उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
मनुष्य का जीवन अनेक दिव्य संभावनाओं का प्रवेश द्वार है। इस सत्य से अवगत होने के बाद भी अनेकों लोग इस सुरदुर्लभ मानवीय जीवन को एक बोझ की तरह जीते देखे जाते हैं। उन्हें मानवीय जीवन की गरिमा का बोध कराने के लिए युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव अपने इस विशिष्ट उद्बोधन में कहते हैं कि हमें मानवीय जीवन की महत्ता को समझने की आवश्यकता है। ये जीवन क्षणभंगुर है। जब तक जीवन जीने के सही तरीके का बोध हो पाता है, तब तक चलने का समय आ जाता है। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि मनुष्य जीवन की गरिमा को सार्थक बनाने के लिए गायत्री उपासना के माध्यम से आध्यात्मिक जीवन जिया जाता है जिसका मूल उद्देश्य अपनी भावनाओं का परिष्कार है। गायत्री उपासना का अर्थ पूजा, उपासना के छुटपुट कर्मकाण्ड नहीं है वरन् उसका अर्थ अपने जीवन के सच्चे उद्देश्य को प्राप्त करना है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........
जीवन कैसे सँवारें?
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
देवियो, भाइयो! पुराने जमाने की बात है। एक देश में ऐसा रिवाज था कि कोई मनुष्य एक राजा बनाया जाता और उस राजा को पाँच वर्ष तक राज्य करने का मौका दिया जाता। जितनी भी सुविधा चाहे, उठा सकता था। जो भी आनंद चाहे, ले सकता था। लेकिन पाँच वर्ष बाद एक ऐसा बंधन था कि उस राजा को पकड़ ले जाते थे और एक ऐसे द्वीप में छोड़ देते थे, जहाँ न कोई मनुष्य था, न कोई पहाड़ था, न कोई पेड़-पौधा, न कोई घास-पात थी। अकेला प्राणी, अकेला राजा बैठा रहता था। खाने को कुछ नहीं मिलता, पीने को नहीं मिलता, छाया नहीं मिलती और थोड़े दिनों में उस राजा की बुरी तरीके से तड़प-तड़पकर मृत्यु हो जाती थी। ऐसा रिवाज था। बहुत से राजा आये और उन्होंने पाँच साल तक राज्य किया।
पाँच-पाँच साल के राज्य में उनको सिर्फ इस बात का ही ख्याल रहा कि हमको बहुत सारी सुविधाएँ मिलनी चाहिए और हमें बहुत आनंद में रहना चाहिए। रोज सिनेमा, रोज नाच-गाना, रोज मिठाई, रोज पकौड़ी, रोज कैंटीन, रोज चाय आदि में जिंदगी के पाँच वर्ष उन्होंने इस तरीके से खर्च कर दिये। पाँच वर्ष बाद जब उनके जाने का वक्त आया, तो वे बहुत रोये, बहुत चिल्लाये। उन्होंने कहा कि हमारा भविष्य बहुत अंधकारमय है और हमको जंगल में रहना पड़ेगा। हमको पानी भी नहीं मिलेगा, भोजन भी नहीं मिलेगा और हमारी बुरी तरह से मौत हो जाएगी। यह कह करके वे रोते-चिल्लाते, लेकिन आदमी उसे घसीट ले जाते और उसी बियाबान जंगल में उसे छोड़कर चले आते। बहुत सारे मनुष्य, बहुत सारे राजा, इसी प्रकार से मर गये। उनकी हड्डियाँ उस बियाबान द्वीप के जंगल में ऐसे ही पड़ी हुई थीं।
मित्रो! एक समझदार राजा आया। उसने कहा—भाई! हमको पाँच साल के लिए राज्य मिला है और पाँच साल बाद हमको और कहीं जाना पड़ेगा, कहीं और रहना पड़ेगा, उसने सोचा कि कहाँ जाना पड़ेगा और कहाँ रहना पड़ेगा? जरा देख करके तो आयें। पहले दिन जब गद्दी मिली, तो वह नदी किनारे गया और नाव-जहाज पर सवार हुआ और उस द्वीप में गया, जहाँ कि पाँच वर्ष बाद उसे जाना था। वहाँ जाकर के उसने एक काम शुरू किया कि जब पाँच साल बाद हमको यहीं रहना है—हाँ, यहीं रहना है। बस, सरकारी खजाने में जो पैसा था, जो सामान था, जो माल था, उन सबकी ढुलाई शुरू कर दी और वहाँ एक महल बनाया। फिर बगीचा लगाया, बस्ती बसाई। फिर वहाँ नौकर रखे, कारखाना शुरू किया।
वहाँ ट्यूबवेल लगवाये और काम चालू करवाया। पाँच साल के भीतर उस सारे-के द्वीप को, जो बियाबान था, सुनसान था, उसे ऐसा सुंदर बना दिया कि जब पाँच वर्ष बाद जाने के दिन आये तो कैलेण्डर देखने लगा। अरे भाई! इस वर्ष को व्यतीत होने में अभी कितने दिन बाकी हैं? लोगों ने कहा कि तीन महीने बाकी हैं। उसने कहा कि तीन महीने पहले हमारी छुट्टियाँ, जो कैजुअल लीव बाकी हो, वह छुट्टी हमको दे दो और हमें जाने दो। उन्होंने कहा—नहीं, आपको पूरे पाँच साल रहना पड़ेगा।
मित्रो! राजा ने फिर कैलेण्डर देखा, तो पता चला कि अभी एक महीना और है। उन्होंने कहा कि भाई! एक महीना पहले जाने दो। हमारी अर्न लीव में से काट लो। लोगों ने कहा कि कैजुअल लीव भी नहीं और अर्नलीव भी नहीं, पूरे पाँच साल आपको यहीं रहना पड़ेगा। राजा पूरे पाँच साल रहा, पाँच साल बाद दूसरे राजा जबकि रोते-चिल्लाते हुए, बेचारे दुःखी होते हुए विदा होते थे, वहीं यह राजा हँसी-खुशी से गीत गाता हुआ, बाजे बजाता हुआ और अपनी बुद्धिमानी का झंडा फहराता हुआ, उस द्वीप में चला गया।
कुछ दिन की जिंदगी—बेहतर जीएँ
मित्रो! यह कहानी बहुत पुरानी है, लेकिन यह वह कहानी है, जो हमारे और आपके जीवन से घनिष्ठ संबंध रखती है। हमको थोड़े दिनों के लिए एक राजा जैसा मौका मिला है और हमको जिंदगी के थोड़े दिन जीने के लिए मिले हैं। इस जिंदगी को किस तरीके से खर्च किया जाय? यह जानना-समझना जरूरी है। हम बेवकूफ राजाओं के तरीके से, जिन्होंने पूरे के पूरे पाँच साल अपनी छोटी-छोटी सुविधाओं का ख्याल करने में व्यतीत कर दिये और जब जाने का वक्त हुआ, तब परेशान हुए। क्या हमको उसी तरह का राजा बनना चाहिए अथवा उस तरह का राजा बनना चाहिए, जिन्होंने कि पूरे-के-पूरे पाँच साल इस तरह सोचा कि हमको आगे भविष्य में जिंदगी भर जहाँ कहीं भी अपना समय गुजारना है, वहाँ के लिए पहले ही अपने लिए सुविधाएँ पैदा कर लें। कच्चे धागे से लटकी हुई तलवार हमारे सिर के ऊपर टँगी हुई है। कह नहीं सकते कि आज हमारे लिए सब कुछ अच्छा है, लेकिन कल क्या होगा? कौन जानता है। अभी हमारा दिल धड़क रहा है, कल हमारी मौत आ जाय, कौन जानता है?
