उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! सज्जनो!!
इस संसार में कुल मिलाकर तीन शक्तियाँ हैं, तीन सिद्धियाँ हैं। इन्हीं पर हमारा सारा जीवन-व्यापार चल रहा है। लाभ सुख जो भी प्राप्त करते हैं, इन्हीं तीन शक्तियों के आधार पर हमें मिलते हैं। पहली शक्ति है श्रम की शक्ति, शरीर के भीतर की शक्ति भगवान् की दी हुई शक्ति। इससे हमें धन व यश मिलता है। जमीन पहले भी थी, अभी भी है। यह मनुष्य का श्रम है। जब वह लगा तो सोना, धातुएँ, अनाज उगलने लगी। जितना भी सफलताओं का इतिहास है, वह आदमी के श्रम की उपलब्धियों का इतिहास है। यही सांसारिक उन्नति का इतिहास है।
जमीन कभी ब्रह्माजी ने बनाई होगी तो ऐसी ही बनाई होगी जैसा कि चन्द्रमा है। यहाँ गड्ढा, वहाँ खड्डा, सब ओर यही। श्रम ने धरती को समतल बना दिया। नदियाँ चारों ओर उत्पात मचा देती थीं। जलप्लावन से प्रलय-सी आ जाती थी। रास्ते बन्द हो जाते थे। ब्याह-शादियाँ भी बन्द हो जाती थीं, उन चार महीनों में जिन्हें चातुर्मास कहा जाता है सुना होगा आपने नाम। आदमी जहाँ थे, वहीं कैद हो जाते थे। यह आदमी का श्रम है, आदमी की मशक्कत है कि आदमी ने पुल बनाए, नाव बनाई, बाँध बनाये। अब वह बन्धन नहीं रहा। सारी मानव जाति श्रम पर टिकी है। आदमी का श्रम, जिसकी हम अवज्ञा करते हैं। दौलत हमेशा आदमी के पसीने से निकलती है। आपको सम्पदा के लिए कहीं गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने की जरूरत नहीं है। एक ही देवता है—श्रम का देवता। वही देवता आपको दौलत दिला सकता है। उसी की आपको आराधना-उपासना करनी चाहिए।
माना कि आपके बाप ने कमाकर रख दिया है, पर बिना श्रम के उसकी रखवाली नहीं हो सकती। श्रम कमाता भी है, दौलत की रखवाली भी कर सकता है। हम श्रम का महत्त्व समझ सकें, उसे नियोजित कर सकें तो हम निहाल हो सकते हैं। मात्र सम्पत्तिवान-समृद्ध ही नहीं, हम अन्यान्य दौलत के भी अधिकारी हो सकते हैं। सेहत, मजबूती श्रम से ही आती है। शिक्षा, कला-कौशल शालीनता, लोक-व्यवहार में पारंगतता श्रम से ही प्राप्त होती है। बेईमानी से, चालाकी से आदमी दौलत की छीन-झपट मात्र कर सकता है, पर उसे कमा नहीं सकता। आप यदि फसल बोना चाह रहे हैं तो बीज बोइए। यदि चालाकी करें, बीज खा जाएँ तो कुछ नहीं होने वाला। हर आदमी को ईमानदारी से श्रम किए जाने की, मशक्कत की कीमत समझाइए। सम्पदा अभीष्ट हो, विनिमय करना चाहते हो तो कहिए श्रमरूपी पूँजी अपने पास रखें। उसका सही नियोजन करिए। यह है दौलत नम्बर एक।
दूसरे नम्बर की दौलत है हमारी ज्ञान की, विचार करने की शक्ति। हमें जो प्रसन्नता मिलती है इसी ज्ञान की शक्ति से मिलती है। खुशी दिमागी बैलेंस से प्राप्त होती है। यह बाहर से नहीं आती, भीतर से प्राप्त होती है। जब हमारा मस्तिष्क सन्तुलित होता है तो हर परिस्थिति में हमें चारों ओर प्रसन्नता ही प्रसन्नता दिखाई देती है। घने बादल दिखाई देते हैं तो एक सोच सकता है कि कैसे काले मेघ आ रहे हैं। अब बरसेंगे। दूसरा सोचने वाला कह सकता है कि कितनी सुन्दर मेघमालाएँ चली आ रही हैं। यह है प्रकृति का सौन्दर्य।
