उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
परमवंदनीया माताजी की अमृतवाणी
गुरुपूर्णिमा पर्व पर विशेष
प्रस्तुत गुरुपूर्णिमा (२ जुलाई, ०४) पर प्रस्तुत है १३ जुलाई १९८९ का गुरुपूर्णिमा संदेश, परमवंदनीया माताजी के श्रीमुख से
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
प्रेरणाओं का स्रोत—गुरु
हमारे आत्मीय परिजनो! आज का यह गुरुपर्व आत्म समीक्षा का पर्व है, संकल्प का पर्व है और यह गुरु का पर्व है। गुरु कौन होता है? गुरु हमारा मार्गदर्शक होता है और गुरु हमारी प्रेरणाओं का स्रोत होता है। हमारे मार्ग में जो काँटे बिखरे होते हैं, गुरु उनको दूर करता जाता है और हमको रास्ता बताता हुआ चला जाता है। गुरु मनुष्य के जीवन-पथ की प्रगति का द्वार खोल देता है, उसका आत्मविकास कर देता है और यह कहता हुआ चला जाता है कि राह में काँटे हैं तो क्या हुआ, हम आपके साथ हैं। आप इस मार्ग पर चलिए। हम अपने तप का एक अंश आपको देंगे, ताकि आप में वह शक्ति आ जाए, वह ऊर्जा उत्पन्न हो जाए कि आप काँटों में भी यह अनुभव करें कि ये हमारे लिए काँटे नहीं, फूल हैं, मोती हैं।
गुरु, प्रेरणा के स्रोत का नाम है। गुरु संबल होता है, गुरु कल्पवृक्ष होता है। इस शक्तिस्रोत के नीचे जो बैठता है और फलाकांक्षा करता है, वह साधक को, शिष्य को मिलता हुआ चला जाता है और शिष्य धन्य हो जाता है, क्योंकि जिस सत्ता का हाथ उसने पकड़ा है, जिसका आँचल पकड़ा है, उसमें उसका विश्वास है, उसकी श्रद्धा है। तुलसीदास जी ने कहा है—"भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धाविश्वास रूपिणौ।" मैं भवानी-शंकर की वंदना करता हूँ। कहाँ हैं भवानी-शंकर? यहाँ न भवानी दिख रही है और न शंकर, फिर किसकी वंदना कर रहे हैं? उन्होंने कहा कि श्रद्धा और विश्वासरूपी भवानी-शंकर हैं, उनकी मैं वंदना करता हूँ। बेटे, यह उनकी श्रद्धा है और विश्वास है। जो श्रद्धा और विश्वास है, वही सफलता का सोपान है। सफलता शिष्य को जरूर मिलती है, इसमें दो राय नहीं है, लेकिन मिलती कब है? जब शिष्य बाँसुरी के तरीके से बिलकुल खाली हो जाता है। आपने बाँस की बाँसुरी देखी होगी। वह बाँसुरी कैसी है? वासनाओं से खाली। तरह-तरह के विकारों से जब शिष्य खाली हो जाता है, तब गुरु उसमें तरह-तरह के राग निकालता है और शिष्य कठपुतली के तरीके से बाजीगर के इशारों पर चलता जाता है। बाजीगर कौन होता है? गुरु। कठपुतली कौन होता है? शिष्य। जिस तरीके से कठपुतली अपना समर्पण करती है और कहती है कि जैसा चाहें वैसा नाच आप नचाते चलिए, हम नाचने के लिए तैयार हैं। जो भी पार्ट आप अदा कराना चाहें, वह हम सहर्ष स्वीकार करते हैं। चाहे हमारे पथ में कितनी ही बाधाएँ क्यों न हों। बाधाएँ अपनी जगह पर होंगी, लेकिन शिष्य उस चट्टान का नाम होता है, जो कि बिना सोचे-विचारे उसी रास्ते पर चलता है, जो उसे मार्ग दिखाया गया है।
गुरु गोविंद से भी बड़ा
गुरु कौन है? गुरु वह है जो जीवात्मा को परमात्मा से मिलाता है। गुरु ही मिलाता है, गुरु न हो तो नहीं मिल सकता। बुद्धि मिल सकती है, शिक्षा मिल सकती है, लेकिन हमको श्रद्धा नहीं मिल सकती, भगवान नहीं मिल सकता। भगवान से हम लाखों कोस दूर बने रहेंगे। भले ही हम वैज्ञानिक क्यों न बन जाएँ, हम कुछ और क्यों न बन जाएँ। बुद्धि मिल जाएगी? हाँ, बुद्धि मिल जाएगी, लेकिन वह बुद्धि विनाशकारी बुद्धि होगी। वह रचनात्मक दिशा में नहीं चल सकती, क्योंकि उसके पास श्रद्धा नहीं है। गुरु और भगवान दोनों में से कौन बड़ा है गुरु अथवा भगवान? बेटे, यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखेंगे तो पाएँगे कि गुरु ही बड़ा है, क्योंकि वह शिष्य को भगवान से मिलाता है। कहा गया है—
गुरु-गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो मिलाय॥
इस तरह गोविंद से मिलाता है गुरु। भटके हुए हमारे कदमों को गुरु ही हर पग पर सँभालता है। गुरु ही है जो हमारी मानसिक वेदना को हरता है और शांति लाता है। चाहे भले से उसके ऊपर कोई कष्ट क्यों न आता हो। वह जान की बाजी लगाकर भी अपने शिष्य को बचाता है और उसको सही रास्ता बताता है।
क्यों साहब! कैसे मालूम पड़ेगा कि गुरु देता है कि नहीं देता। हमको तो नहीं मिला, हम बेटा-बेटी माँगने आए थे। संभव है आपको न मिलने पर कुछ ठेस लगी हो, लेकिन इसके पीछे भी कोई रहस्य है। संभव है कि जो आप माँगने आए हैं, आपके लिए वह घातक ही सिद्ध हो। गुरु को यह मालूम है कि हमें इसको वया देना चाहिए, क्या नहीं देना चाहिए। हम इसको दलदल में फँसने दें अथवा इसे दलदल में से निकालें, ताकि यह उपयोगी बन सके। आपके मन में यह विचार क्यों नहीं आता। जाने-अनजाने में कितनी झोली भरी जाती है, यह व्यक्ति समझ नहीं पाता।
अभी दो घटनाएँ ऐसी हुई हैं जो मैं आपको बताना चाहती हूँ, हालाँकि शायद आप ये समझें कि हमको चमत्कारवाद बताना चाहती हैं, पर बेटे यह चमत्कारवाद नहीं है, यथार्थवाद है। चमत्कार पर हम जरा भी विश्वास नहीं करते, यथार्थ पर हम भरपूर विश्वास करते हैं। अभी कल-परसों दो-चार रोज की बात है। हमारी एक बच्ची जिस गाड़ी से आ रही थी, उस गाड़ी में किसी ने ऐसे जोर का पत्थर मारा कि उसका शीशा चकनाचूर हो गया। बच्ची कहती है कि ऐसा लगा जैसे पत्थर पकड़ लिया गया, लगा नहीं, जबकि खिड़की का काँच बच्ची के ऊपर, आस-पास के लोगों के ऊपर, उसके पति और सास के ऊपर गिरा। गुरुजी ने पूछा—बेटी रास्ते में कोई परेशानी तो नहीं हुई बता। भावावेश में मुँह से कुछ कह नहीं सकी। प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष। यह मदद है कि नहीं, बताइए? यह मदद ही है।
