उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
(जून १९७३ में शान्तिकुञ्ज परिसर में दिया गया प्रवचन)
सभ्यता बनाम संस्कृति
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! दैवीय सभ्यता पर जब कभी मुसीबतें आई हैं, लोगों ने जीवन में कठिनाइयाँ उठाकर भी उसकी रक्षा की है। उच्च आदर्शों के लिए त्याग की, बलिदान की संस्कृति रही है-यह देवसंस्कृति। उन दिनों जब लंका की आसुरी सभ्यता का आतंक सब ओर छाया हुआ था, सब जगह त्राहि-त्राहि मची हुई थी। मालूम पड़ता था कि अब न जाने क्या होने वाला है और न जाने क्या होकर रहेगा? अनीति जब बढ़ती है, अवांछनीयताएँ जब बढ़ती हैं, दुष्टताएँ जब बढ़ती हैं, स्वार्थपरताएँ जब बढ़ती हैं, तो मित्रो! सारे विश्व का सत्यानाश हो जाता है। आदमी स्वार्थी होकर के यह सोचता है कि हम अपने लिए फायदा करते हैं, लेकिन वास्तव में वह अपने लिए भी सर्वनाश करता है और सारे समाज का भी सर्वनाश करता है। ये है-आसुरी सभ्यता। इसमें पहले आदमी स्वार्थी हो जाता है और स्वार्थांध होने के बाद में दुष्ट हो जाता है, पिशाच हो जाता है। स्वार्थी जब तक सीमित रहता है, तो वहाँ तक ठीक है, वहाँ तक फायदे में रहता है। लेकिन जहाँ एक कदम आगे बढ़ाया, फिर आदमी नीति छोड़ देता है, मर्यादा छोड़ देता है, सब शालीनताएँ छोड़ देता है और सत्यानाश पर उतारू हो जाता है। यह है आसुरी सभ्यता का क्रम।
लंका की आसुरी सभ्यता उस जमाने में सब जगह आतंक फैला रही थी और सारा विश्व, सारे देश त्राहि-त्राहि कर रहे थे कि अब क्या होने वाला है? हर आदमी अनीति के मार्ग पर चलने का शिक्षण प्राप्त कर रहा था और अनाचार के लिए कदम बढ़ाता हुआ चला जा रहा था-रावण के राज्य में। रावण की इस सभ्यता और संस्कृति में देवसंस्कृति के पक्षधरों को यह विचार करना पड़ा कि इसका प्रतिरोध कैसे किया जाएगा? इसकी रोकथाम कैसे की जाएगी? संतुलन कैसे बिठाया जाएगा? भगवान् ने भी यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि हम धर्म की स्थापना के लिए और अधर्म के विनाश के लिए वचनबद्ध हैं। इसके लिए वे विचार करने लगें कि क्या करना चाहिए? अंत में फैसला हुआ कि अयोध्या से लंका की तुलना में एक ऐसा मोरचा खड़ा करना चाहिए, जो अनीति से लोहा ले सके।
लंका विजय
मित्रो! अयोध्या में लंका के विरुद्ध मोरचा खड़ा किया गया। एक तो मोटी-सी बात यह थी कि रावण बड़ा खराब आदमी था। एक बंदूक लेकर जाइए और उसे मार डालिए, खत्म कर दीजिए। यह क्या है? यह बहुत छोटा-सा तरीका है। इससे कोई संस्कृति नष्ट नहीं हो सकती, परंपराएँ नष्ट नहीं हो सकतीं। व्यक्ति मरते हैं और फिर नए व्यक्ति पैदा हो जाते हैं। रावण के बारे में तो कहावत भी थी कि रामचंद्र जी जब उसके तीर मारते थे, तो नया रावण बनकर खड़ा हो जाता था। बेटे! संस्कृतियाँ मारने से नहीं मरती हैं। वे दूसरे तरीकों से मरती हैं। आसुरी संस्कृति को हम किसी एक व्यक्ति को मारकर नहीं मार सकते।
रावण को मारना तो था जरूर। विचार किया गया। भगवान् ने विचार किया, देवताओं ने विचार किया कि मारने से काम नहीं चलेगा। लंका को नष्ट कर देंगे, रावण को मार देंगे, अमुक को मार देंगे, पर इससे काम नहीं बनेगा, क्योंकि परशुराम जी बहुत दिनों पहले ऐसा एक प्रयोग कर चुके थे। ऐसे लोगों को उन्होंने एक बार मारा, दो बार मारा, तीन बार मारा, पर मारने से काम नहीं चला। दैत्यों को इक्कीस बार मारकर ये यह कोशिश करने लगे कि पृथ्वी से असुरों को हम मिटा देंगे, तो काम चल जाएगा, परंतु काम चला नहीं। आखिर में परशुराम जी ने कुल्हाड़ा नदी में फेंक दिया और उसके स्थान पर फावड़ा उठा लिया। फावड़ा उठाया और नए-नए उद्यान लगाने लगे, बगीचे लगाने लगे। उनकी हार और पराजय ने स्वीकार किया कि कुल्हाड़ी के द्वारा हम यह कार्य नहीं कर सकते कि राक्षसों और असुरों को मारकर दुनिया खाली कर दें। इसके लिए एक और काम करना पड़ेगा, हमको हरियाली लगानी पड़ेगी। यही फैसला अयोध्या के संबंध में हुआ।
देवसंस्कृति का उदय
अयोध्या में देवसंस्कृति का उदय आरंभ हो गया। आसुरी संस्कृति से मुकाबला करने वाली देवसंस्कृति। देवसंस्कृति का उदय कैसे हुआ? वास्तव में अयोध्या में लंका के विरुद्ध मोरचाबंदी शुरू हो गई थी। कैसे हुई थी? बेटे! वे परंपराएँ आरंभ की गईं, जिनको देख करके दूसरों की हिम्मत बढ़ती है, हौसले बढ़ते हैं। हौसले बढ़ाने के लिए बेटे, व्याख्यान एक तरीका तो है और हम काम में भी लाते हैं, लेकिन वह प्रारंभिक तरीका है। उपदेश करना और शिक्षण करना ये भी ठीक है। प्रारंभिक जानकारी के लिए यह भी अच्छा है, लेकिन उपदेश करने से, व्याख्यान देने से प्रेरणाएँ नहीं मिलतीं, दिशाएँ नहीं मिलतीं, आवेश नहीं आते, उत्साह नहीं बढ़ते, जीवन नहीं आते, जोश नहीं आते। तो सत्संग से गुरुजी? नहीं, बेटे! सत्संग से भी नहीं, और कलम से? कलम से तो आप बहुत अच्छा लिखते हैं। बेटे, हम अभी और अच्छा लिखेंगे, पर अगर आपका ये ख्याल है कि कलम से लिख करके आप अपना काम चला सकते हैं, तो अगर ऐसी बात रही होती, तो अब तक संपन्न लोगों ने ये काम, जो दुनिया चाहती है, बना सकते थे। अख़बार प्रतिदिन लाखों की संख्या में छपते हैं। जापान, शिकागो में एक-एक अख़बार करीब-करीब पचास लाख रोज छपता है। अपने हिन्दुस्तान में सबको मिलाकर पचास लाख तादाद होगी। एक ही अखबार जब इतना छपता है; तो इतने आदमियों तक विचार एक ही दिन में पहुँच जाते होंगे? हाँ, बेटे पचास लाख आदमियों तक अखबार के विचार एक ही दिन में पहुँच जाते हैं, लेकिन अगर कलम की दृष्टि से और छापेखाने की दृष्टि से लोगों का विचार-परिवर्तन संभव रहा होता, तो वह हमने कब का कर लिया होता।
और गुरुजी! वाणी के द्वारा? वाणी के द्वारा संभव रहा होता, तो बेटे रेडियो स्टेशन जिनके पास हैं, उनको वाणी के द्वारा व्याख्यान करने की जरूरत नहीं थी। दिल्ली से लेकर और कितने रेडियो स्टेशन हैं, वहीं पर एक-एक आदमी आराम से बैठा दिया होता और एक-एक ‘स्पीच’ झाड़नी शुरू कर दी होती, तो सारे-के-सारे देश के लोगों तक आवाज पहुँच सकती थी और उससे आसुरी सभ्यता का, अनाचार का, अनावश्यक परिस्थितियों का निवारण कर सकना संभव रहा होता। क्या ऐसा संभव हो सकता है? नहीं, ऐसा संभव नहीं हो सकता।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्
इसीलिए मित्रो! देवताओं को क्या करना पड़ा कि अयोध्या से दैवी सभ्यता की शुरुआत करनी पड़ी। कैसे शुरुआत करनी पड़ी? वहाँ जो आदमी छोटे से खानदान में थे, उन्होंने कहा कि हम अपने नमूने पेश करेंगे लोगों के सामने कि दैवी सभ्यता कैसी हो सकती है और हम इस सभ्यता का विकास क्यों करना चाहते हैं? दैवी सभ्यता के पीछे क्या परिणाम निकल सकते हैं? ये साबित करने के लिए दशरथ के कुटुंब ने, परिवार ने उसी तरह के नमूने पेश करने शुरू कर दिए, जैसे कि लंका वालों ने किए थे। उन्होंने क्या पेश किए? बेटे, सबके सब एक दिन इकट्ठा हो गए और फैसला करने लगे कि हम बड़े काम करके दिखाएँगे, ताकि दुनिया समझे कि दैवी सभ्यता क्या हो सकती है और दैवी सभ्यता का अनुकरण करने के लिए जोश और जीवट कैसे उत्पन्न किया जा सकता है?
