उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
एक विद्यार्थी अच्छे नम्बरों से पास कर गया। आगे चलकर उसे अच्छी नौकरी मिल गई। इसका मतलब आप क्या समझते हैं? यह किस कारण से हुआ? यह उसकी मशक्कत एवं उसके पुरुषार्थ से सम्भव हुआ। पुरुषार्थ नहीं करता एवं किताबों पर ध्यान नहीं देता, तो पास हो सकता था? नहीं, वह कभी भी पास नहीं हो सकता था। अगर कोई देहात में पैदा हुआ होता, खानदान वाले शिक्षा का महत्त्व नहीं जानते; वहाँ स्कूल आदि न होता, तो आदमी कैसे पढ़ सकता था? अक्ल अगर पैनी न होती तो? जन्म से ही पागल होता तब? क्या वह मशक्कत या पुरुषार्थ से पास हो सकता था? कदापि नहीं। चाहे वह कितना भी परिश्रम कर लेता, वह सफल नहीं हो सकता था। उसका भाग्य ठीक नहीं था। भाग्य किसे कहते हैं? जो जीवन से सम्बन्ध रखता है। पुरुषार्थ किसे कहते हैं? जो हाथ-पाँव से सम्बन्ध रखता है। दिलचस्पी से काम करने का नाम पुरुषार्थ है। इसके साथ ही भाग्य भी होना चाहिए। भाग्य न हो तो मनुष्य का काम कैसे चलेगा? फसल के लिए जमीन न हो, तो कैसे काम चलेगा? आदमी का व्यक्तित्व न हो, तो कैसे काम चलेगा? बच्चा जो गंदा होता है, उसे कोई गोदी में लेना नहीं चाहता है। अच्छा सुन्दर बच्चा सब कोई ले लेता है। उसे सब प्यार करते हैं। भाग्य जन्मजात परिस्थितियाँ होता है। जन्म से बुद्धि, परिस्थितियाँ भी साथ आती हैं।
मित्रो! एक चीज और है, जिसके द्वारा मनुष्य सफलता प्राप्त करता है। उसका नाम अनुदान है। एक खाते-पीते बाप ने अपन बच्चों के लिए फीस दीं, उसके पढ़ने के लिए व्यवस्था बनायी। ट्युशन के लिए अच्छी-से व्यवस्था की, जिसके द्वारा लड़का अच्छे नम्बरों से पास कर जाता है। इसका क्या नाम है? बेटे! इसका नाम है—‘अनुदान’। अनुदान किसे कहते हैं? मित्रो! आदमी का भाग्य एवं आदमी की मेहनत के अलावा जो चीज मिल जाती है, उसका नाम है—‘अनुदान’। अगर आदमी को अनुदान न मिले, तो आदमी की प्रगति रुक जाती है।
लालबहादुर शास्त्री के पिताजी का देहान्त हो गया। उनकी माताजी चार बच्चों को लेकर अपने मायके चली आईं। बाप केवल बीस रुपये के प्राइमरी स्कूल के मास्टर थे। जहाँ शादी हुई थी, वहाँ कोई नहीं था। बाप के लिए बड़े संकट का समय था। उनके भी चार बच्चे थे। स्वयं दो व्यक्ति थे। बेटी तथा उसके चार बच्चे थे। आठ बच्चे हो गये। उसी में गुजारा करने लगे। आगे चलकर वे लालबहादुर शास्त्री बन गये। जब लालबहादुर शास्त्री बड़े हो गये तथा गाँव में प्राइमरी स्कूल से पास कर गये, तो उन्होंने कहा नानाजी हमें आगे पढ़ा दीजिए। हम पढ़ेंगे, मशक्कत करेंगे, हमें पढ़ा दीजिए। नानाजी ने कहा—बेटे! हमें 30 रुपये मिलते हैं। हर आदमी के हिस्से में केवल ढाई रुपये आते हैं। इसमें चाहो, तो तुम पढ़ सकते हो। वे पुरुषार्थी थे। ढाई रुपये लेकर चल पड़े। इलाहाबाद जा पहुँचे। ढाई रुपये में से दो रुपये में गुजारा करने लगे। 50 पैसे में यानि आठ आने में किताबें खरीदकर पढ़ने लगे। एक रुपये का आटा ले आते थे। जंगल में से लकड़ी चुनकर ले आते थे तथा किसी प्रकार अपना जीवनयापन करके उन्होंने पढ़ाई कायम रखी तथा प्रगति के पथ पर बढ़ते चले गए। मित्रो! इसे क्या कहते हैं? बेटे! इसे पुरुषार्थ कहते हैं, इसे भाग्य कहते हैं।
एक बार घर जाने का समय आ गया। उस समय लोग एक पैसा में नाव से गंगाजी को पार कर लिया करते थे। लालबहादुर के पास एक पैसा नहीं था कि वे गंगाजी को पार कर सकें। वे गंगाजी को तैरकर पार किए तथा अपने घर पहुँच गए। मित्रो! यह था—पुरुषार्थ! यह था भाग्य! उन्होंने दुनिया के सामने हाथ नहीं पसारा तथा भीख नहीं माँगी। पुरुषार्थ तथा जोखिम भरे साहस के साथ गंगाजी को पार कर गये। यह मैं भाग्य की बात, पुरुषार्थ की बात कह रहा था। ढाई रुपये में वे पुरुषार्थ करते हुए पढ़-लिख लिए तथा भारत के प्रधानमंत्री बन गए।
मित्रो! यह क्या बात कर रहे हैं? यह बात अनुदान की कर रहे हैं। अनुदान क्या है? यह महत्त्वपूर्ण चीज है। काँग्रेस के अन्दर जवाहर लाल नेहरू को एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो कर्तव्यपरायण हो, मेहनती हो, पुरुषार्थी हो, ईमानदार हो, अपने कार्य के प्रति वफादार हो। उन्होंने पूरे काँग्रेस पार्टी के ऊपर निगाह डाली तथा चिन्तन किया। उन्हें एक ही व्यक्ति उसमें दिखाई पड़ा, जिसका नाम लालबहादुर था। लालबहादुर को वे साथ ले गए तथा उन्होंने कहा कि तुम हमारे साथ काम करो। हमें तुम्हारे जैसा व्यक्ति चाहिए। लालबहादुर, नेहरू जी के साथ चले गए। उनके साथ काम करने लगे। उनकी कार्यशैली, परिश्रम, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता तथा उनके व्यक्तित्व से नेहरू जी प्रभावित होते चले गए। आदमी के व्यक्तित्व का एक वजन तथा तौल होता है। अगर आपका व्यक्तित्व वजनदार होता, तो आप एक महान आदमी होते। जिनके अन्दर ये चीजें नहीं होती हैं, वे इस संसार में मारे-मारे फिरते हैं तथा कोई भी उनको पूछता नहीं है। जिनका वजन तथा व्यक्तित्व होता है, उनकी सब जगह कद्र होती है। आदमी के लिए काम न जाने कितना है? परन्तु उनका वजन, व्यक्तित्व है या नहीं—यह लोग देखते हैं। लालबहादुर शास्त्री के अन्दर ये चीजें थीं; वे उठते चले गए।