गुरु हर तरह से मदद करता है
परोक्ष रूप से मदद किसने की? बेटे गुरुजी ने की, आज जी खोलकर कहने दीजिए। कितने ही व्यक्ति, हमारे लड़के यहाँ बैठे हैं। अभी मैं उनको खड़ा कर दूँ तो मैं समझती हूँ कि आप में से दो सौ-पाँच सौ ऐसे निकल आएँगे जो कि यह अनुभव करते हैं कि हाँ गुरुजी ने हमारी मदद की। एहसान है? कोई एहसान नहीं, आप हमारे बेटे हैं। हमने आपको विश्वास दिलाया है कि हम आपके हैं तो भरसक यह प्रयास होता रहा है और होता रहेगा। क्यों साहब! कोई भाग्य के विधाता हैं आप? फिर कभी मरने देंगे कि नहीं मरने देंगे? यह गारण्टी किसी के लिए नहीं है। जो आया है वह तो जाएगा ही। कोई पहले जाएगा, कोई पीछे जाएगा। इसमें हम क्या कर सकते हैं, पर चाहेंगे कि न जाएँ और उसे किसी भी कीमत पर रोकें तो ऐसा भी नहीं हो सकता।
बेटे, यह मदद कौन करता है? वह गुरु करता है जिसके हाथ में हमने अपना सर्वस्व सौंप रखा है। गुरुजी ने अपनी डोरी उस बाजीगर के हाथ में थमा दी है और हर पल यह देखते रहते हैं कि हिमालय से गुरुदेव का क्या संकेत आएगा। जो आया, उसका पालन करना है, उसमें एक सेकेण्ड की भी देर नहीं होती है। कल-परसों उन्होंने कहा कि अभी संकेत आया है कि यह नारी वर्ष है। यह नारी वर्ष है तो आपने पहले से क्यों नहीं कहा? पहले से इसलिए नहीं कहा कि जब जिस समय जो आभास होता है, जो प्रेरणा मिलती है, जो संकेत मिलता है, उससे एक कदम हम आगे भी नहीं बढ़ेंगे और पीछे भी नहीं हटाएँगे। आगे तब तक नहीं बढ़ेंगे, जब तक हमें दिव्य संकेत नहीं मिलता। हमारे गुरु का संकेत है तो हम आगे चलते हुए चले जाएँगे।
नारी वर्ष है, तो इसका क्या अर्थ है? मैं हँसकर विनोद में बात करने लगी। उन्होंने कहा—यह नारी वर्ष है, इसमें नारी को जाग्रत होना चाहिए, नारी को आगे आना चाहिए। मुझसे कहा, जरा अपने लाड़ले बेटों से कहना कि जो बच्चियों को दबाकर रखा है, उनको आगे आने दें, उनका उपयोग होने दें। पाँच-पाँच की टोली बनाएँ। आप इनके संरक्षक तो हो सकते हैं, पर मालिक नहीं। जिस किसी ने भी मालिकी जताई, बस उसकी मालिकी छीन ली जाएगी। ये हमारी बच्चियाँ हैं। इनको आगे आने दीजिए और दीपयज्ञ से लेकर जो भी छोटे-छोटे संस्कार हैं, इनको मनाने दीजिए। इनसे नहीं आता तो आप सहयोग दे सकते हैं, लेकिन मंत्र हमारी बच्चियाँ ही बोलेंगी। आपकी लड़कियाँ ऐसी हैं? हाँ, आप क्या समझते हैं, हमारी लड़कियाँ बड़ी शानदार हैं। अभी आपने इनकी शक्ति को पहचाना कहाँ है। डराया है, दबाया है, कहीं आप उभरने दें तो मैं समझती हूँ कि आप सबको एक तरफ बैठा देंगी। बस नारी-ही-नारी दिखेगी। यहाँ से जब मैंने निगाह फैलाई तो ऐसा मालूम पड़ा कि बस अब आ गई नारी सदी।
शान्तिकुञ्ज से आरंभ हुई नारी सदी
इक्कीसवीं सदी शान्तिकुञ्ज से शुरू हुई और देख लो तीस फीसदी नारियों का स्थान तो सरकार की ओर से सुरक्षित है। जापान में तो उनचास सीटें ले आईं। कौन? नारी। नारी ऐसी है कि यदि उसकी शक्ति जाग्रत हो जाए तो दुर्गा है। उसमें दुर्गा जैसी अपार शक्ति है। आखिर यह नर कहाँ से आया है? उस शक्ति से पैदा हुआ है। वह शक्ति मध्यकाल से अब तक कुछ दबती हुई चली आई और अपनी शक्ति के बारे में अनजान हो गई थी। उसे अब पुन: झकझोरने के लिए गुरुजी ने अवतार लिया है। अवतार कह रही हैं आप? बेटा, हैं तो अवतार ही, मानो चाहे न मानो, क्योंकि कोई ऐसे कार्य नहीं कर सकता, जहाँ हर कदम पर रचनात्मक कार्य चलते हों। यह ईश्वरीय प्रेरणा है और ईश्वरीय शक्ति के रूप में है। ईश्वर नहीं कह रही है, मैं यह मत समझना। मैं ईश्वरीय शक्ति के रूप में कह रही हूँ, जो कि आपके सामने विद्यमान हैं। यदि इस समय भी आप सचेत न हो पाए और आपने बाँसुरी जैसा अपने को खाली नहीं किया तो आप में राग पैदा नहीं हो सकते। आप श्रेष्ठ नहीं बन सकते। देख लीजिए उन्होंने तो अपने को बना करके दिखा दिया।
गुरु किसका नाम होता है? उसका नाम होता है जो हमें कदम-कदा पर श्रेष्ठ मार्ग पर आगे चलाता है। गुरु होता है द्रोणाचार्य। जैसे, जिसने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बना दिया, जिसने एकलव्य को बना दिया। चाणक्य ने हाथ रख दिया था अपने शिष्य चंद्रगुप्त के ऊपर, तो उसको चक्रवर्ती राजा बना दिया। किसको? चंद्रगुप्त को। समर्थ गुरु रामदास ने एक नाटे-से, बौने-से लड़के के ऊपर हाथ रख दिया और कहा कि बेटा हमारा आशीर्वाद है, तू जा विजयी होगा। कौन था वह लड़का? शिवा नाम था उसका, जिसने अपने को समर्पित किया था। अपना समर्पण किया तो वह छत्रपति शिवाजी हो गए।
समर्पित, प्राणवान, जुझारू बनिए
हनुमान उसका नाम है, जिसने भगवान के चरणों पर अपने को समर्पण कर दिया था और यह कहा कि सीता माँ की खोज हमको करनी है। सीता माँ को वापस लाना है। भले ही हमारी समस्याएँ और परिस्थितियाँ ऐसी हैं, जो सुरसा के तरीके से मुँह फाड़े हुए हमको निगलना चाहती हैं, लेकिन हम निगले नहीं जाएँगे। समुद्र पार करके जाना ही है, जो भी राक्षस होगा देखा जाएगा। राक्षस हमारा क्या करेगा? राक्षस माने, हमारी परिस्थितियाँ, जिनमें हम उलझते हुए चले जाते हैं मकड़ी की तरह। मकड़ी जो होती है वह अपने बुने जाले में फँस जाती है और तड़फड़ाती रहती है। जब वह निकलना चाहती है, निकलने की हिम्मत करती है तो स्वयं ही निकल जाती है। आप भी परिस्थितियों के इस मकड़जाल से निकलिए।
