उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ —
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
मित्रो! मुझे मथुरा की एक घटना याद आ जाती है। मथुरा में एक बार रामलीला हो रही थी। रामलीला में कुछ बच्चों को बंदर बना दिया, कुछ को रीछ, नल, नील और हनुमान। एक को लंगूर बना दिया। लंगूर कैसा होता है? कैसे बनाया? उन्होंने लंगूर ऐसे बनाया कि उस बच्चे के शरीर पर शीरा पोत दिया। शीरा जानते हैं, किससे बनता है? गुड़ में से निकलता है। बच्चों ने आपस में रूई चिपका दी और वह बन गया लंगूर। उसके एक पूँछ लगा दी और वह लँगोटी लगाकर उछलता फिरा। साहब यह रामलीला का लंगूर है। एकाध घंटे तक वह उछलता फिरा, फिर जमीन पर गिरा। अरे! लंगूर को क्या हुआ? उसे उठाकर ले गए और पंखा झलने लगे। लंगूर बेहोश हो गया। अब क्या करें, उसे पानी पिलाया, फिर भी होश में नहीं आया। उसकी आँखें पलट गईं। आखिर में लंगूर को अस्पताल ले गए। अस्पताल वालों ने कहा कि यह तुमने क्या कर डाला? क्यों साहब! इसमें क्या हर्ज हो गया? इसके शरीर से जो भाप निकलती थी, पसीना निकलता था, जो शरीर के जहर को बाहर निकालता है। तुमने शरीर पर शीरा चिपका करके उसे अंदर ही रोक दिया है। अब तो यह इस जहर की वजह से मर जाएगा। डॉक्टर ने फौरन रूई को हटाया और शीरे को हटाया। उस शीरे को धोकर साफ किया, तो देखा कि अब तक सारे शरीर में इतना जहर फैल चुका था कि उसको बचाना संभव न हो सका। बहुत इलाज किया गया, किंतु एक घंटे के उस जहर का परिणाम बच्चे की जान लेकर सामने आया।
पहले अंदर का जहर तो निकालिए
मित्रो! आपके भीतर कषाय-कल्मषों के रूप में जो जहर भरा हुआ है, उसकी सफाई की जरूरत है; उसके निराकरण की जरूरत है; उसको हटाने की जरूरत है। यदि आप यह कर पाएँ तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपको अध्यात्म के लाभ अवश्य मिलेंगे। अध्यात्म मार्ग में प्रवेश करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए पहला वाला जो पाठ पढ़ाया जाता है, पहली वाली जो शिक्षा दी जाती है, वह यह नहीं दी जाती कि कौन सा बीजमंत्र लगाऊँ? माला किस चीज की लूँ? बेटे! माला किसी भी लकड़ी की ले ले। बेटे! यह पाठ पहला नहीं है। यह ग्यारहवाँ है। महाराज जी! बीजमंत्र लक्ष्मी जी का लगाऊँ या हनुमान जी का लगाऊँ? बेटे! चाहे जिसका लगा देना, पर यह पाठ तेरहवाँ है। सबसे पहले पहला वाला पाठ पढ़। नहीं साहब! पहला वाला पाठ पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। हमको तो फिजिक्स पढ़ाइए, केमिस्ट्री पढ़ाइए। बेटे! यह भी पढ़ाएँगे, पर अभी तो तुझे वर्णमाला भी नहीं आती। गिनती गिनना भी नहीं आता। फिर कुंडलिनी जगा दीजिए, चक्रवेधन का दीजिए और फलाना कर दीजिए। ये बेसिलसिले की बातें, बेसिर पैर की बातें हैं; कुंडलिनी के नीचे तो कोई बात ही नहीं करना चाहता; चक्रवेधन से पहले तो कोई बात सुनना भी नहीं चाहता; आत्मसाक्षात्कार से कम तो किसी की फरमाइश ही नहीं है। भगवान को देखे बिना तो किसी को चैन ही नहीं पड़ता है। मानो भगवान किसी का नौकर है।
माला या मशीनगन?