नेहरू को सरकार बनाने तथा चुनाव लड़ने का मौका मिला। नेहरू ने शास्त्री को बुलाया और यह कहा कि यह फार्म है, इस पर हस्ताक्षर कर दीजिए। लालबहादुर ने पूछा कि यह कैसा फार्म है? यह तो एम.एल.ए. का फार्म है। अरे! इसमें तो ढाई सौ रुपये लगते हैं हमारे पास तो पैसे नहीं हैं। इसके प्रचार-प्रसार में ढेरों पैसे लगते हैं। हमारे पास तो पैसे नहीं हैं। नहीं, यह काम हमारे लिए सम्भव नहीं है। आप कृपया हमें क्षमा कीजिए।
हमें वोट कौन देगा? हमारी तो किसी से भी जान-पहचान नहीं हैं। हमें कौन वोट देगा? उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री से कहा—आप केवल साइन कर दीजिए। बाकी काम हम कर देंगे। नेहरू जी ने लालबहादुर शास्त्री के लिए पर्चे छपवाए, गाँव-गाँव गए तथा लोगों से कहा कि आप वोट हमको दें तथा पर्ची आप लाल बहादुर शास्त्री की पेटी में डालें। यह दोनों बातें एक ही हैं। इस प्रकार जनता ने वैसा ही किया तथा वे एम.एल.ए. बन गए। उसके बाद नेहरू के इशारे पर वे उत्तरप्रदेश के मिनिस्टर बन गए। मित्रो! इसे क्या कहते हैं? इसे कहते हैं—अनुदान। जिससे आदमी अपने व्यक्तित्व एवं वजन के सहारे बढ़ता चला जाता है।
नेहरू ने जब केन्द्रीय सरकार की स्थापना की, तो उन्होंने लालबहादुर शास्त्री को बुलाया और कहा कि आप सबसे ईमानदार एवं योग्य व्यक्ति हैं। आपको रेलवे की मिनिस्टरी देखनी होगी। जब नेहरू मरणासन्न हुए, तो लोगों ने पूछा कि आपके मरने के बाद इस गद्दी पर किसे बैठाया जाए? तो उन्होंने अपनी उँगली से लालबहादुर शास्त्री की ओर इंगित किया और ये कहा कि यह बहुत ही ईमानदार तथा वजनदार आदमी हैं। यह हिन्दुस्तान को ठीक तरह से चला सकते हैं। अतः आप मेरे मरने के बाद हिन्दुस्तान का प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को बनाना। उनके मरने के बाद उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया गया।
मित्रो! यह क्या कह रहा हूँ? यह अनुदान की बात कर रहा हूँ। यह अनुदान किसे कहते हैं? किसी समर्थ सत्ता द्वारा कुछ लोगों को दिए जाते हैं। कुछ लोग कौन होते हैं? हमको मिलेंगे? आपको भी मिल सकते हैं, नहीं भी मिल सकते हैं। तो क्या यह बँट रहे हैं? नहीं, अनुदान बँटते नहीं हैं। क्या चीजें बँटती हैं? जो साधारण हैं। अनुदान की गणना साधारण वस्तु में नहीं, असाधारण में होती है। इन्हें ठोक-बजाकर दिये जाते हैं यह भारी-भरकम लोगों को दिये जाते हैं। यह कौन-सा शिविर है? यह अनुदान शिविर है। आपमें से जो इसमें भारी-भरकम लोग हैं, उनको अनुदान मिलेंगे। उनको इतनी वजनदार चीजें देंगे कि वह निहाल हो जाएँगे अगर हाथी का वजन गधे पर रख दिया जाएगा, तो उसकी कमर टूट जाएगी। आपमें से जो हाथी जैसे भारी-भरकम होंगे उन्हें हम सोने के गुब्बारे देंगे। हम आपको सोने के गुब्बारे देने वाले हैं, ताकि आप निहाल हो जाएँ। हाथी की जिस तरह पूजा होती है, हम आपका भी पूजन करेंगे।
हम हरेक व्यक्ति को अनुदान नहीं देते हैं। तो महाराज जी! आप उन्हें क्या देते हैं? उन्हें हम आशीर्वाद देते हैं तथा वरदान देते हैं। अनुदान नहीं देते हैं। अनुदान, आशीर्वाद, वरदान—ये अलग-अलग चीजें हैं। छोटी क्वालिटी की चीजें केवल छोटे लोगों को सामान्य लोगों को मिलती हैं। बड़ी क्वालिटी की चीजें सिर्फ व्यक्तित्व वालों को ही मिल सकती हैं, हर एक को नहीं।
आशीर्वाद किसे कहते हैं? दुःखियारों के लिए मुसीबतें झेलने वालों को जो चीजें दी जाती हैं, उन्हें आशीर्वाद कहते हैं। यह सहायता के रूप में दिये जाते हैं। यह छोटों को दिये जाते हैं। यह दुःख-मुसीबतों में फँसे लोगों के लिए हैं। आपने देखा होगा कि कोई आदमी, औरत, लड़का गंगाजी में बहता हुआ चला जाता है, तो किनारे पर खड़े लोग चिल्लाते हैं कि देखो! बचाओ यह बहता हुआ चला जा रहा है। इसे बचाओ! कुछ आदमी नदी में, गंगा में कूद जाते हैं तथा उसे बचा लाते हैं। यह क्यों किया? क्या उसके रिश्तेदार थे? नहीं मित्रो! यह इनसान का नेचर है। इनसान के अन्दर एक इनसान दिल होता है। जिसे ‘करुणा’ कहते हैं; जो मनुष्य में जाग्रत हो जाता है। बच्चे जब माँ के पेट में रहते हैं, तो इनसान के भीतर जो कसक है, वह काम करती है तथा उसका पोषण माँ करती है। आज दया, करुणा न हो, तो मानव प्रगति कैसे करे। बाढ़ आ जाती है, भूकम्प आ जाता है, महामारी फैल जाती है—ऐसे समय इनसान के अन्दर दया, करुणा उमड़ पड़ती है तथा वे सहायता के लिए दौड़ पड़ते हैं। कोई दुर्घटना हो जाती है, तो लोग अपना काम हर्ज करके, अपनी ड्यूटी छोड़कर घर से खाना लेकर दौड़ पड़ते हैं। दूसरा क्या कारण है?। इसका क्या कारण है? उसका अन्तराल उसे बेचैन कर देता है तथा वह भाग पड़ता है। अपनी करुणा एवं दया लेकर समाज के बीच सेवा करने हेतु। यह मनुष्य का स्वभाव है; क्योंकि मनुष्य सामाजिक प्राणी है।
