उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।।
देवियो, भाइयो! स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका गये, तो अपने व्याख्यान की तैयारी करने लगे। इस बीच बहुत से लोग उनसे मिलने आये। उन समझदार आदमियों में से एक ने उनसे यह सवाल किया—‘‘क्या आपने हिन्दुस्तान में यह ब्रह्मविद्या सिखा ली? हिन्दुस्तान में ज्ञान और धर्म का प्रचार हो गया? जो इतना लंबा सफर करके आप हम लोगों को ज्ञान देने और शिक्षण करने के लिये यहाँ आये? बड़ा नाजुक सवाल था। इसका जवाब उन्होंने मजाक में, दिल्लगी में नहीं दिया। उन्होंने बड़ा गंभीर जवाब दिया। स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि हमारा भारतवर्ष तमोगुण में डूबा हुआ है। आप एक क्लास आगे बढ़ गये हैं। आप रजोगुण में हैं। इसलिए हम अब आपको आगे वाला-सतोगुण का पाठ सिखाने आये हैं। हम न तो आप लोगों को भजन करने की शिक्षा देने आये हैं, न सेवा करने की शिक्षा देने आये हैं, न पूजा करने की शिक्षा देने आये हैं न संयम करने की शिक्षा देने आये हैं। क्योंकि आप सामर्थ्यवान हैं, अत: सामर्थ्यवान को त्याग की शिक्षा दी जा सकती है, ज्ञान की, ध्यान की शिक्षा दी जा सकती है। प्रेम की शिक्षा दी जा सकती है, लेकिन जो आदमी भूखों मर रहा है, उस भूखे मरने वाले को आप ज्ञान की, ध्यान की और त्याग की शिक्षा कैसे दे सकते हैं? और वैराग्य की शिक्षा कैसे दे सकते हैं?
स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि हिन्दुस्तान ने अध्यात्म का पहला पाठ पढ़ना शुरू किया है, जिसका अर्थ है—कर्मयोग। हम हिन्दुस्तान को कर्मयोग सिखाते हैं और आप लोगों को भक्तियोग सिखाते हैं। इसलिए सिखाते हैं कि दोनों क्लासों में फर्क है। हिन्दुस्तान हजारों वर्षों की गुलामी से अभी-अभी निकल करके आया है। वह घोर तमोगुण में पड़ा हुआ है। हम और आप कहाँ हैं? घोर तमोगुण में पड़े हुए हैं। तमोगुण किसे कहते हैं? तमोगुण कहते हैं—जड़ता को। महाराज जी! तमोगुण गुस्से को भी कहते हैं? हाँ, गुस्सा को भी कहते हैं, पर वास्तव में तमोगुण आदमी की जड़ता को कहा गया है। जड़ आदमी को तमोगुणी कहते हैं। यह प्रकृति तमोगुण में है। इसमें पानी पैदा होता है और पानी में काई पैदा होती है। मिट्टी के भीतर जीवाणु भी पाये जाते हैं और वे जिन्दा होते हैं। वे घास-फूस, पेड़-पौधों में इकट्ठे हो जाते हैं। जीवाणु इन सबके अंदर हैं, किन्तु वे तमोगुणी हैं।
मित्रो! हमारा सारा देश तमोगुणी अवस्था में पड़ा हुआ है। इसलिए अगर हमारे यहाँ किसी समझदार आदमी को अध्यात्म का शिक्षण देना हो, तो उसे उसी खुराक का और उसी वजन का देना चाहिए जैसे बच्चे को खुराक दी जाती है। बच्चे को आप मिठाई खिलायेंगे? नहीं, मत खिलाइएगा। बच्चे को आप हलवा खिलायेंगे? नहीं, मत खिलाइए, बच्चा बीमार पड़ जायेगा। इसके लिए बिस्कुट देने की जरूरत है, हल्का भोजन, फलों का जूस देने की जरूरत है। भारी भोजन ये हजम नहीं कर सकते। इसी तरह हम इनको अध्यात्म सिखाएँ, ज्ञान-ध्यान की बात सिखाएँ, भक्ति की बात सिखाएँ, कुंडलिनी जागरण की बात सिखाएँ, बेटे यह बिल्कुल बेकार है। इससे हमको कोई फायदा नहीं हो सकता।
मित्रो! उन्होंने कहा कि पहला वाला चरण, जिसकी अपने देश में शिक्षण करने की जरूरत है, उसका नाम है—‘कर्मयोग’। कर्मयोग क्यों? इसलिए कि हम अपनी मनोभूमि में तलाश कर सकते हैं और देख सकते हैं कि आपकी हैसियत कहाँ है और आप क्या चीज चाहते हैं? अपने हिन्दुस्तान में हम देखते हैं कि यहाँ हर आदमी एक चीज माँगता है और वह है—पैसा। क्यों माँगता है? क्योंकि वह दरिद्र है, कंगाल है। कंगाल को पैसा चाहिए, दरिद्र को पैसा चाहिए। बेटे, हम बड़े भूखे हैं, बड़े कंगाल हैं, बड़े नंगे हैं और बड़े गरीब हैं। कंगाली हमारे रोम-रोम में छा गयी है। न हमारे मकान का ठिकाना है, न शरीर का ठिकाना है। हर जगह हमारे ऊपर मुसीबत छायी हुई है। इसलिए हम भगवान से पैसा माँगते हैं। क्योंकि असल में हमारी जो हैसियत है, वह कंगालों की है, दरिद्रों की हैं। कंगाली को दूर करने के लिए वहाँ कंगाली को दूर करने के लिए कौन सा मंत्र काम कर सकता है? कौन सा जादू काम कर सकता है? जो विधि, जो मंत्र और योगाभ्यास आपके लिए काम कर सकता है, उस योगाभ्यास का नाम है—कर्मयोग। वही आपकी खुराक और आपकी जरूरत को पूरा करने वाली चीज है। याने अभी आपको ठहरना चाहिए और आपको इंतजार करना चाहिए।
मित्रो! आप पहली वाली क्लास पास कर लीजिए। प्राइमरी कक्षा पास कर लीजिए, फिर हम आपको हाई स्कूल की बात बतायेंगे। फिर आपको कॉलेज की बात बतायेंगे। अभी से हम आपको वैराग्य की क्या बात बता सकते हैं। कहा भी गया है—‘‘धोबी बसकर क्या करे, बैरागी के गाँव।’’ एक गाँव में बैरागी रहते थे। वहाँ आकर धोबी भी ठहर गया। धोबी ने कहा—‘स्वामी जी! लाइये कपड़ा दीजिए, हम धो देंगे’। स्वामी जी ने कहा-‘अरे बाबा! हमारे पास एक लंगोटी है, जिसे हम अपने आप धो डालते हैं। आप क्या कहते हैं स्वामी जी? लाइये कुर्ता दीजिए, पैंट दीजिए। हम साफ कर देंगे।’ अरे बाबा! पैंट कहाँ से आया? केवल लंगोटी है। तो क्या इसे दान करेंगे? इसे क्या दान करेंगे आप? आप तो केवल अपनी गरीबी दान कर सकते हैं, अपनी कंगाली दान कर सकते हैं। अपनी बुज़दिली दान कर सकते हैं। और अपना दुःख और दारिद्र्य दान कर सकते हैं। और आपके पास दान देने के लिए है क्या?
इसलिए मित्रो! दान देने के लिए, उदार बनने के लिए और सेवा करने के लिए तो आपके पास सामान चाहिए न? कुछ तो होना चाहिए न? नहीं साहब! हम सेवा करेंगे। आप किससे सेवा करेंगे? अक्ल आपके पास है नहीं, शरीर आपके पास है नहीं। स्वास्थ्य भी आपके पास नहीं है। बुद्धि भी आपके पास नहीं है। कुछ भी नहीं है आपके पास। फिर आप किससे सेवा करेंगे-बताइये न? सेवा करने के लिए माध्यम चाहिए, शक्ति चाहिए। शक्ति इकट्ठी करने के लिए आपको और हमको क्या करना पड़ेगा? हमको कर्मयोग का आश्रय लेना पड़ेगा। कर्मयोग किसे कहते हैं? कर्मयोग उसे कहते हैं, जिससे संपत्ति पैदा होती है, दौलत पैदा होती है और धन पैदा होता है।
एक बार देवता और दानव—देव और असुर बड़ी गरीबी में-कंगाली में बैठे हुए थे। बड़ी परेशानी में बैठे हुए थे और विचार कर रहे थे कि पैसा कहाँ से आयेगा? पैसा कहीं से नहीं आयेगा। पैसा हमारे हाथों से निकलता है और अक्ल में से निकलता है। नहीं साहब! पैसा भगवान जी से निकलता है, लक्ष्मी जी से निकलता है। बेटे, यह हमारी पूँजीवादी आस्था है, इसलिए हमको लक्ष्मी जी से भी पैसा मिल सकता है। लक्ष्मी जी से क्या मतलब है? लक्ष्मी जी से मतलब है-जुआ। लक्ष्मी जी से मतलब है-सट्टा। लक्ष्मी जी का मतलब है-लॉटरी। लक्ष्मी जी का मतलब है—बाप-दादे की हराम की कमाई। लक्ष्मी जी से आपका यही मतलब है न? हाँ साहब! यही मतलब है। आपकी परिभाषा यही है कि बिना परिश्रम किये, बिना योग्यता के जो धन मिल जाता है, उसी को लक्ष्मी जी कहते हैं न? हाँ साहब! हम तो उसी को लक्ष्मी जी कहते हैं। ठीक है, हम आपकी बात समझ गये। बेटे, लक्ष्मी जी इस तरीके से नहीं मिलतीं। लक्ष्मी जी कहाँ रहती हैं? लक्ष्मी जी आदमी की कलाइयों में रहती हैं, भुजाओं में रहती हैं। आदमी के परिश्रम में रहती हैं, आदमी की समझदारी में रहती हैं और आदमी की अक्लमन्दी में रहती हैं।
देवता और दैत्य विचार करने लगे कि लक्ष्मी जी को कहाँ से पायें? ब्रह्मा जी ने कहा—मूर्खो! इंतजार करने से कहाँ मिलेगा? जाओ, समुद्र में पहुँचो और दोनों साथ-साथ में मिलकर समुद्र का मंथन करना शुरू कर दो और अपनी कलाइयों से इसको मथ डालो। देवता और दानव-दोनों चले गये। उन्होंने सोये हुए समुद्र को, खारे वाले समुद्र को मथ करके फेंक दिया। उसमें से क्या-क्या चीजें निकलीं थी? पुराणों में मैंने सुना है कि सूरज निकला था, चन्द्रमा निकला था, लक्ष्मी जी निकली थीं। ऐरावत हाथी निकला था। बहुत चीजें निकली थीं। महाराज जी! समुद्र में से सूरज निकल सकता है? बेटे, तू बेकार में पुराणों के अलंकारों पर बहस करता है। बहस करने की बात नहीं है, पुराणों में जो अलंकार बताये गये हैं, वे केवल संकेत हैं, दिशा हैं और किसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के लिए बताये गये हैं। इनको आप इतिहास मानते हैं। यह इतिहास नहीं हो सकता।
नहीं महाराज जी! समुद्र में से सूरज नहीं निकल सकता। चल बेटे, हमने मान लिया कि समुद्र जरा सा है और सूरज बहुत बड़ा है, लेकिन एक बात तो आपको माननी ही पड़ेगी कि हमारा प्रयत्न और पुरुषार्थ, जिसके लिए यह कहानी बनायी गयी है। यह कहानी इसलिए बनायी गयी है कि लोगों को यह बात समझाई जा सके और लोगों के गले में उतारी जा सके कि अगर आपको सम्पन्न बनना है, समृद्ध बनना है, मालदार बनना है, दौलतमंद बनना है, विद्वान बनना है, तो आपको एक ही काम करना पड़ेगा। और उसका नाम है-कर्मयोग और पुरुषार्थ। समुद्र मंथन की कथा इसी दृष्टि से है। सारी-की पौराणिक कथाएँ इन्हीं शिक्षाओं, प्रेरणाओं से भरी हुई हैं।
स्वामी रामतीर्थ एक बार जापान गये। टोकियो, विश्वविद्यालय में वेदान्त और ब्रह्म विद्या के ऊपर उनका व्याख्यान होना था। उन्होंने लोगों से कहा कि हमारी इच्छा है कि पहले हम जापान और जापानियों को देख लें कि उनके रहन-सहन का तरीका क्या है, तब हम व्याख्यान देंगे। जब तक हमको यह न मालूम पड़ जाय कि जिन आदमियों के सामने व्याख्यान देना है, उनका रहन-सहन, खान-पान, आचार-व्यवहार कैसा है, तब तक व्याख्यान देने वाली बातें बेकार हैं। स्वामी रामतीर्थ जापान के सारे-के प्रांतों में घूमने के लिए गये। वहाँ पर उन्होंने देखा कि जापान, जो समूचे एशिया का मुकुटमणि बना हुआ है। जिसे देखकर अमेरिका काँप गया था कि जरा सा जखीरा, छोटे-छोटे टापुओं का जरा सा देश एक दिन सारी-की दुनिया पर छा जायेगा। यह बड़ा शक्तिशाली देश है, समर्थ देश है। यह बड़ा मालदार देश है। आपको मालूम होगा कि उसने अमेरिका पर हमला किया था, तब उसको तबाह करने के लिए अमेरिका ने परमाणु बम बरसाये थे।
मित्रो! जापान के बारे में, जापान की मालदारी के बारे में हम क्या कह सकते हैं। एक बार जापान ने दुनिया को ऐसा चकमा दिया था कि मालूम पड़ता था कि पैसे की दृष्टि से वह सारी दुनिया पर अपना साम्राज्य कायम कर लेगा। सन् 1930 की बात है। हमने बाइस रुपये में एक नयी जापानी बाइसिकिल खरीदी थी और तीन रुपये का कुछ और सामान लगा था। इस तरह पच्चीस रुपये की साइकिल खरीदी थी। जब यह पता लगाया कि हिन्दुस्तान की गवर्नमेंट ने इस पर कितना टैक्स लगाया है, तो मालूम पड़ा कि पच्चीस प्रतिशत टैक्स देना पड़ा। अर्थात बाइस रुपये की साइकिल के ऊपर सात-आठ रुपये टैक्स देना पड़ा। तब वह कितने की रह गयी? पन्द्रह रुपये की रह गयी। उसमें से पानी के जहाज का किराया देना पड़ा। पैकिंग का पैसा लगा। दुकानवालों का कमीशन अलग से देना पड़ा होगा। फिर साइकिल वहाँ से कितने में चली थी? दस रुपये में चली थी। इस तरह किसी जमाने में जापानी साइकिल दुनिया में छा गयी थी।
तब जापान हर चीज में सारी दुनिया में छा रहा था। सारी-की दुनिया की दौलत को अपने यहाँ जमा करने के लिए प्रयासरत था। जापान शक्तिशाली देश था, ताकतवर देश था और फौजी देश था, किसी जमाने में। जैसे आजकल आप रूस और अमेरिका को मानते हैं। यह जमाना था पच्चीस-पचास वर्ष पहले का, जब जापान सारी दुनिया का मुकुटमणि बना हुआ था। एक ऐसा सम्पन्न देश, ऐसा समृद्ध देश, ऐसा ताकतवर देश, ऐसा बलवान देश, स्वास्थ्य की दृष्टि से मजबूत देश था-जापान, जहाँ स्वामी राम गये थे। उन्होंने कहा कि भगवान की सारी कृपाएँ इस जापान को मिली हुई हैं। वह चीजें, जो आप चाहते हैं, जापान जाकर देख लें। आप पायेंगे कि गायत्री माता की, हनुमान जी की और शंकर जी की सब कृपा उनके ऊपर है। कौन सी? वही जो आप रोज याद करते हैं—‘‘स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्ताम् पावमानी द्विजानां आयु: प्राणं प्रजां पशु कीर्तिम् द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् मह्यम दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्॥’’
