उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
प्रातःकाल जब हम बोलते हैं तो गायत्री का सर्वप्रथम विनियोग बोलते हैं, तत्पश्चात् गायत्री मंत्र का जप करते हैं। प्रत्येक वेद मंत्र का एक विनियोग होता है। विनियोग किसे कहते हैं? विनियोग संकल्प को कहते हैं। संकल्प में क्या होता है? उसका ब्यौरा होता है। गायत्री मंत्र के बारे में जल लेकर के कहते हैं, ‘‘गायत्री छंदः सविता देवता विश्वामित्र ऋषिः जपे विनियोगः।’’ गायत्री का जो ऋषि है विश्वामित्र है। गायत्री का पारंगत, निष्णात् जिसने पी-एच. डी. किया, जिसने थीसिस लिखी, जिसने सब खोज की, उस अनुसंधान करने वाले का नाम विश्वामित्र है, जिसको हम याद करते हैं। गायत्री मंत्र को भी याद करते हैं, उसके खोजकर्ता की भी याद है। विश्वामित्र ने गायत्री की खोज में पूरी जिन्दगी लगा दी। एक और खोज करने वाले व्यक्ति का नाम मेरे दिमाग में आ रहा है। कौन था खोज करने वाला? उस खोज करने वाले का जो अभी-अभी हमारे ध्यान में आया है, नाम था—हिलेरी। हिलेरी कौन था? हिलेरी वो था जिसके मन में आया कि भारत की सबसे बड़ी और ऊँची पर्वत की चोटी, जिसके बारे में लोग कहते तो हैं, पर है क्या? देखना चाहिए वह शेरपा तेनसिंग नोरके को लेकर देखना चाहिए। एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ गया था और वहाँ पर झंडा गाड़ दिया। सारी दुनिया में जबकि जिस चोटी पर कोई नहीं जा सका, उसके ऊपर हिलेरी जा पहुँचा। बेटे उसके दिमाग में एक और खुराफात आयी कि सब पानी की दिशा की ओर चलते हैं, पर हम पानी को चीरकर उल्टी दिशा में नाव ले चलेंगे। लोगों ने कहा—उल्टी दिशा में गंगा का बहाव तो बहुत तेज है और वह बहुत दबाव डालता है। उसने कहा—नहीं, हम तो इस नाव में बैठकर उल्टी दिशा में ही चलेंगे। गंगा सागर—कलकत्ता से वह अपनी नाव लेकर चला। उसका इरादा नाव द्वारा उल्टी दिशा में चलते हुए गंगोत्री तक जाने का था पर गंगोत्री गोमुख तक तो वह नहीं जा सका, थोड़ी दूर पहले रह गया। नाव खराब हो गई तो उसने यह इरादा छोड़ दिया और कहा—दुबारा फिर सफर करेंगे और जहाँ से छोड़ा है वहीं से फिर शुरुआत करेंगे। उसके पास ऐसी नाव थी जिसमें बहुत तेज ताकत की मोटर लगी थी। ऐसी नाव को लेकर हिलेरी चला था। उसने यह पता लगाया कि गंगा की धारा में उल्टी दिशा में चलने में क्या मजा आता है? मैंने भी ऐसे ही अपनी सारी जिन्दगी उल्टी दिशा में चलने में लगा दी। विश्वामित्र की तरीके से गायत्री की सामर्थ्य का पता लगाने और हिलेरी की तरीके से अनुसन्धान करने में लगा दी।
मित्रो, अनुसंधान करने का अर्थ है—प्रयोग और परीक्षण, जो शक्ति के द्वारा, प्रयोग के द्वारा, शरीर के द्वारा किये जाते हैं। यह विज्ञान का भाग है और ज्ञान भाग? ज्ञान भाग वह है जो विश्वामित्र ने किया था। अनुसंधान और अनुदान—दोनों को करते हुए मैंने अपनी सत्तर साल की जिन्दगी पूरी की। इसके जो सार हैं, निष्कर्ष हैं, मैं चाहता हूँ कि आपको बताकर के चला जाऊँ। क्यों? इसलिये चला जाऊँ कि आपमें से किसी को गायत्री मंत्र का वास्तव में कुछ अनुसंधान करना पड़े, वास्तव में किसी को उसमें चमत्कार देखने की इच्छा हो जाय तो कम से कम कुछ मालूम तो पड़े कि गुरुजी ने क्या किया था और क्या नहीं किया था। अनुसंधान जो बेटे, मैंने किये हैं, इन अनुसंधानों के लिए मैंने भारतीय ऋषियों की श्रेणियाँ लीं। ऋषियों की गवाहियाँ लीं और मैंने उनसे यह पूछा कि ऋषियो! आप लोगों ने तप किये थे तो बताइये आपने क्या अनुभव पाये? मैंने शास्त्रों से पूछा—‘‘बताइये भाईसाहब, आपको ऋषियों ने लिखा था, गायत्री मंत्र के बारे में क्या कहा अगर आप गायत्री मंत्र के व्याख्याता हैं? मैंने चारों वेदों से पूछा—‘‘आप बताइये भाईसाहब, गायत्री मंत्र के आप बेटे हैं तो आपको सारी असलियत अच्छी तरीके से मालूम होगी। आप बताइये कि गायत्री मंत्र के बारे में जो महत्ता और जो व्याख्यान बताया जाता है, ये कहाँ तक सही है?’’ हमने वेदों के जो व्याख्यान किये हैं, पुराणों की मैंने जो पुस्तकें छापी हैं, असल में गायत्री मंत्र के ही वे व्याख्यान हैं। गायत्री को जानने के लिए जितना कुछ पढ़ा वह इकट्ठे होते-होते, अनुसन्धान करते-करते इतना हो गया कि उसको लिख सकना कठिन है। वेदों को पढ़ते-पढ़ते गायत्री मंत्र के बारे में जाना कि वेद उसके चार बेटे हैं। गायत्री को वे गायत्री के मंत्र के बारे में क्या कहते हैं यह जानने के लिए मैंने वेदों को ध्यान से पढ़ा। वेदों के लिये नहीं—गायत्री मंत्र के लिये उन्हें पढ़ा। जो कुछ भी उसमें से मुझे मिला, वह मैं हिन्दी में ट्रान्सलेट करता चला गया। फिर जब सारे के सारे अनुवाद इकट्ठे हो गये तो मुझमें लोभ आ गया इसलिये छपा दिया। पुराणों को मैंने सिर्फ इसलिये पढ़ा जिससे पता चले कि गायत्री मंत्र के बारे में क्या लिखा है? उद्देश्य यही रहा कि गायत्री मंत्र के बारे में जो लिखा है उसका मैं पता लगाऊँ। पता लगाते-लगाते मैं अनुवाद भी करने लगा और जब अनुवाद तैयार हो गये तो मैंने कहा—इसे प्रकाशित भी करना चाहिये, जिससे दूसरे लोग भी फायदा उठा सकें। मैंने जो कुछ भी अध्ययन किया है उसके लिए ऋषियों के पास गया हूँ, जानकारों के पास गया हूँ, इस विद्या के जो पारंगत हैं, सिद्ध हैं, उनसे मिला हूँ, पुस्तकों को भी पढ़ा है। ये मेरी खोज है। इस खोज का सार मेरे पास बहुत महत्त्वपूर्ण है। और अनुसंधान?
बेटे, मैंने अपने शरीर को एक लैबोरेटरी की तरीके से बनाकर सारे जिन्दगी भर उसमें परीक्षण करता रहा हूँ। मैंने अपने शरीर की प्रयोगशाला में इसलिए किया कि देखें इसकी क्या प्रतिक्रिया होती है। दवाइयों के प्रयोग जब प्रथम बार किये जाते हैं तो मेढकों पर किये जाते हैं, खरगोश पर किये जाते हैं, परन्तु मैं किससे कहता कि आपके शरीर पर मैं प्रयोग करना चाहता हूँ। कौन तैयार होता? कौन मुसीबतें उठाता? कोई तैयार नहीं होता। सो मैंने अपने ही शरीर को रजामंद कर लिया और अपने मन को रजामंद कर लिया कि भाईसाहब, आप दोनों हमारी मदद कीजिये हम आपके ऊपर प्रयोग करेंगे। गायत्री मंत्र के बारे में जो कुछ बताया गया है, आखिर इसका प्रयोग करके तो देखा जाए कि परिणाम निकलता है कि नहीं। कुछ प्रतिफल निकलता है कि नहीं। मेरा मन रजामंद हो गया, शरीर रजामंद हो गया। मैंने अपनी इन्हीं दो चीजों के ऊपर इन्हीं दो खरगोशों के ऊपर तरह-तरह की दवाओं का प्रयोग किया और यह देखा कि इनका परिणाम क्या हो सकता है? इसमें से क्या हमें चाहिए और उनका क्या परिणाम निकलता है। यही है मेरी संक्षिप्त कहानी। लोग मुझसे यह पूछते रहे कि बताइये आप क्या करते हैं? मैंने पन्द्रह वर्ष की उम्र से नियमित उपासना प्रारम्भ की और चालीस वर्ष तक वह चली। चौबीस साल तक मैंने कठोर उपासना की। छह घंटे रोज के हिसाब से पालथी मारकर बैठा रहा। छह घंटे उपासना के अलावा जौ की रोटी और छाछ लेता रहा। बेटे, मैंने चौबीस साल तक नमक नहीं खाया, शक्कर मैंने खाई नहीं, दाल मैंने छुई नहीं, कोई और चीज मैंने छुई नहीं। बस दो ही चीजें थीं—रोटी और छाछ। चौबीस साल तक मैं प्रयोग करता रहा। लोगों ने मुझसे पूछा—बताइये आप क्या करते रहते हैं? मैंने कहा—मैं जुआ खेलता रहता हूँ। किसका जुआ खेलते हैं? हमको बता दीजिये! नहीं, आपको नहीं बता सकता। अगर ये सब बातें बेकार सिद्ध हुईं—तो इसका दण्ड मुझे मिलना चाहिए और मेरी जिन्दगी बेकार जानी चाहिए। अगर ये फायदेमन्द होंगी, तब बताऊँगा आपको। मैं आपके साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता। मंत्रों की शक्ति और उपासना की शक्ति जो बताई गयी है वह सही भी हो सकती है और गलत भी। अगर मान लीजिये कि सही न हुईं गलत हुईं तब? तब मेरी तो जिन्दगी बेकार गई। इसलिए आपका मैं नुकसान नहीं उठा सकता। जब तक मैं पता न लगा लूँ कि यह उपयोगी चीज है, तब तक आपको नहीं बताऊँगा। क्यों आपका नुकसान करूँगा? क्या मुझे कोई महान बनना है? मुझे कोई कमीशन लेना है? कोई मैं एजेण्ट बनूँगा जो मैं उसकी खुशामद करूँगा? मैं उसे देख लूँगा तब पता बताऊँगा और जब तक देख नहीं लूँगा तब तक कुछ नहीं बताऊँगा।