बेटे, आज से एक साल पहले मैंने एक हाथी का उदाहरण दिया था कि किसी राजा के यहाँ एक हाथी था। जब वह हाथी बूढ़ा हो गया तो उसे आवारा छोड़ दिया गया। सबने कहा कि अब इसमें शक्ति नहीं है। अब क्या हुआ? हाथी एक दिन पानी पीने गया और दलदल में फँस गया। जब लोगों ने देखा कि हाथी दलदल में फँस गया है, तो सब उसे छोड़कर चले आए। उस भीड़ में एक सैनिक भी था। उसने कहा, अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। यह हाथी वही है, जिसने सेना में काम किया है। यह अपनी शक्ति को भूल चुका है और कोई कारण नहीं है। जब उसके सामने युद्ध जैसे दृश्य उपस्थित किए गए, जुझारू ढोल-नगाड़े बनाए गए तो वह उठ खड़ा हुआ और दलदल को चीरता हुआ बाहर आ गया। बेटे, शरीर बूढ़ा होता है, मन बूढ़ा नहीं होता। जीवात्मा बूढ़ी होती है क्या? जीवात्मा बूढ़ी नहीं होती। व्यक्ति के झुर्री पड़ जाएगी, दाँत उखड़ जाएँगे, बाल सफेद हो जाएँगे, पर जिस दिन व्यक्ति मन से टूट जाएगा, उस रोज बुड्ढा हो जाएगा। बेटे, गुरुजी अस्सी साल की उम्र में बुड्ढे नहीं हुए, आप लोग कैसे बुड्ढे हो रहे हैं? मुझे तो बड़ा आश्चर्य होता है कि जिससे आप जुड़े हैं, जिसको अपना गुरु कहते हैं, जिसको अपनी माँ कहते हैं, उनके झकझोरने पर दो कदम आगे नहीं चलते। इससे हमको आंतरिक कष्ट होता है, वेदना होती है।
समर्पण की महिमा
क्यों होती है? इसलिए होती है कि हमारे ऐसे नौजवान बच्चे जहाँ कहीं भी जाएँ, वहीं तहलका मचाते हुए चले जाएँगे। जिधर इनको भेज दें, उधर ही ये चलते हुए चले जाएँगे। बच्चियाँ हैं, अरे एक-एक बच्ची ने कितना-कितना काम किया है। बौद्ध धर्म में संघमित्रा नाम की लड़की और महेंद्र नाम का लड़का था। अशोक ने तो सारा-का-सारा परिवार ही अपने गुरु के चरणों पर समर्पित कर दिया था। किसी जमाने में यह प्रचलन था कि हर घर में से एक व्यक्ति सेना में जाता था। जिनके यहाँ चार लड़के थे, उनसे कहा जाता था कि एक को निकालिए, आपमें से एक तो समाजसेवी बने। नहीं साहब। हम तो घर में घुसे रहेंगे, बीबी और बच्चे के लिए कमाते रहेंगे। और भी कोई फर्ज-कर्तव्य बनता है क्या? और कुछ नहीं बनता। समाज भी कुछ नहीं; राष्ट्र! बिलकुल नहीं। जिसे गुरु कहते आए हो, उसके काम आओगे? नहीं साहब। हमने तो सब भार सौंप दिया है गुरुदेव आपके चरणों में। अरे बेटे, जिस दिन सब भार सौंप देगा न, उस दिन देखना कि तेरा क्या परिवर्तन होगा, फिर तो विवेकानन्द हो जाएगा। अभी तो कुछ भी नहीं सौंपा है। आपने सौंपा होगा तो वह, जिन्हें हम केवल कागज के टुकड़े कहते हैं। ठीक है उनकी भी जरूरत है, ऐसा नहीं है कि उनकी जरूरत नहीं है। ये बिल्डिंग बन रही हैं, किससे बन रही हैं? उन्हीं से बन रही है। लेकिन बेटे, वह सब कुछ नहीं होता। सब कुछ क्या होता है? वह होती है आपकी निष्ठा, आपकी श्रद्धा, आपका परिपक्वपन।
गुरुजी के पास पैसा था क्या? नहीं बेटे, पैसा नहीं था। तो क्या था? उनका आत्मबल था, उनकी श्रद्धा थी। उन्होंने कहा—"जिधर आप चलाएँगे, हम उधर ही चलते जाएँगे।" उनके गुरुदेव ने कहा कि हजार कुण्डीय यज्ञ होगा। बिलकुल होगा गुरुजी। इसमें दो राय नहीं है। हालाँकि जैसे सब पत्नी विरोध करती हैं न, उसमें मैं भी एक विरोधी थी। यह मत समझना कि मैंने भी यही कहा था। हालाँकि मैंने कदम से कदम मिलाना उन्हीं से सीखा है। उनका एक कदम चला तो मैंने दो कदम रखने की कोशिश की होगी। कभी मैंने उनको पीछे हटाने की कोशिश नहीं की, लेकिन तब मैंने थोड़ा-सा विचार किया और कहा कि घर में एक दाना नहीं है, एक पैसा नहीं है। जेवर भी पहले गिरवी रखे थे, सो छुड़ाए और फिर दान में दे दिए। अब काहे से यज्ञ होगा आप बताइए? उन्होंने कहा कि हम तो विशुद्ध रूप से कठपुतली हैं। जिसके हाथ में हमने डोरी साैंप रखी है, उस पर हमारा पूरा विश्वास है, पूरी श्रद्धा है। हमारा कुछ नहीं हो सकता और बिलकुल निर्विघ्न यज्ञ होगा। हालाँकि बच्चे तो छोटे थे और दोनों बच्चों के अपहरण की बात कही गई थी और हमारी हत्या की बात भी कही गई थी, हम सभी पूरे हिटलिस्ट में थे।
वह विकट समय और हमारी परीक्षा
हमने कहा, हाँ देखा जाएगा। मारने वाले से बचाने वाले के हजार हाथ होते हैं। बेटे, वही हुआ भी। खैर बच्चे तो हमने किसी को दे दिए थे कि भई जो जरूरतमंद हो वह हमारे बच्चों को ले जाए और हम तो आज राजा हरिश्चंद्र और शैव्या के तरीके से बिकने के लिए चौराहे पर खड़े हैं। कोई खरीददार है क्या? बेटे ऐसी झोली भर गई कि क्या कहें। आपने तो वह समय नहीं देखा था। शायद कोई एकाध लड़का इनमें बैठा ही होगा, जिसने वह समय देखा था। बेटे, पाँच दिन गुरुजी और मैं, दोनों स्टेज पर हाथ जोड़कर खड़े रहते थे कि भगवान किसी तरह से लाज बचाना, हमारी डोरी आपके हाथ है। हमारा तन-मन और धन सब आपके चरणों पर समर्पित है। कुछ भी नहीं है हमारे पास, खाली ब्राह्मण खाली हाथ है। सारा नगर यही कहता था कि ऐसा यज्ञ या तो महाभारत काल में हुआ होगा या अब हुआ है। बेटा, वैसे बिलकुल भी नहीं होता, पर परोक्ष रूप से शक्ति मिलती हुई चली गई और परोक्ष रूप से अनुदान और वरदान मिलते हुए चले गए, जिससे कोई कमी नहीं पड़ी। मैं कहती हूँ सैकड़ों मन अनाज बचा, घी बचा और सामग्री बची, जो सालों के लिए हो गई।
