गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! लोहे को गलाए बिना हम उससे कीमती हथियार नहीं बना सकते, पुरजे नहीं बना सकते। आप इससे क्या बनाएँगे? साहब! हमारा मन पुरजे बनाने का है, तलवार बनाने का है, तरह-तरह के औजार बनाने का है। लोहे से कैसे बनाएँगे? पहले इसको गलाएँगे, तपाएँगे। जब तक इसे गलाएँगे-तपाएँगे नहीं, तब तक कोई हथियार नहीं बन सकता। सोना हमारे पास है और उससे हमें कई तरीके के जेवर बनाने हैं। क्या-क्या जेवर बनाने हैं? बहुत बढ़िया वाले जेवर बनाने हैं। तो सोने से यों ही बनाइए न? नहीं साहब! जब तक तपाएँगे नहीं, गलाएँगे नहीं, तब तक सोने से कोई जेवर नहीं बन सकता।
गलाई और ढलाई
मित्रो! ठीक इसी तरह इनसान को गलाए बिना, तपाए बिना कोई कीमती नसल नहीं बन सकती। बहादुर महापुरुषों के इतिहास जब हम पढ़ने लगते हैं तो हमको यह बात पता चलती है कि इनमें से हर व्यक्ति को तपता पड़ा है, गलना पडा़ है और ढलना पड़ा है। गरम होना पड़ा है। आप क्या चाहते हैं? साहब, हम तो चैन की जिंदगी जीना चाहते हैं और खुशहाली की जिंदगी जीना चाहते हैं, मौज करना चाहते हैं, मजे उड़ाना चाहते हैं। और क्या करना चाहते हैं आप? और हम आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलना चाहते हैं। खबरदार! बकवास बंद कीजिए। किस बात की? इस बात की कि आप आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलना चाहते हैं, भगवान के रास्ते पर चलना चाहते हैं। अपने शरीर में से शक्तियाँ उभारना चाहते हैं, सिद्धियाँ उभारना चाहते हैं। देवता को इस शरीर में अवतरित करना चाहते हैं। इस घिनौने जीवन में, जिसमें कि विलासिता कूट-कूटकर भरी हुई है, ऐय्याशी कूट-कूटकर भरी हुई है, खुदगर्जी कूट-कूटकर भरी हुई है। इस शरीर में महानता किस तरह से पैदा कर पाएगा? नहीं साहब! हम महानता पैदा कर सकते हैं। ग्यारह माला जप करेंगे। बंद कीजिए आप ग्यारह माला। नहीं साहब! ग्यारह माला जप करेंगे, हनुमान चालीसा का पाठ करेंगे, देवी का पाठ करेंगे। आपकी मरजी है, चाहे जो करें या न करें, लेकिन महानता का उद्देश्य, आध्यात्मिकता का एकमात्र उद्देश्य है कि आपको अपने आप को तपाना पड़ेगा, अपने बहिरंग जीवन को गरम करना पड़ेगा। तपाने और गरम करने की प्रक्रिया को मैं समझाता हुआ चला आ रहा हूँ आपको और यह बताता आ रहा हूँ कि आदमी को अपना उद्धार करने के लिए और दूसरों का उद्धार करने के लिए तपस्वी का जीवन जीने के अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं है। आध्यात्मिकता के लिए भी इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। विलासिता का जीवन जिएँगे, ऐय्याशी का जीवन जिएँगे और आध्यात्मिकता के लाभों को प्राप्त करेंगे—बेटे, ये बेकार के सपने देखना बंद कर। दोनों काम साथ साथ नहीं हो सकते-''दुइ कि एकसंग नहि होहिं भुआलू। हसब ठठाइ फुलाउब गालू।'' आप दोनों काम एक साथ किस तरह से करेंगे? जोर से हँसेंगे तो आप गाल नहीं फुला सकते और अगर गाल फुलाएँगे तो हँसने का उद्देश्य पूरा नहीं कर पाएँगे। हँसना और गाल फुलाना, दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते।
मित्रो! स्वार्थी और घिनौना जीवन, विलासी और निकम्मा जीवन जीते हुए आप आध्यात्मिकता की दिशा में नहीं बढ़ सकते। दोनों चीजें एक साथ नहीं हो सकतीं। हम पूरब को भी चलेंगे और पश्चिम को भी चलेंगे। पूरब और पश्चिम, दोनों दिशाओं की ओर आप एक साथ नहीं चल सकते हैं। अगर आप पूरब की ओर चलेंगे तो पश्चिम की ओर नहीं जा सकते और पश्चिम को चलेंगे तो पूरब को नहीं जा सकते। इसी तरह तृष्णाओं का, वासनाओं का जीवन जिएँगे तो आप आध्यात्मिक प्रगति की ओर नहीं बढ़ सकते। आध्यात्मिक प्रगति की ओर बढ़ेंगे तो आपको वासनाओं-तृष्णाओं से भरे जीवन पर अंकुश लगाना पड़ेगा। आप इन दोनों के फायदे उठाना चाहते हैं तो यह नहीं हो सकता। एक को मंजूर कर लीजिए और एक को मना कर दीजिए। ''हमको यह करना है कि नहीं करना है'', ''इधर चलना है कि नहीं चलना है''- आप यह फैसला कर लें तो नफे में रहेंगे। दोनों तरफ चलेंगे तब? तब हम क्या कह सकते हैं?
