उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
देवपूजन का मर्म
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! देवता का अनुग्रह पाने के लिए देवता का पूजन करना आवश्यक है। इसके बिना देवता प्रसन्न नहीं हो सकते, देवता का अनुग्रह नहीं मिल सकता, देवता का प्यार नहीं मिल सकता, देवता की कृपा नहीं हो सकती। देवता का पूजन करने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, अगर हम उसे बताने लगें, तो बात लंबी हो जाएगी। इसलिए पंचोपचारपरक देवपूजन की व्याख्या तो मैं यहाँ नहीं कर सकता। लेकिन इस पंचोपचार की व्याख्या मैंने हजारों बार की है, जिंदगी भर की है और सारी जिंदगी भर करूँगा, ताकि आपकी देवात्मा पर आस्था बनी रहे।
अपना निर्धारण स्वयं करें
अगर आप सच्चे अध्यात्मवादी हैं तो आप या तो हिन्दू हो जाइए या मुसलमान हो जाइए। नहीं साहब! हम मरना भी नहीं चाहते और जिंदा भी नहीं होना चाहते हैं। तो फिर क्या होना चाहते हैं? अच्छा तो वही रहिए जो आप इस समय हैं। इस समय न आप मरे हुए हैं और न जिंदा हैं। न आप भौतिकवादी हैं और न अध्यात्मवादी हैं। अगर आप भौतिकवादी हैं तो कम्यूनिस्ट हो जाइए। यह आपकी मर्जी है कि आप भगवान का नाम नहीं लेंगे और आप अगर अध्यात्मवादी हैं तो सच्चे मायने में अध्यात्मवादी हो जाइए, जैसा कि हम आपको सिखाते हैं। जिस तरह हम आपको सिखाते हैं, उस तरह का अध्यात्मवाद भी आपको मंजूर नहीं और उस तरह का कम्यूनिज्म भी मंजूर नहीं। अतः कम्यूनिज्म भी आपके लिए उतना ही मुश्किल-कठिन है, जितना की अध्यात्म।
मित्रो! कम्यूनिज्म भी यह सिखाता है कि आप मशक्कत कीजिए और अपनी योग्यता बढ़ाए। इससे कम में कुछ नहीं मिल सकता। आप वह भी नहीं करना चाहते। नहीं साहब, हमको तो ऐसे दिलवाइए, जादू से, चमत्कार से दिलवाइए। कम्यूनिस्ट जी, हाँ साहब! बताइए आपको चमत्कार पर विश्वास है? मशक्कत पर विश्वास है? आपको मशक्कत के इसलिए कहा जाएगा तो आपका अध्यात्म गायब हो जाएगा, फिर आप क्या करेंगे? साईं बाबा की पूजा करेंगे, मनसा देवी की पूजा करेंगे। क्या करेंगे इनकी पूजा करके? कम्यूनिज्म बहुत कष्टसाध्य है, उसे आप बर्दाश्त नहीं कर सकते। प्रत्येक क्रिया के लिए आपको उचित मूल्य चुकाना पड़ेगा और अपनी क्षमता का विकास करना पड़ेगा। आपको वह भी मंजूर नहीं है और यह भी मंजूर नहीं है, फिर आप क्या है? मैं नहीं जानता कि आप क्या हैं?
ऐसी स्थिति में यही कहा जा सकता है कि न आप हिन्दू हैं, न आप मुसलमान हैं, न आप पशु हैं, न आप पक्षी हैं और न आप भौतिकवादी हैं और न अध्यात्मवादी है। भौतिकवादी आपकी इच्छाएँ हैं और अध्यात्मवादी आपकी क्रियाएँ हैं। आप अध्यात्मवादी इच्छाएँ कीजिए और भौतिकवादी क्रियाएँ कीजिए। नहीं साहब! हम भौतिकवादी इच्छाएँ रखेंगे और अध्यात्मवादी क्रियाएँ करेंगे। बेटे यह कैसे हो सकता है? ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए आपको एक कदम आगे बढ़ाना चाहिए।
देवपूजन का शिक्षण
मित्रो! पाँच चीजें हैं, जो देवताओं के पूजन में लगानी पड़ती हैं। आखिर ये क्या हैं? बेटे ये इशारे हैं। किसके इशारे हैं? वे उसी के लिए हैं, जो अध्यात्म का मूल उद्देश्य हैं, ‘आत्मसंशोधन’। सारा-का अध्यात्म इसी पर खड़ा हुआ है। बेटे, इसलिए मैं कहता हूँ कि हमको अपने आपकी सफाई करनी चाहिए। सचाई पैदा करने के लिए परिश्रम करना चाहिए। यही श्रद्धा है। देवपूजन के लिए मैंने कितनी बार आपको बताया है, कितनी बार व्याख्याएँ की हैं। आपको मैंने हमेशा यही कहा है कि धूपबत्ती जलाने का मतलब अपने जीवन की सुगंध को फैला देना है, जिसे सूँघकर आदमी को प्रसन्नता हो। गंदगी को सूँघकर नाक फड़फड़ाती है और व्यक्ति कहता है कि अरे साहब! कहाँ से बदबू आ रही है। दूसरी ओर खुशबू को सूँघकर मन प्रसन्न हो जाता है और कहता है कि यहाँ तो बड़ी खुशबू आ रही है। यह तो जबाकुसुम-सी मालूम पड़ती है।
देवपूजन में हम धूपबत्ती जलाते हैं, जिसका मतलब है कि हमारा जीवन और हमारा व्यक्तित्व ऐसा हो जिसकी सुगंध, जिसकी खुशबू जहाँ कहीं भी जाए, वहाँ हर आदमी की तबियत खिल पड़े, प्रसन्न हो जाए। अच्छा मान लीजिए, यहाँ आप मोहनलाल का जिक्र कर रहे हैं। हाँ साहब! क्या कहना उनके व्यक्तित्व को। बेचारे संत थे। जब हम उनकी दुकान पर गए, तो उन्होंने कहा कि जो चाहिए शान्तिपूर्वक ले जाइए। पैसे भी आपके जमा हैं। आप सारे बाजार में घूम आइए। अगर कोई माल हमारे माल से एक पैसे कम में भी मिलता हो तो आप उस चीज को ले जाना। हमारे यहाँ बेईमानी का कोई चक्कर नहीं है। खराब माल दिखाई पड़े, तो आप घर से वापस ले आना, हम आपको ठीक चीज देंगे और सही कीमत पर देंगे। साहब! मोहनलाल ऐसे व्यक्ति थे। उनका बोलना, बातचीत करना, व्यवहार क्या शानदार था कि उसके क्या कहने? उसने इस तरह देखा। उसने उसकी प्रशंसा की और उसने उसकी। इस तरह उनकी खुशबू फैलती गई। इसे कहते हैं व्यक्तित्व की खुशबू।
मित्रो! धूपबत्ती का मतलब यह नहीं है कि आप एक लकड़ी को जला दें और सुगंध फैला दें। उस धूपबत्ती से देवता प्रसन्न नहीं हो सकते। उससे आपके कमरे की सफाई हो सकती है। इससे आपका कमरा जरूर खुशबूदार हो जाएगा, लेकिन आपकी धूपबत्ती भगवान तक नहीं पहुँच सकती, क्योंकि भगवान बहुत दूर रहते हैं। भगवान जहाँ रहते हैं, वहाँ आपकी अगरबत्ती का धुआँ कैसे पहुँच सकता है? वहाँ तो केवल आपकी जिन्दगी की महक ही पहुँच सकती है।
