उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
आ रहा है युगावतार, प्रज्ञावतार
(अक्टूबर १९७८ में शान्तिकुञ्ज में दिया प्रवचन)
आज की समस्याएँ, संकट हमारे ही द्वारा आमंत्रित
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
संभवामि युगे-युगे
देवियो, भाइयो! जब वर्षा ऋतु आती है, तब हमारे छप्पर अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। खपरैल पानी-पानी हो जाते हैं। मकान भीग जाते हैं और कच्चे मकानों में दरारें पड़ जाती हैं। छतों को बन्द करना पड़ता है। दीवारों की लिपाई-पुताई करनी पड़ती है। छप्परों को दुबारा छाना पड़ता है, अस्त-व्यस्त हो जाने के बाद। गर्मियों में भी ऐसे ही होता है। गर्मियों में लू चलती है। तूफान आते हैं और घरों के छप्परों को तोड़-मरोड़ डालते हैं। खपरैलों को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। बरसात आने से पहले किसान अपने-अपने खपरैलों को सँभाल लेते हैं। टूटी हुई चीजों की मरम्मतें हमेशा की जाती हैं। जो टूटे को बनाना और रूठे को मनाना जानता है, वह आदमी समझदार कहलाता है। टूटी हुई चीजें फेंकी नहीं जातीं। टूटी हुई चीजों की मरम्मत की जाती है। मरम्मत न की जाय और पुराने कपड़े फेंक दिये जायँ, टूटे हुए बर्तन फेंक दिये जायँ, तो बात कैसे बन सकती है? नहीं बन सकती। मरम्मत करनी पड़ती है।
पुराने की मरम्मतः नया बनाना
मित्रो! वैसे ही संसार को बनाने वाले भगवान् को अपनी इस दुनिया की मरम्मत करनी पड़ती है। प्रकृति चक्र में हर चीज पुरानी और मैली हो जाती है। हमारा शरीर आज अच्छा-खासा है, शाम को मैला-कुचैला हो जाता है। घर आज ऐसा है, कल मैला-कुचैला हो जाता है। कपड़े आज धुले हुए पहने थे, कल मैले-कुचैले हो जाते हैं। सृष्टि का नियम-चक्र ही ऐसा है। सृष्टि का नियम-चक्र ही ऐसा विलक्षण है कि इसमें हर चीज मैली-कुचैली होती रहती है। टूट-फूट होती रहती है। विकृतियाँ आती रहती हैं और इन विकृतियों की बार-बार मरम्मत करनी पड़ती है। मरम्मत करना उतना ही ज्यादा आवश्यक है, जितना किसी नयी चीज का बनाना। इस दुनिया की भी मरम्मत करनी पड़ती है। विकृतियों का क्रम न जाने क्यों बढ़ता हुआ चला जाता है और बिगड़ता हुआ चला जाता है। इस बिगड़ती हुई और अस्त-व्यस्त होती हुई दुनिया को सँभालने के लिए इस दुनिया को बनाने वाला स्रष्टा बार-बार जन्म लेता रहता है। बार-बार स्वयं भाग करके आता रहता है और साज-सँभाल करके फिर वापस चला जाता है। अवतार इसी का नाम है।
बारम्बार असन्तुलन, बारम्बार अवतार
मित्रो! इस दुनिया में प्रायः बार-बार असंतुलन होते रहते हैं। जब-जब यह असंतुलन होते हैं, तब-तब स्रष्टा को इस दुनिया को सँभालने के लिए अपनी शक्तियों के साथ और अपने सहयोगियों के साथ स्वयं आना पड़ता है। भगवान् ने गीता में आश्वासन दिया है और वचन दिया है और यह वचन सनातन है, शाश्वत है और बार-बार सही साबित हुआ है। बार-बार इसकी पुनरावृत्ति हुई है—
यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भावि युगे-युगे॥
विषस्य विषमौषधम्
युग-युग में बार-बार भगवान् अवतार लिया करते हैं। कैसे अवतार लेते हैं और किस काम के लिए लेते हैं? शायद मैंने एक दिन आपको बताया भी था कि अवतार किस तरह से लेते हैं। जिस प्रकार की चीजें होती हैं, जिस प्रकार की समस्याएँ होती हैं, उस समस्या का समाधान करने के लिए उसी रूप में भगवान् अवतार लेते हैं। होम्योपैथी चिकित्सा के आप लोगों में से शायद कोई जानकार होंगे। हमारे शरीर में जो विष पैदा हो जाता है, उनमें से ठीक उसी विष को दुबारा शरीर में प्रवेश कराया जाता है। इसके दुबारा शरीर में प्रवेश करने की वजह से रिएक्शन होता है और रिएक्शन होने की वजह से मर्ज अच्छे हो जाते हैं, अर्थात् ‘‘विषस्य विषमौषधम्।’’ यानि—विष की औषध विष। जिस तरह की विकृतियाँ इस संसार में आती रहती हैं, विकृतियों के उसी तरह के समाधान आते रहते हैं। जैसी बीमारी आती है, दवा उसी तरह की आती है। युद्ध में जैसी आवश्यकता पड़ती है, हथियार उसी तरह के सामने आ जाते हैं। बन्दूक के समय में बन्दूक आयी थी। लाठियों के समय में लाठियाँ आयी थी। तलवारों के जमाने में तलवारें आयी थीं और तीरों के जमाने में तीर आये थे। आज एटम बमों का मुकाबला करने के लिए हाइड्रोजन बम आ गये।
सहयोग हेतु आए कच्छप
मित्रो! जैसी चीजें सामने आती हैं, जैसी परिस्थितियाँ होती हैं, विकृतियों का समाधान करने के लिए निराकरण के साधन भी उसी के समान होते हैं। भगवान् के अवतार इसी क्रम में होते रहे हैं। भगवान् के अवतारों की शृंखला को आप देखिए तो पायेंगे कि एक समय ऐसा था, जबकि चारों ओर दरिद्रता छायी हुई थी। उस दरिद्रता को दूर करने के लिए और सम्पन्नता उत्पन्न करने के लिए देवता और असुर आपस में विचार करने लगे कि आपस में लड़ने-झगड़ने की बजाय, आलस्य में पड़े रहने की बजाय क्यों न हम आपस में सहयोग करें, श्रम करें। अगर हम सहकार और श्रम का उपयोग करें, तो हम सम्पन्न बन सकते हैं। दोनों ने जब निश्चय किया कि हम समुद्र में से सम्पदाएँ निकालेंगे, तो भगवान् ने कहा कि संसार में अभावों, गरीबी और दरिद्रता को दूर करने के लिए जब प्रयास हो रहे हैं, तो इसमें हमारा सहयोग होना चाहिए। योगदान करने के लिए भगवान् कच्छप के रूप में जा विराजे। कच्छप के रूप में अगर भगवान् न मिलते, उनका सहयोग न मिलता, तो जो मंदराचल पहाड़, जिससे समुद्र मथा गया था और जो पानी में ठहर नहीं सकता था, वह पाताल में चला जाता, गड्ढा हो जाता और उसका घूमना सम्भव न हो पाता। इसको कील और धुरी की जरूरत थी। उसके लिए भगवान् ने कच्छप का अवतार लिया।
वराह ने उबारा लक्ष्मी को
साथियो! बाद में हम देखते हैं कि समय-समय पर जैसी-जैसी आवश्यकता पड़ी है, भगवान् उसी रूप में आते रहे हैं। भगवान् के सारे चौबीस अवतारों का तो मैं वर्णन नहीं कर सकता, लेकिन एक-दो अवतारों का हवाला देकर के मैं आपको यह साबित करना चाहता हूँ कि भगवान् को अवतार इस दृष्टि से लेने पड़े कि सामयिक समस्याओं का समाधान करने के लिए मुनासिब रास्ता निकालें। एक बार ऐसा हुआ—एक राक्षस था। उसका नाम था हिरण्याक्ष। उसने क्या किया? पुराणों की कथाओं के मुताबिक़ उसने दुनिया की सारी दौलत इकट्ठी कर ली और समुद्र में चला गया और वहीं समुद्र में गड्ढा बनाकर के गाड़ आया। दुनिया में दौलत की कमी पड़ गई, लक्ष्मी की कमी पड़ गयी। भगवान् ने कहा कि लक्ष्मी को समुद्र से निकालना चाहिए। कैसे निकालना चाहिए? उन्होंने वराह भगवान् का रूप बनाया, जो समुद्र में भी चल सकते थे, पानी में भी चल सकते थे और जमीन पर भी चल सकते थे। वह दोनों तरीकों से गये और हिरण्याक्ष को मारा और अपने दोनों दाँतों से जमीन को खोदकर दौलत निकाल लाए, जिसकी दुनिया को जरूरत थी।
नरसिंह का अवतरण
बेटे! वराह भगवान् के बाद बहुत से अवतार आते हैं। कौन-कौन आते हैं? एक का नाम था—नृसिंह अवतार। नृसिंह कैसे थे? एक राक्षस था—हिरण्यकश्यपु। उसको यह वरदान प्राप्त था कि कोई आदमी उसे बंद स्थान में नहीं मार सकता, खुले में नहीं मार सकता। कोई आदमी हथियार से नहीं मार सकता, अस्त्र-शस्त्र से नहीं मार सकता। दिन में नहीं मार सकता, रात में नहीं मार सकता। उसने मारने के सारे रास्ते बन्द कर रखे थे। तब भगवान् ने इस तरह का अवतार लिया कि जिससे उस समस्या का समाधान करना सम्भव हो सके। उन्होंने ऐसा रूप बनाया जो न इंसान का था, न हैवान का था। उसका नाम था—नृसिंह। इस तरीके से वह ऐसे समय में प्रकट हुए, जब न दिन था, न रात थी। तब क्या था? संध्या का समय था। इस तरह वे देहरी में जा विराजे, जो न खुली जगह में थी और न बंद जगह में थी। उन्होंने न अस्त्र का प्रयोग किया न शस्त्र का किया। अपने नाखून का प्रयोग किया। नाखून से ही हिरण्यकश्यपु का पेट चीर डाला और इस समस्या का समाधान किया।
परशुराम एवं राम
मित्रो! जैसी समस्या होती है, भगवान् उसी तरह के समाधान निकालते रहे हैं। दुनिया में जब बड़े आपरेशन करने की जरूरत हुई, जब मालूम पड़ा कि कैंसर का फोड़ा बिना आपरेशन के अच्छा नहीं हो सकता। गला हुआ फोड़ा बिना आपरेशन के अच्छा नहीं हो सकता, तो उन्होंने परशुराम का रूप धारण किया। परशुराम के रूप में चाकू लेकर के वे काट-छाँट करते चले गये। यह उस समय की समस्या का निराकरण था। बाकी समय आते गये। एक समय आया, जब भगवान् ने अवतार लिया। किसका अवतार लिया। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का। तब लोग मर्यादाओं का पालन करना भूल गये थे। मर्यादाओं का उल्लंघन कर रहे थे। मर्यादाओं का मखौल उड़ा रहे थे और मर्यादाओं के नियम और कानून-कायदे पर चलने के लिए सहमत नहीं हो रहे थे। तब भगवान् ने उस जमाने में मर्यादा पुरुषोत्तम का रूप धारण किया। बाद में लोग मर्यादाओं के कायल हो गये। जीवन का उन्हें अंग बना लिया।
पूर्ण-पुरुष श्रीकृष्ण
भगवान् रामचन्द्र जी के बाद भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र जी ने अवतार लिया। इस अवतार में क्या फर्क था? इसमें फर्क था—पूर्ण-पुरुष का। पूर्ण-पुरुष कैसे हो सकता है? पूर्ण-पुरुष ऐसे हो सकता है कि वह मर्यादाओं को दोनों तरीके से देखता है। वह उद्देश्य को देखता है, साधनों को नहीं देखता। उन्होंने अच्छे तरीके भी अख्तियार किए और बुरे तरीके भी अख्तियार किए। बुरे लोगों के साथ बुरे तरीके और अच्छे लोगों के साथ अच्छे तरीके। यह है पूर्ण-पुरुष, जो सही तरीकों से भी उद्देश्य पूरा करता है और अगर जरूरत पड़ती है, तो उन्हीं के तरीके से भी उद्देश्य पूरा करता है। यह है—राजनीति और धर्मनीति का समन्वय। यह श्रीकृष्ण का तरीका है, जो पूर्ण-पुरुष कहलाते हैं।
प्रत्यक्ष संकट हेतु वैसे ही अवतार
मित्रो! इस तरह भगवान् के अवतार बार-बार होते रहे हैं। आज के युग में फिर से भगवान् के अवतार की, आज की सामयिक समस्याओं के समाधान के हिसाब से आवश्यकता पड़ी। आज की सामयिक समस्याएँ क्या हैं? आप बता सकते हैं? आज आदमी क्यों दुखी है, आप बता सकते हैं? पुरानी परिस्थितियों से आज की परिस्थितियाँ सर्वथा भिन्न हैं। पुराने जमाने में राक्षस होते थे और ऋषियों को मार-मार करके खा जाते थे। हड्डियों के पहाड़ जमा कर देते थे। आज है कोई ऐसा राक्षस, जो आदमियों को खाता हो और हड्डियों के पहाड़ जमा करता हो। जानवरों को तो खाते हैं, पर आदमियों को कोई नहीं खाता। पुराने जमाने की परिस्थितियाँ भिन्न थीं, जो आज नहीं हैं। आज कंस कहाँ है? दुर्योधन कहाँ है? पहले आदमी हमलावर होते थे हमलावरों की मारकाट करने के लिए भगवान् को भी हमलावरों के तरीके से अवतार लेने पड़ते थे। वे तलवार लेकर आते थे, लाठी लेकर आते थे, चक्र सुदर्शन लेकर आते थे। तीर-कमान लेकर आते थे। पैने-पैने दाँत लेकर आते थे। उस समय जो हमले होते थे, प्रत्यक्ष होते थे। उस जमाने के आक्रमणकर्ता उद्दंडों के रूप में सामने आते थे। दुष्टों के रूप में, दुराचारियों के रूप में, राक्षसों के रूप में सामने दिखाई पड़ते थे। सामने दिखाई पड़ने वाले ऐसे दुष्टों की मारकाट करने के लिए भगवान् भी उसी रूप में आ जाते थे।
आज भी अवतार जरूरी
मित्रो! हिरण्यकशिपु, महिषासुर, मधु कैटभ, शुंभ, निशुंभ, रावण, कंस आदि सभी प्रत्यक्ष आते थे और सामने चैलेंज करते थे और देवी दुर्गा हाथ में तलवार और भाला लेकर उन पर हावी हो जाती थीं और सिंह पर सवार होकर मारकाट कर डालती थीं। उस जमाने में ये प्रत्यक्ष थे, इसलिए पिछले वाले अवतार जो कोई भी हुए हैं, वे सारे के सारे अवतार प्रत्यक्ष अवतार हुए हैं। विध्वंस करने वाले हुए हैं, क्योंकि उस समय जो सत्ताएँ अनीति फैलाती थीं, प्रत्यक्ष थीं। मारकाट करने वाली थीं। उद्धत थीं, आक्रमण करने वाली थीं। इसलिए भगवान् को अब तक अवतार भी उसी तरीके से लेने पड़े। आज भी अवतार की आवश्यकता है। आज अवतार की आवश्यकता क्यों है? बेटे, आज अवतार की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि पुराने जमाने से आज की स्थिति और अधिक खराब है। वह ज्यादा अच्छी नहीं है।
आज की समस्या है परोक्ष, और ज्यादा सूक्ष्म
मित्रो! एक बीमारी वह होती है, जिसमें चाकू मारा और घाव बना दिया। अब क्या होने वाला है? देखिए हमारा बड़ा घाव बना दिया और खून निकल रहा है और हम मरने वाले हैं। दूसरी एक और तरह की शिकायत होती है। इसमें चेहरा ज्यों का त्यों बना रहता है, पर फेफड़ों में टी.बी. के बैक्टीरिया-वायरस समा जाते हैं और वे उसे धीरे-धीरे खोखला करते चले जाते हैं और हम बराबर मौत के मुँह में घिसटते चले जाते हैं। अब आप भी मरेंगे और हम भी मरेंगे, क्योंकि हमको टी.बी. के कीटाणुओं ने मार डाला है और हम खोखले हो गये हैं और मौत के मुँह में जा रहे हैं। हम भी मर रहे हैं और आप भी मर रहे हैं। क्यों मर रहे हैं? हम इसलिए मर रहे हैं कि हमारे जख्म हो गये हैं और देखिए हमारी टाँग टूट गयी है और हमको सेप्टिक हो गया है और हमको टिटनस की शिकायत हो गयी है। दोनों में क्या फरक पड़ा? कुछ भी फरक नहीं पड़ा। एक प्रत्यक्ष है और एक परोक्ष है। आज भी ठीक उसी प्रकार के संकट मनुष्य के सामने हैं, जैसे प्राचीन काल में संकट थे, पर संकटों का स्वरूप अलग है। बाहर से हम ऐसे अच्छे-खासे मालूम पड़ते हैं। अच्छे कपड़े पहनकर बाजार में निकलते हैं, तब मालूम पड़ता है कि हमारे भीतर बहुत खुशहाली है। हमारे भीतर बहुत अच्छाई है। जब हम सिगरेट पीते हुए बाजार में या सिनेमा में जा बैठते हैं, तब मालूम पड़ता है कि हम बड़े शानदार आदमी हैं। हमारे बराबर अच्छा और सुखी आदमी कोई नहीं हो सकता है।