दोहरा व्यक्तित्व न हो
बेटे, इस संबंध में हम कछुए का एक छोटा सा किस्सा सुनाते हैं। दोनों तरफ चलने वाले एक साँप का और एक कछुए का किस्सा ''अखण्ड ज्योति'' में छपा है। एक साँप के दो मुँह थे—एक आगे की तरफ और एक पीछे की तरफ। यह जापान का किस्सा है। उसका मालिक जब उसे दूध पिलाता था तो दोनों के बीच में रस्सी लगा देता था, ताकि दोनों साँप आपस में लड़ने न पाएँ। ये क्या करते थे? दोनों एक−दूसरे को काटने की कोशिश करते थे और दूध छीनने का प्रयत्न करते थे। कछुआ ऐसे ही था। उसका एक मुँह पीछे की तरफ था और एक आगे की तरफ। पीछे वाला कछुआ पीछे की तरफ चलने की कोशिश करता था और आगे वाला कछुआ यह कोशिश करता था कि आगे की ओर चलना चाहिए। इस तरह सारा दिन खींच-तान करता रहता था। आधा इंच इधर से चला, आधा इंच उधर चला, सारे दिन ऐसे ही चलता रहता था।
मित्रो! आपके भीतर अगर दो व्यक्तित्व बने रहेंगे तो आप एक भी सफलता नहीं प्राप्त कर सकेंगे। अगर आप दुनिया में ऐय्याशी का, विलासिता का, तृष्णा का जीवन भी जीना चाहेंगे और आध्यात्मिकता की चालें भी चलना चाहेंगे तो आपकी हैसियत उस कछुए जैसी हो जाएगी, जैसे मैं अभी कह रहा था। एक फैसला कर लीजिए कि आपको कहाँ चलना है? एक रास्ता बंद कर दीजिए। अगर आपको आध्यात्मिकता की राह पर चलना है तो आप अपने भौतिक जीवन को तपस्वी बनाने के लिए कष्ट दीजिए।
तपस्वी जीवन बनाइए
भगवान बुद्ध अंतिम भगवान हैं, जो हमारे सबसे नजदीक आते हैं। भगवान के दस अवतार हुए हैं या बीस, इस बहस में मैं नहीं पड़ता। दस अवतारों का भी जिक्र आता है और चौबीस अवतारों का भी जिक्र आता है। दोनों ही अवतारों में अंतिम अवतार हमारे बुद्ध हुए। भगवान बुद्ध ने जनसाधारण का जैसा बढ़िया मार्गदर्शन किया है, मैं नहीं जानता कि इससे भी अच्छा कोई मार्गदर्शन किया गया हो। कलाओं के इतिहास में भगवान की कलाओं का जैसे-जैसे विकास हुआ है उस क्रम में सबसे ज्यादा कलाएँ भगवान बुद्ध में हैं। परशुराम जी में तीन कलाएँ थीं, रामचंद्र जी की बारह कलाएँ पुराणों में मानी गई हैं। श्रीकृष्ण भगवान की सोलह कलाएँ मानी गई हैं। बुद्ध की कितनी कलाएँ मानेंगे, मुझे मालूम नहीं, लेकिन कलाओं के क्रम का यह इतिहास बढ़ता हुआ चला गया। मत्स्य, कच्छप से लेकर वामन, वाराह तक कलाओं का यह क्रम पुराण ग्रंथों में भरा हुआ पड़ा है। श्रीकृष्ण भगवान को हम सोलह कला का मानते हैं तो बुद्ध भगवान की भी इतनी तो होगी ही। बीस कलाएँ तो उनकी माननी पड़ेगी। पुराणों में कहीं लिखा जरूर होगा, पर मेरी निगाह में नहीं आया। उनकी जरूर ज्यादा कलाएँ रही होंगी। उन्होंने यह बताया था कि अपने आप को संपन्न और दूसरे आदमियों को समुन्नत बनाने के लिए अगर आदमी को कुछ करना चाहिए तो उसकी गतिविधियाँ क्या होनी चाहिए? इसके लिए भगवान बुद्ध के पास एक ही हथियार था—तपस्वियों का हथियार। तपस्वियों का हथियार प्राप्त करके बुद्ध स्वयं समर्थ बने थे।
मित्रो! मैं सोचता था कि दुनिया में सबसे संपन्न आदमियों में भगवान बुद्ध का नाम होना चाहिए। इनसे और कोई मालदार है? नहीं, उनसे और अधिक कोई मालदार नहीं हो सकता। मालदारों में फोर्ड का नाम मैंने सुना है, निजाम हैदराबाद का सुना है और भी बेटा छप्पन आदमियों के नाम आते हैं, पर मैं जानता हूँ कि भगवान बुद्ध का नाम, केवल आज के जमाने में ही नहीं है, पहले भी उनसे अधिक मालदार कोई भी आदमी नहीं हो सकता। कम्बोडिया का अंगकोरवाट भगवान बुद्ध की संपन्नता का स्मरण दिलाता है। यह एक विशाल बुद्ध विहार था।