मित्रो! उस राजा को तो इंतजार भी था कि पाँच वर्ष तक उसी राज्य में रहना पड़ेगा, किंतु हम और आप तो उन लोगों में से हैं, जिनको अभी शाम तक का इंतजार नहीं है। साथ ही यह भी पता नहीं है कि शाम तक बैठने के लिए मौका मिलेगा कि नहीं? घीयामंडी—मथुरा में हमारे यहाँ एक किराने की दुकानवाला दुकानदार था। उसी गली में एक खोमचेवाला आया। वह खोमचेवाले के पास गया और बोला—भाई! पकौड़ी देना। चवन्नी की पकौड़ी ली और उसे लेकर अपनी दुकान पर आ ही रहा था कि उसका दिल जोर से धक-धक करने लगा। उसने पकौड़ी दुकान पर रखी और सीने पर हाथ फेरने लगा। नौकर से पानी मँगाया। जब तक वह पानी लेकर आया, तब तक दुकानदार खत्म। मित्रो! मालूम नहीं हम और आप जो, आज यहाँ बैठे हुए हैं, हम लोगों का कल क्या होगा? किसी को पता नहीं। इसलिए हमको समझदार राजा के तरीके से अपना जीवनयापन करना चाहिए।
मित्रो! यह बात मुझे मेरे गुरुदेव ने पैंतालीस वर्ष पूर्व बतायी थी। पैंतालीस वर्ष पूर्व मुझे आत्मज्ञान का शिक्षण गायत्री मंत्र के माध्यम से ज्ञान दिया गया था। गायत्री मंत्र के माध्यम से मुझे गृहस्थ जीवनयापन करने के छोटे-छोटे वह खेल सिखाये गये, जो कि हमारी कन्याओं को उनकी माता सिखाती है। गृहस्थी किस तरीके से चलाना चाहिए, खेल-खिलौनों के माध्यम से कन्या को उसकी माता सिखाती है। छोटे-छोटे गुड्डे-गुड़िया बना करके उसके हाथ में दे देती है और कहती है कि देख, इसकी शादी होगी और इनको इस घर में रहना पड़ेगा। छोटी-चक्की दे देती है और कहती है कि देख चक्की इस तरीके से पीसनी पड़ेगी और देख, चूल्हा जलाना पड़ेगा।
छोटे-छोटे खिलौने लड़की के पास मिल जाते हैं। लड़की मिट्टी की रोटी बनाती है और दूल्हे का ब्याह करती है और गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेलती है। गुड्डे-गुड़ियों का खेल इसलिए खेला जाता है कि बड़ी होकर के, गृहस्थ होकर के, वह अपने गृहस्थ-जीवन के बारे में जानकारियाँ रखे। उसको क्या करना पड़ेगा और क्या नहीं करना पड़ेगा? इस संबंध में उसको कुछ आइडिया हो जाता है, तो लड़की अपने गृहस्थ में असुविधा अनुभव नहीं करती। गुड्डे-गुड़ियों के खेल के द्वारा वह बहुत कुछ सीख जाती है।
गायत्री उपासना से आध्यात्मिक शिक्षण
मित्रो! ठीक उसी प्रकार गायत्री उपासना के और दूसरे कर्मकाण्डों के माध्यम से हमको आध्यात्मिक भूमिका में प्रवेश करने का शिक्षण दिया जाता है। हमारे ये कर्मकाण्ड आध्यात्मिक भूमिका में प्रवेश करने के लिए मोटे-मोटे प्रशिक्षण हैं और वे तौर-तरीके हैं, जिनके द्वारा हमको वह शक्ति और शांति प्राप्त करने का मौका मिल जाता है, जो हमारे अंतरंग में छिपी हुई है और जिनको हम भावनाओं द्वारा परिष्कृत कर सकते हैं। भावनाओं के द्वारा हम अपने अंतरंग को परिष्कृत कर सकते हैं। तब हमको आध्यात्मिकता के पूरे-के-लाभ मिल सकते हैं।
अगर हमारी समझ में यह बात न आये कि हमारे अंतरंग में भगवान का महानतम प्रकाश विद्यमान है और उसको जगाने के लिए, हमको उत्कृष्ट भावनाओं की जरूरत है, तो फिर हमारे कर्मकाण्डों का कोई ज्यादा मूल्य नहीं रह जाता। मेरे गुरुदेव ने मुझे कर्मकाण्ड पहले ही चरण में सिखा दिये। गायत्री महामंत्र का शिक्षण, गायत्री महामंत्र की उपासना विधि बहुत ही सरल मालूम पड़ी। मुझे तब बहुत अचंभा हुआ और बहुत हैरत भी हुई कि गायत्री मंत्र का महत्त्व जैसा कि मेरे गुरुदेव ने बताया है कि यह अमृत है। जैसा कि मेरे गुरुदेव ने बताया है कि यह पारस है। जैसा कि मेरे गुरुदेव ने बताया है कि यह कल्पवृक्ष है। जैसा कि मेरे गुरुदेव ने बताया है कि यह कामधेनु है। जैसा कि मेरे गुरुदेव ने बताया है कि गायत्री के पाँच मुख हैं और इनमें से पाँचवाँ मुख ब्रह्मास्त्र है, जिसको जहाँ भी, जिस पर भी हथियार की तरह प्रयोग किया जाएगा, वह चूर-चूर हो जाएगा।
मित्रो! ऐसी कीमती चीज में, ऐसी शक्ति भी हो सकती है। बंदूक से हम शेर का मुकाबला करते हैं और डाकू का मुकाबला करते हैं। तब हमको चोर-डाकू से मुकाबला करने की थोड़ी-सी हिम्मत, थोड़ा-सा मौका मिल जाता है। लेकिन ब्रह्मास्त्र, जो टॉमीगनों से भी, स्टेनगनों से भी महँगा है। मशीनगनों से भी महँगा है और तोप से भी महँगा है। इतना बड़ा ब्रह्मास्त्र इंसान को इतने सस्ते दाम में मिल जाएगा, पहले मुझे शक हुआ।
पहले मुझे विश्वास नहीं हुआ कि गुरुदेव जो मुझे सिखाते हैं, क्या वह सही बात सिखाते हैं या बहका रहे हैं? पहले-पहले मुझे ऐसे ही लगा कि हमें बहकाया जा रहा है। जब उन्होंने यह बात बतायी कि ताँबे का पंचपात्र ले आना और एक चम्मच ले आना और पाँच बार आचमन कर लेना। मुझे यह बताया गया कि ढाई आने की, लकड़ी की एक माला खरीदकर ले आना और घुमाने लगना। गुरुदेव ने हमें बताया कि एक पैसे की खड़िया मिट्टी ले आना और हथेली पर घिसकर तिलक लगा लेना। एक आने की गायत्री माता की तस्वीर ले आना और पूजा चौकी पर रख लेना और धूप-दीप, रोली, फूल चढ़ा लेना। फिर गायत्री माता प्रसन्न हो जायेंगी, शक्ति आ जायेगी, स्वर्ग मिल जायेगा और शांति आ जायेगी।
मित्रो! जब वे इतनी बातें बताने लगे, तो मुझे शक हुआ और मैंने कहा—शायद कहीं बहकाया तो नहीं जा रहा है। ठगने वालों की, ठगने की तरकीब एक ही है कि वे कम दाम में बड़े लम्बे-चौड़े सपने दिखाते हैं। सारी दुनिया में ठगों का एक ही तरीका है। वह क्या है? कम दाम में, कम खर्च में, कम फायदे में वे बड़े लम्बे-चौड़े ख्वाब दिखाते हैं कि तुमको इतना फायदा हो जाएगा। सब ठगों की तरकीब अलग हो सकती है, स्वरूप अलग हो सकते हैं, पर साइंस एक ही है, फिलॉसफी एक ही है कि जिस किसी को ठगेंगे, तो उसको पहले लम्बे-लम्बे सब्जबाग दिखायेंगे और यह बात बतायेंगे कि ये सब्जबाग बहुत छोटे में, आनन-फानन में पूरे हो जायेंगे। बस, सारे ठगों की फिलॉसफी इसी पर टिकी हुई है। जहाँ कहीं भी, जो कोई ठगा जाएगा, इसी बात पर ठगा जाएगा। गवर्नमेंट ने भी ठगी के नेचर को जान लिया है, ठगों की फिलॉसफी को समझ लिया है। इसलिए वह एक रुपये वाले कागज के पन्ने छाप करके लोगों को बहकाती रहती है कि लो भाई लाटरी ले लो। पाँच लाख रुपये ले लो। अकल के अंधे और गाँठ के पूरे लाखों मनुष्य हैं, जो कागज के पन्ने खरीदते रहते हैं।
मित्रो! उन पचास लाख मनुष्यों में से, जिन्होंने कागज के पन्ने खरीदे थे, उनमें से दो, पाँच आदमी ऐसे होते हैं, जिनको लाख, दो लाख, पाँच लाख रुपया मिल जाता है और सारे-के करोड़ों आदमी ऐसे हैं, जो अपनी जेब कटा बैठते हैं। उसके एक रुपये का वे घी खा सकते थे, एक रुपये का दूध पी सकते थे और एक रुपये का काम कर सकते थे। एक रुपये का भिखारी के लिए कुछ इंतजाम कर सकते थे। वह सारा-का रुपया और धन लॉटरी का टिकट खरीदने में चला गया। ठगी इनसान की होती है। ठगी वहाँ होती है, जहाँ जो कोई आदमी कम खर्च में लम्बे-चौड़े फायदा होने की बात सिखा रहा हो, तो समझना चाहिए कि वहाँ कोई जालसाजी होनी चाहिए और ठगी होनी चाहिए। मुझे अपने गुरुदेव पर पूरा शक हुआ कि उन्होंने मुझे इतनी लम्बी-चौड़ी बात सिखाई है। उन्होंने सिर्फ इतना बताया है कि आठ आने का ताँबे का पंचपात्र ले आओ। ढाई आने की लकड़ी की माला खरीद लाओ और ढाई आने की गायत्री माता की तस्वीर खरीद लाओ और वहाँ रख दो। चवन्नी की धूपबत्ती खरीद लाओ और जला दो। फिर हाथ जोड़ो, पाँव छुओ, दंडवत करो और माला घुमाकर चल दो। नहीं, यह ऐसा सस्ता नहीं हो सकता। या तो लाभ गलत है या विधि गलत है। दोनों में से एक बात जरूर है।
कैसे मिलती है सच्ची आध्यात्मिक शक्ति
मित्रो! पहले मेरे मन में संदेह उत्पन्न हुआ। आज से पैंतालीस वर्ष पूर्व मेरे गुरुदेव ने मेरी बात को समझ लिया। मेरे मन की बात को वे समझ गये। उन्होंने आगे वाली बात बतानी शुरू की, उन्होंने कहा—बच्चे हैरान होने की जरूरत नहीं है। मैंने तुझे यह केवल बाहरी उपकरण और बाहरी माध्यम बताये हैं। असली बात, जो काम करना बाकी हैं और आध्यात्मिकता की शक्ति के साथ जो प्राप्त करना बाकी है, वह अलग है। मैंने कहा—वह क्या है? उन्होंने जो बात बतायी, उससे मेरा जी प्रसन्न हो गया और मुझे संतोष हुआ कि मुनासिब कीमत पर मुनासिब चीज बेचने वाली दुकान दुनिया में है और ईमानदारी कायम है और उन्हीं को विद्यमान रहने का हक है। मेरे पास ‘वेस्ट एण्ड वॉच’ कंपनी की एक घड़ी है। ढाई सौ रुपये की है। दस साल हो गये, मुझे मरम्मत नहीं करानी पड़ी, क्योंकि ढाई सौ रुपये की आयी है। दस पैसे की भी घड़ी आती है, जो हमेशा एक ही टाइम देती है और हमेशा साढ़े नौ बजे बताती है। इसमें चाबी भी नहीं लगानी पड़ती। इसकी मरम्मत भी नहीं करानी पड़ती, परंतु इसकी हैसियत, इसकी शान में बड़ा फर्क पड़ता है।
