उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!
ईश-पूजन की आवश्यकता के बारे में मैं आपको हमेशा से कहता और पग-पग पर पड़ती रहेगी। पूजा के खिलाफ मुसलमान सबसे ज्यादा हैं। मुसलमान सर्वप्रथम जब हिन्दुस्तान में आये और हिन्दुस्तान में आकर उन्होंने मंदिरों को तहस-नहस कर डाला। सोमनाथ के मंदिर को तोड़-फोड़ कर उन्होंने फेंक दिया। यहाँ श्री रामचन्द्रजी का मंदिर अयोध्या में बना हुआ था उसे भी उन्होंने तोड़-फोड़कर फेंक दिया। यहाँ कृष्ण भगवान का मंदिर मथुरा में बना हुआ था, उसे तोड़-फोड़ कर फेंक दिया। उनका ख्याल था कि व्यक्ति की मूर्ति पूजा नहीं करनी चाहिए। उनका ये ख्याल था कि पृथ्वी को हम मंदिरविहीन कर देंगे। अंत तक मूर्ति पूजा न करने की बात पर वे कायम रहे। मक्का शरीफ में आप जाइए वहाँ एक संगेअवसद नाम का पत्थर रखा हुआ है। वह काले रंग का है। जो कोई भी मुसलमान काबा में जाता है, मक्का-मदीना में जाता है, हज करने के लिए, तो उसको पत्थर के सामने इजरा करना होता है और बोसा लेना पड़ता है, चुम्बन लेना पड़ता है। अगर चुम्बन नहीं लिया, बोसा नहीं लिया उस काले रंग के पत्थर का तो, उनकी हज यात्रा निरर्थक हो जाएगी। वह जो उनकी इबादत है और हज है, वह खत्म हो जाएगी। यह क्या बात हो गयी? हमने भी अपना गोल-मटोल शंकरजी बनाये थे और शालिग्राम जी बनाये थे, उन्होंने इसे चौड़ा वाला पत्थर बना दिया। मूर्तिपूजा से पिण्ड कहाँ छूटा? किसी का भी नहीं छूट सकता। मूर्तिपूजा की खिलाफत आर्य समाज भी करते हैं। आर्य समाज वाले मूर्ति पूजा को नहीं मानते, लेकिन उनके यहाँ भी स्वामी दयानंद की मूर्ति लगी हुई है। स्वामी दयानंद की मूर्ति को उतारकर हम यदि उसका अपमान करने लगें तो क्या कोई आर्य समाजी को यह अच्छा लगेगा? जबान से भले ही न कहे, लेकिन बाद में बहुत गालियाँ देगा और लड़ने आयेगा और कहेगा कि आपने हमारे स्वामीजी का क्यों अपमान किया? उनकी फोटोग्राफ या तस्वीर अगर हम ले आएँ और उनका अपमान करने लगें तो क्या कोई आर्य समाजी बर्दाश्त करेगा? नहीं करेगा, उसको बहुत बुरा लगेगा। उसके चेहरे से आप देख सकते हैं।
यह क्या हो गया? यह प्रतीक-पूजा हो गयी—कम्युनिस्ट पार्टी वाले इस बात को नहीं मानते कि कोई भगवान है और कोई पूजा है और कोई मंदिर होना चाहिए। वे भगवान की बात पर यकीन नहीं करते और मूर्ति-पूजा को नहीं मानते, लेकिन उनका लाल झण्डा क्या है? लाल झण्डे को अगर हम फाड़कर फेंक दें और लाल झण्डे को हम उनके सामने जलाएँ तो वह कम्युनिस्ट हमसे लड़ने आयेगा और यह कहेगा कि आपने हमारा लाल झण्डा क्यों जला दिया? भाई, वह तुम्हारा कौन था? वह तो हमारा था, हमने उसे अपने पैसे देकर खरीदा था। हमने इसे वहाँ लगाया था। हमने दियासलाई लगा दी। हमने इसका अपमान कर दिया। तुम्हें इससे क्या शिकायत? तुम्हें इससे क्या लेना-देना? वाह! लेना-देना क्यों नहीं? यह अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टी का झण्डा है, आपने इसे जला दिया और खाक कर दिया। कम्युनिस्ट हमसे लड़े बिना नहीं रहेगा और राष्ट्रीय विचारधारा के लोग-काँग्रेस के लोग जिन्होंने झण्डे के लिए कितनी ज्यादा कुर्बानियाँ दीं, बलिदान दिया। उन दिनों पटना के हाईकोर्ट के ऊपर विद्यार्थी झण्डा लगाने के लिए जा रहे थे और गवर्नमेण्ट ने मना किया और कर्फ्यू लगाया और कहा आपको नहीं जाना चाहिए। विद्यार्थी नहीं माने। उन्होंने कहा—हमारे देश का झण्डा हाईकोर्ट पर अवश्य फहराया जाएगा। विद्यार्थी चले जा रहे थे। सिपाहियों ने कहा—अच्छा आप आगे जाएँगे तो हम गोलियों से भून देंगे। उन्होंने कहा—आप गोलियों से भून दीजिये। वे सात विद्यार्थी थे पटना में मारे गये और जिनका अभी भी स्मारक बना हुआ है झण्डे के लिए। झण्डे से क्या फायदा? झण्डा तो एक रुपये का था बारह आने का था और जान कितनी कीमती थी? झण्डे के लिए उसे क्यों खर्च कर डाला? झण्डे के लिए क्यों आपने नुकसान उठाया, कष्ट उठाया? झण्डे की बात नहीं है। उसके पीछे जो भावनाएँ जुड़ी हुई हैं, जो हमारे प्रतीक जुड़े हुए हैं वे बड़े कीमती हैं।
हमारी मूर्तियाँ जो हमारे मंदिरों में स्थापित हैं, गीता की पुस्तक और भागवत् की पुस्तक जिनको हम सिर पर रखकर जुलूस निकालते हैं, और गुरु ग्रन्थ साहब जिसके सामने हम मत्था टेकते हैं, वेद की पुस्तक जिनका हम जुलूस निकालते हैं—ये सब हमारे प्रतीक-पूजन हैं और प्रतीक-पूजन बड़ा आवश्यक है। मैं तो प्रतीक-पूजन की हिमायत करता रहा हूँ। प्रतीकों की स्थापना मैंने जिन्दगी भर की है। गायत्री तपोभूमि पर भी की। गायत्री माता वहाँ विद्यमान हैं और यहाँ पर गायत्री प्रतीक स्थापित हैं। अखण्ड-ज्योति कार्यालय में जहाँ हम रहते थे वहाँ भी दीपक के रूप में गायत्री माता के फोटोग्राफ और तस्वीर के रूप में हमारा प्रतीक स्थापित है, पर मैं कई बार इन चीजों के बारे में आपको बुरी-भली कहता हूँ। यह क्यों कहता हूँ? प्रतीकों का कई बार मजाक उड़ाता हूँ क्यों? प्रतीकों का मजाक मैं इसलिए उड़ाता हूँ कि प्रतीकों के बारे में मैं बार-बार गरम बात इसलिए कहने लगता हूँ कि आपने प्रतीक को सब कुछ मान लिया है। प्रतीक ही सब कुछ नहीं है। वे रेलवे लाइन पर खड़े हुए सिगनल की तरीके से हैं जो हमको यह बताते हैं कि हमको कहाँ चलना चाहिए और कहाँ जाना चाहिए? मूर्ति को आप मानकर चलेंगे कि ये सब सामर्थ्यवान हैं और ये सर्व-समर्थ हैं तो हम नाराज होंगे आपसे और जब आपसे कहेंगे कि यह गीता की पुस्तक के तरीके से हैं। श्री कृष्ण भगवान का ज्ञान जो उन्होंने अर्जुन को दिया था, उस सारे के सारे ज्ञान को हमने कैद कर रखा है—पकड़ करके रखा है, ढाई आने वाली किताब में जिसे गीता की किताब कहते हैं। गीता की पुस्तक में तो ज्ञान भरा हुआ है, परन्तु अगर आप ये कहेंगे कि नहीं साहब, हमको ज्ञान से क्या लेना-देना है। हम तो इसी पुस्तक की आरती उतारेंगे, इसी की हम जय बोलेंगे, इसी की हम कल्पना करेंगे, इसी को हम दीपक दिखायेंगे। वह जो श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन को ज्ञान बताया था, उससे हम कोई ताल्लुक नहीं रखेंगे तो मैं आपसे नाराज होऊँगा और यह कहूँगा कि आपने गीता का मूल्य नहीं समझा—महत्त्व नहीं समझा। आप तो खिलौने के पत्थर और न जाने किन-किन बातों को लेने लगे। मैं हमेशा यह चाहता रहा हूँ कि मेरे समझाने का मतलब आपकी समझ में आना चाहिए। जब आप यह कहेंगे कि हम इसको सब कुछ मानते हैं कि बदरीनारायण वाले श्रीकृष्ण भगवान बड़े जबरदस्त हैं। उन्हीं को लेकर हम बैकुण्ठ को चले जाएँगे और वहाँ जो वृन्दावन में रहते हैं, वह निकम्मे हैं, बेकार हैं, उनमें कोई ताकत नहीं है। बदरीनारायण वाले भगवान में बड़ी ताकत है तो मैं नाराज होऊँगा और मैं कहूँगा आप मूर्ति-पूजा का महत्त्व नहीं जानते—रहस्य नहीं जानते। जहाँ कहीं भी बदरीनारायण, जहाँ कहीं भी श्रीकृष्ण भगवान हैं, चाहें वह आपके मकान पर रखे हुए हों, चाहे बद्रीनाथ, चाहें वह आपके मकान पर रखे हुए हों, चाहे बद्रीनाथ, चाहे वृन्दावन में रखे हुए हों, कहीं भी रखे हुए हों, आप ये मत कहिये कि वृन्दावन वाला जबरदस्त है श्रीकृष्ण भगवान और मथुरा वाला कमजोर है। ये बात आप कहेंगे तो मैं नाराज होऊँगा। मूर्तियाँ सारी की सारी जहाँ कहीं भी रखी हैं वे भगवान के रूप की—श्रीकृष्ण की याद दिलाती है, बस काम खत्म हो जाता है।
मूर्तियाँ में आप ताकत बताने लगेंगे तो क्या हो जाएगा? तब ये बुत-परस्ती हो जाएगी। मोहम्मद साहब ने बुत-परस्ती के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था। पूजा को तो कोई भी मना नहीं कर सकता। मोहम्मद साहब तो क्या कोई भी मना नहीं कर सकता। लेकिन बुतपरस्ती को सभी मना करते हैं। बुत-परस्ती क्या थी? पहले—एक गाँव का एक बुत होता था और बद्दू लोग, डाकू लोग जहाँ कहीं भी चले जाते थे और छापा मारते थे पुराने जमाने में। सोना-चाँदी तो था नहीं, नोट थे नहीं। अनाज था, जानवर थे, भेड़-बकरियाँ थीं और मोटे, हट्टे-कट्टे जवान आदमी थे और स्त्रियाँ थीं। इन्हीं को ये लोग लेकर भाग जाते थे। उस जमाने में यही दौलत थी। किसी की जवान छोकरी देखी, किसी की जवान लड़की देखी, औरत देखी बस उसको लेकर डाकू चल दिए। जो कोई मोटा आदमी देखा, मजबूत आदमी देखा उसको लेकर चल दिए और बोले—हमारा यह काम करो, वह काम करो। गुलाम बना लेते थे उन लोगों को। पुराने जमाने का रिवाज यही था। पुराने जमाने के बद्दू लोग जहाँ पर मोहम्मद साहब पैदा हुए थे, बहुत-सी औरतों को ले आते थे। किसी के पास सौ औरतें थीं, किसी के पास २५० औरतें थीं, किसी के पास ५० औरतें थीं। उनके बच्चे पैदा होते थे। बच्चों का क्या होगा? औरतों का तो यह भी है कि कुछ खेती-बाड़ी में काम आ सकती हैं, कुछ मेहनत-मशक्कत कर सकती हैं। बच्चे तो खामख्वाह तंग करेंगे। उनका क्या होगा? बच्चों के लिए मकान कहाँ से आयेगा? बच्चों के लिए दूध कहाँ से आएगा? तब ऐसा हुआ करता था कि साल भर में एक दिन ऐसा आता था कि जिसके पास जितने बच्चे होते, जरूरी वाले दो-चार बच्चे रख लिए जाते थे और बाकी बच्चे मूर्ति के सामने उसे समर्पित कर दिए जाते थे। जितने ज्यादा बच्चे दिए जाएँगे उतना ज्यादा बुत प्रसन्न रहेगा और आशीर्वाद देगा और सब काम देगा। जितने कम बच्चे बुत को दिये जाएँगे उतना ही उस गाँव का बुत नाखुश हो जाएगा, उतनी ही बीमारी फैला देगा और नुकसान कर देगा। इसलिए गाँव में एक काम्पटीशन होता था और हर उस गाँव का अलग। हर गाँव का अलग ‘बुत’ होता था। उन बुतों में लड़ाई होती थी। एक गाँव वाले अपने बुत से कहते थे कि तू उस गाँव वालों से लड़ाई लड़ तो दूसरे गाँव वाले इसी तरह अपने बुत से कहते थे। इस तरह गाँव-गाँव में बुत भरे हुए थे।