इसी तरह दीपक जलाने का मतलब मैंने कई बार आपको बताया है। कई बार तो मैं इसका मखौल उड़ाने लगता हूँ और कहने लगता हूँ कि भगवान की आँखों में लाइट अभी ठीक है। सभी कुछ दिखाई पड़ता है। सूरज-चाँद निकलते रहते हैं। मैं उन लोगों का मजाक उड़ाता हूँ, जो यह ख्याल करते हैं कि केवल दीपक जलाने से भगवान को प्रसन्न कर सकते हैं। कई लोग मुझसे बहस करने लगते हैं और कहते हैं कि गुरुजी! किसका दीपक जलाएँ? कोई कहता है कि हमारे यहाँ गाय का घी है, तो कोई कहता है कि भैंस का घी है। मैं उनसे यही कहता हूँ कि गाय का है तो उसे ही जला लिया करें। भैंस का है तो उसे जला लें। वे कहते हैं कि अभी तो आप गाय का कह रहे थे। बेटा मैं क्या कह रहा हूँ, बात तो कुछ समझता नहीं है, केवल ‘गाय का घी’ या ‘भैंस का घी’ के झगड़े में पड़ा है। असलियत को समझना नहीं चाहता।
काया का दीपक व भावना का घी
मित्रो! काया को दीपक और भावना को घी कहते हैं तथा श्रम को बत्ती कहते हैं और उसके भीतर जो प्रकाश काम कर रहा है, वह अंतरात्मा का है। हमारी अंतरात्मा की ज्योति दीपक में जला करती है और हमारे श्रम की वर्तिका उसमें लगी रहती है और प्यार उसमें भरा रहता है। पात्रता का दीपक, जो मिट्टी का शकोरा होता है, उसे पात्र कहते हैं। हमारे जीवन में पात्रता एक, जीवन स्नेह से भरा हो दो, श्रम-लगनशीलता की वर्तिका उसमें जलती हो तीन और उसके अंदर भगवान का प्रकाश चमक रहा हो चार। अगर इन चारों से युक्त हमारा व्यक्तित्व है, तो वह भगवान के चरणों पर रखने योग्य है। ऐसा व्यक्तित्व भगवान को प्रकाश दे सकता है और अपने आपको प्रकाश दे सकता है। हमने कितनी बार कहा है कि आप दीप यज्ञ करें। जीवन दीपक का प्रतीक है। अच्छा साहब! दीपक प्रतीक है तो दीपक जलाऊँगा और भगवान को पकड़कर लाऊँगा। बेटे, दीपक से कैसे पकड़ सकता हैं तू भगवान को बता तो सही? दीपक का मकसद, धूपबत्ती का मकसद समझिए, तब भगवान को पकड़ने का प्रयास कीजिए।
स्नान अर्थात् पसीना परहित के लिए
देवपूजन में पानी क्यों चढ़ाते हैं? हम तो एक चम्मच जल छोड़ देते हैं और कहते हैं, ‘स्नानम् समर्पयामि।’ अच्छा तो बता बेटे, तूने भगवान जी को एक चम्मच जल से कैसे स्नान करा दिया। तू अपनी स्त्री को क्या कभी एक चम्मच जल से स्नान करा सकता है, फिर गायत्री माता तो बड़ी हैं, उन्हें कैसे करा देगा स्नान? महाराज जी! ‘स्नानम् समर्पयामि’ कहकर। बेटे! तू असली मकसद को समझता नहीं है, केवल पानी, चम्मच आदि के चक्कर में ही घूम रह है। अरे उससे आगे बढ़ और स्नान का मतलब समझ। स्नान का अर्थ यह है कि हम अपने पसीने की बूँदें श्रम की संपत्ति लोकमंगल के लिए खर्च करेंगे। अभी तो तेरा सारा पसीना अपने बेटे के लिए, पैसे के लिए खर्च होता रहता है। तेरे पसीने की एक बूँद समाज के काम न आ सकी, श्रेष्ठ उद्देश्यों के लिए खर्च न हो सकी। सारा-का समय, सारा-का श्रम और सारा-का स्वेद बिन्दु पसीने की बूँदें हमारी हमारे ही काम में खर्च हो गई, भगवान के लिए खरच नहीं हुईं। हम कसम खाते हैं कि भगवान अब हम पसीने की बूँदें आपके लिए टपकाएँगे। पानी से, स्नान से यही मतलब है।
अक्षत अर्थात् एक अंश भगवान का
अक्षत से क्या मतलब है? अक्षत से मतलब है, हमारी कमाई का एक हिस्सा भगवान के लिए, समाज के लिए लगना चाहिए। हम जो कुछ कमाते हैं, स्वयं के लिए नहीं खा जाएँगे। जो आप कमाता है और आप ही खाता रहता है, वह चोर है। जो व्यक्ति समाज के सहयोग से कमाता है और स्वयं ही सब खाकर खत्म कर देता है, वह चोर है। भाईसाहब आप अपनी कमाई का एक हिस्सा समाज के लिए दीजिए। आप गवर्नमेंट को टैक्स देते हैं, औरों को देते हैं, आप धर्म को भी टैक्स दीजिए, समाज को टैक्स दीजिए। सत्प्रवृत्तियों को टैक्स दीजिए, हिस्सा निकालिए। नहीं साहब! हम नहीं निकाल सकते। नहीं आपको निकालना पड़ेगा। यही है ‘अक्षतं समर्पयामि’ संक्षेप में अक्षत का मतलब यह है कि हम अनाज कमाते हैं, पैसा कमाते हैं, वस्तुएँ कमाते हैं, उसका एक अंश भगवान के लिए अलग से निकालना पड़ेगा।
मित्रो! भगवान हमारी जिंदगी का पार्टनर है। उस पार्टनर का शेयर चुकाइए। नहीं साहब! उसका तो हम शेयर नहीं चुकाएँगे, हम ही अकेले खा जाएँगे। नहीं बेटे! वह हिस्सेदार है, वह दावा कर देगा तेरी अकल ठिकाने लगा देगा। पचास फीसदी का हकदार है भगवान। हमारे जीवन में पचास फीसदी का ‘मैटर’ और पचास फीसदी का ‘अध्यात्म’ है। पचास फीसदी का प्राण और पचास फीसदी का शरीर। ये तेरे आधे का पार्टनर है। कौन? भगवान अतः उसके लिए भी निकाल। अरे, महाराज जी! मैं तो थोड़ा-सा ही निकालूँगा। कितना निकालेगा? बस ‘अक्षतं समर्पयामि’ मैं तो सात चावल रोज निकालूँगा। नहीं बेटे, ऐसा नहीं हो सकता। पचास परसेंट का हकदार है भगवान तो पच्चीस परसेंट, दस परसेंट कुछ तो दे। उसमें से पाँच परसेंट तो दे। एक परसेंट तो दे। नहीं साहब! मैं तो केवल ‘अक्षतं समर्पयामि’ करूँगा। अहा−−। अच्छा तो ये मामला है। इसीलिए तू अक्षत चढ़ा रहा था कि बाकी सारा माल स्वयं हजम कर ले। आपको पच्चीस हजार का जो फायदा हुआ, उसमें से लाइए पचास परसेंट। नहीं साहब, उसमें से पंद्रह पैसे लेना हो तो ले जाइए भावनापूर्वक, प्रेमपूर्वक, श्रद्धापूर्वक! अहा−−−। बड़ा चालाक है तू।