इस तरीके से मित्रो! जब चालीस साल का हो गया और जब मेरे चौबीस परीक्षण पूरे हो गये, तब मैंने जबान खोलना, लोगों को बताना और समझाना शुरू किया कि क्या करना चाहिए? कैसे हो सकता है? बस यही है मेरे अनुसंधान का सार-निष्कर्ष। यह वहाँ से प्रारम्भ हुआ जब एक बार गायत्री मंत्र का प्रारम्भ हुआ। किसने कराया? मालवीय जी ने, जैसा कि मैंने आपको निवेदन किया था। उन्होंने क्या बताया? उन्होंने बेटे, मुझे कर्मकाण्ड बताये। कर्मकाण्ड के बाद, एक और दीक्षा मेरी हुई। पन्द्रह वर्ष की उम्र का जब मैं हो गया, तब मेरे पास दूसरे वाले गुरु हिमालयवासी आये। उन्होंने मुझे गायत्री मंत्र के रहस्य समझाये और रहस्य समझाकर कुछ और बातें बतायीं। वे क्या बातें थीं? वे उनसे भिन्न बातें थीं, जो मालवीय जी ने बताई थीं। भिन्न थीं? हाँ, बेटे भिन्न थीं। उन्होंने अलग बातें बतायी थीं। मालवीय जी ने मुझे कलेवर बताया था और मेरे दूसरे गुरु ने मुझे उसका प्राण बताया। एक ने कलेवर और एक ने प्राण। साहब, यह कलेवर और प्राण का क्या चक्कर है? कलेवर और प्राण का बेटे चक्कर है। कैसे चक्कर है? कलेवर का चक्कर यह है कि माँ के पेट में जब बच्चा आता है पहले एक कलेवर आता है, चुपचाप बैठा रहता है, कुछ हरकत नहीं होती। लेकिन जब उसके भीतर प्राण पैदा होता है, तब वह अपनी करामात दिखाता है, हाथ चलाता है, पैर चलाता है, सिर चलाता है, करवट बदलता है, तब मालूम पड़ता है कि पेट में कोई है, कोई गड़बड़ है। यह क्यों होता है? इसलिए कि जब प्राण आता है तब गड़बड़ और हलचल पैदा होती है। मुर्गी के अंडे के अंदर जब कलेवर आता है, चुपचाप बैठा रहता है कुछ हरकत नहीं होती, लेकिन जब प्राण आता है तो हलचल शुरू करता है। आप देखिये मुर्गी के अंडे या किसी के भी अंडे, जब पकने को होंगे तब उसके अंदर कम्पन पैदा हो जाएगा। काँपते हैं अंडे। काँपने के बाद क्या होता है? काँपने के बाद बेटे, एक दिन ऐसा आता है कि उसका टैम्परेचर बढ़ जाता है। अंडे का टैम्परेचर आप ले लीजिये, ताप ले लीजिये, आप देखेंगे कि एक दिन उसका तापमान बढ़ जाएगा। बढ़ने के बाद फिर क्या होगा? बढ़ने के बाद दिन ऐसा आयेगा कि उसके अंदर एक काले रंग की लकीर पड़ेगी अपने आप। लकीर पड़ने के बाद में उसमें दरार पड़नी चालू हो जाएगी और वह फटती चली जाएँगी और भीतर से बच्चा बाहर निकल आयेगा। यह क्या चक्कर है? बेटे जब प्राण भीतर चला जाता है तब वह ये कहता है कि हमको अच्छी परिस्थिति चाहिए, बेहतर परिस्थिति चाहिए। बेहतरीन परिस्थिति के बहाने से बच्चा भीतर से फाड़कर बाहर निकल पड़ता है। पेट में बैठा हुआ बच्चा कहता है मम्मी अब हमको यह जगह कम पड़ती है, हमको अब ज्यादा जगह चाहिए। जिस जगह पर हम नौ महीने से गुजारा कर रहे थे, अब हम यहाँ गुजारा नहीं कर सकते, हमको अब बेहतरीन जगह चाहिए। मम्मी कहती हैं, नहीं बेटे, अभी इसी में रहना चाहिए बाहर जगह नहीं है निकलने को नहीं, हम रास्ता बनायेंगे और आपको जगह देनी पड़ेगी। धक्का मारकर बच्चा बाहर आ जाता है और मुर्गी का अंडा कवच को तोड़कर बाहर आ जाता है।
यह क्या है? यह बेटे प्राण हैं। गायत्री मंत्र का पहला हिस्सा है—कलेवर, जिसको हम लिफाफा कहते हैं। लिफाफे की पहले जरूरत पड़ती है। पट्टी की, किताब की पहले जरूरत पड़ती है। नहीं साहब, पहले फिलॉसफी की जरूरत पड़ेगी, फिजिक्स की जरूरत पड़ेगी? नहीं बेटे, न फिजिक्स की जरूरत पड़ेगी? न फिलॉसफी की ।। किसकी जरूरत पड़ेगी? पट्टी की। पट्टी क्या होती है? लकड़ी की तख्ती होती है बड़ी वाली। कलम लेते हैं और खड़िया का घोल बुदक्का में बनाते हैं और उसमें से लिखते हैं। नहीं साहब पहले फिलॉसफी पढ़ाइए। नहीं, हम नहीं पढ़ायेंगे फिलॉसफी। पहले हम आपको पट्टी के ऊपर अक्षर ज्ञान पढ़ायेंगे, गिनती पढ़ायेंगे। नहीं आप गणित पढ़ाइए, बीजगणित पढ़ाइए, नहीं तो हम नहीं पढ़ेंगे। पहले आप पट्टी लीजिये, गिनती पढ़िए, अक्षर ज्ञान पढ़िए। जब इन्हें कर लेंगे तब आगे की बात बतायेंगे। पहले कलेवर बताया जाता है हमेशा। बच्चा पैदा होने से पहले उसकी मम्मी सारा इंतजाम करती है। ये क्या बना लिया? ये बना लिया बच्चे के लिये। बच्चा कहाँ है? अरे! होगा थोड़े दिन बाद होगा। चड्ढी बना लेती है, सुलाने के लिये चारपाई बना लेती है और उस पर बिछाने के लिये कपड़े बना लेती है। सब पहले से तैयारी कर लेती है। यह कलेवर है बेटे। दूल्हा-दुल्हन जब आते हैं तो पहले कलेवर बना देते हैं कि दूल्हा यहाँ बैठेगा चौकी पर, यहाँ बैठेगा पट्टे पर, यहाँ बैठेगा—वहाँ बैठेगा। हाथ यहाँ जोड़ेगा, प्रणाम यहाँ करेगा, सब तैयारी कर लेते हैं, दूल्हा पीछे आता है। पीछे आता है प्राण गायत्री का, पहले कलेवर बनता है। आप लोगों को अभी हमने कलेवर बताया है, आप ध्यान रखें।
कलेवर किसे कहते हैं? कलेवर कहते हैं—बेटे कर्मकाण्ड को। कर्मकाण्ड क्या होते हैं? कर्मकाण्ड कहते हैं—माला जपने को। कर्मकाण्ड कहते हैं—प्राणायाम को। कर्मकाण्ड कहते हैं—मंत्र के उच्चारण को। कर्मकाण्ड कहते हैं—यह जो शरीर से क्रिया की जाती है। ये सब कर्मकाण्ड हैं। इसमें शरीर से होने वाली क्रियाएँ—जिसमें जबान की नोंक से उच्चारण किये हुए शब्द भी शामिल हैं। हाथ से माला घुमाया जाना भी शामिल है। इसमें वस्तुओं की हेरा-फेरा भी शामिल है। वस्तुओं की हेरा-फेरी से क्या मतलब? चावल छिड़क देना, रोली लगा देना, गायत्री माता की मूर्ति रख देना, कलश स्थापित कर देना, फूल चढ़ा देना, अक्षत चढ़ा देना, ये बेटे सब कर्मकाण्ड हैं। वास्तव में कर्मकाण्ड के पीछे कुछ और बातें छिपी रहती हैं। क्या छिपी रहती हैं कर्मकाण्ड के पीछे? असलियत छिपी रहती है। क्रियाओं के पीछे बेटे, भावना छिपी रहती है। क्रिया के साथ-साथ में भावना का समन्वय है—तो चमत्कार है। कैसे? क्रिया बेटे हमारा शरीर है। यह शरीर जो है, कलेवर है, इसके भीतर एक बैठा हुआ है प्राण। प्राण कैसे बैठा हुआ है? प्राण बेटे ऐसा है, जैसे हवा होती है, जैसे रोशनी होती है, चमक होती है, इसके भीतर प्राण भी उसी तरह बैठा है। प्राण और कलेवर दोनों को मिला देते हैं, तब हम जिन्दा मनुष्य हैं। हम इसलिए जिन्दा हैं क्योंकि इसके अन्दर प्राण भी काम करता है और शरीर भी काम करता है, दोनों को मिला देने से काम चलता है। कर्मकाण्डों की जरूरत है? बेशक, लेकिन केवल कर्मकाण्ड लेकर के आप चल रहे होंगे तो आपको निराशा होगी। केवल कर्मकाण्डों पर आपको विश्वास होगा कि इन कर्मकाण्डों से लम्बे-चौड़े फायदे उठा सकेंगे तो यह बिल्कुल नामुमकिन है। शरीर हमारा बड़ा अच्छा और बड़ा उपयोगी है। बोलता हमारा शरीर है। कौन बोलता है? बेटे, हमारी जीभ और हमारे दाँत मिलकर आपसे बात कर रहे हैं और बोलता कौन है? लेख कौन लिखता है? कलेवर लिखता है। अँगुलियों से जब हम कलम को पकड़ लेते हैं और हम बैठते हैं तो लेख लिखते चले जाते हैं। तभी यह हमारी कलम काम करती है। सारी की सारी क्रियाएँ हमारी सही काम करती हैं, लेकिन अगर आप यह भुला दें और शरीर का ही महत्त्व मान लें और यह भुला दें कि गुरुजी का प्राण भी कोई काम करता है तो आप गलती कर रहे हैं। प्राण की जरूरत है। प्राण जब तक हैं तब तक हमारा शरीर काम करेगा। प्राण अगर निकल जाएँ तब तो फिर बेटे यह लाश है।
कर्मकाण्ड क्या है? कर्मकाण्ड लाश है। कर्मकाण्डों की आप निन्दा करते हैं? बेटे हम बहुत निन्दा करते हैं कर्मकाण्डों की और हम तो मजाक उड़ाते हैं और ना जाने क्या-क्या कहते हैं? कर्मकाण्डों की आप क्यों मजाक उड़ाते हैं? इसलिये कि जब लोग केवल कर्मकाण्ड को ही सब कुछ समझ लेते हैं, तब मुझे मजाक उड़ानी पड़ती है। अगर लोग इस बात की आवश्यकता समझ लें कि कर्मकाण्डों के साथ विचारणाओं के सम्मिश्रण की जरूरत है, तब मैं इसको प्यार करूँगा। तब मैं इसका महत्त्व बताऊँगा, तब मैं इसके प्रति अपनी श्रद्धा अर्पण करूँगा जैसा कि मैं करता हूँ। उपासना के साथ-साथ श्रद्धा का समन्वय होना, विचारों का समन्वय होना, मान्यताओं का समन्वय होना, भावनाओं का समन्वय होना आवश्यक है। केवल कर्मकाण्ड आवश्यक नहीं है, केवल कर्मकाण्ड काफी नहीं है, केवल कर्मकाण्ड से कोई चमत्कार नहीं होने वाला है। केवल चौबीस हजार जप से कोई चमत्कार नहीं होने वाला है। केवल सवा लाख जप के कोई चमत्कार नहीं है। बेटे, अगर कोई चमत्कार है, तब मैं उपासना का प्रशंसक हूँ। उस उपासना का प्रशंसक हूँ, जिसको मेरे गुरु ने दुबारा बताया। पन्द्रह वर्ष की उम्र में जब मेरा दूसरा गुरु आया तब, जो कृत्य मुझे मालवीय जी ने बताये थे, उसने उसके भीतर प्राण डाल दिये। प्राण उन्होंने भरे थे। प्राण भर जाने की वजह से प्राण चलने लगा। शरीर के भीतर जब प्राण भर जाता है, तब वह चलने लगता है। प्राण अगर निकाल दें तब, बड़ी मुश्किल पड़ेगी। प्राण भी हमारा बेकार हो जाएगा और शरीर भी बेकार हो जाएगा, दोनों बेकार हो जाएँगे। कर्मकाण्ड तो बेकार हो ही जाएगा जो उसका प्राण है, वह भी बेकार हो जाएगा। क्रिया-कृत्य के बिना आप अपने शरीर से कोई काम नहीं ले सकते। प्राण के बिना भी वह मात्र लाश है। उसे जलायेंगे या तो गाड़ दीजिये या बहा दीजिये या कुत्तों को डाल दीजिये, जानवरों को खिला दीजिये, नहीं तो वह पड़ा हुआ सड़ेगा, क्योंकि इसमें प्राण नहीं हैं। वे कर्मकाण्ड भी, जिनमें प्राण नहीं है, सड़ेंगे, आदमी में भ्रान्तियाँ पैदा करेंगे, अज्ञान पैदा करेंगे, अंधविश्वास पैदा करेंगे ये सड़े हुए कर्मकाण्ड। कर्मकाण्ड को अनावश्यक मानना शुरू कर दिया और अगर यह कहना शुरू कर दिया कि कर्मकाण्डों की कोई भी जरूरत नहीं है और हमको अनुष्ठान ही काफी है, आस्थाएँ ही काफी हैं, मान्यताएँ ही काफी हैं तब भी बेटे मुश्किल पड़ जाएगी।