आप तो हर कार्य में लाभ, मुनाफे की बात करते थे। आप इस कार्य में कैसे चले गए? मुर्दे को जलाने, दुर्घटना में सहायता करने आप कैसे चले गए? आपको हैजा हो जाता, आपको छूत की बीमारी हो जाती, तो क्या होता? आपकी माँ ने कहा कि न जाओ, आपकी बीबी ने कहा कि न जाइये। जब दोनों मना कर रहे थे, तो आप कैसे सहायता करने पहुँचे? हर एक के मना करने, शरीर के नुकसान होने पर आप कैसे चले गए? यह कैसे हो गया? आपके मन ने बेचैन कर दिया। दूसरे शब्दों में हमारे भगवान ने बेचैन कर दिया। दूसरे शब्दों में हमारे भगवान ने बेचैन कर दिया तथा हम सेवा के लिए आगे बढ़ गए और उसमें जुट गए। पाँच साल की बहिन को सात साल वाली बहिन उलटी-सीधी लेकर चल देती है। वह टट्टी फिराती है तथा उलटा-सीधा जो भी मिलता है, उसे खिलाने का प्रयास करती है। उसे जिन्दा रखती है। उसका ख्याल रखती है। यह क्या है मित्रो! यह है—आशीर्वाद। जो दुःखियारों के लिए मुसीबतों में पड़े लोगों के लिए दिया जाता है।
अगर आपकी गाड़ी चलते-चलते रास्ते में खराब हो जाती है, कीचड़ में फँस जाती है, तो आस-पास खेतों में काम कर रहे किसान भाग खड़े होते हैं तथा उनकी मदद करते हैं, उनकी गाड़ी कीचड़ से निकाल देते हैं। इनसान के भीतर बैठा भगवान सहायता हेतु दौड़ पड़ता है। इसे क्या कहते हैं? आशीर्वाद। आशीर्वाद संत देते हैं? हाँ, संत देते हैं। वास्तव में यह संतों का काम है। अगर संत न दें, तो उनकी परम्परा समाप्त हो जाएगी। आपके पास सम्मान है और आप नहीं देंगे, तो आप कंजूस कहलाएँगे तथा आपका विकास रुक जाएगा। नदी बहती है। वह देती जाती है, तो आगे विकास होता है। तालाब देना नहीं जानता है तो वह सड़ता रहता है। आपके पास बाल्टी में पानी है और आप पानी नहीं पिलाना चाहते हैं, तो क्या होगा, जानते हैं? आपसे नेचर नाराज हो जाएगी। आप बाँटने के लिए आगे नहीं आएँगे, तो आप ख्याल रखना, आपके हाथों से सारी शक्तियाँ छीन ली जाएँगी। नेचर हमेशा देती रहती है। पेड़ अपना फूल-फल सारे समाज को देता है। नेचर कहती है कि आप बाँटेंगे नहीं, तो हम आपको नहीं देंगे। इसी प्रकार भगवान ने इनसान को इसलिए बनाया है कि वह दूसरे की सहायता करें, उसके विकास में सहयोग करें। अगर वह ऐसा करने से पीछे हटता है, तो उसे भगवान से कुछ भी नहीं मिलेगा। वह इक्कड़ ही रह जाएगा। आशीर्वाद—यह इनसान को कर्तव्य है। इसे हर आदमी को पूरा करना चाहिए। आप तो अभी सन्तों की, अध्यात्म की बात कर रहे थे और बतला रहे थे कि यह उनका कार्य है। नहीं, यह इनसान का कर्तव्य है। उसे इस फर्ज को पूरा करना चाहिए। सन्त का कर्तव्य है कि वह दूसरों के दुःखों को दूर करे। सन्त इनसान से थोड़ा ऊँचे लोगों का नाम होता है उसमें यह माद्दा अधिक होता है। उसकी प्रवृत्ति मिल-जुलकर खाना, बाँटकर खाना होती है। अपनी सुविधाओं को बाँट देना, दूसरे की मुसीबतों को दूर कर देना—यह सन्त का कर्तव्य है।
यह अनुदान सत्र है। आशीर्वाद सत्र हमारी जिन्दगी भर चलते हैं। हमने जबसे यह कार्य प्रारम्भ किया है, आशीर्वाद सत्र हमेशा चलाया है आगे भी चलते रहेंगे। हमने बेटे! पानी पिलाने से कभी भी लोगों को मना नहीं किया है। हमारी संत-प्रवृत्ति हमारे साथ पैदा हुई है। हम दो भाई हैं, जो एक-साथ अपनी माँ के पेट से पैदा हुए हैं। वह कौन भाई है? मित्रो! वह हमारा संत भाई है। वह कहाँ रहता है? वह हमारे पेट में रहता है। वह संत हमारी अक्ल में, भावना में रहते हैं। आपको मालूम नहीं है। हमारा जन्म-स्थान बरहन स्टेशन आगरा के पास है। उस समय तीन-चार पैसेन्जर ट्रेनें दिन में आती थीं। रात को तो पता नहीं। हम लोग तीन-चार बच्चे वहाँ पहुँच जाते थे तथा कुएँ में से ताजा पानी निकालकर हमेशा उन यात्रियों को पिलाते थे। हम भाग-भाग कर पानी पिलाते थे। उस समय हमारे पास पैसा तो था नहीं; परन्तु हमें इतनी खुशी होती थी कि हमने प्यासों को पानी पिलाया, हमने श्रम किया। हमें इतनी खुशी होती थी कि हम उसका वर्णन नहीं कर सकते हैं। उस जायके को चखने के बाद वह जायका मेरे ऊपर ऐसा चढ़ा, मित्रो! ऐसा चढ़ा कि हम कह नहीं सकते हैं। उसे भाँग का नशा, शराब का नशा, चरस का, अफीम का नशा कुछ भी कह लें आप, वह इस दिन से चढ़ता चला गया और आज तक चल रहा है। आज कोई नशा हमसे छुड़वाना चाहे, तो हम नहीं छोड़ सकते। इसका क्या नाम है? इसका नाम आशीर्वाद है। हमने शुरू से ही यह दिया है तथा आगे भी देते रहेंगे तो क्यों साहब! आप घाटे में नहीं रहे? नहीं, हमने अपना पुण्य-तप लोगों को बाँटते रहे हैं। किसी तरह यह घाटे का सौदा नहीं है।
