१. शरीर के कायाकल्प का साधन—भोजन
२. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
३. प्राकृतिक आहार
४. फलों की रोग निवारक शक्तियाँ
५. फलों के बीज पौष्टिक खाद्य
६. तरकारियाँ अधिक लीजिए
७. सलाद तैयार करें
८. दुग्धाहार
९. अन्नाहार
१०. महान उपकारी जल तत्त्व
११. रोग नाशक जल
१२. जल के अमृतोमय गुण
१३. दैनिक जीवन में जल का प्रयोग
१४. चमत्कारी विटामिन: अभाव एवं प्राप्ति
१५. ये चीजें अधिक न खाएँ
१६. अच्छी पाचन शक्ति का रहस्य
१७. आपकी खुराक क्या हो?
१८. जीवन रक्षक पदार्थ तथा उनका विवेक पूर्ण उपयोग
१९. अल्पाहार: दीर्घायु का रहस्य
२०. भोजन के समय की मन:स्थिति
२१. कुदृष्टि से सावधान रहें
१. शरीर के कायाकल्प का साधन—भोजन
आहारस्त्वपि सर्वस्व त्रिविधो भवति प्रियः। यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥ आयुः सत्वबलारोग्य सुख प्रीति बिविर्धनाः। रस्या स्निग्धा स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विक प्रियोः॥ (गीता १७-८)
भोजन की उपयोगिता—
शरीर की रक्षा, पुष्टि और स्वास्थ्य के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व मनुष्य का भोजन है। जैसे कोयले से इंजिन चलता है, चाभी से घड़ी चलती है उसी प्रकार अस्तित्व स्थिर रखने, स्वस्थ रूप में कार्य कर दीर्घ जीवी होने के लिए भोजन की उपयोगिता है। बिना भोजन के मृत्यु अवश्यंभावी है। भोजन पच कर रक्त माँस आदि का रूप प्राप्त कर शरीर के विभिन्न अवयवों को निज कार्य संपन्न करने की शक्ति प्रदान करता है। शरीर के विकास, परिवर्धन, नित्य प्रति के जीवन की छिजाई, घिसाई की क्षति-पूर्ति पौष्टिक भोजन के द्वारा ही संभव हो सकती है।मनुष्य वृद्धावस्था तक में अच्छे भोजन के बल पर पुष्ट, स्वस्थ और युवक बना रह सकता है। इसके विपरीत अपूर्ण या असंतुलित भोजन के कारण यौवन में वृद्धावस्था आ कूदती है।‘‘जैसा भोजन वैसे विचार’’-इस तथ्य में गहरी सत्यता है। साधारणतः लोगों का विचार है कि ब्रह्मचर्य पालन के लिए शुद्ध विचारों, सुसंगति, स्वाध्याय, भजन-पूजन इत्यादि में लगे रहना चाहिए। ऐसा कहने वाले प्रायः भोजन और विचारों का जो अन्योन्याश्रित संबंध है, उसे भूल जाते हैं। भोजन हमारे संस्कार बनाता है, जिसके द्वारा हमारे विचार बनते हैं। यदि भोजन सात्विक है, तो मन में उत्पन्न होने वाले विचार सात्विक और पवित्र होंगे, इसके विपरीत उत्तेजक या राजसी भोजन करने वालों के विचार अशुद्ध और विलासी होंगे। जिन जातियों में माँस, अंडे, मद्य, चाय, तंबाकू इत्यादि का प्रयोग किया जाता है, वे प्रायः विलासी, विकारमय, गंदे विचारों से परिपूर्ण होते हैं। उनकी कामेन्द्रियाँ उत्तेजक रहती हैं, मन कुकल्पनाओं से परिपूर्ण रहता है, क्षणिक प्रलोभन से अंतर्द्वन्द्व से परिपूर्ण हो जाता है। भोजन हमारे स्वभाव, रुचि तथा विचारों का निर्माता है।पशु जगत को लीजिए। बैल, भैंस, घोड़े, गधे इत्यादि शारीरिक श्रम करने वाले पशुओं का मुख्य भोजन पात, हरी तरकारियाँ या अनाज रहता है। फलतः वे सहनशील, शांत, मृदु होते हैं। इसके विपरीत सिंह, चीते, भेड़िये, बिल्ली इत्यादि माँस भक्षी चंचल, उग्र, क्रोधी, उत्तेजक स्वभाव के बन जाते हैं। घास पात तथा माँस के भोजन का यह प्रभाव है। इसी प्रकार उत्तेजक भोजन करने वाले व्यक्ति कामी, क्रोधी, झगड़ालू, अशिष्ट होते हैं। विलासी भोजन करने वाले आलस्य में डूबे रहते हैं, दिन-रात में दस बारह घंटे सो कर नष्ट कर देते हैं। सात्विक भोजन करने वाले हलके, चुस्त, कर्मों के प्रति रुचि प्रदर्शित करने वाले, कम सोने वाले, मधुर स्वभाव के होते हैं। उन्हें कामवासना अधिक नहीं सताती। उनके आंतरिक अवयवों में विष-विकार एकत्रित नहीं होते। जहाँ अधिक भोजन करने वाले अजीर्ण, सिर दर्द, कब्ज, सुस्ती से परेशान रहते हैं, वहाँ कम भोजन करने वालों के आंतरिक अवयव शरीर में एकत्रित होने वाले कूड़े-कचरे को बाहर फेंकते रहते हैं। विष-संचय नहीं हो पाता।भोजन की उपयोगिता स्पष्ट करते हुए एक वैद्य-विशारद लिखते हैं, ‘भोजन से शरीर की छीजन, जो हर समय होती रहती है, दूर होती है। यदि यह छीजन दूर न होगी तो कोष दुर्बल हो जाएँगे और चूँकि शरीर कोषों का समूह है, कोष के दुर्बल होने से संपूर्ण शरीर दुर्बल हो जाएगा।’ कोषों को वे ही पदार्थ मिलने चाहिए, जिनकी उन्हें आवश्यकता हो, जैसे गर्मी व स्फूर्ति देने वाले, उनको पुष्ट करने और अच्छी हालत में रखने वाले पदार्थ। कोषों के अंशों के टूटने-फूटने से शरीर में बहुत से विषैले अम्ल पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं। इनको दूर करने के लिए क्षार बनाने वाले पदार्थ पक्के मीठे फल, खट्टे फल, नीबू, आम चकोतरे, अनन्नास, रसभरी, कच्ची या उचित ढंग से पकाई गई साग-सब्जी, दूध, घी, मीठा दही, छाछ खाने चाहिए।
२. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
भोजन करने का आध्यात्मिक उद्देश्य है। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण उत्पन्न करने वाले भोजनों की ओर संकेत किया है। जिस व्यक्ति का जैसा भोजन होगा, उसका आचरण भी तदनुकूल होता जाएगा। भोजन से हमारी इंद्रियाँ और मन संयुक्त हैंः- आहारशुद्धौ सत्वाशुद्धिः सत्व-शुद्धौ धु्रवास्मृतिः। स्मृतिलम्भे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षाः॥ छांदोग्य॥
अर्थात् ‘‘ आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि होती है, सत्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बन जाती है, फिर पवित्र व निश्चयी बुद्धि से मुक्ति भी सुलभता से प्राप्त होती है।’’ जिन्हें काम, क्रोध, उत्तेजना, चंचलता, निराशा, उद्वेग, घबराहट, शक्तिहीनता या अन्य कोई मनोविकार है, उन्हें उसकी चिकित्सा भोजन द्वारा ही करनी चाहिए। सात्विक भोजन से चित्त निर्मल हो जाता है, बुद्धि में स्फूर्ति रहती है। आध्यात्म जगत में उपवास का अत्यधिक महत्त्व है। अधिक खाए हुए अन्न पदार्थ को पचाने और उदर को विश्राम देने के लिए हमारे ऋषियों ने उपवास की योजना की है। भोजन में चित्तवृत्तियाँ लगी रहने से किसी उच्च विषय पर ध्यान एकाग्र नहीं होता। उपवास से काम, क्रोध, रोगादि फीके पड़ जाते हैं और मन हठात् दुष्कर्म में प्रवृत्त नहीं होता। सात्विक अल्पाहार करने वाले व्यक्ति आध्यात्मिक मार्ग में दृढ़ता से अग्रसर होते हैं। जो अन्न बुद्धिवर्धक हो, वीर्य रक्षक हो, उत्तेजक न हो, कब्ज न करे, उक्त दूषित न करे, सुपाच्य हो, वह सत्वगुण युक्ति आहार है। अध्यात्म जगत में उन्नति करने, पवित्र विचार और अपनी इंद्रियों को वश में रखने, ईश्वरीय तेज उत्पन्न करने वाले अभ्यासियों को सात्विक आहार लेना चाहिए।
सात्विक आहार
सात्विक आहार क्या है? जो ताजा, रसयुक्त, हलका, स्नेह युक्त, पौष्टिक, मधुर और प्रिय हो उसे सात्विक आहार कहते हैं। जैसे गेहूँ, चावल, जौ, साठी, मूँग, अरहर, चना, दूध, घी, चीनी, फल, सेंधा नमक, रतालू, शकरकंद, तरकारियाँ, शाक इत्यादि। शाकों में घीया, तुरई, खीरा, पालक, मेथी, गाजर का विशेष महत्त्व है। ये हल्के, सुपाच्य तथा शुभ प्रकृति उत्पन्न करने वाले पदार्थ हैं। फलों में आम, तरबूज, खरबूजा, आलू बुखारा, नारंगी इत्यादि उत्तम हैं। दही भूलोक का अमृत है। सात्विक पुरुष दही, छाछ, मक्खन, पनीर इत्यादि का खूब प्रयोग कर सकते हैं।स्वामी शिवानन्द जी के अनुसार हरे ताजे शाक, दूध, घी, बादाम, मक्खन, मिस्री, मीठे संतरे, सेब, अंगूर, केले, अनार, चावल, गेहूँ की रोटी, मखाना, सिंघाड़े, काली मिर्च ली जा सकती है। सात्विक आहार से चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। दही की लस्सी, मिश्री का शरबत, नारंगी, नींबू के रस का प्रयोग सात्विक है। नीबू को खटाई में गिनना भूल है। साधक इसका सफलता पूर्वक प्रयोग कर सकते हैं। इससे पित्त का शमन होता है तथा रक्त शुद्ध होता है। एकादशी के दिन अन्न का परित्याग कर दूध और फलों सेवन करना चाहिए। इससे इच्छाशक्ति बलवती होती है तथा जिह्वा पर नियंत्रण प्राप्त होता है।प्रसिद्ध आत्मवादी डॉ० दुर्गाशंकर नागर की सम्मति इस प्रकार है ‘आध्यात्मिक पुरुष को अवस्था, प्रकृति, ऋतु तथा रहन-सहन के अनुसार विचार कर शीघ्र पचने वाला सात्विक भोजन करना चाहिए। फलाहार सब आहारों में श्रेष्ठ है। संतरे, सेब, केले, अंगूर, चूसने के आम आदि फल उत्तम होते हैं। फलाहार से उतरकर अन्नाहार है। रोटी, मूँग, अरहर की दाल, चावल, शाक, भाजी, दूध, मक्खन, घी आदि का समावेश अन्नाहार में होता है। आटा हाथ का पिसा हुआ चोकर सहित उपयोग में लेना चाहिए।’गेहूँ और जौ सत्वगुणी अनाज हैं। चने का अधिक उपयोग वायु कारक होता है। कच्चे चने को छिलके सहित भिगोकर नसें फूटने पर खाना बलकारी है। यही बात मूँग के संबंध में भी है। दालों में मूँग, मोठ, अरहर, श्रेष्ठ हैं। सिंघाड़े, शकरकंद, सत्वगुणी हैं। चावल हितकर अनाज है, जो इसे पच सकें अवश्य लें। फलों के रस, बादाम, खीरे के बीज, सौंफ, इलायची, गुलाब के फूलों की ठंडाई मिश्री मिलाकर पीना उत्तम है। गुड़ सर्वोत्कृष्ट मीठा है। गौ दुग्ध सात्विक है।
मन को विकृत करने वाला राजसी आहार
कट्वम्ल लवणात्युष्णातीक्ष्ण रूक्ष विदाहिनः।आहाराः राजस, स्येष्टा दुःख शोक भयप्रदाः॥ (गीता १७/९)
