उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
देवियो, भाइयो! हमारा शिविर आज समाप्त हुआ। बहुत महत्त्वपूर्ण काम के लिए अपने इस व्यस्त समय में से थोड़ा समय निकाल करके मैंने आपको बुलाया। आप यह समझते होंगे कि हमने आवेदन पत्र भेजा था और हम अपनी ओर से प्रार्थना करके आये हैं, असल में ऐसी बात नहीं है। असल में मैंने आपको बुलाया था। चिट्ठी आपकी आयी थी जरूर, पर संकेत मैंने भेजा, इशारा मैंने किया। किस काम के लिए संकेत भेजा? बेटे एक बहुत महत्त्वपूर्ण काम था, शायद आपको अनुभव हो सका हो। यदि आपको यह अनुभव हुआ हो कि यहाँ रोजाना जप कराया जाता रहे, अनुष्ठान कराया जाते रहे, हवन कराया जाता रहे, व्याख्यान होता रहे, तो मेरी दृष्टि में यह सारे कार्य कुछ ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं थे। अगर आप चाहते तो यह कार्य अपने घरों पर कर सकते थे। अनुष्ठान भी अपने घरों पर कर सकते थे। हवन आपने कभी नहीं किया है, तो हवन भी आप कर सकते थे व्याख्यान भी सुन सकते थे। व्याख्यान कौन सा है? मेरी समझ में जो कुछ भी आता है, पहली तारीख तक अपने सारे विचार मक्खन से घी निकालने के तरीके से ‘‘अखण्ड ज्योति’’ में छाप देता हूँ और मेरे पास कोई विचार नहीं है।
मित्रो! मेरे पास और विचार होता, तो मैं आपसे छिपाता क्यों? लाखों पाठक मेरा इंतजार करते रहते हैं कि पहली तारीख तक गुरुजी ने क्या कहा होगा? जो कुछ भी मैं सोच पाता हूँ, नयी बात जान पाता हूँ, तुरंत निकाल देता हूँ और खाली हो जाता हूँ। व्याख्यान देने के लिए अब मेरे पास क्या बचा है? बेटे, व्याख्यान देने के लिए अब कुछ नहीं है मेरे पास। व्याख्यान निरर्थक है? बिलकुल निरर्थक है। इसमें जो कुछ भी था, आपसे मैं कह चुका हूँ। यह सब उन्हीं की पुनरावृत्तियाँ हैं। ‘‘गायत्री महाविज्ञान’’ में मैंने गायत्री मंत्र की सब बातें बता दी है और हवन, जो आपको मैं मुद्दतों से सिखाता रहा हूँ। फिर ऐसी कौन सी बात थी, जिसके लिए मैंने आपका पैसा खराब किया। आपका समय खराब किया। बेटे, एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात थी, जिसको मैं कहना चाहता था। वहाँ से इतनी दूर से मैं अपनी बात कह नहीं सकता था, इसलिए मैंने आपको अपने पास बुलाया।
किस काम के लिए बुलाया? तीन बातें मुझे आपसे कहनी थी और बड़ी संजीदगी के साथ कहनी थी। मैं सोचता था कि काश! आप उन तीन बातों को समझ पायें, तो मजा आ जाये। एक बात मैं आपसे यह कहने वाला था कि यह एक विशेष समय है। ऐसा समय फिर दुबारा नहीं आ सकता। कभी लाखों वर्षों में एक बार यह समय आया है, फिर नहीं आयेगा, ध्यान रखना। इसमें युग बदल रहा है। युग की संधियाँ बदल रही हैं। समय बदल रहा है। समय में इतनी बड़ी क्रांति आ रही है कि इतिहास में फिर ऐसा समय कभी नहीं आयेगा। एक समय था जब हिन्दुस्तान में स्वराज्य की लड़ाई लड़ी गयी। अब बेटे, वह समय फिर से नहीं आ सकता। उसमें जिन लोगों ने हिम्मत दिखाई और जेल चले गये थे। वे छ: छ: महीने की जेल जाने वाले लोग आज मिनिस्टर बने हुए हैं, मुख्यमंत्री बने हुए हैं। जाने क्या से क्या बने हुए हैं। जो तीन महीने के लिए जेल चले गये, उन्हें दो सौ रुपये पेंशन मिलती है, तीन सौ रुपये पेंशन मिलती है। छ: महीने जेल जाने वालों, तीन महीने के लिए जेल जाने वालों को सारी जिंदगी भर पेंशन मिलती रहेगी।
गुरुजी! हम तो दुबारा तैयार हैं। आप हमें भी तीन महीने के लिए, छ: महीने के लिए जेल भिजवा दीजिए और फिर हमको मुख्यमंत्री बनवा देना, मिनिस्टर बनवा देना। बेटे, अब वह समय नहीं आयेगा। नहीं महाराज जी! हम तो जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो बेटे अपने पड़ोसी से झगड़ा कर लो, मार-पीट कर डालो, तो जेल चले जाओगे। एक साल की सजा हो जायेगी। तो क्या गुरुजी! फिर जेल से आकर के हम मुख्यमंत्री बन जायेंगे? पेंशन भी मिल जायेगी? नहीं बेटे, अब वह सब नहीं बनेगा। जो समय चला गया, सो अब नहीं आ सकता। मैं क्या कर सकता हूँ? समय गया, सो गया, फिर नहीं आयेगा। युग की संध्या है, यह सन् १९७७, जिसमें हम और आप रह रहे हैं। आपको तो दिखाई नहीं पड़ता, पर मैं आपसे कहता हूँ कि युग बदल रहा है और यह इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसमें मनुष्य जाति के जीवन और मरण की समस्याएँ शामिल हैं। इसमें या तो मनुष्य जाति हमेशा के लिए खत्म हो जायेगी, मर जायेगी और यह धरती ऐसी सूनी पड़ी रहेगी जैसे चाँद सूना पड़ा रहता है। मनुष्य जाति का, जीव-जंतुओं का नामो निशान खत्म हो जायेगा। या फिर युगसंधि की वेला में ऐसा समय आने वाला है कि हम वर्तमान परिस्थितियों में नहीं रह सकते। यह वर्तमान परिस्थितियाँ चलेंगी या फिर मनुष्य के भीतर से देवत्व उदय होगा और सारे के सारे वातावरण में वह परिस्थितियाँ पैदा होंगी जिनको हम रामराज्य कहते रहे हैं, सतयुग कहते रहे हैं, स्वर्गीय वातावरण कहते रहे हैं। या तो ऐसा वक्त आयेगा, पर बीच का वक्त नहीं रहेगा।
मित्रो! यह युगसंधि की वेला है। हम इसे बदल रहे हैं। परिवर्तन आ रहा है। ऐसे समय का मूल्य और महत्त्व आपको समझना चाहिए। अगर ऐसे समय का मूल्य और महत्त्व आप नहीं समझेंगे, तो आप अपने आपको पहचान नहीं सकेंगे और वक्त को जान नहीं सकेंगे। कितने आदमी जिंदा रहते हैं, कितने आदमी मरते रहते हैं। कोई ठोकर खाकर मर जाता है, कोई एक्सीडेंट से मर जाता है। कोई कैंसर का मरीज हो करके मर जाता है, लेकिन जिसने समय को पहचान लिया है, उसका नाम भगत सिंह हो जाता है। भगत सिंह मरेगा? नहीं, कभी नहीं मरेगा। कौन मरेगा? तू मरेगा, लेकिन भगतसिंह नहीं मर सकता। उसने समय को पहचान करके उसकी कीमत कैसे चुकानी चाहिए? मुनासिब वक्त का कैसे फायदा उठाया जाना चाहिए, यह समझदारों का काम है। मैं चाहता था कि आप समझदारी का कोई इम्तिहान दे पाते और समझदार कहला पाते, तो मजा आ जाता।
मित्रो! मैंने आपसे यह कहा था कि आप परिवर्तन के इस जमाने में जीवात्मा के ऊपर जो जिम्मेदारियाँ आती हैं, उनको आप निभा पायें, तो अच्छा है। अगर आप लोग जिम्मेदारियाँ नहीं उठायेंगे, तो दुनिया मरेगी। क्यों मरेगी? शीशे के तरीके से इसकी तीन वजहें तो साफ हैं, जिनसे दुनिया का मरना साफ दिखाई पड़ता है। एक वजह क्या है? पहली वजह यह है कि दुनिया में ऐसे हथियार बनते चले जा रहे हैं, जो एटामिक हथियार से भी अधिक घातक हैं। पहले जो एटामिक हथियार बने थे, अब वे पुराने हो गये। अब किरणों के हथियार बन रहे हैं। अब स्पुतनिक में से कुछ किरणें छोड़ी जा सकती हैं और तमाम इलाका जो जैसा बैठा हुआ है, या सोया हुआ है, वैसे ही बैठा का बैठा रह जाय या सोया का सोया रह जाय। जहाँ का तहाँ लेटा का लेटा रह जाय। सब जल-भुनकर खाक हो जायेंगे, ऐसी किरणें छोड़ी जा सकती है। दुनिया का नाश करने के लिए अब एक से एक बढ़िया चीजें निकल रही हैं। कोई भी एक पागल आदमी उठकर खड़ा हो जाय, तो दुनिया को तहस-नहस कर सकता है। एक आदमी सारी दुनिया को, लाखों-करोड़ों वर्ष की मनुष्य की सभ्यता को खत्म कर सकता है। विज्ञान के बढ़ते हुए चरण से विनाश सामने दिखता है। हिरोशिमा, नागासाकी पर जो बम गिराये गये थे, वे तो बच्चों के खिलौने जैसे थे। उसके मुकाबले तो आज कितने ताकतवर और मारक हथियार बन गये हैं। अगर इस ताकत का किसी ने इस्तेमाल कर दिया तो दुनिया नष्ट हो जायेगी।
मित्रो, नंबर दो-दूसरी वजह है-इंसान जितना घटिया होता चला जाता है, छोटा होता चला जाता है, बौना होता चला जाता है, अगर यह बौनापन और घटियापन कायम रखा गया, तो बेटे इंसान-इंसान को मारकर खा जायेगा। आदमी-आदमी को मारकर खा जायेगा। एक आदमी दूसरे आदमी के प्रति अपने कर्तव्यों की बात विचार ही नहीं सकेगा। केवल अधिकार की बात सोचेगा कि हम इससे अधिक से अधिक क्या फायदा उठा सकते हैं। मर्द यह चाहेगा कि हम बीबी का खून कैसे पी सकते हैं और इसकी सारी की सारी हड्डियाँ और मास कैसे निचोड़ सकते हैं? भाई-भाई से चाहेगा कि भाई की मौत कब होगी, ताकि इसके हिस्से की जमीन हमारे हिस्से में आ जाय और इसकी बीबी के पास जो जेवर हैं, वे हमारे कब्जे में आ जायें। बेटे, आदमी कितना खौफनाक होता चला जाता है, कह नहीं सकते। शक्लें तो भले आदमियों की सी हैं, पर शैतान हमारी अक्ल में और हमारे दिमाग में इस कदर हावी होता चला जा रहा है कि अगर यही सिलसिला जारी रखा गया, तो आप देख लेना पचास वर्ष के भीतर या सौ वर्ष के भीतर आदमी आदमी से डर जायेगा। अभी तो हम भेड़िये से डरते हैं, अभी तो हम शेर से डरते हैं। अभी तो हमको चीते से डर लगता है। अभी तो हमको साँप से डर लगता है। अभी तो हमको बिच्छू से डर लगता है। अभी तो हमको भूत-प्रेत से डर लगता है, फिर एक आदमी दूसरे आदमी की शक्ल देख लेगा, तो काँप उठेगा और सोचेगा कि न जाने किस काम के लिए आया है। आदमी को देखकर तब आदमी काँप जायेगा।
मित्रो! हम जानते हैं कि आदमी की इज्जत और आदमी की हैसियत अभी भी खराब हो गयी है। आप जाइये किसी धर्मशाला में और कहिए कि भाई साहब! धर्मशाला में जगह है? हमें जगह दे दीजिए, हम ठहरना चाहते हैं। धर्मशाला वाला सबसे पहले आपसे पूछेगा कि आपका बिस्तर कहाँ है? आपकी अटैची कहाँ है? बेडिंग कहाँ है। नहीं साहब! हमारे पास तो अटैची नहीं है और बेडिंग भी नहीं है। अच्छा तो धर्मशाला में जगह खाली नहीं है। क्यों? क्योंकि आपकी कोई इज्जत नहीं है, कोई कीमत नहीं है। आपके पास अटैची है, बिस्तर है तो आपकी जमानत पर धर्मशाला वाला जान सकता है कि अगर यह व्यक्ति किसी की चप्पल लेकर भागेगा, तो देखता तो रहूँगा कि उसकी अटैची जमा है। उसका बिस्तर जमा है। आपकी तो कोई कीमत नहीं है, पर अटैची और बिस्तर की कीमत है। अगर आपके पास यह नहीं है, तो आप धर्मशाला देख करके चले जाइये। आदमी ने आज अपनी इज्जत गँवा दी। आदमी की हैसियत खत्म हो गयी। आदमी की औकात खत्म हो गयी। आदमी का विश्वास खत्म हो गया।
मित्रो! आदमी का विश्वास चले जाने की वजह से आज आदमी को अच्छे आदमी की प्यास है, तलाश है। हर जगह हर आदमी चाहता है कि कोई एक आदमी ऐसा मिल जाता, जिस पर विश्वास किया जा सकता है। हर आदमी पूछता है कि कोई ऐसा नौकर मिल जाता, तो काम बन जाता। हर जगह हर आदमी कहता है कि कोई एक आदमी तो साथ में मिल जाता, जिस पर भरोसा किया जा सकता। लोग मुझसे कहते हैं कि गुरुजी! एक आदमी की तलाश करना। बेटे, ऐसा आदमी मैं कहाँ से लाऊँ। सब जगह तो जानवर मारे-मारे फिरते हैं। कीड़े-मकोड़े मारे-मारे फिरते हैं, पर आदमी तो कहीं है ही नहीं। नौकरी के लिए हर जगह आदमी मारे-मारे फिरते हैं। पर हर जगह-‘‘नो वैकेन्सी’’। निकालो, चलो भगाओ इसको, यह ऐसे ही आ गया। ‘‘नो वैकेन्सी’’-आपके लिए यहाँ कोई जगह नहीं है। जानवर के लिए कहाँ जगह हो सकती है? जानवरों के लिए कोई जगह नहीं है और इंसान के लिए? बेटे, इंसान के लिए हर जगह प्यास है, लेकिन ऐसा आदमी मुझको कहीं दिखाई नहीं पड़ता।
मित्रो! आदमी ने अपनी औकात और अपनी हैसियत गँवा दी। स्वार्थपरता की जिस राह पर हम और आप चलते जा रहे हैं, अगर वही मंजिल है, वही तरक्की, वही अक्ल, वही समझ काम करती रही, तो आदमी-आदमी के लिए खौफनाक हो जायेगा। वह बिच्छू से बड़ा और शेर से भी बड़ा खतरनाक हो जायेगा। पापी आदमी, चालाक आदमी, बेईमान आदमी अपने खानदान वालों को भी खा जायेगा। भाई को भी खा जायेगा, बाप को भी खा जायेगा। किसी को भी जिन्दा नहीं छोड़ेगा। अपने ग्राहक को खायेगा, अपने बॉस को खायेगा, सबको खा जायेगा। आदमी की स्वार्थपरता का यही सिलसिला यदि जारी रहा, तो बेटे दुनिया में क्या हो जायेगा? मैं नहीं जानता। मैं समझता हूँ कि स्वार्थों की और खुदगर्जी की बेदी पर दुनिया खत्म हो जायेगी, मेरा ऐसा ख्याल है।