यह कैसे संभव हो गया? बेटे मैं आपको श्रद्धा की बात बता रही है कि जिसके प्रति हमारी श्रद्धा है, जिससे हम जुड़े हुए हैं, वह हमारी हर पूर्ति करने के लिए तैयार है। यदि इतना मिलता है तो माताजी यह बताइए कि हम जितने व्यापारी और नौकरीपेशे वाले बैठे हैं, हमारे कितने-कितने रुपए बढ़ेंगे। बेटे, अगर मैं यह कह दूँ कि तेरे और भी घट जाएँगे तो? अरे माताजी तब तो हम आज किसी कीमत पर नहीं आते। हम तो आशीर्वाद लेने आए हैं। बेटे, आप सबके लिए भरपूर आशीर्वाद है, पर हम तो यह कहते हैं कि स्वार्थ में और परमार्थ में बहुत अंतर होता है। जमीन-आसमान का अंतर होता है। स्वार्थ में खुद के लिए माँगा जाता है और परमार्थ में लोकमंगल के लिए माँगा जाता है। यदि विवेकानन्द ने अपने लिए माँगा होता तो उनको क्या मिलता? नौकरी मिलती या कोई बड़े व्यापारी बन जाते, फिर उससे क्या बनता। आज हम विवेकानन्द का नाम लेते-लेते थकते नहीं है, क्योंकि वे समर्पित हो गए थे। जिससे वह भी धन्य हो गए और रामकृष्ण परमहंस भी धन्य हो गए। बेटे, भगवान तब निकट आता हुआ चला जाता है, जब साधक पूर्ण समर्पण के लिए तैयार हो जाता है। तब उसके ऊपर कृपा बरसती है, उससे पहले नहीं बरसती।
शबरी को सारी जिंदगी लग गई थी झाड़ू लगाते-लगाते। बेचारी को कुछ नहीं आता था, लेकिन उसकी श्रद्धा थी कि मुझे भगवान का काम करना चाहिए। भगवान का नाम? हाँ, भगवान का नाम भी लेना चाहिए, पर भगवान का नाम चौबीस घंटे नहीं लिया जाता। एक घंटे लो, दो घंटे लो, तीन घंटे लो, पाँच घंटे लो, छह घंटे लो, बस बात खत्म। फिर बाकी का जो समय बचता है, उसका क्या उपयोग करिएगा? मैं तो आपसे एक निवेदन करती हूँ कि चाहे आप पाँच माला करना, तीन माला करना, तीन न बने तो एक ही करना। एक से ही आपको वह शक्ति मिल जाएगी, लेकिन करना बड़ी श्रद्धा से और नियमित रूप से। समय पर उठना और समय पर सोना। समय की जो कीमत समझते हैं, वे समय को अपने शिकंजे में बाँध लेते हैं। समय नहीं बाँध पाता, लेकिन वे बाँध लेते हैं और समय का विभाजन करते हुए चले जाते हैं। उसी से उनकी उन्नति तरक्की होती हुई चली जाती है। उसी में समाज की सेवा भी कर लेते हैं और अपनी बौद्धिक भूख भी मिटाते रहते हैं, जिसका नाम स्वाध्याय है। स्वाध्याय करते-करते अनेक भाषाओं के ज्ञाता भी हो जाते हैं, जैसा कि मैं विनोबा भावे के बारे में कई बार कह चुकी है। उन्होंने कितनी ही भाषाएँ पढ़ी थीं।
मनोयोग और श्रद्धा का समन्वय हो
फिर क्या कारण है कि हम नहीं पढ़ सकते, हम कुछ नहीं कर सकते? इसका एक ही कारण समझ में आता है कि हमारे अंदर जो आलस्य और प्रमाद छाया हुआ है अथवा जो अज्ञानता छाई हुई है, वह हमें दो कदम आगे नहीं बढ़ने देती। इसी के लिए हम गुरु का संबल लेते हैं। गुरु जीवात्मा को परमात्मा से मिलाने का काम करता है। वह भगवान से हमको मिला देता है। गुरु शक्ति के रूप में अनुदान और वरदान देता है। जिस तरीके से लव और कुश को वाल्मीकि ने अपनी सारी शक्ति दे दी थी और यह कह दिया था कि बेटे, तुम अपने पिता से भी ज्यादा पराक्रमी बनोगे। बाप से भी ज्यादा पराक्रमी बच्चे हो जाएँगे? क्यों नहीं हो जाएँगे। गुरु का संरक्षण, गुरु की शक्ति, उनकी प्रेरणा जो साथ में है। गुरु हमें साहस बँधाता है।
गुरु को क्या समझते हैं आप? गुरु होते हैं—विश्वामित्र। विश्वामित्र के हवाले जब राम-लक्ष्मण हो गए तो उन्होंने ये कहा था कि गुरुवर आपके यज्ञ की पहरेदारी करना हमारा
काम है। हम देखेंगे कि कौन राक्षस आता है, कौन-सा विघ्न आता है? आप यज्ञ करिए अर्थात जो आपकी तपश्चर्या है, आप तप करिए और जो रचनात्मक कार्य हम कर सकते हैं, सो हम करेंगे। देख लेंगे कौन आता है। उनने कहा—बेटे, तुममें इतना साहस है? उन्होंने कहा कि श्रद्धा-भक्ति ये दो चीजें हमारी हैं और शक्ति आपकी है, प्रेरणा आपकी है, मार्गदर्शन आपका है। तब बला और अतिबला दोनों विधाएँ उन्होंने राम और लक्ष्मण को सिखा दीं। वसिष्ठ जी ने योग वासिष्ठ सिखाया था। शिष्य पर इतनी गुरु की कृपा बरसती रहती है, लेकिन शिष्य भी इस लायक हो तब न।
पात्रता की अनिवार्यता
उन्हीं दो को क्यों मिली, औरों को क्यों नहीं मिली? औरों को इसलिए नहीं मिली कि कई बार भगवान भी कुछ देकर पछताता है। रावण को देकर भगवान शंकर हैरान हो गए थे और उन्होंने कहा कि अब हमें वरदान नहीं देना है, बहुत दे चुके। हमने देख लिया। किन-किनको देकर देख लिया? भस्मासुर को और रावण को। रावण ने इतनी तपश्चर्या की थी कि उसने काल को भी पाटी से बाँध लिया था। जिसके इशारे पर काल भी बँध जाए, जिसके इशारे के बगैर पत्ता भी नहीं हिल सकता, इतनी जबरदस्त शक्ति। फिर उस शक्ति का उपयोग क्या किया गया? उपयोग नहीं दुरुपयोग किया। इसका क्या मतलब हुआ? मतलब एक ही हुआ कि वरदान का उपयोग खुदगर्जी के लिए किया गया और अपना सर्वनाश कर लिया। किसने? रावण ने और भस्मासुर दोनों ने।
देखो, हमारे ये पीले-पीले परिजन बैठे तो हैं, पर जब इनसे यह कहेंगे कि लोकमंगल के लिए जरा समय निकालना, तो पीछे हट जाएँगे। कोई कहेगा कि हमारी पत्नी ठीक नहीं है, तो कोई कहेगा कि हमारा बच्चा बेलाइन है। कोई कहेगा कि हम क्या करें, हमें भी कुछ गठिया की सी शिकायत हो रही है। बताइए अब हम कैसे काम कर सकते हैं? आपके काम में हम कैसे सहयोगी बन सकते हैं? हम नहीं बन सकते। और क्या-क्या चाहिए? पहाड़ से भी ऊँचा चाहिए। कुछ देने को भी है बेटा? नहीं माताजी। एक कौड़ी भी नहीं है। और लेने को? अहा लेने को तो सुन लो आप, सुनते-सुनते थक जाएँगे, हम कहते-कहते नहीं थकेंगे। मनोकामनाओं से लेकर के दुःख-पीड़ा तक। अच्छा बेटा, हम वायदा करते हैं कि हम तुम्हारी पूरी-पूरी मदद करेंगे, पर तू भी कुछ करेगा? माताजी। मैं कुछ नहीं करूँगा।
(क्रमशः अगले अंक में समापन)
वरदान चाहिए किस उद्देश्य के लिए
एक बार शंकर और पार्वती जी भ्रमण कर रहे थे। जंगल में एक वृद्ध दंपति अपने बच्चे के साथ तप कर रहे थे। पार्वती जी ने कहा कि देखिए भगवन् ! ये लोग बैठे हैं। कैसे-कैसे बच्चे हैं, आप इनको कुछ भी नहीं देंगे? शंकर जी ने कहा कि एक बार तो हम आपके कहने में आ गए, पर अब हम इन्हें वरदान नहीं देंगे। पार्वती जी ने कहा कि देखिए, इन्होंने कितने दिन तपश्चर्या की है, कुछ तो दे दीजिए। उन्होंने कहा—दे देते हैं। शंकर भगवान ने उनसे कहा कि भई! आप लोग क्या माँगते हैं। बुढ़िया बोली—मैं तो एक चीज माँगती हूँ। क्या माँगती है? मरने का तो वक्त आ गया, नब्बे साल की उम्र होने को आई, अब क्या चाहिए? उसने कहा कि मुझे तो टिपटॉप यौवन चाहिए, जिससे मैं सोलह-अठारह साल की लड़की लगूँ। अच्छा ठीक है ले जा। जब वह षोडशी हो गई तो उसे देखकर वह जो बुड्ढा ब्राह्मण था, सो मन-ही-मन कुड़कुड़ाया। आप में से कोई होते तो शायद वहीं उसकी खबर ले ली होती, पर उसने लिहाज किया कि भगवान के सामने बेइज्जती नहीं करनी चाहिए। पत्नी है तो क्या हुआ, सबके सामने कुछ नहीं कहना चाहिए, इतनी उसमें अक्ल थी। वे पहचान गए, क्योंकि भगवान थे। उन्होंने कहा—ऐसे क्या कर रहा है, तू भी माँग ले। उसने कहा—मैं माँगता हूँ कि आप इसको सुअरिया बना दें। सुअरिया बना दिया, अब बच्चा रोने लगा।
बालक ने कहा—अरे, मेरी मम्मी तो सुअरिया हो गई, अब मुझे खाना कौन देगा? भगवान बोले—बेटा तुझे क्या चाहिए? उसने कहा—आप बस यही वरदान दीजिए कि जैसी मेरी माँ पहले थी, वैसी ही हो जाए। अच्छा चल! और जल छिड़क दिया, माँ पहले जैसी हो गई। क्या पल्ले पड़ा, जरा बताना? कुछ भी नहीं पड़ा। इतनी तपश्चर्या भी की, भगवान का तप भी खरच कराया और वरदान भी लिया, सो भी क्या लिया, जो किसी मतलब का नहीं, किसी काम में नहीं आया। खाली हाथ के खाली हाथ रह गए। ऐसा क्यों किया गया? इसलिए किया कि उनमें अक्ल नहीं थी और दूरदर्शिता नहीं थी कि हमें किस उद्देश्य के लिए वरदान चाहिए। आखिर हम इसका करेंगे क्या? किसी लोक-मंगल के लिए, अच्छे कार्य के लिए वरदान माँगा गया होता तो अवश्य फलता; इसमें दो राय नहीं हैं।
हमें प्रवेश करने दीजिए
बेटे! आपने गुरुजी की शक्ति को अभी पहचाना ही नहीं है। शरीर को छुआ है, शरीर ही आपने देखा है, बुरा मत मानिएगा। चूँकि आप हमसे जुड़े हुए हैं, आप में श्रद्धा तो है, मैं ऐसा नहीं कहती कि श्रद्धा नहीं है, लेकिन आपने अपने चर्मचक्षुओं को ही खोला है। अभी हृदय के कपाट को और खोलो, उसमें गुरुजी को आने दीजिए, घर में प्रवेश करने दीजिए। बेटे! हम दोनों को जाने दीजिए अपने घर। नहीं साहब! हम तो आपके पाँव छुएँगे, पाँव धोएँगे माताजी! पैर में क्या है? जो तेरे पैर में है, सो हमारे पैर में है। कोई बड़ी चीज नहीं है, जो कुछ है, सो तेरी श्रद्धा में है। यदि श्रद्धा है तो सिद्धांत भी लेकर चलो। आप पूरी तरह से जुड़िए। हमको अपने घर में प्रवेश करने दीजिए, आप तो किवाड़ बंद करके रखते हैं। मनोकामनाएँ तो पूरी करा ले जाएँगे, पर गुरुजी-माताजी के लिए घर के किवाड़ बंद हैं। नहीं माताजी! किवाड़ बंद कहाँ हैं, आप दोनों तो हमारी पूजा की चौकी पर बैठे हैं। अच्छा बेटा, बहुत धन्यवाद! पूजा की चौकी पर बैठे हैं, ये क्या कम है, नहीं तो जिस दिन आपकी कोई मनोकामना पूरी नहीं हुई, उसी दिन गुरुजी-माताजी के चित्रों को उठाकर फेंक देते। क्यों, इससे क्या फायदा है? कई लड़के ऐसा करते हैं कि जब उनका काम नहीं बनता तो भरपूर गाली देते हैं। जब काम बन जाता है तो फिर बेचारे लाइन पर आ जाते हैं कि इन्हीं की कृपा से हमारा काम बन गया। जब तक आपने अपना मन नहीं खोला, तब तक हम आपके मन में कैसे प्रवेश करें, आपकी बुद्धि में, आपके सिद्धांतों में कैसे प्रवेश करें? हमें प्रवेश करने दीजिए।
माताजी! बताइए, आप और गुरुजी कब आ रहे हैं? हाँ बेटे, आपको तारीख और तिथि बता देंगे, थाली लगी हुई रखना। अच्छा तो क्या-क्या पकेगा? बेटा, पकेगा सो पकेगा, रहने दे, तू जाने और तेरा काम जाने। हम तो नमक से भी रोटी खाने वालों में से हैं। आप तो कहती हैं कि हम एक टाइम खाते हैं। हाँ, एक टाइम खाते तो हैं कुछ, तो खिला—निकाल। कितना निकालें? आठ रुपये के हिसाब से मत निकाले तो ढाई रुपये के हिसाब से तो निकाल। हम दो जने जाएँगे तो पाँच रुपये का खिलाएगा कि नहीं। इस हिसाब से एक साल के साठ रुपये हुए, इतना भी नहीं तो हर महीने की जो अखण्ड ज्योति जाती है, उसके लिए पच्चीस रुपये साल के हिसाब से निकाल। उसे सँभालकर रखेगा तो वह तेरे लिए ही नहीं, बल्कि तेरी पीढ़ी-दर-पीढ़ी के काम आएगी। तू यह भी नहीं निकालेगा तो मत निकाल, हम तुझे फिर भी सब कुछ देते हुए चले जाएँगे। अखण्ड ज्योति में वह विचारणा है कि हमारे यहाँ दिल्ली से एक लड़का आता था और यह कहता कि माताजी, कभी कोई समस्या आती है तो या तो मैं गुरुजी के पत्रों को पढ़ता हूँ या अखण्ड ज्योति पढ़ता हूँ, मेरी सब समस्या भागती हुई चली जाती है। जो विद्यार्थी होते हैं, वे कहते हैं कि हम अखण्ड ज्योति पढ़ करके गए थे, वही प्रश्न आया, सो हमने किया। इसमें ऐसा ही भरा है? हाँ बेटे! ऐसा ही भरा है। हम आपसे कोई अपेक्षा करने नहीं आए हैं।
चाहिए आपकी श्रद्धा, आपका समय