हम गंगोत्री जा रहे थे। चारों ओर सुनसान, डरावना जंगल था। जरा-सी पत्तों की सरसराहट हो तो लगे कि साँप है। हवा चले, वृक्षों के बीच सीटी-सी बजे तो लगे कि भूत है। अच्छे-खासे मजबूत आदमी के नीरव-एकाकी वियावान में होश उड़ जाएँ, पर हमने उस नुकसान में भी प्रसन्नता का स्त्रोत ढूँढ़ लिया। ‘सुनसान के सहचर’ हमारी लिखी किताब आपने पढ़ी हो तो आपको पता लगेगा कि हर लम्हे को जिया जा सकता है, प्रकृति के साथ एकात्मता रखी जा सकती है। अब हम बार-बार याद करते हैं उस स्थान की जहाँ हमारे गुरु ने हमें पहले बुलाया था। अब तो हम कहीं जा भी नहीं पाते, पर प्रकृति के सान्निध्य में अवश्य रहते हैं। हमारे कमरे में आप चले जाइए। आपको सारी नेचर की, प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों की तस्वीरें वहाँ मिलेंगी, बादलों में, झील में, वृक्षों के झुरमुटों में, झरनों में से खुशी छलकती दिखाई देती है। वहाँ कोई देवी-देवता नहीं है, मात्र प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों की तस्वीरें हैं। हमें उन्हीं को देखकर अन्दर से बेइन्तिहा खुशी मिलती है।
जीवन का आनन्द सदैव भीतर से आता है। यदि हमारे सोचने का तरीका सही हो तो बाहर जो भी क्रिया-कलाप चल रहे हों, उन सभी में हमको खुशी ही खुशी बिखरी दिखाई पड़ेगी। बच्चे को देखकर, धर्मपत्नी को देखकर अन्दर से आनन्द आता है। सड़क पर चल रहे क्रिया-कलापों को देखकर आप आनन्द लेना सीख लें। यदि आपको सही विचारणा की शक्ति मिल जाए तो जो स्वर्ग आप चाहते हैं उस स्वर्ग के लिए मरने की जरूरत नहीं है, मैं आपको दिला सकता हूँ। स्वर्ग दृष्टिकोण में निहित है। इन आँखों से देखा जाता है। देखने को ‘दर्शन’ कहते हैं। दर्शन अर्थात् दृष्टि। दर्शन अर्थात् फिलॉसफी। जब हम किसी बात की गहराई में प्रवेश करते हैं, बारीकी मालूम करने का प्रयास करते हैं, तब इसे दृष्टि कहते हैं। यही दर्शन है। किसी बात को गहराई से समझने का माद्दा आ गया अर्थात् दर्शन वाली दृष्टि विकसित हो गई। आपने किताब देखी, पढ़ी पर उसमें क्या देखा? उसका दर्शन आपकी समझ में आया या नहीं। सही अर्थों में तभी आपने दृष्टि डाली, यह माना जाएगा।
दृष्टिकोण विकसित होते ही ऐसा आनन्द, ऐसी मस्ती आती है कि देखते ही बनता है। दाराशिकोह मस्ती में डूबते चले गए। जेबुन्निसा ने पूछा—‘‘अब्बाजान ! आपको क्या हुआ है आज? आप तो पहले कभी शराब नहीं पीते थे। फिर यह मस्ती कैसी?’’ बोले—‘‘बेटी ! आज मैं हिन्दुओं के उपनिषद् पढ़कर आया हूँ। जमीन पर पैर नहीं पड़ रहे हैं। जीवन का असली आनन्द उसमें भरा पड़ा है। बस यह मस्ती उसी की है।’’
यह है असली आनन्द। मस्ती, खुशी, स्वर्ग हमारे भीतर से आते हैं। स्वर्ग सोचने का एक तरीका है। किताब में क्या है? वह तो काला अक्षर भर है। हर चीज की गहराई में प्रवेश में प्रवेश कर जो आनन्द खुशी मिलती है, वह सोचने के तरीके पर निर्भर है। इसी तरह बन्धन-मुक्ति भी हमारे चिन्तन में निहित है। हमें हमारे चिन्तन ने बाँधकर रखा है। हम भगवान् के बेटे हैं। हमारे संस्कार हमें कैसे बाँध सकते हैं? सारा शिकंजा चिन्तन का है। इससे मुक्ति मिलते ही सही अर्थों में आदमी बन्धनमुक्त हो जाता है। हमारी नाभि में खुशी रूपी कस्तूरी छिपी पड़ी है। ढूँढ़ते हम चारों ओर हैं। हर दिशा से वह आती लगती है, पर होती अन्दर है।