मित्रो! दूसरी एक और भी बात है जिससे मुझे मालूम पड़ता है कि दुनिया नाश की ओर जा रही है। नाश की ओर जाने से क्या मतलब है? हर आदमी की ख्वाहिश है कि हमारी संतान होनी चाहिए। आज हर आदमी इतनी तेजी से संतान पैदा कर रहा है कि मुझे मालूम पड़ता है कि अब ये दुनिया का सफाया करेंगे। अब ये आदमी को जिंदा नहीं छोड़ेंगे। बेटे, जिस चक्रवृद्धि के हिसाब से औलादें पैदा होती हैं, वे समझते नहीं हैं। चक्रवृद्धि किसे कहते हैं। एक बैंक वाला बैठा हुआ है। उसने कहा कि गुरुजी! जिस दिन बच्चा पैदा हो, उस दिन आप एक हजार रुपया जमा कर दें, तो उनतालीस का जिस दिन होगा, उस दिन उसको एक लाख पच्चीस हजार रुपया मिल जायेगा। हमने कहा कि कहाँ एक हजार रुपये और कहाँ एक लाख रुपये? साहब! आप कागज और पेन्सिल लेकर बैठ जाइये। हम दस प्रतिशत ब्याज देते हैं और ब्याज पर ब्याज-चक्रवृद्धि के हिसाब से सात साल में दूना हो जाता है। फिर दूने का दूना होता है। इस प्रकार उसने मुझे बता दिया कि उनतालीस साल में एक लाख पच्चीस हजार हो जाता है।
मित्रो! मनुष्यों के चक्रवृद्धि ब्याज के हिसाब से जो औलादें पैदा हो रही हैं, वे दुनिया को मार डालेंगी, खा जायेंगी। आगे से न अनाज मिलेगा, न रोटी मिलेगी, न कपड़ा मिलेगा, न स्कूलों में जगह मिलेगी। कहीं जगह नहीं मिलेगी। आज हर आदमी का दिमाग इतना खराब है कि हर कोई पूछता है कि गुरुजी! हमारे संतान होनी चाहिए। तो बेटे, पड़ोसी के बच्चे को ले आ। उनका पालन कर सकता है। नहीं महाराज जी! मैं तो अपनी ही औलाद पैदा करूँगा। औलाद पैदा करने के पीछे आदमी इस कदर पागल है कि समझता ही नहीं कि वह क्या करने जा रहा है? समाज के लिए क्या आफत पैदा करने जा रहा है? अपनी औरत का स्वास्थ्य कैसे खराब करने जा रहा है? अपनी आर्थिक कमाई का सफाया करने जा रहा है? समाज के लिए कैसे संकट पैदा करने जा रहा है? वह समझता ही नहीं कि अपने बच्चों का भविष्य कैसे खराब करने जा रहा है? पागल आदमी दुनिया का सफाया करेगा और मार डालेगा। बेटे, औलाद पैदा करने की हवस अगर इसी प्रकार से जारी रखी गयी, तो मैं जानता हूँ कि पचास वर्ष के भीतर नहीं, तो सौ वर्ष के भीतर दुनिया का सफाया हो जायेगा।
मित्रो! चक्रवृद्धि के हिसाब से ये चीजें ऐसी भयंकर और खतरनाक मालूम पड़ती हैं कि दुनिया मरने जा रही है। दुनिया नष्ट होने जा रही है और तबाह होने जा रही है। मक्खी-मच्छरों के तरीके से ये सब मरेंगे, जिंदा नहीं रह सकते। इस तरह की एक भयंकर तस्वीर हमारे सामने आती है, लेकिन एक सुनहरी तस्वीर भी हमारे सामने है। और वह यह है कि हमने जो सपने देखे हैं। आज के हिसाब से सपने ही कहिए। तो जो सपने हमने देखे हैं, अगर वे सपने ठीक तरीके से साकार किये जा सके, इंसान को इंसान बनाया जा सका। इंसान के अंदर इंसानियत पैदा की जा सकी, इंसान का चिंतन जरा सा ऊँचा उठाया जा सका। आदमी के सोचने के तरीके और आदमी के कलेजे को थोड़ा-सा चौड़ा बनाया जा सका, तो बेटे मजा आ सकता है; क्योंकि इसी शरीर के भीतर देवता निवास करते हैं, इसी अक्ल के भीतर भगवान निवास करते हैं। जब हमारे और आपके भीतर देवता उदय होंगे, भगवान उदय होंगे, तो स्वर्ग का धरती पर अवतरण सुनिश्चित है।
मित्रो! भगवान और देवता जहाँ कहीं भी रहते हैं, उस सारे के सारे वातावरण को स्वर्ग कहते हैं। यह सपना अगर साकार हो गया, तो फिर दुनिया कितनी अच्छी होगी, आप कल्पना कर सकते हैं। पुराना जमाना था, जब आदमी के पास न दियासलाई थी न उसके पास बिजली के पंखे थे। न उस जमाने में डाकखाने थे। न कहीं सड़कें थीं, न रेलगाड़ियाँ थीं, न टेलीफोन थे। कुछ भी नहीं था। बेटे, तब इतने बढ़िया कपड़े भी नहीं थे और न ही इतनी बढ़िया सिलाई की मशीनें थीं। फिर भी उस जमाने में आदमी कितने खुशहाल थे और कितनी मौज से रहते थे। आज तो हमारे पास इतने सामान हैं, इतने साधन हैं। इन साधनों के सहारे हम दुनिया में खुशी ला सकते हैं, आनन्द ला सकते हैं, उत्साह, उल्लास ला सकते हैं। अगर इनका ठीक तरीके से इस्तेमाल होने लगे, तब इस्तेमाल होना इस बात पर टिका हुआ है कि आदमी की ईमानदारी और समझदारी को क्या बढ़ाया जा सकता है?
बेटे! एक ओर यह सपना है, जिसको हम स्वर्ग कहते हैं और दूसरी ओर विनाश के आधार खड़े हुए हैं, जिसको हम नरक कह सकते हैं। हमारा रथ दोनों के बीच में खड़ा हुआ है-‘‘सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥’’ हमारा रथ एक ओर स्वर्ग की ओर, उत्थान की ओर तथा एक ओर नरक की ओर, पतन की ओर, विनाश की ओर खड़ा हुआ है। हमारा जीवन दोनों के बीच में खड़ा हुआ है। ऐसे समय की कीमत आप समझ सकते हैं। ऐसे समय के बावत आप विचार कर सकते हैं। बेटे, मैं चाहता था कि आपकी अक्ल सही तरीके से यह समझ पाये कि हम एक महत्त्वपूर्ण समय में जिंदा रह रहे हैं। अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समय में जो आदमी जागरूक होते हैं, उन पर ज्यादा जिम्मेदारी होती है। रात में चोर आते हैं और घर में चोरी हो जाती है, तो जो जगा हुआ होता है-चौकीदार, सबसे पहले उसको ही पकड़ते हैं। उससे पूछते हैं-क्यों रे! तू यहाँ का चौकीदार है? हाँ साहब! चोरी हो गयी। लगता है तू भी चोरों से मिला हुआ है और चोर पकड़कर यहाँ लाया है। नहीं साहब! हम तो इधर घूम रहे थे और दरवाजे पर बीड़ी पी रहे थे। चोर तो दीवार फाँद कर आया होगा। नहीं, जब तेरे जिम्मे चौकीदारी थी और तू जगा हुआ था, तो तूने चोरी कैसे हो जाने दी? नहीं साहब! हम अकेले ही थोड़े हैं, इस घर में तो बाइस आदमी रहते हैं। सबको गिरफ्तार कीजिए। वे तो सो रहे थे।
क्यों साहब! आपको मालूम है कि चोरी कब हुई थी? हम तो सो रहे थे, खर्राटे भर रहे थे, हमें कुछ मालूम नहीं। अच्छा भाई! इन्हें तो रिहा कर दो। अच्छा जगा हुआ कौन-कौन था? बुड्ढा जगा हुआ था। साहब! आँख हमारी तो खुल गयी थी। हमें मालूम पड़ गया था कि दीवार में खट-खट हो रही है, पर डर के मारे हम चुपचाप पड़े रहे। अच्छा इस बुड्ढे को पकड़ लो। इसे भी साथ-साथ ले चलो, क्योंकि यह कह रहा है कि हम जगे हुए थे। अच्छा देखो, यह भी कह रहा है कि हमको मालूम था कि ऐसा हो रहा है और हम खाँसते रहे, पर हम कर क्या सकते थे? सुनकर हम भी चुपचाप पड़े रहे। देखो, यह भी बड़ा मक्कार है। इस बुड्ढे को भी पकड़कर ले चलो। बुड्ढे को गालियाँ दो, गाल पर चपत लगाओ कि क्यों रे! तूने क्यों नहीं जगाया। बेटे, बुड्ढे की बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि आपकी जीवात्मा में जागृति का वह अंश है, जिसमें कि आप समय को समझ सकते हैं। देश को समझ सकते हैं। अगर समझते न होते, तो यहाँ क्यों आते? पहले आप यहाँ क्यों नहीं आये? यह इस बात का सबूत है कि आप जाग्रत आत्मा हैं। आदमी बिना काम के तो पेशाब करने भी नहीं जाता और आप ज्ञान पाने के लिए, भक्ति पाने के लिए, शांति पाने के लिए, शक्ति पाने के लिए अपना काम हर्ज करके और अपना पैसा खर्च करके यहाँ आये हैं। यह इस बात का सबूत है कि आप जगे हुए आदमी हैं और आप समय को समझते हैं, भगवान को समझते हैं, आत्मा को समझते हैं, संस्कृति को समझते हैं और मानवीय भविष्य को समझते हैं। इसलिए इन सबूतों की वजह से मैं यह कहता हूँ कि आप इस समय को समझिये और अपनी जिम्मेदारी को समझिये।
मित्रो! मेरा आपसे परामर्श नम्बर दो यह है कि आप कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। आप कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं। युग जब कभी भी बदलते हैं, तो भगवान कुछ विशेष व्यक्तियों को भेजते हैं उस समय की जिम्मेदारियाँ सम्भालने के लिए। और वे विशेष व्यक्ति अकेले उस कार्य को सम्पन्न नहीं करते। उनके साथ में दूसरे सहायक भी काम करते हैं। किसी जमाने में रामचन्द्र जी आये थे, जब दुनिया में ऐसी ही समस्या थी, जैसी कि आज है। समस्याएँ हर समय एक ही रहती हैं। उनके स्वरूप बदलते रहते हैं। स्वरूप अलग-अलग तरह के होते हैं, पर समस्या एक ही रहती है। आज की समस्या मनुष्य जाति के लिए दूसरे तरीके से है। उस समय में मारकाट के तरीके से थी। राक्षस खा जाते थे। अब हम खाते तो नहीं हैं, पर अब हमने दूसरा तरीका निकाल लिया है। अब हम दूसरों को चूस लेते हैं। चूसने और खा लेने में क्या फर्क होता है। बेटे चूसने और खा लेने में थोड़ा फर्क होता है। खाने में क्या होता है? इसमें आदमी का सफाया कर डालते हैं, मार डालते हैं, कत्ल कर डालते हैं। इसको मार डालना कहते हैं। चूसना? चूसना उसे कहते हैं जैसे जोंक खून तो पी जाती है, आदमी को मार डालती है, पर वह जिंदा रहता है। आज की लड़ाइयाँ चूसने की लड़ाइयाँ हैं। आज का रिवाज चूसने का रिवाज है। आज मारकाट का जमाना नहीं है, हत्या करने का नहीं है। अरे साहब! कौन हत्या करेगा? हत्या करके भी खून निकालना है और चूस करके भी खून निकालना है। इसलिए आज आदमी समझदार है। आज चूसने का धंधा है, लेकिन तरीका वही है। बेटे! रावण के वक्त में अब के वक्त में कोई खास फर्क नहीं है।
मित्रो! तब समय बैलेंस ठीक करने के लिए भगवान रामचन्द्र जी को भेजा गया था। वे अकेले नहीं आये थे। उनके साथ में कई आदमी आये थे। कौन-कौन आये थे? देवताओं ने कहा था कि-‘‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।’’ इतने बड़े काम के लिए, इतने लम्बे क्षेत्र में काम करने के लिए बहुत सारे आदमियों की जरूरत पड़ेगी। देवताओं ने कहा कि मनुष्य के शरीर में जन्म लेना चाहिए, परन्तु मनुष्य कितने बेईमान हैं कि वे अपने मतलब की वजह से मतलब रखते हैं। आदमी जहाँ अपना मतलब देखेगा, वही काम करेगा। इसलिए देवताओं ने कहा कि हम मनुष्य के शरीर में जन्म नहीं लेंगे। उन्होंने कहा कि यदि मनुष्य के रूप में हम जन्म लेंगे, तो हमारी भी मिट्टी पलीत हो जायेगी, इसलिए हम किसी अन्य योनि में जन्म लेंगे। देवताओं ने रीछ और वानरों की शक्ल में जन्म लिए थे। इंसान की शक्ल से उन्होंने भी नफरत की और कहा कि इंसान की अपेक्षा हैवान अच्छा है। वास्तव में आज इंसान शैतान हो चला है और हैवान अपनी जगह पर हैवानियत पर टिका हुआ है। आदमी ने इंसानियत भी गँवा दी, हैवानियत भी गँवा दी और शैतानियत पर उतारू हो गया।
बेटे! हैवान अपनी जगह पर टिका हुआ है, इसलिए देवताओं ने समझा कि हम हैवान में जन्म लेंगे तो ज्यादा अच्छा है। हम कम से कम अपनी जगह पर तो टिके रहेंगे। वे रीछ हो गये, बंदर हो गये और कौन-कौन हो गये। गिद्ध हो गये, जटायु हो गये और उन लोगों ने रामचन्द्र जी के साथ काम किया। श्रीकृष्ण भगवान अकेले आये थे? नहीं बेटे, अकेले नहीं आये थे। उनके साथ बहुत सारे आदमी आये थे। कौन-कौन आये थे? पाँच देवताओं ने पाँच पाण्डवों के रूप में अवतार लिया था। आपको शायद मालूम होगा कि कुंती ने पाँच देवताओं का आह्वान किया था और पाँच देवताओं ने अपने नुमाइन्दों के रूप में अपनी पाँच संतानें पाँच पाण्डवों के रूप में भेजी थीं। और ग्वाल−बालों के रूप में देवता आये थे। जब गोवर्धन पर्वत उठाया गया था, तो उसे उठाने के लिए ग्वाल−बाल आये थे, गोप लोग आये थे और वे सभी कान्हा के काम में मददगार हुए थे। वे क्या मानव थे? नहीं, वे सभी देवता थे।
