उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
(मार्च१९८१ में शान्तिकुञ्ज परिसर में दिया गया उद्बोधन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्!
देवियो, भाइयो! जमीन के भीतर बेशकीमती चीजें भरी पड़ी हैं। इसमें हीरा है, सोना है, कोयला है, लोहा है और न जाने क्या-क्या भरा पड़ा है। जमीन की खुदाई करने पर हम इसमें तेल देखते हैं और दूसरी कीमती चीजें देखते हैं, पर बाहर हम सारी जमीन पर तलाश करते चले जाते हैं तो सिवाय घास-पात के, कूड़े-कचरे के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हीरा कहीं दिखाई नहीं पड़ता, सोना जमीन पर कहीं फैला हुआ नहीं पाया जाता। हमें बेशकीमती चीजें पाने के लिए जमीन की गहरी खुदाई करनी पड़ती है। ठीक इसी तरह जब हमने अपने भीतर में, अपने गरेबान में मुँह डाला तो हमें बड़ी कीमती चीजें दिखाई पड़ीं। मैं चाहता हूँ कि आप लोगों को यहाँ बुलाकर अपनी वही मनःस्थिति आपके सामने दिल खोल करके दिखा पाता तो आप भी मेरी तरह धन्य हो जाते।
जीवन के दो कीमती हिस्से
मित्रो! मेरे फरिश्ते ने जिंदगी के दो कीमती हिस्से मुझे दिखाए—एक शुरुआत वाला और दूसरा आखिरी वाला हिस्सा। दोनों ही हिस्से इतने बेशकीमती थे कि इनके बराबर और कोई कीमती चीज किसी की जिंदगी में हो नहीं सकती है। जिंदगी का पहला वाला सिरा मेरे फरिश्ते ने मुझे दिखाया और मैंने देखा कि भगवान ने बेशकीमती नियामत मेरे हाथ में सौंप दी है। कितने बड़े हीरों का हार, जिसकी कोई कीमत नहीं हो सकती। और चीजों की बड़ी कीमत है, पर जिंदगी से बढ़कर और कोई नियामत दुनिया में हो ही नहीं सकती, जो भगवान इनसान को सुपुर्द करता है। मनुष्य की जिंदगी जो किसी और प्राणी को नहीं मिल सकी। मनुष्य की जिंदगी जिसके लिए देवता तरसते हैं और ये कहते हैं कि हमको मनुष्य की जिंदगी मिलनी चाहिए; क्योंकि इसमें कर्म का भी आनंद है। देवयोनि में कर्म का आनंद नहीं है। देवता भोगयोनि हैं और पशु भी भोगयोनि हैं, पर मनुष्य योनि में खट्टे-मीठे आनंद हैं। वह कर्म भी कर सकता है और भोग भी सकता है। ऐसा सुरदुर्लभ मनुष्य का जीवन जो किसी और प्राणी को नहीं मिला। चौरासी लाख योनियों में से किसी को नहीं मिला। इतना बेशकीमती जीवन मुझे भगवान ने दिया है। सिर ऊँचा हो गया, सीना तन गया। मनुष्य का जन्म इतना सामर्थ्यवान है कि आदमी अगर इसका सही तरीके से इस्तेमाल कर सके तो दूसरा भगवान बन सकता है। मैंने इसे बड़े गौर से देखा, घूर-घूर कर देखा, इसकी कीमत को देखा, नाप-तोल करके देखा और मेरे फरिश्ते ने मुझे दिखाया।
साथियो! इतनी बड़ी चीज पाकर इसका ठीक तरीके से इस्तेमाल करना भी एक बड़ी बात है। कोई बाप लाखों करोड़ों रुपए की संपत्ति देकर जाए और उसके बेटे कपूत निकलें, सारी-की-सारी दौलत को जुआखोरी में और शराबबाजी में खरच कर डालें तो कोई क्या कर सकता है! उसमें बाप की क्या गलती हो सकती है! इतनी कीमती चीज है, अब इसका मुझे ठीक से इस्तेमाल करना होगा। मेरे गुरु ने मुझे बताया कि देख मानव जीवन कितना कीमती है, क्या तू इसे समझ पाया है? मैंने कहा, हाँ, यह बेशकीमती है। इससे बढ़िया और कोई दौलत प्राणी के लिए नहीं हो सकती, जितना इनसानी जीवन है। मैं धन्य हो गया, निहाल हो गया। मैंने जिंदगी का एक सिरा देखा, जो मेरे फरिश्ते ने मुझे दिखाया। कब? आज से पचपन वर्ष पहले, उन दिनों ये ही वसंत के दिन चल रहे थे।
मित्रो! मेरे फरिश्ते ने मुझे एक और जिंदगी का हिस्सा दिखाया। वह कौन-सा हिस्सा? वह आखिरी वाला हिस्सा। कौन-सा वाला? जिस दिन आदमी को मौत आती है। मौत को मैंने देखा। एक बार देखा, दो बार देखा, तीन बार देखा। तीन जन्मों का हाल जब मुझे दिखाया तो तीन बार अपने आप को मरते हुए देखा। मरते समय में आदमी को कितनी कसक, कितनी पीड़ा, कितना पश्चात्ताप, कितनी व्यथा, कितनी जलन, कितना हाहाकार उसके भीतर होता है। वे सारी-की-सारी घटनाएँ—न सिर्फ दृश्य मैंने देखा है, बल्कि मैंने जलते हुए अपना शरीर देखा और वह कसक, वे पीड़ाएँ भी देखीं जो मैंने गँवा दी थीं। जिंदगी मामूली कामों में खरच कर डाली, कसक का कोई ठिकाना न रहा। पश्चात्ताप का कोई ठिकाना न रहा, क्रंदन का कोई ठिकाना न रहा, हा-हाकार का कोई ठिकाना न रहा, चीत्कार का कोई ठिकाना न रहा। हा! मैंने कैसी भूल कर डाली। इस इनसानी जिंदगी को अच्छे काम में खरच कर सकता था, लेकिन मैंने इसको कीड़े-मकोड़ों के तरीके से खरच किया।
पेट-प्रजनन का जीवन
कीड़े और मकोड़े दो काम के लिए जिंदा रहते हैं—एक पेट पालते रहते हैं और दूसरे औलाद पैदा करते रहते हैं। दो के अलावा तीसरा कोई काम नहीं कर सकते। न इनमें अक्ल होती है, न हिम्मत होती है, न बुद्धि होती है, न समझ आती है, न परिस्थिति होती है, न साहस होता है। कुछ नहीं होता। दो काम करते रहते हैं। जब से पैदा होते हैं, पेट पालते हैं और औलाद पैदा करते हैं और मर जाते हैं। उसी तरीके से मेरा भी जन्म हुआ और मैं भी मरा। रो पड़ा कि अब जब यह जिंदगी खत्म होगी, तब मुझे कहाँ जाना पड़ेगा? किन योनियों में जाना पड़ेगा, न जाने कहाँ-कहाँ जाना पड़ेगा? कितना कष्ट उठाना पड़ेगा। यह मैंने मौत के दिन देखा। मौत की घड़ी देखी, मैंने अपनी लाश चिता के ऊपर पड़ी हुई देखी। चीत्कार कर उठा कि हाय रे, अभागा मैं ! न जाने किन-किन समस्याओं को कीमती समस्या समझता था, अगर मुझे एक ही कीमती समस्या समझ में आ गई होती कि जिंदगी का ठीक-ठीक उपयोग करना, तो मजा आ जाता।
मित्रो! छोटी-छोटी समस्याएँ—मकान में छप्पर नहीं पड़ सका, मकान में टीन नहीं पड़ सकी, इस लड़की को वकील जमाई नहीं मिल सका, इस लड़के की बहू को इतना जेवर न मिल सका। ये छोटी-छोटी बच्चों की खिलवाड़ जैसी राई-रत्ती भर समस्याएँ हैं। जिनसे आदमी के लिए न कुछ नुकसान हो सकता है, न फायदा हो सकता है। इन राई-रत्ती समस्याओं को मैं पहाड़ के बराबर समझता रहा और उन्हीं में उलझा रहा। लेकिन वह समस्या, जिसके लिए कीमती जिंदगी दी गई थी, उसके बारे में विचार न कर सका। मैं रो पड़ा। ऐसे ही मैंने कई बार देखा, पिछले तीन जन्मों के अतिरिक्त। मेरे गुरु ने मुझे दिखाया और मुझे चौंका दिया। मैं चौंक पड़ा और मैंने उनके चरणों को पकड़कर कहा—बताइए, मुझे क्या करना चाहिए? उन्होंने कहा—एक ही काम करना चाहिए और वह यह है कि जिंदगी की कीमत समझनी चाहिए। जिंदगी का ठीक इस्तेमाल क्या हो सकता है, इसके बारे में गौर करना चाहिए। इतनी हिम्मत इकट्ठी करनी चाहिए, जिससे कि जिंदगी का श्रेष्ठतम उपयोग करना संभव हो सके। इतना ही करना चाहिए, और कुछ नहीं करना चाहिए। आज से पचपन साल पहले मेरे गुरुदेव ने मुझे बताया और मैं चौंक पड़ा और जाग गया।
प्रसुति से जाग्रति
मैं चाहता था कि आप सब मित्रों को बुलाकर बताऊँ, ताकि आपको भी ऐसा ही मौका मिल जाए, कदाचित् आप भी चौंक पड़ें और आप भी जाग जाएँ। आप भी जिंदगी की कीमत को समझ पाएँ। जिंदगी जब हाथ से निकल जाती है, तब हमको किन-किन परिस्थितियों में रहना पड़ता है, इसके बारे में कदाचित् आपको भीतर से हूक पैदा हो जाए, कदाचित् आपके भीतर से जाग्रति उत्पन्न हो जाए, चेतना उत्पन्न हो जाए तो मजा आ जाए। आप भी मेरे तरीके से धन्य हो जाएँ। मैं चाहता था कि आपको भी उसी तरह का मौका मिले, जैसा कि मुझे धन्य बनने का मौका मिला। जिस तरह से मैं जाग पड़ा और समझ गया कि जिंदगी कीमती है और मैं उसका ठीक से उपयोग करूँगा। कीड़े-मकोड़ों की तरह, जानवरों की तरह नहीं जीऊँगा, वरन् आदमी के तरीके से जीऊँगा। जिस काम के लिए भगवान ने मुझे पैदा किया है, उसे पूरा करने का मैंने निश्चय कर लिया, संकल्प कर लिया कि जीऊँगा तो ऐसे ही जीऊँगा।
मित्रो! अब क्या करना चाहिए? क्या कदम बढ़ाना चाहिए? मैंने फिर अपने उसी फरिश्ते से दूसरा सवाल किया कि जब आपने मुझे जगा ही दिया है और यह बता दिया है कि जिंदगी का ठीक उपयोग करना चाहिए तो आप ही बताइए कि मुझे अब क्या करना होगा? उन्होंने मुझे दूसरी शिक्षा दी कि दुनिया में एक ही समझदारी है कि अकेला आदमी लंबी मंजिल नहीं पार कर सकता। लंबी मंजिल पार करने के लिए दो टाँगों की जरूरत होती है। दो पैरों पर चलकर ही हम लंबी मंजिल पूरी कर सकते हैं। दो हाथों से ही सारा काम चलता है। एक हाथ से काम कहाँ हो पाता है! एक टाँग से सफर कहाँ हो पाता है! जिंदगी की नाव पार करने के लिए दो सहयोगियों की जरूरत होती है। अतः तुम भी दूसरा सहयोगी तलाश करो।
मैंने कहा—गुरुदेव! इससे आपका क्या मतलब है? कहीं ब्याह-शादी करने से तो नहीं है? नहीं, ब्याह-शादी करने से मतलब नहीं है। जिस तरह नाव से नदी को पार करने के लिए दो हाथों की और दो पतवारों की जरूरत पड़ती है, उसी तरह आपको भी एक और सहायक ढूँढ़ लेना चाहिए। तो आप बताते क्यों नहीं कि मुझे कौन-सा सहायक ढूँढ़ लेना चाहिए? उन्होंने कहा कि भगवान को एक सहायक के रूप में ढूँढ़ लेना चाहिए। और दूसरा? दूसरा एक इनसान को। एक इनसान और एक भगवान, दोनों को आप साझी बना लीजिए, फिर देखिए, कैसा मजा आता है! फिर देखिए कि जिंदगी की नाव कैसे आगे चलती है! और फिर देखिए कि उन्नति का रास्ता कैसे खुलता है! मेरे गुरु ने, मेरे फरिश्ते ने मुझे यही रास्ता बताया।
साझेदारी का मर्म
मित्रो! फिर मैंने पूछा कि मुझे क्या करना होगा? उन्होंने कहा कि तुम्हें मालूम नहीं है कि जो दुकानदार होते हैं, व्यापारी होते हैं, वे क्या काम करते हैं? आप ही बताइए, मुझे तो मालूम नहीं है। उन्होंने कहा कि वे बैंक के साथ साझेदारी कर लेते हैं। कैपीटल बैंक का होता है, पचहत्तर प्रतिशत पैसा बैंक से आता है, पच्चीस प्रतिशत अपना होता है। गवर्नमेंट भी ऐसे ही लोन देती रहती है। जमीन अपनी खरीद लीजिए और लोन सरकार से ले लीजिए। कारखाना अपना लगा लीजिए, मशीनें अपनी लगा लीजिए, कैपीटल बैंक का इस्तेमाल कीजिए। बैंक बराबर देती रहती है। भगवान एक बैंक है। अगर हम इसकी साझेदारी अपनी जिंदगी में कर लें तो हमारे जीवन की तिजारत और हमारे जीवन का व्यापार ठीक तरीके से चल सकता है। अकेले चलाएँगे तब? बेटे, अकेले तो बहुत मुश्किल है।
अपनी भुजाओं की ताकत से, अपने पुरुषार्थ से, अपनी अक्ल से हम बहुत थोड़ी मंजिल पार कर सकते हैं, लेकिन अगर एक टाँग हमारी और एक टाँग भगवान की, इस तरह की साझेदारी हो जाए तो मजा आ जाए। भगवान से साझेदारी कैसे होगी, बताइए? साझेदारी के बारे में घर वालों ने और दूसरों ने मुझे जो बात बता रखी थी, वह तो एक मजाक जैसी मालूम पड़ी, दिल्लगी जैसी मालूम पड़ी कि प्रार्थना कीजिए, पूजा कीजिए, बस, साझेदारी खत्म। नहीं साहब! इस तरीके से साझेदारी नहीं हो सकती। साझेदारी की कुछ शर्तें होती हैं। बैंक पैसा देता है, लेकिन उसकी भी दो शर्तें होती हैं। एक शर्त यह है कि आपने जिस काम के लिए पैसा लिया हुआ है, उस काम में खरच कीजिए। आपने मशीनें खरीदने के लिए पैसा लिया है, आपको अपने कुएँ में ट्यूब वेल लगाना है, आपको ट्रैक्टर खरीदना है। यही लिखा है न आपने? नहीं साहब! अब ट्रैक्टर खरीदने से क्या फायदा! अब तो हम उसी पैसे से ब्याह-शादी करेंगे और तमाशा करेंगे। नहीं बेटे! यह गलत बात है। बैंक वाला नीलाम करा लेगा और जो कुछ पैसा दिया होगा, उसका रिफंड माँगेगा और फिर आपको तंग करेगा। आपको जिस काम के लिए पैसा मिला है, केवल उसी काम में खरच कीजिए, और किसी में मत कीजिए। यह बैंक की शर्त नंबर एक है।