हे भगवान! चल हमको दर्शन दे। हाँ, लीजिए साहब! कीजिए दर्शन। तू भगवन् को ऐसा समझता है? नहीं महाराज जी! आप बुला दीजिए। बेटे! हममें तो ताकत है नहीं, तुझमें ताकत है तो बुला ले हनुमान जी को। हमारे कहने से तो कोई एकाध मित्रों ने भगवान जी को बुलाया, सो भी वे नहीं आए। तेरे कहने से वे आ सकते हों तो भले, पीछे हम भी बुला लिया करेंगे। नहीं साहब ! साहब! वे सपने में आ जाएँगे और दर्शन दे जाएँगे। किस कीमत पर तुझे दर्शन दे जाएँगे? साहब! माला घुमाता हूँ। बेटे! तू अपनी को माला क्या समझता है—मशीनगन? खटाखट, फटाफट चलाऊँगा और सबको मार डालूँगा। किसको मार डालेगा? हनुमान जी को मार डालूँगा, संतोषी माता को मार डालूँगा और उनकी लाश को ले आऊँगा और उससे मजा उड़ाऊँगा। ऐसे कैसे हो सकता है—ले जा तू अपनी माला को।
पढ़ाई दुर्गुणों को हटाने के बाद आरंभ होगी
मित्रो! माला मुख्य नहीं होती। आप वहाँ से पढ़ना शुरू कीजिए जहाँ से आध्यात्मिकता का आरंभ होता है। आप अपने आप को मुलायम करने की कोशिश कीजिए। मुलायम करने से बेटे! क्या हो सकता है? आपने अपने मुँह में घास भर रखी है, उसको हटाइए ताकि आपको दूध पीने का मौका मिले। आप अपनी वासनाओं और तृष्णाओं को हटाइए। कमजोरियों को हटाइए ताकि जो खाली स्थान हो, उसमें श्रेष्ठता का समावेश संभव हो सके। नहीं साहब! हम अपने पाप को नहीं हटाना चाहते और अपने दोष-दुर्गुणों को नहीं हटाना चाहते। अब हम भक्ति का वरदान पाना चाहते हैं और भगवान का आशीर्वाद पाना चाहते हैं। अब सिद्धि का चमत्कार देखना चाहते हैं। अगर ऐसा संभव हो सकता है तो बेटे! हमको बताना। हमको तो पता नहीं है। हमने तो अपने आप की इतनी धुलाई की है कि जिस सख्ती से धोबी कपड़े के साथ करता है। धोबी उसे भट्ठी पर चढ़ाता है, गरम करता है, उसमें तेजाब डालता है। तेजाब डालने के बाद कहाँ ले जाता है? घाट पर ले जाता है और क्या करता है? उसे पत्थर पर पछाड़-पछाड़कर दे मारता है और धो-धो करके उसका सारा का सारा मैल निकाल देता है। हमने तो धोबी के तरीके से अपनी मलीनताओं का निवारण करने के लिए सख्ती अपने साथ की है। आपको इससे सस्ता कोई तरीका याद हो तो तलाश करना। हमने धुनिये की तरह धुना है स्वयं को बेटे! हमने तो अपने आप को धुनिये के तरीके से धुना है। जरा सी रूई की जब धुनाई होती है तो वह फूल-फूल करके इतनी बड़ी हो जाती है। राजस्थान एक पाव रूई की रजाई के लिए मशहूर है। इंदिरा गाँधी जब वहाँ भरतपुर गई थीं तो उनको एक पाव की रजाई भेंट की गई थी। एक पाव रूई से सारी की सारी रजाई का लिहाफ भर दिया गया था और भर जाने के बाद में उनको यकीन दिलाया गया था कि अगर आप एक पाव की बनाई गई रजाई को ओढ़ करके जाड़े के दिनों में सोएँगी तो आपकी ठंडक दूर हो जाएगी। आपको ठंडक की शिकायत नहीं होगी। एक पाव की रजाई कैसे हो सकती है? हमारे लिहाफ में तो दो किलो रूई आती है, ढाई किलो आती है। हाँ बेटे! बिना धुनी वाली ढाई किलो भी कम है, पाँच किलो डालनी चाहिए। लेकिन रूई अच्छी तरह से धुनी हुई है तो