मित्रो! मुझे पहले यही लगा था कि पूजा-उपासना के छुट-पुट कर्मकाण्ड जो बताये जा रहे हैं, उनसे कैसे संभव है, कैसे मुनासिब है कि आदमी उतने लाभ उठा ले, जो कि मुझे बताये गये हैं। लेकिन अगला वाला चरण जो मुझे सिखाया गया। उससे मैं धन्य हो गया और मैं निहाल हो गया और मैंने गायत्री महामंत्र की उपासना के माध्यम को सीखा और मेरे हृदय के कपाट खुलते गये। तब जैसा कि मैंने गायत्री महामंत्र के पहले चरण के संबंध में अपना पहला पाठ और पहला शिक्षण बताया था, मुझे बहुत ही संतोषजनक मालूम हुआ। मैंने उपनिषदों में गायत्री मंत्र के तीन चरणों की तीन व्याख्यायें की हैं। बस, मुझे ऐसा मालूम पड़ा कि संसार में गायत्री मंत्र के तीन चरणों की जो व्याख्या की गयी है, वह अक्षरशः सही हैं।
उपनिषद्कार ने पहली व्याख्या गायत्री महामंत्र के पहले चरण की, की है। उसमें बताया गया है कि ‘‘असतो मा सद्गमय’’। असत् की ओर नहीं, सत् की ओर चल। दो रास्ते हैं—एक बंबई की ओर जाता है और एक कलकत्ते की ओर जाता है। दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं। मील के पत्थर अलग हैं। रास्ते में पड़ने वाले शहर अलग हैं। दोनों की मंजिल अलग हैं। दोनों के मुँह अलग हैं। दोनों के चेहरे अलग हैं। दोनों की राय अलग है। दुनिया में दो रास्ते हैं। एक को कहते हैं—श्रेय और एक को कहते हैं—प्रेय। प्रेय उस चीज का नाम है, जो हमारी इंद्रियों के द्वारा हमको जो सुख मिलते हैं, उससे संबंधित हैं। श्रेय उस चीज का नाम है, जो हमको दिमाग के द्वारा सुख मिलते हैं, उससे संबंधित है।
इंद्रियसुख से मिलता दुःख
मित्रो! दिमाग के द्वारा क्या सुख मिलता है? दिमाग में—जिस तरीके से इंद्रियों में खुजली मचती रहती है, उसी तरीके से दिमाग में भी, मन में भी एक खुजली मचती रहती है। इंद्रियों में दाद है। आपने कभी दाद को खुजाया है क्या? दाद उस चीज का नाम है, जो जख्म जैसी खाज हो जाती है और उसे खुजाने में बड़ा मजा आता है। खुजाने के बाद खून निकलता है और खून निकलने के बाद वह अंग घायल हो जाता है लेकिन खुजाते वक्त बड़ा मजा आता है। उसी बीमारी का नाम है—दाद।
दाद हमारी दसों इंद्रियों के मुँह के ऊपर है, जबान के ऊपर है। जबान के सबसे ऊपर हमारे दाद है। इन्हें खुजाने का ऐसा मन करता है कि न जाने इसमें से क्या चीज खाना चाहिए? पकौड़ी वाले की दुकान पर जाते हैं, तो हमारा मन ऐसा कहता है कि पकौड़ी खानी चाहिए और बहुत मात्रा में खानी चाहिए और जब मिठाई वाले की दुकान पर जाते हैं, तो मुँह में पानी भर आता है, लार टपकती है और मन यह कहता है कि मिठाई खानी चाहिए। दाद जहाँ के तहाँ हैं और निकम्मी इंद्रियों के ऊपर भी एक दाद है, जो खुजाता रहता है और खुजाते वक्त में उससे खून टपकता रहता है। जिस तरह से जो कुत्ता होता है, हड्डियों को चबाता है। हड्डियों को चबाने के वक्त में, उसके जबड़े में खून निकलता है और वह जबड़े वाले खून को पीता रहता है और यह ख्याल करता रहता है कि हड्डी में से बड़ा मजेदार खून निकल रहा है और मैं पी रहा हूँ। हड्डी में से खून निकलता है क्या? नहीं, वह तो लकड़ी के बराबर है और सूखी पड़ी है। उसमें से क्या खून निकलने वाला है? खून तो हमारे भीतर से निकलता है और हम अपने आपको चखते रहते हैं।
मित्रो! इसी तरह कामवासनाओं की आग से क्या हमको कुछ मिल जाता है? नहीं, कुछ भी नहीं मिल जाता। केवल अपना शरीर, केवल अपना तेज, केवल अपना वर्चस्, केवल अपना ब्रह्मतेज, केवल अपनी वाणी की शक्ति, मस्तिष्क की शक्ति, स्मरण शक्ति—सारी-की-सारी शक्तियों को हम कुत्ते की हड्डी के तरीके से चबाते रहते हैं और जब दाद खुजाता है, तो हमको यह मालूम पड़ता है कि न जाने हम क्या नियामत लेकर के आये हैं और न जाने क्या लूट करके ले आये हैं? ‘असत्’ दिन-रात हमारी जिंदगी के ऊपर सवार है और हमारी जिंदगी को नष्ट करता रहता है। लुकमान ने कहा है—आदमी मरने के लिए, अपनी मौत की कब्र अपने जबान की नोंक से खोदता रहता है। हम और आपने ऐसी खूबसूरत जिंदगी पाईं, फिर भी बीमार रहते हैं। खरगोश बीमार नहीं हुए, लोमड़ी बीमार नहीं हुई, जंगल में रहने वाले हिरन बीमार नहीं हुए, मोर और कबूतर बीमार नहीं हुए। केवल एक ही बेवकूफ जानवर दुनिया में है, जो बीमार होता है और बीमारियों को पैसे देकर खरीदता है। बीमारियाँ खरीदने वाले बेवकूफ जानवर का नाम है—इनसान। इनसान बीमारियों से ग्रसित पाया जाता है और यह सारी-की बीमारियाँ उसने अपनी जबान को बेकाबू करके पाई हैं। हकीम लुकमान का कहना सही था। लुकमान का कहना गलत नहीं था। जो आदमी अपनी इंद्रियों पर काबू रखते हैं, कामवासना को काबू में रखते हैं। अपने सारे-के समय और वक्त को पाबंदी से खर्च करते हैं। जिनकी दिनचर्या और जिनकी मानसिक स्थिति ठीक तरीके से बनी रहती है, उनको बीमार पड़ने की जरूरत नहीं पड़ती।
परिश्रमी को नहीं होते रोग
मित्रो! राजा शीलभद्र एक बार एक गाँव में गये। गाँववालों ने राजा की बड़ी खातिरदारी की। राजा ने गाँववालों से कहा कि तुम लोग बड़े भले और नेक आदमी हो। हम तुम्हारे गाँव की बड़ी सेवा करेंगे, गाँव के लिए बड़ा काम करेंगे। गाँववालों ने कहा—अच्छा कीजिए। उन्होंने एक अस्पताल खुलवा दिया। डॉक्टर आया। ऑपरेशन के सारे सामान आये, इंजेक्शन आये, दवाइयाँ आईं और कैप्सूल आये। सब चीज बनकर तैयार हो गई। डॉक्टर आ गया, कम्पाउण्डर आ गया। नर्स आ गयी। सबके सब तैयार हो गये। सब चीजें बनकर तैयार हो गयीं कि अस्पताल चलेगा। डॉक्टर साहब ने सारे दिन इंतजार किया कि कोई मरीज आये और हमको उसका इलाज करना पड़े, ऑपरेशन करना पड़े, जैसे किसी को अपेण्डिक्स हो गया हो, हार्ट ट्रबल हो गया हो लेकिन कोई मरीज नहीं आया। महीना भर हो गया, दो महीने हो गये, तीन महीने हो गये, चार महीने हो गये, बारह महीने हो गये। कोई नहीं आया।
एक दिन राजा ने मुआइना किया कि हमारा अस्पताल बहुत जोरों से चल रहा होगा और गाँववालों को बहुत फायदा हुआ होगा और बहुत से आदमियों के ऑपरेशन हुए होंगे। जा करके देखूँ तो सही। राजा शीलभद्र आये और डॉक्टरों से कहा कि लाइये अपनी फाइलें लाइये और अपने रिकॉर्ड दिखाइये, अपने रजिस्टर दिखाइये। रोज कितने ऑपरेशन हो जाते हैं? डॉक्टर ने कहा—हमारे यहाँ तो कोई ऑपरेशन नहीं होता, कोई मरीज नहीं आता।
राजा डॉक्टर पर झल्लाये और बोले—शायद तुमने लापरवाही की होगी? फिर गाँववालों को बुलाया। उन्होंने कहा—भले आदमी! तुम लोग बड़े निकम्मे मालूम पड़ते हो। हमने अस्पताल खोला, लेकिन तुममें से कोई भी आदमी ऑपरेशन कराने नहीं आता। कोई इंजेक्शन लगवाने नहीं आता। कोई भी कैप्सूल नहीं खाता। बहुत खराब बात है। उन्होंने कहा—महाराज जी। बात यह है कि हम लोग बीमार नहीं पड़ते। राजा ने कहा—यह कैसे संभव है? उन्होंने कहा—यह बात इसलिए संभव है कि हममें से हर आदमी खूब मेहनत करता है। बीमारियाँ आती हैं और हमारे बदन से चिपकना चाहती हैं, लेकिन पसीने के साथ बहकर नीचे टपक जाती हैं।
मित्रो! बीमारियाँ आती हैं, तो वे हमारी जबान के असंयम के कारण आती हैं। जबान के ऊपर संयम रखने, उसके ऊपर काबू रखने, पेट के ऊपर काबू रखने से बीमारियाँ नहीं चिपकतीं। जब हम बीमार होते हैं, तो खाना बंद कर देते हैं। जैसे ही हम खाना बंद करते हैं, तो बीमारी कहती है कि भाई! यहाँ रहना बेकार है। यहाँ खाने को तो मिलता नहीं, रसगुल्ला तो मिलता नहीं, फारचून के बिस्कुट, नमकीन तो मिलता नहीं। यहाँ तो रहना बेकार है। यहाँ से चल देना चाहिए। फिर वह बीमारी वहाँ से चली जाती है और वहाँ जाती है, जहाँ कि फारचून फैक्ट्री के बिस्कुट मिलते हैं। जहाँ बोर्नविटा मिलता है, जहाँ हॉर्लिक्स मिलता है, बीमारी वहाँ चली जाती है और मौज-मजे किया करती है। बीमारी गरीबों के पास क्या करेगी?