बेटे और क्या बताऊँ आपको, सारे संसार में चले जाइए अरब देशों में मक्का-मदीना के पास जो पुराने बौद्ध विहार बने हुए हैं, उनका इतिहास हमने अपनी ''भारतीय संस्कृति के विश्व को अजस्र अनुदान'' में लिखा हुआ है। मक्का-मदीने में जहाँ हजरत मोहम्मद साहब की मीनार बनाई गई थी, वहाँ का बौद्ध विहार उससे भी ज्यादा ऊँचा था, ऊपर से दिखाई पड़ता था। अत: हुक्म दिया गया कि इसको तोड़ा जाए गिराया जाए और यहाँ के विहार बंद किए जाएँ। सारे के सारे मुसलिम देशों में और सारे के सारे अरब देशों में बुद्ध विहार फैले पड़े थे।
क्रांति का मूल—तप
भगवान बुद्ध ने अपने समय में समय के प्रवाह को बदलने के लिए प्रयत्न किया था। यह प्रयत्न उनने किसके माध्यम से किया था? प्रचारकों के द्वारा। उनके पास प्रचारकों की सेना रहती थी। तो क्या यह सेना पंडितों की थी या उपदेशकों की? नहीं भाई! तपस्वियों की थी। तपस्वियों की सामर्थ्य असीमित होती है। सामर्थ्य की दृष्टि से एक ही व्यक्ति संपन्न हो सकता है और उसका नाम है—तपस्वी। लेकिन संसार की दृष्टि में वही व्यक्ति बलवान हो सकता है, जिसके हाथ में या तो पैसा हो अथवा बंदूक। चीनी नेता माओ कहते थे, ''क्रांति या ताकत बंदूक की नली में से निकलती है।'' माओ की बात भी ठीक हो सकती है। क्या पता, ताकत बंदूक की नली से निकलती होगी? लेकिन जिसको हम आध्यात्मिक ताकत कहते हैं, उस आध्यात्मिकता की शक्ति को यदि आप स्वीकार करते हों तो मैं यह कहता हूँ कि यह ताकत एक ही जगह से निकलती है और उसका नाम है—तपश्चर्या। तपश्चर्या के अलावा वह कहीं से नहीं निकलती है और न निकल सकती है।
गुरुजी, और ये भजन-पूजन? बेटे, ये तो उसके शृंगार हैं। जिस तरह बंदूक की, तलवार की मूठ तरह-तरह की होती हैं, म्यान तरह-तरह की होती हैं। कोई मखमल की म्यान होती है, कोई मूठ किसी चीज की बनी होती है, कोई सोने की बनी होती है, किसी में हीरे के नग जड़े हुए होते हैं। तरह-तरह के शृंगार होते हैं और उनके अनुसार तलवार की कीमत ज्यादा हो जाती है। हम जानते हैं कि किसी जमाने में बादशाह की तलवारें बहुत अच्छी और कीमती होती थीं। ये शृंगार के कारण थीं। इसी तरह मंत्र आपके शृंगार हैं, जप आपके शृंगार हैं, पूजा आपके शृंगार हैं, शक्ति के स्रोत नहीं हैं। अगर ये शक्ति के स्रोत रहे होते तो पंडितों के पास तो अब तक कब की ताकत आ गई होती। पंडित तो सारे देवी-देवताओं का पाठ करना जानते हैं। आप नहीं जानते, आपको देवी का, चंडी का पाठ करना नहीं आता, परंतु पंडित जी को आता है। पंडित जी श्लोक बोलना ठीक से जानते हैं, आपको नहीं आता अगर इसके साथ तप भी 'जुड़ा होता तो, अब तक पंडित अमीर हो गए होते, करोड़पति हो गए होते दुनिया के मालिक हो गए होते, अगर इनके कर्मकाण्डों में ताकत रही होती।
तप से उत्पन्न होती है विद्या
मित्रो! कर्मकाण्डों में ताकत नहीं है। ताकत वहाँ होती है, जहाँ पर अपने आप को तपाने के बाद में आदमी शक्ति का उदय करते हैं। हमने आपको मृगी ऋषि का किस्सा बताया था और कितनों का किस्सा बताया था। ऋषियों के पास किसकी महत्ता थी, क्या महत्ता थी, बताइए? विद्वान थे, किताब पढ़ते थे? नहीं पड़े थे वहाँ तक जहाँ तक हम लोग पढ़े हैं। क्या वे लोग इतने ही ज्ञानी थे, जितने कि हम लोग विद्वान हैं? आज के पी -एच० डी ० के ज्ञान का मुकाबला प्राचीनकाल के विद्वान से कैसे किया जाए? बेटे, प्राचीनकाल में एक-एक ऋषि एक-एक विषय में पारंगत होता था। विश्वामित्र जी ने एक विषय में पारंगतता हासिल की थी और वह थी—गायत्री। गायत्री में पी०एच०डी० थे विश्वामित्र जी। आज हम सारे के सारे तीस हजार वेद के मंत्रों का व्याख्यान कर सकते हैं। इस जमाने में शिक्षा ज्यादा है। उस जमाने में शिक्षा की वजह से ''एग्जाम-परीक्षा'' नहीं होती थी, वरन तपश्चर्या की वजह से ''एग्जामिनेशन'' होते थे। ऋषियों की महत्ता, ऋषियों की गरिमा, ऋषियों का गौरव इस बात पर टिका हुआ था कि उन्होंने अपने जीवन में तपश्चर्या को किस मात्रा में ग्रहण किया था।