विश्वामित्र जी ने वहाँ से शुरुआत की और राजा दशरथ से कहा कि आप अपने बच्चे हमारे हवाले कीजिए। उन्होंने कहा कि बच्चे तो हमको जान से भी प्यारे हैं। उन्हें हम आई.ए.एस. बनाएँगे, पी.सी.एस. बनाएँगे। आप इन्हें कहाँ ले जा सकते हैं? विश्वामित्र ने कहा, आई.ए.एस., पी.सी.एस. तो पीछे बनते रहेंगे, पहले इन्हें मनुष्य बनना चाहिए और देवता बनना चाहिए। विश्वामित्र और दशरथ जी के बीच जद्दोजेहद तो बहुत हुई, लेकिन दैवी सभ्यता की, संस्कृति की शुरुआत तो कहीं से करनी ही थी। विश्वामित्र ने रजामंद कर लिया और कहा, बच्चे हमारे हवाले कीजिए। क्या करेंगे इनका? दैवी सभ्यता का शिक्षण करेंगे और ये दोनों अनीति के विरुद्ध संघर्ष करेंगे। अरे गुरुजी, ये तो छोटे बच्चे हैं। नहीं, वे छोटे बच्चे नहीं हो सकते। जो व्यक्ति सत्य का हिमायती हुआ, वह कभी छोटा नहीं हुआ। सत्य का हिमायती हमेशा बलवान् रहा है और जोरदार रहा है। उसके सामने चाहे वह मारीचि ही क्यों न हो, सुबाहु ही क्यों न हो, चाहे वह खर-दूषण ही क्यों न हो, कोई भी क्यों न हो, वह कमजोर ही रहेगा और उसको हारना पड़ेगा, झख मारनी पड़ेगी। विश्वामित्र जी ने राजा दशरथ को समझा दिया और वह शिक्षण देने के लिए, जो योगियों और तपस्वियों के आश्रम में रह करके पाया जाना संभव है, दोनों बच्चों को ले गए।
शुरुआत व्यावहारिक जीवन से
ये क्या होता है? बेटे! ये दैवी सभ्यता की शुरुआत होती है। यह न तो व्याख्यान से हुई, न कथा से हुई और न सत्संग से हुई। कैसे हुई? व्यावहारिक जीवन से हुई। इससे कम में नहीं हो सकती। कोई श्रेष्ठ परंपरा स्थापित करने के लिए व्यक्तिगत जीवन का आदर्श उपस्थित किए बिना दुनिया इधर-उधर नहीं हो पाएगी। कथा, व्याख्यान, सत्संग आदि सब खेल-खिलौने हैं। इनसे हम उसी तरह रास्ता बनाते हैं, जिस तरह रेलगाड़ी के लिए पटरी बनाते हैं। लेखनी के द्वारा, वाणी के द्वारा, प्रचार माध्यमों के द्वारा, जनसाधारण की शिक्षा के द्वारा, सत्संगों के द्वारा, कथाओं के द्वारा हम रेलगाड़ी की पटरी बनाते हैं, बस। फिर रेलगाड़ी कहाँ से चलेगी? रेलगाड़ी तो बेटे, अपने व्यक्तिगत आदर्श उपस्थित करने से पैदा होती है। इससे कम में हो ही नहीं सकती। इस तरह उन्होंने पटरी बनाई और वहीं से शुरुआत हुई। पीछे सबने फैसला लिया कि हम दैवी संस्कृति, दैवी सभ्यता का स्वरूप क्या हो सकता है, उसको बताने के लिए एक-से-एक बढ़िया त्याग करेंगे और बलिदान करेंगे। सारी-की-सारी उस कंपनी ने, कमेटी ने फैसला कर लिया कि हम दुनिया को बताते हैं कि रामराज्य कैसे हो सकता है।
रामराज्य कैसे आया?
मित्रो! रामराज्य का बीज अयोध्या में बोया गया और वह भी एक छोटे-से खानदान में। कैसे बो दिया गया? बेटे! ऐसे बो दिया गया कि थोड़े-से आदमी थे, लेकिन वे एक-से-एक बढ़िया त्याग करने पर उतारू हो गए। रामचंद्र जी ने कहा कि राजगद्दी क्या होती है? इससे तो वनवास बेहतरीन है। इनसान को क्या चाहिए? पैसा चाहिए, विलासिता चाहिए, नौकरी में तरक्की चाहिए, प्रमोशन चाहिए, लेकिन उन लोगों ने कहा कि हमें त्याग चाहिए, बलिदान चाहिए। त्याग और बलिदान से आदमी महामानव बनता है, महापुरुष बनता है, तपस्वी बनता है, ऐतिहासिक पुरुष बनता है और पैसे से? पैसे बढ़ने से आदमी बनता है धूर्त और ढोंगी। और क्या बनता है? न जाने क्या-क्या बनता है।
मित्रो! क्या हुआ? उन्होंने त्याग और बलिदान के लिए, आदर्श उपस्थित करने के लिए ये फैसले किए कि हमको अब बड़े कदम उठाने चाहिए, ताकि रावण की लंका को नीचा दिखा सकें। रामचंद्र जी ने कहा कि हम ऋषियों के आश्रम में जा करके वनवासी जीवन जीने के लिए, तपस्वी जीवन जीने के लिए रजामंद हैं और राजपाट छोड़ने के लिए रजामंद हैं। परिस्थितियाँ ऐसी बन गई थीं और रामचंद्र जी जटा-जूट बाँधकर नंगे पैर जंगलों में चलने और वनवास में रहने के लिए उतारू और आमादा हो गए। लक्ष्मण जी ने कहा कि भाई-भाई के बीच में कैसी मोहब्बत होनी चाहिए, इसका आदर्श उपस्थित करने के लिए मुझे भी रामचंद्रजी का अनुकरण करना चाहिए। वह औरंगजेब वाला अनुकरण नहीं, जिसने बाप को कैद कर लिया था और भाइयों को मार डाला था। वह नहीं बेटे, दूसरा वाला आदर्श। उसके लिए क्या करना पड़ेगा? उसके लिए दैवी संस्कृति की सभ्यता की स्थापना करनी पड़ेगी, ताकि लोगों के भीतर से उमंगें, जोश, जीवट, एक-दूसरे के नमूने देख करके पैदा हो सकें।
साथ अपनों ने दिया
लक्ष्मण जी ने कहा, सिद्धांतों के लिए भाई को भाई के लिए क्या करना चाहिए और सुखों की अपेक्षा दुःखों का वरण कैसे करना चाहिए, इसके लिए हमने फैसला किया है कि हम आपके साथ-साथ रहेंगे और आपकी निगरानी करेंगे। सीता जी ने भी कहा कि तप और त्याग के मामले में हम पीछे नहीं रह सकते। आपको वनवास हुआ है, लेकिन देवर जी को नहीं हुआ है, फिर भी वे राज-पाट के विलासी जीवन की अपेक्षा वनवासी जीवन को श्रेष्ठ समझते हैं, इसलिए हमको भी विलासी जीवन स्वीकार नहीं है। हम भी वनवासी जीवन स्वीकार करेंगे। सीता जी रजामंद हो गई और वे भी चलने लगीं। बेटे, मैं देखता हूँ कि अयोध्या में ऐसे बीज बोये गए, जो कल्पवृक्ष की तरह उगे। कौशल्या जी ने अपने बच्चे के सिर पर हाथ फेरा और यह कहा कि जब तुम्हारी माता ने आज्ञा दी है, तो तुम वनवास जा सकते हो। उन्होंने भी छाती पर पत्थर रख करके उन्हें आज्ञा दे दी। किसके लिए? दैवीय संस्कृति के, दैवीय सभ्यता के विकास के लिए, त्याग और बलिदान करने के लिए।
मित्रो! दैवीय संस्कृति वह है, जो त्याग के लिए, बलिदान के लिए प्रोत्साहन देती है और आगे बढ़ाती है और दैत्यों की सभ्यता, राक्षसों की सभ्यता वह है, जो न स्वयं श्रेष्ठ काम करते हैं और न किसी को करने देते हैं। न चलते हैं और न चलने देते हैं और पत्थरों के तरीके से, जंजीरों के तरीके से जकड़ करके बैठ जाते हैं। ये राक्षस हैं, दुष्ट हैं और पिशाच हैं, जो सिद्धांतों के लिए, त्याग के लिए, बलिदान के लिए मार्ग में अड़ंगे लगाते हैं और ये कहते हैं कि अय्याशी अच्छी चीज है, मालदार होना बहुत अच्छी बात है, जमाखोरी बहुत अच्छी बात है। आप भी विलासी होइए और हमको भी विलासी होने दीजिए। मित्रो! ये हमारे खानदान वाले नहीं हैं। ये हमारे दुश्मन हैं।
सब एक दूसरे से बढ़कर
