उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
गिद्ध-गिलहरी बन सकते हैं?
साथियो! मैं जानता हूँ कि आपके पास ताकत बहुत कम है और आप कह सकते हैं कि हमारे पास इतनी सामर्थ्य नहीं है कि हम इतना बड़ा काम कर सकें। आपको मैं याद दिलाना चाहता हूँ कि गिलहरी, जिसके पास कोई ताकत नहीं थी और जिसके पास पंजे भी नहीं थे, वह अपने बालों में धूल भरकर डालती थी। आप गिलहरी से तो कमजोर नहीं हैं। नहीं साहब! गिलहरी से तो कमजोर नहीं हैं। तो भाईसाहब! आप भी कुछ कर सकते हैं। और गिद्ध? गिद्ध तो बूढ़ा था। उसे आँख से दिखाई भी नहीं पड़ता था कि लड़ाई में पड़े। लेकिन बुड्ढा, जिसको आँखों से भी नहीं दिखाई पड़ता था और वह आदमी भी नहीं था, पक्षी था। आप तो पक्षी नहीं हैं? नहीं साहब! आदमी हैं। आप बातचीत तो कर सकते हैं? हाँ साहब! कर सकते हैं। आपके दो हाथ और दो पैर हैं, पर उस गिद्ध के तो दो ही थे। बेटे! जब बूढ़ा गिद्ध युद्ध के लिए खड़ा हो सकता है तो आप क्यों नहीं! जब ग्वाल-बाल पहाड़ उठाने के लिए अपनी सहायता देने के लिए अपनी लाठी और डंडे ले करके खड़े हो सकते थे। क्रेन उनके पास नहीं थी और न कोई ऐसी दूसरी चीज थी, जिससे कि पहाड़ उठाया जा सके। कोई संबल भी नहीं थे, कोई कुछ नहीं था। वही जानवर हाँकने की लाठियों थीं, उन्हें ले करके खड़े हो गए थे।
तो क्या पहाड़ उठ गया था? हाँ उठ गया था। क्यों? क्योंकि ऊँचे उद्देश्य के लिए भावभरे प्राणवान व्यक्ति प्राण-भरी साँस लेकर जब खड़े हो जाते हैं तो उनको भगवान की सहायता मिलती है। हमको मिलेगी? नहीं, आपको नहीं मिलेगी। क्यों? क्योंकि आप हैं चोर, आप हैं चालाक। चोर और चालाकों के लिए भगवान की सहायता सुरक्षित नहीं है। हमको मकान बनवा दीजिए हमको पैसा दे दीजिए हमारी औरत को जेवर बनवा दीजिए। चल, धूर्त कहीं का-भगवान की सहायता इन्हीं कामों के लिए रह गई है! नहीं साहब! देवी को सहायता करनी चाहिए थी। कौन है तू?? देवी का जँवाई है? चांडाल कहीं का-देवी को हमारी सहायता करनी चाहिए थी। किस बात की देवी सहायता करें? नहीं साहब! हमारी मनोकामना पूरी करें। क्यों पूरी करनी चाहिए? हमने तीन माला जप किया है। ले जा अपनी माला। माला लिए फिरता है। देवी को माला पहना देंगे, नारियल खिला देंगे। देवी को धूपबत्ती दिखा देंगे, खाना खिला देंगे और मनोकामना पूरी करा लेंगे। महाराज जी! अब तो आप देवी की निंदा कर रहे हैं। नहीं बेटे! देवी की निंदा नहीं कर रहा हूँ वरन तेरे ईमान की निंदा कर रहा हूँ। तू जिस ईमान को ले करके चला है, जिस उद्देश्य को ले करके चला है, मैं उस उद्देश्य की निंदा कर रहा हूँ। उसकी ओर से देवी को नफरत है और देवी तेरी ओर मुँह उठा करके भी नहीं देखेगी।
लक्ष्य-उद्देश्य ऊँचे हैं कि नहीं?