मानवीय जीवन का एक ही है लक्ष्य
मित्रो! मैं आपसे यह निवेदन कर रहा था कि मनुष्य के देखने के ढंग और विचार करने के ढंग यदि ऊँचे हो जाते हैं, तो उनका मन पेट के ऊपर से उखड़ जाता है और उनका मन परमात्मा की ओर चला जाता है। मन एक का ही हो सकता है, दो का नहीं। औरत एक की हो सकती है, दो की नहीं हो सकती। मर्द एक का हो सकता है, दो का नहीं हो सकता। लड़की का ब्याह कर दिया। किसके साथ कर दिया? लाला चमनलाल के साथ भी कर दिया और बंशीलाल के साथ भी कर दिया। अरे बाबा! दो के साथ ब्याह क्यों कर दिया? भूल जायेगा तो लड़ाई करेगा और यह कहेगा कि हमारे साथ चल। दूसरा कहेगा कि हमारे घर चल।
एक के साथ ब्याह हो सकता है, दो के साथ नहीं। मनुष्य के जीवन का लक्ष्य एक ही हो सकता है, दो दिशाओं में निर्धारित नहीं हो सकता। प्रेय अगर हमारे जीवन का लक्ष्य होगा, तो श्रेय गौण होगा। अगर हमारे जीवन का लक्ष्य यह है कि हम दुनिया की सुविधाएँ इकट्ठी करें, दौलत इकट्ठी करें, चीजें इकट्ठी करें और हम दुनिया में अपनी ख्वाहिशें पूरी करें और हम दुनिया के ऐशो-आराम इकट्ठे करें तब? तब पूजा−पाठ संभव तो है, नामुमकिन तो नहीं है, लेकिन वह ऐसा हो जायेगा, जैसे कि घर में दूसरे लोगों के देवर, जेठ रहते हैं। नौकर-चाकर होते हैं और घर की स्त्री अपने पति की सेवा करती हैं, बच्चों को खाना खिलाती हैं। उनके साथ व्यवहार अलग होता है।
मित्रो! और दूसरों के साथ? अरे मोहन। तू कहाँ था? तू भी खाले। जी मालकिन! आपने अभी बुलाया कहाँ था? हाँ, ठीक है, यहाँ आ जा। बैठ जा, यहाँ आ और खाना खा ले, तो नौकर को ऐसे खाना खिलाया जाता है और मालिक को? जब अपना पति आता है, तब पंखा झलते हैं, हाथ धुलाते हैं और पैर धुलाते हैं। खाना खिलाते समय बार-बार पूछते हैं कि घी तो कम नहीं है, नमक तो कम नहीं है, गरम मसाला तो कम नहीं है। चटनी तो और नहीं चाहिए? नींबू का अचार लाऊँ क्या? पापड़ तो नहीं चाहिए? इस तरह बहुत तबियत के साथ पूछते रहते हैं और नौकर से कहते हैं कि जो चाहिए सो माँग लेना, तेरा घर है, शरमाना मत। रोटी और शाक चाहिए तो माँग लेना। नौकर को खिलाने में और अपने पति को खिलाने में फरक नहीं है क्या? हाँ फरक है।
दो जगह नहीं लगता मन
मित्रो! आदमी का मन किसमें लगता है? क्या बतायें साहब! आजकल तो हमारा सीलिंग का काम हो गया है और अब हमारे पास दुकानदारी आ रही है। सबेरे से उठते हैं और बारह बजे तक उसी में लगे रहते हैं कि कहीं ऐसा न हो जाय कि हिसाब में गलती पड़ जाय। कहीं ऐसा न हो जाय कि कोई ज्यादा पेमेंट ले जाय। कहीं ऐसा न हो जाय कि बैंक के हिसाब में गलती पड़ जाय। सारा दिमाग उसमें लगा रहता है फिर भगवान का भजन कब करते हैं? हाँ साहब! सबेरे उठते तो हैं, पर क्या करें? भजन में मन बिलकुल नहीं लगता। बेटे! दो जगह मन नहीं लग सकता, लेकिन एक जगह मन लग जायेगा। जहाँ कहीं भी आपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया है, उसमें आपका मन लग जायेगा। दूसरी चीजें, जो गौण होंगी, ठीक है थोड़ा-बहुत मन बहलाव के लिए, तबियत के लिए वह भी काम कर लें, तो कोई हर्ज नहीं है।
हमारे भीतर हैं स्वर्ग व नरक
मित्रो! हमेशा आपकी यह शिकायत रहती है कि हमारा मन नहीं लगता। आपकी यह शिकायत गलत है। आपका मन क्यों नहीं लगता? वजह क्या है? आपका कोई लक्ष्य थोड़े ही है। मन हमेशा एक काम में लगता है, जो जीवन का लक्ष्य है। मेरे गुरुदेव ने पहले दिन मुझे आत्मज्ञान का जो पाठ पढ़ाया, तो उन्होंने यह पाठ पढ़ाया और मुझे बताया कि तुम्हारा गाँव, जहाँ बाकी जिंदगी में तुम्हें रहना है, वह तुम्हारा गाँव या राज्य यह है, जिसको अंतःकरण वाला क्षेत्र कहते हैं।
मरने के बाद में स्वर्ग जाना पड़ता हो, या मरने के बाद कहाँ जाना पड़ता हो? मुझे मालूम नहीं, लेकिन एक दुनिया अलग है, जो मेरे भीतर की दुनिया है। उसको मैं अंतर्मुखी दुनिया कहता हूँ। उसको मैं भावनाओं की दुनिया कहता हूँ। तब यह भी संभव है कि कहीं ऐसी भी जगह हो, जहाँ हम मरने के बाद जाया करते हैं। वहाँ खाने-पीने की चीजें मिला करती हैं, संभव है, ऐसा भी कुछ हो सकता है, पर मैंने देखा नहीं, इसलिए मैं यह कह नहीं सकता।
मित्रो! और नरक? कहीं ऐसा भी होना संभव है कि जहाँ आदमी कोल्हू में चलाया जाता हो, चक्की में चलाया जाता हो, पानी में डुबोया जाता हो, आग में जलाया जाता हो, यह सब हो सकता है, मैं कैसे कहूँ? जो चीज मैंने देखी नहीं, उसके बारे में मैं कैसे कहूँ? लेकिन मैंने एक नरक देखा है और एक स्वर्ग देखा है। बाह्य जीवन में मनुष्य की जो वृत्तियाँ ठहरी रहती हैं, तो आदमी नरक में डूबा रहता है और जब मनुष्य की वृत्तियाँ अंतरंग शक्ति में घूम जाती हैं, मुड़ जाती हैं, तो आदमी स्वर्गलोक में चला जाता है।
स्वर्ग और नरक की दीवारें आपस में बिलकुल मिली हुई हैं। स्वर्ग और नरक बिल्कुल एक ही मोहल्ले में, एक ही गाँव में, एक ही पास में रहते हैं। नरक उस चीज का नाम है—जिसमें कि मनुष्य की ख्वाहिशें और इच्छाएँ बाहरी दुनिया में बनी रहती हैं और आदमी हमेशा यह तमन्ना करता रहता है कि अमुक चीज मिलनी चाहिए, तमुक चीज मिलनी चाहिए और जब वे चीजें नहीं मिलतीं, तो आदमी को बहुत गुस्सा आता है, बहुत नाराजगी पैदा होती है लेकिन जब वे चीजें मिल जाती हैं, तो भी संतोष हो जाता है, ऐसी कोई बात नहीं। जैसे ही वे चीजें मिलनी शुरू हुईं, उससे दूनी और चौगुनी ख्वाहिशें, तमन्नाएँ बढ़ती चली जाती हैं और वे इतनी ज्यादा बढ़ती चली जाती हैं कि आदमी को अंततः जला देती हैं।
मित्रो! तृष्णा अपने आप में एक ऐसी चीज है, जो आदमी को जला देती है। तृष्णा दिमाग की खुजली है। इंद्रियों में खुजली मचती है, जो हमारे जीवन को नष्ट करने के लिए आती है। जीभ में जो खुजली मचती है, हमारे स्वास्थ्य को खाने के लिए आती है। जीभ की खुजली को आप जितना अधिक खुजाते रहेंगे, सबेरे आप जितनी पकौड़ियाँ खायेंगे, दोपहर को आप जितनी चाट खायेंगे और शाम को जितनी मिठाइयाँ खायेंगे, उतना ही अधिक आपका स्वास्थ्य चौपट होता चला जायेगा। जितनी अधिक चीजें आप खायेंगे, खाऊँ, खाऊँ ...... की रट जितनी तेज होती चली जायेगी, उतना आपका शरीर नष्ट होता चला जायेगा। कामेन्द्रिय की इच्छाएँ, जितनी तीव्र होती जायेंगी, यह दाद उतना ही ज्यादा खुजलाता चला जायगा।