साधना-उपासना में इन दोनों की आवश्यकता पड़ती है। उदाहरण के लिये मैं समझाता हूँ। अगर हम बन जाएँ भूत, तो हम बेकार हैं। अगर हमारा शरीर गायब हो जाये तो हम क्या करेंगे बताइए? फिर हम बेटे भूत हो जाएँगे। फिर गुरुजी क्या करेंगे? फिर बेटे यहीं बैठ जाएँगे कहीं पेड़ पर। गुरुजी व्याख्यान कीजिये। बेटे हम व्याख्यान नहीं कर सकते, क्योंकि हमारे जीभ नहीं है। आपका ज्ञान तो ज्यों का त्यों है। फिर आप व्याख्यान क्यों नहीं कर देते? बेटे हम दे ही नहीं सकते, क्योंकि जीभ ही नहीं है हमारी। तो आप एक लेख ही लिख दीजिये। बेटे हम लेख भी नहीं लिख सकते, क्योंकि हमारे पास हाथ नहीं हैं। ज्ञान है? ज्ञान तो है हमारे पास, पर हम लिख नहीं सकते, क्योंकि हमारे पास हाथ नहीं हैं। अतः भूत बेकार है, क्योंकि उसके पास शरीर नहीं है और शरीर भी बेकार है, क्योंकि उसके पास प्राण नहीं हैं। कर्मकाण्ड भी बेकार है, जिनके पीछे भावनाओं का समन्वय नहीं है और भावनाएँ भी बेकार हैं, जिनको चरितार्थ होने के लिये कर्मकाण्डों का होना जरूरी था। कर्मकाण्डों का व भावनाओं का समन्वय जरूरी होता है जैसे कि हमारी उपासना दो भाग में सम्पन्न हुई। एक भाग में हमारे गुरु ने, मालवीय जी ने हमें कर्मकाण्ड बताये, जिसे हमने आपको बताया। बच्चे के लिये यही काफी हैं। बच्चे के लिये और कोई चीज नहीं बता सकते, केवल वर्णमाला बताते हैं—क, ख, ग, घ, ङ, A, B, C, D, E, F, G। बताइये साहब, इसकी स्पैलिंग बताइये, मीनिंग बताइये इसका प्रोनाउन्सियेशन बताइये। चुप रहो! नहीं, बताइये ये जो है S और मिलाकर के सुपरिटेंडैण्ट होता है। अरे, चुप रह! पहले याद कर छब्बीस अक्षर, उन्हें छब्बीस दफे फेर लिया कर। नहीं, साहब, इसका प्रयोग बताइये कैसे होता है? उसका ग्रामर क्या होता है? और बताइये इसका प्रोनाउन्सिएशन क्या होता है? अरे! चुप रह! सिर मत खाना! छब्बीस अक्षर याद कर। नहीं कुछ और बताइये आगे की बात! हाँ, बता देंगे, पहले इन्हें याद कर गिनती? गिनती—एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस, पहाड़े—पाँच एक पाँच, पाँच दो दस, पाँच तीन पन्द्रह। ये क्या कराते हैं साहब हमें तो वो करा दीजिये। क्या पढ़ा दीजिये? अंकगणित पढ़ा दीजिये, रेखागणित पढ़ा दीजिये चुप रह! चुपचाप बैठ जाकर इंतजार कर, पहाड़े याद कर! नहीं हमको तो पहले बीजगणित पढ़ाइए। नहीं हम नहीं पढ़ा सकते। पहले हम तुम्हें गिनती सिखायेंगे, इसी तरह पहले हम कर्मकाण्ड सिखायेंगे आपको। हमारे पहले वाले गुरु ने हमको कर्मकाण्ड सिखाये थे, जो हमने आपको सिखा दिये। अब हम आपको उसका प्राण सिखायेंगे। कौन-सा वाला? जो हमारे दूसरे वाले गुरु ने बताया था।
दूसरे वाले गुरु ने हमको ये बताया कि त्रिपदा—तीन टाँग वाली गायत्री के तीन माहात्म्य और तीन महत्त्व क्या है? बेटे, इसके अन्दर तीन भावनाएँ काम करती हैं, तीन प्रेरणाएँ काम करती हैं और तीन विचारणाएँ काम करती हैं, इसलिये इसका नाम है—‘त्रिपदा’। त्रिपदा के तीन चरण हम आपको बता चुके हैं—जप, ध्यान और तप। यह तीन कृत्य आपको मालूम हैं। जप करने की विधि क्या होती है? स्थापना करने की विधि क्या होती है? वस्त्रों का उपयोग कैसे होता है? जीभ का उपयोग, मन का उपयोग, वस्त्रों का उपयोग ये सब कर्मकाण्ड में आते हैं। ये बहुत साधारण हैं, बिल्कुल मामूली बात है। बच्चा भी उन्हें सीख सकता है। लेकिन आपको जानना चाहिए कि इसके भीतर अगर वे चीजें न हुईं तो हमारे कर्मकाण्ड फिर भी अधूरे रह जाएँगे। जैसे मैं आपको एक पत्थर लाकर दूँ, एक आपको छैनी, हथौड़ा लाकर दूँ और यह कहूँ कि आप इसकी मूर्ति बना दीजिये तो क्या आप मूर्तियाँ बना देंगे? मूर्ति बनाने के लिये मैं मानता हूँ कि छैनी की जरूरत है, पत्थर की जरूरत है, हथौड़े की जरूरत है। जितने भी मूर्तिकार हैं, इन तीन से ही बनाते हैं, लेकिन एक और भी चीज चाहिए और वह है, मूर्तिकारिता की कला। अगर यह कला आपको नहीं आती है, तो छैनी, हथौड़ा चलायेंगे, पर हाथ-पाँव में मार लेंगे और सिर फोड़ डालेंगे। कला भी आपको आनी चाहिए। फाउण्टेन पैन मैं आपको दूँ और आपको स्याही, कागज भी लाकर दे दूँ और कहूँ कि लेख लिखिये। लेख लिखने के लिये कागज, स्याही और कलम तीनों की जरूरत पड़ती है। जितने भी लोग लिखते हैं—इसके बिना नहीं लिख सकते, लेकिन एक और बात भी होनी चाहिए कि आपको ज्ञान और अध्ययन होना चाहिए। ज्ञान, अध्ययन न हुआ तो बेटे, आपकी कागज, स्याही पड़ी रहेगी, टेड़े-मेड़े अक्षर बनाते रहेंगे, लेकिन कुछ लिख नहीं सकेंगे, क्योंकि आप पढ़े नहीं हैं। तलवार आपको लाकर दे दूँ और यह कहूँ कि जाइये और लड़ाई के मैदान में लड़िए। आप लड़ सकते हैं? नहीं, लड़ नहीं सकते। तलवार भी वही है, बेशक, ढाल भी वही है, योद्धा तो इसी से लड़ते थे। मानता हूँ बेटे, मैं आपकी बात की तारीफ करता हूँ कि जितने भी योद्धा लड़ने के लिये गये थे ढाल-तलवार लेकर गये थे, परन्तु आप नहीं लड़ सकते। क्यों? क्योंकि आपको तलवार चलाना नहीं आता। आप तलवार चलायेंगे तो ऐसे चलेंगे कि बजाय उसको तिरछी मारने के सीधी मारेंगे और अपने ही घाव कर लेंगे, सिर में घाव करे लेंगे।
हमने सुना है कि तलवार से सिर कटता है। तलवार से सिर नहीं कटता। बेटे, हाथ की ताकत से सिर कटता है। हाथ की ताकत से भी सिर नहीं कटते, दिल की हिम्मत से सिर कटते हैं हिम्मत आदमी की कमजोर हो तो तलवार नहीं चल सकती। नहीं साहब तलवार से सिर कटता है। हाँ बेटे मानता तो हूँ तेरी बात, मैं कब मना करता हूँ कि तलवार से सिर नहीं कटता है। तलवार से सिर काटने के लिए हाथ की ताकत और कलेजे की हिम्मत दोनों की जरूरत है। नहीं साहब! तलवार से काम चल जाएगा। तलवार से सिर कटते हुए हमने देखा है। आपकी बात हम मानते हैं तलवार से ही सिर कटा था लेकिन आपको हिम्मत नहीं दिखाई पड़ी? नहीं, साहब हिम्मत तो नहीं दिखाई पड़ी तो हम बताते हैं आपको, बेटे, तलवार चलाने वाले के भीतर हिम्मत भी होती है और उसकी कलाइयों में ताकत भी होती है। दोनों चीजें न होंगी तो तलवार का कोई फायदा न हो सकेगा। आप क्या कह रहे हैं? बेटे मैं ये कह रहा हूँ कि कर्मकाण्ड जो हैं जो हमने आपको सिखा दिये थे, जिनको आप पहाड़ के बराबर मानते हैं, आसमान के बराबर मानते हैं और न जाने क्या मानते हैं? मैं चाहता हूँ कि आपकी मान्यता का बुखार कम हो जाए और आप यह मानें कि कर्मकाण्डों की शक्ति सीमित है, कर्मकाण्डों का लाभ सीमित है और कर्मकाण्डों का लाभ अधूरा है। कब तक? जब तक इसके पीछे विचार न आयें, भाव न आये अर्थात् उसका प्राण समन्वित न हो।
प्राण क्या हो सकता है? यही मैं बताने वाला था कि गायत्री का प्राण क्या हो सकता है? गायत्री के प्राण के बारे में हम आपको सबेरे प्रातःकाल ध्यान कराते हैं कि गायत्री की अनुकम्पा की वर्षा आप पर हो रही है। अनुकम्पा में तीन चीज बताते हैं—यही है ‘त्रिपदा’। इसमें एक चीज का नाम है—प्रज्ञा। ये गायत्री के तीन प्राण हैं। जिस तरीके से त्रिवेणी की तीन धाराएँ होती हैं और तीनों धाराओं के मिलने से संगम बन जाता है—प्रयागराज बन जाता है। जिसके बारे में हम यह कहते हैं—‘‘काक होहिं पिक बकहुँ मराला।’’ अर्थात् बगुला जो होते हैं हंस बन जाते हैं और कौए जो हैं कोयल हो जाते हैं। हो जाते हैं? हाँ, बेटे हो जाते हैं। कैसे? संसार में तो नहीं हो सकते। कौआ तो कौआ ही रहेगा, कोयल-कोयल ही रहेगी, बगुला बगुला ही रहेगा, हंस हंस ही रहेगा, लेकिन चेतना के रूप में कायाकल्प हो जाता है, जब तीन धाराओं का सम्मिश्रण हो जाता है तब। प्रज्ञा, निष्ठा और श्रद्धा—ये गायत्री मंत्र की तीन धाराएँ हैं। तीन धाराओं में से जिस किसी का आपके अन्तरंग में प्रवेश होता चला जाएगा, आप उसी अनुपात से लाभ उठाते हुए चले जाएँगे। बेटे, संसार में हमारे तीन शरीर हैं—एक स्थूल, एक सूक्ष्म और एक कारण। स्थूल शरीर में श्रद्धा, सूक्ष्म शरीर में निष्ठा और कारण शरीर में प्रज्ञा और निष्ठा। इन तीनों का समन्वय जैसे हो जाएगा आपकी गायत्री माता चमत्कार दिखायेगी। बीज अकेला काफी नहीं है। बीज के लिये जमीन-एक, खाद-पानी। खाद-पानी अगर नहीं होगा, जमीन अगर नहीं होगी तो अकेला बीज काफी नहीं है। गायत्री मंत्र बीज है, उसके लिये भी उन्हीं चीजों की जरूरत है जैसे बीज के लिए खाद-पानी और जमीन की ठीक इसी तरीके से श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा-इन तीनों की भावनात्मक चीजें अगर मिल जाएँगी तो बात बनेगी।