इस तरह से मित्रो ‘अक्षतं समर्पयामि’ का उद्देश्य समझिए। आप उद्देश्य नहीं समझेंगे, बस चावल फैलाते रहेंगे तो इससे अच्छा है कि उस चावल को चिड़िया को खिला दें अन्यथा उस चावल को बाहर डालेंगे, झाड़ से झाड़कर बाहर फेंक देंगे और वह बेकार हो जाएगा। अनाज और खराब हो जाएगा। अगर आप यह सब नहीं समझना चाहते, इसका उद्देश्य ग्रहण नहीं करना चाहते, उसकी प्रेरणा स्वीकार करना आपको मंजूर नहीं तो आप उस चावल को कहीं और लगा दीजिए। किसी चिड़िया को या किसी पक्षी के बच्चे को खिला दीजिए, फेंकिए मत। इन चावलों को फेंकने से क्या फायदा।
गुणों की सुगंधि
इसी तरह मित्रो! जब हम चंदन चढ़ाते हैं तो इसका मतलब होता है कि हम अपने व्यक्तित्व से अपने समीपवर्ती वातावरण में उसी तरह से सुगंध बिखेर दें जिस तरह से चंदन का दरख्त अपने आस-पास के छोटे-छोटे पौधों को अपने समान सुगंधित बनाता चला जाता है। आप जहाँ कहीं भी रहें और जो भी आपके संपर्क में आए, उसे श्रेष्ठ बनाइए। दूसरों को अपनी अच्छाई का फायदा जरूर दीजिए। आप दूसरों को अच्छा जरूर बनाइए। नहीं साहब! हम तो अच्छे रहेंगे, किन्तु किसी को अच्छा नहीं बनाएँगे? नहीं बेटे! औरों को भी अच्छा बनाना चाहिए जैसे कि चंदन बनाता है।
मित्रो! मैं आपको यही समझा रहा था कि आप इस खुशबू को फैलाइए। एक से दस के रूप में विस्तृत हो जाइए। आप चंदन के दरख्त की तरह हो जाइए और अपनी खुशबू को दूसरों में फैलने दीजिए। मैं आपसे यही कह रहा था कि सारी-की वस्तुओं का विकास देवपूजन के पीछे जुड़ा हुआ है। देवपूजन के सिद्धान्त के पीछे समर्पण का भाव छिपा हुआ है, लेकिन यहाँ तो हमारा सारा जीवन राक्षस के लिए जुड़ा हुआ है। अभी तक हमने सारा जीवन असुर के लिए, पशु के लिए खर्च किया है।
क्या होते हैं देवी-देवता
देवत्व का अर्थ होता है—श्रेष्ठताएँ। देवता कहाँ रहते हैं? हमें नहीं मालूम। हम एक बार कैलाश पर्वत पर थे तो मरते-मरते बचे थे। देवता कहाँ रहते? पीपल के पेड़ पर रहते होंगे। अच्छा तो चलिए दिखाइए। नहीं साहब, वहाँ तो देवी रहती है। कहाँ रहती हैं? महाराज जी! वह तो नागरकोट में रहती है, कलकत्ता में रहती है। अच्छा तो वहीं चलो। मैं तो कलकत्ता देख आया हूँ। वहाँ काली जीभ निकालकर चिढ़ा रही है। किसी स्टूडेंट ने पूछा था कि क्यों साहब! काली देवी जीव निकालकर क्यों चिढ़ाती है? अरे भाई! जीभ निकालना उनका शौक है। महाराज जी! एक देवी नागरकोट में रहती है। मेरे बाल-बच्चों का मुण्डन वहाँ होगा। अच्छा बेटे! तेरी कुलदेवी कहाँ रहती है। महाराज जी! बाड़मेर में, जैसलमेर में। तो वहाँ क्या करेगा? बच्चे का मुण्डन कराऊँगा। और कहीं करा ले तो? नहीं महाराज जी, देवी नाराज हो जाती है। क्या कहती है तेरी देवी? यों कहती हैं कि मैं बाल खाऊँगी, तू बाल यहीं काट। बेटे तू ऐसा भी कर सकता है कि घर पर मुण्डन करा ले और बाल एक डिब्बे में बंद करके उसे देवी के पास पार्सल से भेज दे, देवी के काम आएगा। नहीं महाराज जी! देवी कहती है कि मुण्डन के लिए हमारे यहाँ ही आना पड़ेगा, नहीं तो वह नाराज हो जाएगी।
साथियो! आपने देवी देखी है क्या? अगर देखी हो तो मुझे भी बता देना। मैंने तो देखी नहीं ऐसी देवी जो मुण्डन कराती हो और बाल खाती हो। मैंने जो देवी देखी है, वह विचारणाओं के रूप में, भावनाओं के रूप में, सिद्धान्तों के रूप में देखी है। मनोवृत्तियों के रूप में और कृतियों के रूप में देवियाँ देखी हैं। इनमें से एक का नाम दया की देवी, एक का नम करुणा की देवी, एक का नाम श्रद्धा की देवी, एक का नाम दान की देवी है। मैंने असंख्य देवियों की पूजा की है और उनके साथ में इतना आनंद उठाया है कि वे मेरी सहेलियों की तरह, मित्रो की तरह बन गये।
मुझे हँसाती रहती हैं, मुझे खिलाती रहती हैं। देवियों के उद्यान में मैं विचरता रहता हूँ और देवियाँ मुझे प्यार देती रहती हैं। मरने के बाद स्वर्ग में जिन देवियों और अप्सराओं का वर्णन किया गया है, उन देवियों और अप्सराओं को मैंने इसी वन में देखा है, प्रकृति के रूप में और प्रवृत्तियों के रूप में।
मित्रो ! देवता कर्म हो सकता है, देवता विचार हो सकता है, देवता भावना हो सकता है, देवता व्यक्ति नहीं हो सकता। देवता अगर व्यक्ति होता तो दुनिया में छाया रहता, एक जगह नहीं रहती। शंकर जी शैवों में छाए रहते हैं। देवी शाक्तों में छाई रहती है और विष्णु भगवान् वैष्णवों में छाए रहते हैं और रामचंद्र जी राम भक्तों में छाए रहते हैं, खुदाबंद करीम मुसलमानों में छाए रहते हैं। बेटे ! इतने सारे भगवान् नहीं हो सकते। सारी दुनिया में एक ही तरह का भगवान् हो सकता है, अनेक तरह का कैसे हो सकता है? तो क्या अनेक तरह के भगवान् नहीं हो सकते? बेटे! हमें विश्वास नहीं कि अनेक तरह के भगवान् होते हैं। हमारा विश्वास इस बात के ऊपर है कि भगवान् की जो असंख्य शक्तियाँ हैं, वे मनुष्य के भीतर जब प्रवेश करती हैं तो वे देववृत्तियों के रूप में प्रवेश करती हैं।
देववृत्तियाँ जहाँ हैं, वहाँ हैं देवता