ब्रह्मचर्य की शक्ति
मनुष्य के भीतर एक विद्युतधारा रहती है, एक तेज रहता है, एक शक्ति रहती है, जो आँखों में टार्च के तरीके से चमकती है। शेर अपनी माँद में बैठा हुआ होता है, अँधेरे में देखता है। उसकी दोनों आँखें बिजली की टॉर्च की तरीके से चमकती हैं। बिजली के तरीके से, टॉर्च के तरीके से आँखों में चमकने वाली चीज हमारे पास है और उस चीज का नाम है—ब्रह्मचर्य। वह टॉर्चवाली विद्युत हमको कब मिल सकती है? जब हमको अपनी इंद्रियों पर और अपने विचारों पर काबू करना आ जायेगा। टॉर्च की वह रोशनी हमको तब मिल सकती है, जब हम अपनी जबान की नोंक से प्रभावशाली शब्दों का उच्चारण करते चले जायें। तब हमारे शब्द लोगों के हृदय में प्रवेश करते हुए चले जायेंगे।
मित्रो! हमारी आँखें, हमारा चेहरा, हमारी वाणी, हमारी स्मरण शक्ति, हमारा प्रभाव— यह सारी-की चीजें कौन खा जाता है? आप जानते हैं? हाँ, एक दाद खा जाता है और वह दाद है—हमारी कामेन्द्रिय के ऊपर खुजली मचानेवाला। उसने हमारी जिंदगी को खा लिया। बच्चे और बच्चियाँ नौजवान थे, बीस साल के थे, अठारह साल के थे, बाइस-तेईस साल के थे। देखने में ऐसा मालूम पड़ता था कि सबकी आँखें जाकर के उसी पर पड़ती थीं। यह लड़का कैसा खूबसूरत है, यह लड़की कैसी खूबसूरत है? एक-दो साल बाद शादी हो गयी। खेल-तमाशे किये।
खेल-तमाशे के बाद देखा कि आँखों के नीचे गड्ढे में कालिख आ गयी। कमर में दर्द होने लगा, रीढ़ में दर्द होने लगा। याददाश्त कम होने लगी। आँखों में से कीचड़ आने लगा। पेट खराब रहने लगा। सिरदर्द की शिकायत रहने लगी। आखिर यह क्या हुआ? कैसे हुआ? दो वर्ष पहले जो तन सुंदर और स्वस्थ था, जिसका स्वास्थ्य ऐसा श्रेष्ठ मालूम पड़ता था, शरीर बलिष्ठ मालूम पड़ता था, आखिर इसके अधःपतन का जिम्मेदार कौन था? जिम्मेदार था वह दाद, जो हमारे कामेन्द्रिय की नोक पर विद्यमान था और जिसको खुजाने से पहले, हमने यह ख्याल नहीं किया कि यह खुजली हमें बहुत मँहगी पड़ने वाली है।
मन की समस्या—तृष्णा
मित्रो! प्रेम, बाहरी जीवन का प्रेय, जो देखने के समय तत्काल हमको ऐसा मालूम पड़ता है कि शायद यह बड़ा मजेदार है, लेकिन क्या वह सचमुच मजेदार है? नहीं, मजेदार नहीं है। वह हमको नरक की ओर घसीटकर ले जाने वाला है। हमारे दिमाग में भी एक बात है। मन हमारी ग्यारहवीं इंद्रिय कहलाता है और इस मन में भी एक दाद है, एक खाज है। उस दाद और खाज का क्या नाम है? इसका नाम है—तृष्णा। तृष्णा उस चीज का नाम है, जो मनुष्य की आवश्यकता भर की चीजें होने पर भी शांत नहीं होती। उसके भीतर से यह चीजें पैदा होती रहती हैं—कि अभी और ..... अभी और .... अभी और चाहिए। ‘‘अभी और’’ कभी पूरा होगा क्या? नहीं, कभी पूरा नहीं हो सकता। आदमी जानता है कि इन चीजों की हमको जरूरत नहीं है। इसके बिना भी हमारा काम आसानी से चल सकता है, पर तृष्णा की आग न जाने कैसी है, जो कि आगे बढ़ती चली जाती है। आदमी यह जानता रहता है कि तृष्णाओं की पूर्ति में हमारा कीमती और बहुमूल्य समय खर्च होता चला जा रहा है, लेकिन आदमी चूकता नहीं है और उसका मन मानता नहीं है।
मित्रो! गौतम बुद्ध के पास एक लड़की आयी और बहुत जोर से रोने लगी। बुद्ध ने पूछा—क्या बात है, लड़की रोती क्यों है? उसने कहा—पिताजी मुझे बहुत कष्ट है और बहुत दुःखी हूँ। उन्होंने कहा—बच्ची क्यों रोती है, तू बता तो सही, मैं तेरा दुःख दूर करूँगा। उसने कहा—सात वर्ष हो गये, मेरे पेट में बच्चा आ गया। वह न पैदा होता है, न निकलता है, न मरता है, न जिंदा होता है। सात साल से मुझे बड़ा कष्ट है। मेरे पाँवों में सूजन आ जाती है और मुझे बड़ा कष्ट होता है और न जाने क्या-क्या हो रहा है? बस, मैं मरती नहीं हूँ और मेरे सब काम हो जाते हैं।
गौतम बुद्ध ने कहा—बच्ची! हम तुझे आशीर्वाद देंगे और तेरा दुःख दूर हो जायेगा। बस, उन्होंने आशीर्वाद दिया और अगले महीने बच्चा पैदा हो गया। बच्चा भगवान बुद्ध के आशीर्वाद से पैदा हुआ था। बहुत सुंदर था, देखने में खूबसूरत, बड़ा चंचल और बड़ा हँसने वाला था। लड़का धीरे-धीरे बड़ा हो गया, तीन-चार वर्ष का हो गया। बुद्ध भगवान का दुबारा उस गाँव में से निकलना हुआ। उन्हें ख्याल आया कि अरे भाई! यह तो वही गाँव है। कौन-सा? जहाँ एक लड़की आई थी और कहती थी कि सात साल का हमारे पेट में बच्चा है। अब चलो देखें कि उसके बच्चा हुआ कि नहीं हुआ? जिंदा है कि मर गया? उन्होंने कहा—महाराज जी! आप बैठिए, हम बुलाकर लाते हैं।
मित्रो! वे लोग गये और लड़की को बुलाकर लाये। बुद्ध भगवान ने कहा—बच्ची! वह तू ही है, जिसके पेट में सात साल का बच्चा बैठा हुआ था और तेरे पाँव में सूजन आ गई थी और तेरा मुँह सूज गया था और तू मरने को थी। तू वही लड़की है? उसने कहा—हाँ, महाराज जी! मैं वही लड़की हूँ, तो फिर तेरा बच्चा कहाँ है? उसने बच्चे को उनके चरणों में रखा और बोली—यही मेरा बच्चा है। तीन साल का बच्चा था। बहुत अच्छा, बहुत खेलने वाला, बहुत खुश और बड़ा प्रसन्न और आनंदी जीव, कभी देखो तो यहाँ खेलता, तो कभी वहाँ खेलता।
बुद्ध भगवान ने पूछा—अगर ऐसे-ऐसे लड़के तुझे सही में मिलें, तो तू कितनी बार गर्भ धारण कर सकती है? लड़की ने कहा—भगवन्! ऐसे लड़के मुझे मिल जायें तो मैं कम-से-कम पाँच बच्चे और पैदा कर सकती हूँ। इतना कष्ट उठा सकती हूँ और पाँच-सात बच्चे पैदा कर सकती हूँ। बुद्ध ने आनंद को बुलाया और कहा—आनंद। देख, इसको कहते हैं—प्रेय। मनुष्य जानता है, समझता है, लेकिन जानते हुए भी, समझते हुए भी किस तरीके से उस तृष्णा की भावना में घिसटता हुआ चला जाता है। इसी का नाम नरक है और इसी का नाम तृष्णा है।
योगः चित्तवृत्तिनिरोधः
मित्रो! आध्यात्मिक शिक्षण में योगाभ्यास में पहला पाठ हमको यह बताया गया—‘‘योगः चित्तवृत्तिनिरोधः।’’ यहाँ इसका मतलब लोगों ने गलत समझ लिया है। इसका मतलब यह समझ लिया है कि ध्यान एकाग्र हो जाय। ध्यान का एकाग्र होना, न होना कोई खास मतलब नहीं रखता। लोग बार-बार कहते हैं कि ध्यान एकाग्र नहीं होता। अरे बाबा! नहीं होता तो मैं क्या करूँ? सर्कस में कार्य करने वाली लड़कियों का ध्यान एकाग्र होता है। वे तार के ऊपर चलती हैं। तार के ऊपर चलते समय लड़कियाँ अपना दिमागी बैलेंस इतना सही रखती हैं कि जहाँ कहीं भी शरीर हिलता-डुलता है, छाता हाथ में रहता है और वे अपने बैलेंस को मिनटों में संभाल लेती हैं। उनका ध्यान बहुत एकाग्र होता है।
