उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
हमारे जीवन का अनुभव सार
सम्भ्रान्त महानुभाव और देवियो! जिन्दगी के लम्बे बासठ वर्षों में मुझे मुख्यतया दो काम करने पड़े। भारतीय धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय, अध्ययन और अन्वेषण। वेदों से लेकर पुराणों तक—इनका अध्ययन, संशोधन और उनका प्रकाशन और उनके अनुवाद करने मेंमेरे बासठ वर्ष व्यतीत हो गये। बाकी समय में मुझे एक और अवसर मिला-अच्छे लोगों की संगति का। महर्षि अरविन्द से लेकर महर्षि रमण के चरणों में मैं बैठा और जहाँ कहीं भी सिद्ध महानुभाव और दूसरे विद्वान मिले, उनके चरणों में मैंने अपना मस्तक झुकायाऔर ज्ञान की बूँदें इकट्ठी करने की कोशिश की। हमारे बासठ वर्ष पूरे हो गये, लेकिन लोग पूछते हैं कि जो कुछ भी आपने सीखा है, जो कुछ भी आपने जाना है, उसे आप सार रूप में बता सकते हैं, तो बता दीजिये। सो सार रूप में मैं आपको बताता हूँ कि मैंने क्या पढ़ा? क्या सुना? और क्या सीखा?
मित्रो! मनुष्य का जीवन, मनुष्य की जिंदगी तीन बातों पर टिकी हुई है। एक—हम भोजन करते हैं। दूसरा—हम पानी पीते हैं। तीसरा—हम हवा लेते हैं, साँस लेते हैं। इन्हीं तीन चीजों के ऊपर हम जिंदा हैं। इसी तरह हमारा अध्यात्म भी तीन बातों पर निर्भर है। अनेकग्रन्थों में अनेक तरीके से अनेक बातें लिखी हैं, पर सबके मूल उद्देश्य तीन हैं, चौथा उद्देश्य मुझे मिला नहीं। सारे के सारे वेदों को, ग्रन्थों को पढ़ता रहा, लेकिन तीन के अलावा चौथी बात मुझे नहीं मिली। अठारह पुराणों की असंख्य कहानियाँ और कथाएँ मैंने पढ़ीं, लेकिन तीन बातों के बाद में चौथी कथा कहीं नहीं मिली।
एक बार मैं एक मिठाई की दुकान के पास खड़ा हो गया और देखता रहा कि कितने तरह की मिठाइयाँ बनी हुई हैं। जलेबी, पेड़ा, रसगुल्ला आदि बीस तरह की मिठाइयाँ रखी थीं। फिर मैंने गौर से देखा कि और क्या-क्या चीजें रखी हुई हैं? मैंने देखा कि उसके अंदर सिर्फतीन चीजें थीं और हलवाई के हाथ का चमत्कार था कि उससे उन्होंने अनेक चीजें बनाकर रख दीं। तीन चीजें क्या थीं? एक का नाम गन्ना, एक का नाम दूध—घी, मावा और एक का नाम अन्न—मैदा, सूजी थी। इन तीनों चीजों को लेकर के मिठाई वाले ने अपने हाथ काकमाल दिखाया, जादू दिखाया और अनेक तरह के लोगों की रुचि को देख करके कभी जलेबी बना दी, कभी इमरती बना दी, कभी पेड़ा बना दिया, कभी बर्फी बना दी।
अध्यात्म की तीन शिक्षाएँ
साथियो! किसी ने शिवपुराण लिखकर रख दिया, तो किसी ने भागवत् लिखकर रख दी। किसी ने महाभारत लिखकर रख दिया, तो किसी ने स्कन्दपुराण लिखकर रख दिया, किसी ने उपनिषदें लिखकर रख दीं। जिस तरह मैंने उस हलवाई की दुकान पर देखा कि तीन केअलावा और कोई चौथी चीज नहीं थी, उसी प्रकार मैंने बहुत गहराई से देखा कि इन ग्रंथों में भी तीन के अलावा कोई चौथी चीज नहीं है। क्या चीज है? आज मैं आपको सबका सार बता जाता हूँ। आज तो मैं चला ही जाऊँगा। आप लोगों की सेवा में कल मैं कहाँ आऊँगा? इसलिए जो मैंने पढ़ा, सुना, समझा और जाना है, उस अध्यात्म का सार आपको बताता हूँ।
अध्यात्म में तीन शिक्षाएँ हैं। एक है—ईश्वर का विश्वास। ईश्वर की पूजा नहीं, ईश्वर का विश्वास। ईश्वर की पूजा और ईश्वर के विश्वास में जमीन-आसमान का फर्क है। कई डाकू भी ऐसे होते हैं, जो देवी के आगे बकरा चढ़ाते हैं। वे ईश्वर के विश्वासी नहीं हैं, वरन् ईश्वरकी पूजा करने वाले हैं। पुजारियों में और ईश्वर विश्वासियों में जमीन-आसमान का फर्क होता है। ईश्वर के विश्वास की शिक्षा हमारे धर्मग्रंथों और वेद-शास्त्रों में है। कदाचित ईश्वर का विश्वास हमारे जीवन में आ जाता तो हमारा कायाकल्प हो जाता और हमारा कायापलटहो जाता और इसी इंसान के कलेवर में हम देवता दिखाई पड़ने लगते, अगर ईश्वर का विश्वास हमारे भीतर होता तब।
अपने अंदर छिपे भगवान को पहचानें
मित्रो! यह तो हुई नम्बर एक शिक्षा। अध्यात्म की शिक्षा नम्बर-दो यह है कि अपनी अन्तरात्मा के ऊपर मल, आवरण और विक्षेप की जो परतें जमा हो गयी हैं, उन परतों को धोकर के साफ कर डालें। अपने कषाय और कल्मषों को दूर कर डालें। आग के अंगारे के तरीके सेहमारी जीवात्मा के भीतर जो ब्रह्मतेजस् जलजला रहा है, वह ऐसे चमक पड़े मानो हम साक्षात् भगवान हैं। मनुष्य भगवान का नमूना है। मनुष्य भगवान की कृति है। भगवान कैसा हो सकता है और भगवान को कैसा होना चाहिए? इसका एक मूर्तिमान नमूना बनाकरके भगवान ने अपना साकार नमूना छोड़ा है और वह है—इंसान।
इंसान के भीतर भगवान निवास करते हैं। देवताओं के रूप में भगवान इस मनुष्य के कलेवर के भीतर प्रकट होते हैं। ऋषियों के रूप में भगवान इस मनुष्य के कलेवर के रूप में प्रकट होते हैं। अवतारी महान आत्माओं के रूप में, राम और कृष्ण के रूप में इस मनुष्यकलेवर के ही भीतर प्रकट होते हैं। मनुष्य का यह कलेवर हर आदमी के लिए एक समान स्वच्छ और निर्मल बनाया गया है। परन्तु हाय रे अभागे हम। जिसने कषाय और कल्मषों से, और मल, विक्षेप और आवरण से इस अंगारे को राख की भस्मी से, धूल से दबा दियाऔर हमारी चिनगारी और हमारी ज्वाला, हमारी ज्योति दब करके रह गयी।
मित्रो! अध्यात्म की दूसरी शिक्षा यह है कि मनुष्य को यह प्रयास करना चाहिए कि वह अपने दोष और दुर्गुण, पाप और अनाचार, दृष्टि के दोष, सोचने के गलत तरीके और काम करने के गलत ढंग—इनका सुधार करता हुआ चला जाय। अगर आदमी इस तरह अपनासुधार करता हुआ चला जाय, तो न जाने क्या से क्या हो सकता है? मनुष्य भगवान बन सकता है।
महान उद्देश्य के लिए हुआ है मनुष्य का जन्म
नम्बर तीन—अध्यात्म के ग्रंथों में, धर्मग्रंथों में तीसरी एक और शिक्षा मैंने यह देखी कि मनुष्य को उदार होना चाहिए। मनुष्य को स्वार्थी नहीं होना चाहिए। मनुष्य को संकीर्ण नहीं होना चाहिए। पेट और प्रजनन के लिए, वासना और तृष्णा के लिए मनुष्य को नहींबनाया गया है, वरन् किन्हीं महान उद्देश्यों के लिए भगवान ने मनुष्य को बनाया है। अगर मनुष्य अपने आपके बारे में जान ले, उसे आत्मबोध हो जाय। आत्मबोध को हम ज्ञान का का सार कहते हैं, अपने आपको जानना कहते हैं। मनुष्य अपने आपको जान ले, अपनेजीवन को जान ले, अपने लक्ष्य को जान ले, तो समझना चाहिए कि वह उदात्त हो करके ही रहेगा। ऋषि हो करके ही रहेगा।
मित्रो! सारे के सारे धर्मग्रंथों में मैंने यही तीन शिक्षाएँ पायीं। अब मैं आपको इन तीनों के थोड़े से उदाहरण बताता हूँ। अगर हमको भगवान पर विश्वास हो, तब? तब हमारे सोचने के तरीके अलग हो जायेंगे।
रामायण का सारांश
आप लोगों ने कदाचित रामायण पढ़ी हो। रामायण का पारायण मैं बहुत करता रहा हूँ, पर रामायण की एक चौपाई ऐसी है कि जब मैं उसको पढ़ता हूँ तो मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं और शरीर में रोमांच हो जाता है। तुलसीदासजी ने सारे का सारा ज्ञान और रामचन्द्र जीकी भक्ति का सारा रहस्य, सारा का सारा कैसे एक चौपाई में लिखकर रख दिया है। रामायण की एक चौपाई जिंदा रहे और सारी चौपाइयों को लोग भूल जायँ, तो भी रामायण का सार और रामायण का प्राण जीवित रह सकता है। वह कौन सी चौपाई है? वह है—
‘‘सीयाराम मय सब जग जानी।
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी॥’’
ईश्वरविश्वासी के देखने का ढंग और देखने का तरीका कैसा होता है? नारी में सिया और नर में राम को देखने की दिव्य दृष्टि जिस किसी को भगवान देता है, उस आदमी की शक्ति का कोई ठिकाना रहेगा क्या? हर लड़की में जिसको अपनी बेटी का भाव उमड़ करके आताहै, हर सयानी बच्ची जिसको अपनी कन्या मालूम पड़ती है और अपनी बहन मालूम पड़ती है, उसकी आँखों का तप और आँखों की शक्ति का आप अंदाज नहीं लगा सकते। ईश्वर का विश्वासी, जिसे हर नारी में सिया मालूम पड़ती है, जिसे हर नारी के भीतर अपनी मातामालूम पड़ती है, उसकी आँखों के तेज का आप अंदाज लगा सकते हैं क्या? आप अंदाज नहीं लगा सकते कि वह आदमी कैसा होगा।
मित्रो! शिवाजी की घटना आपको मालूम है न? सैनिकों ने एक मुस्लिम लड़की को पकड़कर उनके समक्ष प्रस्तुत किया था, जिसे देखकर उन्होंने कहा कि काश! मेरी माँ ऐसी खूबसूरत होती तो मैं भी खूबसूरत होता। मेरी माँ ऐसी नहीं थी। दूसरों की लड़कियों को देखकरके हमने भी इसी तरह के भाव रखे होते, तो शिवाजी के तरीके से हम भी क्या से क्या हो गये होते?
गान्धारी की आँखों का तेज
मित्रो! शिवाजी के तरीके से ही अगर आपके भाव रहे होते, तो मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ कि आपकी आँखों में गान्धारी के समान तेज होता और आपकी आँखों ने न जाने क्या-क्या चमत्कार दिखाये होते। गान्धारी ने जब देखा कि मेरा विवाह बूढ़े पति के साथ में होगया है और मेरे पति को दिखाई नहीं पड़ता। तब उसने विचार किया कि कहीं ऐसा न हो कि मेरा मन मलिन हो जाय। कोई दो आँख वाले दिखाई पड़ें और कोई सुन्दर रूप वाले दिखाई पड़ें, तो मेरा मन कहीं भटकने नहीं लगे।
उस गान्धारी ने क्या किया? उसने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। पट्टी बाँध लेने पर उसकी आँखों में इतना तेजस् आ गया कि जब महाभारत युद्ध हुआ और दुर्योधन हारने लगा तो उसने कहा कि क्या करना चाहिए? दुर्योधन को बताया गया कि तेरी माँ की आँखों मेंवह तेज भरा हुआ पड़ा है कि अगर वह अपनी आँखों की पट्टी खोल करके एक बार तेरे शरीर को देख ले, तो वह लोहे के समान हो जायेगा। फिर उसको कोई तोड़ नहीं सकेगा, कोई उसको नष्ट नहीं कर सकेगा। उसको कोई मार नहीं सकेगा। भीम ने प्रतिज्ञा की थी कि मैंदुर्योधन को मार करके छोड़ूँगा। मैं उसे जिंदा छोड़ने वाला नहीं हूँ।
दुर्योधन अपनी माँ के पाँव पर गिर पड़ा और कहने लगा कि माँ! मैंने तुझसे कभी कुछ नहीं माँगा, पर आज मैं तुझसे कुछ माँगने आया हूँ। तू अपने बेटे को अगर प्यार करती है तो, मेरी जिंदगी बचा ले। क्या करूँ बेटा? तू आँख से पट्टी खोल और मेरे शरीर को एक बारदेख ले, तो न जाने मैं कैसा हो जाऊँगा। फिर मैं मारा नहीं जाऊँगा। गान्धारी ने आँख से पट्टी खोल दी। दुर्योधन एक लँगोटी पहने हुए नंगा होकर माँ के सामने आया। माँ ने शुरू से आखिर तक अपने बच्चे के शरीर को देखा और उसका शरीर लोहे के समान हो गया। भीमको मालूम हुआ कि उसकी माँ गान्धारी ने दुर्योधन के शरीर को देख लिया है और उसका शरीर वज्र के समान हो गया है और अब वह नहीं मारा जायेगा। अब क्या करूँ? भीम प्रतिज्ञा कर चुका था। श्रीकृष्ण भगवान ने कहा कि भीम। देख, यह लँगोटी वाला पहनकर गया थाऔर लँगोटी हिस्सा कच्चा रह गया है। अब तू लँगोटी वाले भाग पर गदा मार, तब वह मर जायेगा, किसी और से वह नहीं मर सकता।
मित्रो! दुर्योधन की कथा मैं नहीं कह रहा हूँ। महाभारत की कथा भी नहीं कह रहा हूँ। मैं तो गान्धारी के ब्रह्मतेजस् की बात कह रहा हूँ और समझा रहा हूँ कि यदि हमारी आँखों में सदाचार की शिक्षा रही होती, रामायण की उस चौपाई का भाव हमारे भीतर रहा होता और हमईश्वर के विश्वासी होते, तो हमने नारी के भीतर भगवान को देखा होता। सीता को देखा होता। सीता जी हमारे सामने आएँ तो क्या हम गंदी आँखों से उन्हें देखेंगे?
हाय! हम अपनी माँ को गंदी आँख से कैसे देख सकते हैं? दुर्गा—अम्बाजी नवरात्र में हमारे सामने सयानी लड़की के रूप में आ जायें, तो क्या हम उन्हें गंदी आँख से देखेंगे? इस तरह हम कैसे देख सकते हैं? गायत्री माता अपना रूप लेकर के हंस पर बैठ करके आयें, तोक्या हम उन्हें गंदी आँखों से देखेंगे? नहीं, हम गंदी आँख से नहीं देख सकते। जब गंदी आँखों से हम सिया जी को नहीं देख सकते, पार्वती जी को नहीं देख सकते, अम्बा जी को नहीं देख सकते, गायत्री माता को नहीं देख सकते, तो फिर आपने किसी की बहन को क्योंदेखा? बेटी को क्यों देखा?
सिनेमा में आप क्या देखने गये थे? जब नाच हो रहा था, तो आप तालियाँ किस बात की बजा रहे थे? अगर आपकी बेटी को हजार आदमियों के सामने नचाया जाये और लोग सीटियाँ बजाएँ, आवाजें कसें, तो क्या आपको यह पसंद है? आपकी बहन और बेटी का फोटो लेजाकर के कोई आदमी अपने कमरे में टाँग ले और गंदी आँख से देखे, तो क्या आपको पसन्द है? नहीं, आपको पसन्द नहीं है। फिर आप सिनेमा में क्या देखने गये थे? और आपके कमरे में जो तस्वीरें हैं, कैलेण्डरों में गंदी लड़कियों के चित्र टँगे हुए हैं, ये क्या है?
कौन है आस्तिक, कौन है ईश्वरविश्वासी?
मित्रो! हम अपनी आँखों का तेजस् खो बैठे हैं। यदि वह तेजस् हम न खो बैठते, तो हम आस्तिक कहलाते और ईश्वर के विश्वासी कहलाते। ईश्वर का विश्वासी मनुष्य मात्र में भगवान का रूप देख सकता है। जो आदमी मनुष्य मात्र में भगवान का रूप देख सकता है, क्यावह धोखेबाजी कर सकता है? क्या वह जालसाजी करेगा? क्या वह विश्वासघात करेगा? बेईमानी करेगा? कैसे करेगा, मुझे बताइये तो सही? पुलिस का दरोगा सामने बैठा हो, सामने कलेक्टर बैठा हो, तो क्या जेबकट की हिम्मत पड़ेगी कि वह किसी की जेब काट ले? कलेक्टर पकड़ लेगा, दरोगा पकड़ लेगा, पुलिस पकड़कर ले जायेगी।
जब कोई नहीं होगा तभी तो आदमी जेब काट सकता है। जो आदमी चोरी कर सकता है, वह भगवान का भक्त कैसे हो सकता है? वह भगवान का विश्वासी कैसे हो सकता है? जिस दिन वह भगवान का विश्वासी होगा, उस दिन से उसको पाप करने की हिम्मत नहीं होगी।हाथ-पाँव काँप जायेंगे। वह भयभीत हो जायेगा, रो पड़ेगा कि कैसे मैं अपने भगवान को दूध में पानी मिला करके पिला दूँ। आपके यहाँ तो नहीं पिलाया जाता। आपके यहाँ सरकार दूध बेचती है। हमारे हिन्दुस्तान में दूध बेचने वाले दूधिया दूध बेचते हैं और दूध में क्या-क्या मिलाते हैं, ये वही जानते हैं। आपको हिन्दुस्तान जाना पड़े और दूध बेचना पड़े, तो आप सीख जायेंगे।
मित्रो! ईश्वर का विश्वासी कैसा होता है? एक पिता अपने बेटे के साथ फसल की चोरी करने के लिए एक किसान के खेत पर गया। खेत काट करके—फसल चोरी करके घर जाने की तैयारी भी कर ली। तभी बच्चा चिल्लाया—पिताजी! खेत का मालिक आ गया, भागो नहींतो पकड़ लेगा। बाप भी भागा और लड़का भी भागा। साँस फूल गयी। दूर जाकर बाप ने पूछा—बेटे! जरा बताना तो सही, खेत का मालिक कहाँ है? चलो, छिपकर बैठ जायें, कहीं वह पकड़ न ले। जब वह चला जायेगा, तो हम फिर खेत काट लेंगे। बच्चे ने कहा कि पिता जी! इस खेत के मालिक की आँख से तो बच सकते हैं, लेकिन जो हजार आँख वाला है, ‘सहस्रशीर्षा’— जिसकी हजार आँखें हैं, जिसके हजार कान हैं, जिसकी हजार निगाहें हैं, जिसके हजार हाथ हैं, उससे हम कैसे बच सकते हैं? चोर चुप हो गया। उसने कहा कि यह ईश्वर काविश्वासी है।
एक नहीं है ईश्वरविश्वासी और ईश्वरभक्त
मित्रो! ईश्वर के विश्वासी में और ईश्वर के भक्त में जमीन-आसमान का फर्क है। भक्त न जाने क्या-क्या कर्म-कुकर्म करता है। हमसे पूछिये, हम भक्त हैं। हमारी गंदगी को आप नहीं जानते, हम जानते हैं। हम पंडित और साधु ने क्या नहीं किया? हमारी बात मतपूछिये, औरों की बात पूछिये। हम जानते हैं कि हम क्या हैं? भगवान का विश्वासी केवल इस तरह का हो सकता है, जैसे कि इंसान को होना चाहिए। इतना उदार, परोपकारी, लोकसेवी और उज्ज्वल चरित्र वाला होना चाहिए। क्या हम ऐसे हैं? हम ऐसे नहीं हैं। हम ईश्वरके विश्वासी नहीं हैं। ईश्वर-विश्वासी का चरित्र उच्चकोटि का होना ही चाहिए। जिसका चरित्र उच्चकोटि का होगा, उसकी शक्ति का कोई पारावार नहीं रहता। आप पूजा न भी करें, चलिए मैं यह भी कहता हूँ, पर अगर चरित्रवान व्यक्ति है, तो उसकी शक्ति भगवान कीशक्ति के समान है।
शुकदेव-परीक्षित की कथा
एक बार ऐसा हुआ कि राजा परीक्षित को शाप लग गया। उन्होंने कहा कि सातवें दिन उन्हें साँप काट खायेगा। सातवें दिन साँप काट खाने की तैयारियाँ हो गयीं। राजा परीक्षित से ऋषियों ने कहा कि आपको भागवत् की कथा सुननी चाहिए। कथा सुन लेंगे तो आपकीमुक्ति हो जायेगी। परीक्षित ने कहा कि ठीक है कथा जरूर सुनूँगा। व्यास गद्दी बना दी गयी।
भागवत् की तैयारी हो गयी। अब सवाल यह पैदा हुआ कि कथा कौन कहे? भागवत् व्यास जी ने बनाई है, तो कथा भी वही कहें। राजा परीक्षित विचार करने लगे कि कथा व्यास जी से कहलवाएँ या किसी और से? उन्होंने कहा कि व्यास जी से नहीं, शुकदेव जी से कथाकहलवाऊँगा? शुकदेव जी कौन है? व्यास जी के बेटे हैं। तो क्या बेटे से कथा कहलवायेंगे, बाप से नहीं कहलवायेंगे? हाँ, बेटे से कहलवायेंगे? क्यों? क्या वजह है? बच्चा तो बच्चा है, बाप तो विद्वान है। क्या कारण है?
राजा परीक्षित ने कहा कि एक बार मैं जंगल में शिकार खेल रहा था। व्यास जी आये और तालाब में स्नान किया। जैसे ही वे तालाब में कुल्ला करने गये, वैसे ही सयानी लड़कियाँ, जो तालाब में नहा रहीं थीं, कपड़े पहनकर भागीं और पेड़ के नीचे छिप गयीं। राजा परीक्षितने कहा कि मैं दूर खड़ा होकर यह सब देख रहा था। व्यास जी जब चले गये, तब लड़कियाँ फिर से नहाने लगीं। थोड़ी देर बाद शुकदेव जी आये। २४-२५ वर्ष के शुकदेव जी नंगे आये। लँगोटी भी नहीं पहने थे। वे उसी तालाब में नहाने लगे, जहाँ लड़कियाँ नहा रहीं थीं।लड़कियाँ ज्यों की त्यों हँसती, खेलती, नहाती रहीं। उन्होंने उनकी उपस्थिति की जरा भी परवाह नहीं की। शुकदेव जी भी चले गये।
फिर क्या हुआ? जब लड़कियाँ नहा-धोकर बाहर निकल आयीं, तो परीक्षित ने कहा कि बच्चियों! एक बात तो बताओ कि तुम सब सयानी लड़कियाँ हो, २०-२२ साल की युवा हो, जब वह बुड्ढा आदमी गया था, तो बुड्ढे को देखकर तुमने शर्म की और भागकर छिप गयीं, कपड़े पहन लिए और जब वह २४ साल का नौजवान नंगा घूम रहा था, लँगोटी भी नहीं पहने था। बुड्ढे के पास तो लँगोटी भी थी, कपड़े भी थे, फिर भी तुम सब भाग गयीं, परन्तु इस लड़के को देखकर हँसती रहीं और नहाती रहीं। शर्म भी नहीं की।
लड़कियों ने कहा—राजन्! आप नहीं जानते हैं। इस शुकदेव के मन में विकार का नाम भी नहीं है, परन्तु उनके पिता जी की कहानी तो कहलवाइये मत! ठीक है। जब भागवत् की कथा शुकदेव जी कहने लगे और भागवत् सप्ताह शुरू हुआ, तो उसे देखने-सुनने देवता भीआये। उन्होंने कहा कि इसका अमृत हम पियेंगे और इसका लाभ हम उठायेंगे। परीक्षित हम तुम्हें अमृत पिलायेंगे। तुम जियो, सौ दिन तक तुम्हें साँप नहीं काटेगा। साँप नहीं काटेगा, तो मरेंगे नहीं और इस ज्ञान के अमृत को हमें पीने दीजिए। तब राजा परीक्षित ने क्याकहा—
क्व सुधा क्व कथा क्व काचः क्व मणिर्महान्।
ब्रह्मरातो विचार्यैव तथा देवाञ्जहास ह॥
राजा परीक्षित जोर से हँसने लगे। उन्होंने कहा-‘क्व सुधा’ ‘क्व कथा’—अमृत कहाँ, कथा कहाँ। ‘क्व काचः’, ‘क्व मणिर्महान्’—मणि की कीमत कहाँ और काँच की कीमत कहाँ? दोनों की कीमत की तुलना कहाँ हो सकती है? देवताओ! तुम मुझे ठगने के लिए आये हो, लेकिन मैं कथा का लाभ आपको नहीं दूँगा। कौन सी कथा? भागवत् की कथा।
आपने भगवान की कथा सुनी है? हाँ आप सबने सुनी है, लेकिन आपने क्या वह अमृत पिया है? नहीं, आपने अमृत नहीं पिया। क्यों? क्या वह पुस्तक कोई और थी? नहीं, पुस्तक तो वही है। कथा भी बिलकुल वही है। फिर आपको लाभ क्यों नहीं मिला और परीक्षित कोअमृत का बड़ा लाभ मिल गया। क्यों, क्या वजह थी? वजह सिर्फ एक ही थी कि जिस वाणी से उस कथा का उच्चारण हुआ था, वह दिव्यवाणी थी। वह शुकदेव की वाणी थी। शुकदेव की वाणी और शुकदेव का चरित्र तथा भागवत् की कथा—इन दोनों का सम्मिश्रण हुआ, तोभागवत् जीवित हो गयी।
कथावाचक के व्यक्तित्व से आते हैं कथा में प्राण
मित्रो! हमारी भागवत् मरी हुई है। हम टेपरिकार्डर के तरीके से भागवत् कहते जाते हैं, कहानी सुनाते जाते हैं। रामचन्द्र जी की और राजा परीक्षित जी की कहानी इस कान से सुनी जाती है और दूसरे कान से निकल जाती है। उसमें जीवन कहाँ होता है? भागवत् कहने वालाव्यक्ति जीवित कहाँ है? वह मरा हुआ है। मरे हुए आदमी की कथा क्या हो सकती है? नारद जी ने वाल्मीकि को उपदेश दिया कि बेटा डाका डालना बुरी बात है। चोरी करना बुरी बात है। संत हो जा। एक क्षण में नारद जी ने कहा और दूसरे ही क्षण वाल्मीकि संत बन गये।
इसके पहले हजारों लोगों ने कहा होगा और उन्होंने हजार बार सुना होगा, लेकिन नारद जी का कहना क्यों मान लिया? दूसरे लोगों का कहना क्यों नहीं माना? इसका एक ही जवाब हो सकता है कि मनुष्य का चरित्र वाणी में से बोलता है। आँखों में से बोलता है, आचरण मेंसे बोलता है। शक्ति में से बोलता है और न जाने कहाँ-कहाँ से बोलता है। यह है मनुष्य के चरित्र और भगवान के विश्वास का प्रतिफल।
मित्रो! जिस आदमी का विश्वास भगवान के ऊपर होता है, वह उदार होता हुआ चला जाता है, क्योंकि वह सब मनुष्यों में भगवान को देखता है। वह समझता है कि मनुष्य रूप में भगवान हमारे दरवाजे पर आये हैं, तो क्या हम भगवान को पानी नहीं पिलायेंगे? आपकेदरवाजे पर शंकर जी आएँ और रामचंद्र जी आएँ और आपसे कहें कि भाई साहब! हम प्यासे हैं, पानी पिला दीजिए। तो क्या आप पानी नहीं पिलायेंगे? आपको पिलाना ही होगा। अगर आप पिलायेंगे नहीं, तो आप शंकर जी को कैसे प्यार करेंगे? भगवान दुखी हों और उन्हेंबुखार आ जाय, तो क्या आप उन्हें पानी नहीं पिलायेंगे। आपको उन्हें पानी पिलाना चाहिए और पिलाना पड़ेगा। अगर आप पानी नहीं पिला सकते और भगवान को भोजन नहीं करा सकते, पीड़ित और पिछड़े हुए लोगों को उठाने के लिए आपकी भुजाएँ आगे नहीं बढ़तीं, तो फिर आप भगवान के विश्वासी कैसे हुए?
संत हृदय नवनीत समाना
मित्रो! मुझे एक कथा याद आ गयी। संत तुकाराम हरिद्वार गये और गंगाजल के दो घड़े भरकर काँवड़ बनाकर कंधे पर रखा और रामेश्वरम् के लिए पैदल चल पड़े। उन्होंने यह पढ़ा था कि रामेश्वरम् पर जो गंगाजल चढ़ाता है, उस पर भगवान शंकर प्रसन्न हो जाते हैंऔर मुक्ति देते हैं। ‘ॐ नमः शिवाय’ का जप करते हुए वे चले जा रहे थे कि शंकर भगवान पर जल चढ़ाऊँगा। रास्ते में क्या हुआ? एक गधा रास्ते में पड़ा पैर पीट रहा था।
संत तुकाराम ने पूछा—गधे। तुझे क्या हो गया? गधे ने कहा—महाराज! इस रेगिस्तान में मुझे एक महीने से पानी नहीं मिला। अब प्यास के मारे मेरे प्राण निकल जायेंगे। प्राण निकलने में देर हो रही है, सो पैर पीट रहा हूँ, ताकि मेरे प्राण जल्दी निकल जायँ। संततुकाराम ने कहा—गधे तू जीवात्मा है और जीवात्मा को जीवात्मा का सहयोग मिलना ही चाहिए। काँवड़ को उन्होंने जमीन पर रखा और एक घड़े को उठाकर सारा पानी गधे के मुँह में डाल दिया। गधा खड़ा हो गया और बोला—महाराज जी। आपने बेकार पानी पिलाया।इससे तो मेरा गला ठंडा हुआ है, पेट तो ठंडा हुआ नहीं। पेट ठंडा नहीं होगा, तो मैं रेगिस्तान को पार कैसे करूँगा। एक घड़ा पानी और मिल जाता तो पिलाना भी ठीक था। एक घड़े से आपका क्या काम बनेगा?
संत तुकाराम ने दूसरे घड़े का पानी भी गधे के मुँह में डाल दिया। दोनों घड़ों का पानी पीकर गधा खड़ा हो गया। उसने कहा—संत आ और मेरे छाती से लग जा। संत ने कहा—चल, गधे, पानी पिला दिया तो इसका मतलब यह थोड़े ही हुआ कि मैं गधों से मिलता फिरूँगा।तू कौन है? मैं तो रामेश्वरम् हूँ। तो यहाँ क्यों पड़ा हुआ था? उन्होंने कहा कि मैं संत की परीक्षा लेने के लिए पड़ा हुआ था कि कोई भगवान का भक्त ऐसा भी निकले जो रामेश्वरम् पर जल चढ़ाने के लिए जा रहा हो। मैंने हजारों आदमी देखे जो ‘नमः शिवाय’ का जप करतेहुए इसी रास्ते से चले गये, पर किसी के मन में दया नहीं थी। करुणा नहीं थी। निष्ठुर आदमी, पत्थर के कलेजे वाला आदमी क्या भगवान का भक्त भी हो सकता है? भगवान का भक्त ऐसा नहीं हो सकता। भगवान का भक्त जो होगा उसके मन में करुणा तो होनी हीचाहिए, दया तो होनी ही चाहिए।
मित्रो! संत को कैसा होना चाहिए? तुलसीदास जी कहते हैं—‘‘संत हृदय नवनीत समाना’’। संत का हृदय मक्खन के समान तो होना ही चाहिए। मक्खन के ऊपर जब धूप की मुसीबत आती है तो वह पिघल जाता है और परायों पर, दूसरों पर जब मुसीबत आती है, तोउसे देखकर संत पिघल जाता है। रामेश्वरम् ने कहा कि मैंने देखा कि मेरी मुसीबत देख करके कोई संत पिघलता है क्या? घड़े के घड़े जल भरे हुए काँवड़ लेकर लोग रामेश्वरम् के लिए चले जा रहे हैं और अपने स्वर्ग प्राप्ति एवं मुक्ति की कल्पना में खोये हुए हैं। परन्तुदया के लिए अपने स्वर्ग और मुक्ति को न्यौछावर करने वाला कोई संत नहीं मिला। केवल तू मिला। आ, मैं तुझे अपने सीने से लगा लूँ। संत और भगवान दोनों अपनी छाती से छाती मिला रहे थे और दोनों की आँखों से आँसू की धारा गंगा और यमुना की तरीके से बहरही थी। कदाचित ऐसी ही भक्ति हमारे मनों में आये जो प्राणिमात्र के लिए करुणा के रूप में प्रस्फुटित होने लगे, तो इस दुनिया में मजा आ जाय।
भगवान की भक्ति का सुरूर
मित्रो! इस दुनिया में किसी बात की कमी है क्या? नहीं, कुछ कमी नहीं है। यह दुनिया बहुत बड़ी है। भगवान ने इसमें बहुत सामान पैदा किया है। बहुत सारी जमीन खाली पड़ी हुई है। यहाँ बहुत सारा फालतू पैसा पड़ा हुआ है। अगर हम सबको भगवान की भक्ति का थोड़ासा भी सुरूर आ जाय, नशा आ जाये, मस्ती आ जाय, तो हमारे मन में न जाने क्या से क्या तरंगें उठने लगेंगी। जिस प्रकार शराब पीने पर आदमी के पाँव लड़खड़ाते हैं, आवाज लड़खड़ाती है, आँखों में सुरूर छा जाता है।
भगवान की भक्ति और भगवान का विश्वास एक शराब की तरीके से है, नशे की तरीके से है, जिसमें आदमी के पाँव लड़खड़ाते हैं, आवाज का ढंग बदल जाता है। दुनिया में जितनी चीजें हैं, अगर हम और आप उसको बाँटकर खायें, तो दुनिया में क्या कोई अभागा मनुष्यरहेगा? जिनके पास विद्या है, उससे उन लोगों को जो विद्या में पिछड़े हुए हैं, उनको ऊँचा उठाने के लिए अगर हमारी विद्या काम आये। हमारी अक्ल काम आये, हमारी बुद्धि काम आये, हमारा ज्ञान काम आये, हमारा पुरुषार्थ काम आये, तो दुनिया में क्या कोई भूखारह सकता है? नहीं, तब कोई भी आदमी भूखा नहीं रह सकता।
मित्रो! यह मनुष्यों की स्वार्थपरता, कृपणता और संकीर्णता ही है जिसने तीन-चौथाई दुनिया को गरीब और पिछड़ा, दुखी और बीमार बना करके रखा है। सिर्फ एक चौथाई मनुष्य खुशहाली और मौज-मजे की जिंदगी व्यतीत करते हैं। भगवान की भक्ति मंदिर पर जाकरखत्म नहीं हो सकती, उसको समाज में आना ही पड़ेगा। उसको मनुष्य जीवन में प्रवेश करना ही चाहिए। उसको पारिवारिक जीवन में प्रवेश करना ही चाहिए। जीवन में रंग दिखाना ही चाहिए। भगवान की भक्ति सर्वांगीण है। वह पूजा की कोठरी में सीमित नहीं रहसकती, निकल कर भागेगी। सूरज पूजा की कोठरी में सीमित नहीं रह सकता। भगवान पूजा की कोठरी में सीमित नहीं रह सकते। मनुष्य का ज्ञान अपने आपके दायरे में सीमित नहीं रह सकता। उसको बाहर फैलना ही पड़ेगा और फैलना ही चाहिए।
भक्ति का साक्ष्य है पारस्परिक उदारता
एक बार एक फकीर ने जंगल में एक आदमी के रहने लायक छोटी सी झोपड़ी बनायी। एक रात को फकीर अपनी झोपड़ी में सोया था कि एक और फकीर आ गया। उसने दरवाजा खटखटाया और कहा कि भाई! हम पानी में भीग रहे हैं और ठंड से बीमार हो जायेंगे। इसझोपड़ी में जगह नहीं मिलेगी क्या? फकीर ने दरवाजा खोला और कहा कि इसमें सोने के लिए एक आदमी की जगह थी, परन्तु दो आदमी बैठ सकते हैं। आओ, हम बैठकर रात काट लें। मुसीबत को दोनों मिल बाँट कर बरदाश्त कर लें। इस कोठरी में दोनों बैठेंगे और रातको दोनों रहेंगे।
रात भर दोनों रहे और उसी कोठरी में दोनों अपना गुजारा करने लगे। थोड़ी देर और व्यतीत हुई कि एक और फकीर आया। उसने भी दरवाजा खटखटाया और आवाज लगाई-अरे भाई! हम पानी में भीग रहे हैं। ठंड के मारे सिकुड़ रहे हैं, बीमार हो जायेंगे। क्या इस कोठरी मेंहमको जगह नहीं मिल सकती? फकीर ने दरवाजा खोल दिया और कहा कि इसमें सोने के लिए एक आदमी की जगह थी, लेकिन हम दो आदमी भी बैठ सकते थे। अब चूँकि तीन आदमी आ गये, इसलिए खड़े हो करके हम तीन आदमी भी रात काट सकते हैं। आइए इसछोटी सी झोपड़ी में मिल-जुलकर हम समय काट लें।
मित्रो! अगर मनुष्य में इस तरह का ईमान, इस तरह की नीयत, इस तरह का अध्यात्म और इस तरह की भावनायें उत्पन्न हो जायँ, तो दुनिया की ऐसी कौन सी समस्या है जो हल हुए बिना रह जाय। जमीनों की कमी है क्या? अमेरिका में कितनी जमीन खाली पड़ी है।एशिया के लोग कितने घने बसे हुए हैं। अफ्रीका की कितनी जगह खाली पड़ी हुई है। दूसरे देशों के लोग कितने घने बसे हुए हैं। कितने लोगों के पास दौलत भरी पड़ी हुई है, तोपें और दूसरी आयुध सामग्री बनाने में कितना धन लगा हुआ है।
जो धन बन्दूकें बनाने में, तोपें बनाने में, परमाणु बम बनाने में और लड़ाकू हवाई जहाज बनाने में खर्च हो रहा है, काश! वह धन खेती-बाड़ी में लग गया होता, स्कूल खोलने में खर्च हो गया होता और अस्पताल बनाने में खर्च हो गया होता, तो जिस जमीन के ऊपर हमऔर आप रहते हैं, वहीं स्वर्ग का आनन्द आ गया होता। एक आदमी से दूसरे आदमी की तरफ मोहब्बत की लहरें बह निकली होतीं, तो हमने और आपने गंगा का आनन्द उठाया होता इसी जमीन के ऊपर, जिसमें अभी हम और आप नरक का अनुभव करते हैं।
मानवीय समस्याओं का एकमात्र समाधान—अध्यात्म
मित्रो! अध्यात्म, मानव जीवन की समस्याओं का हल है। अध्यात्म केवल पूजा−पाठ करने की विधि नहीं है, माला जपने की विधि नहीं हैं, वरन् जीवनयापन करने की विधि है। जीवनयापन करने की दिशा है। हमारी शिकायत रहती है कि हमने भगवान को पुकारा और वेहमारे साथ नहीं आये। हमें भगवान का प्यार नहीं मिला। बेशक आपको शिकायत है। जब हम मरेंगे तब जा करके आपकी शिकायत भगवान को सुनायेंगे कि वहाँ मोम्बासा के लोग शिकायत करते थे कि हम शंकर जी को रोज जल चढ़ाते हैं, परन्तु शंकर जी हमारे किसीकाम नहीं आते।
यू0के0 के लिए वीजा के लिए आपने कब से एप्लाई किया है। शंकर जी आपके काम आते हैं? आप रोज जल चढ़ाते हैं, पर वे आपके काम नहीं आते। क्या वजह है? मैं भगवान से शिकायत करूँगा कि ये सब मोम्बासा वाले कहते थे कि हमने मंदिर बनाया, फिर भीभगवान हमारे काम नहीं आते। नहीं आना चाहिए और नहीं आ सकते हैं। क्यों? भगवान के माहात्म्य गलत हैं? नहीं, बिलकुल सही हैं। भगवान हमेशा आते रहे हैं। उन्होंने कौरवों की सभा में चीर-हरण के समय द्रौपदी की लाज बचाई थी। गरुड़ को छोड़कर भागते हुएभगवान चले आये थे और कपड़े के गट्ठर को खोलते हुए द्रौपदी को पहनाते हुए चले गये थे। द्रौपदी की लाज बच गयी थी।
सब पर लागू होते हैं आध्यात्मिक सिद्धान्त
मित्रो! मैं महाभारत की कथा कह रहा हूँ कि सिद्धान्त किसी एक व्यक्ति पर लागू नहीं होते। आपके ऊपर भी लागू होते हैं और मेरे ऊपर भी लागू होते हैं। यह जो कथाएँ बतायी गयी हैं, आध्यात्मिक जीवन जीने वाले हर आदमी के ऊपर लागू होती हैं। इनसे यह निष्कर्षनिकलता है कि मनुष्य के जीवन में तीन प्रकार के घटनाक्रम चलने चाहिए। आदमी को ईश्वर का विश्वास होना चाहिए, चरित्रवान होना चाहिए और उदार हृदय होना चाहिए।
आदमी को यह विश्वास करना चाहिए कि जिस भगवान ने हमको मनुष्य का जीवन दिया है, वह अकारण नहीं दिया है। जानवरों को बोलना आता है? कुत्ते को पढ़ना-लिखना आता है? बकरी को कपड़ा पहनना आता है? गधों के शादी-ब्याह क्या होते हैं? नहीं होते। फिरसारी शिक्षायें, सारी योग्यताएँ हम मनुष्यों को ही क्यों दे दीं? दूसरों को क्यों नहीं दीं? भगवान के पाँच बेटे हैं, तो सबको बराबर मिलना चाहिए था। पक्षपात क्यों? मनुष्य को ज्यादा क्यों? गधे को कम क्यों? बंदर को कम क्यों? लोमड़ी को कम क्यों? ऐसे शरीफ बाप कोबेइंसाफी नहीं करनी चाहिए। हर बेटे को बराबर देना चाहिए। हर बेटे को बराबर बाँटना चाहिए। यह कैसा बाप है जो मनुष्य को ज्यादा देता है और दूसरों को कम देता है। बराबर क्यों नहीं देता?
मित्रो! इसकी वजह है। भगवान ने मनुष्य के पास जो ज्ञान दिया है, विद्या, बुद्धि और वैभव दिया है, वह एक अमानत की तरीके से है। बैंक के खजांची के पास ढेरों रुपया जमा रहता है। क्या वह बैंक वाले के लिए है? नहीं, वह बैंक वाले के लिए नहीं है। फिर किसके लिएहै? जिनका एकाउण्ट है, खाता है, पैसा जमा है, उनके लिए है।
बैंक के एक कैशियर को जो छः हजार शिलिंग मिलता है, बस वह उससे ज्यादा नहीं ले सकता। ज्यादा खायेगा, तो मुकदमा चलेगा और वह गिरफ्तार हो जायेगा, पकड़ा जायेगा। बैंक का सारा रुपया खा जायेगा, तब? अमानत थी नहीं, फिर कैसे खा जाता। पकड़ा जायेगा।आदमी के पास जो ज्ञान है, जो विद्या है, बुद्धि है, वह सब अमानत है। दूसरे जानवरों के मुकाबले में उसे जो ज्यादा मिला हुआ है, वह अमानत है।
भगवान की अमानत हैं—मनुष्य की विभूतियाँ
वह इसलिए है कि मनुष्य भगवान की इस दुनिया को खूबसूरत बनाये। पुलिस कप्तान के पास बन्दूकें रहती हैं। वह गवर्नमेंट के कामों की हिफाजत के लिए होती है, लेकिन उन्हीं बन्दूकों को लेकर पुलिस का कप्तान डकैती डालने लगे, चोरी करने लगे और उससे पैसेकमाने लगे तब? तब वह गिरफ्तार हो जायेगा। पुलिस उसे पकड़ ले जायेगी।
मित्रो! भगवान ने हमको जो बुद्धि दी है, वैभव दिया है, अक्ल दी है, समझ दी है, तो सिर्फ इस काम के लिए दी है कि भगवान की इस दुनिया को खूबसूरत बनाने में, खुशबूदार बनाने में, शानदार बनाने में और समुन्नत बनाने में हम उस अमानत का इस्तेमाल करें।हम सभी मनुष्य क्या इस तरह इस्तेमाल करते हैं क्या? नहीं, वह सारी की सारी अमानत हम अपने लिए खर्च करते चले जा रहे हैं। अपने लिए और अपनी औलाद के बाद क्या कभी हमारी आँखें बाहर गयीं? नहीं, हमारी आँखें उससे बाहर नहीं गयीं। अपने दिमाग केअहंकार को बढ़ाने के लिए गयी और आगे बढ़ीं, तो सात पुश्त की औलाद के लिए दौलत छोड़ जाने के लिए बढ़ीं।
दुनिया में हमारी बुद्धि की कितनी जरूरत थी, हमारे पुरुषार्थ की कितनी जरूरत थी, हमारी अक्ल की कितनी जरूरत थी। अगर हमने अपनी अक्ल, बुद्धि और पुरुषार्थ का उपयोग गाँधी जी के तरीके से किया होता, दूसरे महानुभावों की तरीके से किया होता, तो मित्रो! हम और आप महापुरुष हुए होते। महामानव हुए होते, क्योंकि भगवान के रास्ते पर चलने वाला भगवान की सारी सम्पदा का स्वामी होता है और उसे होना चाहिए। जिन आदमियों ने अपने जीवन का उद्देश्य समझा, उन्होंने अपना स्वरूप समझा, अपने लिए मिली हुईअक्ल, समझ, विद्या और योग्यता का महत्त्व समझा, उन्होंने उसका सही इस्तेमाल भी करना जाना, तो वे महापुरुष हो गये और महामानव हो गये।
सारे ग्रंथों का सार हैं ये तीन शिक्षाएँ
मित्रो! सारे के सारे ग्रंथों को हम पढ़ते चले गये और उनमें हमने तीन बातें पायीं। संतों के चरणों में गया और कहा कि मुझे सिद्धियाँ बता दीजिए। मुझे कोई ज्ञान बता दीजिए, कोई चमत्कार दिखा दीजिए। जिन महानुभावों के पास गया, हरेक ने मुझसे यही कहा किचमत्कार तेरे भीतर दबे पड़े हैं। अपने आपको खोज और अपने आप ढूँढ़। आप कुछ दे पायेंगे क्या? उन्होंने कहा—नहीं, हम कुछ नहीं दे पायेंगे। हम देते भी हैं, तो सिर्फ उसको देते हैं जो उसका पात्र और अधिकारी बन जाता है। पात्र बनो, अधिकारी बनो तो महापुरुष औरसिद्ध पुरुष सहायता करने के लिए अवश्य आयेंगे।
हाथ जोड़ लिया, सो नहीं, पैर छू लिया, सो भी नहीं। माला पहनने से भी नहीं, दिल लगाने से भी नहीं, नाक रगड़ने से भी नहीं। देवता भी नहीं, यक्ष भी नहीं, भगवान भी नहीं, महापुरुष भी नहीं, सिद्ध पुरुष भी नहीं, कोई नहीं सहायता कर सकता। हर आदमी भगवान कीसहायता प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है। शर्त सिर्फ यही ही है और वह यह है कि भगवान पर विश्वास करना सीखें। भगवान पर अगर हमारा विश्वास हो, तो हमको डरने की क्या जरूरत है? रोटी के लिए बेईमानी करने की क्या जरूरत है?
ऊँचे उद्देश्यों के लिए है मनुष्य का जीवन
मित्रो! मनुष्य को यदि यह विश्वास रहा होता कि जब हम माँ के पेट में से पैदा हुए थे, तब शक्कर मिले हुए दूध के दो गरम कटोरे हर समय पीने के लिए तैयार थे। यदि वह यह भूल नहीं गया होता और उसको यह विश्वास रहा होता कि माँ के पेट में से निकलने के बादहमारे लिए वह धोबी उपस्थित कर सकता है, गाय उपस्थित कर सकता है। जब हम किसी काम के नहीं थे और कुछ भी नहीं सोच सकते थे, तब सब कुछ दिया। अब तो हम समझदार हैं। हमारे हाथ-पाँव चल सकते हैं। छः इंच का हमारा पेट है और छः फुट के हमारे हाथहैं।
अपने हाथों से, अपनी कलाइयों से हम अपना पेट भर सकते हैं और दूसरों का भी पेट भर सकते हैं, तो फिर हम क्यों गुनाह करने पर आमादा हों? क्यों हम इस बेशकीमती जिंदगी को उन कामों में खर्च करें, जिन कामों में जानवर खर्च करते हैं? पेट के लिए जानवर जिंदारहते हैं, इंसान जिंदा नहीं रहता। इंसान कर्तव्य के लिए जिंदा रहता है, धर्म के लिए जिंदा रहता है, लक्ष्य के लिए जिंदा रहता है, उद्देश्य के लिए जिंदा रहता है। बच्चे पैदा करने के लिए जानवर जिंदा रहता है। मनुष्य घर की फुलवारी में से अच्छे जवाहरात और अच्छेरत्न निकाल करके समाज की वेदी पर उपस्थित करने के लिए अपना गृहस्थ बसाता है, केवल बच्चे पैदा करने के लिए नहीं।
मित्रो! हम दो आत्माओं का एकीकरण सिखाते हैं। अलग-अलग रहने की अपेक्षा एकीकरण का क्या आनन्द है, इसलिए हम गृहस्थ बसाते हैं, काम सेवन के लिए नहीं। बच्चे हम इसलिए पैदा करते हैं कि सुयोग्य, सुसंस्कारी मानव बना करके समाज रूपी देवता केसामने उपस्थित करें। हमने इन बालकों के ऊपर इतना परिश्रम किया और ये बालक भगवान के इस उद्यान को, इस फुलवारी को कैसे सींचने और सशक्त करने के तैयार हो रहे हैं।
हमने कितना प्रयास किया है, कितना इनको संस्कारी बनाया है? कितना सुयोग्य बनाया है और कितना ज्ञानवान बनाया है। ये हमारे उद्देश्य हैं। हम कामुक नहीं हैं। हम कुत्ते नहीं है, हम गधे नहीं है। काम-वासना हमारा उद्देश्य नहीं है। रंग देखने के लिए ब्याह नहींकिये जाते। भारतीय संस्कृति यह सिखाती है कि लड़के और लड़कियाँ जब आपस में मिलते हैं, तो रंग-रूप के लिए नहीं मिलते। चमड़ी के लिए नहीं मिलते, हम चमार नहीं हैं। हम आत्मा को देखते हैं और दो आत्माएँ एक होती हैं। रूप को हिन्दुस्तान में कभी महत्त्वनहीं दिया गया। यह तो ऐसा अभागा युग आ गया जिसमें रंग को महत्ता दी गयी, रूप को महत्ता दी गयी। लड़कों ने रंग को पसंद किया और फोटोग्राफ मँगाने शुरू किये और कट देखने शुरू किये।
शरीर नहीं आत्मा हैं हम
‘कट’ क्या होता है, आप जानते हैं क्या? आपको नहीं मालूम, किसी मॉडर्न लड़के से पूछिए। पहले तो रंग-रूप ही था—सफेद गोरा, काला ही था, पर अब यह एक और चीज आ गयी है। अच्छा हुआ आपकी शादी हो गयी। अगर यह जमाना रहा होता, तो कोई लड़की आप सेशादी नहीं करती। आपको क्वाँरा फिरना पड़ता और रोटी बनानी पड़ती। आपका कट अच्छा है, तो ठीक है, अन्यथा बिना कट के शादी किस काम की। यह भौतिक युग है, अध्यात्म का विरोधी युग है, विपरीत युग है जिससे आदमी की शक्ल को महत्ता दी गयी। आत्मा कोभुला दिया गया। प्रेम को भुला दिया गया और छल को महत्त्व दिया गया। नाक, कान, आँख और चमड़ी को महत्त्व देने वाले नकली आदमी क्या अध्यात्मवादी हो सकते हैं? सिद्धान्तवादी हो सकते हैं? आदर्शवादी हो सकते हैं?
अष्टावक्र ऋषि आठ जगह से कुबड़े—टेढ़े थे। एक बार वे राजा जनक की सभा में गये। वहाँ जो सभासद बैठे हुए थे, वे उन्हें देखकर मुसकराने लगे-हँसने लगे। ऋषि को जनक ने आसन दिया, तो वे बैठ गये। उन्होंने गंभीर होकर राजा जनक से पूछा—‘राजन्’ एक बाततो बताइये कि क्या सभासदों में आपको अच्छे लोग नहीं मिले? महाराज जी! ये तो सभी विद्वान हैं, पंडित हैं। नहीं, आपने तो सब चमार भर्ती कर लिये हैं। पंडितों की सभा क्यों नहीं बनाते?
महाराज! ये तो पंडित हैं, ब्राह्मण हैं। नहीं, ये सब चमार हैं। चमार उसे कहते हैं जिसे चमड़े की परख आती है, आत्मा की परख जिसको नहीं आती। हम और आप चमार की कौम के लोग हैं। नहीं, साहब! हम ब्राह्मण हैं। नहीं, हम ब्राह्मण नहीं हैं। चमार और ब्राह्मण मेंजो फर्क होना चाहिए था, वह यह कि दूसरे की आत्मा को समझें, प्रेम को समझें, ज्ञान को समझें, ईमानदारी को समझें। नेकी वाले का हम सम्मान करें। लेकिन नेकी वाले का सम्मान होता है क्या? नहीं, आज धनवालों का सम्मान होता है। आज सत्तावालों का सम्मानहोता है। हम ज्ञानवान का सम्मान करते हैं क्या? सदाचारी का सम्मान करते हैं क्या? जिसने समाज के लिए त्याग और बलिदान किया, उसको हम समझते हैं क्या? जिसने ईमानदारी और भलमनसाहत पर रह करके रूखी-सूखी रोटियाँ खा करके जीवनयापन किया, क्या हम उनके चरणों में मस्तक झुकाते हैं? नहीं, हम भूल गये।
अध्यात्म का मूल जीवन में भी उतारें
मित्रो! आध्यात्मिकता का मूल हमारे हाथ से चला गया। ऋषियों के शिक्षण हमारे हाथ से चले गये। वेदों के उच्चारण हमको खूब आते हैं और वेद का सस्वर उच्चारण कर सकते हैं, पर वेद की आत्मा को हमने भुला दिया। पुराणों की कथाएँ हम खूब कहते हैं, रामायण कीकथाएँ आपको सुनाते हैं, भागवत् आपको सुनाते हैं, पर रामायण की आत्मा का न स्वयं ज्ञान है और न हम आपको दिखा सकते हैं। ऐसा है यह अभागा युग।
भगवान इस अभागे युग को पुनः अध्यात्म की ओर लाये। उस अध्यात्म की ओर जिसमें कि मनुष्य भगवान होकर के जिया करता था। देवता होकर के जिया करता था। गरीब होते हुए भी और किफायतसार होते हुए भी, जंगल में रहते हुए भी लँगोटी लगाने वाले लोग, घास-फूस की झोपड़ी में रहने वाले लोग वे थे जिनके चरणों में दुनिया मस्तक झुकाती थी और उनसे ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने आपको धन्य मानती थी।
पर क्या हम ऐसे हैं? नहीं, अब हम ऐसे नहीं हैं। हम लँगोटी भी लगाते हैं, तो हमारे मकसद न जाने क्या से क्या होते हैं। हम संत बनते हैं, लम्बी दाढ़ी रखते हैं, पर हमारे मकसद न जाने क्या से क्या होते हैं। हम लम्बे वाले तिलक लगाते हैं, पर न जाने हमारे मकसदक्या से क्या होते हैं। हमको मत देखिये, हमारे कपड़े मत उतारिए, अन्यथा आपकी नाक बदबू से फट जायेगी। हम बड़े गंदे और कमीने आदमी हैं।
उच्चस्तरीय मनुष्य बनते हैं प्रभुकृपा के अधिकारी
मित्रो! आध्यात्मिकता का जीवन यदि हमारे पास रहा होता तो हम नेक और शरीफ इंसान की तरीके से जी रहे होते। ईश्वरविश्वासी की तरह जी रहे होते। शेर एवं हाथी की तरीके से जी रहे होते। सीना तान कर हम चल रहे होते और समस्या से मुकाबला करने के लिएजूझने के लिए अपनी हिम्मत को रखने में समर्थ हो रहे होते और भगवान हमारे साथ रहा होता।
भगवान सदैव हमारे साथ रहा है और साथ रहेगा। कमजोर लोगों के साथ भी रहा है। सीता जी कमजोर थीं। रावण उनका हरण करके ले गया था। सीता जी के साथ भी भगवान था। टिटहरी के अण्डे समुद्र बहा कर ले गया था, पर जब टिटहरी ने कहा कि समुद्र ताकतवर है, तो क्या हुआ, हमारे पास आत्मिक शक्ति है और मैं समुद्र से अपने अण्डे वापस लेकर के रहूँगी। मेरा इंसाफ और न्याय मुझे मिलना ही चाहिए। इंसाफ दिलाने के लिए अगस्त्य ऋषि के रूप में भगवान आये और तीन चुल्लू में समुद्र का पानी पी गये। पौराणिक कथासही है या गलत, मैं नहीं जानता, लेकिन सिद्धान्त सही है। उच्चस्तरीय मनुष्य भगवान की कृपा के अधिकारी रहे हैं और रहेंगे।
मित्रो! जिन्होंने अपने जीवन में अध्यात्म को घुलाया नहीं, अध्यात्म का समावेश नहीं किया, भगवान को केवल पूजा की वेदी तक ही समावेश कर लिया, उनको वह लाभ कैसे मिल सकता है? आपको खाँसी है। च्यवनप्राश अवलेह की दवा डिब्बे में रखी हुई है।च्यवनप्राश अवलेह की १०८ माला जप करने से क्या खाँसी दूर हो जायेगी? नहीं, आपकी खाँसी दूर नहीं होगी। च्यवनप्राश पर फूल-माला चढ़ाए, आरती उतारी और जय बोली—‘च्यवनप्राश अवलेह देवता की जय’। इससे क्या आपकी खाँसी ठीक हो जायेगी? नहीं कैसेठीक होगी? आपको च्यवनप्राश अवलेह खाना पड़ेगा।
ब्रह्म को जीवन में धारण करना है ब्रह्मचर्य
ब्रह्म को चरना पड़ेगा, जैसे घास को गाय चर जाती है और दूध देती है, उसी तरीके से हमको ब्रह्म को चरना चाहिए। भगवान को चरना चाहिए। ब्रह्मचर्य की उच्चकोटि की परिभाषा यही है। ब्रह्मचर्य की सामान्य व्याख्या यह है कि हमको ब्रह्मचारी रहना चाहिए औरकाम सेवन नहीं करना चाहिए, लेकिन आध्यात्मिक व्याख्या यह नहीं है। आध्यात्मिक व्याख्या यह है कि ब्रह्म को चर जाओ। जैसे कि गाय घास को चर जाती है और चर करके क्या करती है? हजम कर लेती है और दूध बना करके अपनी नसों में भर लेती है। ब्रह्म कोचर जाइये। ब्रह्म की शिक्षाओं को, ब्रह्म के आदेशों को, उसके उपदेशों को, उसकी दिशाओं को समझिये और समझ करके अपने जीवन में धारण कर लें।
देवियो और भाइयो! अगर आप ऐसा कर सकें तो आप सब यह अनुभव करेंगे कि भगवान आपके साथ हैं। भगवान आपके आगे हैं और आपके पीछे हैं। जब आप चलेंगे तो आप देखेंगे कि आप भगवान से रहित नहीं हैं। भगवान आपके दायें चल रहा हैं और बायें चल रहाहै। मेरा छोटा सा जीवन व्यतीत हो गया और मैं तीन कामों को अपने जीवन में उतारता रहा। मैंने कितना भजन किया है, कितना नहीं किया, आप नहीं जानते। लेकिन मैंने इन तीन सिद्धान्तों को जीवन में समाविष्ट किया है।
इन सिद्धान्तों को पूजा से हजार गुना ज्यादा महत्त्व दिया है। पूजा करने वाले मुझसे भी ज्यादा हैं, जो भजन करते हैं और जप करते हैं। अमुक काम करते हैं, ध्यान करते हैं, पाठ करते हैं, पर इन बातों को भूल जाते हैं। मैंने इन तीन बातों को मिला करके अपने जीवन मेंपूजा-उपासना, चौबीस पुरश्चरण करने का साहस किया और मेरे पुरश्चरण कैसे रहे, आप जानते हैं। आँखों में आँसू भरे हुए लोग अक्सर मेरे पास आते रहते हैं और आँखों के आँसू पोंछ करके मुसकराते हुए जाते हैं।
यह कौन करता है? यह वह वाणी करती है जिसने कुधान्य नहीं खाया है। जिसने मिथ्यावाणी नहीं बोली है। जिसने किसी को क्रोध नहीं किया है। जिसने किसी के साथ में छल नहीं किया है। जिसने किसी के साथ में अन्याय नहीं किया है। जिसने किसी को मार्ग से भ्रष्टनहीं किया है। यह वाणी है जिससे जो भी कहा जाता है, वह सरस्वती हो कर के निकलती है।
मेरा जीवन है प्रभुकृपा का प्रमाण
मित्रो! जब मैं चलता हूँ तो देखता हूँ कि पायलट की तरीके से भगवान मेरे पीछे और मेरे आगे चलता हुआ दिखाई देता है। जब मैं चलता हूँ और देखता हूँ सुनसान है, अकेला हूँ और दुनिया अलग तरह की है और मैं अकेला पड़ा तो मुझे मालूम पड़ता है कि बॉडीगार्ड कीतरीके से पीछे-पीछे मेरा भगवान चलता है। स्टेनो के तरीके से दाहिनी ओर और पी0ए0 की तरीके से बायीं ओर मेरा भगवान चलता है और मैं हाथी की तरीके से चिंघाड़ता हुआ, शेर की तरीके से दहाड़ता हुआ युग निर्माण का नारा लगाता हुआ चला जाता हूँ।
लोग मखौल उड़ाते हैं और कहते हैं कि यह कमजोर सा आदमी जमाने को बदलने की बात कहता है। क्या छोटे मुँह बड़ी बात कहता रहता है। लेकिन मित्रो! जमाना बदल करके रहेगा। जमाने को बदलना ही चाहिए। आदमी बड़ा है और जमाना छोटा है। जमाने को आदमीबदलते रहे हैं और आदमी ही बदलेंगे। आदमी बड़ा है। यदि वह अपने आपके स्वरूप को समझ ले और आध्यात्मिकता की त्रिवेणी में अपने आपका स्नान करा ले, तो आदमी भगवान है।
गंगा, यमुना और सरस्वती इन तीनों के संगम—त्रिवेणी में नहा करके आदमी पवित्र हो जाता है। इन तीन त्रिवेणियों का जहाँ भी संगम हुआ है, उसका नाम तीर्थराज है। आध्यात्मिकता की यह तीन धारायें-ईश्वर का विश्वास, चरित्र का निर्मल करना और उदार हृदय—यह तीन बातें जहाँ कहीं भी मिल जायेंगी, वहाँ मनुष्य त्रिवेणी होगा और वहाँ आपका जीवन तीर्थराज होगा। तीर्थराज और त्रिवेणी में स्नान करने के बाद मनुष्य को जो शांति मिलती है, सद्गति मिलती है, उसके अधिकारी हम और आप सभी हो सकते हैं।
मित्रो! इन बासठ वर्षों में मैंने जो कुछ पढ़ा, सुना, जो मैंने समझा और अनुभव किया, उसका सारांश—संक्षेप में, मैंने आप लोगों को बताया, इसलिए कि शायद आपके काम आये। जैसे बच्चा अध्यापकों को अपने पहाड़े सुना देता है, पाठ सुना देता है, उसी बच्चे कीतरीके से मैंने आपको कोई उपदेश देने की कोशिश नहीं की। मैंने अपना सब पाठ पढ़ाया और यह बताया कि मैं ६२ वर्ष का विद्यार्थी हूँ। कितने पहाड़े और कितने अक्षर मैं याद कर सका और क्या मैं सीख पाया। मैंने सिर्फ इतना ही सीखा।
चारों वेदों का अनुवाद करने के बाद, उपनिषदों का अनुवाद करने के बाद, दर्शनों का, अठारह पुराणों का अनुवाद करने के बाद, सभी हिन्दू धर्मग्रंथों को मथने के बाद मेरे हाथ तीन चीजें लगीं। संत-महात्माओं के स्थानों पर गया, वेद सुनता रहा, कथाएँ सुनता रहा औरउनसे कुछ सीखने की प्रार्थना करता रहा। उन्होंने मुझे तीन बातें सिखायीं, चौथी बात कोई नहीं सिखाई। वही तीनों बातें आपको सिखा करके कल मैं चला जाऊँगा। आज मेरा समय समाप्त हो गया। कल मुझे नैरोबी चले जाना है। तीन दिनों तक आप लोगों ने मुझे अपनाबहुमूल्य समय देकर के मुझ बालक की छोटी सी बातों को सुना। आप सब लोगों का बहुत-बहुत आभार।
नोट—यह उद्बोधन जनवरी, ७३ में पूज्यवर द्वारा केन्या की मोंबासा नगरी में दिया गया।
॥ॐ शान्तिः॥