उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलें-
ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
यह एक सुविदित तथ्य है कि संचित पापकर्मों का प्रतिफल रोग, शोक, विक्षोभ, हानि एवं विपत्ति आदि के रूप में उपस्थित होता है। विपत्तियों को भुगतने का मूल आधार मनुष्य का भ्रष्ट चिंतन एवं दुष्ट आचरण ही होता है। पापकर्म के बीज सर्वप्रथम दुष्प्रवृत्ति बनकरअंकुर को तरह उगते हैं। उसके बाद वे पेड़-पौधे बनकर फलने-फूलने योग्य जब तक नहीं होते, तब तक उनका स्वरूप पतन-पराभव के रूप में दृष्टिगोचर होने वाले दुराचरण जैसा होता है। कालांतर में जब वे परिपुष्ट-परिपक्व को जाते हैं तो आधि-व्याधि, विपत्ति, हानि, भर्त्सना के रूप में कष्ट देने लगते हैं। दुष्कर्मों के अकाट्य प्रतिफल से बचने का दैवी प्रकोप एवं सामाजिक प्रताड़ना के अतिरिक्त दूसरा मार्ग प्रायश्चित का है। इसका आश्रय लेकर मनुष्य आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार का दोहरा प्रयोजन एक साथ पूरा कर सकता है।
प्रगतिपथ पर चलने के लिए व्यक्ति को जो तप साधना करनी पड़ती है उसके स्वरूप दो ही हैं। पहला है आंतरिक अवरोधों से पीछा छुड़ाया जाए और दूसरा है आत्मबल पर आश्रित अनुकूलताओं को अर्जित किया जाए। यही है आत्मिक पुरुषार्थ का एकमात्र औरवास्तविक स्वरूप।
उपवास एवं सुसंस्कारी अन्न से कायशोधन होता है और मनःक्षेत्र में प्रज्ञा का आलोक बढ़ता है। आत्मिक कायाकल्प के लिए भी शरीर का तप-तितिक्षा के आधार पर ही परिशोधन होता है। इन्द्रियसंयम, अर्थसंयम और विचारसंयम का अभ्यास करने से अवांछनीयदुष्प्रवृत्तियों से सहज ही छुटकारा मिल जाता है। कुसंस्कार घटेंगे तो आंतरिक प्रखरता स्वयं बढ़ेगी।
अन्न को वस्तुतः ब्रह्म एवं प्राण की उपमा दी गई है। आमतौर से, आहार से क्षुधानिवृत्ति एवं स्वाद तृप्ति भर की बात सोची जाती है। वास्तव में वह मान्यता सर्वथा अधूरी है। भोजन प्रकारांतर से जीवन है। उसकी आराधना ठीक प्रकार की जा सके तो शरीर को आरोग्य, मस्तिष्क को ज्ञान−विज्ञान, अंतःकरण को देवत्व का अनुदान, व्यक्तित्व को प्रतिभावान तथा भविष्य को उज्ज्वल संभावनाओं से जाज्वल्यमान बनाया जा सकता है।
आहारशुद्धि साधना का प्रथम चरण है। तमोगुणी, उत्तेजक, अनीति उपार्जित, कुसंस्कारियों द्वारा पकाया-परोसा भोजन न केवल मनोविकार ही उत्पन्न करता है वरन रक्त के अशुद्ध पाचन को विकृत करके स्वास्थ्य संकट भी उत्पन्न करता है। आत्मिक प्रगति में, साधना को सफलता में तो कुधान्य का, अभक्ष्य का प्रभाव विषवत पड़ता है। मन की चंचलता इतनी अधिक हो जाती है कि सामान्य कार्यों में भी एकत्रित हो पाना संभव नहीं हो पता। फिर साधना में अभीष्ट मनोयोग तो आहारशुद्धि बिना कैसे प्राप्त हो?
पिप्पलाद ऋषि पीपलवृक्ष के फल खाकर निर्वाह करते थे। कणाद ऋषि जंगली धान्य समेटकर उससे सुधा शांत करते थे। भीष्म पितामह शरशय्या पर पड़े हुए धर्मोपदेश दे रहे थे, तब द्रौपदी ने पूछा, "देव ! जब मुझे भरी सभा में नग्न किया जा रहा था, तब आपने कौरवोंको यह उपदेश क्यों नहीं दिए।" वे बोले, "उन दिनों मेरे शरीर में कुधान्य से उत्पन्न रक्त बह रहा था। अस्तु बुद्धि भी वैसी ही थी। अब घावों के रास्ते वह रक्त निकल गया और मेरी स्थिति सही सोचने एवं सही परामर्श देने जैसी बन गई।" उच्चस्तरीय साधनाओं में व्रतउपवास का अविच्छिन्न स्थान है। साधना में मन का सात्विक होना आवश्यक है। मन को शांत, स्थिर एवं सात्विक बनाने के लिए उपवास पर, अन्न की सात्विकता पर ध्यान देना अति आवश्यक है।
आहार इन दिनों जो लिया जाय, वह सामान्य से आधा या और भी कम हो। सात्त्विक हो, सुपाच्य हो। इसके लिए भाप के माध्यम से पकाए गए अन्न को वैज्ञानिक-शास्त्रीय दोनों ही मतों से श्रेष्ठ कहा जा सकता है। चिकनाई, मसाले, शक्कर, नमक आदि का आदी मनऔर शरीर इस ढर्रे को सहज ही तोड़ नहीं पाता, परंतु धीरे-धीरे स्वादहीन आहार में ही रुचि विकसित होने लगती है हविष्यान्न, अमृताशन, ऋषि धान्यों को अकेले अथवा शाक पत्तियों के साथ भाप में पकाकर दिन में दो बार आधी मात्रा में ग्रहण करने का प्रावधान हैं।
आहार साधना के अतिरिक्त तप तितिक्षा में प्रायश्चित की चर्चा की जाती है। अपना मन अंतःकरण धोए बिना विगत को भुलाए विना साधना मात्र बाह्योपचार भर रह जाती हैं। 'कल्प साधना' का अर्थ यह है कि अंदर से बाहर तक साधक पूरी तरह बदल जाए। पुरानीकेंचुली निकाल फेंके, नूतन चोला पहने। प्रायश्चित्त इसीलिए किया जाता है।
प्रायश्चित्त में तीन पक्ष हैं एक -व्रत -उपवास जैसी तितिक्षा। दूसरा संचित कुसंस्कारों को उखाड़ने और उस स्थान पर उच्च स्तरीय शालीनता को स्थापित करने का अंतर्मुखी पुरुषार्थ। तीसरा-खोदी हुई खाई को पाटने वाली क्षतिपूर्ति के लिए पुण्य-परमार्थ का उदार साहस।इन तीनों के संयुक्त समावेश से ही प्रायश्चित की पूर्ण प्रक्रिया सधती है।
एकांतसेवन-आहारसंयम तथा निर्धारित चिंतन। यही तीन आधार कल्प साधना के है। रोगी अपने रोग का स्वरूप ही नहीं, इतिहास भी चिकित्सक को बताता है। उसी निदान के आधार पर उपचार की व्यवस्था बनती है। कल्प-प्रक्रिया में मार्गदर्शक को अपने संचित पापकर्मों का विस्तृत वर्णन, स्वभावगत दोष-दुर्गुणों का परिचय एवं भौतिक-आत्मिक अवरोधों का विवरण प्रस्तुत करना पड़ता है। इन दोनों पक्षों पर गंभीर विचार करने के उपरांत ही हर व्यक्ति को कुछ विशेष परामर्श दिए जाते हैं। उपाय-उपचार बताए जाते है। कल्पसाधना में सामान्य उपचार तो एक जैसे है, किंतु साथ ही हर साधक की स्थिति के अनुरूप उसे कुछ अतिरिक्त उपाय साधन भी बताए जाते हैं, इन निर्धारणों को कौतुक-कुतूहल एक बेगार जैसी चिह्न−पूजा। नहीं बनाया जाता, लकीर पीटने भर की आधी-अधूरी, लँगड़ी-लूली प्रक्रिया अपनाने से इतना बड़ा प्रयोजन पूरा नहीं होता। उसमें गंभीर होना पड़ता और निर्धारित अनुशासन का कठोरतापूर्वक परिपालन करना पड़ता है।
उपवासपूर्वक अनुष्ठान तो आए दिन होते रहते हैं। अतः के कायाकल्प को साधना उससे आगे की चीज है, इसके लिए तदनुरूप तीर्थ जैसा पवित्र वातावरण, उपयुक्त साधन एवं ऋषि कल्प का मार्गदर्शन चाहिए। यह आवश्यकता शान्तिकुञ्ज गायत्री नगर में जैसी अच्छीतरह संपन्न हो सकती है वैसी सुविधा कहीं अन्यत्र मिल सकना कठिन है। इन दिनों सांसारिक चिंतन एक प्रकार से विस्मृत ही कर देना चाहिए और मात्र अध्यात्मलोक की आवश्यकताओं तथा अंतःक्षेत्र की समस्याओं को हल करने में ही चित्त को पूरी तरह केंद्रित रखनाचाहिए। भौतिक जीवन की समस्याएँ इतनी विकट होती हैं कि उन्हें सुलझाने वाले साधन जुटाने में प्राय: समूची जीवन अवधि खप जाती है, फिर आत्मिक जीवन तो और भी अधिक व्यापक एवं महत्त्वपूर्ण है। उसकी गुत्थियाँ सुलझाने और प्रगति के सरंजाम जुटाने हेतुनए सिरे से नए दृष्टिकोण तथा नया साहस जुटाना होता है। इतने बड़े काम के लिए निर्धारित साधना का स्वरूप यही है कि उसमें से भौतिक चिंतन एवं प्रयास के लिए तनिक भी कोशिश नहीं की जाए, समय तथा मनोयोग को निर्धारित प्रयोजनों में ही जुटाए रखा जाए।मन को अन्य किसी कार्य में रत्ती भर अस्त-व्यस्त नहीं करना चाहिए।
साधना को 'व्रत', 'तप' एवं 'कल्प' के नाम से भी जाना जाता है। 'व्रत' अर्थात संयम, अनुशासन, निर्धारण एवं परिपालन। 'तप' अर्थात संचित कुसंस्कारों से संघर्ष और शालीनता के अवधारण का अभ्यास-पुरुषार्थ। 'कल्प' अर्थात पिछली हेय स्थिति को उलटकर उसस्थान पर उत्कृष्टता का प्रतिष्ठापन। यह तीनों ही प्रयास परस्पर मिलते हैं तो ज्ञान और कर्म की गंगा-यमुना मिलने से एक नई धारा भक्ति भावना की, दिव्य जीवन की सरस्वती के रूप में उद्भूत होती है। इस समन्वय से त्रिवेणी संगम बनता है। उसका अवगाहनकरने वाले इस धरती पर स्वर्ग का आनंद लेते हैं, जीवन मुक्त बनते हैं और मनुष्य रूप में देवता कहलाते हैं। इसी परमलक्ष्य को पूर्ति करना आंतरिक कायाकल्प साधना का आधारभूत उद्देश्य है।