मित्रो! ब्रह्मवर्चस तो उनके पास नहीं है, लेकिन बाकी छ: चीजें उनके पास हैं। जहाँ कहीं भी जाइये, शरीर फौलाद जैसे ढले हुए, मालदार आदमी, मजबूत आदमी, ताकतवर आदमी, पैसे वाले आदमी आप देख लीजिए। भगवान की सारी कृपा उनके पास है। जापान में आप चाहे जहाँ अन्दर जाकर देख करके आइए। स्वामी रामतीर्थ ने कहा कि देखूँ तो सही, यह मालदारी कहाँ से आ गयी? कौन सी भगवान की कृपा हो गयी? हमारे हिन्दुस्तान वालों पर नहीं हुई और जापानियों पर हो गयी? क्या वजह है? उन्होंने फैक्टरियों में जाकर देखा कि प्रत्येक फैक्टरी में दो राक्षसों में कुश्ती हो रही थी। दो पहलवान अखाड़े में मजबूती के साथ लड़ रहे थे। फैक्टरी में एक मशीन लगी हुई थी और एक मजदूर खड़ा हुआ था। मशीनें भी तेल की बूँदों के रूप में पसीना टपका रही थीं और मजदूरों को भी पसीने टपक रहे थे। अपनी पूरी ताकत से ड्रिल मशीन और लेंथ मशीन के ऊपर इस तरीके से मुस्तैदी से लगे हुए थे, मानो दोनों एक-दूसरे को चैलेंज कर रहे हों। मशीन आदमी से कहती है कि हम तुमको थका देंगे और आदमी मशीन से कहता था कि हम तुमको थका देंगे। दोनों आपस में इसी कदर लड़-भिड़ रहे थे।
स्वामी रामतीर्थ लाल-पीले कपड़े पहन करके गये थे। लोगों ने मजाक उड़ाया और कहा कि जापान में तो कोई ऐसे कपड़े नहीं पहनता। जापान में तो कोई व्यक्ति सिर मुड़ाकर नहीं रहता। उन्होंने देखा कि यह कौन आदमी आ रहा है। लोग हँसे तो जरूर, लेकिन फिर से मशीनों के काम में लग गये। यही नजारा उन्होंने सारी फैक्टरियों में देखा। प्रत्येक मजदूर उसी मुस्तैदी से काम करता हुआ पाया गया। मालूम पड़ता था कि जैसे सारे-के आदमी मशीनों में ढले हुए हों और मुस्तैदी से काम कर रहे हों। इसके बाद उन्होंने कहा कि चलो इनका घरेलू जीवन भी देखा जाय। इतना काम करने के बाद में, इतना परिश्रम करने के बाद में तो आदमी को थक जाना चाहिए, चूर-चूर हो जाना चाहिए, बेजार हो जाना चाहिए, बीमार हो जाना चाहिए। आखिर ये बीमार क्यों नहीं होते? थककर चूर-चूर क्यों नहीं होते? थकते क्यों नहीं? जरा इसकी भी वजह तो देखूँ। स्वामी रामतीर्थ जापानियों का घरेलू जीवन देखने गये। वहाँ उन्होंने बड़ा मजेदार दृश्य देखा। मजदूर जैसे ही पाँच बजे फैक्टरी से छूट कर आया, घर का जीवन मानों, घरेलू जीवन मानो जैसे क्लब बना हुआ है।
मित्रो! क्लब में आदमी मनोरंजन करने के लिए जाते हैं, थकान मिटाने के लिए जाते हैं। लेकिन वहाँ तो क्लब का सारे-का ढाँचा घरों में बना हुआ तैयार था। जैसे पिताजी ने घर में प्रवेश किया, बच्चे ने गुलाब का फूल लगा दिया। छोटी वाली बच्ची आई, तो पियानो उठा लाई। बीबी ने गरम चाय बना दी। किसी ने कुछ और काम कर दिया। बस पियानो बजने लगा और नाच होने लगा। बच्चे नाचने, गाने लगे। घर में मस्ती का माहौल बन गया। आधे घंटे के भीतर सब फ्रेश हो गये। फिर खाने-पीने की बारी आयी। सारी थकान को दूर करने के बाद में इस तरीके से वह मजदूर हँसी-खुशी के साथ में जीवन-यापन करने लगा। मजे में सोता, रात में गहरी नींद आती। आठ घंटे की नींद लेता। सबेरे उठता और अपने काम पर चला जाता।
उन्होंने समझ लिया कि इन लोगों के पास वे चीजें हैं, जिनको अध्यात्म कहते हैं। इन्होंने अध्यात्म का पहला वाला पाठ पढ़ लिया है। दूसरे दिन टोकियो विश्वविद्यालय में उनका व्याख्यान हुआ। उन्होंने कहा कि अध्यात्म का पहला वाला पाठ आप लोगों ने पढ़ लिया। आप लोग उसमें पारंगत हो गये। पारंगत होने का सबूत यही है कि अध्यात्म का जो लाभ मिलना चाहिए था, वह यहाँ हर आदमी को मिला हुआ है। पूरा जापान समृद्ध, संपन्न है।
मित्रो! जापान का हवाला मैंने इसलिए दिया है कि हमको अगर शक्ति की जरूरत हो, पैसे की जरूरत हो, दौलत की जरूरत हो, ज्ञान की जरूरत हो, शिक्षा की जरूरत हो, भौतिक वस्तुओं की जरूरत हो, जिनको हम और आप अध्यात्म का फल मानते हैं। असल में हम अध्यात्म को समझते नहीं। असल में अध्यात्म की हमें कोई जानकारी नहीं है। ईमानदारी की बात यह है कि भगवान से हमारा दूर का रिश्ता भी नहीं है। हम कहते हैं कि हम भगवान का भजन करते हैं। बेटे, आप बिल्कुल भी नहीं करते। आपको मैं यकीन दिलाता हूँ कि अगर आप भजन करते होते, तो आपका यह हाल न होता। नहीं साहब! हम भगवान जी को जानते हैं। नहीं बेटे! तू नहीं जानता। आप पत्थर के खिलौने को जानते हैं और मंदिरों को जानते हैं और फोटो एवं तस्वीरों को जानते हैं। भगवान से आपकी कोई वास्ता नहीं हैं, कोई रिश्ता नहीं है।
मित्रो! प्राय: लोग दो शिकायतें करते रहते हैं। पहली बात वे यह कहते हैं कि भजन करने के लिए हमको समय नहीं मिलता और दूसरी बात यह कहते हैं कि भजन करने में हमारा मन नहीं लगता। जो आदमी इस तरह की बात कहते हैं, उनके बारे में मुझे संदेह होता है। असल में वे भगवान को नहीं जानते। जानते होते तो शिकायत करने के लिए कोई जरूरत नहीं पड़ती। आपके यहाँ कोई बड़ा आदमी आये, तो आपको टाइम मिलेगा कि नहीं मिलेगा? फुरसत मिलेगी या नहीं मिलेगी? हमारे यहाँ यू०पी० के गवर्नर ने डी०एम० के माध्यम से खबर भेजी, संदेश भेजा कि हमने आपके यहाँ आने का एक घंटे का कार्यक्रम बना लिया है। ठीक है, हमको मालूम नहीं था कि आप कब आने वाले हैं। चूँकि वहाँ से खबर आ गयी थी कि वे हमारे यहाँ आने वाले हैं, इसलिए हमने फौरन इंतजाम किया। दूसरे जो जरूरी काम थे, फौरन बंद कर दिये। वे आने वाले हैं, अत: उनके स्वागत का इंतजाम करना चाहिए। हमने उनके बैठने का इंतजाम किया। चाय के लिए बरतन थे, उन्हें तलाश किया। हमारे यहाँ खराब पुराने बरतन थे, किराये के बरतन मँगाए। शामियाना लगवाया। अपने अन्य सारे-के कार्यक्रम बंद कर दिये। तो महाराज जी! आपको फुरसत मिल गयी? हाँ बेटे, हमने फुरसत निकाल ली। कई जरूरी काम थे। चिट्ठियाँ लिखनी थीं, लेख भी लिखना था। लेकिन इन्हें कल लिख लेंगे। अभी नहीं जायेंगी तो कल चली जायेंगी। कहाँ भागी जाती हैं। इस तरह हमने समय निकाल कर सारा इंतजाम कर लिया।
मित्रो! आपके पास बैठने के लिए भगवान आये और आपको यह कहना पड़े कि हमको फुरसत नहीं है, तो इसका क्या मतलब है? इसका मतलब सिर्फ एक है कि भगवान से आपकी कतई जान-पहचान नहीं है। आप यह बिल्कुल नहीं जानते कि भगवान बंदर को कहते हैं या आदमी को कहते हैं? भगवान को यदि आपने जाना होता, तो आपको यह न कहना पड़ता कि अनन्त शक्तियों के स्वामी, अनन्त ज्ञान के स्वामी ऊँचा उठाने वाली शक्ति के पास बैठने की फुरसत आपके पास नहीं है। नहीं महाराज जी! मेरा मन नहीं लगता। जाहिल कहीं का, मन नहीं लगता। अच्छा देखते हैं कि आपका मन लगता है कि नहीं? मैं नोट फेंकता हूँ, जरा इसे गिनकर बताना। अगर आपकी गिनती सही होगी, तो जितने रुपये एक घंटे में आप गिन लेंगे, उतने रुपये मैं आपको दे दूँगा। अगर गिनती सही नहीं होगी, तो नहीं दूँगा। देखना, ठीक से गिनना। हाँ महाराज जी! ठीक से गिनूँगा। क्यों बेटे, नोट गिनने में मन लग रहा है कि नहीं लग रहा है? हाँ महाराज जी! मन लग रहा है। नोट उठा-उठाकर रख रहे हैं। हमारा ध्यान और कहीं नहीं जाता। केवल नोट गिनने की तरफ लगा है।
मित्रो! भगवान के पास बैठने की बात आप समझते होते, तो यह शिकायत नहीं करनी पड़ती कि हमारा मन नहीं लगता। मन उसमें लगता है जिसको हम प्यार करते हैं। जिसकी हम इज्जत करते हैं। मन कहाँ लगता है? क्यों साहब! दुकानदारी में मन लगता है? हाँ साहब! दुकानदारी में लगता है। सबेरे चाय की दुकान खोलते हैं। साढ़े पाँच बजे वाला पैसेंजर आता है। हम उस पर निगाह रखते हैं। भाई साहब! आइए, हमारे यहाँ चाय तैयार है। देखिए; कैसी बढ़िया चाय है। चालीस पैसे में सब जगह मिलती है, पर हम पैंतीस पैसे में देते हैं। आइए, तो सही, बैठिए और इसे चख करके देखिये। पैसे पीछे देना। इसमें मन लगता हैं, लेकिन भजन में मन नहीं लगता। क्या कारण है? बेटे कोई कारण नहीं है। एक ही कारण है कि आप भगवान के बारे में बिल्कुल नहीं जानते। यदि जानते होते तो मजा आ जाता। हमको जानकारी का अभाव है, लेकिन हम क्या कर सकते हैं। भगवान की बावत अगर जानकारी रही होती, तो आपने अपने आपको क्या-से बना लिया होता और जाने क्या-से कर लिया होता।
मित्रो! भगवान के तीन हिस्से हैं। एक-जिसको हम ‘कर्मयोग’ कहते हैं। कभी हमें स्थूल आवश्यकता पड़े, तो हमको कर्मयोगी बनना चाहिए। हमको परिश्रमशील बनना चाहिए। हमको मेहनतकश बनना चाहिए। उद्योगी बनना चाहिए। अगर आप उद्योगी बनेंगे, तो आप जो चीज चाहते हैं, वह हर चीज आपको मिलती हुई चली जायेगी। फिर आपको दुनियावी चीजों की शिकायत नहीं करनी पड़ेगी। फिर आपको यह करने का कोई मौका नहीं मिलेगा कि हमें दुनियावी चीजों की आवश्यकता है। आपकी सेहत खराब हो गयी है, तो सेहत की दवा कहाँ हो सकती हैै? अपने शरीर को ठीक तरीके से इस्तेमाल करने की तमीज, शरीर से ठीक तरीके से काम कैसे लिया जा सकता है? परिश्रम कैसे किया जा सकता है? इसके बावत आप जानें। फिर आपका शरीर ठीक हो जायेगा, स्वास्थ्य ठीक हो जायेगा।
कोई एक राजा थे। एक बार वे किसी गाँव में गये। गाँव वालों ने बड़ा स्वागत किया। बेचारे की जान-पहचान भी नहीं थी। आइए! हम आपको खाना लिखाएँगे, दूध पिलाएँगे। आप बड़े अच्छे आदमी मालूम पड़ते हैं। गाँव वालों ने खूब स्वागत किया। राजा को बहुत अच्छा लगा। उन्होंने कहा कि गाँव वाले बड़े भले हैं और बड़े शरीफ आदमी हैं। इसलिए उनकी सेवा करनी चाहिए? सहायता करनी चाहिए। सबेरे जब राजा चलने लगा, तो उसने कहा-किसानो! तुम जानते नहीं हो, हम कौन हैं? मालूम नहीं, कोई अच्छे आदमी मालूम पड़ते हैं आप। नहीं भाई! हम इस राज्य के राजा हैं। अच्छा, हमको नहीं मालूम था। मालूम होता, तो हम और भी अच्छी चीजें आपको खिलाते। नहीं भाई! जो आपने खिला दिया, वही काफी है। अब हम आपके गाँव की सेवा करेंगे। क्या सेवा करेंगे? आपकी सेवा के बदले हम इस गाँव में एक दवाखाना, एक अस्पताल बना देंगे। अच्छा बनवा दीजिए। राजा ने तुरंत हुकुम दिया कि इस गाँव में एक अस्पताल बना दीजिये। शानदार अस्पताल बन गया। सारे-के डिपार्टमेण्ट, पैथोलॉजी डिपार्टमेण्ट, आपरेशन डिपार्टमेण्ट आदि सभी बनाकर तैयार कर दिये गये। बढ़िया-से डॉक्टर भेज दिये गये। नर्सें भेज दी गयीं। सब इंतजाम कर दिया गया।
अब मरीजों की बारी आयी। गाँव वालों से कहा कि चलिये, बीमार होइये और दवा लेकर जाइये। बहुत दिन हो गये, कोई नहीं आया। डॉक्टरों ने कहा कि गाँव में चक्कर लगाया जाय। चक्कर लगाया। उन्होंने कहा कि तुम लोग बीमार नहीं पड़ते हो? हाँ साहब! हम बीमार नहीं पड़ते, तो दवा भी नहीं लेते। पूरा एक साल व्यतीत हो गया। राजा गाँव वालों का मुआइना करने के लिए आया। देखें तो सही, हमारे अस्पताल में क्या-क्या तरक्की हुई है? देखें-हमारे अस्पताल में लोगों को क्या-क्या फायदे हुए हैं? डॉक्टरों से पूछताछ की-जरा रिकार्ड तो दिखाओ। यहाँ कितने आपरेशन हुए? साहब! कोई आपरेशन नहीं हुआ। अच्छा कितने एक्सरे हुए? कोई नहीं हुआ। कितने इंजेक्शन लगे? एक भी नहीं लगा। वे नाराज हुए और कहने लगे कि आप लोग क्या करते रहे? आप लोगों ने इंजेक्शन क्यों नहीं लगाये? क्या करें साहब? यहाँ कोई आता ही नहीं है? कोई नहीं आता? गाँव वाले बड़े जाहिल हैं। दवा लेने भी नहीं आते। गाँव वालों को बुलाया। पूछताछ की। क्यों भाई! क्या बात है? तुम लोग इलाज कराने क्यों नहीं आते? आपरेशन कराने क्यों नहीं आते? अरे साहब! हम क्यों आपरेशन करायें? जब हम बीमार ही नहीं पड़ते, तो आपरेशन कराने की जरूरत ही क्या है?