मित्रो! देवी किसकी सहायता करती है? देवी जप करने वाले की सहायता नहीं करती, पाठ करने वाले की सहायता नहीं करती। देवी उनकी सहायता करती है, जिनके उद्देश्य ऊँचे हैं, जिनके लक्ष्य ऊँचे हैं, जिनके सामने कोई मकसद है, जिनके सामने कोई उद्देश्य है। उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए जब आदमी उठ खड़े होते हैं, तब देवताओं की भरपूर सहायता मिलती है। देवताओं को आपने देखा नहीं है। बीसियों जगह विवरण आता है, जहाँ देवता फूल बरसाने आए। क्यों साहब! देवताओं का केवल यही काम है-फूल बरसाना? यह क्या बात है? क्या वे कौम के माली हैं? इनके यहाँ फूलों की खेती होती है? जहाँ कहीं भी शादी होती है, अच्छा काम होता है, वे फूल लेकर के जाते हैं और बिखेर देते हैं और पीछे से पैसे माँगते हैं। लाइए साढ़े आठ रुपए हमने आपके यहाँ फूल बरसा दिए। देवताओं को और कोई काम नहीं है? जहाँ जाते हैं, वहीं फूल बरसाते रहते हैं। रामायण में आप पढ़ लीजिए बीसियों जगह फूल बरसे हैं। रामचंद्र जी जब पैदा हुए तब बरसे। रामचंद्र जी का विवाह हुआ, तब बरसे। देवताओं ने विमान पर चढ़ करके फूल बरसाए। हम जहाँ भी पढ़ते हैं और दूसरी बात दिखाई नहीं पड़ती। क्यों साहब! देवता फूल बरसाते हैं? हों बेटे! लेकिन फूल बरसाने से मतलब है सहयोग करना, सहकार करना, प्रशंसा करना, समर्थन करना और सहायता देना।
देवता हमेशा ऐसों पर फूल बरसाएँगे
मित्रो! देवता हमेशा फूल बरसाते हैं और हमेशा बरसाएँगे, लेकिन उनके ऊपर बरसाएँगे, जो कोई ऊँचा उद्देश्य ले करके चलेंगे; जो कोई ऊँचा मकसद लेकर के चलेंगे। जो कोई ऐसा काम ले करके चले हैं, जिससे कि विश्वहित जुड़ा हुआ हो, जिससे किन्हीं सिद्धांतों का परिपालन होता हो, किन्हीं आदर्शों के लिए रामचंद्र जी ने अवतार लिया था। जब दुनिया से पाप का हरण करने के लिए उन्होंने अवतार लिया था तो देवताओं ने कहा था कि भगवान जी! आप चलते हैं? हाँ साहब! अब आप अवतार लेंगे? हाँ साहब! अवतार लेंगे। तो आप अकेले काम नहीं कर सकेंगे? अकेला काम क्यों नहीं कर सकता? ''अकेला चना भाड़ को नहीं फोड़ सकता'' आप अकेले पुल नहीं बना पाएँगे; आप अकेले पहाड़ नहीं उखाड़ पाएँगे, आप अकेले इतने राक्षसों से नहीं लड़ पाएँगे। इसलिए सहायकों की जरूरत है। बेशक उनके साथ सहायक आए थे। कौन-कौन आए थे? देवताओं ने कहा कि आपके साथ-साथ मनुष्यों के रूप में, मनुष्यों के वेश में हम जाएँगे, जन्म लेंगे। मनुष्य तो बड़ा चालाक है। उसका सारे का सारा दायरा ऐसे बदमाशों से भरा पड़ा है कि जब हम कुछ अच्छा काम करने लगेंगे तो हमारी अक्ल खराब करने के लिए हजार आदमी आ जाएँगे। हमारी औरत आ जाएगी; हमारा बाप आ जाएगा; हमारा भाई आ जाएगा; हमारे मोहल्ले वाले आ जाएँगे; हमारे रिश्तेदार आ जाएँगे; हमारा साला आ जाएगा-सब आ जाएँगे और कहेंगे कि अच्छा काम मत कीजिए; त्याग-बलिदान की बात मत सोचिए; माल मारने की बात सोचिए, डाका डालने की बात सोचिए। हर आदमी की एक ही सलाह रहेगी, दूसरी सलाह मिलेगी नहीं, जिससे कि शायद हमारा ईमान खराब हो जाए। इसलिए हम आपके साथ चलेंगे।
देवताओं ने क्या किया? सारे के सारे देवता रीछ और वानरों के रूप में जन्म लेकर धरती पर आ गए। उन्होंने वह काम किया था, जो देवताओं को करना चाहिए। किन-किन ने किया था? रीछों ने किया था, वानरों ने किया था। देवता भी बार-बार अवतार लेते रहे हैं। वे दुनिया में किस काम के लिए अवतार लेते रहे हैं? देवता दुनिया में किस काम के लिए आते रहे हैं? वे केवल एक काम के लिए आते हैं-श्रेष्ठ कामों के लिए सहायता करने के लिए। देवता श्रीकृष्ण भगवान के जमाने में भी आए थे। कौन-कौन आए थे? पाण्डव कौन थे? पाण्डव मनुष्य थे? नहीं मनुष्य नहीं थे कुंती से पूछो कि कौन थे? भगवान श्रीकृष्ण जब आए थे तो उन्हें देवताओं