मित्रो! कौशल्या जी ने कहा कि आप वनवास जा सकते हैं। हम आपको आज्ञा देते हैं, आप खुशी-खुशी जाएँ। इस मामले में कोई भी पीछे नहीं रहा। सुमित्रा ने अपने बेटे लक्ष्मण से कहा कि बेटे, अगर तुम्हारे बड़े भाई वनवास जा रहे हैं, तो मैं त्याग के रास्ते पर, बलिदान के रास्ते पर चलने से तुम्हें नहीं रोक सकती। सुमित्रा ने कहा, ‘‘जो पै सीय रामु वन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं।’’ अयोध्या में तुम्हारा काम नहीं है। यहाँ के विलासी जीवन में, अय्याशी के जीवन में तुम्हारा कोई काम नहीं है। माँ ने छाती पर पत्थर रखकर के सिर पर हाथ फिराया, आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम जाओ वनवास। न केवल माँ ने वरन् उनकी पत्नी उर्मिला ने भी कहा कि ठीक है, आप श्रेष्ठ काम के लिए जा रहे हैं, तो मैं ऐसी घटिया नहीं हूँ, जो आपके भावी जीवन को रोक सकूँ। आप चौदह वर्ष के लिए वनवास जाइए। आप चौदह वर्ष ब्रह्मचर्य से रह सकते हैं, मैं भी ब्रह्मचर्य से रह सकती हूँ। आप एक आदर्श स्थापित करने के लिए चल पढ़िए।
बेटे! ये क्या हो गया? सभ्यता की शुरुआत हो गई। ये कौन-सी सभ्यता थी? ये दैवीय सभ्यता थी, जिसने राक्षसों को परास्त किया। तो क्या रामचंद्र जी ने रावण को मार डाला था? बेटे, रावण को मारने भर से कोई परास्त नहीं हो सकता था। नये आदमी फिर से पैदा हो सकते थे। युद्धों के नतीजे हमने देख लिए हैं। पहला वर्ल्ड वार जब पैदा हुआ था, तो उसके पेट में उसी दिन दूसरे युद्ध का बीजारोपण हो गया था। उसमें से दूसरा वाला जो राक्षस निकला, वह पहले वाले से भी ज्यादा भयंकर था और जब ‘सैकंड वर्ल्ड वार’ हुआ तो उसने भी बहुत बड़ा विनाश किया और लोगों से कहा कि जो भी बुरे आदमी हैं, दुश्मन हैं, उन सबको हम मार डालेंगे और सबकी हत्या कर देंगे। हम तोप चलाएँगे, बम चलाएँगे और सफाया कर देंगे।
भविष्य की अशुभ संभावनाएँ
मित्रो! हम देखते हैं कि ‘सैकंड वर्ल्ड वार’ अभी खत्म नहीं हुआ है। ‘थर्ड वर्ल्ड वार’ के लिए ऐसा सर्वनाशी वातावरण अभी से तैयार हो रहा है। बेटे, बच्चा पेट में बैठा हुआ है और जगमगा रहा है। वह बार-बार मुँह चलाता रहता है और फिर पेट में घुस जाता है, उसी तरीके से जैसे कंगारू। कंगारू एक जानवर होता है। उसके पेट में एक थैली होती है, जिसमें बच्चे बैठे रहते हैं, उसी में मुँह चलाते रहते हैं और फिर पेट में घुस जाते हैं। ‘थर्ड वर्ल्ड वार’ अभी अपनी माँ के पेट में बैठा हुआ है, लेकिन जब वह माँ के पेट से निकलेगा, तो सफाया करेगा। किसका सफाया करेगा? सरस्वती फिर दुनिया में रहेगी नहीं और मनुष्य जाति का अस्तित्व दुनिया में रहेगा नहीं। अक्ल दुनिया में रहेगी नहीं, जिसके बल पर अभी मनुष्य मरने-मारने और लड़ने पर उतारू हुआ है। ये सभ्यता फिर जिंदा रह नहीं सकती, क्योंकि तीसरा वाला बच्चा जो पेट में बैठा हुआ है, वह सबको मार डालेगा।
मित्रो! बट्रेड रसेल ने ठीक कहा था कि ‘थर्ड वर्ल्ड वार’ के पश्चात् फिर एक और ‘वार’ होगा अर्थात् चौथी लड़ाई भी होगी, लेकिन इस लड़ाई में क्या होगा? चौथी लड़ाई में आदमी ईंट और पत्थरों का उपयोग करेगा, फिर टैंकों का उपयोग न हो सकेगा। ईंट और पत्थरों का उपयोग क्यों होगा? क्योंकि तब मनुष्य बुद्धिहीन हो जाएँगे। तब जो कुछ प्राणी बचेंगे, वे इतने बेअकल, इतने साधनहीन और इतने असहाय हो जाएँगे कि ढेला फेंकने के अलावा लाठी चलाने लायक भी नहीं रह जाएँगे। उनके पास तब न इतनी अकल रहेगी, न साधन रहेंगे, न संपदा रहेगी। सबका सफाया हो जाएगा।
बेटे, मैं जानता हूँ कि संसार में जो मारक प्रकियाएँ हैं, वे आदमी को समाप्त नहीं कर सकतीं। इनसे कोई समाधान नहीं हो सकता। नहीं साहब हम तो मारेंगे। अच्छा है मारिए। मैं तो हिमायती हूँ मारने का, क्योंकि ऑपरेशन में मारक तत्त्व ही काम करता है। आँख में मोतियाबिंद है, मुश्किल से पाँच सैकंड में ऑपरेशन करके झिल्ली को उतारकर फेंक दिया और खट् से बंद कर दिया। आँख कितने दिन में अच्छी हुई? आँख तो बेटे पंद्रह दिन में अच्छी हुई। पंद्रह दिन क्या होता रहा? मरहम लगाया जाता रहा, पट्टी लगाई जाती रही, ड्रेसिंग होती रही। जख्म को अच्छा करने का प्रयत्न किया जाता रहा। मारक तत्त्वों की कभी जरूरत भी पड़ सकती है, मैं तो यह नहीं कह सकता कि जरूरत नहीं है, और कभी होगी नहीं। कभी जरूरत हो भी सकती है, लेकिन ज्यादा जरूरत नहीं है। दानवी सभ्यता, जिसने कि हमारे सारे-के-सारे मानव समाज को बुरे तरीके से जकड़ रखा है, इसको मारने के लिए वो तत्त्व काफी नहीं है, जिनको राजनीति वाले हथियारों के रूप में प्रयोग करना चाहते हैं और हम किस तरीके से प्रयोग करना चाहते हैं? हम संघर्ष के द्वारा करना चाहते हैं, घेराव के द्वारा करना चाहते हैं, सत्याग्रह के द्वारा लड़ना चाहते हैं। क्या इससे वे दूर हो जाएँगे? नहीं, इससे वे दूर नहीं हो सकते।
देवताओं का आना जरूरी
फिर कैसे दूर हो सकते हैं? मित्रो! दैत्यों को मारने के लिए देवता का पैदा होना आवश्यक है। दैत्य को दैत्य भी मार सकता है। दो राक्षस थे। दोनों आपस में लड़े। मरे तो सही दोनों, लेकिन दोनों के मरने के बाद में फिर नए राक्षस पैदा हो गए। नई पौध तैयार हो गई। दैत्यों को मारने के लिए देवताओं की जरूरत हुई। अयोध्या में देवता पैदा किया गया। देवता कैसे पैदा किया? बेटे, देव परंपराएँ पैदा कीं। देव परंपराओं का नाम है, देवता। छोटे-से कुटुंब ने लोगों के सामने नमूने प्रस्तुत किए, सिद्धांतों के लिए, आदर्शों के लिए, लोकहित के लिए। दूसरे लोग कहते रहे, इसमें हमारा कोई लाभ नहीं है। राक्षसों ने हमारे ऊपर हमला नहीं किया है, रावण ने हमको कोई नुकसान नहीं पहुँचाया है, लेकिन अयोध्यावासियों ने कहा कि हम दैवी सभ्यता की स्थापना करने के लिए अपने क्रियाकलाप करते हैं और अपनी लीलाएँ करते हैं। इसका परिणाम क्या हुआ? बेटे, परिणाम यह हुआ कि दैवीय संस्कृति-दैवीय सभ्यता पनपने लगी, बढ़ने लगी।
कैसे बढ़ी? आपने देखा नहीं? वानरों ने, रीछों ने ये कहा, अगर मनुष्य दैवीय सभ्यता को जीवन में ढाल सकते हैं, तो हमको भी ऐसा जीवन ढालने में क्या आपत्ति हो सकती है और हम भी ऐसा जीवन ढालने में क्यों पीछे रहेंगे? रीछ-वानर अपनी जान हथेली पर रखकर तैयार हो गए।
देवता कौन?