देववृत्तियाँ किसे कहते हैं? श्रेष्ठ चिंतन एक, श्रेष्ठ कर्म दो, श्रेष्ठ भावनाएँ तीन—इन्हीं का नाम देववृत्तियाँ हैं। वे श्रेष्ठताएँ जिनमें होंगी, उन्हें अगर मैं देवता कहूँ तो आप बुरा मत मानना। वास्तव में यही देवता हैं। बाहर के प्रतीकों के माध्यम से जनसाधारण को हम सिखाते हैं कि ये प्रतीक वास्तव में हमारे देवता हैं। प्रतीक हाँ बेटे प्रतीक। शंकर जी की जब हम पूजा करते हैं, तो हम कुछ प्रतीक के माध्यम से उन संवेदनाओं की, सिद्धांतों की, आदर्शों की पूजा करते हैं, जो शंकर जी में समाविष्ट हैं। जैसे कि शंकर जी के सिर में से ज्ञान की गंगा प्रवाहित होती है। शंकरजी के मस्तक पर संतुलन का चंद्रमा टिका हुआ है। जिन्होंने मुण्डों की माला अर्थात् मृत्यु को संगिनी बनाने के लिए अपने गले में मुण्डों की माला पहनी हुई है। जिन्होंने साँपों को गले से लगाकर रखा है। जिसका कि तीसरा नेत्र खुला हुआ है। तीसरा नेत्र कौन-सा? विवेक का नेत्र, ज्ञान का नेत्र, देवता का नेत्र, आज से लेकर हजारों वर्षों तक आगे और पीछे की अपनी परिस्थितियों को देख सकने वाला 'टेलिस्कोप' जिससे कि हम भविष्य देखते हैं। जिससे हम अपने बुढ़ापे को देखते हैं, जिससे अपनी मृत्यु को देखते हैं, जिससे हम परलोक को देखते हैं, जिससे हम जन्म-जन्मांतरों को देखते हैं, ऐसा हमारा टेलिस्कोप 'तृतीय नेत्र' खत्म हो गया है।
मित्रो ! आज हमको अनीति दिखाई पड़ती है। साठ माल की उम्र में क्या कर रहा है? गुरुजी ! हमारे तो साढ़े सात नंबर का चश्मा चढ़ गया है और वह खो गया है। तो अब आपको दिखाई नहीं पड़ता? हाँ गुरुजी! हमें दिखाई नहीं पड़ता। अच्छा तो अभी के फायदे के पीछे आप अपने भविष्य का सत्यानाश करने पर उतारू हैं। भविष्य को देखिए, बुढ़ापे को देखिए, परलोक को देखिए, मृत्यु को देखिए और जन्म-जन्मांतर को देखिए। क्या आगे वाली चीजें नहीं देख सकते? नहीं साहब ! हमको दिखाई नहीं पड़ती। तो आप शंकर जी की भक्ति कीजिए और उनसे वरदान माँगिए कि आपने जो अपना विवेक का तीसरा नेत्र खोला हुआ था, वह हमारा भी खोल दीजिए।
मस्तिष्क का संतुलन किसे कहते हैं? जिसमें आदमी ऐसे भी और वैसे भी अर्थात् दोनों परिस्थितियों में 'बैलेंस' कायम रख सकता है। साइकिल सवार को अपना 'बैलेंस' कायम रखना पड़ता है। बैलेंस गँवा देगा तो इधर गिरेगा या उधर गिरेगा और हाथ-पैर तुड़वा बैठेगा। अत: साइकिल चलाते समय बैलेंस बनाकर चलते हैं। किसी भी कार्य में अगर हम संतुलन कायम नहीं रख सकते, तो सफलता नहीं मिल सकती। यहाँ तक कि हम खुशी में भी संतुलन नहीं कायम नहीं रख पाते तो हम पागल हो जाते हैं और व्यसन तथा व्यभिचार की ओर मुड़ जाते हैं। जब हम गरीब होते हैं तो चोरी करने पर विवश हो जाते हैं। हमारा 'बैलेंस' यों भी खराब हो जाता है और यों भी खराब हो जाता है।
मित्रो ! 'बैलेंस' रखने वाली बत्ती का नाम है—मस्तिष्क। मस्तिष्क पर चंद्रमा होने का मतलब है—ज्ञान की गंगा, अमृत की धारा का प्रवाहित होना। ज्ञान की धाराएँ, अमृत की धाराएँ प्रवाहित होते रहने से मतलब है, हमारा मस्तिष्क स्वयं ज्ञान से भरा रहे और अपने श्रेष्ठ विचारों से सारे समाज में ज्ञान की गंगा बहाते चलें।
शंकर भगवान् भूत-प्रेतों के साथ प्रेम करने वाले हैं। भूत-प्रेतों के हाल सुधारने के लिए खड़े होने वाले, पापी एवं पतित लोगों को सहारा देने वाले, ऊँचा उठाने वाले ही सच्चे अर्थों में शिवभक्त कहे जा सकते हैं। बाबा आम्टे की तरह से जिन्होंने कोढ़ियों का विद्यालय शुरू किया और अब वहाँ नागपुर के पास उनका विश्वविद्यालय भी बन चुका है। अभी-अभी अख़बार में छपा है, उनकी फोटो भी छपी है, जिसकी कटिंग भी मैंने रखी है। टी. वी. पर भी देखा है। उन्होंने सारी जिंदगी पीड़ितों के लिए, पतितों के लिए, कोढ़ियों के लिए खरच कर दी। अंधों के लिए, गूँगों के लिए, बहरों के लिए उन्होंने एक आश्रम बनाया, जहाँ उनका प्रशिक्षण होता है और उनमें से समाजसेवी निकलकर बाहर आते हैं। ऐसा है उनका विश्वविद्यालय। ये हमारी वो वृत्ति है, जिसका ज्ञान की गंगा के रूप में प्रवाहित होना स्वभाव है। ये वृत्तियाँ देववृत्तियों के रूप में, देवताओं के रूप में हमारे भीतर विद्यमान हैं। उन्हें विकसित करने के लिए, उभारने के लिए ही देव-पूजन की पंचोपचार प्रक्रिया अपनाई
(क्रमशः अगले अंक में)
मित्रो! देवता कौन हो सकता है? देवता वह होता है, जो देता है, दूसरों को श्रेष्ठ बनाता है। देवता वह नहीं है, जो आप रंग-बिरंगे खिलौने बनाकर लाते हैं। ये किसकी मूर्ति बनाकर लाए? भैरव जी की बनाकर लाए। भैरव जी का मुँह ऐसा क्यों है? अरे साहब! इनका मुँह तो ऐसा ही है। अच्छा ये देवी जी जीभ क्यों निकालती हैं? ये तो काट खाएँगी। अरे साहब! ये तो बकरा खाएँगी। धत् तेरे की! अगर ये बकरा काटने वाली हैं, तो जो हमारे पड़ोस में कसाई रहता है, उसमें और इसमें क्या फरक है? नहीं साहब! ये तो देवी जी हैं। माँस तो ये भी खाती हैं और वो कसाई भी खाता है, तभी तो मैं इसे कसाई कह रहा हूँ। नहीं साहब! ये कसाई नहीं, देवी है। नहीं बेटे, ऐसी देवी नहीं हो सकती, जो बकरा खाती हो।
सच्चा अध्यात्म क्या कहता है
इसलिए मित्रो। जो आपने रंग-बिरंगे, चित्र-विचित्र खिलौने बनाकर रखे हैं और उन रंग-बिरंगे खिलौनों से अगर आप ये ख्याल करते हैं कि ये देवी हमारा यह भला करेगी, हमारी अमुक मनोकामना पूरी करेगी, तो हम देवी को ये मिठाई खिलाएँगे, मालपुए खिलाएँगे, तो यह आपकी खामख्याली है। अगर आप ऐसे काम नहीं करना चाहते, तो वहाँ आइए, जहाँ सच्चा अध्यात्म आपकी प्रकृति का उद्धार करता है, आपको आत्मदर्शन कराता है। वहाँ आइए जहाँ अध्यात्म आपके दिमाग की सफाई करता है और यह कहता है कि देववृत्तियाँ, श्रेष्ठ वृत्तियाँ जो संयम के ऊपर टिकी हुई हैं और लोकमंगल के ऊपर टिकी हुई हैं, उनको दो हिस्सों में बाँट सकते हैं। सारी-की देवियों और सारे-के देवताओं को दो भागों में बाँट सकते हैं। एक वर्ग देवी-देवताओं का वह है, जो हमारे व्यक्तिगत जीवन पर छाए रहते हैं, जो हमको संयमशील बनाते हैं, श्रमनिष्ठ बनाते हैं, परिष्कृत व्यक्तित्व वाला बनाते हैं, भावनाशील बनाते हैं, संस्कारवान बनाते हैं, साहसी बनाते हैं, इत्यादि। वे हमारे व्यक्तिगत जीवन में सद्गुणों का समावेश करते हैं।