बैंक क्या है? बैंक माने भगवान। भगवान का अनुग्रह। आपने जिस काम के लिए प्राप्त करने की कोशिश की है, उसे उसी काम में खरच कीजिए। यह भगवान का प्यार और अनुग्रह नंबर एक है। नंबर दो, ब्याज समेत उसे वापस कीजिए। मूलधन देने की कसम खाइए और यह कहिए कि हम आपका न केवल मूलधन देंगे, वरन् आपका धन ब्याज समेत वापस करेंगे। तभी बैंक आपको पैसा देना शुरू करेगा। नहीं साहब! हम तो यह नहीं कर सकते, आपका ब्याज भी वापस नहीं कर सकते और यह भी वायदा नहीं कर सकते कि जिस काम के लिए हमने माँगा है, उसी काम में खरच करेंगे। तो फिर आपको कर्ज नहीं मिल सकता। तो फिर बैंक आपके कारखाने में कोई शेयर नहीं दे सकती और कोई सहायता नहीं दे सकती। भगवान के बारे में भी यही बात है, जिसके बारे में मेरे गुरुदेव ने कहा था कि तुमको भगवान का प्यार पाना चाहिए और भगवान की शक्ति और सहायता का सक्रिय लाभ उठाना चाहिए।
कोई शॉर्टकट नहीं
इसके लिए क्या करना पड़ेगा? दूसरे लोग तो भगवान के साथ मखौल करते हैं, दिल्लगीबाजी करते हैं। दिल्लगीबाजी क्या होती है? यह होती है, जैसे 'लाठी से थन छूना।' कोई एक दिल्लगीबाज था। उसने गाय का दूध पीने के लिए क्या किया? पोले बाँस की एक नलकी ली और गाय के थन से लगाई और हुक्के के तरीके से दूर से ही दूध पीने लगा। एक ने पूछा—महाशय जी! यह क्या कर रहे हैं आप? लाठी से गाय का दूध पी रहे हैं। नहीं साहब! लाठी से छूकर दूध नहीं पिया जा सकता। तो कैसे पिया जा सकता है? पहले आप गाय पालिए। उसे घास खिलाइए, चारा खिलाइए। तो क्या गाय को चारा भी खिलाना पड़ेगा, दाना भी खिलाना पड़ेगा, पानी भी पिलाना पड़ेगा, रखवाली भी करनी पड़ेगी और गाय को दुहना भी पड़ेगा? हाँ! नहीं साहब! अगर इतना झगड़ा है तो यह हम नहीं कर सकते। तो बेटे, गाय का दूध नसीब नहीं हो सकता। नहीं साहब! मैंने तो यह सुना था कि लाठी लीजिए और उसकी नलकी को थनों में लगा दीजिए और चूस जाइए। इसके अतिरिक्त आपको और कुछ नहीं करना, न घास देनी है, न चारा देना है, न पानी पिलाना है, कुछ नहीं करना है।
क्या मतलब है इसका? इसका मतलब है कि माला घुमाइए और दूध पी जाइए। माला माने लाठी। लाठी गाय के थन से लगाइए और चूसते चले जाइए, बस, हो जाइए मालामाल। हो जाइए धन्य। आपको तो यही बताया गया है कि ग्यारह माला जपिए और देवी को प्रसन्न कर लीजिए, हनुमान जी को प्रसन्न कर लीजिए, गणेश जी को प्रसन्न कर लीजिए, सबको प्रसन्न कर लीजिए। हनुमान चालीसा का पाठ करिए, चावल, धूप, दीप, नैवेद्य चढ़ा दीजिए। यही तो आपको बताया गया है न? हाँ साहब ! अगर सारी दुनिया पागल है तो मैं भी पागल हूँ। हाँ बेटे, यह दुनिया सब पागल है। यह भगवान को अहमक समझती है। अहमक माने जड़मति, मूर्ख। अहमक माने वे आदमी जो केवल चापलूसी के आधार पर और छोटे-मोटे उपहार देने की कीमत के आधार पर जिस-तिस से फायदा उठाने का प्रयास करते हैं। लेकिन भगवान बड़े समझदार आदमी का नाम है। भगवान बड़े जिम्मेदार आदमी का नाम है। भगवान ने इतनी बड़ी दुनिया बनाई है, कायदे-कानून बनाए हैं, नियम और मर्यादाएँ बनाई हैं। यह नहीं हो सकता कि आप खुशामद के सहारे, चापलूसी के सहारे और छोटी-मोटी धूपबत्तियों का सहारा लेकर उसकी कृपा प्राप्त कर सकें।
भगवान की पूँजी में हिस्सेदारी
मित्रो ! मैंने अपने गुरुदेव से कहा कि तो फिर आप ही बताइए कि मुझे क्या करना पड़ेगा? उन्होंने कहा कि भगवान को अपनी जिंदगी की तिजारत में हिस्सेदार बना लीजिए। मैंने भगवान को अपनी जिंदगी की तिजारत में हिस्सेदार बना लिया। कैसा हिस्सेदार? जैसे कि बैंक में वह आदमी हिस्सेदार हो जाता है, जो बैंक की पूँजी में अपना हिस्सा लगाता हुआ चला जाता है। मैंने भी भगवान के बैंक में अपनी पूँजी लगानी शुरू कर दी और भगवान ने भी अपनी पूँजी देना स्वीकार कर लिया। पहले ही दिन से भगवान की पूँजी मुझे मिलती हुई चली गई। जिस काम के लिए दरखास्त दी थी कि मुझे अमुक काम के लिए आपकी पूँजी की जरूरत है, उसी काम के लिए मैंने खरच किया। भगवान की कृपा, भगवान का अनुग्रह, भगवान का प्यार अपने लिए मैंने खरच नहीं किया। मुझे उसकी जरूरत क्या थी! पेट हमारा मुट्ठी भर का है। सो मुट्ठी भर अनाज से हम छह इंच के पेट को पूरा भर सकते हैं। इसमें भगवान की सहायता की हमें कतई आवश्यकता नहीं है, लेकिन अगर हमारी हवस बढ़ी हुई है तो उसको कोई पूरा नहीं कर सकता। रावण की हवस पूरी न हो सकी, कंस की पूरी न हो सकी, हिरण्यकशिपु की हवस पूरी न हो सकी। सिकंदर की हवस पूरी न हो सकी। अगर आपकी भी हवस बढ़ी हुई है तो फिर भगवान भी उसे पूरा नहीं कर सकते। अगर वह इस मिट्टी में स्वयं भी गिरे, तो भी आपकी हवस को पूरा नहीं कर सकता।
मित्रो! अपनी जरूरत के लिए आपको भगवान के सामने खुशामद करने और नाक रगड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। भगवान ने दो देवता पहले ही हमारे सुपुर्द कर दिए हैं और यह कहा है कि ये देवता ही सामान्य मनुष्य की जिंदगी की जरूरतों को पूरा कर सकते हैं और वे देवता हैं हमारे दो हाथ। छह फीट लंबा हमारा शरीर है और छह इंच लंबा हमारा पेट है। हम घास खोद सकते हैं, रिक्शा चला सकते हैं और दूसरा काम कर सकते हैं और अपना पेट भरने के लिए दाने मुहैया करा सकते हैं। हमारी अक्ल इतनी है कि तन ढकने के लिए कपड़े और शरीर को जिंदा रखने के लिए छाया हम अपनी अक्ल के सहारे इकट्ठा कर सकते हैं। अनाज पैदा कर सकते हैं। इसके लिए भगवान से क्या कहना! नहीं साहब! भगवान से दौलत माँगेंगे और संपत्ति माँगेंगे। आप दौलत क्यों माँगेंगे और किस काम के लिए माँगेंगे? अरे साहब! हम मालदार बनना चाहते हैं, बड़े आदमी बनना चाहते हैं और अपनी हवस पूरी करना चाहते हैं।
नहीं बेटे! यह भगवान का काम नहीं है। यह दूसरों का काम है। इसका भगवान से कोई ताल्लुक नहीं है। नहीं साहब! हम तो लक्ष्मी जी की पूजा इसीलिए करते थे। नहीं बेटे, लक्ष्मी जी की पूजा इस काम के लिए करने की जरूरत नहीं है। इसके लिए दूसरा रास्ता है, तुम तो वह रास्ता ही भूल गए, भटक गए। साहब! हम तो बच्चे पैदा करने के लिए हनुमान जी को खुश कर रहे थे। नहीं बेटे, हनुमान जी की पूजा करने की जरूरत नहीं है। हनुमान जी कैसे आपको बच्चे देंगे, उनके खुद बच्चे नहीं हैं। तो फिर किसकी पूजा करूँ? रावण की कर, क्योंकि रावण के एक लाख पूत और सवा लाख नाती थे। हनुमान जी की पूजा से क्या लाभ जब उनके यहाँ बच्चे हैं ही नहीं! तो तुझे कहाँ से देंगे! पागल कहीं का, हनुमान जी की पूजा करेगा! साहब! हम तो शंकर जी की पूजा करते हैं। किसलिए करता है? इसलिए करता हूँ, ताकि धन मिल जाए। शंकर जी के पास धन था क्या? मकान था क्या? नहीं था। कपड़ा था क्या? नहीं था। नंग-धड़ंग मरघट में पड़े रहते थे। उनके अपने घर में तो लक्ष्मी है नहीं, तुझे और लक्ष्मी दे जाएँगे। गुरु जी! मैं तो इसीलिए भजन करता था। नहीं बेटे, इसके लिए भजन करने की जरूरत नहीं है।
मिला असली अध्यात्म
मित्रो, असली अध्यात्म, जिसको पाकर मैं निहाल हो गया, धन्य हो गया, उसका तरीका आपको समझा रहा था। उसकी साइंस और फिलॉसफी समझा रहा था, जो आज से पचपन वर्ष पहले मुझे सिखाई और समझाई गई थी। सारी जिंदगी मैं उसी पर चला और अपनी जिंदगी में भगवान को हिस्सेदार बना लिया। जो जिंदगी की दौलत है, उसमें से मैंने शरीर को भी अपना हिस्सा दिया और भगवान को भी हिस्सा दिया। कमाई में दोनों हिस्सेदार हैं। जो हम कमाते हैं, हमारे पास जो संपत्ति है—मसलन श्रम, बुद्धि, साधन, समय—ये भगवान की दी हुई संपदाएँ हैं। हम अपने जीवन की कमाई में इसे कमाते हैं। श्रम इस वक्त हमारे पास है। श्रम की ताकत हमारे पास है। पैसे की ताकत हमारे पास है। इसे हम दोनों में बाँट देंगे। शरीर को भी देंगे, क्योंकि यह हमारी सवारी है। यह हमारा घोड़ा है। घोड़े के लिए भी घास चाहिए। उसे घास नहीं देंगे तो हमको लंबा सफर तय करना है, घोड़ा जिएगा कैसे! शरीर को खुराक हम जरूर देंगे। कितनी खुराक देंगे? इसके बारे में भी तय करना पड़ा। यह कहा गया कि जिस देश के हम नागरिक हैं, जिस देश में हम रहते हैं, वहाँ औसत भारतीय स्तर का स्टैंडर्ड हमारा होना चाहिए। औसत भारतीय स्तर का हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
हिंदुस्तान अपने सामान्य नागरिक को क्या भोजन दे सकता है? क्या वस्त्र दे सकता है? उसे किस स्तर की जिंदगी जीनी पड़ सकती है? यही हमारा स्टैंडर्ड है। आप अमेरिका में जन्मे हैं तो आपका स्तर दूसरा हो सकता है। अमेरिकी नागरिक को खरच करने के लिए जो पैसा मिलता है, उसमें से आप खरच करें और उस स्टैंडर्ड का जीवन जिएँ। अगर आप यहाँ बढ़िया स्तर बनाते हैं, ऊँचा स्तर बनाते हैं तो यह एक गलत बात है। फिर यह आध्यात्मिक जीवन नहीं रह जाता। सामान्य स्तर का जीवनयापन करने के लिए जो खरच करने की जरूरत थी, हमने अपने शरीर के लिए खरच किया। अब रही कुटुंब की समस्या? कुटुंब की समस्या का समाधान करने के लिए अपने कुटुंबियों को उनकी मनमरजी की दौलत उनके सुपुर्द कर देने से समस्या का हल नहीं हो सकता। विचार करना पड़ा कि जिनके कर्जे हमारे ऊपर चढ़ चुके हैं, वे भी इसमें हिस्सेदार हैं, जिनका कर्ज चुकाना अभी बाकी है। अभी हमको माँ का कर्ज चुकाना बाकी है, बाप का कर्ज चुकाना बाकी है। बाप की इतनी लंबी जिंदगी से हमने खाया है और अपनी माँ का हमने दूध पिया है। सबसे पहले हम इनका कर्ज चुकाएँगे, साहूकारी तब करेंगे। माता-पिता के बाद छोटे भाई-बहन का, छोटे बच्चों का भी कर्ज चुकाना है। छोटे भाई-बहनों को पढ़ाना पड़ेगा और उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनाना पड़ेगा। हमें उनके लिए भी खरच करना है। नहीं साहब! हमारे घर में छोटा बच्चा है। मैं तो बेटे को ही दूँगा, और चार बेटे पैदा करूँगा और उन पर चार लाख खरच करूँगा। बेईमान कहीं का, केवल बेटे को ही देगा, अन्यों को नहीं।
आँखें खुली, प्रकाश मिल गया
मित्रो! मेरी आँखें खोल दीं भगवान ने और यह कहा कि तू हमारी जिंदगी में हिस्सेदार है। तू हमारे लिए काम कर। मित्रो! मेरी आँखें वहीं से और उसी दिन से खुल गईं। आँखें खुल जाने का मतलब है—अध्यात्म का प्रकाश मिल जाना। जिस प्रकाश के लिए हम प्रार्थना करते हैं— तमसो मा ज्योतिर्गमय हे भगवान! आप प्रकाश दीजिए, जीवन में चमक पैदा कीजिए। चमक किसे कहते हैं? प्रकाश किसे कहते हैं? प्रकाश इसे कहते हैं, जो मैं आपसे निवेदन कर रहा था, जिससे कि मेरी आँखें खुल गईं। अँधेरे में भटकता हुआ प्राणी, अँधेरे में भटकता हुआ भूत और प्रेत प्रकाश पाकर निहाल हो जाता है। मित्रो! आज से पचपन वर्ष पहले मैं मनुष्य बन गया, देवता बन गया। पचपन वर्ष पहले की लंबी वाली मंजिल को एक-एक कदम पार करके बढ़ता हुआ चला आ रहा हूँ और यहाँ आ गया हूँ, जहाँ कि आपके सामने खड़ा हूँ।
अब क्या सवाल रह गया? अब बेटे, यह सवाल रह गया कि जिस अध्यात्म की प्रशंसा ऋषियों ने गाई, पुस्तकों में गाई गई, राम-नाम की महत्ता जो संसार ने गाई, गायत्री मंत्र की महत्ता, जिसके बारे में अथर्ववेद ने जाने क्या-से-क्या कह दिया। कई बार तो संदेह होता है और अविश्वास होता है कि ये बातें गलत हैं, ये बातें सही नहीं हैं, जो बताई गई हैं। जिस गायत्री मंत्र की महत्ता को मैं आपको सिखाता हूँ और सारी दुनिया को समझाता हूँ, उसके बारे में अथर्ववेद में क्या समझाया गया है? उसके बारे में यह बताया गया है—"स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।" ये सात चीजें याद करनी हैं। महाराज जी! हमको तो तीन साल हो गए, तीन माला रोज जप करते हैं, लेकिन हमें तो कोई चमत्कार नहीं दिखाई पड़ा। हाँ बेटे, न तीन साल में मिला है और अब तेरी जिंदगी के जो तीस साल बचे हैं, न उसमें कोई मिलने वाला है। काहे को शाप दे रहे हैं? बेटे, इसलिए दे रहा हूँ कि न तुझे गायत्री मंत्र के बारे में कोई जानकारी है और न गायत्री मंत्र में खाद और पानी कैसे लगाया जाता है, इसका तुझे ज्ञान है। बीज बोने का तुझे ज्ञान है। वृक्षारोपण हर साल होता है। मिनिस्टर लोग आते हैं और जगह-जगह पेड़ लगा देते हैं। रोज अखबारों में छपता है कि एक लाख पेड़ लगाए गए। खाद-पानी दिया नहीं, रखवाली हुई नहीं, सब पेड़ गाय ने खा लिए, जानवर चर गए। गायत्री मंत्र को भी आप खाद पानी नहीं लगा सकते, केवल बीज बोकर के, माला घुमा करके उसमें चमत्कार देखना चाहते हैं, तो यह नहीं हो सकता।