दैवीय सभ्यता क्या होती है? क्या वह मिठाई खाती है, महल बनाती है? नहीं बेटे, ऐसी नहीं होती है-दैवीय सभ्यता। दैवीय सभ्यता ऐसी होती है, जिसमें एक ही वृत्ति रहती है, ‘‘हम देंगे।’’ देने के लिए वह अपना समय खरच करती है, श्रम खरच करती है, साधन खरच करती है और अपनी अक्ल खरच करती है और बदले में मुसीबतें उठाने के लिए तैयार रहती है। यही है दैवीय सभ्यता। दैवीय सभ्यता का एक ही स्वरूप है कि हम व्यक्तिगत जीवन में कठिनाइयाँ उठाएँ। किसके लिए? सारे समाज के लिए, धर्म के लिए और संस्कृति के लिए। हम इनके संवर्द्धन के लिए कष्ट उठाएँ और इन्हें आगे बढ़ाएँ। दैवीय सभ्यता इसी का नाम है। बस न इससे कम और न ज्यादा। देवताओं का स्वरूप यही है। देवता वह नहीं है, जो अय्याशी करते रहते हैं, मौज उड़ाते रहते हैं, कल्पवृक्ष के नीचे बैठे रहते हैं। देवता उन लोगों के नाम हैं, जो जीवन भर लोगों के लिए कठिनाइयाँ उठाते हैं। इंद्र देवता होता है। देवता कौन-सा होता है? बेटे, बादल समुद्र में से पानी ढो-ढो करके बड़ी मुश्किल से लाते हैं। वे कितनी मुश्किल और कितना कष्ट उठाते हैं और हमें बिना जानकारी दिए, हमारे धन्यवाद की अपेक्षा किए बिना चुपचाप हमारे खेतों में पानी बरसा जाते हैं। ये देवता हैं। इससे न ज्यादा होने की जरूरत है और न इससे कम। जो भी देवता हुआ है, वह न इससे कम हुआ और न ज्यादा, ठीक उसी तरीके से जैसे मैंने आपको अभी बादलों का नमूना बताया।
देवसंस्कृति का नमूना खड़ा करना होगा
मित्रो! वानर और रीछ किससे प्रेरित हुए? अयोध्या वालों से प्रेरित हुए। उनसे प्रेरित होकर उन्होंने कहा कि देव सेना में हम भी भरती होते हैं और देवत्व के संरक्षण के लिए हम भी कदम बढ़ाते हैं; वे चल पड़े। क्या नतीजा हुआ? ज्यादा विस्तार से नहीं बताना चाहता हूँ, किंतु इसका छोटा-सा स्वरूप झाँकी बनाकर आपको बता सकता हूँ। जब मनुष्य-जाति के लिए मुसीबतें आई हों, भविष्य के लिए आशंका आई हो कि हमारा भविष्य अंधकारमय होने वाला है, जैसा कि आज हमको दिखाई पड़ता है, तो क्या करना पड़ेगा? उपाय एक ही है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। अब हमको दैवीय सभ्यता का ढाँचा खड़ा करना पड़ेगा, नमूना खड़ा करना पड़ेगा। नहीं साहब! हम राक्षस को मारेंगे। अरे बेटा वह मरेगा नहीं। हम उसको गालियाँ देंगे, विरोध करेंगे। बेटे, इससे भी कुछ बनने-बिगड़ने वाला नहीं है। असली विरोध इस बात का है कि हम उसके मुकाबले में ऐसी जबरदस्त तैयारी करें, जिससे प्रेरणा लेकर के, प्रभावित हो करके लोग उस रास्ते पर चलें। उस पर चलने के लिए यह आवश्यक है कि आदमी दैवीय सभ्यता के अनुरूप त्याग और बलिदान करने के लिए तैयार हो जाएँ।
मित्रो! यही था रावण मारने का उपाय। सारे-के-सारे लंकाकाण्ड का जो परिणाम मैंने देखा, वह यह कि त्याग करने के लिए, बलिदान करने के लिए हर आदमी तैयार हो गया। छोटे-छोटे जानवर भी तैयार हो गए। रीछ-वानर तो तैयार हो ही गये थे, कुछ और पक्षी श्रेणी के भी तैयार हो गए। उनमें से एक गिलहरी आई और बोली, आपकी सहायता के लिए हम त्याग करेंगे और सहयोग करेंगे। क्या करेगी? हम कष्ट उठाएँगे और मशक्कत करेंगे। फिर फायदा क्या होगा? हम उस पुल के लिए रास्ता खोलेंगे, जिस पुल पर से होकर ये रीछ-वानर पार हो सकें और रावण को मार सकें। इसलिए हम समुद्र को पाटने के लिए अपने बालों में मिट्टी भरकर ले जाएँगे और उसमें डालेंगे।
भावना महत्त्वपूर्ण
ये क्या था? ये दैवीय सभ्यता है बेटे और कुछ नहीं है। गिलहरी कौन थी? मुझे गिलहरी का जिक्र करने की जरूरत नहीं है। मैं गिलहरी के पीछे नहीं पड़ना चाहता। मैं तो दैवीय सभ्यता की बात कहता हूँ। दैवीय सभ्यता जहाँ कहीं भी हुई है, वहाँ रावण मरे हैं, कुंभकरण मरे हैं, आततायी मरे हैं और वहाँ रामराज्य आया है, सतयुग आया है, धर्मयुग आया है, अगर लोगों ने गिलहरी के तरीके से अपने नमूने पेश करने की कोशिश की है। निःस्वार्थ भाव से जनहित के लिए, श्रेष्ठ परंपराओं के संरक्षण के लिए त्याग और बलिदान का जहाँ सवाल आया, वहाँ गिलहरी ने नमूना पेश किया। बेटे, गिलहरी की कथा कहते-कहते हमारा मन नहीं भरता। गिलहरी ने क्या किया। परंपरा कायम की? गिलहरी की जरा-सी मिट्टी से क्या हो गया? बालू की नहीं, भावना की बात चल रही है। भावना जरा-सी हो, चाहे छोटी हो या बड़ी हो, बड़ी जबरदस्त होती है और दुनिया में बहुत काम करती है।
मित्रो! रामराज्य स्थापित हुआ था। रामराज्य किसने स्थापित किया था? छप्पर फाड़ करके रामराज्य गिरा था या पोटली में बाँध करके देवता रख गए थे। गुरुजी रामराज्य कौन-सी तारीख को आएगा? युग निर्माण कब हो जाएगा? क्यों तू क्या करना चाहता है? मुझे क्या पता कब तक हो जाएगा? मित्रो! क्या करना पड़ेगा कि जब परंपराएँ इस तरह की दिखाई पड़ती हों, तब आप विश्वास करना कि अब रामराज्य आने ही वाला है। किस तरीके की परंपराएँ दिखेंगी तब? जैसे कि छोटे-छोटे पखेरुओं ने करके दिखाईं। गीधराज एक कोंतर में बैठा हुआ था और मजे से दिन काट रहा था। लेकिन उसको मौज के दिन काटना सहन नहीं हुआ। अनीति देखकर एक दिन वह तिलमिला गया और कहने लगा, यहाँ ये अनीति फैल रही है। किसी की बेटी का अपहरण ऐसे हो रहा है, तो हम जिंदा इन आँखों से नहीं देखेंगे। अपनी बेटी हो तो क्या और किसी की बेटी हो तो क्या? अब हम इन जिंदा आँखों से ऐसा अधर्म नहीं देखेंगे। ये ठीक है कि हम रावण को नहीं मार सकते, पर हम स्वयं तो मर सकते हैं। उसे मारना संभव नहीं हो सकता, मैं जानता हूँ। हरेक व्यक्ति पाप और अनीति को मार नहीं सकता, पर मर तो सकता है। मरना भी बहुत बड़ी बात है। बेटे मरने की ताकत मारने की ताकत से भी बहुत बड़ी है, तू जानता नहीं है। पर वह गिद्ध रावण को मार नहीं सका, मैं जानता हूँ, लेकिन उसने स्वयं मरकर वह काम करके दिखाया, जो हजार अँग्रेजों को मारकर के भगतसिंह नहीं कर सकते थे। देश में तहलका नहीं मचा सकते थे।
नेक मकसद के लिए
अरे गुरुजी! मरने में तो हार होती है, पराजय होती है। मरने में नुकसान होता है, घाटा होता है। नहीं बेटे, किसी नेक मकसद के लिए मरना, मारने से भी ज्यादा बहादुरी का काम है। नुकसान करना भी एक बहादुरी का काम हो सकता है। मित्रो! पखेरू ने तो नुकसान उठाया और रावण से लड़ने गया। उसने कहा, हमारे जिंदा रहते आप सीता जी पर हमला नहीं कर सकते, सीता जी को नहीं ले जा सकते। रावण ने कहा, आपके पास ताकत कहाँ है? तलवार कहाँ है? गीध ने कहा, नहीं सही, पर हमारे पास जान तो है और न्याय के लिए, आदर्श के लिए, धर्म के लिए हम मर तो सकते हैं। पखेरू युद्ध के लिए तैयार हो गया। रावण ने उसके पंख काटकर फेंक दिए। तो क्या पखेरू हार गया और रावण जीत गया? नहीं बेटे, पखेरू जीत गया। रामचंद्र जी जब आए, तो उन्होंने पखेरू को छाती से लगा लिया, अपने हाथों से उसके पंखों को साफ किया और अपनी आँखों के आँसुओं से उसके जख्मों को धोया। उसने कहा, भगवान्! मैंने तीनों लोकों का राज्य पा लिया और सब कुछ पा लिया। मैंने यश पा लिया और आज अमर हो गया। हजारों मनुष्यों को युगों-युगों तक प्रेरणा देने के लिए वह एक स्मारक बन गया, प्रकाश स्तंभ बन गया।
सतयुगी परम्परा
मित्रो! आदमी हो या कोई पक्षी हो, बुड्ढा हो, बिना पढ़ा हो या साधनहीन हो, तो भी कम-से-कम उसके भीतर इतनी हिम्मत अवश्य होनी चाहिए कि अनीति का विनाश करने के लिए, लड़ाई लड़ने के लिए सीना तानकर खड़ा हो जाए। बेटे! बड़े-बड़े बादशाहों को तो हम भुला सकते हैं, लेकिन उस पखेरू को हम सदैव याद रखेंगे। उसे हम भुला नहीं सकते। उस पखेरू को न भुलाने का मतलब है, देवपूजन अर्थात् देवत्व का पूजन। बेटे! भारतीय संस्कृति में देवत्व का पूजन करने की परंपरा है। यही परंपरा सतयुग को लाती है, धर्मयुग को लाती है। मानवजाति के उज्ज्वल भविष्य को लाती है। कौन-सी परंपराएँ? जिनको हम दैवीय परंपराएँ कहते हैं। दैवीय परंपराएँ क्या होती हैं? तिलक लगाना, माला जपना, गंगाजी नहाना, सत्यनारायण की कथा कहना आदि, क्या यही दैवी परंपराएँ हैं? नहीं, बेटे! ये तो खेल-खिलौने मात्र हैं। जो इसी खेल-खिलौनों में उलझे रहते हैं, उन्हें हम ‘अफीमची’ कहते हैं, सनकी कहते हैं। काम होता नहीं है, त्याग की बात बनती नहीं-बैठे-बैठे कोने में झपकियाँ लेता रहता है, सनकता रहता है और कहता है कि प्रकाश दिखा दीजिए। घंटी बजा दीजिए, कान में नादब्रह्म सुना दीजिए। पेट में से पिल्ला निकाल दीजिए। उसमें से निकाल दें तेरा सिर।
देवताओं के बेटे कौन?
