाता है और हमारे ऊपर जाल फैलाता है। आदमी हमारे ऊपर चाल चलता रहता है। शंकराचार्य को भगंदर का फोड़ा था और वे उसी फोड़े के रहते सोलह वर्ष से लेकर बत्तीस वर्ष तक लगातार काम करते रहे। उन्होंने किसी से शिकायत नहीं की, शिकवा नहीं किया कि हमको भगंदर का फोड़ा हो गया है, आप अच्छा कर दीजिए, तब हम काम करेंगे। बेटे! भगंदर का फोड़ा अपनी जगह है और हमारा मन अपनी जगह है।
(क्रमश:-समापन अगले अंक में)
यह है जवानी
मित्रो! आप किस काम के लिए आए थे और क्या कहने आए थे, मैं यह अच्छी तरह से समझता हूँ। बच्चे गुब्बारा माँगते रहते हैं, टॉफी माँगते रहते हैं, लेमन-चूस माँगते रहते हैं, चुसकी माँगते रहते हैं, मैं समझता हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि आपका बचपन अभी दूर नहीं हुआ है और अभी आपकी जवानी नहीं आई है। मैं सब जानता हूँ और इसका मुझे बड़ा क्लेश है कि मेरे सब बच्चे अभी बच्चे रह गए। इनमें से अभी एक भी व्यक्ति जवान नहीं हो सका। जवान का तरीका अलग है और बच्चे का तरीका अलग है। बच्चा हमेशा माँगता रहता है कि लाइए-दीजिए। चौबीस घंटे लाइए-दीजिए कहता रहता है, उसका नाम है—बच्चा और जवान? जवान आदमी हर एक से पूछता है, माँ से पूछता है कि माताजी आपको क्या चाहिए? पिताजी आपको क्या चाहिए? देवी जी आपको क्या चाहिए? धर्मपत्नी से पूछता है कि क्या चाहिए आपको? पड़ोसी से पूछता है कि क्या चाहिए आपको? नौकर से पूछता है कि क्या चाहिए आपको? हर आदमी से पूछता है कि क्या चाहिए, हम आपकी सहायता करेंगे और देंगे। यह जवानी है।
साथियो! अभी आपकी मानसिक स्थिति बच्चों जैसी है। इससे भी माँगेंगे, उससे भी माँगेंगे, इससे भी ठगेंगे, उससे भी याचना करेंगे। भगवान से भी माँगेंगे, गुरुजी से भी माँगेंगे, हर एक से माँगेंगे। आप बालक हैं, यह देखकर हमको कितना क्लेश होता है। मरते समय हम अपने अनाथ बच्चे छोड़कर जा रहे हैं, जैसे आप। आप अनाथ बच्चे हैं, अगर आप जवान आदमी रहे होते तो आपका दिल, आपका विचार करने का तरीका अलग रहा होता, फिर आप सोचते कि हमको क्या देना चाहिए? समाज को क्या देना चाहिए? देश को क्या देना चाहिए? भगवान जी को क्या देना चाहिए? तब हम आपसे कहते कि आप जवान आदमी हैं। बेटे! हम जवान आदमी हैं और हमेशा अपने गुरु से पूछते रहते हैं कि आप हुक्म दीजिए हम क्या दे सकते हैं? हमारे पास जो कुछ भी बाप-दादों की कमाई थी, वह सब हमने उनके सुपुर्द कर दी। फिर हमने कहा कि हमारे पास अक्ल है, इसे हम आपके चरणों में सुपुर्द करते हैं। फिर हमने कहा कि हमारी जिंदगी है, इसे भी हम आपके सुपुर्द करते हैं। हमने अपनी वसीयत की हुई है कि हमारे शरीर का प्रत्येक जर्रा, प्रत्येक हिस्सा उन लोगों के लिए खरच कर दिया जाए, जिनको इसकी आवश्यकता है।
देने की प्रवृत्ति जगाइए