की सहकारिता की जरूरत पड़ी थी, तो देवताओं ने जन्म लिया था। पाँच पाण्डव कौन थे? देख, उनमें से एक सूर्य का बेटा था, एक इंद्र का बेटा था, एक पवन का बेटा था, दो अश्विनी कुमार के बेटे थे। सब देवताओं के बेटे थे। तो क्या किया उन्होंने? माल मारा? मकान बनाए? जायदाद बनाई? औरतों के लिए सोने के जेवर बनाए? क्यों साहब! जो देवता जितना बड़ा मालदार, वह उतना ही बड़ा भाग्यवान होता है? भगवान जिसको जितनी दौलत दे, वह उतना ही भाग्यवान होता है। नहीं बेटे! आध्यात्मिक दृष्टि से वह भाग्यवान नहीं होता। आध्यात्मिक दृष्टि से भाग्यवान वह होता है, जिसने जितना त्याग करके दिखाया है, जिसने जितना साहस करके दिखाया है।
देवत्व आता है तो आचरण से शिक्षण देता है
मित्रो! पाण्डवों का जीवन आरंभ से लेकर अंतिम समय तक कठिनाइयों का जीवन है; मुसीबतों का जीवन है; कष्टों का जीवन है। श्रेष्ठ कामों के लिए जो आदमी कष्ट उठा सकते हैं, त्याग कर सकते हैं और मुसीबतें सह सकते हैं, देवता उन्हीं का नाम है। नहीं साहब! देवता जिस पर प्रसन्न होते हैं, उसका घर सोने का बना देते हैं। उसके बेटे को इनकम-टैक्स ऑफिसर बना देते हैं। बकै मत! देवत्व जिसके भीतर आता है, वह दूसरों का अपने चरित्र के माध्यम से शिक्षण करता है। क्या हम अपने सिद्धांतों के प्रति पक्के और सच्चे हैं? हम कैसे मानें कि आप सच्चे हैं और पक्के हैं। नहीं साहब! हम सच्चे और ईमानदार हैं। हमें नहीं मालूम कि आपकी परीक्षा होनी चाहिए कि नहीं, लेकिन परीक्षा के बिना हम कैसे जानेंगे कि आप सच्चे हैं कि अच्छे हैं। हर आदमी को अपने सच्चे होने की और अच्छे होने की परीक्षा देनी पड़ती है। यह परीक्षा कैसे हो सकती है? बेटे! कठिनाइयों से होती है, और कैसे होती है? नहीं साहब! आप इम्तिहान ले लीजिए। आप सवाल पूछ लीजिए हम लिखकर दे देंगे। बेटे! इसमें सवाल नहीं पूछा जाता, वरन चरित्र के माध्यम से पता लगाना पड़ता है कि व्यक्ति जबान से जिन सिद्धांतों को बक-बक करता है और जब मुसीबत का वक्त आता है, कठिनाई का वक्त आता है, तो उनका पालन कर सकता है कि नहीं कर सकता।
साथियो! इसकी एक ही परीक्षा है, दूसरी कोई नहीं है कि आप कठिनाइयों में सही साबित होते हैं कि नहीं? यह बताइए। लोभ का दबाव आने पर आप सही साबित होते हैं कि नहीं? मोह का दबाव आने पर आप सही साबित होते हैं कि नहीं? सिद्धांतों के प्रति, जिनकी आप हर वक्त दुहाई देते रहते हैं, उनका रक्षण करने के लिए लोभ का दबाव, मोह का दबाव आप मानते हैं कि नहीं? इनसान के बाहर वाले हिस्से पर पड़ने वाले दबाव तो कई हो सकते हैं, लेकिन भीतर वाले हिस्से पर बस दो ही दबाव दुनिया में काम करते हैं-एक लोभ का, दूसरा मोह का, जो हमको सिद्धांतों की तरफ नहीं बढ़ने देते। लोभ और मोह से, चैन और आराम से, खुशहाली और ऐय्याशी से अपने आप का बचाव करके जो आदमी सिद्धांतों के लिए अग्निपरीक्षा में चढ़ सकते हैं, वही आदमी देवता कहला सकते हैं। श्रीकृष्ण भगवान के साथ भी देवता आए थे। और कौन-कौन के साथ में आए थे? बेटे! सबके साथ में देवता आए थे। भगवान के साथ-साथ में देवता हमेशा आते रहे हैं।
देवता आपके अंदर भी है
साथियो! हमको और आपको जो काम करना है, मैंने आपको उसकी याद दिलाई कि पुराने जमाने के इतिहास से आप संगति मिलाते हुए अपना मुँह शीशे में देख सकते हैं। आपके भीतर भी एक ऐसा ही देवता झाँकता हुआ मिलेगा, जैसा कि मैंने आपसे कहा है। शायद आपके भीतर से कोई हनुमान झाँकता हुआ दिखाई दे। दुनिया को आप देखते हैं कि नहीं, कभी अपने आप को भी देखना, तब आप अपने भीतर की बुराइयों को भी देखेंगे, पर मैं चाहूँगा कि आप अपने भीतर में देवता की झाँकी करें। आप अपने भीतर एक ऐसे व्यक्तित्व की झाँकी करें, जो पाप के पैक में फँसा हुआ सा नहीं है, पर उसे मौका मिले तो वह हनुमान जैसी भूमिका भी निभा सकता है और नल -नील जैसी भूमिका भी निभा सकता है और इतिहास में बहुत बड़ा काम कर सकता है। आप अपनी भूमिका निभा पाएँ इसलिए आपको आत्मबोध कराने के लिए आपकी परिस्थिति से अवगत कराने के लिए आपके लिए जो उचित काम है, कर्तव्य है, उसका उद्बोधन कराने के लिए यहाँ आपको बुलाया गया है।