साथियो! मैं आपसे यह निवेदन कर रहा था कि आपके जीवन में तपश्चर्या के लिए स्थान मिले। अगर आप स्वीकार करें कि हम तपस्वी जीवन जिएँगे, तब क्या हो जाएगा? तब आपका बहिरंग जीवन, जो पंचतत्त्वों का बना हुआ है, जो पदार्थों से संबंधित है, जो दुनिया से संबंधित है और उसे प्रभावित करता है, उसे प्रभावित करने के लिए आप तपश्चर्या के माध्यम से शिक्षित कर सकते हैं और श्रद्धालु बनने के बाद में अगर आप में सामर्थ्य है तो भगवान को भी अपनी सहायता करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। ''मजबूर'' शब्द? हाँ बेटे, उसके अलावा और कोई शब्द मेरे पास नहीं है।
आप भगवान से दया की बात करते हैं कि भगवान बड़े दयालु हैं, कृपालु हैं। नहीं बेटे, मेरा ऐसा विश्वास नहीं है कि भगवान दयालु हैं, कृपालु हैं। अगर भगवान दयालु हैं कृपालु हैं तो मैं यह सोचता हूँ। कि मय्यत में जाकर के मैं बैठूँ और सवेरे से शाम तक भगवान की दयालुता की पोल खोलता जाऊँ। मरघट में आप जाइए और भगवान की पोल खोलते जाइए-ये कौन मर गया? जवान आदमी मर गया। उसकी माँ बिलख रही है, उसके बच्चे बिलख रहे हैं, औरत बिलख रही है। यह कैसे हो गया? यह किसने मार डाला? भगवान ने। भगवान को आप गाली देंगे। आप अस्पताल होकर आइए और देखिए कि भगवान कितना दयालु है। वहाँ कितने आदमियों की आँखें फोड़ी जा रही हैं, कितनों के हाथ काटे जा रहे हैं, कितनों का क्या किया जा रहा है। ये कौन कर रहा है? भगवान कर रहा है। तो भगवान को गाली दें? नहीं, मैं गाली नहीं दे सकता, आप गाली दीजिए। तो फिर आप क्या कहेंगे? बेटे, इसे मैं केवल न्यायाधीश कह सकता हूँ।
कायदे-कानून वाला भगवान
गुरुजी! आप भगवान को न्यायाधीश क्यों कहते हैं? बेटे, मैं न्यायाधीश इसलिए कहता हूँ कि बिजली के तरीके से भगवान के कुछ कायदे और कानून हैं। बिजली के कायदे और कानून का हम पालन करते हैं तो वह पंखा चलाती है, बत्ती जलाती है, हमारा रेफ्रीजरेटर चलाती है, हर चीज चलाती है। भगवान भी बड़े दयालु हैं, बिजली के तरीके से। बिजली हमारी बहुत सेवा करती है। बिजली हमारे कमरे को गरम करती है। बिजली हमारे कमरे को ठंडा भी कर देती है। हमें टेलीविजन दिखा देती है। हमारा रेडियो चला देती है। बिजली हमारे कुएँ में से पानी निकालकर लाती है। बिजली जितनी सेवा कर सकती है, उतनी दस नौकर भी नहीं कर सकते। बिजली रातभर हमारे ऊपर पंखा झलती है। बेटे, वह बड़ी दयालु है। इससे बड़ा दयालु और कौन हो सकता है। माता और नौकर भी रातभर पंखा नहीं झल सकते। नौकर को भी नींद आ जाती है, कभी हाथ धीमा चलाता है तो कभी तेज चलाता है, लेकिन बिजली आपका पंखा बिना रुके एक स्पीड से चलाती रहेगी। एक दिन चलवाइए दो दिन चलवाइए वह बिना थके चलाती रहेगी। इससे बड़ा दयालु और कोई हो सकता है क्या? नहीं बेटे, बिजली से बड़ा दयालु कोई नहीं हो सकता। इसलिए उसे दयालु कहने में हमें कोई आपत्ति नहीं है।
लेकिन मित्रो! आपको मालूम होना चाहिए कि बिजली बड़ी खौफनाक और खतरनाक भी है। अगर आप बिजली का गलत तरीके से इस्तेमाल करेंगे तो वह आपको मार डालेगी, आपके बच्चे को मार डालेगी, आपकी औरत को मार डालेगी। सब चीजें बरबाद हो जाएँगी। अरे साहब! आप तो दयालु हैं। नहीं भाईसाहब! हम दयालु नहीं हैं। तो आप क्या हैं? नियम हैं, मर्यादा हैं, कायदा हैं और कानून हैं। अगर यह बात आप मान लेंगे तो आगे चलेंगे। आप यदि यही मानते रहेंगे कि भगवान को फुसलाकर उल्लू सीधे किए जाते हैं तो आप झक मारते रहेंगे। आप फुसलाने के चक्कर में फँसे रहेंगे तो फुसलाइए। अच्छा आप भगवान को फुसलाकर क्या करेंगे? अपना उल्लू सीधा करेंगे उल्लू सीधा करना किसे कहते हैं? जो हमारी उचित और अनुचित माँगों को पूरा कर दे, जो हम माँगे, वह लाकर दे दे, वह उल्लू है।
बेटे, ये विचार आप मन से निकाल दें। यदि यही विचार अपने मन में भरे रहेंगे तो आप आध्यात्मिकता से बहुत दूर बने रहेंगे। आध्यात्मिकता भी आपसे बहुत दूर रहेगी, क्योंकि आप आध्यात्मिकता के सिद्धांतों को नहीं जानते। आप भगवान के सिद्धांतों को नहीं जानते। भगवान को सहायता करने के लिए मजबूर किया जाता है। बिजली को मजबूर किया जाता है पंखा झलने के लिए। अपने आप बिजली पंखा नहीं चला देगी। पहले हमें बिजली का बटन दबाना पड़ता है। इसी तरह तपश्चर्या द्वारा भगवान को मजबूर करना पड़ता है। तपश्चर्या करना आपको स्वीकार न हो तो फिर आप यह उम्मीद मत रखिए कि भगवान दयालु हैं देवता दयालु हैं, अमुक दयालु हैं, इसलिए दयालुता के वशीभूत होकर के आपकी सहायता करेंगे। बेटे ऐसी सहायता आपको नहीं मिलेगी। आप लिख 'लीजिए यदि इस तरह से सहायता मिल जाए तो हमसे कहना।
आप ऐसा शोध मत करिए
मित्रो! अगर आप कल को यह कहेंगे कि भगवान बड़े दयालु थे, देवी बड़ी दयालु थीं और हमने अगरबत्ती जला दी, नारियल चढ़ा दिया तो देवी प्रसन्न हो गईं और हमारे पास रुपयों का बंडल लेकर आ गईं। अगर आपका यह ख्याल सही है तो बेटे, हम भी यही करेंगे और लोगों से भी कहेंगे कि आपने एक बहुत बड़ा आविष्कार कर लिया। बहुत से लोगों ने भी आविष्कार किए हैं, किसी ने बिजली का आविष्कार किया है किसी ने रेडियो का आविष्कार किया, किसी ने अमुक का आविष्कार किया। आपको भी मैं आविष्कारक मानूँगा, अगर आप यह साबित करेंगे कि भगवान के सामने धूपबत्ती जलाकर फुसलाया जा सकता है और फुसलाने के बाद में मनमरजी के काम निकाले जा सकते हैं। अगर आपका यह प्रयोग सफल हो जाए तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी कि आपने एक बड़ा भारी एवं क्रांतिकारी आविष्कार कर लिया।
मित्रो! तब मैं हर आदमी से यही कहूँगा कि आपको अपना व्यक्तित्व विकसित करने की कोई जरूरत नहीं है। किसी आदमी को पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं है। किसी आदमी को जीवन संशोधन करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इन महाशय जी ने नया आविष्कार करके यह दिखा दिया है कि धूपबत्ती से, देवी का पाठ करने से देवी देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है और मनमरजी की मनोकामना पूरी कराई जा सकती है। फिर मैं सब लोगों से कहूँगा कि आप लोग गलत थे। इतनी मेहनत आपने बेकार कर डाली। आपने जो किताब पढ़ाई, गलत पढ़ाई। आपने पुरुषार्थ बेकार किया। आपको इन महाशय जी का कहना मानना चाहिए था और आपको हनुमान चालीसा पढ़ना चाहिए था, धूपबत्ती जलानी चाहिए थी और अपना उल्लू सीधा कर लेना चाहिए था फिर मैं आज तक की हर परंपरा को बदल देने के लिए कहूँगा। हर आदमी जो सोचता गलत सोचता है और ये महाशय जी सही सोचते हैं। ये नए आविष्कारक हैं। बेटे, मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि आप वास्तविकता के नजदीक आइए। अगर आप वास्तविकता के नजदीक नहीं आएँगे तो बेकार परेशान होंगे और अपना समय खराब करेंगे।
तप ही है सफलताओं के मूल में