यदि आपको सुख-शान्ति, मुस्कुराहट चाहिए तो दृष्टिकोण बदलिए। खुशी सब ओर बाँट दीजिए। माँ को दीजिए, पत्नी को दीजिए, मित्रों को दीजिए। राजा कर्ण प्रतिदिन सवा मन सोना दान करता था। आपकी परिस्थितियाँ नहीं हैं देने की, किन्तु आप सोने से भी कीमती आदमी की खुशी बाँट सकते हैं। आप जानते नहीं हैं, आज आदमी खुशी के लिए तरस रहा है। जिन्दगी की लाश इतनी भारी हो गई है कि वजन ढोते-ढोते आदमी की कमर टूट गई है। वह खुशी ढूँढ़ने के लिए सिनेमा, क्लब, रेस्टोरेण्ट, कैबरे डान्स सब जगह जाता है, पर वह कहीं मिलती नहीं। खुशी दृष्टिकोण है, जिसे मैं ज्ञान की सम्पदा कहता हूँ। जीवन की समस्याओं को समझाकर अन्यान्य लोगों से जो डीलिंग की जाती है वह ज्ञान की देन है। वही व्यक्ति ज्ञानवान होता है, जिसे खुशी तलाशना व बाँटना आता है। ज्ञान पढ़ने-लिखने को नहीं कहते। वह तो कौशल है। ज्ञान अर्थात् नजरिया, दृष्टिकोण, व्यावहारिक बुद्धि।
मैंने आपको दो शक्तियों के बारे में बताया। पहली श्रम की शक्ति, जो आपको दौलत, कीर्ति, यश देती है। दूसरी विचारणा की शक्ति, जो आपको प्रसन्नता व सही दृष्टिकोण देती है। तीसरी शक्ति रूहानी है। वह है आदमी का व्यक्तित्व। व्यक्ति का वजन। कुछ आदमी रुई के होते हैं व कुछ भारी। जिनकी हैसियत वजनदार व्यक्तित्व की होती है, वे जमाने को हिलाकर रख देते हैं। कीमत इनकी करोड़ों की होती है। वजनदार आदमी यदि हिन्दुस्तान की तवारीख से काट दें तो इसका बेड़ा गर्क हो जाए, जिसके लिए हम फूले फिरते हैं, वह वजनदार आदमियों का इतिहास है। वजनदारों में बुद्ध को शामिल कीजिए। वे पढ़े-लिखे थे कि नहीं, किन्तु वजनदार थे। हजारों सम्राटों ने, दौलतमन्दों ने थैलियाँ खाली कर दीं। बुद्ध ने जो माँगा वह उन्होंने दिया। हरिश्चन्द्र, सप्तर्षि, व्यास, दधीचि, शंकराचार्य, गाँधी, विवेकानन्द के नाम हमारी कौम के वजनदारों में शामिल कीजिए। इन्हीं पर हिन्दुस्तान की हिस्ट्री टिकी हुई है। यदि इन्हें खरीदा जा सका होता तो बेशुमार पैसा मिला होता।
आदमी की कीमत है उसका व्यक्तित्व। ऐसे व्यक्ति दुनिया की फिजाँ को बदलते हैं, देवताओं को अनुदान बरसाने के लिए मजबूर करते हैं। पेड़ अपनी आकर्षण शक्ति से बादलों को खींचते व बरसने के लिए मजबूर करते हैं। वजनदार आदमी अपने व्यक्तित्व की, मैग्नेट की शक्ति से देवशक्तियों को खींचते हैं। यदि आप भी दैवी अनुदान चाहते हो तो अपने व्यक्तित्व को वजनदार बनाना होगा। दैवी शक्तियाँ सारे ब्रह्माण्ड में छिपी पड़ी हैं। सिद्धियाँ जो आदमी को देवता, महामानव, ऋषि बनाती हैं, सब यहीं हमारे आसपास हैं। कभी इस धरती पर तैंतीस कोटि देवता बसते थे। सभी व्यक्तित्ववान थे। व्यक्तित्व एक बेशकीमती दौलत है, यह तथ्य आप समझिए। व्यक्तित्व सम्मान दिलाता है, सहयोग प्राप्त कराता है। गाँधी को मिला, क्योंकि उनके पास वजनदार व्यक्तित्व था।
व्यक्तित्व श्रद्धा से बनता है। श्रद्धा अर्थात् सिद्धान्तों व आदर्शों के प्रति अटूट व अगाध विश्वास। आदमी आदर्शों के लिए मजबूत हो जाता है तो व्यक्तित्व ऐसा वजनदार बन जाता है कि देवता तक नियन्त्रण में आ जाते हैं। विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस की शक्ति पाई, क्योंकि स्वयं को वजनदार वे बना सके। भिखारी को दस पैसे मिलते हैं। कीमत चुकाने वाले को, वजनदार व्यक्तित्व वाले को सिद्ध पुरुष का आशीर्वाद मिलता है।
यदि आप किसी आशीर्वाद की कामना से, देवी-देवता की सिद्धी की कामना से आए हैं तो मैं आपसे कहता हूँ कि आप अपने व्यक्तित्व को विकसित कीजिए ताकि आप निहाल हो सकें। दैवी कृपा मात्र इसी आधार पर मिल सकती है और इसके लिए माध्यम है श्रद्धा। श्रद्धा मिट्टी से गुरु बना लेती है। पत्थर से देवता बना देती है। एकलव्य के द्रोणाचार्य मिट्टी की मूर्ति के रूप में उसे तीरन्दाजी सिखाते थे। रामकृष्ण की काली भक्त के हाथों भोजन करती थी। उसी काली के समक्ष जोते ही विवेकानन्द नौकरी, पैसा भूलकर शक्ति, भक्ति माँगने लगे थे। आप चाहे मूर्ति किसी से भी खरीद लें। मूर्ति बनाने वाला खुद अभी तक गरीब है, पर मूर्ति में प्राण श्रद्धा से आते हैं। हम देवता का अपमान नहीं कर रहे। हमने खुद पाँच गायत्री माताओं की मूर्ति स्थापित की हैं, पर पत्थर में से हमने भगवान् पैदा किया है श्रद्धा से। मीरा का गिरधर गोपाल चमत्कारी था। विषधर सर्पों की माला, जहर का प्याला उसी ने पी लिया व भक्त को बचा लिया। मूर्ति में चमत्कार आदमी की श्रद्धा से आता है। श्रद्धा ही आदमी के अन्दर से भगवान् पैदा करती है।
श्रद्धा का आरोपण करने के लिए ही यह गुरुपूर्णिमा का त्यौहार है। श्रद्धा से हमारे व्यक्तित्व का सही मायने में उदय होता है। मैं अन्धश्रद्धा की बात नहीं करता। उसने तो देश को नष्ट कर दिया। श्रद्धा अर्थात् आदर्शों के प्रति निष्ठा। जितने भी ऋषि, सन्त हुए हैं, उनमें श्रेष्ठता के प्रति अटूट निष्ठा देखी जा सकती है। जो कुछ भी आप हमारे अन्दर देखते हैं, श्रद्धा का ही चमत्कार है। आज से ५५ वर्ष पूर्व हमारे गुरु की सत्ता हमारे पूजाकक्ष में आई। हमने सिर झुकाया व कहा कि आप हुक्म दीजिए, हम पालन करेंगे। अनुशासन व श्रद्धा-गुरुपूर्णिमा इन दोनों का त्यौहार है। अनुशासन आदर्शों के प्रति। यह कहना कि जो आप कहेंगे वही करेंगे। श्रद्धा अर्थात् प्रत्यक्ष नुकसान दीखते हुए भी आस्था, विश्वास, आदर्शों को न खोना। श्रद्धा से ही सिद्धि आती है। हमें अपने आप पर घमण्ड नहीं है, पर विनम्रतापूर्वक कहते हैं कि वह देवशक्तियों के प्रति हमारी गहन श्रद्धा का ही चमत्कार है, जिसके बलबूते हमने किसी को खाली हाथ नहीं जाने दिया। गायत्री माता श्रद्धा में से निकलीं। श्रद्धा में मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं व सिद्धान्तों का संरक्षण करना पड़ता है। हमारे गुरु ने कहा संयम करो, कई दिक्कतें आएँगी पर उनका सामना करो। हमने चौबीस वर्ष तक तप किया। जायके को मारा। हम जौ की रोटी खाते। हमारी माँ बड़ी दुःखी होती। हमारी तपस्या की अवधि में उन्होंने भी हमारी वजह से कभी मिठाई का टुकड़ा तक न चखा। हमारे गायत्री मन्त्र में चमत्कार इसी तप से आया।
आप चाहते हैं कि आपको कुछ मिले तो वजन उठाइए। हम आपको मुफ्त देना नहीं चाहते, क्योंकि इससे आपका अहित होगा। वह हम चाहते नहीं। गुरु-शिष्य की परीक्षा एक ही है कि अनुशासन मानते हैं हम आपके शिष्य, ऐसा कहें व मानें। समर्थ ने अपने शिष्य की परीक्षा ली थी व सिंहनी का दूध लाने को कहा था, अपनी आँख की तकलीफ का बहाना करके। सिंहनी कहाँ थी? वह तो हिप्नोटिज्म से एक सिंहनी खड़ी कर दी थी। शिवाजी का संकल्प दृढ़ था। वे ले आए सिंहनी का दूध व अक्षय तलवार का उपहार गुरु से पा सके। राजा दिलीप की गाय को जब मायावी सिंह ने पकड़ लिया तो उन्होंने स्वयं को शक्ति-दैवी अनुदान मिलते हैं। यह आस्थाओं का इम्तिहान है, जो हर गुरु ने अपने शिष्य का लिया है।
श्रद्धा अर्थात् सिद्धान्तों का, भावनाओं का आरोपण। कहा गया है—‘भावो हि विद्यते देवा तस्मात् भावो हि कारणम्’ भावना का आरोपण करते ही भगवान् प्रकट हो जाते हैं। भगवान् अर्थात् सिद्धि हर आशीर्वाद, सिद्धि, का आधार, फीस एक ही है—श्रद्धा। उसे विकसित करने के लिए अभ्यास हेतु गुरुपूर्णिमा पर्व। गुरुतत्त्व के प्रति श्रद्धा का अभ्यास आज के दिन किया जाता है। गुरु अन्तरात्मा की उस आवाज का नाम है, जो भगवान् की गवर्नर है, हमारी सत्ता उसी को समर्पित है। वही हमारी सद्गुरु है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया है अर्थात् हमारा सुपर कांशसनेस हमारा अतिमानस ही हमारा गुरु है। अच्छा काम करते ही यह हमें शाबाशी देता है। गलत काम करते ही धिक्कारता है। गुरु ही ब्रह्मा है, विष्णु है, महेश है। गुरु अर्थात् भगवान् का प्रतिनिधि। गुरु को जाग्रत-जीवन्त करने के लिए एक खिलौना बनाकर श्रद्धा विकसित करें। आप हमें मानते हैं तो हमारा चित्र देखते ही श्रेष्ठतम पर विश्वास करने का अभ्यास करें। यह एक व्यायाम है, रिहर्सल हैं। प्रतीक की आवश्यकता इसी कारण पड़ती है।
हमारी अटूट निष्ठा-श्रद्धा की प्रतिक्रिया लौटकर हमारे पास ही आ जाती है। एक शिष्य गुरु के चरणों की धोवन को श्रद्धापूर्वक दुःखी, कष्ट-पीड़ितों को देता था। सब ठीक हो जाते थे। पर जब गुरु ने उसी धोवन का चमत्कार जानकर अपने पैरों को जल से धोकर वह जल औरों को दिया तो कुछ भी न हुआ। दोनों जल एक ही हैं, पर एक में श्रद्धा का चमत्कार है। उसी कारण वह अमृत बन गया, जबकि दूसरा मात्र धोवन का जल रह गया है। श्रद्धा विकसित करके कीजिए। साधनाएँ मात्र क्रिया हैं यदि उनमें श्रद्धा का समन्वय नहीं है। आदमी की जो भी कुछ आध्यात्मिक उपलब्धियाँ हैं, वे श्रद्धा पर टिकी हैं। आपकी अपने प्रति यदि श्रेष्ठ मान्यता है, आपकी श्रद्धा वैसी है तो असल में वही हैं आप। यदि इससे उल्टा है तो वैसे ही बन जाएँगे आप। गुरुपूर्णिमा श्रद्धा के विकास का त्यौहार है। हमारे गुरु ने अनुशासन की कसौटी पर कसकर हमें परखा है तब दिया है। हमारे जीवन की हर उपलब्धि उसी अनुशासन की देन है। वेदों के अनुवाद से लेकर ब्रह्मवर्चस् के निर्माण तथा चार हजार शक्तिपीठों को खड़ा करने का काम एक ही बलबूते हुआ। गुरु ने कहा—कर। हमने कहा—‘‘करिष्ये वचनं तव’’।। गुरु श्रीकृष्ण के द्वारा गीता सुनाए जाने पर शिष्य अर्जुन ने यही कहा कि सारी गीता सुन ली। अब जो आप कहेंगे, वही करूँगा।