(क्रमशः)
(गतांक से आगे)
मित्रो ! अब मैं अपना बिस्तर समेटने की फिकर में हूँ। बिस्तर समेटने के फेर में हूँ। दूसरी जिम्मेदारियों ने मुझे बुलाया है। दूसरे मोरचे पर भी बहुत काम पड़ा हुआ है। हिंदुस्तान में आध्यात्मिकता का प्रकाश फैलाने के लिए जितना काम मेरे जिम्मे था, वह लगभग पूरा हो गया। हिंदुस्तान में काम करने के लिए जो कुछ और मेरे जिम्मे बचा हुआ है, उसे एक-दो वर्ष में समाप्त करके उसका किस्सा खत्म करूँगा। फिर मैं कहाँ जाऊँगा? फिर मेरा ट्रांसफर तैयार किया हुआ रखा है। मेरा बिस्तर बँधा हुआ रखा है। मैं कहीं और चला जाऊँगा। आप कहाँ-कहाँ जाएँगे? बेटे, मुझे बहुत जगह जाना है। हिंदुओं के बीच में मुझे काम करने के लिए हिंदू बनकर आना पड़ा। अब कहाँ जाना पड़ेगा आपको? बेटे, सारे हिंदुस्तान में तो हिंदू बत्तीस-तैंतीस करोड़ हैं और दो करोड़ बाहर हैं। सारी दुनिया में चौंतीस करोड़ हिंदू हैं। अभी और कौन हैं, जहाँ आप जाएँगे? बेटे, अस्सी करोड़ मुसलमान हैं, संभव है, मुझे वहाँ जाना पड़े। क्या आप वहाँ भी यही हिंदुओं की तरह क्रांति करेंगे? बेटे, यही क्रांति मैं वहाँ भी कर सकता हूँ। फिर बहुत जगह मेरे ट्रांसफर बने हुए पड़े हैं? मैं बिस्तर उठाने वाला हूँ।
आपको यहाँ बुलाने का उद्देश्य
साथियो! मैं आपको यहाँ क्यों बुलाता हूँ? मैं आपको यहाँ सम्मेलनों के लिए, उद्घाटनों के लिए नहीं बुलाता हूँ। समारोहों में भाग लेने के लिए आपको नहीं बुलाता हूँ। मैं किसलिए बुलाता हूँ? मैं इसलिए बुलाता हूँ कि अपनी जिंदगी का सार और निचोड़ आपके सामने सुपुर्द करने में सफल हो सकूँ। मेरी पचपन साल की जिंदगी के अनुभव यही हैं कि मनुष्य के लिए सबसे बड़ी समझदारी की बात और सबसे बड़ी बहादुरी की बात यह है कि वह भगवान को अपनी जिंदगी में शामिल कर ले और अपनी जिंदगी की कीमत समझे। अगर आप अपनी जिंदगी की कीमत समझ लें, जैसा कि आपको अभी तक समझ में नहीं आई। जिंदगी की कीमत आपकी समझ में कहाँ आई है? आप करोड़ों में अपने को दरिद्र मानते हैं, अपने को दुखी मानते हैं, अपने आप को अभागा मानते हैं। समस्याओं से अपने आप को घिरा हुआ मानते हैं और जाने क्या-क्या मानते हैं। कभी-कभी तो मरने की बात सोचते हैं, आत्महत्या की बात सोचते हैं। जिंदगी की कीमत आपको कहाँ मालूम है? जिंदगी का महत्त्व आपको कहाँ मालूम है? जिंदगी की सामर्थ्य आपको कहाँ मालूम है? जिंदगी की संभावनाएँ आपको कहाँ मालूम हैं? जिंदगी की संभावनाएँ अगर आपको मालूम होती तो आपकी आँखें टॉर्च के तरीके से चमकती और आपकी गरदन फूलकर शेर की तरह हो जाती और आप सोचते कि हमारे पास इनसानी जिंदगी है। इस जिंदगी से हम जाने क्या-क्या कर सकते हैं?
मित्रो! इनसानी जिंदगी को गिराने वाले जिस दिन चौंक पड़े और उन्होंने इसे ठीक तरह से इस्तेमाल करना शुरू कर दिया तो उन्हें मजा आ गया। कौन-कौन चौंक पड़े? बेटे, उनमें से एक का नाम आम्रपाली है, जो दुनिया को गिराने वाली एक महिला थी। लेकिन जब उसने जिंदगी की धाराएँ बदल दी तो धन्य हो गई। फिर क्या हो गई? फिर ऐसी ऋषि हुई कि तवारीख में उसका नाम हमेशा बना रहेगा। अंगुलिमाल एक निकम्मा आदमी था, घटिया आदमी था। चोर और डाकू था, लेकिन उसने इसी जिंदगी में अपने जीवन की धारा बदल दी। अगले जन्म की बात कौन कर रहा है? हम तो इसी जन्म की बात कहते हैं। अरे साहब! अगले जन्म में संत हो जाएँगे, स्वर्ग में चले जाएँगे। नहीं बेटे, अगले जन्म में नहीं, इसी जन्म की बात कहते हैं हम। अंगुलिमाल ने अपने जीवन की दिशा-धारा इसी जीवन में बदल दी और भगवान बुद्ध का दाहिना हाथ बन गया।
प्रभु के तारने का तरीका
अजामिल, गीध, गणिका तारे, तारे सदन कसाई। क्यों महाराज जी! भगवान इन्हें तार देते हैं? बिलकुल तार देते हैं। कैसे? तार देने का एक ही तरीका है कि आदमी चौंक पड़ता है और अपनी जिंदगी की दिशाएँ बदल देता है। तो क्या भगवान ने बिल्वमंगल को तारा? बिल्कुल तारा, लेकिन तारने से पहले उनको सूरदास बना दिया। तारने से पहले भगवान उनकी जिंदगी की दिशाएँ बदल देते हैं। भगवान हमारा कल्याण करने वाले हैं कि नहीं, इसकी पहचान एक ही है कि हमारे जीवन के स्वरूप और हमारे जीवन की दिशाधारा को बदल दें। अगर भगवान हमारे जीवन की दिशाधारा को बदल नहीं रहे हों तो जानना चाहिए कि हमारी कल्पनाएँ निरर्थक हैं। हमको भगवान में कोई रस आता है? भगवान से हमारा कोई संबंध है? बिल्कुल नहीं है। भगवान से अगर कोई संबंध रहा होता तो आपके जीवन की धाराएँ बदल गई होती। तुलसीदास जी निकम्मे आदमी थे, आपने उनके सारे किस्से सुने हैं, लेकिन जब भगवान ने उनको प्यार किया तो क्या-क्या हुआ? भगवान के प्यार में एक ही विशेषता है कि जैसे पारस लोहे को छुएगा तो उसे सोना बना देगा। तुलसीदास भी सोना बन गए। संत बन गए, ऋषि बन गए।
महाराज जी! हमारे घर में पूजा की एक चौकी बनी हुई है। उसमें देवी की स्थापना है, गणेश जी की स्थापना है, हनुमान जी की स्थापना है। तो गणेश जी ने तुझे छुआ क्या? नहीं, मुझे छुआ तो नहीं। लक्ष्मी जी ने तुझे छुआ? नहीं तो। किसी भगवान ने छुआ? गायत्री ने छुआ? नहीं, अगर छुआ होता तो बेटा तू सोना हो जाता, पारस हो जाता। नहीं महाराज जी! मुझे तो देवी सपने में दिखाई पड़ती है। मुझे नहीं मालूम क्या दिखाई पड़ती है बेटे, अगर देवी सपने में दिखाई पड़ी होती तो तू अपने जीवन में क्या-से-क्या बन गया होता।
मित्रो! मैंने आपको इसलिए बुलाया है कि अब जब मैं जाने की तैयारी में हूँ, अगर आप में समझदारी हो तो आप एक हिम्मत करके दिखाएँ कि भगवान के साथ रिश्तेदारी पैदा कर लें। रिश्तेदारी करने के बाद मनुष्य क्या पा सकता है? बेटे, मैं कुछ कह नहीं सकता। उदाहरण मैंने बीसियों बार छापे हैं। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द का किस्सा मैंने छापा है। ये मनुष्यों की सहायता की जोड़ियाँ छापी हैं। चाणक्य और चंद्रगुप्त का किस्सा, समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी का किस्सा छापा है। मान्धाता और शंकराचार्य का किस्सा छापा है। लालबहादुर शास्त्री और जवाहरलाल नेहरू का किस्सा छापा है और मित्रो, अहिल्याबाई का किस्सा छापा है। अहिल्याबाई का किस्सा तो और भी मजेदार है।
अहिल्याबाई इंदौर की महारानी
अहिल्याबाई कौन थी? इंदौर की महारानी थी। तुकोजीराव एक बार चीते का शिकार खेलने के लिए कहीं देहात में गए। उन्होंने बंदूक चलाई तो चीता घायल हो गया और भाग करके एक झाड़ी में छिप गया। राजा अपनी बहादुरी दिखाना चाहते थे कि हम चीता मारकर लाए हैं और यह डर भी लगता था कि चीता घायल हुआ है, कहीं हमला कर दिया तो घोड़े को मार डालेगा, हम को मार डालेगा। तुकोजीराव यही सोचकर झाड़ी के चारों ओर चक्कर काट रहे थे कि देखें चीता मर गया या जिंदा है। घोड़ा खेत में चक्कर काटता तो किसान का खेत खराब होता था। एक अठारह-उन्नीस साल की किसान की लड़की ने बाहर आकर कहा, घोड़े वाले भाईसाहब! हाँ! आप हमारा खेत तबाह किए डालते हैं, घोड़े को बार-बार घुमाकर। यह कोई सड़क है क्या? आप खेत में घोड़ा घुमाते हैं, इसका क्या मतलब है? महाराज ने कहा, हमने शिकार मारा था, जो घायल होकर यहाँ छिप गया। कहाँ छिप गया? झाड़ी में। अब हम इस चक्कर में है कि या तो चीता हमारे हाथ लगे या चीता कहाँ गया है, यह हमें पता चले। इसलिए हम घोड़े को घुमाते हैं। हम तुम्हारे खेत को नहीं बिगाड़ना चाहते हैं। लड़की ने कहा, अगर आप शिकार खेलने के शौकीन हैं तो चीते का मुकाबला कीजिए। चीता को पकड़िए या मारिए। हमारा खेत क्यों खराब करते हैं। चीता तो बड़ा भयंकर होता है, तुझे मालूम नहीं है। हमला कर देगा तो मार डालेगा। तो क्या आप मरने से डरते हैं और चीते का शिकार भी करते हैं। चलिए, बैठिए और घोड़े को यहाँ बाँधिए।
वह छोकरी एक लंबा डंडा लेकर आई और बोली कहाँ है आपका चीता? शायद इस झाड़ी में छिपा हुआ मालूम पड़ता है। लड़की चमड़े के जूते पहन करके झाड़ी में दनदनाती हुई चली गई। उसने देखा कि चीता वहाँ बैठा हुआ था। उसने एक ढेला फेंका। ढेला लगते ही चीता उसे मारने के लिए आया। डंडे को लेकर वह उस पर पिल पड़ी। दाँत तोड़ डाले और उसके मुँह में डंडा ठूँस दिया और उसको मारकर गिरा दिया। थोड़ी घायल तो हुई, लेकिन वह लड़की चीते की पूँछ पकड़कर घसीटती हुई ले आई और महाराज के सामने पटक दिया और कहा-ले जाइए आप चीता, पर हमारा खेत मत खराब कीजिए। चीते को देखकर राजा दंग रह गए। एक बार लड़की के चेहरे की तरफ देखा, फिर मरे हुए चीते की तरफ देखा। जिंदा वाले चीते को वह देख ही चुके थे। राजा साहब हक्का-बक्का रह गए। उन्होंने पूछा, लड़की तू कौन से गाँव की रहने वाली है? हम तो इसी गाँव के रहने वाले हैं। तेरे घर में? हमारा बाप है, जो पड़ोस में ही काम कर रहा है इसी खेत में। हम दोनों खेती का काम करते हैं। हमें उनके पास ले चलो। चलिए, अपने पिता के पास ले गई।
महाराज ने घोड़े से नीचे उतरकर उसके पिता को हाथ जोड़कर नमस्कार किया। किसान ने कहा, आप कौन हैं? हम इंदौर के राजा हैं, जिसकी रियाया आप हैं, यह गाँव है। आप राजा साहब हैं, हमसे क्या गलती हो गई? गलती कुछ नहीं हुई। हम तो आपसे एक प्रार्थना करने आए हैं, एक भीख माँगने आए हैं। क्या? यह कि अगर आपकी दया और कृपा हो जाए तो आप इस लड़की का हमसे ब्याह कर दीजिए। इंदौर के महाराज से? हमारी बेटी रानी बन सकती है, आप यह क्या कह रहे हैं? मैं सपना देख रहा हूँ या कोई दृश्य। नहीं, आप सपना नहीं देख रहे हैं। हम इंदौर के महाराज हैं और आपसे प्रार्थना कर रहे हैं कि अगर आपकी कृपा हो जाए तो अपनी यह लड़की हमें दे दीजिए। अच्छा, दे देंगे। दूसरे दिन राजा साहब की सजी-धजी बारात आई। बड़े शानदार तरीके से उनका ब्याह हुआ और अहिल्याबाई को विदा कराके ले गए। अहिल्याबाई पढ़ी-लिखी तो थी नहीं, लेकिन वहाँ जाकर पढ़ना-लिखना सीखा। फिर महाराज से यह कहा कि अब देखिए मैं आपकी हुकूमत चला कर दिखाती हूँ। आप क्या हुकूमत करेंगे? आप बैठे रहा कीजिए, मौज कीजिए। अहिल्याबाई का राज्य इंदौर के इतिहास में अभूतपूर्व राज्य था। इंदौर के महाराज धन्य हो गए और इतिहास धन्य हो गया। अहिल्याबाई को हम बहुत दिनों तक याद करते रहेंगे।
जाग्रत-जीवंत आत्मा कैसी
मित्रो! मैं किसकी बात कर रहा था? अहिल्याबाई की बात कह रहा था। नहीं अहिल्याबाई की नहीं, मैं जाग्रत और जीवंत आत्मा की बात कर रहा था। जाग्रत और जीवंत आत्मा कैसी होती है? बहादुर, साहसी, संकल्पवान आत्मा, उत्कृष्टता और आदर्शवादिता जिसके अंदर ये विशेषताएँ हों। उदाहरण के लिए एक उपमा दे सकता हूँ इंदौर वाली रानी से। इंदौर वाली रानी की उपमा किससे दे रहे हैं आप? जीवात्मा से और भगवान की किससे उपमा देंगे? तुकोजीराव से। ऐसी जीवात्मा जिसमें संकल्प हो, साहस हो, जिसमें त्याग हो, शौर्य हो, जिसमें बलिदानी भाव हो, जिसमें उत्कृष्टता और आदर्शवादिता हो, भगवान उसकी खुशामद कर सकता है, चापलूसी कर सकता है, हाथ जोड़ सकता है और पैर छू सकता है। किसके? उस आदमी के जिसके भीतर संकल्प हो।