राजसी आहार का प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे मन तथा इंद्रियों पर पड़ता है। मन में कुकल्पनाएँ, वासना की उत्तेजना और इंद्रिय लोलुपता उत्पन्न होती है। मनुष्य कामी, क्रोधी, लालची और पापी बन जाता है। रोग-शोक, दुःख, दैन्य की अभिवृद्धि होती है। मनुष्य की आयु, तेज, सामर्थ्य और सौभाग्य का तिरोभाव होता है। बुद्धि मलीन होती है। राजसी आहार की सूची देखिएः-सब प्रकार के व्यसन जैसे शराब, चाय, काफी, कोको, सोडा, पान, तंबाकू, गाँजा, भाँग, चरस, अफीम, कोकेन, चंडू इत्यादि। जो सिगरेट पीते हैं, वे प्रत्यक्ष विषपान किया करते हैं। इससे नशा, भ्रम, सर में चक्कर, खाँसी, पित्त, वमन उत्पन्न होता है। खाने का पान, चूना, फंकी, तंबाकू भी घृणित हैं।तेल से तले हुए गरिष्ठ पदार्थ, बाजार में बिकने वाली मिठाइयाँ, रबड़ी, पूड़ी, कचौड़ियाँ, मालपुआ, तली हुई दालसेव, अधिक मिर्च मसाले वाले नमकीन, उत्तेजक तरकारियाँ, केवल जिह्वा के स्वाद मात्र के लिए तैयार की गई बाजारू चाट पकौड़ी, समोसे, दही बड़े, खस्ता, कचौरियाँ, मसालेदार काबुली चने, डबल रोटी, बिस्कुट, सोडावाटर, विलायती दूध, पौष्टिक दवाइयाँ भी राजसी आहार हैं।हिन्दू शास्त्र में प्याज तथा लहसुन वर्जित हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि ये उत्तेजना उत्पन्न करने वाली तरकारियाँ हैं। राजसी, विलासी व्यक्ति इनका प्रयोग करते हैं। इंद्रियाँ कामुक हो उठती हैं। अतः वे विलास मग्न रहते हैं। क्रोधी, विक्षुब्ध और उत्तेजनाओं में फँसे रहते हैं। मुँह से दुर्गन्ध आती है।दालों में उर्द, मसूर पौष्टिक होते हुए भी अपने गुणों में तामसिक हैं। यही कारण है कि हिंदू लोग मसूर की दाल से परहेज करते हैं। यह ठाकुर जी के भोग में निषिद्ध है। लाल मिर्च, गर्म मसाला, चटनियाँ, अचार, तेल, खटाई, सोंठ, अदरक, काली मिर्च, अधिक नमक राजसिक वृत्ति को प्रोत्साहित करते हैं। अत्यंत उष्ण, ठंडा, कड़ुवा, तीता, रूखा, चरपरा मिर्च वाला भोजन स्वभाव में उत्तेजना उत्पन्न करने वाला है। कुछ व्यक्तियों को गर्मा-गर्म भोजन लेने की आदत होती है, कुछ बर्फ के बिना पानी नहीं पी सकते, सोडा, लेमन बार-बार पीते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से यह बुरा है। राजसी आहार से मन चंचल, क्रोधी, लालची, विषय वासना में लगता है।
तामसी आहार
यातयामं गतरसं पूतिपर्युषितं च यत्।उच्छिष्टमपिचामेध्यं भोजनं तापसप्रियम॥ (गीता १७/१०)
मनुष्य का भोजन अनाज तथा तरकारियाँ हैं। एक से एक सुस्वादु और गुणकारी फल परमात्मा की सृष्टि में हैं, मेवों का ढेर मनुष्य को सुखी करने के लिए उत्पन्न किया गया है, दूध और शहद जैसे अमृत-तुल्य पेय पदार्थ मानव के लिए सुरक्षित हैं। किंतु शोक! महाशोक! मनुष्य फिर भी तामसी आहार लेता है।तामसी आहारों में माँस आता है। माँस मछली का प्रयोग केवल स्वाद मात्र के लिए बढ़ रहा है। अंडों का प्रयोग किया जा रहा है। भाँति-भाँति की शक्ति वर्धक दवाइयाँ, मछलियों के तेल, गुटिकाएँ, व्यसन इत्यादि तामसी वृत्ति उत्पन्न करते हैं। तामसी आहार में राजसी के अतिरिक्त रसहीन, बासी और विषम (अर्थात बेमेल) भोजन भी सम्मिलित है। बिस्कुट, डबलरोटी, चाकलेट, आमलेट, माँस से तैयार होने वाले नाना पदार्थ, काडलिवर आयल, ताकत की दवाइयाँ, काफी, शराब इत्यादि तामसी वृत्ति उत्पन्न करते हैं।तामसी आहार के लिए गीता में निर्देश है, ‘‘तामसी आहार से मनुष्य प्रत्यक्ष राक्षस बन जाता है। ऐसा पुरुष सदा दुःखी, बुद्धिहीन, क्रोधी, लालची, आलसी, दरिद्री, अधर्मी, पापी और अल्पायु बन जाता है।’’ (गीता अ० १७)जितना अधिक अन्न पकाया जाता है, उतना ही उसके जीवाणु तत्व विलीन हो जाते हैं। स्वाद चाहे बढ़ जाए किंतु उसके खाद्याज्य पदार्थ नष्ट हो जाते हैं। कई-कई रीतियों से उबालने, भूनने या तेल में पूड़ी-कचौड़ी की तरह तलने से आहार निर्जीव होकर तामसी बन जाता है। विलायती दूध, सूखा दूध, रासायनिक दवाइयाँ, बाजारू मिठाइयाँ निर्जीव होकर अपना जीवाणुत्व नष्ट कर देती हैं।भोजन में सुधार करना शारीरिक कायाकल्प करने का प्रथम मार्ग है। जो व्यक्ति जितनी शीघ्रता से गलत भोजनों से बच कर सही मार्ग पर आरूढ़ हो जाएँगे, उनके शरीर दीर्घकाल तक सुदृढ़, पुष्ट और स्फूर्तिवान् बने रहेंगे। क्षणिक जिह्वा सुख को न देखकर, भोजन से शरीर मन और आत्मा का जो संयोग है उसे सामने रखना चाहिए। जब तक अन्न शुद्ध नहीं होगा, अन्य धार्मिक, नैतिक या सामाजिक कृत्य सफल नहीं होंगे। व्यापार, नौकरी या पेशे में कपट, झूठ, छल, अन्याय होता रहेगा।
आहार का रासायनिक विश्लेषण
मनुष्य का भोजन पाँच प्रकार के वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- (१) वसा (२) कार्बोज (३) प्रोटीन (४) जल (५) खनिज लवण। जिन पदार्थों में कार्बन होता है, उन्हें सजीव तथा जिनमें कार्बन नहीं होता है, उन्हें निर्जीव कहा जाता है। उपरोक्त तत्वों में वसा, कार्बोज और प्रोटीन सजीव तथा निर्जीव दोनों पदार्थों से प्राप्त होता है, जल तथा खनिज नमक निर्जीव पदार्थों से।
प्रोटीन
प्रोटीन के अभावों में गिल्टियों की क्रिया निर्बल पड़ जाती है और आदमी अपनी अवस्था से पूर्व ही बूढ़ा हो जाता है।प्रोटीन शरीर की बाढ़ और क्षति पूर्ति के लिए आवश्यक है। प्रत्येक जीव छोटी-छोटी कोशिकाओं (सेल) से विनिर्मित होता है। मस्तिष्क, नाड़ियाँ, फेफड़े, हृदय, हड्डियाँ प्रोटीन से ही बनती है। हड्डियों के वर्धन के लिए आवश्यक होने के कारण प्रथम पच्चीस वर्ष तक प्रत्येक जीव को प्रोटीन की आवश्यकता पड़ती है। बच्चों के पोषण में हमें इस तत्व का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन वाले पदार्थ प्राप्त हो रहे हैं या नहीं? बड़ों के शरीर की टूट-फूट के लिए भी प्रोटीन लाभदायक है। प्रोटीन वाले पदार्थ इस प्रकार हैं-बिना छना गेहूँ, जौ या ज्वार इत्यादि का आटा, मशीन से न साफ किए चावल, चना, मटर, लोबिया, आलू, गाजर, शलजम, चुकंदर, हरे शाक भाजियाँ। वनस्पतियों में प्रोटीन विशेष रूप से विशेष रूप से विद्यमान रहती है। आधे से अधिक संख्या में पशु जगत वनस्पति (अर्थात पत्तियाँ, घास, हरे शाक, भाजियाँ, आदि) खाकर प्रोटीन प्राप्त करते हैं। वनस्पति अपने आप में पूर्ण, सब तत्वों से युक्त, पौष्टिक, परिवर्धन विकास के लिए उपयुक्त हैं। शाकाहारी पशु इन्हें खाकर अपना डील-डौल, शक्तिवर्धन करते हैं। उन्हें अन्य शक्ति वर्धक पदार्थों की आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य को भी चाहिए कि अधिक से अधिक वनस्पतियों का उपयोग कर शरीर को पुष्ट करने का प्रयत्न करें। परमेश्वर ने नाना प्रकार के अन्न, तरकारियाँ, भाजियाँ, फल इत्यादि प्रचुर मात्रा में उत्पन्न किए हैं। खेद है कि मनुष्य इन तत्वों के प्रति सजग नहीं है। हरी तरकारियाँ की खपत उतनी नहीं है, जितनी होनी उचित है। होना यह चाहिए कि आधी रोटी खाई जाए तथा आधी हरी भाजियाँ सब्जियाँ, कच्चे फल, मेवे इत्यादि। भारत में फलों के प्रयोग का रिवाज बहुत कम है। जिन्हें ये अनमोल पदार्थ सहज ही उपलब्ध हो सकते हैं, वे भी इन्हें प्रयोग नहीं करना चाहते।दूसरे प्रोटीन वे हैं, जो दूध, दही, पनीर, क्रीम, मक्खन, मट्ठा आदि में मिलते हैं। दूध प्रोटीन का खजाना है। सृष्टि के क्रम में परमेश्वर ने दूध द्वारा बच्चों के विकास का क्रम रखा है। माता के स्तन से दूध पाकर बच्चा धीरे-धीरे पनपता है। अपनी हड्डियों, माँस तथा व्यक्तित्व को प्राप्त करता है। यही दूध क्या बड़े क्या छोटे सभी को सुगमता से पच जाता है और पोषण में सहायक बनता है। मक्खन में उच्चकोटि का प्रोटीन है। भगवान कृष्ण ने दूध और मक्खन को अपना कर भारत में इस उच्चकोटि के खाद्य पदार्थ का प्रचार किया था। आज वनस्पति घी और मक्खन निकले हुए दूध का बोलबाला है। जहाँ तक संभव हो गाय पाल कर घी दूध की व्यवस्था प्रत्येक परिवार को रखनी चाहिए। दूध, घी, मक्खन, पनीर इत्यादि की प्रोटीन सबसे अच्छी होती है।दालों में प्रोटीन की मात्रा अधिक है। खेद है कि हिंदू के भोजन में जो सबसे पौष्टिक तत्व दाल था, वह कम होता जा रहा है। मूँग की पतली दाल, सो भी नगण्य मात्रा में प्रयोग में लाई जा रही है। सभी प्रकार की दालें पर्याप्त में लिया करें। दाल की मात्रा में वृद्धि करने से शरीर-पोषण होता रहता है। वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक कथन है कि मटर, सेम, लोबिया, उड़द इत्यादि की दालों में दूध की अपेक्षा कहीं अधिक प्रोटीन होता है। जो गरीब हैं, वे चावल, मूँगफली, तिल, खोआ, सरसों आदि के तेलों से प्रोटीन प्राप्त कर सकते हैं।
चिकनाई या वसा
इसका उपयोग शरीर की गर्मी बनाए रखने के लिए किया जाता है। मानसिक श्रम करने वालों को इस तत्व की विशेष रूप से आवश्यकता है। चिकनाई प्राणिज भी हो सकती है, जैसे घी, मक्खन आदि में तथा वानस्पतिक भी जैसे सरसों का तेल, तिल का तेल, नारियल का तेल इत्यादि। मूँगफली, सोयाबीन, सभी मेवों जैसे-बादाम, अखरोट, नारियल, पिस्ता, काजू में चिकनाई होती है।
कार्बोज या कार्बोहाइड्रेट
यह शक्ति उत्पन्न करने वाला पदार्थ है। इसकी उत्पत्ति मुख्यतः वनस्पति से मानी गई है। यह गेहूँ, चावल, बाजरा, ज्वार, साबूदाना, आलू, काजू, अमरूद, केला, सूखे मेवे जैसे खजूर, मुनक्का, किशमिश आदि और गुड़, चीनी तथा अन्य मीठी चीजों में पाया जाता है।
खनिज लवण
प्राकृतिक नमक हमें शाक भाजियों से प्राप्त होते हैं। लवण फलों में होते हैं यद्यपि हमें इनका ज्ञान नहीं होता। आलू में मुख्य खनिज पदार्थ पोटाश, कैल्शियम तथा फास्फोरस होते हैं। फलों, तरकारियों, दालों, अनाजों के छिलकों में भी लवण होता है। इस कारण उन्हें छिलके समेत पकाने या खाने की सलाह दी जाती है। फलों में लोहा, कैल्शियम, फास्फोरस सबसे उत्तम होता है और शरीर में अच्छी तरह पच जाता है। तरकारियाँ और फल जितने ताजे होंगे, उतने ही लवण उत्तम और अधिक मात्रा में उपलब्ध होंगे। पालक के शाक, सलाद, हरी ताजा पत्तीदार साग भाजियाें में लोहे का अंश अधिक होता है अतः पत्तीदार शाक पर्याप्त मात्रा में लेने चाहिए।
जल