मोहम्मद साहब जब पैदा हुए तब उन्होंने कहा कि यह बड़ी वाहियात बात है। तुम लोग अलग-अलग बुत मानते हो, पर खुदा तो एक है। इतने सारे खुदा कैसे हो सकते हैं? गाँव-गाँव का खुदा भी कहीं हो सकता है। यह आपने क्या बहम पाल रखा है। बच्चों को ‘जिबह’ (वध करना) नहीं करना चाहिए। वाह! बच्चों को जिबह नहीं करेंगे तो हमारा बुत खायेगा क्या? अच्छा तो एक काम करो—बकरी को मार डालो। ऊँट को ‘जिबह’ कर लो। गाय को ‘जिबह’ कर लो। कई बच्चों को मारो मत। ठीक बात है। मोहम्मद साहब ने अपने ढंग से स्वयं काम कर दिया था उस जमाने में। मोहम्मद साहब बुत-परस्ती के खिलाफ थे। वह और किसी तरह की बुत-परस्ती थी, हमारे आपके जैसी नहीं। वह मूर्ति-पूजा की कैसे खिलाफत कर सकते थे? मूर्ति-पूजा का कोई खण्डन नहीं कर सकता। मूर्ति-पूजा दुनिया में रही है और रहेगी। लेकिन मूर्ति-पूजा के हम खिलाफ होंगे, मूर्ति-पूजा का कोई खण्डन नहीं कर सकता। मूर्ति-पूजा दुनिया में रही है और रहेगी। लेकिन मूर्ति-पूजा के हम खिलाफ होंगे, मूर्ति-पूजा से हम इनकार करेंगे और मूर्ति-पूजा के लिए आपके वहम को हटायेंगे, दुनिया से वहम को हटायेंगे और आपकी श्रद्धा को हिलायेंगे। कब? जब आप यह ख्याल करने लगेंगे कि जो पत्थर अमुक जगह पर रखा हुआ है वह बड़ा ताकतवर है। उसके ऊपर आप कपड़ा पहना देंगे और इस पर छत्र चढ़ा देंगे तो वह आपका अमुक काम बना देगा, तमुक काम बना देगा। ये वाहियात बातें आप करेंगे तो मैं नाखुश होऊँगा। यह कहिए कि ये बातें आपके समझ में नहीं आतीं। इसके पीछे जो किस्सा है, वजह है, वह यह है कि ये सारी की सारी चीजें यह याद दिलाने के लिए हैं कि सर्वशक्तिमान ईश्वर सबके भीतर समाया हुआ है। श्रीकृष्ण भगवान के मंदिर में जरूर जाएँगे और वहाँ सिर झुकाएँगे और सिजदा करेंगे, प्रणाम करेंगे। लेकिन वह हमारा प्रणाम उस पत्थर के लिए नहीं है। हमारा वह प्रणाम उनके लिए है जो आज से ५००० वर्ष पूर्व भगवान जी आए थे जिन्होंने दुनिया में नई धारा और नया विचार मनुष्य को देकर चले गए थे। हम उस मूर्ति का ध्यान करते है। सिजदा करते हैं। हमारा ईमान और हमारी निष्ठा वहाँ रहती है, उन्हीं कृष्ण के ऊपर जो सारे विश्व में समाए हैं और सब जगह समाए हुए हैं। मूर्ति-पूजा के बारे में, प्रतीक-पूजा के बारे में बार-बार आपके मन को कच्चा कर देता हूँ। बार-बार आपकी निष्ठा को डिगा देता हूँ। मेरी बात को समझिए, मेरी बात को समझने की कोशिश कीजिए कि क्या कहता हूँ? मैं यह कहता रहूँगा कि प्रतिमा को आप पूरा मान देंगे तो बात बनेगी नहीं।
राष्ट्रीय झण्डा हमारे घर में लगा हुआ है—तिरंगा झण्डा हमारे घर में लगा हुआ है, जो इस बात का द्योतक है कि हम सबसे बड़े देशभक्त हैं। आप देशभक्त हैं— तो हिन्दुस्तान में छायी मुसीबतों और असुविधाओं से आपको पीड़ा होती है क्या? नहीं, साहब हमको क्या पीड़ा होगी। आप अपने घर में अपनी खुशहाली में हिस्सा बँटाते हैं? नहीं, साहब हम क्यों खुशहाली में हिस्सा बँटायेंगे। हम तो देशभक्त हैं। देशभक्त क्यों हैं? देखिए हमारे घर में तिरंगा झण्डा लगा हुआ है। तिरंगा झण्डा इस बात का प्रतीक था कि हमारे मन में देशभक्त का जागरण होना चाहिए।
मित्रो! मूर्तियाँ इस बात की प्रतीक हैं कि हम उन भावनाओं को जिनको हम बार-बार भूल जाते हैं और जो बातें हमारे दिमाग में से निकल जाती हैं, हमारे ख्यालों में से निकल जाती हैं? उन्हें हम अपने ख्यालों में जगाएँ। जो बातें श्री कृष्ण भगवान जी के साथ जुड़ी हुई हैं, जो बातें भगवान शंकरजी के साथ जुड़ी हुई हैं, जो बातें भगवान श्री रामचन्द्रजी के साथ में जुड़ी हुई हैं, जो बातें गणेश जी के साथ में जुड़ी हुई हैं। जो देवी के साथ में जुड़ी हुई हैं, वह ख्यालात, वह विचारधारा, वह प्रेरणा और वह प्रकाश, वह सारी की सारी चीजें इन मूर्तियों को देखकर हमारे मन में उठेंगी। अगर वह मूर्तियाँ और वह प्रतीक हमारे मन में भावना को उठायेंगे तो हम उनका स्वागत करेंगे। उनके आगे प्रणाम करेंगे। उनकी उपयोगिता को स्वीकार करेंगे और गाँव-गाँव उनके मंदिर बनायेंगे। उनकी जय बोलेंगे। लेकिन अगर लोग इस वहम में घुसते चले आयेंगे कि जो कुछ भी है ये मूर्ति का पत्थर का टुकड़ा ही सब कुछ है। लेकिन इस श्रम से जब आपको कुछ भी नहीं मिलेगा तो आप ये कहने लगेंगे कि ये सब बेकार हैं। तब हम आपको अज्ञानी बताएँगे और फिर हम आपसे नाराज होंगे और आपके अज्ञान को उखाड़ने की कोशिश करेंगे और आपसे कहेंगे कि आप ये क्या करते हैं गड़बड़। जो चीज जिस काम के लिए बनाई गयी है उस उद्देश्य पर आप ध्यान दीजिए, उस काम की महत्ता को समझिए।
मित्रो! प्रतीक हमारे माध्यम हैं और माध्यम केवल इसलिए हैं कि उनके साथ में जो मूल प्रेरणा और मूल प्रकृति जुड़ी हुई है, उसके सम्बन्ध में हम जानकार रहें और उसको अपने हृदय में स्थान देने की कोशिश करें। न केवल हृदय में स्थान देने की कोशिश करें, बल्कि अपने जीवन का एक हिस्सा बना लें। ये है प्रतीक-पूजा का आदर्श और प्रतीक-पूजा का उद्देश्य। हमने आपसे यही कहा था। अब हम गायत्री माँ का प्रतीक घर-घर में स्थापित करना चाहते हैं और हर आदमी के दिमाग में इस बात की प्रेरणा स्थापित करना चाहते हैं कि हमको मनुष्यता का अनुयायी होना चाहिए और हमको नारी जाति के प्रति निष्ठावान और श्रद्धावान होना चाहिए। मानवता के प्रति निष्ठावान और श्रद्धावान होना चाहिए। ये सारे के सारे ‘सिम्बॉल’ हमारे इस गायत्री माता के साथ जुड़े हुए हैं। हमको विवेकशील होना चाहिए और विवेकशीलता की इज्जत करनी चाहिए। ये सारे के सारे सिद्धान्त गायत्री माता के साथ जुड़े हुए हैं। इन सारे सिद्धान्तों को लेकर जो गायत्री माता का पूजन करेंगे तो उनका प्रतीक-पूजन सही होगा, सार्थक होगा और उससे दुनिया का फायदा होगा। मनुष्य जाति का उद्धार हो जाएगा। यही प्रतीक-पूजन का उद्देश्य है।
प्रतीकों के सम्बन्ध में विडम्बना की शुरुआत वहाँ से आरम्भ होती है, जहाँ हमने यह मानना शुरू कर दिया कि ये मूर्ति जो बैठी हुई है, बड़ी ताकतवर है। उसको हम मिठाई खिला देंगे, उसकी हम आरती उतारेंगे तो वह हमारा उद्धार कर देगी और हमें मालामाल कर देगी। ये ख्यालात आप करने लगेंगे तो हम नाराज होंगे। वास्तविकता को आप समझते क्यों नहीं। वास्तविकता को आप समझिए। वास्तविकता को समझने की कोशिश कीजिए कि मूर्ति-पूजा क्यों बनाई गई थी और किसके लिए बनाई गई थी? एक दिन हमने आपसे एक बात कही थी कि गायत्री माँ, जो हमारी भारतीय संस्कृति की जीवात्मा है, जो हमारा प्राण है, जो चारों वेदों की जननी है। उसको एक ‘सिम्बॉल’ को लेकर के हम सारे हिन्दू समाज को एक स्थान पर इकट्ठा कर सकते हैं। जो हमारे अनेक देवताओं के माध्यम से, सम्प्रदायों के माध्यम से, मंत्रों के माध्यम से, पैगम्बरों के माध्यम से हजारों और लाखों टुकड़ों में हिन्दू धर्म फैल गया और बिखर गया है, अब हम इसको फिर से इकट्ठा करना चाहते हैं। हम उसका बिखराव बर्दाश्त नहीं करेंगे। अब हम यह करेंगे कि हिन्दू समाज का कोई न कोई तो प्रतीक होना चाहिए। कोई न कोई तो एक ‘सिम्बॉल’ होना चाहिए। कहीं तो एक जगह इकट्ठे होना चाहिए। राष्ट्रीय झण्डे के प्रति हम सारे हिन्दुस्तानी नतमस्तक होते हैं। इसमें हिन्दू भी शामिल हैं, मुसलमान भी शामिल हैं, ईसाई भी शामिल हैं। इस माध्यम से जब सारे के सारे लोग इकट्ठे किए जा सकते हैं तो क्या हम हिन्दू संस्कृति को इकट्ठे करने के लिए माध्यम तलाश नहीं कर सकते। हाँ, माध्यम हमारा था और वही रहना चाहिए और वही रहेगा। कौन है वह माध्यम? वह है गायत्री मंत्र। गायत्री मंत्र हमारा माध्यम है और वही रह सकता है, दूसरा कोई बन ही नहीं सकता। हमारे पुराण, हमारे कुरान वे हैं, जिसको हम वेद कहते हैं। वेद कैसे हैं? और वेदों का मूल हमारा कलमा, हिन्दू का कलमा क्या है? हिन्दू का कलमा एक है और वह है गायत्री मंत्र। हम दूसरों को भी इज्जत देते हैं। आप किस देवता की पूजा करते हैं आपको मुबारक, हमें क्या झगड़ना आपसे। आप श्रीकृष्ण भगवान की पूजा करते हैं तो खुशी-खुशी करें और आप ‘‘श्री कृष्णाय नमो नमः’’ का जप करें हमें कोई एतराज नहीं आपसे। लेकिन जब आप यह कहेंगे कि हिन्दू धर्म का मूल है—‘‘कृष्णाय नमो नमः’’ तो हम यह पूछेंगे कि जब ५००० वर्ष पहले भगवान श्रीकृष्ण का जन्म नहीं हुआ था, तब आप किसकी पूजा करते थे? श्रीकृष्ण भगवान किसकी पूजा करते थे? श्री कृष्ण भगवान क्या यह जप करते थे। ५००० वर्ष पूर्व क्या उपासना थी? बताइए न आप।
मित्रो! तब एक ही उपासना रही है हमारी। ब्रह्माजी को आकाशवाणी के रूप में वह मिली थी। वह था ‘गायत्री मंत्र’ और जिसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही नहीं राम और कृष्ण जो हमारे हिन्दू धर्म के सूर्य और चन्द्रमा मान जाते हैं उन्होंने भी इस उपासना को अपनाया था। आप भागवत् में पढ़ लीजिए, आप वाल्मीकि रामायण में पढ़ लीजिए। दोनों को जो दीक्षाएँ दी गई थीं, वह गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी और जब तक दोनों जिन्दा रहे तब तक वे गायत्री मंत्र की उपासना करते रहे। शिव की उपासना का मंत्र यही है। सूर्यवंशी राजा और चन्द्रवंशी राजा जितने भी हुए सबकी उपासना का मंत्र यही एक है और हमारी नमाज वही एक है। हमारी संध्या गायत्री के बिना संभव नहीं है। हम गायत्री के बिना संध्या कैसे कर सकते हैं? ये हमारा प्रतीक है और हम इस प्रतीक को सिम्बॉल को हर जगह जमायेंगे और इसलिए जमायेंगे कि सारे हिन्दू समाज को यह मालूम हो जाए कि हमारी मूल जड़ कहाँ है और उद्गम कहाँ है? ताकि हम सारे समाज को एक सूत्र में पिरो सकें और सारे समाज को हम विवेकशीलता का अनुयायी बना सकें। हम विवेकशील लोग हैं। हम विचारशील लोग हैं। हम अंध-परम्पराओं के अनुयायी नहीं हैं। हम हर चीज को विवेक की कसौटी पर कसते हैं, क्योंकि हमारा मंत्र—हमारी उपासना गायत्री मंत्र है—‘‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।’’ हम बुद्धि के उपासक हैं, हम विवेक के उपासक हैं, हम विचारों के उपासक हैं, हम तर्क के उपासक हैं। हम किसी के ‘फालोवर’ नहीं हैं—हम केवल सच्चाई के फालोवर हैं। ये सारी के सारी प्रेरणा कहाँ से मिल सकती है? ये सारी प्रेरणाएँ गायत्री मंत्र से मिल सकती हैं। इसलिए हम कमर कसकर खड़े हो गए हैं कि गायत्री मंत्र की पूजा करने के लिए हम हर आदमी का मजबूर करेंगे और गायत्री मंत्र की महत्ता को अंगीकार करने और हृदयंगम करने की सलाह देंगे और परामर्श देंगे।