मित्रो! यह है जवानी। जवानी में आदमी का कलेजा चौड़ा हो जाता है, दिलवाला हो जाता है, आदमी को देने की प्रवृत्ति हो जाती है। हमने भी चाहा कि आपमें से हर आदमी में देने की प्रवृत्ति जाग्रत हो जाए। नहीं साहब! हमें इन बेकार की बातों से कोई फायदा नहीं है। आप हमारी मनोकामना पूरी करेंगे कि नहीं करेंगे, सीधी बात बता दीजिए। आ बेटे! चल तुझे हम सीधी बात बता देते हैं। हमारे पास कोई तप होगा, हमारे पास कोई पुण्य होगा तो हम आपकी सहायता करेंगे। जहाँ तक हमारे लिए संभव है, वह हम आपके लिए करेंगे। मनोकामना हम किसी की पूरी नहीं करेंगे। सारी दुनिया की दौलत इकट्ठी करके अगर एक आदमी के लिए छोड़ी जाए तो भी एक आदमी के लिए कम पड़ेगी। रावण के लिए दौलत कम पड़ी थी, कंस के लिए दौलत कम पड़ी थी। सबके लिए दौलतें कम पड़ीं और आपकी मनोकामना पूरी करने के लिए सारी की सारी दुनिया की दौलत कम पड़ती चली जाएगी। आप एक कामना पूरी करेंगे, फिर दूसरी खड़ी हो जाएगी। दूसरी पूरी करेंगे तो फिर तीसरी खड़ी हो जाएगी। ये मनोकामनाएँ किसी भी कीमत पर पूरी नहीं की जा सकती।
कर्मफल को मानना होगा
मित्रो! हम मनोकामना पूरी करने का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि मनोकामना पूरी करने का दावा अगर कोई करेगा तो वह वह आदमी होगा, जो यह कहता होगा कि हम दुनिया में से कर्मफल के सिद्धांत को खतम कर सकते हैं। कर्मफल का सिद्धांत अगर खतम हो जाएगा तो मनोकामना पूरी होने का सिद्धांत चालू हो जाएगा। अगर कर्मफल दुनिया में है, कर्मफल नाम की कोई चीज है तो बेटे एक आदमी दूसरे आदमी की सीमित सहायता कर सकता है। डॉक्टर एक सीमित सहायता कर सकता है। आपको अगर चोट लग गई है तो डॉक्टर पट्टी बाँध सकता है। आपको किसी ने चाकू मारकर घायल कर दिया है और आप चिल्ला रहे हैं तो डॉक्टर आपको एक मॉर्फिया का इंजेक्शन लगा सकता है और थोड़ी-सी सहायता कर सकता है। डॉक्टर आपको जिंदा नहीं कर सकता। मरे हुए को जिंदा करने की ताकत किसी डॉक्टर में नहीं है। मित्रो! हम आपकी हर मनोकामना पूरी करने में समर्थ हैं। एक इनसान दूसरे इनसान की जैसी सहायता कर सकता है, वैसी ही सहायता हमको करनी चाहिए और हम कर सकते हैं। मित्रो! हम संत परंपरा के विद्यार्थी हैं। संत उसे कहते हैं, जो दूसरों की मुसीबत को देखकर पिघल जाता है। संत दूसरों की मुसीबत देखकर मक्खन की तरह पिघल जाता है। हम संत हैं और हमने पढ़ा है—'मातृ देवो भव', 'पितृ देवो भव', 'आचार्य देवो भव', 'अतिथि देवो भव'। अतिथि देवता होता है।
हम संत परंपरा से हैं