राजा बहुत नाराज हुए। उसने कहा कि आप लोग बीमार क्यों नहीं पड़ते? लोगों ने कहा कि बीमार न पड़ने की दो वजह है। एक तो यह कि हम अपनी खुराक से कम खाते हैं। जितनी भूख होती है, उससे कम खाते हैं, ताकि वह रोटी हजम हो जाय। दूसरा हम इतनी मशक्कत करते हैं, इतना श्रम करते हैं कि जो कोई भी बीमारी हमारे शरीर में पैदा होती है, वह पसीने के रास्ते से निकल जाती है। इस तरह हम भूख से कम खाते हैं और पसीने के रास्ते बीमारियाँ निकल जाती हैं, इसलिए हम बीमार नहीं पड़ते। उन्होंने कहा, डॉक्टरों ने भी कहा और राजा ने भी कहा कि जो लोग भूख से कम खाते हैं और जो लोग इतनी मशक्कत करते हैं कि पसीने के रास्ते सारी बीमारियाँ बाहर निकल जायँ, तो उनके लिए अस्पताल खोलने की जरूरत नहीं है। हर आदमी डॉक्टर हो सकता है, अगर उसकी समझ में यह बात आ जाय कि श्रम के देवता, जिसको हमने ठोकर मारकर निकाल दिया है और परिणाम स्वरूप यह अभागा देश, दरिद्रता का शिकार इसीलिए है। दरिद्रता की, गरीबी की और कोई वजह नहीं है। वजह केवल एक है कि परिश्रम करने से हमको नफरत है।
मित्रो! हममें से जो आदमी परिश्रम करता है, उसको हम भाग्यहीन समझते हैं। उसको हम अछूत समझते हैं। छोटा समझते हैं और बेकार समझते हैं। और जो आदमी हराम की रोटी खाता है, जो आदमी आराम से कुर्सी पर पंखे के नीचे बैठा रहता है, उसको हम मालदार समझते हैं, भाग्यवान समझते हैं। हमारी मान्यता यही है। वास्तव में दरिद्र कौन है और दरिद्रता कहाँ रहती है? दरिद्रता बेटे हमारे दिमाग में रहती है। दरिद्रता किसे कहते हैं? जिसमें हमें काम करने से नफरत है। हर आदमी को काम करने से नफरत है। वह समझता है कि बड़प्पन इस बात में है कि आराम से समय काटा जाय और शरीर से पसीना बहाने की आवश्यकता न पड़े। वस्तुुतः यह स्वभाव ही दरिद्रता का कारण है।
मित्रो! जब तक हमारे देश में यह स्वभाव रहेगा, जब तक यह मानसिकता रहेगी, तक तक दरिद्रता हमारे देश से जा नहीं सकती। हमारे देश के बच्चे जब हाई स्कूल पास कर लेते हैं, तो अपने बाप के साथ खेती-बाड़ी करने में, मशक्कत करने में अपनी तौहीन समझते हैं। वे कहते हैं कि आपके पास जमीन है, तो इसको बेच दीजिए, किराये पर उठा दीजिए। फिर बेटे, तू क्या करेगा? मैं तो नौकरी करूँगा। कहाँ नौकरी करेगा? हम शहर में नौकरी करेंगे। किसकी नौकरी करेगा? सवा सौर रुपये की नौकरी करूँगा। डेढ़ सौ रुपये की नौकरी करूँगा। बेटे, तू जानता है कि इस मँहगाई के जमाने डेढ़ सौ रुपये महीने में जहर भी खा करके नहीं मरा जा सकता। इस जमाने में मँहगाई का क्या हाल है, जानते हैं न? नहीं साहब! जो मिलेगा, वही करेंगे; पर नौकरी करेंगे। बेटे, क्यों नौकरी करना चाहता है? इसलिए नौकरी करना चाहता हूँ कि वहाँ पंखे के नीचे बैठा रहूँगा, मेहनत नहीं करनी पड़ेगी और वहाँ बाबू जी बना बैठा रहूँगा, साहब बना बैठा रहूँगा।
बेटे! सियार जब पागल हो जाता है, तो पानी में डूबने के लिए भागता है। आखिर में जब उसके मरने के दिन आ जाते हैं, मौत आ जाती है, तो वह भागता है। भाग करके वह कहाँ चला जाता है? कहीं तालाब तलाश करता है और उसी में डूब जाता है। उसी में उसकी मृत्यु हो जाती है। इसी तरह आज हमारी नयी पीढ़ी पागल हो गयी है। शहरों में भागती है, जहाँ तपेदिक के कीड़े, जहाँ सीलन, जहाँ घुटन, जहाँ बीमारियाँ, जहाँ सिनेमा, जहाँ दूसरी-दूसरी चीजें हैं, जहाँ मक्कारियाँ भरी पड़ी हैं। देहात की स्वच्छ और निर्मल आबोहवा को छोड़ करके बाप-दादे की तरह पसीना बहाने, मेहनत करने की अपेक्षा हम वहाँ भागते हैं और नौकरी करना चाहते हैं। आज हर आदमी नौकरी करना चाहता है। क्यों नौकरी करना चाहता है? अरे! हमारे यहाँ काम कर लीजिए, लोहार का काम है। नहीं साहब, आपके यहाँ नहीं करेंगे। हम वहाँ करेंगे, जहाँ परिश्रम करना पड़े। जहाँ पंखा चलता रहे। हम समझ गये कि आपका क्या मतलब है?
मित्रो! क्या बात है? जो आदमी मशक्कत करने वाले हैं, परिश्रम करने वाले हैं, उनको हम घृणा करते हैं। आप कौन हैं? धोबी। चल हट, हम नहीं छूते। तू कपड़ा धोता है, गंदा काम करता है। हम कपड़ा मैला करते हैं, इसलिए हम बड़े आदमी हैं और तू कपड़े साफ करता है, इसलिए गरीब आदमी है। यह कितनी बड़ी गलती है, कितनी बड़ी भूल है कि जो मशक्कत करता है, मेहनत करता है, काम करता है, उसे छोटा माना जाता है, हेय समझा जाता है। मशक्कत करना बहुत खराब बात है, इसलिए जितने भी श्रमिक हैं, उनको हमने अछूत ठहरा दिया। मकान बनाने वाले, झाड़ू लगाने वाले, दूसरे अन्य काम करने वाले, जूते बनाने वाले, कपड़े बनाने वाले, आदि जो दिन-रात कठोर परिश्रम करते हैं, उनको हमने अलग कर दिया। उनसे कहा कि हम आपको नहीं छूना चाहते। आप हमारे यहाँ मशक्कत करते हैं, मजदूरी करते हैं, इसलिए आप अछूत हैं। हमारे यहाँ पूर्वी इलाकों में ब्राह्मण हल नहीं चलाते। ब्राह्मण हल नहीं चला सकता। क्यों? क्योंकि यह परिश्रम का काम है। ब्राह्मण हराम की रोटी खायेगा, परिश्रम नहीं करेगा, जाहिल कहीं का। क्या करेगा? हराम की रोटी खाऊँगा, निमंत्रण खाऊँगा; लेकिन हल नहीं चलाऊँगा।
मित्रो! क्या हुआ? यह देश, जहाँ श्रम के प्रति, काम के प्रति वृत्तियाँ दूषित होती चली जाती हैं, घोर अंधकार भरा हुआ पड़ा है। जहाँ हम अपनी कन्या का ब्याह उस घर में करने को तैयार नहीं हैं, जहाँ लड़की को गोबर साफ करना पड़े। चक्की पीसना पड़े। हम अपनी लड़की को वहाँ देना चाहते हैं, जहाँ उसे पलंग के ऊपर बैठकर राज्य करने का मौका मिले। जहाँ उसे खाना पकाने वाली नौकरानी मिले। उसको बरतन साफ करने वाली मिले, झाड़ू लगाने वाली उसको मिले। हर काम करने वाली उसको मिले। साहब! हमारी बेटी बड़ी भाग्यवान है, अमीर घर में चली गयी है। अमीर घर में क्या करती है? अमीर घर में बैठी रहती हैं। उसे कोई काम नहीं करना पड़ता। अच्छा, बेटे यह अकर्मण्यता दरिद्रता का प्रतीक है। बेटे, कोई काम न करने और बैठी रहने वाली तेरी लड़की को प्रत्येक डिलिवरी में आपरेशन कराना पड़ेगा। चक्की पीसती है ना? नहीं साहब! मेरी बेटी चक्की नहीं पीसती। बड़ी भाग्यवान है। भाग्यवान है, तो जा अस्पताल। आपरेशन कराना पड़ेगा, भाग्यवान होने की एक और बात है, एक और निशानी है। क्या? बस महीने में बत्तीस इंजेक्शन लगवाना। महीने में तीस दिन होते हैं। दो फालतू होते हैं। एक इंजेक्शन यहाँ और एक इंजेक्शन वहाँ लगवाना। अरे भाई! मर गयी। ठहर जा, अभी और लगेगा। परिश्रम से जी चुराती है, बैठी-बैठी हराम की रोटी खाती है और कहती है कि बड़ी भाग्यवान हूँ।
मित्रो! ये मनोवृत्तियाँ हमारे देश में गहरी जड़ें जमा कर बैठ गयी हैं। यह हमारे दरिद्रता की निशानियाँ हैं। दरिद्रता की इन निशानियों को मिटा देना हमारा और आपका काम है। अगर हम अपने देश को समृद्ध बनाना चाहते हैं, तो हमें इन दरिद्रता की निशानियों को मिटाना होगा। समृद्धि आध्यात्मिकता का पहला गुण हैं। यह अलग बात है कि हम आपका खायें नहीं; वरन् आपको खिलायें। अध्यात्मवादी गरीब तो होते हैं, लेकिन दरिद्र नहीं होते। गरीब में और दरिद्र में क्या फर्क है? दरिद्र में और गरीब में बेटे जमीन और आसमान का फर्क हैं। गरीब उसे कहते हैं, जिसके अंदर कमाने की योग्यता है, सामर्थ्य है और वह कमाता भी है, लेकिन स्वयं खाने का इच्छुक नहीं है; किन्तु दूसरों को खिलाने का जायका तलाश करना चाहता है। खिलाने का भी एक जायका है। मैं जानता हूँ कि खाने का अपना जायका है, लेकिन दुनिया में खिलाने का भी अपना जायका है।
बेटे! बच्चे के खाने का जायका होता है। वह कहता है—बाबू जी! टाफी लेते आना। हाँ, लायेंगे। भाई साहब! पहले आप जलेबी लाते थे, अब नहीं लाते। जीजा जी! जब आप पहली बार हमारे यहाँ आये थे, तो हमारे लिए मिठाई लाये थे, लेकिन अब की बार आप नहीं लाये। बेटे, बच्चा हरेक से माँगता है। बालक को खाने का जायका होता है; लेकिन खिलाने का जायका उनको होता है, बेटे, जो बड़े होते हैं। वे खिलाने पर आ जायँ, तो अपने पिता जी को खिलाते हैं, अपनी माता जी को खिलाते हैं, अपने भाई को खिलाते हैं, अपनी बहन को खिलाते हैं, अपनी औरत को खिलाते हैं। जब लोग कहते हैं कि अरे साहब! आपके कपड़े फटे हैं। आपके क्या हाल हो गये हैं? भाई हैं, बहन हैं, बच्चे हैं, माता हैं, पिता हैं, इन सबको दे करके फिर आप खाते हैं। भला यह भी कोई बात है? अरे भाई! हम अच्छे कपड़े पहनेंगे, तो औरों को क्या पहनाएँगे? यह क्या बात है? यह गरीबी है, जिसमें आदमी कमाता तो है, पर स्वयं खाने का जायका लेने की अपेक्षा खिलाने के जायके को अधिक अच्छा मानता है। बहुत से आदमी ऐसे होते हैं, जो खाने के जायके से नफरत करते हैं, पर खिला सकते हैं। कौन खिला सकता है? जिसके पास वह सामर्थ्य है। उसी के मन में यह वृत्ति पैदा होती है कि दूसरों को क्या खिलाना चाहिए। लेकिन जिसका अपना ही पेट खाली है, वह आदमी दूसरों को क्या खिला सकता है? ‘‘बुभुक्षितः किम् न करोति पापम्।’’ अर्थात भूखा आदमी क्या पाप नहीं कर सकता? भूखा आदमी किसको दान दे सकता है? किसकी सहायता कर सकता है? किसी सेवा कर सकता है? किसका भला कर सकता है?
इसलिए मित्रो! पहला गुण, आध्यात्मिकता की पहली चीज जो होती है, वह यह कि आदमी को इस लायक होना चाहिए कि वह संपन्न बना रह सके। हम नहीं खाते, औरों को खिलाते हैं, ठीक है। मर्जी की बात है। खाने का भी जायका है, लेकिन खिलाने का भी अपना जायका है। हम आपके घर जायँ और आप हमें मिठाई खिलायें, बिस्किट खिलायें। और साहब! लेकिन खिलाने का भी अपना जायका है। हम आपके घर जायँ और आप हमें मिठाई खिलायें, बिस्किट खिलायें। अरे साहब! आप बहुत अच्छे हैं। आप वही हैं न, जिन्होंने हमें दालमोठ खिलाई थी। एक बार जब हम आपके घर गये थे, तब आपने जलेबी खिलायी थी, कचौड़ी खिलायी थी और चाय पिलायी थी। हाँ साहब! याद है, यह खिलाने का जायका है। खिलाने का जायका कभी आपको लग जाय, तो जब आपके यहाँ कोई दावत होती है, निमंत्रण होता है, तो आप सुबह से शाम तक लोगों को खिलाते रहते हैं और स्वयं भूखे रहते हैं। लोग बुला रहे हैं—आइए साहब! आइए बाबू जी। चाय पीजिए, रसगुल्ला लीजिए। बेटे, पचास पैसे का रसगुल्ला मुफ्त में खिला रहे हैं। यह पचास पैसे नहीं अखरते। ये हमारे बॉस हैं, ये हमारे मित्र हैं। ये हमारे बहनोई हैं, जाने कब आयेंगे। अरे भाई! पचास पैसे जेब से जा रहे हैं और आप रसगुल्ला खिला रहे हैं। इसका क्या मतलब है? साहब! खिलाने का जायका ही अलग होता हैं। खिलाने का मजा ही अलग होता है। खिलाने का आनंद ही अलग होता है। बेटे, खिलाने का जायका उनको आ जाता है, जिनको हम संत कहते हैं। संतों को खाने की अपेक्षा खिलाने का जायका अच्छा मालूम पड़ता है। इसलिए वे प्रसन्न रहते हैं। इसलिए वे गरीब मालूम पड़ते हैं। उनका मानसिक विकास हो जाता है।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर को पाँच सौर रुपये की नौकरी मिली थी। उन्होंने घर वालों को बुलाया और कहा कि पचास रुपये में हमको गुजारा करना चाहिए। हमारा देश जिस गरीबी में रहता है, उसी में हम भी गुजारा करें, तो ठीक है। हम पचास रुपये में गुजारा करेंगे और चार सौ पचास रुपया महीना उन लोगों को देंगे, जो हमारी अपेक्षा इसका सही इस्तेमाल कर सकते हैं। उन्होंने कलकत्ता के दूसरे लोगों को खबर भेज दी कि जो बच्चे अपने माता-पिता से सहायता प्राप्त न कर सकते हों। कॉपी-पेंसिल न खरीद सकते हों, मिट्टी का तेल न खरीद सकते हों, वे हमारे यहाँ से ले जा सकते हैं। सारे-के गरीब बच्चे आने लगे। बच्चे भी उन दिनों शरीफ थे, भले आदमी थे। आज-कल के बच्चे होते, तो पैसे भी ले जाते और चप्पल भी उठा ले जाते। वे आज जैसे बच्चे नहीं थे। उस जमाने में उनमें शराफत थी। बच्चे आते और कहते कि पिता जी! इस महीने हमारे घर से फीस नहीं आई है। हमको पैसे दे दीजिए। कितनी फीस है? बारह आने। अच्छा, ले जा। पिता जी! हमारे पास कॉपी भी नहीं है, किस पर लिखें? अच्छा-चल, यह भी ले जा। साढ़े चार सौ रुपये वे उनको दे देते, बच्चों के लिए खर्च कर देते। कौन? ईश्वरचंद्र विद्यासागर। वे पचास रुपये में गुजारा करते थे और चार सौ पचास रुपये हर महीने विद्यार्थियों के लिए-छात्रों के लिए खर्च कर देते थे।
मित्रो! आपकी दृष्टि में ईश्वरचंद्र विद्यासागर बड़े पागल थे, बड़े बेवकूफ थे। वे गरीबी में रहते थे, कंगाली में रहते थे। पुराने कपड़े पहनते थे और मामूली में गुजारा करते थे। अगर आपकी अक्ल होती तो ईश्वरचंद्र विद्यासागर की पाँच सौ रुपये नौकरी के और पाँच सौ रुपये चालाकी और बेईमानी के अर्थात एक हजार रुपये इकट्ठे करते। और फिर उसका क्या करते? सिनेमा, बढ़िया पैंट पहनते और बीबी के लिए सोने का जेवर बनवाते। हम और आप जाहिल और दुष्ट हो सकते हैं, किंतु संत नहीं हो सकता। क्योंकि उससे खिलाने का जायका आता है और आपको खाने का जायका आता है।
मित्रो! हम अपनी कमाई खा जाते हैं, बाप की कमाई खा जाते हैं। भगवान् की कमाई भी खाना चाहते हैं। गुरु की कमाई खाना चाहते हैं। हमारा पेट ऐसा जाहिल है, जो किसी से भी नहीं भरता। क्यों नहीं भरता? इसलिए नहीं भरता कि हमारी तृष्णाएँ, बालपन जितनी छोटी हैं। इसमें हम जितना पाते हैं, उसे खर्च नहीं करना चाहते। हम देना नहीं चाहते। बेटे हम क्या कर सकते हैं। संत गरीब तो होते हैं, पर दरिद्र नहीं होते। उनके पास जाने के बाद में मनुष्य जाने क्या-से हो जाता है? चाणक्य के पास जाने के बाद चंद्रगुप्त क्या-से हो गया? समर्थ गुरु रामदास के पास जा करके शिवाजी जाने क्या-से हो गये? रामकृष्ण परमहंस के पास जाकर विवेकानन्द जाने क्या-से हो गये? गाँधी जी के पास जाकर राजेन्द्र बाबू, जवाहर लाल नेहरू, राधाकृष्णन्, जाकिर हुसैन और न जाने कितने आदमी बादशाह हो गये। मालदार हो गये। गाँधी जी नेता बने? गाँधी जी नेता नहीं बने। संत को नेता बनने की जरूरत नहीं है। संत को मालदार बनने की जरूरत नहीं है।
मित्रो! संत के भीतर में शक्ति बनी रहती है, विश्वास बना रहता हैं कि हम कमाने लायक हैं। अध्यात्म उस चीज का नाम है जो आदमी को ज्ञानी, विवेकशील, उदार, त्यागी, करुणाशील और परोपकारी बनाता है। ज्ञान की बात तो मैं आपको पीछे बताऊँगा। मैं समझता हूँ कि आपको अभी ज्ञान की बात नहीं समझनी चाहिए। मैं आपको त्याग की बात, वैराग्य की बात, परलोक की बात बाद में बताऊँगा, क्योंकि अभी आप उतना हजम नहीं कर सकेंगे। इसलिए आपको वही बात बतानी चाहिए, जो बालकों को बतायी जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने जो बात अमेरिका में कही थी, वह सौ फीसदी सही मालूम पड़ती है। हिन्दुस्तान तमोगुण में डूबा हुआ है। हम घोर तमोगुण में डूबे हुए हैं। क्यों? क्योंकि हमारे भीतर सक्रियता का विकास न हो सका।
मित्रो! हमारे तीन शरीर हैं। पहला वाला अंश मनुष्य का स्थूल शरीर है। इसके अंदर जो शक्तियाँ दबी हुई पड़ी हैं, वे भ्रम के रूप में दबी हैं। श्रम से संपत्ति उत्पन्न होती है। दूसरा शरीर-सूक्ष्म शरीर है। सूक्ष्मशरीर की बात मैं बाद में बताऊँगा, जो हमारे ज्ञान के साथ जुड़ा हुआ है, जिससे हमको स्वर्ग मिलता है, जिसका हवाला मैं कल दे रहा था। तीसरा है—हमारी जीवात्मा, हमारा अंतःकरण, जिसको हम कारण शरीर कहते हैं। कारण शरीर का जब विकास होता है, तो हमारी आत्मा का संबंध परमात्मा के साथ हो जाता है। आत्मा और परमात्मा में ऐसा संबंध स्थापित हो जाता है, ऐसा आदान-प्रदान शुरू हो जाता है कि आत्मा की संपत्ति परमात्मा की और परमात्मा की संपत्ति आत्मा की हो जाती है। दोनों एक हो जाते हैं। नाला और गंगा जब मिल जाते हैं, तो नाला गंगा हो जाता है और दोनों एक हो जाते हैं। आत्मा अगर विकसित हो जाये, तो भगवान और भक्त में कोई फर्क नहीं रह जाता। दोनों एक हो जाते हैं। यह बड़ी ऊँची स्थिति है। अभी आपको उससे कोई ताल्लुक नहीं होना चाहिए। अभी आपको उसको समझने की कोई जरूरत नहीं है।
मित्रो! अभी आपको पढ़ाने से क्या फायदा है और आपको बताने की क्या जरूरत है? हम आपकी महत्त्वाकाँक्षाएँ, आपकी इच्छाएँ, आपकी नब्ज़ रोज देखते रहते हैं कि आप क्या माँगना चाहते हैं। आप पैसे के अलावा और कोई चीज नहीं चाहते। हम समझते हैं कि आप दुनिया का यश चाहते हैं, विकास चाहते हैं, सेहत चाहते हैं। ये सब चीजें उसी दर्जे की हैं, जिसको हमें पहले दर्जे के विद्यार्थी की बावत कहना चाहिए। पहले दर्जे के विद्यार्थी को जो अध्यात्म सिखाया जाना चाहिए, उसमें उसको कर्मयोग सिखाया जाना चाहिए। हम आपको कर्मयोग इसलिए सिखाना चाहते हैं कि आप संपत्तिवान बन जायँ, पैसे वाले बन जायँ। मालदार आदमी बन जायँ, दुनिया में पैसे वाले आदमी, मालदार आदमी किस तरीके से बने हैं, बताना? बेटे, दुनिया में मालदार बनने का एक ही तरीका है कि उन्होंने अपने काम करने की शैली का परिष्कार किया है। काम करना ही काफी नहीं है। हम और आप अधिक-से जानते हैं, तो काम करना जानते हैं; लेकिन काम करने के तरीके नहीं जानते। हम काम करने की शैली को नहीं जानते, जिससे कि हमारा काम हमको समृद्धि दे पाये, संपत्ति दे पाये।
मित्रो! हमारे काम हमको थकान देते हैं और हमको मजबूरी देते हैं। हमको काम करने का तरीका नहीं आता है। काम करने का जो तरीका है, उसको अगर जान लिया जाय, तो उसको कहते हैं—‘कर्मयोग।’ अगर हम परिश्रम करते हैं, श्रम करते हैं, तो उसको कहते हैं—मेहनत, मशक्कत। परिश्रम करने से उतना ही लाभ मिलता है, जो कि थोड़ा-सा हो सकता है। कोल्हू का बैल सारे दिन काम करता, पसीना बहाता है। हमारे और आप जैसे आदमी ढेरों-के काम करते हैं और काम करने के बाद बेहद थकान आती है। अरे साहब! मर गये। क्या काम करना पड़ा? अरे साहब! हम वहाँ कार्यालय में नौकर हैं। क्या काम करते हैं? दफ्तर में एल.डी.सी-क्लर्क हैं। साहब! फाइलों की लिखा-पढ़ी करनी पड़ती है। सारे रजिस्टर मेन्टेन करने पड़ते हैं। कितना काम करना पड़ता है? सात घंटे काम करना पड़ता है। कभी कैंटीन में जा बैठते हैं, तो कभी कहीं टाइम पास करते हैं। बड़ा बंधन है। काम से कब पिण्ड छूटेगा?