यह वक्त बार-बार नहीं आएगा
बेटे! यह युग बदलने का वक्त है। युग संध्या का वक्त है। यह बार बार नहीं आएगा। एक ही बार आया है और यह चला जाएगा। दोबारा नहीं आ सकता। गाँधी जी का उनासी आदमियों का जत्था जिस समय नमक बनाने के लिए गया था, मैं भी उन दिनों वहीं था। साबरमती के आश्रम में गाँधी जी के पास मैं रहता था। क्योंकि मेरी उम्र अठारह साल से कम थी, इसलिए नाबालिग होने की वजह से उन्होंने इनकार कर दिया था कि आप वहाँ नहीं जा सकते। आपकी उम्र छोटी है, इसलिए हम नमक सत्याग्रहियों में आपको लेकर नहीं चलेंगे। हमको नहीं लिया गया, लेकिन उनासी आदमी, जो नमक बनाने के लिए गए थे, उन सत्याग्रहियों की फिल्म जब देहरादून आई तो हमने वह फिल्म देखी। यू ०पी० सरकार की फिल्म हम मँगाते रहते हैं। हमारे पास फिल्म प्रोजेक्टर था। यहाँ बच्चों को, लड़कियों को दिखाते रहते थे। हमने गाँधी जी की वह फिल्म देखी, जिसमें वे नमक बनाने के लिए गए थे। उनासी आदमियों में से एक-एक कर सामने आते चले गए। हरिभाऊ उपाध्याय आते चले गए महादेव भाई देसाई आते चले गए। गाँधी जी लाठी लेकर डाँडी यात्रा में चल रहे हैं। वहाँ बरगद के पेड़ के नीचे ठहर रहे हैं। बाकी सत्याग्रहियों का जत्था एक के बाद एक चल रहा है। हम नहीं जा सके। हमारे मन में आया कि अगर मैं भी अठारह वर्ष की उम्र का रहा होता और भगवान ने अगर मौका दे दिया होता और मैं भी गया होता तो हमारी भी फिल्म सारे भारतवर्ष में दिखाई जाती और राजेश खन्ना की तरह से हमको भी लोग समझते, पर क्या करें-समय था, जो निकल गया। तो क्या वह मौका दोबारा आएगा? बेटे अब तो हम सत्तर साल के हैं। अब अगर गाँधी जी होते तो हम कहते कि अब आप हमको लेकर चलिए और हमारी भी फिल्म खिंचवा दीजिए। बेटे! अब नहीं खिंच सकती, क्योंकि वह मौका चला गया।
आपके बिना भी युग बदल जाएगा
मित्रो! यह कौन सा मौका है? युग बदल रहा है और आपके लिए युग बदलने की भूमिका दिखाने का मौका है। आप दोबारा मौका देंगे? बेटे! यह दोबारा नहीं मिल सकता। यह मौका, जिसमें आपको याद दिलाने के लिए बुलाया गया है, आप चाहें तो इस मौके का लाभ उठा लीजिए अन्यथा एक बात मैं कहे देता हूँ कि आपके बिना कोई काम रुकने वाला नहीं है। सीता वापस आ जाएगी? हाँ सीता वापस आ जाएगी। युग बदल जाएगा? जरूर बदल जाएगा। हमारे बिना भी बदल जाएगा? मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपके बिना भी बिलकुल बदल जाएगा। फिर क्या हर्ज होगा? आपका ज्यादा हर्ज होगा। आप पछताते रहेंगे। जिस तरीके से कांग्रेस के आन्दोलन में जिन-जिन लोगों को तीन महीने की सजा हुई थी, उनको ढाई-ढाई सौ रुपए की पेंशन मिल रही है। जिनको तीन महीने की सजा हुई थी, आजकल वे मिनिस्टर हो गए हैं। स्वतंत्रता-सेनानी कैसा होता है? बेटे! स्वतंत्रता-सेनानी बड़ा जबरदस्त होता है। कैसे? ऐसे, जो तीन महीने जेल रह आया, वह स्वतंत्रता-सेनानी हो जाता है। गुरुजी! तीन महीने जेल जाने पर कोई आदमी ज्यादा दुखी तो नहीं होता? बेटे! हम तो पौने चार बरस रहे हैं। हमारा तो कुछ खराब नहीं हुआ। हम बहुत अच्छी तरह रहे हैं। साहब! हमको भी तीन महीने के लिए जेल भिजवा दीजिए। तो फिर तू क्या करेगा? मै भी स्वतंत्रता-सेनानी का परिचय-पत्र दिखाऊँगा और फिर मिनिस्टर भी हो सकता हूँ और एम०एल०ए० का चुनाव भी लड़ सकता हूँ यह तो ठीक है। तो आप भिजवा दीजिए हाँ बेटे! भिजवा दूँगा।
अब जेल जाएँगे तो किस काम का!