अध्यात्म जो कुछ भी है, आदमी की चेतना से सम्बन्धित है। पदार्थ के साइंस का नाम है, फिजिक्स। पदार्थों का भी लाभ है। हमारा वह शरीर पदार्थ है मैटर है। मैटर के प्रयास के बदले में जो चीजें मिल सकती हैं, मैटीरियल ही होंगी। हम परिश्रम करते हैं और परिश्रम के बदले में पैसा लेकर आते हैं। हम व्यायाम करते हैं तो व्यायाम के बदले में हमारे ‘मसल्स’ मजबूत हो जाते हैं। फिजिक्स हमको फिजिकल बातें सिखाती हैं। मैटर मैटीरियल लाभ देखता है। आध्यात्मिकता का लाभ उठाने के लिये हमको उपासना विधा काम में लेनी चाहिए। जो हमारी चेतना को प्रभावित करती है, जो हमारी भावनाओं को प्रभावित करती है, जो हमारी मान्यताओं को प्रभावित करती है, जो हमारी आस्था को प्रभावित करती है। आस्था को प्रभावित करने वाला कोई मसाला आपके पास न हो तो आपकी गाड़ी धकापेल चलती जाएगी। धकापेल गायत्री मंत्र जपते चले जाएँगे और उसी को यह मान लेंगे कि इसी से सिद्धियाँ मिल जाएँगी। सिद्धियाँ आत्मा में से आती हैं, सिद्धियाँ शरीर में से नहीं आतीं। इसलिये आत्मा को प्रभावित करने वाले—चेतना को प्रभावित करने वाले, हमारी भावनाओं को प्रभावित करने वाली उपासना को अगर आदमी अपने जीवन में मिलाकर रखें तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ जीवन में चमत्कार आयेंगे, सिद्धियाँ आयेंगी। मेरी सारी की सारी उपासना इसी के आधार पर चली है और इसी आधार पर वह सफल होती चली गई। अब मैं आपको एक सिद्धान्त बताता हूँ कि कर्मकाण्डों के साथ-साथ में भावनात्मक पक्ष का जुड़ा होना भी आवश्यक है। भावनात्मक पक्ष के बारे में अगर आपने यह ख्याल बना कर रखा है कि इसकी कोई जरूरत नहीं है, हम तो यों ही पूजा-पत्री कर लेंगे। ये कर लेंगे, वो कर लेंगे, तो आपको मायूस ही होना पड़ेगा। वस्तुएँ आपके उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकती हैं। बीसा यंत्र आपके कुछ भी काम नहीं आ सकता। बीसा यंत्र भी चमत्कारी होता है? हाँ, बेटे बड़ा चमत्कारी होता है। उसको ऐसे ताँबे के पत्र पर बना लीजिये, चढ़ा दीजिये, लोग पैसा दे जाएँगे। गलत बात है, बेटे, कोई कुछ नहीं देगा। कैसे? मुझे मालूम है इस बारे में। एक बार एक आदमी मुझे दक्षिणावर्ती एक शंख दे गया था। वह मेरी पूजा की चौकी पर रखा रहता था। अलवर स्टेट के एक ठिकानेदार अक्सर मेरे यहाँ आते थे। यह कहते थे कि गुरुजी! आपके पास दक्षिणावर्ती शंख है? हाँ, यह रखा तो है। हमने सुना है कि लक्ष्मी जी आती हैं तो दक्षिणावर्ती के शंख में से आती हैं। आती होगी बेटा, हमें तो यह भी नहीं मालूम है। आपके यहाँ गायत्री तपोभूमि बन गई और आप इतना बड़ा काम कर लेते हैं तो जरूर लक्ष्मीजी इसी में से आती होंगी। शायद इसी में से आती हैं, मालूम नहीं कहाँ से आती हैं, आती हुई मैंने देखी नहीं हैं, पर शायद इसी में से आती हों। गुरुजी आपसे एक प्रार्थना है कि हमारे लिये भी एक असली दक्षिणावर्ती शंख मँगा दीजिये। मँगा देंगे। हमने तो किसी से छीना नहीं है, कोई हमें दे गया था। तभी से यह रखा हुआ है। वे जब भी आते यही कहते कि हमारे लिये दक्षिणावर्ती शंख मँगा दीजिये। अच्छा मँगा देंगे बेटे। फिर आये और बोले—गुरुजी! दक्षिणावर्ती शंख आपने नहीं मँगाया! बेटे, तू इसी को ले जा। इसमें तो लक्ष्मी रहती है। लक्ष्मी रहती है वो तेरे घर में और भी अच्छी तरीके से रहेगी। मेरा तो किराये का मकान है, पन्द्रह रुपये महीने का, उसी में गुजारा करता हूँ। लक्ष्मी जी को रहने के लिये जगह इसमें नहीं है। फ्लैश का पाखाना इसमें नहीं है, लक्ष्मी जी के लिये सोने के लिये कमरे इसमें नहीं हैं। लक्ष्मी तेरे घर रहेंगी तो आराम से रहेंगी। लक्ष्मी आयेंगी, जब भी तेरे घर रहा करेंगी, फिर वहाँ से जरूरत पड़ेगी तो मैं बुला लिया करूँगा। तू इसे ही अपने घर ले जा। नहीं महाराज जी.....। मैंने कहा—न तू ले जा। नहीं, मेरा यह मतलब थोड़े था कि आप इसे ही दे दें। ना! मैं तेरा मतलब समझता हूँ। मैं दे रहा हूँ तो तू ले जा। दे दिया। वह उस शंख को ले गया। उसके ऊपर दो लाख रुपये का कर्जा था। वह उस शंख को लिये फिरे और कहे कि मेरे पास दो लाख रुपये का कर्ज है, यह चुका देगा। साल भर पीछे फिर आया। मैंने पूछा—क्यों भाई, क्या मामला है? लक्ष्मी ने अब तक तो तेरा कर्ज चुका दिया होगा? दक्षिणावर्ती शंख ले लो महाराज जी। जरा भी नहीं चुका, वह वैसा का वैसा ही है वरन् और ज्यादा हो गया है। तब मैंने कहा—शंख ने कोई फायदा नहीं दिया? नहीं, कोई फायदा नहीं दिया।
मित्रो! आप समझते हैं कि वस्तुओं के माध्यम से सारे काम सध जाते हैं। आप आसान माध्यम ढूँढ़ते हैं और आसान काम करना चाहते हैं। यह सबसे बड़ी मूर्खता है। इसी प्रकार से मेरे पास एक असली रुद्राक्ष की माला थी, जिसे कोई दे गया था। वह भी मैंने खरीदी नहीं थी। एक सज्जन आये और बोले—महाराज जी! हमने सुना है कि इन्दिरा गाँधी को किसी ने नेपाल में एक रुद्राक्ष दे दिया है, उसी के पहनने से वे प्रधानमंत्री हो गई हैं। हो गई होगी बेटे! मैं यह भी नहीं कह सकता। नहीं महाराज जी, असली रुद्राक्ष से चमत्कार होता है। होता होगा बेटे, मैं यह कैसे कहूँ कि चमत्कार नहीं होता होगा। गुरुजी अगर असली रुद्राक्ष कहीं से मिल जाये तो क्या सारे के सारे देवता पकड़ में आ जाएँगे? असली रुद्राक्ष की माला से जो जप करेगा, वही मालामाल हो जाएगा? क्या आपके पास भी असली रुद्राक्ष की माला है। बेटे, लोग तो यही कहते हैं कि असली रुद्राक्ष की माला है। मुझे परख तो नहीं आती, पर शायद यह असली रुद्राक्ष की माला है जो मेरे काम आती है तो क्या आपको सिद्धियाँ इसीलिए आ जाती हैं। शायद, इसीलिये आ जाती होंगी। महाराज जी एक प्रार्थना हमारी भी है कि एक रुद्राक्ष की माला आप हमारे लिए भी कहीं से मँगा दीजिये। मँगा देंगे बेटा, कहीं से मिल जाएगी। मालूम तो नहीं हमको दुकान कहाँ है? हमने हरिद्वार में देखा है कि उसी रुद्राक्ष के ग्यारह रुपये वसूल कर लेते हैं और उसी के तीन सौ रुपये भी वसूल कर लेते हैं। कोई काठ का उल्लू आ जाता है उससे तीन सौ रुपये ले लेते हैं और जब कोई सीधा-सादा आ जाता है तो ग्यारह रुपये ले लेते हैं। अश्लीलता का दौर चल रहा है, भाईसाहब कपड़े देख लीजिए। अच्छा माल है तो ले जाइये। इसी तरह अच्छी माला लगी है, तो ले जाइये। ग्यारह रुपये की है—लाइये दे दीजिये। अच्छा भाईसाहब असली रुद्राक्ष है। कह रहा हूँ? बेटे मैं यह कह रहा हूँ कि वस्तुओं के माध्यम से—कर्मकाण्ड के माध्यम से आपने जो लम्बे-चौड़े सपने देखे हैं तो मैं चाहता हूँ कि आज आप जगें। अगर आपने लम्बे-चौड़े सपने इस ख्याल से देखे हों कि कर्मकाण्डों के माध्यम से, क्रियाओं के माध्यम से, वस्तुओं के माध्यम से और वस्तुओं की हेरा-फेरी के माध्यम से, चन्दन की माला के माध्यम से, रुद्राक्ष की माला से आपकी मनोकामनाएँ पूरी हो जाएँगी तो मेरी प्रार्थना है कि आप यह मान्यता खत्म करें। मेरे जीवन के लम्बे समय का साठ साल का अनुभव यह है कि जिन्होंने कर्मकाण्ड को ही सब कुछ समझा वह आदमी झक मार रहा है, कुछ नहीं है उसके पास। जो कर्मकाण्डों का महत्त्व बताते हैं और कर्मकाण्ड सिखाते हैं और कर्मकाण्डों से लक्ष्मी मिलने की बात कहते हैं, बेटे वे सब खाली हाथ हैं। यह सब इनका फ्रॉड है, इनमें से एक भी आदमी सही नहीं है। ये जो इस तरह कहते हैं कि इतना जप कर लीजिये, अमुक कर्मकाण्ड कर लीजिये और ये फायदा उठा लीजिये, बेटे इनमें से एक ने भी फायदा नहीं उठाया। मैं आपको कसम खाकर कह सकता हूँ कि यह सिर्फ जालसाजी है। वस्तुओं के माध्यम से—अक्षरों के उच्चारण करने के माध्यम से, क्रियाओं के माध्यम से आप फायदा नहीं उठा सकते, इसके साथ-साथ प्राण का, भावना का, होना आवश्यक है, मेरे लम्बे जीवन का यही अनुभव है-सार है।