एक पाव का लिहाफ ही काफी हो सकता है। हमने अपने आप को धुना है और अपने आप को धोया है। धुनने के बाद हमारा फैलाव होता चला गया, विस्तार होता चला गया। बेटे! धोने के बाद हमारा कपड़ा इतना साफ होता चला गया कि जैसे टिनोपॉल लगा हुआ है। हम झकाझक चमाचम कपड़ा पहनकर आते हैं। हम ऐसे मालूम पड़ते हैं, जैसे कि कोई नेता हों और कोई मिनिस्टर हों। हम बहुत बढ़िया कपड़ा पहनकर आते हैं। बेटे! धुला हुआ लिहाफ ओढ़कर आते हैं। हमको मजा आता है।
भावनात्मक सफाई
मित्रो! धुलाई की ओर ध्यान दीजिए। आप धुलाई की ओर ध्यान नहीं देना चाहते हैं। यह क्या गलती कर रहे हैं। आप शुरुआत नहीं करना चाहते हैं, पढ़ना नहीं चाहते हैं, यह कैसे हो सकता है! मित्रो! आपको यह जो पहले वाले पाठ का शिक्षण दिया गया, जिसे हम पाँच क्रियाओं के हिसाब से षट्कर्म कहते हैं। इसमें पाँच क्रियाएँ पंचमुखी गायत्री आध्यात्मिकता की और एक क्रिया वह, जो भूमिपूजन के नाम से विख्यात है। जिसको हम पृथ्वीपूजन नाम से जानते हैं। पाँच क्रियाएँ कौन-कौन सी हैं, इसे आप जरा समझने की कोशिश करना। पहला वाला कृत्य, जो हम आपको गायत्री उपासना करने से पहले सिखाते हैं, आत्मशोधन की प्रक्रिया के भीतर कराते हैं, वह है पवित्रीकरण। बाईं हथेली में जल रखा और दूसरे हाथ से ढका। ॐ अपवित्र: पवित्रो वा.... का मंत्र बोला। अगर यह मंत्र नहीं आता है तो गायत्री मंत्र बोल लीजिए। कोई फरक नहीं पड़ता है। मंत्र बोलकर आप इसे अपने ऊपर छिड़क लीजिए। पानी छिड़कने से क्या हो जाएगा? यह किस काम के लिए छिड़का गया था, यह हमने बताया नहीं था? हाँ महाराज जी! पर इस पानी से क्या होगा? एक बालटी पानी से तो मैं रोज ही स्नान कर लेता हूँ और आप तो जरा सा जल हथेली पर लेने के लिए कहते हैं। इससे मैं क्या पवित्र हो जाऊँगा? पवित्र होना होगा तो दो बालटी से नहाएँगे, साबुन से नहाएँगे, बाथरूम में नहाएँगे। हाँ बेटे! उससे ज्यादा सफाई हो सकती है, पर इससे सफाई कैसे हो सकती है? यह भावनात्मक सफाई है। यह सफाई जरूरी है।
मखौल मत करिए
मित्रो! सारे का सारा अध्यात्म वास्तव में भावनाओं का खेल है, और कुछ नहीं। इसमें कर्मकाण्डों की कीमत राई की नोंक के बराबर है और इसमें जो सारी की सारी शक्ति और सामर्थ्य भरी पड़ी है, यह चिंतन के ऊपर टिकी पड़ी है, आस्थाओं के ऊपर टिकी पड़ी है, दबी पड़ी है, विचारणाओं के ऊपर जमी पड़ी है। अगर आपके पास विचारणाएँ नहीं हैं, आस्थाएँ नहीं हैं, मान्यताएँ नहीं हैं, श्रद्धा आपके पास नहीं है तो समझना चाहिए कि केवल आप खेल-खिलौने बना रहे हैं और मखौल कर रहे हैं। किसका कर रहे हैं? उस पवित्रता का। एक बूँद पानी सिर पर छिड़क लिया और हो गया पवित्र। मुझे एक घटना याद आ गई—कुंभ के मेले का मार्जन स्नान। एक बहुत बड़े नेता थे, नाम तो मैं नहीं लूँगा। उस कुंभ मेले में सब लोग गए। चलिए साहब! आज कुंभ का स्नान है, सब लोग नहाइए। नेता जी पैंट पहने हुए थे, बोले—हम तो नहीं नहा सकते। इस बावत नाव में बैठे हुए थे। पंडे को मजाक सूझा