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? दैवीय सभ्यता यह नहीं है। दैवीय सभ्यता वह है, जिसमें त्याग और बलिदान की बात करनी पड़ती है। बेटे! हजारों वर्षों का इतिहास जब हम पढ़ते हैं, तो हमको दैवीय सभ्यता का यही स्वरूप दिखाई पड़ता है। रामचंद्रजी के बाद श्रीकृष्ण जी का नंबर आता है। श्रीकृष्ण जी का जीवन चरित्र जैसा कुछ भी आता है, उन्होंने जिन लोगों को साथ लेकर के काम शुरू किया था, उन लोगों के नाम थे, पांडव। पांडवों में क्या था? दैवीय सभ्यता थी। पांडव देवताओं से पैदा हुए थे। मैंने सुना है कि कुंती ने देवताओं का जप-पूजन किया था और जप-पूजन करने के बाद में बच्चे पैदा किए थे। कैसे थे पाँच बच्चे? तो क्या उनमें एक था आई.ए.एस. एक था इन्कम टैक्स आफीसर, एक था सी.बी.आई. आफीसर आदि। इस तरह क्या उन्होंने लाखों रुपयों की आमदनी की थी? करोड़ों की जायदाद खरीदकर रख गए थे? तो फिर कुंती का बेटा, देवता का बेटा कौन होता है? क्या वह जिसके पास मोटरें हों, जिसके पास दौलत हो, जिसके पास मकान हो। नहीं, यह आपकी परिभाषा है। देवताओं की परिभाषा अलग थी।
मित्रो! देवताओं के बेटों को कैसा होना चाहिए? अगर कोई देवता का बेटा है, तो उसके व्यवहार में और जीवन में क्या गुण आना चाहिए? इसे हम पाँचों पांडवों के जीवन में देख लेते हैं। हमको सबसे अच्छी घटना पांडवों की याद आती है। हमको अज्ञातवास के समय कुंती अपने बच्चों के साथ एक ब्राह्मणी के यहाँ छिपी हुई थी। उस इलाके में कोई एक राक्षस रहता था। जो वहाँ के हर घर से एक-एक आदमी प्रतिदिन मारने के लिए बुलाया करता था और उन्हें खा जाता था। नंबर के हिसाब से उस दिन ब्राह्मणी के बच्चे का नंबर आ गया। ब्राह्मणी रोने लगी। जब वह बैठी हुई रो रही थी, तो कुंती ने पूछा, बहिन क्या बात है? ब्राह्मणी बोली कि हमारे पास एक ही बच्चा है और उसको आज राक्षस के पास जाना पड़ेगा। उसे मरना ही होगा। अब हम क्या कर सकते हैं?
कुंती ने कहा कि आपने अपनी जान जोखिम में डालकर हमको छिपा रखा है, तो हमारा भी तो कुछ कर्त्तव्य हो जाता है। हम भी तो कुछ करेंगे आपके लिए। उन्होंने कहा, बच्चो! तुम पाँच हो। एक काम करो, यह जो ब्राह्मणी है, इसके एक ही बालक है। इसने अपनी जान जोखिम में डालकर हमको छिपाकर रखा है। इसलिए क्या करना चाहिए बच्चो? तुममें से एक बच्चे को अपना बलिदान कर देना चाहिए और ब्राह्मणी के बच्चे को बचा लेना चाहिए। बच्चों ने कहा, माता जी! इससे बड़ा सौभाग्य हमारा क्या हो सकता है? भीम चले गए और उसे बचा लिया।
सच्चा अध्यात्म
मित्रो! यह क्या है? यह है देवता का मन। देवता का मन वह होता है कि जब उसके जीवन में कोई त्याग करने, बलिदान करने का मौका आता है, तो बल्लियों उछलने लगता है। यह होता है, देवताओं का दिल। और राक्षसों का दिल कैसा होता है? राक्षसों का, चोरों का, घटिया आदमी का दिल यह है कि जब त्याग का वक्त आता है, तो वह थर-थर काँपने लगता है। हर समय जिसकी यही नीयत रहती है कि यह मंत्र जपूँगा, यह तंत्र जपूँगा, यह पूजा करूँगा और इससे यह पैसा कमाऊँगा, यह औलाद पाऊँगा, धन कमाऊँगा। कामना-ही-कामना कामना-ही-कामना जिसके अंदर भरी हुई है, बेटे यह कोई अध्यात्म नहीं है।
ठीक है मित्रो! यह बच्चों का अध्यात्म रहा होगा। मैं यह तो नहीं कहता कि बच्चों को इसकी जरूरत नहीं है। हम मिठाई बाँट करके और कोई लोभ देकर के बच्चों को अपने पास बुला लेते हैं। यह भी अध्यात्म का कोई हिस्सा होगा, पर मैं इसको छूँछ कहता हूँ, भूसी कहता हूँ। किसकी? अध्यात्म की। भूसी कौन-सी जिसमें यह पाया जाता है कि अध्यात्म क्या है। बेटे, यह अध्यात्म का खिलवाड़ है, छिलका है, जूठन का पत्ता है। पत्ते पर मिठाई खाकर के लोग उसे फेंक देते हैं और कुत्ते उसे चाटने के लिए टूट पड़ते हैं, चट कर जाते हैं। यह भी हो सकता है-प्राप्त करने की दृष्टि से। अध्यात्म को हम भौतिक चीजों को पाने के लिए इस्तेमाल करते हैं, इसलिए बेटे, मैं इसको जूठन का पत्ता कहता हूँ। किसी आदमी का खाया हुआ पत्ता फेंक दिया गया, दूसरा कहता है कि हमको भी दे दीजिए। हाँ बेटे, तुझे भी दे देंगे।
आपने क्या किया?