आज गुरुपूर्णिमा का त्यौहार है। हम आपको बता रहे हैं कि भगवान् का नया अवतार होने जा रहा है। आज की परिस्थितियों के अनुरूप यह अवतार है। जब-जब दुष्टता बढ़ती है, तब-तब देशकाल की परिस्थितियों के अनुरूप भगवान् अवतार के रूप में जन्म लेते हैं। आज आस्थाओं में, जन-जन के मन-मन में असुर घुस गया है। इसे विचारों की विकृति कह सकते हैं। एक किश्त आज के अवतार की आज से २५०० वर्ष पूर्व बुद्ध के रूप में, विचारशील के रूप में आई थी। वही प्रज्ञा की, विवेक की, विचारों कह अब पुनः आई है। वह है गायत्री मन्त्र ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में। यह अवतार जो आ रहा है विचारों के संशोधन के रूप में दिमागों में ही नहीं, आस्थाओं में भी हलचलें पैदा करेगा। विचार-क्रान्ति के रूप में जो आ रही है वह युगशक्ति गायत्री है। यह गायत्री हिन्दुस्तान मात्र की नहीं, सारे विश्व की है। नये विश्व की माइक्रोफिल्म इसमें छिपी पड़ी है। गायत्री मन्त्र विश्व मन्त्र है। व्यक्ति का अन्तस् व बहिरंग बदलने वाले बीज इस मन्त्र के अन्दर छिपे पड़े हैं। यदि आपको यह बात समझ में आ गई तो आप हमारे साथ नवयुग का स्वागत करने में जुट जाएँगे। हम अपने लिए एक ही नाम बताते हैं मुर्गा। मुर्गा वह जो प्रभात के आगमन का उद्घोष करें कि नवप्रभात आ रहा है, नया युग आ रहा है, युगशक्ति का अवतरण हो रहा है, कुकुडूकूँ........। यह तो मुर्गा करता है। हम नए युग की अगवानी करें।
हम गायत्री की फिलॉसफी व युग के देवता विज्ञान की बात आपको बताते आए हैं। यह ब्रह्मविद्या घर-घर पहुँचे, इसमें आप सबका सहयोग चाहते हैं। जैसे सेतुबन्ध के लिए, गोवर्धन के लिए, अवतारों को सहयोग मिला, हम भी चाहते हैं कि आप भी इस प्रवाह में सम्मिलित हो जाएँ। आपको भी बाद में लगेगा कि हम भी समय पर जुड़ गए होते तो अच्छा रहता। युगशक्ति का उदय एवं अवतरण हो रहा है। आप इस अवतरण में एक हाथ भर लगा दें। आपकी गणना युगान्तरकारी पुरुषों में होने लगेगी। आप समय दीजिए, पैसा दीजिए। यह सोचकर नहीं कि हमारा काम रुकेगा। आप अपनी श्रद्धा को परिपक्व करने के लिए जो भी कर सकें वह कीजिए। हमें देने से, हमें गुरुदीक्षा से मतलब है। घर-घर, जन-जन तक गायत्री का सद्ज्ञान पहुँचाने का काम करना। दवा तो हमारे पास है आस्थाओं में छाई विषाक्तता की। आप मात्र सुई बन जाइए। आज की गुरुपूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण समर्पण की, युगदेवता के काम के लिए खपने की मैं आपसे अपेक्षा रखता हूँ। आशा है आप मेरी इच्छा पूरी करेंगे।
अन्त में यह कामना करते हैं कि जिस श्रद्धा ने हमारा कल्याण किया, वह आपका भी कल्याण करे, ताकि आप महान् बनने के अधिकारी हो सकें। आप सबका कल्याण हो, सब स्वस्थ हों, सबका समर्पण भाव बढ़ा रहे।
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् ।।’
आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति।