तुलसी हमारे हर घर में शोभायमान रहे
प्राचीनकाल में यह प्रथा में तुलसी की उपयोगिता से नित्य प्रति लाभ उठाने और उसके प्रति श्रद्धा बनाये रखने का भाव था। निःसन्देह यह साधारण दीखने वाला पौधा अपनी संस्कृति में उसे इतना ऊँचा स्थान मिला है। पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, वृहद् धर्म पुराण, स्कन्दपुराण, गरुड़पुराण आदि में तुलसी की महिमा के सम्बन्ध में अनेक अध्याय पाये जाते हैं, जिनमें धार्मिक उपाख्यानों के रूप में उसके प्रभाव और लाभों का वर्णन किया गया है। इसके सिवाय महानारायणोपनिषद्, राम रहस्योपनिषद्, वायुदेवोपनिषद्, आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी तुलसी की स्तुति, प्रार्थना आदि का समावेश है, जिससे उस समय उसके प्रचार का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। ‘तुलस्यु उपनिषद्’ में तो केवल तुलसी की ही महिमा तथा उसकी सेवा-पूजा का विधान है। उसमें तुलसी के स्वास्थ्य प्रदायक और रोगनाशक गुणों का भी संकेत मिलता है।
शारीरिक दृष्टि से तुलसी एक सर्व रोग-निवारक औषधि का काम देती है। विभिन्न अनुपातों के साथ वह ज्वर, खाँसी, जुकाम, सर्दी, उदररोग, धातुरोग, स्त्री-रोग, मुख-रोग, सर्पदंश, कैंसर आदि सैकड़ों रोगों में शीघ्र ही अपना प्रभाव दिखलाती है। नित्य सेवन करने से स्वास्थ्य को स्थिर रखती है और अनेक संक्रामक व्याधियों से रक्षा करती है। इसके प्रयोग से सात्विक भाव की वृद्धि होती है, जिससे हृदय में श्रद्धा, भक्ति, कोमलता क्षमा, दया आदि सत्प्रवृत्तियों की वृद्धि होती है। जो गुण तुलसी की पत्तियों में बतलाये गये हैं और तरह-तरह के कुविचार, बुरे स्वप्न, अनिद्रा और हृदय की धड़कन में लाभ पहुँचता है। तुलसी-पत्र को जल में मिलाकर प्रयोग करने से उसकी शक्ति बहुत बढ़ जाती है और तुरन्त ही प्रभाव डालती है। इसीलिए पूजा-पाठ, हवन आदि धर्मकृत्यों के अवसर पर चरणामृत सेवन करने का नियम रखा गया है। इसके फलस्वरूप मन में स्वभावतः उठते हुए अनेक सांसारिक भोगों और कामकाजों के विचार शान्त हो जाते हैं और मनःस्थिति धर्म कार्य के उपयुक्त बन जाती है। इसी तथ्य को प्रकट करने के लिए शास्त्रों में कहा गया है-
त्रिकालं विनातापुत्र प्राशर्य तुलसी यदि।
विशिष्यते कायशुद्धिश्चान्द्रायण शत बिना।।१।।
तुलसी गन्धमादाय यत्र गच्छति मारुतः।
दिशो दशश्च पूतास्युर्भूत ग्रामश्चततुर्विधः।।२।।
महाप्रसाद जननी, सर्व सौभाग्य वर्द्धिनी।
आधि-व्याधि हरिर्नित्य तुलसित्वंनमोस्तुते।।३।।
या दुष्टवा निखिलाघसगंशमनी स्पृष्टवा वपुपाविनी।
रोगनामभिवदिता निरशिनीसिक्तान्तक त्रासिनी।।४।।
प्रत्यासक्ति विधायिनी भगवतः कृष्णस्यरोपिता।
नयास्तातश्चरणे विमुक्ति फलदा तस्यै तुलस्यै नमः।।५।।
सर्वोषधरसेनैव पुराह्यमुतमन्थने।
सर्वसत्वोपकराय विष्णुनातुलसी कृता।।६।।
तुलती कानन राजन गृहे यस्यावतिष्ठति।
तदगृह तीर्थरू पन्तुनायन्ति यधकिंकराः।।७।।
रोपनात्पालनात् सेकात् दर्शनात्स्पर्शनान्नृणाम्।
तुलसौ दह्यते पापं वाड़मनः कायसचितम्।।८।।
दर्शनं नर्मदायास्तु गंगा स्नानं तथैव च।
तुलसीवन संसर्गः सममेकायं समृतम्।।९।।
पुस्कराद्यानि तीर्थनी गंगाद्या सरितस्तथा।
वासुदेवादयो देवस्तिष्ठन्ति तुलसी दले।।१०।।
तुलस्यां सकला देवाः वसन्ति सततं यतः।
अतस्तामर्चयेल्लोकःसर्वान्देवानसमर्चयन्।।११।।
यत्किचद् दीयतेदानं तुलस्या च समन्वितम्।
अपारतु प्रयुक्तं तन्न ब्रजेन्नरकन्नरः।।१२।।
तुलसी काननोद्भूता छाया यत्र भवेन्मुने।
त्रश्रद्वेप्रदातव्य पितृणां तृप्तिहेतवे।।१३।।
स स्नानः सर्वतीर्थ सर्वयज्ञेषुदीक्षितः।
तुलसीपत्रतोयं च योऽभिषेक समाचरेत्।।१४।।
यस्मिनगृहे द्विजश्रेष्ठ! तुलसी तल मृतिका।
तत्रैव नोपसर्पन्ति भूतले यमकिंगखरा।।१५।।
अर्थात्-जो व्यक्ति सदैव तीनों समय तुलसी पत्र का सेवन करता है उसका शरीर ऐसा सिद्ध हो जाता है जैसा कि अनेक चान्द्रायण व्रतों द्वारा सम्भव होता। ।।१।। तुलसी की गन्ध को लेकर वायु जिस दिशा में जाती है वह दिशा तथा वहाँ रहने वाले सब प्राणी पवित्र, दोष रहित हो जाते हैं। ।।२।। हे महा महिमाशाली तुलसी माता आप समस्त सौभाग्यों को देने वाली और आधि-व्याधि को मिटाने वाली हैं। आपको मेरा नमस्कार है। ।।३।। जिसकी दृष्टि मात्र से ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं, स्पर्श करने से जो शरीर को पवित्र कर देती है, जिसका सेवन करने से सब रोग मिट जाते हैं, जिसको लगाने से भगवान की सायुज्यता प्राप्त होती है, भगवान कृष्ण के चरणों में जिसे चढ़ाने से मुक्ति प्राप्त होती हैं। ॥४-५॥ अमृत मन्थन के अवसर पर सब औषधियों और रसों से पूर्व भगवान विष्णु ने समस्त प्राणियों के उपकारार्थ तुलसी को उत्पन्न किया। ॥६॥ हे राजन् जिस घर में तुलसी का उद्यान लगाया होता है वह तीर्थ रूप होता है और उसमें यमराज के दूतों का प्रवेश नहीं होता। ॥७॥ तुलसी के लगाने, पालन करने, उसमें जल डालने, दर्शन करने, छूने से मनुष्यों के वाणी, मन और काया में संचित समस्त पाप भस्मीभूत हो जाते हैं। ॥१०॥ तुलसी में समस्त देवताओं का निवास है, अतएव उनकी अर्चना करने से समस्त देवों के पूजन का फल मिलता है। ॥११॥ जो दान तुलसी के संयोगपूर्वक दिया जाता है वह अपार फलदायी होती है पर जो लोग दान देते समय तुलसी का सम्पर्क नहीं करते वे दुर्गति को प्राप्त होते हैं। ॥१२॥ तुलसी वन की छाया में पितरों का श्राद्ध करना उनके लिए विशेष तृप्तिकारक सिद्ध होता हैं। ॥१३॥ जो व्यक्ति स्नान के जल में तुलसी डालकर उपयोग में लाता है वह सब तीर्थों में नहाया हुआ समझा जाना चाहिए और वह सब यज्ञों में बैठने का अधिकारी है। ॥१४॥ जिस घर की भूमि तुलसी की मिट्टी से लिपी रहती हैं, उसमें यमराज के किंकर (रोगों के कीटाणु )) प्रवेश नहीं करते। ॥१५॥ आयुर्वेद के सर्वश्रेष्ठ और प्रामाणिक ग्रन्थ माने जाने वाले चरक, सुश्रुत और वाग्भट्ट में भी तुलसी के गुणों और प्रयोगों का वर्णन अनेक स्थानों पर मिलता है। चक्रदत्त, सारंगधर संहिता, भावप्रकाश, राजनिघण्टु, कैयदेव निघण्टु, योगरत्नाकर आदि में तुलसी के अनेक उपयोगी प्रयोग सन्निवेशित हैं।
धार्मिक, सांस्कृतिक, शारीरिक, मानसिक हर दृष्टि से तुलसी का पौधा बड़ा उपयोगी है उसे घर-घर में लगाया जाना चाहिए। गौ माता की तरह तुलसी का भी सांस्कृतिक महत्त्व है इसलिए उसके संस्थापन और अभिवर्द्धन के लिए शक्ति भर प्रयत्न किये जाने चाहिए। उत्साही, सेवाभावी, व्यक्ति अपनी जमीन में तुलसी के बीज बोकर पौधे लगावें और उन पौधों का घर-घर जाकर रोपित करने के लिए प्रयत्न करें। जहाँ सम्भव हो तुलसी लगाये जायें और तुलसी सम्मिश्रण से बन सकने वाली अनेक प्रभावशाली औषधियों के द्वारा तुलसी चिकित्सालय चलाये जायें। माला बनाने तथा जड़ी-बूटियों की तरह प्रयुक्त करने के लिए भी व्यावसायिक दृष्टि से तुलसी उत्पादन किया जा सकता है। तुलसी चिकित्सा की छोटी पुस्तकें छापी जा सकती हैं जिससे हर गृहस्थ इस अनुभव औषधि के द्वारा घरेलू चिकित्सा समेत समस्त रोगों और आधि-व्याधियों से छुटकारा प्राप्त कर सके। तुलसी संस्थापन एवं उपयोगी आन्दोलन सिद्ध हो सकता है जो आगे चलकर घरों में फुलवारी तथा शाक-भाजी लगाने की पद्धति को भी प्रोत्साहित करेगा।
प्रश्न --
(१) तुलसी के पत्तों का उपयोग पूजा में क्यों किया जाता है? (२) तुलसीदल के सेवन से क्या लाभ होता है? (३) हर घर में तुलसी का पौधा क्यों होना चाहिए? (४) तुलसी को औषधि के रूप में कैसे प्रयोग किया जा सकता है? (५) तुलसी की उपयोगी पर एक लघु निबन्ध लिखें? (६) तुलसी के लाभों के पाँच श्लोक सुनाओ और उनका अर्थ बताओ? (७) तुलसी चरणामृत क्यों आवश्यक है? (८) तुलसी के समन्वय में किन-किन प्राचीन ग्रन्थों में वर्णन मिलता है।
गौ संरक्षण हमारी एक महती आवश्यकता
अपने देश में गौ-रक्षा का, गौ-पालन और गौ-पूजा का महत्त्व बहुत है। भगवान कृष्ण ने अपनी अभिरुचि इस दिशा में सबसे अधिक प्रदर्शित करके सर्वसाधारण का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था कि उन्हें गौ का महत्त्व और उपयोग भली प्रकार समझना चाहिए और इस संदर्भ में व्यवहारतः कुछ करते रहना चाहिए।
मानवी स्वास्थ्य-सुरक्षा के लिए पौष्टिक आहार की आवश्यकता है, उसमें गौ-दुग्ध अग्रणी यों दूध तो भैंस और भेड़ बकरी का भी मिलता है और कहीं-कहीं गधी और ऊँटनी का भी प्रयुक्त होता है, पर विटामिन ‘ए’ जैसे बहुमूल्य तत्त्व जितनी मात्रा में गाय के दुग्ध में है, उतने किसी में नहीं मिलेंगे। यही कारण है कि संसार भर में सभ्य और शिक्षित देशों में जहाँ गुण और लाभ को परखना जानते हैं, केवल गौ दुग्ध ही प्रयुक्त होता है। यूरोप और अमेरिका के समस्त देश प्रायः गौ दुग्ध ही सेवन करते हैं। भैंस तो अफ्रीका और भारत को छोड़कर अन्यत्र कहीं और पाई भी नहीं जातीं।
आयुर्वेद शास्त्र में भी गौ दुग्ध का ही प्रतिपादन है। धर्म ग्रन्थों में जहाँ कहीं, दूध, घी की आवश्यकता का वर्णन है, वहाँ गोरस का ही उल्लेख समझना चाहिए। दूरदर्शी ऋषियों को लौकिक दृष्टि से गोरस की शारीरिक उपयोगिता विदित ही थी, इसके अतिरिक्त वे उसके मानसिक और आध्यात्मिक गुणों से भी परिचित थे। गाय में, गाय के बछड़े में-जैसी फुर्ती और चतुरता रहती है वैसी भेड़ या भैंस में नहीं स्पष्टतः इन पशुओं का मानसिक स्तर भी दूध में घुला रहता है। भैंस का दूध पीने से उसी जैसा आलस्य, प्रमाद एवं बुद्धूपन बढ़ता है। ‘भेड़चाल’ उक्ति में उस प्राणी की अदूरदर्शिता का ही वर्णन है। गाय इन सबसे निराली है। उसकी स्फूर्ति एवं चतुरता बात-बात में परखी जा सकती है। मार्ग में खेलते बच्चे को गाय बचाती हुई चलेगी पर भैंस अपनी राह चलती जायेगी, चाहे बूढ़ा-बच्चा कोई भी क्यों न कुचल जाये। तनिक-सी गर्मी-सर्दी और थकान बर्दाश्त करना भैंस के लिए कठिन है। माता का जैसा स्वभाव होता है, बच्चा भी वैसी प्रकृति का बन जाता है। यह दूध का गुण है। भैंस या भेड़-बकरी का दूध पीने वाले उन्हीं जैसे हेय गुणों वाले बनते चले जाते हैं।
गाय की सबसे बड़ी विशेषता इसमें पाई जाने वाली आध्यात्मिक विशेषता है। हर पदार्थ एवं प्राणी में कुछ अतिसूक्ष्म एवं रहस्यमय गुण होते हैं। सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण की मात्राएँ सबमें पाई जाती है। जिस प्रकृति के पदार्थों और प्राणियों से हम सम्पर्क रखते हैं हमारी अंतः स्थिति भी उसी प्रकार ढलने लगती है। हंस पाल कर बढ़ता हुआ तमोगुण कभी भी अनुभव किया जा सकता है। भेड़-बकरी और भैंस को तमोगुण प्रधान माना गया है। गाय में सतोगुण की भारी मात्रा विद्यमान है। अपने बच्चे के प्रति गाय की ममता प्रसिद्ध है। वह अपने पालन करने वाले तथा उस परिवार को भी बहुत प्यार करती है। जंगलों में शेर, बाघ का सामना होने पर अपने ग्वाले को चारों ओर से घेरकर गाय झुण्ड बना लेती है और अपनी जान पर खेलकर अपने रक्षक को बचाने का त्याग, बलिदान एवं कृतज्ञता, आत्मीयता का आदर्श भरा उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। ऐसी आध्यात्मिक का आदर्श भरा उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। ऐसी आध्यात्मिक विशेषता और किसी प्राणी में नहीं पाई जाती। इस स्तर के उच्च सद्गुण उन लोगों में भी बढ़ते हैं, जो उसका दूध पीते हैं। बैल की परिश्रमशीलता और सहिष्णुता प्रख्यात है। यह विशेषताएँ गौ दुग्ध का उपयोग करने वाले में भी बढ़ती हैं।
गौरस एक सर्वांगपूर्ण परिपुष्ट आहार है। उसमें मानसिक स्फूर्ति एवं आध्यात्मिक सतोगुणी तत्त्वों का बाहुल्य रहता है, इसलिए मनीषियों तथा शास्त्रकारों ने-गाय का वर्चस्व स्वीकार करते हुए उसे पूज्य संरक्षणीय, सेवा के योग्य माना है। गाय की ब्राह्मण से तुलना की है और उसे अवध्य-न मारे जाने योग्य घोषित किया गया है। गोपाष्टमी और गोर्वधन-पूजा दो त्यौहार ही गोरक्षा की ओर जनसाधारण का ध्यान स्थिर रखने के लिए बनाये गये हैं। चौके में पहली रोटी गाय के लिए निकालने की परंपरा भी इसीलिए है कि गाय को एक कौटुम्बिक प्राणी समझते रहा जाये। राजा दिलीप जैसे ऐतिहासिक महापुरुष की गौ-भक्ति प्रसिद्ध है, जिसके कारण उन्होंने सुसन्तति प्राप्त की। आज भी वह तथ्य ज्यों का त्यों है। गाय के सम्पर्क में रहने वाले, गोरस पीने वाले पति-पत्नी निस्संदेह सुयोग और स्वस्थ सन्तान पैदा कर सकते हैं, उनका पुरुषत्व साँड़ की तरह सुस्थिर बना रहता है। पुराणों में गौ-भक्ति और गौ सेवा के लिए बहुत कुछ कर सकने वाले सत्पुरुषों के अगणित उदाहरण विद्यमान हैं। उस समय शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली थी। हर छात्र को आश्रम की गौएँ चरानी पड़ती थीं और आहार में गोरस की समुचित मात्रा मिलती थी। उस समय छात्रों को प्रतिभा, परिपुष्टता एवं सज्जनता की अभिवृद्धि के महत्त्वपूर्ण लाभ मिलते थे, उनमें गौ-सम्पर्क भी एक बहुत बड़ा कारण था।
भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ जुताई, सिंचाई और गुड़ाई-मड़ाई (अन्न को पौधे से अलग करना) के लिए बैल की अनिवार्य आवश्यकता है। गाय का गोबर अपने ढंग की अति उर्वरक खाद है। अपने देश की कृषि गोवंश पर निर्भर है। रासायनिक खाद अचार, चटनी की तरह है, उससे धरती की भूख नहीं बुझ सकती वह तो गोबर से ही संभव है। महँगी बार-बार बिगड़ने वाली, खर्चीली और तकनीकी ज्ञान की अपेक्षा रखने वाली मशीनें भारत की कृषि समस्या को हल नहीं कर सकतीं। अनेक कारणों से यहाँ तो बैल ही सफल होगा। अन्न और दूध हम गोवंश की कृपा से ही प्राप्त कर सकते हैं, इसीलिए उसका संरक्षण सब प्रकार से उपयुक्त है।
गोबर से लीपने पर तो रोग-कीटाणु मुक्त होते हैं। गौ-मूत्र असाध्य रोगों में रामबाण औषधि का काम करता है। इसकी गंध से विषैले रोग कृमि अनायास ही मरते हैं और स्वास्थ्य रक्षा की एक सहज व्यवस्था बनती रहती है। आवश्यक है कि हम गोरक्षा पर ध्यान दें और अपनी शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति को परिपुष्ट बनाने के लिए इस दिशा में ठोस कदम उठायें।
यह एक दुर्भाग्य ही है कि जिस देश में गौ को पूज्य और गौ रक्षा को धर्म माना जाता है, उसी में उसकी सबसे अधिक दुर्गति हो। गौ नसल बुरी तरह खराब हो चुकी है। वे जरा-सा दूध देती और बेकार समझी जाती है। कसाई की छुरी के नीचे ही उन्हें आश्रय मिलता है। उसका एकमात्र कारण उस ओर बरती जाने वाली हमारी उपेक्षा ही है। माँसाहारी देशों में गायें एक-एक मन दूध दें और गोरस की नहरें बहें और हम गौ-भक्तों में उसका दर्शन भी दुर्लभ रहे यह कैसी विडम्बना है।
हमें चाहिए कि गौ-दुग्ध की उपयोगी स्वीकार करें और उसी की माँग करें। ऐसी दशा में भैंस पालने वाले सहज ही गौ पालने लगेंगे। जिसकी माँग होगी उसका उत्पादन भी होगा और उसका स्तर भी उठेगा। हम जय गाय की बोलते हैं और दूध भैंस की पीते हैं। इस प्रकार गोरक्षा कैसे सम्भव होगी। जिस दिन जन साधारण की समझ में गोरस की उपयोगिता आ जावेगी, इसी की माँग की जावेगी तो देखते-देखते यह देश गोधन से भरा-पूरा दिखाई देने लगेगा। हमें चाहिए कि गोदुग्ध एवं गोघृत के सेवन का व्रत लें और दूसरों को भी इसके लिए तैयार करें। जब गोरस की माँग बढ़ेगी तब गो-पालन की व्यवस्था भी बनेगी। जो लोग गाय का धार्मिक का महत्त्व समझते हैं, उनके लिए उचित है कि गोपालन, गोसंवर्द्धन और गोरस उत्पादन के लिए बड़े पैमाने पर व्यावसायिक स्तर पर काम करें, चाय वालों की तरह गोरस की महत्ता समझाने के लिए व्यापक प्रचार करें और धर्म, पुण्य तथा राष्ट्र की महती सेवा का सुयोग प्राप्त करें। सरकार और जनता ये दोनों वर्ग मिलकर गोरक्षा के लिए कुछ ठोस काम करें यह आज की एक महती आवश्यकता है।
प्रश्न-
(१) भारत में गौ पालन का क्या महत्त्व है? (२) गाय का दूध सर्वश्रेष्ठ क्यों माना जाता है? (३) सिद्ध कीजिए कि गौ-रस सर्वांगपूर्ण परिपुष्ट आहार है? (४) गौ-रस सर्वांगपूर्ण परिपुष्ट आहार है? (५) राजा दिलीप ने गौ की सेवा क्यों की थी? (६) बैल की उपयोगिता पर प्रकाश डालिए। (७) गावर्धन पूजा का महत्त्व स्पष्ट कीजिए। (८) गौ-वंश नष्ट होने के कारण बतायें? (९) गौ-पालन के लाभों पर प्रकाश डालिए। (१०) गौ-दुग्ध और गौ-घृत के सेवन का व्रत क्यों लेना चाहिए?
अधिकार गौण और कर्तव्य प्रधान माना जाये
सुविधाओं का लाभ उठाने और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वस्तुओं का उत्पादन का पड़ता है। यह उत्पादित वस्तुएँ ही सम्पदा कहलाती हैं। सिक्का तो इस उत्पादन शक्ति का प्रतिनिधि मात्र है जिसे वस्तुओं के स्थानान्तरण की सुविधा के लिए तीनों को भले ही एक व्यक्ति जुटावे पर काम इनकी सम्मिलित शक्ति से ही चलेगा। जीवनयापन की आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए अन्न से लेकर यन्त्रों तक और शिल्पियों से लेकर व्यवस्थापकों तक विभिन्न स्तर के जड़-चेतन साधन जुटाने में समर्थ होता है।
इन दिनों उत्पादन क्षेत्र में दो प्रधान पक्ष हैं-(१) मालिक, (२) मजदूर। दोनों के उचित सहयोग से ठीक तरह से उपजती है। जिनके पास पूँजी एवं ज्ञान, अनुभव नहीं है वे मजदूर अकेले कुछ काम नहीं चला सकते। सहयोग के बिना दोनों की क्षमता व्यर्थ है। सरकारी व्यवस्था तन्त्र भी छोटे कर्मचारियों से लेकर बड़े अफसरों तक श्रमिकों की शृंखला में ही आते हैं। सरकार वेतन का तथा कार्यपद्धति का निर्धारण करती है, कर्मचारी श्रम करते हैं। दोनों का सहयोग ही सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थानों को चला सकने में समर्थ होता है। यदि विभिन्न उत्पादनों एवं व्यवस्थाओं का क्रम ठीक चलाकर सुविधाओं तथा सम्पदाओं का उचित संवर्धन आवश्यक हो तो दोनों के बीच सहयोग एवं सद्भावनाओं का तारतम्य घनिष्ठतम ही करना पड़ेगा।
दुर्भाग्यवश इन दिनों मालिक और श्रमिक वर्ग में दिन-दिन खाई चौड़ी होती जा रही है और सहयोग की कमी के रूप में सामने आ रहा है और महँगाई बढ़ रही है और देश का अर्थतन्त्र लड़खड़ाने लगा है। श्रम के बिना उसकी पूँजी और ज्ञान अपंग है, इसलिए उत्पादन में से उचित अंश श्रमकर्ता को भी दिया जाये। यह न्यायानुकूल है इसलिए किया जाए और इसलिए भी किया जाये कि आवश्यक सुविधाएँ मिलने पर ही श्रमिक अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमता ठीक रख सकता है और उसी आधार पर अपना कर्तव्य ठीक तरह निभा सकता है। इसलिए उचित यही है कि लाभ का जितना अधिक अंश श्रमिक को दिया जा सकता हो, उतना उन्हें वेतन, बोनस अथवा अन्य सुविधाओं के रूप में दिया जाये और उनके सम्मान का उचित ध्यान रखा जाये। दूसरी ओर श्रमिकों को भी पूर्ण सहयोग की भावना लेकर चलना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए कि उत्पादन बढ़ाकर वे समाज की महत्त्वपूर्ण सेवा कर रहे हैं। अपने इस कर्तव्य में किसी प्रकार की कमी लाकर देश को दुर्बल न बनने दें। उन्हें यह भी अनुभव करना चाहिए कि मालिक और मजदूर दोनों की ही गाड़ी रुक जायेगी और उस अवरोध का दुष्परिणाम सारे समाज को भोगना पड़ेगा।
अधिकार की प्रधानता और कर्तव्य की उपेक्षा का जो घातक क्रम हर क्षेत्र में चल पड़ा है उसने पारस्परिक सहयोग की नींव हिला दी है। असहयोग, घृणा और द्वेष की मनःस्थिति में न परिवार चल सकते हैं, न समाज की व्यवस्था ठीक रह सकती है और न उपार्जन के क्षेत्र में प्रगति हो सकती है। तनाव की स्थिति में हर वर्ग, हर पक्ष का नुकसान है। मनोमालिन्य और असन्तोष के कोई कारण हों तो उन पर शान्तचित्त से विचार-विनिमय किया जाना चाहिए और उलझनों का एक-दूसरे की स्थिति समझते हुए न्यायानुकूल ढंग से समाधान खोज लेना चाहिए। बुद्धिमत्ता इसी में है कि अवरोध और तनाव पैदा करने में कोई भी घृणा-प्रचारक या भ्रम फैलाने वाला आसानी से सफल हो सकता है। बुद्धिमत्ता सहयोग के अभिवर्धन में है। सो सस्ती नेतागिरी लूटने और अपना उल्लू सीधा करने वाले विघ्न संतोषी लोगों से सावधान रहना चाहिए उनकी करतूतें हर पक्ष को, केवल हानि ही पहुँचा सकती हैं
परिस्थिति ऐसी पैदा की जानी चाहिए कि चरित्रवान और दूरदर्शी व्यक्ति अपनी महत्ता के आधार पर चुने जा सकें। उन्हें एक पैसा भी खर्च न करना पड़े। जो चुनाव में पैसा पानी की तरह बहाता है और ओछे हथकण्डे अपनाकर जाति-बिरादरी, प्रलोभन, खुशामद आदि के आधार पर चुने जाने के षड्यन्त्र बना रहा है उसे निश्चित रूप से हराया जाना चाहिए यह तथ्य यदि वाटर समझ सकें तो ही अनुशासन की आशा करनी चाहिए। आज की स्थिति जब तक न बदलेगी भविष्य अन्धकारमय ही बना रहेगा।
प्रश्न --
(१) प्रजातन्त्र का क्या अर्थ है तथा इस प्रणाली में शासन तंत्र कैसे तंत्र कैसे चलना है? (२) हमारे शासन तंत्र में अपेक्षित कार्य-कुशलता न होने का क्या कारण है? (३) प्रतिनिधि कैसे चुना जाना चाहिए? (४) आजकल नागरिक मतदान करते समय किन बातों से प्रभावित होकर मतदान करते हैं? (५) वर्तमान परिस्थितियों से मतदान करते हैं? क्यों? (५) वर्तमान परिस्थितियों से मतदान का अधिकार सीमित करना क्यों आवश्यक है? (६) शासकीय कर्मचारी अशिष्टता व भ्रष्टाचार, आचरण एवं अवरोध वृत्ति के शिकार क्यों बनते जा रहे है? (७) योजनाएँ समयावधि में कार्यान्वित क्यों नहीं होतीं? (८) अपने देश में वोटरों को बहकाया जाना सरल क्यों है? (९) लोकमानस का स्तर ऊँचा उठाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? (१०) पार्टियाँ अपना गौरव क्यों खो चुकी हैं?
प्रबुद्ध नारी-महिला जागरण की सँभालें
किसी को गिराने का पाप तो कोई दूसरा भी कर सकता है पर उठाने के लिए यह आवश्यक है कि गिरने वाला स्वयं उस उत्थान प्रक्रिया में पूरे मन से सहयोग दे। स्त्री जाति की वर्तमान पददलित स्थिति का पाप सामन्तकालीन युग के पुरुष ने किया है। उसके मानवोचित अधिकार छीने और घरों की छोटी कोठरी में कैद करके उसे पर्दे के आवरण से जकड़ दिया। इस जकड़न में उसकी शारीरिक एवं मानसिक प्रतिभाएँ सड़-गल गई। परकटे पक्षी की तरह असहाय स्थिति में वह पहुँच गई। आर्थिक दृष्टि से परावलम्बी और मानसिक दृष्टि से पिछड़ी हुई आज की नारी की दशा अति दयनीय है। उसे पुरुष के उचित एवं अनुचित आदेश नतमस्तक होकर सहने पड़ते हैं। संयोगवश उसे निराश्रित, विधवा, परित्यक्ता जैसी स्थिति में पड़ना पड़े तब तो मरण से भी बुरा और कष्टकारक जीवन जीते देखकर पत्थर भी रो सकता है।
इस विपन्न परिस्थिति से नारी को निकाला जाना मानवता की एक आवश्यक एवं न्यायोचित ऐसी माँग है
जिसे अविलम्ब पूरा किया जाना चाहिए। अर्द्धांग लकवे से पीड़ित शरीर की तरह जिस समाज की आधी जनसंख्या अपंग बनी पड़ी हो उसका गृहस्थ जीवन, पीढ़ियों का निर्माण तथा प्रगति का प्रयास दिवा-स्वप्न की तरह असंभाव्य ही बना रहेगा। सर्वांगीण प्रगति की दिशा में प्रथम कदम हमको नारी-उत्कर्ष के लिए प्रबल प्रयत्नों की योजना के साथ आगे बढ़ाने चाहिए। कहना न होगा कि इस संदर्भ में पुरुष जाति को पाप-प्रायश्चित की तरह नारी उत्कर्ष के लिए बड़ी से बड़ी से सुविधाएँ देने की तैयारी करनी होगी वहाँ नारी को स्वयं भी इस अभाव की पूर्ति के लिए बढ़-चढ़कर योगदान देना चाहिए। अपने उत्कर्ष के लिए हर किसी को प्रबल प्रयत्न करने पड़े हैं आज की नारी के सामने भी कर्तव्य की यह विकट चुनौती सामने खड़ी है।
आवश्यकता ऐसी बहादुर नारियों की है जो अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को लात मार महिला कल्याण के महान यज्ञ में अपने जीवनों का उत्सर्ग करने लिए साहस भरे अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सकें। अपने देश में शिक्षित नारी निकलती हैं जो अपने वर्ग की दयनीय दुर्दशा के लिए कसक अनुभव करें और उन्हें उठाने के लिए बहादुरों जैसी चिन्तन क्रिया अपनायें। विवाह की इच्छा स्वाभाविक है, पर अपने वर्ग की दुर्दशा मिटाने के लिए उस सुख को लात मार देना भी अस्वाभाविक नहीं है। आज तो सुशिक्षित महिलाओं में से बहुतों को दहेज जैसे अभिशापों के कारण अविवाहित रहने के लिए विवश होना पड़ता है। यह लड़कियाँ भी नौकरी करतीं और पेट पालतीं हैं और विलासिता के कुछ अधिक साधन जुटा लेने भर के गोरखधन्धे में पड़ी हुई-घर कुटुम्ब वालों के लिए आमदनी का साधन मात्र बनकर गुजारती हैं। काश, इसमें से कुछ के मन में अपने वर्ग के प्रति करुणा जग सकी होती तो निस्सन्देह वे रूखी-सूखी रोटी खाकर अपने निरर्थक और नीरस जीवन को नारी उत्कर्ष की सेवा-साधना में लगाकर धन्य बना सकती थीं। कितनी ही विधवाएँ-कितनी ही परित्यक्ताएँ हैं-जो अपने लिए और अपने आश्रय दाताओं के लिए भार बनकर जी भर रही हैं। यह बहुमूल्य जीवन यदि महिला-कल्याण के लिए नियोजित हो सके होते तो परिस्थितियाँ वैसी न होतीं जैसी आज दीख रही हैं। कितनी ही सुसम्पन्न महिलाएँ ऐसी हैं जिनके घर प्रचुर सुविधा-साधन हैं। कितनी ही सुसम्पन्न महिलाएँ ऐसी हैं जिनके घर प्रचुर सुविधा-साधन हैं। नौकर-चाकर रहते हैं और जिन्हें बहुत-सा समय खाली काटना पड़ता है। इन्होंने अन्य लोगों की तरह यदि शौकिया रूप में भी महिला-मंडल का काम सँभाला होता तो अनेक को इनका अनुकरण करने की प्रेरणा मिलती। नारी उत्थान का आन्दोलन जो अपने देश में बड़े आदमियों के परिवार की महिलाओं का चोंचला भर बनकर रह गया है एक प्रखर क्रान्ति का रूप धारण कर सकता था-यदि उसमें कर्मठ, त्यागी, बहादुर और दर्दमन्द प्रबुद्ध महिलाओं का समुचित योगदान मिल सकना सम्भव हुआ होता।
समय की माँग है कि बिना वक्त गँवाये नारी उत्थान का एक प्रचण्ड आन्दोलन खड़ा किया जाये। पुरुषों को उसके लिए पृष्ठभूमि तैयार करना चाहिए। ऐसी सुशिक्षित महिलायें जिनके कन्धे पर पारिवारिक उत्तरदायित्व का बहुत बोझ नहीं है, आयें और ऐसी महिलाओं को ढूँढ़ निकालें जिनमें सेवा के बीजांकुर मौजूद हों और जिनमें बहादुरी तथा प्रतिभा की रोशनी थोड़ी बहुत हो उन्हें साथ लेकर एक महिला-संगठन कहीं भी तैयार किया जा सकता है यह कार्य कथा-कीर्तन, भजन, सत्संग जैसे स्तर का भी इस प्रकार के आयोजनों में अपनी महिलाओं को उसमें जाने और सम्मिलित होने की छुट दे सकते हैं। महिलाओं को उनके घर वाले चहारदीवारी से बाहर कहाँ निकलने देते हैं पर एक बार यदि थोड़ी-थोड़ी छूट उन्हें मिलने लगी तो यह क्रम आगे चलकर इतना समर्थ भी हो सकता है कि वे समाज-सेवा, शिक्षा तथा दूसरे मंगलमय कार्यों में योगदान दे सकें ।। दूरदर्शी लोग तो स्वेच्छापूर्वक अपनी महिलाओं को ऐसे संगठनों ओर आयोजनों में भेजेंगे क्योंकि इससे उनकी प्रतिभा निखरेगी और उस प्रतिभा से अन्ततः वे अपने परिवार के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होंगी।
कितने ही कार्य ऐसे हैं जो नारी उत्थान के लिए हर जगह आरम्भ किये जा सकते हैं और किये जाने चाहिए। शिक्षा का स्थान किये सर्वप्रथम है। निरक्षरता मिटाये बिना ज्ञान के कपाट खुलने का अवसर ही नहीं आता। प्रौढ़ महिलाओं के लिए तीसरे पहर चलने वाली पाठशालाएँ मुहल्ले-मुहल्ले और गाँव-गाँव स्थापित की जानी चाहिए। इनसे अक्षर ज्ञान ही नहीं मानव-जीवन एवं सामाजिक स्थिति की सभी छोटी-बड़ी समस्याओं के अनुरूप समझाए जायें और उत्कर्ष की आधारशिला बन सकता है। जहाँ सम्भव हो सिलाई आदि गृह-उद्योगों का भी उसमें सम्मिश्रण रखा जाये। कन्या पाठशालाएँ, महिला-विद्यालय, बाल-मन्दिर, शिल्प-शिक्षा, आरोग्यशाला, प्रसूति ग्रह, संगीत-प्रशिक्षण, कला-कौशल जैसी कितनी ही रचनात्मक गतिविधियाँ महिला सेवा-संगठनों द्वारा चलाई जा सकती हैं। सुशिक्षित महिलाएँ उनके संस्थापन एवं संचालन का उत्तरदायित्व सँभालें तो धन के अभाव में ये प्रवृत्तियाँ रुक सकने वाली नहीं हैं। अवश्य ही जनता का उदार सहयोग उन्हें मिलेगा।
कितने ही आन्दोलन ऐसे हैं जो घर-घर जाकर चलाये जा सकते हैं। (१) घरों, दुकानों तथा कमरों में टँगे हुए नारी को अपमानित करने वाले अश्लील चित्रों को हटाया जाना और उनके स्थान पर गायत्री मन्त्र तथा प्रेरणाप्रद वाक्य तथा आदर्श चित्रों का लगाया जाना, (२) जूठन न छोड़ने की प्रतिज्ञा, (३) भौंड़ी फैशन, चुस्त कपड़े, भद्दे शृंगार तथा जेवर लादने जैसे ओछी टीपटाप छोड़कर शालीन वेश-विन्यास अपनाने का अनुरोध (४) घरों में उपासना कक्षों की स्थापना, (५) उत्सवों में भद्दे गीत न गाने की प्रतिज्ञा, (६) पर्दा प्रथा का त्याग, (७) अन्ध विश्वासों का बहिष्कार, (८) मृतक-भोज, विवाह-शादियों के अपव्यय का विरोध, (९) घरेलू शाक-वाटिका का प्रशिक्षण, (१०) गृह-व्यवस्था के अगणित पक्षों का ज्ञान तथा उनका व्यवहार। इस प्रकार के अनेक कार्यक्रम ऐसे हो सकते हैं जो घर-घर जाकर सिखाने, समझाने की अपेक्षा रखते हैं। परिस्थिति के अनुसार और भी कितने ही कार्य ऐसे हो सकते हैं जो नारी की खोई शक्ति को जगाने और बहुत पड़ा है, कहीं से भी किया जा सकता है। आवश्यकता ऐसी प्रतिभावान नारियों की है जो महिला-कल्याण के लिए अपनी भावना एवं शक्ति का एक बड़ा अंश इस परम उपयोगी और अति महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए समर्पित कर सकें।
प्रश्न ——
(१) वर्तमान स्त्री जाति को पद-दलित स्थिति में पहुँचाने क पापी कार्य किसने किया है? (२) पद-दलित स्थिति में पापी कार्य किसने किया है? (३) इस विपन्न परिस्थितियों से स्त्री जाति को निकालने के लिए क्या प्रयत्न होने चाहिए? (४) इस स्थिति से नारी जाति को निकालने के लिए स्वयं नारी को क्या प्रयत्न करने चाहिए? (५) इस समय स्त्री जाति किस तरह जीवनयापन कर रही है? स्त्री-जाति को अपमान भरे जीवन से निकाल कर ऊँचा उठाने में सहायक ऐसे कौन-से आन्दोलन हैं, जिनमें स्त्री जाति की प्रतिष्ठा फिर स्थापित हो सकती हैं?