हम तो हमेशा यह बाँटते रहे हैं। घाटे की पूर्ति हो जाती है। हम दूसरों को अपने तप का अंश देते हैं; दुःखियों को दुःख दूर करने में, उनके आँखों के आँसू पोंछने में लगा देते हैं। तो क्यों साहब! आप घाटे में रहते होंगे? आप क्या बात करते हैं? आप हमारी चिट्ठियों को देख लेना, कितनी आती हैं। हमने ईमानदारी के साथ लोगों के कष्टों को दूर कि या है। हमारे पास एक हजार चिट्ठियाँ आती हैं, उसमें से नौ सौ चिट्ठियाँ केवल दुःख एवं मुसीबतों की होती हैं। उन्हें हम दूर करते हैं। उनके आँखों के आँसू को पोंछते हैं। सौ चिट्ठियाँ ही शाखाओं की होती हैं, शक्तिपीठों की होती हैं। बाकी सारे-के पत्र पीड़ितों, पतितों के होते हैं।
कल कैलीफोर्निया से एक लड़की आई थी। उसे किसी ने कह दिया कि आप गुरुजी के पास मथुरा में चले जाओ। उनके दरवाजे से कोई खाली हाथ नहीं जाता है। वह कैलीफोर्निया में एक अस्पताल में काम करती थी। उसका पति भी वहाँ कहीं काम करता था। उसके छाती में कैंसर हुआ। एक छाती काटकर निकाल दी गयी। दूसरा कैन्सर भी उसकी पीठ में हुआ। उसे भी काट दिया गया। तीसरा कैन्सर उसके नितम्ब में हुआ। चौथा वाला कैन्सर उसके सिर के पिछले भाग में हुआ। उसने कहा-गुरुजी हमें चार बार कैन्सर हो चुका है। हमें कुत्ते की मौत मरना पड़ रहा है। हमारे बच्चे भी हैं। आप हमारी मदद कर सकते हो; तो कृपया मदद करें। हमारी मौत हमेशा सामने खड़ी रहती है। हमने कहा कि बेटी! हम तुम्हारी अवश्य मदद करेंगे। तुम्हारे कैन्सर को ठीक करेंगे। तुम यकीन रखो। तुमको अवश्य अच्छा करेंगे। और वह आगे चलकर अच्छी हो गई। इसे क्या कहते हैं? इसे आशीर्वाद कहते हैं। यह दुःखियारों के लिए, पीड़ितों के लिए दिया जाता है। जब तक हम जिन्दा रहेंगे, यह दरवाजा बन्द नहीं करेंगे। हमारा दरवाजा सबके लिए खुला हुआ है। हम बीमारों को अच्छा करेंगे, उसकी पट्टी बाँधेंगे। हम अपनी जिम्मेदारी अवश्य उठायेंगे। डॉक्टर यह नहीं देखता है कि आदमी डकैत है या शरीफ। वह उसकी गोलियों को निकाल देता है; उसे अच्छा कर देता है। हम जल्लाद नहीं हैं। हमने आशीर्वाद की परम्परा, सन्त की परम्परा प्रारम्भ की है; उसे किसी भी हालत में बन्द नहीं कर सकते हैं। यह आदमी का फर्ज है। सन्त का काम इससे ज्यादा है। हमारा फर्ज ज्यादा है। हम इसे कायम रखेंगे। यह शिविर आशीर्वादों का नहीं है। वह तो हमेशा चलती रही है और हमारी साँसों के अन्तिम दिन तक चलता रहेगा। इससे हमें खुशी होती है।
राजा कर्ण घायल पड़े थे। कृष्ण भगवान ने सोचा कि वह हमारे सबसे प्यारा भक्त है। इसका नाम अजर-अमर बनाना चाहिए। वे अर्जुन के पास पहुँचे। उन्होंने कहा—चलो अर्जुन सन्त के रूप में उसके पास पहुँचते हैं तथा उससे कुछ माँगते हैं। वे पहुँच गए। उन्होंने यानि कर्ण ने कहा—हमारे दरवाजे से कोई सन्त वापस नहीं लौटा है। आज मैं मरने के लिए पड़ा हूँ। आज हमारे पास कुछ नहीं—यह कैसी विडम्बना है? हे भगवान! हम क्या करें? आप बतलाएँ। उसने सोचा कि हमारे दो दाँतों में सोने की कीलें लगी हुई हैं। उसने एक पत्थर उठाया और दोनों दाँतों को तोड़ लिये। एक अर्जुन के हाथ में तथा एक भगवान श्रीकृष्ण के हाथों में रख दिया।
इस संसार में अगर इनसानियत जिन्दा है तो यह नीति-परम्परा जिन्दा है तथा भविष्य में भी यह परम्परा जिन्दा रहनी चाहिए। संत इसका मार्गदर्शन करते हैं। हमने इसे अपनाया है। अगर भगवान ने आपको कुछ दिया है, तो आप हमेशा से पिछड़े लोगों के लिए, दुःखियारों के लिए, जिनके मुसीबतें हैं, उनके लिए आपको त्याग करना चाहिए। इसे इनसानियत की शर्त कहते हैं। आप चाहें तो इसका नाम आशीर्वाद भी दे सकते हैं।
मित्रो! एक दूसरा हिस्सा है, जिसका नाम है—‘वरदान’। वरदान क्या होता है? उन्नतिशील लोगों को प्रगतिशील लोगों के आगे बढ़ने के लिए यह दिया जाता है। आपने देखा है? स्कूलों द्वारा विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति दी जाती है। अरे साहब! हमें भी दीजिए। क्यों आपको देंगे? आप तो तीन साल से क्लास में फेल कर रहे हैं। हम तो क्लास में फर्स्ट होने वालों को देंगे। आपको नहीं देंगे। छात्रवृत्ति इसलिए दी जाती है, ताकि वह किताबों को खरीद सके तथा अच्छी पढ़ाई करे एवं समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करे।
समाज में एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बन पाए तथा समाज की सेवा करे। इस उद्देश्य से छात्रवृत्ति दी जाती है। लड़का गरीब नहीं होता है, वह तो परिश्रमी लड़के को दी जाती है। लड़के को ईनाम दिया है, वह चाहे पच्चीस पैसे, पचास पैसे का हो। हमने अपनी जिन्दगी भर वरदान दिया है। कोई आता है, वह कहता है—गुरुजी मेरे रास्ते बन्द हैं। गुरुजी आप कुछ करें। हम पूछते हैं कि तेरे रास्ते बन्द होने का क्या कारण है? इनसान के रास्ते कभी बन्द नहीं हुए हैं। ब्रूस यूरोप के एक राजा का नाम था, जो तेरह बार लड़ाइयाँ में हार खाता रहा। तेरहवीं बार हार खाने के बाद वह एक गुफा में चला गया। वहाँ एक मकड़ी थी। बारह बार वह गुफा की छत तक पहुँचने में असफल रही। तेरहवीं बार फिर उसने प्रयास किया। इस बार वह सफल हो गई। राजा ब्रूस ने समझ लिया। अरे! मकड़ी ने हमें सिखा दिया। इसके बाद उसने पुनः आक्रमण किया और लड़ाई जीत ली। वह सफल हो गया। अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति हुए। वे हर बार चुनाव में असफल हो जाते; परन्तु अन्त में सफल हो गए।
आदमी जब असफल हो जाता है, तो उसके कलेजे को बढ़ाना चाहिए, उसकी हिम्मत को बढ़ाना चाहिए। जो परेशान आदमी आता है, उसकी हिम्मत-साहस को बढ़ाना चाहिए। अगर नौकरी न मिले, तो चाय-पकौड़े बनाकर अपना गुजारा कर लें। तुम्हें इसमें भी चालीस रुपये मिल जाएँगे। अरे! तू हमारे पास काम कर ले, यहाँ भी तुझे ढाई सौ रुपये मिल जाएँगे। हिम्मत मत हारो। मैं हर आदमी को उत्साहित, प्रोत्साहित करता रहता हूँ। एक आदमी विदेश का, अमेरिका का दिवालिया हो गया। उसने सोचा कि अब हमें मर जाना चाहिए, आत्महत्या कर लेनी चाहिए। उसने समुद्र में डूबकर आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया। उस समय आत्महत्या के पूर्व उसके हाथ एक पुस्तक लग गई। उसने सोचा कि इसमें अवश्य कुछ पद्धति बतलायी होगी। कुछ खाने की बात, कुछ करने की बात बतलायी होगी। उस पुस्तक से उस व्यक्ति मे इतना जोश, इतनी हिम्मत जाग्रत हो गई कि उसने आत्महत्या करने की बात छोड़ दी। उस व्यक्ति के अन्दर एक महत्त्वपूर्ण विचार आया कि जिस आदमी की पुस्तक ने हमें आत्महत्या से रोक दिया, उस व्यक्ति के पास अवश्य ही कुछ विचार होंगे, जिससे हमारी उन्नति, प्रगति हो सके। वह उस लेखक के पास पहुँच गया। उसने कहा कि आपने हमारी जान बचा दी। अब आप हमें ऐसा रास्ता बता दीजिए, जिससे हमारी मुसीबत दूर हो जाए; हमें प्रगति का रास्ता मिल जाए; हमारा दिवालियापन समाप्त हो जाए। उसने कहा कि आप हमारी सहायता कर दीजिए। लेखक ने कहा कि हम लेखक हैं। हम आपकी और कुछ भी सहायता नहीं कर सकते। हमने आपको विचार दे दिया है। इससे ज्यादा और नहीं कर सकते हम! वह जाने लगा। लेखक ने उसे बुलाया और कहा कि हम तो आपकी मदद नहीं कर सके; परन्तु हमारा एक दोस्त है, वह शायद आपकी मदद कर सकता है। आप चाहें तो उससे मिल लें। वह बराबर वाले कमरे में रहता है। अभी वह तैयार बैठा है। आप अभी उससे मिल लीजिए। वह उसमें गया, देखा एक कमरा था खाली। उसमें एक बहुत बड़ा शीशा लगा था। शीशे के ऊपर एक कपड़ा लगा था। उसके सामने एक कुर्सी पड़ी थी। उसने कुर्सी पर बैठा दिया। सामने पड़ा कपड़ा हटा दिया। कुर्सी पर बैठे उस व्यक्ति का चेहरा सामने वाले शीशे में दिखलाई पड़ा। उसने कहा कि अगर यह मदद कर दे, तो आप सब कुछ कर सकते हैं। यह किसकी बात करते हैं? अपने आप की। अगर अपनी सेवा-प्रगति आप स्वयं करने लगें, तो आप मालदार हो सकते हैं। उसने अपनी हिम्मत बढ़ा ली तथा फिर से व्यापार करना शुरू किया। वह अमेरिका का पुनः बड़ा आदमी बन गया। उसकी सारी समस्याओं का हल हो गया। यह क्या बतला रहा हूँ? यह साहस एवं हिम्मत की बात बतला रहा हूँ। यह कहानी इसलिये सुनाता हूँ कि हमारी सामर्थ्य लोगों को वरदान देने की रही हो अथवा न रही हो; हमने हर आदमी को आगे-आगे बढ़ने हेतु साधन अथवा धन दिये हों अथवा न दिये हों; परन्तु हर आदमी के भीतर करेज, हौंसले, हिम्मत को बुलन्द किया है। हौंसला किसी का टूटने नहीं दिया है।
फ्रांस का एक सेनापति था। वह लड़ाई में हार गया। उसने देखा कि शायद हमारा कोर्टमार्शल हो जाएगा; हम मारे जाएँगे; हमें सम्भवतः नहीं छोड़ा जायेगा वह घर भाग आया और सोचा अपनी बीबी से, बच्चों से मिल लूँ। कल तो मारे ही जाएँगे वह घर आया और अपनी बीबी से कहा कि बहुत बुरी खबर है। क्या खबर है? उसकी बीबी ने पूछा। उसने कहा कि हम हार गए हैं। शायद हमारा कोर्टमार्शल हो। बीबी ने कहा—आप हार गए हैं—यह तो बुरी खबर है; परन्तु उससे भी बुरी खबर यह है कि आपकी हिम्मत पस्त हो गई है। लड़ाई हारने-जीतने से कुछ नहीं होता है। आप अपनी हिम्मत तथा साहस मत टूटने दीजिए। आप उसे बुलन्द रखिये। सेनापति ने अपनी बीबी की बात मानकर अपनी हिम्मत, साहस जाग्रत कर लिया और लड़ाई में पुनः जीत हासिल कर ली।