आप अतिथि के रूप में हमारे दरवाजे पर आए हैं और हम आपकी कुछ सहायता कर सकते हैं, आपको पानी पिला सकते हैं। छाया दे सकते हैं, जो हमको देनी चाहिए, अन्यथा अतिथि अपना पाप देकर चला जाता है। हमको डर है कि कहीं आप निराश होकर के न चले जाएँ और अपने पाप हमको देकर के न चले जाएँ, इसलिए हम शास्त्रीय परंपरा के अनुसार आपकी सहायता करेंगे। संत तो हम नहीं हैं, पर संत परंपरा के विद्यार्थियों से जाना है कि संत किसे कहते हैं और संत कैसा होना चाहिए? संत को दूसरों पर दया करनी चाहिए और यदि वह दूसरों की सहायता करने में समर्थ है तो उसे करनी चाहिए। यह हमारा स्वाभाविक धर्म है। स्वाभाविक धर्म से प्रेरित होकर के हम आपकी सहायता करेंगे, जरूर करेंगे। आप जो मनोकामना लेकर के यहाँ आए थे, चाहे वह गुब्बारा माँगने के लिए ही क्यों न आए हों? टॉफी माँगने के लिए क्यों न आए हों? लेमन-चूस माँगने के लिए क्यों न आए हों? चुसकी माँगने के लिए क्यों न आए हों? यद्यपि ये सब चीजें बेकार और वाहियात हैं, जिनको आप माँगने आए हैं। चलिए तो भी हम कोशिश करेंगे, यदि वह हमारी सामर्थ्य के भीतर होगा और आपका कर्मफल जहाँ तक इजाजत देता होगा, वहाँ तक हम आपकी मदद करेंगे और सहायता करेंगे। हमारी एक सीमा है, असीम सहायता हम नहीं कर सकते। एक इनसान दूसरे आदमियों की सहायता करता रहा है और करता रहेगा। उसी तरीके से हम भी आपकी सहायता करेंगे, जिससे शायद आपकी मुसीबतों में कुछ कमी आ जाए।
खाली हाथ नहीं जाने देंगे
मित्रो! अगर हम यह दावा करें कि हम दुनिया के कष्ट दूर कर देते हैं तो हमारे बराबर धूर्त और अगर आप यह ख्याल करें कि गुरुजी या मनसा देवी या अमुक या तमुक आदमी की मनोकामना पूरी कर सकता है तो उसके बराबर मूर्ख दूसरा कोई नहीं हो सकता। न तो मैं धूर्त हूँ कि आपसे यह वायदा करूँ कि जो आप मनोकामना लेकर के आए हैं, उसे मैं पूरी कर दूँगा। मैं यह धूर्तता नहीं कर सकता। सिर्फ यह कह सकता हूँ कि हम एक इनसान हैं और एक इनसान ने दूसरे इनसान की मदद करके उसे फायदा पहुँचाया है। इसी परंपरा से यह दुनिया जिंदा है। हम भी आपकी सहायता करेंगे, क्योंकि आप हमारे बच्चे हैं, आप हमारे कुटुंबी हैं और आप हमारे मित्र हैं। हमको आपकी सहायता करनी चाहिए और हम आपकी मदद जरूर करेंगे। आपका वजन कितना कम हो सकता है, हम यह नहीं जानते, लेकिन आप यकीन रखिए कि यहाँ से कोई भी आदमी खाली हाथ नहीं गया है और आपको भी हम खाली हाथ नहीं जाने देंगे। जहाँ तक हमारा सामर्थ्य है, हम
आपकी सहायता करेंगे।
यहाँ से कायाकल्प करके जाएँ
साथियो! आपकी बात का जवाब अब समाप्त हो गया, लेकिन हमारी बात का जवाब जहाँ का तहाँ रखा हुआ है। आपको विचार करना पड़ेगा कि गुरुजी जो हमसे कहते थे और हमसे जो अपेक्षा रखते थे, क्या हम उसको पूरा करने में समर्थ हैं। अगर आप में यह हिम्मत हो तो यह कोशिश करना कि अपने आप का कायाकल्प कर डालें। यहाँ से आप जाएँ तो अपने आप को बदल के जाएँ, अपने आप में हेर-फेर करके जाएँ। नाक-कान का तो कायाकल्प नहीं हो सकता, जवानी का बुढ़ापे में और