जल जीवन का प्रमुख तत्व है। हमारे शरीर में ६४ प्रतिशत जल ही होता है। आज के युग में जल तत्व का शास्त्रीय उपयोग न होने के कारण कब्ज आदि रोग होते हैं। अथर्ववेद में लिखा है ‘‘जल ही जीवन दाता है, जल ही रोगों को दूर करता है, जल सब रोगों का संहार करता है। इसलिए यह जल ही तुम्हें सब रोगों के पंजे से मुक्त करे।’’ स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन के लिए जल बड़ा उपयोगी है।उपर्युक्त पाँचों प्रकार के जीवन तत्वों को विवेक से हमें अपने भोजन में स्थान देना चाहिए। वसा और कार्बोज दोनों शक्ति उत्पन्न करने वाली हैं। एक की कमी की पूर्ति दूसरी के द्वारा हो जाती है। अंतर केवल यही है कि वसा देर में पचती है जबकि कार्बोज शीघ्र पचती है। जल एक ऐसा बहुमूल्य पदार्थ है जिसकी प्रायः हम उपेक्षा किया करते हैं।संक्षेप में प्रोटीन युक्त भोजन शरीर को सुदृढ़ बनाता है उसका प्रयोग कीजिए। मक्खन और ताजा सब्जियाँ खाने की आदत डालिए। दूध तथा दूध से तैयार होने वाले पौष्टिक पदार्थ, ताजा पनीर, ताजी हरी सब्जियों के रस, साबुत दालें और चोकर वाला गेहूँ का आटा जीवन शक्ति की वृद्धि करता है।
३. प्राकृतिक आहार
फल, शाक, अनाज और तरकारियाँ
अपने प्राकृतिक रूप में आहार पूर्ण पौष्टिक एवं आयु, बल प्रदान करने वाला होता है। पशु-पक्षी जलचरों में सर्वत्र बिना पके हुए नैसर्गिक रूप में आहार चबाकर खाने की प्रथा है। प्रकृति जब किसी जीव को उत्पन्न करती है, तो स्वयं नैसर्गिक रूप में उसके आहार का भी प्रबंध करती है। प्रत्येक जीव के भोजन की व्यवस्था हमें प्रकृति के आँचल में मिल जाती है।साधारणतः जीवधारी दो प्रकार के हैं-(१) माँसाहारी (२) शाकाहारी या फलाहारी। माँसाहारियों की श्रेणी में वे हिंसक जीव-जंतु आते हैं जो छोटे जीवों का शिकार करते हैं और कच्चे माँस पर निर्वाह करते हैं।मनुष्य दूसरी श्रेणी का (अर्थात शाकाहारी) जीव है। उसका मुख्य खाद्य अन्न, फल और तरकारियाँ हैं। प्रकृति फल खाने का आदेश देती हैं, उसके प्रति मानव के मन में सहज आकर्षण है। फलों की जीवनदायिनी शक्ति, प्रचुरता में पाए जाने वाले विटामिन और रासायनिक लवण हमारा सर्वोत्तम आहार बनाते हैं। फल साक्षात अमृत सदृश है। अन्न के जीवाणु तत्व तो अग्नि पर जलाने, भूनने, सेंकने से नष्ट भी हो जाते हैं किंतु फलों के लिए इस प्रकार की कोई आवश्यकता नहीं होती। प्रकृति स्वयं उन्हें ऐसे प्राणतत्त्वों से परिपूर्ण करके भेजती है कि उन्हीं के बल पर मनुष्य पूर्ण स्वस्थ रह सकता है। फलाहार ऋषियों, विचारकों, दार्शनिकों तथा मानसिक कार्य करने वालों का सर्वोत्तम आहार है। हलका, मृदु, रोग नाशक, स्फूर्तिदायक और प्राणशक्ति से भर देने वाला प्राकृतिक भोजन है। शीघ्र पाची होने के कारण फलाहारी का स्वास्थ्य, यौवन, सौंदर्य और रोगों से युद्ध करने की शक्ति बनी रहती है।
फल तथा मेवे
फलाहार के अन्तर्गत हम दो प्रकार के विभाग कर सकते हैं-फल तथा मेवा। फलों में ताजगी तथा तरलता रहने के कारण वे दूसरे वर्ग की अपेक्षा शीघ्र पाची हैं। कुछ फल रसीले होते हैं। जल का मिश्रण होने के कारण इनका पाचन आसान है। इस वर्ग में नारंगी, अंगूर, आम, टमाटर, मीठा खट्टा, नीबू, मौसमी, गन्ना इत्यादि आते हैं। इनका रस अमृत संजीवनी तुल्य है। इससे पेट में भारीपन नहीं होता, जीर्ण कब्ज दूर हो जाता है। जिससे जितना बन पड़े रसीले फल अवश्य प्रयोग में लाने चाहिए। बाजार की मिठाई मत खाइए, संतरे, आम, अंगूर, मौसमी खाइए।दूसरी श्रेणी में वे फल आते हैं, जिनमें गूदा अधिक है। ये देर से पचते है। पर पौष्टिक हैं-अमरूद, अंजीर, नाशपाती, सेब, बेल शरीफा, ककड़ी, खरबूजा, तरबूजा, बेर, पपीता, केला इत्यादि अपने-अपने स्थान पर पौष्टिक हैं, इनसे रासायनिक लवण पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हो जाते हैं।फलों की दूसरी श्रेणी मेवे हैं। मेवा में किशमिश, बादाम, पिस्ता, अखरोट, काजू, गिरी, मुनक्का, बेल, छुहारा, चिलगोजे, सूखे अंजीर आते हैं। बादाम और मूँगफली इत्यादि पौष्टिक हैं। इनमें प्रोटीन और चिकनाई विशेष रूप में होते हैं। मेवों के रासायनिक विश्लेषण से विदित होता है कि इनमें चिकनाई, कैल्शियम (चूना), लोहा इत्यादि प्राकृतिक लवण प्रचुर मात्रा में होते हैं। इनमें कोई मिलावट या गंदगी का भी भय नहीं रहता। उन्हें चाहे कच्चे खाएँ या पीसकर लें-समान गुणकारी हैं। मेवों का प्रयोग करते हुए यह न मानना चाहिए कि ये दुष्पाच्य हैं। ये दूध की अपेक्षा आठ गुने पुष्टिकारक हैं।
कुछ उत्कृष्ट फल
कुछ फलों का विशेष रूप से उल्लेख करना आवश्यक है। सर्वप्रथम नीबू को लें। नीबू चाहे मीठा हो, खट्टा हो या मौसमी हो परम उपकारी फल है। इसके रस से पेट का पाचन दुरुस्त होता है और मंदाग्नि नहीं होने पाती। प्रतिदिन कागजी नीबू के जल से कुल्ले करने से, रस को मसूड़ों पर मलने से दाँत ठीक हो जाते हैं और मसूड़ों से रक्त नहीं आता। प्रातःकाल नीबू के रस को गर्म जल में सेवन करने से कब्ज दूर होता है त्वचा स्वच्छ और सुंदर निकल आती है।अंगूर में पोटैशियम, लोहा, कैल्शियम, फास्फोरस, गंधक, सिलिकन आदि महत्त्वपूर्ण खनिज तत्व होने के कारण इसमें आरोग्यदायक शक्ति है। अंगूर की शक्कर सरलता से पच जाती है। अंगूर का रस पीने से अंतः मार्ग की सफाई होती है, रक्त वृद्धि और रक्त शुद्धि होती है। रोगियों को मजबूत बनाने में इस फल का सर्वाधिक महत्त्व है।पोषण के लिए संतरे खाया कीजिए। संतरे और नीबू में विटामिन ए०बी०सी०और डी० पाए जाते हैं। विटामिन सी० के अभाव में सिरदर्द, बेचैनी, पाचन की खराबी, दाँतों के विकार, अंगों के जोड़ों की कमजोरी, स्कर्वी नामक रोग हो जाता है। संतरे के प्रयोग से इस रोग की रोकथाम हो जाती है।पपीता कब्ज दूर करने की रामबाण औषधि है। खीरा, ककड़ी इत्यादि का भी इसमें विशेष महत्त्व है। फलों में टमाटर अतीव उपयोगी एवं गुणकारी पदार्थ है। वह मंदाग्नि को दूर कर पेट की तज्जनित शिकायतें दूर करता है। टमाटर में प्राकृतिक लवण भी पर्याप्त मात्रा में होते हैं। लोहे की मात्रा दूध से दूनी होती है और सेब, संतरे, अंगूर, खरबूजे और ककड़ी में मिलने वाले लोहे से अधिक हैं। चूने में यह सेब और केले से श्रेष्ठ है। यह सभी रोगों में हितकर है।आम में खाद्य तथा रोगनाशक रासायनिक तत्वों की प्रचुरता होने के कारण शरीर को पुष्ट और निरोगी बनाने में इसका बड़ा महत्त्व है। इसमें क्षारों और विटामिनों का आधिक्य होता है। शरीर के अनेक रोग विशेषतः क्षार अथवा विटामिन की कमी के कारण हो जाते हैं और बहुत से रक्त में अम्लता बढ़ जाने से। आम रक्त में क्षारों को बढ़ा कर अम्लता को दूर कर देता है। आम एक प्राकृतिक खाद्य है जिसमें शर्करा स्वाभाविक रूप में रहती है। आम रस के शरीर में पहुँचते ही रक्त बनना आरंभ हो जाता है जो पाचन शक्ति गरिष्ठ खाद्यों के प्रयोग में लाने से क्षीण हो जाती है, वह पुनः तीव्र हो जाती है। आम के साथ दूध का प्रयोग कर आम्र कल्प करें जिससे दुर्बलता, रक्ताभाव, स्नायुदौर्बल्य, धातुदौर्बल्य, अग्निमद्यि, आरंभिक अवस्था का क्षय, अनिद्रा, रक्तचाप की कमी या अधिकता, गठिया, दमा, हृदय की कमजोरी इत्यादि बीमारियाँ दूर होती हैं। आम मीठे, पतले रस वाले (चूसने वाले) ही लीजिए। डाल के आमों में अमृत तत्व विशेष मात्रा में मौजूद रहते हैं। चूसने से पर्याप्त थूक का मिश्रण हो जाता है इसलिए जल्दी पचता है। चाकू से काट कर खाया जाने वाला आम यदि खूब चबा-चबा कर स्वाद के साथ धीरे-धीरे खाया जाए तो समान गुणकारी है।बेल देखने में कठोर पर गुणों में जादू जैसा है। यह कब्ज दूर कर कोठे को साफ कर उसे सजीव बनाता है। पतले दस्तों में दिए जाने पर यह मल को बाँधता है। नाशपाती रेचक है। इसके रस की प्राकृतिक मिठास शरीर द्वारा तुरंत उपयोग में आ जाती है। यह आँतों में एकत्रित पुराने आँव को भी निकालता है। टमाटर, मौसमी, संतरे यदि खट्टे न हों, मीठे आम, खजूर श्रेष्ठ फल हैं। केला, नाशपाती, सेब आदि कुछ फल कब्ज करते हैं। आँवले की हिंदू शास्त्रों में बड़ी महिमा है। प्रतिदिन प्रातःकाल आँवले का मुरब्बा लाभदायक है।
४. फलों की रोग निवारक शक्तियाँ
फलों में प्रकृति ने जीवन शक्ति की अभिवृद्धि के लिए उत्कृष्ट आहार दिया है। भर पेट लें, मिठाई के स्थान पर फल खरीदा करें। यदि बच्चों में मिठाई के स्थान पर फल खाने की आदत डाली जाए तो बड़ी शुभ और स्वास्थ्यवर्धक है। श्री एडोल्फ जुस्ट का कथन है, ‘‘फलों विशेषकर मेवों का भोजन शरीर को सब प्रकार की शक्तियों से पूर्ण करता है। उसकी मानसिक शक्तियाँ उन्नत होती हैं और देवताओं की सी क्षमता प्राप्त होती है। प्रकृति में जो सर्वांग सुंदर पौष्टिक तत्व है, वह फलों में भर दिया गया है।’’महात्मा गाँधी जी की सलाह मानिए, ‘‘ऋतु के फल जितने मिल सें खाएँ। आम के मौसम में आम, जामुन के मौसम में जामुन, अमरूद, पपीता, संतरा, अंगूर, खट्टे मीठे नीबू, मौसमी इत्यादि फलों का उचित उपयोग होना चाहिए। फल प्रातःकाल खाना अच्छा है। जिनका खाने का वक्त जल्दी का है, उन्हें सवेरे केवल फल खाना चाहिए।’’प्राकृतिक चिकित्सा के आचार्य श्री विट्ठल दास मोदी के विचार देखिए, ‘‘फलों में न श्वेतसार होता है, न चिकनाई, प्रोटीन की मात्रा बहुत कम होती है पर उनमें विटामिन, प्राकृतिक लवण और मिठास की प्रधानता रहती है। इस मिठास के कारण फल पचा हुआ भोजन कहलाता है। स्वाद के लिए खट्टे रसों में शहद, किशमिश, मुनक्का, अंजीर आदि का रस भी मिलाया जा सकता है। फलों के रस कृमिनाशक होते हैं, उनके संपर्क में कीटाणु एक क्षण के लिए नहीं ठहर सकते। नीबू और खट्टे सेब का रस तो इस काम को और भी तेजी से करता है। मोटापा और पित्तदोष में फल गुणकारी है। ज्वर के रोगी को यदि कोई भोजन दिया जा सकता है तो वह फलों का रस ही है। जर्मनी में ऐसे रोगियों को किशमिश, मुनक्का आदि फलों को उबाल कर उसका पानी छानकर पिलाने की प्रणाली चली आ रही है। गुर्दे की बीमारी में फलों का रस शरीर शुद्धि में सहायक होता है। गठिया, अनिद्रा, कब्ज, पुराने सिर दर्द के रोगी आदि अधिकतर फलों का व्यवहार करें।’’फलों में बीमारियों से चंगा करने की अद्भुत शक्ति है, जिसका परिचय ऊपर दिया गया है। फलों के प्रति आरंभ से ही बच्चों में रुचि उत्पन्न करनी चाहिए। छोटे बच्चों को ऐसे फल आरंभ से ही दिया करें जिन्हें दाँत से कुचल कर खा सकें। खीरा, ककड़ी, नाशपाती, सेब, अंगूर इत्यादि लाभदायक हैं।फलों के अमृत सदृश रस का उल्लेख किया गया है। जिन फलों का रस आप सरलता से लें सकते हैं, वे अंगूर, अनार, संतरे, टमाटर, मौसमी इत्यादि हैं। फलों का रस सुपाच्य होने के कारण बच्चों को बीमारियों से बचाता है। गन्ने का रस भी अद्भुत शक्ति वाला है। फल भोजन के साथ अंत में खाने का नियम रखना चाहिए। अनन्नास, अनार, नीबू, नारंगी, सेब, अंगूर, मकोय, मुनक्का आदि के रस को पानी में मिलाकर ज्वर के रोगी को लाभ सहित दिया जा सकता है।
५. फलों के बीज पौष्टिक खाद्य
फलों के बीज खाद्य अन्न का काम दे सकते हैं। खरबूजे, तरबूज, खीरे, ककड़ी, कद्दू के बीज में ऊँचे और बढ़िया प्रकार की घुलनशील चिकनाई, प्रोटीन तथा प्राकृतिक लवण विद्यमान हैं। इन खाद्यों को भूनकर या तलकर खाने से इनके विटामिन नष्ट हो जाते हैं। अतएव इनके पेय काम में लाना श्रेयस्कर है। कच्चे बीजों को पीसकर बादाम पिस्ता इत्यादि मिश्रित कर ठंडाई के रूप में लें तो शरीर के माँस-मज्जा की वृद्धि में सहायता मिलती है। इनकी चिकनाई में फास्फोरस मिला होता है, जिससे स्नायु शक्ति की अभिवृद्धि होती है।श्री टी०डा०ला०टोर अपने अनुभव करते हुए लिखते हैं, ‘‘मुझे जब इन बीजों का पुष्टिकारक गुण ज्ञात हुआ तो मैं इन बीजों के छिलकों को पृथक करने की खोज में लगा। मैंने बीजों को आटा पीसने वाली चक्की में पीसा तथा फिर पानी में उबालकर छानकर पिया। सिलबट्टे से भी यही काम लिया जा सकता है। इस प्रकार बने शर्बत में इच्छानुसार शहद या गुड़ मिलाया जा सकता है। लोग बादाम पिस्ते की ठंडाई बनाया करते हैं पर इन बीजों की बनी ठंडाई किसी प्रकार कम नहीं है। मेवों की बनी ठंडाई बच्चों के लिए भारी पड़ती है पर इन बीजों की ठंडाई तो उन्हें दूध की तरह या दूध की जगह नित्य दी जा सकती है।’’बीज सहित फलों (जैसे अमरूद, खीरा, ककड़ी) को खाने की आदत डालनी चाहिए। बाजार से एकत्रित कर गर्मी में इन्हीं की ठंडाई से काम चलाया जा सकता है।
६. तरकारियाँ अधिक लीजिए
तरकारी का दूसरा तात्पर्य है, खनिज लवणों का प्रयोग। लोहा, सल्फर, फास्फोरस, कैल्शियम इत्यादि आवश्यक लवण हम तरकारियों से प्राप्त किया करते हैं। तरकारी का रस भी फलों को नैसर्गिक गुण रखता है।सलाद, पालक, मेथी, बथुआ, नैनुआ, पातगोभी, शलजम, मूली इत्यादि शाक विशेष गुणकारी हैं। इनमें खनिज लवण विशेषतः चूना अधिक मात्रा में रहता है। विटामिन ‘ए०’ इनमें अधिक रहता है। ये शरीर के संरक्षक आहार तत्व हैं, इनमें कोई संदेह नहीं है। भोजन में क्षार की कमी होने से आँतें कमजोर होकर भीतरी झिल्लियाँ मृतप्राय हो जाती हैं किंतु सप्राण तरकारियों के प्रयोग से उनमें सजीवता लौट आती है। तरकारियों के छिलके खाद्य पदार्थ से परिपूर्ण होते हैं। इनमें विटामिन भी बहुत होते हैं। अतः जिन तरकारियों का उपयोग आप बिना छिलके उतारे कर सकें, उन्हें कदापि न छीलें। छिलके वह रक्षात्मक आवरण हैं, जिनमें प्राण शक्ति कूट-कूट कर रखी गई हैं।साग तरकारियों का भोजन हलका और सुपाच्य है। प्रतिदिन दोनों समय के भोजनों में एक पाव तरकारी की व्यवस्था प्रत्येक को रखनी चाहिए क्योंकि साग भाजियों का अवशिष्ट अंश क्षारधर्मी होता है। महात्मा गाँधी जी ने ‘‘आरोग्य की कुंजी’’ पुस्तक में स्वस्थ रहने के लिए एक पाव पकी और आधी छटाँक कच्ची तरकारी नित्य खाना आवश्यक बताया है किंतु इनका अधिक प्रयोग कब्ज दूर करने में विशेष सहायक होता है।
७. सलाद तैयार करें
कच्ची तरकारियों को खाने के लिए साग भाजियों को सलाद बना कर लेने की प्रथा पाश्चात्य देशों में चल रही है। अनेक सब्जियाँ ऐसी हैं जिन्हें कच्चा ही खाया जा सकता है। पकाने से उनकी जीवनी-शक्ति नष्ट हो जाती है या जल भुनकर कम हो जाती है। इन सब्जियों में गाजर, मूली, लौकी, खीरा, अदरक, टमाटर, हरी मिर्च, हरा धनिया, प्याज, सलाद, पत्तागोभी, फूलगोभी इत्यादि हैं। इनमें से प्रत्येक को कच्चा ही काटकर नीबू या टमाटर के साथ मिश्रित कर नमक मिर्च इत्यादि लगा कर खाया जा सकता है।गाजर, मूली, अदरक तथा नीबू या टमाटर की खटाई सर्वोत्तम है। इनको बारीक-बारीक काट लीजिए अथवा कद्दूकस में कस लीजिए और सुविधानुसार मिर्च नमक मिश्रित कर लीजिए। फिर भोजन के साथ आध पाव जरूर लिया कीजिए।तरकारियों और फलों के मिश्रित सलाद बड़े स्वादिष्ट होते हैं। ककड़ी, खीरा, अमरूद, केला, नाशपाती, पालक, हरा धनिया और नीबू, टमाटर सब मिलाकर काम में लें बड़ा स्वादिष्ट होता है। इनमें खनिज लवण, चूना, लोहा, पारा, विटामिन अधिक होते हैं। प्रत्येक मौसम में कुछ न कुछ तरकारियाँ मिल सकते हैं, उन्हीं की सहायता से सलाद तैयार करने चाहिए।रायते भी गुणकारी हैं। दही में जो सब्जियाँ जैसे कसा हुआ घीया, ककड़ी, खीरा, कचनार, बथुआ इत्यादि मिलायी जाएँ, वे या तो बिल्कुल ही न उबाली जाएँ या हलकी सी उबाल ली जाएँ। दही में केला, सेब, नाशपाती इत्यादि भी मिलाकर रायते तैयार किए जा सकते हैं।नीबू प्राकृतिक लवण का खजाना है। इसकी खटाई में ठंडक उत्पन्न करने का विशेष गुण है। यह गर्मी से बचाता है। सलाद में इसका प्रयोग गुणकारी है। नीबू का रस पानी में मिलाकर पीने से कब्ज दूर होता है। नीबू विटामिन सी का भंडार है। इसी प्रकार टमाटर में पौष्टिक तत्व भरे हुए हैं। इसमें विटामिन सी बहुत होता है। विटामिन ए भी होता है जो घी, दूध, मक्खन में होता है। दो तीन छटाँक टमाटर प्रतिदिन खाने से शरीर को पोषक तत्व मिलते रहते हैं। इसमें प्राकृतिक लवण भी बहुत होते हैं। लोहे की मात्रा दूध से दूनी होती है, जो सेब, केले और चावल से श्रेष्ठ ठहरता है। पोटाश में इसकी समता करने वाले दूसरे फल नहीं हैं। यह रक्त को स्वच्छ एवं मजबूत बनाता और हृदय दौर्बल्य को दूर करता है। इसके सेवन से क्षुधा तीव्र होती है और पाचन शक्ति सजीव बनती है।आपका नित्य का भोजन कुछ इस प्रकार का हो सकता है। नाश्ते में मौसम का कोई अच्छा फल जैसे आम, केला, नारंगी, अंगूर, टमाटर, ककड़ी, खरबूजा, बेर इत्यादि। जब ये वस्तुएँ उपलब्ध न हो सकें तो किशमिश, मुनक्का, खजूर सा कोई मीठा फल हो सकता है। दूध पाव भर और दस-पंद्रह बादाम अथवा मट्ठा, दही इत्यादि लिया जा सकता है। नाश्ता हलका रहे और शीघ्र-पाची हो अन्यथा दोपहर खुलकर क्षुधा प्रतीत न होगी। बिना क्षुधा खाने से विकार वृद्धि होगी।दोपहर के भोजन में गेहूँ, बाजरा या मकई की रोटी, थोड़ा चावल, पाव भर हरा सलाद और पकी तहरी, मठा या दही तथा मक्खन। दाल छिलकों सहित रहे, कच्ची तरकारियाँ भी खाई जा सकती हैं जैसे गाजर, मूली, खीरा, ककड़ी, प्याज, टमाटर, पालक, पातगोभी इत्यादि। इनमें खटाई के लिए नारंगी, नीबू, सिरका, रसभरी इत्यादि का रस मिश्रित किया जा सकता है। दही में केला, किशमिश, लौकी, बथुआ, खीरा, इत्यादि मिला कर रायता बना लिया करें।सायंकाल का भोजन हलका रहे। एक हरी, एक पकी तरकारी, रोटियाँ, दही और रसदार कुछ फल। रात्रि में सोने से पूर्व आध सेर दूध जो अधिक गर्म न हो।
८. दुग्धाहार
ऋषियों का भोजन-दूध मर्त्यलोक का अमृत है। ‘‘अमृतं क्षीर भोजनम’’। प्रकृति में शिशु के उत्पन्न होने से वृद्ध होकर मरने तक दूध मनुष्य के काम आता है। प्रकृति ने दूध में सबसे संतुलित आहार का क्रम रखा है, जिससे बच्चा खाकर पूर्ण परिपुष्ट और स्वस्थ बनता है। दूध मनुष्य की प्राकृतिक पौष्टिक खुराक है। वे धन्य हैं जिन्हें गौ दूध नियमित प्राप्त हो जाता है। दूध से बनने वाले अन्य पदार्थ छाछ, मक्खन, दही, पनीर इत्यादि आदर्श भोजन सब गुणों से पूर्ण हैं। दूध पृथ्वी का अमृत है। दूध का भोजन फलाहार से घटिया किंतु अन्नाहार से श्रेष्ठ आहार है। धारोष्ण और छना हुआ दूध सर्वोत्कृष्ट होता है। इसका मुख्य लाभ यह है कि यह शरीर के थके हुए कोषों को नवशक्ति प्रदान करता है, वीर्य तत्काल बढ़ता है, पेट हलका रहता है और मन शांत एवं प्रसन्न रहता है। मुँह में रख कर स्वाद के साथ दूध पीना नहीं, खाना चाहिए। खाने क अभिप्राय यह है कि धीरे-धीरे संतोष और स्वाद के साथ मजा ले लेकर पिएँ। हिंदू शास्त्रों के अनुसार यह हमारा पवित्रतम आहार है। इसके पान करने से बुद्धि भी निःसंदेह सात्विक बन जाती है, आलस्य नहीं आता, मन शांत और पवित्र बना रहता है।खालिस दूध में जल ८८ प्रतिशत, दुग्धशर्करा ४.५ प्रतिशत, खनिज-क्षार ०.७ प्रतिशत होना चाहिए। कम से कम प्रति व्यक्ति की खुराक में पाव भर दूध प्रतिदिन रहना चाहिए। दूध के पौष्टिक रूपों में दही और मठा क विशेष स्थान है। दही भूलोक का अमृत है इसमें जो मक्खन रहता है वह सुपाच्य और स्निग्धता रखने वाला है।छाछ के लिए भी अमृत की उपमा का प्रयोग किया गया है-‘‘यथा सुराणाममृतं हिताय तथा नराणामिह तक्रमाहुः’’ जैसे देवताओं के लिए अमृत है, मनुष्य के लिए मठा हितकारी हैं। मठा सेवन करने वाला मनुष्य कभी रोगों के जाल में नहीं फँसता, रोगी का रोग दूर हो जाता है, मठा से रोग पुनः उत्पन्न नहीं होता। मठा पाँच प्रकार से बनाया जाता है।(१) द्योल-मलाई के सहित बिना जल डाले जो दही मथा जाता है ऐसे मट्ठे को द्योल कहते हैं। इसमें शक्कर मिला कर खाने से वात-पित्त का नाश करता है और आनंद देता है।(२) मथित-मथित और द्योल में इतना ही अंतर है कि मथित में मलाई पृथक कर लेते हैं। यह कफ़ और पित्त का नाश करता है।(३) तक्र-जिसमें मथते समय दही का चौथाई भाग पानी डाल दिया जाए। यह मल को रोकने वाला, कसैला खट्टा, पाक में मधुर और हलका है। उष्ण वीर्य, अग्नि दीपक, वीर्य वर्धक, पुष्टिकारक और वात नाशक है।(४) उदश्वित-जिसमें दही का आधा भाग जल मिले। यह कफ़ कारक, बल बढ़ाने वाला और आँव का नाश करता है।(५) लच्छिका-(छाछ) जिसमें मलाई निकाल ली गई हो और मथकर बे हिसाब जल मिलाया जाए। यह शीतल, हलका, पित्त, प्यास और थकावट को दूर करता है, वायु नाशक है।बकरी के दूध का मथा संग्रहणी, वायुगोला, बवासीर, शूल और पांडु रोग को नष्ट करता है। यह हलका और चिकना होता है।चरक में लिखा है कि तक्र दीपन, ग्राही और हलक होने के कारण ग्रहणी रोग में हितकर है। पाक में होने के कारण पित्त प्रकोप से बचाता है। मधुर, अम्ल और चिकना होने के कारण वायु नाशक है। कषाय और उष्ण होने से कफ़ में हितकर है।प्रो० ड्यूकले और मैशिनी काफ आदि प्रसिद्ध जंतुशास्त्र विशेषज्ञों का मत है कि मट्ठे में लैक्टिक जंतु रहते हैं, जो शरीर के विषैले कीड़ों का नाश करते हैं और हमारे लिए विशेष उपकारी होते हैं।ऋतुओं के अनुसार मट्ठे का सेवन निम्नलिखित वस्तुओं के साथ करनाप अधिक लाभदायक होता है। हेमंत, शिशिर और वर्षा ऋतु में मट्ठा या दही खाना उत्तम है, किंतु शरद, वसंत और गर्मी में प्रायः यह हानिकारक है। दही या मट्ठा कफ़ कारक है और साथ ही पित्त को भी बढ़ाता है। इस कारण वसंत में हानिकारक होता है क्योंकि इस ऋतु में तो कफ़ स्वयं ही बढ़ जाता है और रोग उत्पन्न करता है। ग्रीष्म और शरद में पित्त कुपित हो जाता है इस कारण पित्त गुण वाला दही इन ऋतुओं में हानिकारक है। मट्ठा क्षुधा को बढ़ाता है, नेत्रों की पीड़ा को शांत करता है और जीवनी शक्ति को बढ़ाता है। शरीर के माँस और रक्त की कमी को दूर करता है। कफ़ और वायु को शांत करता है।
९. अन्नाहार
भारत में ऋषियों का भोजन दूध और फल ही रहे हैं। सभ्यता के आरंभ में मानव कच्चे गेहूँ और कच्चे चने इत्यादि खाकर रहा करते होंगे। कच्चे अन्न में सबसे अधिक पौष्टिक तत्व वर्तमान में रहते हैं। अन्न को भिन्न-भिन्न तरीकों से पीसने, कूटने, छानने और उनका छिलका दूर करने में प्राणशक्ति कम हो जाती है। बाजार में बिकने वाले अन्न यों भी सड़े-गले, भीजे हुए और घुन लगे हुए होते हैं। उनका प्राणतत्त्व कीड़े पहले से ही चट कर लेते हैं। अतः पौष्टिक अन्न खरीदिए और यह जाँच कर लीजिए कि गेहूँ, ज्वार, चना, बाजरा इत्यादि में कुछ लगा हुआ तो नहीं है? वे सड़े, घुने और बास वाले तो नहीं हैं? आटा या तो स्वयं घर पर हाथ की चक्की से तैयार कीजिए अथवा कराइए। बिजली की चक्की में पिसा आटा प्राणशक्ति से शून्य हो जाता है। आटा बारीक न हो और उसमें से भूसा या दाल में से चोकर न निकाली जाए। दालें-उरद, मूँग, मसूर अरहर इत्यादि छिलकेदार साबुत बनाई जाएँ तो पौष्टिक होती हैं। उबाले हुए गेहूँ, भूसी युक्त दलिया, कच्चे जौ, कच्चे गेहूँ श्रेष्ठ आहार हैं। चोकर और कनों के निकल जाने पर अन्न का बहुमूल्य भाग नष्ट हो जाता है। जो भूसी छिलके, चूरी इत्यादि पशुओं को खिलाई जाती है वह पौष्टिक तत्व है।अन्न में चावल का स्थान महत्त्वपूर्ण है। चावल का दाना कोमल होने के कारण प्रकृति ने उसके ऊपर एक आवरण रखा है इसलिए उसे हटाना पड़ता है। लेकिन कूटना इतना ही चाहिए कि भूसी और चावल के मध्य का कन न निकल जाए। मशीन के द्वारा बनाए जाने वाले चावलों से बहुमूल्य तत्व नष्ट हो जाता है। अतः वे प्राणशक्ति से शून्य होते हैं।हिंदू के भोजन में दाल ही पौष्टिक पदार्थ है। महात्मा गाँधी जी ने दाल के विषय में लिखा है, ‘‘बिना दाल की खुराक को अधूरी मानते हैं। माँसाहारी भी दाल खाता है। जिन्हें मजदूरी करनी पड़ती है और जिन्हें जरूरत भर को या बिल्कुल दूध नहीं मिलता उनका काम दाल के बिना नहीं चल सकता। दाल हमारा पौष्टिक आहार है।’’निम्नलिखित खुराक में उपर्युक्त सब तत्व प्राप्त हो सकते हैं-गेहूँ दो छटाँक, चावल दो छटाँक, दूसरे अन्न दो छटाँक = कुल ६ छटाँक, तेल एक छटाँक, गुड़ एक छटाँक, साग और हरी तरकारियाँ १ पाव, दाल डेढ़ छटाँक, दूध एक पाव तथा कुछ नमक मसाले। प्रतिदिन दो ढाई सेर जल।डॉ० एन० आर० धर ने आहार संबंधी आधुनिक विचारधारा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘‘भोजन में प्रोटीन की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक और श्वेतसार की मात्रा कम होनी चाहिए। आधुनिक सभ्य समाज अब कम से कम अन्न जैसे चावल, गेहूँ, जौ, बाजरा और यहाँ तक कि आलू भी, जो वास्तव में एक लाजवाब भोजन है, ग्रहण करना चाहते हैं। हमारे भोजन का आधा अंश तो गेहूँ इत्यादि हो, शेष तरकारियों, फलों, शाक भाजियों का हो। हमारे शरीर का उक्त एवं तंतु कुछ छारधर्मी होते हैं, इसलिए साग भाजियाँ हमारे लिए उपयोगी होती हैं। चीनी के बजाय गुड़ का प्रयोग कहीं अधिक लाभदायक है क्योंकि गुड़ में श्वेतसार, कैल्शियम, पोटैशियम, लोहा, फास्फोरस आदि खनिज पदार्थ भी पाए जाते हैं।साधारण जनता के पास शरीर के पोषण के लिए चर्बी (चिकनाई) पाने के साधन मक्खन, घी इत्यादि हैं। यदि उन्हें प्राप्त न कर सकें तो तिल, सरसों या अलसी के तेल इत्यादि भी उतने ही पुष्टिकारक हैं। तेल पौष्टिक पदार्थ हैं इनसे शरीर में चरबी की कमी पूरी होती है। वनस्पति तेल बेकार है। उसमें कोई जीवन शक्ति नहीं उलटे हानि है। वनस्पति को दिये में जलाना चाहिए और तिल, सरसों के तेल को खाना चाहिए।
१०. महान उपकारी जल तत्व
जल कितनी सर्व सुलभ वस्तु है किंतु जीवनशक्ति के लिए कितनी बहुमूल्य, कितनी उपयोगी! ईश्वरीय सृष्टि का यह नियम है कि जीवन के लिए जो-जो तत्व बहुमूल्य हैं वे उतनी ही आसानी से सर्वसुलभ कर दिए गए हैं। जल, धूप, मिट्टी, वायु इत्यादि ऐसे ही बेशकीमती प्राण तत्व हैं।
११. रोग नाशक जल
कम जल का परिणाम कब्ज होता है, तरावट कम हो जाती है और बदहजमी खुश्की रहने लगती है। रात-दिन में कम से कम अढ़ाई सेर जल शरीर में पहुँचाना चाहिए जिससे अंदर की मशीन सुचारु रूप से काम कर सके। आंतरिक मशीनरी की रचना कुछ इस प्रकार है कि दूध इत्यादि पेय तत्व जल्दी पचते हैं। ठोस भोजन भी दाँतों और लार द्वारा जल से मिलकर दूध सरीखा बन जाता है। जो कम जल पीते हैं उनका भोजन ठोस पड़ा रहता है और मंदाग्नि उत्पन्न करता है। जल पसीने के रूप में निकलकर त्वचा के सूक्ष्म रन्ध्रों को स्वच्छ रखता है। मूत्र के रूप में निकलकर अंदर की गंदगी, विष और अनावश्यक चीजों को बाहर निकालता है। पर्याप्त जल लेने से त्वचा लाल रहती है, तरावट बनी रहती है, कब्ज नहीं होने पाता, मन प्रसन्न रहता है और रक्त पतला रहता है।
वेदों में जल रोग नाशक औषधि बताया गया है—आपो इद्धउ भेषजोरापो अभीव चातनाः।आपः सर्वस्य भषजोस्तास्तु कृरावंतु भेषजम॥अर्थात जल ही परमौषधि है, जल रोगों का दुश्मन है, यह सभी रोगों को दूर करता है-इसलिए यह तुम्हारे सब रोगों को दूर करे।अथर्व वेद में लिखा है—‘‘जल ही दवा है, जल रोगों को दूर करता है, जल सब का संहार करता है। इसलिए यह जल तुम्हें कठिन रोगों के पंजे से छिड़ावे।’’भगवान ने स्वयं आदेश दिया है-‘‘जल से अभिसिंचन करो, जल सर्वप्रधान औषधि है। इसके सेवन से जीवन सुखमय बनता है और शरीर की अग्नि भी आरोग्यवर्धक होती है।’’वेदों में एक स्थान पर प्रार्थना में जल का इस प्रकार उल्लेख किया गया है, ‘‘जल हमको सुख दे, सुखोपभोग के लिए हमें पुष्ट करे, बड़ा और दृढ़ करे। जिस प्रकार माताएँ अपने दुधमुँहे बच्चों को दूध पिलाती हैं, हे जल! उसी प्रकार तुम हमें अपना मंगलकारी रस पान कराओ। तुम हमारे मलों का नाश करो और योग्य संतान प्राप्त करने में सहायक हो। हे परमेश्वर! हम तुमसे अन्नादिक पदार्थों के स्वामी, मनुष्य मात्र के रक्षक तथा रोग मात्र की औषधि जल माँगते हैं।’’जल में अमृत है, जल में औषधियाँ हैं। हे ईश्वर! दिव्य गुणों वाला जल हमारे लिए सुखकारी हो, अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति करावे। हमारे पीने के लिए हो, संपूर्ण रोगों का नाश करे तथा रोगों से उत्पन्न होने वाले भय को न उत्पन्न होने दे और निरंतर हमारे सामने बहे।‘‘हे परमात्मा! मुझ में जो पाप (बाहर या भीतर) हैं, मैंने जो द्रोह, विश्वासघात किया है या मैंने जो अपशब्द कहे हैं या मैं जो झूठ बोलता हूँ, उन सबको जल बहा ले जाए।’’
१२. जल के अमृतोमय गुण
जल में पौष्टिक एवं रक्षात्मक तत्व प्रचुरता से विद्यमान हैं। शीतलता, तरलता, हलकापन एवं स्वच्छता इसके प्राकृतिक गुण हैं। भ्रम, क्लान्ति, मूर्छा, पिपासा, तंद्रा, वमन, निद्रा को दूर करना, शरीर को बल देना, उसे तरावट देकर तृप्त करना, हृदय को प्रफुल्लित रखना, शरीर के दोषों को दूर करना, छः प्रकार के रसों को प्रदान करना और प्राणियों के लिए अमृततुल्य होना, आंतरिक मल पदार्थों को धो डालना, स्नान द्वारा बाह्य शरीर को स्वच्छ बनाना, शरीर के विजातीय तत्वों का (मूत्र, पसीना) बाहर निकालना, आमाशय, गुर्दों, त्वचा को स्वच्छ और क्रियाशील बनाना, शरीर में खाद्य का काम देना-आदि जल के कुछ गुण हैं।मानव शरीर में ६६ प्रतिशत जल ही है। खाद्य पदार्थों के पश्चात हमारा शरीर जल पर ही निर्भर रहता है। केवल जल पीकर हम एक मास बखूबी जीवित रह सकते हैं। हमारे ही शरीर को नहीं, वनस्पतियों का भी यह जीवन-दाता है। जल में रहने वाले जीवों का तो यही जीवनाधार है। पृथ्वी जल-तत्व से ही उत्पन्न हुई है।गीता में भगवान ने निर्देश किया है-‘‘रसोऽहमप्सु कौन्तेय’’ (७-८) हे अर्जुन! मैं जल में रस रूप में रहता हूँ। अर्थात जल में जीवन चलाने वाला जो रस (प्राण) है वह मैं हूँ।जल में और कई विशेषताएँ हैं जैसे सोख लेने की शक्ति, चीजों को अपने में मिला लेने और रूप परिवर्तन की शक्ति। शरीर के विकारों को धो डालने के लिए तरल रूप में इसका उपयोग किया जाता है। यह शरीर से विषैले यूरिक एसिड और आक्जेलिक एसिडों को निकाल बाहर करता है।
१३. दैनिक जीवन में जल का प्रयोग—
दैनिक जीवन में पर्याप्त जल का प्रयोग करना चाहिए। प्रातःकाल उषापान आधे सेर जल से लेकर सायंकाल सोने से पूर्व तक ढाई सेर तक जल शरीर में पहुँचाना चाहिए। जल धीरे-धीरे स्वाद सहित समुचित लार सम्मिश्रित कर दूध की भाँति पिएँ और ‘‘यह जल मुझे स्वास्थ्य, बल स्फूर्ति, जीवन देगा’’ ऐसी पवित्र भावना मन में रखें।भोजन के आध घण्टे पश्चात जल पीना प्रारंभ करें और घण्टे भर के अंतर से पाव-पाव भर शीतल जल पीते रहें। गर्मियों में अधिक जल की आवश्यकता होती है। उपवास काल में पर्याप्त जल का उपयोग करने से अंदर की मशीनरी अच्छी तरह धुल जाती है। यदि नीबू का रस मिश्रित कर लिया जाए तो और भी गुणकारी है। प्रतिदिन सोने से पूर्व आध सेर जल पिया करें।