रामकृष्ण परमहंस बार-बार विवेकानन्द के यहाँ जाया करते थे। हाथ जोड़ा करते थे और कहते कि बच्चे देख हमारा बड़ा काम हर्ज हो रहा है। तू किस झगड़े में लगा है, तू चलेगा नहीं क्या? अभी हमें बी० ए० का इम्तहान देना है। आप बार-बार क्यों आ जाते हैं? जब हमारी इच्छा होगी तब आ जाएँगे। नहीं बेटे, तेरी इच्छा से काम नहीं चलेगा। तू समझता नहीं है कि तू किस काम के लिए आया है और तेरे बिना हमारा कितना काम हर्ज हो रहा है। महाराज जी अभी हमको नौकरी करनी है। नहीं बेटे, नौकरी नहीं करनी है, तुझे तो हमारा काम करना है। एक दिन तो मिठाई लेकर जा पहुँचे। ले बेटे, मिठाई खा ले। किस बात की मिठाई है? ले तू मिठाई खा ले और हमारे साथ चल। मैं कोई बच्चा हूँ जो आप मुझे बहकाने आए हैं। अरे तू बच्चा ही तो है, बच्चा नहीं है तो क्या है? जाग्रत आत्माएँ, जीवंत आत्माएँ क्या हैं? जब गुलाब का फूल खिलता है, तब उसके ऊपर भौरे आते हैं, तितलियाँ आती हैं और न जाने कौन-कौन आता है। सब दूर-दूर से उसकी सुगंध पाने आते हैं।
प्रार्थना से नहीं, प्राण भरे स्पर्श से मिलती है सफलता
मित्रो! मैं आपसे यह कह रहा था कि आप फूल की तरह खिल सकते हो तो खिल पड़ो। भगवान से प्रार्थना करेंगे। नहीं बेटे, भगवान से प्रार्थना करने की कोई जरूरत नहीं है। भगवान आपसे प्रार्थना करेगा। हमने सुना है कि प्रार्थना से बड़े-बड़े काम हो जाते हैं। हाँ बेटे, हो जाते हैं। प्रार्थना की कीमत हमने भी सुनी है। क्या सुनी है आपने? हम हलवाई की दुकान पर जाते हैं और प्रार्थना करते हैं हलवाई साहब, हमको एक किलो जलेबी चाहिए। अच्छा साहब, आप खूब आ गए, बैठिए जरा-सा हाथ धो लूँ, दो मिनट में अभी देता हूँ। देखिए साहब, गरमागरम हैं, बिलकुल सही जलेबियाँ हैं, कोई खराबी नहीं है लीजिए। तौल करके उसने पुड़िया में बाँध दी और हमारी ओर बढ़ाने लगा और दूसरा हाथ आगे करने लगा। क्या मतलब है? पैसे लाइए। ऐं पैसे लेगा? हमने तो समझा था कि प्रार्थना से ही जलेबी मिल जाती हैं। भाईसाहब, आपको किसी ने गलत बता दिया है।
महाराज जी! सवा लाख के अनुष्ठान से ही लक्ष्मी मिल जाती है? गलत है बेटे। सवा लाख का अनुष्ठान क्या है? प्रार्थना है। हमने सुना है कि पी० सी० एस० और आई० ए० एस० की नौकरी प्राप्त करने के लिए पाँच रुपए का फार्म खरीदना पड़ता है। टाइप कराकर अरजी और मैट्रिक और बी० ए० के सर्टीफिकेट की कॉपी अटेस्टेड कराके जैसे ही भेज देते हैं, वैसे पी० सी० एस० और आई० ए० एस० का हुकुम आ जाता है। नहीं बेटे, इतना तो तेरा कहना सही है कि फार्म पाँच रुपए का ही आता है, अरजी टाइप कराने के पचहत्तर पैसे देने पड़ते हैं, उसमें फोटो लगाना और पिछले वाले रिजल्टों की कापी अटैच करनी पड़ती है। तो महाराज जी, इतना काम करने के बाद फिर कलैक्टर नहीं हो जाते, कमिश्नर नहीं हो जाते? नहीं बेटे, उसके साथ में एक और टेस्ट का झगड़ा पड़ा हुआ है। वह यह है कि तेरा वाइवा लिया जाएगा और रिटेन टैस्ट लिया जाएगा। तेरी दौड़ देखी जाएगी, शरीर का टेस्ट किया जाएगा। इतना सब पास करने के बाद ही चयन होगा। मैं तो समझता था कि फार्म से ही सब हो जाएगा। नहीं, इससे नहीं हो सकता।
मित्रो प्रार्थनाएँ-पूजाएँ, जिनको हम भजन-पूजन कहते हैं, इनका भी महत्त्व है। अगर हम प्रार्थना न करें, पूजा न करें तो? तो फिर जिस तरह आप टिकट के लिए स्टेशन मास्टर के पास जाएँ और चुपचाप खड़े रहें, कुछ न कहें। क्या मतलब है आपका? अपनी बात क्यों नहीं कहते? अरे कोई बात हो तो बताओ? नहीं, कुछ नहीं। तो चल भाग यहाँ से। बेटे, आपको कहना होगा कि हमें यहाँ से दिल्ली तक के सेकण्ड क्लास के दो टिकट चाहिए और रुपये दीजिए। तो टिकट दे देगा? हाँ, दे देगा। इसकी जरूरत है? हाँ, बहुत जरूरत है। अगर आप नहीं कहेंगे तो स्टेशन मास्टर को मालूम कैसे पड़ेगा कि आप कहाँ जाना चाहते हैं और कितने टिकट, कौन से क्लास के लेना चाहते हैं। यह सब बताने की जरूरत है। यह प्रार्थना जिसको हम पूजा कहते हैं, भजन कहते हैं। इसकी कीमत यहीं तक सीमित है कि भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि हम कहाँ जाना चाहते हैं, क्या करना और किधर बढ़ना चाहते हैं? हमारा लक्ष्य क्या है, हमारा उद्देश्य क्या है? हमारे संकल्प क्या हैं, हम करना क्या चाहते हैं? यह अपनी एक दिशा और धारा बनाने वाली बात है।
साक्षी है इतिहास
बेटे, इससे आगे यह करना पड़ता है, जो कि प्रत्येक संत ने किया है। भगवत् भक्तों का कितना लंबा इतिहास है। भगवत् भक्तों के इतिहास को, प्रत्येक ब्राह्मण के जीवन को और ऋषियों के जीवन को हम पढ़कर देखते हैं। भगवान के रास्ते पर चलने वाले प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को हम देखते हैं और यह मालूम करने की कोशिश करते हैं कि आखिर भगवान के भक्तों को माला घुमाने के सिवाय भी कुछ काम करना पड़ा है क्या? नाक से प्राणायाम करने, तिलक लगाने के अलावा भी कुछ करना पड़ा है क्या? नहीं बेटे, कुछ और भी करना पड़ा है। क्या करना पड़ा है? यही बताने के लिए मैं आपका बुलाता हूँ।
मित्रो भगवत् भक्तों के प्राचीनकाल के इतिहास में से एक भी भक्त का ऐसा उदाहरण मुझे बताइए जो केवल माला घुमाता रहा हो। जिसने भगवान के क्रिया-कलापों में कोई प्रत्यक्ष हिस्सेदारी न ली हो। प्राचीनकाल के ब्राह्मण और संत मितव्ययी, किफायत का जीवन जीते थे। वे भजन करते थे, स्वाध्याय करते थे, ठीक है, पर इससे भी ज्यादा एक और बात है कि वे बादलों के तरीके से हमेशा बरसते रहते थे। नहीं साहब, वे तो माला ही घुमाते रहते थे। नहीं साहब, वे तो प्राणायाम ही करते रहते थे? नहीं बेटे, प्राणायाम भी करते थे। यों मत कह कि प्राणायाम ही करते रहते थे, वरन् यों कह कि वह प्राणायाम भी करते थे। व्यायाम भी करते थे? हाँ, व्यायाम की भी हमको आवश्यकता है, कसरत की भी हमको जरूरत है, हम तो सारे दिन व्यायाम करेंगे? नहीं, सारे दिन व्यायाम नहीं किया जा सकता। क्या करना पड़ेगा? भगवान के क्रिया-कलापों में हस्तक्षेप करने के लिए हमको उनकी सहायता के लिए, उनके सुंदर उद्यान को सुरम्य बनाने के लिए भी कुछ करना पड़ता है। यही मुझसे मेरे गुरु ने कहा और मैं दोनों काम करता हुआ चला आया।
उपासना कैसे सार्थक हो सकती है? उपासना कैसे मंत्रसिद्ध हो सकती है? भगवान का अनुग्रह प्राप्त करने के अधिकारी हम कैसे हो सकते हैं? मित्रो, ये सारे-के-सारे घटनाक्रम हमारे सामने हैं। आज तक के मेरे जीवन के घटनाक्रम आपके सामने हैं। प्राचीनकाल के भगवत् भक्तों के जीवन का इतिहास आपके सामने है। भगवान राम के सबसे प्रिय शिष्य, सबसे प्रिय भक्त हनुमान जी का जीवन आपके सामने खुली पुस्तक के समान पड़ा है। उन्होंने भजन किया था? किया होगा, मैं यह तो नहीं कहता कि भजन नहीं किया था। प्राणायाम नहीं किया होगा? बेटे किया होगा। लेकिन सबसे प्यारे भगवान के भक्त हनुमान जी की उपासना, उनके जीवन की पुस्तक को खोलकर आप पढ़िए। उनका एक ही क्रम रहा—'राम काज कीन्हे बिना, मोहि कहाँ विश्राम।' राम नाम ही काफी नहीं है, राम का काम भी करना पड़ेगा।
अर्जुन ने सौंपा अपने आप को
भगवान श्रीकृष्ण के सबसे प्रिय शिष्यों में से हम अर्जुन का इतिहास देखते हैं। अर्जुन ने भजन नहीं किया होगा? किया होगा, बेटे मैं यह नहीं कहता कि वह भजन नहीं करता था। अर्जुन ने ध्यान-जप किया था? बेटे, जरूर किया होगा। मुझे मालूम नहीं। उनकी कुंडलिनी भी जगी होगी? जगी होगी, यह भी वायदा नहीं करता कि जगी होगी या नहीं जगी। लेकिन सबसे बड़ी बात, सबसे बड़ी उपासना-साधना उसकी यह थी कि उसने भगवान के इशारे पर अपनी जिंदगी को खरच करने का साहस किया था। हनुमान, नल, नील, जामवंत, अंगद और सुग्रीव यह जितने भी भगवान के भक्त थे, इन्होंने कितने प्राणायाम किए, कितनी भक्ति की, मैं नहीं जानता, पर यह जानता हूँ कि उन्होंने जीवन को अपनी हथेली पर रखकर भगवान के चरणों पर समर्पित करने की कोशिश की और यह कहा, आप इशारा तो कीजिए, हम उसी ओर चलेंगे।
मित्रो! आज का वक्त कुछ इसी तरह का है, जिसमें मैंने आपको बुलाया है। भगवान हम लोगों से कुछ चाहता है। यह पुनर्गठन वर्ष जो आप लोगों के सामने है, इसमें भगवान ने एक नई स्फुरणा ली है। महाकाल ने एक नई करवट ली है। उसने आप जैसी जीवंत आत्माओं को विशेष रूप से बुलाया है। आप अपने को जान नहीं पाते, मैं जानता हूँ, इसीलिए बार-बार आपको पत्र भेजे हैं। हनुमान अपने आप को नहीं जानते थे कि वे कौन हैं? हनुमान जी को जब सुग्रीव ने यह पता लगाने के लिए भेजा कि राम-लक्ष्मण कौन हैं, तो वे अपना वेष बदलकर ब्राह्मण का रूप बनाकर गए थे और नमस्कार करके उनसे पूछने लगे कि आप कौन हैं? लेकिन राम उन्हें जानते थे, इसीलिए पता लगाते-लगाते, हनुमान जी को तलाश करते, अंगद को तलाश करते वे ऋष्यमूक पर्वत पर जा पहुँचे। एक ही पहाड़ था? नहीं बेटे, वहाँ तो बहुत पहाड़ थे, किसी और पर भी वे जा सकते थे, लेकिन ऋष्यमूक पर इसलिए गए कि वहाँ हनुमान-अंगद जैसे उनके भक्त रहते थे।
अध्यात्म ही बनाएगा, अच्छा आदमी
आप लोगों को बुलाने का मतलब, हमारा मकसद यही है कि जिस तरीके से आज से पचपन वर्ष पहले हमारे गुरु ने हमको जगाया था। हम भी आपको जगाएँ। जिस तरीके से उन्होंने हमारा मार्गदर्शन किया था, हम आपका मार्गदर्शन करें। क्यों? क्योंकि अब अच्छा आदमी अगली पीढ़ी के लिए अत्यधिक आवश्यक है। अब अध्यात्म के बिना मनुष्य की नैतिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो सकेंगी। अध्यात्म के बिना मनुष्य के क्रिया-कलापों में नैतिकता का समावेश न हो सकेगा, अगर ऐसा न हो सका तो जो आज की परिस्थितियाँ हैं, उनका कोई समाधान न हो सकेगा। आज की परिस्थितियाँ और भी उलझती चली जाएंँगी और मनुष्य हैरान होता चला जाएगा। इन हैरानियों का और कोई समाधान नहीं है।
मित्रो ! हमारा मन दिन-रात विक्षुब्ध और अशांत रहता है। दिल धड़कता रहता है। हमारे मन पर न जाने क्या-क्या छाया रहता है। यह कौन करता है? राजनीति? नहीं साहब राजनीति तो नहीं करती, हमारे बेटे ही बागी और उत्पाती हो गए हैं, कहना ही नहीं मानते। स्त्री-पुरुषों के बीच में ऐसा भयंकर युद्ध होता है, अगर उनके बच्चे नहीं होते तो अब तक स्त्री तलाक देकर, घर छोड़कर चली गई होती। बच्चों ने पकड़ रखा है। बच्चे मम्मी को भी पकड़कर रखते हैं और बाप को भी। आफत के पुतले ये बच्चे हैं। घर में क्लेश चलते रहते हैं और जलते रहते हैं। कौन जलाता है? बेटे, यह हमारी विकृत मन:स्थिति जलाती है। विकृत मनःस्थिति का सुधार किए बिना मानवीय समस्याओं का कोई समाधान नहीं है। राजनैतिक समस्याओं, सामाजिक कुरीतियों का कोई समाधान नहीं, इसलिए व्यक्ति को ही ठीक करना पड़ेगा।
मित्रो! व्यक्ति को ठीक करने का एक ही तरीका है, जिसका नाम है अध्यात्म। इस अध्यात्म को जीवंत रखने के लिए हमको और आपको मिलकर प्रयास करने चाहिए। इस समय में भगवान ने, महाकाल ने यही पुकार की है कि मनुष्य जाति के गिरते हुए भविष्य को सुधारने, सँभालने के लिए उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं को सार्थक करने के लिए हममें से प्रत्येक जीवंत और जाग्रत आत्मा को प्रयत्न करना चाहिए, ताकि अध्यात्म को जिंदा रखा जा सके। अध्यात्म किस तरह से जिंदा रखा जा सकता है? अध्यात्म का शिक्षण कैसे किया जा सकता है? अध्यात्म की गतिविधियों को आगे कैसे बढ़ाया जा सकता है? अध्यात्म बेटे, यह वाणी का विषय नहीं है। वाणी का विषय रहा होता तो अब तक बहुत से एक-से-एक बढ़िया पंडित, एक-से-एक बढ़िया रामायणी हुए हैं। एक-से-एक बढ़िया कथावाचक हुए हैं। एक-से-एक बढ़िया ज्ञानवान प्रतिभाएँ भरी पड़ी हैं। उन्होंने तो सबको अध्यात्ममय कर दिया होता और दुनिया न जाने कहाँ-से-कहाँ चली गई होती, पर अध्यात्म इनके बस का नहीं है।