मित्रो! हमने भी किसी आदमी की हिम्मत, साहस टूटने नहीं दिया है। उसके हौंसले, हमने हमेशा बुलन्द किये हैं। जो थका, हारा, परेशान आया है, उसे हमने प्रोत्साहित किया है। हम जब अखण्ड ज्योति कार्यालय में रहते थे, तो शहर के आठ-दस गरीब बच्चे हमारे पास आते थे। हम उन्हें अपने चौके में खिलाते थे, पढ़ाते थे। भगवान ने हमें घी तो दिया नहीं; परन्तु रूखी रोटी तथा दाल हमने भी खायी है तथा लोगों को खिलायी है। हमने दर्जनों बच्चों को खिलाया है तथा उसे पढ़ाकर बी.ए.एम.ए. कर दिया है।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को पाँच सौ रुपये रुपये तनख्वाह मिलती थी। चार सौ पचास रुपये सेवा-कार्य में खर्च करते थे तथा पचास रुपये में घर का खर्च चलाते थे। वे किताबें, कापियाँ सबको देते थे। हजारों गरीब बच्चे यह समझते थे कि ईश्वरचन्द्र जी का घर हमारा है। हजारों उन्नतिशील बच्चे उनसे सहायता पाकर आगे बढ़ते रहे। इस सहायता से क्या नाम है? इसे ‘वरदान ’ कहते हैं।
हम वरदान देते रहेंगे। जो हिम्मती हैं, साहसी हैं, उन्हें हमने छाती से लगाया है तथा हमेशा आगे बढ़ाया है हमने जिन्दगी को व्यायामशाला बनाया है। इसमें लोगों को दौड़ना सिखाया है, चलना सिखाया है। तो क्या यह वरदान सत्र है? नहीं मित्रो! यह वरदान सत्र नहीं है। वरदान के लिए सत्र की क्या आवश्यकता है? वरदान माँगने तो लोग यहाँ चले आते हैं तथा प्राप्त कर लेते हैं। आशीर्वाद का सिलसिला तो जब से हमने होश सँभाला है तथा जब तक ये साँस रहेगी, चलता रहेगा। वरदान देकर अगर किसी को ऊँचा उठाने की आवश्यकता पड़ती है, तो हमसे रहा नहीं जाता है। यह क्या है? यह हमारा अन्दर वाला सन्त है; यह हमारा महामानव है, जिसको रहा नहीं जाता है। महामानव उसे कहते हैं, जो स्वयं नहीं बढ़ता है, दूसरों को बढ़ा देता है। महात्मा गाँधी एक महामानव थे, जिन्होंने पटेल को, नेहरू को, शास्त्री जी को, राजेन्द्र बाबू को आगे बढ़ाया; जाकिर हुसैन, राधाकृष्णन को बढ़ाया। स्वयं बादशाह नहीं बने, ढेरों को बादशाह बना दिया। यह गाँधी जी की वरदान देने की शक्ति थी। इसी प्रकार वरदान एवं आशीर्वाद मेरा स्वभाव है। वरदान, आशीर्वाद के लिए हम शिविर नहीं लगाते हैं। यह तो हमारा स्वभाव है। हम माने महामानव तथा संत की प्रवृत्ति। वह संत क्या! जो दूसरों की मुसीबत देखकर सहायता न कर सके। वह महामानव क्या! जो स्वयं आगे बढ़े तथा दूसरों को आगे न बढ़ावे। हमारे अन्दर भी संत, महामानव का निवास है, जो यह कहते हैं कि स्वयं ही बढ़िए मत, दूसरों को भी बढ़ाने का प्रयास कीजिए। हमने भी हमेशा दूसरों का आगे बढ़ाया है। जो मुसीबतों के मारे हैं, हमने हमेशा उनकी सहायता की है। दोनों काम हम जो करते हैं, वह हर इनसान को करने चाहिए। महामानव भी इनसान को कहते हैं, संत भी इनसान को ही कहते हैं।
यह ऋषि का, देवताओं का अनुदान सत्र है। देवता कीमती चीजें देते हैं। दैवी सहायता यानि अनुदान जिसके लिए हमने शिविर बुलाया है। अनुदान किसे कहते हैं? यह मैं समझाता हूँ। आपकी शादी हो गई है? हाँ गुरुजी, शादी हो गई है, बहू कितनी पढ़ी-लिखी है? गुरुजी, बी.ए. पास है तो आपने उसे कितने मूल्य में खरीदा है? आप बकरी, गाय खरीदते हैं, तो उसका मोल-भाव होता है। आपने बीबी को कितने में मोल लिया है? नहीं साहब, हमने खरीदा नहीं है तो उसे क्या फोकट में पाया? हाँ, साहब यही ‘अनुदान’ कहलाता है। आपने फोकट में बीबी पाई, कुछ जेवर भी पाये, ग्यारह हजार दहेज में मिला, मिठाई भी मिली। सब फोकट में ले आए। इसे क्या कहते हैं? यह है अनुदान। भाई साहब! आपने बहुत कलेजे का काम किया। आपने लड़की को खिला-पिलाकर बड़ा किया। उसे पच्चीस हजार खर्च करके पढ़ाया-लिखाया, सिलाई-कढ़ाई सिखाया और आपने पढ़ाया-लिखाया, सिलाई-कढ़ाई सिखाया और आपने फोकट में दिया। हमने फोकट में इसलिए दे दिया गुरुजी कि उसकी सेहत ठीक है; वह बारह सौ रुपये महीना कमाता है; उसके पास बाप-दादों की जमीन-जायदाद है। इस लड़के के साथ मेरी लड़की का विवाह हो जाएगा, तो मेरी लड़की घर की मालकिन हो जाएगी। अच्छा! यह बात! वह सौ रुपये की रूखी रोटी खाएगा और ग्यारह सौ रुपये हमारी बेटी के हाथ पर रखेगा। अच्छा यह चक्कर है! हम समझ नहीं रहे थे।
मित्रो! अनुदान एक परम्परा है। किसी ने बेटी आपको दी है। आपकी बेटी भी दूसरी जगह जाती है। यह फोकट का मामला नहीं है। यह मामला दैवी-शक्ति का है, जो सहायता करती रहती है। इस काम के लिए उसका एक विशेष उद्देश्य होता है, जिसमें यह देखा जाता है कि आदमी में पात्रता है या नहीं। जो दिया जाना है, वह भारी-भरकम चीज है; उसके लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि वह सुपात्र है या नहीं। इस समय कलेक्टर की नियुक्ति होने वाली है दस व्यक्तियों को नियुक्त किया जाना है। गुरुजी! हमें भी लगा दीजिए, एम.एल.ए. से कह दीजिए। अरे! आपने कितना पढ़ा है? हमने दसवीं पास की है, तो हम कैसे लगा सकते हैं? बेटे! इसके लिए आई.सी.एस., पी.सी.