बुढ़ापे का जवानी में कायाकल्प नहीं हो सकता, लेकिन आदमी के विचारों का कायाकल्प होना कभी भी संभव है। अगर चाहें तो आदमी के चिंतन का, आदमी के दृष्टिकोण का कायाकल्प सेकंडों के भीतर हो सकता है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि आपका कायाकल्प हो जाए। मैं चाहता था कि आपका शक्तिपात करा करके भेजें. आपकी कुंडलिनीशक्ति जगा करके भेज। मेरी यही दो मंशा थीं, जिसके लिए मैंने आपको बुलाया था। यों तो शक्तिपात की मेरी अपनी अलग व्याख्या है और कुंडलिनी जागरण की व्याख्या अलग है। ये दोनों व्याख्याएँ अलग-अलग हैं। आपके हिसाब से शक्तिपात किसे कहते हैं? आपके हिसाब से शक्तिपात उसे कहते हैं कि गुरुजी किसी के सिर पर हाथ रखें और ऐसा करेंट मारें, ऐसा झटका मारें कि मैं बिलबिला उठूँ, और कहूँ की शक्ति आ गई। अच्छा तो आपका मतलब करेंट से है? हाँ साहब! इससे शरीर काँप गया, यही मतलब है आपका? हाँ साहब! ठीक है, मैं समझ गया, क्योंकि आप हर बात को शरीराध्यास में लेते हैं। स्थूलशरीर में कोई चीज दिखाई पड़े तो शक्तिपात और दिखाई नहीं पड़े तो कोई शक्तिपात नहीं, आपकी यही मान्यता है न? हाँ साहब! यही बात है।
मिथ्या भ्रांतियाँ
ठीक है, जिस दिन आपको शक्तिपात कराना हो तो मेरे पास आ जाना। मेरे पास बड़ा सस्ता तरीका है और मैं अभी शक्तिपात करके दिखा सकता हूँ। तो गुरुजी! कब करेंगे शक्तिपात? बेटे! दोपहर को व्याख्यान के बाद आ जाना, मैं तेरा शक्तिपात करूँगा। अच्छा साहब! बैठ गए, लीजिए कीजिए शक्तिपात। बेटे! यहीं बैठे रहना, गड़बड़ मत करना। नहीं साहब! नहीं करूँगा गड़बड़। गुरुजी! यह क्या ले आए? बेटे यह बैटरी है और यह क्या है? यह है—बिजली का करेंट। इसका क्या करेंगे? तेरे शरीर में करेंट छुआएँगे। अरे! मर गया-मर गया.......। यह क्या हो रहा है? बेटे! शक्तिपात हो रहा है। इसी को तू शक्तिपात कह रहा था ना? अरे बेवकूफ! शक्तिपात जीवात्मा में होता है, शरीर में नहीं हो सकता। नहीं साहब! कुंडलिनी जगा दीजिए। कैसी कुंडलिनी, बता न? गुरुजी! मैंने सुना है कि कुंडलिनी मूलाधार में से निकलती है और साँप जैसी होती है। मूलाधार से निकलकर पीठ में रीड़ की हड्डी पर से रेंगती-रेंगती सिर में आ जाती है और कान से होकर सिर में घुस जाती है। तो यही है तेरी कुंडलिनी? हाँ महाराज जी! यही है कुंडलिनी। मैं समझता था कि तू शक्ति के प्रत्येक वाक्य की व्याख्या करेगा, पर तू क्या व्याख्या करेगा? तू तो शरीराध्यास में डूबा हुआ है, इसलिए शरीर के अलावा तेरी कुंडलिनी कहीं नहीं जा सकती।
चाहिए दिव्य चक्षु