ध्यान एकाग्र न हो तब? सर्कस का खेल दिखाना नामुमकिन है। झूले पर से एक आदमी उछलता हुआ आता है और दूसरे वाले झूले को पकड़ता है। अगर एकाग्रता न हो, यदि यह मालूम न हो कि मेरे शरीर का बैलेंस, मेरी छलाँग और उस झूले का यहाँ तक आना—इसमें कितना फर्क है, तो वह आदमी झूले को नहीं पकड़ सकता है और वह नीचे गिरेगा और उसके दाँत टूट जायेंगे।
मित्रो! एकाग्रता किसको आ गयी? सर्कस में तार पर चलने वाली लड़की को आ गयी, तो क्या वह योगी हो गयी? महात्मा हो गयी? ज्ञानी हो गयी? उसे आत्मसाक्षात्कार हो गया कि नहीं हो गया? कुछ भी नहीं हुआ। एकाउण्टेंट जो बढ़िया वाले हिसाब रखते हैं, सब एकाग्रता वाले होते हैं। एकाग्रता न हो, तो सारा हिसाब गड़बड़ हो जाय। मुझे कई बार हिसाब के नियम बनाने पड़ते हैं, मैं बार-बार भूल जाता हूँ। दूसरा आदमी कहता है कि पंडित जी! जरा-सी देर में मैं हिसाब लगा देता हूँ और झट से आने और पाई का हिसाब लगाकर कहता है कि देखिए हमारी यह गलती हो जाती थी। ठीक है। मालूम पड़ जाता है।
एकाग्रता न हो, तो कुछ बनता-बिगड़ता है क्या? कुछ बनता-बिगड़ता नहीं लेकिन जहाँ योगाभ्यास के लिए बात बतायी गई है, वहाँ चित्त का एकाग्र होना अच्छा तो है, बुरा तो नहीं है, पर उसके ऊपर आत्मा की उन्नति और प्रगति रुकी हुई नहीं है। आत्मा की उन्नति और प्रगति जिस बात पर रुकी हुई है, वह है—‘‘चित्तवृत्तिनिरोधः।’’ चित्त की वृत्तियाँ—क्योंकि शरीर मिट्टी का बना हुआ है, क्योंकि शरीर जड़-प्रकृति का बना हुआ है। चूँकि शरीर का जन्म और शरीर का नेचर, शरीर का हिस्सा और शरीर का प्यार उसी से है, जहाँ से यह पैदा हुआ है। इसलिए खानदान की बात होती रहती है।
मित्रो! लड़कियाँ अपने माँ-बाप का गुण गाती रहती हैं। अजी! हमारे पिताजी बहुत अच्छे हैं और हमारे भैया बहुत अच्छे हैं और हमारी भावज तो बहुत ही अच्छी है। हमारी भावज ने ऐसा किया। वह अपनी तारीफ करती रहती है, अपने मायकेवालों की तारीफ करती रहती हैं और ससुरालवालों की? अजी तुम मालदार हो तो क्या? हमारा बाप गरीब थोड़े ही है। जब कहेगी, तब अपने बाप की प्रशंसा की बात कहेगी। कहाँ? ससुराल में जा करके। इसी तरीके से वह भी एक औरत है, जो अपने मायकेवालों की तारीफ करती रहेगी। जब कभी भी करेगी, उन्हीं की तारीफ करेगी।
हमारा शरीर जिस चीज का बना हुआ है, हमारा मन जिस चीज का बना हुआ है, वह क्या है? हमारा शरीर मिट्टी का बना हुआ है, आग का बना हुआ है, पानी का बना हुआ है या हवा का बना हुआ है। इसलिए दुनिया में जो-जो चीजें हैं, उन चीजों को पाने के लिए यह मन हमारी ओर खिंचाव डालता रहता है, क्योंकि हमारा मन जो है, वह भी उसी का हिस्सा है। यह हमारा प्रेयमार्ग है। इसमें रस्साकशी चलती रहती है।
जीवन है एक रस्साकसी
मित्रो! बच्चों में रस्साकसी होती है। एक रस्सा डाल देते हैं। रस्साकसी होती है, जिसमें थोड़े लड़के इधर हो जाते हैं और थोड़े लड़के उधर हो जाते हैं। खींचातानी होती है, जो समूह जोरदार होता है, वह खींच ले जाता है, बाकी रह जाते हैं। जीवन भी एक रस्साकसी है। इसमें एक है—हमारा प्रेय। प्रेय की ओर हमारी यह दसों इंद्रियाँ हैैं। पाँच तत्त्व इसके अंदर हैं। एक मन है। कितने छोकरे हो गये मन के? दस लड़के-एक, पाँच लड़के-एक, एक लड़का-एक, मन एक। इस तरीके से सोलह लड़के हो गये। एक ओर बेचारा मन, बेचारी आत्मा और बुद्धि, चित्त, अहंकार—चारों एक ओर। इन सोलह और चार की रस्साकसी है। इन सोलह और चार की रस्साकसी में से जहाँ कहीं भी चार की ओर खींचकर ले जाय, तो जानना चाहिए कि वे बहादुर आदमी थे, समझदार आदमी थे। इन्होंने सोलह आदमियों को गिरा दिया।
मित्रो! यही दो रास्ते हैं, जो मुझे पहले दिन बताये गये और मुझे यह सिखाया गया—‘‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।’’ अर्थात असत् की ओर नहीं, सत् की ओर चल अर्थात आध्यात्मिक जीवन की ओर चल। आदर्शों की ओर चल। उत्कृष्टता की ओर चल, मानवीय उद्देश्यों की ओर चल। हम मनुष्य हैं, तो कर्तव्यों को मानना पड़ेगा, आदर्शों को मानना पड़ेगा, उत्कर्षों को मानना पड़ेगा, क्योंकि हम शरीर में रहते हैं, तो शरीर को खाना देना पड़ेगा, क्योंकि हमने ब्याह किया है, तो स्त्री-बच्चों का पालन करना पड़ेगा, लेकिन वह केवल सांसारिक कर्तव्यों के तरीके से करना पड़ेगा।
सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करने में आदमी को कोई तकलीफ नहीं होती। कोई खास दिक्कत नहीं होती। ड्रामे में बहुत सारे नट काम करते हैं। कोई सफाई कर्मचारी बन जाता है और कोई राजा बन जाता है। कर्मचारी को यह शिकायत नहीं कि मुझे सफाई कर्मचारी बना दिया गया और सबके सामने मेरी तौहीन कर दी गयी और मेरी नाक कट गयी। मैं सबके सामने बेइज्जत कर दिया गया और मुझे झाड़ू लगानी पड़ी और तुम राजा साहब बन गये। राजा साहब बन गये तो क्या? कर्मचारी बन गए तो क्या? यहाँ तो ड्रामा है। हम सब यहाँ नौकर हैं, तुमको भी सवा सौ मिलते हैं और हमें भी सवा सौ मिलते हैं। हम दोनों एक हैं और ड्रामा करते हैं।
जीवन को मानें एक रंगमंच
मित्रो! आदमी को शिकायत कब नहीं हो सकती? जब उसको यह मालूम हो कि हम ड्रामा कर रहे हैं, दुनिया में बहुत सारी दिक्कतें आती हैं। दुनिया में बहुत सारी असुविधाएँ भरी पड़ी हैं। इनसे आदमी को क्या कोई तकलीफ होनी संभव है? नहीं, तकलीफ होनी बिलकुल संभव नहीं है। दुनिया में अभाव, कष्ट, दुःख और दर्द भरा हुआ पड़ा है। सद्गुरु इन सारी-की समस्याओं का समाधान करना जानता है, जैसे कि पहले दिन गायत्री महामंत्र को स्मरण करते हुए मेरे गुरुदेव ने कपाट के तरीके से मेरे मन से इन चीजों को हटा दिया।
जब वह कपाट मेरे भीतर से हटा, तो मुझे केवल खुशहाली दिखी। फिर मुझे दुनिया में कोई दिक्कत मालूम नहीं पड़ी। फिर मुझे मालूम नहीं पड़ा कि यह दुनिया दुःखों से भरी हुई पड़ी है और मुझे मेरी ख्वाहिशों ने तंग करना बंद कर दिया। मेरी ख्वाहिशों की दिशा बदल गयी। पहले मेरी ख्वाहिशें धन के संबंध में थीं। पहले मेरी ख्वाहिशें इंद्रियों के भोग के संबंध में थीं। पहले मेरी ख्वाहिशें अपना अहंकार और अपना गौरव दूसरों के ऊपर हावी करने के संबंध में थीं।
मित्रो! आमतौर से मनुष्य की तीन इच्छाएँ होती हैं—एक को पुत्रैषणा कहते हैं। दूसरी को वित्तैषणा कहते हैं और तीसरी को लोकैषणा कहते हैं। ऋषियों ने पुत्रैषणा को स्वसृष्टि जैसे शब्दों से संबोधित किया है। इसलिए मैंने इसको पुत्रैषणा ही कहना मंजूर किया है। यह बात ठीक है कि हमारे यहाँ ब्याह-शादियों में मुख्य उद्देश्य पुत्रैषणा माना जाता है। बच्चे पैदा करना माना जाता है। इसलिए इसको मैं स्वयं सृष्टि कहूँगा।
मनुष्य की एक बहुत बड़ी तीव्र ख्वाहिश होती है और उस तीव्र ख्वाहिश का नाम है—सृष्टि और दूसरी चीज है—आदमी की वित्तैषणा, जिसको तृष्णा कहते हैं। हर आदमी अमीर बनना चाहता है, पर अमीर कहाँ हो पाता है? हम गरीब देश में रहने वाले लोग हैं। राममनोहर लोहिया के कहने के मुताबिक़ यहाँ हर आदमी की आमदनी तीन आने रोज हैं और पंडित नेहरू के कहने के मुताबिक़ हर आदमी की आमदनी बारह आने रोज हैं। जहाँ आदमी की तीन आने रोज और बारह आने रोज की आमदनी हो और आदमी यह ख्वाब देखता हो, यह सपना देखता हो कि अमीर होकर के जिऊँगा। मालदार होकर के जिऊँगा। रईस होकर के जिऊँगा। सामंत होकर के जिऊँगा। राजा होकर के जिऊँगा।
इस तरह के गलत ख्वाब देखता है। क्यों? क्योंकि मित्रो! हमारा सारा-का देश गरीब है और गरीबों के तरीके से ही बाकी लोगों को रहना चाहिए। अगर गरीबों के तरीके से बाकी लोग नहीं रहेंगे, तो उससे परेशानी पैदा होगी। दूसरे डाकू पैदा हो जायेंगे, चोर पैदा हो जायेंगे। उसका साला आयेगा, बहनोई आयेगा, भतीजा आयेगा, गाँववाला आयेगा, पुलिसवाला आयेगा और हरेक को तंग करने की कोशिश करेगा। जहाँ माँस रखा होता है, वहाँ चील, कौवे आते हैं। वहाँ गिद्ध आते हैं, कुत्ते आते हैं, कीड़े आते हैं। सब दुनिया भर के जीव आते हैं, जहाँ फालतू माँस रखा रहता है। इसी प्रकार जहाँ कहीं भी फालतू धन रखा रहेगा, मित्रो! वहाँ सारी-की मुसीबतें आयेंगी और जिस आदमी की यह ख्वाहिश है कि हम गरीब देश में अमीर होकर के रहेंगे, वह गलत ख्वाहिश वाला है।
बदल जाएगी भारत की अर्थव्यवस्था
मित्रो! मैं बहुत दिनों पहले से कहता आ रहा हूँ, मेरी बात चाहे मानना, चाहे न मानना। अगले वाले साल बहुत तेजी से बढ़ते हुए चले आ रहे हैं। हिंदुस्तान में रूस के ढंग का साम्राज्य भले ही न आये, पर हिंदुस्तान के ढंग का साम्राज्य जरूर आकर के रहेगा और तब हर आदमी की आज की आर्थिक स्थिति और हर आदमी की माली हालात एक जैसी हो जायेगी। क्या गरीब, क्या अमीर—दोनों को एक ही ढंग से खाना मिलेगा। दोनों को एक ही ढंग से गुजारा करना पड़ेगा, ऐसी मजबूरी आयेगी। मेरे कहने से भले न आये, पर ऐसी मजबूरी आयेगी अवश्य, मैं श्रेय और प्रेय की बात कहूँगा।
आप मेरी बात मजाक में भले ही उड़ा दें, मैं कब कहता हूँ कि आप मेरी बात मानें। लेकिन एक बात मैं हर बार कहूँगा, हर दिन कहूँगा कि अगले थोड़े दिनों के पीछे जो चीज आने वाली है, वह है कि हर आदमी—गरीब और अमीर, समानता की स्थिति में आ जायेगा। आदमी को खाने-पीने की चीजें उतनी मिलेंगी, जितनी कि बाकी लोगों को मिलती हैं। हर आदमी को उतनी ही मशक्कत करनी पड़ेगी, जितनी कि बाकी लोगों को करनी पड़ती है। इसलिए मैंने लोगों से यह कहा है।
दृष्टिकोण का परिवर्तन—एकमात्र समाधान
मित्रो! मेरे गुरुदेव ने मुझसे कहा कि अपनी ख्वाहिशों और तमन्नाओं के स्तर को बदल दें। अपनी तमन्नाओं और ख्वाहिशों के स्तर को आदमी जैसे-जैसे बदल देता है, वैसे-वैसे सिर पर रखे पत्थर भी गुम हो जाते हैं और शंकाएँ दूर हो जाती हैं, क्लेश दूर हो जाते हैं और कष्ट दूर हो जाते हैं। जो चीजें पहले बड़ी कष्ट देने वाली मालूम पड़ती थीं, वे बहुत ही खुशनुमा और अच्छी स्थिति में मालूम पड़ती हैं। दुनिया में हमारे छोटे-छोटे नुकसान हो जाते हैं और हमें ऐसा लगता है कि हमारा कलेजा निकल गया और हमारे ऊपर मुसीबत आ गयी, लेकिन अगर हमारा दृष्टिकोण बदल दिया जाय, तो मित्रो! हमको कोई दिक्कत मालूम नहीं पड़ती और कोई कष्ट मालूम नहीं पड़ता।
मित्रो! खलीफा हारून रशीद के दो बच्चे थे और दोनों बड़े प्यारे थे। जब वे खाना खाते थे, तो दोनों बच्चों को साथ लेकर के खाते थे। जब तक दोनों बच्चे नहीं आ जाते, तब तक वे खाना नहीं खाते थे। अपने बच्चों से बड़ी मोहब्बत करते थे। एक दिन ऐसा हुआ कि कोई ऐसी बीमारी आयी कि जिसमें दोनों बच्चे घंटे भर के अंदर समाप्त हो गये। दोनों की मृत्यु हो गयी। उनकी बीबी बड़ी समझदार थी। आध्यात्मिकता के इन सिद्धांतों को समझ गयी थी। आप सुने हैं, समझे नहीं। सुनने और समझने में जमीन, आसमान का फर्क है। सुनी तो आपने रामायण भी है, सुनी तो आपने गीता भी है। सुनी तो आपने भागवत् कथा भी है। सुना तो आपने न जाने क्या-क्या है? पर इस सुनने से कुछ फायदा नहीं है। समझने से फायदा तब है, जैसे कि उनकी औरत ने अध्यात्म को समझा था। इसलिए उसने कहा—खलीफा आते होंगे, तमाम दिनों के थके होंगे। बच्चों की मौत की बात मालूम पड़ेगी तो खाना नहीं खायेंगे और बेचारों को जो काम करना है, रात को काम नहीं कर पायेंगे।
इसलिए मित्रो! उसने सोचा कि, ऐसा करना चाहिए कि जब तक कि वे खाना नहीं खा लेते और अपने काम से निवृत्त नहीं हो जाते और नमाज नहीं पढ़ लेते, तब तक मुझको यह बात नहीं कहनी चाहिए। मन में निश्चय से कहा—ठीक है, ऐसा ही होगा। उसने दोनों मरे हुए बच्चों को, भीतर वाले कमरे में ले जाकर एक चारपाई पर सुला दिया। ऊपर से कपड़ा डाल दिया। खलीफा शाम को आये। उसने खाने के लिए थाली रखी। खलीफा ने कहा—बच्चे कहाँ गये? उसने कहा-बच्चे कह गये हैं कि पिताजी से कह देना कि आज हम देर से आयेंगे, पिताजी खाना खा लें। उन्होंने कहा-ढूँढ़कर लाओ। पत्नी ने कहा—मुझे तो मिलेंगे नहीं, कहाँ चले गये हैं? तुम भी थके हुए हो और मेरी भी तबियत ढीली है, मैं कहाँ से ढूँढ़कर लाऊँ? तुम खाना खा लो ना। मैं उनको खिला दूँगी। कैसे खलीफा हो? कैसे गुरु हो? बच्चों का मोह दूर नहीं करते हो?