एक दिन हमने आपको ये भी कहा था कि उपासना को सस्ती बनायेंगे और हर बच्चे-बच्चे को उपासना करने के लिए कहेंगे हम यह कहेंगे कि गायत्री माता का एक फोटो अपने घर में पूजास्थली पर रखिये। यदि आप निराकार को मानने वाले हैं तो गायत्री मंत्र टाँग लीजिए। हमें कोई एतराज नहीं है। साकार उपासना को मानने वाले हैं तो आप गायत्री माता की तस्वीर रख लीजिए और सुबह-शाम संध्यावंदन का क्रम आरम्भ कीजिये। कोई भी व्यक्ति या स्कूल जाने वाला बच्चा सबसे पहले अपने चप्पल उतार दे, अपनी टोपी उतार दे और अपने सिर को नीचा झुकाए। हाथ जोड़ करके प्रणाम करे, भारतीय परम्पराओं की अनुभूति करे और पाँच बार गायत्री मंत्र मन ही मन बोल ले और नमस्कार करके स्कूल चला जाए पढ़ने के लिए। स्त्रियाँ खाना पकाने से पहले स्नान कर लिया है तो ठीक, नहीं भी कर लिया है तो भी ठीक, वे सिर को उघाड़ करके और पैरों से चप्पल उतार करके खड़ी हो जाएँ और पाँच बार मन ही मन गायत्री मंत्र का जब करें। और उसके बाद में खाना पकाने के लिए चली जाएँ। दुकानदार अपनी दुकान को चला जाए। गायत्री माता का चित्र दुकान में लगा हुआ है, उसके आगे मस्तक झुकाएँ, सिर झुकाएँ और पाँच बार मन ही मन गायत्री मंत्र जप लें। खड़े हो करके यह उपासना कर लें और अपनी दुकानदारी को चलाएँ। अध्यापक या बच्चे स्कूल को चले जाएँ। इससे सस्ती उपासना तो और कोई नहीं हो सकती। मित्रो! इसमें तो शिकायत की बात भी नहीं है कि हमको समय नहीं मिलता और देखिए स्नान नहीं हुआ और ये नहीं हुआ और जनेऊ तो था नहीं। फिर कैसे करेंगे गायत्री जप। जनेऊ पहनना हो तो जरूर पहनना, हमें कोई शिकायत नहीं है और आपको स्नान करना हो तो जरूर करना। हम किससे मना करते हैं? लेकिन यदि आप बीमार हो गए हैं और आप नहीं नहा सकते हैं, तो आपको ये कहने की आवश्यकता नहीं होगी कि चूँकि हम नहाए नहीं थे, इसलिए हम गायत्री मंत्र की उपासना नहीं कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में भी आपको जरूर करनी चाहिए उपासना।
गायत्री मंत्र के बारे में हर हिन्दू से कहेंगे, हर घर में जाएँगे, हर आदमी को समझाएँगे और ये कहेंगे कि आपने अपने संस्कृति के माता और पिता को भुला दिया था अब अपने माता-पिता के नाम याद रखिए। आपकी माता का नाम क्या है और पिता कौन है? हमको नहीं मालूम। अरे भाई ये क्या वाहियात बात बकते हो। आपकी माँ कौन थी, हमें नहीं मालूम कि हमारी माँ कौन थी? ये कोई जवाब है। जब कोई ये कहेगा कि हमको हमारी माँ का नाम नहीं मालूम है तो हम उसको वर्णसंकर कहेंगे। तुमको अपनी माँ का नाम नहीं मालूम है। आपके पिता कौन हैं बताइए, कोई नहीं—हमको नहीं मालूम है कौन है हमारा पिता? फिर हम आपको क्या कहेंगे फिर हम आपको वर्णसंकर कहेंगे। आपको अपने पिता का और माता का नाम मालूम होना चाहिए और हर घर में उनकी स्थापना होनी चाहिए। भारतीय धर्म के माता-पिता कौन है? आपको उनका नाम मालूम होना चाहिए और आपको उनकी इज्जत करनी चाहिए जैसे कि ऋषियों ने, देवताओं ने और हमारे मुनियों और पैगम्बरों ने अनादिकाल से की और होती रहेगी। हमारे माता-पिता बदले नहीं जा सकते। आपको बुत-परस्त वालों ने, मजहब वालों ने बहका दिया है। इससे हमारी वैदिक संस्कृति को झुठलाया नहीं जा सकता। उनकी बात का उत्तर नहीं दिया जा सकता। हरेक चालाक बाबाजी ने अपने-अपने नाम का मजहब खड़ा कर दिया है और अपने-अपने पैगम्बर बनकर बैठे हैं और अपना-अपना मंत्र बना दिया है और अपनी-अपनी पुराण बना दी है। हम ये नहीं चलने देंगे। हम ये कहेंगे कि हिन्दू धर्म एक ही था और एक ही रहेगा। ठीक है मजहबपरस्तों को अपने चेलों की हजामत बनाने के लिए तरह-तरह के सम्प्रदाय बनाने पड़े, पर इसकी क्या कीमत हो सकती है और इसकी क्या कीमत हो सकती है और इसकी क्या वकत हो सकती है, इसे हर विवेकशील को जानना और समझना चाहिए। जब सूरज निकलना शुरू होगा तो ये चमगादड़ और ये उल्लू अपनी जगह से भाग खड़े होंगे और इनकी कलाई खुल जाएगी। इन्होंने ही हिन्दू धर्म के टुकड़े काट-काट कर के फेंक दिए और अपने-अपने नाम के मजहब खड़े कर दिए। अब वे अपने-अपने नाम के मजहब नहीं चला सकेंगे। मजहब हमारा एक था और एक ही रहेगा और हमारे माता-पिता एक ही थे और एक ही रहेंगे। बदले नहीं जा सकते। हमारी माँ गायत्री माँ है और हमारे पिता यज्ञ भगवान हैं। इन दोनों को हम जिन्दा रखेंगे और इन्हीं की पूजा करेंगे। हर एक आदमी जो इनको भूल गया है और आनी वास्तविकता को भी, हम अब ये सिखाने की कोशिश करेंगे कि हमारी माँ कौन थी और हमारे पिता कौन थे? माँ और बाप की इज्जत करी चाहिए—‘‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव’’ माता-पिता हमारे देव हैं, हमें इनकी पूजा करनी चाहिए।
मित्रो! अब हमको घरों में गायत्री माँ की स्थापना करनी चाहिए। गायत्री माता के ‘सिम्बॉल’ प्रतीक और उनकी चौकियाँ अपने घरों में स्थापित करनी चाहिए। जहाँ पर थोड़ी देर बैठ करके घण्टे बैठकर के भजन कर लिया करें और गायत्री मंत्र का अनुष्ठान कर लिया करें। हमको जहाँ कहीं भी मौका मिले, उस तरह की स्थापना करनी चाहिए, जिस तरह हम यहाँ गायत्री तपोभूमि में स्थापना करनी चाहिए, जिस तरह हम यहाँ गायत्री माता की स्थापना कर रहें हैं और हमने गायत्री तपोभूमि में स्थापना की है। इस बात की जरूरत समझी जाए और जहाँ भी मौका मिले, जहाँ आवश्यकता हो वहाँ गायत्री माँ की स्थापना करनी चाहिए। हमने लोगों से यह भी कहा है कि आप चाहें तो मूर्तियाँ स्थापित करने की अपेक्षा एक चित्र स्थापित कर लें। इसमें एक फायदा आपको यह हो जाएगा कि आपके ऊपर वे जिम्मेदारियाँ नहीं आयेंगी जो हमारे ऊपर जिम्मेदारियाँ आती हैं। मूर्ति स्थापित करने से हमको भोग लगाना पड़ेगा, प्रसाद बाँटना पड़ेगा, सबेरे उनकी पूजा करनी पड़ेगी। हमें आरती करनी पड़ेगी। हमें ये करना पड़ेगा वो करना पड़ेगा। अतः जहाँ जैसी जिम्मेदारियाँ उठाना सम्भव हो सके वहाँ वैसी ही उठाई जाएँ। जहाँ पर सम्भव नहीं, वहाँ पर तस्वीर स्थापित कर ली जाए और वहाँ पर सब के सब लोग इकट्ठे हों, महिलाएँ इकट्ठी हों, बच्चे इकट्ठे हों और सब इकट्ठे होकर सायंकाल को केवल आरती उतार लिया करें। आरती के समय शंख बजा दिया जाए, घड़ियाल बजा दिया जाए। अगर आपके पास प्रसाद बाँटने के लिए न हो, शक्कर न हो तो पंचामृत वाला प्रसाद प्रस्तुत कर सकते हैं। पानी में थोड़ी-सी शक्कर, थोड़ा-सा गंगाजल ,, तुलसी के पत्ते। बस उसी का हम पंचामृत बनाएँगे और उसी को सबको देंगे। अगर प्रसाद हमारे पास नहीं है, पैसे हमारे पास नहीं हैं तो हमारी पंचामृत वाली जो पद्धति है जिसमें चंदन घुला रहता है, उसका ही हम प्रसाद बाँट सकते हैं। उसमें कोई हर्ज की बात नहीं है।
गाँव-गाँव में, घर-घर में मोहल्ले-मोहल्ले में इस तरह के मंदिर स्थापित करने पड़ेंगे, ताकि वहाँ पर स्त्रियाँ, बच्चे, बुजुर्ग और बूढ़े और बालक सब इकट्ठे हो सकें और प्रार्थना में शामिल हो सकें। आप लोग आरती कीजिए और लोगों को अपने माता-पिता की अर्थात् गायत्री और यज्ञ की जानकारी कराइए। हम प्रतीकों को जिन्दा रखेंगे। हम प्रतीकों को नष्ट करने वाले नहीं हैं। हम प्रतीकों का मजाक उड़ाने वाले नहीं है। प्रतीकों के प्रति हम अनास्था उत्पन्न करने वाले नहीं है। हम तो अनास्था वहाँ उत्पन्न करते हैं और बार-बार आपसे झगड़ने के लिए इसलिए खड़े हो जाते हैं कि आप प्रतीक को ही सब कुछ मान बैठते हैं और प्रतीक जिस काम के लिए बनाया गया था उस पर आप ध्यान देना नहीं चाहते। जब आप कलम या पेन जेब में लगाते हैं तब हमें क्या एतराज हो सकता है। लेकिन जब आप यह कहते हैं कि हम फाउण्टेन पेन लगा करके एम. ए. हो गए हैं, तब हम आपसे लड़ाई करते हैं और कहते हैं फाउण्टेन पेन रखिए, लेकिन पढ़ना भी सीखिए, लिखना सीखिए, गणित सीखिए, ज्योमिट्री सीखिए, किताब पढ़ना सीखिए और फाउण्टेन पेन का इस्तेमाल कीजिए। अगर आप यह कहें कि नहीं साहब, फाउण्टेन पेन का क्या इस्तेमाल करना, हमारा पेन तो परब्रह्म परमात्मा है। हमारी जेब में वह लगा हुआ है अतः हम तो एम. ए. हैं, देखिए हम पेन खरीदकर लाए हैं तो हम आपसे लड़ाई करेंगे और कहेंगे कि आप पेन को क्यों एम. ए. बताते हैं। पेन के सहारे तो एम. ए. पास किया जाता है, बस इससे आगे बढ़िए मत।
मूर्तियों के माध्यम से, प्रतीकों के माध्यम से, तस्वीरों के माध्यम से हमको अपने हृदय के कपाट खोलने पड़ते हैं और अपने मस्तिष्क का परिष्कार करना पड़ता है। हमको यह बात मालूम करनी पड़ती है कि हमको जाना कहाँ है? चलना कहाँ है? यदि आपकी मंशा में यही उद्देश्य निहित है तो हम आपकी पूजा की बराबर प्रशंसा करेंगे और बराबर सराहना करेंगे। हमको लड़ना तब पड़ता है, हमको गुस्सा तब आता है और हम आपको झकझोरते तब हैं, जब आप मूर्ति को ही सब कुछ मान बैठते हैं और कहते हैं कि यही हमारी मनोकामना पूर्ण करेगी। यही हमको बेटा देगी। यह मूर्ति हमारा ये करेगी, हमारा वह करेगी। जब आप ऐसा कहना शुरू कर देते हैं तब हम आपसे नाराज होते हैं और यह कहते हैं कि असलियत को क्यों नहीं समझते? असलियत को समझिए। असलियत को जब आप समझेंगे नहीं तो आप मूर्ति-पूजक नहीं रहेंगे फिर आप बुत-परस्त हो जाएँगे। मूर्ति-पूजन और बुत परस्त में जमीन-आसमान का फर्क है। मूर्ति-पूजक वो है जो मूर्ति का इस्तेमाल गीता की पुस्तक के तरीके से किया करते हैं, और ज्ञान को जहाँ से वह ज्ञान आता है, भगवान जहाँ रहते हैं, वहाँ तक अपने मन को भगाकर ले जाते हैं और ज्ञान को पकड़कर लाते हैं। वे आदमी मूर्ति-पूजक हैं बुतपरस्त नहीं। बुत-परस्त कौन थे? वो लोग थे बुत परस्त जिन्हें बद्दू कहा जाता था। आप लोग बद्दू लोगों की नकल करना शुरू कर देंगे तो फिर हम आप पर झल्लाएँगे और कहेंगे कि आप तो बुत परस्त बद्दू हो जाते हैं। बद्दू आप होइये मत और किसी भी मूर्ति को ये मानकर जाइए मत कि वह सामर्थ्यवान है। उसमें चमत्कार है और वह देवी तो ऐसा कर देती है, वैसा कर देती है। वह चमत्कारी देवी है। वो चमत्कारी देवी नहीं है। चमत्कारी केवल एक भगवान है जो सारे विश्व में समाया हुआ है। उसी की शक्ति हमारे विचारों से सम्बन्ध रखती है, हमारे आचरण से सम्बन्ध रखती है। आचरण और विचारों से सम्बन्ध रखने वाली देवी को अगर आप उस मूर्ति के माध्यम से पकड़ते हैं तो हम आपको ठीक कहेंगे और हम आपको मुबारकबाद देंगे और कहेंगे आप ठीक जानकार लोगों में से हैं, आप सही आदमी हैं।
मित्रो! क्या हम प्रतीकों की उपेक्षा कर सकते हैं? नहीं, हम प्रतीकों की उपेक्षा नहीं कर सकते। प्रतीकों के माध्यम से हम उस ज्ञान को जो हमारी भारतीय संस्कृति का मूल है, हर आदमी के गले में उतारने की हम कोशिश करेंगे। इन्जेक्शन की सिरिंज के बिना हम किसी तरीके से दवा आपके खून में प्रवेश करा सकते हैं। दवा हमारे पास बहुत बढ़िया वाली रखी है। उसको जो इन्जेक्शन से लगाने क लिए सुई तो हमको चाहिए ही। सुई क्या है? सुई—मित्रो! जिसको हम प्रतीक-पूजा कहते हैं। इसके अन्दर जो दवा भरी जाती है। जो सिरिंज लगाई जाती है वो क्या है? वो है जिसको हम विचारणाएँ कहते हैं, भावनाएँ कहते हैं, दिशाएँ कहते हैं। जिसके लिए हमें, प्रतीक-पूजा के बारे में फड़फड़ा कर आगे बढ़ना होगा। प्रतीक-पूजा के लिए हमको कदम बढ़ाना पड़ेगा और हिम्मत बढ़ानी पड़ेगी। गाँव-गाँव में मंदिर और मुहल्लों में मंदिर, घर-घर में मंदिर हमको स्थापित करने पड़ेंगे। फोटोग्राफ के माध्यम से और तस्वीरों के माध्यम से क्योंकि मूर्ति के साथ में ऋद्धि-सिद्धि का वहम शामिल हो गया है। इसलिए हम थोड़े दिनों तक ये कोशिश करेंगे कि मूर्तियाँ कम से कम स्थापित हों और तस्वीरें ज्यादा से ज्यादा स्थापित हों। हर जगह उनकी स्थापना हो ताकि हम उनके माध्यम से, उनके सहारे से उनकी व्याख्या करते हुए उसको समझाते हुए—उसको बताते हुए भारतीय संस्कृति का मूल जो हमारा था—गायत्री मंत्र और यज्ञ अर्थात् विवेकशीलता और क्रियाशीलता अर्थात् अच्छे कर्म और अच्छे स्वभाव। इन दोनों का संवर्द्धन करने और उन्हें अक्षुण्ण रखने के लिए हम नए सिरे से मनुष्य को नया मनुष्य बना सकें।
मनुष्य में देवत्व का अवतरण करने के लिए, मनुष्य में भगवान का अवतरण करने के लिए और जमीन पर स्वर्ग को लाने के लिए हम यह कहेंगे कि इन प्रतीकों को—इन सिम्बॉलों को आप फिर से सँभालिए, क्योंकि ये हमारी बंदूकें हैं—ये हमारे हथियार हैं और इन हथियारों के माध्यम से मनुष्यों के अज्ञान से लड़ाई लड़नी है, ये हमारी छैनी-हथौड़े हैं। इन छैनी-हथौड़ों को हम दूर नहीं फेंक सकते हैं। यह छैनी-हथौड़ा हर दम काम करेगा। लेकिन छैनी-हथौड़े को अगर फेंक देंगे और खाली ये कहेंगे कि हमारी ताकत में बल है और हम तो लोहे को भी ठीक कर सकते हैं। अभी मुक्का मारेंगे और लोहे को ठीक करेंगे, तो मुक्के से ही काम नहीं बनेगा। छैनी-हथौड़े भी आपको रखने होंगे। छैनी-हथौड़े से ही कलाई में ताकत आयेगी। हमारे पास विचारणाएँ होनी चाहिए, भावनाएँ होनी चाहिए सही, लेकिन हमारे पास प्रतीक भी होने चाहिए और हमारे पास ‘सिम्बॉल’ भी होने चाहिए। प्रतीक और सिम्बॉलों के साथ-साथ हमको विचारणा और विवेकशीलता का विस्तार करना है। यही हमारी क्रिया-पद्धति है।
गायत्री परिवार की यही क्रिया-पद्धति है। हमारी और आपकी यही क्रिया-पद्धति होनी चाहिए। हम आस्तिकता की स्थापना करने के लिए चले हैं। हम आध्यात्मिक की स्थापना करने के लिए चले हैं और हम धार्मिकता की स्थापना करने चले हैं। यही तो हमारे उद्देश्य हैं तीन, जिनको आप गायत्री माता के तीन चरण कहते हैं। यही हैं तीन चरण, जिनकी हमने अपने ढंग से व्याख्या करना शुरू कर दिया है। भगवान पर निष्ठा और भगवान पर आस्था और भगवान पर विश्वास हम हर आदमी के मन में स्थापित करेंगे। गायत्री मंत्र का चरण नम्बर एक। गायत्री मंत्र का चरण नम्बर दो—हम हर आदमी को धार्मिक बनाना शुरू करेंगे और हर आदमी को सामाजिक बनाना शुरू करेंगे। हर आदमी को समाजपरक और सूक्ष्म-सेन्स को, भाव-संवेदना का अपनाने वाला बनाना शुरू करेंगे। हम हर आदमी को अध्यात्मिकता से यही है। हमारा मतलब आस्तिकता से यही है। हमारा मतलब धर्मनिष्ठा से यही है। इन तीनों की स्थापना करने के लिए हम गायत्री मंत्र का तिरंगा झण्डा लेकर चले हैं। इस तिरंगे झण्डे को हम बहुत प्यार करते हैं और इस झण्डे की हर जगह उसी तरह स्थापना करना चाहते हैं। जिस तरह से हमारे पूर्वजों ने और हमारे ऋषियों ने उसे प्यार किया और सुदृढ़ बनाया था।
गायत्री मंत्र की, गायत्री माता की—भगवान की मूर्तियाँ हमारे घरों में होनी चाहिए। लेकिन इससे भी ज्यादा शानदार, इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हर इनसान के, हर व्यक्ति के और हर हिन्दू के हृदय में इनकी स्थापना की जाए। गायत्री मंत्र केवल हिन्दुओं के लिए ही नहीं है, वरन् वह प्रत्येक धर्मावलम्बी व मजहब के मानने वालों के लिए है। हमें उन्नति करनी है तो इन प्रतीकों को फिर अपनाना पड़ेगा, जिसको हम गायत्री कहते हैं। जिसकी स्थापना शरीरों में की गयी थी। स्थापना मंदिरों में नहीं, पूजा घरों में ही नहीं, बल्कि प्रत्येक हिन्दू के शरीर के ऊपर इसकी स्थापना हुई। कैसे स्थापना हुई? शिखा और सूत्र के रूप में हुई। शिखा क्या है? शिखा—एक विवेकशीलता की देवी, ज्ञान की देवी हमारे मस्तिष्क के ऊपर हावी है। मस्तिष्क के ऊपर हावी है और हमारे झण्डे के रूप में फहराती है। शिखा क्या है? शिखा गायत्री है। जिस प्रकार से शंकर भगवान का सिम्बॉल, शंकर भगवान का चित्र हम गोल-मटोल बना देते हैं और मंगलमय हो लेते हैं, उसी तरह से गायत्री माता का सिम्बॉल और चित्र यह गायत्री माता की मूर्ति के रूप में हमारी शिखा के ऊपर रखा गया है। हम शिखा की स्थापना करायेंगे और हर आदमी से कहेंगे कि आपको शिखा जरूर रखनी चाहिए, क्योंकि ये गायत्री माता का प्रतीक है, गायत्री माता की मूर्ति है। हम हर आदमी से कहेंगे कि आपको अपने कंधों के ऊपर सामाजिक कर्तव्य क्या हैं? कर्म क्या हैं? उसको हम यज्ञोपवीत कहते हैं, जो हमारे कंधे पर रखा हुआ है। कर्म हमारे कंधे पर रखा हुआ है। कर्म करने की जिम्मेदारी हमारे कंधे पर रखी हुई है। कर्म करने की जिम्मेदारी हमारे हृदय पर टँगी रहनी चाहिए। कर्म करने की जिम्मेदारी हमारे कलेजे से चिपकी रहनी चाहिए। कर्म हमारे आगे भी रहना चाहिए, कर्म हमारे पीठ के ऊपर भी रहना चाहिए। ये क्या है? ये है यज्ञोपवीत। यज्ञोपवीत हमारे कंधे पर रखा हुआ है, हमारे कलेजे पर रखा हुआ है, हमारे हृदय पर रखा हुआ है, हमारी पीठ पर रखा हुआ है। हमने चारों ओर से अपने आपको खींचकर बाँध दिया है, जिससे कि यह सतत ख्याल बना रहे कि सामाजिक कर्तव्य, नैतिक कर्तव्य और पारिवारिक कर्तव्य से हम जुड़े हुए हैं और बँधे हुए हैं।
जानवर के गले में रस्सा बाँध देते हैं और फिर उसे खूँटे से बाँध देते हैं ताकि दायरे में रहा करे, मर्यादा में रहा करे, कायदे में रहा करे, कानून में रहा करे। हमारे ऋषियों ने भी हमको एक रस्से से बाँध दिया है, जो हमारे कंधे से बँधा हुआ है, हमारे हृदय से बँधा हुआ है, हमारे कलेजे से बँधा हुआ है, हमारी पीठ से बँधा हुआ है। चारों ओर से हमें जकड़कर बाँध दिया है और हमारे विवेक को, हमारी अक्ल को बाँध दिया है। यह क्या है? यह है—यज्ञोपवीत और शिखा। शिखा और यज्ञोपवीत क्या है? बताइए। ये हैं हमारे गायत्री मंत्र और यज्ञ। ये दोनों के दोनों प्रतीक हैं। यज्ञ से उपवीत क्या हुआ? यज्ञ से प्राण-प्रतिष्ठा किया हुआ धागा। इसका नाम क्या है? यज्ञोपवीत, हो हमारे कंधे पर स्थापित है। और शिखा? ये गायत्री मंत्र की व्याख्या है, जो हमने अपने मस्तिष्क के पास स्थापित की है। यह हमारे मस्तिष्क रूपी किले के ऊपर छाई रहती है और हमारे झण्डे के रूप में फहराती रहती है।
यह शरीर ही हमारा किला है। यह हमारा लाल किला है। स्वतंत्रता-दिवस के समय हमने लाल किले के ऊपर झण्डा फहरा लिया था। कब फहरा लिया था? आज से छब्बीस-सत्ताईस वर्ष पहले। जिस दिन अँग्रेज यहाँ से विदा हुए थे उस दिन हमने अपने दिल्ली वाले लाल किले के ऊपर तिरंगा झण्डा फहराया था। इसी तरह भारतीय संस्कृति का—मानवी मूल्यों का—सद्गुणों का झण्डा हमारे मस्तिष्क के ऊपर फहराता है। यह शरीर हमारा किला है। यह हमारे व्यक्तिगत जीवन का किला है। इसके ऊपर हम झण्डे की स्थापना करते हैं। अब हम शिखा को प्यार करना सिखाएँगे लोगों को। शिखा को प्यार करना और मोहब्बत करना अब हम सिखायेंगे। किले को प्यार करना और किले को मोहब्बत करना अब हम सिखाएँगे लोगों को। हम घर-घर जाएँगे इसे सिखाने, क्योंकि हिन्दू धर्म महान् है, हिन्दू धर्म विश्व का धर्म है, ये मनुष्यों का धर्म है। हिन्दू धर्म कोई मजहब नहीं है। अभी-अभी हमने एक किताब लिखकर तैयार की है शायद एक-दो महीने में छपकर तैयार हो जाए। हिन्दू धर्म के जो सारे सिद्धान्त हैं, वे मात्र हिन्दू लोगों के लिए ही नहीं है, बल्कि ये यूनीवर्सल हैं। ये विश्वव्यापी हैं, मानवमात्र के लिए हैं। हर देश के निवासी के लिए हैं। हर प्रदेश के निवासी के लिए हैं। चाहे वह हिन्दू धर्म को मानता हो, चाहे न मानता हो। ये सारे के सारे सिद्धान्त मानवमात्र के सिद्धान्त हैं, विश्वव्यापी सिद्धान्त हैं, सार्वभौम सिद्धान्त हैं। सारे के सारे धर्मों का निचोड़ हमारे हिन्दू धर्म में है।
हिन्दू धर्म का मूल क्या है? हिन्दू धर्म का मूल वह है, जिसको हम शिखा कहते हैं, जिसको हम यज्ञोपवीत कहते हैं। अब हम इस झण्डे को नष्ट नहीं होने देंगे और हर हिन्दू को कहेंगे कि आप इसको प्यार करना सीखिए। आप भी अपनी संस्कृति को प्यार करना सीखिए, आप अपनी माँ को प्यार करना सीखिए और आप अपने बाप को प्यार करना सीखिए। ये हमारा महत्त्वपूर्ण क्रिया-कलाप है और इस क्रिया-कलाप को हम विस्तार करेंगे और आपके मनों में और जनता के मनों में स्थापित करेंगे। जब मुसलमान भारत आये थे, तब उन्होंने कहा था कि सुनो हम तुम्हारी चोटी काटना चाहते हैं। अब तुम्हारी चोटी को उतार देंगे। लोग बोले ठीक है, ताकत आपके हाथ में है। हम क्या कर सकते हैं? हथियार हमारे पास नहीं है। आप जरूर हमारी चोटी काट सकते हैं, लेकिन एक मेहरबानी कीजिए। क्या मेहरबानी करें? आप इस चोटी को यहाँ से न काटकर गर्दन से काट दीजिए। कारण, चोटी की जड़ यहाँ तक आई है। यदि आप इसे यहाँ से काट डालेंगे तो हमको संतोष बना रहेगा और कोई हमको दुःख का एहसास नहीं होगा और शान्तिपूर्वक दुनिया से चोटी भी चली जाएगी और हम भी चले जाएँगे। अतः आप हमारा सिर काट डालिए। लाखों व्यक्तियों के सिर को मुसलमानों ने कलम करा दिया था।
अपनी शिखा और जनेऊ को हम कितना प्यार करते थे? आपको तो नहीं मालूम, पर हमें मालूम है। आपको तो साढ़े चौहत्तर का आशय भी नहीं मालूम कि किसे कहते हैं साढ़े चौहत्तर? पहले जमाने में, पुराने जमाने में लोग लिफाफे पर साढ़े चौहत्तर नम्बर डालते थे। आपको मालूम है क्यों डालते थे? जो कोई उस लिफाफे को खोल लेगा उसको साढ़े चौहत्तर मन जनेऊ जो अगणित हिन्दुओं ने पहने रखे थे और काट डाले गये थे मुसलमानों के द्वारा, उसकी जो हत्या उन्हें करनी पड़ी होंगी, पाप पड़ा होगा, उस आदमी को भी पाप पड़ेगा जो हमारी चिट्ठी को बिना बताए हुए खोल लेगा और चुपचाप पढ़ लेगा और फिर चिपका देगा। बंद कर देगा। उतना ही उसे पाप पड़ेगा। पता नहीं पाप पड़ता था कि नहीं और वह साढ़े चौहत्तर मन जनेऊ थे कि नहीं। मैं इस बहस में नहीं जाऊँगा। लेकिन भावना ये थी कि हम लोगों ने साढ़े चौहत्तर मन जनेऊ और शिखाएँ कटवा दी थीं और उसके लिए आप अंदाज लगा लीजिए साढ़े चौहत्तर मन जनेऊ जिस तराजू पर तौले गए होंगे उसके लिए कितना खून बहाया गया होगा? कितनी गरदनें कटाई होंगी? हमने बहुत गरदनें कटाई हैं। हमने अपना बहुत खून बहाया है, क्योंकि हम अपनी शिखा को प्यार करते हैं। जनेऊ को हम प्यार करते हैं। अपनी चोटी को प्यार करते हैं हम। शिवाजी न होते तो चोटी भी न होती सबकी। चोटी की रक्षा करने के लिए राणा प्रताप, शिवाजी और गुरु गोविन्द सिंह ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी और किसका-किसका नाम बताएँगे आपको कि चोटी के लिए कितनों ने अपनी जान न्यौछावर कर डाली, कुर्बानी कर डाली। अब यह चोटी हमारे हाथ से चली गई, नीचे आ गई। अब यह खिसक रही है। कौन काट रहा है इसको? मुसलमान काट रहे हैं इसको? नहीं, ईसाई भी नहीं काट रहे हैं इसको? तो फिर कौन काटता है? इसको तो वो काटता है, जिसको हम इस युग की अनास्था कहते हैं, यही अनास्था चोटी को काटती चली जाती है। आप पता लगा लें कि किन-किन बच्चों के सिर पर चोटी हैं? आपको एक भी बच्चे के सिर पर चोटी दिखाई नहीं पड़ेगी, यही हाल जनेऊ का है।
अगर हम जनेऊ का पता लगाने के लिए चलें और किसी कॉलेज, किसी विश्वविद्यालय में जाएँ और बच्चों को नंगा करके देखें और पूछें कि बच्चों तुम्हारे पास जनेऊ है क्या, जरा हमको दिखाना। उत्तर मिलेगा—जी नहीं। अब जनेऊ खत्म हो गया। हमारे—आपके जैसे दकियानूस कहलाने वाले लोगों के ऊपर शायद जनेऊ रखा भी हो, लेकिन वहाँ भी दकियानूसी शब्द लगा हुआ है। जनेऊ हमें जँचता नहीं है। उल्टे कहा जाता है कि जो कोई जनेऊ पहनेगा उसके घर में मौत हो जाएगी। हमारे यहाँ तो सात पीढ़ी से जनेऊ नहीं पहना गया। बेटे को हम जनेऊ पहनाएँगे तो हमारी अम्मा नाराज हो जाएगी और यह कहेगी कि हमारे तो बाप-दादाओं ने भी नहीं पहना। इसे कहाँ से ले आया हमारे घर में, कोई और अनिष्ट हो जाएगा और अशुभ हो जाएगा। जनेऊ को तू उतार दे। हमारे घर में जँचता नहीं है। जनेऊ हम कैसे पहनेंगे? हमारे तो पिताजी जिन्दा हैं। क्या हम मार डालें पिता को? नहीं आप मार न डालें पिता को। तो क्या करेंगे? जब तक हमारे पिता जिन्दा हैं तब तक हम जनेऊ कैसे पहन सकते हैं? बाप जनेऊ पहनेगा। अजीब किस्सा है कि अगर बाप के सामने बेटा पहनेगा तो बाप मर जाएगा। अरे बाबा ये क्या कहता है कि जनेऊ हमारे वंश में और हमारे खानदान में किसी ने नहीं पहना।
दुनिया में कौन-कौन से रिवाज चले हुए हैं कि जनेऊ कौन पहनेगा? मर्द पहनेगा औरत नहीं पहनेगी। लड़कियों को हम धन्यवाद देते हैं, क्योंकि शिखा की लाज, शिखा की इज्जत इन लोगों ने रख ली है। कोई-कोई लड़कियाँ तो बहुत लम्बी-लम्बी चोटी रखती हैं। मर्द से कहते हैं कि अरे बाबा छह इंच की न सही तीन इंच की चोटी रख ले, पर इनको तीन इंच की रखने में भी परेशानी मालूम पड़ती है। इन छोकरियों में से किसी की एक फुट लम्बी है तो किसी की डेढ़ फुट लम्बी है। किसी की दो फुट लम्बी है तो किसी की ढाई फुट लम्बी है। ये भी नहीं है कि कोई पतली चोटी हो वरन् लड़कियों की मोटी-मोटी चोटियाँ हैं। कई बार तो ऐसा करती हैं कि इनको जब मजा आता है, मौज आती है तो बाजार चली जाती हैं और चोटी में चोटी डाल लेती हैं। किसी-किसी को शर्म आती है जब वे अपने खाविंद को देखती है कि वह ऐसा सफाचट है कि उसने चोटी कटा ली है तो वह दो भी रख लेती हैं। एक अपनी चोटी रख लेती हैं और दूसरी अपने खाविंद के लिए। जनेऊ भी तो हम दो पहनते हैं—एक अपना पहनते हैं और एक अपनी बीबी के बदले का पहनते हैं। इसी तरह लड़की कहती है कि एक चोटी अपने खाविंद के बदले की रखायेंगी और एक अपने बदले की। यही तो बात है कि जो धर्म बचा हुआ है, वह इन लड़कियों की वजह से बचा हुआ है। ये लड़कियाँ न होतीं तो इस चोटी का पता लगाना मुश्किल पड़ जाता। किसे कहते हैं—चोटी और कैसे धारण की जाती है? चोटी कहाँ से आती है? चोटी की कौन रखवाली करता है? चोटी की हम रक्षा करेंगे और जनेऊ की हम रक्षा करेंगे।
मित्रो! हमारा यह उद्देश्य होना चाहिए, हमारा शिक्षण होना चाहिए, प्रयास होना चाहिए कि जहाँ कहीं भी हम यज्ञ कराने जाएँ वहाँ युवकों से हम यह पूछें कि आप हिन्दू धर्म को, मजहब को मानने वाले हैं। हाँ! तो फिर ये बताइये, कि पुलिस का सिपाही अपना ‘सिम्बॉल’ पहने रहता है, उसके कमर में एक पेटी बँधी रहती है और उसके ऊपर लगा रहता है एक पीतल का बिल्ला। उस पीतल के बिल्ले पर क्या लिखा रहता है? ‘यू.पी.पी.’ लिखा रहता है। पहले अँग्रेजी में लिखा रहता था और अब हिन्दी में लिखा रहता है—उत्तर प्रदेश पुलिस—‘उ.प्र.पु.’। मध्यप्रदेश पुलिस में—‘म.प्र.पु.’ लिखा रहता है। पीतल का बिल्ला न हो किसी के पास तो समझ लीजिए कि वह सिपाही नहीं है और कमर में पेटी बँधी हुई न हो तो समझ लीजिए कि वह पुलिस का सिपाही नहीं है। सिपाही को कमर में पेटी बाँधनी चाहिए।
जब कभी किसी का फौज में कोर्टमार्शल होता है तो सबसे पहला यह काम किया जात है कि उसकी पेटी उतार ली जाती है, उसका बिल्ला उतार लिया जाता है उसको ‘क्रिमिनल’ मान लिया जाता है तथा उसको लाइन में खड़ा किया जाता है फिर उसका कोर्टमार्शल किया जाता है और यह कहा जाता है कि तुम हमारी इज्जत मत खराब करो। पेटी की इज्जत—राष्ट्र की इज्जत है। तुमने ऐसे खराब काम किए हैं, इसलिए सबसे पहले तुमको यह सजा दी जाएगी कि तुम्हारी पेटी और तुम्हारा बिल्ला हम जब्त कर लेते हैं। पुलिस में भी यही होता है और फौज में भी यही होता है। हमारा बिल्ला जब्त किया या नहीं किया, हम पुलिस के सिपाही हैं कि नहीं, हम फौज के सिपाही हैं कि नहीं, हम हिन्दू धर्म के सिपाही हैं कि नहीं, हम हिन्दू धर्म में दीक्षित हैं कि नहीं, इसकी पहचान आपके शिखा और सूत्र से होती है। अगर आप हिन्दू धर्म में दीक्षित हैं तो लाइए वह निशान आपके कंधे पर ‘यू.पी.पी.’ लिखा हुआ है कि नहीं और कमर में पेटी बँधी हुई नहीं है और अगर आपकी पेटी छीन ली किसी ने तो आपको यह कहना पड़ेगा कि पुलिस में से हमें बर्खास्त कर दिया गया—फौज में से बर्खास्त कर दिया गया और हमारा कोर्टमार्शल किया गया। अगर आप का बिल्ला छीन लिया गया, पेटी छीन ली गई, जनेऊ छीन लिया गया और आपकी शिखा उतार ली गई हो तो फिर इसका मतलब यह होगा कि आपको हिन्दू धर्म में से बर्खास्त कर दिया गया। हिन्दू धर्म से कोई और धर्म होगा आपका।
हमारी यही तो निशानियाँ थीं। अब हम पहले निशानियों को जिन्दा करेंगे। निशानियों को जिन्दा करने के बाद उसकी जो शिक्षाएँ हैं, जो कोई भी दिशाएँ हैं, उनकी जो भी प्रेरणाएँ हैं, जो भी निष्ठाएँ हैं उन्हें हम लोगों के हृदय में प्रवेश करायेंगे। इसके लिए पहले हम सिम्बॉल स्थापित करेंगे। इसके बाद हम यह करेंगे कि जहाँ कहीं भी मित्रो! हमारे यज्ञ होंगे, वहाँ पर ध्यान देना पड़ेगा, जिस तरह से छोटे बच्चों का मुण्डन-संस्कार किया जाता था अब हमको बड़ी उम्र वालों का मुण्डन-संस्कार कराना पड़ेगा। छोटे बच्चों का मुण्डन-संस्कार क्या है? मुण्डन-संस्कार हर एक के यहाँ पर होता है और हर हिन्दू यह चाहता है कि हमारे बच्चों का मुण्डन हो और वह भी गंगाजी पर हो, जमुना जी पर हो। देवी के सामने हो। यह मुण्डन क्या है? मुण्डन कोई संस्कार नहीं है। यह शिखा-स्थापना का संस्कार है। चोटी हम रखा लेते हैं बाकी बालों को काट देते हैं। बाकी बालों को नहीं काटेंगे तो आप शिखा रखाएँगे कैसे? इसलिए शिखा को रखाने के लिए हमको बाकी बाल कम कर देने पड़ते थे। इसका नाम क्या था? मुण्डन-संस्कार। मुण्डन-संस्कार मित्रो! कन्या का भी करना पड़ता है और बच्चों का भी कराना पड़ता है। जब तक मुण्डन-संस्कार न होगा, शिखा नहीं रखाएँगे तब तक हिन्दू कैसे कहलाएँगे? हिन्दू होने की निशानी ही मुण्डन-संस्कार है। लेकिन आज हमारी शिखाएँ गायब हो गई हैं अतः इस संस्कार को हम फिर शुरू करेंगे। हम यज्ञ के लिए जो स्थान तलाश करेंगे वहाँ सबसे पहले यह पूछना शुरू करेंगे कि आपके सिर पर शिखा है कि नहीं और जो कहेगा कि शिखा नहीं है, तो उससे यह प्रार्थना करेंगे आपका मुण्डन-संस्कार होना आवश्यक है। मुण्डन-संस्कार के लिए शायद वह तैयार न हो तो यह कहना पड़ेगा कि आप इतनी कृपा कीजिए कि आपके तीन-तीन इंच के जो बाल हैं, उन्हें एक-एक इंच कम करा दीजिए। एक इंच बाल कम करा देंगे तो जहाँ कहीं भी शिखा आपके स्थान पर बनी रहती है, वहाँ एक इंच बाल बड़े हो जाएँगे। आपको छह महीने या साल भर बाद फिर से यदि अपने बाल कम कराने पड़ें तो फिर एक इंच बढ़ा देना। इस तरह आपकी शिखा दो-तीन साल में दो-तीन इंच बड़ी हो जाएगी और इस तरह आपके शिखा की स्थापना हो जाएगी। आप शुरुआत अभी से कीजिए। जाइए नाई से हजामत बनवाकर आइए और मुण्डन-संस्कार कराकर आइए।
मित्रो! मुण्डन-संस्कार हमारे हिन्दू धर्म का मूल है। लोग गंगाजी जाते हैं, जमुना जी जाते हैं, हरिद्वार आते हैं, सब जगह मुण्डन होते हैं। आप मध्यप्रदेश जाइए और बिहार जाइये सब जगह गंगा या नर्मदा किनारे मुण्डन होता हुआ चला जा रहा है। जो लोग दक्षिण भारत में जाते हैं, वे वहाँ देखते हैं कि जो विधवाएँ होती हैं वे सब अपने सिर के पूरे बाल कटाकर के आती हैं। वहाँ पर बाल काटने का और कटे हुए बालों का ठेका होता है लाखों रुपए का। सारे के सारे कटे हुए बालों को इकट्ठा कर लेते हैं और फिर उनको विलायत भेजते हैं। लाखों रुपये का सौदा होता है इनका। जो सुहागिन हैं उनको नहीं काटना पड़ता, पर जो सुहागिन नहीं हैं या जो विधवा हो जाती हैं उसको बाल कटाने पड़ते हैं, मुण्डन कराना पड़ता है। साथियो, मुण्डन के बारे में हमें लोगों को शिक्षा देनी पड़ेगी और यज्ञोपवीत के बारे में यह ये फिजा पैदा करनी पड़ेगी। जनेऊ के बारे में यह वहम हमें निकालना पड़ेगा कि ये पंडित के हिस्से का है और ये बनिये के हिस्से का है या क्षत्रिय के हिस्से का है। जनेऊ पहनने का अधिकार किसी एक वर्ग-विशेष के हिस्से का नहीं होता। ये अटूट है, मजबूत है, शानदार है और हर आस्तिक के लिए है।
यज्ञोपवीत धारण करने के कुछ नियम हैं, कुछ मर्यादाएँ हैं, जिन्हें जानना आवश्यक है। यज्ञोपवीत को छह महीने में बदलना चाहिए, क्योंकि पसीने से छह महीने में वह मैली पड़ जाती है और धागे कमजोर हो जाते हैं। अतः हर छह महीने बाद यज्ञोपवीत के धागे को बदल देने चाहिए। सूर्यग्रहण पर भी बदल देते हैं, चन्द्रग्रहण पर बदल देते हैं, कई बार बदलते हैं। यदि ऐसा नहीं हो पाता तो कम से कम छह महीने में तो बदल ही देने चाहिए। छह महीने के लिए हमने इसलिए कहा है कि छह महीने में जनेऊ पुरानी पड़ जाती है। महिलाएँ प्रायः हर महीने अपना जनेऊ बदल लेती हैं और नया धारण कर लेती हैं। इसी तरह कई लोग महीने में एक बार बदलते हैं। पैसे, दो पैसे, पाँच पैसे का जनेऊ आता है। वैसे तो लोग अन्य मदों में ढेरों पैसा खर्च कर देते हैं, तो महीने भर में एक जनेऊ पर खर्च क्यों नहीं कर सकते हैं? उससे क्या आफत आ जाएगी? अतः हमको यज्ञोपवीत की स्थापना करनी पड़ेगी और हम उसे व्यापक आह्वान के रूप में बनाएँगे। जहाँ कहीं भी हमारे यज्ञ होंगे, जो कोई भी व्यक्ति हमारे यज्ञ में शामिल होने का इच्छुक होगा, उनसे हम ये कहेंगे कि यज्ञोपवीत करा लीजिए और जनेऊ पहन लीजिए। यदि वह कहेगा कि जनेऊ पहनेंगे तो हमारी अम्मा नाराज हो जाएगी। अम्मा नाराज हो जाएगी, तो आप ऐसा कीजिए कि यदि यज्ञ में शामिल होना चाहते हैं तो आपको जनेऊ हम पहना देते हैं, आप पहन लीजिए। इसे आप चौबीस घण्टे पहन लीजिए। चौबीस घण्टे के बाद आप इसे विसर्जित कर देना। यदि आप हवन में शामिल होना चाहते हैं तो जनेऊ जरूरी है। जनेऊ हमारे हिन्दू धर्म का अक्षुण्ण अंग है। इसलिए इसे अपनाना शुरू कीजिए, अभ्यास करना शुरू कीजिए। अब हम हवन को व्यापक बनाने की सोच रहे हैं तो यज्ञोपवीत को भी व्यापक बनाना पड़ेगा। हवन-यज्ञ और यज्ञोपवीत वास्तव में एक ही चीज है।
यज्ञ से ही मनुष्य को मुक्ति हासिल नहीं होती। इसके लिए अपने अंतराल में छिपी दिव्य-ज्योति को जाग्रत करना पड़ता है। यज्ञ की अग्नि तो हवन-कुण्ड में समाप्त हो जाती है, पर अखण्ड-ज्योति तो कई-कई दिन रखी जाती है। अखण्ड-ज्योति समष्टि की अनंत प्रकाश की प्रतीक है। कितने ही मंदिर ऐसे होते थे, जहाँ अखण्ड-ज्योति की रक्षा की जाती थी। अब वे कहाँ रहे जहाँ अखण्ड दीपों की रक्षा की जाती हो। अखण्ड नियम और अखण्ड दीपक की रक्षा एक ही बात है। ये तो किन्हीं-किन्हीं ऋषियों के यहाँ और किन्हीं-किन्हीं महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के यहाँ पाई जाती है। हमने भी अखण्ड-ज्योति जलाई है ताकि आप अखण्ड-ज्योति को और गायत्री माता को अपने कंधों पर भी उन्हें स्थापित करें। यह काम आपको करना ही पड़ेगा। इसका यह नियम है कि स्वयं प्रकाशित हों और अन्यों को भी प्रकाशित करें, प्रेरित करें। यह एक नियम है, एक कायदा है। ये निष्ठाएँ हमको फिर से अपने हिन्दू धर्म में पैदा करनी चाहिए और विश्व में सारे के सारे लोगों में पैदा करनी चाहिए। इससे रीति और रस्म बदलकर रहेगी। लेकिन अगर हमने यह मानकर रखा कि केवल यज्ञोपवीत करा लेने, जनेऊ पहन लेने और शिखा रखा लेने भर से हमारी तरक्की हो जाएगी, तो ऐसा नहीं समझना चाहिए। अभी मैं आपको मूर्ति-पूजा और बुत-परस्ती के बारे में कह रहा था। ठीक इसी तरह अगर आपने शिखा रखी और यज्ञोपवीत पहना, लेकिन शिखा रखने के बाद और यज्ञोपवीत पहनने के बाद में आपने उसका मूल्य समझा नहीं, उत्तरदायित्व समझा नहीं, शिक्षा को समझा नहीं, प्रेरणा को समझा नहीं, हकीकत को समझा नहीं तो आपका उससे उपेक्षा पैदा होती चली जाएगी और हमारे बच्चे जनेऊ पहनने से इनकार करेंगे। हमारे बच्चे चोटी रखने से इनकार करेंगे।
आज हमारे हिन्दुओं के बच्चों ने इनसे क्यों इनकार किया? बताइए न आप? हिन्दुओं के बच्चों ने इसलिए इनकार किया क्योंकि उन्हें किसी ने भी ये बताया नहीं कि आखिर ये क्या है? हम लोगों ने इसे यज्ञोपवीत नाम क्यों दिया? इसके पीछे शिक्षा के बारे में कोई जानकारी नहीं दी कि शिखा क्या है और उसके पीछे क्या जिम्मेदारियाँ हैं? यज्ञोपवीत क्यों पहनाई जाती है और ये क्या याद दिलाती है? जनेऊ पहना तो दिया, आपने जनेऊ पहनाने की दक्षिणा भी दे दी पंडित जी को और हवन भी करा दिया और ब्रह्मभोज भी करा दिया—दो हजार रुपए भी, खर्च कर दिए, लेकिन यज्ञोपवीत पहनने के बाद जब बच्चे ने पूछा पिताजी ये क्या है? इसे क्यों पहनते हैं? हमें क्यों जनेऊ पहनाया गया है? तब आपका जवाब होता है—चुप बे, ज्यादा बोलता है। हमारे बाप-दादा पहनते हैं, पर क्यों पहनते हैं? आखिर ये क्या चीज है? चुप रह! क्यों पहनते हैं? पंडित जी-पंडित जी हर वक्त धर्म के बारे में पूछताछ करता रहता है। धर्म के बारे में पूछताछ का जवाब देने में यदि आप समर्थ न हो पाएँ तो मित्रो! आपकी निष्ठा कमजोर होती चली जाएगी और हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ, संस्कार परम्पराएँ विलुप्त होती चली जाएँगी। अतः संस्कार परम्परा के बारे में आपको बताना पड़ेगा, शिखा के बारे में बताना और समझाना पड़ेगा। अगर आपने इन सम्बन्ध में बताना और समझाना शुरू कर दिया तो एक भी हिन्दू का बच्चा यह नहीं कह पायेगा कि हमने यज्ञोपवीत तो करा लिया, पर हम जनेऊ नहीं पहनेंगे।
आप पूरे यूरोप में जाइये, वहाँ तो हमसे अधिक पढ़े-लिखे लोग हैं। हमारे बच्चों को तो अँग्रेजी आती भी नहीं है मैट्रिक पास हैं, लेकिन कोई जनेऊ नहीं पहनता और साहब बना फिरता है। जबकि सारे के सारे यूरोप में आपको सब के सब शिक्षित आदमी मिलेंगे। कोई आदमी ग्रेजुएट से कम नहीं मिलेगा। जो आदमी दिन में नहीं पढ़ सकते वे रात में पढ़ते हैं और ग्रेजुएट हो जाते हैं। लेकिन आपको मालूम होना चाहिए कि कोई भी आदमी, कोई भी ईसाई कहीं भी निकलता है तो अपनी प्रापर ड्रेस में निकलता है। जिसमें ‘टाई’ भी शामिल है। टाई क्या है? टाई ईसाइयों का यज्ञोपवीत है। ‘क्रूस’ जिसमें ईसा मसीह को फाँसी लगाई गई थी। टाई उस फाँसी का प्रतीक है। प्रत्येक ईसाई जिसमें कि बड़े से बड़ा आदमी शामिल है और छोटे से छोटा भी शामिल है या जो भी ईसामसीह में विश्वास करता है, यकीन करता है वह गले में फाँसी का फंदा, टाई के रूप में लगाकर सड़कों पर निकलता है और कहता है कि ये हमारी शान है और हमारी इज्जत है और हम पहनकर निकलते हैं। अरब देशों में मुसलमान तिरछी टोपी पहनकर निकलते हैं। हमारे हिन्दुस्तान में भी वे तिरछी टोपी पहनकर निकलते हैं और कुछ लोग बालों वाली टोपी पहनकर निकलते हैं और चूड़ीदार पैजामा तथा अचकन पहनकर निकलते हैं। आप जाइए वहाँ। कहाँ? जामिया-मिलिया इस्लामिया कॉलेज में और दूसरे कॉलेजों में भी मुसलमानों के लड़कों को देखिए ना। अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में जाइए ना, वहीं आपको आगे वाली मूँछें कटाए हुए और पाजामा एवं चप्पल पहने हुए आपको मुसलमानी लिबास में, उसी लहजे में, उसी तर्ज में काम करते हुए मिलेंगे, दिखाई पड़ेंगे। आप जामिया मिलिया कॉलेज में जाइए, अन्य स्कूल, कॉलजों में जाइए आपको प्रत्येक जगह वे सारे के सारे मुसलमानी लिबास में मिलेंगे, क्या वो पढ़े-लिखे नहीं है? क्या हिन्दुओं के लड़के पढ़े-लिखे हैं? क्या हिन्दुओं के लड़कों के दिमाग सातवें आसमान पर नहीं हैं? क्या हिन्दुओं के लड़कों को बहस करना आ गया? मुसलमान के लड़कों को बहस करना नहीं आया? उनको भी आता है।
आप सिक्खों के कॉलेजों में जाइये। वहाँ के सारे के सारे स्टूडेण्ट आपको साफा पहने हुए मिलेंगे। अपने सिर पर कलंगी लगाये हुए दीखेंगे और अपने हाथ में कृपाण लिये हुए या बगल में डाले हुए दिखाई देंगे। क्या वो पढ़े-लिखे हुए नहीं हैं? क्या सारी अकल आपके ही हिस्से में आ गई है। क्या वे पढ़े-लिखे नहीं हैं? विद्या उनको नहीं आती। नहीं साहब, वह तो शिक्षा ने ऐसा बना दिया हमें। तो शिक्षा ने हमें ही बना दिया, उन्हें नहीं बनाया? शिक्षा उन्होंने भी तो पढ़ी है। एम. ए. पास हैं और मुसलमान भी तो एम. ए. पास हैं। फिर हमारे यहाँ ये क्या हो रहा है? मित्रो! इसकी जिम्मेदारी हमारी और आपकी है। धर्म के बारे में, यज्ञोपवीत के बारे में बताने और समझाने की कोशिश हमने नहीं की। ये शिखा क्या है? ये यज्ञोपवीत क्या है? इसका हमने कभी समाधान कर दिया होता, उनको समझा दिया होता तो निश्चित हमारे बच्चे में ये गुण आ गये होते। तब हमारे घर के प्रत्येक बच्चे के छाती पर जनेऊ तो रखा होता और सिर पर शिखा स्थापित होती। वे उनमें छिपी प्रेरणाओं का अनुसरण कर रहे होते। अभी भी समय हे सँभल जाने के लिए कि जब भी हमारे बच्चे हमसे बहस करने आयेंगे और प्रश्न करेंगे कि बताइए शिखा क्या है? तो हमको उन्हें एक घण्टा समय देना पड़ेगा और बराबर बताना पड़ेगा कि शिखा का मतलब क्या है? मकसद क्या है? उद्देश्य क्या है?