बेटे! जीवात्मा को तू समझता भी नहीं है, चेतना को समझता भी नहीं है। चेतना के भीतर कुंडलिनी कैसे जाग्रत होती है, यह तो तेरा ख्वाब ही नहीं है। तू तो शरीर में इस कदर डूबा हुआ है कि आध्यात्मिकता के क्या लाभ हैं, वो भी शरीर से ही देखना चाहता है। अरे साहब! भगवान को देखूँगा। किससे देखेगा भगवान को? आँखों से देखूँगा। बेटे! आँखों से मिट्टी देखी जा सकती है, भगवान नहीं देखा जा सकता। भगवान को देखने के लिए दिव्य चक्षु चाहिए, चेतना चाहिए। अगर तेरी संवेदना जाग्रत नहीं है तो कोई भगवान दिखाई नहीं पड़ सकता। नहीं साहब! सपने में देख लूँगा। तो देख लेना, लेकिन वह ख्वाब होगा। नहीं महाराज जी! बदरीनाथ में जाकर देखूँगा। और क्या देखेगा? नहीं महाराज जी! भगवान को देखूँगा। बेटे! भगवान को इन आँखों से नहीं देखा जा सकता है। बेटे! शरीर हमारा वाहन है। यह हमारी किसी आध्यात्मिक आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकता और कुंडलिनी जागरण करने के लिए शरीर हमारे किसी काम नहीं आ सकता।
शक्तिपात चेतना में होता है
कुंडलिनी जागरण कैसे हो सकता है? अगर बेटे! तेरा ख्वाब सही है तो मेरे पास बड़ा सुगम तरीका है। तेरी कुंडलिनी मैं अभी जगा दूँगा। कैसे जगाएँगे? साँप से। अभी तू साँप की बात कर रहा था कि साढ़े तीन चक्कर काटकर, सर्पिणी मूलाधार में बैठी रहती है और काट खाती है। हाँ बेटे ! साँप का चक्कर है। अगर जहरीले साँप ने काट खाया तो तू भी मुसीबत में पड़ जाएगा और मैं भी मुसीबत में फँस जाऊँगा। इसलिए ऐसा करता हूँ कि तेरी कुंडलिनी बहुत सस्ती में जगा देता हूँ। साँप का जो भाई है, उसका नाम है—बिच्छू। तू मेरे पास आ जाना। पहले मैं बिच्छू की कुंडलिनी जगा दूँगा, फिर तेरी साँप की कुंडलिनी जगा दूँगा। अच्छा महाराज जी ! पहले बिच्छू की कुंडलिनी जगाकर दिखाइए। अच्छा तो बैठ। यह क्या निकालकर लाए? काला बिच्छू। अरे महाराज जी! यह तो काट खाएगा। हाँ बेटे! तभी तो तेरी कुंडलिनी जगेगी। अरे साहब! मर गया-मर गया। अरे! अभी क्या? अभी तो तेरी साँप की कुंडलिनी जगाऊँगा, तब तुझे आटे-दाल का भाव मालूम पड़ेगा। तो क्या महाराज जी! यही कुंडलिनी होती है। अरे पागल! ऐसी कुंडलिनियाँ होती हैं कहीं? ऐसे ही शक्तिपात कहीं शरीरों में होते हैं? बेटे ! शक्तिपात शरीरों में नहीं होते। शक्तिपात उसे कहते हैं, जिसे करने का मैं इच्छुक था और जो मेरी इच्छा थी कि मैं आपको शक्तिपात करके भेजता।
धारा को उलटे चीरकर चलना
शक्तिपात किसे कहते हैं? बेटे! शक्तिपात उस ताकत को कहते हैं, जिससे कि दुनिया की हवा, दुनिया का प्रवाह एक ओर बहता हुआ चला जाता है और मछली पानी को चीरकर के उलटी दिशा में बहती हुई चली जाती है। पानी के बहाव में छप्पर बहते हुए चले जाते हैं, लट्ठे बहते हुए चले जाते हैं, हाथी बहते हुए चले जाते हैं पानी के बहाव में, लेकिन पानी की धारा को चीरती हुई मछली चल सकती है। यह ताकत उसी की है। शक्तिवान वही है, जो धारा को चीरकर के चल सके। दुनिया की धारा, दुनिया का बहाव इतना जबरदस्त है कि दुनिया वाले जो कहते हैं, जो सुनते हैं, जो पसंद करते हैं, उसी रास्ते पर हम चलते चले जाते हैं। बेटे! शक्तिपात मेरे भीतर रहा होता तो—