मित्रो! तपश्चर्या का महत्त्व आपको मैं बता चुका हूँ। भौतिक प्रगति की दिशा में आपका बढ़ने का वास्तव में मन हो तो आपको तपस्वी जीवन जीने की तैयारी करनी चाहिए। भगवान बुद्ध ने तपस्या की वजह से सारे के सारे विश्व में नई क्रांति की और उसकी काया पलट दी। उस गंदे जमाने को ठीक कर दिया था। वे कौन से आविष्कार थे, जो उन्होंने किए थे? वे थे उनके चीवरधारी भिक्षु परिव्राजक। परिव्राजक कौन होते हैं-घुमक्कड़? नहीं बेटे! तो लोहे की गाड़ी वाले होते होंगे, जो गाड़ी लिए इस गाँव से उस गाँव घूमते-फिरते हैं? हाँ ये भी परिव्राजक हैं, पर वो परिव्राजक अलग तरह के थे। भगवान बुद्ध ने सबसे पहला शिक्षण अपने परिव्राजकों को यह दिया था कि आपको तपश्चर्या करनी चाहिए। उनका हर शिष्य पहला शिक्षण तपश्चर्या का लेता था, देवी-देवता का पाठ करने का नहीं। तपश्चर्या का क्या पाठ करते थे वे? उनके हर परिव्राजक पर खान-पान के संबंध में, रहन सहन के संबंध में, कपड़े पहनने के संबंध में, उपवास करने के संबंध में, सारे के सारे इतने कठोर नियम उन पर लाग होते थे कि वे अपने बुद्ध विहारों में तपस्वी जीवन जीने के बाद जब बाहर निकलते थे और जहाँ कहीं भी जाते थे, क्रांति करते हुए चले जाते थे।
हिंदुस्तान से निकलने के बाद में वे परिव्राजक समूची एशिया में छा गए। रेगिस्तानों को पार करते हुए तिब्बत के पठार और चट्टानों को पार करते हुए वे चीन जा पहुँचे। चीन में भारत से गए कुमारजीव से लेकर अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं, जिन्होंने बौद्ध धर्म को दूर दूर तक फैलाया। अशोक से लेकर हर्षवर्धन तक ने जनता और शासन दोनों को एक बना दिया। बौद्ध धर्म को सबसे अधिक दूर दूर तक फैलाने में इन्होंने अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी। असल में आपको बौद्ध देश देखना हो तो आपको पहले के चाइना में जाना होगा। अब तो वहाँ कप्यूनिज्म आ गया है, पहले वहाँ असली बौद्ध थे। चीन हिंदुस्तान से भी बड़ा है। तब वहाँ एक करोड़ आबादी थी। सारे का सारा हिस्सा तब बौद्ध धर्म में दीक्षित था। न केवल चाइना, वरन मंचूरिया, मंगोलिया, जापान, कोरिया आदि सारे देश एवं कम्बोडिया से लेकर जावा, सुमात्रा तक इंडोनेशिया से लेकर मलेशिया तक सारे के सारे द्वीप यहाँ से लेकर वहाँ तक पूरे में बौद्ध धर्म फैला हुआ था। न केवल पूरा एशिया, वरन यूरोप के बहुत सारे हिस्सों व अन्य देशों में बौद्ध धर्म फैला हुआ था।
अक्षुण्ण कीर्ति मिलती है तपस्वी को
मित्रो! यह क्या बात थी? यह थी कीर्ति, जो व्यक्तित्व की चमक से पैदा होती है। यह धर्म प्रचारकों का व्यक्तित्व ही है, जिन्होंने अपनी गरिमा को बढ़ाने के साथ-साथ में अपने धर्म अर्थात जिस मिशन को लेकर वे चले थे, उसे जादू के तरीके से और तूफान के तरीके से, आग के तरीके से आगे बढ़ाते चले गए। सफलता उनके चरण चूमती चली गई। सफलता उनके ही चरण चूमती है, जो तपश्चर्या के सिद्धांत पर विश्वास करते हैं। जो तपश्चर्या के सिद्धांत पर विश्वास नहीं करते, जिनको अपनी जबान पर काबू नहीं है, खाने पर काबू नहीं है, इंद्रियों पर काबू नहीं है, लोभ पर काबू नहीं है, मोह पर काबू नहीं है और ऊपर से कहते हैं कि हमको भगवान के दर्शन करा दीजिए अमुक सिद्धि दिलवा दीजिए वे परले सिरे के धूर्त हैं। जो हराम का पाना चाहते हैं, सफलता ऐसे आदमियों से बहुत दूर भागती है।
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? हमको अपना जीवन तपस्वी जीवन में ढालने के लिए तैयार करना होगा। यह कठिन चीज है, अत: ज्यादा कीमत चाहिए। यह न तो सस्ती चीज है और न सस्ते में मिल सकती है। इसके परिणाम बड़े मूल्यवान हैं। इसलिए मूल्यवान वस्तुओं का मूल्य चुकाने लिए तैयार हो जाइए। आपके बचपन से मैं आपको यही सिखाता चला आया हूँ कि ब्रह्मवर्चस का सिद्धांत क्या है? ब्रह्मवर्चस अर्थात ब्रह्मतेजस् आप प्राप्त करना चाहते हैं तो आप तपस्वी बनिए। तैयारी कीजिए। धीरे-धीरे जैसे-जैसे ब्रह्मवर्चस आपको बरदाश्त होता जाएगा वैसे-वैसे आपको अधिक तपस्वी बनाने के लिए हम प्रयत्न करेंगे। आपको हमने आरंभ से कराया है और आगे भी कराएँगे। क्या कराएँगे? दधीचि की हड्डियों में से जैसे आग निकलती थी, बिजली निकलती थी, वैसे ही आपकी आँखों में से आग, आँखों में से बिजली, आपकी वाणी में से बिजली, आपके चेहरे में से बिजली निकालेंगे। आपको तपा-तपाकर चलता-फिरता बिजलीघर बनाएँगे। तपाने से बन सकती है? हाँ बेटे, बन सकती है। आपको तपस्वी जीवन की शिक्षा दी जाएगी।