एक दिन हमने आपको गायत्री मंत्र के बारे में, ज्ञान की देवी के बारे में बताया था। गायत्री मंत्र की वह सारी की सारी व्याख्या आपको अपने बच्चे को समझानी पड़ेगी जो कि शिखा के बारे में जानकारी प्राप्त करने आया है और चोटी के बारे में जानने आया है कि यह क्या है? चोटी गायत्री माता की प्रतीक है, यह बात आपको बतानी पड़ेगी। फिर वह पूछेगा कि गायत्री मंत्र क्या होता है? गायत्री मंत्र क्या है, ये भी मैंने आपको एक दिन बताया था इसके लिए मैंने आपको तीन घण्टे का समय दिया था, आपको याद होना चाहिए। इस तरह जो आदमी शिखा के बारे में जानना चाहता हो, उसे उसकी सारी की सारी फिलॉसफी के बारे में समझाना चाहिए कि शिखा क्या होती है? गायत्री क्या है और गायत्री की मूर्ति क्या है? इस तरह आपका बच्चा गंभीर हो जाएगा और तब जनेऊ को समझने, शिखा को समझने से इनकार नहीं कर सकेगा। यज्ञोपवीत के बारे में भी यही करना पड़ेगा आपको। जो बच्चा यह पूछने के लिए आपके पास आया है कि गुरुजी, ये क्या चीज है। आप बेकार में ही बार-बार हमारे गले में बाँध देते हैं। आप इसे क्यों बाँध देते हैं, बताइये न तो आपको यज्ञोपवीत पहनाने के साथ ही उसे यज्ञोपवीत धर्म की शिक्षा देनी पड़ेगी। यज्ञोपवीत की वह शिक्षा जो मैंने एक दिन सबेरे भी आपको समझाई थी और शाम को भी समझाई थी।
यज्ञ की फिलॉसफी के बारे में भी लोगों को बताना पड़ेगा कि यज्ञ हिन्दू धर्म का अक्षुण्ण अंग क्यों है? हमारी संस्कृति का अक्षुण्ण अंग क्यों है? इसकी प्रेरणाएँ क्या हैं, इसका प्रकाश क्या है? इसकी शिक्षाएँ क्या हैं? इस सम्बन्ध में हम प्रत्येक के बारे में किताब में छपवा रहे हैं। इसमें शिखा और सूत्र के बारे में एक हमारी पुस्तक भी है। पहले एक मोटी किताब भी थी, एक बड़ी किताब भी थी। पर अब बड़ी किताब तो रही नहीं, अतः एक अन्य छोटी किताब प्रकाशित कर रहे हैं। इस तरह से शिखा और यज्ञोपवीत के बारे में बहुत जानकारी हमको देनी है और हम जरूर देंगे, क्योंकि हमारे हिन्दू धर्म का मूल स्थापना स्तंभ यज्ञोपवीत है। पर आपने यज्ञोपवीत केवल उसी तरीके से पहनना शुरू कर दिया जिस तरह से आप मूर्तियों के बारे में कहते चले आ रहे हैं। मूर्तियों की स्थापना के बारे में मान्यता बनाकर और उनके बारे में चर्चा करते चले आ रहे हैं। कलेवर को मान्यता देने और उसमें भरी प्राणऊर्जा को, प्रेरणा को भूलते चले जा रहे हैं। संध्या तो करते हैं, पर यह नहीं मालूम कि संध्या का उद्देश्य क्या है? संध्या क्यों की जाती है? लोग साधु-संन्यासी तो बन जाते हैं, पर इसके उद्देश्यों का ज्ञान उन्हें नहीं होता है। साधु और संन्यासी वे होते हैं जिसने कि संकल्प लिया था कि हम समाज के लिए काम करेंगे, देश के लिए काम करेंगे, संस्कृति के लिए काम करेंगे। पर आज सर्वत्र उलटा ही दिखाई देता है। लोगों को मालूम भी नहीं कि साधु-संत कैसे होते थे? आज तो जहाँ देखो वही लाल-पीले कपड़े पहनने वाले, चिमटा बजाने वाले और बाबाजी कहलाने वाले—संन्यासी कहलाने वालों की भीड़ नजर आती है। इससे तो संन्यास की महत्ता कम हो जाएगी और लोग बाबाजी की पूजा करने से इनकार कर देंगे, सम्मान करने से इनकार कर देंगे, आपने देखा नहीं। आप लोग देखिये, कुंभ के मेले में देखकर आइए। इससे यह मालूम हो जाता है कि विवेकशीलता का समाधान हमारे पास नहीं है।
लोग बार-बार हमारे पास आते हैं और पूछते हैं कि गुरुजी कितनी महँगाई है। इसका प्रभाव कुंभ जैसे मेलों पर भी पड़ा है। अभी भी आप देखेंगे कि हरिद्वार का, ऋषिकेश का, हर की पौड़ी का क्या हाल होता है? लाखों आदमी आते हैं। पिछले साल भी आए थे, तब भी महँगाई थी। इस साल भी आने वाले हैं। आगे और भी ज्यादा आने वाले हैं। इसकी क्या वजह है कि इतने कम लोग आते हैं? कुंभ में आने वालों का सफाया कैसे ही गया? जब पहले पचासों हजार आदमी आते थे अब पच्चीस हजार भी नहीं है। कितने स्नान हो चुके। वसंत पंचमी का स्नान खत्म हो गया। शिवरात्रि का स्नान खत्म हो गया और कौन-कौन से दो खत्म हो गए। चार तो स्नान खत्म हो गए। पच्चीस हजार आदमी भी नहीं आये। इस व्यवस्था में ढेरों रुपया गवर्नमेण्ट का खर्च हो गया। अब देखिए क्या होता है? अब एक ही स्नान रह गया है जो पहली तारीख को पड़ने वाला है। उसमें भी आप देख लेना बहुत थोड़ी-सी दस हजार की होगी। बहुत थोड़े-से आदमी आएँगे और वह भी उस दिन आएँगे, जिस दिन तेरह तारीख को कुंभ का मेला है। उसमें आपको कुछ भीड़-भाड़ दिखाई पड़ेगी। बस उसके बाद सफाया हो जाएगा। ऐसा क्यों हुआ कि किसी जमाने में कुंभ मेले का यह हाल होता कि इन मेलों में हिन्दुस्तान के सारे के सारे संत और सारे के सारे ऋषि और सारे के सारे ब्राह्मण, एक बड़ा-सा व्यापक सम्मेलन किया करते थे, जिसमें सभा, गोष्ठी और अधिवेशन होते थे। इन अधिवेशनों का ध्येय आध्यात्मिक होता था। वे कोई छोटे-मोटे नहीं होते थे, बल्कि बड़े और अच्छे अधिवेशन होते थे, जिसमें प्रत्येक संत और प्रत्येक महन्त इकट्ठा होते थे और विचार-विनिमय करते थे कि इस मानव समाज में आध्यात्मिकता की जो कमी आ गई है और धार्मिकता में जो न्यूनता आ गई है। धार्मिकता की निष्ठाएँ जो कमजोर पड़ गई है। उसका समाधान क्या है और हम लोग उसके लिए क्या काम करेंगे? बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण फैसले हुआ करते थे। लोग इन अवसरों पर मिलते थे और बड़ा भारी काम किया करते थे। ये विचारों के यज्ञ थे। यह हमारी पार्लियामेण्ट थी जो बारह वर्ष पीछे इकट्ठी हो गई और एक बार नासिक में हो गई। एक बार प्रयाग में इकट्ठी हो गई तो एक बार उज्जैन में। इस तरह हिन्दुस्तान के चारों कोनों में यह पार्लियामेण्ट बारी-बारी से इकट्ठी होती रहती है। जैसे कि ऑल इण्डिया काँग्रेस के अधिवेशन होते हैं। इस साल बम्बई में होने वाला है। तो अगले साल सौराष्ट्र में होने वाला है और फिर बिहार में होने वाला है, मद्रास में होने वाला है। इसी तरीके से कुंभ सका मेला भी कभी नासिक में होने वाला है, कभी उज्जैन में होने वाला है, कभी हरिद्वार में होने वाला है, कभी इलाहाबाद में होने वाला है। वे सब जगह होते थे चारों दिशाओं में। इन कुंभ मेलों में हिन्दुस्तान भर के लोग आते थे, स्नान करते थे और विचार करते थे। लेकिन अब उस तरह की बात समाप्त हो गई। अब उस तरह की प्रथा समाप्त हो गई, उस तरह की परम्पराएँ समाप्त हो गई। अब किस तरह की परम्पराओं की शुरुआत हो गई? अब इस तरह की परम्पराएँ शुरू हो गई कि नहाएगा पहले कौन? बाबा जी नहाएगा पहले या पहले नागा नहाएगा? वैरागी पीछे नहाएगा। नागा बाबा पहले क्यों नहाएगा? वैरागी को कहना चाहिए कि नागाजी आप नंगे हैं, आप हट जाइए और देखिये आपको ठण्ड लग जाएगी। नागा साधु यह नहीं कहेगा कि पहले आप नहा लीजिए, हम पीछे नहा लेंगे। हमारी क्या है हम तो नंगे फिरते हैं, हमारे लिए ठण्ड की क्या बात है? पर ऐसा नहीं होता। वह कहता है कि आप वैरागी हैं और आप तो कपड़े पहनते हैं। आपको कपड़े सुखाने पड़ेंगे। हमारे पास तो कपड़े भी नहीं हैं, हमें सुखाने भी नहीं पड़ेंगे, अतः हम पहले नहाकर चले जाएँगे, आप पीछे नहा लीजिएगा। इस तरह स्नान को लेकर कभी-कभी साधु-बाबाओं में सिर-फुटव्वल की नौबत आ जाती है। कुंभ में नहाएगा तो नागा पहले नहाएगा और वैरागी नहाएगा तो उसका भूसा बना देगा। नागा ।। वैरागी कहता है कि हम पहले आये, तो हम पहले नहाएँगे। ऐसे बाबा जी को प्रणाम है जो यह कहते हैं कि हमको पहले नहाना है तो हम नहाएँगे। ऐसे बाबाओं में से किसी को जरा भी शर्म और हया नहीं है कि जो पहले तो लिहाफ ओढ़कर के पड़े रहते हैं, कम्बल ओढ़कर हैं और गर्मी के दिनों में दुपट्टा ओढ़कर लू से बचते हैं, लेकिन जब गंगाजी स्नान करने आते हैं तो जहाँ पर हजारों-लाखों की संख्या में स्त्रियाँ और बच्चे और बच्चियाँ होती हैं, उन लोगों के बीच लँगोटी पहनकर चलते हैं या नंगे होकर निकलते हैं तो उन्हें लज्जा, हया, शर्म नहीं आती। बाबाजी बनते हैं और संत बनते हैं और क्या-क्या बनते हैं? उन्हें हया, शर्म आनी चाहिए। मित्रो! इस तरह से जनता का समाधान क्या होगा, कैसे होगा? जनता का समाधान नहीं होगा तो वह इन्हें मार डालेगी। जनता जीने नहीं देगी आपको और आपको सुनना, करना बंद कर देगी और कहेगी कि देखो अमुक बाबाजी आए हैं उनसे सावधान रहना।
इस तरह से मित्रो क्या हो जाएगा? अनास्था का, उपेक्षा का वातावरण बन जाएगा यदि हमने आध्यात्मिकता के मर्म को नहीं समझा। अतः हमको यज्ञोपवीत और शिखा का समाधान करना पड़ेगा कि इनकी प्रेरणाएँ क्या हैं? शिक्षाएँ क्या हैं? आखिर क्या है इनमें? तो और ये बुद्धिजीवी जनता उमड़ती और घुमड़ती क्यों चली आ रही है? हर बात में क्यों और कैसे? क्यों और कैसे? का सवाल उठता चला आ रहा है। जनेऊ के बारे में, यज्ञोपवीत के बारे में आपको ये क्यों और कैसे का जवाब देना पड़ेगा? गायत्री मंत्र और यज्ञ की व्याख्या करनी पड़ेगी। हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति की व्याख्या करनी पड़ेगी। जनेऊ और शिखा पर हमारा कोई मन्तव्य नहीं है। हमें इन सवालों को स्तंभों की स्थापना के माध्यम से हर आदमी के हृदय में, हर आदमी के कलेजे में, हर आदमी के दिल में हिन्दू सभ्यता, हिन्दू संस्कृति के प्रति निष्ठा पैदा करनी पड़ेगी। कर्मकाण्ड हमारी पुस्तकों में लिख दिए गए हैं। आप इन कर्मकाण्डों की व्याख्या नहीं करेंगे, तो ये खत्म हो जाएँगे, यह तथ्य आपको मालूम होना चाहिए।
यज्ञ की हम व्याख्या करते हैं तो आप हमसे कहते हैं कि गुरुजी आप यज्ञ की व्याख्या क्यों करते हैं? आप तो दनादन हवन कराइए और धड़ाधड़, तड़ातड़ आँसू गिराइए। व्याख्या क्यों करते हैं? बेटा, हम व्याख्या नहीं करेंगे तो लोग हवन में से उठा करके फेंक देंगे। पिछले दिनों हमारे यहाँ क्या हुआ? मथुरा में एक वकील थे उन्होंने अपनी लड़की जो एम. ए. पास थी, का एक लड़के ये ब्याह किया जो विलायत पास होकर के आया था। बारात आई, खूब जोर-शोर से, बहुत धूम-धाम से उन्होंने शादी की। लड़के और लड़की दोनों बैठे हुए थे जहाँ संस्कार हो रहा था। भाँवर पड़नी थी। पंडित लोग बहुत जोर-जोर से श्लोक बोल रहे थे—चावल रखिए, हाथ रखिए, ऐसे कीजिए, वैसे कीजिए, सब चावल फेंक दीजिए और दीपक को प्रणाम कीजिए, ढाई रुपया इसमें दक्षिणा का और नौ पैसे यहाँ रखो और तीन पैसे यहाँ रखो। लड़के ने पूछा पंडित जी गुस्ताखी माफ करें तो एक बात पूछूँ! हाँ! हाँ! पूछो बेटे जो पूछना हो। यह आप क्या कह रहे हैं? आप जो कुछ बहुत देर कह रहे हैं वह हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा है और ये पंडित जी बोलते हैं वह भी समझ में नहीं आ रहा कि आप लोग क्या बोलते हैं। मैंने देखा कि पंडित जो था वह समझदार था, उसने कहा—जो बात कहनी चाहिए वह हम संस्कृत में कह रहे हैं। आपको जो प्रतिज्ञा करनी चाहिए, जो देवताओं को आश्वासन देना चाहिए, जो अपनी स्त्री से वायदा करना चाहिए हम सब संस्कृत में कह रहे हैं और तुमको जो नियम पालन करना चाहिए वह भी संस्कृत में हम कह रहे हैं। लड़के ने कहा अच्छा बाबा, हम समझ गये जो आप हमारे लिए बयान दे रहे हैं। जैसे कोई वकील कचहरी में बयान देता है, कोर्ट में बयान देता है उसी तरह से आप हमारी तरफ से बयान दे रहे हैं। हाँ बेटा अब समझ गया तू! हम तुम्हारी तरफ से वकील हैं, मुख्तियार हैं ओर तेरी तरफ से बहस कर रहे हैं और तेरी तरफ से बयान दे रहे हैं और तू चुपचाप बैठा हुआ है और ये पंडित जी क्या कर रहे हैं? ये पंडित जी जो हैं, लड़की को जो बहस करनी चाहिए, जो प्रतिज्ञा कहनी चाहिए और जो नियम पालन करने चाहिए—जो कुछ इसे बात कहनी चाहिए वह ये पंडितजी कह रहे हैं। तो ये लड़की? ये लड़की यहीं है, यहीं बैठी रहेगी इसके गुरु हम हैं। इसके मुख्तियार हम हैं और ये करेंगे और वो करेंगे। अच्छा पंडितजी, अब हम समझ गए और हम आपके आभारी हैं कि समझा दिया आपने हमको।
उसने लड़की से कहा—तो एक काम करते हैं चलो तुम्हें बाहर घुमा लाएँ और मिला लाएँ उन लोगों से जो लोग हमको देखने आए हैं। हम उनका स्वागत करेंगे और उनके हाथ जोड़ेंगे और उन पंडितजी से कहा—अब क्या काम बाकी रह गया है? पंडित जी बोले—अब बेटा थोड़ा-सा काम रह गया है। परिक्रमा करनी है और भाँवर पड़नी है और सब कुछ कर लिया। तो ऐसा कीजिए पंडितजी आप लोग आपस में भाँवर कर लीजिए और ब्याह रचा लीजिए। जब आप हमारे बदले की बात कह सकते हैं तो आप परिक्रमा या भाँवर क्यों नहीं ले सकते? आप आपस में एक-दूसरे की बाँह पकड़ लीजिए और बाकी सभी काम पूरा कर लीजिए और हमें जाने दीजिए। बात तो थी मजाक की, परन्तु मैंने उसे बहुत गंभीरता से लिया। मैंने बहुत विचार-मंथन किया कि हमें अपने बच्चों को इस बात की जानकारी देनी चाहिए कि कर्मकाण्डों के पीछे क्या रहस्य छिपा है? कर्मकाण्डों का, क्रिया का, हवन का क्या उद्देश्य है? क्यों इसमें घी डाली जाती हैं? क्यों लकड़ी डाली जाती है? क्यों आग में समिधा और हवन-सामग्री डाली जाती है? आरती क्यों उतारी जाती है? और घी में हाथ क्यों मला जाता है? भस्म क्यों लगाई जाती है? ये सारे के सारे क्रिया-कृत्यों का, कर्मकाण्डों का शिक्षण हम देने में समर्थ नहीं हो सके तो मित्रो! अगली पीढ़ी में कर्मकाण्डों का यही हाल होगा जैसे कि मैंने अभी एम.ए. पास उक्त लड़की के बारे में बताया। अगर आप इन बातों को समझाएँगे नहीं, बताएँगे नहीं तो? आपका भी वही हाल होगा जो उन पंडितजी का हुआ था। अतः आपको इन बातों को समझाना पड़ेगा, बताना पड़ेगा हमको संन्यास की महत्ता बतानी पड़ेगी, समझानी पड़ेगी कि व्यक्ति संन्यासी क्यों होता है? और क्यों होना चाहिए? संन्यासी को क्या करना चाहिए और वह क्या-क्या करता है? संन्यासी का स्वरूप साफ नहीं करेंगे तो आप देखना—अभी कुंभ में पच्चीस हजार आदमी तो भी हैं, पर अगले वाले कुंभ में पाँच हजार आदमी भी नहीं आयेंगे और इसी तरह से गवर्नमेण्ट के पुलिस और गवर्नमेण्ट के सफाई मजदूर और गवर्नमेण्ट के टीका लगाने वाले बैठे रहेंगे। कोई नहीं आएगा। कहेगा इन पागलों के पास जाने की जरूरत क्या है? ये नागा, ये पंडे और जो शहरों में रहते हैं और सड़कों पर नंगे फिरते हैं, उन्हें देखने कौन जाएगा? और किसलिए जाएगा? उनसे अच्छे तो वे हैं जा कोढ़ी हैं, अपाहिज हैं, लँगड़े हैं, अपंग हैं। लोग उन्हें खिलाते हैं। वस्तुतः वे ही समाज सेवक हैं, ये ही लोकसेवी हैं, जो जनता की भलाई करते हैं। नहीं साहब, जो भजन करते हैं, ध्यान करते हैं, वे लोकसेवी हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। भजन करते हैं—तो अपने घर करें, मेहनत करें, मशक्कत करें। जो आदमी मेहनत करता है और अपने हाथ-पाँव की कमाई खाता है, वही स्वर्ग-मुक्ति का अधिकारी है। बैकुण्ठ आपको तभी मिलने वाला है, स्वर्ग आपको तभी मिलने वाला है, मुक्ति आपको तभी मिलने वाली है, सिद्धि तभी आपको मिलने वाली है, चमत्कार आपको तभी मिलने वाला है और यश आपको तभी मिलने वाला है, जब आप मेहनत करेंगे, मशक्कत करेंगे। तो आप पैसा खर्च कीजिए, नहीं साहब, हम तो भजन करेंगे और ऐसे ही मुफ्त में भोजन खाएँगे और पैसे कमाएँगे। नहीं भाईसाहब, अब ऐसा नहीं चलने वाला है।
इसलिए मित्रो! क्या होने वाला है? अगले दिनों क्या स्थापना होने वाली है? अगले दिनों विवेकशीलता की स्थापना करने से डरने वाली नहीं हैं। हम विवेकशीलता से डरते नहीं है। जिसके मन में क्यों और कैसे का सवाल पैदा नहीं होता? हमको उससे है डर। हमको उससे डर नहीं हे जो महात्माओं की निन्दा करता है, जो महात्माओं से जवाब-तलब करता है। हमको उस आदमी का भय नहीं है क्योंकि हमारे पास ऐसे जबरदस्त जवाब हैं कि हम उसके दिमाग को घुमा सकते हैं, हम उसके हृदय को हिला सकते हैं। उसके मन को हिला सकते हैं, हमारे पास बहुत जबरदस्त दलीलें हैं। मित्रो! हमारे पास हर आदमी की दलीलों का जवाब देने के लिए हर आदमी को वास्तविकता समझाने के लिए तर्क है। इसीलिए हम बात वहाँ से शुरू करेंगे, जहाँ से कि उसका हर बात में रोना शुरू होता है। जहाँ वह प्रश्न करता है कि शिखा से क्या फायदा? उसने बहुत सवाल कर लिया। अब हम उसकी बात का जवाब देंगे। अब हमारी बारी आई, हम जवाब देंगे। अब हम यह सिद्ध करेंगे कि जनेऊ क्यों पहनना चाहिए? जनेऊ से क्या हो सकता है? इसको हिन्दू धर्म की, हिन्दू संस्कृति की स्थापना करने के लिए और उसकी विचारणा और प्रेरणाओं को हर घर में, जन-जन में स्थापित करने के लिए हम चलेंगे। हम और आप कदम से कदम मिलाकर सारे भारतवर्ष में, सारे विश्व में इसलिए चलेंगे कि हमारे हिन्दू धर्म का जो मान था, उसकी जो गौरवमयी परम्परा थी, उसकी पुनः स्थापना की जा सके।
इसके लिए करना क्या होगा? हम इसके स्तंभों की स्थापना करेंगे, प्रतीकों की, सिम्बॉलों की स्थापना करेंगे। प्रतीकों की स्थापना करने के बाद, सिम्बॉलों की स्थापना करने के बाद हम उसकी व्याख्या करना शुरू करेंगे, विवेचना करना शुरू करेंगे। निष्ठा और आस्था का जमाना शुरू करेंगे। यह है हमारे गायत्री और गायत्री यज्ञ अभियान का एक अंश, जिसको हमने शिखा-सूत्र आंदोलन के रूप में लिया है। इसको हमने गायत्री मंत्र और गायत्री यज्ञ के साथ जोड़कर रखा है। आपको इसके लिए तैयार होना चाहिए और सारे भारतवर्ष में और सारे विश्व में शिखा-सूत्र की स्थापना करनी चाहिए। इसके लिए हमें कमर कसकर खड़ा होना चाहिए। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