उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
कांगो का संत
मित्रो! एक बार मैं कांगो गया। कांगो वह देश है, जिसमें आदमियों की ऊँचाई और लंबाई कोई ऐसी होती है-तीन और चार फीट के बीच। प्राय: अधिकांश आदमी नंगे रहते हैं। औरतें पत्तों से अपना तन ढक लेती हैं। खेती-बाड़ी? तीन फीट का आदमी खेती-बाड़ी क्या करेगा! वे छोटे-छोटे भाले और छोटी-छोटी लाठियाँ लिए फिरते हैं। इन्हीं से बेचारे मेंढक मार लेते हैं; चूहे, चिड़िया, इन्हीं को जाल में फँसा लेते हैं और भून-भानकर खाते रहते हैं। घूमते-फिरते रहते हैं। इन गरीबों के पास न पैसा है, न दान-दक्षिणा का साधन है। उनके बीच में स्विट्जरलैंड के एक पादरी चालीस साल से काम कर रहे थे। वे वहीं डेरा डाले हुए पड़े थे। उन्होंने उन लोगों से कहा कि ईसा एक भूली हुई भेड़ को, जो भटक गई थी, कंधे पर रखकर लाए थे। तो ये भूले हुए पिछड़े हुए लोग हैं, जिनकी हम सेवा करने आए हैं। अब हम यहीं रहेंगे। वे वहीं रहने लगे। उन लोगों के पास न डाकखाने का इंतजाम था, न सड़कें थीं, न सिनेमा, न कोई आनंद, न आने जाने का साधन और न कोई सवारी-कोई कुछ नहीं था। जंगल में रहते थे। पानी के जहाज कभी आते थे तो वही कुछ सामान छोड़कर चले जाते थे। विदेशों से जब कोई पानी के जहाज आते थे तो हजामत बनाने के ब्लेड, चाय के पैकेट आदि ईसाई मिशन उन्हें भेज देता था। वहीं मे मिला हुआ कपड़ा आ गया इस तरह जो कुछ आ गया, उसी से गुजारा कर लिया। इस तरह चालीस साल से वे वहाँ निवास कर रहे थे।
साधु परिव्राजक
ये कौन थे? इनका नाम था पादरी; इनका नाम था साधु; इनका नाम था परिव्राजक। मेरे मन में आया कि इनके चरणों को धोकर के पानी ले चलूँ इन और बाबाजियों के ऊपर छिड़क दूँ। कौन से बाबाजी? ये साठ लाख भिखमंगे। सात लाख गाँव और आठ लाख बाबाजी। सात अट्ठे छप्पन और सात नामे तिरसठ। हर गाँव पीछे साढ़े आठ बाबाजी आते थे। साढ़े आठ बाबाजी एक गाँव में रहें तो शिक्षा की समस्या, साक्षरता की समस्या, सामाजिक कुरीतियों की समस्या, गंदगी की समस्या, पिछड़ेपन आदि की जितनी भी समस्याएँ थीं, साढ़े आठ आदमियों ने ठीक कर दी होतीं, लेकिन हम क्या कर सकते हैं! शुरू से आखिर तक ढोंग! देवताओं की लगाम पकड़ करके देवताओं की आड़ का बहाना लेकर के सब बाबाजी उस देवता की पूजा, हनुमान जी की पूजा, संतोषी माता की पूजा की आड़ में, धर्म की आड़ में जो मन में आए वह करते हुए पाए जाते हैं।
क्या करना पड़ेगा? बेटे! फिर आपको वहाँ से वापस चलना पड़ेगा, जहाँ कि हमारी संत-परंपरा के अनुरूप हम घर घर जाएँ और जन-जागरण का शंख बजाएँ तथा कायाकल्प करने में समर्थ हो जाएँ। यह हमारा लंबा वाला प्लान है। लंबे वाले प्लान के लिए क्या करना पड़ेगा? जलता हुआ दीपक जहाँ भी जाएगा, वहाँ प्रकाश पैदा करेगा। जिसके पास व्यक्तित्व है, ऐसा व्यक्तित्व संपन्न व्यक्ति जहाँ भी जाएगा, दूसरे व्यक्तियों को ठीक कर सकता है। व्यक्तित्व वाला व्यक्तित्व को ठीक कर सकता है। वाणी वाला वाणी को ठीक कर देगा। हाँ साहब! बोलना सिखाइए? हम आपको बोलना सिखाएँगे। कैसे सिखाएँगे? एक बार एक घर में चोर घुस गया। घर वाले चिल्ला रहे थे कि घर में चोर आ गए। गाँव वाले, मुहल्ले वाले दौड़कर आ गए। कहाँ गया चोर? चोर ने देखा कि यह तो बड़ी संख्या आ गई। अब क्या करना चाहिए? घर वाले चिल्ला रहे थे कि चोर को पकड़ो। चोर भी चिल्लाने लगा कि चोर को पकड़ो। देखो, वह गया, इधर गया, भीड़ भागती रही और चोर भी उन्हीं के बीच भागता रहा और चिल्लाता रहा।
चरित्र से होगा लोक-शिक्षण
इसका क्या मतलब है? बेटे! जब घर का मालिक कहे कि चोर को पकड़ो, तब आप भी कहिए कि चोर को पकड़ो। चोर कौन है? मालूम नहीं कौन है? अनैतिकता को भगाओ, पाप को भगाओ, परंतु भगाएगा कौन? दुनिया ने पाप को भगाया, पर वही चोर वाली बात सामने है। क्या करना पड़ेगा? हममें से जो भी आदमी इस मार्ग पर आएगा, अपना चरित्र लेकर के आएगा। लोक-शिक्षण कैसे हो सकता है? चरित्र से। वाणी हो, चाहे न हो, आप गूँगे हों, तो कोई हर्ज की बात नहीं। पाण्डिचेरी के अरविन्द घोष गूँगे हो गए थे। उन्होंने जीभ से बोलना बंद कर दिया था। महर्षि रमण गूँगे हो गए थे। उन्होंने भी बोलना बंद कर दिया था? बिना बोले भी आप हवा को ठीक कर सकते हैं। आपको बहुत बोलना आता है, पर आप हैं क्या? हमको यह बताइए। असल में प्रभाव आपके व्यक्तित्व का पड़ेगा। जिस काम के लिए हम आपको भेजना चाहते हैं, वह आपका व्यक्तित्व और चरित्र करेगा और कोई चीज नहीं कर सकती। वेश्याएँ अपने जीवन में हजारों आदमियों को भड़ुआ बना देती हैं। शराबी अपने जीवन में सैकड़ों शराबी पैदा कर लेते हैं; जुआरी अपने जीवन में नौ सौ नए जुआरी पैदा कर लेते हैं, क्योंकि उनका चरित्र, उनका बोलना; उनका वचन और कर्म दोनों मिले हुए हैं और आप अपनी जिंदगी में एक संत पैदा न कर सके; एक भला आदमी पैदा न कर सके; एक सज्जन पैदा न कर सकें, एक राम भक्त पैदा न कर सके। क्यों? इसलिए कि आपके चरित्र और आपकी वाणी में तालमेल नहीं है। आपका चरित्र अलग है और वाणी अलग है। तो कैसे असर पड़ेगा? नहीं साहब! असर पड़ेगा। नहीं बेटे! तेरा असर नहीं पड़ेगा।
अंकुश का नाम है तप
अगले दिनों क्या करना पड़ेगा? अगले दिनों परिव्राजक योजना का शुभारंभ कर रहे हैं, जिसके लिए पहली बार आप आए हैं, जिसका आप श्रीगणेश कर रहे हैं। आपको श्रीगणेश करने वालों में शामिल किया, सौभाग्य दिया गया। अगर यह योजना चलेगी तो क्या होगा? भावी योजना के बारे में मैं आपको बता रहा हूँ कि इसमें हम यह प्रयत्न करेंगे कि आदमी को तपस्वी बनाएँ। तपस्वी से क्या मतलब है? आदमी को धूप में खड़ा करेंगे? धूप में नहीं खड़ा करेंगे। उसे अपनी हवस और अपनी कामनाओं पर अंकुश लगाना सिखाएँगे। तप इसी का नाम है। यही धूप में खड़ा होना है। आदमी अपने आप, अपनी शैतानी और अपनी कमजोरियों से लोहा ले। भीतर वाला कहता है कि हम तो यह करेंगे और बाहर वाला कहता है कि हम नहीं करने देंगे। इस तरह जो जद्दोजहद होती है और इस जद्दोजहद में जो लड़ाई लड़नी पड़ती है, उसी का नाम तप है। आपका व्यक्तित्व ऊँचा उठाने के लिए आपकी जो बुरी आदतें पड़ी हुई हैं, उन बुरी आदतों को तोड़ने के लिए बुरी आदतों का दमन करने के लिए आपके ऊपर जो अंकुश लगाने पड़ते हैं, उनकी रोक थाम करनी पड़ती है, उसी का नाम तप है।
नहीं साहब! तप करने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। बेटे! तप करने से भगवान को क्या मिलता है? इससे भगवान प्रसन्न नहीं हो जाता। केवल होता यह है कि तप करने से हमारी गंदी आदतें छूटती हैं। बस, जितनी गंदी आदतें छूटती जाएँगी, उतना ही भगवान प्रसन्न हो जाएगा। नहीं साहब! खाना नहीं खाएँगे, तो भगवान प्रसन्न हो जाएगा। क्यों अगर तू खाना नहीं खाएगा तो भगवान को क्या मिलेगा? इसलिए क्या है बेटे! जिस भावी तपस्वी जीवन की योजना को हम कार्यान्वित करने जा रहे हैं, वह हमारे रजत जयंती वर्ष की सबसे शानदार योजना है। हम अपने इसी कुटुंब में से हजारों की तादाद में परिव्राजक निकालेंगे। उनकी क्या विशेषता होगी? पहली विशेषता होगी उनका तपस्वी जीवन, जिसकी झाँकी हम कल करा चुके हैं। जिसके बारे में हमने कल केवल लोकाचार और मर्यादा वाला हिस्सा बताया था। दृष्टिकोण वाला हिस्सा, अंतरंग वाला हिस्सा नहीं बताया था। आपको अपने भीतर वाले की किस तरीके से तोड़-फोड़ करनी पड़ेगी, यह स्थायी विषय की बात है और यह तब की बात है, जब आप हमारे पास रहेंगे। तब हम आपके भीतर वाले हिस्से को हथौड़े से तोड़कर फिर नया ढालेंगे।
ज्ञान बनाम व्याख्यान
मित्रो! अभी तो हमने मर्यादा बताई थी, शिष्टाचार बताया था, लोकाचार बताया था, पंचशील बताए थे। वह केवल मर्यादा थी, कानून थे, व्यवस्था थी। यह केवल कानून-व्यवस्था के अंतर्गत पाँच बातें बताई थीं। वह चरित्र संशोधन नहीं था। चरित्र संशोधन के लिए यम-नियमों के लिए हम आपको दावत देंगे और कहेंगे कि आप आइए हमारे साथ रहिए हमारे वातावरण में रहिए। फिर क्या करेंगे? बेटे! हम आपको ज्ञान देंगे। कैसा ज्ञान देंगे? ऐसा जिससे कि आप लोगों को सलाह दे सकने में समर्थ हो सकें। अभी आप लोगों की सलाह नहीं दे सकते। व्याख्या तो कर सकते हैं, पर सलाह नहीं दे सकते। अभी जब आप सलाह देंगे तो गंदी सलाह देंगे, गलत सलाह देंगे। अभी आपका भीतर वाला हिस्सा जब किसी को सलाह देगा तो कैसी सलाह देगा? जैसे आप हैं। आप बढ़िया सलाह नहीं दे सकते, क्योंकि सलाह के समय में आप स्टेज की बात भूल जाएँगे। स्टेज पर खड़े होकर बात कहना अलग है और सलाह की बात अलग है। हमको सलाह देने वाले चाहिए सलाहकार चाहिए। हमको वक्ता नहीं चाहिए सलाहकार चाहिए। हमें सलाह देने वालों की जरूरत पड़ेगी, वक्ताओं की जरूरत नहीं पड़ेगी।
अभी आप गंदी छाप छोड़कर आएँगे
इसलिए क्या करना चाहिए? सलाह देने लायक आपकी अक्ल कैसे विकसित की जा सकती है? कौन सी परिस्थितियों में क्या सलाह दी जा सकती है और किस तरह से दी जा सकती है? यह सारा का सारा शिक्षण ब्रह्मविद्या कहलाता है। हम आपको अगले दिनों ब्रह्मविद्या भी सिखाएँगे और ब्रह्मविद्या सिखाने के साथ-साथ तपस्वी जीवन जीने तथा बाहर समाज के कार्य करने के लिए भेजेंगे। नहीं साहब! पहले भेज दीजिए। नहीं बेटे! पहले भेजने से तो मुसीबत आ जाएगी। पहले आप जाएँगे तो जो चीज आपके पास है, वही बिखेरते हुए जाएँगे। क्या चीज बिखेरते जाएँगे? बेटे! एक गंदी कहावत है-एक थी छछूँदर। उसने सिर पर चमेली का तेल लगा लिया। चमेली का तेल इसलिए लगाया था कि सुगंध फैलाकर आऊँगी। सेंट लगाकर वह इसलिए गई थी कि सारे घर को, कमरों को सुगंधित बनाकर आऊँगी, पर वह क्या करती गई? उसने छू-छू की आवाज करना शुरू कर दिया और सारे का सारा कमरा गंदा कर दिया। फिर क्या हुआ? लोगों ने कहना शुरू कर दिया-'' अजब तेरी कुदरत, अजब तेरा खेल। छछूँदर के सिर पर चमेली का तेल। '' छछूँदर कौन? हम और आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, छछूँदरपन फैलाएँगे और उसके ऊपर गंदी छाप छोड़कर आएँगे। अपने रहने के बाद जब वहाँ से चलेंगे तो वह परंपरा छोड़कर आएँगे, वह किस्सा छोड़कर आएँगे, वह कहानी छोड़कर आएँगे, वह स्मृतियाँ छोड़कर आएँगे, जिससे आदमी याद करता रहे कि किसी और को बुलाना हो तो बुला लेना, पर शान्तिकुञ्ज के वानप्रस्थियों को मत बुला लेना।
हर आदमी परिव्राजक
इसलिए मित्रो! इस समय हम नया प्रयोग आरंभ करते हैं; क्योंकि इस समय हमको बहुत जल्दी पड़ी हुई है। क्या जल्दी पड़ी हुई है? जिस तरीके से जब युद्ध होता है, तो जवान आदमी मारे जाते हैं और स्कूलों से अठारह वर्ष से अधिक उम्र के सब बच्चे भरती कर लिए जाते हैं। उनको पंद्रह-पंद्रह दिन में निशाना लगाना सिखाकर मिलिटरी में भेज दिया जाता है कि जाइए दुश्मन का मुकाबला कीजिए। मोर्चे पर ऐसे ही भेज देते हैं। बेटे! फिलहाल हम भी यही कर रहे हैं। आपका शिक्षण नहीं हुआ, आपको तपाया नहीं गया, आपको मजबूत नहीं बनाया गया, इसलिए आपको काम भी उसी स्तर का सौंपते हैं। नहीं साहब! कठिन काम सौंप दीजिए? नहीं बेटे! कठिन काम आप नहीं कर पाएँगे। कठिन काम करने के लिए कुमारजीव के तरीके से वहाँ भेज दें। कहाँ? चाइना, तो आप रोकर के भागेंगे। नहीं साहब! हमें नेता बना करके भेज दीजिए। नहीं बेटे! हम नेता बनाकर किसी को नहीं भेजते हैं। हम परिव्राजक भेजते हैं और भविष्य में हमारे प्रत्येक कार्यकर्ता को परिव्राजक होना पड़ेगा। हरेक को हम परिव्राजक बनाएँगे। मिलिटरी में जो व्यक्ति काम करते हैं, वे सभी '' मिलिटरीमेन '' होते हैं। उसमें जो इंजीनियर होता है, वह भी मिलिटरीमेन होता है। हर आदमी को बंदूक चलानी पड़ती है। हर आदमी को मिलिटरी के कपड़े पहनने पड़ते हैं। हर आदमी को लेफ्ट-राइट करना पड़ता है। आपमें से हर आदमी आज से परिव्राजक है।
नहीं साहब! हम तो वक्ता हैं। आप वक्ता नहीं हैं। आप पहले परिव्राजक हैं। जरूरत पडी़ तो हम आपको वक्ता भी बना सकते है, लेकिन अगर जरूरत नहीं पड़ी तो आपको वही परिव्राजक की भूमिका निभानी पड़ेगी। बेटे! अगले दिनों के लिए हमारे लंबे चौड़े ख्वाब हैं। इस समय वर्तमान के काम बताइए? वर्तमान में तो छोटा सा काम है। अभी फिलहाल हम आपको पंद्रह-पंद्रह दिनों के लिए छोटी सी ट्रेनिंग दे करके भेजते हैं, ताकि देखें कि आप कुछ करने की स्थिति में हैं कि नहीं? नहीं साहब! ज्यादा समय के लिए भेज दीजिए। ज्यादा समय के लिए नहीं भेजेंगे। ज्यादा समय के लिए भेजेंगे तो तेरी पोल खुल जाएगी। पंद्रह दिन तक तो अपनी भलमनसाहत को छिपाए भी रहेगा, लेकिन ज्यादा दिन रह गया तो नंगा हो जाएगा और लोग तेरे बाल उखाड़ लेंगे। इसलिए पंद्रह दिन के लिए-पंद्रह दिन के लिए जाएगा, तो किसी को यह पता नहीं चलेगा कि तू अच्छा है या बुरा है। फिर तुझे भी अभ्यास हो जाएगा कि जनता कितनी सावधान हो गई है, जागरूक हो गई हैं। अभी तो तू जानता है कि जनता बुद्धू होती है। स्टेज पर जाकर बैठ जाएगा और अपने सारे पैमानों को छिपा लेगा।
लोकसेवी को कैसा होना चाहिए?
इसलिए क्या करना पड़ेगा? यही व्यावहारिक शिक्षण करने के लिए आपको पंद्रह दिनों के लिए हम भेज रहे हैं, ताकि आप यह जान सकें कि आपको जनसंपर्क कैसे करना चाहिए? बातचीत कैसी करनी चाहिए? लोगों के सामने कैसे विचार व्यक्त करना चाहिए? लोगों के ऊपर अपने चरित्र की छाप कैसे डालनी चाहिए? लोकसेवी को किस तरीके से बोलना चाहिए? लोकसेवी को किस तरीके से अपना आहार-विहार बनाना चाहिए? लोकसेवी को किस तरीके से अपनी मर्यादा का पालन करना चाहिए? लोकसेवी की दिनचर्या किस तरह की होनी चाहिए? अगर हम आपको बाहर न भेजें, तो यहाँ कैसे सिखा सकते हैं? यहाँ लोकसेवी थोड़े ही रहते हैं। यहाँ तो हमीं लोग रहते हैं, तो हमें क्या सिखाएँगे? बाहर वालों को सिखाने और सीखने के लिए आपको व्यावहारिक क्षेत्र में ही जाना पड़ेगा। पानी में तैरे बिना तैरना नहीं सीखा जा सकता। पानी में घुसे बिना तैरना नहीं आ सकता। जनता में जाए बिना आप लोक-शिक्षण की प्रक्रिया को नहीं सीख सकते। इसलिए आपको पंद्रह दिन के लिए भेजते हैं।
वातावरण निर्माण हेतु महापुरश्चरण
गुरुजी! आप किस काम के लिए भेजते हैं? बेटे! इस समय एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। एक कार्य हमारा यह है इस वर्ष को जिसको हमने रजत जयंती वर्ष कहा है, इसमें हमने एक महापुरश्चरण आरंभ किया है। महापुरश्चरण किस काम के लिए? महापुरश्चरण करने का उद्देश्य इस वातावरण को, एन्वायरनमेंट को परिष्कृत करना है। हवा, वातावरण अनुकूल न हो तो हमारे प्रयास सफल नहीं हो पाते। अगर वर्षा के समय ठंडक न हो, तो खेतों में जो बीज हम बोते हैं, वह सफल नहीं हो पाता। गरमी में गेहूँ बो दें तो यह सफल नहीं होगा। बरसात में अनाज बोएँ तो सफल हो जाएगा। क्या बात है? बेटे! मौसम अनुकूल होगा तो बात बन जाएगी। हवा अनुकूल होती है तो नावें पीछे से आगे की ओर धकेलती जाती हैं। अगर हवा सामने की होती है तो साइकिल को चलाते हैं, तो पैर भी दुखते हैं और घंटे भर में चार मील भर की चाल पकड़ती है, अगर पीछे वाली हवा हो, तब जरा सा पैर मार दिया और साइकिल भागती हुई चली जाती है, पता भी नहीं चलता और खट पहुँच जाते हैं। मैं क्या बात कह रहा हूँ? वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए जो काम हम करने वाले हैं, उसके लिए हम और आप प्रयत्न तो करेंगे ही, परिश्रम तो करेंगे ही, मेहनत तो करेंगे ही, लेकिन मानवीय प्रयत्न और मानवीय प्रयास की सीमा और मर्यादा है। इसके लिए आवश्यक है कि वातावरण होना चाहिए।
मित्रो! वातावरण की शक्ति को यहाँ तो मैं नहीं बता सकता, लेकिन वातावरण की शक्ति के बारे में आपको जो अंक दिया है, उसमें हमने लिख दिया है। वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए आध्यात्मिक प्रयासों का क्या महत्त्व हो सकता है? इसे अगले किसी व्याख्यान में बताऊँगा। अभी तो वातावरण को कैसे अनुकूल किया जाता है और जरूरत क्यों पड़ती है, इसे बताऊँगा। वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए हमारे प्रयत्न भौतिक प्रयत्नों से कम नहीं, ज्यादा मूल्यवान हैं। इन दिनों हम वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। कैसा प्रयत्न कर रहे हैं? देख बेटे। पाण्डिचेरी के अरविन्द घोष विलायत गए। विलायत से पढ़ने के बाद उन्होंने कहा कि हम हिंदुस्तान को आजादी दिलाएँगे। पहले वे बड़ौदा वाले दीवान के यहाँ नौकरी करते रहे। राजाओं से संपर्क बनाया और उनको संगठित करने की कोशिश की कि इनको अँगरेजों के खिलाफ खड़ा करें और हिंदुस्तान को आजादी दिलाएँ। इसमें सफलता न मिली तो कहाँ चले गए? वहाँ से वे कलकत्ता चले गए और वहाँ उन्होंने एक नेशनल कॉलेज खोला, ताकि नवयुवकों को शिक्षण दे सकें। शिक्षण दे करके उन्हें देश का कार्यकर्ता बनाएँ! नवयुवकों ने शिक्षा ग्रहण की और जब तक पढ़ते रहे, तब तक हाँ-हाँ करते रहे। बिना फीस जमा किए पढ़ भी लिए लेकिन जब पढ़-लिखकर तैयार हुए तो सब भाग गए। किसी ने कहा कि हमको नौकरी करनी है तो किसी ने कहा कि हमको शादी करनी है। सब भाग गए एक भी नहीं रहा।
श्री अरविन्द का तप-जन्मा एक चक्रवात
अरविन्द घोष को इससे बड़ी निराशा हुई कि इतना परिश्रम भी किया। इतना पैसा भी खरच किया। इतनी उम्मीदें भी लगाई और वे किसी काम भी नहीं आए। अंततः उन्होंने फिर से क्रांतिकारी पार्टी बनाई। बम चलाने का सिस्टम बनाया। उनके बड़े भाई को फाँसी हो गई। उस जमाने के एक बहुत बड़े वकील ने अपनी वकालत के जरिए किसी तरीके से उन्हें फाँसी के तख्ते से बचा लिया था। बचाने के बाद अरविन्द घोष पाण्डिचेरी चले गए। पाण्डिचेरी में क्या करने लगे? वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए उन्होंने तप प्रारंभ कर दिया। तप करने से क्या हुआ? तप करने से बेटे उन्होंने हिंदुस्तान के सारे वातावरण को इतना गरम कर दिया कि उस गरमी में से ढेरों के ढेरों साइक्लोन पैदा होने लगे। साइक्लोन किसे कहते हैं? चक्रवात को। चक्रवात किसे कहते हैं? बेटे! गरमी के दिनों में गाँवों में धूल का अंधड़ आता है और गोल-गोल घूमता हुआ ऊपर को चला जाता है। अँगरेजी में इसी को साइक्लोन कहते हैं। संस्कृत में चक्रवात कहते हैं। आप लोग क्या कहते हैं, मालूम नहीं है। हमारे यहाँ गाँवों में इसे भूत कहते हैं। इन भूतों में बड़ी ताकत होती है और वे छप्पर उखाड़कर फेंक देते हैं। पेड़ों को उखाड़ देते हैं। ऐसे ही इन्होंने वातावरण को इतना गरम कर दिया और इतने भूत पैदा कर दिए किं उन्होंने छप्पर फाड़ डाले और न जाने क्या से क्या कर दिया। हिंदुस्तान की तवारीख (इतिहास) है कि जिन दिनों गाँधी जी पैदा हुए थे, उन दिनों इतने महापुरुष इस भारतभूमि में पैदा हुए कि जिनका मुकाबला नहीं हो सकता।
तब बना था वातावरण
मित्रो दुनिया में नेता तो बहुत हुए हैं, पर महापुरुष नहीं हुए। उस जमाने में नेता नहीं थे, महापुरुष थे। मालवीय जी राजनीतिक नेता नहीं थे, महापुरुष थे। गाँधी जी नेता नहीं थे, महापुरुष थे। और भी दूसरे बड़े आदमी, जैसे लोकमान्य तिलक नेता नहीं थे, महापुरुष थे। ऐसे-ऐसे कितने ही महापुरुष हुए थे, जिन्होंने हिंदुस्तान का कायाकल्प कर दिया। भारतभूमि के जनमानस को ऊँचा उठाने वाले, अँगरेजों से लड़ने वाले इतने नेता बुनकर तैयार हो गए। इसके लिए क्या करना पड़ा? उन्होंने एक काम किया था तप किया था और तप से वातावरण को गरम किया था। जब तक देश का वातावरण गरम रहा, तब तक महापुरुष पैदा होते रहे और बड़ा काम होता रहा। बेटे! अब तो अच्छी परिस्थितियाँ हैं, उस जमाने में तो कितनी रुकावटें थीं? अब तो कोई रुकावट भी नहीं है, लेकिन अब तप का गरम सा वातावरण ठंडा हो गया है। इसकी वजह से वे सब लोग, विशेषकर उस जमाने के लोग जो बढ़ चढ़कर त्याग बलिदान करते थे, इनमें से कितने ही जिंदा भी हैं उनके बारे में आप रोज अखबारों में पढ़ते है। भारत का नेतृत्व तब भी कांग्रेस करती थी, अब भी कर रही है। कांग्रेस वही है। खंडों में हो गयी, तो क्या जनता पार्टी में चली गई तो क्या? और प्रजा पार्टी में चली गई तो क्या? सोशलिस्ट में चली गयी तो क्या? इंदिरा कांग्रेस में चली गई तो क्या? पुरानी कांग्रेस में चली गई तो क्या? वही लोग हैं। वही सब छाये हुए हैं। फिर वही सब लोग ठंडे हो गए। यह क्या हो गया? पुराने इतिहास और नए इतिहास में क्या फर्क पड़ गया?
हम बनाएँगे नया वातावरण
मित्रो जो हवा थी, वातावरण था, वह ठंडा हो गया और दूसरे तरह की हवा आ गई। हम उसी हवा को गरम करने का प्रयत्न कर रहे हैं और आप लोगों को भी उसी काम को करने के लिए लगा रहे हैं। युग निर्माण योजना के बहिरंग कार्यक्रम भी हमारे पास हैं, लेकिन बहिरंग कार्यक्रम का समय अभी नहीं है। अभी वातावरण को गरम करना आवश्यक है। वातावरण को गरम करने के लिए इस वर्ष हम एक महापुरश्चरण आरंभ कर रहे हैं, जिसे खंडों में बाँट दिया गया है। एक पुरश्चरण हमने किया था चौबीस साल का। हमारा वह पुरश्चरण पूरा हो गया, जिसकी पूर्णाहुति के लिए हमने एक हजार कुंड का यज्ञ किया था। वह हमारा व्यक्तिगत प्रयत्न था। अब क्या कर रहे हैं? अब सारे के सारे विश्व के वातावरण को गरम करने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं और यह प्रयास कर रहे हैं कि इसमें आपको भी काम करने का मौका मिले। सावधानी यह रखनी है कि आप लोगों की नीयत और ईमान सही हो। आप लोग जिस क्षेत्र में काम करने के लिए जाएँ उसमें पीठ पीछे मालूम पड़ना चाहिए कि हवा गरम हो रही है और आपको सहयोग मिलता जा रहा है। ऐसा वातावरण बनाने के लिए जनमानस को पलटने के लिए हम एक गायत्री महापुरश्चरण आरंभ कर रहे हैं।
यज्ञ का विज्ञान सिद्ध करेंगे
यह महापुरश्चरण कैसा है? आप सबने अखबारों में पढ़ा होगा। तो क्या पच्चीस कुंडीय यज्ञों के माध्यम से पुरश्चरण होगा? यज्ञ नहीं बेटे! पुरश्चरण। यज्ञ और पुरश्चरण क्या फर्क पड़ता है? बेटे! अब तक जो हमारे यज्ञ थे, वे प्रशिक्षण और प्रचार, दो उद्देश्यों के लिए होते थे। लोगों को भारतीय संस्कृति के माता पिता की जानकारी कराने के लिए प्रशिक्षण और प्रचार के अब तक के यज्ञ होते रहे हैं। अब क्या है? अब सामर्थ्य वाले यज्ञ होंगे। अब आगे क्या करेंगे? अब हमारे पास दो उद्देश्य हैं। एक तो यज्ञ की वैज्ञानिकता को सिद्ध करना है, जिसमें आप सिद्धि और चमत्कार ढूँढ़ते हैं। जिस सिद्धि और चमत्कार के लिए आप यज्ञ करते हैं, वह काफी नहीं हो सकता। उसके लिए विशेष चीजों की जरूरत होगी। समिधाएँ अलग चाहिए। समिधाएँ ही नहीं, वरन व्यक्तियों ने किस पेड़ पर से कब, किस तरीके से उन्हें तोड़ा और उनके अंदर कैसे संस्कार भर दिए? हवन के लिए जड़ी−बूटियाँ आप बाजार में से नहीं ला सकते। जिस तरह से आप यज्ञ के लिए किसी मंत्र से अभिमंत्रित करके जल लाते हैं, उसी तरह जड़ी-बूटियाँ भी अभिमंत्रित करके लानी पड़ती हैं। सामग्री भी अभिमंत्रित करके लानी पड़ेगी और जो आदमी हवन करने वाले होंगे, उनको भी संस्कारित करना पड़ेगा। उनको क्या करना पड़ेगा? इतने दिनों तक आपने उपवास किया है कि नहीं किया है, ब्रह्मचर्य रखते हैं कि नहीं। बेटे! वे सामर्थ्य वाले यज्ञ हैं, बरसात कराने वाले यज्ञ हैं, संतान देने वाले यज्ञ हैं, शांति देने वाले यज्ञ हैं। वे अलग होंगे। इसके लिए हम अलग प्रयत्न कर रहे हैं।
धार्मिक मर्यादाएँ-वैज्ञानिक मान्यताएँ
मित्रो! इसके लिए हमारा अलग शोध-संस्थान खड़ा हो रहा है। अभी तक हम क्या करते रहे? प्रचार के लिए प्रशिक्षण के लिए यज्ञ करते रहे। दुकान पर से समिधाएँ ले आइए टाल पर से ले आइए और दुकानदार से पूछना कि आम की है? अच्छा महाराज जी! आम की समिधा मिल जाएगी। बेटे! जिसकी दे, उसी की ले आना और चीर-फाड़कर हवन कर देना। तो फिर वह जो सामर्थ्य की बात थी, वह आएगी? नहीं बेटे! इससे नहीं आएगी। अब आप क्या कर रहे हैं? अब हम पुरश्चरण कर रहे हैं। इसे इस वर्ष से हमने प्रारंभ कर दिया है। पुरश्चरण में जप, जप के साथ हवन अनिवार्य है। हवन के बिना जप पूरा नहीं होता। इस यज्ञ की अपनी मर्यादाएँ हैं, अनुशासन हैं। पिछले यज्ञों में अब तक ऐसा नहीं था। उसमें क्या था? चलिए भाई साहब! यज्ञ में बैठ जाइए। नहीं साहब! हमारे काम में देर हो जाएगी। नहीं साहब! देखिए एक पारी बीस मिनट में खतम हो जाती है। इतने में क्या देर हो जाएगी। हवन से कुछ फायदा होता होगा, तो जरूर मिलेगा। बैठिए तो सही, २० मिनट ही सही। हाथ धोइए और हवन में बैठ जाइए। अच्छा साहब! सिगरेट के हाथ तो धो लूँ। हाँ धो लीजिए। सिगरेट के हाथ से हवन मत कीजिए। मोजा पहनकर हवन में बैठ गए। क्यों साहब! यह मोजा कितने दिनों का धुला हुआ है? यह तो छह महीने से धुला नहीं है। छह महीने से इसे पहने हुए हैं। धोती भी धुली हुई नहीं है। अत: धुली हुई धोती पहनिए नहीं तो हवन में नहीं बैठने देंगे। नहीं साहब! इसमें क्या फरक पड़ता है? नहीं बेटे! अब हम इस तरह के यज्ञ नहीं करने देंगे।
पुरश्चरण यज्ञ है यह
मित्रो! इस साल के जो यज्ञ हैं, उनके साथ अब बहुत सी मर्यादाएँ लगा देंगे। अभी तो हमने इसमें केवल यह मर्यादा लगाई है कि जो जप करेगा, उसे ही हवन करने देंगे। गायत्री महापुरश्चरण के ये जो हवन हैं, इनकी विशेषता यह है कि इनमें हवन होने तक के लिए नियमित रूप से जप करने का जो संकल्प करेंगे, केवल वही शामिल हो सकेंगे और कोई शामिल नहीं हो सकेगा। इसके लिए नियमित उपासना अनिवार्य है। यह इसकी रीढ़ है। हवन मुख्य नहीं है, सामग्री मुख्य नहीं है। यह पैसा प्रधान यज्ञ नहीं है। ये जनसहयोग के और श्रद्धा संकलन के यज्ञ हैं। यदि आप श्रद्धा का संकलन कर सकते हैं तो यज्ञ कर सकते हैं। जिन्होंने श्रद्धा का संकलन नहीं किया, उपासक नहीं बनाए तो आपका यज्ञ नहीं हो सकेगा। फिर आप यज्ञ को आगे बढ़ा ले। इसलिए यज्ञ का सारा नियंत्रण हमने अपने हाथ में लिया हे। यह जीवंत यज्ञ है। यह हमारा पुरश्चरण यज्ञ है। हमारे गुरुदेव ने हमको पुरश्चरण का संकल्प दिया था और अब हम आपके हाथ में पुरश्चरण का संकल्प देते हैं और आपको दो दो की टोलियों में वहाँ भेजते हैं, जहाँ आयोजन हो रहे हैं।
लाभ क्या होंगे?
मित्रो! यह जो पुरश्चरण हो रहा है, उससे क्या फायदा होगा? पुरश्चरण से कई फायदे होंगे। एक फायदा तो अभी हमने आपको बताया है कि इससे वातावरण का संशोधन होगा। एक फायदा यह होगा कि हमारा गायत्री परिवार जो छोटा सा था, अब हमारा मन है कि इस वर्ष हम लंबी छलाँग लगाएँगे। इस वर्ष २४ लाख नए कार्यकर्ता बनाने का हमारा प्लान है। एक बार वे पकड़ में आ गए तो भूत के तरीके से हम उनका पिंड छोड़ने वाले नहीं हैं। एक बार वह गायत्री परिवार का हो जाए तो फिर या तो वह नहीं या फिर गायत्री नहीं है। दोनों में से एक रह सकता है। हमारी बड़ी महत्त्वाकांक्षा है कि अब गायत्री माता को वेदमाता नहीं, विश्वमाता होना चाहिए। पहले गायत्री वेदमाता थी, जब चारों वेद बने थे। फिर देवमाता हो गईं। इस भारतभूमि का प्रत्येक नागरिक जनेऊ पहनने के समय पर गायत्री मंत्र लेता था। उसके बाद उसके चरित्र में ऐसा सुंदर निखार आता था कि प्रत्येक आदमी देवता कहलाता था। इस भारत के निवासी तैंतीस कोटि देवता कहलाते थे। तब गायत्री देवमाता थी। अब क्या होने जा रही हैं? अब बेटे! प्रज्ञावतार होने जा रहा है। प्रज्ञावतार क्या है? कभी बताऊँगा, पर आज मैं कहता हूँ कि अब गायत्री माता विश्वमाता होने वाली हैं। भविष्यवाणी तो मैं नहीं करता, परंतु मेरा अपना विश्वास है इसके लिए २२ साल काफी होने चाहिए। यह सन् १९७८ है। २२ वर्ष बाद मन २००० आने वाला है, सन् २००० तक हम यह छलाँग मारेंगे और इसको विश्वमाता बनाने में सफल होंगे। गायत्री माता विश्वमाता बनेंगी। फिर बीस-बाईस वर्ष और लगेंगे स्थूलजगत में सतयुगी परिवर्तन आने हेतु। अत: अभी इंतजार तो करना ही होगा। बीज २००० तक डल जाएँगे।
गायत्री व यज्ञ सबके
मित्रो! नया युग, जो आने वाला है; नया संसार; जो आने वाला है; नया समाज, जो आने वाला है नया मनुष्य जो आने वाला है और उसके भीतर जो देवत्व का उदय होने वाला है और धरती पर स्वर्ग का अवतरण होने वाला है। इसके लिए सारे विश्व में गायत्री का आलोक, सविता का आलोक फैलने वाला है। हिंदुस्तान में? केवल हिंदुस्तान में नहीं, वरन सारे विश्व में ब्राह्मण में ही नहीं वरन पूरे मानव समाज में, जिसमें मुसलमान भी शामिल हैं, ईसाई भी शामिल हैं, सबमें गायत्री का प्रकाश फैलने वाला है। तो आप सबको गायत्री पढ़ाएँगे? हाँ बेटे! सबको पढ़ाएँगे। सूरज सबका है, चंद्रमा सबका है, गंगा सबकी है, हवा सबकी है, इसी तरह गायत्री भी सबकी है। गायत्री का जाति-बिरादरी से कोई ताल्लुक नहीं है। वह वेदमाता है, देवमाता है और विश्वमाता है। अगले दिनों इसको विश्वमाता तक पहुँचाने में हमारे जो पुरश्चरण हैं और इसमें जो सामर्थ्य है, इससे हम जनमानस को जाग्रत करेंगे। निष्ठावानों की संख्या बढ़ाएँगे। वातावरण को गरम करेंगे। गायत्री यज्ञों के माध्यम से हम लोक-शिक्षण करेंगे। गायत्री के माध्यम से हम लोगों को नई विचारणाएँ देंगे। गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षरों की हम व्याख्या करेंगे और मनुष्य जीवन से संबंधित पारिवारिक जीवन, शारीरिक जीवन, मानसिक जीवन, भौतिक जीवन, हर तरह का जीवन-शिक्षण करेंगे। गायत्री में विचारणाओं का शिक्षण करने की पूरी-पूरी गुंजाइश है और क्या करेंगे? अगले दिनों यज्ञ का शिक्षण करेंगे। लोक-शिक्षण के दो आधार हैं—पहला है विचारों का परिष्कार और दूसरा है कर्म में शालीनता। व्यक्ति के जीवन में शालीनता, सज्जनता और शराफत, सामाजिक जीवन में श्रेष्ठ परंपराएँ अर्थात जीवन को श्रेष्ठ बनाना और समाज को परिष्कृत करना। विचार ऊँचे करना और अच्छे करना, यही प्रमुख लोक-शिक्षण है जिसे हम गायत्री और यज्ञ के माध्यम मे करेंगे। आज की बात समाप्त।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