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥
अर्थात—जिस समय सारी दुनिया जागती है, उस समय योगी सोया रहता है और जिस समय सारी दुनिया सोई रहती है, उस समय योगी जागता रहता है। क्या मतलब है इसका? बेटे! यहाँ सोने-जागने से मतबल नहीं है। इसका मतलब है—दुनिया की ख्वाहिशें, दुनिया की इच्छाएँ, दुनिया की पसंदगी जिस तरीके से होती है, अध्यात्मवादी की पसंदगी अलग तरीके से होती है। हमारे गुरु ने हमारा शक्तिपात किया और यह कहा कि दुनिया वालों का मुकाबला करना। ये दुनिया वाले बड़े नामाकूल हैं, उनका मुकाबला करना।
हमने गुरु की बात मानी
मित्रो ! जब हमारे गुरु ने हुक्म दिया कि मुझे चौबीस साल तक जौ की रोटी खानी चाहिए और छाछ पीकर रहना चाहिए, तब हर आदमी ने मुझे पागल कहा। मेरे घर वालों ने कहा कि तू बीमार पड़ेगा। डॉक्टरों ने कहा कि जौ में विटामिन्स नहीं होते। जौ तो बिलकुल बेकार होता है, जौ में प्रोटीन नहीं होता और यह बीमार पड़ेगा। इसको संतुलित आहार लेना चाहिए। डॉक्टरों ने लंबी फेहरिस्त लाकर मेरे सामने रख दी और कहा कि बताइए इसमें कहाँ है स्टार्च और कहाँ है प्रोटीन, जो आप खाते हैं? आप बेअकल आदमी हैं, हरएक ने मुझसे बेअकल कहा, लेकिन मेरे गुरु ने कहा कि यही रास्ता सही है। मित्रो ! मैंने सारी दुनिया से कहा कि वे बेअकल हैं और दुनिया ने मुझसे कहा कि बेअकल है। सारी दुनिया में यही जद्दोजहद मचता हुआ चला आ रहा है। बेटे! मैं ताकतवर आदमी हूँ और दुनिया वालों से कहता हूँ कि आप जाइए, अपनी जगह पर चुप बैठ जाइए और हमको अपना काम करने दीजिए। हमारी ताकत अपनी जगह पर, हमारी अक्ल अपनी जगह पर, हमारा विचार अपनी जगह पर है। हम आपकी सलाह पर चलने वाले नहीं हैं और आपके कहने को मानने वाले नहीं हैं। मित्रो! सारी जिंदगी भर यही फजीता होता रहा। नमक सत्याग्रह के लिए चला तो घर वालों ने मुझे बंद कर दिया और यह कहा कि अपने घर पर रहिए, वहाँ जाने की जरूरत नहीं है। जब रात हो गई तो मैंने घर वालों से कहा कि मुझे टट्टी लगी है, कहाँ जाऊँ। आप मेरा कुरता ले लीजिए, चप्पल ले लीजिए मैं ये गमछा और बनियान पहनकर के चला जाऊँगा।
भीतर से आई हिम्मत ही है शक्तिपात
मित्रो! बनियान और गमछा लेकर के रात को आठ बजे टट्टी के बहाने मैं चला। एक हाथ में लोटा लिए हुए था, जनेऊ कान पर चढ़ा हुआ था। रात को आठ बजे निकला और सवेरे छह बजे अपने गाँव से बाहर बारह मील आगरा पड़ता है, जाने कितने मील दूर का चक्कर काटता हुआ सवेरे वहाँ जा पहुँचा। वहाँ कांग्रेस कैंप में जाकर मैंने वालिंटयर में अपना नाम लिखाया और उनसे यह कहा कि मेरे घर वाले पकड़ ले जाएँगे, इसलिए