नारी उत्कर्ष के लिए कुछ विशेष प्रयत्न किये जायें
भारतीय धर्म और संस्कृति ने नारी का दर्जा नर ऊँचा माना है। मातृ-देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव की उक्ति में देवताओं की गणना करते हुए पहले माता, फिर पिता व आचार्य की गणना है। भगवान के साथ उनकी सहधर्मिणी शक्ति का नाम प्राथमिकता के साथ जुड़ा हुआ है। लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम, राधे-श्याम, उमा-महेश, शची-पुरन्दर, सिद्धि-गणेश आदि युग्मों में नारी पहले और नर पीछे है। हिन्दू धर्म के आदि व्यवस्थापक मनु ने नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं।
यह मान्यता जब तक अपने समाज में बनी रही तब तक वह समृद्ध और समुन्नत बना रहा। अपना लाखों वर्ष का गौरवपूर्ण इतिहास ऐसा ही है जिसमें व्यक्तियों निर्माण, परिवार में स्वर्ग का अवतरण और समाज का समुन्नत स्वरूप अक्षुण्ण रूप से बना रहा। इस सृजन में नारी का ही योगदान अधिक रहा है। पुरुष उपार्जन एवं संघर्ष की क्षमता में आगे है तो नारी में भावनात्मक उत्कृष्टता एवं रचनात्मक सूझ-बूझ का बाहुल्य है। दोनों की तुलना में नारी की विशेषताओं का ही मूल महत्त्व आगे है।
इसे एक दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि भारत को राजनैतिक पराधीनता के चंगुल में फँसना पड़ा और आक्रमणकारियों ने हमें धन-मान से ही वंचित नहीं किया वरन् नेतृत्व भी करती थी। आत्म-विकास और सामाजिक रचना के सभी साधन उसे उपलब्ध थे। पर आक्रमणकारियों ने न केवल आर्थिक लूट-खसोट का कुचक्र चलाया वरन् हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को भी इस चतुरता के साथ गिराया कि हम मुद्दतों तक खड़े हो सकने लायक ही नहीं रह गये। ऐसी ही एक दुरभिसन्धियों में एक यह भी है कि हम नारी को हेटी, नगण्य, दुर्बल, अविश्वस्त, दासी एवं रमणी मात्र मानने लगे और उसके महान गौरव को तले रौंद डाला।
प्राचीनकाल की और आज की नारी में आकाश-पाताल जैसा अन्तर कर दिया गया। तब वह हर क्षेत्र में नारी नेतृत्व करती थी और पूज्य थी पर अब तो पद-दलित बनी बेतरह कराह रही है। मानो वह कोई अविश्वस्त, अक्षम्य अपराधिनी हो। पालतू पशु मुँह खोलकर घर में रह सकते हैं और बाजार में घूम सकते हैं पर सवर्ण और ऊँचे कहे जाने वाले परिवारों की नारियों को पर्दे के भीतर रहना होगा। उनके मुख पर पर्दा रहना चाहिए। गाय मारने वाले, हत्यारों को प्रायश्चित में मुँह ढककर एक वर्ष तक रहने का पहले प्रचलन था, उन्हें कलंकी कहते थे-वे किसी को अपना मुँह नहीं दिखाते थे। गाय न मारने पर भी भारतीय नारी को गौ हत्यारी की तरह आजीवन मुँह ढककर रहना पड़ता है। पुरातन पंथियों के यहाँ पर्दा, मर्दों की नाक का प्रश्न बना हुआ है। यदि वे मुँह खोल दें तो समझना चाहिए कि उस घर में मर्दों की नाक कटकर गिर पड़ी।
लड़कियों की शिक्षा अनावश्यक मानी जाती है। बहुत हुआ तो चिट्ठी पत्री लिखने या सुख-सागर, प्रेम-सागर पढ़ने जितना अक्षर ज्ञान करा दिया। पढ़-लिखकर लड़कियाँ बुरी हो जाती हैं, उन्हें कोई नौकरी करनी है? सयानी लड़की को घर से बाहर नहीं जाने देना चाहिए आदि प्रतिपादन लोग बड़ी शान के साथ करते हैं। शिक्षा मनुष्य मात्र के लिए आवश्यक है। उससे बौद्धिक विकास होता है और मानसिक दृष्टि से विकासवान होना हर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। इस तथ्य को लड़कों के लिए ठीक समझा जाता है और लड़कियों के लिए गलत। किसी को पद होना हो तो उसे असहाय और असमर्थ बनाये रखना पड़ता है। नारी पर हमने इतने प्रतिबन्ध लगा रखे हैं कि वह अपनी स्वतंत्र प्रतिभा का कभी विकास ही नहीं कर सकती। उसे इन परिस्थितियों में आजीवन असहाय और अपंग बनकर ही रहना पड़ता है।
लड़की और लड़के के बीच आकाश-पाताल जैसा अन्तर किया जाता है। लड़की की जन्म घर भर में उदासी और चिन्ता का कारण माना जाता है और लड़का जन्मते ही ढोल बजते और बतासे बँटते हैं। लड़कों से लड़कियाँ पिटती रहती हैं और माँ-बाप हँसते रहते हैं। भोजन और वस्त्र में बहुत अन्तर रखा जाता है। मनोरंजन, खेलकूद की सुविधा केवल लड़कों को है। विवाह-शादी के वक्त यह अन्तर और भी वीभत्स रूप धारण करता है। बूढ़ी गाय दान करनी हो तो पंडा साथ में चारे-दाने के लिए दक्षिणा माँगता है। लड़कियाँ बूढ़ी गायों की तरह हैं, जिन्हें किसी को दिया जाय तो पहिले यह पूछा जाता है इस निरर्थक कूड़े को घर में तब घुसने देंगे जब बड़ी से बड़ी रकम उसके चारे-दाने को दहेज में और दी जाये। यह नारी जाति का नृशंस अपमान है। लक्ष्मी के रूप में जिस देवी का, जिस निःस्वार्थ परोपकारिणी का प्रवेश परम मंगलमय और सौभाग्य माना जाना चाहिए था, उसी को लेने में लोग सीधे मुँह बात नहीं करते और हजार तरह के नखरे दिखाते हैं, यह कितनी निर्लज्ज परिस्थिति है। विधवा होने पर तो वह एक प्रकार से विशुद्ध कलंकिनी बन जाता है, मानो उसी ने पति की जान-बूझकर हत्या की हो।
आधे शरीर को लकवा मारे जाने पर जो दुर्दशा शरीर की होती है वही हमारे समाज की हो रही है। अशिक्षित, अविकसित और पद-दलित नारी किसी के लिए भी सुखकर नहीं हो सकती। अपनी अयोग्यता के कारण वह अपना शरीर, मन, स्वभाव और कर्तृत्व दोष-दुर्गुणयुक्त और रुग्ण रखेगी। पति को प्रसन्न रखने, उसके कार्यों में हाथ बटाने और बोझ हल्का करने के संबंध में उसे कुछ ज्ञान ही न होगा, कुछ सीखा, जाना ही न होगा तो बेचारी करेगी भी क्या? बच्चों का प्रजनन तो हर योनि की मादा कर सकती है, पर उनका निर्माण और विकास करना माता का काम है। माता का उत्तरदायित्व सँभालने के लिए उसका शिक्षित, सुविकसित और सुसंस्कृत होना आवश्यक है। आज के घुटन भरे वातावरण में कोई नारी अपने शारीरिक, मानसिक, दायित्व, पारिवारिक, शिशु निर्माण एवं सामाजिक उत्तरदायित्व का भार उठा सकती है यह सोचना ही व्यर्थ है। अविकसित नारी स्वयं ही एक समस्या बनकर रहेगी।
प्रकृति के नर और नारी के बीच नाम मात्र का ही अन्तर किया है। एक को मूँछें आती हैं एक को नहीं आतीं। ऐसी छोटी-मोटी शारीरिक विभिन्नताओं को छोड़कर दोनों की प्रतिभा, क्षमता, योग्यता, सामर्थ्य एवं समानता एक जैसी है। कई संदर्भ में तो नारी भी आगे बढ़ी-चढ़ी है। उसकी योग्यता एवं सामर्थ्य का लाभ समाज को न मिले तो एक दो घण्टों में ही सम्पन्न हो सकने वाली प्रक्रिया में ही सारा समय लगा दे और आये दिन बच्चे पैदा करने के जंजाल में अपने को लगाने-घुलाये रहे यह कोई गौरव की बात नहीं है, न इसमें नारी की शोभा है और न उस नर की जो अपने को अधिपति बनाये बैठा है।
समय आ गया है कि विपन्नता को सुधारा और बदला जाये। नारी की उत्कृष्टता को समझा और उसके प्रति आदर-कृतज्ञता का भाव रखा जाये। बीमारी से उठने के बाद रोगी के साथ अन्य घर वालों की अपेक्षा कुछ अधिक उदार व्यवहार किया जाता है। दो हजार वर्ष की पद-दलित स्थिति के कारण नारी को जो क्षति पहुँची है उसकी पूर्ति के लिए ब्याज सहित अधिक सद्व्यवहार पाने का उसे अधिकार है। लड़कों की अपेक्षा हर क्षेत्र में लड़की को अधिक सुविधाएँ मिलनी चाहिए और नारी के विकास का क्रम तीव्रगति से अग्रगामी करने के लिए उसे पुरुषों की अपेक्षा अधिक सुविधाएँ मिलनी चाहिए। तभी तो वर्तमान विषमता का अन्त हो सकेगा।
हर विचारणीय व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने समाज की अर्द्धांग मूर्छा को दूर करने का प्रयत्न करें और वे सब परिस्थितियाँ उत्पन्न करें जिनसे नारी भी नर के समान ही समर्थ और कार्य-कुशल बनकर समाज की अभिनव रचना में समान रूप से योगदान दे सके।
प्रश्न ——
(१) नारी का सम्मान क्यों किया जाना चाहिए? (२) विदेशियों ने हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को किस प्रकार गिराया? (३) भारत में नारियों की वर्तमान अवस्था पर प्रकाश डालिए? (४) पर्दा-प्रथा से क्या हानियाँ हैं? (५) भारतीय समाज ने नारी को अबला और अपंग क्यों बना रखा है? (६) नारी जाति का नृशंस अपमान क्या है? (७) आज हमारे समाज की हालात कैसी है? (८) सिद्ध कीजिए की अविकसित नारी एक समस्या है। (९) नारी के प्रति हमारा क्या कर्तव्य है? (१०) नारी को पुरुषों की अपेक्षा अधिक सुविधाएँ क्यों मिलनी चाहिए? (११) विचारशील व्यक्ति का नारी समाज के प्रति क्या कर्तव्य है।
ऊँच-नीच की मान्यता अन्याय मूलक है
घोड़ा, गाय, बन्दर, कबूतर, आदि पशु-पक्षियों की तरह मनुष्य भी एक जाति है। उसके रंग आकृति में प्रदेश और प्रकृति के कारण कुछ अन्तर भी हो सकता है, पर मूलतः वे एक ही वर्ग या जाति के गिने जाते रहेंगे। यदि भाषा, प्रदेश, आकृति, प्रकृति आदि के आधार पर उनका वर्गीकरण भी किया जाए तो भी उससे मूल जाति एकता में कोई अन्तर नहीं आता। मनुष्य भगवान का पुत्र है। पिता को अपने हर बच्चे से समान प्यार होता है और वे सभी बच्चे एक वंश वर्ग के माने जाते हैं। परस्पर भाई-भाई एक ही परिवार एवं अंश-वंश के हैं।
प्राचीन काल में कार्य और व्यवसाय के विभाजन की दृष्टि से समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्गों में बाँटा गया था। वह विभाजन स्वाभाविक है। इस विभाजन में स्वाभाविक सुविधा रहती है और वंश परम्परा से चली आने वाली कुशलता में अक्षुण्णता एवं अभिवृद्धि होती चलती है योग्यता, प्रकृति, परिस्थिति एवं अभिरुचि के अनुसार इस कार्य विभाजन में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती पर कठिनाई तब उत्पन्न होती है, जब वंश या कार्य के कारण किसी वर्ग को ऊँच और किसी को नीच बताया जाने लगे। अध्यापक अपने को ऊँच कहे और सैनिक को नीचा माना जाये। इतना ही नहीं इस विभेद के कारण कोई किसी को छूने तथा हाथ से हुआ पानी पीने, रोटी खाने तक से इन्कार करने लगे, तब आश्चर्य होता है और कठिनाई उत्पन्न होती है।
दुष्टता भरे कर्म करने वाले को नीच कहा जाये और उसने सामाजिक बहिष्कार का क्रम बनाया जाये तो बात समझ में आती है, ज्ञान, सेवा, सद्गुण, सदाचार के आधार पर किसी को बड़ा, ऊँचा माना जाये और सम्मानित किया जाये, इसके पीछे भी कारण है। सम्मान और असम्मान की स्थिति किसी को अपनी चारित्रिक उत्कृष्टता-निकृष्टता के आधार पर मिले तो इसमें औचित्य माना जायेगा पर गुण, कर्म, स्वभाव की समानता होते हुए भी केवल वंश के आधार पर कुछ लोग ऊँचे समझे जायें और कुछ को नीचा कहा जाये, यह बात तर्क या कारण की परख पर उचित नहीं उतरती है। कोई वंश ऊँचा क्यों हो सकता है? कोई वंश नीचा क्यों कहलाये? इसका न कोई कारण समझ में आता है और न इस प्रतिपादन का कोई औचित्य ही सिद्ध होता है।
किसी वंश में किसी समय कुछ श्रेष्ठ पुरुष हुए थे, इसलिए उस वंश के लोगों को अभी भी श्रेष्ठ पुरुषों जैसा सम्मान मिले, यह दावा बेबुनियाद है। ब्राह्मण वंश में वरिष्ठ, अत्रि, याज्ञवल्क्य, भारद्वाज आदि ऋषि-मुनि तपस्वी, त्यागी हुए हैं, तो रावण, कुम्भकरण, मारीच, खर−दूषण जैसे दुष्ट हुए हैं। उत्तराधिकारी का दावा किसी जाये तो उसमें श्रेष्ठता ही नहीं, निकृष्टता भी हिस्से में आयेगी। तब सम्मान ही नहीं, तिरस्कार का भाजन भी बनना पड़ेगा। किसी वंश में न तो सभी लोग अच्छे हुए हैं, न बुरे। सबको उनकी उत्कृष्टता-निकृष्टता के अनुरूप मान, तिरस्कार मिलता रहा है। उत्कृष्टता किसी वंश की बपौती नहीं। हर वर्ग में श्रेष्ठ व्यक्ति होते रहे हैं। इसी प्रकार कोई वर्ग ऐसा नहीं जिसमें निकृष्ट चरित्र के पूर्व पुरुषों की एक लम्बी शृंखला न मिल सके फिर उनके वंशजों का दावा केवल उत्कृष्टता पर ही हो और वे उसी आधार पर अपने को ऊँचा घोषित करें और ऊँचे लोगों को मिलने वाले सम्मान को प्राप्त करना चाहे तो यह उनकी अनधिकारी चेष्टा होगी। इसी प्रकार किसी वंश के किन्हीं पूर्व पुरुषों ने कुछ अनुपयुक्त कार्य किये हों और उस कारण तिरस्कार मिला हो तो उन दोषों से रहित वंशजों का दावा केवल उत्कृष्टता पर ही हो और वे उसी आधार पर अपने वाले सम्मान को प्राप्त करना चाहें तो यह उनकी अनधिकार चेष्टा होगी। इसी प्रकार वंश के किन्हीं पूर्व पुरुषों ने कुछ अनुपयुक्त कार्य किये हों और उस कारण तिरस्कार मिला हो तो उन दोषों से रहित वंशजों का इस कारण तिरस्कृत किया जाना भी अन्यायमूलक है।
जाति-पाति की बात समझ में आ सकती है पर ऊँच-नीच का विभेद सर्वथा अवांछनीय है। कोई ईमानदार और समझदार व्यक्ति इसका समर्थन नहीं कर सकता। भारतीय धर्म शास्त्र इस मान्यता का सर्वथा विरोधी है। यहाँ अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण क्षुद्र-वंश के अगणित व्यक्ति ब्राह्मण पद पाते रहे हैं। इन प्रमाणों से भारतीय इतिहास-पुराणों का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। मध्यकाल में भी रैदास, कबीर, नानक, दादू, नामदेव, विवेकानन्द आदि अनेक भक्त ब्राह्मणोत्तर जातियों में कितने ही तो क्षुद्र-वर्ण में पैदा हुए, पर उनकी गरिमा किसी ब्राह्मण से कम नहीं आँकी गई। गाँधी, बुद्ध, महावीर भी तो ब्राह्मण भी करते हैं। श्रेष्ठता को जातीयता की सीमा में आबद्ध नहीं जा सकता।
आज अपने देश की विचित्र दशा है। हिन्दू-समाज की एक तिहाई जनसंख्या अछूत, अस्पृश्य कहलाती है। उन्हें सवर्ण हिन्दुओं के समान नागरिक अधिकार अभी भी नहीं मिले हैं। संविधान ने अस्पृश्यता को अवांछनीय और कानून ने उसे दण्डनीय माना है। जनमत का विवेक ऊँच-नीच की मान्यता को अनर्गल घोषित कर चुका है। पर अभी भी हमारे मस्तिष्क और व्यवहार में वे ही मान्यताएँ जमी बैठी हैं। यह विष इतना गहरा उतर गया है कि एक ही जाति के लोग अपनी उपजातियों को नीच-ऊँच मानते हैं।
बहुत सोचने पर भी इस ऊँच-नीच की मान्यता का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। शास्त्रों और पूर्व पुरुषों की दुहाई देना व्यर्थ है। अन्धकार युग में किसी ने कुछ श्लोक गढ़कर किसी ग्रंथ में चिपका दिये हों तो बात दूसरी है पर महान हिन्दू धर्म इतना अनुदार और संकीर्ण तो नहीं हो सकता कि वह मनुष्य-मनुष्य के बीच पड़ने वाली घृणा-द्वेष को बढ़ाकर सामाजिक एकता को छिन्न-छिन्न करने वाली खाई खोदे। हमने बारीकी से हिन्दू धर्म का अध्ययन किया है और उसमें इस बात की कहीं गन्ध भी नहीं पाई है कि केवल वंश परंपरा के कारण किसी को नीच, किसी को ऊँच माना जाये फिर यह मान्यता कहाँ से चल पड़ी।
वर्ण भेद के अनुदार और संकीर्ण विचारधारा की संपूर्ण विश्व में भर्त्सना हो रही है। अमेरिका की तरह काले-गोरे रंग के आधार पर ऊँच-नीच की भावना जहाँ-तहाँ पाई जाती है, उसको विश्व में लोकमत ने एक स्वर से धिक्कारा है। अफ्रीका की जो गोरी सरकारें इस नीति पर चल रही हैं, उनकी राष्ट्र-संघ तक ने भर्त्सना की है और इस चाल से बाज आने की चेतावनी दी है। महात्मा गाँधी ने इसके विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह आन्दोलन चलाया था। जहाँ कहीं यह नीति बरती जाती है, जो भी इसका प्रतिपादन करता है वह विवेकशील लोकमत के आगे अपराधी ठहराता है। न्याय और विवेक की कसौटी पर मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊँच-नीच की मान्यता का समर्थन करना मानवता के प्रति एक अपराध ही माना जाता रहेगा।
इस मान्यता ने हिन्दू समाज की अपार क्षति की है। अछूत वर्ग इस तिरस्कृत सामाजिक स्थिति को स्वीकार न करेगा, यह निश्चित है। जैसे-जैसे उनमें चेतना उभरेगी वे इस व्यवस्था के प्रति विद्रोह करेंगे। यह विद्रोह पहले पचास वर्ष से दिन-दिन उग्र होता चला जा रहा है। मुसलमानी शासन में अगणित अछूत मुसलमान बने, ईसाई शासन में उनका झुकाव ईसाई शासन की ओर हुआ। अब वे अपनी स्वतन्त्र चेतना के उभार पर बौद्ध और ईसाई इतनी तेजी से होते चले जाते हैं कि यह आशंका होती है कि कुछ दिन में एक भी अछूत वर्तमान मान्यताओं वाले हिन्दू समाज में न रह सकेगा। मद्रास में यह विद्रोह शासन-सत्ता तक अपने हाथ में ले चुका है। नागालैण्ड का ईसाईस्तान इसी भूल की प्रतिक्रिया है। इन दिनों जिस प्रकार के राजनैतिक षड्यन्त्र चल रहे हैं, उन्हें देखते हुए यह असंभव नहीं कि अछूत, सवर्ण हिन्दुओं से अलग होकर ईसाई मुसलमानों में जा मिलें और बहुमत उनका हो जाये। ऐसी दशा में स्वर्ण-हिन्दुओं को सामाजिक अन्याय का कैसा कठोर प्रायश्चित करना पड़ेगा, उनका अनुमान लगा सकना किसी भी दूरदर्शी के लिए कठिन नहीं होना चाहिए।
वर्तमान ऊँच-नीच परक वंश जाति की मान्यताएँ हिन्दू-समाज की न्यायनिष्ठा पर भारी कलंक लगाती हैं। इससे विश्व के हर विचारशील वर्ग में हमारी अप्रतिष्ठा होती है। हमें संकीर्ण, अनुदार और अन्यायी कहा जाता है। सामाजिक दृष्टि से हम छिन्न-भिन्न, विभाजित और अस्त-व्यस्त होते हैं। अन्याय का दोष लगाकर अपना ही एक तिहाई वर्ग अपने से अलग हो जाये, यह हमारे लिए हर दृष्टि से लज्जा की बात है। बात यहीं तक सीमित नहीं, हमारी अनीति से क्षुब्ध होकर दूसरे धर्मों में गये हुए अपने लोग अगले दिनों प्रतिशोध की भावना से ओत-प्रोत होंगे और हमें अपनी करतूतों का दण्ड भुगतना पड़ेगा।
अच्छा हो हम समय रहते चेतें। अपनी भूल सुधारें और मानव मात्र की एकता एवं समता के सार्वभौम न्याय सिद्धान्त को स्वीकार करें। ऊँच-नीच की मान्यताओं का जितना शीघ्र उन्मूलन हो उतना ही हमारा कल्याण है।
प्रश्न ——
(१) सिद्ध कीजिए कि ‘मनुष्य मात्र की जाति एक है। (२) प्राचीनकाल में समाज को कितने वर्ग में बाँटा गया था व क्यों? (३) ऊँच-नीच का आधार गुण होना चाहिए या वंश (४) क्या पूर्वजों के कारनामों के कारण उनके वंशजों को ऊँच या नीच माना जाना चाहिए? कारण सहित बताओ। (५) आज भारतीय समाज की विचित्र दशा क्यों है क्या प्राचीनकाल में जाति भेद था? (६) वर्गभेद की संकीर्ण नीति से देश का क्या अहित हुआ है? (८) हिन्दू समाज संकीर्ण, अनुदार एवं अन्यायी क्यों कहा जाता है? (९) ऊँच-नीच के मामलों में हमारा कर्तव्य क्या है।
अश्लीलता की बाढ़ हमें पतित बना रही है
स्त्री-पुरुषों के बीच का सम्बन्ध अति पवित्र और अति उच्च स्तर का है। माता और पुत्र, बहिन और भाई, बाप और बेटी के रूप में नर-नारी के सम्बन्धों की चर्चा सदा बहुत ही पवित्रता और शालीनता के साथ की जाती है। पति-पत्नी के बीच भी जिस रिश्ते का निर्वाह होता है वह सखा, मित्र, सहायक, विश्वासी, साझीदार, सम्पर्क और घनिष्ठतम सद्भावना सम्पन्न स्नेही का है। दाम्पत्य-जीवन की सारी अवधि इसी दृष्टिकोण के साथ वे काटते हैं।
वासना का, काम क्रीड़ा का स्थान मानव जीवन में, गृहस्थ जीवन में नगण्य-सा है। जो है उसे भी इतना गुह्य रखा जाता है कि किसी तीसरे को उसे देखने-सुनने का अवसर न मिले। जन-जीवन की दृष्टि में इस अति नगण्य और गुह्य तथ्य को सदा सार्वजनिक हानियाँ हैं। काम-चिन्तन शरीर में अनावश्यक उत्तेजना पैदा करके वीर्य जैसी अमूल्य धातु के अपव्यय का द्वार खोलता है, इससे जीवन शक्ति रूपी मूल्यवान पूँजी घटती है और शरीर दुर्बल, अशक्त एवं रुग्ण बनकर अल्पायु के संकट में फँसता है। स्वप्नदोष, प्रमेह, शीघ्रपतन, नपुंसकता आदि कितने ही रोग से जलाया, उबाला, गलाया जायेगा उतना ही वह क्षीण और अशक्त होता चला जायेगा। मानसिक दृष्टि से भी अनेक हानियाँ हैं, अश्लील-चिन्तन में इतना आकर्षण है कि मस्तिष्क उन्हीं बातों में रुचि लेने का अभ्यस्त बन जाता है और ऐसी अनैतिक, अमर्यादित की कल्पना के विचार घूमेंगे उनके लिए शिक्षण, अध्ययन, भजन, चिन्तन, मनन तथा महत्त्वपूर्ण विषयों पर एकाग्र होना कठिन हो जायेगा।
सामाजिक दृष्टि से कामुकता भरे अश्लील चिन्तन नारी जाति के प्रति उस घृणित स्तर की कल्पना करने के लिए घसीट ले जाते हैं जैसी कि वह वस्तुतः है नहीं। नारी बहिन है, नारी माता है, नारी बेटी है और नारी सहधर्मिणी है। उसे रमणी, कामिनी, वासना एवं उपभोग की प्रतिमा के रूप, गोद में खेलती बेटी के रूप में चित्रित किया जा सकता है।
आज कामुकतापूर्ण उपन्यासों की बाढ़ आ गई है। काम-कला का दिग्दर्शन करने वाली नंगी, गन्दी और गुह्य क्रिया-कलापों को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत करने वाली किताबें तथा तस्वीरें बाजार में भरी पड़ी हैं। देवी-देवताओं के युग्म कलेण्डरों और तस्वीरों में वे इस पोज के साथ छपते हैं मानो कोई वेश्या और लम्पट काम कौतुक करने के लिए उतारू हो रहे हों। अवतारों के महान प्रयोजन को विस्मृत कर उन्हें वासना का प्रतीक बना दिया गया है।
दुकानों, घरों और कमरों में टँगी हुई अर्द्धनग्न महिलाओं की तस्वीरें बताती हैं कि हम नारी को उसकी गरिमा से गिराकर निर्लज्ज वेश्या के स्तर पर खड़ा करने के लिए उतारू हैं। उसकी सारी महत्ताएँ समाप्त हो गई केवल कामुकता की एक विशेषताओं और गरिमाओं की ओर से आँखें बन्द कर ली गई हैं। नारी की वृद्धावस्था, शैशव, वात्सल्य, कठोर श्रम एवं शालीनता का लगता है अब कोई महत्त्व नहीं रहा है। अन्यथा उस स्थिति के भी चित्र बनते और वे भी हमारे घर-कमरों की शोभा बढ़ाते। नारी का नग्न, अश्लील और कामुक चित्रण हमारी रुग्ण मनोभूमि का चिन्ह हैं। सिनेमा के पोस्टर से लेकर ग्रामोफोन के रिकार्डों तक, सभी ने मानों नारी की आबरू पर हमला करने की ठानी है और वे उसे वासना के उपभोग की तरह छपने और बिकने वाला साहित्य आजकल अश्लीलता और कामुकता की दुष्प्रवृत्ति को भड़काने के लिए प्रस्तुत होता है, लोगों की पशुता से अनुचित लाभ उठाने के लिए उसे विष के घुट पिलाने वाले, उपकरण जुटाने वाले दोनों हाथों से दौलत समेटने में लगे हुए हैं।
लेखनी और वाणी का सारा प्रवाह इसी दिशा में लगा हुआ है। कला मानो जन-साधारण की पशु-प्रवृत्तियों को भड़काने के लिए ही सृजी गई हो। भगवती, सरस्वती को जिस घृणित कार्य में आज के कलाकार, गायक, अभिनेता, चित्रकार, साहित्यकार एवं दुकानदार ने बलात् नियोजित कर दिया है उसे कला के प्रति किया गया जघन्य अपराध ही कहना चाहिए।
इस भौंड़े विचार-प्रवाह का प्रभाव नारी पर भी पड़ा है और वह नर की पशुता के अनुरूप झुकने के लिए अपने को तैयार करती जा रही है। चूँकि नर-पशुओं द्वारा नारी की माँसलता और नग्नता को सराहा जाता है इसलिए नई पीढ़ी की नारी ज्ञात या अज्ञात रूप में अपने को उसी ढाँचे में ढालने लगी है। शृंगार और फैशन के नाम पर अब उसने ऐसा वेष-विन्यास बनाना शुरू कर दिया है जो भौंड़ा और फूहड़ कहा जा सकता है। अर्द्धनग्नता और उभारों को सर्व-साधारण की आँखों में आकर्षण ढंग से लाने का विन्यास वेश्याओं को शोभा देता है, शालीन परिवारों की महिलाओं के लिए यह किसी भी प्रकार उपयुक्त नहीं। जिससे दूसरों को अपनी ओर घूरने की उत्तेजना मिले, ऐसा शृंगार भारतीय ललनाओं के गौरव को गिराने वाला ही कहा जायेगा। हम अपनी भोली बच्चियों को सतर्क करें कि वे अनजान में ही देखा-देखी ऐसे शृंगार एवं विन्यास को न अपनायें जो पुरुष-वर्ग की पशुता को और अधिक उत्तेजित करने में सहायक बने। लज्जा और शालीनता ही नारी का भूषण है। यह तथ्य भारतीय नारी के रोम-रोम में समाया रहना चाहिए।
अश्लीलता की पूतना हमारी आत्मा को विष के घूँट पिलाने आई है। इस पिशाचिनी से जैसे भी बने पिण्ड छुड़ाया जाना चाहिए तभी हम शालीनता, सज्जनता एवं संस्कृति के सजग प्रहरी कहला सकेंगे। भय और माँस बेचने की तरह इस प्रकार की पुस्तकें, तस्वीरें बेचने से दुकानदार इन्कार कर दे जो कि कामुकता भड़काकर जन-मानस को अधःपतित बनाने की भूमिका बनाती है। कलाकार अपनी कला को कलंकित न करें। गायक वह न गायें, जिसमें मनुष्य की प्रवृत्तियाँ पशुता की ओर उन्मुख हों वादक वह न बजाये जिससे वासना भड़के। अभिनेता वैसा अभिनय न करे जिससे अपरिपक्व बुद्धि की नई पीढ़ी कामुकता के दुष्परिणाम भुगते। साहित्यकारों के लिखने के लिखने के लिए बहुत बड़ा है। उसमें से अश्लीलता पर प्रतिबंध लगाकर और कुछ ही लिखें।
सबसे बड़ी बात यह है कि प्रत्येक विचारशील ऐसे उत्पादन से घृणा करे। इस व्यवसाय से धन कमाने वालों की भर्त्सना करे और सर्व-साधारण को सचेत करे कि अश्लीलता की सर्वनाशी आग से खेलने का भौंड़ा मनोरंजन बन्द करें अन्यथा यह बहुत महँगा पड़ेगा। पुस्तकालयों में ऐसी उत्तेजित पुस्तकें बहिष्कृत करा दी जायें। घर-कमरों टँगे ऐसे चित्र हटा दिये जायें जिनकी बाप-बेटी साथ-साथ बैठकर समीक्षा न करे सकें। रेडियो और रिकार्डों में से उत्तेजक गानों को न सुनने की ठान-ठानी जाये। सभी सार्वजनिक प्रदर्शनों के रूप में अश्लीलता की पूतना को एक आसुरी विभीषिका के रूप में निकाला जाये और दुष्ट होलिका राक्षसी की तरह उसे जलाया जाये। किसी जमाने में विदेशी वस्त्रों की होली जलाते थे, अब समय आ गया है कि अश्लीलता और कामुकता भड़काने वाले समस्त प्रसाधनों को कूड़े-करकट की तरह इकट्ठे करके उन्हें होली की तरह जलायें और उस दुष्प्रवृत्ति की हानि सर्व-साधारण को समझायें। इन सबसे हम बचें अपने को बचायें और सर्व-साधारण को अश्लीलता की अनैतिकता से सतर्क करें। यही हमारे लिए उचित है।
प्रश्न ——
(१) अनेक रूपों में नर और नारी के बीच का सम्बन्ध हमारे भारतवर्ष में किस तरह का माना जाता रहा है? (२) वासना की चर्चा क्या सामाजिक जीवन में करना उपयुक्त होगा? (३) वासना की चर्चा की चर्चा सामाजिक जीवन में करने से हमें क्या हानियाँ है? (४) मस्तिष्क में कामुकता का विचार भरने से हमें क्या हानियाँ है? (५) आज नारी जाति का किस प्रकार अपमान किया जा रहा है? (६) उपन्यास और चित्र-तस्वीरें आज किस तरह पेश की जा रही हैं? (७) पवित्र नारी को निर्लज्ज वेश्या के रूप में पेश करने में कौन-कौन से उद्योग बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं? (८) इस समय नारियों को क्या करना चाहिए, पर वे क्या कर रही हैं? (९) अश्लीलता की बाढ़ से समाज को बचाये रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
भिक्षा-वृत्ति को व्यवसाय न रहने दें
मनुष्यता का यह सबसे बड़ा अपमान है कि समर्थ होते हुए भी व्यक्ति दूसरों के आगे अपने व्यक्तिगत व्यय के लिए हाथ पसारे। स्वाभिमान, आत्म-सम्मान को कष्ट और अभाव सहकर भी सुरक्षित रखा जाना चाहिए। कोई दुर्घटना अथवा आकस्मिक विपत्ति के समय आपत्ति धर्म की बात दूसरी है पर सामान्यतया यही नीति है कि मनुष्य अपने हाथ-पैर से काम करके गुजारा करे। दूसरों के आगे हाथ न पसारें और अपने आत्म-सम्मान को न गिराये।
अपने देश में अब भिखमंगेपन ने एक सुव्यवस्थित व्यवसाय का रूप धारण कर लिया है। पिछली सरकारी जनगणना के अनुसार अपने यहाँ ८० लाख व्यक्ति भिक्षा-व्यवसाय से अपनी आजीविका चलाते हैं, इसमें असमर्थ एवं अपंगों की संख्या एक लाख से भी कम है, शेष द्वारा उपार्जित कर सकें पर वे करते नहीं।
भिक्षा व्यवसाय पर निर्भर लोगों में ७० लाख व्यक्ति साधु ब्राह्मणों का वेश बनाकर विचरण करते हैं और १० लाख अपने को दरिद्र-असमर्थ बतलाते हैं। दोनों ही वर्गों में अधिकांश की स्थिति ऐसी नहीं है कि उन्हें भीख माँगने पर उतारू होने के अतिरिक्त कोई मार्ग न हो। भजन के लिए यह आवश्यक नहीं कि भिक्षाजीवी बनकर ही उसे किया जाये। अपनी आजीविका से निर्वाह करते हुए भी भजन का उद्देश्य पूरा हो सकता है अन्यथा ऋण भार में वह भजन भी चला जायेगा। यह बात मोटी बुद्धि से भी समझी जा सकती है। ८० लाख तो वे भिखारी हैं, जिन्होंने अपनी एकमात्र आजीविका भिक्षा घोषित की है। ऐसे लोग व्यवसाय तो दूसरे करते हैं पर समय-समय पर भिक्षा का लाभ लेते रहते हैं, ऐसे ‘अर्द्ध-भिक्षुक’ भी लगभग इतने की यह वृत्ति बहुत ही बुरी लत है। इससे अपने समाज के गये-गुजरे आत्म-सम्मान का घृणित चित्र उपस्थिति होता है।
प्राचीनकाल में साधु-ब्राह्मण भिक्षा माँगा करते थे। इसलिए वे अपना सारा समय लोक -मंगल के लिए समर्पित कर सकें ,, आत्म-शुद्धि और आत्म-समर्थता के लिए वे थोड़ा समय भजन, में देते थे। निज की न उनकी कोई सम्पत्ति होती थी, न आकांक्षा। भजन और स्वाध्याय भी वे इसलिए करते थे कि इन माध्यमों से विनिर्मित उनका प्रखर व्यक्तित्व लोक-मंगल के लिए अधिक उपयोगी एवं समर्थ सिद्ध हो सके। भिक्षा इसलिए माँगते थे कि आजीविका उपार्जन में उनका बहुमूल्य समय नष्ट न होकर वह समाज के काम आये। ऐसे लोकसेवी कम संख्या में होते थे, उनके पुनीत कर्तृत्व को देखकर लोग भिक्षा देते हुए भी अपने को धन्य मानते थे। उन दिनों हजारों-लाखों लोक-सेवी, साधु-ब्राह्मणों के सत्प्रयत्नों से अपना समाज हर दृष्टि से सुविकसित और समुन्नत बनता था। तब साधु-ब्राह्मणों की संख्या वृद्धि, राष्ट्रीय सौभाग्य की वृद्धि गिनी जाती थी।
आज परिस्थितियाँ बिल्कुल उल्टी हो गई हैं। प्राचीनकाल जैसे साधु-ब्राह्मण अब इतने कम हैं कि उन्हें उँगलियों पर गिना जा सके। अधिकांश तो परिश्रम से बचने के लिए यह धन्धा अपनाये हुए हैं। पचास लाख साधु भी यदि रचनात्मक कार्यों में लग सके होते तो आज परिस्थितियाँ कुछ और ही रही होतीं। भारत में सात लाख गाँव हैं। पचास लाख व्यक्ति यदि उनका काया-कल्प करने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, सदाचार आदि समस्याओं को हल करने के लिए-जुट पड़ें तो हर गाँव के पीछे ७ साधु आते हैं। साक्षरता की आवश्यकता एक-दो वर्षों में पूरी हो सकती है। गृह-उद्योग पनप सकते हैं। व्यायामशालाएँ, पाठशालाएँ, पुस्तकालय, रक्षादल, सार्वजनिक स्वच्छता, सामाजिक कुरीतियाँ, आलस्य आदि दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण आदि कार्यक्रमों से क्षेत्रों में आशाजनक परिवर्तन देखा जा सकता है। इतने लोक-सेवियों द्वारा देश की परिस्थितियाँ कुछ से कुछ बनाई जा सकती हैं। चीन की ५० लाख सेना संसार भर में आतंक पैदा करती है अपने ८० लाख सेना संसार भर में भारतीय धर्म और संस्कृति की ध्वजा फहरा सकते हैं पर दुर्भाग्य को क्या कहा जाए जिसने साधु-वेशधारी तो हमारे सामने खड़े कर दिये किन्तु प्राचीनकाल जैसा दृष्टिकोण और कर्तृत्व उनमें ढूँढ़े नहीं दीखता।
ऐसी दशा में क्या यह उचित है कि इतनी बड़ी जनसंख्या इस प्रकार जनता पर भार बनी बैठी रहे और अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए नाना प्रकार के प्रपंच तथा मूढ़ विश्वास फैलाती हुई लोकमानस को विकृत करती रहे। इसी प्रकार उन भिखारियों का प्रश्न है, जो काम करने में सर्वथा असमर्थ न होते हुए भी भिक्षा पर उतर आये हैं। यदि मनुष्य चाहे तो थोड़ी-बहुत शारीरिक असमर्थता के बीच भी कुछ न कुछ श्रम और उपार्जन कर सकता है इच्छा हो तो काम भी मिल सकता है और राह भी। अनिच्छा हो तो असमर्थता, अपंगता और दरिद्रता का ढोंग बनाने में अब वे प्रवीण हो गये हैं। ऐसे भी अनेक उदाहरण मिले हैं कि निष्ठुर लोग बालकों के हाथ-पैर तोड़कर, आँखें फोड़ उन्हें अपंग बना देते हैं ताकि उनके बहाने अधिक आजीविका उपार्जन हो सके।
राष्ट्र की आर्थिक और नैतिक कमर तोड़ देने वाले इस भिक्षा-व्यवसाय का अन्त करने के लिए हर विचारशील व्यक्ति को सजग होना चाहिए। कुपात्रों को दान देना इस दुष्प्रवृत्ति को फलने-फूलने का अवसर देता है। हर उदार मनुष्य को विवेक से काम लेना चाहिए और देते समय यह भली-भाँति परख लेना चाहिए कि उसका पैसा किस प्रयोजन में लगेगा। ढोंग या परम्परा से प्रभावित होकर दान देने की मानसिक दुर्बलता से जब तक जूझा न जायेगा भिक्षा-व्यवसाय की विष-बेल बढ़ती रही चली जायेगी।
जो सर्वथा अपंग, असहाय हैं, उनके निर्वाह का प्रबन्ध संस्थाओं अथवा सरकार को करना चाहिए। जो लोक-सेवा में संलग्न साधु-ब्राह्मण हैं, उनके निर्वाह का प्रबन्ध धर्म संस्थाओं को करना चाहिए। प्राचीनकाल में यातायात, डाक, बैंक आदि का प्रबन्ध न होने से सर्वत्र मिल सकने वाली भिक्षा उपयोगी रही होगी। अब सुयोग्य लोक-सेवा साधुओं के निर्वाह का क्रम ईसाई मिशनों के पादरियों की तरह बड़ी आसानी से हो सकता है। उपरोक्त दोनों ही वर्गों के अधिकारी को छोड़कर शेष उन सभी भिक्षुओं को निरुत्साहित किया जाना चाहिए, जो न तो लोकसेवी हैं और न अपंग। प्राचीनकाल में साधु पुजते थे-इसलिए इन्हें भी गुणी न होते हुए वेश धारण मात्र से पूजा जाये यह कोई तर्क नहीं। प्राचीनकाल के ब्राह्मण अपने महान व्यक्तित्व और कर्तृत्व के कारण श्रद्धास्पद थे। वे गुण न रहने पर भी उनके वंशज वही सम्मान पायें, इसका कोई कारण नहीं। सेवा, कर्तव्य है-भिक्षा अधिकार। यदि सेवा नहीं-तो भिक्षा भी नहीं। यह तथ्य सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया जाये तो यह एक करोड़ लोगों की भिक्षुक एवं अर्द्ध-भिक्षुक जनसंख्या कुछ उपार्जन में लग सकती है। गरीब-जनता पर पड़ने वाला एक भार बच सकता है, उपार्जन और श्रम से इन लोगों का आत्म-गौरव और कर्तृत्व निखर सकता है, वे अपने लिए और समाज के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता हैं।
भिक्षा अनैतिक है। भिक्षा व्यवसायी की मनोभूमि दिन-दिन पतित होती जाती है। उसका शौर्य, साहस, पौरुष, गौरव सब कुछ नष्ट हो जाता है और दीनता मस्तिष्क पर बुरी तरह छाई रहती है। अपराधी की तरह उसका सर नीचा रहता है। अपनी स्थिति का औचित्य सिद्ध करने के लिए उसे हजारों ढोंग रचने पड़ते हैं और लाख तरह की मूढ़ताएँ फैलानी पड़ती हैं। यह भार जनमानस को विकृत बनाने की दृष्टि से और भी अधिक भयावह है।
हर विचारशील का कर्तव्य है कि भिक्षा व्यवसाय को निरुत्साहित करे। कुपात्रों को वाणी मात्र से भी उत्साह न दें। जिस पर प्रभाव पड़ सके, उन्हें भिक्षा छोड़ने और श्रम करने के लिए कहें। इतनी बड़ी जनसंख्या को इस अवांछनीय व्यवसाय से विरत करने के लिए हमें गम्भीरतापूर्वक सोचना चाहिए और उसके लिए कुछ ठोस प्रयत्न करना चाहिए।
प्रश्न ——
(१) समर्थ होते हुए भी किसी के आगे हाथ पसारने में क्या-क्या हानियाँ होती हैं? (२) भारत में भिक्षा व्यवसाइयों की संख्या बतलाते हुए, इनके भिक्षा माँगने की शैली बतलाइए? (३) प्राचीनकाल के साधुओं की स्थिति को स्पष्ट कीजिए? (४) सारे साधु यदि जीविका उपार्जन के लिए भिक्षा-वृत्ति के लिए साथ-साथ ही रचनात्मक कार्यक्रमों में जुट जायें, तो वे देश का भला किस प्रकार कर सकते हैंं, (५) भिखारियों से देश और समाज को कैसे हानि है, सिद्ध कीजिए? (६) विचारशील व्यक्तियों को भिक्षावृत्ति को समाप्त करने के लिए किस प्रकार का कार्य करना पड़ेगा? (७) हमारी सरकार तथा धर्म संस्थाएँ भिक्षा उन्मूलन में किस प्रकार सहयोग दे सकती हैं? (८) यदि भिक्षा व्यवसाय खत्म कर दिया जाए तो समाज कैसे इनके बोझ से छूटेगा?
मृतक भोज भी अविवेकपूर्ण न हों
मनुष्य के मरने के बाद उसके परिवारी प्रियजनों को वियोग-जन्य दुःख और संचित सम्बन्ध के यकायक सदा के लिए टूट जाने से एक भावनात्मक उफान आता है। उस समय वे लोग स्वर्गीय आत्मा के लिए कुछ करने के मूड में होते हैं। कुछ करते भी हैं। संसार भर में मृत आत्मा के कल्याण एवं सुख-सुविधा के लिए पूजा, प्रार्थना, श्राद्ध, पिण्ड से लेकर दान, पुण्य तक कुछ न कुछ किया जाता है। भारतवर्ष में भी ऐसा ही प्रचलन है।
भारतीय आदर्श यह है कि-हर व्यक्ति उपार्जित श्रमसिक्त आजीवन को ही उचित मानता रहा है। दूसरों के अनुदान पर निर्भर रहना, बिना परिश्रम की कमाई खाना, यहाँ सदा से गर्हित माना गया है। क्योंकि किसी का संचित धन-बिना परिश्रम किये किसी को मिले और वह उस हराम की कमाई से बैठे-बैठे गुलछर्रे उड़ावे, तो समाज में एक बुरी परम्परा का जन्म होता है। बिना श्रम उपार्जित धन में अनेक दोष-दुर्गुण उत्पन्न होते हैं और देखा-देखी दूसरे भी वैसी ही हरामखोरी की सुविधाएँ पाने के लिए मुक्त का काम तलाश करते हैं और अपराधों की दुष्प्रवृत्तियाँ पनपती हैं। इस तथ्य को भारतीय दर्शन ने भली प्रकार समझाया और चरित्र में सम्मिलित रखा है।
बच्चे जब तक अशक्त एवं अविकसित रहें तब तक अभिभावकों से उन्हें पोषण पाने का अधिकार है पर जब वे समर्थ हो जाते हैं तो उन्हें स्वावलम्बी हो गये हैं तो उन्हें मृत पूर्वज की कमाई समाज को लौटा देनी चाहिए।
प्राचीन प्रथा यह थी कि दिवंगत व्यक्ति के आश्रित अवयस्क हो उतना रखकर शेष लोकमंगल के लिए, स्वर्गीय आत्मा की शांति और सद्गति के लिए दान कर देते थे। जिनके परिवारी समर्थ एवं स्वावलम्बी हैं वे मृतक का सारा पैसा समाज के लिए खर्च करते थे। साधारण स्थिति में किसी मृतक के छोड़े हुए धन का उपयोग उसके उत्तराधिकारियों के लिए अग्राह्य एवं अनुचित ही माना जाता था। अतएव वह स्वयं ही अथवा समाज के लोग इकट्ठे होकर उस धन को लोक-मंगल के लिए खर्च करने की योजना एवं प्रक्रिया बनाते थे। मृतक के प्रति बरती हुई इसी श्रद्धा-सद्भावना का नाम श्राद्ध था। पुण्य फल से ही आत्मा की सद्गति होती है। जो दान-लोभ अथवा परिस्थितिवश मृतक न कर सका उसकी पूर्ति उत्तराधिकारी कर देते थे। अनीति से उपार्जन का प्रायश्चित भी हो जाता था और पुण्य-फल से शान्ति सद्गति भी मिलती थी। इस दृष्टि से उस जमाने की यह श्राद्ध परम्परा उचित ही थी। तथ्य सदा शाश्वत और सनातन होते हैं। वे आज भी उतने ही उपयोगी एवं उचित हैं। उत्तराधिकारी में प्रचुर धन पाना अब भी औचित्य की दृष्टि से अनुपयुक्त में प्रचुर धन माना अब भी औचित्य की दृष्टि से अनुपयुक्त है। इसलिए सरकार ‘मृत्यु टैक्स’ आदि लगा कर उसे वापिस समाज के लिए माँग भी रही है। कई उदार व्यक्ति अपने पूर्वजों के नाम पर स्मारक रूप से कुछ लोकोपयोगी कार्य भी करते देखे जाते हैं। यह स्वस्थ परम्परा अति उचित, न्यायानुकूल एवं प्रशंसनीय है।
पूर्वकाल में मृतक भोज का आधार यही था। पीछे अन्धकार और अज्ञान का जमाना आया, जीभ के लोभी लोगों ने लोक-मंगल की बात भुला दी और बढ़िया दावतें उड़ाने का नया सिलसिला शुरू कर दिया। मृतक की बची सम्पत्ति खूब मिठाई और मालपुओं के रूप में उड़ा डालने का क्रम चल पड़ा। बाप ने कुछ छोड़ा हो या न छोड़ा हो, घर की स्थिति कैसी ही दयनीय क्यों न हो मृतक भोज के नाम पर यार-दोस्तों और परिचितों को एक लम्बी-चौड़ी दावत देती पड़ती है। लोक मंगल के कार्यों में लगने वाला धन चतुर पण्डित ठग लेता है। वही चीजें मृतक को दिला देने का झाँसा देकर अन्न, वस्त्र, पलंग, गाय मकान, आभूषण आदि झटक ले जाते हैं। यदि किसी परमार्थ कार्य में लगाकर वह पुण्य बन गया होता तो सम्भव है उससे स्वर्गीय आत्मा का कुछ हित भी हो तो पर किसी वंश विशेष में उत्पन्न हुआ व्यक्ति स्वयं खाकर मृतक को उसका लाभ पहुँचा देने में किसी प्रकार समर्थ नहीं हो सकता। शैय्यादान, गोदान आदि मृतक के नाम पर जो लोग लेते हैं वे उन वस्तुओं आदि मृतक के नाम पर जो लोग लेते हैं वे उन वस्तुओं को अथवा अनुदान से प्राप्त शक्ति को परमार्थ कार्य में तो लगाते नहीं, फिर मृतक को उसका लाभ मिलेगा कैसे? ‘ब्राह्मण वंश का व्यक्ति जो भले ही परमार्थ परायण न हो-दान पाकर पुण्य-फल उत्पन्न कर सकता है।’ यह मान्यता सर्वथा भ्रमपूर्ण है। आज ब्रह्म-भोजों का आडम्बर इसी भ्रम पर टिका हुआ है। इसमें दाता के धन की बर्बादी है और ब्राह्मण वंश के लोगों का दूसरों की कमाई खाकर भिक्षुक जैसी पतित मनोभूमि में उतरना, उनको भी हर दृष्टि से हानिकारक है। बेचारों पर व्यर्थ ऋणबोझ बढ़ना है, जो आगे चलकर उन्हें ही चुकाना भी पड़ेगा।
आज की परिस्थितियाँ बहुत बदल गई हैं। अब प्राचीनकाल जैसी स्थिति नहीं रहीं। उपार्जन के साधन सीमित हैं। महँगाई बढ़ रही है। पहले कृषि, शिल्प आदि घरेलू कार्य में सारा घर लगा रहता था और आवश्यकता भर के लिए पर्याप्त कमा लेता था। अब घर के प्रमुख व्यक्ति ही कमाते हैं और घर के अन्य सदस्य बैठ कर खाते हैं। फैशन तथा स्टैण्डर्ड बनाने के फालतू खर्च भी एक आवश्यकता ही बन गये हैं तथा महँगी चिकित्सा, शिक्षा, कमर-तोड़ भार डालती है। ऐसी दशा में औसत परिवारों को बड़ी तंगी के साथ गुजारा करना पड़ता है। उनमें इतनी गुंजाइश नहीं रहती कि घर में फालतू पैसा ढूँढ़ निकाला जाये और उसे अनावश्यक समझकर मृतक भोज जैसी रूढ़ि के नाम पर खर्च कर डाला जाये।
प्राचीनकाल में ब्राह्मण, साधु जैसे लोक-मंगल में संलग्न वर्गों की भोजन, वस्त्र एवं आवश्यक उपकरणों की व्यवस्था कर देना उचित था पर जब आज उस प्रवृत्ति के व्यक्ति रहे ही नहीं तो ब्रह्म-भोज की बात भी कहाँ रही? सर्व साधारण के लिए, मित्र परिजनों के लिए तो आज जैसी मृतक भोजन की दावत हर दृष्टि से अवांछनीय और अग्राह्य है। जिसके घर में पन्द्रह दिन भी मृत्यु हुए नहीं बीते हैं-जिस घर में लोग शोक-संतप्त हैं, एक उपयोगी व्यक्ति के चले जाने से जिस घर को आर्थिक एवं व्यवस्था सम्बन्धी आघात लगा है, उसी आँगन में दावत खाने पहुँचना किसी स्वाभिमानी व्यक्ति के गौरव के सर्वथा विपरीत है। कोई कठोर, निष्ठुर और निर्लज्ज मनुष्य ही ऐसी दावत गले उतार सकता है। सामान्य सज्जनता और विचारशीलता जिसके भीतर विद्यमान है वह ऐसी दावतें करने की न तो किसी को सलाह दे सकता और न उसमें सम्मिलित होना ही स्वीकार कर सकता है।
आज रूढ़िवादिता से ग्रसित एवं साधारण के सामने मृतक भोज एक प्रतिष्ठा का विषय बन गया है। घर में न होने पर कर्ज लाकर भी इसे करना पड़ता है और बहुत कर देखा गया है कि उस कर्ज और ब्याज के कुचक्र से ही घर की पूँजी, सुविधा तथा इज्जत नीलाम हो जाती है। इस व्यय भार से दब जाने पर परिवार के बच्चों की शिक्षा, बीमारों की चिकित्सा, वयस्कों के विवाह आदि आवश्यक कार्यों में भारी अड़चन उत्पन्न हो जाती है और इस कुप्रथा का बहुत बुरा परिणाम दुःखपूर्वक बहुत दिनों तक भोगना पड़ता है। घर का एक व्यक्ति गया, उसकी चिकित्सा, अन्त्येष्टि आदि में पैसा लगा और अन्त में मृतक भोज का भारी दबाव सिर पर आ गया। यह परिस्थितियाँ किसी चैन से गुजर करने वाले परिवार को भी विपत्ति में फँसा देने लिए पर्याप्त हैं।
विचारशीलता का तकाजा है कि हम अनावश्यक और अवांछनीय रुढ़ियों को उखाड़ फेकें और इसके लिए अन्ध परम्पराओं के अनुयायी, अविवेकी लोग विरोध या निन्दा करें तो उसे उपेक्षा में उड़ा दें। उचित बात बच्चे की भी मानना चाहिए और अदूरदर्शितापूर्ण सलाह चाहे बूढ़ा सम्बन्धी अथवा पंच कहलाने वाले व्यक्ति की ही क्यों न हो-हमको उसे मानने से साहस-पूर्ण दृढ़ता से और नम्रतापूर्वक इन्कार कर देना चाहिए। इन सत्यानाशी कुप्रथाओं का अन्त साहसी लोगों की दृढ़ता और अग्रगामिता से ही होगा।
यदि किसी के पास मृतक का छोड़ा हुआ ऐसा धन है, जिसके बिना भी परिवार का काम चल सकता है तो उस पैसे के प्रति उत्तराधिकारियों को लोभ-मोह न बढ़ाकर उसे लोक-मंगल के विद्यालय, पुस्तकालय स्थापना जैसे उपयोगी कार्यों में लगा देना चाहिए, अथवा थोड़ा बहुत जितनी श्रद्धा हो इन निमित्तों में दे देना चाहिए। मृतक श्राद्ध की परम्परा पर हमें इसी दृष्टिकोण से विचार करना चाहिए।
प्रश्न ——
(१) मृतक भोज के कारण एवं प्रयोजन पर प्रकाश डालिए? (२) भारतीय आदर्श क्या रहा है? (३) हरामखोरी से क्या हानि है? (४) आत्मा की सद्गति कैसे होती है? (५) मृत्यु टैक्स क्यों लगाया जाता है? (६) हिन्दू समाज की सर्वाधिक भ्रमपूर्ण मान्यता क्या है? (७) बदली हुई परिस्थितियों में मृतक भोज अनावश्यक क्यों हो गया है? (८) मृतक भोज खाना स्वाभिमानी व्यक्ति के गौरव के सर्वथा विपरीत क्यों है? (९) सत्यानाशी कुप्रथाओं का अन्त कैसे होगा? (१०) मृतक की सम्पत्ति का सर्वोत्तम सदुपयोग किन-किन कामों में करना चाहिए।
भूत-पलीत और उद्भिज देवी-देवताओं का जंजाल
आध्यात्मिक प्रगति के लिए बड़ी उपयोगिता है। इन सद्गुणों के आधार पर आत्मोत्कर्ष का पथ-प्रशस्त होता है पर यह श्रद्धा, विश्वास, विवेक, तर्क और मिथ्यात्व पर आधारित श्रद्धा अन्ध-विश्वास एवं मूढ़ता मानी जाती है। उससे गलत दिशा में चल पड़ने और भयानक परिणाम भुगतने का क्रम बन जाता है। इस जाल-जंजाल में फँसा हुआ भोला मनुष्य हर प्रकार हानि उठाता और घाटे में रहता है। हमें विवेक और तथ्य पर आधारित श्रद्धा विश्वास अपनाना चाहिए किन्तु अन्धविश्वास और मूढ़ता से बचना चाहिये।
भारतीय जनता का एक बहुत भाग अशिक्षा, भोलेपन एवं धूर्तों के बहकाये जाने से अन्ध-विश्वास के भ्रम-जंजालों में बुरी तरह जकड़ा पड़ा है और जिनका कोई सिर-पैर नहीं है ऐसी मिथ्या मान्यताओं को अपना कर भारी विपत्तियाँ एवं हानियाँ आमन्त्रित करता रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि विवेक, तर्क, तथ्य और वास्तविकता को ढूँढ़ने की स्वतन्त्र चेतना हर मनुष्य में पैदा हो जाये जो निराधार मान्यताएँ अपना रखी हैं उन्हें छोड़ने का साहस उत्पन्न किया जाये।
अपने देश की पिछड़ी जनता में भूत-पलीतों और देवी-देवताओं की भीरू-मान्यताएँ बेतरह जड़ पकड़े हैं। मरने के बाद भारतीय मान्यता के अनुसार प्राणी स्वर्ग-नरक के बाद भारतीय मान्यता के अनुसार प्राणी स्वर्ग-नरक में जाता या नये जन्म लेता है। कोई दुष्ट या अशान्त आत्मा ही यदा कदा प्रेत बनता है और वह भी एकान्त में कर्मफल भोगकर नई गति पाता है। मनुष्यों को डराने वाले कुकृत्य करने की प्रेतों की प्रवृत्ति भी नहीं होती। अधिक से अधिक वे कभी अपने अस्तित्व का परिचय दे सकते हैं। जहाँ कहीं भी प्रेत-पितरों का धर्म-शास्त्रों में वर्णन है, इतना ही है। आजकल भूतों का दूसरा ही स्वरूप है। बीमारी अर्थात् भूत। कोई जरा भी बीमार हुआ कि भूतों का कुचक्र समझ लिया गया। ओझा, सयाने व दीवाने, तरह-तरह की किम्वदन्तियाँ गढ़कर भोले मनुष्यों के मन में अन्धविश्वास, भय और भ्रम पैदा करते हुए अपना उल्लू सीधा करते हैं। अपने देश में अब मानसिक रोग भी समाज की विषम परिस्थितियों ने बहुत बढ़ा दिये हैं। इन मानसिक रोगियों को भूत की कल्पना देने से उनका मन उसी पर जम जाता है और वे इस प्रकार का कथन एवं आचरण प्रस्तुत करते हैं मानो सचमुच ही उन पर भूतों का आधिपत्य हो। लाखों व्यक्ति भ्रम-जंजाल में जकड़े हुए वास्तविक चिकित्सा से वंचित रहते हैं और उस भ्रम के दलदल में दिन-दिन अधिक गहरे उतरते हुए अपना स्वास्थ्य, समय, धन और बहुमूल्य प्राण गँवाते रहते हैं। भूतों का जंजाल किसी महामारी से कम धन-जन की हानि नहीं करता, इसे एक पूरी मनोवैज्ञानिक विपत्ति ही मानना चाहिए। अशिक्षित ही नहीं शिक्षित जनता का भी एक बहुत बड़ा भाग इस व्यवस्था से बुरी तरह पीड़ित है।
विचारने की बात है कि यदि भूतों का ऐसा ही अस्तित्व और वर्चस्व रहा होता तो वह मूढ़मति भारतीयों तक ही सीमित न रहते। बुखार, खाँसी की तरह संसार के हर देशों में अपना प्रभाव दिखाते। शिक्षित और सभ्य जनता में भी उनका अस्तित्व दीख पड़ता, पर स्पष्टतः वे केवल पिछड़े लोगों तक ही सीमित हैं। बौद्धिक दृष्टि से समुन्नत लोगों में भूत-पलीत की चर्चा तक सुनने को नहीं मिलती। इससे प्रकट होता है कि यह एक भ्रम जंजाल मात्र है, जो आस्था का रूप धारण करके लाखों-करोड़ों व्यक्तियों के गले में फाँसी की तरह लिपटा बैठा है और उन्हें बुरी तरह पीड़ा देकर संत्रस्त कर रहा है। वास्तविकता को परखने का बारीकी से प्रयत्न किया जाये ‘शंका डायन-मनसाभूत’ की उक्ति सच प्रतीत होती है। आशंकाएँ ही डायन-चुड़ैल बनती हैं और मन के संदेह डर एवं भ्रम ही भूत बन जाते हैं। यदि विवेक, स्वतन्त्र चिन्तन एवं तथ्य खोजने की प्रवृत्ति हममें जग पड़े तो रूस, इंग्लैण्ड, जर्मन आदि देशों की तरह अपने यहाँ भी कहीं भूत-पलीतों की चर्चा सुनाई न पड़े और भारतीय जनता की एक भारी विपत्ति टल जाये।
ईश्वर एक है। उसकी विभिन्न कार्य-शक्तियों को अलंकारिक रूप में देव मानते हैं। भारतीय धर्म एक ईश्वरवादी है। देवताओं की जहाँ कहीं भी चर्चा है वहाँ एक ईश्वर की विशेषताओं एवं शक्तियों का सचित्र उल्लेख मात्र है। बहुत स्वभावों और प्रकृतियों के बहुत देवता यदि रहे होते तो उनके पारस्परिक विग्रह से ही भारी अशान्ति और उलझन पैदा हो जाती। तब वे देवता मनुष्यों के लिए एक विपत्ति बनकर खड़े हो जाते। अच्छा यही है कि ऐसी कोई बात नहीं ईश्वर एक है। उसका प्रतिद्वन्द्वी, साझीदार तथा सहायक कोई नहीं है। आवश्यकतानुसार उसके नाम, रूप भर हम गढ़ लेते हैं और अपनी श्रद्धा -पूजा की रुचि-भिन्नता के अनुरूप समाधान करते हैं।
उपरोक्त तथ्य से प्रतिकूल भारत के पिछड़े वर्ग में असंख्य देवी-देवताओं की कल्पना है। इनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते करोड़ों तक पहुँच गई है। हर कुल, परिवार, गाँव के अलग कुल देवता, कुल देवी, ग्राम देवता, ग्राम-देवी, बरसाती मेढकों की तरह उपज पड़े हैं। कुछ देवी-देवताओं के नाम तो पूजा-पुस्तकों में भी पढ़े-सुने जाते हैं पर इन प्रचलित देवी-देवताओं का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं, यह तो पावस की उद्भिज उपज की तरह यों ही अन्धाधुन्ध उपज पड़े हैं। वे अपनी पूजा करने वालों का कुछ हित तो कर नहीं सकते केवल डराते और त्रास देते रहते हैं। जरा-जरा सी बात पर अकारण नाराज, घर में कोई उत्सव हुआ और उनकी मर्जी की पूजा में भूल हो गई तो नाराज। नाराजी अर्थात् बीमारी और कठिनाई। लोग डर के मारे उन्हें पूजते हैं। यदि विश्वास हो जाये कि यह कुल देवता, ग्राम देवता नाराज नहीं होते या नाराज होकर कुछ कष्ट नहीं पहुँचाते तो अधिकांश में पूजने वाले उन्हें छोड़ बैठें। क्योंकि वे लाभ तो किसी का कुछ कर नहीं सकते। अधिकांश केवल हानि ही पहुँचाते हैं। देवता शब्द की कैसी दुर्गति है। देवता तो देने वाले को कहते है। जो व्यक्ति या शक्ति हमें कुछ देने में समर्थ हो देव शब्द उन्हीं के लिए प्रयुक्त होता है पर यहाँ तो परिभाषा ही दूसरी है। जो देते में असमर्थ हो, मिठाई प्रसाद, माँस मदिरा आदि के लिए लालायित रहे और उनके मिलने पर हर उचित-अनुचित मनोकामनाएँ पूरी करने लगे, न मिलने पर शत्रु जैसा आक्रमण करे-भला ऐसे भी कोई देवता होते हैं।
भगवान की भक्ति-देव पूजा एक उत्कृष्ट आस्था है। उससे आत्मिक प्रगति एवं नैतिकता के समर्थन में सहायता मिलती है। पर इन दिनों पिछड़े लोगों में प्रचलित देवी-देवताओं का स्वरूप उस धर्म आस्था के सर्वथा प्रतिकूल है। यह न आस्तिकता है न पूजा। इसके पीछे न श्रद्धा है और न विश्वास। यह तो मूढ़ता, अज्ञान मात्र है, जिसमें अपने लाखों-करोड़ों लोग बुरी तरह ग्रस्त-त्रस्त हो रहे हैं। जीवन में वैसे ही विपत्तियाँ क्या कम हैं जो भ्रम और अज्ञान के आधार पर भूत-पलीतों और उद्भिज देवी-देवताओं के रूप में एक मनोवैज्ञानिक संकट अपने लिए गढ़कर खड़ा करें और उससे उलझकर धन, समय, स्वास्थ्य की बर्बादी और अशान्ति का संकट ओढ़ें।
अन्धविश्वासों की एक बड़ी शृंखला जन-मानस को सन्देह और आशंकाओं के जाल में जकड़े हुए हैं। जादू-टोना, शकुन-ज्योतिष आदि की उलझनों में पड़े हुए कितने लोग अपना और दूसरों का क्या-क्या अनर्थ करते रहते हैं, इसकी एक लम्बी करुण कथा है। समय आ गया है कि लोग स्वतन्त्र चिन्तन सीखें और विवेक से काम लें। तब इस प्रकार के भूत-पलीत और उद्भिज देवी-देवता जो हमारे मस्तिष्क और समाज पर बुरी तरह से छाये हुए हैं, सहज ही हमें चिन्ता-मुक्त करके वहीं विलुप्त हो जायेंगे, जहाँ से उत्पन्न हुए थे।
प्रश्न ——
(१) श्रद्धा और विश्वास किस प्रगति के लिए आवश्यक है? (२) अन्ध-विश्वास की परिभाषा दीजिए? (३) भारतीय जनता का एक बहुत बड़ा भाग अन्ध-विश्वास में जकड़ा हुआ है क्या कारण है? (४) हम जिन्हें भूत-प्रेत आदि कहते हैं व उनसे डरते हैं, वह वास्तव में क्या हैं तथा वस्तुस्थिति क्या है? (५) यदि कोई बीमारी आदि हो जाती है, तो ओझाओं द्वारा उसे किस प्रकार का रूप दिया जाता है? (६) यदि यह मान लिया जाए कि भूत-प्रेत हैं तो शिक्षित समाज पर उनका प्रभाव न होना क्या सिद्ध करता है? (७) ईश्वर कौन हैं? क्या ईश्वर अनेक हैं? (८) गाँवों के पिछड़े लोग किस प्रकार के देवी-देवताओं को मानते हैं तथा उनसे उन्हें क्या हानियाँ हैं? (९) भूत-पलीत और इनका उद्भिज देवी-देवताओं के जंजाल से छूटने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
पशुबलि भारतीय धर्म पर एक कलंक
देवता उन्हें कहते हैं जो दें। प्यार, सेवा, सहायता, सौजन्य, करुणा, सद्भावना और समता का जो निरन्तर परिचय देते रहते हैं, वे देवता हैं। अन्तरिक्ष में रहने वाली परमेश्वर की ऐसी ही अदृश्य शक्तियाँ जो संसार के हित साधन में निरन्तर प्रवृत्त रहती हैं, देवता मानी और पूजी जाती हैं। इन गुणों वाले मनुष्य भी धरती के देवता भूसुर-महामानव, नर-नारायण कहलाते हैं। चाहे दृश्य हो चाहे अदृश्य, जो उच्च आध्यात्मिक तत्त्वों से, सत्प्रवृत्तियों एवं सद्भावनाओं से परिपूर्ण हैं, वे सत्ताएँ देव ही कहीं जायेगी और सदा उनका अर्चन-अभिनन्दन होता रहेगा। भारतीय धर्म में अनेक देवताओं का अस्तित्व माना गया है। यह और कुछ नहीं एक ही परमेश्वर की ऐसी विभिन्न शक्तियाँ एवं गतिविधियाँ हैं जो विश्व-मंगल में निरन्तर संलग्न हैं।
देव-पूजन में स्वागत-सम्मान के उपयुक्त वस्तुओं का नियोजन-अर्पण किया जाता है। धूप-दीप, नैवेद्य, चन्दन, पुष्प, रोली, अक्षत जैसी वस्तुओं में ही वह सात्विकता रहती है जिसे इष्ट देवता की परम सतोगुणी सत्ता प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करें। देव पूजा में दिव्य वातावरण एवं सतोगुणी भावनाओं की गतिविधियों एवं वस्तुओं का अर्पण अभीप्सित है। होता भी यही है।
तथ्य के सर्वथा विपरीत कुछ शताब्दियों से अपने देश के हर क्षेत्र में बहुत कुछ ऐसा उद्दण्ड आचरण प्रचलित हो चला है, जिसकी मूल तत्त्व के साथ कोई संगति नहीं बैठती। देव पूजा के लिए निरीह पशु-पक्षियों की नृशंस हत्या उन्हीं की प्रतिमाओं के सामने की जाये, इस कृत्य का किसी दृष्टि में कोई औचित्य दिखाई नहीं पड़ता। आध्यात्मिकता के तत्त्व ज्ञान, देवता की प्रकृति एवं स्थिति, पूजा की पवित्रता पर जितना अधिक विचार करते हैं, उतनी ही बलिदान की प्रचलित प्रथा सर्वथा अनुपयुक्त और अवांछनीय प्रतीत होती चली जाती है। निरीह प्राणियों की हत्या से देवता प्रसन्न होंगे और इस कुकृत्य को उचित मानकर उस कर्ता को कल्याणकारी वरदान देंगे, यह बात यदि वस्तुतः सही हो तो हमें देवत्व की स्थिति पर ही पुनर्विचार करना होगा। तब दया, करुणा और देने की प्रकृति को उसके स्वभाव का अंग न मानकर यह कहना होगा कि वे निष्ठुर, नृशंस, दुष्ट, शोषण के प्रतीक हैं और मूल्य प्राप्त करने के बाद ही अपनी कृपा बेचते हैं। वह मूल्य सज्जनतापूर्ण नहीं-कि उनको अपनी अन्तःवेदना में आमन्त्रित करके हम कहीं भारी भूल तो नहीं कर रहे हैं। देवत्व की दिशा में चलने की अपेक्षा हम कहीं असुरत्व को तो आमन्त्रित नहीं कर रहे हैं?
मध्यकालीन अन्धकार युग में इस देश में अनेक प्रकार की मूढ़ताओं का उद्भव हुआ है। उसने धर्म-क्षेत्र को भी अछूता नहीं छोड़ा। दया की देवी-करुणा की सरिता ममतामयी माता भगवती महाशक्ति मनुष्यों को करुणा, सहृदयता, सज्जनता और उदारता की ही प्रेरणा दे सकती है। उसे ऐसे विभत्स स्वरूप में प्रस्तुत करना कि उसे नृशंस निर्दयता पसन्द है। वस्तुतः भगवती अम्बा को ही नहीं समस्त देव सत्ता को ही कलंकित करना है। देवता यदि माँस लोलुप हैं, हत्या देखकर प्रसन्न होते हैं करुणा का परित्याग कर नृशंस आचरण करने की प्रेरणा करते हैं-तो उनमें और असुर में क्या अन्तर रहा? यदि ऐसा ही सच होता तो फिर देव और असुर की परख करना असम्भव ही हो जाता।
मध्यकालीन मूढ़ता और बौद्धिक विकृतियों की ही यह एक झाँकी है कि हम देवताओं के सामने मूक और निरीह पशुओं के हृदय विदारक उत्पीड़न और चीत्कार भरा वध करने को उचित मानने लगे। उचित ही नहीं मानते वरन् उसे करने के लिए भी उत्साहपूर्वक अग्रसर होते हैं। कितने ही प्रान्तों में-कितने ही मठों में देवी, भवानी अथवा भैरव की प्रतिमाओं के सामने आये दिन इन मूक प्राणियों की रक्त-धारा बहती रहती है। उसे बलिदान कहा जाता है। बलिदान शब्द त्याग, उदारता एवं तपश्चर्या के अर्थ में प्रयुक्त होता है। बलिदान अपना किया जाता है। शास्त्रों में अलंकार रूप से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे दुर्गुणों को पशु कहा जाता है और उनका वध करने की, परित्याग करने की पुण्य-प्रक्रिया को, बलिदान के रूप में इंगित किया है, यह कैसा बलिदान जिसमें कर्ता को अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए-मनोकामनाएँ पूरी कराने के लिए, देवता को रिश्वत प्रस्तुत करते हुए एक दुष्ट कर्म करना पड़े। देवता यदि किसी के प्राण लेकर अपनी क्रूरता को तुष्ट करने लगे और रिश्वत लेकर मनोकामनाएँ पूरी करने लगे तो हम फिर मनुष्यों के सामने घोर अन्धकार ही अन्धकार है। हमें करुणा, दया, सेवा और उदारता की शिक्षा प्रेरणा कौन देगा? देवताओं में से देवत्व चला गया तो हम मनुष्यों में उसका संचार कैसे होगा। जब देवताओं ने आसुरी प्रकृति और प्रवृत्ति अपना ली तो हम मनुष्यों के लिए पैशाचिकता ही स्वाभाविक बन जायेगी। तब धर्म का स्वरूप अनर्थ के अतिरिक्त और क्या रह जायेगा? फिर देवत्व की व्याख्या दयालुता के अर्थ में कौन करेगा?
हो सकता है कि किसी माँसाहारी को अपने अभक्ष्य भोजन को भी देवता का प्रसाद समझकर खाने की सूझी हो और उसने वध की क्रिया को देव-बलिदान कहकर जीभ लोलुपता में देव प्रसन्नता की उड़ान भरी हो। हो सकता है प्राचीनकाल के तलवार युद्ध में सैनिकों का हाथ साफ करने का अभ्यास भैंसे, बकरी की गरदन पर कराया जाता हो और सोचा गया हो कि यह कृत्य करते समय किसी अभ्यासी के मन की करुणा उसे विचलित न कर दे इसलिए उसे देव-बलिदान का रूप दे दिया जाये। हो सकता है कि किन्हीं पुजारियों और उनकी मण्डली ने माँसाहार की लोलुपता तृप्त करने के लिए भोले-भक्तों को पशुबलि की सूझ-सुझाई हो। हो सकता है कि किसी मठाधीश ने माँस-चमड़ा और हड्डियों का अनायास ही बहुत-सा लाभ पाने का रास्ता खोजा हो। हो सकता है किसी ने देवताओं की प्रकृति तक में दुष्टता सिद्ध करके अपनी दुष्टता की स्वाभाविकता और आवश्यकता प्रतिपादित की हो। कह नहीं सकते इस पशुबलि प्रचलन के पीछे क्या कारण थे और यह प्रथा कैसे चल पड़ी। कारण जो भी रहा हो यह एक तथ्य है कि सत्य और अहिंसा, दया और करुणा का आधार लेकर खड़ा हुआ भारतीय धर्म देवताओं के सामने पशुबलि जैसी नृशंस प्रक्रिया का समर्थन नहीं कर सकता।
हो सकता है कि किन्हीं पुस्तकों में संस्कृत के कुछ श्लोक इस समर्थन में जुड़े हों। उन्हें अवांछनीय तत्त्वों द्वारा की गई घुसपैठ या मिलावट ही कहा जा सकता है। ऐसे दो-पाँच श्लोक प्रस्तुत करके भारतीय धर्म की आत्मा को नहीं झुठलाया जा सकता। देवी सपना देकर या किसी अन्य प्रकार से ऐसा संकेत करती है कि मुझे हत्या और माँस द्वारा प्रसन्न किया जाये, वह कल्पना आदि से अन्त तक निर्मूल है। जिस दिन देवी का हृदय इतना कठोर हो जायेगा उस दिन देवी कहलाने का अधिकारी ही न रहेगा। वरदान, अनुदान या आशीर्वाद जिस दिन माँस-मदिरा के मूल्य पर खरीदे जाने लगेंगे उस दिन वरदान दे सकने वाली अध्यात्म शक्ति का संसार से पलायन हो जायेगा। इन मान्यताओं में रत्ती भर भी सच्चाई नहीं है कि-देवता पशुबलि चाहते हैं या इस कुकृत्य द्वारा उन्हें प्रसन्न, सन्तुष्ट किया जा सकता है। यदि कर्मफल का सिद्धान्त सत्य है और यदि हत्या की गणना पाप कर्मों में है तो निश्चित रूप से इस नृशंस आयोजन से सम्बन्ध रखने वाले और समर्थन करने वाले अपनी आत्मा और परमात्मा के सामने पापी के रूप में ही प्रस्तुत होंगे और अपने कुकृत्य का दण्ड भोगेंगे।
समय आ गया है हम अन्धकार युग की विकृतियों का संशोधन करें और जो अवांछनीय एवं अनुचित है उसे तिरस्कृत, बहिष्कृत करने के लिए साहसपूर्वक आगे आयें। पशुबलि भारतीय धर्म पर कलंक है। इस कलंक के रहते हम सत्य और अहिंसा का प्रतिपादन कैसे कर सकते हैं फिर हमें भारतीय धर्म को असत्य और हिंसा का प्रतीक ही कहना पड़ेगा। देवताओं को दयालुता का ही प्रतीक रहने दिया जाये। जिन्हें माँसाहार करना हो उसे व्यक्तिगत रूप से करें, बेचारे देवताओं को उसमें सम्मिलित न करें। मन्दिरों की पवित्रता अक्षुण्ण रखी जानी चाहिए। पूजा-प्रक्रिया में सात्विकता जुड़ी रहनी चाहिए। धर्म-कृत्यों का वातावरण सद्भावनापूर्ण रहना चाहिए इसके लिए यह नितांत आवश्यक है कि पशुबलि जैसी नृशंस प्रक्रिया को किसी धर्म स्थान या धर्म आयोजन में तनिक भी स्थान या समर्थन न मिले।
प्रश्न ——
(१) देवता की परिभाषा कीजिये? (२) देव-पूजन के समय उनके स्वागत सम्मान के लिए वस्तुओं का उपयोग किया जाना चाहिए? (३) बलिदान की प्रचलित प्रथा किस प्रकार अनुपयुक्त है? (४) यदि यह मान लिया जाये कि देवता पशुबलि से प्रसन्न होते होंगे, तो उस ईश्वर का स्वरूप किस तरह का होगा? (५) बलिदान की परिभाषा कीजिए? (६) पशुबलि के प्रचलन के क्या कारण हो सकते हैं? (७) क्या पशुबलि भारतीय देवताओं को प्रिय है? (८) पशुबलि समाप्त करने के लिए क्या प्रयत्न किये जाने चाहिए? (९) आधुनिक युग में बलि की प्रथा में कैसे संशोधन किया जाये? (१०) पशुबलि का समर्थन कौन करता है?
प्राणियों के प्रति निर्मम और निष्ठुर न बनें
भगवान का एकमात्र पुत्र मनुष्य ही नहीं, दूसरे जीव-जन्तु भी उसी के हैं। मनुष्य ज्येष्ठ पुत्र है, इसलिए उसकी जिम्मेदारी भी अधिक है। विवेक, करुणा, स्नेह, सौजन्य का जो भावनात्मक अनुदान मनुष्य को मिला है वह किसी और को नहीं मिला। अन्य जीव अविकसित होने के कारण परस्पर दुर्व्यवहार भी कर सकते हैं पर मनुष्य के लिए वैसी छुट नहीं। यही तो पशु और मनुष्य का अन्तर है। अन्य जीव अपने स्वार्थ को प्रधान रखते हैं, दूसरों की हानि की वे परवाह नहीं करते पर मनुष्यों को दूसरों के सुख में अपना सुख और दूसरों के दुःख में अपना दुःख मानकर चलना होता है। धर्म, अध्यात्म और दर्शन का प्रयोजन यही तो है कि व्यक्ति अधिक उदार, सहृदय, दयार्द्र हो सबमें अपनी आत्मा समाई हुई देखे और अपना ही नहीं दूसरों का भी कष्ट मिटाने एवं सुख बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहे। जो इस कर्तव्य धर्म की उपेक्षा करता है उसे मानवता से च्युत, अधःपतित मनोभूमि का नर पशु ही कहा जायेगा।
पालतू पशुओं से श्रम लेते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह उनकी सामर्थ्य और शक्ति से बाहर तो नहीं है। मनुष्य को एक निर्धारित मात्रा में, निर्धारित दबाव का, निर्धारित समय तक ही काम करना पड़ता है। इसी प्रकार पशुओं के बारे में भी ध्यान रखा जाये। वजन ढोने, सवारी में काम आने वाले तथा कृषि कार्यों में प्रयुक्त होने वाले जानवरों से प्रायः इतना काम लिया जाता है जितना करने में वे समर्थ नहीं। मार-पीटकर बलात् काम लेने से बेचारे कुछ कह तो नहीं सकते, पर धीरे-धीरे चलते हुए अकाल मृत्यु के मुँह में चले जाते हैं। ताँगे-इक्के वाले इतनी सवारियाँ बिठा लेते हैं कि उन्हें खींचना बेचारे घोड़े के लिए भारी कष्टकारक होता है। न चल सकने पर निर्दयतापूर्वक पिटाई होती है, गधे ईंट, चूना तथा दूसरी चीजें ढोते हैं, वजन की अधिकता और लगातार काम करने से उनकी पीठ में घाव हो जाते हैं और पिछली टाँगें आपस में टकराकर लहूलुहान हो जाती हैं। बोझ की भारी गाड़ियाँ ढोने वाले बैल और भैंसों की गरदनों पर घाव देखे गये हैं। इतने पर भी इन घायलों को जोता है और इच्छानुसार गति से न चल पाने पर उन्हें बुरी तरह पीटा जाता है।
पशुओं के प्रति बरती जाने वाली यह निर्दयता मानवता के सर्वथा विपरीत है। ऐसा क्रूर व्यवहार सर्वथा निन्दनीय है। सोचना चाहिए कि हम इन पशुओं की स्थिति में होते तो अपने ऊपर कैसी बीतती। असम्भव नहीं कि कभी अपने को भी पशु योनि में जाना पड़े और ऐसी क्रूर निर्दयता का शिकार बनना पड़े। उचित यही है कि जन-मानस में सहृदयता जगाई जाये, जिससे इस स्तर की नृशंसता पर अंकुश लग सके। यद्यपि कानून में निर्दयता निवारक एक धारा है और ऐसी क्रूरता करने वालों को, घायल पशुओं को जोतने तथा अधिक सवारी बिठाने तथा बोझा लादने वालों को अदालत के कटघरे में खड़ा करके उन्हें जेल पहुँचाया जा सकता है, पर वह कानून आज पुस्तकों तक ही सीमित है। पुलिस पर इन कानून के पालन कराने की जिम्मेदारी है पर वह कितना कर पाती हैं, यह सभी जानते हैं।
सहृदय लोगों को यह कार्य हाथ में लेना चाहिए और जिनका भी पालतू पशुओं से किसी प्रकार का सम्बन्ध है उन्हें मनुष्यों के आदर्श और कर्तव्य के प्रति दया और करुणा अपनाने के प्रति चेतना जगानी चाहिए। पशु पालकों के लिए उचित है कि उनसे उतना श्रम लें जो उनकी साधारण शक्ति के अन्तर्गत है। निर्दयतापूर्वक मार-काट न करें, घायल हों तो जोतें नहीं, इतना भार न लादें जिससे उन्हें अधिक घायल होना पड़े। यदि घाव हो गया है तो पूरी तरह अच्छा हो जाने तक उसे विश्राम दें। अशक्त और घायलों को घर से पीटकर निकाल देते हैं और कौए, कुत्तों के खा जाने के लिए अक्सर गधे और घोड़े वाले छोड़ देते हैं, यह बुरी बात है। अशक्तता या बुढ़ापे की स्थिति में-पेंशन की तरह उन्हें कुछ दिन बिना काम लिए भी भोजन देना चाहिए। अशक्त वृद्ध गाय, बैलों को कसाई के हाथ बेच देना एक बुरे किस्म की कृतघ्नता है।
पक्षियों को पिंजड़े में बन्द करके पालना, एक प्रकार से उन्हें आजीवन कैद में डाल देना है। घर की शोभा बढ़ाने के लिए उसे स्वतन्त्र जीवनयापन की सुविधा से वंचित करना एक निर्दयता ही है जो पक्षी पिंजड़े से बाहर रखकर कबूतर, मोर आदि की तरह पाले जा सकते हैं उनकी बात समझ में आती है पर पिंजड़ा तो साक्षात नरक है। तोते, तीतर सुन्दर लगते हैं तो उसका मतलब यह नहीं कि उसकी सुन्दरता को बन्दी बनाया और सताया जाये। हमारे द्वारा किये गये तथाकथित बढ़िया भोजन और बढ़िया निवास से पक्षी को सदा अपना स्वच्छन्द विचरण पसन्द होता है। उन्हें भी मनुष्य की तरह स्वतन्त्रता प्रिय है तो पक्षियों को पिंजड़े में क्यों परतन्त्र बनायें?
रेशमी कपड़े पहनने वाले यह नहीं जानते कि यह धागा किस निर्दयता से प्राप्त किया जाता है। रेशम का कीड़ा जीवित ही खौलते पानी में उबाला जाता है और असहाय वेदना के साथ उसका प्राण लिया जाता है। तब कहीं उसके शरीर से वह खोल छूटता है। जिसके धागे से रेशम बनता है। असंख्य प्राणियों का प्राण लेकर रक्त-रंजित रेशम पहनकर इतराना प्रसन्नता की नहीं लज्जा की बात है। मोटे और भद्दे किस्म का एक रेशम ऐसा भी होता है जिसे कीड़ा छोड़ जाता है और उसमें हत्या की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसका उपयोग हो सकता है पर अधिक महीन धागे वाला और अधिक चमकने वाला रेशम तो एक पूरे बूचड़खाने की तरह ही प्राप्त किया जाता है। ऐसी वस्तुएँ धारण करना आँखों को शोभायमान भले ही लगे सहृदय अन्तःकरण को वे कचोटती ही रहेंगी। अच्छा हो ऐसे फैशन और चमक-दमक से हम बाज आयें जिसके लिए असंख्य जीवों को तड़प-तड़पकर अपना प्राण देना पड़ता हो, ऐसी ही कई अन्य वस्तुएँ भी हैं जो प्राणि वध के हत्यारे तरीकों से ही प्राप्त की जाती हैं। कस्तूरी जीवित मृग को मारकर निकाली जाती है। चँवर डुलाने की शोभा तब बनती है जब चँवर गाय की हत्या करके उसकी पूँछ काटी जाती है। जीवित सीपों को पकड़कर उन्हें तेजाब के पानी में तड़पाकर मारा जाता है, तब उसका पेट फाड़कर मोती निकालते हैं। बालों वाले बच्चों के कोट, मोजे, दस्ताने टोपे आदि के लिए लाखों सुन्दर लोमड़ियाँ बन्दूक का निशाना बनती हैं। हिरन अब अपनी मौत नहीं मरते, शिकारी ही उन्हें भून डालते हैं। मृगछाला बिछाकर भजन करना उस जमाने में उचित रहा होगा जब हिरन स्वाभाविक रूप से अपनी मौत मरते थे। आज तो मृगछाला वाले सन्तों की जरूरतें पूरी करने को बेचारे हिरन कराहते हुए प्राण गँवाते हैं और इन भजन करने वालों को शाप दे जाते हैं जिन्होंने उनके प्राण लेने की आवश्यकता व्यक्त की एवं भूमिका बनाई। आजकल चमड़ा आमतौर से काटे हुए पशुओं का आता है। स्वाभाविक मौत तो कोई भाग्यवान पशु ही मरता है। पशु वध से माँस में जितना लाभ है उससे बहुत ज्यादा चमड़े में है। चमड़े का अधिक उपयोग होने से पशु वध का प्रचलन बहुत बढ़ा है। यदि हम चमड़े का उपयोग छोड़ दें और उसकी जरूरत रबड़, कैनवैस आदि से निकाल लें तो हर साल करोड़ों निरीह पशुओं की हत्या रोकी जा सकती है। अच्छा हो अपने भीतर करुणा मिश्रित मानवता जगायें और हम तनिक-से फैशन के लिए असंख्य प्राणियों को अकारण हत्या से बचायें।
दवाओं के लिए, पौष्टिक आहार के लिए विज्ञान के नाम पर प्रतिदिन करोड़ों प्राणी काटे, उबाले, जलाये और भूने, चीरे जाते हैं। यह दवाएँ तत्काल लाभ कुछ भले ही दिखा दें पर अन्ततः उन निरीह प्राणियों का चीत्कार उन सेवनकर्ताओं को भी रुलाकर ही रहेगा। परमात्मा के दरबार में देर है अन्धेर नहीं। दूसरों के प्राण लेकर अपना सुख चाहने वालों को निराश ही होना पड़ेगा। बिना हत्या की दवाएँ भी हर रोग की मौजूद हैं। उनका प्रयोग इन घृणित रक्त मिश्रित दवाओं से अधिक लाभदायक है, फिर भी न जाने किस बहकावे में आकर लोग मद्य-माँस मिश्रित इन घृणित दवाओं का सेवन करते हैं। सम्भव है इनसे किसी का शरीर सुधर जाये पर आत्मा का पतन तो निश्चित रूप से होगा। माँसाहार शरीर को बढ़ाने का नहीं गिराने का ही निमित्त बन सकता है, भले ही वह दवाओं के रूप में प्रयुक्त किया जाये। प्राणियों के प्रति बरती जाने वाली हर व्यापक निर्दयता का अन्त जितनी जल्दी हो सके उतना ही मनुष्य का गौरव कलंकरहित बन सकेगा।
प्रश्न-
(१) क्या यह उचित है कि जिस तरह अविकसित जीव परस्पर दुर्व्यवहार करते हैं, हमें भी करना चाहिए? (२) धर्म अध्यात्म और दर्शन का क्या प्रयोजन है? (३) घोड़े, गधे तथा अन्य सवारी में काम आने वाले तथा वजन ढोने वाले पशुओं से हमें किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए? (४) निर्दयता निवारक धारा के अनुसार पुलिस को क्या अधिकार दिये गये हैं? (५) घायल, अशक्त जानवरों के साथ किस प्रकार व्यवहार किया जाता है? (६) क्या हमें पक्षियों को निर्दयतापूर्वक पिंजड़ों में बन्द करना चाहिए? (७) क्या रेशम के कपड़े पहनना ठीक है नहीं तो क्यों? (८) कस्तूरी, चँवर, मोती, बालों वाले बच्चों के कोट, मोजे, दस्ताने, टोपे आदि किस प्रकार प्राप्त किये जाते हैं? (९) चमड़े की जगह हमें किन वस्तुओं को उपयोग में लाना चाहिए कि निरीह प्राणियों का संहार न हो? (१०) क्या माँसाहार द्वारा अपने शरीर को सुदृढ़ बना सकते हैं?
विवाहों के आदर्श ऊँचे रखे जायें
विवाह दो आत्माओं का एक पवित्र गठबन्धन एवं वर-वधू का एक-दूसरे के लिए किया गया दिव्य-समर्पण है। विवाह को एक यज्ञ कहा गया है। उसका आधार और वातावरण यज्ञ जैसा होना चाहिए, ताकि शुभारम्भ के अवसर पर जैसा वातावरण था आजीवन वैसी ही परिस्थितियाँ बनी रहें। किन्तु आज तो सब कुछ उलटा ही हो गया है। उपयुक्त जोड़े के नहीं वरन् दो परिवारों की सम्पन्नता के मोल-तोल के आधार पर सम्बन्ध पक्के किये जाते हैं। अमीरी में दाम्पत्य-जीवन की सफलता सोची जाती है। पैसे का पैसे के साथ विवाह करना हो तो उसका माध्यम भी पैसा ही हो सकता है। वरपक्ष की ओर से दहेज और कन्या पक्ष की ओर से जेवर की प्रचुरता ही आज के अभिभावकों की संतुष्टि का कारण है। लड़की-लड़कों को रूप की प्यास है। उनकी पसन्दगी रंग-रूप पर अवलम्बित होती जाती है। यही धन और रूप के आकर्षण आज विवाहों को जोड़ने वाली कड़ी है। जब कि होना यह चाहिए था कि परिवारों का मिलन सदाचार के दृष्टिकोण एवं आदर्श पर रखा जाये और वर-कन्या के गुण, कर्म, स्वभाव की अनुरूपता मिलाई जाये। विवाह उत्सव के समय जिस धन का आदान-प्रदान होता है वह प्रायः उन्हीं दिनों दिखावे की होली में जल-भुनकर खाक हो जाता है। रूप-यौवन की बहार किशोर अवस्था के अन्त और यौवन के आरम्भ के दो-चार वर्ष रहती है। गृहस्थ का भार पड़ते ही वह बहार उड़ जाती है और काम चलाऊ शरीर मात्र शेष रह जाता है। काम तो सारे जीवन, व्यक्तित्व, चरित्र एवं कौशल से पड़ता है। इन्हें देखना जरूरी नहीं समझा जाता। अतएव आज के विवाह आमतौर से असफल रहते हैं।
सफल विवाहों के लिए आवश्यकता इस बात की है कि परिवारों की धन सम्पन्नता को सम्बन्ध का आधार बिल्कुल न रहने दिया जाये। विवाह अति सादगी के साथ बिना खर्च के हों। लड़के वाले यह आशा न करें कि लड़की दौलत लेकर आवेगी और लड़की वालों को यह आशा न हो कि बड़प्पन का गर्व जेवरों से लिपटा हुआ है। बच्चों के उपयुक्त शारीरिक, मानसिक स्थिति के समान जोड़े तभी मिल सकते हैं जब पैसे का व्यवधान बीच में से हटे। इसी प्रकार भारत जैसे गर्म देश की जलवायु तथा वंश परम्परा सामान्य रंग-रूप की है। यहाँ रंग-रूप में सिनेमा जैसे अभिनेता वर-वधू कहीं-कहीं ही मिल सकते हैं। अस्तु, सर्व-साधारण को अपनी बहिन-बेटियों जैसे सामान्य रंग-रूप की वधुओं से ही सन्तोष करना होगा। साँवला रंग या काला रंग बुरा नहीं होता। चमड़ी का रंग या चेहरे का कट किसी श्रेष्ठता की निशानी नहीं है। उस पसन्दगी के पीछे के घृणित कामुकता का ओछापन ही झलकता है। मानसिक उत्कृष्टता ही गृहस्थ की सुख-शान्ति की आधारशिला है और वह रूपवानों में ही सीमित हो यह जरूरी नहीं। सच पूछा जाये तो उसका बाहुल्य कुरूपों में अधिक होता है। वे रंग-रूप के अहंकार और आकर्षण से बचकर अपने चरित्र और मस्तिष्क को अपेक्षाकृत अधिक सही रख सकते हैं और साथी के प्रति अधिक वफादार हो सकते हैं।
हमें यदि अपने बच्चों को सुखी गृहस्थ बनाना हो तो उनके बौद्धिक विकास, चरित्र एवं स्वभाव को प्रमुखता देनी होगी और इसके लिए दो सबसे बड़ी बाधाओं, धन और रूप को प्रधानता देनी बन्द करनी होगी। गरीब घरों में आमतौर से परिश्रमी, शिष्ट-सहिष्णु और सेवाभावी स्वभाव की कन्याएँ पाई जाती हैं। वे उन्हीं को मिल सकती हैं जो धन के लालची न हों। इसी प्रकार जिसे रूप नहीं मिला है वह अपनी विशेषताएँ गुणों में बढ़ाने का प्रयत्न करेगा। यह अति स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि सुखी और सन्तुष्ट गृहस्थ बसाना हो तो आज के दोनों ही दृष्टिकोण बदलने होंगे।
विवाहोत्सव का स्वरूप, धर्मानुष्ठान जैसा अति सादगी, पवित्रता और सद्भावना भरा होना चाहिए। अहंकारी, उद्धत और लुटेरों जैसा नहीं। कन्या का पिता प्रसन्न है कि उसकी पुत्री को अच्छा साथी एवं सज्जन परिवार मिला। उसकी कृतज्ञता और नम्रता स्वाभाविक है। लड़के वालों को इससे भी चौगुना-सौगुना अधिक कृतज्ञ एवं नम्र होना चाहिए। मनुष्य से बढ़कर मूल्यवान वस्तु संसार में और कुछ भी नहीं। अपनी आत्मा के अंश को-भाव भरी कन्या को जो दे रहा है उसका अनुदान राजा बलि से भी बढ़कर है। बलि के दरवाजे कुछ लेने भगवान गये थे तो उन्हें भी बावन अंगुल का छोटा रूप-नम्र कलेवर बनाकर जाना पड़ा था। यह एक ही अनुदान अहसान इतना बड़ा है कि इसके लिए वर पक्ष वाले हर व्यक्ति को-उसके माता-पिता को कृतज्ञता के भार से नत-मस्तक हो जाना चाहिए। उससे जैसा भी आतिथ्य बने भूरि-भूरि प्रशंसा के साथ स्वीकार करना चाहिये और जो दे रहा हो उसमें कमी करने के लिए बार-बार अनुरोध भरा आग्रह करते रहना चाहिए। बारात की संख्या एवं अपने लोगों की आवभगत का अथवा उपहार दहेज देने का ऐसा दबाव नहीं डालना चाहिए। जिसका उस परिवार की आर्थिक स्थिति पर तनिक भी दबाव पड़ता हो। जो कन्या जैसा संसार का महत्तम अनुदान दे रहा है उस घर-परिवार की आर्थिक स्थिति पर चोट पहुँचाना अथवा दबाव डालना परले सिरे की हृदयहीनता तथा कृतघ्नता है, हममें से किसी को भी इस नीचे स्तर पर नहीं उतरना चाहिए।
आमतौर से लड़के वालों की मनोभूमि लुटेरों जैसी और कन्या पक्ष वाले की पुलिस में पकड़े हुए दीन-दुर्बल अपराधी जैसी होती है। एक का अहंकार आसमान को छू रहा है और दूसरा अपने स्वाभिमान को ताक पर रखकर दीनतापूर्वक गिड़गिड़ा रहा होता है। यह स्थिति उत्पन्न करना हृदयहीन और उद्धत लोगों को ही शोभा दे सकता है। जहाँ सहृदयता, मनुष्यता और कृतज्ञता के कुछ ही अंश होंगे वहाँ परिस्थितियाँ बिल्कुल उलटी दिखाई देंगी। तब सास को जमाता के पैर नहीं छूने पड़ेंगे वरन् जमाता अपनी माता से भी अधिक पूज्य सास के चरण स्पर्श करेगा तब वह मोटर साइकिल दहेज में लेने के लिए अड़ेगा नहीं, वरन् आग्रहपूर्वक यही कहता रहेगा कि वधू प्राप्त कर लेने के बाद केवल आपके आशीर्वाद और मार्गदर्शन भर की आवश्यकता शेष है, जिसके बलबूते पर हम अपने पुरुषार्थ और सद्गुणों से सुन्दर गृहस्थी बना सकें।
बड़ी संख्या में बारात बेटी वाले के दरवाजे तक पहुँचना व्यर्थ है। अपने मित्रों का प्रीतिभोज करना हो तो विवाह के बाद वर-कन्या के हाथों भोजन परोसवाकर अपने घर दावत करनी चाहिए। महँगे दाम के बाजे बजवाने, सजधज की बारात निकालने और आतिशबाजी छूटने की फिजूलखर्ची हम मध्यम श्रेणी के लोगों को शोभा नहीं देती, जिनके लिए एक-एक पैसे का बड़ा मूल्य है। लड़की पर चढ़ाने के लिए इतने महँगे कपड़े किस काम के जिन्हें पहनकर वह बन्दर जैसी अजनबी और बिल्कुल कृत्रिम लगे? घर में जैसे पहने जाते हैं उससे ड्यौढ़े-दूने दाम तक के कपड़े वर-वधू को दिये जा सकते हैं, पर नाटकों में नाचने वाले नटों जैसी पोशाकों पर पैसा लुटा देना किसलिए? सभी जानते हैं कि जेवरों में पूँजी रुकती है। आधा पैसा बनवाई, मिलावट और टाँके बट्टे में चला जाता है। रोज टूटते हैं। ईर्ष्या पैदा करते हैं और चोरी, उठाईगीरी का डर रहता है। अब विचारशील लोगों में जेवर जंगली युग के अवशेष कहे जाते हैं। उनका लटकाना, मटकाना, असभ्यता एवं भौंड़ेपन की निशानी मानी जाती है। अच्छा यही है कि अँगूठी, मंगलसूत्र जैसी प्रतीक आभूषणों को छोड़कर इस जंजाल में पैसा न लुटाया जाये। हर पैसे को उपयोगिता की कसौटी पर कसकर ही खर्च किया जाना चाहिए। विवाह भी इसी शाश्वत नियम के अपवाद नहीं हो सकते। उस छोटे से उत्सव में मितव्ययिता का ध्यान रखा जाये। हाँ, भावनात्मक, पवित्रता एवं स्नेह, सौजन्य में भरा दो परिवारों का मिलन का ऐसा हर्षोल्लास जरूर मनाया जाये, जिसमें संगीत, संभाषण, परस्पर-परिचय, मनोरंजन, अभिनन्दन, आशीर्वाद, मण्डप-पण्डाल, यज्ञ-संस्कार आदि की सांस्कृतिक मधुरिमा टपकती हो। कला में रुचि रखने वाले व्यक्ति ऐसी सूझ-बूझ के अनुरूप शोभा व्यवस्था स्वल्प व्यय से भी बना सकते हैं। विवाह का उद्देश्य महान है इसलिए उसका स्तर एवं वातावरण भी महानता से, उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता से भरा-पूरा होना चाहिए। ऐसे ही शुभारम्भ के साथ आरम्भ किया हुआ यह यज्ञ दो परिवारों में, वर-वधू में-गृहस्थ जीवन में, सन्तान में सद्भावना भरे रह सकता है। विवाहों की रूप-रेखा हमें इसी स्तर की बनानी है।
प्रश्न --
(१) विवाह क्या है, आजकल विवाह सम्बन्ध किन आधारों पर तय किये जाते हैं? (२) विवाह सम्बन्ध का सच्चा आधार क्या होना चाहिए? (३) गृहस्थ के सुख-शान्ति की आधारशिला क्या है? (४) विवाहोत्सव कैसा होना चाहिए? (५) विवाहोत्सव में होने वाले अपव्यय पर प्रकाश डालिए? (५) विवाहों की रूपरेखा किस तरह बनानी चाहिए? (६) आभूषण क्यों आवश्यक हैं? (७) विवाह में लड़के व लड़की वालों की मनोभूमि कैसी होती है? (८) कृतज्ञ किसे होना चाहिए व क्यों? (९) आज के युवकों का क्या कर्तव्य है? (१०) हिन्दू समाज के संगठित न होने का प्रमुख कारण क्या है?
बाल-विवाह एक अति घातक कुप्रथा
अपने देश में बाल-विवाहों का प्रचलन बहुत है। पिछड़े वर्गों में, छोटे देहातों में इतना बड़ा शौक-चाव रहता है कि छोटे बच्चों का विवाह करते हुए एक हर्षोत्सव को देखने का अवसर जितनी जल्दी मिल जाये उतना ही अच्छा है। कुछ दिन पहले तक तो गर्भस्थ बच्चों की अगाऊ शादियाँ हो जाती थीं और दूध पीते बच्चों का गोदी में लेकर अभिभावक विवाह कर लेते थे। अब थोड़ा सुधार हुआ है तो १० और १५ वर्ष के बीच देहाती क्षेत्र में इतने अधिक विवाह होते हैं, जिन्हें देखकर यही लगता है कि हमारा पिछड़ापन अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। शारदा एक्ट और दूसरे बाल-विवाह विरोधी कानून यों तो बने पड़े हैं पर वे राजकीय आधार पर मुकदमे चलाकर दण्डनीय न होने के कारण प्रभावहीन बने हुए हैं। लाखों बाल-विवाह हर साल अपने देश में होते हैं और उनसे इन बालकों की शारीरिक, मानसिक क्षति तो होती ही है, उसका साथ ही दुष्परिणाम समस्त समाज को भोगना पड़ता है।
विवाह का अर्थ ही इन दिनों कामुकता की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना बन गया है। विवाह होते ही बालकों के मस्तिष्क में वही चिन्तन घूमता है। साथी वैसा ही प्रोत्साहन देते हैं। फलतः कच्ची आयु में ही यह विचारणा एवं प्रक्रिया चल पड़ती है जो इन दिनों सर्वथा अवांछनीय है। 25 वर्ष की आयु तक शरीर के अन्तरंग तत्त्व विकास और पुष्टि की दिशा में गतिशील रहते हैं। यदि काम-क्रीड़ा द्वारा उन तत्त्वों को निचोड़ा जाने लगे तो स्वभावतः शारीरिक विकास की प्रक्रिया रुकेगी। देह बलिष्ठ न हो सकेगी। छोटे पेड़ के तने खोदकर यदि उसमें से गोंद निकालना आरम्भ कर दिया जाये तो पेड़ जहाँ का तहाँ रह जायेगा, उसका बढ़ना और पुष्ट होना रुक जायेगा। यही बात बच्चों पर लागू होती है। उन्हें संयम, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, खेलकूद और दूसरे आधारों के सहारे अभिवृद्धि की आयु २५ वर्ष तक विकसित होने का अवसर न मिले तो स्वभावतः वे दुर्बल एवं अविकसित रह जायेंगे। इसका फल सारे जीवन उन्हें शरीर की समस्त दुर्बलता एवं रुग्णता के रूप में भोगना पड़ेगा।
समस्त शरीर के साथ ही जननेन्द्रियों के कोमल कल-पुर्जों की परिपक्वता पुष्ट होती है। असमय ही उन्हें छेड़ना और सताना शुरू कर दिया जाये तो उसका परिणाम यौन रोगों के रूप में सामने आता है। बाल-विवाह जननेन्द्रियों सम्बन्धी अनेक रोगों को आमन्त्रण देना है। अपने देश में यौन रोगों का चर्चा एक लज्जा का विषय माना जाता है, इसलिए अधिकांश व्यक्ति उन कष्टों से ग्रसित होने पर भी छिपाये रहते हैं। कहते तब हैं जब पीड़ा असह्य हो जाती है। तलाश किया जाये तो बाल-विवाह के फलस्वरूप प्रमेह, स्वप्नदोष, बहुमूत्र, पेशाब की लत, नपुंसकता, शीघ्र-पतन, बाँझपन, प्रदर मासिक धर्म की गड़बड़ी एवं पीड़ा जैसे असंख्य यौन रोगों से ग्रसित लाखों नर-नारियाँ मिल सकते हैं। यह रोग शरीरों को खोखला करते रहते हैं और उनमें तरह-तरह की छोटी-बड़ी बीमारियों को पैदा करते रहते हैं।
ऐसे दम्पत्ति जिन्होंने छोटी आयु से ही अपने शरीरों को निचोड़ना शुरू कर दिया कभी परिपुष्ट, सुन्दर और नीरोग सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकते, कच्चे बीज यदि बोये जायें तो अच्छी फसल उगने की आशा कौन करेगा? बाल-विवाह के कुचक्र ने जिन्हें चूसे हुए आम की तरह निचोड़ डाला है, उनकी सन्तान कमजोर, बीमार, अल्प आयु, मन्दबुद्धि तथा अधपगली जैसी ही होगी। वे बच्चे किसी तरह भी जी लिये तो उनसे किसी महत्त्वपूर्ण प्रयोजन या पुरुषार्थ की आशा नहीं की जा सकती। ऐसे दुर्बलकाय और मानसिक दृष्टि से पिछड़ी हुई धरती माता के ऊपर भार बढ़ाना ही है। पीढ़ियाँ एक के बाद एक क्रमशः दुर्बल होती चली जायेंगी और राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं बौद्धिकता का स्तर दिन पर दिन गिरता चला जायेगा। बाल-विवाह सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक खतरा है। राष्ट्रीय समर्थन के लिए यह एक सघन संकट है। हमें अपनी नस्ल खराब करने की जोखिम नहीं उठाना है तो प्रचलित बाल-विवाह प्रथा की उपेक्षा करनी चाहिए। अपरिपक्व शरीर से अल्प आयु की लड़कियाँ यदि प्रजनन करती हैं तो उनका अपना जीवन भी संकट में रहता है। अस्पतालों की रिपोर्ट बताती है कि बीस वर्ष से कम उम्र की जितनी लड़कियाँ प्रसव पीड़ा में मरती हैं उसमें चौथाई भी बड़ी आयु की स्त्रियाँ उस संकट में प्राण नहीं गँवाती। लड़कियों की जान को जोखिम में डालकर विवाह का हर्षोत्सव मनाने वाले अभिभावक किस प्रकार समझदार कहे जायें और कैसे माना जाये कि वे अपने बच्चों को सच्चा प्यार करते हैं? बाल-विवाह के शिकार लड़के प्रसव पीड़ा में तो नहीं मरते पर उनकी भी कम दुर्दशा नहीं होती। रुग्ण शरीर, रुग्ण पत्नी, रुग्ण सन्तान को लेकर जिस तरह रोते-कलपते उसे देखते हुए बाल-विवाह का खेल एक कौतुक मात्र नहीं रह जाता वरन् एक भयावह अभिशाप के रूप में उन्हें आजीवन उस दुर्भाग्य के लिए रोना पड़ता है।
बाला-विवाह का मनोवैज्ञानिक प्रभाव विशेषतः लड़कियों पर बहुत बुरा पड़ता है। ससुराल में बहू को कुछ दूसरे किस्म से रहना पड़ता है। उठती उमर की आकांक्षाओं को कुछ अधिक हँसी-खुशी और स्वच्छन्दता की जरूरत पड़ती है। माँ-बाप के घर ही यह सहज सुलभ स्थिति सम्भव है। इसी वातावरण में मनोविकास के लिए खुली हुई उपयुक्त परिस्थितियाँ मिलती हैं। यदि उठती उमर की मनोवांछाएँ बन्दीगृह जैसी ससुराल में दबी-भिची बना दी जायें तो उसमें भीतर ही भीतर एक घुटन जैसी पैदा होती है। छोटी आयु की लड़कियाँ इस विवशता में भीतर ही भीतर बुरी तरह फड़फड़ाती हैं, पर कुछ कर नहीं सकतीं। उनकी यह विवशता मानसिक रोगों के रूप में फूट पड़ती है। नई उम्र की लड़कियों को मूर्छा, दौरा, मिरगी, भूत-प्रेत, भयंकर स्वप्न, दिल की धड़कन, डर आदि कितनी ही ऐसी व्यथाएँ फूट पड़ती हैं जिनका एकमात्र कारण मनोवैज्ञानिक अवरोध एवं शारीरिक घुटन ही होता है। बड़ी आयु में लड़कियाँ दाम्पत्य जीवन में रस लेने लगती हैं और वे ससुराल के दबे-भिचे वातावरण को भी सन्तुलित कर लेती हैं, पर छोटी आयु की अविकसित मस्तिष्क की भावुक लड़कियाँ उन परिस्थितियों में अपने आप को ढाल न सकने के कारण उद्विग्न, विक्षिप्त-सी रहने लगती हैं और अपना शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य खो बैठती हैं। भारतीय नारी की मानसिक दुर्दशा का एक बड़ा कारण असमय ही एक भार पड़ जाना है। बड़ी उम्र में विवाह होने पर मानसिक दृष्टि से समर्थ लड़कियाँ ही इस भार से बच सकती हैं और मानसिक स्थिरता बनाये रह सकती हैं।
यह सोचना उचित नहीं है कि जल्दी विवाह करे देने पर लड़कियाँ शीलवान बनी रहती हैं और बड़ी आयु पर विवाह होने से उनमें चारित्रिक दोष आने का खतरा रहता है। खतरा आयु से नहीं वातावरण से सम्बन्धित है। छोटे बच्चे भी कुमार्गगामी हो सकते हैं। दूषित वातावरण और गन्दी परिस्थितियों में रहना पड़े तो गृहस्थ, वैधव्य और वृद्धावस्था तक में चरित्रहीनता का खतरा बना ही रहेगा। अविवाहित दुराचारी हो जाते हैं और विवाहित सदाचारी बने रहते हैं यह सोचना भ्रमपूर्ण है। बाह्य प्रतिबन्धों से नहीं, मानसिक प्रतिबन्ध ही किसी को सदाचारी बनाये रह सकते हैं। सो हमें अपने बच्चों पर विश्वास करना चाहिए उन्हें मनस्वी और चरित्रवान बनने के उपयुक्त वातावरण में प्रशिक्षण देना चाहिए अन्यथा विवाह होने पर भी इस बात की कोई गारण्टी नहीं कि वे पतनोन्मुख होने से बच जायेंगे।
किसी जमाने में जब अनाचारी शासक प्रजा की लड़कियों पर कुदृष्टि लगाये रहते थे और सयानी बच्चियों की सुरक्षा संकट से भरी थी तब छोटे बच्चों के विवाह करके उन्हें घरों की आड़ में छिपाये रहना और विवाह कर देना सामयिक आवश्यकता के रूप में आवश्यक रहा होगा और धर्म माना जाता रहा होगा। अब ऐसा कोई खतरा नहीं रहा इसलिए अब बाल-विवाह को धार्मिकता के साथ जोड़ना गलत है। बच्चे हों या बच्चियाँ उनकी किशोरावस्था शिक्षण एवं स्वास्थ्य-संवर्धन में लगाई जानी चाहिये। उन्हें मानसिक और शारीरिक विकास का अवसर उठती उम्र में प्राप्त करने देना चाहिए। बूढ़े पुराने लोग अपने मरने की बात कहकर विवाह अपने आँखों के आगे देख जाने की अभिलाषा आमतौर से व्यक्त करते रहते हैं और घर वालों को जल्दी ब्याह करने के लिए उकसाते रहते हैं। उन्हें समझना और समझाना चाहिए कि उनकी यह उतावली बच्चों के लिए कितने घातक परिणाम उत्पन्न करेगी? समय आ गया है कि हम विवेक के आधार पर हर बात सोचें और बाल-विवाह जैसी मूर्खता का अविलम्ब परित्याग कर दें।
प्रश्न --
(१) बाल-विवाह के आधार पर सिद्ध कीजिए कि हम अभी तक पिछड़े हुए हैं? (२) शारदा एक्ट तथा दूसरे बाल-विवाह विरोधी कानून क्यों प्रभावहीन हैं? (३) बाल-विवाह में मानसिक एवं शारीरिक हानियाँ क्या हैं? (४) बाल-विवाह से उत्पन्न संतान किस तरह की होती है? (५) बाल-विवाह लड़की के लिए किस प्रकार घातक सिद्ध हो सकता है? (६) बाल-विवाह का मनोवैज्ञानिक प्रभाव लड़कियों पर किस प्रकार बुरा पड़ता है? (७) बड़ी आयु में लड़कियाँ दाम्पत्य जीवन के अनुरूप क्यों हो जाती हैं? (८) क्या छोटी आयु में विवाह कर देने से लड़कियाँ शीलवान बनी रह सकती हैं? (९) उस कारण को समझाइए जिसके कारण लड़कियाँ का विवाह छोटी उम्र में ही कर दिया जाता था?
खर्चीली शादियाँ हमें बेईमान और दरिद्र बनाती हैं
संसार भर में विवाहोत्सव एक सरल पारिवारिक उत्सव के रूप में प्रचलित है। सयाने लड़की-लड़के जब विवाह योग्य हो जाते हैं, तो उपयुक्त जोड़ा ढूँढ़कर एक छोटा-सा पारिवारिक उत्सव कर दिया जाता है। धर्म-संस्कार करा दिये जाते हैं और वर-वधू अपना गृहस्थ बनाना आरम्भ कर देते हैं ऐसे उत्सव संसार भर के-हर धर्म-समाज में बहुत ही सस्ते होते हैं। मध्यम श्रेणी के लोग उपहारों सहित हजार-पाँच सौ भी मुश्किल से खर्च करते हैं। विवेकवान और व्यवहारवादी लोगों की यही परम्परा प्राचीनकाल से थी-अब भी है।
अपने समाज के अविवेकपूर्ण रीति-रिवाजों के लिए क्या कहा जाये? विवाह-उत्सव अपने लिए एक कमर-तोड़ भार बना हुआ है। लड़के वाले दहेज की लम्बी-चौड़ी रकमें और कीमती सामान माँगते हैं। लड़की वालों की माँग कन्या के लिए बहुमूल्य जेवरों कीमती कपड़ों की रहती है। तमाशबीन, सजधज की बारात-बाजे, पर निरर्थक नेग-जोग इतने खड़े रहते हैं कि उनमें ढेरों खर्च होता है। तीन दिन के इस छोटे से प्रदर्शन की उपयोगिता, आवश्यकता भी कुछ है क्या? इसका विचार न करके लोग उन्माद में आवेशग्रस्त हो जाते हैं। उसे शान-शौकत की प्रतिष्ठा का, प्रश्न नाक का सवाल बनाते हैं और आर्थिक दृष्टि से बुरी तरह कट मरते हैं।
औसत दर्जे का आदमी इस घोर महँगाई और बढ़े-चढ़े खर्च के जमाने में किसी प्रकार मुश्किल से ही अपनी गुजर कर पाता है। कुछ बचा सकते वाले तो हजारों में एक ही होंगे। बच्चों की ऊँची शिक्षा दिलाने वाले गृहस्थ के लिए अपना पारिवारिक तथा शिक्षा सम्बन्धी खर्च चलाना भी मुश्किल होता है, फिर विवाह के लिए इतनी लम्बी-चौड़ी रकमें कहाँ से आयें? जब बच्चे बड़े होने लगते हैं तब लगातार दो-दो वर्ष बाद उनके विवाह करने पड़ते हैं। लड़की वाला ही नहीं, लड़के वाला भी परेशान रहता है। क्योंकि अधिकांश पैसा वह ऐसे दिखावटी सामान के रूप में पाता है जिसकी कोई आवश्यकता न थी। थोड़ी-सी नगदी मिलती है जो बेटे वाले को जेवर आदि का खर्च जुटाने में कम पड़ता है। इस प्रकार दोनों ही पक्ष इस सत्यानाशी विवाहोन्माद में आर्थिक दृष्टि से खोखले हो जाते हैं।
यह अतिरिक्त धन आखिर आये कहाँ से? ईमानदारी से आज की परिस्थितियों में कोई गुजारे भर को कमा सकता है। जमा करना अति कठिन है। विवाहों में इतना प्रचुर धन फूँकना जब आवश्यक ही हो गया है तो बेईमानी का रास्ता अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता। यदि बच्चे हैं और उनका विवाह भी करना है और हिन्दू भी हैं तो फिर दिन-रात बेईमानी करते हुए पैसे का जुगाड़ बनाने के अतिरिक्त किसी के सामने और कोई उपाय नहीं रहता। सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत-मजदूरों के लिए चोरी, व्यापारी के लिए मिलावट करना या कम तोलना, लोक-सेवकों के लिए चालबाजियों, चिकित्सक के लिए रोगी को डराकर पैसे ऐंठना आदि अनीतिपूर्ण मार्ग ही शेष रह जाते हैं। जो चतुरतापूर्वक छिपी रहने वाली चालाकी नहीं कर सकते, उन्हें जोखिम भरे और फूहड़ कहे जाने वाले चोरी-डकैती, कत्ल, ठगी, बेईमानी, विश्वासघात, शोषण, अपहरण के ऐसे तरीके अपनाने पड़ते हैं, जो बदनामी और राज-दण्ड भी साथ लिए रहते हैं।
अपने समाज में अपराध बुरी तरह बढ़ गये हैं-चोरी, बेईमानी की प्रवृत्ति हर क्षेत्र में पनप रही है। इसका एक बहुत बड़ा कारण विवाह-शादियों में होने वाला अन्धाधुन्ध अपव्यय भी है। जो वैसा करना नहीं चाहते उन्हें भी ऐसे पाप मजबूर होकर करने पड़ते हैं अन्यथा शादियों का खर्चा जुटे कैसे? अपने समाज की नैतिक, ईमानदारी इस घातक कुरीति के कारण बुरी तरह नष्ट हो चली है। हिन्दू समाज के लिए जिसमें खर्चीले विवाहों की प्रथा प्रचलित है, अनीति का मार्ग अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। वे ईमानदार रहें तो आखिर रहें कैसे? ईमानदारी से इतना विपुल धन कमा लेना सामान्य मनुष्य के लिए असम्भव है।
हमें विचार करना होगा कि शादियों का वर्तमान खर्चीला स्वरूप जारी रहने दिया जाये अथवा नहीं? यदि इसे जारी रखना हो तो अपने व्यवहार में कूट-कूटकर बेईमानी भर लेने के अतिरिक्त अनन्त काल तक दरिद्र बने रहने को भी तैयार रहना चाहिए। हर सद्-गृहस्थ को जीवन में ४-६ विवाह अपने हाथों जरूर करने पड़ते हैं। एक विवाह में कुल मिलाकर इतनी बड़ी रकम हो जाती है जिसका परिवार की आर्थिक स्थिति बनाने-बिगाड़ने से भारी सम्बन्ध है, यदि यह पैसा घर में रहा होता तो उससे कृषि, व्यवसाय आदि जो भी काम होता है उसमें पूँजी बढ़ने से बहुत उन्नति हो सकती थी। उस पैसे से घर का मकान बन सकता, परिवार को अच्छा भोजन मिलने से शरीर स्वस्थ और दीर्घजीवी हो सकते थे। बच्चों को उच्च शिक्षा मिल सकती थी और बुढ़ापे, बीमारी में कुछ सहारा हो सकता था पर जब सारा पैसा शादियों के अपव्यय में नष्ट हो गया तो घर का खोखला हो जाना स्वाभाविक है। प्रगति के हर द्वार बन्द होंगे ही और अनेक असुविधाओं से भरा जीवन सारे परिवार को जीना ही पड़ेगा।
शादियों की खर्चीली प्रथा हमें कर्तव्यहीन, मुफलिस, बेईमान और हीन स्थिति में दुःख-दारिद्रय से भरा जीवन जीने के लिए मजबूर करती है। आमदनी बढ़ाने के कुछ रास्ते निकलते भी हैं तो उसी हिसाब से उन शादियों का और उसके बाद वर्षों तक चलने वाले अलन-चलनों का खर्च इतना बढ़ा रहता है कि किसी को बढ़ी हुई आमदनी का लाभ नहीं मिल सकता। यदि इस अनावश्यक बर्बादी से हम बच सके तो हर घर में थोड़ा पैसा जमा होता और उससे कुछ प्रगति के नये कार्य बनते और धीरे-धीरे वह बढ़ोत्तरी आर्थिक समृद्धि के रूप में दीखती। अमेरिका, जापान आदि देशों के लोग अपनी बचत को ऐसे कामों में लगाते हैं, जिनसे उनकी समृद्धि बढ़े। धीरे-धीरे वे धनी होते चलते हैं। हमारे सामने शादियों के खर्च की मजबूरी न रही होती तो अपने परिवार में भी खुशहाली होती और हर किसी के चेहरे आशा, उत्साह से चमक रहे होते। हर कोई अच्छी आर्थिक स्थिति के कारण ऊँचे स्तर का सुखी जीवन जीने की दिशा में बढ़ रहा होता। तब सर्व-साधारण को बेईमान बनने के लिए मजबूर न होना पड़ता।
विवेकशीलता का तकाजा है कि हम इस बात पर पुनर्विचार करें कि अपने समाज में प्रचलित विवाहों की खर्चीली प्रथा क्या उचित है। क्या आवश्यक है? क्या झूठी शेखीखोरी के पीछे कुछ वास्तविकता है? यदि नहीं तो सर्व-साधारण के लिए प्राण-घातक बनी हुई चिन्ता से हर गृहस्थ का आधा खून सुखा देने वाली और आधी जिन्दगी कम कर देने वाली-इस कुप्रथा का अन्त कर देने की बात सोचनी चाहिए।
यदि यह सही है कि विवाह-शादियों का वर्तमान खर्चीला स्वरूप अनुपयुक्त है तो हर विवेकशील और देशभक्त का कर्तव्य है कि उस अवांछनीयता को हटाने के लिए कुछ साहस प्रदर्शित करें, जिसके कारण अपने समाज का नैतिक और आर्थिक स्तर दिन-दिन चकनाचूर होता चला जा रहा है।
आरम्भ हमें अपने घर से करना चाहिए। अपने बच्चों की शादियाँ बिना खर्च के करेंगे, न तो दहेज लेंगे और न देंगे के सिद्धांत पर दोनों पक्षों का असमंजस दूर हो सकता है। जब मिटने होंगे तो दहेज और जेवर एक साथ मिटेंगे। एक पक्षीय सुधार सम्भव नहीं। समाज के विचारशील व्यक्ति औचित्य को कार्यान्वित करने के लिए अग्रसर हों तो इस कुप्रथा के उन्मूलन के लिए पंचायती निर्णय हो सकते हैं और उसका उत्साहवर्धक लाभ सारे समाज को मिल सकता है। समय आ गया है कि हम चेतें और सादगी के वातावरण में मितव्ययिता वाले सज्जनता और विवेकशीलता के आधार पर विवाह आयोजन की योजना बनायें।
प्रश्न-
(१) विवाहोत्सव की परम्परा प्राचीनकाल में कैसी थी? (२) आजकल विवाहोत्सव को कमरतोड़ भार क्यों कहा जाता है? (३) हमारे देशवासियों की औसत आय क्या है? (४) विवाहोन्माद से दोनों पक्षों को कैसे हानि होती है? (५) विवाह के भार का सामना करने के लिए समाज के विभिन्न अंग किस प्रकार की बेईमानी करते हैं? (६) यदि विवाह में कम खर्च किया जाय तो समाज को क्या लाभ होगा? (७) बढ़ी हुई आमदनी को लाभ क्यों नहीं मिल पाता है? (८) विवेकशीलता का तकाजा क्या है? (९) विवाह प्रथा में सुधार का प्रारम्भ कैसे किया जाय? युग की माँग क्या है? (१०) विवाहोत्सव की योजना के सही आधार क्या है?
बेटे वाले व्यर्थ ही घाटा और बदनामी न उठायें
जब तक सामाजिक कुरीतियों के दुष्परिणाम पर ध्यान नहीं गया था तब तक कोई बात नहीं थी पर अब-जबकि अधःपतन के कारणों की ढूँढ़-खोज की जा रही है और लेखा-जोखा लिया जा रहा है तब यह तथ्य सबके सामने आ गया है कि विवाह-शादियों में होने वाले अपव्यय ने इस देश को बेईमानी, कर्जदार, गरीबी और आर्थिक तथा नैतिक दुर्दशा को बेतरह बढ़ावा दिया है और इस कुप्रथा के रहते अपने समाज का अधःपतन रोका न जा सकेगा। तथ्य समाप्त होने के बाद हर विचारशील इस बात से सहमत है कि इस अनावश्यक अपव्यय की बेवकूफी को जितनी जल्दी हो सके बन्द कर देना चाहिये। इस बढ़ती हुई महँगाई के दिनों में जो लोग पुरातन पंथ के नाम पर पैसे की होली फूँकने और मूर्खतापूर्ण धूम-धड़क्का मचाने का समर्थन करते हैं उन्हें ओछा, अविवेकी, दुष्ट और दुराव की कहकर घृणा की दृष्टि से देखा जाता है।
कोई जमाना था कि शादियों में धूम उड़ाने वाले रईस, अमीर समझे जाते थे पर आज तो गरीबों को अपनी अमीरी का स्वाँग सजाने वाले प्रतिगामी गँवार मात्र कहा जाता है। पैसा अपना उड़ता-बदले में प्रशंसा मिलने की अब कोई गुंजाइश नहीं रही। उलटा घृणा और भर्त्सना का ठीकरा सिर पर फूटता है। ऐसी दशा में अब घर फूँक तमाशा देखने का यह खेल पिछड़े जमाने का स्वाँग हो गया, अब उसे खेलने वाले कहीं भी प्रशंसा प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकते। उलटे यही सुनने को मिलेगा कि कहीं से ब्लैक की हराम की कमाई हाथ लगी है जो इस बेदर्दी से उड़ाई जा रही है। अपना घर बेचकर अमीरी का स्वाँग रचा सो भी प्रशंसा तक न दिला सका उलटा बदनामी का कारण बना तो फिर उसकी लकीर पीटने से क्या लाभ? जो मर गया उसे जला ही देना चाहिए। खर्चीली शादियों की धूम-धाम एक ऐसी मृत प्रायः कुरीति है जिसकी लाश छाती से चिपकाए रहना व्यर्थ है। उचित यही है कि उसे सड़ाकर बदबू फैलाने का अवसर न देकर समय रहते जला या गाड़ दिया जाये।
‘विवाहोन्माद’ में होने वाले अपव्यय का इन दिनों सारा दोष बेटे वाले पर थोपा जाता है। उन्हें कसाई और जल्लाद की उपमा दी जाती है। कहा जाता है कि यह लोग अपने लड़के का माँस बेचते हैं। कोई कहता है कि दुष्ट लोग कुछ समय पहले लड़कियाँ बेचकर मालदार बनते थे अब उनने लड़के बेचने का धन्धा पकड़ा है। हो सकता है यह लोग अगले दिनों अपने औरतें और माँ-बाप बेचने लगें, पैसे के लिए आदमी क्या कुकर्म नहीं करता। कोई कहता है जब लड़की का विवाह करना पड़ेगा तो यही लोग जो आज शेर की बोली बोलते हैं, तब बकरी की तरह मिमियायें। ऐसे एक अनेक बहुवचन सुनने को मिलते हैं। जिस घर से दहेज लिया गया है वे बाहर से तो मिन्नतें करते हैं पर पेट में इतनी घृणा दबाये बैठे हैं कि उनका बस चले तो इस बेटे के बाप, समधी का भी छुरे से पेट चीर डालें और स्कूटर के लिए अड़े बैठे लड़के की नाक ही कतर लें। बेचारों की मजबूरी है कि लड़की के हाथ पीले करने हैं, इसलिए सिर-झुकाकर मेंमने को भेड़िये की शर्तें माननी पड़ती हैं पर भीतर ही भीतर कोसता वह भी यही है कि हत्यारे पर बिजली गिरे और उसका अंश-वंश मिट जाये।
इसी जल्लादी की कीमत पर खड़ी की गई दो दिन की धूमधाम निस्सन्देह हजार मुख से धिक्कारने लायक है। यह इतना महँगा सौदा है कि जिसे खरीदने का साहस किसी भी समझदार बेटे वाले को नहीं करना चाहिए।
विचार करने की बात यह है कि क्या लड़के वालों को सचमुच इतना लाभ मिलता है जिसके लिए इस प्रगतिशील युग में दसों-दिशाओं से बरतने वाली भर्त्सना का लोभ छोड़ सकना कठिन हो। बारीकी से देखने पर पता चलता है कि लड़के वाला अपनी जिद और मूर्खता मात्र के कारण बदनाम होता है। पल्ले उसके भी कुछ नहीं पड़ता वरन् उलटा घाटे में रहता है। जो कुछ लड़की वाले ने दिया था वह तो अस्त-व्यस्त हो जाता ही है, इसके अतिरिक्त उसे निश्चित रूप से कुछ घर से भी लगाना पड़ता है। बदनामी नफा कमाने वाले के रूप में हुई और वस्तुतः रहे घाटा उठाने वालों में। ऐसा सौदा करने से क्या लाभ जिसमें नुकसान भी रहे और बदनामी की हाँड़ी सिर पर फूटे?
लड़की वाले को कमर तोड़ खर्च करना पड़ता है। बारात की आवभगत, ज्यौनार, भेंट-उपहार का खर्च बहुत बढ़ा-चढ़ा होता है। उसी में ढेरों पैसा लग जाता है, इसके बाद उन चीजों का नम्बर आता है जिन्हें भेंट-उपहार की चीजें कहते हैं, कपड़े, फर्नीचर, खिलौने, रंग-बिरंगे कपड़े, बर्तन, सिंगारदान, रेडियो, घड़ी, पेन आदि ऐसी चीजें दी जाती हैं जो खरीदने वाले की तो रकम खा जाती हैं पर जिसके घर गई हैं उसके लिए सर्वथा अनावश्यक और निरर्थक सिद्ध होती हैं, जगह घेरती हैं और कूड़े-करकट की तरह पड़ी रहती हैं। जरूरत की चीजें हर गृहस्थी में पहले से ही मौजूद रहती हैं। दिखनौटी, विलासी चीजें बाजार में बेची भी नहीं जा सकती। उनका कुछ उपयोग भी नहीं। बेटे वाला बदनाम भी हुआ और उस कूड़े-करकट का कुछ लाभ भी न उठा सका। जेवर आदि जो मिलते हैं वे भी ऐसे हैं जिसकी आधी कीमत सुनार के पेट में पहले ही चली जाती है और आधी से बचती है उसे पहनने वाली औरतें दो-चार वर्ष में तोड़-फोड़कर बराबर कर देती हैं। जो नकदी मिली उससे कहीं ज्यादा लड़की के लिए जेवर, कपड़े, शृंगार, साधन, उपहार, मेवे-मिठाई आदि खरीदने पड़ते हैं और बारात का किराया, आतिशबाजी, बाजा, दरवाजे की शोभा के नाम पर इतना खर्च होता है कि अपने घर पर होने वाली मेहमाननवाजी के साथ बहुत भारी पड़ती है और उससे हर बेटे वाला घाटे में रहता है।
इस दृष्टि से बेटे वाला निस्सन्देह दया का पात्र है। उसने पैसे की दृष्टि से कुछ कमाया नहीं, गँवाया। बदनामी इतनी सही कि विचारशील लोगों की दृष्टि में वह गाय मार डालने से भी बढ़कर है। दकियानूस, प्रगति विरोधी, कुरीति-पोषक, स्वार्थी, जल्लाद, हराम की कमाई खाने वाला आदि न जाने क्या-क्या कहलाया। इस धूमधाम में प्रशंसा मिलेगी, प्रतिष्ठा बढ़ेगी वाली बात केवल स्वप्न-लोक की तरह ही थी जिस पर बहुत सड़े-गले किस्म के लोग ही विश्वास कर सकते हैं।
इन परिस्थितियों में हर बेटे वाले को नये दृष्टिकोण से रहना होगा और आदर्शवादी विवाह पद्धति अपनाकर अपनी प्रगतिशीलता की प्रशंसा पाने और अपने तथा अपने सम्बन्धी के पैसे बचाने का कदम उठाना होगा। दावत या धूमधाम करना जरूरी हो तो बेटे वाला अपने घर और बेटी वाला अपने सम्बन्धी, मित्रों की आवभगत में कर सकता है। उसे बेटी वाले से कहना चाहिए-‘‘हम विवाह के अवसर पर एक आदमी, एक जोड़ा-साड़ी जम्फर लड़की के लिए लावेंगे और बिना धूमधाम के विशुद्ध पारिवारिक उत्सव तथा धर्मानुष्ठान की तरह विवाह करके लड़की को विदा करा ले जायेंगे। विवाह के अवसर पर कोई प्रशंसात्मक उपहार या नकदी स्वीकार न करेंगे। व्यर्थ की रस्म-रिवाज और अलन-चलन में पैसा तथा समय खराब न करेंगे, विवाह पूर्ण सादगी के वातावरण में होगा।’’
इस सन्देश से बेटी वाला यदि वज्र मूर्ख न हुआ तो खुशी-खुशी सहमति प्रकट करेगा और लड़के को एक अंगूठी, एक जोड़ी कपड़ा, दस बारातियों का सत्कार जैसे कार्य में हजार दो हजार रुपया खर्च करके आसानी से एक अग्निपरीक्षा जैसी चिन्ता से छूट जायेगा और उसे अपनी लड़की को कुछ देना ही होगा तो विवाह के दो-चार महीने बाद बिना किसी दबाव या प्रदर्शन के अपनी लड़की को स्वेच्छापूर्वक दे देगा, जो स्त्री धन के रूप में कभी उसके काम आ सके। यह बाप-बेटी के बीच का आदान-प्रदान होगा इसमें दोनों पक्षों के लोग कुछ दिलचस्पी न लेंगे।
ऐसे आदर्श विवाहों का प्रचलन करने में बेटे वाले को पहल करनी चाहिए और जल्लादी पंक्ति में से अपना नाम काटकर देवताओं में गणना करानी चाहिए। इनसे उनका आर्थिक लाभ तो स्पष्ट ही है।
प्रश्न --
(१) दहेज तथा शादियों का असह्य अपव्यय समाज को अधःपतन की ओर किस प्रकार ले जा रहा है? (२) पहले शादियों पर अपव्यय होने के क्या कारण थे? (३) अब अपव्यय करने पर समाज हमसे किस प्रकार बरताव करता है? (४) विवाहोन्माद में होने वाले इस सारे अपव्यय का दोष बेटे वाले के सिर पर क्यों थोपा जा रहा है? (५) हर बेटे वाला दहेज रहने के बाद भी घाटे में किस प्रकार रहता है? (६) यह आप किस तरह कह सकते हैं कि बेटे वाला दया का पात्र है? (७) इस आदर्शवादी विवाह पद्धति में बेटे वाले को किस तरह का रोल अदा करना होगा? (८) बेटी वाले को किस प्रकार का बरताव करना चाहिए?
उच्च शिक्षित कन्या की विवाह समस्या और उसके नये हल
मानव जाति का उज्ज्वल भविष्य नारी का स्तर ऊँचा उठाये जाने पर निर्भर है। वही माता के रूप में निर्मात्री, पत्नी के रूप में शक्ति, भगिनी के रूप में शालीनता और पुत्री के रूप में मधुरिमा बनकर नर को सजीव, सशक्त, सज्जन और सहृदय बनाती है। नारी की प्रस्तुत गरिमा जाग्रत करने के लिए उसकी अलौकिक विशेषताओं और विभूतियों को जगाया जाना आवश्यक है। इस जागरण का प्रथम सोपान शिक्षा है। यों आज की शिक्षा के साथ कितने दोष-दुर्गुण भी जुड़ गये हैं और उनसे सतर्क रहने की आवश्यकता है, पर इतना सब होते हुए भी शिक्षा के बिना कोई गति नहीं। शिक्षित नारी में भी दोष होना सम्भव है पर समग्र रूप से नारी को विकसित करने के लिए शिक्षा की उपेक्षा करके नहीं चला जा सकता। नारी शिक्षा एक ऐसा तथ्य है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रगति के द्वार उसके बिना अवरुद्ध ही बने रहेंगे।
जीवन विकास की आवश्यक जानकारी, गृहस्थ संचालन की क्षमता और पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन को सुसम्पन्न बनाने के लिए जिस बौद्धिक कुशलता की आवश्यकता है, उसके लिए शिक्षा अनिवार्य रूप से आवश्यक है। समय की पुकार है कि इस दिशा में लड़कों से भी अधिक अवसर लड़कियों को मिलना चाहिए। इसका एक कारण तो यह है कि अगला समय-नया युग नारी के नेतृत्व का आ रहा है। पुरुष ने अपनी उद्दण्डता से समाज में दुष्टता को ही बढ़ाया है। नारी की करुणा और कोमलता को जब नेतृत्व का अवसर मिलेगा तब सर्वत्र ममता और मानवता की धाराएँ बहेंगी और समस्याओं का हल जिसकी लाठी उसकी भैंस के आधार पर न होकर ममता और करुणा के आधार पर होगा, नारी में वे विशेषताएँ हैं जिनके आधार पर वह हर क्षेत्र में कुशल नेतृत्व कर सके, उसे अपना उचित योगदान दे सकने की क्षमता से युक्त बनाने के लिए शिक्षा का अधिकाधिक अवसर मिलना चाहिए।
दूसरा कारण यह है कि भौतिकवादी लोलुपता एवं कामुकता अब दम्पत्ति जीवन के आधारभूत आदर्शों में आग लगाने पर तुल गई है। पत्नीव्रत धर्म एक मखौल बनता जा रहा है। कला के हर माध्यम ने जिन पैशाचिक वितृष्णा को जगाया है, उसने हर पढ़े-लिखे लड़के को ऐसी स्थिति में डाल दिया है कि वह कभी भी पत्नी के साथ विश्वासघात करके उसे बीच भँवर में डुबो दे। ऐसे उदाहरण आँधी-तूफान की तरह बढ़ते जाते हैं जिससे योरोप की तरह जल्दी-जल्दी पत्नियाँ बदलने के शौकीनों ने अपनी धर्मपत्नी को निरीह और अनाथ बनाकर खून के आँसुओं से जिन्दगी भर रोने के लिए विवश कर दिया। इस बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्ति के दिनों में हर सयानी लड़की का भविष्य खतरे में है और उसे इस योग्य बनाया जाना चाहिये कि बीच नदी में धकेल दिये जाने पर भी वह तैरकर पार हो सके।
तीसरा कारण यह है कि आज की महँगाई में एक सुखी और सुविकसित गृहस्थ सँजोने के लिए केवल पुरुष की कमाई ही पर्याप्त नहीं, पत्नी को भी उपार्जन में योगदान देना आवश्यक हो गया है और यह कार्य केवल शिक्षित नारी ही कर सकती है। ऐसे असंख्य कारणों को देखते हुए हर अभिभावक का कर्तव्य है कि अपनी लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए लड़कों से भी अधिक सुविधा उसे प्रदान करें।
इस तथ्य को अनेक अभिभावक स्वीकार करते हैं और अपनी बच्चियों को पढ़ाते भी हैं पर उस संदर्भ में उन्हें एक कठिनाई का सामना करना पड़ता है। अपने देश में रिवाज है कि ‘‘कन्या की अपेक्षा वर अधिक शिक्षा वाला और अधिक आयु वाला होना चाहिए।’’ इस मान्यता के अनुसार लड़की जितनी अधिक पढ़ती जाती है उसी अनुपात से अधिक शिक्षित लड़के की जरूरत पड़ती है। पढ़े-लिखे लड़कों का बाजार उनकी शिक्षा के हिसाब से महँगा होता जाता है और फिर क्रमशः कन्या के पिता का उतना कीमत चुका सकना कठिन पड़ता है। दूसरी दिक्कत यह पड़ती है कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने पर लड़का ढूँढ़ते-ढूँढ़ते देर हो जाती है और बड़ी उम्र की लड़कियों को उनसे अधिक आयु के लड़के मिलने कठिन हो जाते हैं, कुछ समय तक पहले अपने देश में बाल-विवाह का रिवाज था, अब कुछ सुधार हुआ है तो भी आमतौर से बीच-पच्चीस वर्ष की आयु में लड़कों के विवाह हो जाते हैं। इससे अधिक आयु के कुँवारे लड़के जहाँ-तहाँ ही देखे जाते हैं। बड़ी आयु के मिलते हैं तो ३-४ बच्चों के बाप विधुर होते हैं। इन दो कठिनाइयों के कारण सुशिक्षित कन्याओं के विवाह की समस्या अति जटिल होती जाती है और ऐसे उदाहरण तेजी से बढ़ते जाते हैं जिससे उपयुक्त दो उलझनों का हल न निकलने के कारण हजारों सुशिक्षित कन्याओं को कुँआरी रहने के लिए विवश होना पड़ा और वे उच्च शिक्षा को अभिशाप अनुभव करने लगीं।
इस कठिनाई के डर से या तो लड़कियों को कम पढ़ा रख कर छोटी आयु में विवाह कर देना पड़ेगा या फिर कोई दूसरा हल निकालना पड़ेगा। विवेक की दृष्टि से कन्याओं को उच्च शिक्षा का अवसर मिलना नितान्त आवश्यक है। किसी भी कारण उस अवसर को खोया नहीं जाना चाहिए। हमें उस दृष्टिकोण को बदलना चाहिए ताकि वे सुयोग्य, सुशिक्षित कन्याएँ प्राप्त कर सकें। इसके अतिरिक्त इस मूढ़-मान्यता को भी बदला जाना चाहिए कि कन्या से वर अधिक आयु का और अधिक शिक्षित होना चाहिए। इसमें कुछ तुक नहीं। सच बात तो यह है कि वधू की वयस्कता और परिपक्वता पर गृह-व्यवस्था और सुयोग्य सन्तान का होना निर्भर है। वर की आयु इससे कुछ छोटी हो तो भी इससे कुछ बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। सामन्तवादी युग में औरत को मारने-पीटने और पैरों तले दबाये रखने के लिए मर्द का बड़ा होना जरूरी था अब वैसी कोई आवश्यकता नहीं रही। इसी प्रकार क्या शिक्षित वर से इतनी हानि हो सकती है कि वह कुछ कम कमाये। इसके अतिरिक्त छोटी आयु कम शिक्षा के वर से दाम्पत्य जीवन पर किसी प्रकार का कोई बुरा असर नहीं पड़ने वाला है। अधिक पढ़ा अधिक बुद्धिमान, अधिक समर्थ और अधिक कमाऊ वर जिस प्रकार से पत्नी के लिए लाभदायक है उसी प्रकार अधिक वयस्क, अधिक शिक्षित और अधिक सुयोग्य और अधिक कमाऊ पत्नी का सीधा लाभ पति को मिलना चाहिए।
कन्या को उच्च शिक्षा दिलाने के साथ-साथ यह मनोभूमि भी हमें तैयार करनी चाहिए कि लड़की से कम उम्र और कम शिक्षा वाला लड़का ढूँढ़ने में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। लड़कों को यह बात सोचनी चाहिए कि अपने से बड़ी आयु और बड़ी शिक्षा वाली लड़की प्राप्त करना यह उसके गौरव, सौभाग्य एवं उज्ज्वल भविष्य का चिन्ह है इसमें उन्हें अपनी हेटी नहीं प्रतिष्ठा अनुभव करनी चाहिए। लड़की कुछ अधिक कमा सके और लड़का कुछ कम कमाये तो दाम्पत्य जीवन की एकता को देखते हुए इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। दहेज में कोई रकम पाने की अपेक्षा सुशिक्षित, कमा सकने योग्य लड़की वह जायदाद है जो हर महीने ब्याज-भाड़े की तरह आमदनी दे सकती है। कन्या की उच्च शिक्षा बढ़नी चाहिए। साथ ही उसके विवाह में उत्पन्न अवरोधों के ऐसे हल ढूँढ़े जाने चाहिए इस प्रकार के दृष्टिकोण बरते जाने चाहिए जैसे कि ऊपर की पंक्तियों में सुझाये गये हैं।
प्रश्न --
(१) मानव जाति का उज्ज्वल भविष्य नारी का स्तर ऊँचा उठाये जाने पर निर्भर है? (२) आजकल लड़कियों को शिक्षा दिलाना क्यों आवश्यक हैं? (३) आज का युवक अपनी पत्नी को किस प्रकार धोखा दे सकता है तथा इसका कारण क्या है? (४) महँगाई के इस जमाने में नारी का क्या कर्तव्य हो जाता है? (५) उच्च शिक्षित कन्या को शादी के बाद किस तरह का जीवन व्यतीत करना पड़ता है? (६) नारी के नेतृत्व से समाज का क्या कल्याण होगा? (७) शिक्षित नारी के विवाह की कठिनाइयों को दूर करने के लिए किन-किन धारणाओं को बदलना चाहिए? (८) शिक्षित लड़की खुद ही दहेज किस प्रकार से है?
विधुर और विधवाएँ समान न्याय के अधिकारी
नर और नारी ईश्वर की दो आँखें, दो भुजाएँ, दो सन्तान हैं। दोनों ही उसे समान रूप से प्रिय हैं। दोनों के लिए उसके मन में समान रूप से स्नेह और न्याय है। कोई सहृदय पिता अपने बालकों को दुलार, वात्सल्य में कमी कर भी नहीं सकता। ईश्वर ने नर और नारी की आकृति में थोड़ा अन्तर और प्रजनन-प्रणाली में थोड़ा हेर-फेर सृष्टि का आकर्षण और सौन्दर्य बनाये रखने की दृष्टि से भले ही किया हो, उनके अधिकार और स्तर में तनिक भी न्यूनाधिकता नहीं रखी है।
धर्म और कर्तव्य तथा अधिकार दोनों के एक समान हैं। पाप-पुण्य भी दोनों के लिए एक ही हैं। जो नैतिक और सामाजिक कर्तव्य नर के लिए निर्धारित हैं, उन्हीं से नारी भी बंधी हुई है। जो स्वतन्त्रता तथा परतन्त्रता एक उत्तरदायी नागरिक की दृष्टि से नारी पर लदी है उन्हीं से नर भी समान रूप से जकड़ा हुआ है। चाहे धर्म हो चाहे कानून किसी के साथ रियायत नहीं करते। यदि रियायत का प्रश्न कभी आये तो भी वह सहृदयता की दृष्टि से सदा दुर्बल को सुविधा देने के पक्ष में जायेगा। प्रजनन का अधिक भार उठाने के कारण बहुत करके नारी का पक्ष ही कुछ घाटे में रहता और दुर्बल पड़ता है इसलिए ईश्वरीय तथा मानवीय न्याय ने यत्किंचित् न्याय और कर्तव्य पालन में थोड़ी सुविधा नारी को ही दी है। नर को प्रकृतिगत सुविधा अधिक मिल जाने से उस पर कर्तव्य का उत्तराधिकार अधिक ही छोड़ा है और न्याय की जंजीर में उसे ही अधिक कड़ाई से कसा है।
विवाह नर-नारी का पवित्र गठबन्धन है। उसमें जो लाभ है, उन्हें दोनों समान रूप से उठायें और जो उत्तरदायित्व तथा कर्तव्य हैं उन्हें समान रूप से पालें यह नितान्त आवश्यक है। ईश्वर की यही इच्छा और न्याय की सही दिशा है। पतिव्रत धर्म नारी के लिए आवश्यक है। नर के लिए पत्नीव्रत पालन करने की कड़ाई तथा जिम्मेदारी उससे कम नहीं वरन् है। दोनों को विवाह बन्धन में बँधने के बाद परस्पर वफादार और ईमानदार रहना ही चाहिए।
यदि कोई पक्ष इन कर्तव्यों से छूट लेना चाहे तो ठीक वही छूट उसे दूसरे पक्ष को भी देने के लिए भली प्रकार तैयार रहना चाहिए। बहु पत्नी प्रथा आवश्यक हो-यदि एक पत्नी के रहते दूसरी पत्नी की आवश्यकता अनुभव करे तो उसे आगे बढ़कर नारी मात्र को वही सुविधा सम्मानपूर्वक मिलने का समर्थन करना चाहिए। हिमालय की छाया में जॉनसार नामक क्षेत्र में एक नारी कई पति खुले रूप से सामाजिक समर्थन से रखती है। ऐसे ही क्षेत्र में बहुत पत्नी प्रथा का भी समर्थन किया जा सकता है पर जो लोग अपनी नारी को शील और सतीत्व पालन करती हुई देखना चाहते हैं, उन्हें वही औचित्य पूर्णतया शत-प्रतिशत अपने ऊपर लागू करना चाहिए। पुरुष को व्यभिचार की छूट और स्त्री को पतिव्रत का बन्धन यह दुहरा मापदण्ड न ईश्वरीय इच्छा के अनुकूल है न सामाजिक न्याय है। मानवीय आचार-शास्त्र में इस प्रकार के भेद-भाव को समर्थन नहीं मिल सकता। स्थिति के अनुरूप सामाजिक विधान और परम्पराएँ बदले जाने की बात समझ में आती है, पर उसका परिणाम नर और नारी को समान रूप से मिलना चाहिए। धर्म और इनसाफ सदा इसी बात का समर्थन करेगा।
भारतीय समाज में पिछले सामन्तवादी अन्धकार युग से जिसकी लाठी उसकी भैंस वाले जंगली कानून चल पड़े हैं। उन प्रथाओं के अनुसार नारी को बहुत अधिक प्रतिबन्धित किया गया है। नारी के शील पर संदेह होने की दशा में पुरुष उसका परित्याग करते देखे गये हैं। नारी की शील रक्षा के लिए पर्दा और नर को वैश्या नृत्य देखने की खुली छूट। इस प्रकार के भेद-भाव ने धर्म, न्याय, औचित्य सभी का सिर नीचा किया है। कुछ दिन पहले पति के मर जाने पर पत्नी को सती होना पड़ता था। यदि वह उचित था तो न्याय और धर्म की दुहाई यह भी होनी चाहिए थी कि पत्नी के मरने पर पति उसके साथ ‘सता’ हुआ करते। एकांगी परम्परा भले ही वह कुछ भी क्यों न हो सर्वथा अन्याय कही जायेगी।
वैधव्य और वैध्वर्य को किस तरह निबाहा जाये इसके लिए न्यायोचित परम्परा एक ही हो सकती है। यदि विधुर होने के बाद पुरुष का दूसरा विवाह करने की छूट है तो ठीक उसी तर्क और उसी न्याय के आधार पर नारियों को भी वैसी ही सुविधा मिलनी चाहिए। यदि साथी के बिछुड़ जाने पर अविवाहित रहना उचित है तो उस बन्धन का समान रूप से नर और नारी दोनों को पालन करना चाहिए। यदि वैसा कार्य कठिन लगता है तो जो सुविधा नर चाहे उसी का समर्थन आगे बढ़कर नारी के लिए भी प्रदान करे। एकपक्षीय सुविधा, एकपक्षीय बन्धन यह तो सरासर अन्याय है।
अपने देश में नारी विधवा होने के बाद दूसरा विवाह नहीं कर सकती, ऐसा सवर्ण कहलाने वाली ऊँची जातियों में रिवाज है। इन वर्गों को विचार करना चाहिए कि यदि उचित हो तो यही बन्धन और भी अधिक कठोरता के साथ पुरुषों पर लागू कर दें। किन्तु यदि उसमें नर को असुविधा लगे और उसे दूसरे विवाह की छूट देना उचित प्रतीत हो तो प्रत्येक न्यायशील व्यक्ति को वैसी ही छूट, सुविधा, समर्थन एवं प्रोत्साहन, परामर्श नारियों को देने के लिए भी आगे आना चाहिए। न्याय की तुला बेइंसाफी तथा पक्षपात का रूप न नर के साथ अपनाये न नारी के साथ। इस पर हम धर्म और ईमान की महत्ता समझाने वाले व्यक्ति को पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए।
आज की परिस्थिति में साधारणतया ही सुविधाजनक प्रतीत होता है कि जिनको बिगड़ी गृहस्थी को फिर से जमाने की आवश्यकता अनुभव होती है उन्हें वैसा करने की छूट दी जाये। विधुर भी पुनर्विवाह कर सके और विधवा भी। यहाँ एक बात यह भी ध्यान रखने की है कि विधुर लोग कुमारी कन्याओं से विवाह कर लेते हैं, इससे ही हानियाँ होती हैं। एक तो असमान वय के नर-नारियों का दाम्पत्य जीवन सुखी नहीं होता, आयु में अन्तर रहने से ये लड़कियाँ जल्दी ही विधवा हो जाती हैं और उनके बच्चे अनाथ भटकते हैं। इसके अतिरिक्त विधवाओं को, कुँवारे लड़के स्वीकार नहीं करते अतएव उन्हें पुनर्विवाह की सुविधा नहीं मिल पाती। अतः विधुर नफे में और विधवाएँ घाटे में रहती हैं। इस असमानता को दूर करने के लिए यही एकमात्र उपाय है कि विधुर विधवाओं से विवाह करें और विधवाएँ विधुरों से। यदि बच्चे वाला विधुर विवाह करना चाहता है तो उसे बच्चे वाली विधवा से ही विवाह करना चाहिए। ताकि जिस प्रकार अपने बच्चे का पालन-पोषण करने के लिए नयी पत्नी की जरूरत पूरी करनी पड़ी इसी प्रकार किसी विधवा को भी अपने बच्चे का पालन करने के लिए नये पति की सुविधा उपलब्ध हो सके। इस प्रकार से दो परिवारों के अनाथ जैसे बालकों को नये माता-पिता का स्नेह प्राप्त होगा और जनमानस पर भी यही छाप पड़ेगी कि सौतिया डाह तथा विमाता का वैमनस्य, स्वाभाविक नहीं संकीर्णता की देन है। उदार अभिभावक अपने और पराये बच्चे को समान रूप में वात्सल्य और सहयोग प्रदान करे सकते हैं।
प्रश्न-
(१) सिद्ध करो कि नर-नारी भगवान की दो भुजाएँ हैं? (२) क्या नारी कर्तव्य और अधिकार में पुरुषों के समान नहीं? (३) पति-पत्नी के प्रति वफादार कैसे रह सकता है? (४) हिमालय के जानसर बावर की प्रथा का वर्णन करो, उपयोगिता बताओ? (५) नारी को हीन मानने से क्या दुष्परिणाम हुए? (६) विधवा को समान न्याय किस प्रकार मिल सकता है? (७) विधवा विवाह के लिए क्या आवश्यक है? (८) विधवाओं के साथ क्या उदारता बरती जानी चाहिए?
मनस्वी शूरवीर विवाहोन्माद असुर से जूझें
धर्म के मूल सिद्धान्त तो सनातन हैं वे अपरिवर्तित रहते हैं पर रीति-रिवाज, देशकाल, पात्र की बदलती हुई परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। विवाह-शादियों को ही लें, किसी जमाने में जब यह देश सर्व-सम्पदाओं का स्वामी रहा था, वैभव और ऐश्वर्य चारों ओर बिखरा पड़ा था, जीवन निर्वाह के साधनों तथा शिक्षा, चिकित्सा आदि की कोई चिन्ता न थी तब लोग संभव है जन्म, विवाह, मरण आदि को हर्ष का दिखावा मानकर लम्बे-चौड़े प्रीतिभोज करते और दान की व्यवस्था मुक्तहस्त से करते हों। लेने की इच्छा न रखने वालों को भी उस ऐश्वर्य में से यथोचित लाभ मिलता हो पर आज की स्थिति का उस समय से क्या मुकाबला और आज उस तरह के अनुकरण का क्या सवाल? कमरतोड़ महँगाई और जीवनयापन और शिक्षा, चिकित्सा आदि के भारी खर्च वाले इस जमाने में जबकि समय काटना मुश्किल पड़ रहा है। उस ऐश्वर्य वाले जमाने की तरह खर्च करने और हर्षोत्सव मनाने की बात सोचना व्यर्थ है। आजीविका और अमीरी उस जमाने जैसी हो, निर्वाह उस जमाने जितना सस्ता हो तो बचत की दौलत शादियों की धूमधाम तथा दान-दहेज में फूँकने की बात कुछ समझ में आती थी, अब जबकि आर्थिक तंगी से ही मध्यवर्ती और गरीब व्यक्ति का दम घुटा जा रहा है, तब उस पैसे की जिसकी स्वास्थ्य तथा व्यवसाय, शिक्षा-चिकित्सा आदि के लिए बेहद जरूरत है, उन्मादियों की तरह किस प्रकार विवाह-शादियों में होली की तरह फूँकना उचित कहा जा सकता है?
हर कोई जानता है कि अपने हिन्दू समाज में यह सबसे बड़ी फूहड़ और मूर्खतापूर्ण कुरीति है कि विवाह शादी जैसे पारिवारिक, स्वाभाविक, सीधे-सादे आयोजन में अन्धाधुन्ध पैसा उड़ाया और बहाया जाये। इस कुरीति ने अनेक दुष्परिणाम पैदा किये हैं। अपना देश बहुत गरीब है। इन दिनों शायद ही कोई ईमानदार व्यक्ति कुछ बचत कर सकता है, फिर हर गृहस्थ में तीसरे चौथे वर्ष एक शादी अक्सर होती है। हर मनुष्य को अपने परिवार में ४-५ शादी तो निपटानी ही पड़ती हैं। २५ हजार भी हर शादी में लगे तो १२५ हजार चाहिए। उतनी बचत सर्वसाधारण के लिए असंभव है पर वर्तमान रीति से नहीं बेईमानी से ही पूरी होती है। इसलिए अपने देश में हर किसी को हर व्यवसाय में बेईमानी का सहारा लेना पड़ता है। अपना सबसे अधिक धार्मिक कहा जाने वाला देश व्यवहार में सबसे अधिक बेईमान है। ईमानदार कर्मचारी, व्यवसायी, अफसर नेता कहीं बहुत ढूँढ़ने पर ही मिल सकेंगे। बेईमानी किसी समाज को अपराधी मनोवृत्ति का बनाती है और वह अपनी दुर्बलता से ही नष्ट एवं पतित होता चला जाता है। अपनी आज यही स्थिति है और इस स्थिति की बहुत कुछ जिम्मेदारी विवाह में फूँकी जाने वाली पैसे की होली जैसी कुरीतियों पर है।
ये कुरीतियाँ हमें नैतिक दृष्टि से बेईमान, आर्थिक दृष्टि से गरीब कर्जदार और सामाजिक दृष्टि से ढोंगी तथा स्वार्थी बनाती चली जा रही हैं। लड़के खुलेआम बेचे जाते हैं और उनका बैल, भैंस जैसा मोल भाव होता है। इन बुराइयों का प्रभाव गरीब घर की सुयोग्य कन्याओं पर कितना विघातक पड़ रहा है, इसकी चर्चा करना और सुनना दिल हिला देने वाला होगा। दहेज के राक्षस की चपेट में कितना सुयोग्य कन्याओं को किस तरह रक्त के आँसू पीने पड़े और कितनों के जीवन किस तरह बर्बाद हुए उन कथाओं को कोई क्रमबद्ध रूप से सुन सके तो पत्थर के कलेजों को भी आँसू बहाने पड़ें। इस कुचक्र में कितने सद्गृहस्थों को दर-दर का भिखारी बनना पड़ा है। इसका किस्सा कहा और सुना जा सके तो इस हिन्दू समाज की दुष्टता पर आसमान को भी आँसू बहाने पड़ें निस्सन्देह यह प्रथा जारी रही तो अपना समाज और देश अभी हजार वर्ष तक भी उन्नति न कर सकेगा।
यह परिस्थितियाँ उन मनस्वी-महामानवों को पुकारती हैं जो संव्याप्त मूढ़ता के विरुद्ध बगावत खड़ी कर सकें और बहुसंख्यक लोगों के मस्तिष्कों पर छाये हुए अन्धकार को उखाड़ फेंकने के लिए एकाकी प्रकाशवान दीप की तरह ज्योतिर्मय हो सकें। समय की, युग की, मानवता की पुकार है कि ‘विवाहोन्माद’ के असुर को रावण, कंस, हिरण्यकश्यप, जरासिन्धु, वृत्रासुर की तरह विश्वमानव का महानतम शत्रु माना जाये और उसके उन्मूलन के लिए हर देव प्रकृति के विवेकवान एवं मनस्वी व्यक्ति को भिड़ जाने के लिए आमंत्रित किया जाये।
जिनके मुख में जीवन्त वाणी हो वह इस अनाचार की पूरी-पूरी भर्त्सना करे। जिनके पास लेखनी हो वह इस दुष्टता से उत्पन्न होने वाले उत्पीड़न को प्रकाश में लायें। जिनके पास मस्तिष्क हो वह यह योजना बनायें कि किस प्रकार इस पैशाचिकता से अपना समाज मुक्ति पाये। पंच और चौधरी यदि सचमुच सड़ नहीं गये हों तो अपने प्रभाव को इस बात में लगायें कि हर दृष्टि से हेय और निन्दनीय इस कुप्रथा को उनके क्षेत्र में से कितनी जल्दी विदाई मिल जाये। जिसके पास आत्मा हो उस हर अभिभावक को अपनी कन्या की तरह दूसरे की कन्या पर भी रहम करना चाहिए और अपनी बर्बादी की तरह सम्बन्धी की बर्बादी का भी दुःख, दर्द अनुभव करना चाहिए। जहाँ कहीं भी सज्जनता, करुणा, विवेकशीलता, सहृदयता और न्याय जिन्दा हो उसे दुहाई देकर पुकारा जाना चाहिए कि वह यदि मर नहीं गई हो तो जीवित होकर इस युग में इस नृशंस असुर विवाहोन्माद से लड़ पड़ने के लिए शौर्य और साहस का परिचय दे।
नये रक्त, नये विवेक, नये जोश और नये यौवन को पीड़ित मानवता ने पुकारा है कि अनाचार के साथ समझौता करने से स्पष्ट इनकार कर दें। अभिभावक लाख बकते-झक ते रहें उन्हें यही कहना चाहिए कि हम लड़की देने वाले के प्रति कोमल भावनाएँ रखते हैं। हम उस उदार परिवार का रक्त पीने की दुष्टता न करेंगे। भले ही हमें अविवाहित रहना पड़े पर दहेज, धूमधाम, लम्बी बारात तथा दूसरे कमरतोड़ खर्चों से जुड़े हुए विवाह न करेंगे। प्रह्लाद को पिता की, भरत को माता की, विभीषण को भाई की अवज्ञा करनी पड़ी थी। अनीति के विरुद्ध भगवान की भी अवज्ञा की जा सकती है और उसमें पाप या अनुचित होने की रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं है। समय ने अविवाहित युवक और युवतियों को भी पुकारा है कि यदि उनके अभिभावक लोभ और व्यामोह की कीचड़ में बुरी तरह फँस गये हैं तो साहसपूर्वक आगे बढ़कर उन्हें निकालें और कलंक की कालिमा से हम सभी का मुँह उज्ज्वल करें। खर्चीले विवाहों का अन्त हर कीमत पर होना चाहिए और विवाहोन्माद विरोधी आन्दोलन को हर दिशा में सहयोग एवं समर्थन मिलना चाहिए।
प्रश्न --
(१) बदले हुए जमाने में विवाह पर अधिक खर्च करना अनुचित है-सिद्ध करें? (२) दहेज की प्रथा ने अभिभावक को बेईमान बना दिया है क्यों? (३) विवाह की कुरीतियों पर प्रकाश डालें तथा उनसे होने वाली हानियाँ दर्शाइए? (४) समय की पुकार क्या है? (५) शौर्य एवं साहस के साथ विवाहोन्माद के विरुद्ध आन्दोलन चलना क्यों आवश्यक है? (६) ‘अनीति के विरुद्ध भगवान की अवज्ञा की जा सकती है।’ इससे क्या समझते हो? (७) विवाह के सम्बन्ध में युवकों के क्या कर्तव्य हैं? (८) भारतीय समाज में विवाह की प्रथा में क्या-क्या संशोधन होना आवश्यक है?
बिना खर्च के विवाहों का प्रचण्ड आन्दोलन चल पड़े
इस देश में ८ लाख गाँव और ९० करोड़ लोग बसते हैं। यदि हिन्दू परिवारों की संख्या ७ करोड़ भी मान ली जाय और हर परिवार को औसतन तीन वर्ष में एक विवाह करना पड़े और ऐसे में विवाह का औसत कुल खर्च पाँच हजार की औसत से फैलाया जाय तो हर वर्ष प्रायः ३० अरब रुपया खर्च होता है। यह पैसा राष्ट्रीय दृष्टि से इतना अधिक है कि इसे बचाकर देश का पूरा वार्षिक बजट अथवा बिना किसी कठिनाई के घर-परिवारों के स्वास्थ्य, निवास, चिकित्सा, व्यवसाय आदि आवश्यक कार्यों में लगाया जाय तो उससे अपने देश वासियों का स्तर हर क्षेत्र में ऊँचा उठ सकता है और वे प्रगति के आवश्यक साधन उपलब्ध होने पर समृद्ध देश की पंक्ति में सहज ही खड़े हो सकते हैं। उपार्जन बढ़ा किन्तु बर्बादी न रुकी तो उसे बढ़ोत्तरी से भी क्या बनेगा? सामाजिक कुरीतियाँ हमारी नैतिक, आर्थिक और सामाजिक ही नहीं शारीरिक, मानसिक एवं पारिवारिक बरबादियों की भी निमित्त बनी हुई हैं। इन कुरीतियों से सबसे भयानक और सबसे अविवेकपूर्ण विवाहों के नाम पर बुद्धि बेचकर पैसे की होली फूँकने की मूर्खता को ही कहा जा सकता है। समय आ गया है कि हम अपना भला-बुरा सोचें और जो अनुचित है उसे हटा दें।
हर व्यक्ति जानता है कि सारे संसार के सभ्य समाजों की तरह हमें भी विवाह को एक छोटा पारिवारिक उत्सव मात्र मानकर उसे सादगी के साथ सम्पन्न कर लेना ही उचित है। इसमें सभी का हित है। कोई दलील ऐसी नहीं जो विवाहोन्माद का समर्थन करती हो। इतने पर भी इस कुप्रथा का प्रचलित रहना, तोड़ने का प्रयत्न न किया जाना यह साबित करता है कि अपनी विचारशीलता का-अनुचित को हटाकर-उचित को अपनाने की विवेक-बुद्धि का दिवाला निकल गया है। उसे अवांछनीय समझते हैं उसे ही छाती से चिपटाये बैठें रहें यह मूढ़ता और रूढ़िवादिता का एक घिनौना उदाहरण है। बुढ़िया पुराण के आगे नतमस्तक होकर-नासमझ रूढ़िवादियों की हाँ में हाँ मिलाकर-विचारशील वर्ग चले यह लज्जा की बात है। विवेक को नेतृत्व करना चाहिए। साहस का औचित्य अपनाना चाहिए। यदि वैसा न हो तो समझना चाहिए कि जीवित और जागृत लोगों के उपयुक्त चेतना को यह समाज खो बैठा। अनौचित्य को जो लोग सहन कर लेते हैं, उपयुक्त को अपनाने की जिनमें हिम्मत नहीं होती, जो अनर्थकारी रूढ़िवादिता के आगे नाक रगड़ते हैं, उन्हें साँस लेने वाले मृतक ही कहा जायेगा।
पैसा बर्बादी की चीज नहीं है। अमीर लोग उसे लोकोपयोगी कार्यों में लगा सकते हैं। गरीबों के लिए तो एक-एक पैसे का मूल्य है। उसके लिए बर्बादी का रास्ता अपनाना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। विवाहों के नाम पर एक तिहाई आमदनी की बर्बादी एक दर्दनाक घटना है। इस अनर्थ को यों ही चुपचाप नहीं देखते रहना चाहिए वरन् उसे मिटाने के लिए एक प्रचण्ड आन्दोलन खड़ा करना चाहिए। युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत ऐसा ही देशव्यापी और कारगर आन्दोलन छेड़ा गया है और हर विचारशील से अनुरोध किया गया है कि सम्मिलित होने के लिए उत्साहपूर्वक आगे आयें।
विवाहों को बिना दहेज, जेवर, बिना धूमधाम, बिना बारात और अति सादगी के साथ न्यूनतम खर्च में सम्पन्न करने के आदर्श विवाह आन्दोलन की उपयोगिता एवं आवश्यकता जन-साधारण को समझाई जानी चाहिए। अधिक खर्च करने और कराने वालों का विरोध करना चाहिए। ऐसी शादियों में-जिनमें बर्बादी का दौर-दौरा हो, सम्मिलित नहीं होना चाहिए। बरातों में नहीं जाना चाहिए और उस निरर्थक धूमधाम में सहयोग नहीं देना चाहिए। अभी तो समझाने का-प्रचार और आन्दोलन का ही प्रथम चरण है। आगे चलकर आर्थिक आत्महत्या करने वालों को रोकने के लिए सत्याग्रही स्वयंसेवक सेना भी गठित करनी चाहिए।
विवाह योग्य वर-कन्याओं और उनके अभिभावकों को ऐसी प्रतिज्ञा करने के लिए कहा जा रहा है कि वे अति सादगी के आदर्श विवाह ही करेंगे। इस प्रतिज्ञा पर उन्हें आरूढ़ ही रहना चाहिए और किसी भी दबाव में आकर नरम नहीं पड़ना चाहिए। वयस्क छात्रों और छात्राओं में यह प्रतिज्ञा आन्दोलन व्यापक रूप से चलाया जा रहा है और विचारशील अध्यापकों से इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के लिए कहा जा रहा है। रूढ़िवादियों के विरोध के लिए तो हमें अवांछनीय तत्त्वों से लोहा लेने की हिम्मत के साथ कटिबद्ध होना चाहिए। ऐसे प्रतिरोध अन्ततः श्रेयस्कर भी सिद्ध होते हैं। प्रह्लाद, भरत, विभीषण, बलि और मीरा की परम्परा को यदि विवाहोन्माद के प्रतिरोध में नई पीढ़ी अपनाये तो उसे अनुचित नहीं वरन् हर दृष्टि से सराहनीय ही माना जायेगा, इस आग्रह से वे अपने अभिभावकों को भी खलनायक की भूमिका प्रस्तुत करने के कलंक से बचाकर विचारशील लोगों की पंक्ति में बिठाने का हित साधन ही करेंगे।
दूसरा पक्ष अपने विचारों का न मिलने की कठिनाइयाँ होने से सुधारवादी होते हुए भी विवश होकर रूढ़िवादी कार्य करते हैं। इस कठिनाई को दूर करने के लिए विवाहोन्माद की व्यर्थता स्वीकार करने वाले परिवारों के विवाह लड़की-लड़कों की व्यापक सूची युग-निर्माण योजना द्वारा एकत्रित करनी आरम्भ कर दी गयी है। जिससे हर वर्ग अपने उपयुक्त सम्बन्ध तलाश करे सकें। एक रुपये की टिकट भेजकर ऐसी जानकारियाँ कुछ समय बाद हर सुधारवादी प्राप्त कर सकेगा। शर्त यही है कि केवल लड़की के बारे में ही नहीं ऐसी सुधार परम्परा जो अपने लड़के के बारे में भी अपनाने को तैयार हों उन्हें इस योजना से लाभान्वित होने दिया जायेगा। ऐसे धूर्तों की कमी नहीं जो लड़की के वक्त सुधारक और लड़के के वक्त बिगाड़क का चेहरा बदलने में संकोच नहीं करते।
जहाँ ऐसे विवाह हों वहाँ के सुधारकों और बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि उन आयोजनों को अधिक आकर्षक और प्रभावशाली बनायें। अधिक जनता को उसमें एकत्रित करें और प्रस्तुत योजना की सरलता और उपयोगिता समझायें, ताकि दूसरों को भी वैसा ही अनुकरण करने का प्रोत्साहन मिले। जहाँ रूढ़िवादियों का विरोध तीव्र हो और सुधारक कमजोर हों वहाँ अच्छा तरीका यह है कि ऐसे वर-वधू दो-दो, चार-चार अभिभावकों के साथ युग-निर्माण योजना के मुख्य कार्यालय (गायत्री तपोभूमि, मथुरा) में आकर पूर्ण शास्त्रोक्त विधि से, गायत्री माता की छाया में विद्वान, तपस्वियों के आशीर्वाद सहित विवाह सम्पन्न करा लें। इसमें किराया-भाड़ा तो जरूर लगता है पर अलन-चलन, नेग-जोग, उपहार, फर्नीचर के निरर्थक जंजालों से बचत भी सहज ही हो जायेगी। जहाँ ऐसे कई विवाह एक क्षेत्र में बन पड़े वहाँ सामूहिक गायत्री यज्ञ आयोजनों के साथ उन्हें और भी प्रभावशाली धार्मिक वातावरण में सम्पन्न किया जा सकता है।
इस सन्दर्भ में यदि एक बात और भी बन पड़े तो उत्तम रहेगा कि उपजातियों का दायरा बढ़ा दिया जाये और बड़ी जातियों को ही पर्याप्त माना जाये। ब्राह्मण-ब्राह्मण मात्र में, राजपूत-राजपूत मात्र में, वैश्य-वैश्य मात्र में, कायस्थ-कायस्थ मात्र में, विवाह करने लगे तो इसमें शास्त्रीय परम्परा एवं संस्कृति का तनिक भी उल्लंघन नहीं होता। सनातन तो वर्ण मात्र है। उपजातियाँ तो यातायात की कठिनाइयों के दिनों में क्षेत्रीय लोगों का एक व्यापक वर्ग बन जाने से चल पड़ी हैं। अब उसे क्षेत्रीयता और संकीर्णता को बिना किसी संकोच के प्रसन्नतापूर्वक व्यापक क्षेत्र में परिणत किया जा सकता है। इसमें अच्छे जोड़े तलाश करने बहुत सुविधा मिलेगी और देन-दहेज का चक्रव्यूह भी सहज ही टूट जायेगा।
युग-निर्माण योजना ने आदर्श-विवाह आन्दोलन को बड़े सुव्यवस्थित और व्यापक परिणाम में आरम्भ किया है और हर विचारशील, भावना सम्पन्न व्यक्ति का आह्वान किया है कि वह इसमें भाग लेने के लिए साहसपूर्वक आगे आयें और अपना सहयोग प्रदान करें।
प्रश्न --
(१) राष्ट्र में प्रतिवर्ष विवाहों पर कितना खर्च होता है? (२) कैसे कह सकते हैं कि हमारी विवेक बुद्धि का दिवाला निकल गया है? (३) श्वास लेने वाले किसे कहा जा सकता है? (४) आदर्श विवाह किसे कहते हैं? (५) सत्याग्रही स्वयं सेवक सेना से क्या समझते हो? (६) विवाहोन्माद के प्रतिरोध के लिए नई पीढ़ी को क्या करना चाहिए? (७) सामूहिक विवाह करने से क्या लाभ है? (८) उपजातियाँ कैसे बनीं? दहेज से बचने के लिए क्या किया जाय? (९) युग-निर्माण योजना द्वारा इस सम्बन्ध में किये जाने वाले कार्यों पर प्रकाश डालिए?
आततायी उद्दण्डता का डटकर मुकाबला किया जाये
अपराधों की अभिवृद्धि के आँकड़े जिस तेजी से बढ़ रहे हैं उन्हें देखते हुए भय होता है कि यह छूत की बीमारी सारे समाज को ग्रसित न कर ले और हममें से प्रत्येक व्यक्ति कहीं अपराधी ही न बन जाये। मनुष्यता की मर्यादा का पालन करना, नीति-कर्तव्य और सदाचरण को अपनाना तथा सामाजिक मर्यादाओं का पालन करना हर व्यक्ति का धर्म है। यदि नागरिक कर्तव्यों का पालन करने में जन-साधारण की निष्ठा अक्षुण्ण बनी रहे तभी समाज में शान्ति और सुव्यवस्था बनी रह सकती है और प्रगति एवं समृद्धि की आशा की जा सकती है अन्यथा बढ़ती हुई उच्छृंखलता व्यक्ति को पतित और समाज को दुर्बल बनाती चलेगी और क्रमशः सर्वनाश की घड़ी समीप आती चली जायेगी।
वैयक्तिक सदाचरण और सामाजिक कर्तव्यों के प्रति उपेक्षा एवं अवहेलना की प्रवृत्ति निस्सन्देह एक भयावह विपत्ति ही समझी जानी चाहिए। इससे क्षोभ, असन्तोष, रोष, प्रतिशोध का ऐसा प्रवाह बढ़ता है जिससे घात-प्रतिघात की दुर्घटनाएँ निरन्तर बढ़ती जाती हैं और रचनात्मक दिशा में लग सकने वाली शक्ति दुरभिसंधियों में संलग्न होकर विनाशकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती चली जाती हैं। परस्पर स्नेह, सद्भाव, सहयोग के आधारों की जड़ काटते हुए यह बढ़ते अपराध अविश्वास एवं असंतुलन का वातावरण उत्पन्न करते हैं और उसकी प्रतिक्रिया अन्ततः हर किसी के सामने दुर्भाग्यपूर्ण बनकर ही आती है।
अपराधी मनुष्य घृणा का पात्र, अविश्वस्त, आततायी बनकर अपने लिए सर्वत्र असहयोग एवं अवरोध उत्पन्न करते हैं। आतंक, भय से दूसरे लोग चुप भले ही हो जायें डरकर कुछ काम भले ही कर दें पर उस स्नेह, सद्भाव से सर्वथा वंचित ही रहना पड़ता है जो चिरस्थायी प्रगति का एकमात्र आधार है। दुष्ट और असुरों के वर्ग में गिना जाने वाला यह व्यक्ति अपने आत्मा और परमात्मा के सामने पतित सिद्ध होता है और अपने मनोबल को खोकर प्रगति के वास्तविक आधारों से वंचित हो जाता है। अपराधियों की अभिवृद्धि एक अभिशाप है जिससे किसी समाज का भविष्य अन्धकारमय हो सकता है। अनैतिक आचरणों की बाढ़ को एक प्रकार से गृह युद्ध ही कहना चाहिए जिसके दुष्परिणाम अन्ततः सामूहिक आत्म-हत्या के रूप में ही सामने आते हैं।
अपने देश में इन दिनों नागरिक कर्तव्य की अवहेलना एक प्रकार का फैशन बनता चला जा रहा है। उच्छृंखलता और उद्दण्डता प्रदर्शित कर लोग दूसरों पर आतंक जमाने की कुचेष्टा में लगे दिखाई देते हैं। धूर्तता और अनीति के आधार पर प्राप्त सफलता को कुशलता और चतुरता माना जाता है। धर्म से लेकर राजनीति तक-व्यवसाय से लेकर दैनिक गतिविधियों तक अप्रामाणिकता का ही बोलबाला है। यह बहुत ही चिन्ताजनक स्थिति है। ऐसा ही मखौल बना रहा तो परस्पर विश्वास, सद्भाव और सहयोग का आधार ही नष्ट हो जायेगा तब एक दूसरे से आशंकित और आतंकित रहने वाले समाज में विकास और उल्लास की परिस्थितियों का दर्शन दुर्लभ होता चला जायेगा। इस वातावरण में प्रगति के लिए किये गये सारे प्रयत्न बालू की दीवार जैसे धराशायी होते चले जायेंगे।
आवश्यकता इस बात की है कि हर मनुष्य को अपने नागरिक, धार्मिक, सामाजिक एवं मानवीय कर्तव्यों के पालन करने के लिए प्रशिक्षित किया जाये। शिक्षा का मूल आधार यही होना चाहिए। लोक-शिक्षण का उत्तरदायित्व उठाने वाले साहित्य, संगीत एवं कला की दिशा यही होनी चाहिये, लेखनी और वाणी का प्रस्फुरण इसी प्रयोजन के लिए हो। पत्रकारिता इसी मुहिम को सँभाले। सरकारी नियन्त्रण में चलने वाले रेडियो में इसी स्तर का प्रसारण हो। सार्वजनिक प्रयोजन का स्थान ग्रहण करने वाले सिनेमा में जो कुछ दिखाया जाये वह इसी प्रयोजन की पूर्ति करे। संगीत और गायन की हर तरंग द्वारा नैतिकता का समर्थन किया जाये। धर्म से जो कुछ भी कथा-प्रवचन प्रस्तुत किया जाये वे मनुष्य की सदाचारी, कर्तव्यनिष्ठ एवं लोक-मंगल के लिए त्याग-बलिदान की प्रेरणा से भरे रहें। शासन व्यवस्था के अन्तर्गत नैतिकता के पक्ष में अति सतर्कता बरती जाये और अनैतिकता को कठोरतापूर्वक कुचलने की समर्थ व्यवस्था बनाई जाये। इस प्रकार के सर्वतोमुखी प्रयत्नों द्वारा ही नर-पशु को मानवीय कर्तव्यों का पालन करने वाला सज्जन एवं सद्भाव सम्पन्न बनाया जा सकता है। यह मानव जाति की महती आवश्यकता है। हर विचारशील का ध्यान इधर जाना चाहिए और समर्थ को इस दिशा में अधिकतम सहयोग प्रदान करना चाहिये। सदाचरण के संरक्षण से ही संसार में शान्ति और सुव्यवस्था बनी रहने तथा प्रगति का मंगलमय वातावरण बनने की आशा की जा सकती है।
इस प्रकार के रचनात्मक प्रयत्नों के साथ-साथ जन-चेतना में अपराधियों के प्रतिरोध का समुचित साहस जाग्रत रहना चाहिए होता यह है कि कुछ आततायी-अनीति और उच्छृंखलता करते रहते हैं और लोग उसे दर्शक मात्र बनकर देखते रहते हैं। उस अनीति का प्रतिरोध करने से अपने को ही कुछ नुकसान न सहना पड़े। यह भीरुता सार्वजनिक जीवन की निन्दनीय दुर्बलता है जिसके कारण आततायी-अनीति और उच्छृंखलता करते रहते हैं और लोग उसे दर्शक मात्र बनकर देखते रहते हैं। उस अनीति का प्रतिरोध करने से अपने को ही कुछ नुकसान न सहना पड़े। यह भीरुता सार्वजनिक जीवन की निन्दनीय दुर्बलता है जिसके कारण आततायी निर्भर होकर अपनी दुष्टता को दिन-दिन अधिक बढ़ाते चले जाते हैं। हजार मनुष्यों के सामने चोर-गुण्डे मनमानी कर सकें तो यह उन दर्शकों में से प्रत्येक के लिए डूब मरने जैसी लज्जा की बात है। हर एक को यह सोचना चाहिए कि यदि उसके ऊपर अनीतिपूर्वक आक्रमण हो तो उसे दूसरे सज्जनों से सहायता, तनाव या अवरोध की आशा करनी चाहिये या नहीं? यदि हाँ, तो उसका भी कर्तव्य है कि जहाँ उद्दण्डता हो रही हो वहाँ उपस्थित लोगों में चेतना उत्पन्न करें और अवरोध के लिए साहसपूर्वक भिड़ जाये।
अनीति को सहन न करने-किसी पर अनीति न होने देने की हिम्मत हर जीवित मनुष्य में होनी चाहिए। बहादुरी मानवता का एक आवश्यक अंग है। पौरुष सम्पन्न को ही पुरुष कहते हैं। शौर्य और साहस मनुष्य-जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं। इनके बिना अन्न खाने और साँस लेने भर के लिए जीवित मनुष्य को एक प्रकार से मृतक या पतित ही कहा जा सकता है। कहना न होगा कि शौर्य का प्रदर्शन और परीक्षण अनीति का अवरोध करने का अवसर आने पर ही किया जा सकता है। दुष्टता होती रहे और भयभीत, असहाय एवं कायर काया की तरह कोई मनुष्य दर्शक मात्र बनकर खड़ा रहे इससे अधिक धिक्कार की दयनीय स्थिति और क्या हो सकती है। कोई अवसर ऐसे होते हैं जिनमें जोखिम उठाना भी गर्व और गौरव का कारण होता है। आतंकवादी उद्दण्डता के अवरोध में जोखिम उठाकर आगे आना सत्साहस है जिसकी प्रशंसा मूक मानवता का कण-कण करता रहेगा।
अपराधी मनोवृत्ति क पनपने से एक बहुत बड़ा दोष प्रतिरोध का साहस शिथिल हो जाने की भीरुता पर है। मानवीय भविष्य को उज्ज्वल बनाने की दृष्टि से इस दुर्बलता का अन्त होना चाहिए और सर्व-साधारण में यह उत्साह उत्पन्न होना चाहिए कि आततायी आतंक का हर मोर्चे पर हर स्थिति में मुकाबला किया जाये और उच्छृंखलता के हर कदम को आगे बढ़ने से रोकने के लिए डटकर मुकाबला किया जाये।
प्रश्न --
(१) अपराधों की वृद्धि के दुष्परिणाम लिखो? (२) व्यक्तिगत सदाचार और सामाजिक कर्तव्य क्यों आवश्यक हैं? (३) सिद्ध करो अपराध व्यक्ति के लिए स्वयं घातक होते हैं? (४) अपने देश की उन्नति नहीं हो रही है क्यों? (५) मनुष्य को सदाचार से किस तरह प्रशिक्षित किया जाय? (६) सदाचार और समाज सुधार के रचनात्मक कार्यक्रम बताओ? (७) सिद्ध करो कि अनीति करने की तरह अनीति सहना भी पाप है? (८) अपराध क्यों बढ़ रहे हैं? (९) उन्हें कैसे रोका जाना चाहिए?
धर्मतंत्र को प्रगतिशील बनने दिया जाये
जिस तरह व्यक्तिगत जीवन में ‘वासना और तृष्णा’ दो बड़े और प्रभावी तत्त्व हैं उसी तरह सामाजिक जीवन में ‘राजनीति और धर्म’ भी प्रमुख हैं। राजनीति का प्रभाव सर्वविदित है। शासन के सही-गलत होने और शासकों की प्रवृत्ति मनोवृत्ति से देशों का ढाँचा और स्वरूप ही बदल जाता है। समाजगत और अगणित समस्याओं का उद्भव और समाधान बहुत करके उसकी राजकीय स्थिति पर निर्भर रहता है। इस तथ्य को सभी लोग समझते हैं और राजनीति में प्रवेश करके अपना वर्चस्व बढ़ाने और देश की स्थिति को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं।
अपने देश में राजनीति से भी बड़ा महत्त्व धर्म का है। इस देश की ८० फीसदी जनता अशिक्षित है और गाँवों में रहती है। उसके विचार स्तर में यदि कोई तथ्य अवस्थित है, तो वह धर्म की तथाकथित अभिरुचि। समाज-विज्ञान, सहकारिता, नीतिशास्त्र, कानून, तर्क आदि की तो उन्हें जानकारी है नहीं। मस्तिष्क की पहुँच दैनिक जीवन की अनिवार्य समस्याओं से आगे बढ़कर केवल धर्म तक है। जब कभी महत्त्वपूर्ण चर्चा चलती है, विचार-विनिमय, शंका-समाधान तथा ऊहापोह होता है तो उसका विषय धर्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। घर से बाहर कभी भ्रमण को जाना हो तो तीर्थयात्रा, धन का सदुपयोग करना हो तो ब्राह्मण, साधुओं, देव-मन्दिरों में दान-पुण्य। समय को शुभ कार्य में लगाना हो तो कथा-कीर्तन, मनोरंजक आयोजनों में रामलीला, रासलीला, धार्मिक मेलों, कुम्भ, सोमवती, दर्शन, झाँकी आदि की गणना होती है। तात्पर्य यह है कि रोजी, रोटी के अतिरिक्त इस ८० फीसदी जनता की उत्कट आकांक्षाएँ यदि कभी उठे तो वे धर्म तक ही सीमित रहेंगी।
राजनीति को समझ सकना उन शिक्षित लोगों का कार्य है जो रोज अख़बार पढ़ते हैं, अथवा उसके सम्पर्क में रहते हैं। सामान्य जनता उससे उतनी ही परिचित हो पाती है जितना कि टैक्स-कण्ट्रोल आदि का सीधा प्रभाव उस पर पड़ता है। अन्य पहलुओं में वह प्रायः अपरिचित ही रहती है। पर धर्म के बारे में यह बात नहीं है। उसकी कथाएँ, प्रथाएँ तथा बारीकियाँ स्त्री-बच्चों तक को मालूम रहती हैं। यही कारण है कि अपना धर्म कलेवर बहुत भारी और महँगा होते हुए भी जनता द्वारा खुशी-खुशी वहन किया जा रहा है।
कहना यह है कि इस देश की जनता में कोई उत्कृष्टता, महत्ता, हलचलें एवं परिवर्तन करना हो तो उसके लिए धर्म मंच ही सबसे प्रभावशाली माध्यम हो सकता है। जो समझाना हो धर्म के साथ-साथ उसका सम्बन्ध जोड़ते हुए समझाया जा सके तो उसमें आशाजनक सफलता मिल सकती है। गाँधीजी इस देश की नब्ज़ देखने और जनता की मनःस्थिति को समझने में बहुत कुशल थे। उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम को धार्मिक आन्दोलन के रूप में चलाया। स्वयं मिस्टर गाँधी, बैरिस्टर गाँधी न रहकर महात्मा गाँधी के रूप में सामने आये। वैसा ही वेश कलेवर उन्होंने धारण किया। सत्य-अहिंसा के प्राथमिक धर्म-सिद्धांत को आधार बनाया। सामाजिक धर्म-राज्य के लिए धर्म-युद्ध छेड़ा। गौ-माता के उद्धार का आश्वासन दिया। ‘रघुपति राघव राजाराम’ की कीर्तन ध्वनि लेकर चले और भारत-माता की जय बोली। यह प्रक्रिया भारतीय धार्मिकता से जुड़ती है। अतएव उनका सत्याग्रह आन्दोलन शिक्षित-अशिक्षित सभी में लोकप्रिय बना और अन्ततः उन्हें सफलता मिलकर ही रही। उन दिनों अन्य प्रमुख राज-नेता भी उसी प्रक्रिया को न्यूनाधिक रूप से-अपने ढंग से अपनाते थे। अपने स्वतन्त्रता संग्राम की सफलता का यह एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य तथा आधार था। यदि यह आधार न अपनाया गया होता तो मार्ग काफी लम्बा पड़ता और बहुत कीमत चुकाने पर थोड़ी सफलता की आशा बँधती।
स्थिति अभी भी वही है राजनैतिक स्वतन्त्रता के बाद अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करने हैं। सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन, नैतिक आचार व्यवहार का समाधान, शिक्षा में अभिरुचि, सहयोग भावना, शुभ का सम्मान, स्वतन्त्र चिन्तन, सदाचरण, आहार-व्यवहार की शुद्धि, संघबद्धता, अनुशासन आदि कितनी ही अभिनव प्रवृत्तियों को जन्म देना है। हजार वर्ष की गुलामी के बाद हमारा मानसिक धरातल इतना विपन्न हो गया है कि उसके हर पहलू में भारी परिवर्तन की आवश्यकता है। राष्ट्र को नये सिरे से निर्माण करना होगा। यदि जन-मानस में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता के तत्त्वों का समावेश न हुआ तो आजीविका, शिक्षा, चिकित्सा आदि की सुविधाएँ बढ़ते चलने पर भी केवल विपत्तियों, विग्रह एवं अपराधों की ही वृद्धि होगी।
इस नव-निर्माण का आधार भारत की वर्तमान स्थिति में केवल धर्म ही हो सकता है। उसी से जोड़कर हम आवश्यक विचार परिवर्तन एवं सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्द्धन कर सकते हैं। शहरी और सुशिक्षित जनता में भी धर्म को यदि विवेकपूर्ण और बुद्धिसंगत ढंग से प्रस्तुत किया जा सके तो वहाँ भी उसे अभीष्ट सम्मान और उचित स्थान मिल सकता है। अस्तु, राष्ट्र की अभिनव रचना में विश्वास रखने वाले हर विचारशील का कर्तव्य है कि राजनीति में जहाँ पहले से ही बहुत घुसपैठ और धक्का-मुक्की है वहाँ प्रवेश करने की अपेक्षा धर्मतन्त्र का अवलम्बन लेकर व्यक्ति के उत्कर्ष एवं समाज के परिष्कार के लिए आगे आयें। यह मार्ग यदि प्रबुद्ध प्रतिभाशाली व्यक्ति अपना सकें तो सुधार कार्यों में आशाजनक सफलता मिल सकती है और राष्ट्र के सर्वांगीण नव-निर्माण का प्रयोजन आश्चर्यजनक गति से सम्पन्न हो सकता है।
भारतीय जनता की धर्म-श्रद्धा का आज इतना शोषण और दुरुपयोग हो रहा है कि किसी भी विचारशील को भारी दुःख हुए बिना नहीं रह सकता। जन-गणना के अनुसार देश के ८० लाख व्यक्ति साधु-महात्मा और धर्मजीवी का कलेवर ओढ़कर भिक्षावृत्ति करते हैं और तरह-तरह के भ्रम, अन्धविश्वास फैलाते हैं। गरीब जनता इनके निर्वाह का भारी व्यय वहन करती है। यदि यह ८० लाख जन-शक्ति लोक-मंगल में लगाई जा सके तो जिन एक लाख पादरियों ने थोड़े ही दिनों में विश्व की एक तिहाई-दो अरब जनता को ईसाई बना लिया उनकी तुलना में हम ८० गुना काम अधिक कर सकते हैं। भारत के ७ लाख गाँवों में वह ८० लाख सेवारत हो जायें तो हर गाँव पीछे ८ लोकसेवी होंगे। इससे वहाँ की शिक्षा, सदाचार, स्वास्थ्य, स्वच्छता, मूढ़ता, कुप्रथा आदि समस्याओं का देखते-देखते हल किया जा सकता है। करोड़ों व्यक्ति धर्म के नाम पर ढेरों पैसा, समय और ढेरों श्रम खर्च करते हैं। यदि उनका विवेकसम्मत और योजनाबद्ध उपयोग होने लगे तो उनसे सरकारी विकास योजनाओं की अपेक्षा सौ गुना अधिक कार्य स्वेच्छापूर्वक हो सकता है। हर सोमवती अमावस्या पर गंगा स्नान करने प्रायः ५० लाख व्यक्ति आते हैं। हर व्यक्ति के समय तथा खर्च करने का औसत लगाया जाये तो १० करोड़ होता है। यदि वह पैसा गंगा में पड़ने वाले गन्दे नाले कृषि कार्य के लिए मोड़ देने में लगाया जा सके तो एक साल में ही गंगा माता की स्वच्छता और सिंचाई में करोड़ों की आमदनी बढ़ सकती है। ऐसा निर्माणात्मक नेतृत्व यदि धर्मतन्त्र का विवेक रखने वालों ने किया होता तो देश की स्थिति न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गई होती।
मन्दिर-मठों में प्रायः ८०० अरब की चल सम्पत्ति लगी है। हर साल उनकी आय प्रायः ३० अरब रुपया है। जनता जितना सरकारी टैक्स देती है, उससे कहीं अधिक यह स्वेच्छा अनुदान है। यदि यह पैसा रचनात्मक प्रवृत्तियों की ओर मोड़ा जा सके तो उससे काया-कल्प जैसा परिवर्तन प्रस्तुत हो सकता है। कथा-सत्संगों के नाम पर जो कूड़ा-करकट जनता के दिमाग में भरा जाता है उसके स्थान पर यदि सच्चे धर्म तत्त्व, अध्यात्म, नीति-सदाचार, कर्तव्यपरायणता और सामाजिकता का प्रशिक्षण बन पड़े तो सोया हुआ भारतवर्ष एकाकी जग सकता है और आत्म-निर्माण ही नहीं विश्व भर का नेतृत्व करने में समर्थ हो सकता है।
आज धर्म-तत्त्व प्रायः प्रतिक्रियावादी, प्रतिगामी और जन-मानस को भ्रम-जंजाल में घसीटने वाले पाखण्डियों के हाथ में है। वे धर्म के नाम पर जनता का बुरी तरह शोषण करते हैं और बदले में उन्हें मूढ़ता के जाल-जंजाल में फँसाते रहते हैं। इस परिस्थिति को बदला जाना चाहिए। इसके लिए आलोचना करने या कुड़कुड़ाते रहने से काम नहीं चलेगा। हमें आगे बढ़कर इस अति महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में प्रवेश करना होगा और जनता को उचित नेतृत्व देकर उस प्रचण्ड जन-शक्ति, श्रद्धा एवं सम्पदा को उपयोगिता की दिशा में प्रस्तुत करना होगा। राजनीति में सुधार के प्रयत्न किये जा रहे हैं सो ठीक हैं। पर इससे अधिक ध्यान दिये जाने योग्य ‘धर्म-नीति’ है। विवेक का, दूरदर्शिता का यही तकाजा है कि प्रबुद्ध व्यक्ति धर्मतन्त्र स्वयं सँभालें और प्रतिगामिता को दानशीलता में बदल दें।
प्रश्न --
(१) राष्ट्रोद्धार का प्रभावकारी माध्यम क्या हो सकता है-राजनीति या धर्म? कारण सहित बताइये। (२) गाँधी जी ने स्वतंत्रता संग्राम में धर्म को आधार कैसे बनाया? (३) देश की वर्तमान प्रमुख समस्याओं पर प्रकाश डालिए (४) क्या राष्ट्र में विचार-क्रांति की आवश्यकता है यदि है तो क्यों? (५) भारत में साधु-संन्यासियों की संख्या का सदुपयोग कैसे किया जा सकता है? (६) भारत में धार्मिक कार्यों पर होने वाले व्यय पर प्रकाश डालते हुए उसके सदुपयोग की योजना प्रस्तुत करें? (७) मन्दिर-मठों की सम्पत्ति का सदुपयोग कैसे किया जा सकता है? (८) धर्म के नाम पर पाखण्ड एवं शोषण से जनता को कैसे मुक्त किया जा सकता है? (९) राजनीति से अधिक महत्त्व धर्मनीति का क्यों है? (१०) धर्म के सच्चे स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
साधु-ब्राह्मण समाज अपना कर्तव्य और दायित्व समझें
अपने देश में साधुओं और ब्राह्मणों के प्रति जनता की भारी श्रद्धा रही है। उनके सम्मान, सत्कार और भरण-पोषण के लिए बहुत कुछ किया जाता रहा है। अब भी किसी अंश में वह परम्परा विद्यमान है। ८० लाख की विशाल संख्या वाले साधु समाज का निर्वाह जो सामान्य जन-स्तर से कहीं ऊँचा है, धार्मिक जनता ही वहन करती है। ब्राह्मण वर्ग उस संख्या के अतिरिक्त हैं। पंडित, पुरोहित, पुजारी, तीर्थ-पंडे, कथा-वाचक, कीर्तनकार आदि वर्गों में बँटे हुए उस ब्राह्मण समाज की संख्या भी लगभग इतनी ही हो सकती है जितनी कि साधु समाज की है। साधु-ब्राह्मणों को मिलाकर लगभग एक करोड़ हो जाते हैं। ९० करोड़ के लगभग हिन्दुस्तानी जनता में हर गाँव पीछे ८ साधु ब्राह्मण आते हैं। जिसका निर्वाह इस गरीब देश के भूखे-नंगे निवासी बड़ी श्रद्धा और आशा के साथ अपना पेट काट कर करते हैं। भारतीय जनता में इस गये-गुजरे जमाने में भी जो धर्म श्रद्धा विद्यमान है उसकी सराहना ही करनी पड़ेगी।
इस श्रद्धा का प्रतिदान देने की जिम्मेदारी अपने साधु-ब्राह्मण समाज पर आती है। प्राचीनकाल में इस वर्ग के लोग अपने उच्च चरित्र, महान ज्ञान और उदात्त सेवा-भावना का पूरा-पूरा लाभ जनता को देते थे और स्वयं इतने निस्पृह रहते थे कि भोजन वस्त्र की बात भी भगवान पर छोड़ देते थे, जिसे सचमुच जनता-जनार्दन के द्वारा पूरा भी किया जाता था। इस वर्ग का थोड़ा समय ईश्वर उपासना और आत्मबल के परिष्कार में और स्वाध्याय द्वारा ज्ञानवर्द्धन में भी लगता था, पर अधिकांश समय तो जन-साधारण की भौतिक एवं आत्मिक जीवन की प्रगति में सहायता करते हुए ही बीतता था। यही ऋषि धर्म है। साधु और ब्राह्मण इस पवित्र कर्तव्य में अपने आपको बँधा हुआ मानते थे। उपासना और स्वाध्याय द्वारा बढ़ाया हुआ आत्मबल और ज्ञानबल भी उन्हें अपने स्वार्थ साधन के लिए नहीं वरन् इसलिए अभीष्ट था कि उसके द्वारा लोक-मंगल के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य कर सके।
साधु और ब्राह्मण के रूप में लोकसेवियों की एक विशाल सेना समाज को उपलब्ध रहती थी। शिक्षक, चिकित्सक, इन्जीनियर, कलाकार, न्यायाधीश, धर्मोपदेशक, समाज-व्यवस्थापक, वैज्ञानिक, अन्वेषक, योद्धा आदि सभी लोक-मंगल के लिए अभीष्ट कार्यकर्ता इसी वर्ग में मिल जाते थे। इसलिए जनता उनके भरण-पोषण का भार उठाकर कुछ घाटे में नहीं रहती थी। उसके द्वारा दिया हुआ आर्थिक तथा भावनात्मक अनुदान हजार गुना होकर वापिस लौटता था। इसलिए इस उदारमना अति उपयोगी वर्ग का भाव-भरा आदर जन-जन के मन में भरा रहता था। सरकारी भारी खर्चे पर जो लोकोपयोगी कार्य आधे-अधूरे ढंग से इन दिनों किये जाते हैं वे प्राचीनकाल में साधु-ब्राह्मण समाज द्वारा अति स्वल्प खर्च में अति सावधानी और अति उत्कृष्टतापूर्वक सहज ही सम्पन्न होते रहते थे। जनता पर टैक्सों का भार भी नहीं पड़ता था और वे कार्य, जो सरकारों को रो-खीझकर पूरे करने पड़ते हैं प्राचीनकाल में साधु-ब्राह्मण वर्ग द्वारा सहज ही पूरे कर दिये जाते थे और समाज दिन-प्रतिदिन समर्थ, सम्पन्न और प्रगतिशील बनता, बढ़ता चला जाता था।
अज्ञानी जनता अपना कर्तव्य भूलती तो क्षम्य भी था पर भारत की आत्मा का प्रतीक प्रतिनिधि वर्ग यदि अपने कर्तव्य को भूलें तो उसे एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना ही कहा जायेगा। आज ऐसी ही दयनीय दशा इस मूर्धन्य वर्ग की हो चली है, जिसे देखकर रोना आता है। जनता से येन-केन-प्रकारेण अर्थ-लाभ और पूजा सम्मान प्राप्त करने के लिए तो ऋषियों ने इस वर्ग की रचना नहीं की थी। बिना प्रतिदान के अर्थ लाभ करना तो बहुत ही घृणित है। चोरी से मुफ्तखोरी का पाप बड़ा माना गया है। भिक्षावृत्ति से प्राप्त आजीविका अपंग, असहाय या लोकसेवी के लिए ही ग्राह्य है। दूसरों के लिए तो यह पतन और तिरस्कार के योग्य ही मानी जाती है। भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने निस्सन्देह साधु-ब्राह्मण वर्ग की रचना मुफ्तखोरी के लिए नहीं की थी स्वल्प अनुदान पाकर उसके बदले में असंख्य गुना प्रतिदान देने के लिए यह वर्ग स्रजे गये थे। यदि उन स्रजनकर्ताओं का यह अनुमान-आभास रहा होता कि जनता से अर्थलाभ और सम्मान पाकर भी यह लोग उसका बदला नहीं चुकायेंगे तो सम्भवतः उन महान तत्त्ववेत्ताओं ने साधु-ब्राह्मण वर्ग को किसी और ही ढाँचे में ढाला होता।
आज उपरोक्त वर्ग में मुफ्तखोरी को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने की अहंता जम गई है। अपने को देवताओं के प्रतिनिधि या पूजा-पाठ के जानकार भर घोषित कर वंश या कुल के नाम पर ही दान-दक्षिणा वसूल करने का जो क्रम चल पड़ा है, वह सर्वथा अवांछनीय है। वंश, वेष या पूजा-पाठ के आधार पर जनता से आजीविका या सम्मान पाना अनुचित है। ऐसा लाभ तो उसी को प्राप्त करना चाहिए जो प्राणपण से अपना सारा समय मनोयोग लोकमंगल के लिए ही नियोजित कर सके। औचित्य-अनौचित्य के प्रकाश में हमारे साधु-ब्राह्मण समाज को अपनी गति-स्थिति को बार-बार परखना चाहिए और समय रहते अपनी रीति-नीति में अन्तर कर लेना चाहिए ताकि इस बुद्धिवादी युग में तिरस्कृत, बहिष्कृत होने से पूर्व ही स्थिति को सुधारा जा सके।
जिन्हें लोकमंगल में रुचि नहीं है और जो जन-कल्याण के लिए कुछ कर सकने में अपने आपको अयोग्य असमर्थ मानते हैं, उनके लिए यही उचित है कि वेश या वंश के नाम पर दान या भिक्षा लेना तुरन्त बन्द करे दें और सर्व-साधारण की तरह श्रम द्वारा आजीविका चलाते हुए अपने को उच्च वर्ग का प्रतिनिधि होने का दावा तुरन्त रद्द कर दें।
जिनमें सेवा की बुद्धि, उमंग और योग्यता जीवित है वे ही उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करें। ऐसे सच्चे साधु-ब्राह्मण यदि थोड़े ही बने रहें तो उनका प्राचीन गौरव बना रहेगा और जनता की श्रद्धा आगे भी बनी रहेगी, अन्यथा अगले दिनों इस मूर्धन्य वर्ग को मुफ्तखोरी और अवांछनीय परम्परा प्रस्तुत करने के अपराध में बुरी तरह तिरस्कृत किया जाने लगेगा।
साधु और ब्राह्मण में अन्तर इतना ही है कि एक वर्ग अविवाहित रहता है दूसरा विवाहित जीवनयापन करता है। लक्ष्य, उद्देश्य और कार्यक्रम दोनों का एक है। इसलिए उन्हें एक ही वर्ग तथा एक ही स्तर का माना जाता रहा है। दोनों की जीवनचर्या एक-सी हो सकती है कि वे जन-मानस को ऊँचा उठाने और समाज की सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन करने के लिए अपनी सारी क्षमता और योग्यता नियोजित किये रहें। देश में शिक्षा, साक्षरता की भारी कमी है। बालकों, प्रौढ़ों और नारियों के लिए पूरे समय अपने स्वल्पकाल में चलने वाले शिक्षा प्रयत्नों की गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले जरूरत है। इस प्रयोजन के लिए सर्वत्र व्यवस्था जुटाई जा सकती है। सामाजिक कुरीतियाँ और अनैतिक दुष्प्रवृत्तियों से जर्जर इस देश को विवेकपूर्ण विचारधारा की पग-पग पर आवश्यकता है। इसके लिए शिक्षणात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक अनेक प्रयत्न खड़े किये जा सकते हैं। युग-निर्माण योजना में शतसूत्री कार्यक्रमों द्वारा राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए सर्वतोमुखी जो पुण्य-प्रक्रिया प्रस्तुत की है, उसका एक-एक चरण साधु-ब्राह्मणों द्वारा अपनाये जाने, कार्यान्वित किये जाने योग्य है। अच्छा हो हमारा सम्मानित साधु-ब्राह्मण समाज समय रहते चेते और अपनी गतिविधियों को उसी दिशा में मोड़े जिसके लिए उसका सृजन किया गया था।
प्रश्न --
(१) भारतवर्ष में धर्मजीवियों की संख्या कितनी है? (२) धर्मजीवियों के कर्तव्य क्या हैं? (३) प्राचीनकाल के साधु-ब्राह्मणों की आज के साधु-ब्राह्मणों से तुलना करो? (४) लोक-अनुदान का अधिकार किसे है और क्यों? (५) साधु-ब्राह्मणों में फैली बुराइयाँ बताओ? (६) जिनकी लोकमंगल में अभिरुचि नहीं वे साधु-ब्राह्मण क्या करें? (७) साधु-ब्राह्मण समाजोत्थान और देश की प्रगति में किस प्रकार सहायक हो सकते हैं?
मन्दिर आस्तिकता और सत्प्रवृत्तियाँ जगाने में लगें
विशालकाय मंदिरों का निर्माण करने की प्रक्रिया भारतीय मनीषियों ने अति महत्त्वपूर्ण प्रयोजन की पूर्ति के लिए विनिर्मित की थी। भगवान के मन्दिरों की स्थापना करके सर्व-साधारण के मन में आस्तिकता की मान्यताएँ परिपुष्ट करना हमारे देवालयों का मुख्य प्रयोजन है। आस्तिकता का अर्थ है ईश्वर के आदेशों का पालन करना, नैतिक जीवन जीना। दुष्कर्म से बचे रहना और विश्वात्मा-परमात्मा सुरभित बनाने के लिए अपना अधिकाधिक योगदान देना। आस्तिकता का प्रथम चरण जप ध्यान एवं पूजा-पाठ हो सकता है, पर उसकी पूर्णता भगवान को, उनके आदेशों को जीवन में घुला देना ही है। नेक-सदाचारी भला और परमार्थ-परायण जीवन-क्रम ही किसी की आस्तिकता का प्रमाण हो सकता है। इस आस्तिकता के ऊपर ही व्यक्ति और समाज की उत्कृष्टता एवं सुख-शान्ति निर्भर है। भगवान हमारे अति समीप अन्तःकरण में विद्यमान है। उसे किसी की निन्दा-स्तुति से कुछ लेना-देना नहीं। उसकी प्रसन्नता-अप्रसन्नता इस बात पर निर्भर है कि कौन उसके आदेशों का कितना पालन करता है। इस तथ्य को समझने वाला सज्जनोचित सदाचारी जीवन ही जियेगा और समाज के प्रति अपने महान कर्तव्यों को ध्यान में रखते हुए लोक-मंगल के लिए अपना बढ़ा-चढ़ा अनुदान देने में तत्पर रहेगा। आस्तिकता व्यक्ति और समाज की भावनात्मक भूमिका को ऊँचा उठाने का प्रयोजन पूरा करती है। इसलिए उसे मानव जीवन की एक महती आवश्यकता माना गया है। पूजा-उपासना का सारा कलेवर इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। मन्दिरों की स्थापना के मूल में मनीषियों का एकमात्र प्रयोजन यही था कि इन धर्म केन्द्रों के द्वारा आस्तिकता के आदर्शों का जन-मानस में व्यापक प्रकाश पहुँचाया जाये।
मन्दिरों के निर्माण में विपुल धन-सम्पत्तियों के लगाये जाने का एकमात्र प्रयोजन यह है कि इन धर्म-केन्द्रों के द्वारा आस्तिकता की सर्वतोमुखी प्रवृत्तियों का विस्तार किया जाये। पूजा-आरती भी वहाँ होती रहे सो ठीक है। लोग दर्शन करने आयें और यह स्मरण करें कि भगवान की सत्ता इस संसार में विद्यमान है। अस्तु हमें उसके दण्ड से बचने और अनुग्रह को पाने के लिए सज्जनोचित जीवन जीना चाहिए। मनुष्य आस्तिकता की भावना को भूलकर ही कोई कुकर्म कर सकता है। यदि परमात्मा और उसकी न्याय व्यवस्था हमारी स्मृति में बनी रहे तो अनीति की दिशा में एक कदम भी बढ़ सकना सम्भव नहीं। भावनात्मक परिष्कार की दृष्टि से आस्तिकता का भारी महत्त्व है। व्यक्ति एवं समाज का कल्याण उसी पर निर्भर है। मंदिरों का प्रयोजन है कि भगवान की प्रतिमा का दर्शन, पूजन करने के लिए जन-साधारण को आमन्त्रित, आकर्षित करें, साथ ही उन आगन्तुकों में आस्तिकता की मूल मान्यताएँ हृदयंगम कराने के लिए बहुमुखी प्रवृत्तियों का संचालन करें।
मन्दिर वस्तुतः एक धर्म-केन्द्र है, जहाँ से मनुष्य के भावनात्मक निर्माण के लिए आवश्यक सत्प्रवृत्तियों का संचालन होता रहे। नित्य के कथा-प्रवचन वहाँ इसीलिये होते हैं। जुमें की नमाज के बाद मस्जिदों में मुल्ला लोग भाव भरे और दिशा देने वाले प्रवचन करते हैं। गिरजाघरों में पादरी लोग रविवार की प्रार्थना के बाद उपस्थित धर्म प्रेमियों को उनके व्यक्तिगत एवं सामाजिक कर्तव्यों का बोध कराते हैं। हिन्दू धर्म किसी समय सबसे आगे था। वहाँ कथा-प्रवचनों के माध्यम से वह सब कुछ हर दिन नियमित रूप से सिखाया जाता था जो समग्र स्थिरता एवं प्रगति के लिए आवश्यक था। इतना ही नहीं, वहाँ पाठशालाओं, पुस्तकालयों, व्यायामशालाओं, संगीत एवं कला-कौशलों की समस्त उन प्रवृत्तियों का संचालन होता था, जो भावनात्मक निर्माण में सहायक हो सकती हैं। सर्वतोमुखी विकास की सम्पूर्ण योजनाएँ और प्रक्रियाएँ मन्दिरों के धर्म-केन्द्र ही संचालित करते थे। उनका भारी प्रभाव पड़ता था। आस्तिकता की भावनाएँ किस प्रकार कार्यान्वित की जा सकती हैं उनका रचनात्मक, व्यावहारिक स्वरूप क्या हो सकता है। इसका प्रत्यक्ष स्वरूप देखने और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए हर व्यक्ति मन्दिरों में आता था और उनकी उपयोगिता अनुभव करता था कि उस रचना में अगणित व्यक्ति प्रकाश पाने और समग्र उत्कर्ष पाने के लिए अग्रसर होने में समर्थ होंगे।
धर्म-प्रेमी लोग अपनी उपार्जित सम्पत्ति को मन्दिरों के बनाने और उनके चलाने में समर्पित करके अपने को धन्य मानते थे क्योंकि उससे अच्छा उपयोग पैसे का हो नहीं सकता। जनता भी देव प्रतिमा के आगे कुछ न कुछ श्रद्धांजलि अर्पित करती रहती थी, ताकि उस पैसे से रचनात्मक सत्प्रवृत्तियों का संचालन हो सके। पुजारी लोग पूजा-अर्चना में प्रातः सायंकाल देव प्रतिमा के लिए थोड़ा समय और धन लगाकर शेष सारा समय और पैसा मन्दिर संस्था द्वारा संचालित सत्प्रवृत्तियों में लगाते रहते थे। वे सुयोग्य विद्वान ही नहीं सदाचारी और लोक-सेवी भी होते थे। उन्हें सामाजिक आवश्यकताओं का ज्ञान रहता था तदनुरूप वे अपने व्यक्तित्व, प्रभाव एवं श्रम का उपयोग जन-मानस की दिशा सुव्यवस्थित करने में लगाते रहते थे। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र में सैकड़ों महावीर मन्दिर स्थापित किये थे और उन स्रोतों से शिवाजी के स्वतन्त्रता संग्राम के लिए धन एवं जनशक्ति को विपुल मात्रा में उपलब्ध किया था। सिख धर्म के सारे गुरु द्वारे अनुपयुक्त शासन को हटाने में केन्द्र बिन्दु बनकर अपनी स्थापना का महत्त्व प्रतिपादन करते रहे। बुद्ध-विहार विश्वव्यापी धर्म प्रसार योजना के सुव्यवस्थित केन्द्र थे। यहाँ सदा से यही परम्परा प्रचलित रही और मन्दिरों ने अविस्मरणीय भूमिका सदा से प्रस्तुत की है।
आज सब कुछ उल्टा हो गया है। मन्दिर केवल शंख, घड़ियाल बजाने और आरती उतारने तक सीमित हैं। पुजारी लोग प्रातः सायं की थोड़ी-सी टण्ट-घण्ट करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। उन विशाल इमारतों का कोई उपयोग नहीं, और जो प्रचुर धन उसमें लगा हुआ है, वह उन मठाधीशों की व्यक्तिगत सम्पदा बनता और उन्हीं के उपयोग में व्यय होता देखा जाता है। किन्हीं प्रेरक प्रवृत्तियों के संचालन की बात भी वहाँ सुनाई नहीं पड़ती। ऐसी दशा में उन्हें प्राण रहित निर्जीव कलेवर की तरह ही जहाँ-तहाँ खड़ा देखा जा सकता है। उपयोगिता खो जाने पर जन-आकर्षण का घट जाना भी स्वाभाविक है। किन्हीं मेले-उत्सव पर थोड़ी भीड़ दीखने के अतिरिक्त नियमित रूप से पहुँचने वाले वहाँ थोड़े से ही रहते हैं। जो पहुँचते हैं वे भी समय काटने की दृष्टि से ही जाते हैं। मिलता इन्हें भी कुछ नहीं। अनुपयोगी चीज सड़ने लगती है। इन धर्म स्थानों में धीरे-धीरे अनाचार का प्रवेश जिस प्रकार हो रहा है, उससे दुःख और दोष ही उत्पन्न होते हैं।
अपने मन्दिरों में लगभग सात सौ अरब रुपये की सम्पत्ति लगी है। उनकी दैनिक आमदनी करोड़ों रुपया है। इमारतें इतनी विस्तृत हैं कि उनमें ईसाई मिशन के द्वारा संसार भर में हो रहे कार्यों से भी अधिक कई गुने रचनात्मक कार्य आरम्भ किये जा सकते हैं। करीब एक लाख व्यक्ति उन मन्दिरों की सेवा-पूजा में नियुक्त हैं। इतने व्यक्ति यदि काम के हों और उन्हें रचनात्मक दिशा में लगाया जा सके तो सारे समाज का कायाकल्प हो सकता है। जनता जिस श्रद्धा से इनमें धन चढ़ाती है, उसके अनुरूप यदि धर्म संस्थापना की बहुमुखी प्रवृत्तियाँ भी इनमें संचालित हो सकें तो हमारा समाज कुछ ही दिनों में कहाँ से कहाँ पहुँच सकता है। साधनों के अभाव में काम रुका रहे यह समझ में आता है, किन्तु प्रचुर साधन होते हुए भी उनका सदुपयोग न हो सके, यह बड़ी लज्जा और पीड़ा की बात है।
समय आ गया है कि इन धर्म केन्द्रों का सदुपयोग करने की दिशा में हम विचार करें और साहसपूर्ण कदम उठावें। जिनके हाथ में मन्दिर की संचालन व्यवस्था है, उन्हें सोचना चाहिए कि क्या इन केन्द्रों में लगे हुए धन का सही उपयोग हो रहा है? भगवान की पूजा उचित है और आवश्यक भी, पर यह अबुद्धिमत्तापूर्ण है कि प्रचुर धन-राशि और जन-शक्ति का उपयोग इतने भर के लिए ही समाप्त हो जाये। ईश्वर-भक्ति, पूजा-आरती तक ही सीमित नहीं है। व्यक्ति और समाज का भावनात्मक उत्कर्ष भी ईश्वर-भक्ति का ही अंग है। देश, धर्म, समाज और संस्कृति की उत्कृष्टता अभिवर्द्धन के लिए रचनात्मक कार्य हो सकते हैं। उन्हें ईश्वर पूजा से कम महत्त्व का किसी भी प्रकार नहीं समझा जाना चाहिए। मन्दिरों की उपयोगिता तभी अक्षुण्ण रह सकती है, जब उनमें पूजा के साथ-साथ आस्तिकता के अभिवर्द्धन एवं परिपोषण की सत्प्रवृत्तियाँ भी संचालित होती रहें।
प्रश्न --
(१) भगवान के मन्दिरों की स्थापना करने का मुख्य प्रयोजन क्या है? (२) आस्तिकता से क्या तात्पर्य होता है? (३) आस्तिक मनुष्य समाज को किस तरह लाभ पहुँचाता है? (४) मन्दिरों के निर्माण में इतनी अधिक धन-सम्पत्ति लगाने का कारण क्या हो सकता है? (५) मन्दिरों में कथा-प्रवचन किस हद तक सत्प्रवृत्तियों को जगाने में सहायक हैं? (६) मन्दिरों के पुजारी किस तरह के व्यक्ति होते हैं? (७) आज के मन्दिरों के रूप, कार्यों पर प्रकाश डालिये? (८) हमारे मन्दिरों में लगी सम्पत्ति तथा व्यक्तियों के क्या पूजा और आरती के सिवाय भी कोई कर्तव्य हैं?
त्यौहार और संस्कार प्रेरणाप्रद पद्धति से मनाये जायें
पर्व, त्यौहारों का प्रचलन मात्र हर्षोत्सव मनाने के लिए विनिर्मित नहीं हुआ है, इनके पीछे समाज-निर्माण की एक अति महत्त्वपूर्ण प्रेरक-प्रक्रिया सन्निहित है। किन्हीं पौराणिक कथानकों की स्मृति मात्र के लिए अथवा किसी देवता की पूजा मात्र के लिए पर्वों की समय तथा धन खर्च कराने वाली पद्धति प्रचलित नहीं है, वरन् इनके पीछे मुख्य प्रयोजन यह है कि सामाजिक जीवन की हर समस्या को सुलझाने के लिये वर्ष में कई दिन ऐसे रखे जायें जिन पर इकट्ठे होकर जनता को वर्तमान परिस्थितियों पर विचार करने और उनका हल खोजने का अवसर मिले।
हमारा प्रत्येक पर्व समाज की कुछ समस्याओं पर विचार करने और यदि वर्तमान में कुछ विकृतियाँ उत्पन्न हो गई हों तो उनका हल ढूँढ़ने की प्रेरणा देने आता है। प्राचीनकाल में हमारे त्यौहार का यही स्वरूप था। पर्वों पर हर्षोत्सव मनाने के लिए स्थानीय जनता एक स्थान पर एकत्रित होती थी। पूजा-प्रार्थना के धार्मिक कर्मकाण्डों के साथ प्रत्येक वैयक्तिक एवं सामाजिक कार्य सम्पन्न हों, यह अपनी प्राचीन परम्परा है। पर्वोत्सवों के समय पर भी वैसा होता था। धर्मकृत्यों के बाद मनीषी विद्वान उपस्थित जनता का उद्बोधन करके सामाजिक सत्प्रवृत्तियों को अक्षुण्ण बनाये रखने का उद्बोधन करते थे। तत्कालीन सामाजिक गतिविधियों के सम्बन्ध में आत्म-निरीक्षण और परिष्कार-परिमार्जन करने का सहज ही अवसर मिल जाता था। कोई विकृति आँख से ओझल नहीं हो पाती थी। उठते हुए विकारों का तत्काल समाधान निकाल लिया जाता था और सामाजिक प्रखरता में कोई त्रुटि न आने पाती थी। इस प्रकार पर्वोत्सव का मनाया जाना एक वरदान सिद्ध होता था और उस माध्यम से राष्ट्रीय एवं सामाजिक सुदृढ़ता निरन्तर परिपुष्ट बनी रहती थी।
यों पर्व-त्यौहार अनेक हैं पर उनमें से दस ऐसे हैं जिन्हें प्रमुखता दी जानी चाहिए। इनमें से हर पर्व के पीछे कुछ महत्त्वपूर्ण सन्देश एवं प्रयोजन जुड़े हुए हैं। यथा-(१) गुरू-पूर्णिमा मर्यादाओं का पालन (२) श्रावणी-वृक्षारोपण, आत्म-निरीक्षण, भूलों का प्रायश्चित और सुधार, नैतिकता का व्रत धारण। (३) पितृ अमावस्या-बड़ों के प्रति श्रद्धा, सद्व्यवहार, कृतज्ञता, सत्पुरुषों और सत्परम्पराओं का अनुसरण। (४) विजयादशमी-स्वास्थ्य, संगठन, मनोबल, शक्ति-संचय, अनीति के विरुद्ध संघर्ष। (५) दीपावली-ईमानदारी और परिश्रमपूर्वक उपार्जन, मितव्ययितापूर्वक धन का सदुपयोग। (६) गीता जयन्ती-धर्मनिष्ठा, कर्तव्यपरायणता, मानसिक सन्तुलन, दूरदर्शिता। (७) बसन्त पंचमी-शिक्षा, सद्ज्ञान, संगीत, साहित्य, कला सुसज्जा। (८) शिवरात्रि-व्यापक सहयोग, समन्वय, नशा-निवारण। (९) होली-देशभक्ति, स्वच्छता, समता विस्तार। (१०) गायत्री जयन्ती-(गंगा दशहरा) विवेकशीलता, सद्भावना, आस्तिकता, सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्द्धन।
प्रस्तुत त्यौहारों के पीछे जो इतिहास जुड़े हुए हैं तथा जिन क्रिया-कृत्यों के साथ उन्हें मनाया जाता है, उन पर पैनी दृष्टि डालने से यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें मनाये जाने के पीछे किस प्रेरणा एवं प्रशिक्षण की भूमिका सन्निहित है, उस मूल प्रयोजन की रक्षा की जानी चाहिए, जिसके कारण इनका प्रचलन किया गया था। लकीर पीटने से काम न चलेगा। हमें उस प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित करना चाहिए, और पर्वों को उसी प्रकार पुनः मनाना आरम्भ करना चाहिए, जैसे कि वह पूर्वकाल में मनाये जाते थे। हर पर्व को मनाने की विधि और व्याख्यायें छोटी पुस्तिकाओं के रूप में छापी जा चुकी है पर संक्षिप्त में यह जान लेना आवश्यक है कि पर्व वाले दिन व्यक्तिगत रूप से घरों में जो भी क्रिया-कृत्य किया जाता हो, उसके अतिरिक्त सामूहिक रूप से ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए जिसमें अधिकाधिक जनता भाग ले, मिल-जुलकर धार्मिक कर्मकाण्ड सम्पन्न किया जाये और इसी सुसज्जित धर्म मंच से पर्व के साथ जुड़ी हुई प्रेरणा पर सुलझे हुए विचारों द्वारा प्रकाश डाला जाये। यदि उस संदर्भ में इन दिनों कुछ विकृतियाँ चल पड़ी हों तो उन्हें सुधारने के लिए लोगों से कहा और उस सुधार का व्यावहारिक मार्ग बताया जाये। इस प्रकार प्रेरक पद्धति से मनाये गये यह पर्व-त्यौहार लोक-शिक्षण की अति महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पादित कर सकते हैं। सामाजिक उत्कर्ष के लिए ऐसे लोक-शिक्षण की आज जितनी आवश्यकता है, उतनी पहले कभी नहीं रही। इसलिए प्रबुद्ध व्यक्तियों को धर्म-मंच के माध्यम से भारतीय जनता का अभीष्ट मार्ग-दर्शन करने के लिए उन पुण्य-परम्पराओं को पुनर्जीवित करने के लिए प्रबल प्रयत्न करना चाहिए।
समाज-शिक्षण की जो आवश्यकता पर्वोत्सवों द्वारा पूरी हो सकती है, वही परिवार-प्रशिक्षण के लिए संस्कारों द्वारा सम्पन्न की जा सकती है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त भारतीय धर्मानुयायी अपने संस्कार कराते रहते हैं, ताकि उनकी संस्कारवान परम्परा एवं सुसंस्कृत मनोभूमि को निरन्तर अक्षुण्ण रखा जा सके। प्राचीनकाल में सोलह संस्कार होते थे। अब उनमें से कितने ही असामयिक हो गये। ‘गर्भाधान’ अब सम्भव नहीं रहा। इसी प्रकार ‘कर्णवेध’ अनुपयोगी समझा जाने लगा। आज की स्थिति के अनुरूप दस संस्कार पर्याप्त हैं। समय-समय पर यदि उन्हें ठीक तरह मनाया जाने लगे, तो उस व्यक्ति को तो सुसंस्कारी बनने का अवसर मिलेगा ही, घर-परिवार के सदस्यों तथा समारोह में उपस्थित लोगों को भी अपने कौटुम्बिक कर्तव्यों की जानकारी एवं प्रेरणा मिलेगी, यह प्रशिक्षण पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने तथा संयुक्त परिवार प्रणाली को उपयोगी बनाये रखने में बहुत सहायक सिद्ध होगा।
संस्कारों में से प्रत्येक में कुछ शिक्षा एवं प्रेरणा भरी पड़ी है, यथा-(१) पुंसवन-गर्भवती स्त्री को उन दिनों की शारीरिक, मानसिक स्थिति ठीक रखने सम्बन्धी शिक्षा तथा घर वालों को तत्सम्बन्धी वातावरण उत्पन्न करने की प्रेरणा। (२) नामकरण-परिवार के बालक को सुसंस्कृत बनाने की विधि-व्यवस्था का शिक्षण (३) अन्न प्राशन-बालक की आहार सम्बन्धी सतर्कताओं की जानकारी। (४) मुण्डन में बौद्धिक एवं भावनात्मक विकास की शिक्षा। (५) विद्यारम्भ-शिक्षा की उपयोगिता, दिशा प्रयोजन एवं उपलब्धि के आधार पर सिद्धान्तों की विवेचना और बालक के लिए उपयुक्त दिशा-योजना बनाकर देना। (६) यज्ञोपवीत-मानवता के मूलभूत आदर्शों, कर्तव्यों एवं आधारों को समझना और पशुता से बचने की, दुष्प्रवृत्तियों से बचने की शिक्षा। (७) विवाह-विवाह के उद्देश्य, कर्तव्य एवं सफलता के सिद्धान्तों से पति-पत्नी को परिचित कराना। गृहस्थ के दायित्वों को निबाहने की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने की दोनों परिवारों को शिक्षा देना। (८) वानप्रस्थ-बच्चों के समर्थ होने पर ढलती आयु लोकसेवा के लिये समर्पित करने की प्रतिज्ञा, उपार्जन का दायित्व घर के समर्थ नये सदस्यों पर छोड़कर स्वयं परमार्थ के कार्यों में लगना। (९) अन्त्येष्टि-मृत शरीर का यज्ञ संस्कार। मानव जीवन के अमूल्य अवसर का सदुपयोग करने की उपस्थित लोगों को शिक्षा। (१०) मरणोत्तर संस्कार-मृत्यु के उपरान्त घर, परिवार की यज्ञ आदि से शुद्धि, दिवंगत आत्मा के सद्गुणों की शिक्षा, उसके छोड़े हुए उत्तरदायित्वों को पूरा करने की योजना एवं व्यवस्था।
इन संस्कारों का भी पर्वों की भाँति ही विस्तृत कर्मकाण्ड और विधान है, जिनकी छोटी पुस्तिकाएँ युग-निर्माण योजना द्वारा प्रस्तुत की गई हैं। उन्हें स्थानीय लोकाचार के अनुरूप बनाया जा सकता है। प्रमुखता कर्मकाण्ड की नहीं, लोक-शिक्षण की है। यह उद्देश्य ध्यान में रखा जाये और उपस्थित लोगों को उस अवसर से सम्बन्धित समस्या को हल करने के लिए प्रशिक्षित किया जाये ।।
सारे मुहल्ले-गाँव को इकट्ठा करके सामूहिक रूप से यदि पर्व मनाये जाने लगें और उसमें धर्म-श्रद्धा के आधार पर लोग इकट्ठे होने लगें, तो उस एकत्रीकरण में त्यौहार के छिपे हुए समाज-निर्माण के रहस्यों को चतुर वक्ता भली प्रकार समझा सकता है और सामाजिक कुरीतियों एवं विकृतियों के उन्मूलन एवं स्वस्थ परम्पराओं की स्थापना के लिए महत्त्वपूर्ण पृष्ठभूमि बना सकता है।
इसी प्रकार पारिवारिक धर्म गोष्ठियों का सिलसिला संस्कार मनाने की परम्परा पुनर्जीवित करके बड़ी आसानी से प्रचलित किया जा सकता है। घर परिवार एवं पड़ोस के थोड़े लोग इकट्ठे हों तो भी उन्हें व्यक्ति निर्माण एवं परिवार निर्माण की नीति-रीति से सहमत किया जा सकता है।
प्रश्न --
(१) प्रमुख नव पर्वों के नाम बताइये (२) प्रत्येक पर्व की विशेषता एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए (३) प्रमुख १० संस्कारों के नाम बताइये (४) प्रत्येक संस्कार की उपादेयता पर प्रकाश डालिए (५) पर्व और त्यौहार मनाने के पीछे हमारा क्या प्रयोजन होता है? (६) पर्वोत्सव एक वरदान है-सिद्ध कीजिए। (७) पर्व और त्यौहार समाज शिक्षण की आवश्यकता किस प्रकार पूरी कर सकते हैं? (८) किस प्रकार कोई चतुर वक्ता कुरीतियों एवं विकृतियों का उन्मूलन करा सकता है?
जन्म दिवस और विवाह दिवस मनाये जायें
सभी अवतार सहस्त्र कलाओं वाले परब्रह्म के छोटे-छोटे अंशधर होते हैं। सामान्य मनुष्यों की तुलना में उनने अपने भीतर अधिक सद्गुण धारण किये होते हैं इसलिए हम उनकी पूजा और यशगान करते हैं। वैसे हर मनुष्य एक कला का ईश्वरीय अवतार है। यदि वह अपने स्वरूप और महत्त्व को समझने लगे तो अपनी आन्तरिक स्थिति को अधिक प्रखर बनाने लग जाये तो उसी क्रम से अपनी कलाओं का अभिवर्द्धन करता हुआ ईश्वर बनने की पूर्णता प्राप्त करने की दिशा में तेजी से उठ सकता है।
वस्तुतः हम अपने आपको भूल गये हैं। हाड़-माँस का बना चलता-फिरता शरीर मात्र अपने आपको मानते हैं। अस्तु, शरीर से सम्बन्धित क्षेत्र में ही अपनी गतिविधियाँ सीमित रखते हैं। शरीर को भूख लगती है उसे पूरा करने के लिए उपार्जन करना होता है। उपार्जन के साथ लोभ-लालच की बौद्धिक विकृतियाँ जुड़ जाने से उसकी बहुत लम्बी शृंखला बन जाती है। इसी कमाई के फेर में जीवन का बहुत बड़ा भाग नष्ट हो जाता है, यद्यपि यह कमाई पीछे वालों के लिए छोड़नी पड़ती है, अपने कुछ भी काम नहीं आती। शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, इनके अपने-अपने स्वाद हैं। इन स्वादों की लिप्सा मन को उद्वेलित किये रहती है। इन इन्द्रियों में एक अति प्रबल कामेन्द्रिय है। यह अपनी कामना पूर्ति के लिए मन को बुरी तरह उद्वेलित किये रहती है। इस ललक में हम विवाह तो करते ही हैं इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ उचित-अनुचित करते रहते हैं, उनकी प्रतिक्रियाओं के दबाव से मनुष्य कोल्हू के बैल से भी गई-गुजरी स्थिति में जा पहुँचता है। निर्वाह भी आजकल सरल नहीं रहा। उसमें इतनी प्रतिस्पर्धा, द्वेष, दुर्भाव, छल-कपट, अनीति-अत्याचार की मात्रा भर गई है कि उन विकृतियों से उत्पन्न विफलता भी अपने साथ जुड़ी रहती है। यही है आज के जीवन का स्वरूप। ऐसा ही हेय जीवन जीते हुए हम मौत के दिन पूरे करते हैं। रोते हुए खाली हाथ आये हैं और ठीक उसी स्थिति में विदा होते हैं।
मनुष्य-जन्म पाना एक दुर्लभ सौभाग्य है। उसमें महान से महान संभावनाएँ तथा शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। इसमें इतना अवसर है कि प्राप्त उपलब्धियों का यदि सदुपयोग किया जा सके तो निकृष्ट परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ मनुष्य भी ऐसे कार्य कर सकता है जिससे उसे महामानव, नररत्न, पृथ्वी का देवता, देवदूत, साक्षात भगवान कहा जा सके। इस प्रकार की उत्कृष्ट गतिविधि को अपना सकना अति सरल और स्वाभाविक है। निकृष्ट जीवन जीने में जितनी चतुरता, खींचतान और कठिनाई आती है, उसका सौवाँ भाग जीव को ईश्वर की दिशा में चलते हुए नहीं आती। जीवन के धन्य बना सकने की योग्यता, क्षमता, बुद्धि और हिम्मत मनुष्य में पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। एक कला का ईश्वर अशक्त नहीं हो सकता। उसके पास बहुत कुछ है, पर जो है उसका सही उपयोग हम कर नहीं पाते, करना नहीं चाहते। इसी विडम्बना को माया कहते हैं। माया के चंगुल में फँसा हुआ प्राणी कीड़े-मकोड़ों की मौत मरता है और यह अलभ्य अवसर यों ही विनष्ट हो जाता है।
मानव जीवन जैसा महत्त्वपूर्ण अवसर पशुओं जैसी शरीरचर्या में व्यतीत हो जाये तो उसे एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना ही कहा जा सकता है। वस्तुतः हम अपने स्वरूप को, कर्तव्य को, उद्देश्य को, भविष्य को बुरी तरह भूल गये हैं। शरीर की वासना और मन की तृष्णा पूरी करने के लिए ही निरन्तर जुटे रहते हैं, आत्मा की आवश्यकताओं के बारे में सोचने की तो क्षण मात्र फुरसत नहीं मिलती। बहुत हुआ तो एकाध माला सटका देने या राई-रत्ती पूजा-पत्री का थोड़ा खेल-मेल करके संतुष्ट हो जाते हैं। इन बाल-क्रीड़ाओं से कुछ प्रयोजन पूरा होने वाला नहीं है। जीवन मिला है तो उसका लाभ भी लेना चाहिए। लाभ तब मिले जब हम उसके स्वरूप, कर्तव्य और लक्ष्य को समझें। आत्मविस्मृति को समस्त पापों और दुःखों की जननी कहा जाता है। ज्ञान का उपदेश करते हुए तत्त्वदर्शियों ने मनुष्य को हजार बार एक ही उपदेश दिया है-अपने को जानो, अपने सम्बन्ध में विचार करो और अपनी सही दिशा निर्धारण करके उस पर चल पड़ो।
यह निरन्तर विचारा जाने वाला एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है और इस सम्बन्ध में अधिक चिन्तन करने के लिए एक भावपूर्ण हर्षोत्सव से जुड़ा हुआ पुनीत पर्व भी नियत है-उसका नाम है जन्म-दिन। व्यक्तिगत जीवन में जन्म-दिन से बढ़कर सन्तोष, उल्लास एवं प्रकाश से भरा हुआ त्यौहार नहीं हो सकता। सन्तोष इस बात का कि ८४ लाख वर्ष बाद हम एक अलभ्य अवसर प्राप्त कर सके हैं। उल्लास इस बात का कि हम चाहें तो अपनी दिशा बदलकर आज की तुलना में लाख गुनी मंगलमयी परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकने की क्षमता में ओत-प्रोत हैं। प्रकाश इस बात का कि शरीर तथा मन की गतिविधियों को सही दिशा में नियोजित कर सकना सम्भव हो रहा है और अपना कायाकल्प दिखाई दे सकता है।
संसार भर के सभ्य देशों में जन्म-दिन मनाने की प्रथा है। स्वजन-सम्बन्धी एवं मित्र मिलकर उस दिन एक हर्षोत्सव मनाते हैं और उस व्यक्ति की प्रगति एवं सुख-शान्ति की कामना करते हैं। यह प्रचलन अपने यहाँ भी होना चाहिए। अपना चेहरा शीशे में बार-बार देखने की इच्छा होती है, अपना फोटो प्रिय लगता है, अपने नाम की चर्चा होने या छपने में मजा आता है। अपनत्व संसार में सबसे प्रिय वस्तु है। इस अपनेपन के वातावरण का शुभ दिन भी हमारे लिए आकर्षक एवं उल्लास भरा हो सकता है, होना भी चाहिए।
युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत जन्म-दिन मनाने पर बहुत जोर दिया गया है। पूजन, हवन, घृत, दीप, संगीत, प्रवचन, आशीर्वाद आदि की एक मिश्रित पद्धति भी है, जिसे सभी सदस्य जानते हैं। उस पद्धति से अपनी-अपनी विवेक-बुद्धि से जन्म-दिन के आयोजन सर्वत्र मनाये जाने चाहिए। व्यक्ति को स्वयं यह आयोजन करने में संकोच लगे, तो युग-निर्माण योजना की शाखाएँ अपने सदस्यों के जन्म-दिन मनाने की व्यवस्था इस तरह करें, जिससे खर्च न्यूनतम पड़े, और उत्सव का स्वरूप अधिक से अधिक आकर्षक एवं प्रभावशाली बन सके ।। आनन्द और उल्लास के अवसरों का बढ़ाना भी शोक संतप्त मानव जाति की एक महती सेवा ही मानी जायेगी। यह प्रथा-परम्परा प्रचलित करने में हममें से प्रत्येक को पूरा उत्साह दिखाना और प्रयत्न करना चाहिए।
जन्म-दिन मनाने का वास्तविक लाभ तब है, जब वह व्यक्ति आत्म-चिन्तन करे और आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास की सुव्यवस्थित योजना बनाकर उस पर चल पड़ने का साहस दिखावे। इस अवसर पर ऐसे ही संगीत तथा प्रवचनों का तारतम्य होना चाहिए। जिनमें जीवन की महिमा समझने तथा उस अलभ्य अवसर का सदुपयोग करने की प्रेरणा मिले। भजन भर करने की बात उस सन्दर्भ में पूरी नहीं रहेगी। जीवन सुधार तथा लोक-मंगल के लिए साहसपूर्ण कार्य किये बिना, जीवन की सार्थकता भजन करते रहने पर भी संभव नहीं हो सकती, यह तथ्य इस अवसर पर भली प्रकार प्रतिपादित किया जाना चाहिए। देखने में यह एक हर्षोत्सव मात्र है, पर आध्यात्मिक जागरण एवं भावनात्मक नवनिर्माण की महान संभावनाएँ उसमें सन्निहित हैं। इसलिए जन्म-दिन मनाने की प्रथा चलाये जाने के लिए प्रबल प्रयत्न किये जाने चाहिए।
जन्म-दिन की भाँति विवाह-दिन का भी महत्त्व है। विवाह सामाजिक जीवन का शिलान्यास है। विवाह की आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता अक्षुण्ण रखने पर ही बच्चों का तथा समस्त परिवार का भावनात्मक विकास निर्भर है। लोग आमतौर से विवाह के साथ जुड़े हुए कर्तव्यों एवं प्रतिज्ञाओं को भूल जाते हैं। अवांछनीय गतिविधियाँ अपनाने लगते हैं। विवाह-दिवसोत्सव मनाकर उन कर्तव्यों एवं प्रतिज्ञाओं का पुनः स्मरण किया और कराया जाता है। उसकी भी पद्धति युग-निर्माण शाखाओं को विदित है। प्रयत्न यह भी होना चाहिए कि विवाह-दिवसोत्सव भी मनाये जायें और दाम्पत्य जीवन में हर साल एक नई उमंग, नई भावना और नई प्रेरणा उत्पन्न की जाये। इस प्रकार सरस और प्रखर दाम्पत्य जीवन, परिवार निर्माण की दिशा में अति प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है। जन्म-दिनों की तरह विवाह दिन भी मनाने की प्रथा को हमें एक व्यापक परम्परा बनाने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
प्रश्न --
(१) इसे आप कैसे कह सकते हैं कि एक सामान्य मनुष्य भी अवतारी पुरुष बन सकता है। (२) मनुष्य शरीर पाकर जो काम हमें करने चाहिए वे हम किस प्रकार नहीं कर पा रहे हैं? (३) माया किसे कहते हैं तथा माया के चंगुल में फँसा व्यक्ति किस प्रकार विनष्ट हो जाता है? (४) मानव अपनी शरीरचर्या किस प्रकार व्यतीत करता है? (५) जीवन मिला है तो उसका लाभ किस प्रकार लेना चाहिए? (६) जन्मदिन से बढ़कर और कोई त्यौहार व्यक्तिगत जीवन में क्यों नहीं है? (७) जन्मदिन किस प्रकार मनाया जाना चाहिए? (८) जन्मदिन का वास्तविक लाभ किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है? (९) युग-निर्माण योजना के अनुसार विवाह दिन किस प्रकार मनाया जा सकता है।
गायत्री और यज्ञ—भारतीय धर्म-संस्कृति के माता-पिता
गायत्री भारतीय संस्कृति की जननी और यज्ञ भारतीय धर्म का पिता है, भारतीय तत्त्व-ज्ञान का सार मर्म इन्हीं दो तथ्यों में समाया हुआ है। इसलिए गायत्री और यज्ञ को हम अनादि काल से अपने आध्यात्मिक माता-पिता मनाते रहे हैं।
गायत्री महामन्त्र उपासना की दृष्टि से परम सामर्थ्यवान है। शास्त्रकारों ने उसके पाँच मुख, पाँच नाम बताये हैं-(१) अमृत (२) पारस (३) कल्पवृक्ष (४) कामधेनु (५) ब्रह्मा। इन पाँचों द्वारा जो लाभ उठाये जा सकते हैं, उन सभी को दे सकने की क्षमता इस महामन्त्र में विद्यमान है। मनुष्य के भीतर अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश यह परम सामर्थ्यवान पाँच आवरण हैं। इन पाँचों में अगणित रहस्यमय शक्तियाँ सन्निहित हैं, उन्हें जगाने के लिए गायत्री उपासना से बढ़कर और कोई साधना नहीं। षट्चक्रों का भेदन, कुण्डलिनी जागरण, स्थूल-सूक्ष्म और कारण शरीरों का परिशोधन तथा १२ महत्त्वपूर्ण योग साधनाओं की सफल साधना गायत्री के माध्यम से ही की जाती है। इस महाशक्ति को तन्त्र-मार्ग से प्रयुक्त करके आश्चर्यचकित कर देने वाली सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। योग-साधना का केन्द्र-बिन्दु अपने धर्म में गायत्री महामन्त्र ही रहा है।
आत्म-बल बढ़ाने और आत्म-परिशोधन का यह सार्वजनिक सार्वभौम मन्त्र है। इसकी उपासना नर-नारी, बाल-वृद्ध कोई भी कर सकता है। बुद्धि को प्रकाशवान और प्रखर बनाना, अन्तःकरण में ऋतम्भरा प्रज्ञा को प्रकाशवान करना गायत्री की सबसे बड़ी विशेषता है। इसलिए भारतीय धर्म के हर अनुयायी को नित्य इस मन्त्र की उपासना अनिवार्य बताई गई है। जो इसकी उपेक्षा करता है, उसकी कड़े शब्दों में भर्त्सना की गई है। कोई किसी देवता या मन्त्र की साधना भले ही करता हो पर उसे सबसे पहले गायत्री द्वारा अन्तःकरण चतुष्टय तथा इन्द्रिय समूह को शुद्ध करना पड़ता है, इसके बिना कोई साधना सफल नहीं हो सकती। कष्ट, संकट, विपत्ति और चिन्ताजनक उलझनों में फँसे हुए व्यक्ति इस साधना का आश्रय लेकर अपनी समस्याओं को हल करते और उलझनों को सुलझाने का मार्ग प्राप्त कर सकते हैं। निराशाजनक परिस्थितियों में आशा का प्रकाश उत्पन्न करने एवं विपन्नता को सम्पन्नता में बदल देने की शक्ति इस महामन्त्र में किस सीमा तक भरी पड़ी है, इसकी परीक्षा कोई भी व्यक्ति श्रद्धापूर्वक गायत्री मन्त्र की उपासना करके कभी भी कर सकता है।
भारतीय धर्म का सारा विस्तार वेदों में हुआ और चारों वेद गायत्री के चारों चरणों की व्याख्या मात्र हैं। बीज रूप से गायत्री में वह सब मौजूद है, जो हमारे धर्म-ग्रन्थों में कहा, समझाया गया है। इस मन्त्र में २४ अक्षरों की व्याख्या की जाये तो उनमें नीति, धर्म, सदाचरण, लोक-व्यवहार की ऐसी शिक्षाएँ ओत-प्रोत मिलेगी जिन्हें अपनाकर मनुष्य अपना लोक और परलोक सुख-शान्तिमय बना सकता है। विवेक-बुद्धि को प्राथमिकता देना और उसे सर्वोपरि ईश्वरीय सन्देश मानना गायत्री का सार है। यह मन्त्र हमें विवेकवान, विचारशील एवं हंस की तरह नीर-क्षीर का विवेकवान, विचारशील एवं हंस की तरह नीर-क्षीर का विवेक करते हुए अनुचित को त्यागने एवं उचित को अपनाने का निर्देश करता है। माता के रूप में गायत्री की प्रतिमा बनाकर यह प्रतिपादन किया जाता है, कि नारी की पवित्रता एवं सत्ता नर की अपेक्षा अधिक है। इसलिए उसे हर क्षेत्र में अधिक श्रेय, सम्मान प्रदान किया जाना चाहिए। गायत्री का तत्त्व-ज्ञान अपनाकर यदि हम दूरदर्शी, विवेकशील एवं नीतिवान बन सकें और नारी के प्रति अति पवित्र बुद्धि रखें तो इस धरती पर स्वर्ग के अवतरण की सम्भावनाएँ मूर्तिमान कर सकते हैं। हमें नित्य नियमित रूप से गायत्री-उपासना के लिए थोड़ा समय निकालते रहना चाहिए और घर-परिवार में यह प्रथा-परम्परा चलानी चाहिए कि हर सदस्य नित्य गायत्री मन्त्र की साधना किया करे, भले ही वह पाँच मिनट भर ही क्यों न हो।
गायत्री माता के रूप में ईश्वर की उपासना करने से प्रेम का सर्वोपरि केन्द्र-बिन्दु मातृ-हृदय की भावना का अवसर हमें मिलता है। जिस रूप में हम भगवान को भजते हैं, वे उसी की अनुभूति प्रदान करते हैं। स्नेहमयी माता का ध्यान हमें वात्सल्य की भाव भरी अनुभूतियों से पुलकित कर देता है। जिन्हें माता के रूप में गायत्री महाशक्ति की उपासना में निराकार-साकार के झंझट को लेकर कुछ आपत्ति हो वे प्रातःकाल उदय होते हुए समस्त प्राणियों को प्राण प्रदान करने वाले परम तेजस्वी सूर्य का ध्यान करते हुए, गायत्री मन्त्र का ध्यान कर सकते हैं। पूजा की विधि अति सरल है। शरीर को शुद्ध कर, स्वच्छ स्थान एवं शान्त वातावरण में आसन बिछाकर बैठना चाहिए। आचमन के लिए जल और प्रकाश एवं ऊर्जा के लिए अगरबत्ती आदि से अग्नि की स्थापना सम्भव हो तो और भी उत्तम है। पवित्रीकरण, आचमन आदि क्रियाओं के बाद भगवान की समीपता का ध्यान करते हुए गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिये, नियत संख्या, नियत समय का ध्यान रखना चाहिए और अन्त में सूर्य की दिशा में जल का अर्घ्य देकर श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए। यों गायत्री महाविज्ञान ग्रन्थ में उपासना के विस्तृत योग एवं तन्त्र मार्ग के प्रयोग लिखे हैं पर सर्व-साधारण का काम उपरोक्त संक्षिप्त विधि से भी चल सकता है।
गायत्री का पूरक यज्ञ है। यह एक अतीव महत्त्वपूर्ण विज्ञान है, जो विश्व-व्यापी चेतन जगत को प्रभावित करता है। जड़-जगत को प्रभावित करने वाली अनेक वैज्ञानिक प्रक्रियाएँ हैं। सर्दी को गर्मी में बदलने वाले हीटर और गर्मी को सर्दी में बदलने वाले कूलर अपना चमत्कार दिखलाते हैं। अँधेरे को रोशनी में बदलने वाली बिजली का लाभ हर कोई जानता है। पर मानवीय चेतना और विश्व-व्यापी चेतना को प्रभावित करने वाली यज्ञ विद्या के बारे में बहुत ही कम जानकारी शेष रह गई है। प्राचीनकाल का अध्यात्मवादी विज्ञान अपनी सक्रियता के लिए महत्त्वपूर्ण सहायता यज्ञीय ऊर्जा से ग्रहण करता था। शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोगों के निवारण की अमोघ क्षमता यज्ञीय प्रक्रिया में मौजूद है। व्यक्तिगत तथा सामूहिक संकटों का निवारण करने वाली शक्तिशाली ऊर्जा यज्ञों के द्वारा वातावरण में संव्याप्त कराई जा सकती है। प्रकृतिगत वातावरण उसके द्वारा बदला जा सकता है। पर आज तो वह सारा विज्ञान ही विस्मृत हो गया। उसकी शोध पुनः की जानी चाहिए और इस सरल किन्तु महत्त्वपूर्ण विज्ञान का सर्व-साधारण की सुख-शान्ति बढ़ाने के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। यह कार्य शोधकर्ता अध्यात्म विज्ञानियों का है, कि वे अपनी लुप्त विद्याओं का अन्वेषण कर उन्हें पुनः प्राप्त करें और उनके द्वारा मानवीय प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान दें। यह कार्य कुछ ही दिन बाद हम आरम्भ करने वाले हैं और आशा करनी चाहिए कि यज्ञ विद्या के माध्यम से मानव जाति को एक अति नवीन, अति प्राचीन, अति महत्त्वपूर्ण शक्ति हाथ लगेगी और उसके माध्यम से हम अपने खोये हुए वर्चस्व को पुनः प्राप्त कर सकने में समर्थ होंगे।
यज्ञ दर्शन की प्रबल प्रेरणा यह है कि मनुष्य यज्ञीय जीवन जियें। जिस प्रकार हवन-कुण्ड में लपटें उठती हैं, उसी प्रकार हमारे अन्तःकरण में शौर्य, साहस, विवेक, सत्य, कर्तव्य आदि सद्गुणों की प्रखरता दीप्तिमान रहे। जिस प्रकार हवन के द्वारा वायु-मण्डल सुगन्धित होता है, उसी प्रकार हमारा कर्तव्य दया, करुणा, सेवा और सहृदयता की भावनाओं से ओत-प्रोत होता हो, उस कर्तव्य के द्वारा सहयोग, सद्भावना का, सुख-शान्ति का वातावरण बने, इसका प्रयत्न किया जाना चाहिए। यज्ञ पवित्रता और प्रखरता का प्रतीक है और यज्ञ-पूजकों की विचारधारा एवं क्रिया-पद्धति इन्हीं मान्यताओं से ओत-प्रोत होनी चाहिए। व्यक्तिगत सुख-सुविधा के लिए जिस प्रकार हम प्रयत्नशील रहते हैं, उसी प्रकार घी, शक्कर, औषधियाँ आदि का हवन करके हमें सुखदायी वायुमण्डल बनाने और उनका लाभ समस्त प्राणियों को देने की भावना रखनी चाहिए। हमारा समस्त जीवन यज्ञमय बने और उसका लाभ समस्त अग्निहोत्र की धार्मिक प्रक्रिया जीवन को यज्ञमय बनाने के आध्यात्मिक क्षेत्र में भी प्रकट कर सकें, हमें ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। गायत्री और यज्ञ का युग्म हमारी संस्कृति और धर्म का जनक है, उनका समुचित प्रभाव हमारे जीवन पर बना रहे, यही उचित है।
प्रश्न --
(१) गायत्री और यज्ञ इन दोनों का भारतीय संस्कृति के साथ क्या नाता है? (२) शास्त्रकारों ने गायत्री जी के कितने मुख बताये हैं तथा इनके लाभ प्राप्त करने की क्षमता किसमें है? (३) गायत्री महामन्त्र की उपासना करके मनुष्य क्या लाभ प्राप्त कर सकता है? (४) गायत्री की प्रतिमा माता के रूप में बनाकर क्या प्रतिपादित किया जाता है? (५) हमें अपने परिवार को किस प्रकार की आदत डालनी चाहिए? (६) निराकार गायत्री की उपासना करने वाले को वह किस प्रकार से करनी पड़ती है? (७) यज्ञ का विज्ञान से किस तरह का सम्बन्ध है? (८) यज्ञ से मनुष्य को क्या प्रेरणाएँ ग्रहण करनी चाहिए?
गायत्री यज्ञ-आन्दोलन — एक महान रचनात्मक अभियान
यों यज्ञ कई प्रकार के होते हैं, अलग-अलग देवी-देवताओं तथा मन्त्रों के हिसाब से उनके अलग-अलग नाम और विधान भी हैं। पर वह सब तो सकाम कामनाओं, विविध प्रयोजनों के लिए प्रस्तुत किए गए सम्प्रदाय विशेष की अनगढ़ गढ़न्तें ही हैं। यज्ञ शब्द का व्यापक प्रयोजन ‘गायत्री-यज्ञ’ से ही जुड़ा हुआ है। यद्यपि अति प्राचीनकाल से लेकर अद्यावधि सभी छोटे-बड़े यज्ञ गायत्री महामन्त्र के माध्यम से ही सम्पन्न होते रहे हैं और उन्हें गायत्री यज्ञ के नाम से ही सम्बोधित किया जाता रहा है। गायत्री भारतीय संस्कृति की जननी और यज्ञ भारतीय धर्म का पिता है। गायत्री तत्त्व ज्ञान, विवेकशीलता और सद्भावना की देवी है और यज्ञ संयम, उत्कर्ष एवं संतुलन का देवता। इन दोनों के समन्वय से ही परिपूर्ण मानवता और समर्थ सामाजिकता का उद्भव हो सकता है। अतः भारतीय धर्मावलम्बियों ने सदा से अपने शुभ कर्मों के साथ गायत्री यज्ञों को जोड़े रखा है। अपनी महत्त्वपूर्ण सृजनात्मक प्रवृत्तियों का शुभारम्भ भी इसी धर्मकृत्य के साथ होता रहा है।
अव्यवस्थित राजनीतिक स्थिति का एकीकरण, सुधार एवं सन्तुलन करने के लिए समय-समय पर अश्वमेध जैसे राजसूय यज्ञों के नाम पर प्रचण्ड आन्दोलन, सम्मेलन एवं अभियान खड़े किए जाते थे और अव्यवस्थित, नैतिक सामाजिक परिस्थितियों का पुनर्गठन एवं विकृतियों का निराकरण कराने के लिए बाजपेय यज्ञों की योजना बनती थी। आज की स्थिति में देश की ही नहीं समस्त विश्व की नैतिक आस्थाएँ, बौद्धिक दिशाएँ एवं सामाजिक विधि-व्यवस्थाएँ बुरी तरह लड़खड़ाने लगी हैं। उनका पुनः उपयोग करने के लिए प्राचीनकाल के बाजपेय यज्ञों की परम्पराएँ अपनाकर गायत्री यज्ञ आन्दोलन नई उमंग, नई दिशाएँ और नई योजनाओं के साथ प्रस्तुत हुआ है। इसे पण्डा-पुजारियों की लूट-खसोट के लिए आए दिन होते रहने वाले विडम्बनात्मक यज्ञ-हवनों से सर्वथा पृथक और सर्वथा भिन्न प्रयोजन का एक अतीव क्रांतिकारी और नव-निर्माण की विशाल योजनाएँ लेकर प्रस्तुत हुआ इस युग का एक अद्भुत और अनुपम आन्दोलन ही समझा और कहा जा सकता है।
गायत्री ‘यज्ञ’ यों पूजा-पाठ की एक धर्म प्रक्रिया मात्र मालूम पड़ती है और समझा जाता है कि उसके माध्यम से देवताओं की प्रसन्नता, वायुशुद्धि, मनोविकारों का शमन, प्राणप्रद वर्षा जैसे लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं। पर यज्ञ को अपनी संस्कृति में जो इतना महत्त्व दिया गया है, उसे धर्म का जनक कहा गया है, उसका प्रधान कारण यह है कि इस माध्यम से यज्ञीय जीवन जीने की और समाज में यज्ञीय परम्पराओं के प्रचलन का लोक-शिक्षण किया जा सकता है। वायुशुद्धि, देवपूजा, आरोग्य संवर्द्धन जैसे लाभों के अतिरिक्त यह भावनात्मक उत्कर्ष एवं लोक-शिक्षण ही वह कारण है, जिसने भारतीय धर्म में ‘यज्ञ’ शब्द को परम पवित्र वाचकों में गिनाया गया और उसे अति उच्चकोटि की श्रद्धा के साथ सम्मानित किया गया। अपना कोई व्रत, पर्व, त्यौहार, संस्कार एवं शुभ कर्म ऐसा नहीं जो यज्ञ के बिना सम्पन्न होता हो। मरने के बाद हिन्दू की अन्त्येष्टि जिस यज्ञ विधि के साथ सम्पन्न की जाती है वह आज कितनी ही भौंड़ी क्यों न हो गई हो स्मरण यही दिलाती है-भारतीय जीवन का आदि और अन्त यज्ञ के साथ ही होता रहा है-होना चाहिए।
यज्ञ शब्द का अर्थ है-त्याग, सेवा, प्रेम, सहयोग, सदाचरण और उदात्त दृष्टिकोण। इन प्रवृत्तियों को व्यक्तिगत जीवन में समन्वय कर लेने से समान स्तर का मनुष्य भी देवोपम मनोभूमि एवं परिस्थितियों का सृजन कर सकता है। वह जिनके भी सम्पर्क में आवेगा उन्हें प्रसन्नता, प्रकाश एवं प्रोत्साहन प्रदान करेगा स्वयं तो आत्म-शान्ति और लोक-श्रद्धा का अनुभव करता ही रहेगा। व्यक्ति के जीवनोत्कर्ष से तत्त्व-ज्ञान इतना अधिक योगदान दे सकता है कि उसकी यदि लोहे के पारस छूकर स्वर्ण बनने की बात से तुलना की जाये तो कुछ अत्युक्ति न होगी।
सामूहिक जीवन का, समाज का, विकासक्रम पूर्णतया पारस्परिक सद्भावना और सहकारिता पर अवलम्बित है। संगठित चरित्रवान और आदर्शों को प्रधानता देने वाले समाज ही समर्थ और समृद्ध हो सकते हैं। इसलिए सामाजिक विकास की आधारशिला-यज्ञीय प्रवृत्ति को जन-मानस और लोक-आचार में स्थान मिलना ही चाहिए। इस प्रवृत्ति को देशभक्ति, लोकसेवा, जन मंगल आदि नाम भी दिये जा सकते हैं। धार्मिक भाषा में इसे ही यज्ञीय परम्परा कहते हैं। यज्ञ आयोजनों के कर्मकाण्ड के साथ-साथ उसकी व्याख्या करते हुए जन-समुदाय को यह बहुत ही आसानी और सफलता के साथ समझाया जा सकता है कि किस प्रकार व्यक्ति और समाज को यज्ञीय ढाँचे में ढाला जा सकता है और व्यक्ति में देवत्व और समाज में स्वर्गीय वातावरण का सृजन किया जा सकता है। अपना गायत्री यज्ञ आन्दोलन धार्मिक पृष्ठभूमि में आवृत विशाल जनसम्मेलनों द्वारा व्यक्ति और समाज को आदर्शवादी की ओर उन्मुख करने के लिए तत्परतापूर्वक प्रयत्नशील है, जानने वाले जानते हैं कि धार्मिक मनोवृत्ति की भारतीय जनता में अपना यह पुण्य-प्रयोजन कितना लोकप्रिय और कितना सफल हुआ है।
यज्ञीय कर्मकाण्डों में खाद्य पदार्थ जलने की व्यर्थता पर अक्सर आलोचनाएँ होती हैं। अपने यज्ञों में वैसे अवसर पहले से ही नहीं आने दिया है। अन्न का एक दाना भी नहीं होमा जाता वरन् सुगन्धित वनस्पतियों की सामग्री ही काम में आती है और घी की मात्रा भी इतनी प्रतिबन्धित और न्यून रहती है, कि प्रयोजन की महानता को देखते हुए वह थोड़ा सा खर्च किसी भी प्रकार अनुचित नहीं कहा जा सकता। समूह एकत्रित करने के लिए अब तक प्रयोग किये जाने वाले विविध क्रिया-कलापों में आर्थिक दृष्टि से देखा जाये तो अपने साथ जितने दूरगामी सत्य परिणाम जुड़े हुए हैं, जिन्हें देखते हुए उस खर्च को हर विचारशील आलोचना का विषय न मानकर मुक्त कण्ठ से प्रशंसा ही कर सकता है।
गायत्री यज्ञ आयोजन में उपस्थित जनता को जहाँ व्यक्तिगत जीवन में से अनैतिक आचरण और सामाजिक जीवन में से अवांछनीय गतिविधियाँ हटाने के लिए प्रेरित किया जाता है, वहाँ यज्ञ वेदी पर ऐसी प्रतिज्ञाएँ भी कराई जाती है, जिनसे व्यक्ति की निर्मलता और समाज की समर्थता का अभिवर्धन होता है। हर कोई जानता है कि अपने हर यज्ञ में सुरक्षा सहस्त्रों नर-नारी अपनी अवांछनीय कुप्रवृत्तियों को किस उत्साह के साथ सदा के लिए परित्याग कर कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनने के लिए व्रत धारण करते हैं और सामाजिक कुरीतियों एवं राष्ट्रीय दुर्बलताओं को पदच्युत करने के लिए जोश-आवेश के साथ कार्यक्रम बनाते हैं। इन सम्मेलनों के बाद उन क्षेत्रों में सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों की कैसी बाढ़ आती है, इसे देखकर आलोचकों को भी यह स्वीकार करना पड़ा है कि यह आन्दोलन वर्तमान के सभी सृजनात्मक आन्दोलनों में अपने ढंग का अनुपम है और देश की मनोभूमि को समझते हुए अपने कार्यक्रम बनाने की दूरदर्शिता के कारण असाधारण रीति से सफल है।
देश में परिष्कृत नागरिकता, उत्कृष्ट विचारणा, उदात्त आस्था एवं लोक-मंगल की निष्ठा और उमंग भर प्रचण्ड सृजनात्मक तत्परता उत्पन्न करने में अ०भा० गायत्री परिवार के तत्वावधान में चल रहे यज्ञ आन्दोलन ने थोड़े ही समय में जैसी सफलता पाई है, उसे देखते हुए यह आशा प्रगाढ़ विश्वास के रूप में परिणत होती जाती है कि मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग अवतरण करने के अपने स्वप्न साकार होकर रहेंगे।
प्रश्न --
(१) ‘यज्ञ’ शब्द का व्यापक प्रयोजन ‘गायत्री यज्ञ’ से किस प्रकार जुड़ा है? (२) क्या गायत्री और यज्ञ इन दोनों के समन्वय से ही परिपूर्ण मानवता का उद्भव हो सकता है? (३) गायत्री यज्ञ आन्दोलन किस तरह से पुराने और वर्तमान समय के यज्ञों में समानता ला रहा है? (४) यज्ञ की महिमा को बतलाइए? (५) यज्ञ शब्द का क्या अर्थ होता है? (६) यज्ञीय जीवन को अपनाने पर मानव महान् कैसे बन सकता है? (७) गायत्री यज्ञ आन्दोलन सामाजिक जीवन को यज्ञीय जीवन के अनुरूप ढालने में प्रयत्नशील है किस प्रकार? (८) क्या गायत्री यज्ञ आन्दोलन आर्थिक दृष्टि से भी अधिक खर्चीला है किस तरह? (९) नर और नारी गायत्री यज्ञ आन्दोलन से किस प्रकार लाभ प्राप्त कर सकते हैं?
शिखा भारतीय संस्कृति की धर्म-ध्वजा
भारतीय सभ्यता और संस्कृति के दो प्रमुख प्रतीक हैं एक शिखा (चोटी) दूसरा सूत्र (यज्ञोपवीत)। अपने यहाँ इन दो प्रतीकों को हटा देना ही धर्म परिवर्तन का-धर्मच्युत होने का संकेत माना जाता रहा है। जिन दिनों बलपूर्वक इस्लाम फैलाया जा रहा था उन दिनों यही प्रक्रिया चलती थी कि चोटी काट दी जाये और जनेऊ तोड़ दिया जाये, बस इतने भर से यह मान लिया जाता था कि जिनने यह प्रतीक हटा दिये, उनने हिन्दू धर्म छोड़ दिया। उन बलात् धर्म परिवर्तन के दिनों में लोगों ने चोटी काटने का प्रश्न सामने आने पर यही कहा-‘‘कटनी ही है, तो सिर सहित चोटी कटेगी।’’ वैसा ही हुआ भी। लोगों ने बोटी-बोटी नुचवा दी पर चोटी नहीं कटवाई।
राणाप्रताप और शिवाजी जैसे धर्मरक्षकों ने चोटी और जनेऊ की रक्षा के लिए अपने बहुमूल्य जीवन संकट में डाले और जनसाधारण में साहस भरा कि अपने धर्म और उसके प्रतीकों की हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिए। अति प्राचीन काल में जो लोग इन प्रतीकों के प्रति उपेक्षा, अनादर और आलस्य बरतते थे, इन्हें धारण नहीं करते थे उन्हें सामाजिक बहिष्कार का दण्ड भुगतना पड़ता था। शिखा स्थापना, मुण्डन संस्कार-अपने धर्म में एक पवित्र आवश्यक परम्परा है, इसी प्रकार यज्ञोपवीत धारण का धर्म-कृत्य भी उच्च वर्ण वाले लोगों में बड़े समारोहपूर्वक मनाया जाता है और उसमें विवाह संस्कार जैसा खर्चीला समारोह होता है। वस्तुतः यह दोनों ही परम्पराएँ-धारणाएँ अति महत्त्वपूर्ण हैं। इसलिए संस्कार-समारोहों की आवश्यकता समझी गई तो यह उचित ही था।
आज कुछ विचित्र हवा चली है और इन दोनों धर्म प्रतीकों को निरर्थक माना जाने लगा है। अन्य सभी धर्मों के निष्ठावान युवक अपने प्रतीकों को गर्व और गौरव के साथ धारण करते हैं। पर अपने लोग अपनी उपयोगी धर्म परम्पराओं की खेदजनक उपेक्षा करते चले आ रहे हैं। ईसाई युवक ईसा की फाँसी का प्रतीक ‘टाई’ को गले में बाँधते हैं। मुसलमान युवक अपनी मूँछें, पोशाक, सुन्नत आदि की उपेक्षा नहीं करते, सिख युवकों को केश, कड़ा आदि धारण किए ही पाया जायेगा, पर हिन्दू धर्मानुयायियों को न जाने क्या हो गया है कि वे अपनी संस्कृति को तिलाञ्जलि देते हुए अपने पुण्य-प्रतीकों का परित्याग करते चले जा रहे हैं, जिनकी रक्षा के लिए अपन पूर्वजों ने बड़े से बड़े बलिदान करने में हिचक नहीं की थी। अब तो कुछ वर्षों से हिन्दू धर्म के अन्तर्गत ही एक ऐसा पंथ निकल पड़ा है जो चोटी, जनेऊ त्यागने का उपदेश अपने अनुयायियों को करता है। समय की विपरीतता का कोई क्या करे?
शिखा संरक्षण का वैज्ञानिक महत्त्व है। लघु और दीर्घ मस्तिष्कों के जोड़ने वाले केन्द्र-बिन्दु को अति महत्त्वपूर्ण मर्मस्थल माना गया है। समस्त मानसिक शक्तियों का उद्भव यही है। यहाँ जो बाल उगते हैं उनकी जड़ें उन चेतना केन्द्रों तक चली गई हैं जो हमें बुद्धिमान और मनस्वी बनाते हैं। इस स्थान के बालों की निरन्तर वृद्धि होनी चाहिए। काटने से उस मर्म स्थल की सुरक्षा खतरे में पड़ती है और बुद्धिमत्ता के केन्द्र डगमगाने लगते हैं। बुद्धिमत्ता मानव जीवन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है इसलिए उसे सुरक्षित रखने की चेष्टा में शिखा-संरक्षण का क्रम अपने यहाँ चिरकाल से चला आ रहा है। रेडियो में ‘एरियल’ खड़ा कर देने से जैसे आकाश में बहने वाली ईथर तरंगों से अपने काम की आवाज पकड़ ली जाती है और रेडियो बजने लगता है, इसी प्रकार मस्तिष्क की छत पर खड़ा किया गया शिखा रूपी ‘एरियल’ महान अन्तरिक्ष में प्रवाहित होने वाली शुभ चेतनाओं, शुभ संकल्पों, सद्विचारों एवं उपयोगी ज्ञान को पकड़कर मस्तिष्क रूपी रेडियो में भेजता है और हमारी बुद्धिमत्ता बढ़ने की एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया बन जाती है।
इस तथ्य को भारतीय तत्त्ववेत्ता भली प्रकार जानते थे इसलिए ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, संन्यासी सभी केश रखते थे। मध्य बिन्दु में शिखा रखने की उपयोगिता को तो वे स्वीकार करते ही थे वरन् एक कदम और भी बढ़कर सारे सिर पर केश रखते थे। महिलाएँ तो आजीवन पूरे सिर पर शिखा रखती है और अब तो लड़कों ने जबसे चोटी की उपेक्षा करनी शुरू की है तबसे लड़कियों ने उसे उपेक्षा का प्रायश्चित करना आरम्भ किया है और वे दो चोटी रखने लगी हैं? महिलाओं की यह सांस्कृतिक चेष्टा सराही जायेगी। एक विशेष सम्प्रदाय के संन्यासी शिखा सहित पूरे सिर का मुण्डन इसलिए कराते हैं कि उन्हें सांस्कृतिक बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं रही उनके लिए आत्मिक आनन्द ही पर्याप्त है। जो हो, शिखा ऐसी आवश्यकता है जिसकी उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। वह मानसिक रोगों से बचाती है। लाखों वर्षों का इतिहास साक्षी है कि संसार के अन्य भागों की तुलना में शिखाधारी भारतीय, मनोविकारों और मस्तिष्कीय रोगों से बहुत ही कम ग्रसित हुए। उनकी बुद्धिमत्ता और मनस्विता का प्रकाश सर्वत्र फैला रहा और उस उपलब्धि के आधार पर वे मानव जाति की महान सेवा कर सकने में समर्थ रहे।
शिखा हमारे मस्तिष्क रूपी किले पर गढ़ा हुआ धर्म-ध्वज है। जिस प्रकार आजकल सरकारी इमारतों पर तिरंगा झण्डा फहराता है वैसे ही हर भारतीय मस्तिष्क रूपी दुर्ग पर अपनी संस्कृति की विजय पताका शिखा के रूप में फहराती है। सन्ध्या वन्दन आदि धर्म कृत्यों में शिखा बन्धन की क्रिया की जाती है। इसका प्रयोजन एक प्रकार से ‘झण्डाभिवादन’ जैसा ही है। इस संस्थापन का प्रयोजन यह है, कि हर भारतीय धर्मानुयायी का मस्तिष्क केवल उच्च विचारणा, विवेकशीलता, उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का ही केन्द्र रहना चाहिए। उसमें निकृष्ट, ओछे, स्वार्थी, संकीर्ण और अनैतिक आकांक्षाओं को कोई स्थान नहीं मिलना चाहिए। जिस राजा का किला होता है उसमें उसमें उसी की सेना या प्रजा निवास करती है। शत्रु सैनिकों को उसमें एक कदम भी नहीं रखने दिया जाता। उसी प्रकार जिस मस्तिष्क दुर्ग पर भगवती गायत्री की धर्म ध्वजा शिखा के रूप में फहराती है उसके संरक्षकों का आवश्यक कर्तव्य है कि दुष्ट मनोविकारों को अपने विचार क्षेत्र में प्रवेश न करने दें और अपने गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता को, सदाचरण को सर्वथा अक्षुण्ण बनायें रखें।
इन दिनों शिक्षा संरक्षण की ओर जो उपेक्षा बरती जा रही है उसे दूर किया जाना चाहिए अन्यथा यह प्रतीक परित्याग धीरे-धीरे धर्म और संस्कृति के परित्याग में विकसित होने लगेगा। आवश्यक यह है कि शिखा संरक्षण को एक धर्म अभियान का रूप दिया जाये और सजगता पूर्वक यह प्रयत्न किया जाये कि किसी भी भारतीय धर्मानुयायी का मस्तिष्क बिना शिखा के न रहने पावे। भगवती गायत्री रूपी विवेकशीलता की धर्मध्वजा हमारे हर सिर पर फहराती हुई ही दिखाई देनी चाहिए और हर कन्धे पर यज्ञोपवीत को धारण किए रहना चाहिए। यज्ञोपवीत की महत्ता दूसरी विज्ञप्ति में बताई जायेगी।
अपने गायत्री यज्ञ आयोजनों में एक महत्त्वपूर्ण कृत्य शिखा संस्थापन का भी होना चाहिए। छोटे बच्चे जिनका मुण्डन नहीं हुआ है, उनका मुण्डन कराके आरम्भिक शिखा रखाई जाये। जो बड़ी आयु के हैं और जिनने शिखा रखाना छोड़ दिया है और मुण्डन नहीं कराना चाहते उनके लिए ऐसा भी हो सकता है कि अन्य बाल छँटवाकर शिखा स्थान के छोटे बाल कटवा लिए जायें और हर बार बालों की छाँट होने पर शिखा को बचाया जाता रहे। इस प्रकार कुछ समय में उनकी भी शिखा हो जायेगी। यह शिखा संस्कार बालक और वयोवृद्ध सभी का नये सिरे से होना चाहिए। गायत्री यज्ञों के अवसर पर इस प्रतिष्ठापना को सामूहिक रूप से निर्धारित धर्म संस्कार के साथ किया जाने लगे तो उसका प्रभाव और भी अधिक पड़ेगा। सर्व-साधारण को चोटी के महत्त्व का पता चलेगा और जो लोग नहीं रखते हैं उनमें भी इसके लिए आवश्यक उत्साह उत्पन्न होगा। भारतीय संस्कृति को सुदृढ़ बनाने के लिए यह एक छोटा आन्दोलन दीखने पर भी अन्ततः बड़ा उपयोगी और महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा। इसके सांस्कृतिक निष्ठा की दृष्टि से दूरगामी परिणाम होंगे।
शिखा रखते समय हर व्यक्ति को इसके मूल प्रयोजन का ध्यान रखना चाहिए। मस्तिष्क में उन्हीं विचारणाओं, मान्यताओं और आकांक्षाओं को स्थान मिले जो विवेकशीलता, नैतिकता, मानवता, सामाजिकता की कसौटी पर खरे उतरते हों। दुर्बुद्धि, दुर्भावना और दुष्टता की जो दुष्प्रवृत्तियाँ चारों ओर फैली हैं उनका उन्मूलन करने के लिए हमें शिखा रूपी धर्मध्वजा फहराते हुए एक ऐसा भावनात्मक महाभारत खड़ा करना चाहिए, जिसमें अनौचित्य की कौरवी सेना को परास्त कर औचित्य अर्जुन के गले में विजय बैजयन्ती पहनाई जा सके।
प्रश्न --
(१) शिखा तथा यज्ञोपवीत हमारी संस्कृति का प्रतीक है, सिद्ध कीजिए पुराने लोगों के आधार पर? (२) प्राचीनकाल में शिखा का क्या महत्त्व था? (३) आज कैसा व्यवहार हो रहा है, शिखा और यज्ञोपवीत कैसा था हमारे यहाँ? (४) शिखा संरक्षण का वैज्ञानिक महत्त्व किस प्रकार है सिद्ध कीजिए? (५) हमारे भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने इसकी उपयोगिता क्या बताई थी? (६) शिखा बन्धन का उद्देश्य क्या है? (७) शिखा रखवाने के लिए किस तरह का उपाय करना चाहिए?
यज्ञोपवीत धारण-नीति और कर्तव्य अपनाने का व्रतबंध
भारतीय समाज के दो प्रधान चिन्ह हैं-(१) शिखा (२) यज्ञोपवीत। शिखा का प्रयोजन मस्तिष्क की गतिविधियों, विचारणा, आकांक्षा, आस्था एवं अभिरुचि पर विवेकशीलता का ,, आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता का नियन्त्रण स्थापित करना है। भगवती गायत्री माता की धर्मध्वजा सिर-दुर्ग पर फहराने का मतलब ही यह है कि इस किले पर देवत्व का शासन स्थापित हो गया, इस मस्तिष्क के भीतर दुष्टता एवं मूढ़ता का प्रवेश न हो सकेगा। यज्ञोपवीत का अर्थ है-इस शरीर में यज्ञीय जीवन जीने का फैसला किया है, अब कोई ऐसा क्रिया-कृत्य न किया जायेगा जो आत्मा के देवत्व को कलंकित कर सके। यज्ञीय जीवन अर्थात्-संयमी, सज्जनतापूर्ण, उदात्त एवं लोकमंगल के लिए जिया जाने वाला जीवन। जिन्दगी ऐसी ही रीति-नीति और गतिविधि अपनाने से बनती है। यज्ञोपवीत ऐसी ही रीति-नीति को अपनाने की प्रतिज्ञा लेकर जीने की घोषणा है। फौजी सिपाही की वेशभूषा में जैसे कुछ विशेष वस्त्र एवं उपकरण लगे रहते हैं, इसी प्रकार यज्ञीय-जीवन जीने की सेना में भर्ती होने वाले देव पक्षों का उपकरण प्रतीक चिन्ह यज्ञोपवीत ही है।
भारतीय धर्मानुयायी अपने आपको ‘द्विज’ कहते हैं। द्विज अर्थात् दो बार जन्म लेने वाले। माता के पेट से तो शरीर मात्र पैदा होता है। यह अवतरण मनुष्य और पशु का एक रहा है। दुबारा जन्म-आदर्शों के लिए जीने की प्रतिज्ञाओं से सम्पन्न होने के साथ आरम्भ होता है। यज्ञोपवीत धारण द्विजत्व की प्रतिज्ञा घोषणा एवं आस्था है। जनेऊ पहनने के साथ ही द्विजत्व देव जन्म आरम्भ होता है। भारतीय संस्कृति की यह महान परम्परा मनुष्य को दैवी आदर्शों के अनुरूप जीने की प्रेरणा देती है।
यज्ञोपवीत धारण की पुण्य प्रक्रिया को एक प्रचंड अभियान की तरह अग्रगामी किया जाना चाहिए। प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी को कहा जाना चाहिए कि वह अपनी संस्कृति के दोनों प्रतीक-शिखा और यज्ञोपवीत श्रद्धापूर्वक धारण करे। यह परम पवित्र प्रतीक उसे मानव जीवन के महान आदर्श एवं स्वरूप का स्मरण कराते रहेंगे और यह स्मृति उसे महामानव बनने की दिशा में आगे धकेलेगी, भले ही वह प्रगति तीव्र हो या मन्द।
पिछले दिनों यज्ञोपवीत संस्कार बहुत महँगा, खर्चीला और आडम्बरपूर्ण हो चला था। लोग एक तो वैसे ही आदर्शवादिता अपनाने से कतराते हैं इस पर भी यदि उसके प्रतीक बहुत महँगे और झंझट के हो चलें तब तो उनकी ओर से मन हटना स्वाभाविक है। मुण्डन की शर्त ने नवयुवकों को उस धर्म-कृत्य से रुष्ट कर दिया। छोटे बच्चों की बात दूसरी है, अब बड़ी आयु के व्यक्ति माता-पिता की मृत्यु तक पर तो बाल कटाते नहीं जनेऊ धारण करने के लिए उन्हें कटाने को भला क्यों तैयार हों? अभिभावक भी इस महँगाई और व्यस्तता के दिनों में उससे कतराने लगे और धीरे-धीरे अपनी संस्कृति के प्रधान चिन्ह उपनयन की अपेक्षा ही हो गई। विवाह के वक्त ही पण्डित लोग गले में धागा डाल देते हैं।
इस स्थिति को बदलने का यही उपयुक्त तरीका है कि गायत्री यज्ञों के समय सामूहिक यज्ञोपवीत आन्दोलन भी हों और उनमें न सिर मुड़ाने की अनिवार्य शर्त रहे और न किसी प्रकार का खर्च उठाने की मजबूरी सामने आये। पण्डित लोग पूजा-पाठ का क्रिया-कृत्य तो बहुत करते थे पर यह नहीं बताते थे कि इस प्रक्रिया का तात्पर्य एवं प्रयोजन क्या है? सामूहिक आयोजनों में व्याख्या-विवेचन द्वारा यज्ञोपवीत की उपयोगिता भी सर्व-साधारण को समझाई जा सकती है जिससे न केवल धारण करने वाले वरन् उपस्थित सभी लोग अपनी धर्म-परम्परा के इन दोनों प्रतीकों से परिचित हो सकते हैं। और इस माध्यम से भारतीय संस्कृति के तत्त्व-ज्ञान के व्यापक बनने में बड़ी सुविधा हो सकती है।
यज्ञोपवीत के ९ धागे सद्गुणों के प्रतीक हैं। इन गुणों को थोड़े विस्तार के साथ इस प्रकार समझा जा सकता है-(१) हृदय में प्रेम (२) वाणी में माधुर्य (३) व्यवहार में सरलता (४) नारी मात्र के प्रति पवित्र भावना (५) कर्म में कला और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति (६) सबके प्रति उदारता और सेवा-भावना (७) शिष्टाचार और अनुशासन (८) स्वाध्याय एवं सत्संग (९) स्वच्छता, व्यवस्था और निरालस्यता। ये सद्गुण मानव जीवन की सच्ची शोभा और विभूति हैं। यज्ञोपवीत धारण करने वालों की आस्था इस बात पर जमाई जानी चाहिए कि वे इन गुणों को अपने में बढ़ाते चलने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहें।
यज्ञोपवीत गायत्री माता का स्वरूप और यज्ञ भगवान का प्रतीक है। गायत्री मन्त्र के ९ शब्द, यज्ञोपवीत के ९ धागे, ३ गाँठें, तीन व्याहृतियाँ-और बड़ी ग्रन्थि ‘ॐ’ की प्रतीक हैं। गायत्री रूपी परमात्मा को कन्धे पर हृदय पर, कलेजे पर, पीठ पर धारण करने वाले प्रत्येक जनेऊधारी को यह विश्वास करना चाहिए कि वह चारों ओर से भगवान द्वारा घिरा बँधा है। इसलिए उसे ऐसा उत्कृष्ट जीवन जीना चाहिए जो भगवान की इच्छा, प्रसन्नता एवं रचना के अनुरूप हो। यज्ञोपवीत गले में बँधा हुआ एक धर्म रस्सा है जो प्रकट करता है कि व्यक्ति को नीति, धर्म, सदाचार और कर्तव्यों के बन्धनों में स्वेच्छापूर्वक बँधे रहकर मानवीय मर्यादाओं के अन्तर्गत ही जीवनयापन करना चाहिए। उच्छृंखलता किसी भी स्थिति में नहीं बरतनी चाहिए।
मन को-विचारों को पवित्र रखने की प्रेरणा शिखा में है और शरीर के, कर्म के पवित्र रखने की निष्ठा यज्ञोपवीत उत्पन्न करता है। इस प्रकार इन दोनों प्रतीकों द्वारा मानसिक और शारीरिक-वैचारिक और कार्यात्मक-उत्कृष्टता उत्पन्न करने, सुरक्षित रखने और बढ़ाने का तत्त्व ज्ञान शिखा सूत्र के पुण्य प्रतीकों में सन्निहित है। इन सन्देशों को हृदयंगम करने वाला व्यक्ति निस्सन्देह नर से नारायण-पुरुष से पुरुषोत्तम लघु से महान और आत्मा से परमात्मा बन सकता है।
उपनयन धारण करने की गुरु दक्षिणा के स्वरूप अपने वर्तमान शारीरिक, मानसिक, सामाजिक दोष, दुर्गुणों में से कुछ को प्रतिज्ञापूर्वक परित्याग करके संस्कार की दक्षिणा देनी चाहिए। माँसाहार, नशेबाजी, व्यभिचार, जुआ, बेईमानी, विश्वासघात, आलस्य, क्रोध, अविवेक, नास्तिकता, जाति और लिंग के आधार पर ऊँच-नीच का भेद-भाव, विवाहोन्माद, मृतक भोज, कृपणता आदि दोष-दुर्गुणों में से कोई न कोई अपने में जरूर होगा। जो हो उसे त्यागने की प्रतिज्ञा इस शुभ संस्कार के पुण्य अवसर पर करनी चाहिए और यह सिद्ध करना चाहिए कि शिखा-सूत्र धारण करने का पुण्य-प्रयोजन उसी दिन से आरम्भ कर दिया गया।
गायत्री यज्ञों के अवसर पर एक-एक दिन, एक-एक आयोजन रखा जा सकता है। एक दिन सामूहिक शिखा संस्थापना अर्थात विचार क्रान्ति सम्मेलन, एक दिन सामूहिक यज्ञोपवीत धारण अर्थात् नैतिक क्रान्ति सम्मेलन, एक दिन सामूहिक विवाह संस्कार अर्थात् सामाजिक क्रान्ति सम्मेलन। तीन-तीन दिन के गायत्री यज्ञ आयोजनों के साथ अगर यह तीन विशेष सम्मेलन रखे जा सकें, उनकी ठीक प्रकार व्याख्या, विवेचना की जा सके और कर्मकाण्डों का आकर्षक स्वरूप बताया जा सके तो निस्सन्देह युग-निर्माण योजना के उद्देश्यों की पूर्ति में बड़ी सहायता मिल सकती है और अपने यह धर्म आयोजन अपनी उपयोगिता में चार चाँद लगा सकते हैं।
प्रश्न --
(१) शिखा का प्रयोजन क्या है? (२) यज्ञोपवीत धारण करने का क्या तात्पर्य है? (३) यज्ञोपवीत धारण द्विजत्व की प्रतिज्ञा किस प्रकार है? (४) यज्ञोपवीत संस्कार न कराने का कारण क्या है? (५) यज्ञोपवीत संस्कार को उसके स्थान पर पुनः प्रतिष्ठापित करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? (६) यज्ञोपवीत के ९ धागे किन-किन सद्गुणों के प्रतीक हैं? (७) यज्ञोपवीत गायत्री माता का स्वरूप क्यों माना जाता है तथा इसका तात्पर्य क्या है? (८) नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, लघु से महान और आत्मा से परमात्मा किस तरह बना जा सकता है? (९) उपनयन संस्कार करवाने की दक्षिणा के स्वरूप हमें क्या देना चाहिए? (१०) युग-निर्माण योजना के उद्देश्यों की पूर्ति में बड़ी सहायता किस प्रकार मिल सकती है?
ज्ञान यज्ञ का प्रकाश घर-घर पहुँचाया जाये
कहना न होगा कि मनुष्य की महानता और निकृष्टता उसकी मनः स्थिति पर निर्भर है। जिसके विचार ओछे, स्वार्थी और संकीर्ण हैं, उसकी गतिविधियाँ घृणित स्तर की होंगी। फलस्वरूप उसका स्तर नर-पशुओं एवं नर-पिशाचों जैसा बन जायेगा। इसके विपरीत जिसके विचार ऊँचे, उत्कृष्ट, उदात्त हैं। सद्भावना और सज्जनता के आदर्श जिस मस्तिष्क में जम गए हैं, उसके समस्त क्रियाकलाप में शालीनता एवं महानता की ही झाँकी मिलेगी। उसका हर काम ऐसा होगा जिससे दूसरों को सुख मिले। वह स्वयं उस कर्तव्य से संतुष्ट रह सके। ऐसे व्यक्ति आजीवन अपने लिए आनन्द उत्पन्न करते और दूसरों के लिए उल्लास बिखेरते ही देखे जाते हैं।
विचारों की शक्ति अपरिमित है। यों भी कहा जा सकता है कि आदमी के कलेवर में जो कुछ विभूतियाँ एवं विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं वे उसकी विचारणा का ही परिणाम या परिपाक हैं। जिसके पास आदर्शवादी विचारों का अभाव होगा वह सुविधा-साधनों से लदा रहने पर भी जानवर जैसा जीवन जियेगा, कीड़े-मकोड़े जैसी गतिविधियाँ अपनावेगा और साँप-बिच्छुओं जैसा विक्षोभ उत्पन्न करेगा। प्रगति या अवनति का आधार भी व्यक्ति के विचार ही हैं। विचार ही प्रौढ़ एवं परिपक्व होकर गुण, कर्म, स्वभाव तथा संस्कार के रूप में परिणत होते हैं। ये ही संस्कार कहलाते हैं और चरित्र के रूप में परिलक्षित होते हैं। मनुष्य जैसा भी कुछ हो वस्तुतः अपने विचारों की प्रतिक्रिया या प्रतिध्वनि मात्र है। जीवन का प्रेरणा स्रोत तलाश किया जाये तो वह व्यक्ति के विचार प्रवाह में ही सन्निहित मिलेगा।
व्यक्ति का उत्कर्ष करना हो अथवा समाज का उत्थान दोनों ही प्रयोजनों के लिए प्रथम आवश्यकता इस बात की है कि आदर्शवादी, उत्कृष्ट एवं विवेकसम्मत परिष्कृत विचारणा को जनमानस में प्रतिष्ठापित किया जाये। इसके बिना गाड़ी एक कदम भी आगे बढ़ने वाली नहीं है। कार्यक्रम चाहे एक से एक अच्छे प्रस्तुत किये जायें, योजनाएँ चाहे कितनी ही उत्तम क्यों न बनाई जायें-ओछे मस्तिष्क और ओछे व्यक्तियों के हाथों में पहुँचते-पहुँचते उसका सारा गुड़गोबर हो जायेगा। इन दोनों प्रतीकों की विविध-विध चेष्टाएँ की जा रही हैं। पर उनमें से एक भी फलवती न हो सकीं कारण स्पष्ट है-ओछे विचारों वाले व्यक्ति सब कुछ अपने ही ढ़ंग से सोचेंगे और वैसे ही करेंगे। फलस्वरूप बालू में से तेल निकालने की तरह परिणाम शून्य ही हाथ लगेगा। अविवेकी और निकृष्ट आधार पर सोचने वाले मनुष्य संसार में कभी कोई महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकने में समर्थ नहीं हुए ।।
अस्तु, आवश्यकता इस बात की है अपने दुर्बल राष्ट्र को समर्थ और सुसम्पन्न बनाने के लिए जन-साधारण की मनोभूमि में विवेकशीलता और आदर्शवादिता की फसल बोई तथा उगाई जाये तो आशा भरी उमंग उत्पन्न करने वाली हरीतिमा उत्पन्न होगी। हजार वर्ष की गुलामी से ग्रसित रहने के कारण हमारे विचार हर दिशा में बहुत ही पिछड़े हुए हैं। सभ्य देशों में सर्वत्र पाई जाने वाली नागरिक कर्तव्यनिष्ठा की अभी अपने यहाँ शुरुआत भी नहीं हुई है। रूढ़ियों और अन्ध-विश्वासों के कारण जो अपार क्षति उठानी पड़ रही है उसकी ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया है। वैयक्तिक सद्गुण किस प्रकार किसी आदमी को सुखी, समुन्नत एवं समर्थ बनाते हैं इसकी चर्चा भी सुनने में नहीं आती। सामाजिकता एवं सामूहिकता के प्रति निष्ठा उत्पन्न किए बिना कोई राष्ट्र बलवान नहीं बन सकता है, इस तथ्य को हममें से कितने लोग अनुभव करते हैं। विचारों का यह पिछड़ापन ही हमारी अवनति के लिए जिम्मेदार है। उसी ने हमें हजार वर्ष तक गुलाम रखा और उसी अवरोध ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इतनी लम्बी अवधि बीत जाने पर भी हमारी प्रगति में पग-पग पर अवरोध उत्पन्न किया है।
हमें वास्तविकता समझनी चाहिए और जन-मानस में विवेकशीलता एवं उत्कृष्ट आदर्शवादिता का बीजारोपण करने के लिए प्रबल प्रयत्न करने की आवश्यकता अनुभव करनी चाहिए। राजनैतिक क्रान्ति के बाद अब सबसे बड़ी और सबसे पहली आवश्यकता विचार-क्रान्ति की है। उसके बिना प्रगति के सारे प्रयत्न दिवा-स्वप्न मात्र बनकर रह जायेंगे।
उस प्रयोजन की पूर्ति के लिए युग-निर्माण योजना ने एक अति सुव्यवस्थित कार्य-पद्धति अपनाकर ‘ज्ञान-यज्ञ’ के नाम से विचार-क्रान्ति का अभिनव आन्दोलन आरम्भ किया है। यह समय की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता थी जिसे पूरा करने को पिछले दिनों से सुसंगठित अभियान चला है और थोड़े ही समय में आशातीत सफलता प्राप्त की है। वैयक्तिक समस्याओं में से प्रायः प्रत्येक के ऊपर प्रकाश डालने वाला और सामाजिक, राजनैतिक उलझनों का दूरदर्शितापूर्ण हल करने वाला जैसा प्रभावपूर्ण एवं सार्थक साहित्य इस प्रयास के अन्तर्गत प्रस्तुत किया गया है। उसे इस युग की अनुपम घटना ही कहना चाहिए। अब तक इस प्रयत्न के अन्तर्गत लाखों नहीं करोड़ों व्यक्तियों का उत्कर्ष हुआ है और पाठकों की विचारणा कार्य-पद्धति में क्रान्तिकारी परिवर्तन प्रस्तुत किया गया है। संगठन की दो मासिक पत्रिकाएँ ‘अखण्ड-ज्योति’ और ‘युग निर्माण योजना’ जादू जैसा काम कर रही हैं और लगता है कि अपना यह प्रयास जन-मानस के नव निर्माण की आवश्यकता को आश्चर्यजनक रीति से पूरा कर सकने में समर्थ होगा।
आवश्यकता इस बात की है कि इस ज्ञान यज्ञ की पुण्य-प्रक्रिया को व्यापक बनाने में प्रत्येक प्रबुद्ध देशभक्त का समुचित सहयोग मिल सके। इस प्रेरणा-प्रवाह को जन-जन तक पहुँचाने के लिए आवश्यक है कि बीस पैसा और दो घण्टा समय रोज देने की उदारता बरती जाये और इस सेवा भावना से अपने घर में एक युग-निर्माण पुस्तकालय चलाया जाये। बीस पैसा रोज निकालने से युग-निर्माण योजना द्वारा प्रकाशित पत्रिकाएँ, पुस्तिकाएँ, विज्ञप्तियाँ सभी उपलब्ध होती रह सकती हैं। इस साहित्य को अपने घर, परिवार, पड़ोस, सम्बन्ध तथा सम्पर्क क्षेत्र में पढ़ाने या सुनाने का अभियान चलाने में एक घण्टा रोज का समय खर्च किया जा सकता है। यह साहित्य अशिक्षितों को सुनाने और शिक्षितों को पढ़ाने में यदि नियमित रूप से एक घण्टा लगाया जा सके तो उतने भर से वर्ष में एक व्यक्ति सैकड़ों लोगों को इस विचारधारा से परिचित एवं प्रभावित कर सकता है। अपने देश में बड़े पुस्तकालय हैं, पर कार्य नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि पहला कार्य लोक-रुचि जगाने का है। पढ़े-लिखे लोगों को भी मनोरंजक और उथला साहित्य पसन्द है इसलिए पुस्तकालयों में भी ऐसी ही घटिया चीज पढ़ी जाती हैं। प्रेरक साहित्य तो वहाँ भी सड़ता ही रहता है। इसलिए व्यक्ति और समाज के नव-निर्माण की प्रेरणा देने वाले साहित्य से विचारधारा में अभिरुचि पैदा करना पहला काम है। सो यह जन-जन से सम्पर्क स्थापित करके, उसे व्यक्तिगत रूप से प्रेरित एवं प्रभावित करने और युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत प्रस्तुत सुव्यवस्थित विचारणा उन तक पहुँचाने से ही वह प्रयोजन पूरा हो सकता है। झोला पुस्तकालय इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए हैं। हर प्रबुद्ध देशभक्त का सहयोग इस प्रयोजन में मिलने लगे तो व्यक्ति और समाज के सम्पर्क की महती आवश्यकता हम लोग सहज ही पूरा कर सकते हैं और धरती पर स्वर्ग अवतरण के सपने को मूर्तिमान हुआ देख सकते हैं।
प्रश्न --
(१) मनुष्य की महानता और निकृष्टता किस तरह उसकी मनः स्थिति पर आधारित है? (२) विचार किस तरह मनुष्य के लिए उपयोगी हैं? (३) इस समय जो प्रगति की विविध-विध चेष्टाएँ की जा रही हैं, वे सफल क्यों हो रही हैं? (४) अब समाज की उन्नति के लिए किस तरह के प्रयत्न किये जायें? (५) राजनैतिक क्रान्ति के बाद सबसे पहली आवश्यकता क्या है? (६) युग-निर्माण योजना द्वारा संचालित ‘ज्ञान-यज्ञ’ की कार्य पद्धति को समझाइए? (७) इस ज्ञान यज्ञ की प्रक्रिया को व्यापक बनाने के लिए क्या और किस तरह का सहयोग आवश्यक है? (८) झोला-पुस्तकालय किस प्रयोजन की पूर्ति के लिए है?
ज्ञान-यज्ञ नव निर्माण का महानतम अभियान
आज व्यक्ति को अनेक व्यथा-वेदनाओं में डूबा हुआ और समाज की अनेक समस्याओं में उलझा हुआ पाते हैं। सर्वत्र अशान्ति, आशंका और असंतोष का जो वातावरण देखते हैं उसके पीछे एक ही कारण है-मानवीय दुर्बुद्धि का बढ़ जाना और उसका दुष्प्रवृत्तियों की ओर मुड़ जाना। यदि यह प्रवाह रोका जा सके लोगों को उच्च आदर्शवादिता की रीति-नीति समझाने के लिए तैयार किया जा सके, तो परिस्थितियाँ बिलकुल उलट सकती हैं। जो क्षमता आज विघटनात्मक, अनीतिमूलक क्रिया-कलापों में लगी है वह यदि उलटकर सृजनात्मक और सद्भाव संवर्द्धन में लग जाये तो देखते-देखते जादू की तरह सारी परिस्थितियों का काया-कल्प हो सकता है। वर्तमान नारकीय वातावरण देखते-देखते स्वर्गीय सुषमा में बदल सकता है।
धन-सम्पदा और साधन सुविधाएँ बढ़ाकर मानवीय सुख-शान्ति के प्रयत्नों में दूसरे लोग लगे हुए हैं, वह सराहनीय हैं। पर हमें सोचना यह है कि दुर्बुद्धि का वर्तमान क्रम यदि इस तरह चलता रहा तो कुबेर की तरह सम्पत्ति और इन्द्र की तरह साधन बढ़ जाने पर भी दुर्बुद्धि के रहते विपत्तियाँ ही बढ़ेंगी। सद्बुद्धि ही अभावग्रस्त जीवन को सुख-शान्ति से भरपूर रख सकती है। चूँकि इस अति महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर दूसरों का ध्यान नहीं है अतः उसे अपने हाथ में लेना चाहिए और दुर्बुद्धि के उन्मूलन एवं संस्थापन में प्राणपण से जुटा जाना चाहिए। यह प्रयास आँखों से दिखाई न पड़ने के कारण सस्ती वाहवाही भले ही न दिला सके पर अपनी उपयोगिता के कारण उसका महत्त्व इतना बड़ा है कि उसके ऊपर पुण्य-परमार्थ कहे जाने वाले समस्त कार्यों को निछावर करके फेंका जा सकता है।
युग-निर्माण योजना का ‘ज्ञान-यज्ञ अभियान’ इतिहास में अब तक के सबसे महान सृजनात्मक कार्यों में से एक है। इसकी कार्यपद्धति यह है कि घर-घर, जन-जन से सम्पर्क स्थापित कर व्यक्ति और समाज के सामने प्रस्तुत अगणित समस्याओं का स्वस्थ और सही समाधान समझाया जाये। हजार वर्ष की गुलामी के बाद भारतीय जनता की विचार-पद्धति में बड़ी विकृति आई है और उसमें से अधिकांश मान्यताएँ निरर्थक ही नहीं अनर्थमूलक भी बन गई हैं। पर लोग उन्हें परम्परा माने के छाती से चिपकाए बैठे हैं और तरह-तरह के कष्ट सहते हैं। ज्ञान-यज्ञ का प्रयोजन व्यक्ति की विवेकशीलता को जाग्रत करना है जो उचित-अनुचित का भेद समझ सके और अवांछनीय है उसे हटाने तथा औचित्य को स्वीकार करने का साहस जगा सके।
औचित्य, न्याय और विवेक से सम्पुटित एक प्रगतिशील विचारधारा का सृजन युग-निर्माण योजना द्वारा किया गया है। अत्यन्त प्रखर प्रकाश से परिपूर्ण व्यक्ति और समाज की हर समस्या का महत्त्वपूर्ण हल प्रस्तुत करने वाला अत्यन्त सस्ता साहित्य प्रचुर मात्रा में प्रकाशित किया जाता है। ज्ञान-यज्ञ का एक भाग यह सृजन है जिसे केन्द्र द्वारा देश की हर भाषा में प्रचुर परिमाण में लिखा और छापा जा रहा है। दूसरा भाग उसका प्रसार है। भावनात्मक नव-निर्माण का महत्त्व समझने वाले हर विचारशील व्यक्ति को इसके लिए आमन्त्रित किया गया है। प्रसन्नता की बात है कि ऐसे परमार्थ प्रेमियों की संख्या दिन-दिन बढ़ती जा रही है और वे अपने समय तथा साधनों का एक अंश नियमित रूप से लगाने लगे हैं कि घर-घर जाकर जन-जन से संपर्क स्थापित करें और उनकी मनोभूमि तथा आवश्यकता को देखते हुए नव-निर्माण का वह सृजनात्मक साहित्य पढ़ने को दें, जो छोटे-छोटे ट्रैक्टों, विज्ञप्तियों एवं अखण्ड-ज्योति, युग-निर्माण पत्रिकाओं के रूप में उपलब्ध हैं, जो पढ़े नहीं हैं उन्हें सुनाने का कार्य करना होता है। चूँकि देश में ७० प्रतिशत लोग अशिक्षित हैं। इसलिए सुनाना भी इस देश में पढ़ने से भी अधिक आवश्यक है।
ज्ञान-यज्ञ के होता, उद्गाता वे लोग हैं जिनने जन-मानस में विचार परिष्कार के सर्वोपरि परमार्थ का महत्त्व समझ लिया है और उसके लिए कुछ अनुदान नियमित रूप से देते रहने का व्रत धारण कर लिया है। ऐसा अनुदान न्यूनतम एक घण्टा समय और बीस पैसा नित्य का होना चाहिए। बीस पैसा देने में नियमितता बनी रहे और उसे एक दैनिक अनिवार्य नित्य-कर्म की तरह स्मरण रखा जा सके इसके लिए ज्ञान-यज्ञ के धर्मघट (गुल्लकें) पैसे जमा करने के लिए बना दी गई हैं। इन्हें पूजा की वेदी पर स्थापित करना होता है और बीस पैसे नित्य उसमें डालने पड़ते हैं। ताला कुंजी उसमें रहने से महीने पर जब आवश्यकता पड़े तभी उसे खोला जा सकता है। इस पैसे से वह सारा साहित्य मँगाया जाता रहता है जो विचार क्रान्ति और समाज क्रान्ति के लिए युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत केन्द्र से निरन्तर प्रस्तुत किया जाता रहता है। इस प्रकार एक घरेलू पुस्तकालय बनता चला जाता है जिसे हर घर की एक सच्ची सम्पत्ति कहनी चाहिए।
दो एक घण्टा समय का अनुदान इसलिए है कि बीस पैसा रोज देकर जो साहित्य उपलब्ध किया गया है उसे अपने घर के परिवार के हर सदस्य को नित्य थोड़ा-थोड़ा कर पढ़ाया-सुनाया जाया करे तथा पड़ोसी, मित्र, परिचित, सम्बन्धी जो भी अपने प्रभाव तथा पड़ोसी, मित्र, परिचित, सम्बन्धी जो भी अपने प्रभाव तथा परिचय क्षेत्र में आता है, उन्हें इस साहित्य से परिचित कराने, महत्त्व, माहात्म्य समझाने, रुचि उत्पन्न करने और पढ़ाने के लिए बार-बार सम्पर्क स्थापित किया जाता रहे। जिनमें थोड़ी-सी भी विचारशीलता है उनमें साथ किया हुआ परिश्रम सफल भी होता है। जो लोग यह पढ़ने-सुनने में रुचि लेने लगते हैं उनमें से अधिकांश को इस प्रखर विचारधारा से प्रभावित होना पड़ता है और वे उस प्रकाश को जीवन में उतारने तथा अपने सम्पर्क क्षेत्र में फैलाने का साहस भी करते हैं। इस प्रकार भावनात्मक नव-निर्माण की, विचार क्रान्ति की यह पुण्य-प्रक्रिया दिन-दिन आगे बढ़ती जाती है।
दो घण्टा समय और बीस पैसा नित्य ज्ञान-यज्ञ के लिए नियमित रूप से देने का व्रत लेने वाले भावनाशील लोगों को युग-निर्माण योजना का सदस्य माना जाता है और उन्हीं का संगठन इस प्रकार अभियान के अतिरिक्त शतसूत्री रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों को हाथ में लेकर भावनात्मक नव-निर्माण के पुण्य-प्रयोजन को आगे बढ़ाता है। हर सदस्य को कम से कम दस व्यक्तियों तक इस विचारधारा के प्रसार का प्रयत्न करना पड़ता है इसलिए कि दस हजार कर्मठ सदस्य एक लाख को निरन्तर प्रभावित, प्रोत्साहित करते रह सकते हैं। यह प्रक्रिया चक्रवृद्धि ब्याज के क्रम से बढ़ती हुई चार-पाँच छलाँगों में भारत को ही नहीं, सारे विश्व को अपने प्रभाव क्षेत्र में ले सकती है, ले भी रही है।
झोला पुस्तकालय ज्ञान-यज्ञ का महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है। जहाँ कहीं भी जाया जाये एक झोले में युग-निर्माण के ट्रैक्ट, पत्रिकाएँ, विज्ञप्तियाँ लेकर जाया जाये और जहाँ उपयुक्त अवसर जान पड़े वहीं अपने मिशन की चर्चा छेड़ दी जाये। जितना परिचय साहित्य के माध्यम से कराया जा सकता हो कराया जाये। लोगों के घरों पर जाकर पुस्तकें देना और फिर जाकर वापस लाना ऐसा क्रम है, जिससे किसी को भी प्रभावित और आकर्षित किया जा सकता है। झोला-पुस्तकालय अपने नगर में सारे शिक्षित समाज को इस विचारधारा परिचित और प्रभावित कर सकता है। इतना ही नहीं वे रेल, मोटर के सफर प्रवास, या जहाँ भी जाया जाये साथ रह सकता है और इन चिनगारियों को कहीं भी बिखेरता रह सकता है। वे अवसर पाकर कहीं भी अनीति एवं अविवेक का उन्मूलन करने में प्रचंड दावानल की भूमिका सम्पादित कर सकती हैं। जहाँ संभव हो चल पुस्तकालय ढकेल गाड़ी के रूप में चलाया जा सकता है। उसके द्वारा लोगों के पढ़ने की यह चीजें दी जाती रहें और जिन्हें पसन्द आयें उन्हें बेची भी जा सकती हैं। इस तरह उस कार्य में लगे व्यक्ति को थोड़ी आजीविका भी मिल सकती है और वह इस अति उपयोगी कार्य में लगा भी रह सकता है। सेवाभावी लोग अवैतनिक रूप में भी यह चल पुस्तकालय चलाने में अपना योगदान दे सकते हैं।
ज्ञान-यज्ञ देखने-सुनने में छोटी बात लगती है, पर उसकी संभावनाएँ उतनी विशाल हैं कि यदि ठीक तरह से अभियान को चलाया जा सका तो विश्वास है कि लोक-मानस में विवेकशीलता और सत्प्रवृत्तियों की गहरी स्थापना संभव हो सकेगी और नये युग के अवतरण का स्वप्न साकार किया जा सकेगा।
प्रश्न --
(१) युग की अशान्ति, आशंका एवं असन्तोष का मूल कारण क्या है? (२) वर्तमान नारकीय वातावरण को स्वर्गीय सुषमा में कैसे बदला जा सकता है? (३) मानवीय सुख-शान्ति बढ़ाने के लिए आजकल क्या किया जाता है, वास्तव में क्या किया जाना चाहिए? (४) सद्बुद्धि के संस्थापन हेतु क्या किया जाना चाहिए? (५) ‘ज्ञान-यज्ञ’ अभियान से क्या समझते हो? इसके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कार्य-पद्धति पर प्रकाश डालें। (६) ज्ञान-यज्ञ का प्रयोजन समझायें? (७) युग-निर्माण योजना द्वारा किस प्रकार के विचार प्रसारित किए जाते हैं? (८) ज्ञान-यज्ञ के होता, उद्गाता कैसे लोग हैं? (९) हर घर की सच्ची सम्पत्ति क्या है? (१०) झोला पुस्तकालय के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
व्यक्ति और समाज का समग्र निर्माण कर सकने वाली शिक्षा-पद्धति
शिक्षा का उद्देश्य मात्र काम-चलाऊ व्यवहार, गणित आदि सीखना एवं रोटी कमाने की क्षमता उत्पन्न करना भर नहीं है वरन् उससे बहुत ऊँचा और गहरा है। व्यक्तित्व का निर्माण, प्रतिभाओं का विकास एवं समाज को ऊँचा उठा सकने की क्षमताओं का परिष्कार, शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य यह तीन हैं। ऐसी समग्र शिक्षा की व्यवस्था बनाकर ही व्यक्ति और समाज को प्रशिक्षण का समुचित लाभ होता है।
प्राचीनकाल में शिक्षा सूत्र बहुत ही उत्कृष्ट स्तर के मनः शास्त्र के निष्णात एवं व्यक्तित्व गढ़ सकने की क्षमता सम्पन्न व्यक्तियों के हाथ में थे। पाठशालाओं, गुरुकुलों, आचार्य पीठों और विश्वविद्यालयों का संचालन ऐसे ही महामानव करते थे। फलस्वरूप यह भारतवर्ष देवभूमि कहलाता था। यहाँ के तैंतीस कोटि निवासी, तैंतीस कोटि देवताओं की तरह समस्त विश्व में प्रख्यात थे। यह शिक्षा पद्धति का ही चमत्कार था। आधुनिक काल में भी प्रगतिशील राष्ट्रों ने अपनी समर्थता, सुयोग्य नागरिकों द्वारा ही उपलब्ध की और उस उपलब्धि के लिए उन्होंने सोद्देश्य शिक्षा को ही प्रधान माध्यम बनाया। हिटलर ने विश्व विजय के स्वप्न देखे और उस प्रयोजन की पूर्ति के लिए सारे राष्ट्र को दो दशाब्दियों में ढाल दिया। जर्मन नागरिकों के मन में उत्साह और महत्त्वाकाँक्षाएँ हिलोरें ले रही थीं और जब द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ तो आरम्भ में उनने जो शौर्य और कौशल दिखाया उससे सारी दुनिया काँपने लगी। पीछे मित्र राष्ट्रों की सम्मिलित शक्ति और व्यूह रचना के आगे हार माननी पड़ी यह दूसरी बात है, पर इससे उस निष्कर्ष में कोई अन्तर नहीं आता जिसके अनुसार किसी भी देश के नागरिकों को शिक्षा-पद्धति के आधार पर किसी भी स्तर का बनाया जा सकता है। आधुनिक चीन जैसा भी कुछ है, पिछले बीस वर्ष की शिक्षा प्रणाली के फलस्वरूप है। रूस की दृढ़ता उन नागरिकों पर अवलम्बित है जिनका मनोबल वहाँ की शिक्षा प्रणाली ने उभारा और सँभाला है। जापान, स्पेन, इजराइल, यूगोस्लोवाकिया आदि थोड़े ही दिनों में बहुत ऊँचे बढ़ चले देशों की प्रगति का मूल कारण उन देशों की शिक्षा पद्धति में उन तत्त्वों का समावेश ही है, जो नागरिकों के चरित्रबल, मनोबल तथा ऊँचे दृष्टिकोण का परिष्कार कर सकने में समर्थ हैं। व्यक्तियों की प्रतिभा निखारने और समाज को समर्थता प्रदान करने में सोद्देश्य शिक्षा-पद्धति से बढ़कर और कोई माध्यम हो ही नहीं सकता।
दुर्भाग्यवश अपने देश में इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। स्कूल का तो बहुत खुले पर उनके सामने कोई स्पष्ट लक्ष्य न होने के कारण उन बेकार और असन्तुष्ट शिक्षाविदों की संख्या बढ़ी जो अशिक्षित रहने की अपेक्षा प्रस्तुत सुशिक्षा को घाटे का सौदा अनुभव नहीं करते हैं। ईश्वर ही जाने हमारे राष्ट्र के कर्णधार इस देश की आवश्यकता के अनुसार कोई शिक्षण तन्त्र दे सकेंगे या नहीं। इसके लिए जिस मौलिक शिक्षण और साहसिक चिन्तन की आवश्यकता है, वह न हो तो पढ़ने-लिखने की लकीर भर पिटती रहेगी पर शिक्षा पर लगने वाले श्रम और धन का सदुपयोग न हो सकेगा।
सरकार क्या करेगी, कब करेगी? इसकी प्रतीक्षा में बैठे रहने और केवल आलोचना, शिकायत करने से कुछ काम चलने का नहीं है। हमें अपने स्वल्प साधनों से-जन स्तर पर वर्तमान शिक्षा में जो कमी है उसकी पूर्ति का प्रयत्न करना चाहिए। जन स्तर पर किये गये प्रयत्नों का शक्ति नगण्य नहीं है। बिना सरकारी सहायता के भी संसार में बड़े-बड़े आन्दोलन जन्मे, पनपे और सफल हुए हैं। आपका स्वराज्य आन्दोलन गैर सरकारी-जन स्तर पर चलाया गया था और उसने सरकार को झुकने-बदलने के लिए मजबूर कर दिया। इसके अतिरिक्त अगणित आन्दोलन समय-समय पर गैर-सरकारी स्तर पर जन्मे और सफल हुए हैं। हमें शिक्षा में जो कमी है उसे पूरा करने के लिए इसी प्रकार का अभियान जन-सहयोग से आरम्भ करना चाहिए।
इसका छोटा-सा आरम्भ इन्हीं दिनों किया गया है। व्यक्ति, सरकार और समाज के नव-निर्माण का अत्यन्त प्रखर साहित्य युग-निर्माण के अन्तर्गत छप रहा है इसमें चुने हुए भागों को पाठ्यक्रम के रूप में निर्धारित किया गया है और सुकरात की प्रश्न --प्रणाली से शिक्षार्थियों के अन्तःकरण में गहराई तक उस विचारधारा को उतार देने का कार्यक्रम बनाया गया है। युग-निर्माण शाखाएँ, जगह-जगह ऐसी रात्रि पाठशालाएँ, प्रौढ़ पाठशालाएँ खोलेंगी जिनमें अशिक्षितों को साक्षर बनाने की भी व्यवस्था रहेगी पर साथ ही जिस भावनात्मक नव-निर्माण की देश के नागरिकों को नितान्त आवश्यक है, उसे शिक्षित-अशिक्षित सभी को अनिवार्य रूप से पढ़ाया जायेगा। इसके लिए संक्षिप्त पाठ्य-पुस्तकें तैयार हो चुकी हैं। पढ़ाने की शैली अपनी वैसी ही होगी जैसी प्राचीनकाल में भारतीय ऋषियों की थी अथवा सुकरात, अरस्तू आदि सभी तत्त्वदर्शी प्रश्नोत्तर क्रम से पढ़ाया करते थे। इस पद्धति से पाठ्यक्रम छोटा भले ही सही पर उससे शिक्षार्थी सीखने, समझने और हृदयंगम करने में पूर्णतया सफल होता है। इस शिक्षण को सेवाभावी, अवैतनिक कार्यकर्ता जगह-जगह चलायेंगे। छह-छह महीने के पाठ्यक्रम रहेंगे। वर्ष में दो बार परीक्षाएँ हुआ करेंगी और उनमें उत्तीर्ण होने वाले छात्रों की अति आकर्षक प्रमाण-पत्र दीक्षान्त समारोह के साथ दिया जाया करेंगे। बसन्त पंचमी और गुरुपूर्णिमा यह दो युग-निर्माण सम्मेलन हर शाखा में सम्पन्न होंगे और उसी दिन से उपरोक्त पाठ्यक्रम का समापन तथा शुभारम्भ हुआ करेगा। यह बहुत ही सरल तथा आरम्भिक पाठ्य-क्रम है। जहाँ सुविधा होगी वहाँ पूरे समय के विद्यालय चलाये जायेंगे। उसका आधार गायत्री तपोभूमि में संचालित वर्तमान युग-निर्माण विद्यालय के आधार पर होगा। व्यक्ति, समाज-निर्माण की शिक्षा-पद्धति और उसे छात्रों को हृदयंगम कराने तथा व्यवस्था चलाने का सर्वांगपूर्ण शिक्षण यहाँ चलाया जाता है। यहाँ से निकले विद्यार्थी एक प्रकार से ट्रैन्ड अध्यापक सिद्ध होते हैं और अपने-अपने स्थानों पर रात्रि पाठशाला में तथा पूरे समय के विद्यालय चलाने में समर्थ होते हैं। अभी तो किशोर छात्र आते हैं, जरूरत समझी गई तो प्रौढ़ों को भी इस प्रकार की तीन महीने की ट्रेनिंंग लेने के लिए बुलाया जा सके गा-ताकि वे अपने स्थानों पर पूरे समय के विद्यालय चला सकें।
युग-निर्माण विद्यालय में ऐसे शिल्प भी सिखाये जाते हैं, जो सुशिक्षितों को भर पेट रोटी दे सकने में समर्थ हैं। जापान गृह-उद्योगों के बल पर ही इतना सम्पन्न और सुविकसित बना है। बिजली की शक्ति से चल सकने वाले और थोड़ी पूँजी से चल सकने वाले उद्योगों की अभिवृद्धि से ही अपने देश के शिक्षितों की बेकारी दूर होगी। लाखों छात्र जो हर साल पढ़कर निकलते हैं उन सबको नौकरी मिलना असम्भव है। कृषि के लिए भूमि वर्तमान किसानों के लिए ही अपर्याप्त है। ऐसी दशा में गृह उद्योग ही एकमात्र अवलम्बन रह जाते हैं जो बिजली से चलने के कारण अधिक शारीरिक श्रम खर्च न करावें, और उत्पादन भी कर सकें तथा आजीविका भी अधिक दे सकें।
इन दिनों बिजली की मशीनों की मरम्मत, रेडियो ट्रांजिस्टर का निर्माण तथा सुधार, प्रेस उद्योग, रबड़ की मुहरें, साबुन बनाना, सुगन्धित तेल, स्याहियाँ आदि का रासायनिक निर्माण आदि उद्योग सिखाये जाते हैं। अगले ही दिनों गोबर गैस, पेन्ट, मधुमक्खी पालन, बिस्कुट-डबल रोटी बनाना, घरेलू शाक उत्पादन, हैण्डपम्प का निर्माण, चीनी-मिट्टी के बर्तन, विविध प्रकार के फ्लैश पाखाने, रेशमी तथा सूती कपड़े, निवाड़, कम्बल, दरी आदि बुनना, नये उद्योग भी इसी वर्तमान प्रशिक्षण में सम्मिलित किए जायेंगे। यह शिल्प, शिक्षा सहित जीवन निर्माण करने की कला में सम्मिलित की जाने वाली हैं, इनमें से जहाँ जो उद्योग उपयुक्त हों वहाँ चलाया जा सकता है और पूरे समय के विद्यालय की व्यवस्था की जा सकती है।
रात्रि पाठशालाओं तथा पूरे समय के विद्यालयों में अपनी शिक्षा प्रचार योजना आरम्भ हो रही है। उसके अगले कदम इतने व्यापक बढ़ेंगे कि गैर सरकारी स्तर पर जन सहयोग से हम नव-निर्माण की सर्वतोमुखी आवश्यकता प्रस्तुत शिक्षा-पद्धति द्वारा सम्पन्न कर सकेंगे। प्रारम्भ की रूपरेखा ऊपर है इसका विस्तार कितने बड़े परिमाण में होगा उसे अगला समय भली प्रकार सिद्ध कर देगा।
प्रश्न --
(१) शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य कितने व कौन-कौन से हैं? (२) प्राचीनकाल में भारत की शिक्षा प्रणाली कैसी थी? (३) सिद्ध कीजिए कि प्रगति का मूल मन्त्र शिक्षा पद्धति है? (४) वर्तमान शिक्षा प्रणाली के दोष बताइये? (५) शिक्षा में परिवर्तन जन-सहयोग से कैसे संभव है? (६) युग-निर्माण योजना की शिक्षा-पद्धति पर प्रकाश डालिए? (७) युग निर्माण विद्यालय की कार्य-प्रणाली पर प्रकाश डालिए? (८) छात्रों द्वारा सीखे जाने वाले गृह उद्योगों पर प्रकाश डालिए? (९) जीवन निर्माण की कला से आप क्या समझते है? (१०) रात्रि पाठशालाओं की आवश्यकता क्यों हैं?
कला लोकरंजन ही नहीं, भावनाओं का परिष्कार भी करे
भावनाओं के विकास और परिष्कार में कला का अति महत्त्वपूर्ण उपयोगिता है। संगीत, गायन, वाद्य, अभिनय, नृत्य, चित्र, साहित्य आदि कला पक्ष भावनाओं को उभारने में बहुत सहायक होते हैं। इन दिनों इस पक्ष का दुरुपयोग भी बहुत हुआ है। कामुकता भड़काने और लम्पटता को प्रोत्साहित करने में आज के कलाकार, कलाप्रेमी और संचालक बुरी तरह जुटे हुए हैं। फलस्वरूप जन-मानस में आदर्शवादी उमंगें उठना बन्द हो गई हैं और लोगों के मन माँसल रूप-विन्यास, यौन आकर्षण की अधोगामी चेतनाओं को अपना आकांक्षा का केन्द्र बनाकर शारीरिक और मानसिक स्तर पर दिन-दिन अधिक पतनोन्मुख होते चले जा रहे हैं। कला का यह प्रत्यक्ष दुरुपयोग ही है। इसे सरस्वती माता को वैश्या के स्तर पर ला खड़ा करने जैसी दुष्टता ही कहा जायेगा।
कला की शक्ति महान है, वह मानवीय अन्तःकरण को भाव-विभोर कर सकने और उसमें प्रस्तुत उच्च आस्थाओं एवं मान्यताओं को ऊर्ध्वगामी बना सकने में समर्थ है। प्राचीनकाल में कला का उपयोग लोक-मानस में उत्कृष्टता का संचार करने वाली कोमल भावनाओं को तरंगित करने के लिए ही किया जाता था। कला भक्ति-रस के इर्द-गिर्द घूमती थी। ईश्वर प्रेम, भगवान को आत्मसमर्पण की हिलोरें-उत्कृष्टता के पुंज परब्रह्म के साथ व्यक्ति की अन्तरात्मा को सद्भाव सम्पन्न बनाने के लिए अग्रसर करती थीं। आत्म-विज्ञान वेत्ता मनीषियों ने इसी प्रयोजन के लिए भक्ति रस का विशाल कलेवर खड़ा किया और उसके साथ कला के समस्त अंग-प्रत्यंगों को जोड़ा। मूर्तिकला, चित्रकला, कीर्तन, प्रभुस्तवन, वंदना, नृत्य, कथा, साहित्य आदि प्राचीनकाल के सारे कला प्रयास भक्ति रस का अभिवर्द्धन करने के लिए नियोजित थे। इससे अन्तःकरण गुदगुदाने की भावनात्मक अभिव्यंजना का आनन्द भी मिलता था और आस्थाएँ एवं मान्यताएँ ही ऊर्ध्वगामी बनती थीं। वास्तव में इस प्रकार के सोद्देश्य कला प्रयासों को ही सार्थक कहा जा सकता है।
नारद से लेकर मीरा तक प्रायः सभी सन्तों ने स्वान्तः सुखाय एवं लोकमंगल के लिए कला का उपयोग किया। यही उचित भी है। कला को व्यभिचारिणी बनाकर उससे फूहड़ मनोरंजन और कुत्साओं को भड़काने का प्रयोजन पूरा किया जाये तो इससे मनुष्य के उठने में नहीं गिरने में ही सहायता मिलेगी। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए युग-निर्माण योजना का एक महत्त्वपूर्ण कदम कला को परिष्कृत स्वरूप देने और उसके माध्यम से लोक-मानस की उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता की ओर उन्मुख करने के लिए उठाया जा रहा है।
कामुकता भड़काने वाले कुरुचिपूर्ण चित्रों से बाजार पटा पड़ा है। और वे ही घरों में लगे हैं। इनको हटाकर उनके स्थान पर इतिहास की आदर्शवादी घटनाओं के चित्र तथा आदर्श वाक्यों के रंगीन पोस्टर छापे गये है, जिन्हें घरों की सुसज्जा के लिए प्रयुक्त किया जा सके। पुस्तकों के रूप में चित्रावलियों की सीरीज आरम्भ की गई है। जो अवांछनीयता के विरुद्ध घृणा एवं सत्प्रवृत्तियों की ओर आस्था मोड़ने में योगदान दे सके। चित्र-प्रदर्शनियों की विशालकाय योजना है और इस प्रयोजन के लिए बड़े साइज के चित्रों का निर्माण करने का काम हाथ में लिया जा रहा है। प्रकाश चित्रों की व्यापक शृंखला चलाने के लिए स्लाइड प्रोजेक्टर प्रकाश यन्त्रों के माध्यम से प्रेरणाप्रद चित्रों को गाँव-गाँव, गली-गली प्रदर्शित करने की योजना बनी है।
संगीत, नाट्य, अभिनय का प्रभाव सबसे अधिक है। साँप जैसा दुष्ट जीव संगीत की लहरों पर लहराने लगता है, फिर मानवीय अन्तःकरण को उस माध्यम से लहरा देना और उस तरंगित हृदय को उत्कृष्टता की दिशा में मोड़ देना कुछ भी कठिन नहीं होना चाहिए। इस प्रयोजन के लिए प्रेरणाप्रद गीत लिखे और प्रकाशित किये गये हैं और और उन्हें व्यापक बनाने के लिए शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार में संगीत विद्यालय की स्थापना की गयी है, जिसमें सीमित तर्जों पर भावपूर्ण गीत गाये जा सकने और वाद्य यन्त्रों को बजाये जाने का अभ्यास सुगमतापूर्वक स्वल्पकाल में किया जा सके। इन गीतों और ध्वनियों को लोकप्रिय बनाने के लिए ऑडियो कैसेट बनाने का काम हाथ में लिया गया है। टेपरिकॉर्डरों के माध्यम से इन्हें स्वल्पकाल में देशव्यापी बनाने और जन-जन को गुनगुनाने की स्थिति तक जिसके अन्तर्गत ऊँचे कवि भले ही स्वयं अपनी कविता पाठ करने न आवें पर उनकी प्रेरक भावनाओं को बहुत ही आकर्षक ढंग से सुनाकर जनता को प्रेरणाप्रद मनोरंजन का लाभ दिया जाये। जगह-जगह संगीत सम्मेलन भी इसी प्रयोजन के लिए होते रहेंगे।
संगीत, नृत्य, अभिनय और नाट्य का इस युग में यन्त्रीकरण सिनेमा के रूप में हुआ है। विज्ञान ने कला के इस पक्ष को सस्ता और सर्वसुलभ बनाया है। शहरों और कस्बों में नित्य नये सिनेमा घर खुलते जा रहे हैं और लाखों दर्शक उन्हें रोज देखते हैं पर खेद इस बात का है कि अपने देश में अति महत्त्वपूर्ण कलामंच का उपयोग जनता की पशु प्रवृत्तियों के भड़काने में किया जा रहा है। अधिकांश फिल्में कामुकता भड़काने वाली तथा उच्छृंखलता सिखाने वाली ही बनती हैं। यदि फिल्म उद्योग का उद्देश्य लोकशिक्षण रहा होता तो हजार वर्ष की गुलामी से उठे इस देश के पिछड़े लोकमानस को परिष्कृत करने के लिए फिल्म उद्योग अति महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पादित कर सकता था पर जिनने पशु-प्रवृत्तियों के उभारने के सस्ते तरीके अपनाकर अपनी जेबें भर लेने की ठान-ठानी हो, उनसे कोई क्या कहे और कहने का क्या परिणाम निकले?
एक उपाय यह था कि आदर्शवादी फिल्म उद्योग का गठन किया जाये। लोक-शिक्षण का प्रयोजन पूरा करने वाली फिल्म बनें तो उनको विचारशील जनता जरूर पसन्द करेगी और वे अवश्य सफल होंगे। पर यह उद्योग बहुत महँगा हो गया है, उसमें लगाने के लिए बड़ी पूँजी की जरूरत है। आशा तो है कि सन्मार्गगामी प्रतिभाएँ और मानवता के काम आने वाली पूँजी इस प्रयोजन के लिए आगे आयेगी और अगले दिनों आदर्शवादी फिल्म उद्योग स्थापित होकर वर्तमान कूड़े-कबाड़ को पीछे धकेल देने में समर्थ होगा। पर अभी युग-निर्माण योजना जिन स्वल्प साधनों से चल रही है उसे ध्यान में रखते हुए सुलभ नाट्य मंच को विकसित करने का काम हाथ में लिया गया है। रासलीला, रामलीला, नौटंकी, स्वाँग आदि भी जिन्दा हैं। और देहातों कस्बों ही नहीं शहरों में भी उनकी आवभगत की जाती है। इन्हें आधुनिक साधनों से सुरुचिपूर्ण सुरुचिपूर्ण करके अधिक कलापूर्ण बनाकर ऐसे नाट्य दल खड़े किये जा सकते हैं, जो लोकरंजन के साथ-साथ नैतिक क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति की आवश्यकता को पूरा कर सकें और मानवता के विकास एवं परिवर्तन की महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकें। सिनेमा के वर्तमान स्वरूप को हटाना और इसके स्थान पर आदर्शवादी फिल्में प्रस्तुत करना इस समय अपने लिए संभव नहीं पर उपरोक्त नाट्यमंच को स्वल्प पूँजी में विकसित करके और उसके प्रसार का क्षेत्र व्यापक बनाकर लोकरंजन को नई दिशा देने में अभी भी अपनी वर्तमान क्षमता से बहुत कुछ किया जा सकता है। सो वही किया भी जा रहा है। युग-निर्माण योजना का कला-मंच इन दिनों इसी प्रकार का सृजनात्मक प्रयत्नों द्वारा अति उत्साह के साथ चल रहा है।
ऊपर की पंक्तियों में युग-निर्माण योजना द्वारा आरम्भ किये गये कलाकारिता के थोड़े-से सत्प्रयत्नों की संक्षिप्त सी चर्चा है यह इसलिए की गई है कि इस क्षेत्र का महत्त्व समझने वाले और अभिरुचि रखने वाले लोग दिशा प्राप्त करें और अपने-अपने साधनों से कला को मानव जाति के भावनात्मक उत्कर्ष के लिए नियोजित करने का साहसपूर्ण कदम उठाएँ। एक कार्य यह भी है, कि केन्द्र से संचालित कला प्रयत्नों की साधनहीनता को दूर करने के लिए अपना योगदान प्रदान करके उसे भी योग्य बनायें ताकि उस संगति प्रयत्न का लाभ अधिक परिणाम में उठा सकना जन-साधारण के लिए संभव हो सके।
प्रश्न --
(१) कला एवं संगीत का मुख्य प्रयोजन क्या है? (२) आजकल कला का दुरुपयोग अधिक हो रहा है, सदुपयोग क्यों नहीं कारण सहित समझाएँ? (३) प्राचीनकाल में कला का उपयोग किस लिए किया जाता था? (४) किन कला प्रयासों को सार्थक कहा जा सकता है? (५) मनोरंजन की सुरुचिपूर्ण योजनाएँ किस प्रकार चलाई जा सकती हैं? (६) वर्तमान फिल्मों में क्या त्रुटियाँ हैं, फिल्म उद्योग का उपयोग सद्प्रवृत्तियों की प्रसन्नता हेतु कैसे किया जा सकता है? (७) न्यायालयों का मुख्य प्रयोजन क्या होना चाहिए? (८) कला का उपयोग युग-निर्माण हेतु कैसे किया जा सकता है?
रचनात्मक कार्यक्रमों से ही देश समर्थ बनेगा
अधिक प्रभाव उन घटनाओं का पड़ता है, जो आँख के आगे से गुजरती हैं और अपना दृश्य एवं प्रत्यक्ष प्रभाव मस्तिष्क पर छोड़ती हैं। यों मनन, चिन्तन एवं समझने-समझाने से भी विचारों का परिष्कार होता है प सर्व-साधारण की बौद्धिक क्षमता इतनी संवेदनशील नहीं होती कि अपने आपको विवेकशीलता के आधार पर उचित को ग्रहण करने और अनुचित को त्यागने के लिए तैयार हो जायें। इसलिए लेखनी और वाणी के माध्यम से किये जाने वाले लोक-शिक्षण में ऐसे रचनात्मक कार्यों की ऐसी कड़ी भी जोड़नी पड़ती है, जो उपयोगिता की ओर लोकरुचि के जोड़ने में प्रत्यक्ष मार्ग-दर्शन कर सके। कोई संगठन या व्यक्ति आरम्भ में रचनात्मक कार्यों को सर्व-साधारण के सामने प्रस्तुत करते और उसका महत्त्व समझाते हैं। यह शुभारम्भ आगे चलकर जनता का अपना प्रिय विषय बन जाता है और फिर वे प्रवृत्तियाँ स्वयंमेव अग्रसर होने लगती हैं और लोग स्वयं उत्साहपूर्वक उन्हें कार्यान्वित करने लगते हैं। आरम्भ में ही लोकसेवी संगठनों या कार्यकर्ताओं को उनका शुभारम्भ करने की व्यवस्था करनी पड़ती है। रचनात्मक कार्यक्रमों का यही प्रयोजन है।
युग निर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रम प्रख्यात हैं। समाज का पिछड़ापन दूर करने के लिए हममें से हर व्यक्ति को अपनी योग्यता, क्षमता और परिस्थिति के अनुरूप कुछ न कुछ प्रयत्न करने चाहिए। देश सभी का है, उसके उत्थान-पतन में सभी की लाभ-हानि है। हर नागरिक पर देशभक्ति की पवित्र जिम्मेदारियाँ हैं और उन्हें अपना निजी काम छोड़कर भी पूरा किया जाना चाहिए। सरकार के भरोसे सब बात छोड़ बैठने से काम न चलेगा। हम सभी को अपने इस परम पवित्र कर्तव्य का ध्यान रखना चाहिए, अपने देश का पिछड़ापन दूर करने के लिए हम कुछ न कुछ रचनात्मक कार्य करने के लिए अपने समय, श्रम, धन का एक अंश लगाया करें। विभिन्न परिस्थितियों और योग्यताओं के व्यक्ति विभिन्न प्रकार के रचनात्मक कार्य अपने ढंग से कर सकते हैं। उनकी विस्तृत चर्चा ‘शतसूत्री योजना’ में प्रस्तुत की गई है, उनमें से ही कुछ की चर्चा नीचे की पंक्तियों में की जा रही है।
अपने देश में शिक्षा ३० प्रतिशत है, ७० फीसदी बिना पढ़े हैं। प्रगति के लिए शिक्षा अति आवश्यक है। इसलिए निरक्षरता को दूर भगाया जाना चाहिए। सरकारी स्कूल कॉलेजों में आधे-चौथाई अल्प वयस्क बालकों को पढ़ने का ही इन्तजाम है, शेष बालकों तथा वर्तमान प्रौढ़ और महिलाओं की साक्षरता भी आवश्यक है। इन्हीं कुछ वर्षों में संसार के भविष्य का निर्माण होना है, इसलिए वर्तमान निरक्षरों की उपेक्षा इस आशा पर नहीं की जा सकती कि स्कूलों में पढ़ने वाले लड़के बड़े होकर सब कार्य सँभाल लेंगे। प्रौढ़ शिक्षा की जनस्तर पर व्यापक व्यवस्था बनानी पड़ेगी। इसके लिए शिक्षित लोग विद्या-ऋण चुकाने के लिए जगह-जगह प्रौढ़ पाठशालाएँ, रात्रि पाठशालाएँ, खोलें, जिसमें दिन भर व्यस्त रहने वाले लोग अवकाश के समय शिक्षा प्राप्त कर सकें। महिलाओं के लिए दिन के तीसरे पहर की पाठशालाएँ चलें। किसान मजदूरों के बच्चे जो दिनभर काम में लगे रहते हैं, रात्रि पाठशालाओं में ही पढ़ सकते हैं। सेवाभावी शिक्षित व्यक्ति ऐसी पाठशालाएँ आसानी से चला सकते हैं।
बेकारी दूर करने के लिए कुटीर उद्योगों का शिक्षण, प्रवचन और उत्पन्न माल को खपाने वाले तन्त्र खड़े किये जाने चाहिए। जापान ने कुटीर उद्योगों को बिजली से चलाने की व्यवस्था बनाकर बड़े कारखानों से अधिक सस्ता उत्पादन किया है और हर नागरिक को काम दिया है हमें भी इस स्तर के प्रचलन करने चाहिए तथा उद्योगशालाएँ एवं संगठित उत्पादन विक्रय व्यवस्थाएँ बनानी चाहिए ताकि शिक्षितों और अशिक्षितों की बेकारी दूर हो और आर्थिक स्थिति सुधरे।
अन्न, शाक, फल, वृक्ष एवं पुष्प अपने देश में यह सभी कम उत्पन्न होते हैं। पौष्टिक खाद्य मिलने की समस्या जटिल होते जाने से दिन-दिन दुर्बलता और अस्वस्थता बढ़ रही है। इसके लिए घरों में शाक-वाटिका लगाने, फूल उगाने का आम रिवाज चलाया जाये। फूलों के बगीचे लगाये जायें, कृषि में अधिक श्रम साधन लगाकर अधिक अन्न उत्पादन पर ध्यान दिया जाये, खाली जगहों पर जलाऊ लकड़ी के वृक्ष लगाये जायें और गोबर जैसी बहुमूल्य खाद को ईंधन बनने से बचाया जाये। किसानों को शाक उत्पादन के लाभ तथा उपाय बताये जायें। जूठन न छोड़ने, बड़ी दावतें न करने तथा सप्ताह में एक समय आहार न करने की परिपाटी चला कर भी खाद्य-समस्या सुलझाई जा सकती है और विदेशों से अन्न माँगने की लज्जा से बचा जा सकता है।
स्वास्थ्य, संरक्षण एवं मनोबल बढ़ाने के लिए गाँव-गाँव व्यायामशालाएँ खुलनी चाहिए। कसरत, ड्रिल, खेल-कूद के साथ-साथ लाठी, तलवार, बन्दूक आदि चलाना सिखाने की भी व्यवस्था उनमें रहे। स्वास्थ्य गोष्ठियाँ तथा परामर्श तथा प्राकृतिक जीवन एवं प्राकृतिक चिकित्सा का सम्बन्ध भी इन स्वास्थ्य केन्द्रों में रहा करे। खेलकूद प्रतियोगिताएँ तथा अच्छे स्वास्थ्य वालों को पुरस्कार देने के सार्वजनिक आयोजनों की योजनाएँ बनाई जायें।
लोक-शिक्षण के लिए सभा, सम्मेलन, विचार-विनिमय, कला, प्रवचन आदि की व्यवस्थाएँ समय-समय पर होती रहें। वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ, कविता-सम्मेलन, संगीत-सम्मेलन आदि के द्वारा विचारोत्तेजक साधन जुटाये जायें। भारतीय समाज के पर्व और त्यौहार इस दृष्टि से बहुत ही उपयोगी तथा प्रेरणाप्रद हैं। सोलह संस्कारों के माध्यम से परिवारों का शिक्षण हो सकता है। अपनी सत्यनारायण कथा इस दृष्टि से बहुत सारगर्भित है। विवाह दिन और जन्म दिन मनाने के लिए रिवाज चल पड़े तो जीवनोद्देश्य की पूर्ति तथा पारिवारिक जीवन की सफलता के लिए लोगों को निरन्तर स्वच्छ मार्गदर्शन मिलता रहे। उपरोक्त या अन्य प्रकार के जन-सम्मेलनों के आयोजनों की इन दिनों भारी आवश्यकता है जो विचार-क्रान्ति की आवश्यकता पूर्ण कर सकने में समर्थ हों। गायत्री यज्ञों के साथ जुड़े हुए युग-निर्माण सम्मेलन उसी शृंखला में जोड़े जा सकते हैं। सत्कर्म करने वाले आदर्शवादियों का सार्वजनिक अभिनन्दन तथा महापुरुषों की जयन्तियाँ मनाने की बात भी उसी क्षेत्र में आती है।
सेवा दलों की संगठन के उद्देश्यों से आवश्यकता है। बढ़ती हुई गुण्डागर्दी से निबटने और सुरक्षा की भावना उत्पन्न करने के लिए साहसी युवकों का संगठित दल बहुत काम कर सकता है। गन्दगी की अपनी आदत ने गाँव नगरों को बुरी तरह अस्वच्छ बना रखा है। यह सेवा दल लोगों को साथ लेकर सफाई अभियान चलायें। स्वच्छता के महत्त्व समझायें और गन्दगी फैलाने वालों को रोकें। सामूहिक श्रमदान संगठित करके ग्राम-नगरों में रास्ते एवं तालाब साफ रखने, कुएँ, स्कूल आदि बनाने का बहुत काम बिना कुछ खर्च के ही हो सकता है। सहकारी मण्डलों द्वारा उपयोग की वस्तुएँ सस्ती और सही मिल सकती हैं। इस तरह की सत्प्रवृत्तियों का संचालन करने के लिए सेवाभावी सज्जनों के संगठित प्रयासों की सर्वत्र बड़ी आवश्यकता है, उनकी पूर्ति की जाये।
पुस्तकालयों, वाचनालयों की इस देश में भारी आवश्यकता है। इन्हें सच्चे देव-मन्दिर या ज्ञान-मन्दिर कहना चाहिए। कूड़े-कबाड़ की तरह आज छपता-बिकता तो बहुत साहित्य है पर व्यक्ति तथा समाज निर्माण करने वाला साहित्य ढूँढ़े नहीं मिलता, न उसके पढ़ने की लोगों में रुचि ही है जबकि इसी साहित्य के प्रचार एवं अवगाहन पर समाज का भविष्य निर्भर है। गरीब देश के लोग अभी बौद्धिक भूख बुझा सकने योग्य साहित्य खरीद भी नहीं सकते। यह भारी आवश्यकताएँ ऐसे पुस्तकालय पूरा कर सकते हैं जिनमें केवल प्रेरणाप्रद चुनी हुई पुस्तकें ही रहने का नियम हो। घर-घर पुस्तकें पहुँचाने तथा वापस लाने का प्रबंध हो, जहाँ अशिक्षितों को सुनाने की भी व्यवस्था हो। ऐसे पुस्तकालय की शृंखला गली-गली, गाँव-गाँव फैलाई जाने की आवश्यकता है।
ऊपर केवल थोड़े-से रचनात्मक कार्यक्रमों की चर्चा की गई है। ऐसे १०८ कार्यक्रम अपनी शत-सूत्री योजना के अन्तर्गत आते हैं। उनमें से जहाँ जैसी सुविधा हो वहाँ उस स्तर के कार्यक्रम आरम्भ किये जाने चाहिए, ताकि लोगों को उन सत्प्रवृत्तियों का महत्त्व समझने और अपनाने का अवसर मिले। ध्वंस सरल है, निर्माण कठिन। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना सरल था। अब केवल आलोचना, निन्दा से कुछ काम न चलेगा। देश की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए हमारा ध्यान रचनात्मक कार्यक्रमों की ओर जाना चाहिए और उन्हें पूरे उत्साह, साहस तथा त्याग-बलिदान की भावना से चलाया जाना चाहिए।
प्रश्न --
(१) रचनात्मक कार्यक्रमों का क्या प्रयोजन है? (२) युग-निर्माण योजना के रचनात्मक कार्य क्या है? (३) रचनात्मक कार्यक्रम के अन्तर्गत शिक्षा का प्रसार एवं फैलाव किस तरह किया जाना चाहिए? (४) कुटीर उद्योगों को किस प्रकार चलाना चाहिए? (५) अन्न की उपज बढ़ाने तथा खाद्य वस्तुओं में देश को आत्म-निर्भर करने के लिए क्या प्रयत्न होने चाहिए? (६) स्वास्थ्य और मनोबल बढ़ाने के लिए किस तरह की कार्य प्रणाली अपनानी चाहिए? (७) लोक शिक्षण के लिए क्या-क्या कार्य किया जाना चाहिए? (८) सेवा दलों के संगठन का महत्त्व रचनात्मक कार्यों के अन्तर्गत क्यों है? (९) क्या पुस्तकालयों की आज के समय में अत्यन्त आवश्यकता है?
अनीति, असुरता के विरुद्ध प्रबल संघर्ष किया जायेगा
कोमल और सौम्य तत्त्वों को इशारे से समझाकर विवेक एवं तर्क द्वारा औचित्य सुझाकर सन्मार्गगामी बनाया जा सकता है पर कठोर और दुष्ट तत्त्वों को बदलने के लिए लोहे को आग में तपाकर पिटाई करने वाली लुहार की नीति ही अपनानी पड़ती है। दुर्योधन को समझाने-बुझाने में जब श्रीकृष्ण जी सफल न हो सके तब उसे अर्जुन के बाणों द्वारा रास्ते पर लाने का प्रबन्ध करना पड़ा। हिंसक पशु नम्रता और औचित्य की भाषा नहीं समझते, उन्हें तो शस्त्र ही काबू में ला सकते हैं। भगवान को बार-बार धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेना पड़ता है, साथ ही वे असुरता के उन्मूलन का रुद्र कृत्य भी करते हैं।
व्यक्तिगत जीवन में देवशक्ति का अवतरण निस्सन्देह एक सृजनात्मक कृत्य है, उसके लिए सद्गुणों के अभिवर्द्धन की साधना निरन्तर करनी पड़ती है पर साथ ही अन्तरंग में छिपे हुए दोष-दुर्गुणों से जूझना भी पड़ता है। यदि कुसंस्कारों को उन्मूलन न किया जाये तो सद्गुण पनप ही न सकेंगे और सारी शक्ति इन कषाय-कल्मषों में ही नष्ट होती रहेगी। आलस्य, प्रमाद, आवेश, असंयम आदि दुर्गुणों के विरुद्ध कड़ा मोर्चा खड़ा करना पड़ता है और पग-पग पर उनसे जूझने के लिए तत्पर रहना पड़ता है। गीता का रहस्यवाद अन्तरंग के इन्हीं शत्रुओं को कौरव मानकर अर्जुन रूपी जीव को इनसे लड़ मरने के लिए प्रोत्साहित करता है। जिसने अपने से लड़कर विजय पाई वस्तुतः उसे ही सच्चा विजेता कहा जायेगा।
सामूहिक जीवन में समय-समय पर अनेक अनाचार उत्पन्न होते रहते हैं और उन्हें रोकने के लिए सरकारी तथा गैर-सरकारी स्तर पर प्रबल प्रयत्न करने पड़ते हैं। पुलिस, जेल, अदालत, कानून, सेना आदि के माध्यम से सरकारी दण्ड संहिता अनाचार को रोकने का यथा संभव प्रयत्न करती है। जन-स्तर पर भी अवांछनीय और असामाजिक तत्त्वों का प्रतिरोध अवश्य होता है। यदि वह रोकथाम न हो, उद्दण्डता और दुष्टता का प्रतिरोध न किया जाये तो वह देखते-देखते आकाश-पाताल तक चढ़ दौड़े और अपने सर्वभक्षी मुख में शालीनता और शान्ति को देखते-देखते निगल जायें।
इन दिनों नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र में अवांछनीय तत्त्वों का इतना अधिक बाहुल्य हो गया है कि शान्ति और सुव्यवस्था के लिए एक प्रकार से संकट ही उत्पन्न हो गया है। छल, असत्य, बनावट और विश्वासघात का ऐसा प्रचलन हो गया है कि किसी व्यक्ति पर सहज ही विश्वास करना खतरे से खाली नहीं रहा। विचारों की दृष्टि से मनुष्य बहुत ही संकीर्ण, स्वार्थी, ओछा और कमीना होता चला जाता है। पेट और प्रजनन के अतिरिक्त कोई लक्ष्य नहीं। आदर्शवादिता और उत्कृष्टता अब कहने-सुनने भर की बात रह गई है। व्यवहार में कोई बिरला ही उसे काम में लाता हो। सामाजिक कुरीतियों का तो कहना ही क्या? विवाहोन्माद, मृत्यु-भोज, ऊँच-नीच, नारी तिरस्कार, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह आदि न जाने कितने प्रकार की कुरीतियाँ अपने समाज में घुसी बैठी हैं। यदि उन्हें ज्यों का त्यों ही बना रहने दिया गया तो हम संसार के सभ्य देशों में पिछड़े हुए और उपहासास्पद ही न माने जायेंगे वरन् अपनी दुर्बलताओं के शिकार होकर आप अपना अस्तित्व ही खो बैठेंगे।
अगले दिनों इस बात की आवश्यकता पड़ेगी कि व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में संव्याप्त अगणित दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध व्यापक परिमाण में संघर्ष आरम्भ किया जाये। इसलिए हर नागरिक को अनाचार के विरुद्ध आरम्भ किये गये धर्म-युद्ध में भाग लेने के लिए आह्वान करना होगा। किसी समय तलवार चलाने वाले और सिर काटने में अग्रणी लोगों को योद्धा कहा जाता था, अब मापदण्ड बदल गया। चारों ओर संव्याप्त आतंक और अनाचार के विरुद्ध संघर्ष में जो जितना साहस दिखा सके और चोट खा सके उसे उतना ही बड़ा बहादुर माना जायेगा। उस बहादुरी के ऊपर ही शोषण-विहीन समाज की स्थापना संभव हो सकेगी। दुर्बुद्धि और कुत्सा से लड़ सकने में जो समर्थ होंगे उन्हीं का पुरुषार्थ पीड़ित मानवता को त्राण दे सकने का यश संचित कर सकेगा।
भारतीय समाज को बेईमान ओर गरीब बनने के लिए विवश करने वाले सत्यानाशी विवाहोन्माद-असुर से पूरी शक्ति के साथ जूझना पड़ेगा। अभी प्रचार, विरोध, प्रतिज्ञापत्र आदि के हल्के कदम उठाये गये हैं, आगे चलकर असहयोग, सत्याग्रह और घिराव जैसे बड़े कदम उठाकर इस कुप्रथा को गर्हित और वर्जित बनने के लिए घृणित और दुष्ट समझे जाने के लिए विवश करेंगे। अगले दिनों ऐसा प्रबल लोकमत तैयार करेंगे जिसमें विवाहों के नाम पर प्रचलित उद्धतपन को जीवित रह सकना असम्भव हो जाये। पूर्ण सादगी और स्वल्प खर्च के विवाहों का प्रचलन होने तक अपना संघर्ष चलता रहेगा। हम तब तक न चैन लेंगे और न लेने देंगे जब तक कि इस अनैतिक एवं अवांछनीय प्रथा का देश से काला मुँह न हो जाये।
मृतक भोज के नाम पर घृणित दावतें खाने की निष्ठुरता, पशुबलि की नृशंसता, ऊँच-नीच के नाम पर मानवीय अधिकारों का अपहरण, नारी को पद-दलित और उत्पीड़न करने की क्रूरता हमारे समाज पर लगे हुए ऐसे कलंक हैं जिनका समर्थन कोई भी विवेकशील और सहृदय व्यक्ति कर ही नहीं सकता। मूढ़ परम्पराओं ने इन कुरीतियों को धार्मिकता के साथ जोड़ दिया है, इस स्थिति को कब तक सहन किया जाता रहेगा? इस मूढ़ता के विरुद्ध प्रचार मोर्चे से आगे बढ़कर हमें कई और ऐसे सक्रिय कदम उठाने पड़ेंगे जिन्हें भले ही अशान्ति उत्पन्न करने वाला कहा जाये परन्तु रुकेंगे तभी, जब मानवता के मूलभूत आधारों को स्वीकार करने को तत्पर हो जायें, हम लोगों से कहेंगे कि घृणा फैलाने वाले और झगड़ालू का खतरा मोल लेकर भी वे अनीति से हर मोर्चे पर जूझने के लिये कमर कस लें-भले ही इस संदर्भ में उन्हें कोई भी खतरा क्यों न उठाना पड़े।
वैयक्तिक दोष-दुर्गुणों से लड़ने और जीवन को स्वच्छ, पवित्र, निर्मल बनाने के लिए अगर कुसंस्कारों से लड़ना पड़ता है तो वह लड़ाई लड़ी ही जानी चाहिए। परिवार में कुछ सदस्यों क को दास-दासी की तरह और कुछ को राजा-रानी की तरह रहने को यदि परम्परा का पालन माना जाता है तो उसे बदल कर ऐसी परम्पराएँ स्थापित करनी पड़ेंगी जिनमें सबको न्यायानुकूल अधिकार, लाभ तथा श्रम सहयोग करने की व्यवस्था रहे। आर्थिक क्षेत्र में बेईमानी को प्रश्न य न मिले। व्यक्तिगत व्यवहार में छल करने और धोखेबाजी की गुंजाइश न रहे। ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए प्रबल लोकमत तैयार करना पड़ेगा और अवांछनीय तत्त्वों के उग्र प्रतिरोध को इतना सक्रिय बनाना पड़ेगा कि अपराध, उद्दण्डता और गुण्डागर्दी करने की हिम्मत करना किसी के लिए भी सम्भव न रहे। हराम की कमाई खाने वाले, भ्रष्टाचारी बेईमान लोगों के विरुद्ध इतनी तीव्र प्रतिक्रिया उठानी होगी जिसके कारण उन्हें सड़क पर चलना और मुँह दिखाना कठिन हो जाये। जिधर वे वे निकलें उधर से ही धिक्कार की आवाजें ही उन्हें सुननी पड़ें। समाज में उनका उठना-बैठना बन्द हो जाये और नाई, धोबी, दर्जी, कोई उनके साथ किसी प्रकार का सहयोग करने के लिए तैयार न हो।
सार्वजनिक संस्थाओं में स्वार्थपरता और नेतागिरी लूटने के लिए जिन दुरात्माओं ने अड्डा जमा लिया है उन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया जाये। धर्म और अध्यात्म का लबादा ओढ़कर जो रंगे सियार अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं उनकी असलियत चौराहे पर नंगी खड़ी कर दी जाये ताकि लोग उन्हें भरपूर धिक्कारें। भोले लोगों को अनेक हाथों से लूटने से बचाना एक ऊँची और श्रेष्ठ सेवा होती है। ८० लाख भिखमंगे नाना प्रकार के ढोंग बनाकर जिस तरह ठगी और हरामखोरी करने में जुटे हुए हैं, आखिर उसे कब तक सहन किया जाता रहेगा। स्वच्छ शासन प्रदान करने के लिए राजनैतिक नेता और विधायकों, शासकों और अफसरों को यह सोचने के लिए बाध्य किया जायेगा कि वे अपनी निजी लाभ के लिए नहीं, लोक-मंगल के लिए ही शासनतंत्र का उपभोग करें।
इस प्रकार संघर्ष की बहुमुखी प्रचण्ड प्रक्रिया अगले दिनों युग-निर्माण योजना आरम्भ करेगी। उसके साधन जैसे-जैसे विकसित होते जायेंगे, संघ शक्ति जितनी मात्रा में उसके हाथ में लगेगी उसी अनुपात से वह शान्त, अहिंसक, सज्जनोचित, सांस्कृतिक कार्य के अथक सम्पादन में जुटेगी और पग-पग पर अनौचित्य के अन्याय के साथ लड़ा जाने वाला यह धर्म-युद्ध तभी समाप्त होगा जब मानवता के आदर्श की विजय पताका सारे विश्व में फहराने लगेगी।
प्रश्न-
(१) गीता के रहस्यवाद से क्या समझते हो? मानव के आन्तरिक शत्रु कौन-कौन से हैं? (२) अनीति को रोकने के लिए कठोर कदम उठाना क्यों आवश्यक है? (३) समाज की वर्तमान स्थिति में किसी भी व्यक्ति पर सहज ही विश्वास करना खतरे से खाली नहीं है, इस वाक्य का मर्म समझाइए? (४) वर्तमान समाज की प्रगति में कौन-सी कुरीतियाँ आड़े आ रही हैं? उनके उन्मूलन हेतु सुझाव दें। (५) इस युग में बहादुर किसे माना जायेगा? (६) हमारे समाज के प्रमुख कलंक कौन से हैं? उनसे बचने के उपाय बताओ? (७) आगामी युग में कैसे परिवारों की स्थापना करनी होगी? (८) अवांछनीय तत्त्वों का उग्र प्रतिरोध कैसे किया जायेगा? (९) ठगी एवं हरामखोरी को बन्द करने के लिए कौन-से कदम उठाये जायें? (१०) संघर्ष की बहुमुखी प्रचण्ड-प्रक्रिया से क्या समझते हो?
आज के व्यक्ति के सामने उलझनें और जिज्ञासाएँ उपस्थित हैं। उन समस्त ज्वलन्त प्रश्नों के उचित समाधान प्रस्तुत करने वाले प्रशिक्षण की नितान्त आवश्यकता थी। युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए ही उक्त शत-सूत्री परिष्कृत विचारधारा प्रस्तुत की गयी है और उसका प्रकाश जन-जन तक पहुँचने का प्रयास किया जा रहा है।