दूसरा वर्ग देवताओं का वह है, जो हमारे व्यवहार को समाज के प्रति उदार बनाता है, उदात्त बनाता है। दूसरों की सेवा करने के लिए, पीड़ा-पतन निवारण करने के लिए, दूसरों को ज्ञान देने और ऊँचा उठाने के लिए, दूसरों को परामर्श देने के लिए हमें प्रेरित करता है। इस तरह हम देवी देवताओं को दो वर्गों में बाँट सकते हैं। इनमें से एक वे हैं जो हमारे व्यक्तित्व-परिष्कार के लिए खड़े हुए हैं और दूसरे वे हैं जो उदारता के ऊपर खड़े हुए हैं। ऊपरी तौर से देखने पर वे दो वर्गों में विभक्त दिखते भर हैं, पर वास्तव में वे दोनों हैं एक ही भाग। क्योंकि जब हम अपने आपको श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं तो हमको बाहर की मदद लेनी पड़ती है। जब हम तैरने की इच्छा करते हैं, तो हमको तालाब में प्रवेश करना पड़ता है। तालाब में प्रवेश किए बिना आपको तैरना नहीं आ सकता। आपको अपना श्रेष्ठ व्यक्तित्व बनाने के लिए लोकव्यवहार को विनम्र, सुशील और सेवाभावी बनाना आवश्यक है। लोकमंगल के लिए, अपना व्यक्तित्व श्रेष्ठ बनाने के लिए, सेवा के लिए, दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने के लिए अगर हम तैयार न हों, तो हम अपना व्यक्तिगत जीवन अच्छा बना ही नहीं सकते। वास्तव में यह वर्गीकरण मैंने आपकी सुविधा के लिए और जानकारी के लिए इसलिए किया है, ताकि आप दोनों को आसानी से समझ सकें, अन्यथा वो दोनों एक ही हैं।
मित्रो! देवता के लिए अनुदान देना, देवता के लिए अनुदान प्रस्तुत करना—यही देवोपचार का उद्देश्य है। आप कहीं भी मंदिर में जाते हैं, तो कुछ-न वहाँ चढ़ाते हैं। कुछ भी नहीं है, तो भी 'पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम्' तो चढ़ाते ही हैं। इसलिए आप यह बात ध्यान रखना कि जब किसी भी देवता के यहाँ जाएँ, तो कुछ भी न मिले तो तुलसी का एक पत्ता जरूर ले जाना। तुलसी का पत्ता न हो तो आप फूल जरूर ले जाना। फूल या पत्ता भी न हो तो ताँबे का एक नया पैसा, एल्युमीनियम-गिलेट का एक पाँच पैसे का सिक्का ही डाल देना। महाराज जी! अगर नहीं डालें तो? तो बेटे देवता नाराज हो जाएँगे और शाप दे देंगे। पंडित जी के यहाँ पत्रा दिखाने जाते हैं, अगर खाली हाथ जाएँगे, तो आपको शाप पड़ेगा। राहु भी नाराज हो जाएगा, चंद्रमा भी नाराज हो जाएगा। पंडित जी! पत्रा देखकर बताइए कि हमारे ग्रह कैसे हैं? ला, पहले पत्रा का पूजन तो कर। अरे पंडित जी! हम तो खाली हाथ आ गए। बेटा खाली हाथ नहीं आते। देवता के सामने खाली हाथ नहीं जाते। देवता के सामने, गुरुजी के पास आते हैं, तो कुछ-न लेकर आते हैं । फूल लाते हैं, केला लाते हैं। नहीं, महाराज जी! हम तो ऐसे ही चले आए। नहीं, बेटे ऐसे नहीं आना चाहिए। कुछ भी लाया कर। फल-फूल कुछ भी लाया कर। हाँ गुरुजी! फूल लाया था। बस, तो ठीक है, काम बन जाएगा। काम बन गया।
देने वाले ही देवता
मित्रो! देने वाले को देवता कहते हैं और देवपूजन के लिए आदमी को देने वाला व्यक्ति बनना पड़ता है, लेने वाला नहीं। देवता किसी से लिया नहीं करते, हर एक की मदद करते हैं। आपको भी देवता की मदद करनी चाहिए। देवता का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए ही देवपूजन किया जाता है। देवपूजन की शिक्षाएँ हैं कि हम अपने जीवन में देवत्व का समावेश करें। हम पशु जीवन से ऊँचे उठे, मनुष्य जीवन से ऊँचे उठें और दैवी जीवन में प्रवेश करें। दैवी वृत्तियों का आह्वान करें और पशु प्रवृत्तियों का विसर्जन करें। हमारे जीवन में चारों ओर से पशु छाया हुआ है, इंद्रियों पर पशु छाया हुआ है। हर जगह पशु-प्रवृत्तियाँ छाई हुई हैं। पशु कौन है, जो अपने आप तक सीमित है। पशु में एक ही खराबी है कि वह केवल अपने आप तक सीमित रहता है। वह न समाज की सोचता है, न अपने वर्ग की सोचता है, न देश की सोचता है, न वृत्तियों की सोचता है। केवल अपने पेट की सोचता रहता है और अपनों की सोचता रहता है। इसीलिए तो हम पशु की निंदा करते हैं।
मित्रो! अभी आप वास्तव में नरक के पशु जैसा जीवन जी रहे हैं। अगर कोई आपकी जिंदगी का विश्लेषण करे कि आप क्या हैं, तो जो निष्कर्ष आएगा उसे देखकर आप हैरान रह जाएँगे। चलिए, हम आपको लैबोरेटरी में ले चलते हैं। हम लैब में विश्लेषण करने के पश्चात् जो आपकी पैथोलॉजिकल रिपोर्ट तैयार करेंगे, उसमें हम आपको यह 'डिक्लेयर' अर्थात् घोषित कर सकते हैं। बताइए साहब! यह किसकी हड्डी है? ये तो साहब कुत्ते की हड्डी है। नहीं साहब! ये मनुष्य की हड्डी है। मनुष्य की हड्डी कैसे हो सकती है? यह कौन बताएगा? यह बात डॉक्टर अपनी प्रयोगशाला में बताएगा। इसी तरह हम अपनी, प्रयोगशाला में ले जाकर कह सकते हैं कि अभी आप इनसान नहीं बन पाए, न देवता बनने की हिम्मत ही जुट रही। अभी आप पशु का जीवन जी रहे हैं। पशु का जीवन, स्वार्थी जीवन, चालाक जीवन, कामनाओं से भरा हुआ जीवन, वासनाओं से भरा हुआ जीवन, तृष्णाओं से भरा हुआ जीवन जी रहे हैं।