अच्छा बेटे! एक काम कर, अपने यहाँ जुए का एक अड्डा बना ले और सारे मोहल्ले वालों को बुलाकर जुआ खेल। फिर मैं क्या करूँगा? पुलिस वाले के पास जाऊँगा और चुपचाप कह दूँगा कि भाईसाहब! मेरे साथ चलिए। अभी मैं जुआरियों को गिरफ्तार कराता हूँ। खट से पुलिस आ जाएगी और पैसे समेत तुझे और तेरे साथियों को पकड़ ले जाएगी। फिर क्या होगा? फिर तुझे तीन महीने की जेल हो जाएगी और तेरे जितने संबंधी हैं, उन सबको जेल हो जाएगी। तेरे साथ साथ में उन सबको फाइन लग जाएगा। वे भी सब जेल चले जाएँगे। फिर क्या हो जाएगा? वे सब मिनिस्टर हो जाएँगे। तू मिनिस्टर हो जाना, तेरे बहनोई, साला, पड़ोसी, नौकर-चाकर, जो भी जुए में पकड़े जाएँगे, वे सब जेल चले जाएँगे और सब मिनिस्टर हो जाएँगे और सबको ढाई-ढाई सौ रुपए महीने की पेंशन मिलेगी। गुरुजी! आप तो मजाक करते हैं। बेटे! बिलकुल मजाक कर रहा था। ऐसा कैसे हो सकता है! तो फिर आप सच-सच बताइए कि कोई और रास्ता है? हम तीन महीने के लिए जेल जाने के लिए तैयार हैं। हम चाहे तो छुट्टी ले लेंगे, अपनी खेती का हर्ज कर देंगे, खेती के लिए नौकर रख लेंगे, पर आप हमको जेल भिजवा दीजिए और ढाई सौ रुपए महीने की पेंशन दिला दीजिए। बेटे! अब हम नहीं दिला सकते। अब वह मौका चला गया। जब मौका था, तब तेरे पास दिल नहीं था और जब यह समय आ गया है, तब औरों को देखकर के कहता है कि हमको भी पेंशन दिला दीजिए। जब समय था तो नल-नील भी इतिहास प्रसिद्ध हो गए थे; गीध भी हो गए थे; गिलहरी भी हो गई थी; जामवंत भी हो गए थे। अब वह समय चला गया। अब क्या रखा है!
यह युग-परिवर्तन की वेला है
मित्रो! यही समय है, जिसके लिए मैं आपको याद दिलाता था और इसीलिए इस शिविर में आपको बुलाया है। अगर आप समय को परख सकते हों, समय को देख सकते हों, समय को जान सकते हों, तो आप यह देख लें कि यह युग-परिवर्तन का समय है। इससे अच्छा, बेहतरीन समय शायद आपके जीवन में दोबारा नहीं आएगा और मैं तो केवल आपके जीवन की बात नहीं कहता हूँ हजारों वर्षों तक ऐसा समय नहीं आएगा, जैसे कि हम और आप जिस समय में बैठे हुए हैं। इस समय में क्या करना चाहिए? बेटे! आपको एक ही काम करना चाहिए कि संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए मेहनत करनी चाहिए और मशक्कत करनी चाहिए। अच्छा आप कार्यक्रम बताइए! बेटे, आपके सामने जो कार्यक्रम पेश किया है, आज की परिस्थिति में इससे अच्छा दूसरा नहीं हो सकता। आज की क्या परिस्थिति है? आज की परिस्थिति एक ही है कि आज के युग का जो रावण है, वह क्या है? इस युग की पूतना क्या है? इस युग की ताड़का क्या है? इस युग की शूर्पणखा क्या है? इस युग की सुरसा क्या है? इस युग की एक ही सुरसा है, जिसका नाम है बेअकली। आदमी के अंदर बेअकली इस कदर हावी हुई है कि जब से दुनिया बनाई गई, तब से आज का दिन है, मैं सोचता हूँ कि बेअकली का दौर इतना ज्यादा कभी नहीं हुआ, जितना कि आज है। आज आदमी कितना शिक्षित होता हुआ चला जाता है, पर बेअकली की हद है। कहाँ तक पढ़ा है? पढ़ने वाले के ऊपर लानत! जाने कहाँ तक पढ़ते जाते हैं। बी०ए० पास है, एम०ए० पास है। अच्छा तो यह कमाता तो जरूर होगा? मैं जानता हूँ कि बी०ए० पास को ढाई सौ रुपए मिलते होंगे, तो एम०ए० पास को चार सौ रुपए मिलते होंगे। इतना तो इनको मिलता ही होगा, लेकिन बेअकली के मामले में ये वो आदमी हैं, जिनको मैं ''बेहूदा'' शब्द कहूँ, तो भी कम है। आदमी जीवन की समस्याओं के बारे में इतना ज्यादा गैरजिम्मेदार है कि जिसके दुःखों का ठिकाना नहीं है। जहाँ भी वह रहता है, क्लेश पैदा करता रहता है। दफ्तर में रहता हैं तो क्लेश पैदा करता है। जहाँ कहीं भी जाता है, क्लेश पैदा करता है -अपने लिए भी और औरों के लिए भी। यह बेअकल आदमी है, जिसको जिंदगी का मजा, जिंदगी का सौंदर्य, जिंदगी का सुख लेना आता ही नहीं। जिंदगी का सुख और सौंदर्य कैसे हो सकता है, इसके बारे में हमें क्या विचार करना चाहिए हमको मालूम ही नहीं है।
घर-घर जाकर बेअकली दूर करनी होगी
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आज के जमाने में सिर्फ एक काम करना पड़ेगा कि हमको जन जन के पास जाकर के उनकी बेअकली को दूर करना पड़ेगा। जहाँ जहाँ तक वह फैली हुई हैं, उसको दूर करने के लिए हमको वह काम करना पड़ेगा, जो परिव्राजक अभियान के अंतर्गत हमारे प्राचीनकाल में ऋषि किया करते थे, मध्यकालीन तीर्थयात्री किया करते थे। अंतिम समय में भगवान बुद्ध के शिष्यों, परिव्राजकों ने किया था। आपको यही करना पड़ेगा। घर-घर में जाना पड़ेगा। घर-घर को जगाना पड़ेगा। घर-घर में जो अवांछनीयता की और अनैतिकता की बीमारियाँ फैली पड़ी हैं, घर-घर में दवा बाँटनी पड़ेगी। आपको घर-घर में डी०डी०टी० छिड़कनी पड़ेगी। घर-घर में इसके छिड़काव की जरूरत है; क्योंकि मलेरिया बहुत जोर से फैल गया है। मलेरिया के मच्छर बेहिसाब से आ रहे हैं। घर-घर जाइए। नहीं साहब! मच्छरों को यहीं बुलाकर लाइए और जो घर की सीलन है, सबके यहाँ खबर भेजिए कि लिफाफे में बंद कर डाकखाने के माध्यम से हमारे पास मच्छरों को भेज दें। मलेरिया के मच्छर जैसे ही हमारे पास आएँगे, हम सबको पकड़ लेंगे। भाईसाहब! मलेरिया के मच्छर आपके यहाँ नहीं आ सकते, आप चाहें तो वहाँ पर जा सकते हैं। मलेरिया आपके यहाँ नहीं आएगा, आप चाहें तो वहाँ जा सकते हैं। आप डी०डी०टी० लेकर घरों में जा सकते हैं। घर आपकी डी०डी०टी० के पास नहीं आएँगे।
जनजागरण हेतु बड़ी सेना की तैयारी
इसलिए मित्रो! आज का सबसे बड़ा काम है, जो हम आपके सुपुर्द करते हैं। क्या सुपुर्द करते हैं? जनजागरण का काम करना पड़ेगा। जनसाधारण को जगाना पड़ेगा। फिर आदमी का वह शिक्षण करना पड़ेगा, जिससे उसकी विचारणा और उसके चिंतन को नए सिरे से दिशा दी जा सके, नए सिरे से उसमें हेर फेर पैदा किया जा सके। अगले दिनों हमको यही करना पड़ेगा। अगले दिनों आपकी वानप्रस्थ योजना, जो बड़ी समर्थ योजना है, बड़ी सशक्त योजना है, बड़ी सांगोपांग योजना है, को चलाएँगे। आप इतनी बड़ी योजना चलाएँगे? हाँ बेटे! इतनी बड़ी योजना चलाएँगे। अब तक हम अकेले काम करते थे। तब हमारे पास क्या था-बस, दो चार दस आदमी गायत्री तपोभूमि पर रहते थे। पाँच-पचास आदमी और थे, जिन्हें जहाँ-तहाँ भेजते थे। अब क्या करेंगे? अब बेटे! हम क्रमबद्ध रूप से परिव्राजक योजना को चलाएँगे। पहले शिविर में आपके कितने आदमी थे? दोनों शिविरों को मिलाकर तीन सौ के करीब हो जाते हैं, ये सब के सब तो नहीं जाएँगे, लेकिन आप यकीन रखिए यहाँ शिविर में जो आते हैं, उतने ही आदमी नहीं हैं। हम अपने सारे के सारे गायत्री परिवार के लोगों को जगाएँगे और बुलाएँगे। समयदानियों से ले करके वरिष्ठ वानप्रस्थों तक की कितनी बड़ी सेना बना लेंगे।