जल कब न पिएँ
जलपान के कुछ आवश्यक नियम डॉ० लक्ष्मीनारायण टंडन ने इस प्रकार दिये हैं। आप लिखते हैं, ‘‘हमें यह भी जानना चाहिए कि जल कब न पीना चाहिए। (१) भोजन के तुरंत पहिले या तुरंत बाद जल न पिएँ, (२) पानी पीकर तुरंत पेशाब नहीं करना चाहिए, (३) एनीमा लेने के १५ मिनट पूर्व या १५ मिनट पश्चात तक जल न पिएँ। (४) चिकनी चीजें दूध मलाई, मक्खन, घी तथा मेवे, भुने चने, फल, मिठाई आदि के बाद जल न पिएँ। खीरा, ककड़ी, खरबूजा, इत्यादि के ऊपर जल न पिएँ हैजा होने का भय है। फल आदि के ऊपर जल पीने से सर्दी, नजला, जुकाम इत्यादि हो सकता है। (५) सोकर उठने पर तुरंत पानी पीने से जुकाम, सर दर्द तथा तबियत भारी होने का डर रहता है। (६) गर्म चीजों चाय, दूध आदि के ऊपर जल न पिएँ। (७) जुलाब आने पर जल न पिएँ क्योंकि तब आँत कमजोर होती है और मल बाहर फेंकने का काम करती हैं। (८) स्त्री संग के पश्चात तुरंत जल न पिएँ क्योंकि शरीर यकायक गर्म और सनसनाहट के बाद स्तब्ध सा हो चुकता है अतः तुरंत ठंडक पहुँचाना ठीक नहीं।’ (९) व्यायाम, कड़ी धूप, कठिन परिश्रम या लू के बाद तुरंत जल न पिएँ। गर्मी-सर्दी एक साथ पहुँचाना ठीक नहीं है।’’उपरोक्त अवसरों को छोड़कर पर्याप्त जल का प्रयोग करें। बुखार में जल गर्मी कम कर देता है। ठंडा पानी रक्तचाप घटाता तथा त्वचा के रन्ध्रों को क्रियाशील बनाता है, स्नायु तथा नाड़ियों को हलके तौर पर प्रभावित करता है और शरीर को पोषण करता है।
१४. चमत्कारी विटामिन: अभाव एवं प्राप्ति
विटामिन वे पौष्टिक तत्व हैं, जिनके अभाव में शरीर नाना बीमारियों से परिपूर्ण बनता है। प्रथम महायुद्ध के दिनों में शाक तरकारियों के अभाव में सैनिकों को ‘स्कर्वी’ की बीमारी हुई थी जो विटामिन सी द्वारा दूर हुई। तब से विटामिन तत्व प्रमुखता ग्रहण करता जा रहा है। विटामिन पाँच होते हैं ए०बी०सी०डी०ई०।
विटामिन ए०‘विटामिन ए०’ के अभाव में मंदाग्नि, त्वचा की शुष्कता, शक्ति की कमी, अतिसार, पाचन की खराबी, नेत्र प्रदाह, बाढ़ का रुकना, शारीरिक निर्बलता, पथरी एवं बंध्यत्व इत्यादि रोग होते हैं। यदि हम विटामिन ए० वाले पदार्थ पर्याप्त मात्रा में लें तो हम इन रोगों से बच सकते हैं। विटामिन ए० वाले पदार्थ पर्याप्त मात्रा में लें तो हम इन रोगों से बच सकते हैं। विटामिन ए० निम्न शाक तरकारियों में विशेष रूप से विद्यमान रहता है अतः उन्हें अवश्य प्रयोग में लाया कीजिए-पालक, गाजर, हरी मिर्च, टमाटर, मटर, सलाद, जिमीकंद, करेला, कुम्हड़ा, चिचिंड़ा, सहजन, अजवायन का पत्ता, करमकल्ला (पत्तागोभी), विसारी, चौलाई, धनिया, पुदीना, बथुआ इत्यादि तरकारियाँ। फलों में केला, खुबानी, आम, अनन्नास, सूखे फल, अंजीर, अलूचा, कटहल, कमरख, खजूर, संतरा, पपीता, पिस्ता इत्यादि विटामिन ए० से पूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त मक्खन, मलाई, दूध, पनीर, बाजरा, बिना भूसी की अरहर, मसूर, गुड़ इत्यादि में यह पाई जाती है।
विटामिन बी०इसकी कमी के कारण मानव शरीर में निर्बलता, मंदाग्नि, आँतों में गड़बड़ी, धड़कन, इत्यादि होते हैं, बेरीबेरी जैसे रोग होते हैं। यह विटामिन हमें जौ, गेहूँ का अंकुर, चावल का कण इत्यादि अनाजों तथा मटर, टमाटर, चौलाई, कुम्हड़ा, गोभी, आड़ू इत्यादि फल तरकारियों तथा मूँगफली, किशमिश इत्यादि में प्राप्त हो सकता है। गन्ने का रस, गुड़ और शीरा विटामिन बी. के लिए उत्कृष्ट ही नहीं, प्रत्युत लोहा, कैल्शियम और अन्य खनिज पदार्थों के लिए भी उत्तम हैं।
विटामिन सी०इसके अल्पाभाव से कब्ज होती है और तोंद बाहर निकल आती है पैर टेढ़े हो जाते हैं, शक्ति हीनता और बेचैनी बढ़ती है, दाँतों में क्षय की प्रवृत्ति होती है। इसके विशेष अभाव से अंग एेंठ जाते हैं, सीना छोटा हो जाता है, मेरुदंड वक्र हो जाता है, बाढ़ रुक जाती है, हड्डियाँ मुलायम पड़ जाती हैं, शरीर में कैल्शियम और फास्फोरस की कमी हो जाती है। यह विटामिन अधिकांश अन्नों, तरकारियों और फलों में नहीं होता। यह मक्खन, दूध, घी इत्यादि चिकनाई वाले पदार्थों में रहता है। सूर्य किरणों का शरीर की त्वचा द्वारा सेवन करने से भी यह प्राप्त हो सकता है।
विटामिन ई०इसका प्रभाव स्त्रियों पर बड़ा दूषित पड़ता है। इसके अभाव में गर्भावस्था में गड़बड़ी, बंध्यत्व, क्लीवता, यौन प्रवृत्ति की कमी तथा मानसिक शक्ति की कमी होती है। इसे प्राप्त करने के लिए गेहूँ के अंकुर की सबसे अधिक आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त सलाद, पालक, छीनी, गुड़, दूध इत्यादि आवश्यक है। जब आप उपर्युक्त किसी रोग से आक्रान्त हों तो अपने आहार का सावधानी से परीक्षण कर मालूम कीजिए कि उसमें किसी विशेष विटामिन की न्यूनता है? जिन शाक, तरकारियों अथवा फलों में वह पाया जाता है, उन्हें खुराक में सम्मिलित कर संतुलित आहार लिया कीजिए। पके भोजन के साथ हरे सलादों (अदरक, मूली, हरी मिर्च, नीबू, टमाटर इत्यादि का मिश्रण) का एक प्लेट आश्चर्यजनक गुण देने वाला है। इसी प्रकार मट्ठा, दही और दूध का आवश्यकता अनुसार अवश्य सेवन किया करें। जल का क्रम (दिन में ढाई सेर) जितना सुव्यवस्थित होगा, उतना ही शरीर शोधन होता रहेगा।
१५. ये चीजें अधिक न खाएँ
स्वाद किसी विशेष भोजन के चुनाव की उचित कसौटी नहीं है। अतः रसेंद्रिय आपको भारी संकटों में डाल सकती है। उदाहरणार्थ मीठी चीजों के खाने में अति सावधानी की आवश्यकता है। हलवा, जलेबी, मिठाइयाँ (जो मैदा से बनती हैं) नाश्ते में लेने की आदत न डालें। मिठाइयाँ आगे चलकर बहुमूत्र और मधुमेह उत्पन्न करती हैं। मिठाई में काम आने वाली सफेद चीनी विष तुल्य है। बच्चों के लिए बाजार में बिकने वाली लाल-हरी चाकलेट की गोलियाँ, बिस्कुट, मिठाई, शक्कर के नाना आकर्षक पदार्थ हानिकर हैं। मीठी चीजों के प्रति विशेष प्रवृत्ति यह दिखलाती है कि आहार में प्राकृतिक लवण की कमी है।बाजार की तली भुनी चटपटी चीजें, जो बहुत दिनों की बासी होती हैं, मक्खियों के झुंड के झुंड जिन पर मँडराया करते हैं, कदापि न लें। पूड़ी, कचौरी खाना पेट की अनेक बीमारियों को आमंत्रित करना है। महात्मा गाँधी जी के अनुसार खीर, रबड़ी, श्रीखंड, पेड़े, बरफी, जलेबी इत्यादि स्वास्थ्य की दृष्टि से शून्य हैं।
मादक द्रव्यों का परित्याग करें
मादक द्रव्य साक्षात विष तुल्य हैं। शराब, तंबाकू, गाँजा, भाँग, चरस, अफीम, चाय, काफी इत्यादि विषैले पदार्थ हैं। तंबाकू और चाय आज के फैशन में सम्मिलित हो गए हैं। आधा सेर तंबाकू में जितना विष होता है, उसका पूरा प्रभाव मनुष्य पर हो सके तो तीन सौ व्यक्ति मर सकते हैं। एक सिगरेट से दो व्यक्तियों की मृत्यु संभव है। तंबाकू का रस खेती को हानि पहुँचाने वाले कीड़ों को मारने के काम आता है। उसके तेल की एक बूँद से काला नाग फौरन मर जाता है। यदि सिगरेट को खोलकर उसकी पुलटिस को बाँध ले, तो धीरे-धीरे विष अपना प्रभाव करने लगता है। अतः निरोग मनुष्य को इनमें से कोई विषैला पदार्थ नहीं खाना चाहिए।सिगरेट सर्वथा त्याज्य है। यह एक क्षणिक उत्तेजक पदार्थ है, जो काम वासना को उद्दीप्त करता है, विवेक को नष्ट करता है और झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार की ओर आकृष्ट करता है।रूस के ऋषि टाल्सटाय ने लिखा है कि एक व्यक्ति ने सिगरेट पीकर अपनी स्त्री की हत्या तक कर डाली। टाल्सटाय की राय है कि वास्तव में सिगरेट शराब से भी बढ़कर नशा है। कितने ही सिगरेट के कारण दरिद्र बन रहे हैं। इससे पाचन शक्ति निर्बल पड़ जाती है, भोजन का स्वाद नष्ट हो जाता है, दाँत और ओठ काले और बदसूरत बन जाते हैं, मुँह से सर्वदा दुर्गंध निकलती है। आहार से पूरा लाभ उठाने और रक्त को निर्विकार रखने हेतु सिगरेट, बीड़ी, हुक्का और चाय इत्यादि नशीली चीजें छोड़ना आवश्यक हैं। ये नशे हमारे धन को ही नष्ट नहीं करते, प्रत्युत लोक-परलोक दोनों को बिगाड़ते हैं। इसी प्रकार हींग, गर्म मसाला, मिर्च, लहसुन आदि कामोत्तेजक, क्रोध बढ़ाने वाले गर्म पदार्थों से तथा माँस, मछली, अंडा इत्यादि अभक्ष्य पदार्थों से बचते रहें। इनका पूरी तरह त्याग न बन पड़े तो जितना कम हो सके करना उचित हैं।
१६. अच्छी पाचन शक्ति का रहस्य
भोजन करना भी एक कला है। मुँह पाचन का एक आवश्यक अंग है, जैसे आमाशय एवं अंतड़ियाँ। मुँह के दो बड़े कार्य हैं-(१) खुराक को खूब चबाना और पाचन के लिए दूध जैसा पेय बना देना। (२) लार या थूक द्वारा ठोस खाद्यों को तर कर देना। पिसकर ही खुराक शरीर का एक अंश बन सकती है। यदि भोजन मोटा रहेगा तो दाँत का कार्य आमाशय तथा अंतड़ियों को करना पड़ेगा और पाचन क्रिया में खराबी आ जाएगी।लार या थूक मेल का काम देता है जिससे खुराक हलकी होकर नीचे उतरती है। अतः अच्छे पाचन के लिए हमें कड़े पदार्थ को खूब महीन पीस कर पर्याप्त लार या थूक मिश्रित कर देनी चाहिए। नर्म चीजें भी चबाई जाएँ, धीरे-धीरे मुँह में काफी देर रखकर जायके से खाई जाएँ। हलुवा, खीर, दलिया, दूध इत्यादि को भी चबाने की आवश्यकता है।अच्छी तरह चबाने का तात्पर्य है, पाचन का आधा काम कर लेना। यदि भोजन को खूब चबाकर खाने की आदत डाली जाए तो वह स्वास्थ्य रक्षा में निश्चय ही सहायक होगा।जिन आहारों में मैदा होती है, यदि उन्हें खूब चबाकर खाया जाए और पर्याप्त लार मिला दी जाए तो वे भी हजम हो जाते हैं। आलू, अरबी और जिमीकंद की बाबत यह बात सोलह आने ठीक है।जहाँ पाचन क्रिया बहुत अच्छी तरह होती है वहाँ मल बहुत थोड़ा उत्पन्न होता है, अंतड़ियों के अंदर सड़ने वाली गंदगी बहुत कम पैदा होती है, कब्ज और पेचिश होने का कम भय रहता है। चबाकर ग्रास निगलें।
१७. आपकी खुराक क्या हो?