और उसने कहा कि आप ऐसा कर लीजिए कि मार्जन स्नान कर लीजिए। मार्जन स्नान क्या होता है? आप अपने शरीर पर छींटे लगा लीजिए। इससे क्या हो जाएगा? इससे आपको कुंभ के दिन गंगा जी में स्नान का पुण्य मिल जाएगा। इस पर नेता जी रजामंद हो गए। पंडे ने गंगाजल लाकर दिया और उन्होंने ऐसा ही किया। हो गया स्नान? क्यों साहब! हो गया। अगर आप भी ऐसा ही स्नान करते हैं, ऐसा ही पवित्रीकरण करते हैं, पवित्रीकरण का ऐसा ही मखौल बनाते हैं तो आपकी मरजी, लेकिन अगर आप वास्तव में मखौल नहीं बनाते हैं, तो आपको गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा और यह विचार करना पड़ेगा कि हमारे ऊपर पवित्रता की वर्षा होती है। जैसे देवता फूलों की वर्षा करते थे, उसी प्रकार से इस बादल में से, इस अनंत आकाश में से ऐसी वर्षा होती चली जा रही है। ऐसा बादल बरसता चला जा रहा है, जिसकी सघन बौछार हमारे ऊपर होती चली जा रही है, जो हमको शुद्ध और पवित्र करता चला जाता है। पवित्रीकरण करते समय आप यह अनुभव करें।
पवित्रता की—देवत्व की वर्षा
मित्रो! मैं आपको एक उदाहरण और बता सकता हूँ। गरमी के दिनों में सड़क पर मिट्टी पड़ी होती है, धूल पड़ी होती है। हाँ साहब! धूल उड़ उड़कर आँखों में जाती है। हाँ साहब! म्यूनिसिपल बोर्ड की जब गाड़ी आती है, तो सारे के सारे धूल-धक्कड़ को दबाती हुई, पानी छिड़कती चली जाती है। जब गाड़ी चली जाती है, तो सब जगह सड़क ठंडी हो जाती है और तरावट आ जाती है। इस धूल-धक्कड़ वाली सड़क पर जब म्यूनिसिपल बोर्ड की पानी से भरी हुई गाड़ी आती है? कौन सी? अपवित्र: पवित्रो वा.... की जलधारा छिड़कती हुई चली जाती है और धूल को दबाती हुई, गलाती हुई चली जाती है और ठंडक देती हुई चली जाती है। जब बरसात होती है तो क्या होता है? बेटे! हरियाली पैदा होती है। यह जल जो आपने अपनी बाईं हथेली पर रखा था, उसको हम अपने ऊपर उछालते हैं, छिड़कते हैं। यह करते हुए आप ध्यानमग्न हो जाइए कि हमारे ऊपर पवित्रता की वर्षा हो रही है, देवत्व की वर्षा हो रही है, जो हमारे शारीरिक कषायों को और मानसिक कल्मषों को धोती हुई चली जा रही है। बेटे! यही तो है—गंगास्नान और क्या है? गंगा में पानी है। गंगा और यमुना के पानी में कोई फरक नहीं है। अच्छा यह बात है तो मुझे आप कहने दीजिए। अभी पिछले महीने अखबारों में आया था कि इलाहाबाद की त्रिवेणी का जल लेबोरेटरियों में भेजा गया था। उसमें हजारों कीड़े पाए गए और यह घोषित किया गया कि त्रिवेणी का कच्चा पानी नहीं पीना चाहिए। जो कच्चा पानी पीएगा, वह मरेगा। इसीलिए इसको फिल्टर करके पीना चाहिए और उबालकर पीना चाहिए।
गंगाजल से लाभ कब