मुझे कहीं और भेज दीजिए। मुझे बाहर के इलाके में भेज दिया गया और मैं दूसरी जगह पर चला गया। वहाँ मैं कांग्रेस में काम करता रहा। मेरे घर वाले नाराज, मेरी माँ नाराज, मेरे भाई नाराज, सब के सब नाराज। एक ही प्रसन्न थी, वह थी—मेरी जीवात्मा और मेरा परमात्मा। बस, दो ही काम हैं, बाकी सब अपनी जगह पर जाइए और जहन्नुम में जाइए। मैं आपका गुलाम नहीं हूँ। अपने भगवान का गुलाम हूँ और अपनी जीवात्मा का गुलाम हूँ और किसी का गुलाम नहीं हूँ। मित्रो! यह हिम्मत भीतर से आई और वही था—शक्तिपात। जिसमें खाने से लेकर अमुक काम करने तक मैं एक योद्धा हूँ, बहादुर हूँ और जमाने की हवा के साथ में टक्कर मारता हूँ। जमाने के साथ चैलेंज करता हूँ कि मैं इस हवा के रुख को बदल दूँगा और फिजा को बदल दूँगा।।
कुंडलिनी अर्थात दूरदर्शिता
बेटे! यही शक्तिपात है। मैं चाहता था कि आपको भी शक्तिपात हो जाता और आप इतने बलवान हो जाते कि आप सैकड़ों चंदगीराम से ज्यादा कीमती कहलाते। आप सैकड़ों दारा पहलवानों से कीमती कहलाते, आप सैकड़ों सैंडो पहलवानों से ज्यादा कीमती कहलाते। मैं चाहता था कि आत्मा की दृष्टि से आप इतने शक्तिवान हो जाते। मालूम नहीं कि मेरी इच्छा पूरी हो सकेगी कि नहीं, मालूम नहीं, मैं आपकी सहायता कर सका कि नहीं! मालूम नहीं कि आपने मेरी सहायता स्वीकार की कि नहीं? मालूम नहीं कि अपने आप को बदल देने के लिए आपने तैयारी की कि नहीं की? अगर आपने अपने आप को बदल दिया होगा तो मेरा शक्तिपात करने का मकसद जरूर पूरा हो जाएगा, लेकिन अगर आप बदलने के लिए तैयार नहीं हैं और कहते हैं कि नहीं साहब! हम नहीं बदल सकते, भगवान को बदलना चाहिए, आपको बदलना चाहिए, सबको बदलना चाहिए, परंतु हमको नहीं बदलना चाहिए। तब आपकी मरजी है, फिर मैं कैसे शक्तिपात करूँगा? कुंडलिनी किसे कहते हैं? बेटे ! कुंडलिनी विवेकशीलता को कहते हैं, दूरदर्शिता को कहते हैं, आदर्शवादिता को कहते हैं। हमारी जिंदगी में आदर्शवाद के सिद्धांत केवल कहने भर के लिए रह गए हैं, सुनने के लिए रह गए हैं। जब इसको कार्यान्वित करने का वक्त आया तो हमने हजार बहाने बनाए, हजार बातें सोची। कहने का वक्त आया तो लंबे-चौड़े व्याख्यान दिए और जब करने का वक्त आया तो बगलें झाँकी और बहाने बनाए।
आदर्श रोम-रोम में समा जाएँ
मित्रो! कुंडलिनी किसे कहते हैं? सिद्धांतवादिता को, आदर्शवादिता को, जो आदमी के रोम-रोम में समा जाती है, जिसके आधार पर आदमी यह कहता है कि हम सिद्धांतों के अनुयायी हैं। हम व्यक्तियों के अनुयायी नहीं हैं, हम परिस्थितियों के अनुयायी नहीं हैं। हम किसी के अनुयायी नहीं हैं, वरन सिद्धांतों के अनुयायी हैं। सिद्धांतों के लिए हम बलिदान कर सकते हैं। जिसमें हमारा भविष्य उज्ज्वल बनता है, जिसमें हमारे सिद्धांतों की पुष्टि