साथियो, प्राण या भावना कैसी होनी चाहिए? यह किस रूप में होनी चाहिए? प्राण की एक धारा है—त्रिपदा की एक धारा है—‘श्रद्धा’! श्रद्धा किसे कहते हैं? श्रद्धा कहते हैं—श्रेष्ठता से ‘असीम प्यार’ को? श्रद्धा का एक और अर्थ मैं आपको बताना चाहता हूँ। श्रद्धा का अर्थ व्यक्ति विशेष की श्रद्धा से नहीं है। गुरु नाम के व्यक्ति कितने जालसाज और चालाक मालूम पड़ते हैं। हर कोई कहता है कि हमको गुरु बना लीजिये, श्रद्धा हमारी कीजिये, कहना हमारा मानिये। अच्छा तो हम देवी-देवता से श्रद्धा करेंगे। हाँ, देवी-देवता से श्रद्धा करें, लेकिन एक बात बताता हूँ। देवी-देवता के बारे में श्रद्धा करने से पहले यह बात मालूम रहनी चाहिए कि कोई भी देवता अथवा भगवान व्यक्ति नहीं है, शक्ति है ध्यान रखें! मैं क्या कह रहा हूँ वह जानता है। वह व्यक्ति नहीं है, शक्ति है। व्यक्ति से क्या मतलब? देवी-देवता को हमने व्यक्ति बनाकर रखा है और व्यक्ति बनाकर श्रद्धा भी हम करते हैं। व्यक्तियों के साथ में जो व्यवहार करते हैं वैसी ही श्रद्धा उनसे करते हैं। मसलन—हनुमान जी को हमने अपने घर में रखा है। हनुमान जी—एक व्यक्ति हो गये। अब श्रद्धा कैसे करेंगे? मिठाई खिलायेंगे? कपड़ा पहनायेंगे? ये करेंगे? वो करेंगे? व्यक्ति के साथ में जो सलूक किया जाता है, लोग भगवान को भी वैसा ही मानते हैं। भगवान को व्यक्ति मानते हैं। भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, ध्यान रखें। भगवान एक शक्ति है। व्यक्ति ने भगवान् बना दिया है अपनी पूजा-उपासना के लिए, ध्यान करने के लिए, क्योंकि हमारा मन ऐसा है कि जब तक व्यक्ति की शक्ल न देखें तब तक ध्यान नहीं लगता। तो यह ध्यान लगने वाला भगवान क्या है? बेटे, दुनिया में दो भगवान हैं। एक वह है जिसने मनुष्यों को बनाया और दूसरा भगवान वह है जिसको मनुष्यों ने बनाया है। मनुष्यों ने भगवान बनाया है? हाँ मनुष्यों ने भगवान को बनाया। इस तरह एक भगवान ऐसा है, जो इनसानों का बनाया हुआ है, इनसानों का गढ़ा हुआ है। इनसान का बेटा है भगवान, कौन-सा वाला? जिसकी शक्ल है। शक्ल वाले भगवान सब मनुष्यों के बनाये हुए हैं। भगवान की कोई शक्ल नहीं हो सकती, हवा की कोई शक्ल नहीं हो सकती, बिजली की कोई शक्ल नहीं हो सकती, प्रेम की कोई शक्ल नहीं हो सकती, क्रोध की कोई शक्ल नहीं हो सकती। जितनी भी चीजें व्यापक हैं उनकी कोई शक्ल नहीं हो सकती। बिजली चमकती तो है, पर बिजली की कोई शक्ल नहीं है। बिजली नहीं चमकती उसका फिलामेंट चमकता है। बिजली—एक गर्मी का नाम है, उस ऊर्जा का नाम है जो सब जगह फैली हुई है। भगवान एक ऐसी शक्ति का नाम है जो सब जगह फैली हुई है।
फिर ये शक्लें? शक्लें तो बेटे हमने ध्यान के लिये बनाई हैं। हमने अपने ध्यान को एकाग्र करने के लिये तरह-तरह की शक्लें गढ़ी हैं। ऐसा कोई महादेव नहीं है जो बैल के ऊपर सवारी करके घूमता रहता हो। नहीं हैं तो ये कहाँ से आ गया? हजारों तरह के भगवान दुनिया में हैं और हजारों तरह की जो कल्पनाएँ की गई हैं, मूर्तियाँ बनायी गई हैं ये आदमियों की बनाई हुई हैं। भगवान की मूर्ति नहीं बन सकती। जयपुर में हम जाते हैं, तरह-तरह के भगवान बनते दिखाई पड़ते हैं। ये क्या बना दिया? अरे रज्जन मियाँ क्या बना रहे हो? अरे साहब, हनुमान जी तो काबू में ही नहीं आते। कभी मुँह बड़ी हो जाती है तो कभी पूँछ बड़ी हो जाती है तो फिर क्या करते हैं उनका? अक्ल ठिकाने लगाता हूँ। अगर हनुमान की नाक बड़ी हो जाती है तो उसकी ऐसी घिसाई करता हूँ कि वह सीधी हो जाती है। घिसाई करता है, नाक नहीं काटता? नहीं, काटता नहीं हूँ, थोड़ी-सी ठीक कर देता हूँ। हनुमान जी की नाक घिसता है? हाँ हनुमान जी की नाक को घिसकर ठीक करता हूँ। ये बेटे मनुष्यों के बनाये हुए भगवान हैं। मनुष्यों के बनाये भगवानों का केवल उपयोग इतना ही है कि हमारा ध्यान जो अस्त-व्यस्त हो जाता है वह अस्त-व्यस्त न हो। इतने तरह के भगवान् नहीं हो सकते। पूरी दुनिया में एक ही भगवान् हो सकता है। सूरज की दुनिया में एक ही शक्ल है दुनिया भर में कहीं भी चले जाइये। एक ही सूरज मिलेगा और भगवान? जो असली भगवान है अगर उसकी शक्ल होगी तो दुनिया में एक शक्ल होगी। तरह-तरह की शक्लें नहीं हो सकतीं। आपका भगवान लम्बी नाक वाला है और मेरा भगवान लम्बी पूँछ वाला। आपके भगवान के चार हाथ हैं और मेरे भगवान के छह हाथ। आपका भगवान मुसलमान के करीम जैसे दाढ़ी लगाये हुए हैं और हमारा हनुमान जैसा................क्या यह हो सकता है? बेटे, ऐसा नहीं हो सकता, तो ये देवी-देवता क्या हैं? ध्यान लगाने के लिए खिलौने हैं। देवी-देवता में भगवान् नहीं होता। देवी-देवता चमत्कार दिखाते हैं? नहीं, कुछ चमत्कार नहीं दिखाते। फिर कौन दिखाता है? वह दिखाता है जिसको हम असली भगवान कहते हैं। असली भगवान क्या है? असली भगवान एक चेतना है, जो सारे विश्व-ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। उसकी ही एक छोटी वाली चिंगारी आपके और हमारे भीतर बैठी हुई है, जिसको हम जीव कहते हैं और जो सारे विश्व में संव्याप्त है उसको हम कहते हैं ब्रह्म। ब्रह्म-विराट् और जीव-लघु, इन दोनों का जब आपस में मिलन होता है, तब कैसा मालूम पड़ता है? तब बेटे,.......मैं तुझे उदाहरण देकर समझाता हूँ—बिजली के दो तार जब आपस में मिलते है तो क्या बात होती है? बताइये? उसमें से स्पार्किंग होती है और करेंट निकलता है। क्या निकलते हैं? ‘आदर्श’ और सिद्धान्त निकलते हैं। जब भी भगवान मिलेगा मनुष्य के भीतर ही मिलेगा। उसके भीतर ऐसा कम्पन, ऐसी हूक, ऐसी उमंग उठेगी जिसका नाम है—आदर्श। आदमी के भीतर से आदर्श उमंगें तो जानना चाहिए भगवान आ गया।
भगवान के रूप को तीन तरीके से बताया गया है। भगवान के बारे में जब लोग मुझसे पूछते हैं कि वह कैसा होता है? तो मैं कभी-कभी बुखार का नाम लेता हूँ। बुखार कैसा होता है? उससे पूरे शरीर में गर्मी आ जाती है। बहुत जोर से गर्मी लग जाती है, पसीने आ रहे हैं और व्यक्ति कँप रहा है। इसी तरह भगवान जब आते हैं, तब आदमी सामान्य नहीं रहता, असामान्य हो जाता है। सामान्य मनुष्य मोह के गुलाम, लोभ के गुलाम, सारी जिन्दगी इनकी दो काम में खप जाती है, पैसे का लोभ और व्यक्ति का मोह।
अधिकतर व्यक्ति लोभ और मोह के लिये कीड़े-मकोड़े, मक्खी-मच्छर जैसे गये-गुजरे जीवन जीते हैं और जिन्दा रहते हैं, परन्तु जब जीवन में भगवान आता है, तब आपको आता है बुखार। बुखार जब आता है तो कुछ और ही चीजें दिखाई पड़ती हैं। दिमाग में कुछ और ही दिखाई पड़ता है। मन कुछ और ही तरीके से अजीब तरीके से मचलता है। भगवान के बारे में लोग पूछते हैं कि कैसे मालूम पड़ता है आपको? भगवान जब मेरे पास आता है तो मुझे ऐसा मालूम पड़ता है जैसे कोई नशा छा गया हो। नशा कैसा होता है? नशा बेटे शराब जैसा होता है। शराब पी जाने के बाद में कुछ दिमाग भी अलग-सा हो जाता है। क्या बात है गुरुजी? बात तो कुछ नहीं है बेटे, भगवान में एक मस्ती है, भगवान में एक नशा है। सड़क के किनारे एक शराबी पड़ा हुआ था। हाथी पर सवार होकर राजा साहब जा रहे थे। एक शराबी चिल्ला रहा था—‘‘ऐ पड्डा वाले पड्डा बेचता है।’’ पड्डा जानते हैं? भैंस के बच्चे को एम.पी. एवं यू.पी. में पड्डा बोलते हैं। कोई शराबी कह रहा था उस राजा से जो हाथी पर सवार था कि ऐ पड्डे वाले, तू बेचता है तो हमको दे जा। राजा ने सुना तो सोचा कि क्या बात है। यह कोई ऋषि मालूम पड़ता है। पता नहीं क्या बात है। सिपाहियों ने पकड़ लिया और उसे कैदखाने में डाल दिया। तब तक उसका नशा दूर हो गया था। दूसरे दिन राजा साहब के सामने पेश हुआ। राजा ने पूछा—भाई! क्या मामला है? पड्डे की क्या बात कह रहे थे? सिपाहियों से पूछा—क्या कह रहा था ये। हुजूर! आपके हाथी को ये पड्डा बता रहा था—पड्डा माने भैंस का बच्चा और ये कह रहा था—आप पड्डे को बेचते हैं क्या? ये खरीदना चाहता था कल। क्यों भाई, तुम हाथी खरीदना चाहते थे? खरीद लो, हमारा क्या है, हमारे पास तो यह पुराना हाथी है, हम इसे बेच देंगे और नये खरीद लेंगे। आप ही ले लो हुजूर, बड़े जोर से चिल्लाया—जो कल नशे की हालत में सौदागर बना हाथी खरीद रहा था वह तो चला गया। बेटे, भगवान उस नशे का नाम है जो आदमी के भीतर आता है और जब वह आता है तब आदमी के चिन्तन, चरित्र, आदमी की हूकें, आदमी की इच्छाएँ, आदमी की उमंगें, आदतें सभी कुछ बदल जाती हैं। वैसी रहती नहीं हैं, जैसी कुछ अभी अजीब किस्म की हैं, घिनौने आदमी की। भगवान अगर आपके भीतर कभी भी आया होता तो आपका घिनौनापन सबसे पहले खत्म होता। आपके लोभ के ऊपर कैंची चलायी होती, आपके मोह के ऊपर क्या किया होता? आपकी क्षुद्रता को छीन लेता और आपके भीतर महानता के अंकुर प्रवेश होते। जब कभी भी किसी के भीतर भगवान आता है तो ऐसे ही आता है।
भगवान सबसे पहले किससे आता है? श्रद्धा से। श्रद्धा से भगवान आता है। श्रद्धा जब आती है तो क्या होता है गुरुजी? श्रद्धा जब आती है तो बेटे आदर्शों के प्रति असीम प्यार हो जाता है व्यक्ति को। श्रद्धा का अर्थ है—‘‘श्रेष्ठता से असीम प्यार’’। श्रेष्ठता माने ‘आदर्श’। आदर्शों के प्रति असीम प्यार। उसकी बराबरी और किसी से क्या करना? बेटे मैं तुमसे गुरु गोविन्द सिंह की तरीके से कहता हूँ कि सिद्धान्त जिन्दा रहने चाहिए, आप लोग नुकसान उठाएँ तो उठायें। इब्राहिम की तरीके से हमें नुकसान उठाना पड़ता हो तो उठाना पड़े, लेकिन हम सिद्धान्तों पर जिन्दा रहेंगे। विनोबा भावे की माँ के तरीके से—तीनों बेटे संन्यासी बनते हों तुम्हारे तो बने, वंश डूबता हो तो डूबे, हमें क्या करना है? लेकिन उसका मन प्रसन्न होता है। आदमी के अन्दर जो श्रेष्ठता है, श्रद्धा उसी का नाम है। श्रद्धा उस चीज का नाम नहीं है, जिसको अक्ल से ये गुरु जिन्दा रखते हैं। श्रद्धा उस चीज का नाम नहीं है, जिसको खाकर के देवी-देवता जिन्दा हैं। श्रद्धा उस चीज का नाम नहीं है जिसको अन्धश्रद्धा कहते हैं। आपका बाप हमारे बाप का गुरु था, आप हमारे गुरु बन जाइये। क्या गुरु बन जाएँ! चरस तो नहीं खा ली? नहीं, साहब, वंश परम्परा से हमारे वे ही गुरु हैं। ये बेटे, अन्धश्रद्धा है। अन्धश्रद्धा के पीछे विवेक नहीं होता। विचार नहीं होता, मात्र रूढ़ियाँ होती हैं, परम्पराएँ होती हैं। यह श्रद्धा नहीं है—अन्धश्रद्धा है। अन्धश्रद्धा हमको नहीं चाहिए। अन्न बड़ा उपयोगी है, लेकिन अन्न जब सड़ता है तो बड़ा हानिकारक हो जाता है। सड़े हुए अन्न का नाम है पाखाना। पाखाना क्या है? छह घंटे पहले का अन्न है। छह घंटे पहले थाली में जो रखा हुआ था, बड़ा सुन्दर भोजन था, बड़ा अच्छा था, लेकिन पेट में पहुँचने के बाद में वह सड़ गया और सड़ने के बाद में इसी का नाम है—पाखाना। श्रद्धा माने श्रेष्ठतम, भगवान को पकड़ने के लिये असीम शक्ति और अन्धश्रद्धा माने पाखाना, सड़न, बदबू। अन्धश्रद्धा ही आज सब जगह फैली हुई है। अन्धश्रद्धा का लोग दोहन कर रहे हैं, शोषण कर रहे हैं, बेचारे भोले-भाले आदमियों की हजामत बना रहे हैं। अन्धश्रद्धा आज केवल जालसाजी और भोले-भाले आदमियों को शिकार बनाने के काम आती है। श्रद्धा अलग है। श्रद्धा अगर आपके पास है तो मैं कहता हूँ कि भगवान आपके पास आयेगा।
श्रद्धा किसे कहते हैं? आदर्शों से असीम प्यार को। दुनिया में जितने भी महापुरुष हुए हैं एक ही आधार पर महापुरुष हुए हैं कि उनके भीतर से श्रद्धा का समावेश हुआ। जो भी आप इतिहास में पढ़ते हैं महापुरुषों के बारे में, उसमें एक बात का उल्लेख मिलता है कि उन्होंने सिद्धान्तों को प्यार किया, आदर्शों को प्यार किया, मुसीबतें उठाईं, घर वालों का कहना नहीं माना, अपनी कमजोरियों का मुकाबला किया और श्रेष्ठ मार्ग पर बढ़ते-बढ़ते वहाँ तक चले गये जैसे पर्वतारोही एवरेस्ट के शिखर पर चढ़ते-चढ़ते जा पहुँचते हैं। श्रद्धा व्यक्ति को ऊँचा उठाती है। सिद्धान्तों के प्रति निष्ठावान बनाती है। क्या करना चाहिए—इसके बारे में सैकिण्डों में फैसला कर देती है, असमंजस रहता ही नहीं है। यह करें कि न करें—यह सवाल ही पैदा नहीं होता। श्रद्धा अगर आपके पास है तो आपकी अन्तरात्मा यह कहेगी कि हमको श्रेष्ठ काम करने चाहिए और आदर्श काम करने चाहिए। दुनिया क्या कहती है? अरे, ये तो पागलों की दुनिया है, जाहिलों की दुनिया है। हमारा पड़ोसी मना करता है। पड़ोसी तो महाजाहिल है तेरा। हमारे घरवाले कहते हैं, घरवालों को जहन्नुम में डाल दो। श्रद्धा अलग चीज है। श्रद्धा माने श्रेष्ठता के प्रति असीम प्यार। दुनिया के इतिहास में आज तक जो कोई महापुरुष हुआ है, भगवान का भक्त हुआ है, वह एक ही आधार को लेकर चला है जिसका नाम है श्रद्धा। श्रद्धा की शकित आप उन सब व्यक्तियों में देखते हैं, जो शरीर की दृष्टि से कमजोर, हर दृष्टि से कमजोर रहे हैं, लेकिन श्रद्धा के आधार पर ऊँचे से ऊँचे स्थान पर जा पहुँचे हैं। कबीरदास जी उन्हीं में से थे, जो साधनों की दृष्टि से कमजोर, विद्या की दृष्टि से कमजोर, वंश की दृष्टि से कमजोर, आजीविका की दृष्टि से कमजोर—हर दृष्टि से कमजोर थे, लेकिन श्रद्धा की दृष्टि से ऊँचे थे। श्रद्धा के लिए—आदर्शों के लिए उनमें असीम प्यार था।
श्रद्धा केवल मान्यता के क्षेत्र में सीमित नहीं रह सकती, वह क्रिया-रूप में परिणत होती है। मनुष्य केवल विचारता ही नहीं रहता कि कैसा करेंगे, बुड्ढे हो जाएँगे तब ऐसा करेंगे, अगले जन्म में ऐसा करेंगे, वरन् करता भी है। श्रद्धा कुछ श्रेष्ठ काम करने के लिए आदमी को बेचैन करती है, बेबस करती है। श्रद्धा एक शक्ति है। श्रद्धा कल्पना नहीं है, श्रद्धा एक हूक है, श्रद्धा एक जीवात्मा की आवश्यकता है और जब उदय होती है तो आदमी से कुछ कराकर रहती है, बिना कराये छोड़ नहीं सकती। श्रद्धा अगर आपके भीतर हो तो क्या होगा? बेटे, जब समर्थ गुरु रामदास की श्रद्धा जगी तो ब्याह-शादी करने की अपेक्षा वे वहाँ चले गये, जहाँ उन्हें महानता वरण करने के लिए तैयार थी। शंकराचार्य की श्रद्धा जगी तो वे महान कार्य करते चले गये। भगवान बुद्ध की श्रद्धा जगी तो उन्होंने अपने लिये रास्ता तय कर लिया कि क्या करना चाहिए? श्रद्धा की बड़ी शक्ति है। महापुरुषों से लेकर ऋषियों तक और जहाँ तक भगवान के भक्त हुए हैं, वहाँ हर एक के भीतर हम पाते हैं कि अगर वे सफल हुए तो, अगर सफल नहीं हुए तो एक ही वजह से हुए हैं कि उनके अन्दर श्रद्धा का अंश कितना रहा? कर्मकाण्ड रहे हैं, पूजा रही है, उपासना रही है, भजन करने वाले रहे हैं, जप करने वाले रहे हैं, पर श्रद्धा के अभाव की वजह से जीवन में श्रेष्ठता का समावेश न कर सके और गयी-गुजरी अवस्था में पड़े रहे। भक्ति होती रही, भजन होते रहे पर नीचता और निकम्मापन जहाँ का तहाँ बना रहा, दोनों अपनी-अपनी जगह पर बने रहे। निकृष्टता ने पैर नहीं हटाये और भक्ति ने चमत्कार नहीं दिखाये। भक्ति आयेगी तो हमारा निकम्मापन चला जाएगा। निकम्मापन रहेगा तो भक्ति नहीं आयेगी। एक साथ एक म्यान में दो तलवार की तरीके से नहीं रह सकतीं।
श्रद्धा का अर्थ है—श्रेष्ठता से असीम प्यार। मैंने श्रद्धा की भगवान के प्रति, जैसा कि मेरे गुरु ने बताया था। श्रद्धा मुझे सिखाई गई थी। पहले श्रद्धा को मैंने अपने गुरु के द्वारा विकसित किया था—स्लैब ढाला था। स्लैब कब ढालते हैं? हमारी बिल्डिंगें बनती हैं तो पहल लकड़ी का बना देते हैं ढाँचा, फिर ढाँचे के ऊपर स्लैब ढालते हैं। पहले भगवान हमने देखा नहीं था अतः सोचा कैसे करें? क्या करें? भगवान को कहाँ से लाये? भगवान् को कहाँ से पायें? इसीलिये, जिसके प्रति, जिसको हम मान लेते हैं कि हमारे जीवन में यह श्रेष्ठ व्यक्ति है, जिसके बारे में हमारे संदेह दूर हो गये, जिसके बारे में हमने छान-बीन कर ली उसके प्रति हमारी श्रद्धा जम गयी है। हमने अपनी श्रद्धा अपने गुरु के ऊपर दिखाई और फिर वह श्रद्धा विकसित होते-होते भगवान तक चली गई। भगवान तक श्रद्धा विकसित होने का अर्थ होता है—आदर्शों के प्रति असीम प्यार। आदर्श हमारी नस-नस में है, आदर्श हमारे मन में है, आदर्श हमारे चिन्तन में है, आदर्श हमारी कल्पना में है, आदर्श के प्रति हमारी इतनी गहरी निष्ठा है कि कोई अँगुलियों को काट-काट करके भी बखेरता हो तो भी हमको स्वीकार है, लेकिन श्रेष्ठता से विचलित हम नहीं हो सकते। यही है वह श्रद्धा जिसने हमको चमत्कार दिखाये। इससे कम में किसी ने कोई चमत्कार नहीं पाये और न कोई आगे भविष्य में पायेगा।
बेटे, श्रद्धा के चमत्कारों के मैं कई रूप बता सकता हूँ। बुरे चमत्कार-श्रद्धा के भूत के रूप में। भूत क्या होता है? कुछ भी नहीं है। भूत के भय से आदमी बीमार पड़ जाते हैं। भूत के भय से आदमी क्यों जान दे देता है? यह बेटे, आदमी की धारणा है। झाड़ी में भूत रहता है, मरघट में भूत रहता है, डर के मारे बुखार आ गया। रात में सपना दिखा था—भूत आया था तो उसके डर से तू बीमार पड़ेगा और बीमार ही नहीं पड़ेगा बल्कि भूत तेरी जान भी ले बैठेगा। हजारों आदमी भूत की बीमारी से मरते हैं, हम जानते हैं। क्या महाराज जी भूत भी मर सकते हैं? हाँ मर सकते हैं। भूत कैसा होता है? भूत के लिये तू सारे संसार में चला जा और इन्क्वायरी करके ला कि क्यों साहब, कैसा होता है भूत? जर्मनी में जा और पता कर कि क्यों भाईसाहब! आपके यहाँ भूत आता है कि नहीं और आता है तो भूत कैसा होता है? बुखार को कहते हैं क्या? नहीं भूत ऐसा नहीं होता? भूत अलग होता है। कैसा होता है? मरा हुआ प्राणी आता है और ऐसे-ऐसे करता रहता है। भाई साहब हमारी जर्मनी में तो आज तक कोई नहीं आया, जापान में चले जाइये पर पूछिये कि क्यों साहब आपने भूत देखा है कभी? वह भी कहेगा—हमारे यहाँ तो कभी नहीं आया। आप अमेरिका चले जाइये और पता कीजिये कि क्या आपने भूत देखा है? हमने भी नहीं देखा वे भी यही कहेंगे तो कहाँ से आ गया हिन्दुस्तान में? जाने कहाँ से आता है, गुरुजी कहाँ से नहीं आता है।
भूत सारी दुनिया में नहीं मिलता। बुखार सारी दुनिया में होता है, खाँसी सारी दुनिया में होती है, उल्टी सारी दुनिया में होती है, तो भूत केवल हिन्दुस्तान में ही क्यों रहता है? हिन्दुस्तान में पढ़े-लिखे लोगों में यह नहीं रहता, पिछड़े लोगों में रहता है। बहके लोगों में रहता है। चाहे वे पढ़े-लिखे हों या बिना पढ़े-लिखे हों, पढ़े-लिखे भी बहके होते हैं। बिना पढ़ों से और भी ज्यादा जाहिल होते हैं। नहीं साहब पढ़े-लिखे हैं, उन्हें भूत का भय क्यों सतायेगा? पढ़-लिख लेना अलग बात है और ये अलग बात है। बिना पढ़े जाहिल और पढ़े-लिखे जाहिलों में कोई फर्क नहीं रहता, दोनों जाहिल एक से होंगे। भूत कहाँ से आता है? बेटे, भूत हमारे दिमाग में से निकलता है—‘‘शंका डायन मनसा भूत’’। मनसा भूत मन में से निकलते हैं और डायन शंका की देन है। शंकालु लोग कहते हैं कि इसने हमारे बच्चे को नजर लगा दी है। छीन लो इसकी जिंदगी। नुमाइशों में बच्चे जाते हैं, तौले जाते हैं वजन लिये जाते हैं, ये किये जाते हैं वो किये जाते हैं, इनाम मिलते हैं फोटो अखबारों में छपते हैं पर उनको तो कोई नजर नहीं लगाता है और तेरे कुँवर को ही नजर लगा दी है। बैल-सा तो लिये बैठा है, सारे दिन नाक पोंछता रहता है और कहता है कि अमुक ने नजर लगा दी है, जाहिल कहीं का, नजर लगा दी है इसके बच्चे को।
मित्रो! मनुष्य का अज्ञान इतना ज्यादा बढ़ा हुआ है कि आदमी के लिये बहुत हानिकारक हो सकता है। अभी थोड़े दिन पहले फ्रांस में एक आदमी को फाँसी की सजा दी गई। वैज्ञानिकों ने सरकार से उस फाँसी वाले आदमी को माँगा कि आप हमको दीजिये ताकि हम अपने ढंग से उसे फाँसी लगा सकें। अच्छा, ले जाइये। वैज्ञानिकों ने उस व्यक्ति से कहा—भाईसाहब आपको कोई कष्ट नहीं होगा। फाँसी में तो बिजली की कुर्सी पर आपको बिठाया जाता तब आपको जलाया जाएगा। तब आप जिन्दा जलेंगे तो बहुत कष्ट होगा तो क्या आप हमको ऐसी मौत दे देंगे जिसमें कोई कष्ट न हो। बताइये कैसे देंगे? आपके हाथ की एक नस हम काट देंगे और काटते समय भी कोई पता नहीं चलने देंगे कि आपकी नस कटी है कि नहीं कटी है। बस आपके हाथ में जरा-सा नस्तर लगा देंगे जिससे आपका खून निकलता रहेगा और दो घंटे के भीतर धीरे-धीरे जैसे आप गोलियाँ खा लेते हैं, नशा आता जाएगा और और आप खत्म हो जाएँगे, कुछ पता नहीं चलेगा। लगा दीजिये साहब ऐसी फाँसी तो और भी अच्छा है। तख्त पर सुला दिया गया, उसकी आँखें बंद कर दी गयीं। डाक्टरों का गिरोह जमा हो गया। हाथ के पास झूठ-मूठ की खरोंच लगा दी गयी ताकि उसको मालूम पड़े कि देखिये हमने आपको हाथ सुन्न कर दिया है, तो इससे आपको मालूम नहीं पड़ेगा कि हमने आपकी नस काट दी। जरा-सी खरोंच की गयी थी। उसके बाद ऊपर से पानी की बहुत बारीक नली वहाँ लगा दी जिसके पास से पानी बहता चला जाए और वहाँ से घूमता हुआ नीचे टप-टप गिरे। देखिये, अब आपकी नस हमने काट दी, अच्छा। खून बह रहा है आपका, अच्छा। देखिये कितना खून आ गया—ढाई छटांक निकल गया। अब कितना निकल गया? साढ़े पाँच छटाँक से ज्यादा निकल गया। हार्ट की स्पीड क्या है? कम हो गयी। नाड़ी की गति धीमी पड़ गयी, ब्लडप्रैशर कम पड़ गया। डाक्टरों का गिरोह झूठ-मूठ कहता चला गया और वह मरीज विश्वास करता चला गया कि मेरा इतना खून निकल गया मेरा इतना टैम्परेचर कम हो गया, मेरी हार्ट की चाल इतनी कम हो गयी और एक क्षण ऐसा आया कि उसी की बजह से वह आदमी मर गया। आदमी का विश्वास आदमी को मार सकता है। आदमी का विश्वास आदमी की हृदय की गति को कम कर सकता है। समाधि में योगीजन बहुत दिनों तक पड़े रहते हैं, हृदय की धड़कनें बंद कर लेते हैं। संकल्प की शक्ति से ये क्या चीज नहीं हो सकती है? यही है श्रद्धा की शक्ति, जो आदमी के भीतर अंतराल में निवास करती है। संकल्प शक्ति का विकास भी इसी से होता है। श्रद्धा से आदमी अपने आपको मार सकता है, श्रद्धा से आदमी अपनी शक्ति को बढ़ा सकता है, श्रद्धा बड़ी चमत्कारी है।
अध्यात्म में जितनी भी सफलता है, उसके मूल में उसका सिद्धान्त काम करता है, श्रद्धा का सिद्धान्त काम करता है। कैसे? श्रद्धा का सिद्धान्त बेटे ऐसे है जैसे एक थे पंडित जी। पंडित जी गंगाजी जाय करते थे। पंडित जी के पास गंगा किनारे और लोग आ जाते और पूछते थे कि हमें गंगाजी के उस पार जाना है, परन्तु गंगा के पानी में बहुत तेज धार चल रही है। हमको पार जाना जरूरी है, पर कोई भी नाव नहीं है। पंडित जी बोले—हमारे पास एक ऐसा मंत्र है जिसका जप करते हुए आप पार चले जाइये। आप पार हो जाएँगे। अगर डूब गये तो? तो लोगों से कह जाओ कि जब तक हम पार नहीं चले जाएँ तब तक आप टिके रहिये और हमारे हाथ-पाँव बाँध दीजिये और यदि डूब जाए तो हमको भी डूबो देना हमारा मंत्र बड़ा करामाती है। कान में कहा—किसी से कहना मत, बस यह मंत्र जपता चला जा और पार निकल जा। मंत्र क्या था? राम नाम का मंत्र था, जिसे जपता हुआ वह पार निकल गया। एक मौलवी साहब कहीं रहते थे। मौलवी साहब से उनके मुसलमानों ने कहा देखिये हिन्दुओं के पास ऐसे करामाती मंत्र हैं कि वे उस जपते हुए नदी में से पार निकल सकते हैं। आप तो मुसलमान हैं और हमारे पास कोई मंत्र नहीं है। वाह! हमारे पास हिन्दुओं से और भी बड़ा मंत्र है। आप और हम उसका जप करके पार निकल सकते हैं और हम डूब गये तो? तो आप हमको डुबो देना। अच्छा! ऐसा भी मंत्र है? हाँ, उसका नाम है—खुदा और वह खुदा, खुदा करता हुआ नदी पार निकल गया। लेकिन एक और आदमी था जैसे आप हैं, उसने कहा राम+खुदा दोनों को मिला दो। दोनों को घोलकर के मिक्सचर बना दिया। मिक्सचर बना लेने से क्या हो जाएगा? आधा घंटे में खुदा का नाम लेने से नदी पार होते हैं और आधा घंटे राम का नाम जपकर पार होते हैं। यदि दोनों को मिला देंगे तो पन्द्रह मिनट में पार हो जाएँगे। इसलिये उसने यह जप करना शुरू किया—राम-खुदा, राम-खुदा, राम-खुदा और बीच मझधार में डूब गया।
गोस्वामी तुलसीदास जी जब वृन्दावन गये तो उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान् कृष्ण से कहा—यह तो मैं नहीं कहता कि आप भगवान नहीं हैं, भगवान के रूप हैं, पर मेरी श्रद्धा राम के रूप में है। आप अगर राम के रूप में अपनी शक्ल बना लें तो कैसा अच्छा हो? ‘‘तुलसी मस्तक तब झुके जब धनुष-बाण लो हाथ।।’’ धनुष-बाण अगर आपके हाथ में हो तो हमारा मस्तक अपने आप ही झुक जाएगा। अभी तो हमको झुकाना पड़ रहा है, पर तब अपने-आप ही झुक जाएगा। मथुरा में कभी आप जाएँ तो वहाँ तीन सौ वर्ष पुराना एक मंदिर है जिस पर ‘राम मंदिर’ लिखा हुआ है। वास्तव में वह कृष्ण मंदिर है, जहाँ के मंदिर में कृष्ण की मूर्ति परिवर्तित होकर राम के रूप में परिवर्तित हो गयी थी और गोस्वामी जी ने मस्तक झुका लिया था। श्रद्धा का भाव लेकर चलें, तो हमारे लिये कितना लाभदायक हो सकता है। इस संबंध में एक घटना है। किनकी घटना है? एक कोई था चेला जिसको एक दवा कहीं से मिल गयी। वह सबसे कहता-फिरता कि सब बीमारी को ठीक कर देती है यह दवा। लोग आते और वह कहता कि आपकी बीमारी को हम अच्छा कर देंगे। आप एक कटोरा पानी लाइये, एक बूँद हम डाल देंगे, पीजिये अभी अच्छे होते हैं आप लोग। एक कटोरा पानी ले आते और वह कटोरे में एक बूँद दवा डाल देता, लोग पीते और अच्छे हो जाते। हजारों आदमी अच्छे हो गये। यश फैल गया। कीर्ति फैल गयी। हर जगह से हजारों आदमी आते दवाई पीने के लिये—अच्छा होने के लिये। एक दिन उनके जो गुरु थे, उन्होंने सुना कि हमारे चेले को ऐसी कोई करामाती दवा मिल गयी है, जिससे हजारों लोग अच्छे हो जाते हैं। गुरुजी को भी बीमारी थी, कभी बवासीर की शिकायत तो कभी गठिया की शिकायत। कभी जुकाम की शिकायत बनी रहती थी। वे भी चेले के पास पहुँचे और बोले—बेटा, तेरे पास बहुत शक्ति मालूम पड़ती है। जी गुरुजी, हमारे पास एक ऐसी दवा है, जिससे हजारों मरीजों को फायदा हो जाता है। हमारा भी इलाज कर दो। हाँ महाराज जी, आपका भी जरूर फायदा करूँगा। पानी लाया गया। एक बूँद दवा डाली, गुरुजी ने पी और बवासीर बन्द, गठिया बन्द, सब बीमारियाँ दूर हो गयीं। बेटे तेरी दवा में क्या करामात है? महाराज जी। आपके चरणों की दया है। ऐसी करामाती दवा मेरे हाथ लगी है कि मैं सबको अच्छा कर सकता हूँ, अच्छे होकर चले तो गये, पर उनके मन में यह विचार आया कि कुछ ऐसा हो जाए कि यह दवा हमारे हाथ लग जाए तो हम भी लोगों को अच्छा किया करेंगे और हमारा भी नाम बड़ा हो जाएगा। हमें भी दान-दक्षिणा मिलने लगेगी। हमारा भी यश हो जाएगा। चेला तो हमारा ही है, हम जाकर पूछेंगे तो अवश्य बता देगा। वह चेले के पास गये। चेला बोला—महाराज जी कोई कष्ट आपको रह गया क्या? ना बेटे, कष्ट तो अच्छा हो गया था तभी, पर एक इच्छा है तू पूरी कर दे तो? महाराज जी। बताइये क्या मैं इस लायक हूँ कि आपकी इच्छा पूरी कर सकूँगा? हाँ, बेटे, यह जो दवाई तू बाँटता है, यह क्या चीज है? बस इतना हमको बता दे या तो इसका नुस्खा लिखा दे या अपने पास से दे दे। इस दवाई को हम भी दिया करेंगे तो हमारा भी नाम हो जाएगा और यश हो जाएगा, हमारी भी आमदनी बढ़ जाएगी। महाराज जी मैं आपको अवश्य बता दूँगा आपको मैं क्यों नहीं बताऊँगा? बता क्या है इसमें? महाराज जी इसमें? इसमें आपके चरणों का जल है, मैं जब कभी जाता हूँ एक साल भर में आपके पास तो आपके चरणों का जल धोकर के ले आता हूँ। बस उसी को शीशी में बंद कर देता हूँ और उसी की एक-एक बूँद, एक-एक बूँद डालता रहता हूँ। उसी से सब अच्छे हो जाते हैं। सही कहता है या झूठ? सच कहता हूँ, भगवान को साक्षी मानकर, इसमें आपके चरणों के जल के अलावा कोई चीज नहीं है। अच्छा! गुरुजी चले गये।
अपने आश्रम में जाकर सब मोहल्ले वालों को उन्होंने दूर-दूर से लोगों को बुलाया—आओ भई, हमको भी ऐसी करामाती दवा मिल गयी है। जो कोई भी बीमार होगा हम उसे अच्छा कर देंगे। बहुत आदमी आ गये। अपने चरणों को उन्होंने बाहर निकाला और उसे अच्छी तरीके से धोया और उन्होंने बाहर निकाला और उसे अच्छी तरीके से धोया और उन्होंने एक-एक बूँद डाल दिया कटोरे में। एक बूँद से क्या फायदा? एक कटोरी भरकर लीजिये चरणों के जल को। एक कटोरी आप लीजिये, एक कटोरी आप लीजिये, एक आप लीजिये—पूरे का पूरा चरणों का धोवन पिलाया पर कोई भी अच्छा नहीं हुआ। अच्छा—कल फिर आना, फिर कल आप अच्छे हो जाएँगे। फिर एक कटोरी पिलाया। लीजिये, पीजिये और पीजिये। पर इतने पर भी एक भी व्यक्ति अच्छा नहीं हुआ। वे फिर चेले के पास गये और बोले हमारी दवा से तो एक भी अच्छा नहीं हुआ, तेरे से तो सब अच्छे हो जाते हैं। महाराज जी! आप की दवा में और मेरी दवा में फर्क है। आपकी दवा में श्रद्धा का अभाव है और मेरी दवा में श्रद्धा घुली हुई है। गंगाजल में जब हम श्रद्धा जोड़ देते हैं तो वह गंगाजल हो जाता है। श्रद्धा का प्रभाव निकाल देते हैं तो यह नल का पानी हो जाता है। नल का पानी है, यह गंगाजल। क्या है गंगाजल? पानी है! नहीं महाराज जी! यह तो गंगाजल है। नहीं, पानी है, इसको मरे हुए व्यक्ति पर डाल देना, इसका उद्धार हो जाएगा गंगाजल है। किससे उद्धार हो जाएगा? बेटे, श्रद्धा से। श्रद्धा शक्ति है श्रद्धा, आध्यात्मिक जीवन में सबसे बड़ी शक्ति है। श्रद्धा का अभाव अगर आपके भीतर है, तो कर्मकाण्डों से आपको लाभ नहीं होगा।
सन् 1660 की एक घटना है। अमेरिका में एक पादरी रहता था टॉमस। टॉमस पादरी सबसे कहता था कि भगवान का नाम लिया करो। श्रद्धा से भगवान का नाम लोगे तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। किसी ने उसकी कोई बात नहीं सुनी। नमाज तो सब अदा कर लेते थे, प्रेयर भी कर लेते थे, पर श्रद्धा किसी में नहीं थी। पादरी ने दूर-दूर के आदमियों को बुलाया। उन्होंने कहा—तुम श्रद्धा की शक्ति को नहीं मानते? हमें तो मालूम नहीं कि श्रद्धा क्या होती है? उसने कहा—अच्छा, देखो श्रद्धा की शक्ति का चमत्कार दिखाते हैं। एक रस्सा उसने नियाग्रा फॉल (अमेरिका में नियाग्रा फॉल सबसे बड़ा फॉल है।) ऊपर से बड़ी भयंकर आवाज से झरना गिरता है। बहुत आवाज निकलती है। उसकी गहराई भी बहुत है। बहुत भयंकर झरना है। दुनिया में इतना बड़ा झरना कहीं पर भी नहीं है, जितना नियागरा फॉल है उसके एक किनारे पर भी नहीं है, जितना नियागरा फॉल है उसके एक किनारे पर पेड़ थे, उस पर रस्सा बाँधा और नाव में बैठकर दूसरी पार चला गया। उस रस्से को उसने दूसरे पेड़ से बाँध दिया। झरना के बीचों-बीच में दोनों ओर पेड़ों से रस्से बाँध दिये और लोगों से कहा—देखिये, मैं बाजीगर तो नहीं हूँ? नहीं, आप बाजीगर नहीं हैं। हम सर्कस में तो काम नहीं करते? नहीं, सर्कस में आप काम नहीं करते। हम कोई नट तो नहीं हैं? नहीं, आप नट भी नहीं हैं। आप तो पादरी हैं। हमने जब से जन्म लिया है आपको इसी जगह में काम करते हुए देखते आये हैं। अच्छा देखो अब मैं श्रद्धा का चमत्कार दिखाता हूँ। श्रद्धा के सहारे पादरी टॉमस रस्से पर चढ़ गया और उस पर एक पाँव रखता हुआ चार फर्लांग चौड़ाई पूरी करके पार चला गया। लोगों से कहा—श्रद्धा का चमत्कार देख लिया? हाँ, साहब श्रद्धा में बड़ी शक्ति होती है, श्रद्धा का बड़ा महत्त्व है। ये बातें सुनकर टॉमस ने कुछ लोगों से कहा—आप लोग श्रद्धा की शक्ति को यदि मानते हैं, तो मैं जहाँ से आया हूँ फिर दुबारा उसी रस्से पर चढ़कर जाऊँगा उस पार। आप में से एक आदमी आये और मेरे कन्धे पर सवार हो जाए, उसको भी लेकर मैं पार चला जाऊँगा। एक भी तैयार नहीं हुआ। टॉमस चुपचाप बैठा हुआ था, उसने अपने ग्यारह वर्ष के बेटे से कहा—बेटे तुम हमारे ऊपर विश्वास करते हो? हाँ। हम तुम्हें डुबोयेंगे तो नहीं? नहीं, आप कैसे डुबो सकते हैं, आप तो हमारे पिता हैं। तो फिर हमारे कंधे पर बैठ जाइये। हम तुम्हारे समयानुसार चलेंगे और तुमको पार लगा देंगे। बच्चा कंधे पर सवार हो गया। उसे कंधे पर सवार करके टॉमस फिर उसी रस्से पर धीरे-धीरे पैर बढ़ाता हुआ चला गया और चार फर्लांग का रास्ता फिर पार कर लिया। चार फर्लांग से फिर आया और वहीं जा पहुँचा। लोगों से उसने कहा आप लोगों का विश्वास यदि भगवान पर रहा होता तो जैसे मेरा बच्चा मेरे साथ पार हो गया आप भी उसी तरह से पार हो जाते।
बेटे, मेरी जिन्दगी में खिलवाड़ भी शामिल है, बड़े से बड़े नुकसान भी शामिल हैं। मैंने अपने बॉस के, अपने मास्टर के ऊपर, अपने मंत्र के ऊपर सच्चे मन से श्रद्धा की। उसने कहा—हमारे कंधे पर बैठो, मैं उनके कंधे पर बैठ गया। बजाय यह ख्याल करने के कि मैं बचूँगा कि नहीं बचूँगा, अपने बाप के कंधे पर बैठा हुआ और अपने बॉस के मास्टर के कंधे पर बैठा हुआ बेटे मैं पार हो गया। पार हो गया हूँ। मेरे मंत्र के चमत्कार, मेरी शक्ति के चमत्कार, मेरी उपासना के चमत्कार का आधार श्रद्धा ही है। श्रद्धा की शक्ति ही उपासना का बल है। जो मैं आपसे निवेदन कर रहा था। मैं आपसे पूछता हूँ कि आपने गायत्री उपासना की, लेकिन क्या आपने श्रद्धा की शक्ति को अनुभव किया? श्रद्धा की शक्ति का अगर अनुभव किया तो मैं फिर यह पूछता हूँ कि आपने क्या सिद्धान्त और आदर्श जो मानवीय आदर्श हैं, उनके प्रति चलने की हिम्मत इकट्ठी की? मैं पूछता हूँ कि आदर्श आपसे यदि यह पूछे कि आप हमारे कंधे पर सवार हो जाइये। तब क्या आप सिद्धान्तों और आदर्शों के कंधों पर सवार होकर जोखिम उठाने को तैयार हैं। अगर आप तैयार हैं तो मैं साठ साल के अनुभव की साक्षी देकर के आपको ये कह सकता हूँ कि गायत्री मंत्र चमत्कारी है। गायत्री मंत्र सिद्धिदायक है। गायत्री मंत्र पारस है, गायत्री मंत्र अमृत है, गायत्री मंत्र कल्पवृक्ष है। जो इसके अन्दर विशेषताएँ बतायी गई थीं वे सौ फीसदी सही हैं। मैं अपने पुस्तकों के आधार पर नहीं, अपने निजी अनुभव के आधार पर कहता हूँ कि सारे के सारे अनुभव सही हैं, पर शर्त एक ही है—इसके प्रति एक शब्द का पालन करना पड़ता है—उसका नाम है ‘श्रद्धा’ और श्रद्धा का अर्थ अन्धश्रद्धा नहीं है, किसी देवी-देवता अथवा गुरु के प्रति श्रद्धा नहीं है, बल्कि उसका अर्थ है—आदर्शों से असीम प्यार। अगर आप श्रेष्ठता से असीम प्यार करने के लिये हिम्मत कर सकते हो और अपनी उपासना के साथ श्रद्धा का समन्वय कर सकते हो तो मैं आपको विश्वास दिला सकता हूँ कि जो मंत्र मेरे प्रथम गुरु मालवीय जी ने बताया था और जो मेरे दूसरे गुरु ने बताया था वह सही है। एक ने मुझे कर्मकाण्ड सिखाये थे और एक ने मुझे भावनाओं का समन्वय सिखाया था। दोनों के समन्वय के आधार पर मैं अपने कर्मकाण्डों को सही तरीके से करता हुआ और उसमें जीवन के श्रद्धा के तत्वों का समावेश करता हुआ पार होता चला गया। आप हमारे पीछे-पीछे आइये, जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं और देखिये आध्यात्मिकता की शक्ति जो दुनिया में सबसे बड़ी लाभ हैं, आप उन सब लाभों को उठा सकते हैं कि नहीं? बेटे मैंने उन लाभों को उठाया और मैं निहाल हो गया। मैं चाहता हूँ कि आप भी उन्हीं लाभों को उठाएँ मेरे तरीके से और आप भी निहाल हो जाएँ जैसे कि मैं निहाल हुआ। अपने अनुभवों के निष्कर्षों की आज के दिन इतनी ही जानकारी देता हूँ और बातें जो रह जाती हैं, प्रज्ञा और निष्ठा, उनकी जानकारी आपको कल दूँगा। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