हम एक लाख पादरी बनाएँगे
मित्रो! हम कोशिश करेंगे कि उसी स्तर की, उसी संख्या में सेना बना दें, जितनी कि भगवान बुद्ध बनाने में समर्थ हुए थे। एक लाख के करीब उन्होंने शिष्य बनाए थे और ईसाई मिशन के पास भी एक लाख के करीब पादरी हैं। आप भी इतनी हिम्मत करते हैं? बेटे! कोशिश करेंगे। इतने आदमी यहाँ शान्तिकुञ्ज में तो नहीं रह सकते, लेकिन हमारा ऐसा ख्याल है कि हम गाँव गाँव में, देश देश में और घर घर में शान्तिकुञ्ज बनाएँगे और जाग्रत केंद्र बनाएँगे। वहाँ से फिर ईसाई मिशन के तरीके से हम नए वानप्रस्थ पैदा कर सकते हैं। बेटे! हमारे ख्वाब बड़े महत्त्वाकांक्षी हैं। आगे क्या होगा? भगवान जाने, लेकिन हमारे ख्वाब जरूर ऐसे हैं। नहीं साहब! आज की बात बताइए। आज की बात तो यह है कि छोटे से कार्यक्रम के लिए हम आपको भेजते हैं। बड़ा काम तो हम बाद में सुपुर्द करेंगे। कैसे सुपुर्द करेंगे? बेटे! हमारी महत्त्वाकांक्षाओं को जब देखेगा तो तू कहेगा कि गुरुजी तो पागल हैं और सनकते रहते हैं। जब हम विदेशों में गए तो हर जगह हममे एक ही बात कही गई कि साहब! प्राचीनकाल में संत और ऋषि थे। अब संत और ऋषि रहे कहाँ! उन्होंने कहा कि यदि रहे होते तो आप उन्हें क्यों नहीं भेजते? हमारे देश में भारत का धर्म और संस्कृति खतम होती चली जा रही है। हमें ब्याह कराने तक की विधि मालूम नहीं है। हमको हिंदुस्तानी तक बोलना नहीं आता। अब अगर आप हमारे यहाँ कोई आदमी भेज दें, तो कम से कम हमारे बच्चों को, हमारी महिलाओं को वे ज्ञान कराते रहेंगे। हमारे यहाँ भी कुछ काम चलता रहेगा, संस्कार होते रहेंगे। हम तो संस्कार भी नहीं कराते, और कोर्ट में जा करके, अदालत में जा करके रजिस्ट्रेशन करा लेते हैं। हमको हवन-विधि भी नहीं आती। आप कुछ लोगों को यहाँ भेज दें, तो कुछ काम बने। बेटे! हम भेजने की कोशिश करेंगे।
जेबकट हमें विदेश नहीं भेजना
मित्रो! विदेशों में जितने आदमी जाते हैं, अधिकांश व्याख्यान झाड़ने के लिए जाते हैं। वे समझते हैं कि हमें स्टेज पर बोलना आ गया तो जाने क्या आ गया! वे व्याख्यान देते हैं और इस तरह की वाणियाँ बोलते हैं और फिर कहते हैं कि हम आश्रम बनाएँगे, मंदिर बनाएँगे। आश्रम की, मंदिर की सब योजनाएँ लेकर जाते हैं और वहाँ से पाँच पच्चीस हजार रुपए इकट्ठे कर लेते हैं। आने जाने का खरच अलग से वसूल कर लेते हैं। पंद्रह हजार हवाई जहाज का किराया खरच कराया। पच्चीस हजार उसका ले लिया। महीने भर के अंदर चालीस हजार का बेचारों को चाकू मारकर चले आए। इस तरह लोग विदेश जाते हैं और दस दिन वहाँ, बीस दिन वहाँ लेक्चर झाड़ करके और यहाँ वहाँ घूम-घाम करके महीने भर की छुट्टी काट करके आ जाते हैं। साहब! मुझे भेज दीजिए। मैं ऐसा लेक्चर झाड़ना जानता हूँ कि बस मजमा बाँध दूँगा। बेटे! अगर तेरे लेक्चर को हम टेप करा करके भेज दें तो? नहीं महाराज जी! टेप कराकर मत भेजिए। मुझे ही भेज दीजिए! चल बदमाश कहीं का! इस तरीके से सारे के सारे जेबकट आदमी लेक्चर झाड़ने के लिए यहाँ से वहाँ मारे मारे डोलते हैं। यह ठीक नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥
प्रवचन के साथ आचरण भी करें
जब भारतीय संस्कृति का लोग महत्त्व समझते थे, उस पर विश्वास करते थे, उसको आचरण में लाते हुए अपना गौरव समझते थे, तब इस देश में घर-घर महापुरुष उत्पन्न होते थे। भौतिक समृद्धि और सामाजिक सुख-शांति की कमी न थी। इस संस्कृति के ढाँचे में ढले हुए नर-रत्न अपने प्रकाश से समस्त संसार में प्रकाश उत्पन्न करते थे और उसी आकर्षण के कारण विश्व की जनता उन्हें जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं भूसुर, पृथ्वी के देवता मानती थी। यह देश स्वर्ग की अपेक्षा भी श्रेष्ठ समझा जाता था। अतीत का इतिहास इस तथ्य का मुक्त कंठ से उद्घोष कर रहा है।
अपने स्वार्थ, सुख-साधन, धन-संपदा संग्रह, ऐश-आराम को लात मारकर अपनी आत्मा का कल्याण करने के निमित्त लोकसेवा और परमार्थ में जीवन व्यतीत करने में यहाँ के लोग अपने जीवन की सफलता मानते रहे हैं।
सदा अपने को तप से तप्त करके अपनी महान सेवाएँ विश्वमानव के उत्कर्ष में लगाने वाले ऋषियों की जीवनियाँ पढ़ने पर मनुष्य की अंतरात्मा उनके चरणों पर लोट जाने को करती है। विश्वामित्र, वसिष्ठ ,जमदग्नि, कश्यप, भारद्वाज, कपिल, कणाद, गौतम, जैमिनी, पराशर, याज्ञवल्क्य, शंख, कात्यायन, गोमिल, पिप्पलाद, शुकदेव, मृगी, लोमश, धौम्य, जरुत्कार, वैशम्पायन आदि ऋषियों ने अपने को तिल-तिल जलाकर संसार के लिए वह प्रकाश उत्पन्न किया जिसकी आभा अभी तक बुझ नहीं सकी है। सूत और शौनक निरंतर प्राचीनकाल के महापुरुषों की गाथाएँ विरुदावलियाँ, धर्म-चर्चाएँ सुना-सुनाकर मानव जाति की सुप्त अंतरात्माओं को जगाया करते थे।
आज अधिकांश पंडित, पुरोहित, साधू ,, ब्राह्मण आदि संसार को मिथ्या बताते हुए मुफ्त का माल चरते रहते हैं और आलस्य-प्रमाद से चित्त हटाकर संसार का बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए कुछ भी श्रम नहीं करते। पर भारतीय संस्कृति की परंपरा इससे सर्वथा भिन्न रही है। साधुता और ब्राह्मणत्व का आदर्श दूसरा ही है। शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, सिख धर्म के दस गुरु, दयानंद, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, चैतन्य, कबीर, विवेकानन्द, रामतीर्थ आदि असंख्य धर्मगुरु लोकहित के लिए जीवनभर घोर परिश्रम, प्रयत्न और परिभ्रमण करते रहे। उन्होंने लोकसेवा को एकांत मुक्ति से अधिक महत्त्व दिया। भगवान बुद्ध जब अपनी जीवन लीला समाप्त करने लगे तो उनके शिष्यों ने पूछा- ''आप तो अब मुक्ति के लिए प्रयाण कर रहे हैं।'' बुद्ध ने उत्तर दिया-''जब तक संसार में एक भी प्राणी बंधन में बँधा हुआ है, तब तक मुझे मुक्ति की कोई कामना नहीं है। मैं मानवता का उत्कर्ष करने के लिए बार-बार जन्म लेता और मरता रहूँगा।'' स्वामी दयानंद सरस्वती भी योग साधना करने हिमालय में गए थे, पर उन्हें वहाँ ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि ''लोकसेवा ही सर्वोत्तम योग साधना है।'' स्वामी जी तपस्या से लौट आए और अज्ञानग्रस्त जनता में ज्ञान प्रसार करने को ही अपनी साधना मानते हुए जीवन समाप्त कर दिया।
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