एस पास करनी पड़ती है। मेडिकल फिटनेस का सर्टीफिकेट भी नहीं है? नहीं, वह भी नहीं है तो भाईसाहब, हम कैसे नियुक्त करा सकते हैं? इसी प्रकार अनुदान के लिए शर्त है। उसके लिए सुपात्र होना चाहिए। इनसान को आशीर्वाद वरदान, अनुदान सभी दिये जाते हैं; पर दैवी-अनुदान के लिए पात्रता जरूरी है। दूसरी बात यह है कि आपको जो चीज दी जा रही है, उसका आप क्या उपयोग करेंगे? आपको लड़की मिल जाए और आप ले जाकर उसे वेश्या बना दें, तो लड़की का बाप आएगा, केस करेगा तथा दंगा-फसाद करके लड़की ले जाएगा। आपको जिस काम के लिए घर की सेवा, देख−भाल, पारिवारिक उन्नति के लिए लड़की दी गई है, वह उसी काम को करेगी। नहीं, साहब, हम जो चाहेंगे करवायेंगे, आपकी मनमानी नहीं चलेगी। अरे साहब! हम फिर दूसरी शादी करेंगे। ऐसा नहीं हो सकता है। अनुदान पात्रों को दिये जाते हैं। वह किसी मकसद के लिए, उद्देश्य के लिए दिये जाते हैं। आपको कलेक्टर बनाया गया है। आपको बंगला, चपरासी, जीप, पहरेदार दिये गये हैं। हाँ साहब, दिये गये हैं। मित्रो! वह एक विशेष व्यवस्था, देख−भाल के लिए सरकार द्वारा दी जाती है। ऐसे ही अनुदान के साथ कुछ प्रतिबन्ध लगे हैं। आपको चपरासी घर के काम के लिए नहीं मिला है। आपको जीप किराये पर टैक्सी के रूप में चलाने हेतु नहीं मिला है। आप चाहे जो भी काम चाहे जब नहीं कर सकते है। अनुदान के लिये यह दो शर्तें हैं। अगर आप इसके लिए तैयार हैं, तो हम आपको दिला सकते हैं।
अनुदान एक महान चीज है। मनुष्य जो अपने भाग्य से, अपने पुरुषार्थ से नहीं पा सकता है, वह अनुदान के द्वारा प्राप्त कर सकता है। कैसे? जानते हैं आप? हनुमान जी का किस्सा सुना है न! वे सुग्रीव के यहाँ नौकरी करते थे। बाली के डर के मारे वह छिप गए। दोनों सुग्रीव एवं हनुमान भाग गए; लेकिन जब वे भगवान राम के साथ जुड़े, तो समुद्र को लाँघ गये। मित्रो! आज छलाँग का सारे विश्व का 100 गज का रिकार्ड है। पर्वत को उठाकर लाए। रेल के डिब्बे को क्रेन उठाते हैं। वे क्रेन नहीं थे फिर भी उन्होंने उठा लिया था। वे लंका तक तक भागते हुए चले गए। एक लाख पूत सवा लाख नाती लंका में रहते थे। इसके अतिरिक्त सैनिक भी थे। हनुमान जी अकेले वहाँ चले गए। उन्हें किसी ने गिरफ्तार नहीं किया। उनका साहस, उनकी हिम्मत के सामने सारे योद्धा पस्त हो गये। यह अनुदान की बात कहते हैं। अनुदान में दोहरी ताकत हो जाती है। आप इसकी ताकत नहीं जानते हैं? समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को अनुदान देकर महान बना दिया। चन्द्रगुप्त को चाणक्य ने अनुदान देकर महान बना दिया। वह दासी का लड़का था; परन्तु अनुदान पाकर बृहत् हिन्दुस्तान का मालिक बन गया। यह क्या चन्द्रगुप्त की ताकत थी? वह ताकत चाणक्य की थी, जिसने अपने दिव्य अनुदानों से चन्द्रगुप्त को बृहत् भारत का शासक बना दिया। गुरुजी आप नई बात करें। विवेकानन्द, बहुत छोटे आदमी थे। उनके पिता जी का स्वर्गवास हो गया। वे रामकृष्ण परमहंस के पास गए। उसे उन्होंने माँ काली के मंदिर में भेज दिया। वहाँ जाकर माँ का विराट् रूप देखकर विवेकानन्द ने कहा, माँ मुझे शक्ति दो, भक्ति दो, शान्ति दो। माँ ने सारी चीजें दे दीं। वह धन्य हो गए। वे शानदार विवेकानन्द हो गए। रामकृष्ण परमहंस ने सारी-की शक्ति उन्हें दे दी। यह क्या है? अनुदान! अनुदान!! जिसे पाकर विवेकानन्द महान बन गए। उन्होंने जमशेद जी टाटा को टाटा के एक निर्दिष्ट ग्राम में फैक्टरी लगाने का आदेश देकर उन्हें धन्य कर दिया। वहाँ कोयला, पानी, लोहा तीनों चीजें मिलने लगीं। टाटा साहब धन्य हो गए। यह क्या था? उनके दिव्य चक्षु की शक्ति? नहीं, मित्रो! यह था उनका अनुदान, जो शिष्य को गुरु से मिला था। कभी आपने टाटा नगर देखा है? आप जाकर देखें; वह बहुत ही सुन्दर ढंग से बसा है।
विवेकानन्द जब विदेश गए तो उसका खर्चा अन्यों ने उठाया। रामकृष्ण मिशन का बेलूर मठ लाखों-करोड़ों का बनाया। सारे विश्व में रामकृष्ण मिशन फैला। यह क्या है? आशीर्वाद? वरदान? नहीं, अनुदान विवेकानन्द को रामकृष्ण परमहंस ने दिया था। आप जानते नहीं? विवेकानन्द के मरने के बाद भी ऐसा स्मारक लोगों ने कन्याकुमारी में बनाया। रॉक मेमोरियल। कभी आप देखें, तो आप उनके अनुदानों का अन्दाज लगा सकते हैं। क्या स्मारक बना है। करोड़ों का बना है। रामकृष्ण मिशन के अस्पताल सारी दुनिया में बने हैं। यह क्या है? अनुदान वह पुरुषार्थी थे? योग्यता थी? कुछ भी नहीं था; परन्तु अनुदान के जरिये महान हो गए।
यह ऐय्याशी के लिए, मौज-मस्ती के लिए नहीं मिलता है। हर आदमी को नहीं मिल सकता है। अगर हर आदमी को मिल जाए, तो परेशानी आएगी। मारीच, भस्मासुर, कंस, कुम्भकरण को वरदान मिल गये थे, तो वह स्वयं परेशान हो गये तथा दूसरों को परेशान कर दिया। आप को भी फिजूल में वरदान मिलेगा, तो आप भी परेशान हो जाएँगे अनुदान के लायक आप हैं, तो किस काम के लिए अनुदान माँगते हैं— यह भी देखा जाएगा। बेटे को बादशाह बनाएँगे, मकान बनाएँगे, धन इकट्ठा करेंगे। अनुदान-वरदान इस काम के लिए नहीं मिलते हैं। वह सुपात्रों को तथा एक विशेष काम के लिए मिलते हैं।