बेटा! आज गुरुपर्व है। आत्मचिंतन और आत्मशोधन का पर्व है। आज हम आपसे एक ही चीज माँगने आए हैं और वह है आपकी श्रद्धा, आपका विश्वास और आपका समय। आप समय दे दीजिए और हमको कुछ भी मत दीजिए। आप जिस लायक हैं, कुछ कदम तो उठाइए। हम तो आपको केवल त्याग का पाठ पढ़ाने आए हैं। थोड़ा-सा भी आप कुछ निकाल कर चलेंगे तो आपके मन में यह संतोष होगा कि हम भी कुछ कर रहे हैं, हम भी कुछ दे रहे हैं। नहीं, हम तो सब खाते जाएँगे। तो फिर आप कौन हैं? राक्षस हैं, जो खाते ही जाएँगे। नहीं साहब! देंगे नहीं, खाएँगे ही खाएँगे। बेटे! खाएँगे ही नहीं, खिलाना भी है। किसको खिलाना है? सारे समाज को खिलाना है और सारे विश्व को खिलाना है। आपकी भावना चाहे छोटी-सी क्यों न हो।
आप गिलहरी के समान क्यों न हों। गिलहरी की भावनाएँ थीं, आस्था थी कि भगवान राम के काम में आई और भगवान राम ने उसको अपने हाथ पर रख करके ऐसा पुचकारा कि कहते हैं कि गिलहरी के शरीर पर जो काला रंग है, वह भगवान राम की उँगलियों का है। क्योंकि वे साँवले थे, सो धारियाँ पड़ गईं। बेटे! पड़ गईं कि नहीं पड़ गईं, यह मुझे नहीं मालूम, लेकिन यह सिद्धांत बिलकुल सही है। इसमें दो राय नहीं हैं कि यह भगवान का जो खेत है, इसमें जितना बोया जाएगा, उससे हजार गुना प्राप्त होता रहेगा। मैंने उस रोज कई बच्चों से कहा था, जब टोलियों की गोष्ठी ले रही थी कि देखिए, आपने मक्के का दाना देखा है न? हाँ। अच्छा, उसको जब हम मिट्टी में बो देते हैं तो कितने रूप में पैदा होता है? वह सैकड़ों दानों के रूप में पैदा हो जाता है। मक्के और बाजरे की बालों के रूप में, भुट्टे के रूप में, बस यही सिद्धांत है। अध्यात्म का भी यही सिद्धांत है। आप बोइए और काटिए।
बोइए और काटिए
बेटे! किसान तो एक-दो बार बोता है और एक-दो बार काटता है, पर जो साधक हैं, जो शिष्य हैं, वे तो रोज बोते हैं और रोज काटते हैं। जो जितना बोता है, उसका हजार गुना उसको मिलता हुआ चला जाता है, यदि उसका विश्वास उसके साथ है और उसकी श्रद्धा उसके साथ है, तब। जब श्रद्धा नहीं है तो एक कविता का अंश है, मुझे कविता तो याद नहीं है। वह रवींद्रनाथ टैगोर की कविता है। उसमें एक अतिथि था—एक भिखारी। उसने कहा कि हमें कुछ दे दीजिए। जो सज्जन अन्न ले जा रहे थे, उनकी झोली भरी हुई थी। याचक बार-बार कहता जा रहा था कि जरा एक दाना हमको भी दीजिए। सारा आप ही खा जाएँगे क्या? वह बोला—नहीं, यह तो मेरे लिए ही है। नहीं साहब! हमारे लिए भी है। उन्होंने झट अपनी झोली में से एक दाना उसके हाथ पर रख दिया। घर लौट करके जब झोली को उँड़ेला तो उसमें एक दाना सोने का पाया। उन्होंने कहा, हाय रे! मैंने यह कैसी भूल की। वह पछताता रह गया कि क्यों न मैंने अपनी सारी झोली को उँड़ेल दिया, ताकि मेरे सारे-के-सारे दाने सोने के हो जाते।
हम समझ नहीं पाते कि कितना अनुदान और वरदान मिलता रहता है। हमको जो शक्ति मिलती रहती है, उससे हम अनभिज्ञ रहते हैं। अनभिज्ञ न रहे होते तो वह साहस, वह शक्ति, वह पराक्रम, वह त्याग और बलिदान हमारी भावनाओं में होना चाहिए था, जो कि साधक की मनोभूमि में होता है। साधक अलग चीज है और माला जपना अलग चीज है। माला तो वे भी जपते हैं, जो गद्दी पर बैठे हैं, देखते भी जा रहे हैं और माला भी जप रहे हैं। अनाज की बोरी भी आ रही है तो कहा कि उस स्टोर में रख आ। यह माल वहाँ जाएगा और यह वहाँ जाएगा। क्यों, भगवान का भजन कर रहे हो या माल का? हर समय जो विचारों में समाया रहता है, वह तमाम दुनिया का कूड़ा-कबाड़ा जप करते समय ही याद आता है। तो खाली कहाँ हुए, खाली करो न अपने को, फिर देखिए, आपके अंदर भगवान की शक्ति प्रवाहित होती है कि नहीं। आपको ऐसी प्रेरणा मिलेगी कि आप ध्रुव तारे के तरीके से चमक जाएँगे। वह गुरु की, नारद जी की ही प्रेरणा थी। नारद जी ने पार्वती जी से यह कहा था कि पार्वती, अपने कदम मत डगमगाना। आप शंकर जी की होने वाली पत्नी हैं, इसलिए तप करें। उन्होंने तप किया। कहते हैं कि उनके पास सप्तऋषि गए, देवता गए, तब उन्होंने सबसे एक ही बात कही थी—
जन्म कोटि लगि रगर हमारी।
बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥
किसी एक पर विश्वास करें
बेटे! उनका एक ही इष्ट था, किंतु आपकी—जो पूजा की चौकी है, उस पर तो भानुमती का पिटारा-ऐसा कुनबा बैठा है कि शंकर जी से लेकर हनुमान तक, गणेश जी से लेकर संतोषी माता, चंडी माता, न जाने कौन-कौन इकट्ठे हैं। उसी में गुरुजी-माताजी भी बैठे हैं। ऐसी स्थिति में किसी को कुछ नहीं मिल सकता। क्यों नहीं मिलेगा? क्योंकि आपने किसी एक का आँचल पकड़ा ही नहीं है। बेटे! आपको विश्वास ही नहीं है, आस्था ही नहीं है। डाल-डाल और पात-पात पर घूमने वालों को कहाँ से मिलेगा! समर्पण से मिलता है। पत्नी को मिलता है, वेश्या को नहीं मिलता। क्यों नहीं मिलता? क्योंकि बेटे, पत्नी में भावनाएँ हैं, त्याग है। पत्नी जब शादी होकर के आती है तो अपना सारा-का-सारा पिछला जीवन भूल जाती है और आगे का पाठ पढ़ती है। जिसमें उसके पति की प्रसन्नता, उसके सिद्धांत, उसकी भावनाएँ निहित हैं, उसी में वह घुलती-मिलती हुई चली जाती है। इसे कहते हैं समर्पण। वेश्या किसे कहते हैं? उसे कहते हैं कि जब शरीर में ताकत न हो और पैसे में दम न हो तो दो लात देगी और भगा देगी।