मित्रो! अब क्या होना चाहिए? अब हमारा जीवन एक ही दिशा में बढ़ना चाहिए, देवत्व की दिशा में देवत्व की दिशा में बढ़ें, तो क्या हो सकता है? तब बेटे! हमारा देवपूजन का उद्देश्य पूरा हो सकता है। हम आपको देवपूजन की सारी प्रक्रियाएँ केवल इस मकसद से सिखाते हैं कि आपके भीतर देने की वृत्ति हो जाए, उदारता की वृत्ति पैदा हो जाए, श्रेष्ठता की वृत्ति पैदा हो जाए और आप देवता बनने की कोशिश करें।
देवता व मनुष्य में अंतर
देवता में क्या विशेषता होती है? देवता और मनुष्य में क्या फरक होता है? देवता खाते तो रहते हैं, पर पखाना नहीं करते। हनुमान जी को चाहे जितना खाना खिला दो-रोटी खिला दो और दूसरे दिन देखो, कहीं मल विसर्जित किया हुआ नहीं मिलेगा। देवता की एक पहचान तो यही है। देवता अगर मल विसर्जन कर दे तो समझना चाहिए कि वह देवता नहीं है। दूसरी पहचान देवता की यह है कि वे कभी बूढ़े नहीं होते। देवता सदैव जवान रहते हैं। अच्छा बताइए कि भगवान् रामचंद्र जी का ऐसा फोटो क्या किसी ने देखा है, जिसमें उनके दाँत उखड़ गए हों और बाल सफेद हो गए हों? आपने देखा है? नहीं साहब! हमने तो नहीं देखा। अच्छा तो कृष्ण भगवान् का देखा होगा? कृष्ण भगवान् की जब मृत्यु हुई थी तब वे एक सौ पच्चीस वर्ष की उम्र के थे। मैं आप से पूछता हूँ कि एक सौ पच्चीस वर्ष की उम्र के व्यक्ति के चेहरे पर झुरीं आई होंगी कि नहीं? हाँ, महाराज जी! जरूर आई होंगी। बाल सफेद हुए होंगे या काले? सफेद हुए होंगे। अच्छा, एकाध दाँत उखड़ा होगा या नहीं? हाँ साहब! जरूर उखड़ा होगा। अच्छा, कृष्ण भगवान् का एक फोटो हमको दिखाइए। बताइए यह फोटो बुढ़ापे का है या जवानी का। नहीं साहब! यह बुढ़ापे का नहीं है, जवानी का है। जवानी किसमें रहती है? देवता में रहती है। देवता जवान होता है। देवता अगर बूढ़े होने लग जाएँ, तो समझना चाहिए कि ये सब बेकार हैं। देवताओं के चेहरे भरे हुए होते हैं। देवता वह होते हैं जिनके चेहरे पर जवानी छाई रहती है, उमंगें छाई रहती हैं, उत्साह छाया रहता है, जीवट छाया रहता है। देवता की पूजा करने के लिए आपकी मनःस्थिति उसी तरह की होनी चाहिए।
ईमानदारी की बात यह है कि देवी-देवताओं की जितनी भी छवियाँ हैं, वास्तव में ये सब मॉडल हैं। हमको क्या बनना है, इस लक्ष्य को पाने के लिए हम उसी के अनुरूप देवता अर्थात् मॉडल चुनते हैं। जैसे ताजमहल बनाने के लिए पहले मॉडल बना दिया गया था कि मीनार कितनी बड़ी बनेगी, गेट कैसे बनेगा, अमुक चीज कैसी बनेगी आदि। कागज पर बने नक्शे से उतना साफ नहीं हो पाता, इसलिए हमेशा बहुत बढ़िया इमारतों के लिए 'मॉडल' बनाकर रखते हैं। इसी तरह यदि हम राम की खूबियाँ धारण करना चाहते हैं, तो राम की मूर्ति सामने रखते हैं। हम कृष्ण की उपासना इसलिए करना चाहते हैं कि हम कृष्ण जैसे बनना चाहते हैं। कृष्ण भगवान् की खुशामद और चापलूसी करने से क्या हो सकता है? बेटे तू बता तो सही कि कृष्ण जी अपनी खुशामद करने वाले को, चापलूसी करने वाले को या किसी चमचे को अपना चमचा बनाना चाहते हैं क्या? असली यही बात है ना? हाँ गुरुजी! हम तो भगवान् का चमचा बनना चाहते हैं। बेटे! चमचे तो उनके होते हैं, किनके? वेश्याओं के, नेताओं के और राजाओं के, जो कहते हैं कि अरे साहब! आपकी सात पीढ़ियों ने बड़े-बड़े शेर मारे हैं। पाँच साल बाद आया हूँ, एक शाल तो लूँगा ही। अच्छा ले जा चारण।
मित्रो! आप क्या बनना चाहते हैं? चारण बनना चाहते हैं या चमचे बनना चाहते हैं? क्या आप वेश्याओं के पीछे चमचे बनकर फिरना चाहते हैं? अरे साहब! इनके क्या कहने? इन्होंने तो वहाँ गाया था, नाचा था, बड़े गजब का था। ये श्रीकृष्ण भगवान् हैं। देखिए, इनके मुकुट और इनके ये रेशमी कपड़े और बाजूबन्द और देखिए इनकी गायें। देखिए इनकी बाँसुरी। क्या बनना चाहते हैं आप श्रीकृष्ण भगवान् के चमचे। बेटे! चमचा बनने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। आपको देवता बनने के लिए उन वृत्तियों को 'मॉडल' के रूप में ग्रहण करना पड़ेगा और अपने आपको ढालने की तैयारी करनी पड़ेगी। आप रामचंद्र जी के उपासक हैं, तो रामचंद्र जी बनने की तैयारी कीजिए। कृष्णचन्द्र जी बनना चाहते हैं, तो आप कृष्णचन्द्र जी बनने की तैयारी कीजिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
आप हनुमान जी बनना चाहते हैं न? हाँ गुरुजी, हमारे इष्ट तो हनुमान जी हैं, तो आप हनुमान जी बनिए, हमें क्या शिकायत है। नहीं साहब! हनुमान जी तो हम नहीं बनना चाहते। रहेंगे तो हम वही, जैसे पहले थे और पूजा करेंगे हनुमान जी की। चलेंगे पश्चिम को और देखेंगे पूरब को। वाह बेटे! खोज कर रहा है पूरब की और चलेगा पश्चिम की ओर। अरे! इष्ट का मतलब तो लक्ष्य है। हम क्या बनना चाहते हैं? हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? आखिर हम क्या बनेंगे? अगर हम यह तय कर लें, तो मित्रो! हमारे भीतर देवता की हस्ती पैदा हो सकती है। देवताओं की संज्ञा में तब आप खड़े होंगे, जब आपके शरीर में से गंदगी पैदा न होती हो। देवता पखाना नहीं करते। उनको पसीना भी नहीं आता। इसको कहते हैं देवता। वे पेशाब भी नहीं करते। अच्छा पानी तो पीते होंगे। हाँ बेटे ! शंकर जी को तू पानी चढ़ा सकता है। कितना पानी चढ़ा दूँ? सामर्थ्य भर खूब पानी चढ़ा दे। महाराज जी! शंकर जी इतना पानी पिएँगे तो फिर पेशाब तो करेंगे ही। नहीं बेटे ! शंकर जी पानी पीते रहते हैं, खाना खाते रहते हैं हमारी भावनाओं के रूप में, श्रद्धा के रूप में और हमारे जीवन की दुष्ट प्रवृत्तियों, पाप आदि का निष्कासन करते रहते हैं, ताकि दुष्कर बलाएँ न आएँ।
देव-पूजन किसलिए
देवता को इसलिए इष्ट मानते हैं, देवता का पूजन इसलिए करते हैं, देवता की आराधना इसलिए करते हैं कि हमारी देववृत्तियाँ विकसित होती हुई चली जाएँ। देवता की आराधना हम इसलिए करते हैं कि हमारा देवत्व निराशा न लाए। देवत्व कभी निराशा नहीं ला सकता। देवत्व की ओर चलने वाला व्यक्ति निराश नहीं हो सकता। सफलता नहीं मिली, न सही, अगले जन्म में मिलेगी। देवत्व की ओर बढ़ने वाले में क्या ताकत आ गई कि वह कहता है कि अभी नहीं तो अगले जन्म में मिल जाएगी। देवता कभी अपने सत्प्रयत्नों की ओर से निराश नहीं पाया जा सकता। निराशा माने बुढ़ापा। बुढ़ापा किसे कहते हैं, निराशा को। बुढ़ापा क्या होता है, निराशा । बेटे ! शरीर का तो यह धर्म ही है कि वह बूढ़ा होने वाला है। वह बूढ़ा होगा ही, लेकिन शरीर के बूढ़े होने से कोई फरक नहीं पड़ता।
जिन दिनों जर्मनी ने इंग्लैण्ड के ऊपर हमले किए थे और इंग्लैण्ड के जीवन-मरण का प्रश्न था, उन दिनों वहाँ का प्रधानमंत्री चर्चिल इतना बूढ़ा हो गया था कि वह पार्लियामेण्ट की मेज़ पर वहाँ बैठकर काम नहीं कर सकता था। उसके लिए एक चारपाई बिछा दी गई थी और पार्लियामेण्ट के मेंबर और दूसरे मिनिस्टर उसके दायें-बायें बैठते थे और वह करवट लेकर बात करता था, चलता था तो छड़ी लेकर चलता था, बूढ़ा इतना हो गया था कि काम नहीं कर सकता था, लेकिन उसने सारे इंग्लैण्ड को आश्वासन दिलाया, "हमारे पास खून है और हमारे पास पसीना है। इसलिए इस बड़ी-से मुसीबत को बर्दाश्त करेंगे। इंग्लैण्ड को कोई गुलाम नहीं बना सकता। आप लोग खून पसीना बहाने के लिए तैयार हो जाइए। मैं आपकी आजादी की सुरक्षा करने की गारण्टी देता हूँ।" उसने ये वचन तब कहे जब सारे इंग्लैण्ड के ऊपर जर्मनी का हमला हो रहा था। वह खड़ा हो गया। उसने कहा, "हम जिंदा हैं, इसलिए आप में से हर एक को जिंदा रखेंगे, इंग्लैण्ड को जिंदा रखेंगे। इंग्लैण्ड के किसी नागरिक को डरने की आवश्यकता नहीं है।"
मित्रो! ये कौन लोग थे? इनको जवान आदमी कहते हैं। आज जब कम उम्र के व्यक्ति जरा-जरा बात पर निराशा की बात करते हैं, निराशा की बात कहते हैं और ये कहते हैं कि साहब! हम तो इम्तिहान में फेल हो गए, हमारा भविष्य अंधकारमय हो गया। अब तो हम कुतुबमीनार से कूदकर मरेंगे। रेलगाड़ी से कटकर मरेंगे। उस तरह की जब कोई खबर हमारे पास आती है कि अरे साहब! कोई लड़का था, मर गया, बड़े दुःख की बात है। मैं कहता हूँ कि बेटे! तू एक गलती सुधार। तू यह मत कह कि एक लड़का मर गया। तो क्या कहूँ? यों कह कि एक बुड्ढा व्यक्ति मर गया। बुड्ढा कैसे? वह तो लड़का था। नहीं बेटे, वह बुड्ढा था। बुड्ढा आदमी वह है जिसकी उम्मीदें खत्म हो गईं, जीवन खत्म हो गया, जोश खत्म हो गया, उमंगें खत्म हो गईं, आशाएँ खत्म हो गईं, वह आदमी बूढ़ा है। ऐसा आदमी थक जाता है। जो आदमी हार जाता है, जिस आदमी ने हिम्मत गँवा दी, जिस आदमी ने अपने उज्ज्वल भविष्य के सपने गँवा दिए, वह आदमी बूढ़ा हो गया।
साथियो! देवता बूढ़े नहीं हो सकते। देवपूजन के माध्यम से हम देवताओं की आराधना करते हैं, देववृत्तियों की आराधना करते हैं। जब हम शंकर जी की आराधना करते हैं, संघशक्ति की देवी दुर्गा की आराधना करते हैं, पूर्णपुरुष कृष्ण भगवान् की आराधना करते हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम की आराधना करते हैं, भक्त शिरोमणि हनुमान की आराधना करते हैं, तो इस माध्यम से उनकी जो श्रेष्ठ वृत्तियाँ हैं, उनको अपने अंदर धारण करते हैं। नहीं साहब! हनुमान जी हमें रुपया-पैसा दे जाएँ, हमारा ब्याह करा दें। हनुमान जी बेटा दे जाएँ। बेटे! ऐसे कैसे हो सकता है? जिसके यहाँ जो होगा, वही तो देगा। जो चीज है ही नहीं, तो वह कैसे दे देगा? जब हनुमान जी का ब्याह हुआ नहीं, उसके बच्चा हुआ ही नहीं, तो बेटा कैसे दे जाएँगे आपको? गुरुजी हम बीमार हैं, इंजेक्शन लगा दीजिए। बेटे! हम कैसे लगा देंगे। नहीं गुरुजी! आप तो महात्मा हैं, एक इंजेक्शन तो हमारे लगा ही दें। अच्छा आप इंजेक्शन नहीं लगा सकते, तो हमारा दाँत हिलता है, उसे ही उखाड़ दें। बेटे, हमसे तेरा दाँत भी नहीं उखड़ेगा। फिर आप किस बात के गुरु हैं? गुरु हैं तो बेटा हम ज्ञान देंगे, रामायण पढ़ा देंगे, गीता पढ़ा देंगे और दूसरे पाठ पढ़ा देंगे। नहीं साहब! आप तो हमारा दाँत उखाड़ ही दीजिए। बेटे हम कैसे उखाड़ सकते हैं? हमको स्वयं ही नहीं आता। यह क्या है? पागलपन है, अज्ञानता है।
देवताओं के वरदान—सत्प्रवृत्तियाँ
मित्रो! देवता दैवी शक्तियों से भरे हुए, दिव्यतत्त्वों से भरे हुए, दिव्य विचारणाओं से भरे हुए, दिव्य भावनाओं से भरे हुए होते हैं। देवता अगर किसी को वरदान देंगे तो वे मानवता का वरदान देंगे, सद्गुणों का वरदान देंगे, श्रेष्ठता का वरदान देंगे, सत्प्रवृत्तियों का वरदान देंगे। ये सद्गुण और सत्प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं, जिनको हम 'ट्रेवलर्स चेक' कह सकते हैं। इस हुंडी को आप कहीं भी भुना लीजिए। सत्प्रवृत्तियों को लेकर के आप बाजार में जाइए और यह कहिए कि हम महात्मा गाँधी हैं और हम महात्मा हैं और हमारे महात्मा की कीमत लाइए। जनता आपके ऊपर नोट बरसाना शुरू कर देगी और जब आप मरेंगे तो सौ करोड़ रुपये का आपका स्मारक बना देगी। ये हुंडी है महानता की। आप नहीं खाते तो कोई हर्ज की बात नहीं, आप खिला सकते हैं। ठीक है, हम अपने इस्तेमाल में खरच नहीं कर सकते, लेकिन हम चाहें तो किसी को भी फायदा पहुँचा सकते हैं। चाणक्य ने असंख्यों को फायदा पहुँचाया। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को धनी बना दिया। महात्माओं के वरदान और आशीर्वाद से न जाने क्या-क्या हुए। वे स्वयं लँगोटी पहनते थे, तो कोई हर्ज की बात नहीं थी। देवत्व जब मनुष्य के भीतर आता है, तो महानता के रूप में आता है और महानता वह हुंडी है, जो नरसी मेहता की तरह से हर एक के ऊपर बरस सकती है।
मित्रो! आध्यात्मिकता वो हुंडी है, देवत्व वह हुंडी है और मानवता वह हुंडी है, जिसको भुनाने के लिए सुदामा की तरह से आप कभी भी भगवान् के बैंक में जा सकते हैं और अपना पैसा वसूल कर सकते हैं। अगर आपको भौतिक चीजों की जरूरत पड़ जाए, तो भी इससे आप खरीद सकते हैं, लेकिन मैं समझता हूँ कि उसको अपने आपकी संपदा इतनी महान् मालूम पड़ती है कि भौतिक वस्तुओं को इकट्ठा करने में कोई आनंद नहीं आता। इसलिए जिसको देवत्व का रस मालूम पड़ जाता है, वह उन चीजों को जो नाशवान् हैं, जो कल नहीं रहने वाली हैं, जो केवल चमकदार मालूम पड़ती हैं, वास्तव में वे चमकदार नहीं हैं, बाहर से वे मृगतृष्णा की तरह मालूम पड़ती हैं और आनंद का कारण नहीं बन सकतीं। ऐसा व्यक्ति जानता है कि भौतिकता हमारे आनंद का कारण नहीं बन सकती, औलाद हमारे आनंद का कारण नहीं बन सकती, वैभव, आर्थिक उन्नति हमारे आनंद का कारण नहीं बन सकती। बेटे! यह सब मालूम पड़ता है, महसूस होता है, पर असलियत में है नहीं। यदि होता, तो संपन्न आदमी, बेटे वाले आदमी, पैसे वाले आदमी, ताकतवर आदमी—सबके सब ये कहते कि हम तो अपने जीवन में धन्य हुए। हम इस जीवन में सुखयापन करते हैं। ।
महानता सबसे बड़ा वरदान
मित्रो! देवत्व वह संपत्ति है जो हमारे जीवन के साथ जुड़ी रहती है और जन्म-जन्मांतरों तक साथ जा सकती है। भौतिक संपत्ति को तो कोई चोर भी ले जा सकता है, अमुक भी ले जा सकता है, इन्कम टैक्स वाला भी ले जाता है और मरने के बाद हमारा बेटा, पोता ले जाता है, लेकिन जो हमारे जीवन को हर क्षण आनंद से सराबोर रखती है, और लोक-परलोक तक हमारे साथ चली जाती है, उस दैवी शक्ति, दैवी विभूति, दैवी संपदा का नाम है, 'महानता'। महानता देना देवता का काम है। कोई देवता अगर प्रसन्न होगा तो क्या पैसे देगा? नहीं। तो पैसे के स्थान पर 'चेक' देगा, बैंक ड्राफ्ट भेज देगा? मित्रो! ध्यान रखना—देवता आपको पैसा नहीं देगा। उसका चेक, ड्राफ्ट महानता है। देवता महानता दिया करते हैं। महानता की कीमत पर आदमी संपदाएँ कमा सकता है, यश कमा सकता है, वैभव कमा सकता है।
इसलिए देवपूजन में हम अपनी उन वृत्तियों का विकास करते हैं, जो जीवन का लक्ष्य निर्धारित करते हैं। देवपूजन के माध्यम से हम आत्मशोधन का प्रयास करते हैं। ये हमारे प्रत्येक क्रियाकलाप के माध्यम हैं। आत्मशोधन स्वर्णजयंती वर्ष का भी माध्यम है। अगर आप स्वर्णजयंती वर्ष और दूसरी किसी अन्य उपासना में संलग्न होना चाहते हैं, तो आपको किसी-न रूप में देवपूजन करना पड़ेगा। हिंदू हैं तो भी करना पड़ेगा, निराकारवादी हैं, तो भी करना पड़ेगा। मुसलमान हैं, तो धूपबत्ती जलानी पड़ेगी। ईसाई हैं तो भी आपको मोमबत्ती जलानी पड़ेगी, फूल चढ़ाना पड़ेगा। देवता के सामने श्रद्धांजलि अर्पित करनी पड़ेगी, मस्तक झुकाना पड़ेगा, सिर झुकाना पड़ेगा, श्रद्धा व्यक्त करनी पड़ेगी। देवता के सामने श्रद्धा की अभिव्यक्ति का नाम देवपूजन है।
आत्मशोधन का अर्थ है, अपने आपकी सफाई, अपनी शारीरिक सफाई, मानसिक सफाई, आर्थिक सफाई, व्यवहार की सफाई, पैसे की सफाई, शारीरिक क्रियाओं की सफाई, मानसिक विचारों की सफाई, अगर आप ये सब सफाइयाँ कर सकते हों, तो मैं यकीन दिलाता हूँ कि अध्यात्म के जो पुण्य बताए गए हैं, सिद्धियाँ बताई गई हैं, चमत्कार बताए गए हैं, देवता की कृपा बताई गई है, भगवान् का साक्षात्कार बताया गया है। जो कुछ भी आपने उसके माहात्म्य सुने हैं, वे सौ फीसदी सही हैं और जरूर मिल सकते हैं। मैं फिर कहता हूँ कि नकद धर्म के रूप में वे इसी जन्म में मिल सकते हैं। गवाही के रूप में मैं हमेशा अपने आपको पेश करता रहा हूँ। मैंने सही अध्यात्म पाया है और साथ में सही परिणाम भी। मैं चाहता हूँ कि आप सही अध्यात्म ग्रहण करें, देवपूजन का उद्देश्य समझें, आत्मशोधन का उद्देश्य समझें और नींव भर लें, जिसके ऊपर एक विशालकाय महल बनाया जा सकता है। आज मैंने नींव भरने की प्रक्रिया आपको बताई कि आप किस तरीके से आत्मशोधन और देवपूजन इन दो प्रक्रियाओं के माध्यम से अपने व्यक्तित्व के निर्माण की, अध्यात्म और योगाभ्यास की नींव भर सकते हैं। मैं आपको महल बनाने की विधि आगे कभी बताऊँगा कि आप खिड़की कैसे लगा सकते हैं, किवाड़ कैसे लगा सकते हैं, छत कैसे डाल सकते हैं और शीशे कैसे लगा सकते हैं इस महल में, जिसको आप बनाना चाहते हैं, आत्म उन्नति का मकान । आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