चिंतन का परिष्कार है योग
योग किसे कहते हैं? बेटे, हमारा चिंतन, हमारी विचारणा—इसको परिष्कृत करना और हमारा क्रियापक्ष, इसका परिशोधन करना—इसका नाम योग है। चिंतन, चरित्र और व्यवहार को परिशोधित करने का नाम योग है। ये सारी की सारी क्रियाएँ हमारी विचारणा से संबंधित हैं। आपके लिए कोई योग शब्द का इस्तेमाल करे तो आप समझना कि इसका सारे का सारा दबाव, सारे का सारा शिक्षण, सारी की सारी गतिविधियाँ केवल हमारे चिंतन को परिष्कृत करने तक शायद सीमित हैं। अंतरंग को परिष्कृत करने तक सीमित हैं। योग में क्या आता है? ध्यान आता है। ध्यान की असंख्य प्रक्रियाएँ आती हैं। ध्यान की असंख्य प्रक्रियाओं में से प्रत्येक को हम कर्मयोग कह सकते हैं। आपने राजयोग का नाम सुना होगा। राजयोग के चार हिस्से शरीर से संबंधित हैं। ये हैं यम, नियम, आसन और प्राणायाम। ये चार शरीर की तपश्चर्या से संबंधित है कि शरीर को कैसे स्वस्थ रखना चाहिए। प्राणवायु को हमें कैसे ठीक रखना चाहिए। आहार और विहार के नियमों का हमको कैसे पालन करना चाहिए? ये चार पक्ष तपश्चर्या के हैं। इसको हम तप कह सकते हैं।
योग के अन्य चार पक्ष कौन से हैं? प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। बेटे, ये हमारे चिंतन के ऊपर निर्भर हैं। हमारा चिंतन किधर चलना चाहिए? चिंतन को कहाँ लगाना चाहिए? अस्त-व्यस्त चिंतन की रोक-थाम हमें कैसे करनी चाहिए? चिंतन का परिष्कार हमको कैसे करना चाहिए? चिंतन को हमें कहाँ तक ले जाना चाहिए और अपने चिंतन को हमें भगवान में विलय कैसे कर देना चाहिए? ये सारी की सारी चिंतनपरक कसरत योग कहलाती है। यह योग आपको सीखना चाहिए।
ध्यान के दो भाग
मित्रो! ध्यान को हम दो हिस्सों में बाँट देते हैं। एक हिस्सा वह है, जो हमारे चिंतन के बिखराव को रोकता है, विचलन को रोकता है। इसको हम क्या कहते हैं? इसका नाम है—एकाग्रता। एकाग्रता किसे कहते हैं? जिसे आप बार-बार कहते हैं कि हमारे मन का निग्रह कीजिए वस्तुत: वह योग का पहला वाला हिस्सा है। हमारा मन जो चारों ओर भाग-दौड़ करता है, भगदड़ मचाता है, बेसिलसिले चलता है, व्यर्थ की बातों में चलता रहता है, इसको एक सिरे पर ले आना, एक क्रम में ले आना—इसका एकाग्रता वाला भाग है। मन का एक और भाग वह है, जिसे हम काम पर लगा देते हैं, किसी लक्ष्य पर लगा देते हैं। मन का यह दूसरा वाला हिस्सा है। बंदूक में क्या होता है? बंदूक में दो भाग होते हैं। एक काम यह होता है कि बारूद को और गोली को, दोनों चीजों को कारतूस में बंद करके छोटे से दायरे में कैद कर देते हैं। कैद न करें तो? कैद न करें तो बेटे, बारूद चारों तरफ फैल जाएगी और यदि उसे जला दें तो भक से जलकर खत्म हो जाएगी। बारूद के लिए यह पहला काम करना पड़ता है—एकाग्रता का। कारतूस में एकाग्रता अर्थात बंदूक की लंबी नली में कारतूस और बारूद को एकाग्र करके यह देखते हैं कि यह बहुत दूर तक एकाग्रता की दिशा में चले।
अगर बंदूक की नली छोटी हो तब? तब मुश्किल पड़ जाएगी। लंबी नली की विशेषता यह है कि यह गोली को दूर तक फेंक सकती है। पिस्तौल दूर तक नहीं फेंक सकती। इसके लिए उसकी नली लंबी होनी चाहिए। लंबी नली में कारतूस बहुत दूर तक एकाग्र, एक दिशा में चला जाता है, इसलिए बहुत दूर तक फेंक सकती है। पिस्तौल ऐसा नहीं कर सकती। पिस्तौल सामने मार सकती है, लंबी दूरी तक गोली नहीं फेंक सकती। उसमें लंबे फेंककर मारने की गुंजाइश नहीं है। नली लंबी है ही नहीं तो लंबे तक कैसे मार कर सकती है? अत: ध्यान का पहला वाला हिस्सा है—एकाग्रता, जिसको लोगों ने ''मेडिटेशन'' नाम दिया हुआ है। यह पहला वाला हिस्सा है।
ध्यानयोग का दूसरा वाला हिस्सा है—लक्ष्यवेध। अर्थात हमारा चिंतन किसी लक्ष्य विशेष में लगाया जाए। लक्ष्य विशेष से क्या मतलब है? लक्ष्य विशेष का मतलब यह है कि बंदूक कहाँ चलाई जाएगी और कहाँ मारी जाएगी? इसका निशाना कहाँ लगेगा? कोई निशाना भी तो होना चाहिए। नहीं साहब! निशाने की क्या आवश्यकता, हम तो यों ही हवा चलाएँगे। तो निशाना नहीं लगाएगा, हवा में बारूद बेकार करता रहेगा? मित्रो! जब कहीं निशाना लगाते हैं, तब उसको कहते हैं—लक्ष्य। ध्यान के दो हिस्से हैं। एक तो हमारा लक्ष्य है कि इसको कहाँ लगाएँ? दूसरा है—निग्रह। यदि मन का निग्रह हम नहीं कर सकेंगे, मन का फैलाव और बिखराव निग्रहीत नहीं कर सकेंगे तो हमारे भीतर मनःशक्ति का विकास नहीं हो सकेगा। हमारा मन सामर्थ्यवान नहीं बन सकेगा और सदैव कमजोर ही बना रहेगा।
एकाग्रता की परख
साथियो! हमारा मस्तिष्क, हमारा चिंतन, जो हमेशा बिखराव में व्यस्त रहता है, उसको किसी उद्देश्यपूर्ण काम में व्यस्त होना चाहिए तभी इसमें ताकत आती है और आदमी के खुद के भविष्य का निर्माण होता है। मुझे एक घटना याद आ गई। राजा द्रुपद की बेटी थी द्रौपदी, जो बहुत खूबसूरत और योग्य थी। उसके पिता ने निश्चय किया कि इस लड़की का ब्याह हम किसी ऐसे आदमी से करेंगे, जिसका भविष्य उज्ज्वल हो। कितने भविष्यवक्ता आए पंडित आए। उन्होंने कहा कि हमें आपकी बात पर विश्वास नहीं है। पहले आप अपना भविष्य बताइए तब हम आपकी भविष्यवाणी मानेंगे। आपको भविष्य में कब मरना है, बताइए? हमें मालूम नहीं, तो फिर आप हमारा मरना कैसे बता सकते हैं? उन्होंने भविष्य बताने वाले सब पंडित वापस कर दिए। तब समझदारों, विद्वानों ने कहा कि फिर यह बताइए कि किस आदमी का भविष्य अच्छा है? इसका सबूत क्या है?
गुरु द्रोणाचार्य ने एक बात बताई कि राजन! किस आदमी का भविष्य अच्छा है या बुरा है, यह जानने का एक ही तरीका है कि उस आदमी की अक्ल एक काम पर एकाग्र होती है या नहीं। जिस आदमी की अक्ल बंदर के तरीके से इस डाली से उस डाली पर उचक-मचक करती होगी। ऐसा करेंगे तो यह होगा वह होगा, न कोई निश्चय है न कोई संकल्प है, न कोई श्रद्धा है, न कोई इच्छा है और न कोई धारणा है। इसके यहाँ उसके वहाँ यहाँ सत्संग, वहाँ अमुक का सत्संग, यह भी शामिल, वह भी शामिल। सब एक-एक जायके खाता रहता है। एक निश्चय नहीं है, जीवन में कोई लक्ष्य नहीं है। जायके तो जीवन में बहुत मिल जाएँगे, पर ऐसी स्थिति में सफलता कहीं नहीं मिलेगी। द्रोणाचार्य ने कहा कि केवल वही आदमी सफल हो सकता है, जो दृढ़ निश्चय वाला हो और जिसका मन एकाग्र हो। एकाग्र मन वाले आदमी का भविष्य अच्छा है, सांसारिक दृष्टि से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी।
मित्रो! मैं क्या कह रहा हूँ एकाग्रता की बात, जिसका आपको ज्ञान नहीं है। एकाग्रता का न आपने अभी मूल्य समझा, न कभी महत्त्व समझा और न यह जाना कि एकाग्रता के सिद्धांत का परिपालन करने के लिए क्या करना चाहिए? आप तो हर चीज के लिए कहते हैं कि मम्मी! यह चीज दिला। तो हम क्या करें? तो गुरुजी, आप आशीर्वाद दे दीजिए। आशीर्वाद से नहीं बेटा! तप से, एकाग्रता से जीवन में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ मिलती हैं।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