नीचे की तालिका के अनुसार भोजन सामग्री की व्यवस्था करना बहुत उपयोगी है, ऐसा भोजन-विशेषज्ञों का मत है। पाठकों को इससे लाभ उठाना चाहिए।
१-घर के अंदर काम करने वालों के लिए सस्ती खुराकअनाज (गेहूँ, चावल, मक्का इत्यादि) १० औंस, दालें ३ औंस, पत्ते वाली सब्जी-(किसी प्रकार की और सस्ती) ३ औंसदेसी तोरई, अरबी, बैंगन इत्यादि ६ औंस, तेल (खाने वाला) २ औंस, भुने हुए चने २ औंस, गुड़ २ औंस, फल (यदि सस्ते हों) ४ औंस, छाछ ८ औंस। इसमें फल शामिल नहीं हैं, इसलिए चौथे दिन एक पाव फल खाये जाएँ।
घर के अंदर काम करने वालों के लिए बीच की खुराकअनाज (गेहूँ, चावल, मक्की इत्यादि) १२ औंस, दालें, चना इत्यादि ३ औंस, सब्जी (हर प्रकार के साग और करमकल्ला इत्यादि) ३ औंस, तरकारियाँ (आलू, परवल, गोभी, भिंडी, टमाटर, गाजर, चुकंदर, शलजम इत्यादि) ६ औंस, तेल (खाने वाला) १ औंस, घी १ औंस, फल (केले, आम, पपीते, अमरूद, खरबूजा आदि) ४ औंस, गुड़ ३ औंस, दूध १२ औंस।
किसानों के वास्ते सस्ती खुराकअनाज (गेहूँ, चावल, मक्की) १२ औंस, मोटा अनाज (ज्वार, बाजरा इत्यादि) ४ औंस, दालें (मँग, चना, अरहर इत्यादि) २ औंस, भुना हुआ चना या चने के अंकुए (नाश्ते में), सब्जी (लाल साग, बथुआ, चने का साग जो जाड़ों में कच्चा खाया जाता है) ४ औंस, तरकारी (बैंगन, कद्दू, लौकी, भिंडी, अरबी, आलू जब सस्ते हों) ६ औंस, तेल (खाने वाला आमतौर पर सरसों का तेल खाया जाता है, लेकिन तिली या महुए का तेल खाने में कोई हानि नहीं) १ औंस, फल (ककड़ी, खरबूजा, अमरूद, जामुन, आम, पपीता) ४ औंस, छाछ (या दही की लस्सी) ८ औंस, गुड़ २ औंस।
कारखानों के मजदूरों के वास्ते सस्ती खुराकअनाज (गेहूँ, चावल, मक्का इत्यादि) १६ औंस, दालें २ औंस, भुने चने (या भीगे चने नाश्ते में) ४ औंस, सब्जी (हर प्रकार के साग) ३ औंस, तरकारियाँ (आलू, गाजर, करमकल्ला, भिंडी, बैंगन, कद्दू इत्यादि) ६ औंस, फल और मसाला (कुचली हुई प्याज, टमाटर, मूली, खीरा, गाजर) 2 औंस, हरी मिर्च (जो ताजे नीबू के रस में भिगोई हुई हों इत्यादि) और फल (जैसे के आम, कटहल, जामुन, अमरूद आदि) २ से ४ औंस तक, दूध ८ औंस, गुड़ २ औंस, अगर दूध महँगा हो तो दही या मक्खन निकला दूध भी मुनासिब होगा।
कलाकारों के वास्ते अच्छी खुराकअनाज १६ औंस, दालें ३ औंस, तरकारियाँ ८ औंस, तेल १ औंस, घी १ औंस, दूध १० औंस, फल ४ औंस। मसाले और कच्ची तरकारियाँ (कटी हुई मूली, टमाटर, खीरे इत्यादि) ४ औंस, शक्कर या गुड़ ३ औंस।
खुराक के उचित सम भागअनाज १४ औंस, दालें ३ औंस, सब्जी ८ औंस, कंद (जड़) ३ औंस, दूसरी तरकारियाँ ३ औंस, दूध १० औंस, शक्कर या गुड़ २ औंस, तेल, घी इत्यादि २ औंस।
गर्भवती स्त्रियों के लिएअनाज ७ छटाँक, दालें डेढ़ छटाँक, बिना पत्ते की तरकारियाँ (बैंगन, कद्दू, भिंडी, आलू, गाजर, चौलाई, सफेद कद्दू) ३ छटाँक, पत्तेदार सब्जियाँ (बंदगोभी-सरसों और चने का साग, लाल चौलाई, संजन) २ छटाँक, घी या पकाने वाले तेल १ छटाँक, दूध ८ छटाँक, शक्कर या गुड़ १ छटाँक, फल १ छटाँक।
दूध पिलाने वाली स्त्रियों के लिएअनाज ७ छटाँक, दालें १॥ छटाँक, बिना पत्ते की तरकारियाँ ३ छटाँक पत्तेदार सब्जियाँ २ छटाँक, घी या पकाने वाले, १ छ., दूध १० छ. से १२ छ., शक्कर या गुड़ १ छ. फल और (नारियल) २ छ., मसाले आवश्यकतानुसार।
बच्चों के लिए उचित भोजनदूध १॥ छटाँक, शक्कर या गुड १ छ., सब्जियाँ १ छ., अनाज आधी छ. फलों का रस आधी छटाँक।३ से ४ वर्ष की आयु के लिएदूध २ छटाँक, शक्कर या गुड़ १ छ., सब्जियाँ १।। छ., अनाज १ छटाँक, फलों का रस १ छटाँक।५ से ७ वर्ष की आयु के लिएअनाज २ छटाँक, दूध १२ छटाँक, शक्कर या गुड़ १ छटाँक, सब्जियाँ २॥ छ., फल १ छटाँक।८ से १२ वर्ष की आयु के लिएअनाज ३ से ५ छटाँक, दूध ८ छटाँक, दालें आधी छ., पत्ते वाली सब्जियाँ १ छ., दूसरी सब्जियाँ २ छ., फल १॥ छ., मक्खन आधी छटाँक, घी या तेल आधी छटाँक, शक्कर या गुड़ १ छटाँक।१२ से १४ वर्ष की आयु के लिएअनाज (गेहूँ या चावल) ५ से ६ छटाँक, दालें १ छटाँक, पत्तेवाली सब्जियाँ १ छटाँक, बिना पत्ते वाली सब्जियाँ ३ छ., कच्ची सब्जियाँ १ छटाँक, मक्खन आधी छ., घी या तेल आधी छ., दूध ८ छ, शक्कर या गुड़ १ छटाँक, फल २ छटाँक।
खुराक में धातुओं और चिकनाइयों की आवश्यकता और उसे प्राप्त करने के उपाय लोहा ३० से ४० मिलीग्राम, कैल्शियम ०.८ से ३.१ ग्राम तक, फास्फोरस १.० ग्राम, चिकनाई ६ से ८ ग्राम तक।
यह कैसे प्राप्त हो सकते हैं?लोहा-मक्का, अखरोट, मूँगफली, बाजरा, सूखे मेवे, गेहूँ, जौ, सोयाबीन, पालक। कैल्शियम-दूध, सब्जियाँ, रोटी। फास्फोरस-मटर, दूध, अनाज। चिकनाई-मक्खन, गोला का तेल, घी।नोट-एक ग्राम तीन रत्ती के बराबर है।एक छटाँक २ औंस के बराबर है।
खुराक कैसे बेकार जाती है?१-उस पानी को फेंक देने से जिसमें चावल या तरकारियाँ पकाई गई हैं।२-बहुत अधिक पकाने या खुले बर्तनों में पकाने से।३-सोडा जो धोने में उपयोग होता था-तरकारियों में मिलाने से।४-जितना खाया जाता है उससे अधिक पकाने से।५-चावल और अन्य अनाजों को बहुत बारीक पीसने या अधिक साफ करने से।६-ऐसे छिलके फेंक देने से जो खाये जा सकते हैं।७-चूहों और कीड़ों के कारण जो अनाज ठीक से नहीं रखा जाता।८-जितनी आवश्यकता हो उससे अधिक खरीद लेने से।९-खाने के लिए प्लेटों में अधिक निकाल देने से।१०-बड़ी और शानदार दावत करने से।
१८. जीवन रक्षक पदार्थ तथा उनका विवेक पूर्ण उपयोग
आप भोजन प्रयोग में ला रहे हैं, उसमें जीवन रक्षक तत्व मौजूद हैं, या नहीं? आपका भोजन केवल जिह्वा की तृप्ति मात्र के लिए तो नहीं होता? अत्यंत खेद के साथ कहना पड़ता है कि इसमें से अधिकांश भोजन सामग्री के विवेकपूर्ण चुनाव की ओर समुचित ध्यान नहीं देते ।। जो व्यक्ति भोजन के चुनाव में गलती करता है, वह अपने शरीर की हड्डियों, माँसपेशियों एवं रुधिर को पर्याप्त बल नहीं प्रदान कर सकता।हम मानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव और आदतें, भोजन इत्यादि एक प्रकार का नहीं हो सकता। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार उसमें आवश्यक परिवर्तन चलते रहते हैं, शरीर की बनावट में अंतर होता है और प्रत्येक व्यक्ति का स्वास्थ्य देखकर ही उसके भोजन के विषय में अंतिम निर्णय होना चाहिए, किंतु फिर भी हम ऐसा भोजन चुन सकते हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकारी सिद्ध हो। जिस पदार्थ से जीवन रक्षा होती है वही शरीर के लिए उपयुक्त हैं, शेष सभी त्याज्य हैं। भोजन का निर्णय मनुष्य के कार्य को दृष्टि में रखकर होना उचित है। जो व्यक्ति बौद्धिक परिश्रम में संलग्न रहते हैं, उनके निमित्त पौष्टिक पर हलका सरल सुपाच्य भोजन अपेक्षित है। इसके विपरीत शारीरिक श्रम करने वालों के लिए गरिष्ठ, कार्बोज प्रधान, घी, दूध युक्त भोजन की आवश्यकता है। मानसिक परिश्रम करने वालों के लिए सबसे आवश्यक तत्व हैं-वसा और प्रोटीन।जीवन रक्षक भोजन में मुख्य तत्व हैं-शाक, तरकारियाँ, दूध, शुद्ध मक्खन और ताजे सूखे फल। आटा आप कोई ले सकते हैं, पर बिना घुने गेहूँ का अच्छा है। प्रतिदिन भोजन में एक सलाद का क्रम अवश्य रहे। फल और तरकारियाँ छिलका सहित ही प्रयोग में लानी उत्तम हैं।यह मत समझिए कि उपरोक्त रक्षात्मक भोजन मँहगा है, कदापि नहीं। इसमें व्यय अधिक नहीं है। अधिक खर्च तो उन वस्तुओं का होता है जिनको हम स्वाद तथा क्षणिक प्रलोभन के वशीभूत होकर खाते हैं। कीमती चीजें हैं-मिठाई, नमकीन, चाट-पकौड़ी, विविध माँस, हलुवा, पनीर, अंडा, चाय इत्यादि। क्या जरूरत है कि आपके सुबह के नाश्ते में चाय, बिस्किट या नमकीन, मिठाइयाँ इत्यादि हों या दोपहर के खाने में दो अचार, मुरब्बे, पापड़, गोश्त इत्यादि हों। उत्तम पौष्टिक भोजन में आटा, दूध, घृत, तरकारियाँ, दाल-चावल चाहिए। यदि ये चीजें भी मँहगी हैं तो इन्हें फिजूल बरबाद न करें। आवश्यकता के अनुसार उतना ही पकावें और खरीदें जितनी चाहिए। स्वास्थ्य को बिना खराब किए ये चीजें सस्ती ही बैठेंगी। फल और तरकारियाँ, विशेषकर हरी पत्तीदार तरकारियाँ सबसे आवश्यक हैं। आप सस्ती तरकारियाँ-मेथी, पालक, मूली, शलजम लीजिए, सस्ते फल खूब खाइए। मँहगे फलों के स्थान पर अमरूद, टमाटर, नाशपाती, खीरा, गन्ना, ककड़ी खाइए। सूखे मेवों के स्थान पर सस्ते मेवे अखरोट, मूँगफली, खोपरा, किशमिश लीजिए।यदि विवेकपूर्वक आप भोजन का चुनाव करें तो वह सस्ता और पौष्टिक हो सकता है। स्वाद तथा चटोरी आदतों वाला भोजन त्याग दीजिए। क्रीम, हलुवे तथा होटल की प्लेट लेना छोड़ दीजिए। चाट, पकौड़ी की ओर दृष्टि न कीजिए।जीवन रक्षक भोजन के लिए इन पाँचों की व्यवस्था कर रखिए-गेहूँ, चावल, पाँच तरह की दालें, अच्छा साफ गुड़, घी या मक्खन, दूध, शाक, तरकारियाँ और कुछ सूखे मेवे। मौसम के फल खाया कीजिए। ऊँचे दर्जे के शक्ति उत्पादक पदार्थ ये हैं-अखरोट, बादाम, काजू, नारियल, चिरौंजी, पिस्ता, मूँगफली, किशमिश। खजूर, मुनक्का से उत्तम चीनी प्राप्त होती है। मुनक्का, किशमिश, अंजीर से उत्तम लोहा मिलता है।मिर्च का प्रयोग त्याग दीजिए। यह उत्तेजक और पाचन शक्ति को निर्बल करने वाला मसाला है। यदि आप चाय, सिगरेट, पान, होटल, सिनेमा, चाट, पकौड़ी, मित्रों के साथ चटोरे भोजन छोड़ देंगे तो रक्षात्मक भोजन खरीदने के निमित्त यथेष्ट धन बचा सकेंगे। अभक्ष्य पदार्थ खाकर आप क्यों आत्म-हत्या करते हैं, पौष्टिक अन्न लीजिए, जिनसे शरीर में बल, उत्साह और स्फूर्ति होती है, रोग दूर भागते हैं और कार्य शक्ति में वृद्धि होती है। विलास, आरामतलबी और मिथ्या दर्प की वस्तुओं से रुपया बचाना आपके विवेक पर निर्भर है।यदि संभव हो तो जीवन रक्षक पदार्थों की मात्रा अधिक कर दीजिए और अधिक ऊँचे दर्जे की चीजें खरीदिए। साधारण भोजन के स्थान पर दूध, घी और ऊँचे प्रकार के मेवों से युक्त भोजन कीजिए। फलों की मात्रा में वृद्धि कर दीजिए। दूध दो बार पीजिए। भोजन में दही भी सम्मिलित कर लीजिए। अच्छा अन्न, भिन्न-भिन्न प्रकार की दालें, फल, मेवे खरीदिए।द्रव्य खर्च करने का उत्तम तरीका यह है कि आपको अपने प्रत्येक पैसे का अधिकतम लाभ, आनंद, मजा आए, शरीर और आत्मा प्रसन्न हो, आपके बच्चे, पत्नी और स्वयं आप शरीर से पुष्ट रहें। इसके लिए प्रत्येक पैसे का सदुपयोग कीजिए। ऐश-आराम, विलासिता, फैशन, खान-पान में असंयम करना दूरदर्शिता और बुद्धिमानी नहीं है। शराब, गांजा, चाय, माँस में पैसा व्यय करना अपव्यय है।मि० काबडेन ने सत्य ही निर्देश किया है-‘‘दुनिया में अमीर-गरीब का भेद नहीं है। अमीर-गरीब का यथार्थ नाम मितव्ययी और अपव्ययी है। जो विवेकशील बचाने के सिद्धांत पर विश्वास करते हैं, वे एक न एक दिन अवश्य समृद्ध बन जावेंगे और जिन्हें फूँकने उड़ाने का चस्का है, वे गरीब रहेंगे। खर्च के विषय में सावधान रहने वालों ने मिल, कारखाने और जहाज बनवाये हैं। एक तुम हो जो शराब पीने और दूसरी बेवकूफियों में पैसे समाप्त कर देते हो।’’ बेवकूफियों से केवल भोजन की ही नहीं, वस्त्र, मकान, मनोरंजन सबकी असावधानियों से बचिए। बेवकूफी हमारा सबसे बड़ा शत्रु है।