मित्रो! काम के प्रति हमारा उत्साह, काम के प्रति हमारी जागरूकता, काम के प्रति हमारा प्रेम जो होना चाहिए, उसका अभाव रहता है। अभाव रहने से क्या हो जाता है? हमारे शारीरिक मशक्कत का जो थोड़ा सा लाभ मिलना चाहिए, वही मिलता है। लेकिन जो उसके अन्दर विशेषता होनी चाहिए, सम्पन्नता होनी चाहिए, जो मूल्य होने चाहिए, जिसके बदले में पैसा मिलता है, वह तो हमारे भीतर है ही नहीं। जो केवल थके हुए मन से, हारे हुए मन से, लापरवाही के मन से, भार ढोने के मन से, किसी तरीके से काम पूरा कर लेते हैं, बेटे! यह काम नहीं है। यह काम का चौथाई हिस्सा भी नहीं है। बया नामक एक पक्षी होता है। कभी आपने उसका घोंसला देखा होगा। नहीं देखा हो, तो देखकर आना। होता तो छोटा सा है, लेकिन घोसला कितना मजेदार बनाता है। तबियत में आता है कि घोसले को देखते ही रहें। उसके अंदर न कहीं पानी जाने की गुंजायश होती है, न आँधी-तूफान का भय रहता है। पक्षी ऐसा मस्त सोता रहता है कि आँधी आये, तो क्या? तूफान आये तो क्या? न हिलता है, न डुलता है। गिरने की बात ही नहीं उठती।
मित्रो! कबूतर भी एक पक्षी है। वह भी घोंसला बनाता है। बया पक्षी जरा सा होता है, किंतु कबूतर बड़ा होता है। उसकी चोंच भी बड़ी होती है, पंख भी बड़े होते हैं, पंजे भी बड़े होते हैं। कबूतर लकड़ियाँ बीन-बीन कर लाता है और अपना घोंसला बनाता है। घोसले पर अण्डे रखता है। बस जरा सा हवा का झोंका आया और अण्डे के ऊपर घोसला, घोसले के ऊपर कबूतर-सब टूट-फूट करके बराबर हो जाता है। पचास फीसदी कबूतरों के बच्चे और अण्डे इस तरीके से खराब हो जाते है, क्योंकि उनके घोसले कच्चे और कमजोर होते हैं। घोंसले नीचे गिरे और बच्चे मरे और अंडे फूटे। कबूतर को फिर से दुबारा घोंसला बनाना पड़ता है। इसका क्या मतलब है? बेटे, इसका मतलब यह है कि बया पक्षी के पास घोसला बनाने की कोई मशीन नहीं है। नहीं गुरुजी! हमने एक दिन घोंसला बनाने की एक मशीन देखी थी ।। वह ऐसी मशीन है जो बिजली की मोटर से चलती है और घोंसला बना देती है। कहीं नहीं बनाती। वह केवल चोंच से बनाती है, लेकिन वह मुस्तैदी से बनाती है, होशियारी से बनाती है, मन लगाकर बनाती है, तबियत लगाकर बनाती है।
मित्रो! तबियत से किया हुआ काम कितना शानदार और मजेदार होता है। मन लगाकर किया हुआ काम कितना शानदार होता है। तबियत से मन लगाकर यदि आप काम करेंगे, तो देखना कि आपका श्रम कितना सार्थक हो जायेगा और क्या से क्या होता हुआ चला जायेगा। बेमन से काम किया जायेगा, तो काम में न मजा आयेगा और न रस आयेगा। मैं क्या कह रहा था आपसे? यह कह रहा था कि काम करने की शैली-जिसको हम कर्मयोग कहते हैं। कर्मयोग उस समय होता है, जिस समय आदमी अपने परिश्रम को बेगार समझ करके नहीं, भार समझ करके नहीं करता, वरन् इसलिए करता है कि यह उसके लिए प्रेस्टिज प्वाइण्ट है। यह आपके काम करने की क्वालिटी पर निर्भर है। आप कम पैसे देते हैं, तो हम आपसे झगड़ा करेंगे, लड़ाई करेंगे, लेकिन हम आपके काम को खराब नहीं कर सकते। हम आपका काम कैसे खराब कर सकते हैं, यह तो हमारा प्रेस्टिज प्वाइण्ट है। हमारे सम्मान का सवाल है। इसे हम खराब नहीं कर सकते। आपने कम पैसा दिया है, गलती की है, लेकिन हम गलती नहीं करेंगे। हम आपको पूरा काम सही करके देंगे। अपनी इज्जत, अपनी आबरू, अपनी जिम्मेदारी और अपना कर्तव्य सही करके देंगे। देखिये, हम कैसा बढ़िया काम कर सकते हैं।
मित्रो! काम के प्रति जब आपको यह जिम्मेदारी, यह भाव पैदा हो जाय, तब मैं यह कहूँगा कि आपने कर्मयोग का पहला वाला पाठ पढ़ लिया। वह काम जो तबियत से किया जाता है, मन से किया जाता है, निष्ठा से किया जाता है और इस तरह से किया जाता है, जिसको हम भगवान कहते हैं। ‘‘वर्क इज वर्शिप’’ अर्थात् काम कब पूजा बनता है? जब उसको तबियत से किया जाय, यह मानकर किया जाय कि हम अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए काम कर रहे हैं। कोई भी काम छोटा नहीं हो सकता और बड़ा भी नहीं हो सकता। एक कथा जो हर बार याद आ जाती है, जिसमें कि योगाभ्यास का महत्त्व बताया गया है। कथा इस प्रकार है-
एक स्वामी जी थे। जंगल में तप कर रहे थे। उनको तप करते-करते चमत्कार आ गये। आँख उठाकर ऊपर देखा, तो पेड़ पर बैठी हुई चिड़िया जल गयी। उनको अभिमान हो गया कि हम बहुत बड़े योगी हैं। किसी आदमी के घर पर गये, भिक्षा माँगी। स्त्री अन्दर अपने बीमार पति को रोटी खिला रही थी। बोली-अभी आप ठहरिए। अभी मैं योगाभ्यास कर रही हूँ। पूरा करने के बाद आपको भोजन कराऊँगी। योगाभ्यास भी कर रही है और बातचीत भी कर रही है। योगी ने खिड़की से आँख उठाकर देखा और बोला-अरे, तू तो यह कर रही है। हाँ महाराज जी! मैं योगाभ्यास कर रही हूँ। अभी आप चुप बैठिए। मैं कोई चिड़िया नहीं हूँ कि आप मुझे जला देंगे। यह बात तुझे कैसे मालूम पड़ी? योगिनी हूँ, तू समझता क्या है? बाबा जी बैठे रहे। जब वह अपने पति की सेवा करके आई, तो भिक्षा दिया। उन्होंने भिक्षा तो ले ली, पर एक बात पूछा-कि आपने कैसे जान लिया कि मैंने चिड़िया को अपनी दृष्टि से जला दिया था? योगाभ्यास करती हूँ।
क्या? योगाभ्यास करती हैं? हाँ मेरा योगाभ्यास यह है कि मैं समझती हूँ कि मेरा जो काम पड़ा हुआ है, उसे मैं अपना उत्तरदायित्व समझती हूँ, जिम्मेदारी समझती हूँ अपने को और समाज की एक कड़ी समझती हूँ और इसका लाभ पूरे समाज को मिलने वाला है। मेरी जीवात्मा इस जिम्मेदारी को किये बिना नहीं रह सकती। इसलिए मैं करती हूँ। ठीक है, यह योगाभ्यास मुझे भी सिखा दीजिए। हम तो नहीं सिखा सकते, आप हमारे गुरु तुलाधार वैश्य के पास चले जाइये। तुलाधार वैश्य को गुरु बता दिया। वह वहाँ गया, तो देखा कि वह बनिया दुकानदारी कर रहा है। वह सारे दिन लौंग तौलने और हींग तौलने में लगा रहा। उसने कहा कि आप वहाँ मेरी शिष्या के पास भी गये थे। उसने कहा कि स्वामी जी बैठ जाइये और आपको चिड़िया वाली बात तो याद है। बैठ जाइये, पीछे सिखाऊँगा।
स्वामी जी बैठ गये। अच्छा-भाई! हमारी और आपकी जान-पहचान नहीं है, फिर आपने यह कैसे जान लिया कि मैंने चिड़िया जलाई है। अरे भाई, मैं योगी हूँ। देखते नहीं हैं, मैं योगाभ्यास कर रहा हूँ। कौन-सा योगाभ्यास कर रहे हैं? कुण्डलिनी जागरण कर रहे हैं। यह भी कोई कुण्डलिनी जागरण है? वह अपने कर्तव्य को ठीक तरह से पूरा करने के लिए शाम तक डटा रहा। शाम को उसने कहा कि स्वामी जी। मैं तो पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। आप तो चाहते थे कि मैं योगाभ्यास सिखा दूँ। यही योगाभ्यास है, जो मैं करता रहता हूँ। दिलचस्पी से और ईमानदारी से काम करो, जिम्मेदारी से काम करो। बस, यही मैं करता हूँ। यह कहाँ लिखा हुआ है? किस पुस्तक में है? इसके लिए आप हमारे गुरु श्रीनाथ चाण्डाल के पास जाइये। आपके गुरु कहाँ रहते हैं? बनारस में रहते हैं। स्वामी जी, श्रीनाथ चाण्डाल के पास गये, तो देखा कि वे झाड़ू लगा रहे हैं। जैसे ही स्वामी जी गये-उसने साष्टांग प्रणाम किया और कहा कि जिसकी आप तलाश कर रहे हैं, वह तो आपको मिलेगा नहीं। आपको अकेले बड़ी दिक्कत पड़ेगी, मैं मिला दूँगा।
उन्होंने कहा-अच्छा, आप इसलिए जा रहे हैं कि आपको तुलाधार वैश्य ने भेजा है। क्यों भेजा? क्योंकि उसकी चेली जो थी, वह अपने पति को खाना खिला रही थी। आप वहाँ गये थे। उसने क्यों भेजा? आपने चिड़िया जला दी थी, अरे! आपको तो सब बातें मालूम हैं। हाँ, हमको भूत, भविष्य की सब बातें मालूम हैं, क्योंकि हम योगी हैं। तो आपका योगाभ्यास कैसा है? हमें भी सिखा दीजिए। शाम को उसने योगाभ्यास सिखाया। हम टट्टी साफ करते हैं मैला साफ करते हैं और यह मानकर चलते हैं कि यह हमारा कर्तव्य है। जिस काम को हम दिलचस्पी के साथ मन लगाकर नहीं करेंगे, वह भार बन जायेगा और उस काम से हम दुखी हो जायेंगे तथा उसे छोड़ना चाहेंगे।
मित्रो! कर्मयोग का अर्थ है-काम की क्वालिटी मेण्टेन करना। क्वालिटी मेण्टेन करने का मतलब है-काम के प्रति हमारे मन में उत्साह पैदा हो। अगर हमारे मन में काम के प्रति उत्साह पैदा न हुआ, तो मैं नहीं जानता कि काम हमारे लिए किसी तरह का फायदेमन्द हो सकता है? नहीं हो सकता है। ऐसा कार्य हमारे लिए बेगार के तरीके से बना रहेगा। इस तरह बेकार किये हुए काम से हम कोई खास फायदा उठा सकते हों, ऐसा मैं नहीं मानता। जापान की बात एक बार फिर मुझे याद आ गयी। जापान में अमेरिका ने एक बार फैक्ट्री मालिकों से कहा कि भाई तुम्हारी फैक्ट्री में सप्ताह में छः दिन काम होता है। हम पाँच दिन काम लिया करेंगे और नौकरी का जो पैसा आपको छः दिन में मिलता है हम पाँच दिन में दिया करेंगे। आप लोग पाँच दिन काम किया करें और दो दिन छुट्टी के लिए रखा करें। जापानियों ने कहा कि आप हमारे भीतर कमजोरी पैदा करना चाहते हैं। आप चाहते हैं कि हम हराम का पैसा खाये और हराम के तरीके से समय गँवाएँ। हराम के तरीके से घूमना-फिरना शुरू करें। हम यह नहीं करने देंगे। चाहे आप पैसा दीजिए, चाहे न दीजिए। हम काम पूरे छः दिन ही करेंगे, नहीं तो हम फैक्ट्री नहीं जायेंगे। अच्छा तो आप छः दिन का काम कीजिए, हम आपका एक दिन का वेतन बढ़ा देते हैं। बढ़ा दीजिए, आपकी मर्जी, काम हम छः दिन से कम नहीं कर सकते।
मित्रो! अगर छः दिन से कम काम करेंगे, तो हमारे पास दौलत आती हुई चली जायेगी। धन हमारे पास आता हुआ चला जायेगा, सम्पत्ति आती हुई चली जायेगी; लेकिन ठहरेगी नहीं, क्योंकि तब हम हरामखोर हो जायेंगे, कामचोर हो जायेंगे। उदाहरण के लिए जमीन यहाँ की भी ऐसी है और गुजरात की भी ऐसी है। किन्तु गुजरात का किसान इतना सम्पन्न होता है, इसका एक उदाहरण मैंने वहाँ देखा, जब मैं अहमदाबाद के कुछ आगे बड़ौदा एवं आणन्द नामक जगह पर गया। वहाँ चार-पाँच मील आगे माण्डवी नाम का एक छोटा सा गाँव है। वहाँ एक व्यक्ति थे। उनका चौदह साल का एक बच्चा था, जिसकी मृत्यु हो गयी। किसी ने उन्हें बता दिया कि गुरुजी के पास जाना। वे कोई आशीर्वाद दे देते हैं, तो बच्चे हो जाते हैं। वह मेरे पास आये। बोले-गुरुजी! हमारे पास एक ही बच्चा था, वह मर गया। हमारी स्त्री बहुत दुखी है। आप कुछ सहायता कर सकते हों, तो कर दें। मैंने भी कह दिया कि भगवान करेगा, तो हो जायेगा। न जाने कैसे चौदह वर्ष बाद उनके यहाँ बच्चा हो गया। जब मैं दुबारा आणन्द गया, तो उसने कहा कि आपको हमारे गाँव चलना पड़ेगा। बेटे, क्या करेंगे तेरे गाँव चलकर? नहीं गुरुजी, आपको एक बार चलना ही पड़ेगा। अच्छा, मैं चलूँगा।
मित्रो! मैंने पूछा कि कितनी दूर तेरा गाँव है? बताया कि छः मील। वह मोटर ले आया। मैंने कहा-बेटे! मेरे लिए मोटर क्यों ले आया? हम तो बैलगाड़ी में चले जायेंगे। हम तो किसान आदमी हैं। गरीब आदमी हैं। नहीं गुरुजी! आप मोटर से ही चलिए। मोटर से ही गया। मैंने कहा कि अब तो यहाँ शाम तक ठहरना है। यह किराये की गाड़ी है, ढेरों पैसा लग जायेगा। इसको वापस कर दे। नहीं महाराज जी! खड़ा रहने दीजिए, कोई हर्ज नहीं। मैंने कई बार टोका कि गाड़ी रखने से पैसे खराब होते हैं। उसने कहा कि अजी। आप तो बेकार परेशान होते हैं, खड़ी रहने दीजिए, चली जायेगी। दूसरे दिन फिर गाड़ी वहीं खड़ी मिली। मैंने पूछा कि तूने गाड़ी के पैसे दिये कि नहीं? नहीं साहब! पैसे थोड़े ही देने हैं। यह तो अपनी मोटर है। अच्छा! तू क्या करता है इस मोटर का? गुरुजी! हमारे बच्चे इससे कॉलेज पढ़ने जाते हैं। हमारी लड़कियाँ पढ़ने जाती हैं। मोटर पहुँचाने जाती है और फिर लेकर के आती है। मोटर और वह भी किसान की? तेरे पास कितनी जमीन है? पचास बीघे जमीन है। कुल पचास बीघे? हाँ महाराज जी! पचास बीघे।
बेटे! हमारे यहाँ तो सौ बीघे जमीन होती है, पर लोग भूखों मरते हैं, नंगे फिरते हैं और कंगाल रहते हैं। यहाँ-वहाँ कहीं देखो, यही हाल है। तेरे यहाँ क्या है? चलिए गुरुजी! हम दिखाते हैं। उसकी दो लड़कियाँ जो एम.ए. कर रहीं थीं और लड़के बी.ए. कर रहे थे, खेत में काम कर रहे थे। खेत में जाकर देखा वे लड़कियाँ लँगोट मारे हुए और पीछे कछनी काछे हुए तम्बाकू के खेत में मजदूरों के तरीके से काम कर रही थीं और पसीना बहा रही थीं। उसने कहा-गुरुजी! ये हैं बच्चे और उनका परिश्रम। गुरुजी! जमीन तो सब जगह एक सी है, पर पसीना बहाने का यह कार्यक्रम आपके यहाँ नहीं है। आपका किसान हरामखोर और कामचोर है। हरामखोर और कामचोर आदमी के पास सम्पत्ति आयेगी? नहीं, ये गरीब रहेंगे, ये दरिद्र रहेंगे। ये भूखों मरेंगे और कंगाल रहेंगे। भिखारी रहेंगे और जाहिल रहेंगे, क्योंकि आदमी मेहनत नहीं करना चाहता। बेटे, मैंने परिश्रम करने वालों को भी देखा और उन्हें भी देखा, जो परिश्रम से जी चुराते हैं और कंगाल बने रहते हैं।
मित्रो! जो परिश्रम किया जाय, उस परिश्रम के साथ में दिलचस्पी का समावेश होना चाहिए, तभी सत्परिणाम मिलता है। स्वामी सत्यदेव परिव्राजक एक बार जर्मनी गये। वहाँ उन्होंने एक बच्चे से अखबार खरीदा। लड़का जो था, उसके बोलने-चालने का तरीका एवं जो कपड़े पहने हुए था, उसे देखकर मालूम पड़ता था कि यह कोई सम्पन्न आदमी है। इसे किसी मालदार घर का होना चाहिए। उन्होंने लड़के से पूछा कि यह शायद घर से नाराज होकर आया मालूम पड़ता है। उन्होंने उसे पास बुलाया और कहा कि बेटे! तुम एक बात बता सकते हो? हाँ, बताइये। तुम्हारे पिता जी क्या काम करते हैं और तुम क्या काम करते हो? क्यों? क्या बात है? तुम्हारे कपड़े-लत्ते और बोलचाल से मालूम पड़ता है कि तुम्हें किसी सम्पन्न घर का होना चाहिए; क्योंकि इतने कम पैसे में अख़बार बेचते हो, क्या वजह है?
उसने कहा कि स्वामी जी! आप हिन्दुस्तान से आये हैं। हिन्दुस्तान के तरीके और जर्मनी के तरीके अलग-अलग हैं। हम लोग जो हैं, हम और पिताजी हमेशा आदमी को यही बात सिखाते हैं कि उसको परिश्रमी होना चाहिए। आदमी को उद्योगी होना चाहिए। आदमी को मेहनतकश होना चाहिए। हमारे पास दो घण्टे बच जाते हैं। हमारे पिताजी-हाईकोर्ट के जज हैं। वे कहते हैं कि जाइये, आप अख़बार बेचकर पैसा लाइये। जो आदमी अपने हाथ पाँव से पैसा कमाता है, वह खर्च करना जानता है। जिस आदमी ने अपने हाथ से नहीं कमाया, या हराम का कमाया है, वह खर्च करना नहीं जानता। वह उसको खराब करेगा। जुआ खेलेगा, शराब पियेगा, कुछ और करेगा।
मित्रो! आपने अपने बेटों के लिए हराम का पैसा जमा करके रखा है, मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि वह सारा पैसा जुआ खेलने में जायेगा, शराब पीने में जायेगा और सारा का सारा पैसा खानदान का सत्यानाश करके और तबाही करके जायेगा; क्योंकि वह हराम का पैसा है। हराम के पैसे को कोई हजम नहीं कर सकता। पाप की कमाई को कोई भी हजम नहीं कर सकता। हराम के पैसे और पाप के पैसे में मेरी समझ में कोई खास फर्क नहीं हो सकता। हाँ तो मैं आपसे जर्मनी के विद्यार्थी के बारे में निवेदन कर रहा था कि वह अख़बार बेच करके पैसे कमा रहा था और बाप के पैसे जोड़-जोड़ करके लॉकर में रखता था। देखिये पिताजी! हमने अपनी मशक्कत से कमाया है। हाँ बेटे! तूने मेहनत से कमाया है।अब तू खर्च करना भी जान जायेगा। जो पैसा कष्ट से, मेहनत से कमाया जाता है, उसके बारे में यह ख्याल जाता है कि कैसे खर्च किया जाना चाहिए और कैसे नहीं खर्च करना चाहिए। इसलिए हम आपको जापान और जर्मनी की घटनाओं को बता रहे थे।
मित्रो! इन उदाहरणों से हममें से प्रत्येक आदमी यह समझने की कोशिश करे कि हमको परिश्रम करना चाहिए और हमको मशक्कत करनी चाहिए। फिर हमारी जिन्दगी से तबाहियाँ खत्म हो जायेंगी, मुसीबतें दूर हो जायेंगी और हमारी वो इच्छाएँ खत्म हो जायेंगी। कौन सी? जिसके लिए हम लक्ष्मीजी को तलाश करते रहते हैं कि लक्ष्मी जी कब आयेंगी। दीपावली के दिन क्या-क्या लायेंगी? एक बड़ा वाला थैला लायेंगी। उसमें क्या-क्या भरकर के लायेंगी? पाँच वाले नोट अलग, दस रुपये वाले नोट अलग, सौ-सौ रुपये वाले अलग-सब इकट्ठा करके लायेंगी। बेटे, तू ऐसे थैले बना ले, जिसमें दो रुपये वाले अलग और एक रुपये वाले अलग-अलग डाल दे। क्योंकि लक्ष्मी जी तो इकट्ठे लाती हैं। महाराज जी! मैं कैसे मनाऊँ, लक्ष्मी जी तो नहीं आती हैं। हाँ बेटे, लक्ष्मी जी नहीं आयेंगी। लक्ष्मी जी कब आती हैं? दीवाली के दिन आती हैं। क्या लाती हैं। रुपये लेकर आती हैं। हाँ महाराज जी! लक्ष्मी जी रुपये की देवी हैं।
अच्छा बेटे! तू कितने वर्ष का हो गया? महाराज जी! चालीस वर्ष का हो गया। लक्ष्मी जी की पूजा करते-करते कितने वर्ष हो गये? हमने चालीस दीवाली पूजी हैं। अच्छा, तो रुपया आया तेरे पास? नहीं महाराज जी! हम तो गरीब के गरीब ही रहे, कंगाल ही बने रहे। लक्ष्मी जी हमारे पास नहीं आयीं। अच्छा, तेरा बाप? गुरुजी! हमारा बाप साठ वर्ष तक जिया और वह भी लक्ष्मी जी को पूजता था। और तेरे बाप का बाप? महाराज जी! वह छप्पन वर्ष का होकर मरा था और वह भी लक्ष्मी जी को पूजता था। अच्छा, तो वह मालदार रहा होगा? नहीं, वह भी मालदार नहीं था। बेटे, तीन पीढ़ियों से लक्ष्मी जी को पूजते चले आ रहे हो। डेढ़ सौ वर्ष बीत गये, लेकिन गरीब के गरीब बने रहे। कंगाल के कंगाल बने रहे। बेटे, तुझे अभी और कंगाल रहना पड़ेगा। डेढ़ सौ वर्ष हो गये और डेढ़ सौ वर्ष कंगाली का पट्टा तेरे नाम अभी और लिखा हुआ है। लक्ष्मी जी को पूजो। महाराज जी! कहाँ पूजूँ? बेटे जहाँ उनके रहने की जगह है, वहाँ पूजन करो। इस सम्बन्ध में एक कथा याद आ गयी।
एक बार लक्ष्मी जी स्वर्गलोक से जमीन पर आईं और लोगों से कहने लगीं कि चलो भाई, वरदान लो। जिसको जो चाहिए, वरदान माँग लो। हम सबको वरदान देंगे। सब तैयार हो गये और वरदान माँगने के लिए लाइन में खड़े हो गये। हमको वरदान दीजिए, हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। सब लाइन में खड़े हो गये। पृथ्वी माता आयीं और उन बच्चों को मना किया। उन्होंने कहा-बच्चो! हमारा कहना मानो। ये अभागिन तुमको चौपट करके जायेगी और सत्यानाश करके जायेगी। तुमको इस जंजाल में नहीं फँसना चाहिए और अपने हाथ-पाँव की मशक्कत पर निर्भर रहना चाहिए। अपना पसीना बहाना चाहिए और अपना गुजारा करना चाहिए। धरती की बात को किसी ने नहीं माना और कहा कि हम तो आपकी बात नहीं मानते। हम तो मनोकामना पूरी करायेंगे और वरदान ले करके आयेंगे और जो फोकट में मिलता है, हराम में मिलता है, उससे गुजारा करेंगे।
लक्ष्मी जी खड़ी हो गयीं। उन्होंने कहा कि चलो भाई, जल्दी-जल्दी चलो और अपनी-अपनी मनोकामना बताओ। सबने एक ही मनोकामना बतायी। क्या मनोकामना हो सकती है? और कोई मनोकामना नहीं। बस अपनी एक ही मनोकामना है-रुपये और कुछ नहीं? नहीं और कुछ नहीं। बस, रुपया मिल जाय, तो हम उससे सब कर लेंगे। बच्चा नहीं हुआ, तो दुबारा ब्याह कर लेंगे। बस आप रुपया दीजिए। बाकी हम अपने आप पूरा कर लेंगे। रुपये से बच्चे किराये पर लिए जा सकते हैं, मोल लिए जा सकते हैं, सब हो सकता है। लक्ष्मी जी आ गयीं। सबको वरदान देने लगीं। रुपया? हाँ-रुपया लीजिए। सबको चेक काटती चली गयीं। बियरर चेक पाकर सब मालामाल हो गये और चले गये।
मित्रो! मालामाल होने पर क्या होता है? आदमी हरामखोर और कामचोर हो जाता है। सारे आदमी हरामखोर और कामचोर हो गये। बस बैठे रहे। किसी ने टेलीविजन खरीद लिया, किसी ने रेफ्रीजरेटर खरीद लिया। सिनेमा जाने लगे। किसी ने कुछ खरीद लिया, किसी ने कुछ। सब मौज उड़ाने लगे। मजा करने लगे। किसान जो थे, उन्होंने काम करना बन्द कर दिया। अरे भाई! खेत में कौन अपना सिर फोड़ेगा? घर में इतना पैसा रखा हुआ है, इसका क्या करेंगे? सब लोग मौज करने लगे। खेती-बाड़ी बन्द कर दिया, काम धन्धा बन्द कर दिया। थोड़े दिनों बाद क्या हुआ? खेती-बाड़ी बन्द हो गयी। बैल बिक गये। कुएँ सूख गये। जमीन परती हो गयी। जिन लोगों के पास अनाज था, लोग खरीदते रहे, मँहगा खरीदते रहे। अन्न और मँहगा होता गया। एक समय ऐसा आया, जब सारा अनाज दुनिया से खत्म हो गया। फिर लोग भूखों मरने लगे और वह रुपया हर किसी के पास रखा रह गया। भूख से तड़पकर लोग मर गये। किसी के एकाउन्ट में पचास हजार रुपये जमा हैं, किसी के पास एक लाख, लेकिन सबके सब भूखे मर गये। कैसे मर गये? भूख से मर गये, बीमार होकर मर गये, तड़प-तड़प कर मर गये।
पृथ्वी दुबारा आयी और अपने बच्चों को रोते हुए, तड़पते हुए देख करके कहा-बेवकूफो! हमने तुमसे कहा था कि हराम की कमाई, बिना मशक्कत की कमाई पाने की तुम इच्छा करोगे, तो तुम मरोगे। अब भी समय है कि अपनी मशक्कत की कमाई के ऊपर निर्भर रहना सीखो। मित्रो! यही है हमारा कर्मयोग। कर्मयोग अगर हमको आ जाय, तब मजा आ जाय। कर्मयोग किसे कहते हैं? इस सम्बन्ध में हमने आपको एक बात यह बतायी थी कि काम को कर्मयोग में बदल देने के लिए थोड़े से सिद्धान्तों को हमें समावेश करना पड़ेगा। पहला सिद्धान्त यह है कि हमको अपने काम में दिलचस्पी पैदा करनी पड़ेगी, रुचि पैदा करनी पड़ेगी, उत्साह पैदा करना पड़ेगा। आपको यह मानकर चलना पड़ेगा कि हम कोई महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं और उन्नति का काम कर रहे हैं।
मित्रो! एक मूर्तिकार था। वह मूर्तियाँ बनाता था। अपने बच्चे से भी कहता था कि बेटे, तुम भी मूर्तियाँ बनाओ। बच्चा अपने बाप के कहने के मुताबिक़ मूर्तियाँ बनाने लगा। बाप की मूर्तियाँ दो रुपये में बिकी और बेटे की मूर्तियाँ तीन रुपये की बिकी, चार रुपये की बिकी; पाँच रुपये की बिकी, पन्द्रह रुपये की बिकी। बाप ने फिर कहा कि बेटे! इसमें यह सुधार करना चाहिए, यह ध्यान देना चाहिए। जप और योग करना चाहिए अर्थात अपने काम में ज्यादा-से तन्मयता, दिलचस्पी और गहराई पैदा करना चाहिए। बाप बेटे को सिखा रहा था, लेकिन बेटा बाप से झल्ला पड़ा। बोला-आपकी मूर्तियाँ दो रुपये में बिकती थीं और हमारी पन्द्रह रुपये की बिकती हैं और आप हैं कि नुक्ताचीनी करते हैं। बाप सिर पर हाथ रखकर बैठ गया। बोला-बेटे! अब तेरी उन्नति का रास्ता बन्द हो गया। मैं चाहता था कि पन्द्रह रुपये की मूर्ति पच्चीस रुपये में क्यों नहीं बिके? लेकिन अब पन्द्रह से चौदह में बिकेगी, तेरह में बिकेगी, बारह में बिकेगी। तूने समझा कि अब इस काम में मन लगाने की, दिलचस्पी लेने की, तबियत लगाने की जरूरत नहीं है। जो कुछ चल रहा है, सो ठीक है।
मित्रो! हमारी और आपकी मान्यता यही है कि जो कुछ चल रहा है, सो ठीक है। उसमें हम गहराई नहीं पैदा करना चाहते। उसमें हम दिलचस्पी नहीं लेना चाहते। हम उसकी क्वालिटी नहीं बढ़ाना चाहते। हमें क्या करना चाहिए? जो काम है, उसमें हमें इतना ज्यादा तन्मय हो जाना चाहिए, इतना ज्यादा खो जाना चाहिए कि वह काम हमारे मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम दोनों को मिला करके बेहतरी वाला श्रम बना हुआ दिखाई पड़े। यह क्या हुआ? कर्मयोग। काम करने में और कर्मयोग में यही फर्क होता है जो काम केवल शरीर से किया जाता है, थकान समझकर किया जाता है, दुर्भाग्य समझकर किया जाता हैं, वह काम है। कर्मयोग में क्वालिटी बढ़ाई जाती है। क्वालिटी वह है जिसमें आदमी उत्साह से काम करता है। दिल चस्पी से करता है और मनोयोग से करता है। अपना कर्तव्य समझकर काम करता है।
मित्रो! दूसरा यह कि काम को आदमी ईमानदारी से करता है। आज हमारे हर काम में बेईमानी जुड़ी हुई है। जो काम करता है, उसमें हम यह समझते हैं कि बेईमानी से पैसा कमाया जा सकता है। बेईमानी से मालदार बना जा सकता है। दूध बेचने वाला भी कहता है कि हम बेईमानी से मालदार बने हैं। मसाले में मिट्टी मिलाने वाला दुकानदार भी यही कहता है कि हम तो बेईमानी से मालदार बने हैं। ईमानदारी की बात तो यह है कि बेईमानी से मालदार नहीं बना जा सकता। दुकान पर आपने बोर्ड लगा रखा है कि यहाँ शुद्ध दूध मिलता है। गलत साबित करने वाले को सौ रुपये इनाम दिया जायेगा। लोग आते हैं और दूध ले जाते हैं; क्योंकि यहाँ ईमानदारी का विज्ञापन हो रहा है-न? ईमानदारी का विज्ञापन करके अपने आपको ईमानदार साबित करते हैं और लोग ले जाते हैं और आप मालदार बन जाते हैं। अगर बेईमानी में कमाने की ताकत है, तो आप इस बोर्ड को हटवा दीजिए और एक नया बोर्ड लगाइये और उसमें लिखवा दीजिए कि यहाँ दूध में पचास परसेण्ट पानी और अरारोट मिलाकर बेचा जाता है और ब्लाटिंग पेपर की मलाई जमाई जाती है। साबित करने वाले को सौ रुपये का इनाम दिया जायेगा। फिर देखिये क्या परिणाम निकलता है?
मित्रो! आपने ईमानदारी को, ईमानदार का दोहन किया है। आपने नकली ईमानदारी से फायदा उठाया है। असली ईमानदारी होती तब? असली ईमानदारी होती तो जाने क्या-से बना देती। असली ईमानदारी वेस्ट एण्ड वॉच कंपनी की है। इसका शेयर बीस गुना ज्यादा है। सौ रुपये का शेयर दो हजार रुपये का बिकता है। यह कंपनी अपनी मूल लागत का बीस गुना मुनाफा लेती है। दो रुपये की असली लागत बीस गुना अधिक कमाती है अर्थात चालीस रुपये कमाती है। क्या वजह है? वजह यह है कि जब घड़ी तैयार हो जाती है, तो सारी-की फैक्ट्री में सजा दी जाती है और इंजीनियर घूमता रहता है। चौबीस घंटे में किसी भी घड़ी में एक सेकेण्ड का भी फर्क पड़ता है, तो वह उतार ली जाती है और रिबिल्ट करने के लिए फैक्ट्री में भेज दी जाती है। फिर जब यह विश्वास हो जाता है कि चौबीस घंटे में एक सेकेण्ड का भी फर्क नहीं पड़ता है, तब इसको बाहर निकालते हैं और तब इसको रिलीज करते हैं। उसने अपनी ईमानदारी और प्रामाणिकता के आधार पर सारी दुनिया पर विश्वास जमाया, सारी दुनिया पर धाक जमाया।
मित्रो! ईमानदार होने का, शरीफ आदमी होने का—अर्थात ईमानदारी और शराफत का सिक्का अगर आप किसी पर जमा सकते हैं, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि वह आदमी आपका गुलाम हो जायेगा। आप उससे जो भी पैसा माँगेंगे, दे देगा। एक बार मैंने लालबहादुर शास्त्री जी का यह किस्सा आपको सुनाया था। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू पर यह छाप डाल दी थी कि हम ईमानदार आदमी हैं, शरीफ आदमी हैं। हम भले आदमी हैं। मनुष्य की सबसे बड़ी इज्जत इस बात में है कि वह शरीफ हो, ईमानदार हो और जिम्मेदार हो। आज हम शराफत और जिम्मेदारी को भूल बैठे हैं। एक-एक पग पर हमारी बेईमानी टपकती है, गैर जिम्मेदारी टपकती है। गैर-जिम्मेदारी और बेईमानी हमारे हर कदम पर चलती रहती है। हम रुपया नहीं चुराते, तो समय चुराते हैं। बात एक ही हो गयी। आपने फार्म भरा था। उस प्रतिज्ञा पत्र में क्या भरा था? यही भरा था कि हम आपके यहाँ सात घंटे काम करेंगे। अब यह बताइये कि आप सात घंटे काम करते हैं कि नहीं करते। नहीं महाराज जी! नहीं करता। ढाई घंटे काम करता हूँ। चार घंटे घूमता रहता हूँ। रुपया चुराना और समय चुराना-दोनों एक ही बात है। चोरी तो चोरी है।
चोर कभी मालदार हुए हैं? चोर कभी मालदार नहीं हो सकते। डाकू कभी मालदार हुए हैं? इनको ढेरों रुपयों की आमदनी हुई है, पर ये कभी मालदार नहीं हुए। मालदार होने के लिए कर्मयोगी होने के लिए यह आवश्यक है कि आपके कामों में ईमानदारी जुड़ी हुई हो। अगर आपके काम के साथ ईमानदारी जुड़ी हुई होगी, तो आपकी बखत? इज्जत न केवल संसार में, वरन् भगवान के यहाँ बढ़ती हुई चली जायेगी और आप उसी कर्म के आधार पर ऊँची-से स्थिति प्राप्त कर सकते हैं। बेकार की बातें तो बहुत बकते हैं, लेकिन काम के प्रति ईमानदारी आपने समावेश ही नहीं किया। आप हनुमान जी को पूजेंगे, लक्ष्मी जी को पूजेंगे, फिर काम को क्यों नहीं पूजते? इसमें ईमानदारी का समावेश कीजिए। आप जो भी काम करते हैं, उसको ईमानदारी के साथ मिला दीजिए और देखिये कि संसार की उन्नति और आपकी उन्नति होती है कि नहीं होती। आप मन लगाकर काम कीजिए और फिर देखिये कि आपको दूसरे आदमी कितनी सहायता करने के लिए खड़े हो जाते हैं।
मित्रो! शीरी और फरहाद का किस्सा ऐसा ही है। फरहाद एक राजकुमारी से शादी करना चाहता था। राजकुमारी उसको मोहब्बत करती थी। उसके पिता को जब यह पता चला कि फरहाद हमारी लड़की से शादी करना चाहता है, तो उसको बड़ा गुस्सा आया। उसने कहा कि इसे मार डालो। मार डालने का हुक्म देने वाला ही था कि मंत्री ने कहा कि महाराज जी! एक और उपाय है मार डालने का। इससे आपकी कन्या को बुरा भी नहीं लगेगा। उसने फरहाद से कहा कि यदि तुम राजकुमारी से शादी करना चाहते हो, तो पहाड़ को खोद करवहाँ नहर निकाल करके दिखाओ। तब हम तुम्हारा ब्याह कर देंगे। पहाड़ को खोद करके नहर और वह भी एक अकेला गरीब आदमी, कंगाल आदमी? नहीं ला सकता।
लेकिन एक शक्ति है, जिनका नाम है-विश्वास। आदमी ने अपने विश्वास की शक्ति को कभी पहचाना नहीं। हम विश्वास की शक्ति को भूल गये। यदि लगन के साथ, उत्साह के साथ, विश्वास के साथ, संकल्प के साथ किसी काम को करने के लिए तरीके से खड़े हो जायँ, तो हम नैपोलियन बोनापार्ट के तरीके से आल्पस पर्वत को चकनाचूर कर सकते हैं। नैपोलियन ने आल्पस से यह कहा था—‘‘आल्पस आपको हमारे लिए रास्ता देना चाहिए, अगर आप नहीं देंगे, तो हम पैरों तले आपको रौंदकर फेंक देंगे। हम आपको रौंदकर निकल जायेंगे। आल्पस के बारे में दुनिया यह कहती थी कि आज तक इसको कोई पार कर नहीं सका। नैपोलियन के संकल्प ने उसे पार कर दिया। यह है आदमी का विश्वास, आदमी का संकल्प। आदमी का यह संकल्प, यह विश्वास बड़ा जबरदस्त है।’’
मित्रो! यह पृथ्वी, जिस पर आप सवार हैं, जिस पर आप निवास करते हैं, एक जगह पर इसका एक बैलेन्सिंग प्वाइंट है। इसको अगर आप तलाश कर लें और वहाँ चले जायँ। और वहाँ घूँसा मार दें। आप जानते हैं कि इससे पृथ्वी में क्या हो सकता है? यह पृथ्वी अपनी जिस कक्षा में घूम रही है, उस कक्षा को छोड़ देगी और कहीं ऐसी जगह घूमने लगेगी। इतनी लम्बाई-चौड़ाई में घूमने लगेगी। हो सकता है, आपका चौबीस घंटे का दिन सौ घंटे का होने लगे। यह भी हो सकता है कि उसमें सर्दी या गर्मी बेहद हो जाय और यह भी हो सकता है कि हमारी पृथ्वी दूसरे ग्रह में टक्कर मारे और चकनाचूर हो जाय, अगर एक आदमी एक घूँसा मार दे तब। पृथ्वी जड़ है और हम चेतन हैं। चेतन के संकल्प से विज्ञान की सारी प्रगति दिखाई पड़ रही है। कैसे? उद्यान के तरीके से, बगीचे के तरीके से, नुमाइश के तरीके से बनाकर खड़ा कर दिया। यह आदमी के संकल्प का फल है। आज से दो करोड़ वर्ष पूर्व आपने जन्म लिया होता, तो मालूम पड़ता कि यहाँ क्या कर रखा है? तब यहाँ गड्ढे-ही थे। यहाँ पर कुछ नहीं था, लेकिन मनुष्य ने कैसे खुशहाल बना दिया। कैसे यहाँ ताजमहल बने हुए हैं, बिजली घर बने हुए हैं। यह आदमी के संकल्प का परिणाम है। आदमी के परिश्रम का परिणाम है।
मित्रो! फरहाद चला गया और पहाड़ खोदने लगा। पहाड़ खोदते समय पहले लोगों ने उसका खूब मजाक उड़ाया, असहयोग किया। फिर कहा कि अच्छा हम तेरी मदद करेंगे, क्योंकि जब नहर बनेगी, तो हमारे यहाँ भी आ सकती है। हमको भी पानी मिल सकता हैं। सब चिपक गये। चिपक जाने के बाद में बड़ा मजा आया। नहर बनकर तैयार हो गयी। यह है मनुष्य का संकल्प और मनुष्य का परिश्रम। तो क्या संकल्प और परिश्रम में, विश्वास में भगवान मदद करता है? हाँ बेटे, भगवान भी मदद करता है। टिटहरी क्या कर रही थी? समुद्र टिटहरी का अंडा बहा ले गया था। टिटहरी ने अपनी चोंच में बालू भरकर उसमें डालना शुरू कर दिया। उसने कहा-हमारे अंडे दीजिए। समुद्र ने कहा कि हम नहीं देते। अच्छा, तो हम आपको सुखा देंगे। अच्छा, तू हमें सुखा देगी? हाँ, सुखा दूँगी; क्योंकि हमने संकल्प किया है कि अपने अंडे लेकर रहूँगी।
मित्रो! आदमी का संकल्प, प्राणी का संकल्प, चेतना का संकल्प कितना शक्तिशाली होता है, इसे गिलहरी ने प्रत्यक्ष कर दिखाया। चेतना का संकल्प ले करके ऋषि बैठे हुए थे। वे दूर से दूरबीन से देख रहे थे और कह रहे थे कि ओह! चेतन प्राणी! जो यह संकल्प लेकर चला है—‘‘डू आर डाइ’’ अर्थात हम करेंगे या मरेंगे। तू धन्य है। तेरा संकल्प पूरा होकर रहेगा। अगस्त्य ऋषि ने कहा-तेरा संकल्प हम पूरा करेंगे और उन्होंने समुद्र का सारा पानी एक चुल्लू में पी लिया। मित्रो! यह कहानी भी हो सकती है, लेकिन इसके पीछे जो सिद्धान्त है, वह सोलह आने सच है कि जब तू काम करने के लिए खड़ा हो जायेगा, पुरुषार्थ करने के लिए खड़ा हो जायेगा, तो ढेरों आदमी तेरी मदद करेंगे। भगवान तेरी सहायता करेंगे, दूसरे लोग सहायता करेंगे, हजारों लोग सहायता करेंगे। बेटे, तेरा रास्ता खुलता हुआ चला जायेगा। तू हमारा यह सिद्धान्त मान ले, हम तेरी बात मान लेंगे कि यह एक कहानी है और यह गलत है कि आदमी के पेट में समुद्र कैसे समा सकता है और जब वह पेशाब करने बैठेगा, तो कितना टाइम लगेगा? हजारों-लाखों वर्ष लग जायेंगे। कहाँ तक पेशाब करेगा? लेकिन हमारी यह बात सही है कि आदमी का संकल्प इतना तीखा, इतना पैना होता है कि दुनिया को बदल सकता है।
मित्रो! कर्म की विशेषता यह है कि इसमें ईमानदारी जुड़ी हुई हो, शक्ति जुड़ी हुई हो, संकल्प जुड़ा हुआ हो। काम में इतना अधिक मजा आने लगे कि आदमी भूल जाय कि इसमें हमको फल मिलेगा, आनन्द मिलेगा। फल तो बेटे हमारे हाथ में नहीं है। आपने परीक्षा की तैयार की, लेकिन हम आपको यह वायदा नहीं कर सकते कि आप पास हो जायेंगे, या फेल हो जायेंगे, क्योंकि यह परिस्थितियों पर टिका हुआ है। संभव है कोई ऐसा परचा-पेपर आ जाय, जो आपको नहीं मालूम हो। संभव है कि कॉपी चेक करने वाला आदमी गुस्से में भरा बैठा हो और उसका मूड खराब है। और वह तीस नम्बर की जगह ग्यारह नम्बर दे दे और आपको फेल कर दे। यह परिस्थितियों के ऊपर है। यह आपके हाथ की बात नहीं है। काम के परिणाम आपकी मर्जी से मिलेंगे, बेटे! हम यह वायदा नहीं कर सकते। काम के परिणाम में आदमी का श्रम एक इकाई है। बाकी इकाइयाँ नहीं हैं। बहुत सी चीजों को मिला करके सफलता मिलती है। इसलिए सफलता के लिए पराश्रित न हो। जब हम काम में ही संतोष करने लगे, काम और श्रम हमको ऐसा मालूम पड़ने लगे कि हम किसी फल का इंतजार करने के लिए खुशी को साथ में न बेचें। काम को खुशी के साथ मिलाकर रखें। इसे ही कर्मयोग कहते हैं।
मित्रो! हमने काम किया; ईमानदारी से किया, पूरी जिम्मेदारी से किया, पूरे मन से किया, तब भी यदि असफलता मिली, तो हम क्या कर सकते हैं। बेटे! बहुतों को असफलता मिली है। असफल होना कोई गुनाह नहीं है। असफल होना बेइज्जती नहीं है। दुनिया में ढेरों आदमी असफल हुए हैं, लेकिन उन्होंने काम को ईमानदारी से किया, जिसका उन्हें घमंड बना रहा, गर्व बना रहा। ईसामसीह सफल हुए कि असफल? ईसामसीह ने सारी जिंदगी भर धर्म का प्रचार किया। उनके तेरह चेले बने। तेरह में से क्या हुआ? उनके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी हुआ। उनके ऊपर तीस रुपये का इनाम था कि जो कोई भी ईसामसीह को गिरफ्तार करवा देगा उसे तीस रुपये का इनाम दिया जायेगा। एक चेले ने पुलिस से कहा कि लाइये तीस रुपये, हम अपने गुरु को गिरफ्तार करवा देते हैं, एक चेले ने गुरु को गिरफ्तार करवा दिया और तीस रुपये ले करके चला गया।
ईसामसीह जब गिरफ्तार हो गये, तो उनमें से ग्यारह चेले गायब हो गये। उन्होंने अपने नाम व पते बदल दिए। एक चेला रह गया। जब ईसा मसीह को फाँसी की सजा हुई, तो उनको मजिस्ट्रेट के यहाँ से फाँसी घर ले जाया गया। जब उन्हें ले ज रहे थे, तो वह चेला भी साथ-साथ चला गया और रोने लगा। गुरु की मृत्यु की बात जानकर उसको बड़ा दुःख हो रहा था। पुलिस ने उसको पकड़ लिया। क्यों रे! तू भी इसके संग का है? चेला बहुत घबराया। उसको मजिस्ट्रेट के सामने पेश होना पड़ा। उसने कहा कि मैं कसम खा करके कहता हूँ कि मैं इसे नहीं जानता कि यह कौन है। तो फिर तू रोया क्यों? इसलिए रोया कि बेचारे से गलती हो गयी, जिसकी वजह से फाँसी पर चढ़ना पड़ रहा है।
मित्रो! अब बताइये कि ईसा असफल हो गये कि सफल? असफल। सुकरात असफल थे कि सफल? असफल। भगतसिंह असफल हो गये कि सफल? असफल। झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई असफल हो गयी कि सफल? असफल। ऋषि दधीचि असफल हो गये कि सफल? असफल हो गये। बेचारे को अपनी हड्डियाँ तक देनी पड़ीं। ये सभी नुकसान उठाने वाले लोग हैं, जिनको लोगों ने जिंदगी में बेवकूफ कहा होगा। उल्लू कहा होगा और यह कहा होगा कि धर्म के नाम पर तूने क्या पा लिया-असफलता? इतिहास में-दुनिया में जितने लोग असफल हुए हैं, उनसे ज्यादा सफल हुए हैं; लेकिन जिनको हम असफल होते हुए भी कीर्ति गाते हैं, गौरव गाते हैं, वे वह लोग थे, जिन्होंने सफलता, असफलता के बारे में कभी विचार ही नहीं किया। उन्होंने केवल यही विचार किया कि हम अपना कर्तव्य करते हैं। हमें खुश होना चाहिए। जिन्होंने खुशी को अपनी मुट्ठी में रखा, उन आदमियों को मैं कर्मयोगी कहता हूँ। जो लोग इस बात के इंतजार में लगे रहते हैं कि ऐसा हो जाये, तो खुशी मिल जायगी, वैसा हो जाय तो नाखुशी हो जायेगी। बेटे, अगर उन्होंने परिणामों के ऊपर अपनी खुशी और नाखुशी को मास्टर करके रखा है, तो आपको खुशी के बावत कोई वायदा नहीं किया जा सकता।
मित्रो! परिस्थितियों के बारे में आप कुछ भी गारण्टी नहीं कर सकते। परिस्थितियाँ ऐसी हों कि न हो, परिस्थितियाँ उलटी भी हो सकती हैं और अच्छी भी हो सकती हैं। परिस्थितियाँ आपके हाथ की बात नहीं। वे आपके बेकाबू की बात है। इसलिए कर्मयोग के सिद्धान्त, जो हम आपको सिखाने वाले हैं और जो आपको संपत्तिवान बना सकते हैं, जो आपको प्रगतिशील बना सकते हैं। जो आपके लिए सम्पदायें ला सकते हैं, जो आपके लिए खुशहाली ला सकते हैं। जिसको हम कर्मयोग कहते हैं। बेटे! कर्मयोग बड़ी शानदार चीज है। कर्मयोग केवल सांसारिक चीजों के लिए नहीं, वरन् आदमी की आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी मदद कर सकता है।
जो लोग केवल माला घुमाने को ही भजन मानते हैं, अपने को अध्यात्मवादी कहते हैं, वस्तुतः वह कोई भजन नहीं है, अध्यात्म नहीं है। भजन जो है, अध्यात्म जो है, वह आदमी की क्रियाओं से ताल्लुक रखता है, भावनाओं से ताल्लुक रखता हैं और समूचे व्यक्तित्व से ताल्लुक रखता है। भजन करने वाले हमने डाकू, चोर और हराम-खोर और मक्कार ऐसे-ऐसे देखे हैं, जो भजन के नाम पर न जाने क्या-से करते हैं। डाकुओं को हमने देखा, वे नवरात्रियों में नौ दिन पानी पीकर रहते है और डाका डालते हैं, हत्या करते हैं। कत्ल करते हैं और फिर देवी को बकरा चढ़ाते हैं। देवी के लिए नौ दिन का उपवास करते हैं। इस तरह के चोर और चालाक एवं षड्यंत्र रचने वालों और भजन करने वालों का नाम अध्यात्मवादी नहीं हो सकता। भजन करने वालों को हम केवल पुजारी कह सकते हैं, अध्यात्मवादी नहीं कह सकते। अध्यात्मवादी वे हैं, जिन्होंने भजन को अपने रोम-रोम में, अपनी क्रियाओं में और अपनी विचारणा में शामिल कर लिया है।
मित्रो! मैं क्या कह रहा हूँ? मैं यह कहा कि आप कर्मकाण्ड का, अपनी क्रिया का महत्त्व नहीं समझते। आप ईमानदारी का महत्त्व नहीं समझते, निष्ठा का महत्त्व नहीं समझते, दिलचस्पी का महत्त्व नहीं समझते। तप का महत्त्व नहीं समझते। अगर इन बातों का महत्त्व नहीं समझते तो मैं कैसे मानूँ कि आप अध्यात्म का महत्त्व नहीं समझते हैं और अध्यात्म के सिद्धान्त का महत्त्व समझते हैं। आप तो केवल हवाई बातों पर विश्वास करते हैं, जिनको जादू कहते हैं, चमत्कार कहते हैं। जादू और चमत्कार, इन्हीं के चक्कर में हर आदमी फँसा हुआ है। आपके लिए अध्यात्म माने है—जादू और चमत्कार। नहीं महाराज जी! आप तो ऐसा मंत्र बता दीजिए, जिससे पैसा आये, धन आये, लक्ष्मी आये। आप संतान पाने का मंत्र, लक्ष्मी पाने का मंत्र, मुकदमा जीतने का मंत्र बता दीजिए। बेटे, हमको मंत्र कहाँ आते हैं तो किससे पूछूँ? उनसे पूछकर आ-इंदिरा गाँधी से। क्या पूछूँ? यह पूछ कि आप तो भारतवर्ष की प्रधानमंत्री हैं। आप हमें संतान पाने का, लक्ष्मी पाने का और मुकदमा जीतने का मंत्र बताइये? पागल हो गया है क्या? हमको मंत्र कहाँ आते हैं? तो फिर आपका नाम प्रधानमंत्री क्यों है? बेटे, मंत्र का नाम है-विचार और तंत्र का नाम है-कर्म। विचार का नाम है-मंत्र और कर्म का नाम है-तंत्र। मंत्र और तंत्र, कर्म और विचार।
नहीं महाराज जी! यह तो झगड़ा है। तो आपका क्या चाहते थे? महाराज जी! मैं जादूवाला मंत्र चाहता हूँ। कौन सा वाला? ‘‘ॐ ऐं हृीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।’’ इससे क्या हो जायेगा? तेरा दिमाग खराब हो जायेगा। पागल कहीं का, बेकार की बातें करता है। बेटे, कर्म की, पुरुषार्थ की बातें कर। कर्म, जो हमें महान बनाते हैं, ऊँचा उठाते हैं, उसके बारे में आप तो समझते हैं नहीं। जाने कहाँ-कहाँ से क्या-क्या करते रहते हैं। इस हालत में संपत्ति आ सकती है? ऐसी हालत में संपत्ति नहीं आ सकती। हमको उन्नतिशील जीवन जीने के लिए, संपत्तिवान जीवन जीने के लिए, भौतिक जीवन में उन्नति करने के लिए वह काम करने चाहिए, जो हमने किये हैं। महाराज जी! आपने कौन सा काम किया और कौन सा मंत्र सीखा? बेटे, हमने कई आदमियों से मंत्र सीखे हैं। उनमें से एक तो हमारे गुरु थे—बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संचालक महामना मालवीय जी! वहाँ हमारे पिता जी ले गये थे और हमारा जनेऊ संस्कार कराकर लाये थे। एक गुरु हमारा वह है, जो हिमालय पर रहता है। हमारे बहुत से गुरु हैं। उनमें से एक गुरु महात्मा गाँधी जी भी हैं।
महाराज जी! आप वहाँ से क्या सीख करके आये? वहाँ से हम यह सीख करके आये कि अपने काम में कैसे तन्मय होना, मुस्तैद होना, दिलचस्पी से करना चाहिए। गाँधी जी ने मुझसे कहा—‘बच्चे! यहाँ इस आश्रम में जो भी आदमी आता है, उसको हम कर्मयोग पढ़ाते हैं कि अपने काम को पूरी मुस्तैदी से करना चाहिए, पूरी दिलचस्पी से तन्मयता के साथ करना चाहिए। यही वह मंत्र है जिसे हम सीखकर आये और सांसारिक जीवन में उन्नतिशील और भौतिक जीवन में प्रगतिशील होते हुए चले गये। यह मंत्र हमको गाँधी जी ने सिखाया था और आज हम आपको सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं। आपने कर्मयोग के इन सूत्रों को, मंत्रों को यदि अपने जीवन का अंग बना सके, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप भी महामानवों की श्रेणी में सम्मिलित हो सकते हैं।’
आज की बात समाप्त
॥ ॐ शान्तिः॥