मित्रो! श्रीकृष्ण भगवान ने सारा काम अकेले नहीं किया था। गोवर्धन उठाने से लेकर महाभारत तक के कार्यों में ढेरों आदमियों ने मदद की थी। वे कौन थे? श्रेष्ठ काम के लिए जिसमें मुसीबत दिखाई पड़ती हो, जिसमें घाटा दिखाई पड़ता हो, जिसमें नुकसान दिखाई पड़ता हो, ऐसे काम में जो आदमी शरीक होते हैं, उनका नाम देवता है। जिस काम में नफा दिखाई पड़ता हो, उसमें तो कोई भी शरीक हो सकता है। कहिए साहब! खूब नफा होने वाला है, तो फिर हमको भी शेयर होल्डर बना लीजिए। बेटे, हमारी कंपनी का दिवाला निकलने वाला है। नहीं गुरुजी। फिर तो हम आपके साथ नहीं आ सकते। बेटे, कुछ पैसा दे दे, शायद तुक्का लग जाय और हमारी कंपनी चल जाय। नहीं महाराज जी! अब आपको तो घाटा पड़ने वाला है। घाटे की कंपनी में कोई शामिल नहीं होना चाहता। घाटे की कंपनी में केवल देवता सम्मिलित होते हैं, जिसमें प्रत्यक्ष नुकसान दिखाई पड़ता है। गाँधी जी के साथ भी देवता आये थे, जिन्होंने अपनी जान दे दी। भगवान बुद्ध के साथ भी देवता आये थे, जो गल गये, जो मर गये और जिन्होंने अपनी हड्डियाँ गला दीं और जिन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। अपने को समाज के लिए, मानवता के लिए, धर्म और संस्कृति के लिए गला दिया। बेटे, देवताओं की पहचान यही होती है।
मित्रो! देवता गलने के लिए आते हैं, देने के लिए आते हैं। देवता उन्हें कहते हैं, जो दिया करते हैं और लेने के लिए जो आते हैं, वे तो लेवता होते हैं। बेटे, लेवता जो दैत्य और जाइण्ट हैं, जिनका पेट बहुत बड़ा है। खाने के लिए, बड़े होने के लिए, अमीर बनने के लिए, अपनी हवस और तमन्ना पूरी करने के लिए जो आते हैं, वे दैत्य और जाइण्ट हैं। जो आदमी गलने के लिए, परेशान होने के लिए, बर्बाद होने के लिए, कष्ट सहने के लिए, त्याग करने के लिए आते हैं, वे देव होते हैं। देव भगवान के साथ आये थे और उनके साथ काम करते रहे। बेटे, आपसे मैं यही कहने वाला था कि अगर आपकी अक्ल कुछ काम दे, अगर आपको कुछ समझ आये, तो आपको यह अनुभव करना पड़ेगा कि आप देवताओं की संज्ञा में से आ रहे हैं और हमारे साथ जुड़े हुए हैं। हम और आप अख़बारनवीश नहीं हैं। हम किताब पढ़ने वाले, छापने वाले और अख़बार छापने वाले नहीं हैं और आप पाठक नहीं हैं। कितने सारे अख़बार निकलते हैं और आप उन्हें पढ़ा करते हैं। आपको उसके सम्पादक का नाम मालूम है? अख़बार तो बहुत छपते हैं। कौन-कौन से छपते हैं? ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ के सम्पादक का नाम बताइये? गुरुजी! हमें नहीं मालूम। ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’, ‘नवभारत टाइम्स’ छपता है। उसके सम्पादक का नाम बताइये? हमें सम्पादक का नाम नहीं मालूम। क्या मतलब है? बस अख़बार पढ़ते हैं।
मित्रो! इसी तरह सैकड़ों व्याख्यानदाता हैं और सैकड़ों संत-वक्ता भी आते हैं। आपने सैकड़ों व्याख्यान सुने होंगे। संतों के सुने होंगे, बाबाजी के सुने होंगे, रामायणियों के सुने होंगे। आपको उनके नाम मालूम हैं? किसी से आपका लगाव है? उनसे कोई कशिश है? आपके और उनके बीच में कोई मोहब्बत है? बेटे कोई मोहब्बत नहीं है। रोज ही हम सुनते हैं, रोज ही पढ़ते हैं। पढ़ने से और सुनने से क्या हो सकता है? हमारे और आपके बीच में एक ऐसी कशिश है, जो हमको और आपको जोड़े हुए है। और मैं समझता हूँ कि जब तक हम और आप जिन्दा रहेंगे, तब तक यह कशिश, हमारा यह चुम्बकत्व और हमारा मैग्रेट ज्वैल लेने वाला है। हम आपसे अगल नहीं हो सकेंगे और आप हमसे अलग नहीं हो सकेंगे। हमारा और आपका रिश्ता बहुत मजबूत है। यह कौन-सा रिश्ता है? बेटे! यह हमारे खून के रिश्ते नहीं हैं। आप हमारे कोई भाई-भतीजे नहीं होते। हमारे रक्त के रिश्ते भी नहीं हैं। आपके और बहन, भांजियों से कोई रिश्ता भी नहीं है हमारा आपसे, लेकिन उससे भी मजबूत रिश्ता है, जो जन्म-जन्मान्तरों से बँधा हुआ चला आता है और वहाँ से चला आता है जहाँ से हमको भी भेजा गया है और आपको पीछे भेजा गया है।
मित्रो! अगर आप इस रिश्ते को समझ सकते हों, तो आपको जरा विचार करना पड़ेगा कि समय क्या चाहता है? महाकाल क्या चाहता है? युग क्या चाहता है? देवशक्तियाँ क्या चाहती हैं? और भगवान क्या चाहते हैं? भगवान जो चाहते हैं, उस काम को करने के लिए हमारी आगे वाली लाइन पर चलने वाले मार्गदर्शक हमको कहाँ लेकर चलना चाहते हैं? वहाँ हमको चलना चाहिए कि नहीं, यह आपको विचार करना पड़ेगा अगर आपके पास ईमान हो तो, भगवान हो तो। अगर आपके पास ईमान भी नहीं है और आपके पास भगवान भी नहीं है, तब तो बेटे! मुझे आपसे कुछ कहना नहीं है। यदि ईमान और भगवान हो, तो आपको जानना पड़ेगा कि आप क्या हैं? समय क्या है? एक और बात आपको जाननी पड़ेगी कि आपके ऊपर जिम्मेदारियाँ क्या हैं? आपको अपनी जिम्मेदारियों को अनुभव करना पड़ेगा। आपके ऊपर बड़ी जिम्मेदारियाँ हैं, युग को बदलने की जिम्मेदारियाँ हैं। मनुष्य जाति के भाग्य के नये निर्माण की जिम्मेदारियाँ हैं और अपने जीवन को अजर, अमर बनाने की जिम्मेदारियाँ हैं। अगर आप ऐसा नहीं कर सकेंगे, घटिया आदमी के तरीके से जियेंगे, तो बेटे, मुझे क्लेश ही होगा, दुःख ही होगा और मैं समझूँगा कि मेरा और आपका रिश्ता बेकार चला गया और भगवान ने मेरे साथ आपको जोड़ा था, तो उसका कोई फायदा न हो सका।
मित्रो! आप समय को समझिये, अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को समझिये। क्या इन जिम्मेदारियों को नहीं समझते, केवल उन्हीं जिम्मेदारियों को समझते हैं, जिनको कीड़ा समझता है, मकोड़ा समझता है। आप कीड़े और मकोड़े के तरीके से जियेंगे या कीड़े-मकोड़े के तरीके से जीना चाहते हैं, तो फिर मैं क्या कह सकता हूँ? कीड़े-मकोड़े में और आदमी में क्या फर्क है? बेटे, वही कसौटियाँ हैं, जिससे हम कीड़े-मकोड़े और आदमी में फर्क करते हैं। क्या फर्क है? कीड़े-मकोड़े दो काम के लिए जीते हैं। एक है-पेट को भरने के लिए और दूसरा है-औलाद पैदा करने के लिए। बस, जानवर के आगे दो ही उद्देश्य हैं, तीसरा और कोई उद्देश्य नहीं है। और आदमी? आदमी क्योंकि समझदार है, इसलिए भूख का उसने जो स्वरूप बना लिया है उसका स्वरूप पैसा बना दिया है। जानवर पेट भर लेता है और खत्म कर देता है। चींटी पेट भर लेती है और थोड़ा बहुत अपने बिल में जमा कर लेती है और खत्म कर लेती है। क्योंकि हम समझदार आदमी है, इसलिए हमने उसे पैसे के रूप में बदल दिया है, लोभ बना दिया है। लोभ और भूख में कोई खास फर्क नहीं है।
मित्रो! पेट भरना और पैसा जमा करना-दोनों का उद्देश्य एक ही है। एक विस्तृत रूप में है और एक छोटे रूप में है। आप पेट के लिए जियेंगे ना? पेट के अलावा भी कोई लक्ष्य है आपका क्या? पैसे के अलावा भी कुछ विचार कर सकते हैं क्या? पैसे के अलावा भी कुछ हवस है क्या? पैसे के अलावा भी कोई लक्ष्य है आपका? बेटे, आपको विचार करना पड़ेगा। अगर आपका लक्ष्य वही है, तो मैं आपको कीड़े की संज्ञा दूँगा, मकोड़े की संज्ञा दूँगा और जानवर की संज्ञा दूँगा और हैवान की संज्ञा दूँगा। फिर आपको मैं इंसान की श्रेणी में नहीं लूँगा। इंसान के पास कुछ लक्ष्य होते हैं, आदर्श होते हैं, कुछ उद्देश्य होते हैं। चौरासी लाख योनियों के बाद मिला हुआ यह मनुष्य का शरीर है। यह किसी खास मकसद के लिए मिला हुआ है। अगर आप उस मकसद को नहीं समझते, तो अपने इंसान के रूप में मिली हुई जिंदगी को बर्बाद कर दिया। बेकार कर दिया। अगर आपने जीवन में कोई सिद्धांत नहीं लिया, आप किसी आदर्श के लिए काम नहीं आ सके, तो समझिये कि आपने इंसान के रूप में मिली जिंदगी को धिक्कार दिया। अगर आप पेट ही भरते रहे और पैसा ही कमाते रहे, तो आपके ऊपर धिक्कार है।
बेटे! आप एक और भी काम करते रहें, आप पर एक और भी शैतान हावी रहा, जो प्रत्येक जानवर पर हावी होता है। जब कोई भी जानवर जवान होता है तो जवान जानवर के ऊपर एक बुखार आता है और एक नशा आता है। वह पागलों के तरीके से ब्याह-शादी करने के लिए घूमता है। कुत्ते को देख लीजिए, कुतिया को देख लीजिए, सब जानवरों को देख लीजिए, उसे पागलपन का दौरा पड़ जाता है। जब तक उसके सिर पर मुसीबत नहीं आ जाती, तब तक चैन नहीं पाते। जब तक पेट में बच्चा नहीं आ जाता और दाल-आटे का भाव मालूम नहीं हो जाता, तब तक वे हवस की पूर्ति में ही घूमते रहते हैं। यही हैसियत इंसान की भी है कि शादी करेंगे, बच्चे पैदा करेंगे, काम-वासना की पूर्ति करेंगे। यह एक हवस ऐसी है जो कीड़े-मकोड़े से लेकर छोटे-बड़े जानवरों में समान रूप से पायी जाती है। अगर आपकी भी हवस वहीं तक सीमित है, तो बेटे, मैं आपको इंसान नहीं कह सकता। शक्ल आपकी इंसान की हो, तो इससे क्या बनता है। आप शक्ल से इंसान हों, पर ईमान से इंसान नहीं हैं, कसौटी के हिसाब से इंसान नहीं हैं, तो मैं उसे इंसान नहीं कह सकता।
मित्रो! आपकी जिंदगी के लेखे-जोखे में, बही खाते में अगर दो ही खाते हैं-एक पेट और एक औलाद, एक वासना और एक तृष्णा, एक लोभ और एक मोह-यही दो चीजें हैं, तो आप इंसान नहीं कहला सकते। और इंसान को जो आनंद आना चाहिए, इंसान की जिंदगी में जो खुशी हासिल होनी चाहिए, इंसान की जिंदगी का जो आनन्द आदमी को मिलना चाहिए, वह आपको नहीं मिल सकता। अगर आपके पास कोई लक्ष्य नहीं है, आपका चिंतन उच्चस्तरीय नहीं है और आपके क्रियाकलाप में किसी आदर्शवादिता का समावेश नहीं है, आप कीड़े-मकोड़े की तरीके से जीते हैं, हैवान के तरीके से जीते हैं, शैतान के तरीके से जिंदा हैं, तो बेटे मैं आपके लिए क्या कह सकता हूँ? इसलिए मित्रो! इस जमाने में मैं आपसे कुछ यही बातें कहने वाला था, मेरे मन में बहुत कसक थी और बड़ा डर था कि कदाचित आपको समय की बात, आपकी जिम्मेदारी की बात, समय की बात मैं समझा सकने में समर्थ हो सका हूँ, तो मजा आ जाय। आप भी धन्य हो जायँ और मैं भी धन्य हो जाऊँ। बेटे, मैंने आपको संक्षेप में कह दिया।
साथियो! इन दिनों जबकि आप इस शिविर में रह रहे हैं, तो मैंने बराबर कोशिश की है और आपको यह बातें समझाता रहा हूँ और इन्हीं बातों को कहने के लिए दिन-रात आपके पीछे लगा रहा हूँ और समझाता रहा हूँ। आप कहेंगे कि नहीं, आप तो नहीं लगे रहे। शुरुआत में एक दिन हम आपके पास गये थे, फिर आपने कहलवाया था कि जो कोई मिलना चाहे, मिल सकता है, पर हम तो नहीं गये। आप बहुत व्यस्त मालूम पड़ते हैं और आपके यहाँ आने जाने की मनाही है। इसलिए हमारा मन तो आया था कि गप्पें हाँकेंगे, परन्तु वहाँ लिखा रहता है कि पन्द्रह मिनट से ज्यादा बात नहीं हो सकती। काम की बात कीजिए और भागिए। इसलिए जब हम आपके पास बेकार की बातें करने गये, तो हमारी हिम्मत नहीं पड़ी और आपने ज्यादा देर बैठने भी नहीं दिया। आपने बैठते ही पूछ लिया-कहिये भाई साहब! कैसे आये, बताइये? हम तो चाहते थे कि लम्बी-चौड़ी कहानी कहेंगे। अपने नानी, मौसी के यहाँ की और वहाँ की गप्पें हाँकेंगे, पर आपने कहा-चल यहाँ से। मेरा एक-एक मिनट कीमती है। काम की बात कर और चल भाग यहाँ से। नहीं साहब! हम तो इसलिए आये थे कि वहाँ की बात कहेंगे, पर आपने कहा कि भाड़ में गयी बात और ऊपर से जा तू। काम की बात कर, बेकार की बात करेगा, तो भगा दूँगा।
मित्रो! आपको मेरा रुख, मेरा तरीका और मेरे समय की कीमत मालूम है। इसलिए आप दुबारा, तिबारा न आ सकें और कह सकते हैं कि आपकी और हमारी बात नहीं हो सकी। बेटे, मैं जानता था कि तू क्या बात करने वाला है। तेरी बात का मुझे पहले से ही पता था और पहली बार में ही मैंने तुझे जवाब भी दे दिया था। आज फिर बताता हूँ कि तेरी बात बहुत छोटी-सी थी और उसके जवाब भी बहुत छोटे हैं, रत्ती भर के हैं। तेरी बात क्या है? बौने आदमी और बच्चों की चिंता क्या हो सकती है? बच्चा हरदम कुछ न कुछ माँगता रहता है कि कुछ लाइये। क्या माँगता है? कोई अच्छी चीज माँगता है। पिताजी! हमको पास करा दीजिए। हमें लेमनचूस ला दीजिए। टॉफी ला दीजिए। गुब्बारा ला दीजिए। जेल की चाबी ला दीजिए। गुड़िया ला दीजिए, खिलौना ला दीजिए। आप यही माँग सकते हैं। आपकी अक्ल और आपकी समझ इतनी छोटी है। इस हिसाब से मैं किसी बड़ी चीज की आशा आपसे नहीं कर पाता। आप इन्हीं तीन-चार बातों की शिकायतें ले करके आयेंगे और इसके सिवाय आपके पास कोई चीज नहीं होगी, इसलिए मैंने समझा कि आपका समय खराब न करूँ। आपने लिखकर भी दे दिया था और बताया भी था। अगर आपने न बताया हो, तो आप नंबर से आइए, पूछते चलिए, मैं आपको सब कुछ बताता चलूँगा कि आप ये कहने वाले थे। आपकी बात मुझे मालूम है, तो फिर मैं क्यों समय खराब करूँ। आप तो केवल वही तीन-चार बातें कह सकते हैं, कोई पाँचवीं बात आपके पास नहीं है।
मित्रो! क्या बातें हैं? यही कि सेहत ठीक कर दीजिए। हमको बुखार आता है। हमको पाइल्स की शिकायत है। हमको दमें की शिकायत हो गयी है, ब्लडप्रेसर हो गया है। ठीक है, आप अपना चाल-चलन ठीक कर लें, आहार-विहार पर संयम करें। नहीं महाराज जी! हम तो यह सब नहीं कर सकते, पर आप आशीर्वाद दे दीजिए। हाँ बेटे, हम आपको एस्प्रिन की गोली देंगे, ए.पी.सी. की गोली देंगे, हमारे पास है। इससे क्या हो जायेगा? इससे आपको टेम्पेररी रिलीफ मिल जायेगी। सिर में दर्द होता है, तो ए.पी.सी. की गोली खा लीजिए। तो महाराज जी! मेरा सिर दर्द बंद हो जायेगा? नहीं बेटे, सिरदर्द बंद नहीं हो सकता। फिर क्या कर देंगे? बेटे, हम जादू कर देंगे और चमत्कार कर देंगे। जादू किसे कहते हैं? आपका अभी सिर दर्द हो रहा है और अभी बंद हो जाये तो? महाराज जी! यह जादू है। हाँ बेटे, हम जादूगर हैं। आपका बुखार बंद कर देंगे और हार्ट की बीमारी बंद कर देंगे। यहाँ से आप उछलते हुए चले जायेंगे, हँसते हुए चले जायेंगे।
महाराज जी! फिर जिंदगी भर बीमार नहीं होंगे क्या? बेटे जाते ही पंद्रह दिन पीछे फिर तुझे नयी बीमारी हो जायेगी। संयम तो रखता नहीं मूर्ख कहीं का। सारी की सारी जिंदगी यों ही बेकार हो जायेगी। जीभ पर काबू नहीं है, इन्द्रियों पर काबू नहीं है। सोने का समय नहीं है, उठने का समय नहीं है, संयम रखता नहीं है और हमसे कहता है कि स्वास्थ्य अच्छा कर दीजिए। हम स्वास्थ्य अच्छा नहीं कर सकते, बस जादू कर सकते हैं। बेटे, तेरी एक बीमारी अच्छी कर देंगे, तो दूसरी खड़ी हो जायेगी। एक सुराख बंद कर देंगे। फिर महाराज जी! पानी निकलेगा? पानी तो निकलेगा कहीं से। कहाँ से निकलेगा? बेटे, हम नहीं जानते। चाहे दीवार फोड़कर निकले, चाहे छत फोड़कर निकले, परन्तु हम छेद बंद कर देंगे और तुझे अच्छा कर देंगे। हमको मालूम था कि आप क्या कहने आये हैं? आप यह कहने आये हैं कि गुरुजी! हमारी आर्थिक समस्या हल कर दीजिए। बेटे, हम जरूर कर देंगे, क्योंकि हम संत परंपरा के विद्यार्थी हैं। हमने हर एक की मदद करना जाना है और हम मदद करना जानते हैं।
मित्रो! आप तो संत परंपरा के विद्यार्थी नहीं हैं। कदाचित् भगवान आपको संत परंपरा का विद्यार्थी बनायेगा, तब आपका भी ईमान हमारे जैसा हो जायेगा। फिर आप खायेंगे नहीं, हमेशा खिलाने की बात सोचेंगे। संत खाता नहीं है, संत खिलाता है। संत खाता है, तो उल्टी हो जाती है। बेटे, एक बार ऐसा ही हुआ है। जिन दिनों मैं अखण्ड ज्योति कार्यालय में वेदों का भाष्य कर रहा था, उन दिनों मेरे ऊपर बड़ी दिक्कत आ गयी। मुझे बार-बार चक्कर आने लगे, सिर गर्म होने लगा। लोगों ने कहा कि गुरुजी को मौसमी का रस पिला दीजिए। बेटे, यह क्या कह रहा है? गुरुजी! कोशिश कर रहा हूँ कि आपका स्वास्थ्य अच्छा रहे। मैंने एक घूँट पी लिया। पहला घूँट पीते ही मुझे ऐसा मालूम पड़ा कि किसी ने जहर का प्याला भरकर पिला दिया। मुझे विचार आया कि गायत्री तपोभूमि पर इतने आदमी रहते हैं, जो अपना घर छोड़कर आये हैं। मेरी वजह से इस्तीफा देकर के आये हैं और रूखी रोटी खाते हैं, गुजारा करते हैं। फिर मैं कैसे मौसमी का रस पियूँगा? मेरे लिए धिक्कार है। मैंने मौसमी का रस फेंक दिया और यह कहा कि आइन्दा यह गलती मत करना और आइन्दा ऐसे रस मत देना।
मित्रो! जिस दिन आप संत परंपरा के विद्यार्थी होंगे, तो आप खाने की अपेक्षा खिलाने की कोशिश करेंगे। आज तो आपका पेट इतना बड़ा है कि न आपको हया है न शर्म। समाज में कितनी गरीबी, कितनी कंगाली, कितना दुःख, कितना दर्द पड़ा है। संस्कृति की सेवा के लिए कितने पैसे की जरूरत है। समय की जरूरत है, वक्त की जरूरत है, पर आप हैं जो अपनी हविश पूरी कर नहीं सकते। औलाद के लिए जमा करेंगे। गुरुजी! औलाद के लिए आशीर्वाद दीजिए। धिक्कार है। मित्रो! मैं जानता हूँ कि आप कितनी छोटी हैसियत के आदमी हैं। अध्यात्मवादी को जैसा होना चाहिए था, उसकी तो आपको हवा भी नहीं लगी है। आप तो पुजारी कहलाये जा सकते हैं, लेकिन आप अध्यात्मवादी नहीं हैं। मैं आपको पुजारी की उपमा दे सकता हूँ। पुजारी मंदिर में भी रहते हैं और आप अपने घर में पूजा करते होंगे, पर आप अध्यात्मवादी नहीं हो सकते। आज नहीं, तो अगले जन्म में कभी भगवान ने आपको अध्यात्मवादी बनाया तो आपका मन पिघल जायेगा। मक्खन के ऊपर जब गर्मी पड़ती है, तो वह पिघल जाता है। बेटे हम सिद्ध पुरुष होने का दावा तो नहीं करते, पर हम संत परंपरा की राह पर चलने वाले विद्यार्थी का दावा करते हैं, इसलिए हमको हया है, शर्म है।
मित्रो! अध्यात्मवादी को क्या करना चाहिए? हमारे पास अगर कुछ तप है, कुछ पुण्य है और हमने जप किया है, हमने कुछ अनुष्ठान किया है, अगर हमारे पास कोई चीज है, वह चाहे जो भी हो, चाहे पैसा हो, चाहे पुण्य हो, बेटे हम जरूर बाँटेंगे। अगर हम उसको नहीं बाँटेंगे और स्वयं खायेंगे, तो हमारी संत परंपरा चली जायेगी और हम संत नहीं रह सकेंगे। अध्यात्मवादी नहीं रह सकेंगे। हम चोर हो जायेंगे। हम चालाक हो जायेंगे। हम बाबाजी हो जायेंगे। हम चमत्कारी हो जायेंगे, जो भी हो जायेंगे, लेकिन हम संत नहीं रहेंगे। इसलिए हम आपकी मदद करेंगे। आपकी पैसे की आवश्यकता को पूरी करने के लिए हम जी जान से कोशिश करेंगे। तो आप हमारी समस्या हल कर देंगे? नहीं बेटे, आपकी कोई समस्या हल नहीं हो सकती। आपकी समस्या का समाधान बिलकुल हमारे हाथ में नहीं है। क्योंकि आपका खर्च करने का जो ढंग है, उस पर आप काबू करेंगे नहीं, तो जो भी हम आपकी नौकरी में तरक्की करवा देंगे, या व्यापार में फायदा करवा देंगे और आप खर्च उसी तरीके से करेंगे, जैसे कि इस समय तक करते रहे हैं, तो उसका परिणाम क्या होगा? उसका परिणाम वही होगा, जो अब तक होता आया है।
अब तक आप कंगाली में रहे हैं, गरीबी में रहे हैं, तंगी में रहे हैं, बीमारी में रहे हैं, बेकारी में रहे हैं और पैसे की शिकायत करते रहे हैं। सारी जिंदगी भर यही करेंगे और अगर पैसा जरूरत से ज्यादा हो जायेगा, तो भी आप यही शिकायत करेंगे; क्योंकि आपकी हविश और आपकी ख्वाहिश ज्यों की त्यों बनी रहेगी। अभी आपके पास चिंता है, पीछे हविश आ जायेगी। चिंता से आप हैरान हुए तो क्या, और हविश से हैरान हुए तो क्या, बात एक ही है। यह समस्या ज्यों की त्यों बनी रहेगी। हम आपकी समस्या का कोई हल नहीं निकाल सकते। तो गुरुजी! आप कोई सहायता नहीं कर सकते? बेटे, हम जरूर करेंगे। कैसे करेंगे? हमने आपको बता तो दिया है कि हमारे पास एनासिन की गोलियाँ हैं, एस्प्रो की गोलियाँ हैं और दूसरी गोलियाँ हैं, उसे आपको खिला देंगे और फिलहाल आपको अच्छा खासा कर देंगे।
मित्रो हम जानते हैं कि आप और किस लिए आये थे। हाँ गुरुजी! हमारे यहाँ संतान नहीं होती, संतान पैदा कर दीजिए। बेटे, हम जरूर संतान पैदा कर देंगे। भगवान जी के यहाँ बहुत सारी संतान रखी हुई हैं। एक दिन भगवान जी कह रहे थे-गुरुजी! यह बीमारी-यह कबाड़ा इकट्ठा हो गया है। किसी के हाथ इसको ढीला करा दीजिए। हमने कहा कि हम करा देंगे। हमारे पास बहुत से पागल और बहुत से बेहूदे आदमी आते रहते हैं और कहते रहते हैं कि हमको संतान पैदा करा दीजिए। उनकी अक्ल को मैं क्या कह सकता हूँ कि मैं संतान पैदा करा दूँगा। तो ये क्या करेंगे? ये अभागे मरेंगे। क्यों मरेंगे? क्योंकि जिस पैसे से ये अपनी सेहत बना सकते थे, अपनी औरत की सेहत बना सकते थे, अपने माँ-बाप का कर्ज चुका सकते थे, अपने बहन-भाइयों की सहायता कर सकते थे, अपने देश और धर्म, समाज और संस्कृति के लिए काम आ सकते थे। ये दुष्ट, और क्या कहूँ इन्हें, किसी का भी भला नहीं करेंगे। उस नये पिल्ले को, जो गंदगी खायेगा, ऐसा एक पिल्ला लाकर हम इसके सामने पटक देंगे। बस इस तरह रोज बच्चे पैदा हो जायेंगे। बेटे, बच्चा तो आपके पैदा हो जायेगा, लेकिन बच्चा पैदा होने से जो आपने ख्वाब देखा है, वह पूरा नहीं हो सकता। जैसे घटिया आप हैं, उससे भी ज्यादा घटिया आपका बेटा होने वाला है।
मित्रो! जैसे चालाक, स्वार्थी और बेईमान आदमी आप हैं, जिसके अन्दर न दया है, न धर्म है, जिसमें न लोकमंगल की बात है, न परमात्मा की वृत्ति है, बस अपनी ही हविश हावी है, आपका बेटा इससे भी घटिया पैदा होगा और जो भी सलूक आपके साथ करेगा, थोड़ा है। नहीं साहब! वह पिण्डदान देगा? बेटे, वह आपको पिण्डदान नहीं देगा। आपका पिण्डदान? बेटे आपकी जेब में जो कुछ भी होगा वह और सब कुछ छीन ले जायेगा। पिण्डदान नहीं दे सकता। संतान पैदा कर देंगे? हाँ, तेरी इच्छा है, कामना है, तो हम पैदा कर देंगे। और कोई कामना-तीसरी कामना, चौथी कामना हो, तो बताना। नहीं महाराज जी! बस संतान की बात के अतिरिक्त लड़ाई-झगड़े की बात, मुकदमें की बात बंद करा दीजिए। हाँ बेटे, हम बंद करा देंगे। तेरा मुकदमा चल रहा है, तो उसमें तुझे जितवा देंगे। लेकिन तेरे लड़ाई-झगड़े खत्म नहीं होंगे, वैर खत्म नहीं होंगे; क्योंकि तू जिसके साथ में भी व्यवहार करता है, दगा से भरा हुआ, ईर्ष्या से भरा हुआ, जलन से भरा हुआ, कुढ़न से भरा हुआ, द्वेष से भरा हुआ करता है। इसलिए एक से झगड़ा बंद करा देंगे, तो निन्यानवे फिर से खड़े हो जायेंगे।
इसीलिए मित्रो! हमने कोई जरूरी नहीं समझा कि आपसे कोई विशेष बात कहें और आपकी बात को सुनें। आपको अपनी बात आधा घंटे में पूरी करनी हो तो क्या? एक मिनट में करनी हो तो क्या? आपकी बात तो वही जहाँ की तहाँ है। हम आपकी बात का महत्त्व जानते हैं और हमने सारी जिंदगी भर यही पापड़ बेले हैं। लोग हमसे क्या कहेंगे? और किस बात के लिए हमसे समय माँगते हैं। कोई न भगवान के लिए माँगता है, न देश के लिए माँगता है, न धर्म के लिए माँगता है, न पूजा के लिए माँगता है। वह तो वहाँ से शुरू करता है कि गुरुजी! हमारा मन नहीं लगता। परन्तु जब तक बात समाप्त भी नहीं होने पाती, तब तक यह कहता है कि महाराज जी! हमारे यहाँ लड़का हो जाय। बेटे, अभी तो मन न लगने की बात कह रहा था। महाराज जी! इसलिए कह रहा था कि शुरू में ही वह बात कह दूँगा, तो आप कह देंगे कि बेटे मैं तेरी चालाकी को बहुत दिनों से जानता हूँ। नहीं महाराज जी! नौकरी में प्रमोशन करा दीजिए। कितने का प्रमोशन करा दूँ? महाराज जी दो सौ रुपये महीने का करा दीजिए। अच्छा, दो सौ रुपये का प्रमोशन हो जाय, तो तू मेरा कितने घंटे काम करेगा? महाराज जी! घंटे, आधा घंटे सप्ताह में एक काम कर दूँगा। तब तो बड़ा मँहगा पड़ेगा। दो सौ रुपये का नौकर रखेंगे, तो सोलह घंटे काम करेगा। चल तुझसे नहीं कराना है। प्रमोशन की कीमत पर सारा काम करना चाहता है, चालाक कहीं का?
मित्रो! आद्य शंकराचार्य को भगंदर का फोड़ा था, फिर भी वे बराबर काम करते रहे। बिनोवा भावे के पेट में अल्सर की शिकायत है। वे बीस साल से अल्सर के मरीज हैं और इस बीमारी की हालत में भी काम करते रहते हैं। आप बहाना मत बनाइये कि गुरुजी! हमारी मनोकामना पूरी कर दीजिए, तो हम शाखा चलायेंगे। बेटे, आपसे हमें शाखा का काम नहीं करवाना है। अगर वह बंद भी हो जाय, तो कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि आप इतनी ज्यादा शर्तें लगाते हैं कि आपकी मनोकामना पूरी करें, तो आप शाखा चलायेंगे, चालाक कहीं के। बेटे, बेकार की बातें मत कर, हमें गुस्सा और आ जाता है। आप हमारे ऊपर जाल फेंकते हैं। जाल फेंकना है तो मौनी बाबा के पास जा, जो भाँग खाता है और अफीम खाता है। हम तो भाँग भी नहीं खाते, अफीम भी नहीं खाते, फिर हमारे ऊपर क्यों जाल फैलाते हो। नहीं महाराज जी! हम तो आप से ही बात कर रहे थे। नहीं, हमसे बात मत कीजिए। बेटे, हम आपकी बात को जानते हैं।
महाराज जी! फिर क्या बात हुई? हमारी बात समाप्त हो गयी। इसलिए कि हम आपके पीछे बराबर लगे रहते हैं। इस शिविर में अपनी बैखरी वाणी से तो नहीं, परा और पश्यन्ति वाणी से, मध्यमा वाणी से हमने यह कोशिश की है कि अगर आप अपने को समझ पायें, जान पायें, समय को देख पायें, अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों को समझ पायें, तो बेटे मजा आ जाये। अगर आपका जीवन सार्थक हो जाये और हमारा सारा का सारा प्रयास सार्थक हो जाय, तो मजा आ जाय, अन्यथा हमारे प्रयासों का कुछ मायने मतलब नहीं रह जाता। अगर अपने इस प्रयासों में हमने वही पिसे हुए को पीसा, तो हमारे ऊपर लानत है। मित्रो! अध्यात्म का जो वर्तमान स्वरूप है, इससे हमें कितनी खीज़ आती है, कितनी चिढ़ आती है, आप हमारा कलेजा चीरकर देखें, तो आपको मालूम पड़ेगा कि एक ओर तो हम अध्यात्म के भक्त हैं। ऐसा अध्यात्म जिसके लिए हमने अपनी सारी जिन्दगी खर्च कर डाली। बेटे, हमने कुछ खाया नहीं, पिया नहीं, जो कुछ हमारे बाप-दादाओं की कमाई थी, वह हमने लगा दी। कोल्हू के बैल के तरीके से हम चौबीस घण्टे भी अभी भी पिसते हैं। अध्यात्म हमारे रोम-रोम में बसा हुआ है; लेकिन वह अध्यात्म जो लोगों के सिरों पर हावी है, उस अध्यात्म से हमें चिढ़ है।
कौन सा अध्यात्म? जिसमें देवी-देवताओं को पागल और अहमक समझा जाता है। अहमक और पागलों से उल्लू सीधा करने के लिए तरह-तरह के जाल बिछाए जाते हैं। आज का अध्यात्म यही है। इसी का नाम आज का अध्यात्म है। अमुक पूजा करेंगे, अमुक पाठ करेंगे और देवी से यह लायेंगे, देवता से यह लायेंगे, फलाने जी से यह लायेंगे, ढिमाके जी से यह लायेंगे और उससे अपनी जिन्दगी में हेर-फेर करेंगे। जिन्दगी तो मैं ऐसे जियूँगा कि इससे भी घटिया होगी। इससे भी ज्यादा कमीना बनूँगा, इससे भी ज्यादा निकम्मा बनूँगा। इससे भी ज्यादा दुष्ट बनूँगा। अगर शंकर भगवान की कृपा से, संतोषी माता की कृपा से मुझे फायदा हो जाय, तो फिर मेरी करामात और मेरा चमत्कार देख लेना—‘‘मेरे पैरों में घुँघरू बँधा दे फिर मेरी चाल देख ले।’’ पहले मुझे शंकर भगवान का वरदान तो दिलवा दीजिए, हनुमान जी का वरदान तो दिलवा दीजिए, साईं बाबा का वरदान तो दिलवा दीजिए, आचार्य जी का वरदान तो दिलवा दीजिए, फिर देखिए कि मैं क्या करके दिखाता हूँ? फिर मेरा चमत्कार देख लेना। फिर मैं सारे मोहल्ले वालो में से किसी को जिन्दा नहीं छोड़ूँगा और मैं वह काम करूँगा जो मेरी सारी की सारी मनोकामनाएँ पूरी करेगा।
बेटे में जानता हूँ, इसीलिए बच्चो! मैं आप से तो कुछ कह नहीं सकता कि उसी जाल-जंजाल में आपको फँसाये फिरूँ। उसी के लिए मंत्र-तंत्र बताता फिरूँ। उसी के लिए क्रिया-कृत्य बताता फिरूँ और यह समझाता फिरूँ कि यह किया कीजिए, तो यह मिलेगा। यह किया कीजिए, तो अमुक मिलेगा। इस देवता को पूजिए, तो यह मिलेगा। यह मंत्र जपिये तो यह मिलेगा। बेटे, यह धंधा मेरा नहीं है और मुझे इन बातों से चिढ़ है। क्यों चिढ़ है? इसलिए कि मैंने हजारों बार कहा है, लाखों बार कहा है कि आदमी के ईमान को बदल देने का नाम अध्यात्म है। ईमान को बदले बिना कोई भगवान् प्रसन्न नहीं होता, कोई देवता प्रसन्न नहीं हो सकता। कोई सिद्धि प्रकट नहीं हो सकती और चमत्कार नहीं आ सकता। किसी आदमी के भीतर चमत्कार तभी आयेगा। जब वह अपने ईमान को बदलने की कोशिश करेगा। अपने चाल-चलन को बदलने की कोशिश करेगा। चिन्तन को बदलने की कोशिश करेगा। जो अपने चिन्तन को नहीं बदलना चाहता, अपने चाल-चलन को नहीं बदलना चाहता, अपने दृष्टिकोण को बदलना नहीं चाहता और अपना स्तर जैसे का तैसा रखना चाहता है। जो केवल क्रिया-कृत्यों के द्वारा, कर्मकाण्डों के द्वारा देवी-देवताओं का अनुग्रह प्राप्त करना चाहता है, स्वर्ग पाना चाहता है, मुक्ति पाना चाहता है, चमत्कार पाना चाहता है, तो यह असम्भव है। अगर ऐसा हुआ तो मुझे बताइयेगा।
मित्रो! अपने यहाँ लाखों मन्दिर ऐसे हैं, जिनमें पुजारी रहते हैं और सबेरे से शाम तक पूजा करते हैं। मुझे कोई एक पुुजारी बताइये कि उसके पास क्या-क्या करामात है और क्या-क्या सिद्धियाँ हैं और क्या-क्या भगवान की कृपा है। संत, बाबा जी, माला घुमाने वाले आदमी कुम्भ मेले से लेकर हर जगह बैठे हुए हैं। भीख माँगते हुए, चप्पलें चुराते हुए, दूसरों की बहन-बेटियों को बेइज्जत करते हुए हर जगह पाये जायेंगे। इनमें से आप कोई एक सन्त ले आइए, एक महर्षि ले आइए। चोर-उचक्के हर जगह मारे-मारे फिरते हैं। बेटे हम क्या कर सकते हैं? महाराज जी! आपने क्रिया-कृत्यों की महत्ता क्यों नहीं बताई? हम यही पूछने आये थे और विधि-विधान पूछने आये थे। बेटे, एक ही विधि है, एक ही विधान है और वह है कि अपने आप का स्तर ऊँचा उठाइये। अपने सोचने का तरीका उच्चस्तरीय बनाइये। अपने जीवन जीने के क्रिया-कलाप में कुछ शानदार परिवर्तन कीजिए। नहीं महाराज जी! यह झगड़ा तो हमसे नहीं हो सकता, मैं क्रिया-कृत्य कर लूँगा। आप चाहें तो मुझसे कोई क्रिया करा लें। बेटे, मुझसे क्यों पूछता है। मेरे जैसे हजारों बैठे होंगे, जो आपको कोई न कोई बहाना, कोई न कोई विधि, कोई न कोई तरकीब बता देंगे कि ऐसे प्राणायाम किया करें। यह कोई भी बता देगा कि नाक में रस्सी पिरो लेना। इस तरह के खेल-खिलौने कोई भी बता देगा।
मित्रो! हमारा अध्यात्म मँहगा है। हमारे अध्यात्म में गहराई है, कठोरता है। मेरा अध्यात्म वह है, जिसमें आदमी को तिलमिलाना पड़ता है। तिलमिलाने वाले अध्यात्म की आदमी कीमत पाता है। मैं यकीन दिला सकता हूँ कि इसमें आदमी तिलमिलाता तो है, पर पाता जरूर है। यह बात मैं सौ फीसदी सच कह सकता हूँ और गारंटी से कह सकता हूँ और शपथपूर्वक अपने अनुभवों की साक्षी देकर कह सकता हूँ कि अगर आपने मँहगा अध्यात्म खरीदा है, तो आप मँहगी सिद्धियाँ पायेंगे। मँहगे चमत्कार पायेंगे। मँहगा आनन्द पायेंगे और मँहगी शान्ति पायेंगे। अगर आप कीमत चुकायेंगे तो। और अगर कीमत नहीं चुकायेंगे और ये खेल-खिलौने करेंगे, तो आप अपने मन को समझा भले ही लें, मन को बहका भले ही लें। आपकी मर्जी है, जैसा चाहें वैसा करें, लेकिन आप कुछ पा नहीं सकेंगे। शीशे के तरीके से यह बात स्पष्ट है कि आप जानें तो, न जानें तो, मानें तो न मानें तो, यह आपकी मर्जी के ऊपर है।
मित्रो! इस शिविर में मैं आपको यही समझाने की कोशिश करता रहा और जब आप विदा होने वाले हैं, तब मैं अध्यात्म के कुछ कर्मकाण्ड आपको सिखाने वाला था। मैं समझता था कि आप कर्मकाण्ड करते तो नहीं हैं, पर आपकी जानने में रुचि बहुत रहती है। कुण्डलिनी आप जगा तो नहीं सकते, पर उसे जगाने में आपकी रुचि रहती है। आप पंचकोश को जगाने के इच्छुक तो नहीं हैं, पर आप जानने के इच्छुक अवश्य हैं। क्योंकि रहस्यवाद हर एक को अच्छा लगता है। हाँ साहब! यह बात तो पढ़ी थी कि रहस्य जानने की इच्छा हर एक की होती है। लेकिन बेटे, आपकी रुचि तो कर्मकाण्ड के अतिरिक्त और किसी में नहीं है। चलिए कर्मकाण्डों की बात बताकर अपनी बात खत्म करते हैं। अब हम फिर से वहीं पर आ जाते हैं जिस काम के लिए आपको यहाँ बुलाया गया है। कर्मकाण्ड तो वही है, जो मैंने गायत्री के सम्बन्ध में बताया है। गायत्री मन्त्र इतना बेहतरीन मन्त्र है कि इसमें अगर आप श्रद्धा का पुट मिला दें, तो इसमें गजब के चमत्कार दिखाई दे सकते हैं।
एक चेला था। उसने अपने गुरु के चरणों को धो करके उस पानी को एक शीशी में भर लिया था। जो कोई भी दुखी आदमी आता, उससे वह कहता कि अच्छा भाई पानी लाओ हमारे पास एक ऐसा जादू का जल है कि इसकी एक बूँद उस पानी में डाल देंगे तो तुम्हारा कष्ट दूर हो जायेगा। अपने गुरु के चरणों की धोवन का एक बूँद उस पानी में डाल देता। उसे पीने वाले का बुखार दूर हो जाता, खाँसी अच्छी हो जाती। लोगों के कष्ट दूर हो जाते। एक दिन उसके गुरुजी आ गये। गुरुजी को बुखार आ गया, तो उन्होंने कहा कि बेटे, तेरी बहुत प्रशंसा सुनी है। तू कोई ऐसी दवाई जानता है जिससे सब मरीज अच्छे हो जाते हैं। हाँ महाराज जी! मेरे पास ऐसी दवा है। आप बैठे रहिए शाम तक, देखिए हमारे पास हजारों मरीज आते हैं और मैं उन्हें एक बूँद पानी देता हूँ और सबका उद्धार हो जाता है। बेटे, वह दवाई क्या है? महाराज जी! वह आपके चरणों का जल है। हमारे चरणों का जल? हाँ। आज हमें तो बहुत जोर का बुखार है। जब चेला चला गया, तब उन्होंने अपने पैरों को धोया और उसे पी लिया। जल ज्यादा हो गया। बेटे, हमने तो सारा पानी अपने आप पी लिया और तू तो एक बूँद डालता है। हमें तो कोई फायदा नहीं हुआ। चेले ने कहा-महाराज जी! आपके चरणामृत में और हमारे चरणामृत में फर्क है। हमारे चरणामृत में श्रद्धा जुड़ी हुए है और आपके चरणामृत में क्रिया जुड़ी हुई है। चमत्कार क्रिया में नहीं श्रद्धा में है।
मित्रो! आप तो माला में, क्रिया में विश्वास करते हैं। न तो आपको गुरु में विश्वास है और न भगवान् में, न गायत्री माता में विश्वास है। आपको लोभ पर विश्वास है, मोह पर विश्वास है और किसी पर विश्वास नहीं है। गायत्री माता पर आपको कोई विश्वास नहीं है। गायत्री माता कोई फल नहीं देती, तो कल ही सारे कमण्डल फेंक देगा और फिर भैरों जी को लायेगा। फिर उसमें भी लात मारेगा और फिर से हनुमान जी को लायेगा। फिर उसे भी मारेगा लात और फिर किसी और को ले आयेगा। बेटे, तेरा किसी पर विश्वास नहीं है, सिवाय तेरी चालाकी के। जिस किसी पर तेरा विश्वास नहीं है-उसका नाम है—चालाकी। बेटे, अगर तेरी श्रद्धा किसी एक पर रही होती, तो वह फल देती। बेटे, मुझे यही गायत्री मन्त्र आता है। न हम पाँच ‘ॐ’ लगाते हैं, न तीन लगाते हैं। न मैं पाँच जानता हूँ, न तीन जानता हूँ। मैं तो केवल गायत्री मन्त्र जपता रहा और मेरा गायत्री मन्त्र इतना चमत्कारी है कि इस गायत्री मन्त्र को में ब्रह्मास्त्र कहता रहा हूँ और यह बताता रहा हूँ कि इसके बराबर कोई शक्तिमान नहीं है।
मित्रो! मैं यही कर्मकाण्ड करता रहा, गायत्री मन्त्र जपता रहा। महाराज जी! हमको भी यही विधि बताइये। बेटे, पिछले साल हमने जो पैंतालीस मिनट की उपासना बताई थी, वह बहुत सोच-समझकर बनाई थी। उसमें ‘सोऽहम्’ साधना’ एवं मुद्रा आदि का समावेश था। जप और ध्यान का समन्वय है उसमें। सूर्य का—सविता का ध्यान भी सम्मिलित है। पंचकोशों के शोधन की प्रक्रिया है, देवपूजन की क्रिया है। यह पूर्ण उपासना है, ठीक उसी तरह से जिस तरह से संतुलित आहार होता है। यह पूर्ण है। क्यों महाराज जी! अगर हम पंचकोश की साधना करना चाहें और कुण्डलिनी की साधना करना चाहें तो? बेटे, यह इंडोर पेशेन्टों का इलाज है। जब किसी का ऑपरेशन होना होता है, तो मरीज को अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है। नहीं महाराज जी! आप घर पर हमारा ऑपरेशन नहीं करेंगे? नहीं बेटे तो मैं अपने आप अपना पेट चाकू से फाड़ लूँ और सुई से अपने आप ही सिलाई कर लूँ। अपने आप ही सीं लूँगा? नहीं बेटे, ऐसा मत करना, क्योंकि इससे सेप्टिक हो जायेगा। तेरा ऑपरेशन हम ही कर देंगे, हमको इसका ज्ञान है। कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जो हर जगह नहीं हो सकतीं। यह उच्चस्तरीय साधना है।
मित्रो! हमारे गुरु ने जब-जब एक साल के लिए हिमालय पर बुलाया है, जब भी जो कुछ काम पड़ा है, वह वातावरण से सम्बन्धित है, अभ्यास से सम्बन्धित है। अगर हम आपको यहाँ बुलायेंगे तो इस तरीके से नहीं बुलायेंगे। आपको जरा सा दबाएँगे, आपको कसेंगे। हम आपको छूट नहीं दे सकते कि आप बाजार जायें और वहाँ काफी पियें, चाय पियें और वहाँ बैठ कर गप्पें मारें। हम आपको कितना कस देंगे? जितना कि हमको कस दिया गया है। आपके टाइम के बारे में हम कस देंगे। ऐसा नहीं हो सकता कि आप आठ बजे घूमकर आयें। आपको टाइम पर ही आना पड़ेगा। आपको साढ़े तीन बजे उठना पड़ेगा। आप तीन बजे भूल जाते हैं, तो साढ़े तीन बजे उठिए। अरे साहब! आँखों में नींद भरी है। नहीं-चल उठ। साढ़े तीन बज गये हैं। नहीं साहब! हम तो चार बजे के बाद रात को नौ बजे रोटी खाने वाले थे। बेटे, हमारी ओर से आप इक्कीस बजे रोटी खाना, पर यहाँ तो साढ़े पाँच बजे तक ही मिलेगी। नहीं महाराज जी! हमको इतने बजे खाने की आदत नहीं है। बेटे, तेरी आदत गई जहन्नुम में। तुझे यहाँ के नियम का पालन करना होगा। हम तेरी आदत के गुलाम नहीं हैं। तुझे यहाँ हमारी मर्यादा का पालन करना पड़ेगा। बेटे, अभी तो हम इतना ही कसते हैं, परन्तु आगे जा करके फिर कभी कसेंगे। तब तेरा पाँव प्लास्टिक से बाँध कर उल्टा टाँग देंगे। महाराज जी! फिर तो मैं चक्कर खा जाऊँगा। हाँ बेटे, चक्कर काट जायेगा तो तेरी हड्डियाँ टूट जायेंगी। तब तो महाराज जी! मैं यहीं रहूँगा। हाँ बेटे, यही अच्छा रहेगा।
मित्रो! यह उच्चस्तरीय साधना है और यह ऑपरेशन के बराबर है। जब आप ऑपरेशन के लायक होंगे, जब हम आपका खून टेस्ट कर लेंगे कि आपको डायबिटीज तो नहीं हैं, तब आपका आँख का ऑपरेशन करने को बुलाएँगे। नहीं महाराज जी! हमको तो ऐसे ही करा दीजिए। नहीं बेटे, तेरी आँख खराब हो जायेगी। तू डायबिटीज का मरीज है। तेरी आँख खराब हो जायेगी। तू डायबिटीज का मरीज है। तेरी आँख के मोतियाबिन्द का ऑपरेशन करेंगे, तो तेरा जख्म अच्छा नहीं होगा। जख्म फैल जायेगा और आँख जो थोड़ा-बहुत देखती है, वह भी चली जायगी। इसलिए पहले हम देखेंगे। हम यहाँ किसी को दस दिन के लिए बुलाते हैं, किसी को पन्द्रह दिन के लिए बुलाते हैं और किसी को महीने भर के लिए बुलाते हैं और देखते हैं, टेस्ट करवाते हैं। अभी हम आपको बुला रहे हैं। आपका टेस्ट ले रहे हैं और आपकी नब्ज़ देख रहे हैं कि अध्यात्म के मार्ग पर चलने के लिए जो कड़कपन आदमी के भीतर होनी चाहिए, जो संयम होना चाहिए, जो निष्ठा होनी चाहिए, वह आपके अन्दर है कि नहीं। अभी तो हमने आपको धीरे-धीरे कसा है। सीरियस में कसेंगे, तो चीं बोल जायेंगे। पिछली बार लोगों को कसा था, तो वे चीं बोल गये थे। नमक बन्द कर दिया था। अरे साहब! रोटी-सब्जी खानी पड़ेगी, वह भी बिना नमक के! हाँ बेटे।
महाराज जी! कुण्डलिनी जगा दीजिए? बेटे कुण्डलिनी ऐसे नहीं जगती। कुण्डलिनी तो साँपिनी होती है? हाँ बेटे, जब सँपेरा आयेगा, तब मैं साँप भी जगवा दूँगा और साँपिनी भी जगवा दूँगा। दस पैसे देना, दोनों के दोनों जगकर खड़े हो जायेंगे। लेकिन बेटे आध्यात्मिक कुण्डलिनी थोड़ी मँहगी है। जब मैं देखूँगा कि आपके व्यक्तित्व और आपके मन के अन्दर वो कड़क है, जो एक अध्यात्मवादी के अन्दर होती है। जब वह कड़क मुझे दिखाई पड़ जायेगी, तो आपको बुला लूँगा और यहीं रखूँगा। आप मेरे पास रहना। इसके लिए स्थान बना रहा हूँ। सौ आदमियों के लिए स्थान बना रहा हूँ। सौ आदमियों के लायक मेरे पास शक्ति है। इससे ज्यादा है भी नहीं। मेरे गुुरुदेव भी सौ से ज्यादा को कंट्रोल नहीं कर सकते। नहीं गुरुजी! बड़ा आश्रम बना दीजिए। नहीं बेटे, बड़ा आश्रम मैं नहीं बना सकता। सौ से ज्यादा का कंट्रोल न मैं कर सकता हूँ और न मेरे गुरुदेव कर सकते हैं। सौ बेड का अस्पताल आपने कहीं देखा है? सौ बेड के अस्पताल में कितने डॉक्टर चाहिए? कितनी नर्सें चाहिए? कितनी दवाइयाँ चाहिए और कितना खर्च चाहिए? आपको मालूम है क्या? कितने कमरे चाहिए, कितने इंस्ट्रूमेंट चाहिए? सौ बेड का अस्पताल किसे कहते है? बेटे, यह सौ बेड का अस्पताल है। सौ बेड का चल जाये, तो बहुत हैं। इससे ज्यादा का नहीं। नहीं महाराज जी! हजार का कैसा रहेगा? नहीं बेटे, मैं हजार को कन्ट्रोल नहीं कर सकता। इसलिए बना कर क्या करूँगा?
महाराज जी! आप इमारत बनवा लीजिए, पैसा हम दे देंगे। बेटे, तू पैसा तो दे देगा, पर मैं कन्ट्रोल कैसे करूँगा? इसलिए छोटा सा आश्रम बना रहे हैं, फिर उसमें आपको नम्बर से बुलाएँगे। बुलाकर आपको वही समीपता देंगे, जैसे कि हमारे गुरुदेव हमको अपने समीप रखते हें। और समीपता का जो लाभ देते हैं, समीपता की जो शक्ति देते हैं, इसमें भी हमने वही किया है। इसमें भी आपको कुछ क्रिया-कृत्य नहीं कराया है। सवेरे हम जो कराते हैं, उसमें अनुदान हमारे गुरुदेव के, निर्देश हमारे और भावना चित्र आपके—हम तीनों मिल करके काम करते हैं। फिर देख लेंगे। ज्यादा जरूरत पड़ेगी और आप ध्यान कर सकते होंगे, धारण कर सकते होंगे और आप में वह सामर्थ्य होगी, तो हम ज्यादा वोल्टेज बढ़ा सकते हैं। ज्यादा करेंट बढ़ा सकते हैं, पर देखना आपको ही पड़ेगा, सम्भालेंगे तो आप ही। अभी आपकी इस हैसियत में नहीं हो सकता, कुछ भी नहीं हो सकता। नहीं महाराज जी! आप दे दीजिए। बेटे हम कैसे दे सकते हैं? आपकी मर्जी के बिना सूरज भी आपके कमरे में नहीं घुस सकता। आपकी मर्जी के बिना हवा भी आपके कमरे में नहीं आ सकती। अगर आपकी हैसियत और आपका व्यक्तित्व इस लायक नहीं है कि देवताओं की शक्तियाँ, भगवान् की शक्तियाँ, सिद्ध पुरुषों की शक्तियाँ आपके भीतर आयें, प्रवेश कर सकें, तो बेटे कैसे आ सकेंगी। आपने तो दरवाजा बन्द कर लिया है, तो कोई नहीं आयेगा और आप खाली हाथ रहेंगे।
इसलिए पूजा-उपासना में क्रियाओं की बात खत्म। वास्तव में यह रास्ता ऐसा है जिसमें सिखाया जाता है कि देने की अपेक्षा मिलता सौ गुना ज्यादा है। हमने जो किया है, और हमारे गुरु ने जो सिखाया है और हमसे कराया है, उसकी अपेक्षा सौ गुना ज्यादा दिया है। बेटे हम भी आपको अपनी नाव में बिठा लेंगे, जैसे हमारे गुुरुदेव ने हमको अपनी नाव में बिठा लिया था। अपनी नाव में बिठाकर हम आपको पार कर देंगे, जैसे कि हमारे गुरुदेव ने हमको पार कर दिया है। आप हल्ला मत मचाना, शान्तिपूर्वक बैठे रहना, तो आप पार हो जायेंगे। नाव में उचक-मचक मचाएँगे, तो हमारी नाव को भी डुबो देंगे और आप तो डूबेंगे ही। इसलिए चुपचाप बैठना ही ठीक है। चुपचाप बैठने की बात का मतलब है कि अध्यात्म के प्रति निष्ठा पैदा कर लीजिए। अध्यात्मवादी की मन:स्थिति कैसी हो सकती है, यह भी तो आपको जानना चाहिए। अध्यात्मवादी को अपने जीवन के क्रियाकलापों में कुछ हेर-फेर करना पड़ता है, यह भी तो जान लीजिए। यह सब बातें जानेंगे नहीं, तो बेटे हमारी नाव को और डुबो देंगे। फिर हम आपको अपनी नाव में नहीं बिठायेंगे। अगर हम आपको अपनी नाव में बिठायेंगे, तो हम आपको यह यकीन दिलाते हैं कि हम डूब जायेंगे, परन्तु आपको पार करेंगे।
मित्रो! राजा युधिष्ठिर के पास एक कुत्ता था। उनको लेने के लिए जब विमान आया, तो उन्होंने कहा कि हम चलेंगे और हमारा कुत्ता चलेगा। नहीं साहब! कुत्ता तो स्वर्ग में नहीं जा सकता, तो हम भी स्वर्ग में नहीं जा सकते। जब उनका कुत्ता विमान में बैठा, तब युधिष्ठिर भी बैठे। युधिष्ठिर भी गये थे और कुत्ता भी गया था। बेटे, आप कुत्ते तो नहीं हैं, हमारे बच्चे और भतीजे हैं। आपको तो पार करना ही होगा। आपकी मुसीबतों में हम पहले सहायता करेंगे, पीछे अपनी मुसीबतों पर ध्यान देंगे। परन्तु आप पहले अध्यात्मवादी तो बनिये, सही दृष्टिकोण तो अपनाइये। अध्यात्म को समझिये तो सही। अध्यात्म के प्रति जो कर्तव्य हैं, उनको तो जानिए। अध्यात्म में क्या करना पड़ता है, इतना तो समझ लीजिये। इतना भी नहीं समझेंगे, तो मैं क्या करूँगा? आप इन क्रिया-कृत्यों को ही तोप मानकर चलेंगे, तो बेटे मैं क्या करूँगा? क्रिया-कृत्यों और कर्मकाण्डों को ही आप सब मानकर चलेंगे, तो मैं क्या करूँगा, बताइये? क्रिया-कृत्यों के साथ-साथ में जीवन में हेर-फेर करना आवश्यक है। मैं चाहता था कि आप यहाँ से जायँ, तो क्रिया-कृत्य तलाश करने के बजाय, बार-बार क्रिया-कृत्यों के बारे में पूछ-ताछ करने के बजाय ये बातें पूछें कि अध्यात्मवादी होने के नाते आपको अपने जीवन में क्या हेर-फेर करने पड़ेंगे? मैं चाहता हूँ कि यहाँ से जाते ही आपके जीवन में कुछ हेर-फेर करने की शुरुआत दिखाई पड़े। आपके भीतर कुछ कायाकल्प दिखाई पड़े। अत: आप यहाँ से जाने के पश्चात् अपने जीवन में अवश्य हेर-फेर करना।
मित्रो! मैं थोड़ी सी बातें बताता हूँ, ज्यादा बता दूँगा तो आप पूरा नहीं कर सकेंगे। एक तो मैं चाहता हूँ कि अपने ऊपर संयम रखने की आपकी आदत यहीं से शुरू हो जाय। खान-पान के बारे में मैं चाहता हूँ कि आप सारी इन्द्रियों पर तो काबू नहीं कर पायेंगे, पर अपनी जबान पर काबू करना यहीं से शुरू कर दें। नमक और शक्कर छोड़ने की बात; अस्वाद व्रत की बात मैं लोगों से हमेशा कहता रहता हूँ। गाँधी जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि दसों इन्द्रियों में से सब पर काबू करना हो, तो सबसे पहले जीभ पर काबू कीजिए। जो आदमी जीभ पर काबू कर लेगा, धीरे-धीरे वह सब इन्द्रियों पर विजय पा लेगा। जिसका अपनी जीभ पर काबू नहीं है; वह और इन्द्रियों पर काबू नहीं कर सकता। मैंने आपको नमक की बावत कहा था, अस्वाद व्रत की बावत कहा था। पिछले शिविरों में मैंने इसे चलाया भी था, लेकिन उस शिविर की फजीहत देखकर हमने इसको बन्द भी कर दिया। एक-दो आदमी बाजार में पकौड़े खाते पाये गये, तो हमने कहा-कि भाई! ऐसा करने से क्या फायदा हो गई? ये कमबख्त स्वयं भी मरेंगे और हमको भी मारेंगे। हमारी भी बदनामी करेंगे और स्वयं भी बदनाम होंगे। ये तो इसलिए आये हैं कि गुरुजी अपने आशीर्वाद से हमारे बाल-बच्चे पैदा कर देंगे, बस। वे अध्यात्म के लिए कहाँ आये हैं? वे पूजा-उपासना को, अध्यात्म को कहाँ जानते हैं? वे तो हरिद्वार का तमाशा देखने और ऋषिकेश का तमाशा देखने के लिए बेकार में आ जाते हैं और ऊपर से कहते हैं कि शिविर में आये हैं और शिविर की मर्यादा को खराब कर देते हैं।
मित्रो! इसलिए हमने इसमें बदलाव किया है, पर मैं चाहता हूँ कि आप यहाँ से जाने के बाद अपनी जीभ पर काबू रखना सीखें। अस्वाद व्रत लगातार न कर सकते हों, तो सप्ताह में एक दिन कर लिया करें। मैं चाहूँगा कि एक दिन तो कम से कम नमक और शक्कर के जायके से बचें। नहीं महाराज जी! नमक नहीं खायेंगे तो कमजोर तो नहीं हो जायेंगे? कमजोर हो जायेगा, तो पहले बिना नमक का भोजन कर लिया कर, पीछे से नमक खाकर पानी पी लिया कर। अस्वाद व्रत तो भंग नहीं होगा? नहीं होगा। नमक में क्या आफत है? नमक कोई जहर है? हम तो यही चाहते हैं कि आपकी जीभ जो लप-लप खाती रहती हैं, उस पर काबू करें, उस पर कंट्रोल करें। उसको पकड़कर मारें। बेटे, नमक में कोई आफत नहीं है, शक्कर में कोई आफत नहीं है और बिना अनाज के भी कोई आफत नहीं है। उपवास में भी कोई आफत नहीं है। दक्षिण भारत में जब उपवास होता है, तो गेहूँ खाते हैं। साहब! आज तो हमारा उपवास है। आज तो हम फलाहार करेंगे। क्या फलाहार करेंगे? गेहूँ खायेंगे। गेहूँ की रोटी खायेंगे, और कुछ नहीं खायेंगे। चावल नहीं खायेंगे? एकादशी के दिन चावल कैसे खायेंगे? एकादशी के दिन तो फलाहार करेंगे। जैसे अपने यहाँ साबूदाना फल माना जाता है, वैसे ही वहाँ गेहूँ फल है। जैसे अपने यहाँ सिंघाड़ा फल है, ऐसे ही दक्षिण भारत में गेहूँ फल है।
मित्रो! इससे क्या लेना-देना है? मुख्य सवाल यह है कि आप अपनी जीभ पर काबू कर पाते हैं कि नहीं कर पाते। इसलिए मैं चाहता हूँ कि आप अस्वाद व्रत का पालन करें और जहाँ तक सम्भव हो सके आज से अपने ब्रह्मचर्य और संयम की बावत ध्यान रखें। बेटे, शरीरों में कुछ नहीं हैं। ये लिफाफे हैं। ये लिफाफे न जाने कैसे-कैसे जिन्दा हैं। हम और आप न जाने कैसे-कैसे जिन्दा हैं और न जाने कैसे-कैसे अपना काम कर रहे हैं? न जाने कितना कम तेल है कि इस हिसाब से इस बत्ती का ज्यादा दिन तक जलना-चिराग का जलना मुश्किल मालूम पड़ता है। इन हड्डियों में जो ग्रीस चाहिए, वह है ही नहीं। हड्डियाँ बोलती हैं—कड़-कड़ और जब बैठते हैं तो घुटने कर जाते हैं—चट्-चट्। और जब अंगुली चटकाते हैं तो वे खट्-खट् बोलती हैं। क्या बात है? इसमें वह ग्रीस नहीं है। बेटे, इसमें ग्रीस को रहने दें, बुढ़ापे में काम देगी। इसके पीछे क्यों लाठी लेकर पड़ा हुआ है? इसकी सारी ग्रीस को तबाह करने और निचोड़ने के लिए क्यों आमादा हो गया है? आत्म हत्या करने के लिए क्यों उतारू हो गया है? अपने ऊपर जरा रोकथाम कर। रोकथाम नहीं करेगा? नहीं महाराज जी! रोकथाम नहीं करूँगा। रोकथाम कर बेटे, रोकथाम करेगा, तो तेरे लिए काम आयेगा। तेरी आँखों में रोशनी बनी रहेगी। तेरे चेहरे पर कड़क चमक बनी रहेगी। तेरे दिमाग की याददाश्त सही बनी रहेगी। बुरा तेल डालेगा तो खत्म हो जायेगा, मरेगा और भागेगा। और क्या करेगा?
इसलिए मित्रो! मैं कहता हूँ कि आप संयम रखना सीखिये। इन्द्रियों पर संयम रखना सीखिये। कामेन्द्रियों पर संयम रखना सीखिए। शादी करने का मतलब-दो भाई हैं, जो राम-लक्ष्मण के तरीके से हैं। जिन्दगी की नाव खेने के लिए दो मल्लाह हैं। जब नाव खेते हैं, तो एक मल्लाह इधर से खींचता है और एक उधर से खींचता हैं। हमारे दो हाथ हैं। यह इसके लिए नहीं हैं कि एक हाथ एक को काटे और दूसरा उसको काटे। अर्थात् मर्द औरत की सेहत को खराब करे और औरत मर्द की। इसलिए आप ब्याह नहीं करते। ब्याह का यह उद्देश्य नहीं है। मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आप इस बारे में ध्यान रखें। अगर आप यह ध्यान रखेंगे, तो मैं समझूँगा कि आपने योगाभ्यास और वह क्रिया-कृत्य सीख लिया। जिसके लिए आप बार-बार पूछते रहते हैं कि विधि-विधान बता दीजिए। चलिए हम बता देते हैं—पहली विधि है—‘संयम’। इसका अगर आप पालन करेंगे, तो आपको कुछ चमत्कार दिखाई पड़ेगा। आपकी सेहत को लाभ मिलेगा और आपको मानसिक स्वास्थ्य का लाभ मिलेगा।
मित्रो! विधि बताने के साथ-साथ मैं कुछ और चीज भी चाहता हूँ कि आप यहाँ से जाने के बाद में अपनी जिन्दगी की बावत कुछ नये तरह के दृष्टिकोण लेकर जायँ, तो अच्छा है। आप जब यहाँ से जायँ, तो माली की हैसियत ले करके जायँ। मालिकी यहाँ छोड़ जायँ। आप किसके मालिक हैं? आप किसी के मालिक नहीं हैं। आप सिर्फ माली हैं। माली हो करके जायेंगे, तो मैं समझूँगा कि जैसे हम अपने गुरु के पास जाते हैं और अपना सब सौंपकर आते हैं, समर्पण, शरणागति, विसर्जन करके आते हैं, आप भी उसी तरीके से करें। समर्पण का मतलब है कि हम अपनी मालिकी खत्म करते हैं और अब सिर्फ माली के तरीके से काम करेंगे। आप माली के तरीके से काम कीजिए। आप स्त्री के मालिक नहीं हैं। आप यह मत कहना मैं तेरा मालिक हूँ, वरन् यह कहना कि मैं तेरा माली हूँ। तेरी सेहत को अच्छा रखने के लिए, तुझे खुश बनाने के लिए, तेरे स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिए माली के तरीके से ख्याल रखूँगा। बच्चों के माली, माँ-बाप के माली, समाज के माली, धन-सम्पदा के माली बनिये, मालिक नहीं। अगर आप मालिक बनेंगे, तो साँप हो जायेंगे। जिस तरीके से जमाखोर बुड्ढा जब मर जाता है, तो अगले जन्म में साँप हो जाता है और घड़े के ऊपर फन फैलाकर बैठा रहता है कि कोई लेने आयेगा, तो काट खायेगा। न खायेगा और न खाने देगा। अभागे मालिक बनेगा तो साँप बनेगा। इसलिए माली बनकर रहेगा तो अपनी हर चीज का बेहतरीन उपयोग कर सकेगा। मालिक होगा तो जमा करेगा और अहंकार पैदा करेगा। जो जमा करेगा, उसका इस्तेमाल सही आदमी नहीं करेंगे, गलत आदमी इस्तेमाल करेंगे और उनकी अनावश्यक रूप से हानि होगी और तू उस पाप का भागीदार होगा। इसलिए हर चीज का इस्तेमाल माली होकर कर।
मित्रो! दूसरा है—मानसिक मनोनिग्रह। हाँ महाराज जी! मन का संयम करना बताइये? बेटे, मन का संयम करने के लिए मालिकी छोड़ माली बन जा। मालिकी छोड़ देगा तो तेरी सारी की सारी क्रियाओं में हेर-फेर पड़ जायेगा। फिर बीबी के साथ तेरा सलूक कुछ और हो जायेगा। माली पड़े की जरूरत को समझता अपनी जरूरत को नहीं। फिर आप अपनी जरूरतों के लिए बीबी से फरमाइश नहीं करेंगे, वरन् उसकी जरूरतों को ध्यान में रखेंगे। उसकी सेहत की, प्रसन्नता की, योग्यता की और खुशी का ध्यान रखेंगे। आप बच्चों के माली बनिये और उन्हें सुयोग्य बनाइये। जिस तरीके से बिनोवा की माँ ने अपने तीनों बच्चों-बिनोवा, बालकोवा और बिठोवा को बनाया। बनाने के लिए क्या किया? किया यह कि अपने आपको और घर के वातावरण को ऐसे ढाँचे में ढाल दिया कि जो बच्चे उसमें विकसित हुए, वे वैसे ही होते चले गये। आप अपने घर का वातावरण बदलिए। वातावरण बदलने के लिए अपना चाल-चलन ठीक कीजिए। नसीहत देने से कोई कुछ नहीं बदलने वाला है। बच्चे आपकी नसीहत नहीं सुनना चाहते। आपकी क्रिया, आपके वाइब्रेशन्स और आपके विचार, जो हर जगह हवा में फैलते रहते हैं, बच्चे उन्हीं को पकड़ते है और तदनुरूप ढलने लगते हैं।
आप स्वयं तम्बाकू पीते हैं और बच्चों से कहेंगे कि आप तम्बाकू मत पीजिये, लेकिन वह सौ बार तम्बाकू पियेगा। क्यों? क्योंकि आप उसको नसीहत देना चाहते हैं, हुकुम देना चाहते हैं कि माता-पिता की आज्ञा का पालन कीजिए। आप कहिये मत, चुप रहिए और पहले स्वयं अपने माता-पिता की सेवा कीजिए, ताकि आपका बच्चा आपकी नकल करना सीख जाये। आप संयमी बनिये, ठप्पा बनिये, सदाचारी बनिये, ताकि आपके घर का वातावरण बदलता हुआ चला जाय। आप समाज को रहने दें, पहले अपने शरीर की, मन की और अपने कुटुम्ब की सेवा कर लें। इसके लिए भी आपको नये ढंग से ढाँचे में अपने आपको कसना पड़ेगा। सम्पदाओं में पैसे की सम्पदा के बारे में अपने विचार बदल देने पड़ेंगे। आपको अपने भीतर यह विचार धारण करना पड़ेगा कि गुणों की सम्पदा ही असली सम्पदा है और नकली सम्पदा वह है, जिसको हम मकान कहते हैं, पैसा कहते हैं, खेती-बाड़ी कहते हैं, बैल कहते हैं, गाय कहते हैं, मोटर-गाड़ी कहते हैं। ये बिल्कुल नकली हैं। ये नकली सम्पदायें ठहर भी नहीं सकतीं। नकली सम्पदायें जब आती हैं, तो हमारे ऊपर बड़ी जिम्मेदारी लेकर आती हैं। नकली सम्पदायें हमारे भीतर घमण्ड और अहंकार पैदा करती हैं। नकली सम्पदायें हमारे पड़ोसियों के साथ वैर और विग्रह करा देती हैं, ईर्ष्या, द्वेष पैदा करा देती हैं।
मित्रो! असली सम्पदायें वे हैं, जिनको हम गुण, कर्म और स्वभाव कहते हैं। आप इनका विकास करना शुरू कीजिए। अपने कुटुम्ब में नयी परम्पराएँ डालें जैसे-उन्हें सुशील बनाने, सहनशील बनाने, प्रगतिशील बनाने की कोशिश करें। बच्चों को भी, बीबी को भी, बाप को भी—हर एक को प्रगतिशील बनाने का प्रयत्न कीजिए। प्रगतिशील होना, मशक्कत-मेहनत करना, परिश्रमी बनना आदमी के सम्मान की बात है, अपने अन्दर और अपने कुटुम्ब के अन्दर किफायतदारी-किफायतशीलता पैदा कीजिए। कोई भी आदमी एक पैसा बेकार न खर्च करने पाये, खर्च करने के लिए ढेरों काम पड़े हुए हैं। जो पैसा आप विलासिता के लिए खर्च करते हैं, वह ज्ञानवृद्धि के लिए खर्च करना चाहिए, स्वास्थ्य संवर्धन के लिए खर्च करना चाहिए। स्वास्थ्य के लिए ढेरों पैसा चाहिए, फिर आपको लक्जरी के लिए यह पैसा कहाँ से आ जाता है? आप कोका-कोला कहाँ से पी लेते हैं? सवा रुपये का छाछ आप अपने बच्चों को नहीं पिला सकते? नहीं, साहब! हम पान खायेंगे। आप कैसे पान खा सकते हैं?