मिताहारी बनिए
अपनी आयु, शरीर, क्षुधा के अनुसार सादा और ताजा अल्पाहार करने वाला व्यक्ति बल और आयु की वृद्धि कर प्रसन्नता और आरोग्य लाभ करता है। अति भोजन करने वाला पेटू होता है, जो केवल स्वाद और जिह्वा के वशीभूत होकर अनावश्यक बोझ अपनी आँतों पर डालता है। जीने के लिए खाइए, खाने मात्र के लिए जीवित मत रहिए। अति भोजन से भाँति-भाँति की बीमारियाँ फैलती हैं। सुस्ती और काहिली आती है। कठोर कार्यों में दिल नहीं लगता, अतिरिक्त अंश को पचाने में बहुत सी जीवन शक्ति क्षय हो जाती है और स्वप्नदोष प्रारंभ हो जाता है। तन और मन दोनों रोगी बन जाते हैं और स्वार्थ और परमार्थ कुछ भी नहीं बन पड़ता।
अधिक भोजन करने के दुष्परिणाम
स्वामी शिवानन्द जी ने ठीक लिखा है, ‘‘आहार, निद्रा, भय, मैथुन, क्रोध, कलह आदि जितनी बढ़ाई जाएँ उतनी ही बढ़ती जाती हैं और जितनी कम की जाएँ, उतनी की कम हो जाती हैं।’’ भगवान बुद्ध कहते हैं-‘‘एक बार हलका आहार करने वाला महात्मा है, दो बार सम्हल कर खाने वाला बुद्धिमान और भाग्यवान है और इससे अधिक बेअटकल खाने वाला महामूर्ख, अभागा और पशु का भी पशु है।’’ सच है गले तक खूब ठूँस कर खाना तथा फिर पछताना कौन बुद्धिमान है। जिस भोजन से दुःख उत्पन्न होता है, वह विष तुल्य समझना चाहिए।डॉ० स्थाक फैडन कहते हैं-‘‘आजकल साधारण लोग भोजन के बहाने जितने पदार्थों का सत्यानाश कर डालते हैं उनके चतुर्थ अंश से ही उनका कार्य बड़े मजे से चल सकता है। अकाल में अन्न के अभाव में लोग उतने नहीं मरते जितने काल में अन्न खाने से तरह-तरह के रोगों से मर जाते हैं।’’
मनु महाराज ने कहा है—अनारोग्यं अनामुष्यं अग्वर्ग्य चाऽति भोजनं। अपुण्यं लोक विद्विष्टं तस्यात्तत्परिवर्जयेत॥
अति भोजन रोगों को बढ़ाने वाला, आयु को घटाने वाला, नर्क में पहुँचाने वाला, पाप को कराने वाला और लोगों में निंदित करने वाला है। अतः बुद्धिमान को चाहिए कि सुस्वाद पदार्थों के फेर में न पड़कर आवश्यकता से अधिक कदापि न खाएँ, क्योंकि वैसा अधर्म है।अधिक भोजन करने से जो रोग उत्पन्न होते हैं उन्हें देख लीजिए प्रथम तो अजीर्ण या बदहजमी है। पेट बाहर निकल आता है, भूख नष्ट हो जाती है, खट्टी डकारें आती हैं, पेट में भारीपन प्रतीत होता है, मोटापन बढ़ता है।दूसरा भयंकर रोग आंत्र-पुच्छ वृद्धि (अपेंडिसाइटिस) है जो अयुक्त आहार से संबंधित है। जो व्यक्ति अम्लकारक, श्वेतसार और प्रत्यामिन अधिक और खनिज लवण वाले पदार्थ कम खाते हैं, वे इस रोग से परेशान रहते हैं। अम्ल की अधिकता हो जाने से पाचन प्रणाली साफ नहीं रह पाती। अंदर ही अंदर एकत्रित होता जाता है और इस रोग की उत्पत्ति हो जाती है। इसके अतिरिक्त पक्वाशय संबंधी अन्य रोग जैसे मधुमेह इत्यादि भी आक्रमण करते हैं।श्री जीवानंद श्रीवास्तव ने अति भोजन के दुष्परिणामों में वृक्क विकार भी बताया है। आप लिखते हैं-‘‘वृक्क विकार बहुत दिनों तक अधिक प्रत्यामिन, विशेषकर माँस, अंडा खाने वालों के बारे में आती है। तोंद का बढ़ना और आँतों का स्थान भ्रष्ट होना तो सदैव अति भोजन करने, पेट का व्यायाम न करने का ही परिणाम होता है। लोग अप्राकृतिक और स्वादिष्ट पदार्थों का ही ज्यादा शौक करते हैं और अधिक खाते हैं। वस्तुतः लोग प्रयत्न करके भी प्राकृतिक पदार्थों को उनके मूल रूप में अधिक नहीं खा सकते क्योंकि स्वाद बाधक होता है और पेट भी विद्रोह करने लगता है। आवश्यक और पर्याप्त मात्रा में खा लेने पर भूख और इच्छा दोनों शांत हो जाती है।’’
१९. अल्पाहारः दीर्घायु का रहस्य
संयत एवं परिमित मात्रा में खाने से हम अपनी शरीर रूपी मशीन के लिए केवल आवश्यक तत्व ही खींचते हैं, सड़ने और व्यर्थ पड़े रहने के लिए कोई गुंजायश नहीं रहती। प्रोटीन वाले पदार्थों को अधिकाधिक खाने का लालच होता है। इनके विषय में अपने लालच को रोकें और दो छटाँक से अधिक एक बार में लेने का प्रयत्न न करें। शर्करा, श्वेतसार और प्रोटीन सदा संयत और परिमित मात्रा में ही लें। खनिज लवण वाले पदार्थ हमेशा स्वास्थ्यकर होते हैं और उन्हें अधिक मात्रा में लेना प्रायः असंभव सा होता है। शर्करा (शक्कर या चीनी) से सावधान! देखने में सफेद, खाने में मीठी किंतु गुण में प्रत्यक्ष विष सरीखी इस जहरीली चीज से सावधान! चीनी का अधिक प्रयोग अनेक रोगों को दावत देने जैसा है। सफेद चीनी, छँटे चावल तथा मैदा की वृद्धि के अनुपात में सारी दुनियाँ में मधुमेह के रोगी बढ़ रहे हैं। चीनी मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है। यदि मैदा के बदले बिना छना आटा काम में लाया जाए और सफेद चीनी के बजाय गुड़ काम में लाया जाए तो मनुष्य की खुराक में विटामिन बी० की न्यूनता नहीं रह जाती। चीनी से गुड़ सदैव उत्तम है। श्री पुरुषोत्तमदास टंडन के एक भाषण का अंश देखिए-‘‘मैंने सन् १९२०-२१ में चीनी को राजनैतिक कारणों से छोड़ा था पर भोजनशास्त्र का अध्ययन करने पर मुझे पता चला कि इससे अधिक घातक पदार्थ हमारे शरीर के लिए दूसरा नहीं हो सकता। यह हमारे शरीर में पहुँचकर आँतों में जलन उत्पन्न कर देती है। जो जीभ के स्वाद के वश में नहीं हैं और स्वस्थ रहना चाहते हैं उन्हें कहूँगा कि चीनी खाने की मूर्खता में न पड़ें। सफेद चीनी से सभी क्षार निकल जाते हैं और फिर वह शरीर के लिए उपयोगी होने के स्थान पर हानिकारक हो जाती है। इसलिए आप गुड़ खाएँ या लाल शक्कर खाएँ। चीनी का तो इस देश से बहिष्कार हो जाना चाहिए।’’मनुष्य जितना खा लेता है उसका तिहाई भी नहीं पचा पाता। शेष पेट में रहकर नाना प्रकार के जीर्ण रोग उत्पन्न करता। रक्तविकार होने से शरीर पर छोटी-छोटी फुँसियाँ या काले-काले दाग हो जाते हैं। फालतू भोजन को निकालने में ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है और शरीर की मशीन की व्यर्थ ही घिसाई होती है। जल्दी-जल्दी खाने से मनुष्य दुःखी, मलीन, कामी, पेटू, अतृप्त, रोगी, क्रोधी और चिड़चिड़ा बन जाता है। अतः धीरे-धीरे और अल्प मात्रा में ही भोजन करना चाहिए।
२०. भोजन के समय की मनः स्थिति
भोजन करते समय मनः स्थिति बड़ी सावधान रखिए। मनःस्थिति उत्साह, प्रेम, सहानुभूति, प्रसन्नता से परिपूर्ण रखिए। मित्र हों तो उनसे कोई अच्छे विषय छेड़िए। पत्नी से प्रेमपूर्ण विषय पर वार्तालाप कीजिए। बच्चों से निर्दोष हँसी कीजिए। जब भोजन सामने आए तो उच्च मनःस्थिति द्वारा उसमें शुभत्व की पवित्र भावना प्रवाहित कीजिए। हमारे यहाँ भोजन को नमस्कार करने की पद्धति बड़ी मनोवैज्ञानिक है। नेत्र मूँदकर आपको मन ही मन कहना चाहिए-‘‘हे प्रभो! यह भोजन आपको समर्पित है। अपने पवित्र स्पर्श द्वारा इसे पवित्र, सुस्वादु, पौष्टिक एवं अमृतमय बना दीजिए। मुझे इससे स्वास्थ्य, बल, पौरुष, दीर्घायु प्राप्त होगी।’’आपके प्रत्येक कौर के साथ उत्तम भावनाएँ भी भोजन के साथ मिश्रित होकर शरीर में पहुँचनी चाहिए। आप सोचते रहिए-‘‘इस कौर को चबाकर मैं अपने शरीर में पौष्टिक तत्व पहुँचा रहा हूँ। यह भोजन मेरे लिए अमृत का स्रोत है, सुख तथा स्वास्थ्य प्रदान करने वाला है। इसके द्वारा मुझे आरोग्य, बल एवं शक्ति मिल रही है।’’जब आप दूध या जलपान करें, तो अपनी शुभ भावनाओं का प्रवाह पवित्रता की ओर रखिए। आप मन में सोचिए, ‘‘प्रत्येक घूँट के साथ में अपार शक्ति, पौरुष, बल पान कर रहा हूँ, निरंतर बलवान बनता जा रहा हूँ। इस दूध या जल से मुझमें पुष्ट रक्त बनेगा, जिससे पवित्र माँस, मज्जा, रस, वीर्य की उत्पत्ति होगी। मैं शारीरिक सौंदर्य और बल से युक्त हो जाऊँगा और अक्षय यौवन, अमित सुख, दीर्घायु और इंद्रिय मन की शुद्धि प्राप्त करूँगा।’’इसी प्रकार के पुष्ट और पवित्र संकेत देने तथा पवित्र मनःस्थिति रखने से आपके भोजन का अणु-अणु शक्ति से युक्त हो उठेगा और आप अपने में स्फूर्ति और बल का अनुभव करेंगे।
२१. कुदृष्टि से सावधान रहें।
हिंदू धर्म शास्त्रों में भोजन की आंतरिक स्वच्छता पर बढ़ा ध्यान दिया जाता है। हमारे धर्म शास्त्र के अनुसार नीच विचार के व्यक्ति के हाथ का बना भोजन त्याज्य है, क्योंकि उनके द्वारा बनाया हुआ भोजन निरंतर उनके गुप्त मनोभावों द्वारा प्रभावित होता रहता है, इन हीन विचारों से सावधानी रखने के लिए ही हमारे यहाँ एकांत में भोजन करने का विधान है। भोजन पर नीच, दरिद्री, भूखे, रोगी, लंपट, अधर्मी, मुर्गे, सर्प, कुत्ते और किसी भी द्वेष, घृणा, क्रोध से युक्त व्यक्ति की दृष्टि पड़े तो उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। भोजन बनाने वाले का सबसे अधिक प्रभाव ऊँगली के पोरुओं से होता है। जिस भोजन को बार-बार छुआ गया है, उसमें बनाने वाले की मानवीय विद्युत प्रवाहित रहेगी। पास बैठने वालों की मानवीय विद्युत निरंतर पड़ती है। यदि कोई व्यक्ति लुब्ध नेत्रों से आपकी थाली देखता है तो वह अपनी कुदृष्टि से उसे विषैला बना देता है। इसी प्रकार परोसने वाले का शारीरिक और मानसिक गुण अनिवार्यतः भोजन पर निरंतर पड़ता है। यदि भोजन पकाने या परोसने वाला आपका प्रेमी, हितैषी, सहानुभूति रखने वाला है, तो साधारण भोजन अमृत होकर आपको अच्छे फल देगा। अतः हिंदू धर्म-शास्त्र में भोजन पर माता-पिता, बंधु, पुण्यात्मा, पत्नी, वैद्य, हंस, मयूर और चकवे की दृष्टि पड़ना शुभ है।
इक्कीसवीं सदी - उज्ज्वल भविष्य
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