बेटे! यह कौन-सी साधना है, जो मैं आपसे कह रही हूँ। आपको बुरा तो लग रहा होगा, माफ करना। मैं तो आपकी श्रद्धा को मजबूत करने के लिए कह रही हूँ। मेरा उद्देश्य आपका तिरस्कार करने का नहीं है। आप तो हृदय से लगाने लायक हैं। इतनी-इतनी दूर से बड़ी श्रद्धा से आए हैं। आप में और भी प्रखरता आ जाए, इसके लिए कह रही हूँ। उपासना का मतलब यदि यही रहा कि लाओ भगवान देकर जाओ, लेकर कुछ भी मत जाओ। इससे भी माँगना, उससे भी माँगना, यह भक्ति नहीं है। भक्ति तो एक रास्ते पर चलने की होती है। उसे जो भक्त अपना लेता है तो कठिन-से-कठिन रास्ते को भी पार करता हुआ चला जाता है। मैं शीरी-फरहाद का बार-बार उदाहरण देती हूँ। उसके पिता ने घोषित किया था कि जो पहाड़ खोद करके नहर लाएगा उसके साथ हम अपनी कन्या की शादी करेंगे। फरहाद पहाड़ खोद करके नहर लाया था। क्यों साहब! अकेला नहर खोद लाया? हाँ बेटे, पहले उसने अकेले खोदा और फिर उसको जन-सहयोग भी मिला।
घर-घर अलख जगाने आए गुरुदेव
भगवान राम को भी जन-सहयोग मिला था। भगवान राम इस पृथ्वी पर आए और रामराज्य की उन्होंने स्थापना की। भगवान बुद्ध आए और उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की। ठीक उसी तरीके से बेटे, गुरुजी आए, "घर-घर अलख जगाएँगे, हम बदलेंगे जमाना" घर-घर अलख जगाने के लिए आए और इतना बड़ा समूह तैयार किया, आप कितने बैठे हैं। मैंने जब गिनती सुनी तो हैरान हो गई। किसी को स्वीकृति नहीं दी, क्या चक्कर है? ये दस हजार कहाँ से आ गए, किसकी आवाज पर निकल पड़े? बेटे, आप आवाज सुन करके ही आए हैं। शायद हमको कोई पुकारता-बुलाता है और यह कहता है कि यह सही समय आया है, अब इक्कीसवीं सदी आने वाली है और बीसवीं सदी जाने वाली है। उसके लिए हमारे प्रत्येक परिजन को कमर कसकर आगे की पंक्ति में आना पड़ेगा। आगे की पंक्ति में ही नहीं आएँगे, बल्कि जितना भी त्याग कर सकते हैं, वह भरसक करेंगे।
बेटे! अब वह समय आ गया है कि हमें आगे की पंक्ति में आना है और समाज का, राष्ट्र का काम करना है, जो कि हमसे आशा लगाए बैठे हैं। कौन-कौन आशा लगाए बैठे हैं? बेटे! राजनीति से लेकर धर्मनीति तक सब हमारे मिशन की तरफ देख रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यहाँ से हमको प्राप्त हो सकता है। कल-परसों की बात है—मैं जरा-सा उल्लेख कर दूँ—एक अखबार में वैसे ही छाप दिया कि कितने-कितने प्रतिनिधि कहाँ-कहाँ से आते हैं। कहीं से मुख्यमंत्री, कहीं से अन्य कोई। साहब! यह क्या बात है, ऐसे क्यों भागते चले आते हैं? बेटे! उनको वास्तव में कुछ मिलता है, इसमें दो राय नहीं हैं। हाँ, जिसका भाग्य बिलकुल ही ठप्प हो जाए या उसके पुरुषार्थ में कमी रहे तो हमें नहीं मालूम। अगर नहीं मिलता तो ये क्यों चक्कर काट रहे हैं? देखना, अभी तो बड़े-से-बड़े चक्कर काटेंगे, क्योंकि उनको भरोसा है, उम्मीद है कि हमें मिलेगा। भगवान करे मिल जाए। जो आलसी और प्रमादी होगा, उसको नहीं मिलेगा। जिस पर हाथ रख दें, उसको शायद मिल भी जाए।
सच्चे उत्तराधिकारी बनें
इनमें हमारी कई ऐसी लड़कियाँ बैठी हैं, जो कितना गजब का काम कर रही हैं! एक लड़की तो ऐसी है कि चाहे जहाँ, चाहे जिस मिनिस्टर को खटखटा आती है। जरा-सी साधारण लड़की है, पर है बड़ी जबरदस्त। चूँकि जिसका उसने दामन पकड़ा है, अपने उस गुरु पर उसे विश्वास है कि शक्ति हमारे पीछे-पीछे आ रही है। जब शक्ति मिल रही है तो हम डरें क्यों? हमारी तो जबान ही हिलेगी, हम संपर्क करने उसके दरवाजे पर ही तो जाएँगे। हम अपनी बात कह सकते हैं, प्रतिपादन कर सकते हैं। हम पढ़े-लिखे नहीं हैं? कोई जरूरी नहीं है। मैंने कहा न कि शबरी और मीरा कहाँ तक पढ़ी थीं? कबीर कहाँ तक पढ़े थे? रैदास कहाँ तक पढ़े थे? कहीं तक नहीं पढ़े थे, फिर भी उन्होंने भगवान का काम किया कि नहीं? वे भगवान से जुड़े थे, इसीलिए सराहे गए और आगे भी उनको सराहा जाएगा।
गाँधी जी के पदचिह्नों पर जो चले, वे विनोबा भावे हो गए, उनके उत्तराधिकारी हो गए। उत्तराधिकारी कौन होता है? वही होता है, जो उद्देश्यों के लिए समर्पित होता है। व्यक्ति के लिए हम नहीं कह रहे हैं। बेटे! यह मत कहना कि गुरुजी और माताजी यह कह रहे हैं कि हमारे लिए समर्पित हो जाइए। बेटे! हमारे लिए नहीं, हमारे सिद्धांतों के लिए, हमारे मिशन के लिए समर्पित हो जाइए, जिसको आप अपना समझते हैं। जिस गुरु को आप अपना पिता समझते हैं, हमें माँ समझते हैं। यह मिशन भी तो उन्हीं का है। आप लोग उसके अंग हैं, इस तथ्य को आप समझिए और इसके लिए समर्पित हो जाइए। हमारा तो मालूम नहीं कब डेरा उठ जाएगा और कब चले जाएँगे, लेकिन इस शान्तिकुञ्ज के कण-कण में, जर्रे-जर्रे में हम रहेंगे और आपको वही प्रेरणा, वही शक्ति, वही ऊर्जा हमेशा मिलती रहेगी, जो आपको अब मिल रही है। पीछे भी आपको मिलेगी।
माताजी ! फिर हमारे दु:ख-दरदों का क्या होगा? अभी आप नहीं सुन रही हैं तो फिर पीछे कौन सुनेगा? बेटे! अब भी हम ही सुनते हैं और पीछे भी हम ही सुनेंगे। जो कुछ भी आपके लिए हम कर सकते हैं, वह पूरा करने के लिए हम तत्पर रहेंगे। यह हमने पहले ही कह दिया है कि बेटे, गुरुजी और हम वो हैं, जो हमेशा तत्पर रहते हैं कि जो हमारे परिजन हैं, जो हमसे जुड़े हुए हैं, हे भगवान! इनको कष्ट में से उबारना और जो कुछ भी हम इनके लिए कर सकते हैं, पूरा-पूरा सहयोग करेंगे। बेटे! आप विश्वास रखना कि अंतिम क्षणों तक हम आपकी सेवा करेंगे और जब हमारा यह शरीर नहीं रहेगा, तब भी हमारी रूह, हमारी जीवात्मा सदा आपकी रक्षा करती रहेगी। इसमें दो राय नहीं है।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च
अब आपकी बारी है और आपको भी कदम उठाना है, आपको भी संकल्प लेना है। आपको भी वह महायज्ञ करना है, जिसको गुरुजी ने कहा है कि नारियों को आगे आने दीजिए। सब कुछ इन्हीं से कराइए। इस मातृशक्ति को जागने दीजिए, फिर देखना कि इस मातृशक्ति से कृष्ण, बुद्ध, गाँधी और कौन-कौन पैदा होते हैं। न जाने कौन-कौन पैदा होते हैं। आप एक महायज्ञ कीजिए, जिसमें एक नेवले ने कहा था कि महाभारतकाल में एक यज्ञ किया गया था, जिसमें मेरा आधा शरीर सोने का हो गया था। आधा शरीर अभी भी ऐसा है, अत: क्यों न जहाँ इस यज्ञ का पानी है, उसमें लोट लगा लूँ। उस पानी में जहाँ कि ऋषियों के और सबके पाँव धोए जा रहे हैं, जिससे मेरा यह आधा शरीर भी सोने का हो जाए। वह वहाँ गया, लोट लगाई, पर उसे संतोष नहीं हुआ। भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा कि क्या बात है? उसने कहा कि यह यज्ञ उतना शानदार नहीं है। उन्होंने कहा कि कैसा शानदार? नेवले ने बताया कि एक यज्ञ ऐसा भी था, जिसमें लोट लगाने से मेरा यह आधा शरीर सोने का हो गया था।
भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा कि वह यज्ञ कैसा था? नेवले ने कहा कि एक पति-पत्नी थे और उनके दो बच्चे थे। कितने ही दिनों से वे भूखे थे। कहीं से थोड़ा अन्न मिला, उन्होंने चार रोटियाँ बनाई। जब वे चारों लेकर बैठे और खाने को उद्यत हुए तो पति ने पत्नी का हाथ रोक दिया और कहा कि अभी नहीं। जो हमसे भी ज्यादा भूखा है, हमसे भी ज्यादा जरूरतमंद है, उसकी बारी पहले है। भगवान तो परीक्षा लेते ही हैं, वे एक चांडाल का वेश धरकर परीक्षा लेने आए। उन्होंने कहा—ठहरिए, अभी भोजन मत कीजिए। पहले हमारा नंबर है। चूँकि आपको एक सप्ताह से भोजन नहीं मिला है, पर हमको तो दो-तीन सप्ताह होगा इसलिए हमारा अधिकार पहला है। उन्होंने कहा कि आइए अतिथि देव! और बारी-बारी से अपनी-अपनी रोटी उसे दे दी। फिर बच्चों की तरफ देखा कि वे भूख से छटपटा रहे हैं उन्होंने कहा, नहीं बेटे! ये तुमसे भी ज्यादा भूखे हैं। इस भूखे का पेट भरने दीजिए। बच्चों ने भी अपनी रोटी दे दी। चारों रोटी खाकर चांडाल ने पेट पर हाथ फिराकर और पानी पीकर जो कुल्ला किया, उस पानी पर लोट लगाने से मेरा आधा शरीर सोने का हो गया।
इक्कीसवीं सदी का महायज्ञ
बेटे! ऐसा ही महायज्ञ आपको भी करना है। यह महायज्ञ की प्रवृत्ति है। महायज्ञ का मतलब केवल घी और सामग्री होम करने का नहीं है। गुरुजी ने तो उसमें ब्रेक लगा दिया है और कहा है कि दीपयज्ञ करो। लोग कहते हैं कि दीपयज्ञ से क्या फायदा? उससे क्या मिलेगा? क्योंकि हमारी मान्यता तो वैसी ही बनी है। अरे बेटा! तू उस मान्यता को छोड़, भावना और श्रद्धा को क्यों नहीं जोड़ता, उसे जोड़ और जनमानस को उसे बता। बेटे! उस महायज्ञ के लिए आपको तैयार रहना चाहिए, जिस महायज्ञ का नाम हमने 'इक्कीसवीं सदी' रखा है। वह प्रखरता आपके अंदर आनी चाहिए। हम आपको प्रखर बनाना चाहते हैं और प्रखर बनाकर आपको आगे की पंक्ति में लाना चाहते हैं। उसके लिए आप तैयार हो जाइए, मजबूत हो जाइए।
बस, इतना ही मुझे आज के दिन कहना था कि यह गुरु पर्व है। यह आत्मसमीक्षा का पर्व है और यह संकल्प का पर्व है। आप मन-ही-मन यह संकल्प ले करके जाइए, जो कि गुरुजी ने इन दो-तीन दिनों में लड़कों से कहलवाया है। मैं कहूँगी तो समय और बढ़ जाएगा, क्योंकि एक घंटे से भी ज्यादा समय हो गया है। आप उस संकल्प को लेकर जाइए और उसको पूरा करने में जी-जान से जुट जाइए। आप भगवान राम के बानरों के तरीके से जुट जाइए। अरे माताजी! आपने तो हमें बानर बना दिया, हम तो इनसान हैं। अरे बेटे! आप इनसान बन जाएँ, तब तो हमारे सौभाग्य उदय हो जाएँ। तब तो हम भी सौभाग्यशाली हो जाएँगे।
आपसे हमारी अपेक्षाएँ
चलिए, इतना नहीं आपसे हमारी आकांक्षाएँ तो इतना अवश्य कीजिए कि आप गिलहरी के तरीके से तो लगिए, जटायु के तरीके से तो लगिए। जिस जटायु ने सीता जी को छुड़ाने के लिए अपने प्राण त्याग दिए थे। फिर क्या हुआ? फिर उस जटायु को भगवान राम ने अपने सीने से लगाया और उनके अश्रु उसके ऊपर पड़े और वह भगवान के लोक को चला गया। आप भी जब जटायु की तरह कदम उठाएँगे, तब हम भी मान लेंगे कि आप सराहनीय हैं। आपसे उम्मीद तो और भी ज्यादा है कि आप तेज चलें, कम क्यों चलें। पर जितनी आप में शक्ति है, उतना तो चलिए, फिर बाकी का तो हम देख लेंगे।
बेटे! हम सोच लेंगे कि हमारा लड़का आज एक कदम रख रहा है, कल दो कदम आगे रखेगा और परसों तीन कदम आगे चलेगा। आगे पाँच कदम चलेगा और फिर चलता ही रहेगा। आप चलने की कोशिश कीजिए, फिर हम आपको ऊँचा उठाएँगे, आगे बढ़ाएँगे। यदि आप बैठे ही रहे तो हम लाख आपकी उँगली पकड़ करके उठाते हुए ले जाएँ, पर आप उठने को तैयार नहीं हैं तो कैसे उठेंगे। कैसे आगे बढ़ेंगे। अगर आप उठने के लिए तैयार हैं तो फिर आप कैसी भी मिट्टी के क्यों न हों, तो भी हम आपको बढ़ा ले जाएँगे, ऊँचा उठा ले जाएँगे। फिर हम आपको चला देंगे, क्योंकि हमने आपकी उँगली जो पकड़ी हुई है। हम कहेंगे कि बेटे! तू चल, आगे बढ़।
हम आपके सारथी बनेंगे
आप चलने के लिए तैयार हो जाइए। आपके जीवन के रथ को चलाने के लिए हम दो पहियों का काम करेंगे। हम आपके सारथी का काम करेंगे। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने थे। तीर किसने चलाया? अर्जुन ने। तो आप भी तीर चलाइए और हम आपके सारथी बनेंगे और आपके रथ को आगे बढ़ाते हुए, चलाते हुए चले जाएँगे। आपके जीवन के रथ को, जो अवरोधों से घिरा हुआ है, उन अवरोधों को कुचलते हुए बढ़ाते चले जाएँगे। आपसे यही निवेदन है कि आप यहाँ से संकल्प लेकर जाइए और भक्ति और श्रद्धा अपने भीतर से उत्पन्न कीजिए, बस मुझे इतना ही आज कहना था।
॥ॐ शान्तिः॥