बेटे, क्या करना पड़ेगा? आपको किफायतसारी बनना पड़ेगा। ‘‘सादा जीवन, उच्च विचार’’ की परम्पराएँ पैदा कीजिए। मैं यही योगाभ्यास पढ़ाता हूँ। बेटे, यह योग है। तू समझता नहीं है, प्राणायाम योग नहीं है। योग वह है जिसमें आदमी को चौबीस घण्टे अपने को शिकंजे में कसना पड़ता है। किफायतशीलता-एक, सहकारिता-को ऑपरेशन-दो। आप स्त्री के काम में मदद कीजिए, स्त्री आपके काम में मदद करेगी। आप बाप के काम में मदद कीजिए, बाप आपके काम में मदद करेगा। सारे घर में एक आदमी बैठा हुआ है और हुक्म चलाता है। बेटे हुक्म नहीं चलाएगा, सब आदमी मिल-जुलकर काम करेंगे। प्यार करने वाली बात, एक-दूसरे का सम्मान करने वाली बात ऐसी है कि यदि आप छोटे बच्चे से भी प्यार से भरी हुई बात कहेंगे, तो बच्चे आपके साथ सम्मान करना सीखेंगे। यह परम्परा है। यहाँ से जाने के बाद आप यदि माली बन करके जायेंगे, तो असंख्य विचार आपके पास आयेंगे। जैसे कि हम शरीर के माली हैं, हम अपने कुटुम्ब के माली हैं, हम अपने मोहल्ले के माली हैं। माली की हैसियत जब आप बना लेंगे, तो पायेंगे कि आपको बहुत कुछ करना है।
मित्रो! जब आप यहाँ से जायँ, तो कम से कम यह विचार ले करके जायँ कि हम अपना अन्तिम जीवन वानप्रस्थ का जीवन, संन्यास का जीवन जियेंगे। छिपकली का जीवन, चूहे का जीवन आप मत जीना। इनका जीवन बड़ा घिनौना होता है। जिस घर में पैदा हुए हैं, उसी घर में मरेंगे भी, आप ऐसा मत करना। पेड़ पर फल जब पक जाता है, तब डाली पर से टूट पड़ता है और वह कहीं और बीज पैदा करने के लिए, किसी मरीज के काम आने के लिए कहीं चला जाता है। पेड़ पर नहीं रहता। आप यह निश्चय करना कि हमको अन्तिम जीवन उसी घर में रहकर नहीं मरना है, जहाँ कि आप पैदा हुए थे। बादल समुद्र में से पैदा होते हैं, पर समुद्र में बरसते नहीं। वे खेतों में बरसते हैं, पहाड़ों पर बरसते हैं, और कहीं बरसते हैं, आप यह करना कि अपने भावी जीवन को लोकमंगल के लिए, देशहित के लिए, परमार्थ के लिए भारतीय धर्म और संस्कृति की परम्पराओं का निर्वाह करने के लिए खर्च करने की प्रतिज्ञा करके जाना। पता नहीं दुबारा मौका आयेगा कि नहीं आयेगा। आप अपने दिमाग से यह बात निकाल देना कि अभी और बच्चे पैदा करना है। अभी माँ इधर बच्चे पैदा कर रही है और बेटी उधर बच्चे पैदा कर रही है। क्या कहूँ-इनको, हया और शर्म नहीं आती है।
इस तरीके से मित्रो! आप तो बच्चे पैदा करते हैं। फिर आप किस तरीके से संन्यास की, हमारी भारतीय संस्कृति की परम्पराओं को निभा सकते हैं? आपका तो यह ख्याल है कि सारी सम्पदा बेटों को देना चाहिए। चार बेटे हैं, चारों को बरबाद दे दिया। प्राविडेंट फंड का बीस हजार रुपया आया था, चारों को पाँच-पाँच हजार रुपये कर्ण की तरह से बाँट दिया। और पड़ोसियों को? गुरुजी! पड़ोसियों को नहीं दिया। सब बेटों को देने से ही नहीं चलेगा। इससे तो आप भौतिकतावादी हो जाते, तो अच्छा होता। नहीं साहब! बेटे को ही दूँगा। धूर्त कहीं का, बेटे को देगा। और किसी को देगा कि नहीं देगा? किसी को नहीं दूँगा। तो फिर एक काम कर, बेटे से ले। क्या करना पड़ेगा? बेटे की बाबत मैं बहुत कड़वी बात आपको सुना सकता हूँ। अगर आपको बेटों को सही बनाना है, उनका भविष्य आध्यात्मिकता का बनाना है, तो आपको यहाँ से बदलना पड़ेगा। इससे कम में गुजारा नहीं हो सकता। बेटे ने मैट्रिक पास कर लिया और पिता जी के पास आया—‘पिताजी! अब हमें क्या करना चाहिए? बेटे, जैसे हमने किया था। मैट्रिक तक हमारे बाप ने पढ़ाया था, फिर हमने नौकरी की और अपने आप पढ़े। आप भी ऐसा ही कीजिए। नहीं पिता जी! हमसे नहीं होगा।’
पिता जी ने कहा कि बेटे, अब तुम अठारह-बीस साल के हो गये हो, अब हम तुमको किसी से कर्ज दिला सकते हैं पढ़ने के लिए। बस, तुमको पढ़-लिखकर बाद में हमारा पैसा रिफंड करना पड़ेगा। हाँ पिता जी! वापस कर देंगे। पचास रुपये महीने देना शुरू कर दिया और कहा कि बेटे ध्यान रखना, ब्याह तब करना जब यह कर्ज-चाहे जिसका भी हो, चाहे मेरा ही क्यों न हो, पैसा वापस कर देना। अच्छा पिता जी। यही करूँगा। लड़के ने तीन साल में बी.ए. कर लिया और बाद में सौ रुपये की नौकरी कर ली। पचास रुपये महीना पिता जी को देने लगा और पचास रुपये में अपना गुजारा करने लगा। फिर नम्बर दो वाला बच्चा आ गया। उसने कहा कि पिता जी! जो आपने बड़े भाई के साथ जो व्यवहार किया है, हमारे साथ भी कर सकते हैं। बेटे उसी शर्त पर कर सकते हैं कि तू हमारा पैसा रिफंड करेगा? हाँ पिता जी! स्वीकार है। उन्होंने उसके लिए भी व्यवस्था कर दी। बड़े बेटे से जो पैसा आया, उसे दूसरे को देना शुरू कर दिया। दूसरे का आया, तो तीसरे को देना शुरू कर दिया। तीनों ने बी.ए. तक पढ़ाई कर ली, नौकरी कर ली। उन्होंने पढ़ाई के लिए जो रुपया दिया था, रिफंड वापस ले लिया और महिला शाखा बनाकर उसमें लगा दिया।
मित्रो! अगर आपको अध्यात्मवादी बनना हो, शान्ति पानी हो, भारतीय धर्म और संस्कृति की परम्परा का निर्वाह करना हो, जीवन के अन्तिम क्षणों में भगवान् का भजन करना हो, तो अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा। इसको भजन नहीं कहते हैं, जिसमें आप माला को इधर-उधर कर लेते हैं। यह कोई भजन नहीं है। भजन वह है जिसमें हमारे जीवन की क्रियाएँ बदल जाती हैं, हमारा स्वरूप बदल जाता है। बेटे, भजन वह है जिसमें हम लोकहित के लिए, देश के लिए, धर्म और संस्कृति के लिए कुछ करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इससे कम में कोई भजन नहीं हो सकता। नहीं साहब! माला घुमाने को भजन कहते हैं। बेटे, माला घुमाना कोई भजन नहीं है। अगर माला भजन रही होती, तो माला बेचने वाले सब अब तक धर्मात्मा हो गये होते और अब तक बैकुण्ठ को चले गये होते। माला धर्म नहीं है, जीवन के स्वरूप को बदल देना धर्म है। आप यहाँ से तैयारी कीजिये। अपने भावी जीवन की तैयारी कीजिए।
इसके लिए क्या करना पड़ेगा? आपको अपने कुटुम्ब के सम्बन्ध में, बच्चों के सम्बन्ध में अपने दृष्टिकोण बदलने पड़ेंगे। बच्चों की संख्या बढ़ाना बन्द कीजिए। जितने हैं, उतने काफी हैं। नहीं हुआ है, तो आप मौसी का ले लीजिए, किसी गरीब का बच्चा ले लीजिए। पिछड़े आदमियों का ले लीजिए। बच्चे का पालन ही तो करेंगे ना? नहीं साहब! हमको पिण्डदान कौन देगा? बेटे, हनुमान जी को पिण्डदान नहीं मिला था। पिण्डदान नहीं मिलेगा, तो क्या हो जायेगा? नहीं साहब! हम तो बच्चा पैदा करेंगे। मित्रो! क्या करना चाहिए? अगर आपने नहीं किया है तो बंद कर दीजिए और अगर किया है, तो उन पर विराम लगा दीजिए और उनको सिखाना शुरू कीजिए कि बेटे, आपको हमको देना है। अगर आप रिफंड नहीं करेंगे, तो हम अपने और आपके छोटे-भाई को कैसे चुकायेंगे? आप हमारा कर्ज मत मारना, नहीं तो अगले जन्म में तू बनेगा गधा और हम बनेंगे धोबी और मारे डण्डों के तेरी कमर तोड़ देंगे और सब वसूल कर लेंगे। नहीं साहब! आप हमारे बाप हैं। बाप हैं तो जरूर वसूल करेंगे और अगले जन्म में तुझे गधा बनायेंगे, खच्चर बनायेंगे और तेरा तेल निकाल लेंगे। नहीं, आप हमारे पिता जी हैं। नहीं बेटे, हम कोई पिताजी नहीं हैं। यहाँ न कोई किसी का पिता है, न कोई किसी का बाप है। हर आदमी को अपनी मशक्कत से खाना चाहिए और अपनी मशक्कत से देना चाहिए।
मित्रो! आप अपने कुटुम्बियों के बारे में अपने दृष्टिकोण में हेर-फेर कर लें, तो शायद आप आध्यात्मिक जीवन जीने के अधिकारी हो सकें और शायद अंतिम जीवन में आपकी वह आकांक्षा पूरी हो सके, जो हमारी हुई। बच्चों को सम्पदा देने की अपेक्षा आप उनको स्वावलम्बी बनाइये, अपने पाँव पर खड़े होने वाला बनाइये। अगर वे कमाने-खाने लायक हो गये हैं, तो उनको देना बन्द कीजिये। अगर वे कमाने-खाने लायक नहीं हुए हैं, तो दीजिये तो सही, पर साथ ही यह कहिए कि इस कर्ज को आपको चुकाना है अपनी बहन को, अपनी भावज को, अपनी माँ को इनको रिफंड करना पड़ेगा। आप बच्चों को रिफंड करना सिखाइए। नहीं साहब! हम तो बेटे को देंगे—अगर आपकी यही नीयत बनी रही और आपकी यह अक्ल बनी रही, तो देख लेना आप अध्यात्मवाद से लाखों मील दूर बने रहेंगे। आध्यात्मिकता का लाभ और आध्यात्मिकता का आनन्द और आध्यात्मिकता का चमत्कार आपको नहीं मिलेगा। आपका घटियापन आध्यात्मिकता का सफाया कर देगा और आपका यह वहम कि पूजा-पाठ करके हम अमुक चीज पा सकते हैं, आपको किसी काम का नहीं छोड़ेगा। इससे तो आप उतना समय जुआ खेलने में लगाते, चोरी करने में लगाते, उतना समय आप व्यायाम करने में लगाते, कुछ काम करते, तो आपको कुछ मिल तो सकता था। इसमें आपको क्या मिलेगा?
इसलिए मित्रो! जब आप यहाँ से विदा हो रहे हैं, तो मैं चाहता हूँ कि आप अपने भीतर से कुछ ऐसे हेर-फेर करके ले जायँ अपने चिन्तन के सम्बन्ध में, दृष्टिकोण के सम्बन्ध में, क्रियाकलाप के सम्बन्ध में, भावना के सम्बन्ध में भावी जीवन की एक नयी रूपरेखा लेकर जायँ, ताकि आपका कायाकल्प हो जाय। मैंने इसीलिए आपको बुलाया था कि आपका कायाकल्प करके भेजें। आपके जीवन में, आपके चिन्तन में सिद्धान्तों का, आदर्शों का समावेश हो सके, आपके क्रियाकलाप में सिद्धान्तवाद का, आदर्शवाद का समावेश हो सके, जिसका नाम मैंने कायाकल्प रखा है और जिसको हम माली के उदाहरण से समझाते हैं कि आपको माली बनना चाहिए और अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना सीखना चाहिए। दूसरा मैंने आपको इसलिए बुलाया था कि आपको यह समझाऊँ कि यह विशेष समय है। आप विशेष व्यक्ति हैं और आपके पास विशेष कर्तव्य हैं। उनको पूरा करने के लिए अगर आप हिम्मत कर सकते हों, हौसला कर सकते हों, जैसे कि अध्यात्मवादी करते रहे हैं, तो आप अपने बारे में कुछ विचार कीजिए कि आप क्या कर सकते हैं और क्या करना चाहिए। यह दूसरी बात हुई।
मित्रो! तीसरी एक और बात थी। क्या बात थी? मेरी यह इच्छा सदा से थी कि हम और आप दोनों कदाचित मिल सके होते, तो कितना अच्छा होता। दो तार होते हैं—एक निगेटिव और एक पॉजिटिव। जब दोनों तार मिल जाते हैं, तो स्पार्क पैदा होता है और करेंट चालू हो जाता है। हम और आप मिल जाते, तो अन्धे और लँगड़े का उदाहरण हो जाता। अन्धा एक नदी को पार करना चाहता था, पर उसे दिखाई नहीं पड़ता था। लँगड़ा उस नदी को पार करना चाहता था, पर कर नहीं सकता था, क्योंकि उसकी टाँगे काम नहीं कर सकती थीं। दोनों ने आपस में सलाह की कि हम भी अपूर्ण हैं और आप भी अपूर्ण हैं। हाँ, आप में भी कमी है और हममें भी कमी है। तो? आइए हम और आप सम्मिलित हो जायँ और मिल-जुलकर कुछ काम करना शुरू करें। अन्धे की पीठ पर पंगा सवार हो गया। पंगे ने रास्ता बताया और अन्धे ने वजन ढोया। दोनों ने अपने-अपने काम किये और दोनों ने उस नदी को पार कर लिया। मैं चाहता था कि हम और आप मिलकर समय की विभीषिकाओं को पार कर लेते, तो कैसा अच्छा होता? कुछ चीजें हमारे पास हैं, जो आपके पास नहीं हैं और कुछ चीजें आपके पास हैं, जो हमारे पास नहीं। कुछ चीजें हमारे गुरु के पास हैं, हमारे पास नहीं हैं और कुछ चीजें हमारे पास हैं, जो हमारे गुरु के पास नहीं हैं। हमारा गुरु हिमालय के कैदखाने में बैठा हुआ है। वह हिमालय से नीचे नहीं आ सकता, क्योंकि उसके पास जो नियम, जो मर्यादा, जो कायदे हैं और प्रतिज्ञायें हैं, वे उसी तरह की हैं कि उनको वहीं रहना चाहिए।
बेटे, हमारे पास दूसरी चीजें हैं। उनको हमारी चीजें मिलती है और हमको उनकी मिलती हैं। हम दोनों ने अन्धे और पंगे का जोड़ा मिला लिया है और हम दोनों मिलकर काम करते हैं। चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने मिलकर एक पेयर बना लिया था। जो चीज चाणक्य के पास थी, वह चन्द्रगुप्त के पास नहीं थी और जो चन्द्रगुप्त के पास थी, वह चाणक्य के पास नहीं थी। दोनों ने अपनी-अपनी कमियों को समझा और अपना जोड़ा मिला लिया। जोड़ा मिला लेने के पश्चात् बेटे, मजा आ गया। चाणक्य भी धन्य हो गया और चन्द्रगुप्त भी धन्य हो गया। इसी तरह समर्थ गुरु रामदास और छत्रपति शिवाजी की जोड़ी थी। जो चीजें समर्थ गुरु रामदास के पास थीं, वह शिवाजी के पास नहीं थी और जो चीजें शिवाजी के पास थीं, वह समर्थ गुरु रामदास के पास नहीं थीं। जब दोनों मिलकर एक हो गये, तो मजा आ गया। उन्होंने जमाने को पलटकर रख दिया। अगर हम और आप लोग मिल गये होते, तो कितना अच्छा होता। अभी तो बेटे बन सकता है। कठिन जरूर मालूम पड़ता है, क्योंकि हमारी और आपकी मनोभूमियों में जमीन-आसमान का फर्क है। आप हमको जिस हैसियत से देखते हैं और हम आपको जिस हैसियत से देखते हैं, उसमें समानता के रिश्ते नहीं बन सकते। यहाँ से जाने के बाद आप कोशिश करना कि जो बातें कहीं और समझाई गयीं हैं, उन्हें हृदयंगम कर सकें और उन्हें आत्मसात् करके जीवन को तदनुरूप ढाल सकें, तभी हमारी और आपकी जोड़ी बन सकती है और हम और आप जीवन धन्य बना सकते हैं।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