बेटे, हमने तप किया है और तप करके पाया है और तू हिस्सा माँगता है। चल तुझे भी दे देंगे। यह क्या है? छोटी चीज है, रत्तीभर चीज है। न इसमें किसी को घमंड करने की जरूरत है और न सफलता प्राप्त करने की जरूरत है। हमने अध्यात्म से यह पा लिया, वह पा लिया। बेटे, पाने से अध्यात्म का कोई संबंध नहीं है। अध्यात्म का संबंध है देने से। आपने क्या दिया बताइए? बस यही एक सवाल है। अगर आप यह कहते हैं कि हम भगवान् की भक्ति से कोई ताल्लुक रखते हैं, तो आप यह जवाब दीजिए कि दैवीय सभ्यता के लिए, श्रेष्ठ आचरणों के लिए, लोगों के सामने अच्छी परंपरा स्थापित करने के लिए आपने क्या किया? यही एक जवाब दीजिए और दूसरा हम कुछ नहीं सुनना चाहते। हमने इतना भजन किया, तो ठीक है-अपने भजन को डिब्बी में रखिए। भजन का या किसी और का हवाला देना हम नहीं सुनना चाहते। गायत्री मंत्र की ग्यारह कापी हमने लिखीं। तो आप अपनी ग्यारह कापी ताले में बंद कर दीजिए। हमें मत बताइए। हमको तो यह बताइए कि आपने दैवीय सभ्यता के लिए कितना त्याग किया है? कितना बलिदान किया है? कितनी सेवा की है? नहीं साहब! हमने तो ग्यारह कापियाँ लिखी हैं। अच्छा, ग्यारह कापियाँ मुबारक हों, उसे अपने घर रखिए। हम नहीं सुनना चाहते।
मित्रो! अध्यात्म की प्राचीन परंपराएँ, शालीन परंपराएँ, महान् परंपराएँ भगवान् को अपनी ओर खींचती हैं और खींचने के अलावा दूसरों की सहायता करने में समर्थ होती हैं। ऐसा कोई अध्यात्म नहीं है, जो मनोकामना को प्राप्त कराता है। अध्यात्म वह है, जिससे आदमी अपना कल्याण करते हैं और दूसरों का कल्याण करने में समर्थ होते हैं। ऐसी शक्ति, जो दूसरों का कल्याण करती है, वह केवल असली अध्यात्म में रहती है। वह त्याग किए बिना, बलिदान किए बिना, सेवा धर्म किए बिना, दैवीय सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप जीवन ढाले बिना किसी में नहीं आ सकती। न आई है और न आएगी। कौन सी? जिसमें त्याग जुड़ा हुआ न हो, सेवा जुड़ी हुई न हो, लोकहित जुड़ा हुआ न हो, कष्ट सहने की बात जुड़ी हुई न हो, उसमें अध्यात्म कैसे हो सकता है? नहीं बेटे! इससे कम में अध्यात्म न था और न कभी होगा।
पाण्डवों का उदाहरण
मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण ने उस जमाने में, दुर्योधन के जमाने में जब चारों ओर असभ्यता और अनीति फैली पड़ी थी, तब यही नमूना पेश किया था। उनके पाँच हितैषी और हिमायती थे। पाँचों हिमायतियों का मैं एक नमूना बता रहा था। पाँचों पांडवों से कुंती ने कहा, बच्चो! तुममें से एक को वहाँ जाना चाहिए। बच्चे उछलने लगे और कहने लगे कि यह सौभाग्य तो हमको मिलना चाहिए। प्रतिस्पर्द्धा-कॉम्पिटीशन शुरू हो गई कि बलिदान में हम आगे जाएँगे। पाँचों बच्चों में प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गई। कुंती के लिए जद्दोजेहद खड़ी हो गई। युधिष्ठिर कहते कि हम सबसे बड़े हैं। हम दुनिया में सबसे पहले आए थे, इसलिए हमारा नंबर पहला है। सबसे छोटे वाले नकुल कहने लगे कि हम सबसे छोटे हैं, इसलिए हमको जाना चाहिए। अर्जुन कहने लगे कि इसके लिए हमको जाना चाहिए। सबमें झगड़ा होने लगा। कुंती ने कहा, अच्छा तुममें से कौन सबसे भाग्यवान् है, इसके लिए मैं गोली बनाकर निकालती हूँ। पाँचों पांडवों के नाम से गोली बनाकर डाल दी गई और कहा गया कि अच्छा, एक गोली उठा लो। जिसका नाम आ जाएगा, उसी को जाना चाहिए।
गोली उठाई गई। भीम का नाम आ गया। भीम उछलने लगे, ओ हो! यह मेरा सौभाग्य है। मित्रो! सौभाग्य किसे कहते हैं? नौकरी में तरक्की हो जाने को? लॉटरी में रुपया निकल आने को? तीन बेटियों के बाद दो बेटा हो जाने को? आपकी दृष्टि में इसके अतिरिक्त और कोई सौभाग्य होता है क्या? नहीं होता। बेटे! यह सौभाग्य नहीं होता। सौभाग्य वह होता है, जिसमें आदमी अजर-अमर हो जाता है। बेटे! सौभाग्य वह होता है, जिसमें हजारों-लाखों आदमी श्रद्धा के सुमन चढ़ाते रहते हैं और उसके चरणों पर आँसू बहाते रहते हैं और जिसके मरने के बाद भी आदमी उससे प्रकाश-प्रेरणा ग्रहण करते रहते हैं, रोशनी ग्रहण करते रहते हैं। देवता उन्हें ही कहते हैं, सौभाग्य उसे कहते हैं। सौभाग्यशाली वे हैं, वंदनीय वे हैं, जिन्होंने अपना आचरण इस तरीके से पेश किया कि जिससे प्रेरित होकर हजारों आदमी नमूने पेश करते रहें और दिशा प्राप्त करते रहें।
मित्रो! ऐसी ही हुआ। भीम का नंबर आ गया। भीम बच्चा था और राक्षस नौजवान। राक्षस कितना बड़ा था? समझ लीजिए छत के बराबर रहा होगा। और भीम? छोटा सा ही था। भीम लड़ने के लिए चला गया। महाभारत की कथा के अनुसार मैंने सुना है कि भीम ने कहा, अच्छा, आप हमको खाएँगे तो है ही, तो क्यों न पहले दो-दो हाथ कर देख लें। राक्षस ने कहा, चल, इसमें कोई ऐतराज नहीं है हमको। आ, हो जाए, दो-दो हाथ। भीम लड़ने के लिए खड़ा हो गया और उसने राक्षस को पटककर मार दिया।
सत्य में है बल
क्यों साहब! ऐसा हो सकता है? हाँ बेटे ऐसा हो सकता है। सत्य हजार हाथी के बराबर बलवान् होता है। बच्चों ने भी सत्य का आश्रय लेकर बड़ी-बड़ी सफलताएँ पाई हैं। कौन-कौन ने पाई हैं? चंद बच्चों के नाम बता सकता हूँ। प्रह्लाद बच्चा था, लेकिन उसका बाप हिरण्यकशिपु कितना समर्थ था। वह इतने बड़े दैत्य से लड़ने के लिए खड़ा हो गया और उसका कचूमर निकाल दिया। यह बच्चों की बात कह रहा हूँ। कंस से लड़ने के लिए श्रीकृष्ण भगवान् गए थे। तब वे कितने छोटे थे। बच्चा जब लड़ने के लिए गया तो कंस को, चाणूर को और बकासुर को मार डाला और किस-किस को मारा? हाथियों को, कालिया को मार डाला, कैसे मार डाला बच्चे ने? बेटे, बच्चे ने नहीं, सत्य ने मार डाला। सत्य के पास हजार हाथियों के बराबर बल होता है। इसीलिए मुष्टिकासुर कौन था? एक हाथी था। भगवान् श्रीकृष्ण चाहते, तो और भी निन्यानवे हाथियों को मार सकते थे, क्योंकि उनके पास सत्य था। बच्चा हो तो क्या, बड़ा हो तो क्या, जिसके पास सत्य है, विजय उसकी ही होती है।
मित्रो! महाभारत की कथाएँ भी इसी तरह की मालूम पड़ती हैं, जिसमें लोगों ने देवत्व पैदा किया। देवत्व का छोटा सा फार्म बनाया, सीढ़ी बनाई, आदर्श उपस्थित किया, जिससे लोगों के सामने देवत्व घिसटता हुआ चला गया, और वे दिन भी आए, जबकि दुर्योधन की आसुरी सभ्यता का निवारण हो गया, समाधान हो गया। कभी और भी ऐसे ही हुआ था। सारे इतिहास में तो यही पढ़ता रहता हूँ। अठारह पुराणों का अनुवाद मैंने किया है और इतिहास भी पढ़ा है। दो वर्ष पहले मैंने इतिहास को ज्यादा गहराई और ध्यान से पढ़ा है। ‘भारतीय संस्कृति का समस्त विश्व को अजस्र अनुदान’ नामक बड़ा ग्रंथ मैंने लिखा है। आपने पढ़ा होगा, उसमें मैंने हिन्दुस्तान की सारी-की-सारी हिस्ट्री लिखी है। सारी दुनिया को निहाल कर देने की हिस्ट्री। किससे निहाल कर दिया था? बेटे, सारी दुनिया को धन दिया था, विद्या दी थी, ज्ञान दिया था। सारी दुनिया में भारतीयों का वर्चस्व छा गया था और उनको जगद्गुरु माना गया था, देवता माना गया था।
महाराज जी! सब कैसे हुआ था? बता दीजिए, हम भी करना चाहते हैं। ऐसी विधि हमको भी बता दीजिए। हाँ बेटे, ला तुझे भी बता देते हैं कि क्या विधि है? बस एक तो तू माला ले ले और एक मंत्र। मंत्र लेकर क्या करूँ? जप किया कर ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय। नमः शिवाय से क्या हो जाएगा? सारे विश्व में तेरा यश हो जाएगा और तू अजर-अमर हो जाएगा। सारी दुनिया का कल्याण हो जाएगा। ऐसा हो जायगा? नहीं बेटे, ऐसा नहीं हो सकता।
