उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
आपको यह बताया गया है कि अपने पापों का प्रायश्चित करना पड़ेगा। प्रायश्चित कैसे होगा? इसके लिए आपको घटनाएँ सुनाता हूँ। आम्रपाली ने सैकड़ों आदमियों की जिन्दगियाँ खराब कीं, कुमार्ग पर चलाया, बहुत बड़ा धन कमाया और उस पाप से निजात पाने के लिए भगवान बुद्ध की शरण ली। भगवान बुद्ध ने शरण में तो ले लिया, लेकिन साथ-साथ यह भी कहा कि पिछले जो गुनाह हैं, उनकी भरपाई तो करनी ही पड़ेगी, आध्यात्मिक उन्नति का केवल मन्त्र लेने से या जप करने से रास्ता थोड़े ही खुलेगा। आम्रपाली ने कहा—ठीक है, मैंने जो कुछ भी गुनाह किए हैं, जो कुछ भी पैसा मैंने गुनाहों के द्वारा कमाया है, उस सारे-के पैसे को मैं दुनिया में ज्ञान के संवर्द्धन में खर्च कर दूँगी। उसके पास करोड़ों रुपए की सम्पत्ति थी, उसे ला करके वह भगवान बुद्ध के चरणों में रख गयी और यह कहा—जिन तरीके से मैंने अनेकों को गुमराह किया है, आप अनेकों को अच्छे मार्ग में लगा देने के लिए इस पैसे को खर्च कर डालिए। बस, ऐसा ही हुआ। भगवान बुद्ध ने आम्रपाली की करोड़ों रुपए की सम्पत्ति से बुद्धविहार बनवा दिया, धर्म-प्रचारकों के शिक्षण का प्रबन्ध कर दिया। इस तरीके से जो अनीति का धन था, वह सब उसमें लग गया, प्रायश्चित हो गया।
यही तरीका एक और व्यक्ति ने अपनाया, उसका नाम था—अंगुलिमाल। अंगुलिमाल ने अपने जीवन में बहुत हत्याएँ की थीं, न जाने कितने कत्ल किए थे और कत्ल करने के बाद में बहुत सारा धन कमा लिया। बहुत धन था उसके पास। वह भगवान बुद्ध का शिष्य बनने के लिए आया, मन्त्र माँगने के लिए आया। भगवान बुद्ध ने मजाक में ही कहा—लगता है आप मन्त्र जानकर ही बैकुण्ठ जाने की फिराक में है। वह बोला हाँ, साहब! मैंने सुना है जो कोई मन्त्र जप कर लेता है, राम-नाम लेता है, वैकुण्ठ को जाता है। भगवान बुद्ध बहुत हँसे, उन्होंने कहा—जिस आदमी ने आपको ऐसी सलाह दी है, वह बहुत बड़ा पागल आदमी मालूम पड़ता है और आपने विश्वास कर लिया, आप उससे भी ज्यादा पागल मालूम पड़ते हैं। केवल राम-नाम का जप करने से अथवा उसके शब्द का उच्चारण करने से या देवी-देवता के आगे नाक रगड़ने से अथवा किसी क्रिया-कृत्य को पूरा करने से आप आध्यात्मिकता का लक्ष्य प्राप्त करने में कभी समर्थ नहीं हो सकते। रास्ता एक ही है—आपने जो गलतियाँ की हैं, उसको बराबर कीजिए, खाइयों को पाटिए। कैसे पाटें? जो धन आपने अनीति से कमाया है, उसे खर्च कर सम्पत्ति में, उन्हीं की भाषा में बौद्ध-धर्म के ग्रन्थों को अनुवाद कराके और उन ग्रन्थों को दूसरे देशों में नाव में रख करके भेजने का प्रयत्न किया। अंगुलिमाल का सारा धन उसमें खर्च हो गया।
इन लोगों ने धन के अलावा भी तो अनेक गुनाह किए थे—लोगों का ईमान खराब किया था, चरित्र खराब किया था, दुःख और दारिद्र्य की आग में उन्हें धकेल दिया था। इतने आदमियों का कत्ल करने के बाद में कितनी आत्माओं ने चीत्कार किया होगा उसकी भरपाई केवल पैसे से कैसे हो सकती है? वह केवल पैसा ही तो चुका दिया और रूह का क्या हुआ? आम्रपाली ने अपने भावी जीवन को भूतकाल की खाई पाटने के लिए समर्पित कर दिया। वह सन्त हो गई और स्वामी विवेकानन्द की तरह सारे एशिया में और सारे हिन्दुस्तान में गाँव-गाँव घूमती फिरी ज्ञान की शिक्षा देने के लिए, सत्कर्म की शिक्षा देने के लिए। इस तरह उन्होंने न केवल अपने धन को उत्सर्ग कर दिया, बल्कि अपने समय को और अपने पसीने को भी उसी में खर्च कर दिया। जो उत्साह उन्होंने बुरे कर्म करने में, गन्दी जिन्दगी जीने में लगाया था, वही उत्साह उन्होंने भावी जीवन को पुनीत और पवित्र करने में भी खर्च कर दिया। जो श्रम और जो समय उन्होंने पाप कर्म कमाने में खर्च किया था, वही श्रम और समय उन्होंने पुण्य कमाने के लिए खर्च कर दिया। तब आम्रपाली सच्चे अर्थों में सन्त हो गई। अंगुलिमाल ने भी ऐसी ही किया। अंगुलिमाल के पास जो था, वह तो उन्होंने खर्च कर ही डाला। बौद्ध धर्म के ग्रन्थों को सारे विश्व की भाषाओं में अनुवाद कराने में, पर केवल धन से ही थोड़े काम चलता है। उन्होंने केवल धन थोड़े ही अपहरण किया था, कई आत्माओं को दुखाया भी तो था। न जाने कितने को कुमार्ग के रास्ते पर धकेला भी तो था। उसका प्रायश्चित यही हो सकता था कि अपने समय, श्रम एवं बचे हुए जीवन को उचित कामों में खर्च कर दिया जाए। वैसा ही हुआ। अंगुलिमाल एक सन्त हो गए। सन्त हो करके सारे संसार में काम करते रहे और बराबर प्रायश्चित के लिए चलते रहे। इससे बढ़िया प्रायश्चित का कोई तरीका नहीं हो सकता, इसलिए आप अपना समय दान दे दें। समय न दें, क्षतिपूर्ति न करें, फिर क्या हुआ! यह तो प्रायश्चित का मखौल हुआ, दिल्लगीबाजी हुई और विधि की व्यवस्था के साथ में उपहास हुआ। भगवान के यहाँ कोई अंधेर नहीं है। पाप करने वाले हाथ-पाँव जोड़ेंगे, नाक रगड़ेंगे, पूजा करेंगे, पंचामृत पीयेंगे, तो पाप-मुक्त हो जाएँगे, फिर भगवान की दुनिया में नियम कहाँ रहा, व्यवस्था कहाँ रही? फिर तो ऐसे ही लोग कर लिया करेंगे। पाप कर लिया करेंगे और बस, प्रार्थना कर लिया करेंगे, पंचकर्म कर लिया करेंगे, डुबकी मार लिया करेंगे। फिर पापों का डर तो कुछ है ही नहीं। तब संसार की व्यवस्थाओं को कौन कायम रखेगा? आप ऐसा मत सोचिए। आपको केवल यह सोचना चाहिए कि यह चित्तभ्रम का एक ढंग है और कुछ नहीं।
यहाँ जो कल्पसाधना आपको कराई जा रही है इसमें भी अन्न को कम करना पड़ता है, आहार को कम करना पड़ता है, भोजन पर नियन्त्रण करना पड़ता है, स्वाद की रोकथाम करनी पड़ती है, वही आपको करनी पड़ी है। दोनों में एक ही बात है, इसलिए आपको यह प्रायश्चित करने के साथ में, तितीक्षा करने के साथ-साथ में अब एक नया काम शुरू कर देना चाहिए—पापों का प्रायश्चित समयदान देकर। समयदान के लिए क्या करना चाहिए? इस विषय में एक पुरानी परम्परा है, तीर्थयात्रा करनी चाहिए। पापों के लिए तीर्थयात्रा, तीर्थयात्रा, तीर्थयात्रा। आप कहीं भी पता कर लीजिए प्रायश्चितों में तीर्थयात्रा करनी चाहिए, लोग यही कहेंगे। यह तीर्थयात्रा क्या होती है? तीर्थयात्रा कहते हैं—धर्मप्रचार की पदयात्रा को। तीर्थयात्रा का अर्थ है—गाँव-गाँव घूमना, जगह-जगह जाना, लोगों को अच्छे-अच्छे उपदेश करना। प्राचीनकाल में जो गौ हत्याएँ हो जाती थीं, तो लोग गायों की पूँछ लाठी से बाँधकर गाँव-गाँव घूमते थे मुँह ढक करके, फिर कहते थे हमसे गाय की हत्या हो गई और हम कलंकी हैं, हमको कलंक लग गया है। इस पर अपने पापों को गाँव-गाँव बताते थे, लेकिन इसके साथ-साथ लोगों को यह भी कहते थे कि हमने गलती की है, लेकिन आप में से कोई मत करना। हमने गलती में, गुस्से में आ करके गाय पर हमला किया और उसे मार डाला। आप ऐसा मत करना—यह उपदेश भी कहता था और अपनी गलती को बताता भी था।
आपको यही करना चाहिए। आपको हर जगह जा करके तीर्थयात्रा के रूप में पदयात्रा करनी चाहिए। पदयात्रा के रूप में गाँव-गाँव घूमना चाहिए। पदयात्रा का एक रूप—तीर्थयात्रा का एक रूप अभी भी विद्यमान है। आपने कभी वैद्यनाथ धाम जाने के बारे में सुना है? अपने यहाँ यू.पी. (उत्तरप्रदेश) में भी ऐसा रिवाज है कि शिवरात्रि के समय लोग गंगाजी से गंगाजल चढ़ाने के लिए लाते हैं और अपने यहाँ किसी देवालय पर चढ़ाते हैं। कन्धे पर काँवर रख करके लाते हैं। काँवर लेकर चलने वाले रास्ते भर अच्छे-अच्छे गीत सुनाते जाते हैं। रास्तागीरों को हर वक्त अच्छी शिक्षा देते जाते हैं। जहाँ भी रास्तागीर मिलते हैं, जिस किसी भी गाँव में प्रवेश करते हैं, वहाँ अच्छे दोहे, ज्ञान के दोहे, भक्ति के दोहे, वैराग्य के दोहे और कर्तव्यपालन के दोहे सुनाते चलते हैं। यह उनका धर्मोपदेश भी साथ-साथ चलता रहता है, पदयात्रा भी चलती रहती है और जनसम्पर्क का कार्य भी होता रहता है। जनसम्पर्क एक, पदयात्रा दो, धर्मप्रचार तीन—इन तीन बातों को मिला दें, तो आपकी सच्चे अर्थों में पदयात्रा हो जाएगी। जो इस समय चल रहा है, वह तो केवल भगदड़ है, पर्यटन है। पर्यटन के लिए तो घुमक्कड़ लोग देश-विदेश में घूमने के लिए जाते हैं; इसको देखते हैं, उसको देखते हैं। वे केवल देखने के लिए जाते हैं, दर्शन करना उन्हें कहाँ आता है! दर्शन करने की बुद्धि कहाँ है? उनमें केवल देखने के लिए जाते हैं कि बद्रीनाथ कहाँ है, केदारनाथ कहाँ है? मन्दिरों में रखे हुए खिलौनों को देखने के लिए जाते हैं। देखने की दृष्टि उनमें कहाँ! दर्शन के लिए दृष्टि चाहिए। श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को देखने की दृष्टि दी थी। अर्जुन ने कहा था—हमको भगवान का रूप दिखा दीजिए, तो उन्होंने कहा—पहले दृष्टि तो ला, देख काहे से लेगा। देखने को हम हैं तो सही! नहीं, साहब! आप भगवान नहीं है। हम तो भगवान को देखना चाहते हैं। तो फिर दृष्टि विकसित कर दृष्टि से दर्शन होता है। जिनके पास दृष्टि नहीं है, उनको खुलकर कह सकते हैं—यह तो घुमक्कड़ है। घुमक्कड़ी से क्या फायदा? यह तो केवल मनोरंजन है। यह मान लीजिए कि कलकत्ता, बम्बई नहीं गए, बद्रीनाथ हो जाए। इसमें बिल्कुल भी फर्क नहीं। दोनों से घूमने की ही आवश्यकता पूरी होती है, फिर तीर्थयात्रा का पुण्य कैसे मिल सकता? तीर्थयात्रा के पीछे तो उद्देश्य जुड़ा हुआ है, क्रियाएँ जुड़ी हुई हैं। क्रियाओं का अर्थ यह है कि आपको धर्म-प्रचार की पदयात्राओं में संलग्न होना चाहिए। धर्म-प्रचार की पदयात्रा में अगर आप संलग्न हैं, तो आपकी तीर्थयात्रा फलदायी मानी जाएगी।
प्राचीनकाल के ऋषि भी यही करते थे। घर-घर अलख जगाते थे। अलख क्या? अलख ऐसे करने थे, घर-घर दरवाजे पर खड़े हो करके गीत गाते थे। एक हो, तो अकेले—अगर दो आदमी हों, तो दोनों साथ-साथ। इसे अलख जगाना कहते हैं। हर आदमी, जो घर के निवासी थे, घर से निकलकर बाहर आते थे, महात्मा जी की बात सुनते थे, गाना सुनते थे, उपदेश सुनते थे। इसे अलख जगाना कहते हैं, घर-घर जाकर सम्पर्क बनाना कहते हैं। वे आपके पास आयेंगे? नहीं, आपके पास नहीं आयेंगे। बादलों के पास खेत कैसे आ पायेंगे, बताइए? खेतों के पास इतनी सामर्थ्य होती, तो फिर क्यों किसी का इन्तजार करते! मित्रो! बादलों को ही आना पड़ेगा। घर-घर आपको ही जाना पड़ेगा। वे आपके पास नहीं आयेंगे। दुर्घटना से घिरे हुए आदमी किस तरह आपके पास आ पायेंगे! टाँग टूट गई है, एक्सीडेण्ट हो गया है और आप कह रहे हैं—आइए साहब! हमारे यहाँ आइए, प्रार्थना-पत्र लिखिए, पैसे दीजिए, तब हम आपकी सहायता करेंगे। इतनी ही हैसियत होती, तो बेचारा टाँग टूटा हुआ क्यों आता! तो फिर घुड़सवार न होता। घुड़सवार नहीं है, टाँग टूटा हुआ आदमी है, इसलिए चल नहीं सकता। जाना आपको ही पड़ेगा। बाढ़ें आती हैं, दुर्घटनाएँ होती हैं और भी मुसीबतें आती हैं, भूकम्प आते हैं, महामारी फैल जाती है, उसमें अधिकारी लोग यह इन्तजार नहीं करते कि जो दुःखी हैं, हमारे पास आएँ, अर्जी दें और हमसे प्रार्थना करें। नहीं, आपको ही भागकर जाना पड़ेगा। हवा हर आदमी के पास भागकर जा पहुँचती है, नाक में घुस जाने के लिए। सूरज की रोशनी हर आदमी के पास अपने आप चली जाती है। अपने आप चली जाने के बाद उसे गर्मी दे करके आती है, रोशनी दे करके आती है। आपको सूरज की तरह, हवा की तरह और बादलों की तरह उन सभी जगहों पर जाना चाहिए, जहाँ ज्ञान की आवश्यकता है।
यह आवश्यकता पिछड़े हुए आदमियों को भी है और पढ़े-लिखों को तो उससे भी ज्यादा है। पिछड़े हुए आदमी एक ढंग के बेहूदे हैं और पढ़े हुए आदमी दूसरे ढंग के बेहूदे हैं। उनमें कोई खास फर्क नहीं है। चरित्र की दृष्टि से, चिन्तन की दृष्टि से, आदर्शों की दृष्टि से सारा समाज लगभग एक ही स्तर पर जा पहुँचा है। इसमें धनी और निर्धन का भेद करना बड़ा मुश्किल है, पढ़े और बिना पढ़े का भेद करना बड़ा मुश्किल है। जहाँ तक गफलत का सम्बन्ध है, दुर्भावनाओं का सम्बन्ध है, दोनों ही क्षेत्र एक-दूसरे से बाजी मारने पर तुले हुए हैं। पढ़े-लिखे ज्यादा कमा लेते हैं, बिना पढ़े-लिखे कम कमा पाते हैं—यह बात अलग है। पढ़े आदमी ज्यादा चालाक होते हैं—बिना पढ़े-लिखे कम चालाक होते हैं—यह बात और है। पढ़े हुए आदमियों के पास अच्छे महल, मकान और पैसे होते हैं—गाँव वालों के पास फटे-पुराने कपड़े होते हैं—जीर्ण-शीर्ण झोंपड़ियाँ होती हैं, लेकिन जहाँ तक चरित्र का सम्बन्ध है, वहाँ तक दोनों एक ही स्तर के हैं, इसलिए हम और आपमें से हर आदमी जिसको प्रायश्चित करना हो, उसे तीर्थयात्रा की तैयारी करनी चाहिए, घर-घर जाना चाहिए और जनसम्पर्क करना चाहिए। जनसम्पर्क किसके लिए? धर्मधारणा जाग्रत करने के लिए, विचार-क्रान्ति के लिए, जनमानस का परिष्कार करने के लिए, लोकमानस में आदर्शवादिता की प्रतिष्ठापना करने के लिए। यही उद्देश्य होना चाहिए। घर-घर आप जाएँगे, किसके लिए जाएँगे? भीख माँगने के लिए? नहीं साहब! भीख तो नहीं, ऐसे ही जाएँगे। आप घर-घर एक उद्देश्य के लिए जाइए, गाँव-गाँव एक उद्देश्य के लिए जाइए कि हमको जन-जागरण की हवा पैदा करनी है। तीर्थयात्रा का यही उद्देश्य है। इसमें पैदल चलना पड़ता था, जिससे कि ज्यादा-से लोग रास्ते में मिलें और उनसे सम्पर्क सधे।
आपको भी ऐसी ही तीर्थयात्रा की तैयारी करनी चाहिए। आप यहाँ से जाएँ, तब एक योजना बना करके जाइए कि किस तरीके से एक लम्बा सफर तय करेंगे और उसमें किस तरह अधिक-से लोगों से मिलेंगे, उनको अच्छे उपदेश देंगे। इसका एक ही तरीका है—आप साइकिल यात्रा करें। साइकिल चलाने को तो मैं पदयात्रा ही मानता हूँ। यह मानता हूँ कि इस यात्रा में आपको बिस्तर लेकर चलना पड़ेगा, कपड़े लेकर चलना पड़ेगा। उन्हें साइकिल पर लादकर चलिए, तो ज्यादा सुविधा रहेगी और क्या करें? और आप यह कीजिए, जगह-जगह शिक्षण देने के लिए, अलख जगाने के लिए एक योजना बनाकर ले जाइए। दीवालों पर आदर्श वाक्य खड़िया-मिट्टी से लिखने की आप आदत डालिए। उससे आप असंख्यों आदमियों को, रास्तागीरों को प्रेरणा देने में समर्थ हो सकेंगे।
प्रायश्चित का यह भी एक तरीका है और क्या काम करें? यहाँ के शिविरों में ढपली बजाना सिखाया जाता है। सड़क पर खड़े होकर गाने वालों, स्टेज सिंगरों की एक नई पीढ़ी और नई पौध हमने लगाई है। आप भी उसमें शामिल हों, तो एक-दो आदमियों के साथ ढपली और खंजरी लेकर चले जाएँ। किसी भी गाँव के लोगों को कहीं इकट्ठा कर लें, जहाँ प्याऊ है, वहाँ पानी पीने के लिए जा बैठें, ढपली बजाने लगें। बस में सफर करना है, तो आप बस में भी ऐसा कर सकते हैं। रास्ते में बैठे हुए हैं, तो कोई अच्छा भजन गाना शुरू कर दीजिए। इससे लोगों के दिलों में एक नई जाग्रति पैदा होगी। यह छोटी-छोटी बातें है। आप कहीं जा करके प्रज्ञा-पुराण की कथाएँ भी कह सकते हैं, रात को सत्संग कर सकते हैं। इस तरह आप में से हर एक आदमी को, जहाँ भी जिस भी क्षेत्र में ज्ञान की दृष्टि से अभावग्रस्त आदमी दीखें वहाँ ही जनजागरण का काम आरम्भ कर दें। पढ़े और बिना पढ़े का फर्क मत कीजिए। इसलिए आपको शिक्षण करने में फर्क करने की जरूरत नहीं है कि आप किसको कहें, किसको न कहें? आप सभी से कहिए। हर आदमी इन मामलों में दरिद्र है। हर आदमी को आपके ज्ञान की आवश्यकता है। इसलिए आपको तीर्थयात्रा की योजना बना लेनी चाहिए। सम्भव हो सके, तो अपने घर से हरिद्वार के लिए चलिए, मथुरा के लिए चलिए। यह भी दो गायत्री के बड़े तीर्थ हैं। दर्शन करने के लिए तो तीर्थ बहुत सारे हैं, लेकिन ऐसे तीर्थ जिनमें प्रेरणा मिलती हो, कहीं नहीं हैं या तीर्थों में जा करके तप करते हैं, तीर्थों में जा करके प्रायश्चित करते हैं। लाखों आदमी अभी भी जाते हैं और प्रायश्चित की विधि पूरी करते हैं, मुंडन-संस्कार कराते हैं, तीर्थ में नहाते हैं, वहाँ जा करके गऊदान करते हैं, ब्राह्मण भोजन कराते हैं—यह सब बातें यह बताती हैं कि तीर्थयात्रा का स्वरूप क्या होना चाहिए था? तीर्थयात्रा से पाप कटते हैं, अर्थात् पापों का खामियाजा पूरा होता है। कैसे? मैंने बताया न आपको कि जनसम्पर्क साधना चाहिए और अलख जगाना चाहिए। इसके अलावा तीर्थयात्रा में और भी कई बातें बतायी गई हैं। आप उस समय एकान्त में रहकर अपने प्रायश्चित की साधनाएँ कीजिए, उपासनाएँ कीजिए, आत्म-परिष्कार के लिए पृष्ठभूमि बनाइए।
प्राचीनकाल में तीर्थों में दो तरह के लोगों के शिक्षण का प्रबन्ध था। एक बच्चों का शिक्षण, जिनको गुरुकुल कहते थे। गुरुकुलों में, जितने भी गुरुकुल थे, सब तीर्थ-स्थानों में बने हुए थे। तीर्थ स्थानों की वजह से गुरुकुल बनाए गए अथवा गुरुकुलों की वजह से तीर्थस्थान बन गए—यह समय इस तरह की बहस करने का नहीं है। दोनों एक ही बात हुई। प्राचीनकाल में जहाँ गुरुकुल थे, वहाँ स्कूल खुलवा दिए गये, उनको तीर्थ बना दिये गए। राजस्थान का वनस्थली विद्यालय को हम तीर्थ कहते रहे हैं। बाबा साहब आमटे के अपंग चिकित्सालय को हम तीर्थ कहते रहे हैं। तीर्थ पहले थे? पहले तो नहीं थे, अब अच्छे व्यक्तियों से तैयार हो गए अथवा प्राचीनकाल में वे तीर्थ बने थे, तो किसी श्रेष्ठ कार्य से बने थे। आप हरिद्वार की तैयारी कर सकते हैं, आप मथुरा की गायत्री तपोभूमि जाने की तैयारी कर सकते हैं। साइकिल से आप चलें, गाँव-गाँव जाएँ, घर-घर रुकें, दीवालों पर आदर्श-वाक्य लिखें, ढपली से गीत और संगीत सुनाएँ, रात को प्रवचन की व्यवस्था करें, यज्ञ आदि की बात सोचें, अच्छे साहित्य को लोगों तक पहुँचाने का प्रयत्न करें। अगर आप ऐसे कार्य करते हो, जिससे जन-जीवन में नवचेतना भरने का मौका मिलता हो और आपको सेवा करने का, श्रम करने का, त्याग करने का एवं रास्ता दिखाने का मौका मिलता हो, तो समझना कि तीर्थयात्रा के पीछे का उद्देश्य सफल हुआ। मुंडन कराते थे तीर्थों में लोग इसका यही मतलब था कि हमने पुराने विचारों को, बुरे विचारों को बदल दिया है। मस्तिष्क के ऊपर उगे हुए बालों को अपने कुविचारों का प्रतीक मानते थे और प्रतीक मानकर ऐसा करते थे। यही था जिसके लिए लोगों को अभी तक प्रोत्साहन मिलता है कि शायद और किसी चीज तथा और किसी पुण्यफल का न बताया हो। तीर्थ अवश्य जाना चाहिए—मुसलमान धर्म में भी ऐसी मान्यता है। मक्का एक बार जिन्दगी में वे अवश्य जाना पसन्द करते हैं। हिन्दू धर्म में भी ऐसी ही मत है कि तीर्थयात्रा जरूर करनी चाहिए लेकिन तीर्थयात्रा उद्देश्यपूर्ण होनी चाहिए तभी उसका लाभ है, अन्यथा नहीं। आप जिस तीर्थ में जाएँ, वहाँ कुछ दिन निवास कीजिए, साधना कीजिए, तपस्या कीजिए, उपासना कीजिए और ऐसे वातावरण और सत्संग में रहिए, जिससे कि आप पिछले वाले घिनौने भूतकाल को छोड़ करके उज्ज्वल भविष्य में प्रवेश करने में समर्थ हो सकें। यह कार्य वातावरण से ताल्लुक रखता है, यह कार्य उसकी सामग्री से ताल्लुक रखता है, यहाँ यह कार्य प्राणदायक प्रक्रिया से ताल्लुक रखता है। तीर्थों में पहले सारी बातों की सुविधाएँ होती थीं, इसलिए लोग तीर्थों में जाते थे और वहीं निवास करते थे। अनुष्ठान तो अपने घर रहकर भी किया जा सकता है, पर अच्छे वातावरण में रह करके अनुष्ठान करना एक बात है और घिनौने वातावरण में, घिसे-पिटे वातावरण में, काम-वासना के वातावरण में, लोभ और मोह के वातावरण में रहकर कर लें, तो वह एक चिन्ह-पूजा जैसी प्रक्रिया होगी। वातावरण का भी बड़ा महत्त्व था, इसलिए प्राचीनकाल में तीर्थयात्रा के लिए वातावरण को भी देखा जाता था। ऋषियों को सान्निध्य, तपश्चर्या का उपक्रम, यह सारी बातें होती थीं। आप यह मानकर चल सकते हैं कि आप यहाँ जो कल्प-साधना शिविर में आये हैं, वह वास्तव में एक महीने के तीर्थ-सेवन सत्र जैसा है। इसे तीर्थसत्र भी कह सकते हैं। तीर्थों में ऐसी ही परम्परा होती थी। अभी भी ऐसा होता है। प्रयाग में माघ के महीने में इससे ही मिलते-जुलते शिविर होते हैं, सत्र होते हैं, जैसे कि आप यहाँ रहकर कर रहे हैं। एक महीने तक त्रिवेणी में, बालू में झोंपड़ी डालकर रहते हैं—न कहीं बाहर जाते हैं, न बाहर आते हैं—न किसी के घर-गृहस्थी की चिन्ता करते हैं, न अपनी चिन्ता में डूबे रहते हैं, सिर्फ आत्मकल्याण की चिन्ता करते हैं। आत्म-कल्याण, लोक-कल्याण की चिन्ता में डूबे रहने के कारण घर-गृहस्थी से जुड़े हुए सम्बन्धों के बारे में एक महीने के लिए वैरागी हो जाते हैं। घर वालों से कह देते हैं कि घर-गृहस्थी के समाचारों की चिट्ठी-पत्री मत डालना, हमें किसी लेन-देन की खबर मत देना, कोई विकट परेशानी आती हो, तो अपने ढंग से हल करना, हम तक मत आना और हमारे सपने में विघ्न मत डालना। घर वाले भी इन बातों का ध्यान रखते हैं। जरूरत पड़ने पर सिर्फ इतना ही पूछते हैं कि किसी सामान की आवश्यकता तो नहीं है, कोई चीज तो नहीं चाहिए? बस, जिस सामान की जरूरत होती है, लाकर दे देते हैं, बाकी सारे-का समय तीर्थयात्री या कल्प-साधक त्रिवेणी-तट पर गुजारा करते हैं।
आप भी इसी तरह मानकर चलिए कि आपको अपने गुनाहों को ठीक करना है, अपने भावी कुसंस्कारों को धो करके साफ करना है तथा भावी जीवन के लिए कोई ऐसी रूपरेखा निर्धारित करनी है, जिसको इष्टापूर्ति कहा जा सके, क्षतिपूर्ति कहा जा सके। इस कल्प-साधना में आत्मपरिष्कार और आत्म-परिशोधन की प्रक्रिया उससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, जैसा कि आपको पूजा-उपासना, जप और योग करने के लिए बताया गया है। यह बहुत ही मूल्यवान है, इसलिए आप इस ओर भी ध्यान रखें और ऐसी जिन्दगी प्राप्त करें, जिस पर सन्तोष ही नहीं, गर्व और गौरव भी अनुभव किया जा सके। बस, आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