मित्रो! गंगा जी के जल का फरक यह है कि जिस समय हमारी मान्यताएँ और हमारी भावनाएँ यह मानकर चलती हैं कि इस दिव्य जल में, पवित्र जल में विष्णु का वास है और शिव जी की जटाओं का आधार है। स्वर्गलोक से अवतरित देवी भागीरथी हमको शुद्ध-पवित्र करती चली जा रही है। वास्तव में यह उतना ही पवित्र है, जितना कि गंगा जी हैं। अगर आप यह मान लें कि आपको गंगा जी में मछली मारने का ठेका इक्यावन हजार रुपए में मिल जाए तो आप रोजाना गंगा जी में से कितनी मछली पकड़ेंगे? आज कितनी पकड़ी गईं? आज साहब! चालीस मन पकड़ी गईं। दूसरे दिन अठारह मन पकड़ी गईं। और क्या करते हैं? साहब! गंगाजल में स्नान करते हैं, गंगाजल पीते हैं और मछली पकड़ते हैं। हम तो गंगा जी पर जिंदा हैं। अच्छा तो आपको फायदा हो सकता है? मेरे ख्याल से आपको गंगाजल से कोई फायदा नहीं हो सकता। इससे आपको कोई मुक्ति नहीं मिल सकती, अगर पानी का ख्याल है तब। लेकिन अगर आपका ख्याल, आपकी भावना यह है कि गंगा से मुक्ति होगी, तो बेटे! आपको वही लाभ होगा, जो जगन्नाथ मिश्र को हुआ था।
जगन्नाथ मित्र की गंगा-साधना
साथियो! जगन्नाथ मिश्र के मन में आया था कि हम अपनी माँ की गोदी में प्रवेश करते जाते हैं। दिव्यता की देवी, मातृत्व की देवी की गोदी में हम प्रवेश करते जाते हैं। वे ''गंगालहरी'' के बावन श्लोकों में से एक-एक श्लोक बोलते हुए एक-एक कदम बढ़ाते हुए गंगा जी में चले गए और उसी में प्रवाहित हो गए थे। स्वामी रामतीर्थ भी टिहरी में माँ गंगा की गोदी में लिपटने के लिए व्याकुल हो गए थे। उन्होंने किनारे पर अपने कपड़े रख दिए थे और ''माँ! तेरी गोदी में रहूँगा और तेरे तरीके से बहूँगा, तेरे तरीके से चलूँगा। तेरा उद्देश्य हिमालय से निकलकर बिना किसी की चिंता किए हुए अपनी शुद्धता और पवित्रता से असंख्यों का उत्कर्ष करते हुए समुद्र में समा जाना है। माँ! मैं भी तेरे साथ चलूँगा।'' रामतीर्थ जी गंगा जी में बह गए थे और जगन्नाथ मिश्र भी बह गए थे। उनका मन किन भावनाओं के साथ उछल रहा था! उन्होंने गाया—
''समृद्धं सौभाग्यं सकलवसुधायाः किमपि तन्, महेश्वर्यं लीलाजनितजगत: खण्डपरशो:।
श्रुतीनां सर्वस्वं सुकृतमथ मूर्त सुमनसां, सुधा सौन्दर्यं ते सलिलमशिवं न शमयतु।''
इस तरह गाते हुए जगन्नाथ मिश्र भावविभोर होकर माँ गंगा जी में चले गए। उनका उद्धार हुआ होगा? हाँ बेटे! मेरा विश्वास है कि जरूर हुआ होगा। गंगा जी के स्नान का जो फल मिलना चाहिए वह जरूर मिला होगा। उनकी आत्मा शुद्ध और पवित्र जरूर हो गई होगी। पानी की वजह से नहीं, वरन पानी के साथ-साथ उन्होंने जो अपने अंदर दिली भावनाओं का समावेश किया था, उसकी वजह से हुआ होगा। बेटे! पानी में कोई ताकत नहीं है। नहीं साहब! गंगाजल में शक्ति है। नहीं, कोई शक्ति नहीं है। गंगाजल और जमुना जल में क्या फरक पड़ता है—पानी-पानी सब एक से हैं।
शक्ति निष्ठा में, विश्वास में है
मित्रो! जो कुछ भी शक्ति या सामर्थ्य है कलेवर में, कर्मकाण्डों में नहीं है, उन निष्ठाओं में है, विश्वासों में है, जो न केवल हमारे शरीर का शोधन करती है, वरन हमारी जीवात्मा का भी संशोधन करती है। न केवल हमारे कर्म का संशोधन करती है; वरन हमारे विचारों का भी संशोधन करती है और हमारी आत्मा का आस्थाओं का संशोधन करती है, जैसा कि आप जल में भावना सहित नहाए हैं। फिर मैं आपसे यह कह सकता हूँ कि कलश में सारे देवताओं का जो हम आह्वान करते हैं, वे आते हैं। कलशस्य मुखे विष्णु: कण्ठे रुद्र: समाश्रित: ........ अर्थात कलश में ब्रह्मा जी बैठे हैं, रुद्र जी बैठे हुए हैं, गणेश जी बैठे हुए हैं। सभी देवता इस पानी में चल रहे हैं, फिर रहे हैं। इससे आप नहाइए तो आपको अवश्य फल मिलेगा। नहीं साहब! कलश का पानी बहुत कीमती है। नहीं बेटे! कोई कीमती नहीं है। जैसे और पानी हैं, वैसे ही कलश का पानी है। यह सब भावनाओं का खेल है। आप समझते क्यों नहीं हैं! नहीं साहब! कर्मकाण्डों का खेल है। नहीं बेटे! कर्मकाण्डों का खेल नहीं है, यह भावनाओं का खेल है। भावनाओं के साथ-साथ में अगर आपने पवित्रीकरण किया है कि इससे हमारा व्यक्तित्व और हमारी आस्थाएँ शुद्ध और पवित्र बनती चली जा रही हैं, तो मैं आपसे कह सकता हूँ कि आपने गायत्री उपासना का पहला वाला कृत्य, आत्मशोधन का पहला वाला चरण समाप्त कर लिया है और आप उसका उद्देश्य जान गए।
अंतर्जगत् का स्नान है—आचमन
दूसरा वाला उद्देश्य क्या है? आचमन है। कितने आचमन करने पड़ते हैं? तीन आचमन करने पड़ते हैं—''ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा। ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा। ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयि, श्री: श्रयतां स्वाहा।'' तीन बार आचमन से तीनों शरीरों को स्नान कराना पड़ता है। एक को स्नान कराने से काम नहीं चलता। गायत्री का जप करने से पहले हमें स्नान करना चाहिए। आप बीमार हैं और स्नान नहीं किया है तो आप ऐसा कर लीजिए कि भीगा हुआ तौलिया लेकर उससे आप अपना शरीर पोंछ सकते हैं। धर्म के प्रत्येक कर्मकाण्ड में स्नान आवश्यक है; खासतौर से गायत्री अनुष्ठान में स्नान करके बैठा कीजिए। बिना स्नान के गलती मानी जाएगी। हम किसका स्नान कराते हैं? तीन का स्नान कराते हैं, जो हमारे भीतर निवास करते हैं। कौन-कौन निवास करता है? शरीर नहीं, चमड़ी नहीं। चमड़ी को ही तो आप स्नान करा देते हैं। इससे कोई काम नहीं बनने वाला है। चमड़ी को स्नान करा लिया, नहा लिए। नहीं बेटे! यह नहाना काफी नहीं है। इससे आध्यात्मिकता की आवश्यकता पूरी नहीं हुई। बेटे! तूने पेट में स्नान करा लिया? नहीं महाराज जी! पेट में तो मल भरा हुआ है, पेशाब भरा हुआ है। अच्छा, तो तू उसको नहीं निकाल सकता है, पर यह बता दे कि जो रामनाम के गान करेगा, गायत्री मंत्र बोलेगा, वह किससे बोलेगा? साहब! जीभ से बोलूँगा। जीभ किसकी है? चमड़े की है। अच्छा, इसमें माँस तो नहीं है? हाँ पंडित जी! माँस तो है ही। थूक तो नहीं है? हाँ है। तो इस जीभ को काट दे और फिर प्लास्टिक की जीभ लगा ले। अच्छा महाराज जी! प्लास्टिक की? हाँ बेटे! भजन तो तभी हो सकता है। गंदी जीभ से क्या भजन हो सकता है! इसको स्नान करा। कुल्ला कर लें। हाँ बेटे! कुल्ला कर ले। इसमें जितना भी माँस है, चमड़ा है, सब निकलकर अलग हो जाएगा और खालिश जीभ रह जाएगी। महाराज जी! ऐसे कैसे हो सकता है? यह जीभ तो चमड़े की ही रहेगी।
किनका स्नान कराएँ?
बेटे! फिर एक काम कर, तेरे मुँह में यह जो सफेद-सफेद भाग दिखाई दे रहा है, यह क्या है? ये हड्डियाँ हैं। अरे राम-राम! हड्डी से गायत्री मंत्र? अरे बेटे! यह तो रुद्राक्ष से जपा जाता है, हड्डी से नहीं। इन्हें उखाड़ दे। डॉक्टर के पास जाना और यह कहना कि साहब हमारे दाँत उखाड़ दीजिए। फिर क्या कहूँ? फिर कहना कि साहब! इसकी जगह प्लास्टिक के दाँत लगा दीजिए। नीचे से ऊपर तक प्लास्टिक के दाँत लगवा ले। और जीभ को? जीभ के लिए कोई ऐसा उपाय कर कि यह जीभ तो खराब है। इससे तो जप नहीं हो सकता, गायत्री माता अशुद्ध हो जाएँगी। महाराज जी! फिर किसकी जीभ लाऊँ? प्लास्टिक की। अच्छा गुरुजी! प्लास्टिक की जीभ और दाँत लगा लूँगा, तो फिर मैं मंत्र कैसे बोलूँगा? देख ले बेटे! यह तेरी मरजी की बात है। स्नान करना चाहता हो तो इससे कम में नहीं हो सकता। चमड़ी के स्नान से कुछ काम बन सकता है? नहीं। वास्तव में स्नान उनको कराना चाहिए जो गंदे हैं। शरीर तो गंदा है ही, यह शुरू से आखिर तक गंदा है। यह तो बाहर-बाहर ही अच्छा दीखता है। बगल में सूँघिए। अरे महाराज! इससे बड़ी बदबू आती है। बेटे! यह बदबू का घर तो है ही। इसको स्नान कराने से कुछ काम बन सकता है? हाँ बेटे! इसको स्नान तो कराना चाहिए इसका खंडन मैं नहीं करता, पर मैं यह कहता हूँ कि जिनका स्नान कराना आवश्यक है, वे धाराएँ तीन हैं।
बाहर की चमड़ी को न देखें
महाराज जी! वे कौन-कौन सी तीन धाराएँ हैं? बेटे! ये तीनों धाराएँ वो हैं, जो हमारी चेतना से ताल्लुक रखती हैं। इनमें से एक हमारे कर्म से संबंध रखती है, एक हमारे विचार से और एक हमारे भाव से संबंध रखती है। हमारे तीन शरीर हैं—एक स्थूलशरीर, एक सूक्ष्मशरीर और एक कारणशरीर। स्थूलशरीर का जो आध्यात्मिक स्वरूप है, वे हैं हमारे कर्म। इसकी शक्ल या बनावट पर मत जाइए। एक बार अष्टावक्र राजा जनक की सभा में गए। उनके हाथ-पाँव टूटे हुए थे। वे झुककर चल रहे थे। कूबड़ निकला हुआ था। उन्हें देखकर राजा के सभी सभासद हँसने लगे। उन्होंने राजा के सभासदों से और राजा से कहा—क्यों रे राजा! तैने अपनी सभा में सारे के सारे ऐसे व्यक्ति भर रखे हैं जो केवल चमड़े को देख पाते हैं अंतर के ज्ञान को नहीं। तूने हमारे ज्ञान को क्यों नहीं देखा, जो देखने लायक है। शरीर के वाह्य स्वरूप को क्यों देखता है?
शरीर का मूल्यांकन आध्यात्मिक आधार पर
मित्रो! यह जो हमारा शरीर है, इसका बाहरी चमड़ा अष्टावक्र के तरीके से है। अष्टावक्र का चमड़ा टूटा हुआ था। हमारा माँस से भरा हुआ है, गंदगी से भरा हुआ है, चमड़ी से भरा हुआ है और मल से भरा हुआ है। इस चमड़ी में है क्या? असल में इस चमड़े का जो अध्यात्म है, स्थूलशरीर का जो अध्यात्म है, उसका नाम है—कर्म। आप कुरूप हैं या खूबसूरत हैं, इसका निर्णय हम नहीं कर सकते। आपकी चमड़ी गोरी होने से या काली होने से कुछ नहीं होता। हमें निर्णय करने दीजिए कि आपके कर्म क्या हैं? कर्म की वजह से हम आपके स्थूलशरीर के बारे में यह फैसला करेंगे कि आपका स्तर क्या है? और आपकी वकत क्या है? आपकी औकात क्या है? स्थूल शरीर का वजन और वकत जो ली जाती है, वह उसके कर्मों के आधार पर ली जा सकती है। उसकी वकत को शकल के आधार पर नहीं, सूरत के आधार पर नहीं, जवानी के आधार पर नहीं और रंग रूप के आधार पर नहीं, बालों के आधार पर नहीं, किसी आधार पर नहीं आँका जा सकता। असल में अगर शरीर का मूल्यांकन करना है तो अध्यात्म के आधार पर करना है। स्थूलशरीर का मूल्यांकन कर्म के आधार पर किया जा सकता है। इसलिए कर्म की सफाई कीजिए।
विचार हमारे सही हों
मित्रो! कर्म की सफाई के लिए आचमन नंबर एक और विचारों की सफाई के लिए आचमन नंबर दो। कौन आदमी बी०ए० पढ़ा है; कौन एम०ए० पढ़ा है बेटे! इससे हमारा कोई रिश्ता नहीं है। आध्यात्मिकता के हिसाब से हम किसी आदमी को यह महत्त्व देने को तैयार नहीं हैं कि आपने बी०ए० पास किया है, एम०ए० पास किया है। बेटे! इससे हमारा कोई ताल्लुक नहीं है। आपका एम०ए० पास करना और बिना पड़ा होना हमारे आध्यात्मिकता के इम्तिहान में एक समान है। ''ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।'' और ''पंडित मूरख एक समान।'' आध्यात्मिकता की दृष्टि से पंडित और मूरख तब तक एक समान हैं, जब तक कि आदमी के विचार करने का तरीका, सोचने का तरीका उत्कृष्ट व आदर्शवादी नहीं हो जाता।
भावनाओं का स्नान
मित्रो! हमको अपनी विचारणाओं का अर्थात् सूक्ष्मशरीर का परिशोधन करना चाहिए। हमारे तीन शरीर हैं, परंतु तीनों शरीर ऐसे नहीं हैं कि एक घोड़े का शरीर, एक कुत्ते का शरीर और एक बंदर का शरीर है। ऐसा नहीं तीन शरीर हमारे भीतर हैं। एक सूक्ष्मशरीर हमारे भीतर है। यह दूसरे नंबर का है, जिसका स्वरूप है—विचार और चिंतन। विचारों की सफाई, विचारों का स्नान, कर्म का स्नान और भावों का स्नान। भावनाएँ, श्रद्घा, निष्ठाएँ, आस्थाएँ, विश्वास, रुचियाँ—ये सारी की सारी चीजें भावनाओं से जुड़ी हुई हैं। संवेदनाओं से जुड़ी हुई हैं। भावनाओं और संवेदनाओं का स्नान—एक, विचारणाओं का स्नान—दो, क्रियाओं का स्नान—तीन। इन तीनों की सफाई करने पर हम ध्यान देते हैं और यह विश्वास करते हैं कि हमको इन तीनों को साफ करना पड़ेगा। हम तीनों को स्वच्छ बनाकर चलेंगे। ये दो बातें हमने आपको बता दीं, एक पवित्रीकरण की बात और दूसरी आचमन की बात।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