आप जानते नहीं, गाँधी जी जब पहली बार वकालत करने गए, तो उनके पैर काँपने लगे, जबान बन्द हो गई, कंठ सूख गए। उन्होंने अपने मुवक्किल से कहा—आप अपने बीस रुपये वापस ले लें, हम आपका काम नहीं कर सके; लेकिन गाँधी जी को जब अनुदान मिला, तो ऐसी आवाज निकली कि उसका क्या कहना! लोगों से कहा—आप गोली खाइये, जेल जाइये, आप बर्बाद हो जाइये। लोगों ने सहर्ष यह काम स्वीकार किया। यह था गाँधीजी को दिया गया अनुदान। अँग्रेजों से कहा—‘क्विट इण्डिया’—हिन्दुस्तान छोड़ दो। वे कप्तान की तरह हण्टर लेकर खड़े हो गए और अँग्रेज भारत छोड़कर चले गए। गाँधी जी हिमालय से भी ऊँचे, समुद्र से भी गहरे थे। उन्होंने जिस काम के लिए माँगा करोड़ों रुपये मिले। उनकी बीबी तथा गाँधीजी का पौने दो करोड़ का स्मारक बना। यह है—अनुदान।
यह युगसंधि की वेला है। सन् 1980 से 2000 तक का समय युगसंधि काल है। इस पूर्व संधि की वेला में भगवान को ऐसे जाग्रत आत्माओं की सहायता करने की आवश्यकता है, जो विभीषिकाओं से लड़ सकें; सामाजिक कुरीतियों को, अपराधी वृत्तियों को समाप्त कर सकें। सिपाही जब लड़ने के लिए जाता है, तो सरकार उसके एवं उसके बच्चों के लिए क्या-क्या प्रबन्ध करती है, आपने देखा नहीं है? कपड़े का, आजीविका का, खाने का प्रबन्ध करती है तथा मरने के बाद पेन्शन की व्यवस्था करती है। सरकार कौन? सरकार यानि जनता करती है। आपके लिए यह सब करेगी? नहीं, आपके लिए नहीं करेगी। इस समय युगसंधि की वेला में भगवान् इस दुनिया का ढाँचा बदलने वाले हैं। जो खराब चीजें हैं, उन्हें गलाया जाने वाला है। टाटा की स्टील फैक्टरी में आप गए हैं कभी? एक तरफ वहाँ लोहे को गलाया जाता है तथा दूसरी तरफ ढलाई होती है। इस तरह फरनेस (भट्टी) का काम होता है। आज भगवान भी अपनी फरनेस में गलाई-ढलाई का काम कर रहे हैं। इन दिनों बेहूदापन दुनिया में हावी हो गया है। यह आदमी के चिन्तन में, भावना में, दृष्टिकोण में छा गया है। हर जगह यह लोगों को परेशान कर रहा है। होली में आपने देखा नहीं है? बच्चे चारों तरफ जाते हैं और कूड़ा-करकट जमा कर लाते हैं तथा उसमें आग लगा देते हैं। धातुएँ जब पुरानी हो जाती हैं, लोहे के टुकड़े जब टूट-फूट जाते हैं, तो उनको गला दिया जाता है। छापेखाने के घिसे-पिटे टाइपों को भी फिर से गला देते हैं तथा नये टाइप बना लाते हैं। इस प्रकार गलाई-ढलाई का काम इस सृष्टि का क्रम है। नया बनाया जाता है, पुराने गलाए जाते हैं। यह बीस साल यानि सन् 1980 से 2000 तक, जिसे युगसंधि का समय कहते हैं; इसमें स्रष्टा बहुत कुछ गलाई-ढलाई करना चाहता है। इस काम हेतु उसको कुछ शानदार आदमियों की आवश्यकता पड़ी है, जो उसको सहयोग दे सकें; जो भगवान के इस महान परिवर्तन काल में किसी तरह उसका हाथ बँटा सकें। इस महान वेला में महाकाल हर तरह से वैसी आत्माओं को अपना अनुदान देकर उन्हें समर्थ बनाना चाहते हैं, जो हर प्रकार से उनके काम करने में समर्थ हो सकें।
यह अनुदान सत्र है, जिसमें आपको बुलाया गया है। यहाँ, लड़ने के लिए कारतूस, बन्दूक, तलवार की तरह आपको कीमती सामान दिया जाने वाला है, ताकि आप इस इनसान की जिन्दगी को सही मायने में उपयोग करके धन्य हो सकें। चौरासी लाख योनियों में श्रेष्ठ यह मनुष्य की योनि है। इसमें यानि मनुष्य की योनि में आप चाहें तो अपना लक्ष्य पूरा कर सकते हैं अनुदान को पाकर। हनुमान जी अनुदान पाकर किस प्रकार अपने लक्ष्य को पूरा कर पाए तथा धन्य हो गए। यह तो जानते हैं न? उन्होंने एक टाँग पर खड़े होकर ध्यान लगाया था? पूजा की थी? नहीं केवल उन्होंने यह किया था और यह कहा था—हम आपके साथ हैं। आपके साथ कन्धे-से लगाकर चलेंगे।
उसी में वे धन्य हो गए। नेहरू ने शास्त्रीजी के लिए सारा इन्तजाम किया था। आपके लिए भी हमें सारा इन्तजाम करना होगा, ताकि युग को बदलने में आप समर्थ हो सकें; समय को बदलने में आप समर्थ हो सकें। इस बार का समय अब तक के अवतारों से ज्यादा शक्तिशाली है। पहले एक रावण था। अब तो घर-घर में रावण हैं। उन्हें समाप्त करने के लिए स्रष्टा को ज्यादा शक्ति लगानी पड़ेगी। उस समय एक हनुमान जी से काम चल गया था। अबकी परिस्थिति बहुत ही बदली हुई हैं। बेहूदगियाँ इस तरह बढ़ गई हैं कि हर वर्ग अपने कर्तव्यों और सिद्धान्तों को भुला बैठा है। इस विपन्नता की स्थिति में हमने महाकाल की इच्छा से यह अनुदान सत्र बुलाया है। इसमें हम देख रहे हैं कि युग-युग की महान् आत्माएँ, महामानव बैठे हुए हैं, जो स्रष्टा के इस महान कार्य में सहयोग दे सकते हैं तथा अपने जीवन को धन्य कर सकते हैं। हम आपको इस महान कार्य हेतु महाकाल की शक्ति, स्रष्टा की शक्ति, अपने गुरु की शक्ति तथा अपनी शक्ति प्रदान कर रहे हैं, ताकि आप आगे बढ़कर गाण्डीव उठाएँ एवं युग को बदलने में अपना भावभरा सहयोग करें।
॥ॐ शान्ति:॥