त्याग-बलिदान की कथा-गाथाएँ
मित्रो! मैंने जो पुस्तक लिखी है ‘भारतीय संस्कृति का समस्त विश्व को अजस्र अनुदान’। उसमें मैंने यह लिखा है कि भारतीय लोगों ने किस कदर त्याग और बलिदान किए हैं और एक से बढ़कर एक कैसे-कैसे नमूने खड़े किए हैं। बलिदानों का जखीरा लगा दिया है। भारतीय सभ्यता को अपने अनुदान देने वाले लोगों का जब मैं इतिहास पढ़ता हूँ, तो आँखों में से आँसू टपक पड़ते हैं। उनमें से एक थे, कुमारजीव, जो हिंदुस्तान से रवाना हुए और चीन पहुँच गए। जहाँ की न वे भाषा जानते थे और न कुछ जानते थे। ‘‘चीन नाम का देश है, जिसमें जाकर बौद्ध धर्म का प्रसार करेंगे।’’ यह सोचकर वे अकेले ही रेगिस्तानों को पार करते हुए चले गए। उन भयंकर रेगिस्तानों को जहाँ तीस-तीस दिनों तक पानी की एक बूँद भी नहीं मिलती थी। पेड़ की एक छाया तक नहीं है, केवल रेगिस्तान-ही-रेगिस्तान भरा पड़ा है। अपनी थैली में थोड़ा-सा पानी लेकर वे रवाना हो गए। कौन? कुमारजीव। वे चाइना में रह गए। चाइना में कौन था उनका? न कोई बेटा था, न मित्र था, न कोई शिष्य था उनका। वहाँ जाकर के उन्होंने चायनीज भाषा सीखी और सीखने के बाद में बौद्ध धर्मग्रंथों का अनुवाद करके वहाँ रखा। सारे-के-सारे चाइना को बौद्ध बनाने का श्रेय कुमारजीव जैसे बुद्ध के अनुयायियों को था।
गुरुजी! यह कैसे हो गया? बेटे, जादू से। जादू से कैसे हो गया? हमको भी सिखा दीजिए। बेटे, जिस जादू से दुनिया में बड़े-बड़े काम हुए हैं और अध्यात्म का प्रचलन हुआ है, उसका नाम है, त्याग और बलिदान। नहीं महाराज जी। त्याग-बलिदान का नहीं, हमको तो बता दीजिए-मंत्र मंत्र कैसा होता है? अहा! इसी मंत्र के चक्कर में फिर रहा है धूर्त। अच्छा महाराज जी! बता दीजिए जादू। जादू बता दें तेरा सिर। मित्रो! क्या हुआ? सारी-की-सारी पुस्तकों में मैंने लिखा है कि भारत के गौरव को ऊँचा उठाने के लिए, सारे विश्व का कायाकल्प कर डालने के लिए, जो आधारभूत मंत्र था, वह था त्याग और बलिदान। त्याग और बलिदान की आवश्यकता महात्मा बुद्ध को पड़ी कि जिससे न केवल हिंदुस्तान, वरन् सारे के सारे विश्व को सुसंस्कृत बनाया जाए, फिर से सुसंस्कृत बनाया जाए। इसके लिए उन्हें अपील करनी पड़ी कि जो हमारे सबसे प्यारे हों, जो हमारे हितैषी हों, जो हमारी आज्ञा का पालन करने वाले हों, जो हमसे यह कहते हों कि बुद्ध हमारा है, तो वह त्याग करके दिखाएँ। यही सीधा-सरल मार्ग है।
महाराज जी! हम तो आपके चरणों में फूल चढ़ा देंगे। आपके ऊपर फूल चढ़ाएँगे और तीन बार नमस्कार करेंगे। ओ हो! बड़ा भारी शिष्य है हमारा। और क्या करेगा? महाराज जी! पच्चीस पैसे का आपका एक रंगीन फोटो खिंचवाऊँगा। फिर क्या करेगा उसका? टाँगूँगा। कैसे टाँगेगा, उलटा या सीधा? महाराज जी! टाँगूँगा तो सीधा। बेटे, हमारा कहना मान, तो उलटा टाँग दे फोटो को। उलटा टाँग देगा, तो ज्यादा फायदा हो जाएगा। क्यों? क्योंकि तब गुरु जी की नाक में दम आएगी, तो जल्दी आशीर्वाद देंगे। तो यह मामला है? हाँ बेटे, घटिया लोगों का, छोटे लोगों का, हलके लोगों का यही मामला है। इनके लिए जितनी गाली दी जाए कम है। यह हमारे आपके सबके ऊपर लागू होती है। इसमें आदमी सिवाय चालाकी के, सिवाय माँगने के, सिवाय बड़ा आदमी बनने के, सिवाय ऐय्याशी के, सिवाय विलासिता के कुछ बाकी नहीं है।
बुद्ध ने दिखाया पथ
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? भारतीय सभ्यता और संस्कृति को जिंदा रखने के लिए बुद्ध ने जो कदम उठाए, उसने अपने-अपने मित्रों और शिष्यों से कहा कि आप आएँ और हमारे पीछे-पीछे चलें। किस तरह चलें? आप हमारी बात मानते हैं, तो हमारे रास्ते पर चलें और हमारा अनुकरण करें। क्या रास्ता है आपका? हमारा रास्ता है, त्याग और बलिदान का। किसने त्याग और बलिदान के रास्ते पर कदम बढ़ाए? एक लाख शिष्य और सवा लाख शिष्याओं ने। उन सारे-के-सारे लोगों ने कहा कि हम आपके रास्ते पर चलेंगे। आपने जिस काम के लिए अवतार लिया है, उस काम में हम आपका सहयोग करेंगे और सहायता करेंगे। दो लाख आदमियों को लेकर बुद्ध ने न केवल हिंदुस्तान, वरन् समूचे एशिया, न केवल एशिया, वरन् सारे-के-सारे महाद्वीपों में दैवीय सभ्यता का प्रसार किया। उस जमाने में सात महाद्वीप माने जाते थे। अब तो हमने पाँच कर लिए हैं। सारे महाद्वीपों में उन लोगों ने न जाने क्या-से-क्या काम करने शुरू कर दिए, जिससे वे जगद्गुरु कहलाने के अधिकारी हुए।
यह क्या किया बुद्ध ने? बेटे, बुद्ध ने यही किया। दैवीय सभ्यता का प्रसार इसी से हुआ है। तो क्या बुद्ध ने बड़े व्याख्यान दिए थे? हाँ बेटे, बुद्ध ने बड़े व्याख्यान दिए थे, लेकिन व्याख्यान देने के साथ-साथ में उसके नमूने भी पेश किए गए थे। क्या नमूना पेश किया? उनका बेटा राहुल आया और बोला, पिताजी! हम आपके अंश-वंश से पैदा हुए हैं। हाँ बेटे, तुम हमारे अंश-वंश से पैदा हुए हो, तो तुम्हें हमारी वंश-परंपरा की रक्षा करनी चाहिए। वंश-परंपरा की रक्षा कैसे होती है? पंडित जी से पूछा, तो वे बोले, बस जौ का पिंड बना लो और उस पर धूप-दीप फूल लगा दो और ‘तर्पयामि’ करके पिंड को गंगा जी में चढ़ा दो। बस, वंश का उद्धार हो जाएगा। तो क्या पिताजी। ऐसे उद्धार होगा? नहीं बेटे, ऐसे उद्धार नहीं होगा। कैसे होगा? जिस रास्ते पर हम चले हैं, उस रास्ते पर तू भी चल।
बेटा वह, जो पिता के रास्ते पर चले
राहुल ने कहा, अच्छा पिता जी! कोई और रास्ता बताइए? बुद्ध ने कहा, नहीं बेटे, हम जिस रास्ते पर चले हैं, उससे अच्छा कोई रास्ता नहीं हो सकता है। अगर रहा होता, तो हम भी उस पर चल दिए होते। यही सबसे अच्छा रास्ता है। तुझे यही करना पड़ेगा। अगर तू हमारा बेटा है और यह कहता है कि हम आपका वंश चलाएँगे, तो हमारे रास्ते पर चल। राहुल तैयार हो गया। वह सारी जिंदगी भर अपने पिता के कदमों पर चलता रहा और न जाने कहाँ-से-कहाँ चला गया। वह वर्मा गया। सारे-के-सारे विश्व में एक सिरे से दूसरे सिरे तक भटकता फिरा और अपने पिता के कामों का और उत्तरादायित्वों का निर्वाह करने के लिए त्याग-बलिदान की झड़ी लगाता रहा।
मित्रो! बेटा कैसा होना चाहिए? राहुल की तरह से होना चाहिए। बेटा ऐसा नहीं होना चाहिए कि बाप मरेगा, तो उसकी जायदाद हमको मिलनी चाहिए और जो खेत है, वह हमको मिलना चाहिए। बाप का पैसा हमको मिलना चाहिए। बाप जिंदा है, तो हिस्सा मिलना चाहिए। नहीं, ऐसे बेटे नहीं हो सकते। नहीं, महाराज जी! बेटे ऐसे ही होते हैं। बाप के पास इक्कीस बीघे जमीन है। बाप को मरने में अभी देर है। बेटा कहता है कि हमारा हिस्सा अभी दे दो। हम मरेंगे तब देंगे। नहीं, मरने का इंतजार हम नहीं करेंगे, अभी दे दो। यह कौन है? क्या बेटे ऐसे ही होते हैं? नहीं, ऐसे नहीं होते बेटे। श्रवणकुमार के तरीके से बेटे होते हैं और राहुल के तरीके से बेटे होते हैं और बेटियाँ कैसी होती हैं? बेटियाँ संघमित्रा के तरीके से होती हैं। संघमित्रा सम्राट् अशोक की बेटी थी। उसने कहा, पिताजी आपने संन्यास ले लिया? हाँ। तो फिर हमारे लिए हुक्म दीजिए कि हमको क्या करना चाहिए।