श्मशान का भूतः आज का आदमी
लेकिन मित्रो! आज के व्यक्ति का खोखा जब खोलकर देखा जाता है, तो मालूम पड़ता है कि वह जलता हुआ आदमी है। श्मशान के भूत की तरह है, जिसके लिए न कहीं मोहब्बत का सहारा रह गया है, न प्यार का सहारा रह गया है। आदमी मोहब्बत और प्यार से ही दुनिया में रहता हुआ चला जाता है। लेकिन आज किसी को किसी का भरोसा नहीं है। किसी को विश्वास नहीं है कि हमको किसी का सहारा भी मिल सकता है। बाप को भी यह विश्वास नहीं है कि जिस बेटे को पढ़ाकर के इतना बड़ा कर दिया और जब उसकी छोटी बच्ची ब्याह-शादी लायक होगी, तो बेटा सहायता करेगा कि नहीं? नहीं बेटे, सहायता की आशा अब नहीं करनी चाहिए। माँ को यह आशा नहीं करनी चाहिए कि मैंने अपने बेटे को पाल-पोसकर इतना बड़ा कर दिया। अब इसकी बहू आयेगी, तो मुझे शान्ति और राहत दे सकेगी। अब आपको यह आशा नहीं करनी चाहिए। अब आपको बड़े भाई से आशा नहीं करनी चाहिए कि वह छोटे भाइयों की सहायता करेगा।
दिखावटी शिष्टाचार, आज की दोस्ती
मित्रो! अब दिखावटी शिष्टाचार ज्यादा बढ़ता हुआ चला जा रहा है। अब हर आदमी शिष्टाचार के शब्द—‘थैंक यू वेरी मच’ के शब्द सीखता चला जा रहा है। तोता रटन्त के तरीके से आदमी के भीतर जाने क्या-क्या बुखार और जाने क्या-क्या जहर भरा पड़ा है, हम नहीं जानते। पुराने समय में दुश्मन सामने आते थे और हमला करते थे, लड़ाई करते थे, गाली-गलौज करते थे और मारकाट करते थे। आज ऐसा नहीं होता है। आजकल क्या होता है? आजकल का दुश्मन सामने से कभी नहीं आता। कहाँ से आता है? बगल में से आता है, पीठ पीछे से आता है और दोस्त की शकल बना करके आता है। आपकी जिंदगी में दुश्मनों से कोई जोखिम नहीं है। कोई दुश्मन आपको तंग करता हो तो, तो पुलिस में रिपोर्ट कर दीजिए। वह आपका कोई खास नुकसान नहीं कर सकेगा। लेकिन आपकी जिन्दगी में अगर तबाही होनी होगी, तो एक ही आदमी के साथ, एक ही आदमी के माध्यम से होगी और उसका नाम है—दोस्त। मेरा ख्याल है कि ऐसे दोस्त को दुश्मन कहना चाहिए। हमारे अधिकांश बच्चे जो तबाह होते हैं, बर्बाद होते हैं, वे कैसे होते हैं, आप बता सकते हैं? जो यह सारी की सारी आवारागर्दी का कसूर है, उसका एकमात्र कारण है—दोस्त। लड़कियों की जिन्दगियाँ कौन खराब करते हैं? दोस्त। दोस्त से ज्यादा दुश्मन आज के जमाने में शायद ही कोई हो सकता है। अच्छा हो कि आप किसी से दोस्ती न करें। अपने काम से चुपचाप घर को जायें, खेत को जायें, बैठ कर राम का नाम लें, चुपचाप सो जायें। दोस्ती न करें, तो ही अच्छा है।
विश्वास नहीं रह गया
तो महाराज जी! क्या दोस्ती करना खराब है? अरे बेटे! दोस्ती को मैं खराब कैसे कह सकता हूँ? प्यार को मैं खराब कैसे कहूँगा? मित्रता को मैं खराब कैसे कहूँगा? मित्रता तो बहुत अच्छी बात है। सहयोग बहुत अच्छी बात है। लेकिन आज के जमाने में, जिसमें आदमी के लिए हैरानी और परेशानी का ठिकाना नहीं है। आज सारी दोस्ती खतम, मित्रता खतम, विश्वास खतम और आदमी का चरित्र खतम हो गया है। आपके बारे में तो हम कुछ नहीं कह सकते, लेकिन आदमी का चरित्र गिरते-गिरते आज कहाँ पहुँच गया है, आपको मालूम है? अगर आपको यह जानना हो, तो आप धर्मशाला में जाइये और बस एक थैला लेकर के जाइये और मैनेजर से कहिए कि हमको आज रात यहाँ ठहरना है। मैनेजर आपको सिर से पैर तक देखेगा और जब यह देखेगा कि आपके पास सामान तो कुछ है नहीं, तो कहेगा कि क्या बतायें साहब! आजकल बड़ी भीड़ है। सारी धर्मशाला भरी पड़ी है। अब हमारे यहाँ तो जगह नहीं है, आप पड़ोस वाली धर्मशाला में जाइये शायद वहाँ जगह मिल जायेगी। पड़ोस वाली धर्मशाला वाला भी यही कहता है कि अरे भाई साहब! यहाँ जगह कहाँ से आयी? बिलकुल जगह नहीं है। आप वहाँ जाइये।
शक-सन्देह सभी जगह
आप किसी भी धर्मशाला में जाइये, हर जगह आपको एक ही जवाब मिलेगा कि कोई जगह खाली नहीं है। आप चले जाइये, हम आपको जगह नहीं दे सकते। क्यों साहब? क्या वजह है? अच्छा अब आप एक काम कीजिए। एक बिस्तर लीजिए, एक अटैची लीजिए। अगर आपके पास नहीं है, तो पड़ोसी से दोनों माँग लीजिए और फिर दूसरे दिन बिस्तर और अटैची लेकर उस धर्मशाला में जाइये और कहिए कि भाई साहब! जगह है? हाँ साहब! बिल्कुल खाली पड़ी है। इस बरसात में तो कोई नहीं आया। अरे लड़के! जरा इनके लिए ठहरने का इन्तजाम कर देना। क्या मतलब है इसका? यह कि आदमी की हैसियत उस हिसाब से है जिस हिसाब से आपके बिस्तर की कीमत है, अटैची की कीमत है। आदमी की कोई कीमत नहीं, आदमी का कोई विश्वास नहीं। हमारे घर पर कोई मेहमान आता है, तो हमको बराबर डर लगा रहता है कि यहाँ हमारी तिरपाल में पैसे रखे हैं, कहीं कोई चुरा न ले जाय। घड़ी रखी है, कोई चुरा न ले जाय। बीबी के बक्से में से सामान न निकाल ले जाय। उसके ऊपर बराबर शक बना रहता है। मेहमान को ठहराना तो पड़ता है, उसे कैसे भगा दें? लेकिन जब घर से बाहर जाते हैं, तो लड़कियों से कह जाते हैं, लड़कों से कह जाते हैं, औरत से कह जाते हैं कि घर में मेहमान ठहरा है, जरा ध्यान रखना, कहीं कोई सामान न ले जाय।
घिनौना, आज का इंसान
मित्रो! आज आदमी का विश्वास है? नहीं, आदमी का विश्वास ही चला गया है। आदमी का चरित्र और आदमी का विश्वास न जाने कौन ले गया? आदमी की मोहब्बत न जाने कौन ले गया? आज आदमी इतना घिनौना और कमीना हो गया है। मैं कह नहीं सकता कि आज का आदमी जैसा घिनौना और कमीना हो गया है, वह किसी और जमाने में ऐसा हुआ होगा। वह पढ़ा-लिखा हुआ है, ग्रेजुएट है, उसने इण्टरमीडिएट किया हुआ है, पोस्ट ग्रेजुएट है, पर मैं यह कहता हूँ कि विश्वास की दृष्टि से, चरित्र की दृष्टि से वह ऐसा वाहियात आदमी है कि इसके लिए वही ठीक है जैसा कि प्रत्येक दफ्तर के बाहर लिखा रहता है। प्रत्येक दफ्तर के बाहर क्या लिखा रहता है? ‘बिना आज्ञा के प्रवेश निषेध’। ‘नो एडमीशन’—बिना आज्ञा के प्रवेश मत कीजिए। एक शब्द और लिखा रहता है—‘नो वेकेन्सी’। यहाँ कोई जगह खाली नहीं है। किनके लिए ‘नो वेकेन्सी’ लिखा है? इन बेहूदों के लिए। इनका नाम क्या है? बेहूदे। बेहूदे आदमी हर जगह मारे-मारे फिरते हैं, लात खाते फिरते हैं। हर जगह रोते-चिल्लाते फिरते हैं, हरामखोर।
इंसानियत रह नहीं गयी
हरामखोर कौन हैं? जो मेहनत नहीं करना चाहते हैं, मशक्कत नहीं करना चाहते हैं और सफेदपोश बन करके पंखे के नीचे बैठकर गुजारा करना चाहते हैं। न पसीना बहाना चाहते हैं, न श्रम करना चाहते हैं और हराम का माल मारना चाहते हैं। दफ्तर में बैठेंगे, पंखे में बैठेंगे और बाबू जी बनेंगे, साहब जी बनेंगे। ‘नो वेकेन्सी’ का जवाब ही इनके लिए ठीक है। इन्हें हटाइए, भगाइये, निकालिए। हर जगह निकम्मे और बेकार आदमी, वाहियात आदमी और काहिल एवं जाहिल आदमी भरे हुए हैं। अभी और गालियाँ इन्हें सुनाऊँ। आप सुनेंगे? जहाँ देखो, बेकार आदमी मारे-मारे फिरते हैं। आदमी न जाने कहाँ चला गया है। आज आदमी से आदमी हैरान है। बाहर वाला हैरान हो सो हो, घरवालों के नाक में भी दम है। औरत की नाक में दम है। बच्चे हो गये हैं, तो बेचारी सुहागिन भी नहीं रहना चाहती है और विधवा भी नहीं रहना चाहती है। दोनों तरफ से आफत आ गयी है। गोदी में बच्चा है। यदि बच्चा न होता, तो तलाक देकर चली जाती। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि यदि वह तलाक नहीं देती, तो भीख माँगती और कुछ करती, पर आपके यहाँ नहीं रहती। बेचारी आपके यहाँ रह तो रही है, पर फाँसी के तख्ते पर खड़ी हुई है। क्यों? क्योंकि इंसान है। आदमी जाहिल है, जिसके साथ में गले से कोई लड़की बाँध तो दी गयी है, पर किसी तरीके से रो-झींक करके मौत के दिन पूरे कर रही है।
बेअकली ने मार डाला
मित्रो! आपकी औरत को आपसे कोई संतोष नहीं है। आपके बाप को आप से कोई संतोष नहीं, आपकी माँ को आपसे कोई संतोष नहीं। आपके भाई को आपसे कोई संतोष नहीं और आपकी बहन को आपसे कोई संतोष नहीं है। आपके बच्चों को आपसे कोई संतोष नहीं है। अरे यह कौन है? आदमी है या भूत-पलीत? मित्रो! आदमी क्या होता चला जाता है? आदमी भूत-पलीत होता चला जाता है। आदमी को जाने क्या हो गया है? आदमी का स्वभाव, आदमी की आदतें ऐसी वाहियात हो गयी हैं कि उसने अपने कुल्हाड़े से अपनी ही टाँगें काट डालीं। कैसे काट डालीं? उसने अपनी सेहत को इतनी बुरी तरह से तबाह कर डाला है, जैसे कि दुनिया में आज तक इतनी बुरी सेहत हुई नहीं थी। बीमारियाँ जिस कदर इस जमाने में फैली हुई पायी जा सकती हैं, उतनी बीमारियाँ दुनिया के पर्दे पर जबसे इंसान जमीन पर पैदा हुआ है, तब से लेकर आज तक नहीं थीं। आदमी आज इतना कमजोर, इतना बीमार, इतना दुर्बल, रोगी और खोखला हो गया है कि इतिहास में ऐसा कभी नहीं था। क्यों साहब! क्या वजह हो गयी? आदमी की बेअकली ने उसे मार डाला।
गिरती सेहत, ऊपर से बहु-प्रजनन
मित्रो! मैं आपसे एक दिन बेअकली की बावत कह रहा था। आदमी की बेअकली ने उसकी सेहत को खतम कर दिया। आदमी को खतम कर दिया। आदमी की परिवार व्यवस्था को खतम कर दिया। आदमी की संतानों को खतम कर दिया। आप संतानें पैदा कर लीजिए। आपको जितनी मुसीबतें उठानी हो, उतनी संतानें पैदा कर लीजिए। आपको अगर सौ मन मुसीबत उठानी हो, तो एक संतान पैदा कीजिए और दो सौ मन उठानी हो, तो दो संतानें पैदा कीजिए। तीन सौ मन उठानी हो, तो तीन संतानें पैदा कीजिए। नहीं साहब। इससे हमारा वंश चलेगा। बेटे, वंश नहीं चलेगा, पिटाई होगी। तेरी संतानें तेरी मूँछें उखाड़ेंगी और तेरे सिर के बालों पर जूते पड़ेंगे। नहीं महाराज जी! मेरे यहाँ संतान हो जाए। जाहिल! इससे इस जमाने में क्या हो जायगा? आज के जमाने में जैसा हमारा चरित्र और व्यक्तित्व है, घर-परिवार में जैसा वातावरण है, उसमें ढल-ढलकर जो आदमी आने वाले हैं, वे कैसे आने वाले हैं? ऐसे आने वाले हैं, जैसे बिच्छू। बिच्छू कैसे होते हैं? बेटे, बिच्छू ऐसे होते हैं कि जब वे अपनी माँ के पेट में से जन्म लेते हैं अण्डे के रूप में, तो अण्डे पेट में ही फूट जाते हैं और पेट में ही बच्चे बनने लगते हैं। फिर क्या करते हैं? खुराक में अपनी माँ का ही पेट खाना शुरू कर देते हैं। फिर क्या करते हैं? जब वे पेट में रहते हैं, तो अपनी माँ के पेट का सारा माल-मसाला खाकर के साफ कर देते हैं। जब माँ बिलकुल खोखली हो जाती है और उसके भीतर के सारे कल-पुर्जे खतम हो जाते हैं और उसकी माँ का जो हिस्सा रह जाता है, उसको छीलकर बाहर निकल आते हैं। इनका क्या नाम है? बिच्छू।
हर जगह कंगाली
मित्रो! आज आपके घरों में कौन पैदा हो रहा है? बिच्छू। आदमी बिच्छू है। घरों को, परिवारों को जिन नये उमर के लोगों से लाभ होना चाहिए था, वह लाभ नहीं हो रहा है। आपको दिखाई नहीं पड़ रहा है? साहब! हमको तो दिखाई देता है। आपको क्या दिखाई पड़ता है? आपको हर जगह दरिद्रता दिखाई पड़ती है, कंगाली दिखाई पड़ती है। दौलत बढ़ती चली जाती है, मगर आदमी का असंतोष कंगाली की तरह फैलता चला जाता है। इसमें आपकी आर्थिक स्थिति क्या करेगी? गुरुजी। हमारा तो दिवाला निकला चला जा रहा है। हम तो बड़े परेशान हैं, बहुत हैरान हैं। हाँ बेटे, जरूर होगा हैरान। अच्छा कितना कमाता है? गुरुजी। आपको तो मालूम ही है कि क्या कमाता हूँ। कुल साढ़े छः सौ रुपये मिलते हैं। तुम लोग कितने सदस्य हो? हम है, हमारी बीबी है और दो बच्चे हैं। बेटे, साढ़े छः सौ रुपये तो बहुत होते हैं। अरे महाराज जी! इतने रुपये बहुत कैसे होते हैं? पहली तारीख को तो सारे घर का खर्च हो जाता है, फिर जाने कहाँ-कहाँ से गुजारा करते हैं।
हमने जिया है शानदार जीवन
बेटे! तू हमारा हिसाब देख ले। पैंतीस साल हमने घीयामण्डी-के अखण्ड ज्योति कार्यालय में निकाले हैं। पैंतीस साल के हिसाब के पर्चे हमारे पास रखे हैं। हर साल का एक-एक पैसे का हिसाब हमने रखा है। दो सौ रुपये मासिक में हम और हमारी बीबी, दो बच्चे और हमारी माँ पाँच आदमियों का खर्च आसानी से चल जाता था। दो सौ रुपये महीने में ऐसा बढ़िया शानदार तरीके से घर चलाया कि किसी ने आज तक अन्दाजा नहीं लगाया कि हम गरीबी से जीवन जीते हैं कि कंगाली से जीवन जीते हैं। आपको तो पैसा खर्च करने के बारे में पता ही नहीं है। इसीलिए दरिद्रता और कंगाली बनी हुई है। दरिद्रता न ईमानदारी से पूरी होती है, न चोरी से पूरी होती है, न बेईमानी से पूरी होती है और न कर्ज लेने से पूरी होती है। यह दरिद्रता किसी तरह पूरी नहीं होती। दरिद्रता तो तब से है, जब से तू पैदा हुआ था। यह तब से तेरे साथ आयी थी और जब तक तू मौत के मुँह में चला जायेगा, तब तक दरिद्रता तेरा पिण्ड नहीं छोड़ेगी। क्यों? क्योंकि तू पैसे का उपयोग ही नहीं जानता। केवल अपव्यय जानता है। आपने अपव्यय कहाँ देख लिया? बेटे, आदमी न मेहनत करता है, न परिश्रम करता है, न योग्यता बढ़ाता है, केवल अपव्यय बढ़ाता हुआ चला जाता है। इससे दरिद्रता नहीं बढ़ेगी क्या? बढ़ेगी। और क्या होगा? और क्या कह सकते हैं हम?
(क्रमशः)
एक फिजाँ, एक ही हवा; हो अब अवतार
इससे पूर्व इस महत्त्वपूर्ण उद्बोधन की प्रथम कड़ी में आपने पढ़ा कि पूज्य गुरुदेव बता रहै हैं कि भगवान् को भी समय-समय पर इस दुनिया की मरम्मत करने आना पड़ता है। उसी को कहा गया है ‘‘संभवामि युगे युगे’’। बारम्बार सृष्टि में असंतुलन हुआ, बार-बार भगवान् को अवतार लेना पड़ा। कच्छप को समुद्र मंथन हेतु, वाराह को लक्ष्मी को उबारने हेतु, नरसिंह को उच्छृंखलता के निवारण हेतु, वामन को संकीर्णता मिटाने हेतु, परशुराम एवं राम को अनीति से जूझकर मर्यादाओं की स्थापना हेतु आना पड़ा। पूर्ण पुरुष श्रीकृष्ण नीति स्थापित करने आए। यही क्रम करुणावतार बुद्ध का था। पर आज की समस्याएँ पुराने सभी अवतारों के समय से कई गुना अधिक गंभीर है। समस्या अधिक सूक्ष्म है, परोक्ष है। आज का आदमी श्मशान का भूत सा बनकर रह गया है। अविश्वास, छल-छद्म ही चारों ओर दिखाई देता है। बहुप्रजनन से सेहत गिरती जा रही है। व्यक्ति शारीरिक-मानसिक दृष्टि से खोखला हो गया है। समष्टिगत कंगाली की चर्चा करते हुए गुरुवर ने बताया कि सीमित राशि में विश्वयुद्ध के दिनों से लेकर १९७१ तक, उनने कैसे घर चलाया? आज का आम आदमी वैसा जीवन क्यों नहीं जी पा रहा। पूर्व के संदर्भ संक्षेप के बाद अब आगे पढ़ें।
आदमी, आदमी को सुहाता नहीं
मित्रो! आपने कभी देखा है कि आदमी के सामाजिक विग्रह किस तरह से बढ़ते चले जाते हैं। आदमी-आदमी को कैसे खाता है? आदमी-आदमी को कैसे चूसता है? आदमी रिश्तेदार से लिपटकर उसका सफाया कैसे करता है? आपने कभी देखा है? नहीं देखा है तो, तो चलिए मैं आपको ब्याह-शादी के दिनों में दिखा दूँगा। दो समधी आपस में मिलते हैं और लाल रंग का सिन्दूर एक दूसरे के माथे पर लगाते हैं। फिर छाती से छाती मिलाते हैं। आइये साहब! आप हमारे बहुत बड़े मित्र हैं। आपकी बेटी और हमारा बेटा..........हाँ साहब! आइये हम दोनों छाती से छाती मिलायेंगे। बेटे, इतिहास में भी एक बार छाती से छाती मिलाई गयी थी। किसने मिलाई थी? एक थे शिवाजी और एक थे अफजल खाँ। अफजल खाँ ने कहा कि आइए भाई साहब! हम छाती से छाती मिलायेंगे और दोनों दोस्त बन जायेंगे। दोस्तों ने खूब छाती से छाती मिलाई। अफजल खाँ ने शिवाजी की पीठ पर छुरी घोंप दी। शिवाजी ने भी बाद में हाथ में बघनखा पहनकर उसके कलेजे में भोंक दिया और सारी आँतें खींच डालीं। नहीं साहब! यह तो बहुत बुरा हुआ और यह सब केवल इतिहास में पाया जाता है। नहीं बेटे, चल, हम तुझे रोज दिखा लावें। इसका क्या नाम है? इसका नाम है—समधी।
हत्यारी, डायन दहेज प्रथा
समधी किसे कहते हैं? समधी उसे कहते हैं, जो दूसरे वाले पक्ष की आँतें निकाल लेता है। आँतें कौन निकाल लेता है? समधी। किसकी निकाल लेता है? रिश्तेदार की। जिसकी लड़की घर में आने वाली है, उस रिश्तेदार की, उस लड़की के भाई की, उस लड़की की माँ की आँतें निकाल लेता है। सारे के सारे घर को बर्बाद करके, तबाह करके चला जाता है। यह कौन है? इसका नाम है—राक्षस। राक्षस कैसा होता है? राक्षस ऐसा होता है, जैसे कि समधी होता है। समधी कैसा होता है? समधी ऐसा होता है, जो दहेज के बिना शादी-ब्याह नहीं कर सकता। इसका क्या नाम है? इसका नाम है—चाण्डाल। इसका नाम है—पिशाच। इसका नाम है—हत्यारा। अभी और गालियाँ दूँ? इसे अभी और गालियाँ देने दीजिए मुझे। बेटे, आप और हम में से ही वे आदमी हैं जालिम और जाहिल। मैंने थोड़े ही दिन पहले यह कोशिश की थी कि दहेज प्रथा मिटाने के लिए प्रयत्न करूँ। अब हमारा गायत्री परिवार बहुत बड़ा हो गया है और इसके भीतर दस लाख आदमी हैं (नोटः यह तत्कालीन आँकड़े हैं।) सब बिरादरी के लोग हैं। इनके आपस में ब्याह-शादी का सिलसिला जमा दूँ, तो ज्यादा अच्छा है। इसीलिए मैंने प्रयत्न किया था और दहेज विरोधी आन्दोलन चलाया था और यह कहा था कि आइए, हम आपकी लड़की का ब्याह-शादी करा देंगे। अखण्ड-ज्योति में भी छापा था कि आप अपने बच्चे-बच्चियों की रिपोर्ट भेज दीजिए, ताकि हम आपके लड़के, लड़कियों के लिए अच्छे और मुनासिब लड़के, लड़कियाँ तलाश कर सकें।
नासमझ, दुष्ट चेले
फिर क्या परिणाम हुआ? पाँच हजार के करीब लड़कियों के फोटोग्राफ आ गये। उनके वर्णन हमारे पास आ गये कि लड़की पाँच फुट तीन इंच की है। गोरे रंग की है। बाल इतने लम्बे हैं। वजन इतना है। इण्टरमीडिएट तक पढ़ी है। सबके सब डिटेल्स आ गये। और लड़कों के? लड़कों का सफाया। लड़कों के मात्र पन्द्रह-बीस आवेदन आये और वे ऐसे थे कि जिनके बाप-दादों के ब्याह नहीं हुए होंगे। इनमें से कोई लँगड़ा था, कोई काना था, कोई गूँगा था, कोई बहरा था। किसी के चार-पाँच बच्चे थे। कोई कैसा था-कोई कैसा था। ऐसे ही दस-बीस पत्र ब्याह के लिए आये। मैंने खुद कोशिश भी की और थोड़े से आदमियों की लड़कियों के ब्याह भी करा दिये। गुरुजी! हमारी भी लड़कियाँ हैं। हाँ बेटे, हम देख लेंगे। जैसे तू दहेज नहीं लेता है, ऐसे ही दूसरे आदमी भी मिल जायेंगे और हम तेरी लड़की का ब्याह करा देंगे। उनके तो हमने लड़की के ब्याह-शादी करा दिये, लेकिन जब उनसे पूछा कि भाई साहब! आपका लड़का भी बी.ए., एम.ए. पास है? नहीं गुरुजी! आपका कहना तो ठीक है, पर हमारी मौसी नहीं मानती। हमारा नाना नहीं मानता। हमारा ताऊ नहीं मानता। हमारा फूफा नहीं मानता।
लड़की की बात पर दहेज विरोधी
मित्रो! जब लड़के की बात आती है, तब कोई नहीं मानता है। इसलिए इन चाण्डाल लोगों के, पिशाचों के बीच में हस्तक्षेप करना बेकार है। नहीं साहब! हमारी लड़की के लिए लड़का बता दीजिए। नहीं बेटे, न मैं तेरी लड़की को लड़का बताऊँगा और न लड़के के लिए लड़की बताऊँगा। क्यों? क्योंकि तुम हत्यारे हो। आपस में लड़ो। भेड़िये-भेड़िये को खायें। मैं क्या कर सकता हूँ? जब लड़की का सवाल होता है, तो हर आदमी दहेज विरोधी हो जाता है और जब लड़के का सवाल आता है, तो आदमी ऐसा पिशाच बन जाता है कि दाँत और पंजे बाहर निकालकर आ जाता है और गुरुजी का मखौल उड़ाता है, हँसी उड़ाता है। मर हत्यारे, भाड़ में जा।
ज्यादा पढ़ा लिखा, और खतरनाक
मित्रो! क्या करना चाहिए? इससे कोई समस्या हल होगी? कोई समस्या हल नहीं होगी। क्योंकि आदमी इतना बदमाश और इतना बदकार, इतना जाहिल और जालिम हो गया है कि मैं क्या कह सकता हूँ? यह कैसे हो गया? आदमी के भीतर शैतान घुस गया। तो क्या पढ़ाने से यह शैतानी दूर हो जायेगी? नहीं बेटे, पढ़ाने से बढ़ेगी, आज जितना ज्यादा पढ़ा-लिखा आदमी मुझे दिखाई पड़ता है, उसके अन्दर मुझे शैतान और भी ज्यादा बड़ा दिखाई देता है। जो आदमी कम पढ़ा-लिखा है, उसके तो नाखून और पंजे कम हैं। इसलिए वह कम शैतानी कर सकता है। उसके पास ताकत कम है, इसलिए हमले भी कम कर सकता है। लेकिन ज्यादा पढ़ा-लिखा आदमी; जिसके पास समझ ज्यादा है और अकल ज्यादा है, वह दुनिया में तबाही ज्यादा करेगा। आज की परिस्थितियों में हम देखते हैं कि व्यक्ति कितना अशान्त, कितना विक्षुब्ध, कितना दुःखी, कितना उद्विग्न जीवन बिता रहा है। रात को चैन नहीं, दिन को चैन नहीं। मरघट के भूत-पिशाच जैसे जलते रहते हैं, आदमी भी हर समय-चौबीसों घंटे चिन्ता में अपने आपको जलाता रहता है। शारीरिक बीमारियों से, मानसिक बीमारियों से आदमी की दुर्गति आज जितनी है, मैं सोचता हूँ इतिहास में ऐसी दुर्गति कभी नहीं हुई। बाहर से आदमी लिफाफा बन बैठा है। बढ़िया वाला पैंट पहनकर निकलता है, लेकिन आदमी के भीतर किस तरीके से हाहाकार मचा है, अगर आपको यह देखना हो, तो कृपा करके आप अमेरिका चले जाइये और देखिए कि ट्रैंक्युलाइजर की गोली खाये बिना आदमी को नींद नहीं आती। क्यों? अशान्ति, टेंशन, तनाव आदमी को खाये जा रहा है। शान्ति नहीं है।
हैवानियत की पराकाष्ठा
मित्रो! हम लोग जिस सामाजिक व्यवस्था में रह रहे हैं, वैयक्तिक जीवन में रह रहे हैं, उसमें टेंशन के सिवा और क्या चीज हाथ आ सकती है? असंतोष के अलावा, विक्षोभ के अलावा, रोष के अलावा क्या पल्ले पड़ने वाला है? क्रोध के अलावा क्या पल्ले पड़ने वाला है? चैन कहाँ से आ जायेगा? शान्ति कहाँ से आयेगी? नहीं साहब! गायत्री माता से चैन आ जायेगा? अरे। गायत्री माता से कैसे चैन आ जायेगा? बेटे, यह तेरा चैन, यह अशान्ति कोई दूर करने वाला नहीं है। आज आदमी हैवान होता जाता है, शैतान होता चला जाता है। आज आदमी ने हैवानियत की मंजिल पार कर ली है और अब आदमी शैतान की चार-दीवारी की ओर बढ़ता चला जाता है। मैं यह आज की परिस्थितियों का विश्लेषण कर रहा हूँ। वैयक्तिक बात कर रहा हूँ, सामाजिक बात कर रहा हूँ। आदमी के पास हर समय जहर तैयार है। आपको खुराक खानी हो, तो आप हर जगह से जहर खाने के लिए जाइये। आपको आटा खरीदना हो, तो लकड़ी का बुरादा मिला हुआ खाइये। आपको लाल मिर्च खानी हो, तो गेरू मिलाकर खाइये। आपको दूध की जरूरत हो, तो ब्लाटिंग पेपर की मलाई जमा हुआ और अरारोट मिला हुआ पानी पी लीजिए। इस जमाने से तो वह अच्छा था, जो सेलखड़ी पानी में मिलाकर द्रोणाचार्य ने अपने बेटे अश्वत्थामा को पिला दिया था। लीजिए साहब! खड़िया पी लीजिए। ठीक है। तब खड़िया भी प्योर थी। आज तो खड़िया भी आपको नहीं मिल सकती। आज हर चीज अशुद्ध है।
बड़ी विषम है विभीषिका
मित्रो! आज आदमी इतना अविश्वस्त और अप्रामाणिक हो गया है और जिस समाज में अप्रामाणिक और अविश्वस्त व्यक्ति भरे पड़े हों, उस समाज में भला खुशहाली कैसे आयेगी? चैन कैसे आयेगा? संतोष कैसे आयेगा? आदमी आज इस बुरी तरह से जल रहा है, जैसे कि मैंने सुना है कि राजा सगर के साठ हजार बेटों को कपिल मुनि शाप दे दिया था, तो उसके कारण वे सब जल रहे थे, भुन रहे थे। भगीरथ ने तप किया था और गंगा जी को लाये थे और गंगाजी को लाने के बाद में राजा सगर के जल रहे पुत्रों को मुक्ति दिलायी थी। प्राचीन काल के इतिहास से यह मालूम पड़ता है कि आज भारत माता के पुत्र, मानव जाति के पुत्र, मनु की संतानें इसी तरह से जल रही हैं जैसे कि मैं आपसे निवेदन कर रहा था। आज की परिस्थितियाँ ऐसी हैं, जिनमें मनुष्य तबाही की ओर जा रहा है। मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि दो-दो लड़ाइयाँ हो चुकी हैं, दो महायुद्ध हो गये हैं और अब तीसरा हुआ, तो दुनिया का ठिकाना नहीं रहेगा। क्योंकि हम जानते हैं कि हथियार इतने जबरदस्त बने हैं, जो आज दुनिया में कहीं भी चला दिये गये, तो एक हथियार दुनिया को समाप्त कर देने के लिए काफी है। नागासाकी और हिरोशिमा पर दो छोटे-छोटे बम गिराये गये हैं। आज उनकी तुलना में एक लाख गुनी ताकत के बम बनकर तैयार है। यदि एक पागल आदमी बस एक बम चला दे, तो मैं कहता हूँ कि कुछ आदमी तो वैसे ही मर जायेंगे, बाकी आदमियों के लिए हवा जहर बन जायेगी। जहरीली हवा, जहरीला पानी, जहरीले अनाज और जहरीले घास-पात को खा करके आदमी जिन्दा नहीं रह सकता। तब सारी दुनिया के आदमी खतम हो जायेंगे। ऐसी है विभीषिका।
ठण्डी आग, परोक्ष संकट
मित्रो! विभीषिका अभी आयी तो नहीं, पर सामने खड़ी है। एक तो गरम आग है, जो हथियारों के रूप में दिखाई पड़ती है और एक ठण्डी आग है, जो आपको दिखाई नहीं पड़ती। ठण्डी आग क्या है? ठण्डी आग है—बच्चों का अंधाधुन्ध पैदा होना, सेक्स के ऊपर नियंत्रण का अभाव। आदमी बच्चे पैदा करता ही चला जा रहा है। अरे! इतने बच्चों का क्या होगा, बताना जरा? इसे गुणनक्रम के हिसाब से मल्टीप्लाई करके देखिए, तो पता चलेगा कि इनका क्या होना है। एक आदमी के पाँच, पाँच के पच्चीस और पच्चीस के कितने और कितने के कितने? गुणनफल बनाते चले जाइये और आप देखेंगे कि यही प्रक्रिया बच्चे पैदा करने की-औलाद पैदा करने की आदमी की हवस और बेअकली है। और यदि यह इसी क्रम से जिन्दा रही, तो आप देख लेना क्या परिणाम होता है। अभी तो स्कूलों में जगह नहीं मिलती। नौकरियों को आप जाने दीजिए। फर्स्ट डिवीजन आपका बच्चा होगा, तो कॉलेज में दाखिला मिलेगा और अगर थर्ड डिवीजन में होगा, तो भाड़ में गिरे, जहन्नुम में जाये। क्यों साहब? पढ़ेगा नहीं? पढ़ने की कोई जरूरत नहीं और कोई गुंजायश नहीं। नौकरी के लिए पढ़ा रहे हैं या पढ़ने के लिए? बेटे, मैं पढ़ने के लिए कह रहा हूँ और तू नौकरी के लिए चिल्लाता है। पढ़ने के लिए स्कूलों में तो क्या, सड़क पर भी जगह नही है। मुसाफिरखानों में जगह नहीं है। धर्मशालाओं में जगह नहीं है? बसों में जगह नहीं है। गाड़ियों में जगह नहीं है। यह कौन पैदा हो रहा है? कीड़े पैदा हो रहे हैं, जैसे कि मच्छर पैदा होते हैं, मक्खियाँ पैदा होती हैं।
आदमी की बेअकली
मित्रो! अनावश्यक बच्चे पैदा हो रहे हैं और आदमी की बेअकली दूर नहीं हो रही है। बाप की आर्थिक स्थिति चौपट होती चली जा रही है और माँ की सेहत खतम होती जा रही है। बच्चों का भविष्य खतम हुआ जा रहा है और समाज की व्यवस्था खतम हुई जा रही है। सब कुछ खतम होता हुआ जा रहा है, पर आदमी इस बेअकली से बाज नहीं आना चाहता। नहीं साहब! हमारे तो बच्चा होना ही चाहिए और हमारे तो पोता होना ही चाहिए। यह बेअकल जमाना न जाने कहाँ जायेगा?
आ रही है दुनिया की तबाही
मित्रो! मुझे मालूम पड़ता है कि इस जमाने में विनाश प्रत्यक्ष तो नहीं आ रहा है, खुल्लमखुल्ला तो नहीं आ रहा है, दाँत निकालते हुए तो नहीं आ रहा है, पर घुन के तरीके से जरूर आ रहा है, जो मनुष्य को खोखला करता चला जाता है। कलेजे को खाता चला जाता है। आज की परिस्थितियाँ आपको दिखाई पड़ें चाहे न दिखाई पड़ें, परन्तु मैं आपसे कहता हूँ कि यही क्रम जो आज सन् १९७८ में है, अगर इसको अभी और जिन्दा रखा गया, तो आप देख लेना तीस साल बाद दुनिया की तबाही कैसी होती है। तीस साल बाद दुनिया में क्या होता है और दुनिया पर भगवान् का कोप और भगवान् की लानत किस तरीके से बरसती है। इस तरीके से लाखों आदमी जाने कहाँ से कहाँ चले जायेंगे। तब क्या होगा? भगवान् के शाप बाढ़ के रूप में बरसेंगे, तूफान के रूप में बरसेंगे, आँधी के रूप में बरसेंगे और किस रूप में बरसेंगे? आग के रूप में बरसेंगे, शोले के रूप में बरसेंगे, बुखार के रूप में बरसेंगे, मलेरिया के रूप में बरसेंगे। अगर यही हालत रही, तो आदमी के ऊपर तबाही बरसेगी, लानत बरसेगी। अगर आदमी ने अपने आपको सुधार न लिया तो मुश्किल हो जायेगी।
अवतार होगा, अकलमंदी के रूप में
मित्रो! अभी मैंने आपको आज की परिस्थितियों का स्वरूप बताया, जो बाहर से चमक-दमक भरी दिखाई पड़ती हैं और भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला, सब कुछ सर्वनाश, सब कुछ विनाश की आधारशिलाएँ तैयार कर रही हैं। इसको ठीक करने के लिए भगवान् किस रूप में आयेंगे? आज की समस्या बेअकली की है। बेअकली का निवारण करने के लिए काँटे को काँटे से निकाला जायेगा। कुएँ में डूबे हुए आदमी को निकालने के लिए कुएँ में ही डूबना पड़ता है। कुएँ में डूबे हुए आदमी को निकालिए? कैसे निकालेंगे? झंडी दिखाइये—साहब! कुएँ में से उछलकर ऊपर आ जाइए? नहीं साहब! ऐसे तो नहीं आ सकता। फिर क्या करना पड़ेगा? आप अपनी मर्जी से कुएँ में गिरिए और डुबकी लगाइये और मुझे खींचकर ले जाइये। मित्रो! काँटा से काँटा निकलता है। जहर से जहर को मारा जाता है और बेअकली की दवा अकलमन्दी से ही हो सकती है। बेटे, आपसे मैं वही कह रहा था कि अब की बार भगवान् का अवतार किसी रूप में होगा, तो वह पुराने अवतारों से भिन्न होगा।
प्रज्ञावतार—ऋषि होगा विवेक
मित्रो! बेअकली ऐसी है जो दिखाई नहीं पड़ती। इस नये युग के अवतार भी ऐसे होंगे, जिनको दिखाई पड़ने की जरूरत नहीं है। अबकी बार बिना दिखाई पड़ने वाले भगवान् होंगे और निराकार वाले भगवान् होंगे। उनका जो कार्यक्षेत्र होगा, वह आदमी की समझ और आदमी की अकल के अंतर्गत होगा। वे अकल के भीतर और समझ के भीतर काम करेंगे। इन भगवान् का नाम क्या होगा? इन अवतार का नाम क्या होगा?—प्रज्ञावतार। प्रज्ञावतार किसे कहते हैं? जिसको निष्कलंक अवतार कहा गया है। कलंक से रहित। कल मैंने आपको बताया था कि दुनिया में एक ही ऋषि है और उसका नाम है—विवेक और भगवान् की एक ही सत्ता निष्कलंक है, जिसका नाम है—विवेक। इसको न्याय कह लीजिए, इंसाफ कह लीजिए, औचित्य कह लीजिए। इसको आप प्रज्ञा कह लीजिए, बुद्धिमत्ता कह लीजिए। जो कुछ भी नाम देना चाहें, वह एक ही हो सकता है। इस समय पृथ्वी पर जो अवतार होने वाला है, उसको हम प्रज्ञावतार कह सकते हैं। प्रज्ञा किसको कहते हैं? गायत्री को। गायत्री मंत्र, जिसकी हम उपासना करते हैं और जिसका हम विस्तार करते हैं और जिसे हम फैलाना चाहते हैं। अब की बार का हमारे युग का सबसे बड़ा अवतार जो अब होने वाला है, गायत्री महाशक्ति के रूप में होगा। इसको—गायत्री महामंत्र को फैलाने का हम प्रयास कर रहे हैं।
हलचल, नूतन उल्लास—सविता का प्रकाश
गुरुजी! आप गायत्री मंत्र को फैलाने के लिए क्या प्रयास करते हैं? बेटे, हम यह देखते हैं कि सवेरे जब सूरज निकलता है, तो आपने भी देखा होगा कि प्रत्येक जाग्रत् आत्मा अपना कुछ न कुछ कृत्य शुरू कर देते हैं। चिड़ियाँ चहचहाना शुरू कर देती हैं, फुदकना शुरू कर देती हैं। चिड़ियों को मालूम पड़ जाता है कि अब सबेरा होने वाला है, इसलिए खुशी जाहिर करती हैं और अपने भगवान् की प्रार्थना शुरू कर देती हैं। हर जानवर अपनी हलचल, अपना काम शुरू कर देता है। ठण्डी हवा बहना शुरू कर देती है। आपने देखा होगा कि हवा बंद हो, तब भी सुबह के समय पर हवा चलना शुरू कर देती है और कौन चलता है? बेटे, सुबह हर प्राणी चलते हैं। सबेरे पशु जाग जाते हैं और चल देते हैं। मनुष्य चल देते हैं, जानवर चल देते हैं। कोई भूख की वजह से, कोई काम की वजह से चल देते हैं। कोई खुशी की वजह से, कोई उत्साह की वजह से चल देते हैं। हमें दिखाई पड़ता है कि हर प्राणी में हलचल पैदा हो जाती है। वृक्ष में हलचल पैदा हो जाती है, पत्तों में हलचल पैदा हो जाती है, पत्तों में हलचल पैदा होती है। सबेरा होते-होते फूल खिलने लगते हैं। और क्या होने लगता है? बेटे, सन्त और ऋषि इस समय में भगवान् का अवतार करने के लिए प्रार्थना करने लगते हैं। और क्या होता है? मुर्गा जंगल में चिल्लाता है। मुल्ला मस्जिद में और पंडित मंदिर में चिल्लाता है। हर जगह खुशी के दिन दिखाई पड़ते हैं और यह मालूम पड़ता है कि सबेरे के सूरज की आरती उतारने के लिए, सबेरे के सूरज की प्रशंसा करने के लिए हर जगह से हलचल पैदा हो गयी है।
ऋतम्भरा प्रज्ञा—युगशक्ति का हो रहा अवतरण
मित्रो! अब आप देख पायेंगे कि ऋतम्भरा प्रज्ञा, गायत्री महाशक्ति, जिसको मैं युगशक्ति कहता हूँ, अब जब कि उदय होने वाली है, तो आप सब लोगों में, खासतौर से जाग्रत् आत्माओं में हलचल मची हुई है। आप सबको मैं जाग्रत् आत्माएँ कहता हूँ ओर आपकी हलचलों के पीछे, आपके उत्साह के पीछे, आपकी श्रद्धा के पीछे, आपके त्याग और बलिदान के पीछे और आपकी गतिविधियों के पीछे मैं युगशक्ति गायत्री का उदय देखता हूँ। भगवान् रामचन्द्र जी जब संसार की सेवा करने के लिए, युग की सेवा करने के लिए चलने लगे, तब देवताओं ने कहा कि हम भी आपके साथ चलेंगे। हाँ! हम अकेले नहीं कर सकते। ठीक है, जब अवतार आता है, तो इसका श्रेय किसको मिला, किसको नहीं मिला, यह पीछे की बात है। परन्तु अवतार एक फिजाँ के रूप में आता है, तूफान के रूप में आता है, आन्दोलन के रूप में आता है, जिसमें लाखों लोग काम करते हैं। ध्यान रखिए, एक आदमी अकेले अवतार नहीं लेता। हजारों-लाखों आदमी साथ-साथ आते हैं। रामचन्द्र जी आये थे। उनके साथ में देवताओं ने अनेक रूप बना-बनाकर अवतार लिया था। कोई हनुमान् बन गया था, कोई रीछ बन गया था, कोई लंगूर बन गया था, कोई गिलहरी बन गया था, कोई जटायु बन गया था। सबने मिलकर भगवान् के मिशन को आगे बढ़ाया था।
जाग्रतात्माएँ श्रीकृष्ण के साथ आयीं
मित्रो! श्रीकृष्ण भगवान् जब आये थे, तो वे भी अकेले नहीं आये। उनके साथ में ढेरों आदमी आये थे। कौन-कौन आये? पाँच पाण्डव आये थे। पाँच पाण्डव कौन थे? देवता थे। किसे मालूम है? किसी को नहीं मालूम है। साहब! ये पाँच बच्चे कौन हैं? अरे साहब! ये कोई बच्चे नहीं हैं। ये देवता हैं? देवताओं ने अवतार लेकर के हमारा रूप बना लिया है और हमारे आँगन में खेल रहे हैं। और वे भगवान् के काम के लिए पैदा हुए हैं। पाँच देवताओं को हमने बुला लिया है। ये मनुष्य नहीं हैं। ये भगवान् हैं। महाराज जी! और कौन आये थे? बेटे, न जाने कितने थे, जो ग्वालबालों के रूप में आ गये थे। गोपियों के रूप में आ गये थे। जाने कितने आदमी इनके सहायक के रूप में आ गये थे। ये कौन थे? सहायक थे, जो अवतार के सहायक के रूप में आये थे। गाँधी अकेले आये थे? अकेले नहीं आये थे। उनके साथ टीम आयी थी। किसकी टीम थी? देवताओं की टीम थी, जिसने हजार वर्ष की गुलामी का कलंक धोकर फेंक दिया। वह एक टीम थी, जो देवताओं के तरीके से साथ आयी थी और उद्देश्य पूरा होने के बाद में चली गयी।
समूह मन का प्रतीक है अवतार
भगवान् बुद्ध के समय में अकेले एक बुद्ध नहीं आये थे। कितने बुद्ध आये थे? ढेरों बुद्ध आये थे। हिन्दुस्तान से लेकर सारे के सारे एशिया में और योरोप में आप देखिए, कुमार जीव से लेकर कितने-कितने बुद्ध हुए थे। एक को श्रेय मिल गया, इससे क्या हुआ? एक का फोटो छप गया, इससे क्या हुआ? अरे साहब! हमारा फोटो छप गया। हाँ बेटे, भीड़ में से उछलकर जो कैमरे के सामने आ जायेगा, उसी का फोटो छप जायेगा। कौन दंगा मचा रहा था, इस फोटो को देख करके बताइये। अरे साहब! यही था—सामने वाला। क्यों रे। दंगा क्यों मचा रहा था? भाई साहब! मैं तो सामने वाली लाइन में था, इसलिए पकड़ में आ गया। सारी की सारी भीड़ खड़ी है। दंगे में सब लोग शामिल थे। तो फिर मेरा ही फोटो कैसे आ गया? मेरा तो क्या है, दुर्भाग्य कह लीजिए, जो गलती से या समझदारी से कैमरे के सामने आ गया। इसलिए मेरा नाम आ गया। असल में मेरे अकेले का काम नहीं है, सबका काम है।
स्वार्थ से उबरें
मित्रो! भगवान् के अवतार जब कभी भी होते रहे हैं, एक टीम के रूप में होते रहे हैं। उस टीम में मैं आप लोगों को शामिल करता रहता हूँ। इस जमाने में आदमी के सामने स्वार्थपरता के अतिरिक्त दूसरा कोई सवाल नहीं है। मन्दिरों में स्वार्थ के अलावा कोई काम नहीं है। इतने सारे भगत लोग बैठे हुए हैं, पर ये महास्वार्थी हैं। ये देवी के मंदिरों में बैठे हैं? ये सिर काटने के लिए और माल मारने के लिए बैठे हैं। अरे! ये कोई भगत हैं? डाकू हैं। आप जहाँ कहीं भी जाइये, हर जगह आदमी को इतना स्वार्थी पायेंगे, जिसके लिए न कोई देवी बाकी रह गयी, न कोई देवता बाकी रह गया, न कोई सन्त बाकी रह गया, न कोई अवतार बाकी रह गया। न कोई ऋषि बाकी रह गया। एक ही ऋषि बाकी रह गया। जिसका नाम है—स्वार्थ। स्वार्थ के अलावा दूसरी कोई बात हम सुनना ही नहीं चाहते। भजन? भजन में तो और भी ज्यादा स्वार्थ है। सामान्य स्वार्थी को यह तब भी है कि हम यह चीज करेंगे, तो यह पायेंगे, पर ये तो महास्वार्थी हैं। महास्वार्थी ऐसे कि बिना कुछ किए सब पा जायेंगे। ग्यारह माला जप करके ही सारा माल-मसाला ले जायेंगे। इस सारे जमाने में हम एक ही बात देखते हैं कि आदमी को स्वार्थ के अलावा दूसरी चीज न सुहाती है और न वह सुनना चाहता है। स्वार्थ के अलावा इन्हें किसी की खुशबू ही नहीं आती।
भगवान् की इच्छा भक्त को पूरी करना चाहिए
नहीं महाराज जी! भजन में जाते हैं। अरे! कौन जाता है भजन में? एकाध नाम तो बता? भजन का मतलब तो समझते हैं नहीं, भजन करते हैं चालाक, बेईमान। बड़े आये भजन करने वाले। तुम भजन करते हो? भगवान् को जानते हो? भगवान् को क्या जानते हो? बेटे, भगवान् को दिया जाता है। भगवान् के आदर्शों को जीवन में धारण किया जाता है। भगवान् को अपने हुकुम पर नहीं चलाया जाता। नहीं साहब! भगवान को हमारी मर्जी पर चलना चाहिए। चल बेहूदे कहीं के। भगवान् तेरी मर्जी पर चलेगा? नहीं साहब! भगवान् को हमारी मनोकामना पूरी करनी चाहिए। खबरदार! आइन्दा ये शब्द कहा तो। बड़ा आया मनोकामना वाला? भगवान् की मनोकामना तुझे पूरी करनी चाहिए कि तेरी भगवान को करनी चाहिए? नहीं साहब! भगवान् को मेरी मनोकामना पूरी करनी चाहिए। बदमाश कहीं का। तेरी पूरी करनी चाहिए और तू भगवान् की मनोकामना पूरी नहीं करेगा? मैं क्यों करूँगा? मैं तो अँगूठा दिखा दूँगा भगवान को।
ढूँढ़ना है इस जमाने में ‘‘आदमी’’ को
मित्रो! आजकल हम देखते हैं कि अध्यात्म से लेकर हर चीज का पूरा सफाया हो गया है। आप लोगों में से मैं देखता हूँ कि इस जमाने में आदमी न कहीं अध्यात्म में, न कहीं संसार में है। त्याग के नाम पर, बलिदान के नाम पर, सेवा के नाम पर, परोपकार के नाम पर, लोक सेवा के नाम पर, देश के नाम पर, धर्म के नाम पर, समाज के नाम पर, अपने लिए और अपनों की स्वार्थपूर्ति के लिए हर कोई लालायित रहता है और उसी उधेड़बुन में दिन−रात लगा रहता है, किंतु लोकहित के लिए, जनकल्याण के लिए भला कौन जाना चाहता है? बादलों के तरीके से अपने को गला डालने के लिए कौन रजामंद होता है? हवा के तरीके से दरवाजे-दरवाजे पर खुशबू पहुँचाने के लिए कौन तैयार हेाता है? सूरज के तरीके से स्वयं गरम रहने के लिए और दूसरों को रोशनी पहुँचाने के लिए कौन तैयार होता है? चन्द्रमा के तरीके से चाँदनी बिखेरने के लिए कौन तैयार होता है? कोई नहीं तैयार होता है। आज के जमाने में आदमी से हम यह आशा नहीं कर सकते कि वह लोक मंगल के कामों के लिए, श्रेष्ठ कामों के लिए आगे आयेगा। हनुमान् जी का मंदिर तो बना देगा, लेकिन अपने पड़ोस के दुःखी आदमी की सेवा करने के लिए रजामंद नहीं हो सकता।
अध्यात्म बन गया दिल्लगी
क्यों साहब! हनुमान् जी का मंदिर क्यों बनायेगा? हनुमान जी का मंदिर इसलिए बनायेगा कि इस जमाने में हनुमान् जी की मठिया बना देंगे आठ सौ रुपये की, तो उस जमाने में जब हम मरेंगे तो वह अस्सी हजार रु. का फ्लैट हमको मिलेगा। इसलिए बनाता है बेईमान। नहीं साहब! ये मन्दिर बनाता है। नहीं बेटे, ये मन्दिर नहीं बनाता है। ये चालू आदमी है। नहीं साहब! ये मंदिर में साड़ी चढ़ाता है। अरे बेटे, ये साड़ी नहीं चढ़ाता है। ये अव्वल दर्जे का रिश्वतखोर है। चालीस चालीस रुपये की साड़ी देकर के भगवान् से न जाने क्या-क्या लेना चाहता है? बेटे, मैं क्या कह सकता हूँ? आजकल के जमाने में अध्यात्म केवल मखौल बन कर रह गया है। अध्यात्म केवल दिल्लगी रह गया है। अध्यात्म केवल जालसाजी रह गया है। इस जमाने में असली अध्यात्म, जिसके लिए आदमी को त्याग करना पड़ता है, बलिदान करना पड़ता है, सेवा करनी पड़ती है, अपने आपको परिष्कृत करना पड़ता है, अपने आपको गलाना पड़ता है; वही असली अध्यात्म है। मुझे मालूम पड़ता है कि जो ऋषियों का ज्ञान था, फिर से जिंदा हो गया है। गायत्री माता अभी जिंदा हैं और गायत्री माता के साथ-साथ में गायत्री माता के पुत्रों का समूह फिर से जिंदा हो गया है, आप लोगों को देखकर मुझे यह विश्वास हो जाता है। परिव्राजक अभियान के लिए जिन लोगों को बुलाया गया था, उनको देखकर के मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा है।
अब हो रहा है प्रज्ञावतार का विस्तार
मित्रो! मैं सोचता हूँ कि यह वास्तविकता है, सच्चाई है कि भगवान् अवतार ले रहे हैं और भगवान् के अवतार के साथ-साथ बहुत से आदमी, जो मनुष्यों के रूप में, देवताओं के रूप में, छोटे-छोटे देवताओं के रूप में, गिलहरियों के रूप में, गिद्धों के रूप में आप जैसे आदमी लोक कल्याण के लिए, लोकमंगल के लिए अपने आपको खर्च कर डालने के लिए, मिटा डालने के लिए सामने आ जाते हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि किसी भी शक्ति के अवतार के लिए इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है? व्यक्ति के भीतर, परिवार के भीतर और समाज के भीतर हम प्रज्ञावतार का विस्तार करने जा रहे हैं।
(क्रमशः)
वेदमाता बनने जा रही है विश्वमाता
पूर्व की दो कड़ियों में आप पढ़ चुके हैं पूज्यवर का एक विशिष्ट प्रवचन। उसमें उनने उदाहरणों के साथ बताया कि जब-जब भी असन्तुलन हुआ तब-तब भगवान् को अवतार लेना पड़ा। दशावतार में से नौ की व्याख्या करने के बाद उनने कहा कि आज की समस्याएँ पहले से भी ज्यादा विषम हैं। आज आदमी का चिन्तन विकृत, लोभी-लालची हो गया है। हत्यारी, डायन दहेज प्रथा इसका एक स्वरूप है जो बुद्धिवादी युग में भी देखी जा रही है। इसमें गुरुदेव ने अपने अनुभव हमसे बाँटे थे कि किस तरह से परिजनों ने अपनी लड़कियों के बायोडाटा तो आदर्श विवाह के लिए भेज दिए पर लड़कों के अपने पास रख लिए। उनने कहा कि आज का ज्यादा पढ़ा लिखा ज्यादा खतरनाक होता है। उद्विग्नता, तनाव का जीवन जी रहा है आज का मनुष्य। आदमी अविश्वस्त, अप्रामाणिक हो गया है। आदमी की बेअकली, बहुप्रजनन, जीवन जीने की कला के क्षेत्र में न समझी की उनने चर्चा की। फिर कहा कि अगला अवतार ऋतम्भरा प्रज्ञा-विवेक के रूप में होने जा रहा है। अवतार समूह मन का प्रतीक होता है। प्रज्ञावतार का ही अब विस्तार होने जा रहा है। अब आगे पढ़ें।
असली गायत्री युगशक्ति है
मित्रो! मनुष्य के बारे में हम बहुत दिन से आपको यह बताते चले आ रहे हैं कि व्यक्ति को परिष्कृत होना चाहिए। गायत्री के बारे में भी हमने कितनी बार कहा है कि गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है। आपके पास ब्राह्मणत्व आयेगा, तो कामधेनु का दूध भी आपके पास आयेगा। ब्राह्मणत्व अर्थात् भलमनसाहत, शराफत, सज्जनता, ईमानदारी, नेकी अगर आपके पास आयेगी, तो सत्यवान और सावित्री के तरीके से, हंस के तरीके से, जिसकी कहानी कल-परसों मैं सुना चुका हूँ, आप धन्य हो जायेंगे। आपका व्यक्तित्व निर्माण करने के सारे के सारे तत्त्व इस गायत्री उपासना में भरे पड़े हैं। अगर आप स्वीकार करना चाहें तो, न करना चाहें तो आपकी मर्जी है। तब फिर आप ‘‘राम नाम जपना, पराया माल अपना’’, ‘‘गायत्री मंत्र का जप करना और पराया माल अपना’’ करते रहिए। फिर हराम का वरदान पाना, इस देवी से पाना, उस देवता से पाना, कर्मफल के विरुद्ध पाना—फिर तो यह आपकी मर्जी की बात है। असली गायत्री अगर आपके भीतर आयेगी, तो सबसे पहले व्यक्ति को महान बनाने के लिए, चरित्रवान व्यक्ति बनाने के लिए काम करने आयेगी। कल भी मैं आपको यही बात समझा चुका हूँ। ‘मनुष्य में देवत्व के उदय’ का जो सपना हमने देखा था, अगर आप असली गायत्री को अपनाएँगे, जिससे हम युग शक्ति गायत्री कहते हैं, जिससे हम पत्रिकाओं में प्रतिपादित करते रहे हैं और हम अब और जोरों से प्रतिपादित करेंगे कि आदमी का व्यक्तित्व परिष्कृत होना चाहिए।
एक चमत्कारः व्यक्तित्व का परिष्कार
मित्रो! आदमी का व्यक्तित्व परिष्कृत होना अपने आप में चमत्कार है। कितने महापुरुषों की कहानियाँ और कथाएँ हम आपको कितनी बार सुना चुके हैं, वे सब गरीबी की हैसियत में पैदा होने वाले व्यक्ति थे, जो अपने व्यक्तित्व और चरित्र की वजह से कहाँ से कहाँ जा पहुँचे। असल में आदमी का व्यक्तित्व बढ़िया होना एक चमत्कार है। बाटा का उदाहरण हमने न जाने कितनों को सुनाया था। भौतिक जीवन में और आध्यात्मिक जीवन में आदमी का व्यक्तित्व शराफत से भरा हुआ होना एक चमत्कार है, एक जादू है। ऐसे जादू वाले व्यक्तित्व सफल होते चले जायेंगे। बेईमान को सफलता मिलती है, ईमानदार को नहीं मिलती, यह गलत बात है। ईमानदार को सफलता मिलती है, बेईमान को नहीं मिलती। ईमानदारी का मुखौटा ओढ़ करके, ईमानदारी के नाम पर, ईमानदारी को धोकर के बेईमान आदमी फायदा तो उठा लेता है, लेकिन बेईमान आदमी की बेईमानी जब साबित हो जाती है कि यह बेईमान है, तो फिर वह एक पैसे का फायदा नहीं उठा सकता। ऐसे आदमी के लिए ठहरना मुश्किल पड़ जाता है। आदमी को पानी पीना मुश्किल पड़ जायेगा, अगर यह मालूम पड़ जाये कि यह आदमी बेईमान है। यह ईमानदारी की आड़ में मालदार बन रहा है। ईमानदारी की छाया पकड़कर ऊँचा उठ रहा है। आदमी बेईमान होगा, तो जेल चला जायेगा और उसको कोई आदमी अपने पास खड़ा नहीं होने देगा।
मित्रो! व्यक्तित्व का निर्माण करने के लिए, युग के अनुरूप मनुष्य में देवत्व का उदय करने के लिए नये युग की जो ख्वाहिश, जो ख्वाब हमारे हैं, ये सिखाते हैं कि प्रत्येक आदमी को, प्रत्येक गायत्री उपासक को इन सिद्धान्तों को, इन आचार-विचारों को, इन व्यवहारों को अपने जीवन में धारण करना चाहिए। बेटे, मनुष्य में देवत्व का निर्माण करने के लिए, समाज का निर्माण करने के लिए और कुटुम्ब का निर्माण करने के लिए हमने आपको तीन-चार बातें बतायी थीं। आपको उसे ध्यान में रखना चाहिए।
पूरे परिवार को मिले संस्कार
मित्रो! व्यक्ति से अब हम परिवार की ओर चलते हैं। गायत्री उपासना को अभी हमने व्यक्तिगत रूप से बताया था। अब हमारे नये कदम परिवार कल्याण के लिए उठते हैं। गायत्री माता का चित्र घरों में रहना चाहिए। बलिवैश्व यज्ञ हमारे घरों में रोजाना होना चाहिए। रोजाना सामूहिक आरती होनी चाहिए। रोजाना कथाओं का सिलसिला हमारे घरों में चलना चाहिए। समय-समय पर जन्मदिन होना चाहिए। क्या बात है? हम व्यक्ति से परिवार के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं। अब आप अकेले जप करें और परिवार वालों को न मालूम पड़े, परिवार वालों को गालियाँ दें, यह हमें नापसन्द है। इसलिए अब हमारे अगले कदम व्यक्ति निर्माण के साथ-साथ परिवार निर्माण के क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं। आपको अब परिवार निर्माण के लिए तैयारी करनी चाहिए। रजत जयंती वर्ष से हमने यह कदम बढ़ाये हैं। आपको अकेले तक सीमित रहकर गायत्री उपासक रहना हमको सुहाता नहीं है। आप सारे घर में अकेले गायत्री उपासक हैं। सारा घर आपका मखौल उड़ाता है। कोई आदमी आपसे सहमत नहीं है। हर आदमी आपको बेवकूफ बनाता है। बेटे, हमको यह नापसन्द है। हम चाहते हैं कि जिस मुस्तैदी से आपको समझा दिया गया, उसी मुस्तैदी से आपके सारे परिवार को भी समझा दिया जाय।
आ रहा है धरती पर स्वर्ग
मित्रो! हम व्यक्ति निर्माण के साथ परिवार निर्माण में युगशक्ति गायत्री का प्रवेश कराने वाले हैं और क्या होने वाला है? अब बेटे, एक और क्षेत्र में प्रवेश होने वाला है। कौन से वाले में होने वाला है? सारे विश्व में, जिसमें धरती को स्वर्ग बनाने की योग्यताएँ विद्यमान हैं। धरती पर स्वर्ग का अवतरण हम बार-बार करते रहे हैं। धरती पर स्वर्ग का अवतरण हो सकता है? हाँ बेटे! हो सकता है और होगा। कैसे होगा? थोड़े से सिद्धान्त हमारे पास हैं। गायत्री मंत्र में बीज रूप में सन्निहित ऐसे सिद्धान्तों का विस्तार हो गया और जनता ने, सर्वसाधारण ने, जनमानस ने इसे स्वीकार कर लिया, तो मैं कहता हूँ कि इस धरती पर स्वर्ग बनकर रहेगा। गुरुजी! आपकी प्लानिंग क्या है? बेटे हमारी प्लानिंग सारे विश्व के लिए है। अतः गायत्री माता इस रजत जयन्ती वर्ष से नये रूप में प्रकट होने जा रही है। पहले यह कौन थी? पहले इनका नाम था वेदमाता। वेदमाता कौन? चारों वेद जिनसे प्रकाशित हुए थे। जिसके व्याख्यान स्वरूप चारों वेद बनाये गये, वह वेदमाता थी।
वेदमाता बन रहीं विश्वमाता
शुरू-शुरू में जब गायत्री माता संसार में आयी थीं, तब उनका नाम था—वेदमाता। फिर क्या हो गया? फिर इनका नाम देवमाता हो गया। देवमाता कैसे हो गया? पहले ये ऋषियों के जमाने में केवल सिद्धान्त थीं, ब्रह्मविद्या थीं, तत्त्वज्ञान थीं और फिलॉसफी थीं। फिर उसके बाद विस्तार हो गया। लोगों ने अपने जीवन में इसका प्रयोग करना शुरू किया, तो यह भारतभूमि में, जिसमें तैंतीस कोटि देवता रहते थे, नागरिक रहते थे, उन देवताओं को जन्म देने वाली, गुण, कर्म, स्वभाव में देवत्व भरने वाली पहले वाली गायत्री महाशक्ति थी, जिसका नाम था देवमाता। अब क्या होने वाला है? अब एक और चरण का विकास होने वाला है—प्रज्ञावतार के रूप में। युगशक्ति के रूप में अब इसका नाम, रूप सामने आने वाला है। कौन सा रूप सामने आने वाला है? इसका नाम है—विश्वमाता। विश्वमाता इसलिए कि यह अब नये विश्व को जन्म देने जा रही है। पुराना विश्व मर गया या मर रहा है। या तो मर चुका या मर रहा है। घिनौना विश्व, जिसकी तस्वीर मैं आपको दिखा रहा था, ऐसे वाले जमाने की बात कर रहा था, ऐसे मनुष्यों की बात कर रहा था, जो मरेंगे।
होगा आदमी का कायाकल्प
तो क्या मनुष्य मरेगा या मनुष्य का ईमान मरेगा? बेटे, मनुष्य का ईमान मर जाये या ईमान बदल जाये, तो आदमी का कायाकल्प हो सकता है। बाल्मीकि मरेगा? बाल्मीकि को तो नारद ने मार डाला और नये बाल्मीकि को जन्म दे दिया। और उस आम्रपाली को किसने मार डाला? भगवान् बुद्ध ने जान से मार डाला और नई आम्रपाली को जन्म दिया। पूतना जो थी, उसको भगवान् श्रीकृष्ण ने मार दिया था। ताड़का को भगवान् राम ने मार दिया था। ठीक इसी तरीके से बुद्ध ने आम्रपाली को मार दिया था। नहीं महाराज जी! जान से नहीं मारा था, वह तो जिन्दा थी। हाँ बेटे, वह जिन्दा तो थी, पर जो आम्रपाली वैश्या थी, उसे मार दिया था और उसके स्थान पर नई आम्रपाली बना दी। उसका क्या नाम था? उसका नाम था—संत आम्रपाली। संत आम्रपाली सारी की सारी दुनिया में ज्ञान और विज्ञान की वर्षा करती हुई न जाने कहाँ से कहाँ चली गई।
बनेगा नया विश्व
मित्रो! क्या हो सकता है? दुनिया मरेगी? प्रलय हो सकती है? हाँ, प्रलय तो होगी। कैसे होगी? परशुराम जी ने जैसे कुल्हाड़े से बददिमाग लोगों के सिर काट डाले थे, वैसी ही प्रलय होगी। तो सिर कटेंगे? सिर नहीं कटेंगे। तब क्या होगा? सिर बदल जायेंगे, दिमाग बदल जायेंगे। आदमी की अकल और आदमी का ईमान जिस केन्द्र-बिन्दु पर टिका हुआ है, जहाँ स्वार्थों से एक इंच भी नहीं हटना चाहता। चाहे माला जपें, चाहे रामायण पढ़ें, पर स्वार्थ से एक इंच भी नहीं हटना चाहता। अपनी क्षुद्रता को एक रत्ती की नोक के बराबर नहीं छोड़ना चाहता। आदमी जानवर है या शैतान? शैतान चाहे भजन करे चाहे अमुक काम करे, जहाँ है वहीं का वहीं रहेगा। फिर क्या होने वाला है? आदमी अब मरेगा। अब युद्ध होगा। फिर कौन मरेगा? दानव मरेगा, बेअकली मरेगी। बेअकली के स्थान पर जो नया विश्व बनेगा, जिसका हम गठन करने वाले हैं, इसमें थोड़े से सिद्धान्त हैं। त्रिपदा गायत्री के तीन सिद्धान्त हैं। क्या सिद्धान्त हैं? अभी हम आपको बता तो रहे थे—स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज। अच्छा तो यही हैं सिद्धान्त। हाँ बेटे, यही सिद्धान्त हैं। और फिर हैं—व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण—ये भी सिद्धान्त हैं।
समझदारों की गायत्री
मित्रो! गायत्री के तीन चरण हैं। इसे त्रिपदा कहते हैं। त्रिपदा की तीनों धाराएँ जब हमारे व्यावहारिक जीवन में एप्लाइड होंगी, तो इनका यही स्वरूप बन जायेगा। नहीं साहब! वह तो हंस पर बैठकर आयेंगी और कबूतर पर बैठकर आयेंगी और नोट के बंडल लेकर आयेंगी और औलाद लेकर आयेंगी। अरे! बके मत, चुपचाप रह। ऐसे नहीं आती गायत्री माता। नहीं साहब! गायत्री माता रात को रुपये का पोटला लेकर आयेंगी और सबेरे बेटा लेकर आयेंगी और सबेरे मुकदमे की फाईल का निपटारा करके रख जायेंगी। और परसों? परसों प्रमोशन करा जायेंगी। उल्लू कहीं के। मित्रो! जब गायत्री माता आयेंगी, तब क्या करेंगी? गायत्री माता आयेंगी तो समझदारों के लिए अलग आयेंगी, पिछड़े लोगों के लिए—बैकवर्ड लोगों के लिए अलग आयेंगी। पिछड़े लोगों की, बैकवर्ड लोगों की गायत्री माता अलग हैं। वह कौन सी हैं? जिसे मैं अभी आपको बता रहा था। वह बैकवर्ड लोगों की हैं। समझदार लोगों की गायत्री माता वह नहीं हैं। समझदार लोगों की गायत्री माता कैसी हैं? ऐसी हैं जो हमारे ज्ञानक्षेत्र में बौद्धिक क्रान्ति के रूप में आती हैं। जो हमारे व्यावहारिक जीवन में, व्यक्तिगत जीवन में नैतिक क्रान्ति के रूप में आती हैं और हमारे सामाजिक जीवन में सामाजिक क्रान्ति के रूप में आती हैं। बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रान्ति, जिसके बारे में हमने आपको बताया था कि यह गायत्री के तीन चरण हैं।
तीन विशेषताओं वाला विश्व
तो महाराज जी! सारे विश्व का क्या स्वरूप होने वाला है? भविष्यवाणी कीजिये। भविष्य बताइये? बेटे, हम यूटोपिया के लेखक तो नहीं हैं कि भविष्य बताते फिरें पर चलिये, आप भविष्य की बातें सुनना ही चाहते हैं तो मैं यह कहता हूँ कि युगशक्ति गायत्री का जब उदय होगा, तो आप अपने आपको तैयार कीजिये। किस बात के लिए तैयार करें? तीन बातों के लिए तैयार कीजिये। विश्वमाता के पेट से नये विश्व की जो रूपरेखा प्रकट होने वाली है, जो सोने का अण्डा पैदा होने वाला है। गायत्री माता के पेट से जो नया बच्चा पैदा होने वाला है, नया विश्व बनने वाला है, उसके आधार क्या होंगे? चलिये मैं उसकी झाँकी करा दूँ। मुझको तो मालूम नहीं कि आप विश्वास करेंगे भी कि नहीं करेंगे, लेकिन मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि अगला आने वाला जो विश्व है, ठीक इसी प्रकार आयेगा। इसमें तीन विशेषताएँ पायी जायेंगी। क्या विशेषताएँ पायी जायेंगी। उसके तीन सिद्धान्त होंगे—समता, एकता और शुचिता।
समता का युग
समता कैसी? बेटे, अगला जमाना समता का आयेगा, तैयारी कीजिये। दुनिया में समता तीन तरीके से पाई जायेगी। पहली जाति की समानता, जाति के आधार पर आपका बड़प्पन खतम हो जायेगा। नहीं साहब? हम तो ब्राह्मण हैं। बेटे तुम्हें मुबारक। हम कब कहते हैं कि आप ब्राह्मण नहीं हैं? और आप बनिये हैं? आप बनिये हैं तो इसका क्या मतलब हुआ? इसका मतलब है—छोटे। खबरदार! आइन्दा यह बात कही। आप ब्राह्मण हैं, तो रह सकते हैं। आप अध्यापक का काम कीजिये और आप दुकानदारी का काम कीजिये। बड़े कहने से कोई बड़ा नहीं हो सकता। नहीं साहब! हम बड़े हैं। बेटे, बड़ा आदमी होगा, तो गुणों की वजह से, कर्म की वजह से होगा। आदमी जन्म की वजह से बड़ा नहीं हो सकता। अगले दिनों में क्या होगा? बेटे, जाति और वंश की समता आ जायेगी। नीचा-ऊँचा जाति के आधार पर नहीं रहेगा। नीचे और ऊँचे रहते थे और रहेंगे और रहना चाहिए; लेकिन जाति के आधार पर नीचे नहीं रहेंगे। मैं आपसे कहता हूँ कि अगला जमाना जो आ रहा है, उसमें जाति के आधार पर कोई बड़ा नहीं कहलायेगा और जाति के आधार पर कोई छोटा नहीं कहलायेगा।
जाति ही नहीं, लिंग की भी
नये युग में और क्या होगा? समता जो आयेगी तो कैसे आयेगी? जाति के साथ ही लिंग की समता आयेगी। लिंग से क्या मतलब है? नर और नारी से है। नर और नारी दोनों की समता होगी। हम जो विश्वक्रांति करने वाले हैं और जो विश्वमाता का अवतार होने वाला है, उसमें नर और नारी का स्तर एक हो जायेगा। प्रेम मोहब्बत बेशक रहेगी और अनुशासन भी रहेगा। कैसा अनुशासन रहेगा? जैसे राम और भरत के बीच में था। राम भरत के गुलाम थे और भरत राम के गुलाम थे। दोनों एक दूसरे के प्रेम में बँधे हुए थे, दबाव से बँधे हुए नहीं थे। नर और नारी अब दबाव से बँधे नहीं रहेंगे। दबाव से नहीं बँधेंगे, बँधेंगे तो मोहब्बत से बँधेंगे। एक दूसरे के ऊपर न्योछावर होने वाले होंगे। अगले दिनों में लिंग की असमानता नहीं रहेगी। नहीं महाराज जी! वर्तमान कानूनों में और क्या काम होगा? बेटे, वर्तमान कानूनों में यह सुधार हो जायेगा कि दोनों के लिए एक से कानून बन जायेंगे। अगर घूँघट स्त्रियों के लिए रहना होगा तो यही मर्दों पर भी लागू हो जायेगा। नहीं साहब! हम तो अपनी औरतों को घूँघट करवायेंगे। बेटे जरूर करवाना, पर इसके लिए भी तैयार रहना कि आप सब लोगों को भी घूँघट मारकर चलना होगा। नहीं महाराज जी! हम तो नहीं मानेंगे। तो फिर बेटे, स्त्री का भी मुँह खोलना पड़ेगा।
मित्रो! औरत के मरने के बाद मर्द का ब्याह होना चाहिए। जरूर होना चाहिए। लेकिन मर्द के मरने के बाद में औरत का भी ब्याह होना चाहिए। नहीं महाराज जी! यह तो नहीं हो सकता। बेटे, यही होगा। नहीं साहब! मर्द के मरने के बाद में औरत को सती होना चाहिए। बिलकुल ठीक है। बेचारी विधवा जी करके क्या करेगी? विधवा को भी मरना चाहिए। पति के बाद फाँसी लगाकर मर जाय तो क्या? और जहर खा करके मर जाय, तो क्या? जल में डूब मरे, तो क्या? चलेगा? हाँ बेटे, यह रिवाज अच्छा हो तो चलना चाहिए, लेकिन साथ में एक और रिवाज चलना चाहिए। क्या चलना चाहिए? अगर स्त्री मरे तो मर्द को भी मरना चाहिए। मर्द को भी सती हो जाना चाहिए। महाराज जी! अगर मर्द भाग जाये तो? तो सब जायें और उसको पकड़कर लायें जैसे पागल कुत्ते को पकड़कर लाते हैं और वैसे ही बाँधकर उसको जला दें उस औरत के साथ। नहीं महाराज जी! यह कैसे हो सकता है? अरे बेटे, यही होगा। यदि पतिव्रत धर्म जियेगा तो पत्नीव्रत धर्म भी जिन्दा रहेगा। अगर एक आदमी दस रखैलें रखकर के भी राजपूत हो सकता है, तो फिर एक औरत पाँच पाण्डव नहीं, पच्चीस पाण्डव रख करके भी स्त्री सती हो सकती है। अगले दिनों यही होगा।
आ रहा है नया जमाना
मित्रो! अगले दिनों यही होगा। इंसाफ का जमाना आयेगा। विवेकशीलता का जमाना आयेगा। श्रद्धा का जमाना आयेगा और वह जमाना आयेगा जिसमें कि आजकल का आदमी तिलमिला जायेगा। नये युग में जाति और वंश की परंपरा में फर्क रहेगा? नहीं बेटे, फर्क नहीं रहेगा। दोनों को अगले दिनों एक रहना पड़ेगा। बेटे, हम ऐसा जमाना ला रहे हैं। हम नहीं ला रहे हैं, महाकाल ला रहा है। समय ला रहा है। युग ला रहा है। और वह अवश्य आयेगा, आप चाहे तैयार हों, या न हों। वही समता का जमाना आयेगा।
आर्थिक समता का युग
महाराज जी! और कौन सी समता आयेगी? बेटे, एक और समता आयेगी। पैसे के हिसाब से विभाजन होगा। तो क्या आपका इशारा साम्यवाद की ओर है? हाँ बेटे, पैसे के मामले में लगभग मेरा इशारा यही है कि जो कमायेगा, सो खायेगा। नहीं साहब! हमारे पास बहुत सम्पत्ति है। हम ब्याज-भाड़े की आमदनी करेंगे। नहीं बेटे, अब यह नहीं हो सकेगा। रुपये से रुपया नहीं कमाया जायेगा और जो सम्पदा बाप छोड़कर मरेगा, वह जब्त होगी। पहले भी धन जब्त होता था। पहले समाज इकट्ठा होता था और यह कहता था कि इसका बाप मरा है और दौलत छोड़कर मरा है। इसका क्या होना है? इसका फैसला समाज करता था। अगर बच्चे अपंग हैं, अपाहिज हैं, अंधे हैं, गूँगे हैं, बहरे हैं, तो इसमें से बच्चों को मिलना चाहिए और अगर इसके बच्चे समर्थ हो चुके हैं और कमाने लगे हैं, तो एक कानी-कौड़ी भी इनको नहीं मिलनी चाहिए। फिर इस पैसे का क्या होगा? बेटे, अब तो इसके ऊपर टैक्स लग रहे हैं और इस पर मृत्यु टैक्स लग रहे हैं। आगे आने वाले जमाने में क्या हो जायेगा? सारी सम्पत्तियाँ प्राचीनकाल के तरीके से जब्त हो जायेंगी। प्राचीनकाल में भी जब्त होती थीं, जब श्राद्ध होते थे, तब।
मित्रो! श्राद्ध का मतलब ही यह था कि बाप ने अगर पैसा कमाया है और छोड़ा है, तो वह पैसा बाप के कल्याण करने के लिए अच्छे कामों में खर्च हो जाना चाहिए। नहीं साहब! रिश्तेदारों को मिलना चाहिए। रिश्तेदारों को क्यों मिलना चाहिए? जवाब दीजिए। नहीं साहब! बेटे को मिलना चाहिए। बेटे को क्यों मिलना चाहिए? जवाब दीजिए। समाज को जब आवश्यकता है, तो फिर समाज को क्यों नहीं मिलना चाहिए? नहीं साहब! बेटे को मिलना चाहिए। यह बेटे, गलत बात है।
इसीलिए मित्रो! क्या होने वाला है? पहले वाला जमाना—जिसके लिए मैं आगाह करता हूँ। विश्वमाता तो अभी आपको खेल-खिलवाड़ मालूम पड़ती है। आप तो तीन माला, ग्यारह माला कर लेते हैं। यह क्रांति नहीं है। मानव जाति की क्रांति विश्वमाता लायेगी और वह जब आयेगी, तो इसी रूप में आयेगी। तब हर आदमी मशक्कत करेगा। मशक्कत की कमाई खायेगा। जो आदमी मशक्कत की कमाई खायेगा, उसको न शराब पीने की आदत होगी। न वह वेश्यागामी हो सकता है। न वह ऐय्याश हो सकता है। न बदमाश हो सकता है। न वह अमुक चीज पी सकता है। यह हराम का पैसा है, जो दुनिया भर की खुराफातें सिखाता है।
एकता का होगा उद्भव
मित्रो! अगले दिनों विश्व में क्या होने वाला है? विश्वमाता का जो यह अवतार होने वाला है, इसका एक आधार है—समता। और दूसरा आधार है—एकता। अब हम बिलगाव के, भिन्नताओं के कटघरे से अलग निकलते हैं और एकता की दिशा में चलते हैं। हम कैसे चलते हैं? एक राष्ट्र, एक भाषा और एक संस्कृति। दुनिया में संस्कृति रहनी है तो एक ही रहनी चाहिए। चाहे वह हिन्दू की हो या ईसाई की। किसी की भी हो, एक रहेगी। नहीं साहब! हम हिन्दू भी रहेंगे और ईसाई भी रहेंगे। तो आप एक दूसरे का खून पियेंगे और एक दूसरे के लिए गलतफहमी पैदा करेंगे। सांस्कृतिक एकता की ओर चलिए। राष्ट्र को एक होना चाहिए। जगह-जगह जितने भी राष्ट्र अलग-अलग रहेंगे, तो आपस में लड़ेंगे और फौजदारी करेंगे और खूनरेजी करेंगे। अतः सारे विश्व की एक गवर्नमेण्ट होनी चाहिए और एक गवर्नमेण्ट के अंतर्गत पुलिस रहनी चाहिए। जो भी गवर्नमेण्ट गड़बड़ी करे और दूसरे पर हमला करे, वहाँ राष्ट्रसंघ की पुलिस जायेगी और उसे पकड़ेगी, गिरफ्तार करेगी। नहीं साहब! हमारी सेना अलग है और आपकी सेना अलग है। आपकी सेना अलग नहीं हो सकती।
यही है विश्वमाता
मित्रो! जो अगला जमाना आयेगा, मैं उसकी बात कहता हूँ। एकता के साथ ही आदमी की एक संस्कृति होगी। एक संस्कृति, एक राष्ट्र और एक भाषा होगी। अभी आप गूँगे, बहरों के तरीके से भाषा के संबंध में दिखते हैं। आप दक्षिण भारत में रहते हैं और आप उत्तर भारत में रहते हैं। आप तमिल बोलते हैं और हम मराठी बोलते हैं, बोलिए। क्यों साहब! आप गूँगे हैं? गूँगे तो नहीं हैं, पर आपकी भाषा हम नहीं जानते-समझते। हम एक-दूसरे की भाषाएँ नहीं जानते। सारे मनुष्य जाति के बीच खाई पैदा करने वाली ये भाषाएँ हैं। अगली बार जो भाषा होने वाली है, एक भाषा होने वाली है। मैं आपसे यही कहने वाला था। मैं आपको विश्वमाता की झाँकी करा रहा था। अगला वाला जो विश्व आयेगा, इसमें हर आदमी के नैतिक उत्तरदायित्व होंगे, जिसमें समता और स्वच्छता के सिद्धान्त होंगे। आदमी एक-दूसरे को प्यार करेगा। एक दूसरे की सहायता करेगा। आदमी-आदमी का शोषण और एक-दूसरे का खून पीने की आदत को बंद करेगा। आपको हमारा खून नहीं पीना है और न हमें आपका खून पीना है। हमको एक दूसरे की मदद करनी है। आपको हमारी मदद करनी है और हमें आपकी। अगर यह विचार दुनिया में आ जाये, तो आप देखेंगे कि दुनिया में कैसी शान्ति आती है।
यह एक सपना है जो साकार होगा
मित्रो! अभी जो पैसा टैंक बनाने में लग रहा है, एटम बम बनाने में लग रहा है, वह पैसा ट्रैक्टर बनाने में लगाया जा सकता है। जो पैसा तोपों को बनाने में लगाया जा रहा है, वह पम्प बनाने में लगाया जा सकता है। जो लाखों आदमी मरने और मारने की ट्रेनिंग ले रहे हैं, वे माली का काम कराने के लिए और अध्यापक का काम कराने के लिए और शिल्पी का काम कराने के लिए और इंजीनियर और ओवरसियर का काम कराये जाने के लिए लगाये जा सकते हैं। सिर्फ आदमी के ईमान में एक बात बदल जाये, आदमी के समझ में एक बात आ जाय कि हमको आपका खून नहीं पीना है, वरन् हमको आपकी सहायता करनी है, आपकी मदद करनी है, आपकी सेवा करनी है। यह दृष्टि अगर बदल जाय कि एक दूसरे की सहायता करेंगे, तो बेटे, दुनिया कितनी खुशहाल हो सकती है। कितनी उन्नतिशील हो सकती है। मैंने आपको एक सपना दिखाया है। गुरुजी! सपना? हाँ, सपना। गलत या सही? सही। अगला दिन बेटे यही आयेगा। हम तेजी के साथ उस ओर बढ़ते चले जा रहे हैं। आप यह देखेंगे कि ये सपने, जो आज आपको सपने दिखाई पड़ते हैं, कल या परसों साकार होकर के रहेंगे।
गायत्री का तत्त्वज्ञान समझें, समझायें
मित्रो! इसे साकार करने का श्रेय किसको मिलने वाला है? गायत्री माता को, युगशक्ति गायत्री को। और उससे भी ज्यादा श्रेय आप लोगों का होगा, जो आज साहसपूर्वक अपना समय देने के लिए, श्रम देने के लिए और शक्ति देने के लिए तैयार रहते हैं। अब हमको और क्या समझना पड़ेगा? बेटे, आपको और कुछ समझना नहीं है। गायत्री मंत्र का अर्थ, गायत्री मंत्र की शिक्षा, गायत्री मंत्र की फिलॉसफी, गायत्री मंत्र का तत्त्वज्ञान—बस इतना ही आप समझते चले जायें, तो नये युग के लिए सारे के सारे शिक्षण, व्यक्ति निर्माण के शिक्षण, परिवार निर्माण के शिक्षण, समाज निर्माण के शिक्षण, बौद्धिक क्रान्ति के शिक्षण, सामाजिक क्रान्ति के शिक्षण, आर्थिक क्रान्ति के शिक्षण, नैतिक क्रान्ति के शिक्षण—सारे के सारे तत्त्व इसके भीतर मौजूद हैं। आप गायत्री की व्याख्या करना शुरू कर दीजिए। बेटे, आपने हमारा ‘गायत्री महाविज्ञान’ पढ़ा नहीं है। इसके दूसरे खण्ड में ‘गायत्री स्मृति’ है। उसमें चौबीस अक्षरों के अर्थ हमने बताये हैं। उसमें सारी की सारी समाज व्यवस्था, नीति व्यवस्था, अर्थव्यवस्था आदि कोई भी क्षेत्र बचा हुआ नहीं है। ‘गायत्री गीता’ आप पढ़ लीजिए। उसमें केवल १३ श्लोक हैं। गायत्री के नौ शब्द, तीन व्याहृतियाँ और एक ओऽम्—इनकी व्याख्या करते हुए १३ श्लोक हैं। इन तेरह अक्षरों में सारी की सारी व्यवस्था, तत्त्वज्ञान बता दिया गया है। इसे आप पढ़ लीजिए।
मंत्रार्थ बताएँ, जीवन में उतारें
महाराज जी! इतना तो हमको याद नहीं रहेगा। तो आप जाने दीजिए, न याद रखें, लेकिन जहाँ कहीं भी जायें, गायत्री मंत्र की शिक्षा दें। उपासना भी बतायें, विधियाँ भी बतायें, जप करना भी बतायें, ध्यान करना भी बतायें, संध्या करना भी बतायें। पर एक चीज भूलें नहीं—गायत्री मंत्र का क्या मतलब होता है? क्या अर्थ होता है? यह जरूर बतायें। लोगों से यह भी कहें कि केवल अर्थ को सुन लेना ही काफी नहीं है। रामायण सुन लेना ही काफी नहीं है। भागवत् सुन लेना ही काफी नहीं है। अखण्ड कीर्तन सुन लेना ही काफी नहीं है। अखण्ड कीर्तन को जीवन में उतार लेना, रामायण को जीवन में उतार लेना, गीता को जीवन में उतार लेना भी आवश्यक है। अगर आपने इनको जीवन में उतारना शुरू न किया और केवल सुनने का माहात्म्य मान लिया कि सत्यनारायण की कथा सुनने से वैकुण्ठ को जाते हैं। भागवत् को सुनने से वैकुण्ठ को जाते हैं। बेटे, अगर आपने यह मान्यता रखी, तो गजब हो जायेगा। फिर आदमी सुनने से ही संतोष कर लेगा। केवल सुनने से ही संतोष नहीं किया जा सकता। सुनना उपयोगी तो है, सुनने का माहात्म्य भी हम बता सकते हैं; लेकिन लोगों को यह बताया जाना चाहिए कि सुनना ही काफी नहीं है।
इस मंत्र में है सारा ऋषियों का ज्ञान
बुखार की दवाई कुनैन है। सुन लिया? हाँ साहब! सुन लिया। बता दिया? हाँ साहब! बता दिया। अब क्या? अब तो आप अच्छे हो जायेंगे। बुखार की दवा कुनैन है, यह आपने सुन लिया। हाँ महाराज। धन्य हो महाराज। सत्य वचन महाराज। मलेरिया इससे अच्छा हो गया? नहीं साहब! अच्छा तो नहीं हुआ। क्यों अच्छा नहीं हुआ? कल तो हमने आपको बता दिया था और आप भी कह रहे थे कि सत्य वचन महाराज। फिर क्यों अच्छा नहीं हुआ? अरे महाराज जी! खाया नहीं। खाया नहीं, तो अच्छा नहीं हो सकता। कोई भी मंत्र ऐसा नहीं है, जिसको आप जबान की नोक से बार-बार रिपीट करते चलें और जीवन को सच से दूर रखें। आचार से दूर रखें। व्यवहार से दूर रखें, सिद्धान्तों से दूर रखें और यह सोचें कि मंत्र जादू दिखा सकता है, तो बेटे ऐसा मंत्र पहले भी कोई नहीं था और अभी भी नहीं है और कभी भी नहीं हो सकता। जिसके शिक्षण को हम जीवन में नहीं उतारें और अक्षरों को रिपीट कर दें और उससे फायदा उठा लें। बेटे, इससे कैसे फायदा मिल सकता है? अक्षरों को रिपीट कर देंगे और हमको फायदा मिल जायेगा, ऐसा नहीं हो सकता। अक्षरों को रिपीट करना काफी नहीं है। अक्षरों को रिपीट करना आवश्यक तो है, उचित भी है। महत्त्वपूर्ण भी है, पर काफी नहीं है। यह अधूरा है, एकांगी है। अक्षरों को रिपीट करने के साथ-साथ उसे जीवन में भी उतारना चाहिए। उतारने के लिए उसके प्रयोग के साथ-साथ हमको फिलॉसफी भी जाननी चाहिए। आपको सर्वसाधारण के पास जाना चाहिए और गायत्री मंत्र का शिक्षण आपको समझाना चाहिए। इसके अन्दर सारा का सारा तत्त्वज्ञान भरा पड़ा है, जो प्राचीनकाल में ऋषियों के पास था। आज इसे सुव्यवस्थित रखना आवश्यक है। उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए यही तत्त्वज्ञान ऐसा है, अगर आप इस प्रकाश को फैला सकें, तो दुनिया का अन्धकार आसानी से दूर किया जा सकता है।
(क्रमशः-समापन अगले अंक में)
गायत्री मंत्र की सही शिक्षा समझें
विगत तीन अंकों से आप इस विषय पर गुरुवर के विचार पढ़ रहे हैं, जो उनने शान्तिकुञ्ज में उपस्थित साधकों के मध्य व्यक्त किए थे। गायत्री मंत्र के जन-जन तक विस्तार एवं इसी के साथ प्रज्ञावतार के विस्तार की व्याख्या पूज्यवर इस प्रवचन के द्वारा कर रहे हैं। इस समापन किश्त को पढ़ने के पूर्व यह जानें कि उनने पूर्व में क्या कहा। उनने अनेक उदाहरणों के साथ अवतारी सत्ताओं के प्रकटीकरण की भूमिका बतायी तथा अभी तक हुए नौ अवतारों की युगानुकूल व्याख्या दी। वे कहते हैं कि आज की समस्याएँ और भी विषम हैं और निरन्तर बदतर होती जा रही हैं। आज अनेक कुप्रथाएँ समाज में हैं, अचिन्त्य चिन्तन मानव को दुर्गति की ओर ले जा रहा है। मनुष्य तनावग्रस्त है। अविश्वास का शिकार हो गया है। ऐसे में अगला दशावतार समूह चेतना के रूप में, विवेक के रूप में होने जा रहा है। वे कहते हैं, कि युग शक्ति गायत्री का अवतरण होगा तो मनुष्य का व्यक्तित्व परिष्कृत होगा, उसमें देवत्व जागेगा। दुनिया में सबसे बड़ा चमत्कार यही है कि मानव बदल जाए। उनने कहा कि पूरे परिवार में संस्कार का विस्तार ही उपासना का लक्ष्य होना चाहिए। इसी से धरती पर स्वर्ग जैसा वातावरण बनेगा। नया विश्व बनेगा। समझदारों की गायत्री त्रिपदा की तीन धाराओं को लेकर आएगी और एकता, समता का युग होगा। हम सबका आज का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है, गायत्री मंत्र की शिक्षाओं को जन-जन तक पहुँचाएँ। अब आगे पढ़ें—
सबसे सुन्दर नाम भगवान् का ॐ
महाराज जी! गायत्री मंत्र का क्या अर्थ है? बेटे चलिए अब हम आपको बताते हैं कि गायत्री मंत्र का क्या अर्थ है। गायत्री के चार चरण हैं। इसमें एक हिस्सा इसका शीर्ष भाग है। शीर्ष कौन सा है? ॐ भूर्भुवः स्वः। इसका क्या अर्थ है? क्या फिलॉसफी है? आप हर एक को समझाना और अपने जीवन में भी उतारना। क्या अर्थ है इसका? बेटे, इसका अर्थ यह है कि भगवान् सर्वत्र है, सर्वव्यापी है। इस छोटे से ‘ॐ’ के माने है—भगवान्! और ‘भूर्भुवः स्वः’ को तीन हिस्से में बाँट सकते हैं। आदमी को अगर व्यक्तिगत मानें, तो इसके तीन हिस्से हैं—स्थूल, सूक्ष्म और कारण। तीन हिस्सों में आदमी बँटा हुआ है। भूः, भुवः, स्वः—स्थूल, सूक्ष्म और कारण हैं। जिस तरह से आदमी का व्यक्तिगत जीवन तीन हिस्सों में बँटा हुआ है, उसी तरह यह संसार भी तीन हिस्सों में बँटा हुआ है। कौन सा? भूः लोक, भुवः लोक और स्वः लोक। एक ऊपर वाला लोक, एक नीचे वाला लोक और एक बीच वाला लोक। अर्थात् ब्रह्माण्ड अथवा पिण्ड। दोनों में से पिण्ड या ब्रह्माण्ड के अर्थ में आप चाहें, तो भूर्भुवः स्वः कह सकते हैं। इन सबमें एक ही सत्ता समायी हुई है और इसका नाम है—‘ॐ’। ‘ॐ’ भगवान् का सबसे बड़ा एवं सबसे सुन्दर नाम है।
ॐ से निकलीं नौ शाखाएँ
सृष्टि के अन्तराल में से जो आवाजें आती हैं, वे ऐसी होती हैं जैसे कि पेण्डुलम का खट-खट चलता रहता है। इसी तरीके से प्रकृति और पुरुष जब आपस में मिलते हैं, तो सूक्ष्मदर्शियों ने देखा है कि उसमें से एक आवाज आती है—ॐऽऽऽम्। जैसे घंटे-घड़ियाल में चोट मार देते हैं और झनझनाहट की आवाज होती है, एक शब्द उठता रहता है। उसी के आधार पर ‘ओ३म्’ का विस्तार हुआ है। जब हम खाना खाकर के पूर्ण हो जाते हैं और पूर्णाहुति करते हैं तो ‘ओ३म्’ शब्द निकलता है। ‘ॐ’ भगवान् का सबसे बड़ा नाम है। गायत्री मंत्र में पहला नाम इसी ‘ॐ’ का है। फिर ‘ॐ’ के तीन बच्चे हो गये—भूर्भुवः स्वः। तीन बच्चों के तीन-तीन पत्ते हो गये, डालियाँ हो गयीं। इसके नाम हैं—तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्। इस तरह तीन-तीन पत्ते तीनों के मिलाकर नौ पत्ते, नौ डालियाँ हो गयीं। मूलतः ‘ॐ’ सर्वत्र व्याप्त है। यह फिलॉसफी है।
आस्तिकता अर्थात् ईश्वर विश्वास
मित्रो! यह दर्शन क्या है? इसका नाम है—आस्तिकता। आस्तिकता का क्या अर्थ होता है? आस्तिकता से क्या मतलब है? दुनिया में आस्तिकता की कई फिलॉसफियाँ हैं। आस्तिकता माने भगवान् पर विश्वास। भगवान् का भजन नहीं—विश्वास। विश्वास के साथ भजन हो तो? तो मुबारक। लेकिन अगर बिना विश्वास के साथ भजन हो, तो उसका क्या मूल्य रह जाता है? महाराज जी! विश्वास क्या होता है और भजन क्या होता है? बेटे, दोनों में जमीन आसमान का फरक है। जमीन-आसमान का फरक ऐसे आदमी में होना संभव है, जो भजन तो बहुत सारा करता हो, परन्तु भगवान् पर विश्वास बिल्कुल न हो। और ऐसे आदमी में होना भी संभव है, जो भगवान् का भजन न करता हो, लेकिन पूरी तरीके से भगवान् का विश्वासी हो। विश्वास और भजन दो बातें हैं। मुकुट और साफा अलग बातें हैं और हमारा शरीर अलग बात है। दोनों को मिला दें, तो अच्छी बात है। भजन में विश्वास को मिला दें, तो फिर क्या कहने का है—सोने और सुगंध का मेल है। लेकिन वास्तव में ये दोनों चीजें अलग हैं।
न्यायकारी ईश्वर
‘ॐ’ माने भगवान्—जो सारे विश्व में संव्याप्त है। इसका क्या अर्थ होता है? इसका एक ही अर्थ होता है कि कण-कण में भगवान् विद्यमान है? और वह भगवान् कैसा है? उस भगवान् का एक ही नाम सही है—न्यायकारी। न्यायकारी भगवान् सब जगह समाया हुआ है। आज आस्तिकता खतम हो गयी है। कर्मफल को लोग भूल गये। जबकि न्यायकारी भगवान् सब जगह समाया हुआ है अर्थात् कर्मफल की सच्चाई इतनी वास्तविक है कि इसको हटाया नहीं जा सकता। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों—आपके कर्मों की सच्चाई आपके सामने आकर रहेगी। भगवान् की प्रसन्नता एक बात पर टिकी हुई है कि आपका कर्म क्या है? कैसा है? भजन पर नहीं, कर्म पर भगवान् की प्रसन्नता टिकी हुई है। अगर आप यह सब समझ लें, तो आस्तिकता का प्राण आपके पास आ गया। न्यायकारी भगवान् सब जगह समाया हुआ है, इसलिए आप छिप करके भी कोई काम नहीं कर सकते। छिप करके आप उससे बच सकते हैं क्या? छिप करके भी आप उससे बच नहीं सकते। जो बातें समाज की जानकारी में आ जाती हैं, पकड़ में आ जाती हैं, उन पर तो मुकदमा चल सकता है, लेकिन छिप करके कर लिया, इसमें क्या बात है? बेटे, उससे कोई बात छिप नहीं सकती। इंसान से आप छिपा सकते हैं, भगवान् से नहीं छिपा सकते।
भक्त वत्सल भी, रुद्र भी
मित्रो! यह मान्यता ‘ॐ भूर्भुवः स्व’ के अन्तर्गत आती है। सर्वव्यापी—एक, न्यायकारी—दो अगर आप भगवान् के यही दो गुण मान लें, तो भी काफी है। महाराज जी, हमने तो सुन रखा है कि भगवान् भक्तवत्सल होते हैं। अगर आपने यह सुन रखा है कि भगवान् भक्तवत्सल होते हैं, तो मैं एक और नाम जोड़ना चाहूँगा। फिर आपकी बात पूरी हो जायेगी। भक्त वत्सल के साथ एक और नाम है—रुद्र। बेटे, इन दोनों का पेयर है। अच्छे काम करने वालों के लिए भगवान् भक्त-वत्सल हैं और बुरे काम करने वालों के लिए रुद्र हैं। रुद्र कैसे होते हैं? जो हण्टर मारते हैं और खाल उखाड़ डालते हैं। अरे, ये भक्तवत्सल हैं कि जल्लाद हैं? आपने देखा नहीं है। श्मशान घाट में जाइये, अस्पतालों में जाइये, दुर्घटना स्थलों पर जाइये, अंधों को देखकर आइये कि भगवान् भक्त वत्सल हैं कि जल्लाद हैं? तो महाराज जी! यह है क्या? कुछ भी नहीं है। आपके जैसे कर्म हैं, कर्म के हिसाब से भक्तवत्सल भी हैं और कर्म के हिसाब से वे जल्लाद भी हैं। आपके कर्म जो कुछ भी हैं, उसी के हिसाब से आपको फल मिलेगा।
हुई है क्रान्ति भगवान् के बारे में
मित्रो! बौद्ध संस्कृति में और जैन संस्कृति में भगवान् के बारे में जो गलत मान्यताएँ थीं, इनसे उन्होंने बगावत कर दी। उन्होंने कहा कि भगवान् दया ही करते हैं, पर सब पर दया नहीं करते। मार भी लगाते हैं। नहीं साहब! जो कोई पूजा करता है, उसको निहाल कर देते हैं। यह गलत बात है। इसकी बगावत पहले से हो चुकी है और भगवान् के बारे में क्रांति हो चुकी है। जैन क्रांति और बौद्ध क्रांति—दोनों क्रांतियाँ ऐसी हैं, जिसमें भगवान् के उस स्वरूप को, जिनको भक्ति-भक्ति चिल्लाते हैं। भक्ति कीजिए, पूजा कीजिए और पैसा लीजिए। भक्ति का मध्यकालीन जो यह अनाचार था, इसके विरुद्ध जैन क्रांति हुई थी, बौद्ध क्रांति हुई थी। हिन्दू धर्म में इसके पहले भी एक क्रांति हुई थी। दो क्रांति वाले अलग हो गये। तीसरी क्रांति वाला हिन्दू धर्म अभी जिन्दा है। उसका क्या नाम है? उसका नाम है—वेदान्त। वेदान्त क्या है? वेदान्त में भी उस भगवान् के धुर्रे उधेड़ दिये हैं। कौन सा वाला? जो पूजा लेता है और निहाल कर देता है। वेदान्त ने चाबुकों से और हण्टर से मार-मार कर उस भगवान् को उखाड़ दिया है। कौन से भगवान् को? भगवान् की उस मान्यता को, जो यह कहती है कि लीजिए मिठाई खाइये और प्रसाद खाइये और बेटा दे जाइये। ग्यारह माला जप करवा लीजिए और निहाल कर दीजिए।
वेदान्त की क्रान्ति
हिन्दू धर्म में भगवान् के जिसने धुर्रे बिखेर दिये हैं, उसका नाम है—वेदान्त। वेदान्त क्या है? ‘अयमात्मा ब्रह्म’, ‘प्रज्ञानंब्रह्म’, ‘चिदानन्दोऽहम्’, ‘सच्चिदानन्दोऽहम्’, ‘अहंब्रह्मास्मि’, ‘तत्त्वमसि’; तात्पर्य यह कि आदमी का जो परिष्कृत स्वरूप है, आदमी का जो विशेष स्वरूप है, वही भगवान् है। आदमी की ‘सुपीरियारिटी’ ही भगवान् है। अगर आदमी की सुपीरियारिटी बढ़ेगी, तो भगवान् की कृपा उसके ऊपर आयेगी। सिद्धियाँ उसके ऊपर आयेंगी। चमत्कार उसके ऊपर आयेगा। भगवान् का असली स्वरूप आदमी के अंतरंग में अवस्थित है। अंतरंग अगर घिनौना है, तो भगवान् आपसे एक करोड़ मील दूर है और अगर आपका अंतरंग परिष्कृत है, तो भगवान् आपके सबसे नजदीक है।
आस्तिक कौन? नास्तिक कौन?
मित्रो! भक्ति की फिलॉसफी, आस्तिकता की फिलॉसफी, पूजा की फिलॉसफी; सारी की सारी फिलॉसफियों को आप इस गायत्री मंत्र में समाविष्ट देख सकते हैं। जिसमें ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ का अर्थ किया गया है—सर्वव्यापी भगवान्, न्यायकारी भगवान्, भक्त वत्सल भगवान् और रुद्र भगवान्। आप इन सबको मिला लें, तो आपकी आस्तिकता सर्वांगपूर्ण हो जाती है। अगर आपको आस्तिक रहना होगा तो, और नहीं रहना होगा तो। आप दोनों में से फैसला करेंगे कि आस्तिकता का स्वरूप यह है और नास्तिकता का स्वरूप यह है। नास्तिक क्या है? नास्तिक माने—आस्थाओं से इन्कार करने वाला। आस्थाओं से इन्कार माने—विश्व व्यवस्थाओं से इन्कार करने वाला। नास्तिक माने—कर्मव्यवस्था से इन्कार करने वाला। जो आदमी यह कहता है कि गंगाजी में नहा करके पाप दूर हो जाते हैं, उसका नाम है नास्तिक। क्योंकि प्रकारान्तर से यह कहता है कि हमको पापों का फल नहीं भुगतना पड़ेगा। जो सनातन विशेषताएँ थीं, शाश्वत विशेषताएँ थीं, जो अध्यात्म का तत्त्वज्ञान था, वह इसीलिए मना करता है कि कर्मफल से आप बच नहीं सकते और ये नास्तिक कहता है कि कर्मफल से हम बच सकते हैं, गंगा जी नहाने से पाप दूर हो सकते हैं।
गायत्री मंत्र की प्रमुख शिक्षा
मित्रो! गंगा नहाने से पाप करने की वृत्ति दूर हो जाय, यह मैं समझ सकता हूँ, लेकिन पापों के दंड दूर हो जायेंगे, तो फिर आदमी पाप करता ही चला जायेगा। इसलिए कर्मफल की व्यवस्था—यह गायत्री मंत्र का पहला वाला चरण है। इसे आप स्वयं समझना और हर आदमी को व्याख्या करना। उनसे कहना कि गायत्री मंत्र ऋषियों की वाणी है। प्राचीनकाल का तत्त्वज्ञान यह समझाता है कि भगवान् की प्रसन्नता कर्मफल वाले विश्वास पर टिकी हुई है। भगवान् की नाराजगी कर्मफल पर टिकी हुई है। भगवान् का अनुग्रह कर्मफल पर टिका हुआ है। भगवान् का प्यार कर्मफल पर टिका हुआ है, पूजा पर नहीं। पूजा का उद्देश्य यही है—कर्मफल के बारे में आदमी की आस्थाओं को परिपक्व करना और आदमी के भीतर वह विश्वास पैदा करना, जिससे कि भगवान् के बारे में आदमी का दिमाग साफ हो जाए। यह क्या है? ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ की शिक्षा, जिसे मैंने आपसे निवेदन किया। इसी का नाम है—आस्तिकता।
आध्यात्मिक त्रिवेणी
मित्रो! चलिए अब और आगे चलिए। अब दूसरा वाला हिस्सा आता है, जिसको ‘आध्यात्मिकता’ कहते हैं। एक तीसरा वाला हिस्सा है। आध्यात्मिकता और धार्मिकता। इन तीन सिद्धान्तों को मिला करके त्रिवेणी, त्रिपदा गायत्री बनायी गयी है। इसमें लोक शिक्षण के लिए आपके लिए पर्याप्त मसाला है। आप जिन्दगी भर इनकी व्याख्या करते रहिए और दृष्टांत देते रहिए और इसके साथ-साथ में प्रमाण पेश करते रहिए। इनमें से आप कुछ भी पेश करते रहिए, इन्हीं तीन बातों में दुनिया का सारा का सारा आधार टिका हुआ है। आध्यात्मिकता क्या है? आध्यात्मिकता बेटे वह है, जो आदमी के व्यक्तित्व और चरित्र एवं आदमी के दृष्टिकोण को परिष्कृत करती है। और मार्गदर्शन करती है कि आदमी का व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए। इसमें क्या किया गया है? इसमें भगवान् के चार नाम लिए गये हैं और एक बात यह बतायी गयी है कि जिस चीज को हम भूल गये हैं, उसको हमें याद करना चाहिए।
आध्यात्मिकता का प्रथम चरण ‘‘तत्’’
मित्रो! गायत्री के इस आध्यात्मिकता वाले चरण में पहले आता है—‘तत्’। ‘तत्’ किसे कहते हैं? ‘तत्’ कहते हैं—किसी दूर पर रहने वाली चीज के लिए इशारा करते हैं और अँगुली से कहते हैं—वह। ‘तत्’ का यही अर्थ है। तो इसका क्या अर्थ हो गया? इसका अर्थ हो गया कि वह हम सबके सामने छाया हुआ है। ‘यह’ मानें सामने वाली चीजें। प्रत्यक्ष, भौतिक चीजों के अलावा आदमी की इच्छा में और कुछ है ही नहीं। इसके अलावा वह हमको याद ही नहीं आता। वह कौन? वह बेटे—परलोक, अगला जन्म, पुनर्जन्म। वह भगवान्, वह उद्देश्य, वह आदर्श, वह अन्तरात्मा। यह परोक्ष है और हमको इसका ध्यान ही नहीं रहता। चौबीसों घंटे प्रत्यक्ष ही दीखता है। कल्पना में प्रत्यक्ष, चलने में प्रत्यक्ष, खाने में प्रत्यक्ष, तुरन्त की बात, तत्काल की बात दिखाई पड़ती है। ‘यह’ अर्थात् संसार अर्थात् भौतिक पदार्थ—सारे के सारे जीवनक्रम में भीतर से लेकर बाहर तक यही हमारे रोम-रोम में छा गयी है। आध्यात्मिकता हमसे लाखों मील दूर है। सिद्धान्त हमसे लाखों मील दूर हैं। आदर्श हमसे लाखों मील दूर हैं। भावनाएँ हमसे लाखों मील दूर हैं और निष्ठाएँ हमसे लाखों मील दूर हैं और जीवन का जो सबसे महत्त्वपूर्ण अंश था, वह दूर है।
‘‘यह’’ भी और ‘‘वह’’ भी दोनों सँभालें
मित्रो, इसलिए गायत्री मंत्र में इशारा किया गया है कि ‘तत्’—‘वह’ को आप देखिये तो सही। इसे भी जीवन में रखिए, भूलिए मत। ‘वह’ कौन?—इसमें व्यक्ति का भविष्य भी आता है, परमात्मा भी आता है और जो प्रत्यक्ष नहीं है, परोक्ष है, अप्रत्यक्ष है, ‘वह’—‘तत्’ सारे के सारे इशारे कर देता है। गायत्री के ‘तत्’ शब्द में यही व्याख्यान है। आप इसे दुनिया भर को समझाना कि ‘वह’ की भी सोचिए। यह तक ही सीमित मत रहिए। ‘यह’ को तो सँभालिए ही, पर ‘वह’ को भी सँभालिए। ‘वह’ को सँभाल लेंगे, तो ‘यह’ ठीक हो जायेगा। ‘वह’ को आप सँभाल नहीं पायेंगे, तो ‘यह’ भी ठीक नहीं हो सकता।
चार नाम—चार शिक्षाएँ
मित्रो! ‘तत्’—भगवान् के चार नाम हैं। भगवान् के चार मुख हैं। ब्रह्माजी के चार मुख हैं और उनके चार वेद हैं। भगवान् के चार नाम आप याद रख लें, तो काफी है। सहस्र नाम भी हो सकते हैं, अट्ठाइस नाम भी हो सकते हैं। १०८ नाम भी हो सकते हैं, पर गायत्री में चार नाम आप लें और चारों के भीतर जो चार गुण बताये गये हैं, उन्हें अपने भीतर धारण करते चले जायें। वे क्या हैं? ‘सवितुः, वरेण्यं, भर्गो, देवस्य’—बस यही चार नाम हैं इसमें। इन चार नामों में क्या है? चार शिक्षाएँ हैं, चार आदेश हैं। आपके लिए चार दिशाएँ हैं। आपके लिए चार कर्तव्य हैं। चार वर्ण, चार आश्रम, जो कुछ भी आप मान सकते हैं, चार वेद, चार दिशाएँ, चार धातुएँ, भगवान् के इन चारों नामों में भरी हुई पड़ी हैं। भगवान् के ये चार गुण हमारे लिए अति आवश्यक हैं। भगवान् में तो लाखों गुण हैं। तो क्या वे सब हमारे लिए आवश्यक नहीं हैं? बेटे, आप चार गुणों को ही ग्रहण कर लें और उन चारों को जीवन में उतार लें, तो आपका भला हो सकता है और आप वास्तविक अर्थों में भक्त कहला सकते हैं।
सवितावान् बनें
इन गुणों में पहला कौन सा है? सवितुः—सविता। सविता भगवान् का नाम है। सविता के अन्तर्गत दो बातें आती हैं—रोशनी और गर्मी। इन विशेषताओं वाला भगवान् जिसको हम सविता कहते हैं। इसकी यह दो विशेषताएँ हमारे जीवन में रहनी चाहिए। रोशनी रहनी चाहिए। रोशनी का अर्थ है हमारी ख्याति, हमारा यश, हमारा प्रभाव और हमारा वर्चस्व। हमारा जीवनक्रम ऐसा हो, जो प्रकाश फैलाता हुआ चले। जो दीपक के तरीके से प्रकाश फैलाये। समुद्र में खड़े हुए प्रकाश स्तंभों के तरीके से प्रकाश फैलाये। टिमटिमाते हुए तारों के तरीके से प्रकाश फैलाये। चाँद और सूरज के तरीके से प्रकाश फैलाये। हमारे अंतरंग जीवन में और बहिरंग जीवन में प्रकाश ही प्रकाश भर जाये। अंधकार में हम ठोकर खाते फिरते हैं, अतः बार-बार ठोकर न खानी पड़े—‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’। हमारे भीतर से प्रकाश, हमारे जीवन में प्रकाश, हमारे दृष्टिकोण में प्रकाश ही प्रकाश भर जाय। अभी तो हमारे जीवन में घोर अंधकार ही अंधकार छाया हुआ है। तमस् हमारे भीतर छा गया है। इस तमस् का निराकरण करने के लिए प्रकाश और गर्मी की आवश्यकता है।
श्रेष्ठ का वरण
गर्मी से क्या मतलब है? गर्मी से मतलब है—बेटे पराक्रम और पुरुषार्थ। आपका पराक्रम चला गया, पुरुषार्थ चला गया और आपके पास केवल ज्ञान रह गया। तो यह ज्ञान कर्म के बिना अधूरा है। पुरुषार्थ के बिना भक्ति अधूरी है। इसलिए पराक्रम और पुरुषार्थ भक्ति के साथ जुड़ा रहना चाहिए। ‘अग्रतः चतुरो वेदः पृष्ठतः सशरम् धनुः, इदं ब्राह्मम् इदम् क्षात्रम् शास्त्रादपि शरादपि।’ हमारे ज्ञान और कर्म दोनों का समन्वय होना चाहिए। यह शिक्षण कौन करता है? यह करता है सविता, जो रोशनी और गर्मी दोनों का प्रतीक है। सविता के गुण, सविता के कर्म, सविता के स्वभाव, सविता के संदेश की हमको नकल करनी चाहिए। अब आता है—‘वरेण्यं’। ‘वरेण्यं’ क्या है? वरेण्यं है—श्रेष्ठ का चुनाव, वरण कर लेना। ब्याह शादियों में जैसे वरण कर लेते हैं। पंडित का वरण कर लेते हैं अर्थात् जिसको बाँध लिया, अपना लिया, ग्रहण कर लिया। इसका एक अर्थ यह है और ‘वरेण्य’ का एक अर्थ श्रेष्ठ है। अर्थात् वरेण्य माने श्रेष्ठ। वरेण्यं माने किसी को पकड़ लेना, बाँध लेना, अपना लेना। यही दो अर्थ वरेण्यं के हैं। क्या है कि दुनिया में दो तरह की मिली हुई चीजें आपके सामने रखी हैं—एक छोड़ने योग्य और एक ग्रहण करने योग्य। एक वरेण्य और एक त्याज्य। दो चीजें हैं आपकी थाली में। देखिए साहब! इसमें वरेण्य भी है और बिना वरेण्य भी है। आपके सामने निष्कर्ष भी विद्यमान है। अब आप कार्यों में से, व्यक्तियों में से, मित्रों में से चुनाव कीजिए। हर जगह आप देखेंगे कि दोनों का समन्वय रखा होगा।
हंसवृत्ति—वरेण्य वृत्ति
मित्रो! आपके भीतर एक ऐसा विवेक होना चाहिए, जिसमें से ‘वरेण्य’ को चुन लें। श्रेष्ठ को चुन लें। आदर्शों को चुन लें। उत्तम को चुन लें। और जो आदर्श नहीं है, उत्तम नहीं है, निकृष्ट है, उसको ठोकर मारते हुए चले जायँ। नहीं साहब! आपकी हमको जरूरत नहीं है, आप चले जाइये। नहीं भाई साहब! हम आकर्षक हैं। आप आकर्षक है, तो रहें, हम क्या कर सकते हैं। हमको तो ‘वरेण्य’ ही स्वीकार है। आदर्श स्वीकार्य है। औचित्य स्वीकार्य है और जो बिना औचित्य के है, उसे हम स्वीकार नहीं करेंगे। आपको दबाव डालना हो, तो दबाव डाल सकते हैं और आप चाहें तो हमको लुभाने के लिए कोशिश कर सकते हैं। लेकिन आपका लोभ और आपका दबाव, इन दोनों में हम आने वाले नहीं हैं। हम केवल ‘वरेण्य’ को ही ग्रहण करेंगे। जैसा कि हमने इस बावत कहा था कि हंस केवल ‘वरेण्य’ को ही ग्रहण करता है और जो नगण्य होता है, उसे छोड़ देता है। भगवान् की वह वृत्ति, जिसके लिए इसका नाम वरेण्य रखा गया है, यह हमारे वृत्ति का, स्वभाव का अंग होना चाहिए। हमारे आदर्शों में इसका स्थान होना चाहिए।
पाप वृत्ति को भून डालें
‘भर्गो’ यह ‘भर्ग’ क्या है? भर्ग कहते हैं—भून डालने को। क्या भून डालना? देखो, भड़भूजा भाड़ में जिस तरह से चने डालता है और वे भड़-भड़ करते हैं न? हाँ साहब! करते हैं। बस तू समझ ले कि ‘भर्ग’ का अर्थ उससे मिलता-जुलता है। यों तो ‘भर्ग’ के कई अर्थ होते हैं। संस्कृत में भर्ग को तेजस्वी भी कहते हैं, पर यहाँ पर मैं सबसे सरल अर्थ बताता हूँ। वह सबसे सरल अर्थ है—भून डालना। इसका क्या अर्थ है? भून डालने से यह अर्थ है कि इस संसार में कुछ चीजें ऐसी हैं, जो पोषण के लिए आवश्यक हैं। उन्हें पानी देना चाहिए। हर चीज को बढ़ाने की जरूरत नहीं है। हर एक पर दया करेंगे। हर एक की सेवा करेंगे। हर एक को पुण्य करेंगे। बेटे, ऐसा नहीं हो सकता। दोनों में से चुनकर कुछ ऐसी चीजें है, जिनका संवर्धन करना चाहिए और कुछ चीजें ऐसी है जिनकी मारकाट और तोड़-मरोड़ करनी चाहिए। नहीं साहब। सबका भला करना चाहिए। नहीं बेटे, सबका भला नहीं हो सकता। एक का बुरा होगा, तो दूसरे का भला होगा। चाहे पाप हो, चाहे अनाचार हो, चाहे अनीति हो, चाहे अत्याचार हो। इसके विरुद्ध हमको सीना तान करके लड़ने के लिए भी खड़ा हो जाना चाहिए।
अवतार के दो ही उद्देश्य
मित्रो! भगवान् के जितने भी अवतार हुए हैं, उनके सामने दो उद्देश्य रहे हैं। एक उद्देश्य यह रहा है अच्छाई को बढ़ाना और दूसरा—बुराई को मारना। मारना भी उनका काम रहा है। परिपोषण भी काम रहा है। नहीं साहब! हम तो परिपोषण करेंगे। किसका परिपोषण करेगा? सबका करेंगे। कसाई का भी करेंगे और चाण्डाल का भी करेंगे। चोर का भी करेंगे, लुच्चों का भी करेंगे। बेटे, ऐसा नहीं हो सकता। तू बिच्छू को पालेगा, तो वह बच्चे को डंक मारेगा। बच्चे को जिन्दा रखना है, तो बिच्छू को मार। दुनिया में जो अनीतियाँ हैं, पाप हैं, अनाचार हैं, अत्याचार हैं, उनके विरुद्ध लोहा लेना भी अध्यात्मवादी का काम है। नहीं सबका ही पोषण करना चाहिए। बेटे, सबका नहीं करना चाहिए। किसने कहा तुझसे कि सबका पोषण करना चाहिए? अरे साहब! वह बाबाजी कह रहा था। बाबाजी को मारा नहीं। नहीं साहब! वह कह रहा था कि सबका पोषण करना चाहिए—अनीति का भी, नीति का भी, अनुचित का भी और उचित का भी। सबके सब भगवान् थे। कौन से? मन्थरा भी भगवान् थी, कैकेयी भी भगवान् थी और कौशल्या भी भगवान् थी। और रावण भी भगवान् था। चुप! जाहिल कहीं का, रामायण की व्याख्या करने चला है? बुद्धू कहीं का। नहीं साहब! रावण भी भगवान् था और वह भगवान् का वैर करके भक्ति कर रहा था और भरत जी प्यार करके भक्ति कर रहे थे। रावण डरकर भक्ति कर रहा था। चुप कर, जीभ को बंद रख। लोगों को बहकाता है। अनीति के प्रति लोगों के क्षोभ और रोष को बंद करता है। रावण के प्रति घृणा भाव खतम करता है। नहीं साहब! वह भक्त था। कैकेयी भक्त थी और वह फलानी भक्त थी। चल! बड़ा आया बुद्धिजाल फैलाने वाला।
देवत्व का संवर्धन
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको दो धाराओं की जानकारी रखनी पड़ेगी। एक धारा संसार में ऐसी है, जिसका परिपोषण करना चाहिए और एक धारा ऐसी है जिसका हमें निराकरण करना चाहिए। उससे लोहा लेना चाहिए, लड़ना चाहिए। इसका विरोध करना चाहिए। असहयोग करना चाहिए, अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो दुनिया में गुण्डागर्दी बढ़ेगी। सबका परिपोषण करेंगे, सबका भला करेंगे, सबको खाना खिलायेंगे, सबको पानी पिलायेंगे और सबको ठहरायेंगे, तो उसका लाभ गुण्डे उठायेंगे, चोर उठायेंगे, बदमाश उठायेंगे और भले आदमी मारे जायेंगे। आध्यात्मिकता का एक लक्ष्य यह भी है, जिसको ‘भर्गो’ कहा गया है। चौथे वाले भगवान् का नाम है—देवस्य। देवस्य किसे कहते हैं? देवस्य कहते हैं—दिव्य को और देने वाले को। आदमी के भीतर दो विशेषताएँ होनी चाहिए। भगवान् के भीतर भी दो विशेषताएँ हैं। अगर आप भक्त हैं, अध्यात्मवादी हैं, तो आपको अपने जीवन में दिव्यता को धारण करना चाहिए और देने वाला होना चाहिए। आपको देवता बनना चाहिए। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण ही प्रज्ञावतार का मुख्य उद्देश्य है। दिव्यता को धारण किये बिना आप इसे चरितार्थ नहीं कर पायेंगे। इसलिए गायत्री महामंत्र के ‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य’ के चारों गुणों को जीवन में धारण करें और व्यावहारिक धरातल पर चरितार्थ करें। बस आज की बात समाप्त।
॥ॐशान्तिः॥
नोट—परम पूज्य गुरुदेव ने इस उद्बोधन का उत्तरार्ध ‘‘धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्’’ की व्याख्या के रूप में अगले दिन दिया था, जो योगवश उपलब्ध नहीं है। —संपादक