शेष आगामी अंक में
गतांक से आगे
यह एक विशेष समय
साथियो! अध्यात्म के विस्तार का कार्य हम सबको करना है। इसका शिक्षण, लोक-शिक्षण करने के लिए हमें अपने व्यक्तिगत जीवन को फिर से ठीक करना पड़ेगा। जलता हुआ दीपक ही प्रकाश पैदा कर सकता है। हम कैसे प्रकाश पैदा करें? आप अपने भीतर प्रकाश पैदा कीजिए, तभी दूसरों को प्रकाश दे पाएँगे। दुनिया में हम आध्यात्मिकता फैलाएँ, यह आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। महाकाल ने आपको पुकारा है और यह कहा है कि आप एक विशेष व्यक्ति हैं। यह एक विशेष समय है। इस विशेष समय में आपकी विशेष जिम्मेदारी है। अपने मुहल्ले में यदि कोई अग्निकाण्ड हो जाता है तो हम अपना पूजा-भजन भी छोड़ देते हैं, नहाना-खाना भी छोड़ देते हैं और बालटी लेकर पानी भरकर आग बुझाने के लिए चले जाते हैं। यह ऐसा ही समय है, जिसमें हम और आप रह रहे हैं। इस समय का युगधर्म, आपत्ति-धर्म यह है कि हमको अपने सामान्य जीवन की अपेक्षा विशेष समय के बारे में ध्यान देना चाहिए। भगवान की पुकार पर ध्यान देना चाहिए। महाकाल ने ये संवेदनाएँ फैलाई हैं और खासतौर से जाग्रत आत्माओं के भीतर जो हलचल और स्पंदन पैदा किए हैं, उनकी ओर हमको और आपको गौर करना चाहिए। यह बड़ा उपयोगी समय, जागरण का समय है, युगसंध्या का समय है। जो लोग युगसंध्या का मूल्य नहीं समझ पाते और उसकी उपेक्षा करते रहते हैं, वे पीछे पछताते रहते हैं।
मित्रो! थोड़े समय पहले गाँधी जी का स्वराज्य आंदोलन आया था, जिसमें जाग्रत आत्माएँ उछलकर आगे आ गई थीं और सत्याग्रह के रूप में काम कर रही थीं। सब दुनिया कह रही थी कि ये नुकसान उठाएँगे। ऐसा कहने वालों में मित्र, पड़ोसी और संबंधी भी होते थे। वे सभी कहते थे कि आप बेवकूफी का कदम उठा रहे हैं, लेकिन 'बेवकूफी का कदम' उठाने वालों ने समय को देखा, जाना और जानने के बाद में क्या-से-क्या हो गए, आपने देखा? एक छोटा-सा वकील वल्लभभाई पटेल क्या-से-क्या बन गया? हिंदुस्तान का गृहमंत्री। छोटा-सा मौलाना अबुल कलाम आजाद क्या हो गया? हिंदुस्तान का शिक्षामंत्री। पं० जवाहर लाल नेहरू एक वकील के लड़के थे। क्या हो गए? प्रधानमंत्री हो गए और कहाँ-से-कहाँ पहुँच गए!
मित्रो ! जिन्होंने समय को देखा, समय की पुकार सुनी और समय के साथ-साथ आगे आए, वे नफे में रहे। जिन्होंने समय चुका दिया, वे रोते रहते हैं और कहते हैं कि हम भी छह महीने जेल हो आते तो दो सौ रुपए पेंशन हमको भी मिल जाती और हम भी स्वतंत्रता सेनानी हो जाते। क्यों नहीं गए आप? अब क्या शिकायत कर रहा है—कमजोर, कायर कहीं का। मित्रो! यह दिलेरों का, बहादुरों का, शूरवीरों का, साहसियों का रास्ता है। इसीलिए साहसियों का रास्ता दिखाने के लिए मैंने आपको बुलाया है। आप यदि बीज के तरीके से हिम्मत करें तो वृक्ष की तरह से फलने के लिए यही ठीक समय है, यही गुंजाइश है। इससे अच्छा बेहतरीन समय शायद फिर कभी आपकी जिंदगी में नहीं आने वाला है।
मेरे बुलावे का मकसद
मेरी जिंदगी में तो अच्छा समय आया था। आज से पचपन वर्ष पहले, जब मेरा फरिश्ता—मेरा गुरु मेरे पास आया था। भगवान को हजार बार धन्यवाद, कोटि-कोटि धन्यवाद कि उसने मेरे भीतर वह संवेदना पैदा की और मैंने गौर से उसकी बात सुनी। नहीं तो आपकी तरह से मैं भी मजाक उड़ा सकता था कि मुझे भी शादी करनी है, बच्चे पैदा करने हैं, अपना मकान बनाना है, खेती करनी है, मुझे फर्स्ट डिवीजन लाना है और पी० सी० एस० की नौकरी करनी है। लेकिन मित्रो, मेरे विवेक ने मेरा साथ दिया। मैं चाहता हूँ कि आपका भी विवेक आपके साथ हो। कोई फरिश्ता, जो इस वातावरण पर छाया हुआ है, जो बड़े-बड़े काम करने जा रहा है, जिसने बड़े-बड़े कदम उठाए हैं, वह फरिश्ता आपको भी जगा पाए। आपके भीतर भी कोई स्पंदन पैदा कर पाए। आपका विवेक जाग्रत कर पाए। मेरे बुलाने का मकसद यही है। महाराज जी! आपका मकसद तो यहाँ उद्घाटन कराने का था? हाँ बेटे, उद्घाटन तो कराना चाहता हूँ, लेकिन जिस उद्घाटन को आप लोग करने के लिए आए हैं, वह एक सामयिक घटना नहीं है। वह तो एक संभावना है।
क्या संभावना है? जिस ब्रह्मवर्चस का आप उद्घाटन करने के लिए आए हैं, यह महाकाल की एक संभावना है। हम अध्यात्म की एक नर्सरी, एक प्रयोगशाला बनाना चाहते हैं। हम बताना चाहते हैं कि आध्यात्मिक शक्तियों को जगाने के लिए क्या किया जा सकता है? जिस बिल्डिंग को आप देखकर आए हैं, बेटे, वह मात्र बिल्डिंग नहीं है। यह लैबोरेटरी-प्रयोगशाला है। क्या होगा इससे? मित्रो, आने वाले समय में शक्तियों में बिजली की शक्ति, एटम की शक्ति, पैसे की शक्ति, अकल की शक्ति पीछे हटने वाली है। सबसे आगे जो शक्ति आने वाली है, वह रूहानी शक्ति है। जो हमारे प्राचीनकाल के बुजुर्गों की शक्ति थी। जिसके आधार पर उन्होंने अपने देश को स्वर्ग बनाया था और सारी दुनिया में शांति फैलाई थी। वही रूहानी शक्ति फिर जिंदा होने वाली है। ___
महाराज जी ! आप इसे कहाँ से पैदा करेंगे? हम बेटे, उसे इस उद्घाटन की छोटी-सी इमारत में से पैदा करेंगे, जिसको आप ब्रह्मवर्चस के नाम से अभी देख करके आए हैं। यह इमारत तो उसका लिफाफा है। लिफाफा कैसा होता है? लिफाफा ऐसा होता है बेटे कि जब बच्चा पैदा होने वाला होता है तो उसकी माँ कई चीजें बनाकर रख लेती है। यह क्या बनाकर रखा है? चड्ढी और कुरता। यह क्या बनाकर रखा है? उसके मुँह से लार निकलेगी तो गले में बाँधने का। तो बच्चा कहाँ है? अभी बच्चा पैदा नहीं हुआ है, पर उसके लिए कपड़े सिलकर रख लिए हैं। जिसको आप देख करके आए हैं। बच्चा तो पैदा होने वाला है। बच्चा कैसे पैदा होगा? बच्चा बेटे, ऐसे पैदा होगा कि यहाँ उपासना करने के लिए जो व्यक्ति आएँगे, उनके भीतर वह अध्यात्म पैदा करने की कोशिश करेंगे, जिसको जीवंत अध्यात्म कहते हैं।
जीवंत अध्यात्म पैदा होगा
जीवंत से क्या मतलब है? यह अध्यात्म की लाश, जिसको आप लिए फिर रहे हैं। कौन-सी लाश? यही नाक से हवा निकालने वाली लाश, केवल माला घुमाने वाली लाश। तो यह अध्यात्म नहीं है? नहीं बेटे, यह अध्यात्म नहीं है। यह तो इसकी लाश, इसका कलेवर है। कलेवर का अध्यात्म कैसा होता है? अध्यात्म बेटे, सिद्धांतों-आदर्शों का नाम है, हिम्मत का, बहादुरी का नाम है और श्रेष्ठता को जीवन में धारण करने का नाम है। यह ब्रह्मवर्चस जिसका आप उद्घाटन करने के लिए आए हैं, इसमें हम अध्यात्म का शिक्षण करेंगे। यह एक प्रयोगशाला है। इसमें हम अध्यात्म का स्वरूप समझाएँगे और अध्यात्म को जीवन में किस तरीके से काम में लाया जा सकता है, इसका आपको प्रयोग करके बताएँगे। पहला काम इस आश्रम का यह है कि हम अध्यात्म के स्वरूप की ए-बी-सी-डी समझाएँगे, जो किसी को नहीं मालूम ! अध्यात्म के बारे में लोग कुछ नहीं जानते। अध्यात्म की लाश को जानते हैं। रामायण पढ़ने से मुक्ति हो जाती है और रामचंद्र जी का नाम लेने से भजन हो जाता है। बेटे, यह लाश है रामायण की। रामायण का प्राण तो वह है, जो हनुमान जी ने पिया था, जो तुलसीदास जी ने पिया था। जिसका अर्थ है—जीवन में रामनाम को घुला लेना।
मित्रो! ब्रह्मवर्चस की स्थापना का उद्देश्य यही है कि अध्यात्म का स्वरूप, अध्यात्म के सिद्धांत, अध्यात्म के आदर्श, अध्यात्म की संभावनाएँ जनसाधारण को समझाएँ और यह बताएँ कि आप कलेवर को भी कायम रखिए। कलेवर की मैं निंदा नहीं करता हूँ। माला से मेरा कोई द्वेष नहीं है। अखण्ड कीर्तन से मेरी कोई लड़ाई नहीं है, लेकिन मैं यह कहता हूँ कि अखण्ड कीर्तन के पीछे प्राण होना चाहिए। जप के पीछे, ध्यान के पीछे, उपासना के पीछे प्राण होना चाहिए। तीर्थयात्रा के पीछे, रामायण पाठ के पीछे प्राण होना चाहिए। प्राण अगर नहीं हैं तो ये लाशें केवल सड़न पैदा करेंगी, भ्रम और अज्ञान पैदा करेंगी। लोगों में भटकाव पैदा करेंगी। लोगों में ये भ्रांति पैदा करेंगी कि इससे यह मिल जाएगा और जब कुछ मिलेगा नहीं तो फिर लोग गालियाँ देंगे। यह क्या हो गया? बेटे, सड़न पैदा हो गई।
अध्यात्म का विस्तार करने की दृष्टि से छोटा-सा आश्रम, मंदिर जिसके उद्घाटन के लिए आपको बुलाया है। इसमें क्या काम करेंगे? बेटे, हम चाहते हैं कि सारे-के-सारे मंदिर धर्म की स्थापना के केंद्र, जनजाग्रति के केंद्र बनें। प्राचीनकाल में भी मंदिर जन जाग्रति के केंद्र बनाए गए थे। हम भी यही चाहते हैं कि जहाँ कहीं भी मंदिर बनें, उनका स्वरूप ये हो कि भगवान ही नहीं, इन्सान भी उसमें स्थान लें। और क्या-क्या रहेगा? बेटे, इसमें ज्ञान रहेगा, विचार रहेगा, चेतना रहेगी, लोकहित रहेगा। नहीं साहब भगवान अकेले बैठेंगे। नहीं बेटे, भगवान को हम अकेले नहीं बैठने देंगे। नहीं साहब सारे मंदिर में भगवान टाँग पसारेगा। नहीं बेटे, अब हम भगवान को टाँग नहीं पसारने देंगे। भगवान से कहेंगे कि पिताजी! आप हमारे लिए भी जगह दीजिए, हम पड़ेंगे। आप तो वहाँ तख्त पर पड़िए, सारे कमरे में हम सोएँगे, हम पिता हैं। नहीं पिताजी! आपको सारा मंदिर घेरने की जरूरत नहीं है, थोड़े में आप रहिए, बाकी में हम रहेंगे।
नए युग के नए ज्ञानमंदिर
मंदिर को ज्ञानमंदिरों के रूप में विस्तार करने का हमारा मन है। कैसे? नए युग में धर्म के लिए स्थान भी चाहिए। रोटी, कपड़ा और मकान तो चाहिए ही। नए युग का जो नया धर्म आएगा, उसके लिए मंदिरों की जरूरत पड़ेगी। हमने ब्रह्मवर्चस में जो मंदिर बनाया है, इसी काम के लिए बनाया है कि भगवान से संबंधित वृत्तियों का निवास भी उसी में रहे; जैसे—पुस्तकालय, पाठशाला, प्रौढ़ पाठशाला, शिक्षण संस्थान आदि। ये भी उसी मंदिर में रहें, इसके लिए एक बड़ा-सा हॉल बन जाए। ये क्या चाहते हैं? बेटे, हम धर्म को फिर से जीवंत रखने के लिए एक प्रयत्न करने वाले हैं।
समर्थ गुरु रामदास से शिवाजी ने यह कहा था कि महाराज! स्वाधीनता के लिए हमको सेना की, पैसे की जरूरत पड़ेगी। हमको हथियारों की, अनाज की जरूरत पड़ेगी। समर्थ गुरु रामदास ने कहा—बेटे, हमारे पास तो नहीं है, पर हम ऐसा इंतजाम किए देते हैं, जहाँ से तेरी सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जाएँ। उन्होंने महाराष्ट्र के गाँव-गाँव में घूम करके महावीर मंदिर बनाए। महाराष्ट्र के प्रत्येक गाँव में समर्थ गुरु रामदास के स्थापित किए गए मंदिर अभी भी हैं। फिर लोकमान्य तिलक ने गणेश पूजा का विस्तार किया था। महाराष्ट्रीयनों को इकट्ठा होने के लिए लोकमान्य तिलक ने आवाज लगाई कि हमको प्राचीन परंपराओं के आधार पर नवजीवन का संचार करना चाहिए। उन्होंने गणेश जी की पूजा चला दी थी। गणेश जी की चतुर्थी, फिर गणेशोत्सव प्रचलन, सारा लोकमान्य तिलक का चलाया हुआ है। महावीर पूजा समर्थ गुरु रामदास ने चलाई। बेटे हम यह चाहते हैं कि ये मंदिरों की जैसी स्थापना की गई है, उसी तरह के मंदिर बनें। नहीं महाराज जी! हमारे पास धन नहीं है। ठीक है, हम जानते हैं कि आपके पास धन नहीं है, लेकिन वे परंपराएँ जो कि महाकाल ने चालू की, जो हमारे गुरु ने हमसे चाहीं और हम आपसे चाहते हैं वे परंपराएँ फिर से पैदा हो जाएँ।
बेटे, सबसे पहले आपको अपने घर में मंदिर स्थापित करना चाहिए। आस्तिकता इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। राजनीति से, समाजशास्त्र से, धर्म से, विद्या से भी बड़ी आवश्यकता यह है कि मनुष्य की नीयत और ईमान को साफ करने के लिए आध्यात्मिकता का विस्तार किया जाए। यह कैसे होगा? शुरुआत आप कीजिए। बेटे, हमें अपने-अपने घरों में से आस्तिकता का विस्तार करने की प्रक्रिया अभी इसी वसंत से चालू करनी है। अपने घर में आप ही तो जप करते हैं। हाँ साहब! हम करते हैं। और आपकी पत्नी? नहीं साहब! वह तो नहीं करती। आपके बच्चे? नहीं साहब वे तो सुनने को बिलकुल भी तैयार नहीं हैं। आपका भाई? भाई तो साहब गालियाँ देता है। भावज? भावज तो बस मुँह फेर लेती है। तो कौन जप करता है? हम ही अकेले करते हैं। तो बेटा, अकेला चना क्या भाड़ फोड़ लेगा! अकेले चने से भाड़ नहीं फूटता। प्रचार का जो काम सौंपा गया था, उसे तू अपने घर से शुरू कर।
शुरुआत अपने घर से कर दें
बेटे, इस वसंत पर हमने आपको बुलाया है और एक मंदिर का रूप हमने दिखाया है, जिसका आप उद्घाटन वसंत पंचमी के दिन करेंगे। हम चाहते हैं कि ये मंदिर बिना एक सेकण्ड का विलम्ब लगे, सारे देश भर में फैल जाएँ। नहीं महाराज जी ! पैसा इकट्ठा करूँगा, जमीन लूँगा। बेटे, जमीन लेगा और पैसा इकट्ठा करेगा, तब का तब देखा जाएगा। मुझे तो इतना टाइम नहीं है और फुरसत भी नहीं है। मैं तो तुझे इतनी छुट्टी भी नहीं दे सकता कि जब तू पैसा, जमीन इकट्ठी करे, नकशा पास कराए, बिल्डिंग बनवाए, तब काम हो। मैं तो चाहता हूँ कि इस हाथ ले और इस हाथ दे। आपके घर में वसंतपंचमी से मंदिर बनने चाहिए। इतनी जल्दी मंदिर कैसे बन सकते हैं? इस तरीके से बनें कि आप एक पूजा की चौकी बना लीजिए। चौकी पर भगवान का चित्र स्थापित कर दीजिए और घर के हरेक सदस्य से कहिए कि न्यूनतम उपासना आप सबको करनी पड़ेगी। उनकी खुशामद कीजिए, चापलूसी कीजिए, मिन्नतें कीजिए। प्यार से घर में सबसे कहिए कि आप इस भगवान को रोजाना प्रणाम तो कर लिया करें।
मित्रो! चार तरह की पूजा अगर आप कर लें तो काफी है। शुरुआत में हम इस प्रक्रिया को न्यूनतम रखना चाहते हैं। क्या न्यूनतम रखना चाहते हैं? यह रखना चाहते हैं कि घर का प्रत्येक व्यक्ति भोजन करने से पहले वह जो चित्र आपने स्थापित किया है, उसको प्रणाम करे। इतनी नमन-पूजा तो सबसे हो सकती है। नमन क्या होता है? बेटे, मस्तक झुकाइए और हाथ जोड़िए, यह हो गया नमन। जप दो मिनट से लेकर पाँच मिनट के भीतर। यदि स्नान आप न कर सकते हों तो कोई आप पर दबाव नहीं है। आप जप दो मिनट से पाँच मिनट तक मन-ही-मन कर लीजिए। ध्यान सविता का या फिर माता का ध्यान। सविता क्या है? यज्ञ। और सावित्री? गायत्री का नाम है। इनका जप और ध्यान। माँ का अथवा सविता देवता का ध्यान कर लीजिए। इस तरह यह प्रक्रिया एक, नमन दो, जप तीन और पूजन चार हो गए।
बेटे, यह भी हो सकता है कि जहाँ आपकी पूजा की चौकी रखी है, उस पर एक कलश रख दीजिए। अगर घर में फूल हैं तो फूल चढ़ा दीजिए। फूल नहीं हैं तो रोली या चंदन घिसा हुआ उस कलश के ऊपर लगा दीजिए। अक्षत चढ़ा दीजिए। यह पूजन हो गया। जप, ध्यान, पूजन और नमन। चार प्रकार की पूजा की न्यूनतम प्रक्रिया दो मिनट से चार मिनट तक में हो सकती है। यह न्यूनतम है, लेकिन भावनाएँ फैलाने के लिए, शिक्षण देने के लिए ये सिंबल भी काफी हैं, ताकि जब आपके बच्चे पूछे कि पिताजी, ये हम क्यों करते हैं? तो आप बताइए कि आपने नमन क्यों किया? आप उन्हें बताइए कि पूजन क्यों किया? शुरुआत तो कीजिए, सवाल तो पैदा कीजिए, जिससे कोई आदमी सवाल पूछे और आप जवाब दें। आप प्रत्येक व्यक्ति इसे अपने घर से शुरू कीजिए। घर में मंदिर बनवाइए।
यज्ञ पिता, गायत्री माता
हमारी भारतीय संस्कृति का पिता है यज्ञ और माँ गायत्री है। गायत्री माता की पूजा करने के लिए श्रवणकुमार के तरीके से अपने घर में स्थापना करनी चाहिए। महाराज जी ! हमारे घर में तो बहुत सारे बच्चे हैं और एक दिन तो गायत्री को ही उठा ले गए। एक दिन धूपबत्ती जलाकर घंटरिया ही हिलाते फिरे। अच्छा तो एक बार उन्हें समझा दें। थोड़ी-सी ऊँची जगह दीवार पर गायत्री माता का चित्र लगा दें, जहाँ बच्चे न पहुँच सकें। उसके नीचे एक लकड़ी की पट्टी लगा दें। पट्टी पर छोटा-सा कलश रखा रहे और एक धूपबत्ती स्टैण्ड रखने की जगह हो। घर का हर आदमी जाए, प्रणाम करे, वहीं रोली-चंदन कलश पर लगा करके आए। जो फूल चढ़ा सकता हो, वह फूल चढ़ा दे। न चढ़ा सकता हो तो हाथ जोड़े, नमन करे और चला आए। इससे भी काम चल जाएगा? हाँ बेटे, मंदिर ऐसे भी होते हैं। न्यूनतम भले ही हों, लेकिन व्यापक। ऐसे गायत्री माता के मंदिर बनाने का हमारा मन है।
मित्रो ! आस्तिकता का विस्तार नए युग की आवश्यकता है। इसे आपको शुरू करना चाहिए। बात छोटी-सी है, लेकिन बड़ी महत्त्वपूर्ण है। चिनगारी छोटी है, लेकिन बड़ी महत्त्वपूर्ण है। गाँधी जी ने नमक बनाया था, छोटा काम था, लेकिन बड़ा महत्त्वपूर्ण था। गाँधी जी ने चरखा चलाया था, बड़ा महत्त्वपूर्ण था। हम आस्तिकता का विस्तार करने के लिए जिस मंदिर में आपको उद्घाटन के लिए बुलाते हैं, वह छोटा है, नगण्य है। आपको जो काम सौंपते हैं, वे छोटे हैं, नगण्य हैं, लेकिन बड़े महत्त्वपूर्ण हैं; क्योंकि हम आस्तिकता का विस्तार जन-जन में करना चाहते हैं।
बेटे, यज्ञ की प्रक्रिया, जिसके बारे में बहस होती है कि हम यज्ञ नहीं कर सकते, पैसा हम नहीं लगा सकते, धन हमारे पास नहीं है तो हमारे घर में कैसे हो सकता है? हम चाहते हैं कि रोज गायत्री माता की पूजा आपके घर का प्रत्येक व्यक्ति करे। उससे घर में वातावरण पैदा हो, ताकि उस वातावरण की हवा पड़ोस के घर में जाए, रिश्तेदारी में जाए। आपकी कन्याएँ जहाँ कहीं जाएँ वहाँ आस्तिकता का वातावरण पैदा करें। वातावरण अपने घर से पैदा करें। आप अपने घर से फैलाइए यज्ञ की परंपरा को। मैं चाहता हैं कि हमारे घरों में से कोई भी घर ऐसा बाकी नहीं रहे जहाँ कि ये स्थापनाएँ न हों और जहाँ यज्ञ न होता हो। रोज या महीने भर बाद? अरे महीने भर बाद, साल भर बाद नहीं—रोज। महाराज जी! शाखा की ओर से करने को कह रहे हैं या अपने घर की ओर से कह रहे हैं। शाखा को रहने दें, मैं तो तेरी बात कह रहा हूँ। शाखा की बात नहीं कह रहा। मैं रोज यज्ञ करूँ? हाँ, रोज नियमित रूप से कर। कैसे करूँ?
छोटा-सा यज्ञीय प्रयोग
बेटे, यह काम तो महिलाएँ भी रोज कर सकती हैं। चूल्हे में से चिमटे से अग्नि निकाल ली और उस पर जरा सी बूँदें घृत की डाल दी। मूँग की दाल के बराबर रोटी के छोटे-छोटे पाँच ग्रास तोड़े, जरा-सा घी-शक्कर लगाया, एक गायत्री मंत्र बोला और एक ग्रास चढ़ा दिया। दूसरे मंत्र के साथ दूसरा ग्रास चढ़ा दिया, फिर तीसरा चढ़ा दिया। इस प्रकार पाँच बार गायत्री मंत्र बोले और पाँच ग्रास चढ़ा दिए। फिर एक मंत्र से पूर्णाहुति कर दी, दो बूँद घी और डाल दिया। दो बूँद पहले और दो बूँद घी आखिर में। बेटे, इतने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। हाँ महाराज जी! चार-पाँच बूँद घी में तो कुछ भी नहीं है। महीने भर में एक चम्मच होता है। एक अंजलि में जल लिया, चारों ओर घुमाया, हाथ जोड़ दिए। यह क्या है? यज्ञ की परंपरा। परंपरा को हम जिंदा रखना चाहते हैं। यज्ञ को हम इसके लिए नहीं छोड़ना चाहते कि शाखा चंदा इकट्ठा करे, रसीद छपाए, मीटिंग हो, तब गाँव वाले, शाखा वाले आएँ और हवन हो। नहीं बेटे, हम तो वह काम बताना चाहते हैं, जो तू अकेले ही कर सकता है।
मित्रो! इस बार हमारा मन है कि आस्तिकता दिल्लगीबाजी की चीज नहीं रहे, शाखा की बात नहीं रहे, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति की निष्ठा का विषय बन जाए। मंदिर, जिसका हम उद्घाटन कराना चाहते हैं, हम नहीं चाहते कि यह मंदिर धनियों, पैसे वालों के हाथ में जाए, जमींदारों के हाथ में जाए। हम चाहते हैं कि मंदिर की परंपरा, मंदिर की शृंखला प्रत्येक घर में पैदा हो जाए। उसकी परंपरा का मैंने स्वरूप बताया—गायत्री माता, यज्ञ पिता को। हम कैसे शुरुआत कर सकते हैं? महिलाएँ इस मामले में बहुत योगदान दे सकती हैं। गायत्री माता भी मातृशक्ति ही हैं। महिलाओं ने धर्म की रक्षा पहले भी की थी और अब तो हम नए जमाने में इन्हें बढ़ा ही रहे हैं। महिला जाग्रति हमारा मुख्य अभियान हो गया है, सो महिलाएँ ही इस कार्य को बढ़ा सकती हैं।
गायत्री माता और यज्ञ की पूजा करने का काम हम महिलाओं को ही सौंप देते हैं। यहाँ हमारी गायत्री माता की स्थापना है, यहाँ की पूजा कन्याएँ करती हैं। हमारा ऊपर वाला मंदिर, जहाँ अखण्ड दीपक है, उसकी पूजा भी कन्याएँ करती हैं। वहाँ वाला जो मंदिर है, उसकी भी पूजा कन्याएँ करेंगी। कन्या और ब्राह्मण की तुलना में समान रूप से करता हूँ। आज के समय में, आज के जमाने में यदि सच्ची पूछे तो ब्राह्मण से ज्यादा मैं कन्याओं को महत्त्व देता हूँ। आज के जमाने में महिलाएँ क्या कर सकती हैं? महिलाएँ यज्ञ की परंपरा और गायत्री मंत्र का जप जारी रख सकती हैं। उनको समय भी नहीं मिलता तो भी यदि वे चाहें तो बच्चों को दूध पिलाते समय में जप करती रह सकती हैं। इससे दूध के साथ-साथ में बच्चों के श्रेष्ठ संस्कार बनेंगे। खाना पकाने के साथ-साथ में यदि महिलाएँ जप करती रहेंगी, तो उस घर का खाना खाने वाला आदमी जो भी होगा, उसमें सद्बुद्धि आएगी, श्रेष्ठ विचारणा आएगी। मैं चाहता हूँ कि यह आंदोलन अब फैलना चाहिए।
अपने घर में बनाइए एक मंदिर
हमारे अखण्ड ज्योति कार्यालय में पैंतीस साल से एक ही मंदिर है। एक कोठरी में दो चौकियाँ रखी हैं—एक बड़ी चौकी, एक छोटी चौकी, जिसके ऊपर तसवीर रखी है। हमारे अधिकांश जप-अनुष्ठान वहीं पूरे हुए हैं। अखण्ड दीपक भी वहीं जला। हमारा वह मंदिर अब भी है। आप भी ऐसे मंदिर बना सकते हैं शाखा में, घर में। एक चौकी के ऊपर गायत्री माता का बड़ा वाला चित्र स्थापित हो, उसके पास ही धूप-दीप आरती वगैरह रखी हो। तो महाराज जी! एक पुजारी रखना पड़ेगा और प्रसाद बाँटने के लिए तो बहुत खरच करना पड़ता है। इस बारे में भी हमने कुछ सफाइयाँ, कुछ नियम तय कर दिए हैं।
मित्रो! इस संबंध में एक नियम यह तय कर दिया है कि जिस तरह से थियोसोफी संस्था ने प्रसाद के नाम पर केवल जल का प्रसाद रखा है। ईसाई मिशन, जो करोड़ों रुपए की कीमत से चलते हैं, उनके यहाँ भी केवल जल का प्रसाद बाँटा जाता है। हमने भी अपने यहाँ प्रसाद के बारे में नई परंपरा स्थापित कर दी है। अब से हमारे मंदिरों में पंचामृत दिया जाएगा। इसमें पाँच चीजें रहा करेंगी। ये पाँच चीजें क्या हैं? जल—एक, गंगाजल—दो, शक्कर—तीन, तुलसी का पत्ता—चार, चंदन—पाँच। यह पंचामृत हो गया। कितने पैसे का? छदाम का भी नहीं है, बाँट दे। अरे साहब! सौ आदमी आ जाएँगे तो मैं कहाँ से लाऊँगा प्रसाद? और पानी मिला दे, ये कभी खतम नहीं होने वाला। महाराज जी, थोड़ा-थोड़ा दूँगा तो लोग नाराज होंगे। तो बड़ा-बड़ा चम्मच भर कर दे, हम कब कह रहे हैं कि थोडा़-थोडा़ प्रसाद दे।
बेटे, हमारी यह मान्यता है कि हम जन-जन को अपना बनाएँगे। हम गरीबों के हैं। यज्ञ की परंपरा को हम गरीबों तक पहुँचाने के लिए इसे श्रमदान और समयदान से चलाना चाहते हैं। इसे हम जन-जन का बनाना चाहते हैं। पंडितों और अमीरों के हाथों से हम इसे छीनना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि यज्ञ पंडितों का नौकर होकर रहे। हम नहीं चाहते कि यज्ञ रईसों और सेठों का नौकर होकर रहे। इसे जनसामान्य का बनाना चाहिए। इसके लिए धन की आवश्यकता न पड़े, केवल श्रम से हम मिल-जुलकर अपना काम चला लें। इसीलिए हम प्रत्येक घर में मंदिर की परंपरा वसंतपंचमी से चलाना चाहते हैं और हम चलाकर रहेंगे।
(क्रमश:) अगले अंक में समापन
समापन
प्रतीक हों घर-घर में
मित्रो! जैसे हमारे गुरु ने हमको आदेश दिया कि आध्यात्मिकता का विस्तार करने के लिए हम छोटे से प्रतीक स्थापित करें तो हमने गायत्री का मंदिर बनाया। हमारा बड़ा मन है कि आप भी एक प्रतीक स्थापित करें। प्रतीक मंदिर से क्या हो जाएगा? मंदिर से सब कुछ हो जाएगा—हवा फैलेगी, वातावरण बनेगा। हम हवा फैलाना चाहते हैं और वातावरण बनाना चाहते हैं; फिर आप देखना कि वातावरण का क्या प्रभाव होता है ! गाँधी जी ने नमक बनाया था। नमक से क्या हो जाएगा? बेटे, हम क्या बताएँ क्या हो जाएगा? बना करके देख जरा, नमक से बगावत पैदा होगी। नमक से? हाँ बेटे, नमक से। नमक से बगावत की बात न होती तो अंगरेज जरा भी ध्यान नहीं देते। नमक बनाएँगे। बना लीजिए, हमारा क्या बिगड़ता है ! वे मना नहीं कर सकते थे, पर उन्होंने देखा कि इसमें तो बगावत का माद्दा है। हमारे मंदिरों के पीछे समर्थगुरु रामदास की वृत्ति काम करती है, लोकमान्य तिलक की वृत्ति काम करती है। इसके पीछे हमारे बड़े-बड़े ख्वाब हैं और बड़े-बड़े सपने हैं। आप उँगली तो रखने दीजिए, फिर हम पहुँचा पकड़ लेंगे। आप पहुँचा भी पकड़ लेंगे? हाँ बेटे, हम पहुँचा भी पकड़ लेंगे, उँगली रखने की जगह तो दें।
आप अपने घर में गायत्री माता को जगह दें, यज्ञ की परंपरा को स्थान दें, फिर देखना हमारा चमत्कार ! फिर आपके बच्चे पूछेंगे कि मम्मी क्या बात है, आप रोज आग काहे को जला देती हो? मम्मी को बताना पड़ेगा। उसके बहाने से आप उन्हें शिक्षण देंगे। हम भी बच्चों से कहेंगे कि बेटे, तुम अपनी मम्मी से पूछते हो या नहीं कि यह आग किसलिए जलाती हो? तुम्हारे पिताजी ने यह कहा था कि हाथ जोड़कर नमन किया करो और चंदन चढ़ाया करो। यह क्यों किया करते हैं, आपने पिताजी से पूछा कि नहीं? गुरुजी ! हमने तो नहीं पूछा। उन्होंने कह दिया, सो हमने कर दिया। नहीं बेटे, सवाल पूछो कि यह क्या बात है? साहब, काहे को आप दो मिनट खराब कराते हैं। इसलिए कि बच्चे सवाल करेंगे और आप जवाब देंगे। इससे आप जिज्ञासाएँ पैदा करेंगे और हम आस्तिकता का वातावरण घर-घर में पैदा करेंगे। इस प्रकार सवाल देने के लिए आप जो पद्धति बनाएँगे, उसके प्रचार की हम शुरुआत कर देंगे।
देवस्थापना करें
मित्रो! उद्घाटन के साथ-साथ में हम आपको प्रेरणा देते हैं कि शाखाओं में और घरों में, हर जगह यह देव स्थापना होनी चाहिए। तो महाराज जी, आपका बड़ा इन्ट्रेस्ट है? हाँ बेटे, हमारा बड़ा इन्ट्रेस्ट है। हमने तो बड़े-बड़े साइज के और छोटे-छोटे साइज के चित्र छपा करके रखे हैं। उनके मूल्य ऐसे रखे हैं कि आपको हँसी आएगी और मजाक लगेगा। इतने बड़े साइज कि जो आठ-आठ रुपए के चित्र बिकते हैं। हमने एक-एक रुपये, सवा-सवा रुपये के बना दिए हैं और उनकी प्राण-प्रतिष्ठाएँ कर दी हैं। हमारी देवकन्याओं ने और हमने मिलकर सबके ऊपर स्वास्तिक बना दिए हैं। सबके ऊपर रोली, चंदन लगा दिए हैं, केशर लगा दी है, चित्र की प्राण-प्रतिष्ठा कर दी है। आप उन चित्रों को यहाँ से ले जाइए, अपने घर में देवमंदिर बनाइए, फिर साधना कीजिए।
वसंतपंचमी के दिन से हम उस आस्तिकता की शुरुआत करते हैं, जिसको जन-जन तक पहुँचाने के लिए आज से पचपन वर्ष पहले हमारे गुरु ने हमको बताया था। उसी आध्यात्मिकता के बीज, जो हमारे भीतर बोए गए, सारे जीवनभर लाखों आदमियों के भीतर विस्तार करते चले गए। आप भी छोटे में, संक्षेप में अपने घरों पर गायत्री माता की और यज्ञ भगवान की स्थापना करें, उसका विस्तार करें। सवाल-जवाब बताएँ, शंका-समाधान करें एवं पूछताछ करें। जब आपका भतीजा कहे कि हम तो झगड़े में नहीं पड़ते, हम तो नमस्कार नहीं करते। आप कहिए, अच्छा बेटे, शाम को आना, हम बताएँगे। आपको मार्गदर्शन का मौका तो मिलेगा। हमारा यह आंदोलन नंबर एक, इसको आपको चलाना चाहिए।
ज्ञान की मशाल जलाएँ
नंबर दो, दूसरा वाला आंदोलन है—विचार-क्रांति। विचार ही हैं जो आदमी को बनाते हैं और आदमी को बिगाड़ते भी हैं। विचार आदमी को घटिया बना देते हैं, चोर बना देते हैं और विचार ही आदमी को संत बना देते हैं, ऋषि बना देते हैं। विचार ही हैं आदमी के पीछे और है क्या? नहीं तो माँस और हड्डियाँ हैं। उसके भीतर जो प्राण कर्म करता है, विचार कार्य करते हैं। विचारों का विस्तार हम नए युग के अनुरूप करने के इच्छुक हैं। इसीलिए हमारा मन है कि प्रत्येक व्यक्ति तक, जन-जन तक अलख निरंजन जगाने के लिए महाकाल की आग, हमारे गुरु की आग, जो हमारे पास आती है, उस आग को फैला देना आपका काम है। लाल मशाल में जो निशान बनाया गया है, उसके पीछे जो बहुत सारे मनुष्यों की भीड़ दिखाई पड़ती है, उसका मतलब यह है कि वह हम सबकी, आप सबकी है और उसके पीछे जो लाल हाथ-लाल मशाल दिखाई पड़ती है, वह ज्ञान की मशाल है।
मित्रो! जो नया युग आएगा, वह किससे आएगा? ज्ञान से आएगा, विचारों से आएगा। बंदूक से नहीं आएगा नया युग। यह बंदूक से भी बड़ी, सबसे बड़ी तोप है, जिसको हम विचार कहते हैं। यह जो एक मशाल हाथ में ली हुई है, वह किसका हाथ है? हमारे भगवान का हाथ है, महाकाल का हाथ है। उसके पीछे छोटे-छोटे रीछ और वानर हम और आप खड़े हुए हैं। ज्ञान का विस्तार हमको करना चाहिए। बादलों के तरीके से इसको फैलाना चाहिए। जन-जन के पास जाना चाहिए, घर-घर में हमारा प्रवेश होना चाहिए। ये कैसे हो सकता है? इसके लिए छोटा-सा तरीका हमने बताया है और वह ज्ञानरथ है। झोला पुस्तकालय पहले वाला था। आप जाइए, संपर्क बढ़ाइए और जो भी आपको मिलते हैं, उनको पुस्तक पढ़ाइए। बिना पढ़ों को सुनाइए। हमारा ज्ञानरथ इस जमाने का जगन्नाथ जी का रथ है। हमारे वृन्दावन में रंग जी का रथ निकलता है। भगवान के पास तो सब लोग नहीं जा पाते, लेकिन भगवान को अर्थात ज्ञान को, ऋतम्भरा प्रज्ञा को, गायत्री माता को, युगचेतना को घर-घर में आपको ले करके जाना चाहिए।
दीजिए समय का एक हिस्सा
मित्रो! आपको अपने समय का एक हिस्सा निकालना चाहिए। यदि आप भगवान को अपने जीवन में हिस्सेदार साझीदार बना सकते हों तो भगवान के लिए कुछ समय निकालिए। नहीं साहब! भगवान के लिए समय तो लगाएँगे, लेकिन चापलूसी में लगाएँगे। नहीं बेटे, चापलूसी के बजाय उनका काम करने में लगा। गुरुजी! हम तो आपको हाथ जोड़कर, पैर छूकर प्रणाम करेंगे, आपका नाम जपेंगे और आपकी आरती उतारेंगे। नहीं बेटे, जितनी देर में तू हमारी आरती उतारेगा और पैर छुएगा, पैर दबाएगा, उतनी देर में तू हमारी सड़क को साफ कर दिया कर और देख नालियों में गंदगी हो जाती है, उसको साफ कर दिया कर। नहीं महाराज जी! नाली में तो मैं और कूड़ा डालूँगा, पर आपकी आरती उतारूँगा। बेटे, हमारी आरती मत उतार। हम अपनी आरती अपने आप उतार लेंगे, तेरी आरती की हमें कोई जरूरत नहीं है। तू तो नाली साफ कर दिया कर।
मित्रो! आज समाज की सबसे बड़ी सेवा, देश की सबसे बड़ी सेवा, धर्म और संस्कृति की सबसे बड़ी सेवा, मानवता की और महाकाल की सबसे बड़ी सेवा यह है कि हम जनमानस में युगचेतना का विस्तार करने का प्रयत्न करें। उसमें खाद-पानी पहुँचाएँ। प्राचीनकाल में तीर्थयात्रा का यही उद्देश्य था। बादलों के तरीके से ऋषि और ब्राह्मण घर-घर जाकर अलख निरंजन की जाग्रति जगाया करते थे। आप लोगों को भी वही करना चाहिए। आपको जन-जन के पास जाना चाहिए। झोला पुस्तकालय के रूप में, ज्ञानरथों के रूप में। हमारे सुल्तानपुर के लखपतराय वकील की बात मैं भूलता नहीं। वे पाँच बजे कचहरी से घर आते और आधा घंटे में फ्रेश हो करके, चाय-नाश्ता करके निश्चिंत हो जाते। फिर चल पुस्तकालय लेकर सारे बाजार में, अपने मुवक्किलों के पास, सेठों के पास, स्कूलों में जाते और तीन घंटे तक चल पुस्तकालय चलाते।
महाकाल की सच्ची सेवा
लोग कहते—अरे वकील साहब! यह क्या धंधा खोल लिया है? अरे यार, यह भगवान का धंधा है, तू भी खोल, फिर देख। जरा यह पुस्तक पढ़ तो सही, तब पता चलेगा, क्या है? इस जमाने में सारे-के-सारे सुल्तानपुर को उन्होंने जाग्रत कर दिया। उन्होंने कोई कोना नहीं छोड़ा, कोई स्कूल नहीं छोड़ा, कोई घर नहीं छोड़ा। परिणाम यह हुआ कि जिस सुल्तानपुर में मैं पहले दो बार गया, जब पाँच कुंडीय यज्ञ हुए थे, तब मुश्किल से एक सौ आदमी आते थे। जब बाबू लखपत राय ने सारे-के-सारे सुल्तानपुर में मिशन की बात फैला दी, तब मुझसे कहा—गुरुजी! आप तो हिमालय जाने वाले हैं? हाँ बेटे, जाने वाला हूँ। तो एक बार सुल्तानपुर और चलिए। दो बार तो हो आया। सौ आदमी तो आते नहीं हैं, मैं क्या करूँगा सुल्तानपुर में। उनने कहा—कौन से जमाने की बात कह रहे हैं आप। कुछ वर्ष पहले में और अब में जमीन-आसमान का फरक पड़ गया है, आप चलिए तो सही। अच्छा चलूँगा।
सुल्तानपुर के गाँव-गाँव, घर-घर में उन्होंने पुस्तकें पढ़ाईं और पूछा कि आचार्य जी की किताबें आप पढ़ते हैं, आपको पसंद आती हैं? हाँ साहब, पसंद आती हैं और आँखों में आँसू आ जाते हैं, ऐसा गजब का साहित्य है। यह तो किसी देवता का लिखा हुआ है। लखपत बाबू ने कहा जिन्होंने ये किताबें लिखी हैं, वे हमारे गुरुजी हैं, उनको बुला दें तो? हाँ साहब, बुला दीजिए। तो आप अपनी दुकानें बंद रखेंगे और आचार्य जी के साथ में रहेंगे? हाँ साहब, रहेंगे। उनके खाने-पीने का, किराये-भाड़े का जो खरचा पड़ेगा, सो आप देंगे? हाँ, जिस लायक हमारी हैसियत है, दे देंगे। हर एक से उन्होंने वायदे करा लिए और सौ कुंडीय यज्ञ रखा। मैं गया तो एक लाख जनता थी। उन दिनों एक लाख आबादी सुल्तानपुर की नहीं होगी शायद। आस-पास के सारे देहातों के लोग आए। बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियाँ। मैंने कहा—भई, गायत्री तपोभूमि को मैं खाली छोड़कर आ रहा हूँ, कुछ पैसे-वैसे का थोड़ा-बहुत इंतजाम हो जाए तो कर देना। बोले—गुरुजी! हम करेंगे। यज्ञ समाप्त होने के बाद उनके पास इक्यावन हजार रुपया बचा था, जो उन्होंने गायत्री तपोभूमि में जमा कर दिया। यह किसकी करामात थी? झोला पुस्तकालय की, चल पुस्तकालय की और वकील साहब की। नहीं साहब! नौकर रखेंगे, कोई मिलता ही नहीं और वह फलाना पुस्तकें ले गया, वापस ही नहीं की। पहले चलाया था तो चला ही नहीं। बहाने बनाता है दुनिया भर के। गुरुजी! वह चल पुस्तकालय तो ठंडा हो गया, उसमें गरमी आई ही नहीं। गरमी आई नहीं तो दीयासलाई लगा दे उसमें।
करें गुरु से—ईश्वर से साझेदारी
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? मैं चाहता हूँ कि आप में से प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की साझेदारी शुरू करे। जैसे मैंने अपने गुरु की साझेदारी अपनी जिंदगी में की है। गुरु का असीम धन मुझे मिला है और बेटे, मेरे जीवन का प्रत्येक अंश मेरे गुरु को मिला है। हम दोनों की साझेदारी ईमानदारों की साझेदारी है। चोर और चालाकों की साझेदारी नहीं है। चोर-चालाकों की साझेदारी कैसी होती है? ऐसी होती है बेटे कि दो थे मित्र, बोले हम और आप कुछ कर लें। कुछ आप हमारे लिए करना, कुछ हम आपके लिए करेंगे। हाँ साहब! बताइए क्या करें? यह करें कि हमारे शरीर में कई छेद हैं, हम आपके एक छेद में उँगली कर देंगे और एक छेद में आप हमारे उँगली कर दीजिए। अच्छा भाईसाहब! जैसे आप कहेंगे, सो करेंगे। तो आप ऐसा कीजिए कि आप हमारे मुँह में उँगली कर दीजिए और हम आपकी आँख में उँगली कर देंगे। एक ने उसकी आँख ही फोड़ दी और दूसरे ने उँगली काट खाई। क्या यही साझेदारी है?