मित्रो! संघमित्रा जो थी, उसने कहा, पिताजी क्या करना पड़ेगा? बेटी, हमारे रास्ते पर चलना पड़ेगा। सम्राट् अशोक की बेटी संघमित्रा निकल पड़ी और उसने जितने बुद्ध ने विहार बनाए थे, उससे ज्यादा विहार बनाकर दिखा दिए। महिलाओं के क्रियाकलाप, महिलाओं के संगठन, महिलाओं के विहार संघमित्रा ने ढेर सारे बना दिए। यह सब हमारी किताब में वर्णन किया गया है; उसका मैं हवाला दे रहा था। कितने ज्यादा बुद्ध के विहार थे और कितने महिलाओं के लिए? यह कैसे हो गया? बेटे, इस तरीके की परंपराओं से हो गया। कहाँ-से-कहाँ तक हुआ? बेटे, जहाँ कहीं भी अनीति के विरुद्ध संघर्ष करने की जरूरत पड़ी होगी अथवा धर्म की स्थापना करने की जरूरत पड़ी होगी और जब ठोस कदम उठाने की जरूरत पड़ी होगी, तब जैसे कि आज है। पोला कदम जब तक उठाना है, तब तक तो मीटिंग करेंगे, वार्षिकोत्सव करेंगे, रामायण सम्मेलन करेंगे। ठीक है बेटे, ये पोला कदम हो सकता है, पर यह ठोस कदम नहीं हो सकता। ठोस कदम यह हो सकता है कि हमें लोगों के, जनसाधारण के सामने त्याग और बलिदान की परंपराएँ प्रस्तुत करनी चाहिए, ताकि लोगों का मुँह यह कहने के लिए बंद हो जाए कि ये कहने-सुनने की बातें हैं। ये दूसरों को उपदेश देने की बातें हैं। ये बातें काम नहीं आ सकतीं और कोई आदमी इन्हें जीवन में करके नहीं दिखा सकता। दूसरों को कह सकता है कि आपको त्यागी होना चाहिए, ब्रह्मचारी रहना चाहिए, परोपकारी होना चाहिए। आप और हम कह सकते हैं, लेकिन जब स्वयं करने का मौका आएगा, तब हम नहीं कर सकते। यही कारण है कि वक्ताओं का, उपदेशकों का कहीं कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखाई देता।
आप नमूना बनिए
मित्रो! चिंता करने की कोई बात नहीं है। आप अपने से ही शुरुआत कीजिए, नमूना बनिए, साँचा बनिए। हमारी परंपरा स्वयं से शुरुआत करने की रही है। जहाँ कहीं भी हम देखते हैं, अपने से ही शुरुआत देखते हैं। विश्वामित्र और हरिश्चंद्र दोनों आपस में घनिष्ठ थे। इतने घनिष्ठ थे कि गुरु-शिष्य का प्रेम, जो राजा विश्वामित्र में था और किसी में नहीं देखा गया। विश्वामित्र एक बड़ा काम करने वाले थे नई दुनिया बनाने वाले थे। जब हम पढ़ते हैं, तो उसमें नई सृष्टि लिखा हुआ है। वे नई सृष्टि बना रहे थे। मैं समझता हूँ-नई सृष्टि तो क्या बना रहे होंगे, लेकिन नया जमाना ला रहे होंगे। विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से कहा, तू हमारा मित्र है, दोस्त है? उनने कहा, हाँ। तो फिर हमारे साथ-साथ चल, हमारे काम आ। राजा हरिश्चंद्र ने कहा, हम आपके साथ-साथ चलेंगे और आपके काम आएँगे, तो फिर काम आ, चल हमारे साथ।
मित्रो! विश्वामित्र को पैसे की जरूरत पड़ी होगी, तो उन्होंने हरिश्चंद्र का राज्य माँगा होगा, दूसरी चीजें माँगी होंगी और आखिर में जहाँ मौका आ गया होगा, तो भौतिक साधनों के लिए राजा हरिश्चंद्र ने अपने आपको नीलाम कर दिया होगा। अपनी बीबी-बच्चों को नीलाम कर दिया होगा। यह क्या चीज है? त्याग और बलिदान है। इसको हम भूल नहीं सकते। क्यों विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को ही दोस्त बनाया? इससे कम में काम नहीं चल सकता था? अभी भी हजारों गाँधियों को पैदा करने की ताकत हरिश्चंद्र में है। गाँधी जी ने बचपन में हरिश्चंद्र का ड्रामा देखा और ड्रामा देखकर उन्होंने कहा, मैं हरिश्चंद्र होकर जिऊँगा। वे वास्तव में हरिश्चंद्र होकर के जिए। हरिश्चंद्र ने एक हरिश्चंद्र तो अभी-अभी पैदा किया है-हमारे सामने और असंख्य हरिश्चंद्र जाने कितने पैदा कर गए। कैसे हो गए? बेटे और कोई तरीका नहीं है अपने आपको त्याग की बलिवेदी पर समर्पित करने के अलावा। अगर हमारे व्यक्तिगत जीवन में लोकहित के लिए, परमार्थ के लिए कहीं त्याग की परंपरा नहीं है, तो फिर कहने भर की बातें हैं, बरगलाने भर की बातें हैं और आपको छलने एवं जनता को बरगलाने की बातें हैं। नया युग लाने के लिए, तो हमें फिर वहीं से आरंभ करना होगा, जहाँ हमारे ऊपर यह बात लागू होती है कि त्याग और बलिदान का प्रश्न आए, तो हम कहाँ होते हैं? बगलें झाँकते हैं या आगे बढ़ चढ़कर लग जाते हैं।
सबसे पहले स्वयं
मित्रो! हमारी संस्कृति में त्याग-बलिदान की परंपराएँ आदि काल से रही हैं, चाहे बुद्ध हो या हरिश्चंद्र, कोई भी रहा हो। त्याग-बलिदान की परंपराएँ गाँधी जी के आश्रम में जब ‘नमक सत्याग्रह’ शुरू हुआ, तो लोगों ने कहा कि आप चुपचाप बैठे रहिए और लोगों को हुक्म दीजिए। सब लोग जेल जा सकते हैं, नमक बना सकते हैं। आप शांति से बैठे रहिए, बाकी लोग ये सब काम करेंगे। गाँधी जी ने कहा, ऐसा नहीं हो सकता। जो लोग साबरमती आश्रम में रहते हैं, उन आश्रमवासियों का सबसे पहला नंबर है, बाकी लोगों का पीछे नंबर है। उन्होंने सबसे पहले अपना नाम लिखाया। गाँधी जी के आश्रम में जो उन्नीस आदमी थे, उनको लेकर और आश्रम में ताला डालकर गाँधीजी अपने साथियों को लेकर नमक बनाने के लिए रवाना हो गए और वहाँ से जेल चले गए। उनके जेल जाने के बाद जो आग फैली, तो गाँधी जी के बच्चे, जनसेवक सभी ने कहा कि हमें भी जेल जाना चाहिए। यह प्रभाव व्याख्यानों का था? नहीं, त्याग के लिए गाँधी जी का स्वयं को प्रस्तुत करने का था। बिना कोई व्याख्यान दिए, बिना कोई कथा कहे, बिना कोई प्रवचन दिए, बिना कोई सम्मेलन बुलाए कितने सारे आदमी जेल चले गए। गाँधी जी के उस साहस को, त्याग को देखकर लोगों ने समझ लिया कि इस आदमी की कथनी और करनी के बारे में दो राय नहीं हैं। इसकी कथनी और करनी एक है।
सिख धर्म भी इसी का साक्षी
मित्रो! यही परंपरा बनी रही है और बनी रहेगी। सारे का सारा इतिहास, पुराणों का इतिहास, धर्म-शास्त्रों का इतिहास, अमुक का इतिहास जब हम देखते हैं, तो दूसरा कोई तरीका दिखाई नहीं पड़ता। यवनों के विरुद्ध जब सिख धर्म बनाया गया और इस बात की जरूरत पड़ी कि लोगों को हिंदू धर्म की रक्षा के लिए सिपाहियों के तरीके से, सैनिकों के तरीके से तनकर खड़ा हो जाना चाहिए और अपनी जान को जोखिम में डालना चाहिए। यह बहादुरी जब गुरुगोविंद सिंह पैदा करने वाले थे, तब उन्होंने लोगों से पूछा कि इसका कौन-सा तरीका हो सकता है? लोगों में बहादुरी कैसे भरी जा सकती है? अगर यह उपदेश से हो जाए कि उससे सब लोग सूली पर चढ़ जाएँ, सब मारे जाएँ और हम सुरक्षित बैठे रहेंगे, ऐसा नहीं हो सकता। गुरुगोविंद सिंह ने कहा, ‘‘पहला नंबर हमारा है।’’ उन्होंने जान-बूझकर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कीं, ताकि लोगों में जोश और जीवन पैदा हो सके।
मित्रो! गुरुगोविंद सिंह के दो बच्चे दीवार में चिनवा दिए गए। दो बच्चे युद्ध में थे। एक बच्चा लड़ाई के मैदान में जब मारा गया, तो दूसरा बच्चा, जो उसके साथ-साथ लड़ रहा था, भागकर आया और अपने पिताजी को खबर सुनाई कि हमारे भाईसाहब तो लड़ाई में मारे गए। गुरुगोविंद सिंह ने कहा, मारे गए, तो बेटा फिर तू कैसे आ गया? उस वक्त बच्चे से जवाब नहीं बन पड़ा। वह बेचारा समझ नहीं सका कि पिताजी का क्या इशारा है? पिताजी का यह इशारा था कि एक भाई लड़ाई के मैदान में मारा गया, तुझे भी वही करना चाहिए था। वह इशारा समझ गया, लेकिन उनके आगे जवाब क्या दे सकता था। उसने कहा, पिताजी! मुझे प्यास लगी थी। पानी पीने के लिए और आपको खबर सुनाने एवं सुस्ताने के लिए मैं आया था। ठीक है बेटा! जितनी देर सुस्ताना था सुस्ता लिया। हाँ और देख प्यासा है, तो बेटे बैरी के खून से अपनी प्यास बुझाना। चल यहाँ से और उसे भगा दिया।
मित्रो! वह चलता हुआ चला गया। मैं यह क्या कह रहा हूँ। ये अध्यात्म की बातें कह रहा हूँ, देव-परंपराओं की बातें कह रहा हूँ और ये बात कह रहा हूँ कि अगर दुनिया में कोई बड़े काम हुए हैं या बड़े काम हो सकते हैं, तो इससे कम में नहीं हो सकते और न इससे अधिक में हो सकते हैं। आज की बात समाप्त
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः