उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
महापुरुषों का हमेशा यह तरीका रहा है कि जो आदमी श्रद्धालु हो, उसी को ज्ञान दिया जाए पर तैने अपनी श्रद्धा नहीं बतायी और तूने अपना अहंकार बताया और तू खड़ा रहा। जानने वाले के सामने आदमी को नम्र हो करके जाना चाहिए—ये प्राचीनकाल की परम्परा का तूने पालन नहीं किया, इसलिए रावण ने नहीं सिखाया, तो क्या बुराई की बात है। हाँ ठीक, केवल पात्र को ज्ञान दिया जा सकता है, कुपात्रों को नहीं। कुपात्रों को अगर ज्ञान दिया जाए, तो वे धारण नहीं कर सकते। मैं आपको बहुत-सी योगविद्याएँ सिखाना चाहता था, जो मैंने अपने जीवन में सीखीं और चार दिन अपने गुरु के पासा दुबारा जब मैं रहा, तो उन्होंने मुझे बहुत-सी महत्त्वपूर्ण बातें बतायीं, जो इनसान के भीतर की दबी हुईं शक्तियों को उभार सकती हैं; पर मैं अपने रहस्यों को दबा करके चला जा रहा हूँ। मैं बहुत मजबूर हूँ। मैं चाहता था किसी आदमी को वो चीजें सिखा करके चला जाऊँ, ताकि हमारी आध्यात्मिक परम्पराएँ दुनिया में जिन्दा रहें; लेकिन मैं किस तरीके से सिखा सकता हूँ आपको? आपको मैं सिखाने लगूँ, तो आप सीख नहीं सकेंगे और सीख भी लें, तो धारण नहीं कर सकेंगे और अगर धारण कर लें, तो फायदा नहीं उठा सकेंगे। क्यों? क्योंकि आदमी को धारण करने की पात्रता चाहिए। श्रद्धा वो पात्रता है। श्रद्धा अगर आदमी के भीतर न हो, तो पात्रता नहीं आएगी। एक बार सुकरात के पास एक आदमी गया; उसने कहा—हमको ब्रह्मज्ञान सिखा दीजिए—अध्यात्म-विद्या सिखा दीजिए और योगविद्याएँ सिखा दीजिए। उसने कहा—बेटा! तू अभी इस लायक नहीं है कि मैं अपनी योगविद्या सिखा दूँ, तुझे भगवान् का ज्ञान सिखा दूँ और फिर तुझे आध्यात्मिकता के रहस्य बता दूँ। उसने कहा—नहीं स्वामीजी, बता दीजिए। आप क्यों नहीं बताते? आप छुपाकर ले जाते हैं—आप तो कपट करते हैं और आप तो चालाक हैं, आप तो धोखा करते हैं और आप तो बताते नहीं हैं। बता दीजिए। उसने कहा बेटा मैं बता तो दूँगा। बताने में मुझे छिपाना क्या है? मेरी कोई जायदाद थोड़े ही है। ऋषियों का ज्ञान है, मैं तुझे भी बता दूँगा, लेकिन बता भी दूँ, तो तू करेगा क्या इसका? नहीं साहब, मैं फायदा उठा लूँगा। नहीं बेटा! तू फायदा नहीं उठा सकता। नहीं, साहब! मैं फायदा उठा लूँगा। अच्छा तो बैठ। चुप हो गए, सुकरात। चुप होकर सुकरात ने कहा—बेटा, सिखा तो मैं तुझे दूँगा, तू मेरा एक काम कर। क्या काम करूँ? तू मेरे लिए पानी ले आ एक घड़ा। उसने कहा, हाँ। अभी लाकर देता हूँ। एक मिट्टी का कच्चा घड़ा रखा हुआ था उनके पास, जो पकाया नहीं गया था। कच्चा घड़ा दिया उन्होंने कहा जा, इस सामने वाले तालाब में जा और एक घड़ा पानी ले आ। बस, वह छोकरा भागा हुआ गया और पास वाले तालाब में गया और मिट्टी का कच्चा घड़ा पानी से भर लाया।
घड़े को खुला हुआ सिर पर रखा और सिर पर रखकर चला सुकरात के पास। एकाध फर्लांग चला होगा तब तक क्या हो गया, जब तक वह घड़ा पिघल गया। घड़ा फूट गया और घड़ा गल गया और सारा पानी कपड़ों पर पड़ गया। लड़का भीग गया। उन्होंने कहा—बच्चे! मैंने पानी मँगाया था तू ले आया कि नहीं। नहीं स्वामी! मैं पानी नहीं ला सका। क्यों? क्या हुआ? आपने जो घड़ा दिया था। वो कच्चा था तो क्या हुआ? कच्चे में पानी नहीं ला सकता। नहीं स्वामी! कच्चे में पानी कैसे रखा जा सकता है? गुरुदेव! आप तो ज्ञानी विद्वान हैं, ये भी नहीं जानते कच्चे घड़े में पानी रखा जाएगा, तो कच्चा घड़ा स्वयं भी गल जाएगा। आपको मालूम नहीं है क्या! उन्होंने कहा—हाँ, बेटा, मालूम तो मुझे है। कच्चे घड़े में पानी नहीं रखा जा सकता। कच्चे घड़े में पानी नहीं रखते। ये गलती मेरी भी है, गलती तेरी भी हो गयी। दोनों की गलती हो गयी। क्या गलती हो गयी? तूने मुझसे पूछना शुरू कर दिया—विद्या सिखा दीजिए—अमुक विद्या सिखा दीजिए—अमुक रहस्य सिखा दीजिए, अमुक कर्मकाण्ड सिखा दीजिए—मुख्य बात बता दीजिए। कच्चे घड़े में क्या कभी कर्मकाण्ड सिखाये गये हैं? क्या कच्चे घड़ों में योगविद्याएँ सिखायी गयी हैं? क्या कच्चे घड़ों में आध्यात्मिकता का मर्म और रहस्य सिखाये गये हैं। बच्चा चुप हो गया। उन्होंने कहा—बेटा पहले हमको पक्का घड़ा बन जाना चाहिए। पक्के घड़े में पानी भरा रहेगा तो पानी के अलावा उसमें क्या आएगा? मित्रो! यही हुआ। रावण के पास लक्ष्मण जी दुबारा गये। तब उस समय जा करके पैरों की तरफ खड़े हो गये। हाथ जोड़कर उन्होंने कहा गुरुदेव! मैं एक नटखट, निश्चल बालक और रामचन्द्रजी का छोटा भाई और दशरथ जी का छोटा बच्चा और आपका विद्यार्थी हूँ। मैं आपसे विद्याएँ सीखने के लिए आया हूँ, कृपा करके मुझे ज्ञान की शिक्षा दीजिए। ज्ञान को उसने सिखाना शुरू किया और रावण ने लक्ष्मण को जो ज्ञान सिखाया यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण ज्ञान है और रावण-गीता के नाम से विश्वविख्यात है। गीता है अभी यहाँ से प्रकाशित होने वाली भगवद्गीता, जो आपने अक्सर पढ़ी है उसमें 700 श्लोक हैं, 12 अध्याय हैं—ये महाभारत में से निकाला हुआ एक छोटा-सा हिस्सा है, जो विश्वविख्यात हो गया। लोगों की जबान पर आ गया। लोगों ने उसे आगे बढ़ा दिया। इसलिये वो गीता बड़ी हो गयी। लेकिन हमारी हिन्दू सभ्यता-हिन्दू संस्कृति में बहुत सारी चीजें हैं। उसमें से एक यह भी है, जिसको रावण-गीता कहते हैं। शायद आपको 2-5 महीने में यह महान पुस्तक पढ़ने को मिल जाए। मैं पुस्तक का हवाला नहीं दे रहा था—मैं तो एक अलग बात कह रहा था कि रावण से ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रद्धा की आवश्यकता थी लक्ष्मण जी को, जिसको रामचन्द्रजी ने सिखाया। मित्रो! आप उन लोगों में से हैं जिन लोगों ने मेरे साथ मुद्दतों से जुड़े होने के बाद श्रद्धा की एक परीक्षा पास कर ली है। श्रद्धा आपके भीतर न होती, तो आप इतना किराया-भाड़ा खर्च करके क्यों आते? दुपहरी के दिनों में कष्ट क्यों उठाते? यहाँ कोई मिठाई मिलती है क्या आपको? यहाँ पंखे मिलते हैं क्या? यहाँ तो जमीन पर पड़े रहते हैं और बुरे तरीके से पड़े रहते हैं, रेलगाड़ियों में आते हैं कितने धक्के खा करके आते हैं और यही उम्मीदें ले करके आते हैं—आचार्य जी के पास चलेंगे और उनसे वो सब बातें सुनेंगे—उनसे प्यार करेंगे। आप मेरे साथ जुड़े हुए हैं। लेकिन आप पहचान नहीं पाते; पर मैं एक बात आपसे कहूँगा, जो आपको यह पहचान करा सकती है। आप कभी ये विचार करना। आप लोगों ने बहुत सारे सन्त-महात्मा देखे हैं, बहुत ज्ञानी-गुणी के व्याख्यान सुने हैं, कई-कई प्रतिभावान और प्रभावशाली शक्तियों के सम्पर्क में आप आये हैं। उनकी प्रतिभा से आप प्रभावित तो हुए होंगे, उनके व्याख्यानों को आपने पसन्द तो किया होगा। प्रभावित तो हुए होंगे, लेकिन कहीं आपके मन में एक भाव नहीं उठा होगा कि ये हमारा आदमी है और हम इसके आदमी हैं। ये भाव शायद ही आपको कभी अपनी जिन्दगी में देखने या सुनने को मिला हो। आपके भीतर वो भावनाएँ हैं कि जब आप आये थे तब क्या उमंगें लेकर रास्ते में आये थे। जब यहाँ आकर खड़े हुए तब आपकी इच्छा थी गुरुजी से अपने मन की बात कहेंगे। मैंने कहा—ठहर जा मैं परिक्रमा कर लूँ तब पीछे देखा जाएगा। आपका मन ऐसे हिलोरें ले रहा था अपने दबे हुए मन, दबे हुए विचार और दबी हुई बातें सबकी सब आचार्य जी से पहले कहेंगे। ये कोई कुटुम्बी है हमारा ये खानदान वाला है। बाहर वाले आदमी से आदमी को बहुत संकोच होता है, हिचक होती है और आदमी भयभीत मालूम पड़ता है और आदमी अलग रहने की कोशिश करता है लेकिन जो हमारा आदमी अपना होता है उसके प्रति आदमी में बहुत ही घनिष्ठ भाव होता है। आपके मन में ऐसा घनिष्ठ भाव नहीं होता। हाँ! होना चाहिए आपके भीतर। आप आए तो एक उमंग लेकर आए थे और जब आप जाएँगे, तो मैंने देखा है लोगों की आँखों में से कैसे आँसू की धाराएँ बहती हैं। मालूम पड़ता है कोई सगे-सम्बन्धी की मौत हुई हो और मानो सगे-सम्बन्धी बिछुड़ रहे हों। माता जब अपनी बेटी को विदा करती है तो माता की आँखों में भी आँसू होते हैं और उसकी बेटी जब विदा होती है तो उसकी आँखों में भी आँसू होते हैं। उन दोनों के खून का रिश्ता था और हम दोनों का खून का रिश्ता है। इसीलिए जब कभी भी आप जाएँ, आप ये अनुभव करेंगे कि हम कुछ खोकर के जा रहे हैं और हम कुछ तकलीफें ले करके जा रहे हैं। मेरा भी मन ऐसा ही है और आप जब आते हैं तो आपको अनायास मालूम पड़ता है कि न जाने हमारा कौन मिल गया, सम्बन्धी मिल गया, रिश्तेदार मिल गया, कुटुम्बी मिल गया, न जाने कौन मिल गया और मुझे भी ऐसा ही मालूम पड़ता है। गाय जिस तरीके से जंगल में चरने के लिए चली जाती है और शाम को आती है और जब अपना बच्चा मिलता है, सबेरे के बिछुड़ने के बाद चाटने लगती है, अपने बच्चे को पुचकारने लगती है और थनों में से दूध की धार टपकने लगती है और अपनी टाँगों को चौड़ी कर देती है, बच्चा चुपके चला आता है और गाय का दूध पीने लगता है। गाय अपने थन को सारा-का निचोड़ती चली जाती है। मेरी भी कुछ आदत ऐसी है, आपकी भी ये आदत है।
पहचान की बात यह है कि आप मेरे साथ जुड़े हुए हैं। इसीलिए जुड़े हुए हैं मित्रो! मेरे पास कुछ सामान था—मेरे पास कुछ दौलत जमा करके रखी थी और अन्तिम वक्त मैं चाहता था कि आप लोगों को दे करके जाऊँ और मैं उसको देना चाहता हूँ। रावण वाली घटना मैंने इसीलिये सुनायी थी कि उसके पास देने के लिए बहुत सारी चीजें थीं और वो नहीं दे जाता, तो दुनिया बहुत महत्त्वपूर्ण ज्ञान से वंचित रहती। मैं रावण तो नहीं हूँ—गन्दा आदमी तो नहीं हूँ। मैंने आधी मंजिल रावण जैसी पार की है जरूर कि अपनी आत्मा के भीतर दबी हुई शक्तियाँ थीं, उनको विकसित किया है; लेकिन रावण ने जो भूल की थी वो भूल मैंने नहीं की। रावण ने भूल ये की भगवान् की ओर से मुँह मोड़ लिया था और अपना मुँह केवल शैतान के साथ जोड़कर रखा। शैतान और भगवान् की दो शक्तियाँ इस दुनिया में हैं। शैतान की शक्ति वो है जो आदमी को लुभावने रास्ते पर घसीटकर ले जाती है। शैतान उस आदमी का नाम है—शैतान उस सत्ता का नाम है—शैतान उस शक्ति का नाम है, जो मनुष्यों को इन्द्रियों से मिलने वाले सुखों की ओर खींचती रहती है और ये कहती है सारे के सारे फायदे और सारे के सारे लाभ इन्द्रियों के द्वारा उठाते हैं और ये सुख पाते हैं और शैतान की सत्ता हमको ये कहती रहती है कि आदमी को अपना अहंकार और घमण्ड बढ़ाना चाहिए और दूसरे लोगों की आँखों में बड़ा बन जाना चाहिए। दूसरे लोगों की आँखों में बड़ा बन जाने का असली तरीका लोगों को नहीं मालूम। शैतान ये कहता है कि अपनी दौलत ज्यादा बढ़ाओ ताकि आदमी अपने अन्दाज से ये लगाये कि ये बड़ा आदमी है—मालदार आदमी है और ये अमीर आदमी है आर ये बड़े महल में रहता है और ये अच्छा खाना खाता है, इसीलिए वो हमारे बड़प्पन को मान लेंगे। ये शैतान सिखाता है। भगवान नहीं सिखाता है। भगवान् महानताएँ सिखाता है, भगवान गुणों की विशेषताएँ सिखाता है। गुणों की विशेषताएँ सिखाता है इसलिए शैतान के बहकाये हुए लोग इन्द्रियों की गुलामी करते हैं और सुख की तलाश में इन्द्रियों के छेदों में हवन करते रहते हैं। इन्द्रियों के छेदों में हमें सुख मिल जाए। जबान में से हमें सुख मिल जाए। कामेन्द्रिय में हमें सुख मिल जाए ,, ताकि सिनेमा देखकर आएँ, अच्छा गाना सुन करके आएँ। इस तरह से इन्द्रियों के छेदों में से उन्हें सुखों की तलाश रहती है। ये शैतान के बहकाये हुए लोग हैं। शैतान के बहकाये हुए वो लोग हैं, जो अपने शरीर के बड़प्पन को चाहते हैं। शरीर का बड़प्पन—बात अलग है और आत्मा का बड़प्पन—बात अलग है। दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। शरीर आपका बड़ा हो, लेकिन यह भी हो सकता है कि आपकी आत्मा बहुत ही छोटी, बिल्कुल कमजोर हो और यह भी हो सकता है कि आपकी अन्तरात्मा महान हो और यह भी हो सकता है कि आपकी अन्तरात्मा महान हो और उसकी शक्ति अभूतपूर्व हो और आप बाह्य जीवन में सम्पदाओं की दृष्टि से कमजोर आदमी हों। ऐसा होना सम्भव है। इसीलिए रावण जो शैतान का बहकाया हुआ था, आत्मा की शक्ति को उसने शैतान के चरणों में समर्पित कर दिया। भगवान के चरणों में समर्पित नहीं किया। इसलिए रावण और मेरे में मुकाबला तो नहीं किया जा सकता, रावण की कहानी पूरी तरह से लागू नहीं होती है मेरे ऊपर लेकिन लागू इसलिए होती है कि रावण भी जा रहा था अपनी जिन्दगी के दिन समाप्त करके और मैं भी जा रहा हूँ समाप्त करके। रावण ने भी अपना अनुभव जीवन में बहुत इकट्ठा किया था और मैंने भी अपने जीवन के बहुत सारे अनुभव इकट्ठे किये हैं और वो रावण के जीवन के अनुभव अगर लोगों के पास रह गये होते, तो लोगों ने सोना और सोने की इमारतें वैसे बना ली होतीं जैसी कि रावण ने बनायी थी। हम सोने की एक अँगूठी भी न खरीद सके। रावण के पास सोने की लंका थी और वो काम हमको मालूम पड़ जाते तब मजा आता लेकिन हम सीख न सके और लक्ष्मण जी को रामचन्द्र जी ने ठीक ही कहा था कि इस दुनिया में से विदा होने वाले महापुरुष के द्वारा जो अनुभव लेकर इकट्ठे किये गये हैं, उसका थोड़ा-सा, जरा-सा लेकर आपको भी लाभ होना चाहिए और लक्ष्मण जी ने वही सीखा था। मित्रो! मैंने आपको चार दिन-चार बेशकीमती दिन इसीलिए खर्च कराने की कोशिश की कि आपको वो लाभ, वो अनुभव और वो ज्ञान-लाभ और ज्ञान नहीं, बल्कि मेरे जीवन का रस और निचोड़ आपको सीखने के लिए मिल जाए और सीखने के लिये नहीं मिल जाए, किसी तरह आपके भीतर प्रवेश कर सके।
मैं बराबर ये कोशिश करूँगा इन चार दिनों में कि आपके ऊपर छाया रहूँ और मैं आपके दिमागों के ऊपर छाया रहूँ और मैं आपके दिमागों के ऊपर छाया रहूँ। मिलना-जुलना तो मेरा थोड़ी-बहुत देर होता है। थोड़ी-थोड़ी देर हम लोग मिल पाते हैं एक-डेढ़ घण्टे समय मेरा व्याख्यान होता है, बाकी समय आपसे परामर्श होता है। लोग अपनी बात मुझसे कहते रहते हैं और मैं अपनी बात उनसे कहता रहता हूँ। सारा दिन इसी तरीके से निकल जाता है। आपको मुझसे मिलने का मौका एक-डेढ़ घण्टे इस वक्त मिल सकता है। जब आप अपनी बातचीत करने के लिए आयेंगे तो 1/2 घण्टा 15 मिनट तब भी आप अपनी बात कह सकते हैं। बस! रोजाना आप पन्द्रह मिनट आधा घण्टा करेंगे; लेकिन मैं तो छाया रहूँगा और मैं तो आपका पीछा छोड़ने वाला नहीं हूँ। मैं सो भी जाऊँगा, तो भी मैं आपकी सेवा करूँगा और आप चटाई पर सोते हैं, तो पायेंगे आचार्य जी मेरे पास सोये हुए हैं, मैं आपकी बहुत खुशामद करूँगा और मैं आपकी बहुत मिन्नतें करूँगा, मैं आपको बहुत मजबूर करूँगा, आपको वो रास्ता जानना ही चाहिए, जिस रास्ते पर चलकर के छोटे-छोटे इनसान महापुरुष बने व बन सकते हैं। बड़ा आदमी बनना कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं है। बड़ा आदमी तो कोई चोर भी बन सकता है। बड़ा आदमी तो कोई भी बन सकता है। यदि ईमान, धर्म की बात दिमाग में से निकाल दें और ये तरीका अख्तियार कर लें कि मुझे डकैतियाँ डालनी हैं, चोरियाँ करनी हैं हमें और हमें ये करना है, मैं बेधड़क करूँगा जो कुछ होगा, सो देखा जाएगा। अगर ये कष्ट कर ले कोई आदमी, तो छोटा-सा इनसान भी मालदार बन सकता है। मालदार बनना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। आदमी का बुद्धिमान बनना भी कोई बड़ी बात नहीं है। बी.ए.एम.ए. पास करना भी बहुत सरल है। अभी कल के अख़बार में आया, मुझे बड़ा अचम्भा हुआ। कोई मैनपुरी का आदमी है। उसने सारी की सारी यूनीवर्सिटी के डिप्लोमा छाप रखे थे और उसने हर जगह अपने एजेण्ट कर रखे थे। एम.ए. का डिप्लोमा चाहिए। हाँ। साहब और कौन-सा डिवीजन चाहिए। उसने कहा—फर्स्ट डिवीजन, नहीं! सेकण्ड डिवीजन ले लो। अच्छा! सेकण्ड डिवीजन। बस, उसने ज्यों की त्यों सील, ज्यों की त्यों मोहर, ज्यों की त्यों रजिस्ट्रार के साइन, ज्यों का त्यों छपा हुआ सब, ज्यों का त्यों और रोल नम्बर डाला, खट से उसे दे दिया और बस ढाई सौ रुपये ले लिए। एम.ए. का सर्टीफिकेट और बीसियों आदमी उसमें नौकरी में लग गये। कल के अख़बार में यदि आप पढ़ना चाहें और बीसियों आदमी लगे हुए हैं और उसे जो कमीशन एजेण्ट थे जो ढाई सौ रुपये में सर्टीफिकेट बेचते थे, उनको सौ-सौ रुपये कमीशन मिलता। इस तरह से हर आदमी एक-दो महीने में सर्टीफिकेट बिकवा दिया करता था और सौ-सौ, दो-दो सौ रुपयों की आमदनी कर लेता था और वह हजार रुपये कमा लेता था। कमाता था और इस तरह से उसने हजारों आदमी को एम.ए. बना दिया। किसी को इन्जीनियर बना दिया। किसी को क्या बना दिया और किसी को क्या बना दिया? लोगों को नौकरी पर लगवा दिया। डिप्लोमा प्राप्त करना और विद्या प्राप्त करना भी कोई ज्यादा मुश्किल की बात नहीं है। आप चाहें तो एक लम्बा वाला चाकू खरीद लीजिए और जब आपके इम्तहान होने को हों, तो आप चाकू को खोलकर मेज़ पर बैठ जाइये और मास्टर से कहिये। मास्टर यहाँ तो जो आप कहेंगे, सो करना पड़ेगा। दरवाजे से बाहर निकलेंगे तो ये देखा है आपने? और न हो तो आप एक बड़ा वाला एलसेशियन कुत्ता पाल लीजिये और उसको एक जंजीर से बाँधकर रखिये। जब भी कोई मास्टर आये खट से कटवाने को हो गये।
अभी अख़बार में था, एक लड़का था वो एक बड़ा वाला कुत्ता साथ ले गया इम्तिहान देने के लिए। वे परीक्षक चैक करने वाले आये कुत्ते के काटने के डर से भाग गये। पुलिस को बुला लिया। कुत्ता पकड़ लिया गया। कुत्ते से इम्तिहान की बात चालू की। आप ऐसा कैसे कर सकते हैं? विद्या प्राप्त करना कोई बड़ी बात है क्या? कोई बड़ी बात नहीं। नटवर लाल एक आदमी था। उसने इतना पैसा कमा लिया—इतना पैसा कमा लिया कि लोग अचम्भे में रहते हैं। उसने लाखों-करोड़ों रुपया कमा लिया। ये कोई मुश्किल बात नहीं है। मुश्किल बात है महापुरुष बनना।
महापुरुष—महापुरुष उन्हें कहते हैं, जो स्वयं संसार की नाव में से अपने आपको पार कर लेते हैं और अपनी नाव में बैठाकर न जाने कितने-कितने छोटे बच्चों को, बीमारों को, बेबसों को ये आदमी इस संसार रूपी जीवन की नाव में सागर में से अपने आपको ही पार नहीं ले जाते, बल्कि उनको भी नाव में बैठा करके पार कर सकते हैं, जो अपने रास्ते में से दूसरों को रास्ता इसलिए थोड़ा-सा मुश्किल है, श्रमसाध्य है, मेहनत का रास्ता है; लेकिन इसीलिए लोगों ने उस ओर से उपेक्षा करना शुरू कर दिया और लोग उसकी ओर से भूल गये, गुमराह हो गये। मैं चाहता था कि इस शिविर में—मैं चाहता था राजा परीक्षित के तरीके से बचे हुए चार दिन जीवन के महत्त्वपूर्ण दिन साबित हों और ये आपके आने वाले दिन जिस तरह रावण के समीप जाकर के लक्ष्मण जी ने काफी बातें पायीं। कीमती बातों को लोग चाहें तो ‘रावण गीता’ के रूप में पढ़ और सुन सकते हैं। इसके लिए मैं चाहता था कि आपके चार दिन उसी तरीके से हों और मेरे जीवन के चार दिन उसी तरह के थे। चार दिन को मैं भूल नहीं सकता। जीवन के साठ वर्षों को मैं भूला सकता हूँ। साठ वर्षों की खुशियाँ और गम मेरे लिए कोई कीमत नहीं रखते। लेकिन मेरी जिन्दगी के चार दिन बहुत कीमती हैं। जब कभी भी विचार करता हूँ, तब मुझे ये विचार आता है कि स्वाति की बूँद जिस घड़ी एक सीप के मुँह में आयी। एक पानी की बूँद जाकर के सीप के अन्दर कीमती मोती पैदा कर गया और पानी की बूँद जिस घड़ी एक छोटे वाले बाँस, निकम्मे बाँस, निकम्मे वाले बाँस, घुने हुए बाँस को उसने वंशलोचन से भर दिया और वह स्वाति वाली बूँद जब बरसने के लिए आयी, तब केला कपूर के रूप में परिणत हो गया और स्वाति वाली बूँद जब आयी, तब चातक की प्यास, जो कि बरसों से पूरी नहीं हो पा रही थी और वो प्यास-प्यास चिल्ला रहा था; एक बूँद जब उसके अन्दर आयी, तो उसे, चातक को शान्ति मिल गयी। उसकी प्यास दूर हो गयी। आराम से चैन के साथ में अपने घोंसले में सो गया। सीप के सम्पर्क के दिन क्या मैं भूल जाऊँगा? मैं भुला नहीं सका। इस तरह से मैं चाहता हूँ ये चार दिन आपकी जिन्दगी में न भुला देने वाले साबित हों। ये मुझे पहले दिन जब मेरे गुरुदेव से मुलाकात हुई, उसने जो बातें मुझे बतायीं वो बहुत गौर करने के लायक हैं। गुरुदेव ने मुझे बताया कि हम तुझे मजबूत आदमी बनाना चाहते हैं और तुझे बड़ा आदमी, महापुरुष बनाना चाहते हैं।
बड़ा आदमी ही नहीं, मजबूत और महापुरुष बनने के लिए मैं क्यों करता विचार? मैंने कहा आपका बहुत अनुग्रह—आपकी इस कृपा के लिए अनुग्रही हूँ। उन्होंने कहा—बच्चे कृपा के लिए अनुग्रह और तुझे ये मालूम है क्या कि हर चीज दुनिया में कीमत से पायी जाती है। बिना कीमत लिये नहीं। कीमत-बस इसी का तो झगड़ा है। कीमत देकर के खरीदना और फोकट में चीजों को प्राप्त करना। बस, यहीं से भूल शुरू हो जाती है और वो भूल मुझसे भी हो गयी होती अगर मेरा समर्थ गुरु मेरे पास न आया होता। लोग हैं जो बिना कीमत दिये या कम कीमत के द्वारा बेशकीमती चीजों को माँगने के इच्छुक रहते हैं और उनको खाली हाथ आना पड़ता है। लोग हैं जिनको इस बात की बहुत इच्छा है कि हमको हीरे की अँगूठी मिल जाए। लेकिन हीरे की अँगूठी पाने के लिए, वो जेब में दस पैसे का नया सिक्का रखकर फिरते हैं और दुकानदार के पास जाते हैं।
आप एक हीरे की अँगूठी दे दीजिये, जो सोने की बनी हुई हो। दस पैसे आप ले लीजिये और हीरे की अँगूठी हमको दे दीजिये। वो दुकानदार कहता है—भाई दस पैसे में नहीं आती है। पाँच हजार रुपये में आती है। पाँच हजार रुपये आपके पास हों, तो देखिये ये हमारे पास अँगूठी रखी है, ये एक हजार रुपये की है। इसमें छोटे वाले नगीने हैं। ये एक हजार रुपये की मिल सकती है। ये हजारों का किस्सा है, पैसों का किस्सा नहीं है। यहाँ सौ रुपये में हीरे की अँगूठी नहीं आयेगी, आप तो दस नये पैसे लिए घूमते हैं। नहीं साहब, हम तो इतना रुपया नहीं दे सकते और हमको दस नये पैसे में चाहिए। अगले वाले दुकानदार के पास गये कि साहब आपके यहाँ अँगूठियाँ बिकती होंगी। उसने कहा—हाँ हमारे पासा दस पैसे हैं। एक सोने की बनी, हीरे की नग जड़ी अँगूठी आप दे देंगे क्या? भइया, यहाँ नहीं बिकती है। तो कहाँ बिकती है? भइया, आगे चले जाओ। यहाँ से तीस-चालीस दुकान के पास से एक गली मुड़ जाती है, उसी गली में चले जाओ। बिसाती की दुकान है, वहाँ से मिल जाएगी। अच्छा, तो मैं वहीं चला जाता हूँ। बस, वह गया, 30-40 दुकान आगे बढ़ा और गली में मुड़ गया। उसने कहा—वह अँगूठी वाले की दुकान कहाँ है? यहाँ है, हमारे यहाँ मिलती हैं अँगूठियाँ। तो दस नये पैसे में वो अँगूठी जिसमें सोना लगा हुआ हो और जिसमें हीरा लगा हुआ हो हमको चाहिए, आपके यहाँ बिकती है।
दुकानदार ने कहा—हाँ हमारे यहाँ बिकती है। ये लो पहनो अपनी अँगूठी का नाम। खट, उसने अँगूठी निकाली और देखना शुरू किया और सही नाप पाया, ये साहब अँगूठी आ गयी। कितने पैसे की है? दस पैसे की है, दस पैसे की बिकती है। दस पैसे की लेकर चला आया, घर आकर कहने लगा मैं तो सोने की अँगूठी लाया हूँ, हीरे की अँगूठी लाया हूँ, कितने में लाया है? दस पैसे में। चल, उल्लू कहीं का! दस पैसे की कहीं अँगूठी आती है।
कम दाम का—कम दाम का........ मित्रो! लोग वे हैं जो महानता और भगवान का प्यार, आत्मा का विकास प्राप्त करने के लिए हल्की-हल्की इकन्नियाँ जेब में लिये फिरते हैं और ये चाहते हैं हमको बड़ी चीजें मिल जाएँ। नामुमकिन है। इस दुनिया में हर चीज की कीमत है, मुनासिब कीमत देकर के कोई चीज पायी जा सकती है। कम कीमत में कुछ भी नहीं मिल सकता। मैं गया मेरा दुकानदार आया और उसने कहा—मैं तुझे बढ़िया चीज देना चाहता हूँ और तेरे व्यक्तित्व को महान बनाना चाहता हूँ, लेकिन इसके लिए कीमत खर्च करने की हिम्मत तुझमें है क्या? मैंने कहा—हाँ मुझमें हिम्मत है। उसने कहा—हिम्मत वाले आदमी इस रास्ते पर चला करते हैं। ये बहादुरों का रास्ता है, कमजोरों का रास्ता नहीं है, ये स्वार्थियों का रास्ता नहीं है, ये घटिया आदमियों का रास्ता नहीं है। भगवान से मोहब्बत करना और भगवान से दिल लगाना हाथ भर का ही कलेजा दिल लगाने के लिए—दिल लगाने के लिए हाथ भर का कलेजा चाहिए और अगर दिल लगाने वाला कलेजा हाथ भर का न हो और कलेजा इतना बड़ा हो मक्खी के सिर के बराबर, क्या दिल लगायेगा? दिल है ही नहीं तो लगायेगा कहाँ से? जिन आदमियों का मन, उस आदमी की तरह से इस बात में है कि भौतिक इच्छाएँ और भौतिक कामनाएँ हमारी किसी तरीके से पूरी हो जाएँ, इसके लिए छोटे-मोटे कर्मकाण्ड हमारे हाथ में लग जाएँ, जो ज्यादा मेहनत के न हो, मशक्कत के न हो और ऐसा कोई धन्धा हमारे हाथ में लग जाए, जिसमें कि जादू की छड़ी की तरह हमको बहुत सारी चीजें मिलती हुईं चली जाएँ। दुनिया वाले लोग हैं, मैं क्या कहूँ दुनिया वाले लोगों को। क्या मिला मैं नहीं जानता, अगर मिला होता तो उनमें से भगवान के भक्त जरूर पैदा हो गये होते।
इनमें से कुछ सुदामा दिखायी पड़ते, कुछ नरसी भक्त, कुछ उनमें भी मीराबाई दिखायी पड़तीं, कुछ इनमें से संत तुलसीदास, कुछ इनमें से सूरदास दिखायी पड़ते, कुछ इनमें से कौन? लेकिन मित्रो! कोई नहीं पड़ता दिखायी जैसे के जैसे भूखे के नंगे। सन्तोषी माता का शुक्रवार के दिन उपवास किया। चना-गुड़ चबाया-चना चबाया ये ख्याल आया कि शायद चना-गुड़ चबाने के बाद में सन्तोषी माता खुश हो जाएँगी और जो हम चाहते हैं वो दौलत देकर के चली जाएँगी। चना-गुड़ चबाने की और खटाई न खाने की कीमत के ऊपर सन्तोषी माता को प्रसन्न करने की हमने इच्छा की और सन्तोषी माता बेचारी क्या दे सकती हैं? कितना दे सकती हैं? उतना ही देंगी, जितना कि आपने चना-गुड़ से बचत की थी। रोटी खाने में चवन्नी खर्च होती थी और चना-गुड़ आपने तीन आने का खाया। एक आने का बचा लिया। एक आने का क्या कर लिया। एक आना सन्तोषी माता भी दे देगी आपको। बस, तो ऐसी ही बात है। बड़ी चीजें आप नहीं पा सकते। बड़ी चीजों के लिए मेरे गुरुदेव ने कहा—कि तुझे तपाया जाना चाहिए और तुझे मजबूत बनाया जाना चाहिए। मैंने कहा—मैं मजबूत बनूँगा और मैं तपाए जाने के लिए भी तैयार हूँ। मेरे जीवन की शुरुआत है, मेरे जीवन की शुरुआत जब उन्होंने गायत्री यज्ञ की महत्ता बताना शुरू की, मैं आँखें फाड़-फाड़ कर देखता रह गया। उन्होंने कहा—बच्चे! इस विश्व में महानतम सत्ता और शक्ति है, यदि आदमी उसे छुए तो क्या से क्या आदमी हो जाया करता है। उन्होंने मुझे संक्षेप में गायत्री मंत्र का माहात्म्य बताया और पाँच नामों के बारे में थोड़ी थोड़ी-सी जानकारी करायी। उन्होंने मुझे बताया गायत्री मंत्र उस पारस पत्थर का नाम है, जिसको छू करके लोहा सोना बन जाया करता है और उन्होंने मुझे बताया कि गायत्री मंत्र उस अमृत का नाम है, जिसको पी करके मरा हुआ आदमी जिन्दा हो जाया करता है और गायत्री मंत्र उस कल्पवृक्ष का नाम है, जिसके नीचे बैठकर के आदमी अपनी सारी कल्पनाएँ पूरी कर लेता है और गायत्री मंत्र उस कामधेनु का नाम है, जिसको पीकर के बूढ़ा आदमी जवान बन जाता है। गायत्री मंत्र उस ब्रह्मास्त्र का नाम है, जिसकी चोंच आदमी के व्यक्तिगत जीवन के अभावों को चकनाचूर कर सकती है और उसकी मुसीबतों को और उसके मार्ग में आने वाले अवरोधों को तहस-नहस कर सकती है। ऐसी है गायत्री माँ। मेरे गुरु ने मुझे बताया, आपके तरीके से पानी मेरे मुँह में भरकर आ गया। मैंने कहा—ऐसी बढ़िया चीज है, तो मैं चाहता हूँ वह बढ़िया चीज मुझे मिलनी चाहिए। मैंने गुरुजी से प्रार्थना की कि संयम गँवाने की अपेक्षा मुझे गायत्री मंत्र को प्राप्त करने की विधि बतला दीजिये और मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ और उन्होंने मुझे गायत्री मंत्र की विधि बतला दी। विधि, बहुत सरल है और मैं सुनकर बहुत खुश हुआ और इससे सरल विधि दुनिया में कुछ हो ही नहीं सकती। उन्होंने मुझे बताया कि लकड़ी की, चन्दन की, तुलसी की माला ले आओ और इसे अँगुलियों से घुमाना शुरू करो। मैं बहुत खुश हुआ।
मैंने कहा भई ये तो बहुत सस्ता धन्धा हाथ लग गया। चरखा कातती है बुढ़िया। चरखे में बुढ़िया को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। चरखे में जो माल है उसमें चिपचिपाहट नहीं होती, तो उसमें लाख लगाती है, ताकि वो चरखे की रस्सियाँ और उसके तकुए के बीच में चिपचिपाहट का जो तरीका है, वो कायम रखा जा सके। वो चिपचिपाहट खत्म हो जाती है, तो बुढ़िया वो चरखा कातना बन्द कर देती है। वो लाख लाती है और वह लाती है राल और चिपकाती है। चरखा घूमना शुरू कर देता है। अक्ल का काम है ।। ये अक्ल का काम है कि हाथ से कैसे सूत काता जाए? मोटा हो गया, महीन हो गया कि ऊँचा हो गया, कि नीचा हो गया। बुढ़िया बहुत अकल का काम करती है। बुढ़िया हाथ को बहुत तेज नहीं चलाती है—धीरे चलाती है। जब वो चरखा चलाती है, तब उसमें से कातकर सूत पैदा होता है। दिन भर में चवन्नी कमाती है। मुझे बड़ी खुशी हुई कि माला में ये सब दिक्कत नहीं है और माला में कोई लाख नहीं लगानी पड़ती और चिपचिपाहट तैयार नहीं करनी पड़ती और माला में कोई हिसाब का अन्दाज नहीं रखना पड़ता। चाहे तो आप 11 माला जप लीजिए महीने भर में, घण्टे भर में चाहे तो 21 माला जप डालिए कोई रोकने वाला नहीं है और चाहे तो आप छह जपिए। खुद को ये सिखाने की बात नहीं है। जो मैंने सीखा खट् खट् हाथ घुमाते हुए चले जाइये। मैंने कहा, ये तो बहुत सस्ता है और इतने सस्ते में गायत्री माता मुझे मिल जाएगी और मुझे अमृत मिल जाएगा मुझे पारस मिल जाएगा, कामधेनु मिल जाएगी, बस, अब मैंने मारा मोर्चा। मुझे बहुत खुशी हुई और मेरे गुरुजी ने मुझे बताया कि पंचपात्र में पानी भरना चाहिए। तीन बार आचमन करना चाहिए और सिर पर हाथ रखना चाहिए, प्राणायाम करना चाहिए। इसमें कौन मुश्किल की बात है? कसरत मैंने बहुत दिन सीखी। आसन सिखाये गये थे और मुझे प्राणायाम सिखाये गये थे। अमुक बात सिखायी गयी थी, इसके मुकाबले में ये क्या? तीन बार आचमन कर लो, तीन बार क्या मैं तीन गिलास पानी पी जाऊँ, तीन बार से क्या होगा? मैंने कहा—वाह! ये बहुत सस्ता धन्धा हाथ लगा। इतना सस्ता धन्धा हाथ लगा, इतने कम दाम में इतनी चीजें मिल जाएँगी। बस, अब मैं मालदार हुआ और अब मैं मालदार हुआ। बस, वो कहता चला गया और मैं फूल-फूल कर कुप्पा होता चला गया और वो छोटी-छोटी बातें बताता गया। उसने कहा—तुमको माला जपनी चाहिए, पालती मार के बैठ जाना चाहिए, नहाकर बैठ जाना चाहिए और ऐसे करके बैठ जाना चाहिए। गायत्री माता की फोटो ले आनी चाहिए, धूप-बत्ती जलानी चाहिए। मैंने कहा ये भी कोई बड़ी बात है। मैं खर्च कर लूँगा इसमें क्या लगता है? चार आने का एक बण्डल आता है धूपबत्ती का, धूपबत्ती को जला दूँगा। चार आने महीने का खर्च है और चार आने तो खट् से बच जाते हैं। रोज धूपबत्ती जला दिया करूँगा। मेरा क्या बस ये सब बातें सुगम-सुगम मुझे मालूम पड़ीं और ये मालूम पड़ा कि गायत्री मंत्र की उपासना बहुत सरल है और इसके द्वारा बहुत फायदा हो सकता है। इतने कम दाम में इतना फायदा हो सकता है। मैंने लाटरियाँ बिकती देखी हैं, जिसमें कि ऊपर ये लिखा रहता है पाँच लाख रुपया इनाम मिलेगा और एक रुपया खर्च करो और मैंने लाटरियाँ बिकती देखी हैं, जिसमें लिखा रहता है फलाने की लाटरी में तीन लाख और यू.पी. की लाटरी में पाँच लाख और पंजाब की लाटरी में तीन लाख रुपये इनाम मिलेगा और वहाँ छपी हुई बड़ी-बड़ी रंगीन वाली रसीदें रखी रहती हैं। इसी तरह एक रुपया दिया और एक लाख, पाँच लाख रुपया मिलेगा। रुपया तो गया पर ख्वाब में आया अब पाँच लाख रुपये और पाँच लाख में से इतने रुपये का मकान, इतने रुपये का व्यापार और इतने रुपये का सोना, इतने लाख रुपये बैंक में और इतने लाख रुपये बच्चों के नाम। बस, सारी की सारी स्कीम बननी शुरू हो जाती है। ठीक उसी तरह से मेरी भी स्कीम बननी शुरू हो गई। जब मुझे सत्य वाली लाटरी मेरे गुरुदेव ने सिखा दी। मैंने कहा—भगवान करे, ऐसा गुरु सबको मिल जाए और ये सिखा दिया कि लकड़ी की माला घुमाना और चार आने महीने के खर्च से धूपबत्ती जलाना और पानी के पंचपात्र से तीन बार आचमन करना और चोटी पर हाथ धरना, गायत्री माता को हाथ जोड़ना और खट् से चावल-चावल, एक आध फेंकना हो, तो फेंक देना, न फेंकना हो तो तुम्हारी राजी की बात है। जो कुछ करना हा जल्दी-जल्दी करना। खट् आया माल और खट् आयी लक्ष्मी। बस मुझे बहुत खुशी हुई। शुरू के दिनों में बहुत खुशी हुई, लेकिन जैसे ही वो बात कहना खत्म न हो पाया तब उसने एक नयी बात करना शुरू कर दिया। मैं बहुत गम्भीर हो गया। उसने कहा—बच्चे! ये हमने तुझे बाह्य आवरण बताये हैं गायत्री के ये काफी नहीं हैं। उन्होंने कहा—ये काफी नहीं है, ये तो केवल आत्मा के विकास के लिए, बढ़ने के लिए शुरुआत के छोटे-छोटे तरीके हैं, जिनके आधार पर ऊपर चढ़ा जा सकता है। फिर उन्होंने बताया फाउण्टेन पैन देखा है। मैंने कहा—फाउण्टेन पैन देखा है, आसानी से मिलता है। फाउण्टेन पैन के द्वारा कविता लिखी जाती है। हाँ! और फाउण्टेन पैन के द्वारा रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गीतांजलि लिखी थी, जिस पर उनको नोबिल पुरस्कार मिला था। हाँ! मैंने कहा—फाउण्टेन पैन से लिखी थी। फाउण्टेन पैन बड़ा कीमती होता है। फाउण्टेन पैन न होता तब फिर रवीन्द्रनाथ टैगोर के लिए गीतांजलि लिखना मुश्किल था और गाँधी जी ‘अर्जुन सेवक’ का सम्पादन करते थे और ‘अनीति के राह पर’ क्या मजेदार किताब लिखी है और गाँधी जी के पास स्याही न होती और फाउण्टेन पैन न होता तब? तब ये लिखना मुश्किल था। तब कोई आदमी ये कहने लगे कि वो बारह आने का फाउण्टेन पैन खरीदकर लाया और मैं रवीन्द्रनाथ टैगोर बना और मैं अब गीतांजलि का लेखक हुआ और मैं अब पुरस्कार लेकर आया। मुश्किल है, केवल फाउण्टेन पेन आदमी को रवीन्द्रनाथ टैगोर नहीं बना सकता। फाउण्टेन पैन का, स्याही का, तरीके से इस्तेमाल करना जरूरी है। फाउण्टेन पैन के बिना, कापी के बिना, कागज के बिना आप चिट्ठियाँ लिख नहीं सकते। चिट्ठियाँ लिखने की जरूरत है, कागज चाहिए और आपने कागज लिया, कलम उठाई और कलम से चैक लिखा और बस बैंक के नाम लिखा और उन्हें कहा—हमारे खाते में से 5000 रुपया ड्रॉ कर दीजिये।
खट से लड़का गया भाग करके और कागज का टुकड़ा दे दिया और खट् से बैंक में गया और कहा लाओ 5000 रुपया। 5000 रुपया दे दिया। बैंक वाले ने दे दिया, उठाकर के ठीक है। कागज के टुकड़े पर लिखे 5000 रुपये मिल सकते हैं, लेकिन अगर आपका ये ख्याल हो केवल कागज पर लिख देना ही काफी है। आप एक बढ़िया वाला कोई रंगीन खरीदकर लाए और बैंक वाले को दे दिया चैक में तो केवल यह लिखा था टु फलाने को और रुपीज सो एण्ड सो इतना ही लिखा था। आप एक लम्बी वाली चिट्ठी लिखिये।
श्रीमान् जी, बैंक मैनेजर, महानुभाव, महाशय जी और आप बड़े योग्य हैं और आपने इस बैंक को बड़ी कुशलता के साथ चलाया है। और मैं आपके हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ कि मैं एक गरीब बालक-विद्यार्थी हूँ और कृपा करके आप 5000 रुपया जैसे ही ये चिट्ठी मिले, वैसे ही इस पत्रवाहक के हाथ भेज दीजिए और मैं आपका बहुत-बहुत आभारी रहूँगा और मैं हूँ आपका सेवक-फलाना नाम। खट् से रंगीन वाली चिट्ठी, बढ़िया वाला कागज और बढ़िया वाला लिफाफा बैंक मैनेजर के नाम भेज दीजिये। बैंक मैनेजर पढ़ेगा और हँसेगा कि ये किस बच्चे ने लिखा है? ये उस बच्चे ने लिखा है जिसका बैंक में कोई खाता नहीं है। तो फिर ये चिट्ठी से कैसे मिल सकता है? चिट्ठी से नहीं मिल सकता। चिट्ठी से बेहतर छोटी वाली स्लिप के ऊपर केवल नाम लिख देना और रकम लिख देना ही काफी है। रकम मिल जाएगी और अगर आपने लम्बी वाली चिट्ठी लिखी है और बैंक में आपका खाता नहीं है, तो आपको खाक भी नहीं मिलेगा। ये साइन्स है आध्यात्मिकता की, जो मुझे सिखायी और मुझे ये सिखाया गया कि कर्मकाण्ड बहुत महत्त्वपूर्ण है और कर्मकाण्ड बहुत उपयोगी है और कर्मकाण्ड की बड़ी कीमत है और कर्मकाण्ड बहुत सही है; लेकिन कर्मकाण्ड के पीछे एक और चीज होनी चाहिए और उस चीज का नाम है—मनुष्य की भावनाएँ, विचारणाएँ, आदर्श और निष्ठा। अगर इन चीजों का समावेश हो जाएगा, तब फिर वो चीजें मिलने लगेंगी जो कि कर्मकाण्डों के माहात्म्य के रूप में बतायी गयी हैं। ये बात बतायी गयी हैं कलम के ऊपर उनके साइन कर देने पर, रकम लिख देने पर, चैक वाली कापी पर अगर आदमी भेज दिया जाए, तो रुपया मिल जाता है। ये सिद्धान्त सही हैं। लेकिन यह सिद्धान्त भी सही है कि आपके खाते में 5000 रुपये पहले जमा होना चाहिए। जमा न हों तब? जमा तो आपका 25 रुपया है और आप 2500 रुपए का चैक काट दें, तब वापस हो करके आ जाएगा और वो आपने जिसको बैंक का गलत चैक दिया था, वो आप पर मुकदमा कर सकता है, तब आपको हथकड़ी डलवाकर जेलखाने भिजवा सकता है। आपने गलत चैक कैसे दे दिया? गलत चैक कैसे दे दिया। मित्रो! जमा करना बहुत जरूरी है। कर्मकाण्ड चैक काटने के बराबर है। कर्मकाण्ड फाउण्टेन पैन के बराबर है। मेरे गुरुदेव ने मुझे कहा कि कर्मकाण्ड, उपासना की विधि और विधान खेत में बीज बोने के तरीके से हैं। खेत में बीज बोया जाना चाहिए जरूर। खेत में बीज नहीं बोया जाएगा, तो उगेगा कहाँ से? आप गेहूँ बोयेंगे, तो गेहूँ उगेगा, चावल बोयेंगे तो चावल उगेगा, जो कुछ भी आपने बोया है, वही उगेगा। लेकिन आपको चावल उगाने से पहले, गेहूँ उगाने से पहले एक और तैयारी करनी पड़ेगी कि वो बेहतरीन जमीन हो, जमीन की खुदाई की गयी हो और जमीन की गुड़ाई की गयी हो और जमीन में खाद डाला गया हो और जमीन में पानी लगाया गया हो। जमीन की रखवाली का इन्तजाम किया गया हो। ये सारे का सारा प्रबन्ध किया जाएगा, तो छोटा वाला बीज जरूर उगेगा और जरूर फल देगा। ये बातें जब मुझे सिखायी गयीं तो मित्रो! मैं गम्भीर हो गया और मुझे पसीना आ गया—पसीना आ गया। मैंने कहा—मैं तो ऐसा समझता था कि ये तो सबसे ज्यादा सुगम, सबसे ज्यादा कमजोर, सबसे ज्यादा काहिल और सबसे ज्यादा कायरों का काम है, जो सबसे ज्यादा कायर हो, जो सबसे ज्यादा कमजोर हो। बस, भगवान् का नाम ले और सब फायदे उनसे उठा ले—सब फायदे उठा ले। लेकिन ये क्या कहा गया—ये तो मेरा सारा विचार ही पलट गया और मेरी सारी निष्ठा ही उलट-पलट हो गयी। बात उनकी सही थी इसलिये समझ में तो आ गयी। समझ में आ गयी और इसलिये मेरा यकीन उनकी बात पर मजबूत होता चला गया। मुझे वह छोटी कहानी याद आयी जब एक छोटा-सा मच्छर—एक छोटा-सा मच्छर था और वह शहद की मक्खियों के पास गया और शहद की मक्खियों से कहने लगा—शहद की मक्खियों, हाँ, कि मैं संगीचातार्य हूँ। अच्छा! मैं तुम्हारे बच्चों को संगीत सिखाऊँगा और मैं तुम्हारे बच्चों को दादरा सिखाऊँगा, ठुमरी सिखाऊँगा, कब्बाली सिखाऊँगा, गज़ल सिखाऊँगा और मैं तुम्हारे बच्चों को शम्भू कब्बाल बना दूँगा, कहने लगा मच्छर! शहद की मक्खियों ने कहा—क्या बात है? हमारे बच्चों शम्भू कब्बाल क्यों बनाते हो? लता मंगेशकर तुम्हारी सब लड़कियों को बना दूँगा, कहने लगा मच्छर। लता मंगेशकर लड़कियों को बनाता है, शम्भू कब्बाल लड़कों को बनाता है। आखिर किस्सा क्या है? और उसने कहा—मैं तो सिखाऊँगा ही, मैं तो सिखाऊँगा, सिखाने आया हूँ। रानी मक्खी के पास मक्खियाँ गयीं।
वो एक मच्छर बैठा हुआ है। तो क्या कहता है? कहता है कि मैं तो सब तुम्हारी शहद की मक्खियों को संगीत की विद्यार्थिनी बनाऊँगा और संगीत में एम.ए. कराऊँगा और हर लड़की को लता मंगेशकर बनाऊँगा और हर एक बच्चे को अशोक कुमार बनाऊँगा। रानी मक्खी जरा गम्भीर हो गयी। अच्छा! तो एक बात ये पूछकर आओ कि वो क्यों कहता है, क्या माँगता है, क्यों हमको सिखाता है, वजह क्या है? उसकी नीयत पूछकर आओ। मक्खियाँ गयीं, उन्होंने कहा—हमारी रानी मक्खी ने यह पूछा है कि आप हमको क्यों सिखाने आये हैं? मच्छर ने कहा कि मैं इसलिए सिखाने आया हूँ, बात यह है कि मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ती है और बहुत भाग-दौड़ करनी पड़ती है और तब मैं अपना खाना-खुराक इकट्ठी करता हूँ, कीचड़ में बैठा रहता हूँ, तो मुझे गंदगी खानी पड़ती है। ये तो ठीक नहीं और मैं चाहता था तुम्हारे यहाँ शहद पैदा होता है, तुम मुझे शहद खिला दिया करो और मैं तुम्हें गाना सिखा दिया करूँगा। इसीलिये मैं तुम्हें सिखाने आया हूँ। रानी मक्खी ने अपनी नौकरानियों से कहा, अच्छा! ऐसे कहा। संगीताचार्य महोदय, विष्णु दिगम्बर से मना कर दो। यहाँ से चुपचाप चला जाए। तो वे बेचारी रानी वाली मक्खियों ने कह दिया—आपसे नहीं सीखना चाहते। तो उसने पूछा, क्यों क्या बात है, क्यों नहीं सीखना चाहतीं? उन्होंने कहा—हमारी रानी मक्खी ने यह कहा है कि जिस संगीत को सीख करके और ये मच्छर हमारे दरवाजे पर भीख माँगने के लिए आया है और हमारी मक्खियाँ उस संगीत को सीखेंगी तो ये दरवाजे-दरवाजे पर भीख माँगने जाएँगी और ये परिश्रम नहीं करेंगी और ये उद्योग नहीं करेंगी और ये मेहनत नहीं करेंगी। ये पुरुषार्थ करना बन्द कर देंगी और ये काम करना बन्द कर देंगी। ये मशक्कत में दिनभर लगी रहती हैं, बन्द कर देंगी। बस, ये भी कोई सस्ता तरीका ढूँढ़ेंगी कहीं पर संगीत सिखा आयेंगी।
खट से फोकट का माल ले आएँगी फोकट का माल पाने की इच्छा-फोकट का माल पाने की इच्छा, मित्रो! हजारों लोगों में पायी जाती है। जब ऐसी इच्छा पायी जाए, तो ये मान लीजिए कि यहाँ आध्यात्मिकता की निशानी नहीं है और यहाँ से आध्यात्मिकता बहुत दूर है। बहुत-से आदमी सन्त-महात्मा आपको दिखायी पड़ेंगे, जो आपको तरह-तरह की बातें बतायेंगे और अन्त में जब जाने लगेंगे तो कहेंगे—बच्चा एक कम्बल खरीदवा दो और जब जाने लगेंगे तो कहेंगे बद्रीनाथ की यात्रा करने जाना है, हमको एक पचास रुपये दे देना। सारा-का उनका गीता-रामायण पढ़ने के पीछे जो चक्कर बना हुआ बैठा रहता है वो ये रहता है किसी तरह से चेले से पैसे मिल जाएँ तो धन्धा चल जाए। उनको मैं कैसे अध्यात्मवादी कहूँ? अध्यात्मवादी वो नहीं हो सकते, जो जरूरतमन्द हो। अध्यात्मवादी वो होते हैं, जिन्होंने अपनी जरूरत पूरी कर ली है और अपनी जरूरत पूरी करने के बाद इतनी खुराक उनके पास बची हुई है कि कोई और आदमी आये, तो उसको देने के लिये आमंत्रित करें और आओ। जिस तरीके से मुसलमानों का रोजा होता है और शाम को रोजा खत्म किया जाता है, तो मुसलमान दूसरों को बुलाते हैं कि आओ भई लो, फरमाइये और इसमें से रोजा खोल लीजिए और हमारे पास चार रोटी हैं और छह मुसलमान रेल के डिब्बे में रहते हैं। जब रोजा खोलने का वक्त हो जाता है, छहों आ जाते हैं और एक ही गमछे पर चारों रोटी बिछा ली जाती हैं और आधी-आधी रोटी खा लेते हैं और रोजा खोल लेते हैं। इस तरह की तबियत अगर हर इनसान के भीतर पैदा हो, तो जानना चाहिए कि आध्यात्मिकता की निशानियाँ, आध्यात्मिकता का सुरूर, आध्यात्मिकता का नशा आदमी के भीतर आ गया। मेरे गुरुदेव ने मुझे सिखाया। मैं गम्भीर तो हो गया। फिर ये बात मेरी समझ में आ गयी कि कीमती चीजें खरीदनी हैं, तो उसके बदले में कीमती चीजें चुकानी भी चाहिए और मैं खुशी-खुशी तैयार हो गया। मित्रो! आध्यात्मिकता का पहला शिक्षण जो गुरुदेव ने मुझको दिया उसने कहा—कर्मकाण्डों का बाह्य कलेवर इसके भीतर छिपा हुआ बैठा है—प्राण। नारियल का बाहर वाला कलेवर नारियल के बाहर वाले कलेवर को जब छीलकर देखते हैं तो छिलके से बचाव तो नारियल का होता है, चिड़ियों के खा लेने से बचा लेता है और नारियल के भीतर का जो पानी है, वह ठंडा बना रहता है, गर्म नहीं होता, छिलका जरूरी है। छिलका को आप छील देंगे तो भीतर वाला नारियल को फैलना मुश्किल पड़ जाएगा और गिरी का पकना कठिन हो जाएगा। छिलका बहुत जरूरी है। लेकिन छिलके से भी ज्यादा जरूरी इसके अन्दर का ठण्डा-ठण्डा पानी है, जिसको हम पीते हैं थोड़ा-सा भी मजा आता है हमको। हम गिरी खाते हैं मिश्री मिलाकर के तो ऐसी बढ़िया मालूम पड़ती है। असली चीज वह है, छिलका असली चीज नहीं है। कर्मकाण्ड छिलका है। कर्मकाण्ड आध्यात्मिकता का छिलका है और आध्यात्मिकता की जो गिरी है, वह नारियल के तरीके से भीतर बनती जाती है, वह उसकी विचारणा, भावना और मान्यताएँ हैं।
मान्यताओं, विचारणाओं और धारणाओं के क्षेत्र में मेरे गुरुदेव ने मुझे प्रवेश करवाया। पहला शिक्षण और पहले दिन का पाठ मुझे बताया। मैं चाहता हूँ कि वही पाठ आपको भी सिखा दूँ। पहले दिन का पाठ जो मुझे गायत्री के तीन चरणों में से पहले चरण का आध्यात्मिक स्वरूप समझाया गया बड़ा ही मजेदार और बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। मुझे सिखाया गया कि अपने आपको जानो। बात जरा-सी है, छोटी-सी है। आपने हजारों बार सुनी होगी और आप दूसरों को सिखाते होंगे। बाइबिल में ईसामसीह यही कहते रहे, उनका महत्त्वपूर्ण मंत्र एक ही है ‘नो दाइसेल्फ’—अपने आपको जानो और हमारे उपनिषद्कार भी हमको यही कहते रहे, ज्ञान का शिक्षण भगवान का शिक्षण, आत्मा का शिक्षण देने के साथ-साथ एक ही बात बतायी और उन्होंने यही बतायी—‘आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो।’ ऐ मनुष्यो! अपने आपको जानो, अपने आपको समझो, अपने आप के बारे में विचार करो और अपने आपका निदिध्यासन करो। ये शिक्षण आध्यात्मिकता का सार है। ये सार, अगर मनुष्य के भीतर रत्ती भर भी प्रवेश कर सकता हो, तो मित्रो! यह ऐसा साँप का जहर है एक डंक आदमी के भीतर लगा हो, उसको नशा आन लगे। ये वो बिच्छू का डंक है। एक बार आदमी को लगा वह तड़पड़ा गया। ये वो चीज है, ये वो शराब है कि एक बार जिस आदमी ने आध्यात्मिकता की शराब पी, उसको वो मस्ती आयी—वो मस्ती आयी कि वो साँप की तरह से लहराने लगा। अगर ये शब्द आदमी के भीतर प्रवेश कर सकते हों तब। कान से टक्कर खाते हों, तो बेकार है। कान से टक्कर खाने पर कोई ज्ञान कोई फायदेमन्द नहीं हो सकता। आदमी के दिमाग में कोई ज्ञान भरा हुआ हो। जानकारी में कोई चीज भरी है, उससे कुछ भला नहीं हो सकता। आपके दिमाग में भी ये चीज भरी है—बुखार को दूर करने के लिए कुनैन काम में आती है क्या बनने वाला है। हमको मालूम है कि बुखार आ जाएगा। हमको मालूम है अभी हम बता रहे थे अभी हम ठीक कर देंगे। क्या दवा है भाईसाहब कुनैन कैसी होती है, कितने पैसे की आती है, तैंने खायी है क्या? नहीं साहब! खाते नहीं हम। अरे बाबा, मुझे मालूम है नहीं, साहब हम खाते नहीं है। कुनैन से अच्छा हो जाता है, बताता है नहीं कहाँ से कुनैन आयी खाँसी कैसे जाएगी, किसके साथ खायी जाती है?
पानी के साथ खाते हैं, दूध के साथ खाते हैं, कितने ग्रेन की टिकिया खाते हैं। ये भी कुछ मालूम ही नहीं है। हमको मालूम है कुनैन से बुखार दूर हो जाता है। कुनैन से बुखार अच्छा हो जाता है—ये जान लिया ये काफी नहीं है। रामायण पहले पढ़ ली है, ये काफी नहीं है। गीता तूने पढ़ ली काफी, कुछ भी नहीं है। भागवत् तूने पढ़ ली इसमें कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता। उद्देश्य होता है तब, जो बातें गीता में लिखी हुई हैं भागवत् में लिखी हुई, रामायण में लिखी हुई हैं, वो हमारे जीवन में जब प्रवेश करने लगें तब आदमी को मस्ती आती है, खुमारी आती है। शराब की बोतल आप खरीदकर ले जाते हैं। ये कौन-सी शराब है? कौन-सी लाए? ये लाए साहब ब्राण्डी, क्या लाए व्हिस्की, ये कौन-सी लाए? रम। तो साहब, आपको नशा आता है। नहीं साहब, हमको अभी तो नशा नहीं आ रहा है। नशा कैसे नहीं आया! रम में तो बहुत नशा होता है। ब्राण्डी तो बहुत नशा देती है, इसको पीकर तो आदमी पागल हो जाते हैं, आदमी बेहोश हो जाते हैं। आप क्यों नहीं हुए? बात यह है कि हमारा अभी पैक बन्द किया हुआ रखा है; कार्क लगा हुआ है; कार्क खोला नहीं है। कार्क नहीं खोलेंगे, तो नहीं आएगा। कार्क खोलना ही चाहिए और एक प्याला पी जाना चाहिए। एक प्याला जब आप पी जाएँगे, तब आपको एक नशा आएगा और ये खुमारी आएगी और आपकी शक्ल अलग-सी लगेगी कि मैं भगवान का पुत्र हूँ—‘सोऽहम अस्मि’ सोऽहम, ‘सोऽहम’ का जप मुझे बहुत पहले मेरे गुरु ने बता दिया था। एक आदमी ने मुझे बता दिया था और ये बता दिया था साँस के साथ में सोऽ और निकलने के साथ में हम। मैंने बहुत दिन जप कर लिया था। लेकिन सोऽहम्, सोऽहम् कहते मेरे जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ा था; लेकिन जिस दिन मुझे ये ख्याल आया, जिस दिन मुझे ये खुमारी आई कि मैं वो हूँ, मैं वो हूँ। तो मेरा कायाकल्प हो गया और मेरे विचार करने की सारी-की समस्याएँ उलटी हो गयीं। उलटी हो गयीं।
अभी एक लड़का अफ्रीका से आया था पहले शिविर में। पहले शिविर में अफ्रीका में इंजीनियर था, केनिया में काम करता था। तीन चार दिन रहा मेरे पास तो मैंने पूछा बेटा वहाँ कैसा काम चलता है? गुरुजी, वहाँ बढ़िया आमदनी है। तो हमने कहा बढ़िया आमदनी से वहाँ तुमने जायदाद खरीदी। अजी, नहीं हम तो किसी तरीके से उल्टा-पुल्टा जो भी तरीका निकलता है, उस रुपये को हम हिन्दुस्तान भेजते हैं। क्यों? यहाँ क्यों भेजते हो? इसलिए भेजते हैं कि सारे भतीजे यहीं रहते हैं, सबके सब यहीं रहते हैं। यहीं मकान बनायेंगे, मरेंगे तो यही मरेंगे। वहाँ गोरे जंगलियों में क्या करेंगे? अफ्रीकन भाषा और नीग्रो लोग हैं। हम नहीं रहेंगे वहाँ। हम फैमिली यहीं लायेंगे। बच्चे यही पढ़ायेंगे। बच्चों की ब्याह-शादियाँ जंगली अफ्रीकियों में करेंगे क्या? जो टट्टी जाकर के और टट्टी भी नहीं धोते हैं। उनमें हम तो नहीं रहेंगे। बेटा, वहाँ बहुत रुपया, बहुत कमाई होती है। वहाँ खाने को बहुत मिलता है। वहाँ नहीं रहेंगे, गुरुजी हम तो यहीं रहेंगे। हम यहीं रहेंगे तो वहाँ कुछ मकान बना लिया। नहीं साहब! कह तो दिया वहाँ हम नहीं बनायेंगे। हम यहीं बनायेंगे। कमाई वहाँ करते हैं और हम यहाँ भेजते हैं। अफ्रीका निवासी लड़का केनिया में रहने वाला इन्जीनियर अभी गया है। 3-4 दिन हुए तब। बाद में मैं विचार करता रहा, इसमें और हमारे में फर्क क्या है? फर्क ये है—इसकी समझ में यह आ गया कि मैं हिन्दुस्तान का रहने वाला हूँ और मेरा हिन्दुस्तान से ही काम है और मैं असली में हिन्दुस्तान का निवासी हूँ और यहाँ? मैं तो थोड़े दिन के लिए रुपया कमाने के लिए आया हूँ, टेम्प्रेरी हूँ, यहाँ से जो कुछ पल्ले पड़े लूट-खसोट करके जल्दी-जल्दी कमा करके हमें घर को ले चलना चाहिए। दृष्टिकोण है उसका। हाँ, मकान बना लिया या किराये के में रहता है तो बेटा, रहने को घर बना ले तू इतना कमाता है। नहीं साहब! मकान बनाने के लिए नहीं कमाता। किराये में रहूँगा मुझे क्या करना है? ऐसी उपेक्षा की बात वह कर रहा था। जहाँ से कमाता है, जहाँ मौज करता है, जहाँ रहता है, जहाँ खाता है, वहाँ उपेक्षा की बात कर रहा है। मनुष्य के दिमाग में जब ये मैं आती है, जब ये नशा आता है, अहसास आता है कि मैं कौन हूँ तो उसको यह मालूम पड़ता है कि मैं कीड़ा-मकोड़ा नहीं हूँ और इस जमीन पर रेंगने वाले छोटे-छोटे जीवों की अपेक्षा मैं भिन्न हूँ कि मैं भगवान का बेटा हूँ और भगवान के गाँव का रहने वाला हूँ और मेरा असली वतन वो है और मेरा असली पिता असली प्यार करने वाला यहाँ है। उसकी औरत यहाँ रहता है। अफ्रीका से हर महीने साड़ी भेजता। अफ्रीका से हर महीने अपनी माँ को रुपये भेजता। अफ्रीका से वहाँ से—भेजता रहता हूँ। जानते हो मेरी माँ यहाँ रहती है, मेरा बाप यहाँ रहता है और वहाँ तो ऐसे ही दुकानदार हैं उल्लू। उनको तो मैं ऐसे ही ठगता रहता हूँ। यहाँ मेरा असली घर है। ठीक मनुष्य के भीतर एक ऐसा ही दृष्टिकोण विकसित होता है, जब उसको यह मालूम पड़ता है ‘सोऽहम् अस्मि’ अपने आपको जानो। आपको जान लेता है तो यह कहता है ये धर्मशाला है—ये सराय है। धर्मशाला के तरीके से, सराय के तरीके से काम करने के लिए आया हूँ और मैं यहाँ ड्रामा कर रहा हूँ। ड्रामा करने वाले, मंच पर करने वाले नट आपस में दुःखी नहीं होते। एक था राजा और एक था दूसरा राजा। ड्रामे के मंच पर लड़ाई हुई। एक ने तलवार चलायी और उसका सिर काट डाला। बस वह उछलने लगा। दस मिनट में जमीन पर सो गया और वो सब आ गये और उसको उठा ले गये। जब वह मर कर चला गया। पूछा गया तेरा तो सिर काट लिया था तेरे को तो बड़ा दुःख हो गया होगा, स्वर्ग गया कि नहीं गया। अरे! गुरुजी, ये तो तमाशा था। तेरा तो सिर काट डाला था, तू तो मर गया था। ऐसे ही काट डालते हैं सिर, रोज कटते हैं इतने सिर। यहाँ तो एक ही दिन में दो-दो बार ड्रामा होता है और वह हर बार हमारे सिर कट जाते हैं, ऐसे ही हम रोया करें, चिल्लाया करें तो हमारा क्या बिगड़ जाता है?
मित्रो! दृष्टिकोण में जमीन-आसमान का फर्क पड़ जाता है, उस दिन जिस दिन आदमी को ये मालूम पड़ती है कि मैं कौन हूँ? जिस दिन मुझे गायत्री का पहला चरण इस रूप में सिखाया गया है कि तू भगवान है—भगवान का बच्चा है, तो मैंने अपने भगवान को देखना और समझना शुरू किया। मेरा भगवान कहाँ है, मेरा बाप कहाँ है, मेरा प्रियतम कहाँ है, मैं प्रियतम को देखूँगा, उनको खुश करने की कोशिश करूँगा और उस प्रियतम की सेवा करूँगा और प्रियतम के साथ-साथ रहा करूँगा। आँखों से मित्रो, जब मैंने देखा तब वो गीता वाले अर्जुन की आँखें मेरे भीतर लगी हुई थीं। गीता वाले अर्जुन को भगवान ने कहा था कि चमड़े की आँख से भगवान को नहीं देखा जा सकता और चमड़े की आँख से देखने के लिए मेरे बहुत दिन से ख्वाब थे, वे तहस-नहस हो गये। मेरा यह ख्याल था कि बद्रीनाथ जाऊँगा और भगवान जी को देखकर के आऊँगा। मेरा ये ख्याल था जगन्नाथ जी जाऊँगा और भगवान जी को देखकर आऊँगा। और मेरा यह ख्याल था कि मैं उज्जैन में शंकर भगवान को देखकर आऊँगा और जब मेरा यह ख्याल था बनारस जाऊँगा और शंकरजी के दर्शन करके आऊँगा और मैं वृन्दावन जाऊँगा और श्रीकृष्ण भगवान को देखकर आऊँगा। मेरा ख्वाब तहस-नहस हो गया और मेरे दिमाग में एक ही चीज विकसित हो गयी कि भगवान, भगवान को चमड़े की आँख से नहीं देखा जा सकता और मैंने चमड़े की आँखों से देखने वाले भगवान को केवल ध्यान की एकाग्रता का छोटा वाला माध्यम मात्र मान लिया। असली भगवान जो मैं देखना चाहता था वो कौन-सा था? वो अर्जुन को दिखाया गया था। अर्जुन को इस मायने में दिखाया गया था कि सारे-का विश्व-ब्रह्माण्ड देख अर्जुन, मेरा ही रूप है और भगवान ने अपनी माँ यशोदा को एक बार मुँह खोलकर दिखाया था। सारे-का विश्व-ब्रह्माण्ड देख यशोदा, मेरा ही रूप है और एक बार भगवान राम ने अपना स्वरूप अपनी माँ कौशल्या को दिखाया था कि देख! मैं मनुष्य तो हूँ; लेकिन असली भगवान तुझे देखना है तो ये विश्वब्रह्माण्ड मेरा ही रूप है। मित्रो! मैंने अपनी आँखों से खोलकर देखा। एक बार मेरी अज्ञान की आँखें थी जब मुझे भेड़-बकरियों के तरीके से, गंदे नाचीज मनुष्य, स्वार्थी और संकीर्ण मनुष्य दिखायी पड़ा करते थे, लेकिन जब मुझे आत्मज्ञान का एक नशा और एक खुमार आया तो मैंने सारे विश्व को देखा और मैंने देखा कि ये सारे-के प्राणी और सारा-का ये विश्व भगवान का विशुद्ध स्वरूप है और इसका हर रोम और हर रूप, हर रोम ये वृक्षों के तरीके से इसका हर अंग-प्रत्यंग प्राणियों के तरीके से दिखायी पड़ता रहता है, मेरी आँख से विराट् ब्रह्म रूप दिखायी पड़ने लगा और मैंने देखा यही मेरा प्रियतम है और यही मेरा आराध्य है और यही मेरा इष्टदेव है। बहुत दिन पहले जी में आया था कि दुनिया में खूब लोगों की हजामत बनानी चाहिए और अपनी जेब भर लेनी चाहिए। मैंने कहा—नहीं, अपने प्रियतम की मैं हजामत नहीं बना सकता और प्रियतम को दुःखी करके मैं सुखी नहीं रह सकता। भला कोई औरत ऐसी भी दुनिया में होती है जो अपने पति की खाने की चीजों को चुरा लिया करे, पति के खाने में से घी चुरा लिया करे, पति के खाने में से साग चुरा लिया करे। रोटी खा लिया करे और पति भूखा रह जाए और खुद जलेबी खाया करे। ऐसी कोई औरत देखी है आपने? ऐसी वेश्याएँ हो सकती हैं और कोई नहीं और वह भगवान का भक्त कैसा होगा जो अपने दुःखों में डूबा हुआ पड़ा रहे, अज्ञान में डूबा हुआ पड़ा रहे और स्वयं अपनी सुविधाओं का अभिवर्द्धन करने के लिए अपनी ख्वाहिशों, तमन्नाओं, इच्छाओं, वासनाओं को बढ़ाने के लिए काम करता रहे। ऐसी कोई वफादार औरत नहीं हो सकती। मेरे मन में आया और मेरी आँखें कपाट के तरीके से खुल गयीं। ये सारा विश्व, मानव, मुझे भगवान दिखायी पड़ने लगा और रामायण की वह चौपाई का मुझे साक्षात्कार हो गया, जो मैंने हजारों बार पढ़ी थी; लेकिन जिसका मतलब मैं जरा भी नहीं समझ सका था। रामायण का रहस्य और रामायण का सार तुलसीदास जी ने इस छोटी-सी चौपाई में जमा करके रखा है और वह चौपाई है—
सिया राम मय सब जग जानी।
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।
भगवान के साक्षात्कार का असली सुख अगर किसी को देखना हो, तो इसी चौपाई के अन्दर सारा-का सार और रहस्य भरा पड़ा है, जहाँ कोई आदमी चाहे तो भगवान को देख सकता है। ये सारे-का विश्व, जिसमें कि पीड़ित मानवता के रूप में कराहती हुई अन्तःप्रेरणा और ये विश्व में फैली हुई कुरूपता और उसमें फैली हुई गरीबी—ये मुझे बुला करके कहा कि भगवान मुझसे माँगता है और मैं भगवान को देने के लिए तैयार हो गया। भगवान को मैंने देखा और मुझे भगवान का साक्षात्कार हो गया। पहले दिन गायत्री का पहला चरण मुझे सिखाया गया और मित्रो! मुझे आत्म-साक्षात्कार हो गया।
ब्रह्म-साक्षात्कार और आत्म-साक्षात्कार आध्यात्मिकता के दो महत्त्वपूर्ण अध्याय माने जाते हैं और ये दो चरण, जो आदमी पूरे कर लेता है, वो सिद्धपुरुष माना जाता है, परमहंस माना जाता है और पहले दिन गायत्री का पहला चरण जो मुझे सीखने के लिए मिला, मैंने जब तक पूर्ण तरीके से प्राप्त कर लिया, तो मैं सिद्धपुरुष हो गया—परमहंस हो गया। सिद्धपुरुष और परमहंस होने के दो ही तरीके हैं—आत्मा का ज्ञान और परमात्मा का ज्ञान। परमात्मा का ज्ञान-विश्व में फैला हुआ भगवान। और धर्म और संस्कृति, सदाचरण और संस्कार के बीच में विद्यमान मानव, ये विचार जब मेरी समझ में आया तो मुझे ऐसा मालूम पड़ने लगा कि भगवान मेरे पास है और मैं भगवान के साथ। और जब मैंने अपने आप का स्वरूप देखा तो मेरे जीवन की समस्याओं में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया। पहले मेरा ये ख्याल था कि मैं दुनिया में बड़ा आदमी बनने के लिए पैदा हुआ हूँ—मैं मजा उड़ाने के लिए पैदा हुआ हूँ—मैं अपने अहंकार और बड़प्पन की छाप दूसरों पर डालने के लिए पैदा हुआ हूँ, लेकिन मेरा सारे-का मजा गायब हो गया और मुझे ये आत्म-साक्षात्कार हुआ जब मुझे ये मालूम पड़ा कि मैं भगवान का नन्हा-मुन्ना बच्चा हूँ और भगवान ने सारी-की कला और सारी-की अपनी विभूति को समेट करके मुझ जैसे नाचीज प्राणी को बनाया और मैं उसका सहायक और मैं उसका हेल्पर और मैं उसका असिस्टेण्ट हूँ। उसकी दुनिया में ज्यादा खूबसूरती लाने के लिए, खुशबू पैदा करने के लिए मेरे जीवन का लक्ष्य और जीवन का उद्देश्य बन गया। वो सारे-के मेरे ख्वाब चकनाचूर हो गये, जिसके मुताबिक़ मेरा ये ख्याल था कि मैं दुनिया में बहुत-सी दौलत इकट्ठी करूँगा और बहुत विशाल इनसान कहलाऊँगा। मैंने यह विचार किया तो मेरे सामने यह रहस्य उठ करके खड़ा हो गया कि आदमी के उपभोग करने की सीमा सीमित है और दुनिया में भगवान का बहुत सारा सामान है; लेकिन उसमें आदमी सब इस्तेमाल नहीं कर सकता, खर्च नहीं कर सकता, पा नहीं सकता। इकट्ठी कर सकता है तमाशा देख सकता है; आप सौ मन गल्ला तो इकट्ठा कर सकते हैं; पर रोटियाँ आप चार ही खा सकते हैं, पाँचवीं रोटी आप खायेंगे, उल्टी हो जाएगी, दस्त हो जाएँगे, पेट में दर्द हो जाएगा। चार रोटियों पर हक है, पाँचवीं पर नहीं। इकट्ठी कर लीजिए। अपने घर में रखा रहने दीजिए आपकी इच्छा। पड़ोसी के घर में रखा रहने दीजिए आपकी इच्छा। आप रोएँ, आप दुःखी हों आपकी पसन्द की बात है।
एक आदमी था वह जंगल में चला गया। जंगल में जाकर उसने सोना-चाँदी मिट्टी के घड़े में रखा और गाड़ दिया। वह जंगल में कई बार जाया करता और देखा करता मेरा सोना और चाँदी जो जंगल में रखी हुई है वो ठीक है कि नहीं। एक बार एक चोर था, उसने देखा ये सेठ बार-बार आता है और देखा करता है। कुछ-न होना चाहिए। बस, जैसे ही सेठ उस दिन गया, दूसरे दिन उसने कुरेदना शुरू किया। उसने देखा कि मिट्टी का घड़ा, सोना भरा रखा है। सोने-चाँदी के जेवर रखे हैं। खट निकाल ले गया और वहाँ उसने मिट्टी भर दी। दूसरे दिन सेठ आया और तलाश करने लगा। हमारा सोना-चाँदी रखा हुआ था इसमें कुछ भी नहीं रहा। रोने लगा, चिल्लाने लगा। जंगल था वहाँ, जंगली लोग रहते थे। जंगली लोग इकट्ठे हो गये। जंगलियों ने पूछा—क्या हुआ आपको? क्या कष्ट हो गया आपको? उन्होंने कहा—यहाँ हमारा धन रखा था और कोई चुरा ले गया। उन्होंने कहा—फिर आपके किस काम आता वो धन? उन्होंने कहा—हमारे तो काम नहीं आता था? पर हमने पीछे के लिये कभी जमा करके रखा था। तो फिर क्या हुआ? कोई चोर ले गया, तो आपका क्या हर्ज है? आपके तो काम वह आ भी नहीं रहा था। हाँ, वह हमारे काम नहीं आ रहा था तो ऐसी चीज, जो आपके काम नहीं आ रही थी, किसी और के काम में जा जाए, तो उसमें आपको क्या शिकायत हो सकती है? उसने बहुत देर समझाया—चोर ले गया, हमारा सारा पैसा चोर ले गया। जंगलियों के पास कोई पैसे तो थे नहीं, पैसे कभी देखे भी नहीं थे। एक-दूसरे की तरफ देखते रहे कि इनका दिमाग सही है या गलत। इसके पास पैसा था पहले और वो जमीन में रखा था, काम नहीं आ रहा था और जो चीज काम में नहीं आ रही थी, वो किसी और के काम में आ जाए, तो बेकार में ये क्यों चिल्लाता है और क्यों रोता है? सेठ ने बहुत समझाया हम पैसे वाले थे, इसे हमने कमाया था, व्यापार में कमाया था और हमारा पैसा और कोई क्यों ले गया?
बेटे! मनुष्य की नासमझी ही उसे हर वक्त परेशान करती रहती है। धन की कमी और साधनों का अभाव परेशानी का कारण नहीं है। घटिया चिन्तन ही इसका सबसे बड़ा निमित्त है जिस दिन इसमें वह आध्यात्मिकता का समावेश कर लेगा, उस दिन उसे शान्ति भी मिलेगी और भगवान का एहसास भी होने लगेगा। उसे सम्पूर्ण विश्व में इसी की प्रतिछाया दिखाई पड़ने लगेगी और वह समाज के निमित्त, राष्ट्र के निमित्त, विश्व के निमित्त अपने श्रम, साधन लगाने लगेगा, ताकि उनका उत्थान हो सके। वास्तविक आत्मबोध यही है। यथार्थ भगवद् दर्शन इसे ही कहते हैं। इसी स्थिति में उनके अनुग्रह और अनुदान प्राप्त होते हैं, इससे कम में नहीं। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