होती है, उस विवेकशीलता का नाम कुंडलिनी शक्ति है, जो हमारे भीतर आदर्शवादिता के रूप में काम करती है। जब यह दोनों चीजें मिल जाती हैं तो मजा आ जाता है। तब आपकी शक्ति जाग्रत हो जाती है, आपका शक्तिपात हो जाता है और आपकी कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है। अब हमारा शिविर पूरा हो गया, पर कह नहीं सकता कि मैं अकेला तो इसे कैसे कर सकता हूँ, लेकिन अगर आप मुझे थोड़ा सहयोग करें तो मैं दोनों सहायताएँ कर सकता हूँ। आपकी कुंडलिनी जगा सकता हूँ और आपका शक्तिपात कर सकता हूँ। मगर शर्त यह है कि आप थोड़ा सहयोग करें। आप बिलकुल सहयोग नहीं करेंगे, तब फिर आपकी सहायता करना मेरे लिए मुश्किल है। बरसात के लिए यह मुश्किल है कि वह किसी पत्थर के ऊपर, किसी चट्टान के ऊपर घास जमा दे। कोई बरसात चट्टान के ऊपर घास नहीं जमा सकती। चट्टान को मुलायम होना पड़ेगा। जब तक वह मुलायम नहीं होती तो उसके ऊपर बादलों की वर्षा का कोई फायदा नहीं हो सकता। आप चट्टान के तरीके से बने रहें तो मैं क्या सेवा कर सकता हूँ? क्या सहायता कर सकता हूँ?
मेरा खास मकसद
मित्रो! मैंने आपको इस ख्याल से बुलाया था कि अब मैं जा रहा हूँ। इस संसार में मैं खास मकसद लेकर के आया था। दुनिया में आध्यात्मिकता का मजाक उड़ाया जा रहा था, तब मैंने उसे वैज्ञानिक धरातल पर सिद्ध करके सबके सामने उसके नमूने खड़े किए। अध्यात्म को विज्ञान के धरातल पर खरा साबित किया। स्वामी विवेकानंद भी खास मकसद लेकर के आए थे। तब भारतीय संस्कृति दुनिया में से गायब हो रही थी, ईसाइयत फैल रही थी। दुनिया के लोग हिंदू धर्म के ऊपर हमले कर रहे थे और वेदों को गड़रिये के गीत बता रहे थे। पढ़े-लिखे नौजवान हिंदुस्तान के यह कह रहे थे कि हिंदू धर्म बेकार है, हिंदू संस्कृति बेकार है। उस जमाने में विवेकानंद आए और नई पीढ़ी से कहा—"ठहरिए! आप पहले हिंदू संस्कृति को पढ़िए-समझिए, तब आप समझेंगे कि इससे बेहतरीन और कोई संस्कृति नहीं है। दुनिया भर में घूम-घूमकर उन्होंने बताया कि भारतीय संस्कृति बड़ी है, आप उस पर हमला मत कीजिए। यह इतनी बड़ी दीवार है कि आपके हमलों से वह कमजोर नहीं हो सकती।" दुनिया को उन्होंने भारतीय संस्कृति का स्वरूप समझाने की कोशिश की, हिंदुस्तान के लोगों को समझाने की कोशिश की। इस तरह वे अपना एक मकसद लेकर आए थे और चले गए। मित्रो!
आपसे अपेक्षाएँ
मैं भी एक मकसद लेकर के आया था, जिसे मैंने आपके सामने, दुनिया के सामने रखा और बराबर यह प्रयत्न करता रहा कि लोग इसे समझें, जीवन में उतारें और जिस तरह हम अपने जीवन में निहाल हो गए, आप सब उसी तरह आध्यात्मिकता के सच्चे लाभ से निहाल हो जाएँ तो हमारे आने का और आपके शिविर करने का मकसद पूरा हो सके।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