बेटे, यह साझेदारी नहीं है। तो गुरुजी आप और हम रिश्तेदार हो जाएँ। हाँ, फिर क्या करें? आप अपने तीन साल का तप हमको दे दीजिए। तो फिर क्या करेगा बेटे, तप का? तीन साल के तप में तो हमारे यहाँ संतान नहीं होती है, वह हो जाएगी। अच्छा, दो वर्ष का तप और दे दीजिए। यह हमारा भाई है, इसका लड़का तीन साल से फेल हो रहा है, वह पास हो जाएगा और दो वर्ष का तप और दे दीजिए। काहे के लिए? हमारा मकान बनाने को पड़ा है, सो उससे बन जाएगा। सात साल का तप दे दीजिए। अच्छा, फिर तू क्या देगा? महाराज जी मैं क्या दूँगा? नहीं बेटे, तप यों नहीं देंगे। हम तो ईमानदारों की साझेदारी करेंगे, बेईमानों की नहीं। भगवान से तू माँग, भगवान को दे, बैंक से ले और बैंक को दे, यह ईमानदारी की साझेदारी है।
असली भजन यह है
बेटे, अपने समय का एक हिस्सा आपको भजन में लगाना चाहिए, लेकिन भजन से भी ज्यादा समाज के क्रिया-कलापों में खरच करना चाहिए। मैं भजन करता हूँ चार घंटे रोज, लेकिन मैं अपने गुरु का काम करता हूँ चौदह घंटे रोज। मैं शाम को सात-आठ बजे सो जाता हूँ और साढ़े बारह बजे उठ करके बैठ जाता हूँ। साढ़े बारह बजे से लेकर एक बजे तक नहा-धोकर नित्यकर्म से निश्चित हो जाता हूँ। मेरी बत्तियाँ सब जल जाती हैं ठीक एक बजे। एक से पाँच बजे तक, चार घंटे में अपना भजन पूरा कर लेता हूँ। फिर उसके बाद पाँच बजे से अपने गुरु का काम शुरू कर देता हूँ और दस घंटे काम करता हूँ। सवेरे जब आप लोग यह काम करते हैं, उस वक्त तक मैं अखण्ड ज्योति का एक लेख लिखकर तैयार कर देता हूँ। बाकी दिन में भी करता हूँ। आजकल तो शिविर में भी लगा रहता हूँ। यह भी अपने गुरु का काम करता हूँ, आपका नहीं। भगवान का काम शाम सात बजे तक करता रहता हूँ। क्या मजाल है। मैं गुनहगार हूँ एक रोटी और एक कटोरी साग खाने का, गुनहगार हूँ ये कपड़े पहन लेने का। बाकी न मेरी कोई इच्छा है, न कोई कामना। चौबीसों घंटे अपने गुरु के लिए काम करता हूँ।
मित्रो! मेरे गुरु के पास जो कुछ भी संपदा है, मेरी है। उन्होंने कह रखा है कि जब भी तुझे जरूरत पड़े, तब मुझसे माँग लेना। जब मुझे जरूरत पड़ती है, बस, चैक ही काटता रहता हूँ। कितने चैक काटते रहते हो? बेटे, तीन-चार वर्ष पहले यह दस लाख रुपये का चैक काटा, कैश होकर आ गया। देख यह बना हुआ खड़ा है। अभी यह ब्रह्मवर्चस बन रहा है। इसमें कितना खरच हुआ है? लगभग दस लाख इसमें भी लगा है और यह गायत्री नगर, जो अभी बनने वाला है, इसमें गुरुजी, कितना पड़ेगा? बेटे, इसमें तो बहुत ज्यादा लगेगा। दस लाख से काम चल जाएगा? नहीं; दस लाख से काम नहीं चलेगा, क्योंकि इसमें सौ क्वार्टर बनने वाले हैं। जितने भी कार्यकर्ता यहाँ रहेंगे, उनके बच्चों को हाईस्कूल तक पढ़ाने के लिए स्कूल बनने वाला है। एक खेलने का ग्राउण्ड बनने वाला है, एक पार्क बनने वाला है। एक लाइब्रेरी बनने वाली है। एक उद्योग हॉल बनने वाला है, जिसमें हमारे कार्यकर्ताओं की महिलाएँ गृह उद्योग सीखा करेंगी।
महाराज जी! यह तो बड़ी लंबी-चौड़ी स्कीम है। हाँ बेटे, बड़ी लंबी-चौड़ी स्कीम है। तो इतना कहाँ से आता है? यह हमारी बैंक से आता है। कौन-सी बैंक? जिस बैंक से हमारा ईमानदारी का एग्रीमेंट है। उसने हमारी शाख बढ़ा दी है। अब आपकी पचास हजार की शाख है और बाकी ग्रेड? अब एक लाख की ग्रेड है। ग्रेड भी बढ़ती हुई चली जाती है क्यों? हमारी बैंक हमको ईमानदार समझती है कि इसको जो पैसा दिया गया है, वह चुका देगा। और आप चुकाना नहीं चाहते, माँगना चाहते हैं। नहीं बेटे, यह तो गलत बात है, ऐसा मत करना। हमारी शाख-पर-शाख बढ़ती जा रही है। आपको भी अपनी शाख बढ़ानी चाहिए।
विचार-क्रांति की आग फैला दीजिए
मित्रो! लंका में हनुमान जी ने अपनी पूँछ में लगी आग से प्रत्येक घर में आग लगा दी थी। आप हमारे दिल में जलती हुई आग, जो हमारे गुरु की आग है, लाल मशाल की आग है। जो हमारे रोम-रोम में, हमारी नस-नस में जलती है, इसे समाज में फैला दीजिए। जब होली जलती है तो लोग-बाग उसमें से थोड़ी-सी आग ले जाते हैं और अपने-अपने घरों पर जाकर होली जलाते हैं। आपके यहाँ रिवाज है या नहीं, मुझे नहीं मालूम, पर हमारे यहाँ यू० पी० में यह रिवाज है। होली में से आग लाकर अपने घर पर गोबर की बनी बलगुरिया-मालाओं की होली जलाते हैं, फिर उसमें चावल, आलू पकाते हैं, नारियल पकाते हैं। हमारे यहाँ यह रिवाज है। मित्रो! आप भी यहाँ से हमारी जलती हुई होली में से आग ले जाइए और अपने घरों पर जलाइए। ज्ञान-मंदिरों के, चल पुस्तकालय के रूप में, विचार-क्रांति के रूप में, ज्ञानयज्ञ के रूप में और जन-जन के भीतर वह प्रकाश पैदा कीजिए, जिसको हम आध्यात्मिकता का प्रकाश कहते हैं, युगचेतना का प्रकाश कहते हैं और भगवान का प्रकाश कहते हैं। यही अपेक्षा हम आप लोगों से करेंगे।
मित्रो! हमने आपको उद्घाटन कराने, जय बुलवाने के लिए, परिक्रमा कराने, आहुतियाँ देने और प्रसाद बाँटने के लिए नहीं बुलाया है। हम आपसे कुछ चाहते हैं। क्यों चाहते हैं आप? इसलिए चाहते हैं कि हम आपको कुछ देना चाहते हैं, अगर आप दे नहीं पाएँगे, तो हम भी नहीं दे सकेंगे। नहीं गुरुजी आप तो दे दीजिए। नहीं बेटे, हम दे नहीं सकेंगे। अगर नाक में से पुराना श्वास नहीं निकालेगा तो हम नया श्वास नहीं दे सकते। नहीं साहब! नया श्वास दे दीजिए, पुराने को तो मैं नहीं निकाल सकता। पुराने को निकाल, तब नया मिलेगा। पेट में गंदगी भरी पड़ी है, पहले उसे निकाल, फिर खाना देंगे। नहीं महाराज जी! पेट की गंदगी को तो साफ नहीं करेंगे, खाना दे दीजिए। उलटी हो जाएगी तुझे, हम खाना नहीं दे सकते। बेटे, हमारा गुरु कुछ देना चाहता था और देने से पहले उसने कहा, निकाल तेरे पास जो कुछ भी है। जो कुछ भी था, हम निकालते हुए चले गए। जितना हमने अपने आप को खाली कर लिया, उससे ज्यादा वह हमको भरता हुआ चला गया। इस शिविर में बुलाकर हम आपको भर देना चाहते हैं। भर देने से पहले यह प्रार्थना करते हैं कि अगर आपके लिए खाली हो सकना संभव हो सके तो आप खाली हो जाइए।
विश्वास पर टिकी है साझेदारी
मित्रो! ये थोड़े से क्रिया-कलाप हैं, जो आज आपको बताए गए हैं। इन कार्यों में थोड़ा-थोड़ा सा समय लगाना है, सो आप लगा सकते हैं। ज्यादा समय लगाना होगा तो हम आपको बुलाएँगे, दावत देते हैं। मित्रो, हमने अपने भगवान पर विश्वास किया और यह कहा कि हम आपके सुपुर्द होते हैं। आप हमको और हमसे जुड़े सबको सँभालना। उन्होंने कहा—हम आपसे जुड़े हर एक को सँभाल देंगे। हमारी बीबी और बच्चों को सँभाल दिया। हमारी बीबी को उन्होंने ऋषि और संत बना दिया, जैसे हमें बनाया था। हमारे बच्चों को भी उन्होंने इस लायक बना दिया कि वे सुखी रह सकें और हमारी ही तरह समाज की सेवा कर सकें। हमारे घर में हम जो स्वयं कर सकते थे, उसकी अपेक्षा हमारे गुरु ने हमारे घर का, हमारे शरीर का, हमारे परिवार का उत्तरदायित्व सँभाला है। हमने भी उस पर विश्वास किया है। आप तो विश्वास ही नहीं करते।
मित्रो! विश्वास करने की बात से मुझे एक कहानी याद आ जाती है। अमेरिका में टामस नाम का एक व्यक्ति था। उसने विश्वास की महत्ता सबको बताई कि आप भगवान पर विश्वास कीजिए। नहीं साहब, हम तो भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते। अरे भाई, भगवान के विश्वास में बड़ा चमत्कार है। उसने नियाग्रा फाल के ऊपर एक पेड़ के ऊपर इधर से और एक पेड़ के ऊपर उधर से एक रस्सी बाँध दी। नियाग्रा फाल एक बहुत बड़ा फाल है। रस्सी बाँधकर उसने लाखों लोगों को बुलाया और कहा कि देखिए विश्वास का चमत्कार। विश्वास का चमत्कार दिखाने के लिए टामस आज से लगभग ढाई सौ वर्ष पहले उस रस्सी के ऊपर से धीरे-धीरे चलने लगा। उसने कहा, देखिए मैं भगवान पर विश्वास करके इस रस्सी पर होकर के उस पार जाता हूँ और चार सौ फर्लांग चौड़े फासले को वह पार कर गया। लोगों ने तालियाँ बजाई और कहा कि आपका विश्वास तो बड़ा पक्का है।
उसने कहा कि अगर मेरा विश्वास पक्का है तो आप सब मानते हैं कि भगवान है। हाँ साहब! मानते हैं; क्योंकि आप बाजीगर भी नहीं हैं, नट भी नहीं हैं, कलाकार भी नहीं हैं। आपने विश्वास के आधार पर इतना लंबा फाल, जिसमें यदि कोई आदमी गिरा होता तो चकनाचूर हो जाता, पार कर लिया। उसने कहा कि आपको विश्वास है तो फिर आइए। आप में से जो भी चाहे, आए और मेरे कंधों पर सवार हो जाए। अगर आप हमारे कंधों पर सवार हो जाएँगे तो मैं आपको भी पार लगाकर और वापस लेकर पीछे लौटने वाला हूँ। जहाँ से आपको लेकर आया था, वहीं पहुँचा दूँगा। कोई भी तैयार नहीं हुआ। तब उसने अपने ग्यारह साल के बच्चे से कहा कि बेटा, तुझे हमारे ऊपर विश्वास है? हाँ पिताजी, आप पर मुझे पूरा विश्वास है। तुम हमारी मोहब्बत पर विश्वास करते हो? हाँ पिताजी! हम आपकी मोहब्बत पर विश्वास करते हैं। तो तुम बैठो हमारे कंधे पर। बच्चा कुदककर उसके कंधे पर बैठ गया। उन्होंने कहा कि बेटा, अगर तुम डूब गए तो? बच्चे ने कहा—नहीं पिताजी! जब तक आप नहीं डूबेंगे, तब तक हम नहीं डूब सकते। मित्रो ! इसे कहते हैं विश्वास। हमने भगवान पर विश्वास किया है और उसकी फलश्रुति आपके सामने है। आप भी विश्वास कीजिए और हमारी तरह धन्य हो जाइए। आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शान्तिः॥