मित्रो! उन्होंने खाना खा लिया। वे खाना खा रहे थे और बीबी पंखा कर रही थीं। खाने के बाद बीबी ने एक बात पूछी—खलीफा जी! हाँ, आपको एक बात सुनाऊँ? उन्होंने कहा—हाँ सुनाओ। बीबी ने कहा—ऐसा था कि दो महीने पहले, मैं पड़ोसी के यहाँ से, हाथों के जेवर—कड़े माँगकर लायी थीं। पड़ोसिन के घर सोने के अच्छे जेवर बनकर आये थे। मैंने उन्हें हाथों में पहना तो, उन पर मेरी बड़ी तबियत आई और मैंने कहा कि यदि ये जेवर मुझे मिल जाते, तो बहुत अच्छा होता। सबेरे मैं अपनी पड़ोसिन के पास गई और उससे कहा—बहन! तेरे पास तो जेवर हमेशा रहेंगे, तू कुछ दिनों के लिए मुझे दे दे। मेरा बड़ा मन करता है कि मैं जेवर पहनूँ। मेरी पड़ोसिन बड़ी अच्छी थी। उसने कहा—बहन तुम पहन लो। उसने दोनों जेवर दे दिये और मैंने दोनों कड़े हाथों में पहन लिये और बहुत दिनों तक उन्हें पहनकर रखा। खलीफा ने कहा—अच्छा, तो फिर वह पड़ोसिन कल आई थी, तो क्या कहती थी? पड़ोसन यह कहती थी कि अब तक तुमने जेवर पहन लिए, अब वापस कर दे। फिर उसने कहा—खलीफा आप बुरा मत मानना? क्या बात है? मेरा तो मन यह कहता है कि अब मैं गहने दूँ ही नहीं।
खलीफा ने कहा—वाह! तू बड़ी बेवकूफ औरत है। उस बेचारी ने दो दिन के लिए तेरे पास जेवर पहनने के लिए दे दिये और तेरी तो यह नीयत है कि मैं उसको जेवर वापस नहीं दूँगी। पत्नी बोली—बात यह है कि मैं जेवर उतार कर दे दूँ, तो मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं, रोना आ जाता है और जी में आता है कि ये जेवर मेरे पास ही रहें। दो महीने पहन लिए, अब तो ये मेरे हो गये और अब मैं नहीं चाहती कि इनको वापस दूँ, मैं नहीं दूँगी। खलीफा ने कहा—दे-दे उसके जेवर, पराई चीज है। अपने को इतने दिन पहनने को मिल गये, वह काफी है। इसमें हर्ज की क्या बात है? जितने दिन के लिए मिल गये, वह ठीक है। जितने दिन आनंद उठा लिया, वही ठीक है। अब जिसकी चीज है, उसके हाथ में दे दो, ठीक है। हमको क्या सलाह देती हो? हम खलीफा हैं और तुम हमारी बीबी हो। तुम ऐसा काम करेगी, तो दुनिया हमको क्या कहेगी?
मित्रो! उसने कहा—तो फिर क्या करना चाहिए? सच्ची बात तो यह है कि मेरा मन तो कहता है कि मैं दूँ ही नहीं और यह कह दूँ कि जेवर मेरे हैं, मैं नहीं दूँगी। उन्होंने कहा—तुम गलत हो। खाना खाने के बाद जाओ और उसके जेवर दे करके आओ। अच्छी बात है, दे आऊँगी आप कहते हो तो। उसने कहा—मुझे रोना आ गया, तब तो खराब बात है। मेरी आँखों में आँसू आयेंगे, मैं रोऊँगी। रोयेगी, तो मैं तुझे धमकाऊँगा कि तू ऐसे क्यों रोती है? दूसरे की चीज के लिए रोती है। पराई चीज के लिए रोया जाता है क्या? दो महीने पहन लिए, अब जेवर दे दे, ठीक है। खलीफा ने कुल्ला कर लिया। पत्नी ने कमरे का दरवाजा खोला, जहाँ दोनों बच्चे मरे पड़े थे। उसने कपड़ा उठाया और देखा तो दोनों बच्चों की लाशें पड़ी थीं।
खलीफा रोने लगे। खलीफा की आँखों में आँसू आ गये। पत्नी ने कहा—अभी तो आपने कहा था ना कि पराया जेवर जो माँगकर लाई थी, मौज से पहने, अब वापस कर देना चाहिए। वापस करने के वक्त रोना आयेगा, तो तुम्हें धमकाऊँगा, चाँटा मारूँगा, समझा दूँगा। अब अपने आपको समझाइए ना। ये बच्चे, ये खिलौने खेलने के लिए दिये थे और अगर अब इन खिलौनों की दूसरों को जरूरत है, तो इन्हें दूसरों को दे दिया जाना चाहिए। खलीफा चुप हो गये और दोनों लाशों को उठाया गया और श्मशान में दफन करने के लिए भिजवा दिया गया।
असतो मा सद्गमय
मित्रो! बात इतनी भर है कि हमको दुनियाबी दुःख और दुनियाबी कष्ट इसी तरह के होते रहते हैं। हमारे जीवन में बहुत सारे दुःख और असुविधाएँ होती रहती हैं। पैसों की ख्वाहिश, बच्चों की ख्वाहिश और कामवासना की ख्वाहिश—यही तीन-चार ख्वाहिशें रहती हैं, जो हमको भगवान की ओर विचार करने से, भगवान की शक्तियाँ पाने से हमें महरूम कर देती हैं और हमारे रास्ते को रोक करके खड़ी हो जाती हैं और हमारे मन को वहाँ जाने नहीं देतीं। अपने जीवन के लिए जो महानतम कर्तव्य हैं, उनको करने से हमको रोक देती हैं और यह कहती हैं कि तुमको सारा-का वक्त और जो अक्ल मिली है, उन्हें इन कामों में खर्च करो। इस तरह से दूसरे कामों के लिए फालतू वक्त बचता हो तो देख लेना। पूजा-उपासना के लिए किसी महीने में खाली वक्त बचता हो तो देख लेना। हनुमान चालीसा कर लेना, गायत्री का अनुष्ठान कर लेना। फुरसत नहीं है तो झंझट में पड़ने से क्या फायदा? यह तो फुरसत का काम है। जब फुरसत मिले तो कर लेना चाहिए, जब फुरसत न मिले तो नहीं करना चाहिए। फुरसत उस चीज के लिए है, जो इंद्रियों की ख्वाहिश को पूरा कर सके और फुरसत उन कामों के लिए है, जो हमारी तृष्णाओं को पूरा कर सके।
मित्रो! क्या किसी की तृष्णाएँ पूरी हुईं? नहीं। किसी की पूरी नहीं हुईं। एक बार ऐसा हुआ कि हनुमान जी समुद्र लाँघ करके लंका जाने वाले थे। रास्ते में एक राक्षसी मिली। उसने कहा कि देखूँ तो सही कि यह बंदर समुद्र को लाँघने की हैसियत रखता है या नहीं। कहीं यह बंदर ऐसा तो नहीं कि राक्षस आये और यह डरकर चला जाय। ऐसा तो नहीं कि यह लंका में जाये और रावण इसको मार डाले। देखूँ तो सही कि यह बंदर इस काबिल भी है कि नहीं है कि समुद्र में छलाँग लगा सके और राम का काम कर सके। लंका को पछाड़ सके और रावण का मुकाबला कर सके। देखूँ इसकी हैसियत भी है कि नहीं। हनुमान जी का इम्तिहान लेने के लिए एक राक्षसी समुद्र में बैठ गयी। उसका नाम था—सुरसा। सुरसा ने हनुमान को खाने के लिए मुँह फाड़ा। हनुमान ने अपना बदन बढ़ा लिया। उसका मुँह जितना बड़ा था, हनुमान उतने बड़े हो गये। फिर से उसने अपना मुँह चौड़ा कर लिया, हनुमान फिर उतने बड़े हो गये। बार-बार यही चलता रहा और हनुमान बराबर बढ़ते हुए चले गये।
मित्रो! सुरसा पहाड़ के बराबर हो गयी और हनुमान भी उतने ही बड़े हो गये। फिर उन्होंने देखा कि मैं कहाँ तक बढ़ूँगा, इससे इस तरह से तो कहीं छूटने वाला नहीं हूँ। यह तो खा ही जायेगी और मैं कहाँ तक बढ़ूँगा। हनुमान की समझ में एक नयी तरकीब आई। उन्होंने क्या काम किया? उन्होंने अपना बदन और जिस्म छोटा कर लिया—‘‘मसक समान रूप कपि धरहि।’’ हनुमान जी ने मच्छर के समान रूप धरा और उसके मुँह में होकर बाहर आ गये। यह गये, वह गये और सुरसा मुँह फाड़ती रह गयी। उसका बादल जैसा मुँह फटा-का रह गया और हनुमान ये गये और वो गए।
मित्रो! मनुष्य अपनी तृष्णाओं को थोड़ा-सा सीमाबद्ध कर ले, फिर देखिये, आदमी के पास कितनी शक्ति बच जाती है। कितनी ताकत बच जाती है और कितनी चीजें बच जाती हैं। उन चीजों के द्वारा आदमी अपना भला कर डाले और सारे विश्व का भला कर डाले। पहले दिन मेरे गुरुदेव ने मुझे यही सिखाया—‘‘असतो मा सद्गमय।’’ अर्थात असत् की ओर नहीं, सत् की ओर चल। असत् का शिक्षण दीवार की तरह है। जब हम किसी बड़े महल की दीवार के सामने खड़े हो जाते हैं, तो महल चुपचाप कहता है—अरे! इसने पैसा कमाया और इतनी बड़ी इमारत खड़ी कर ली और देख कैसा बढ़िया सोफा है और क्या बढ़िया बिजली के पंखे चलते हैं? आ, तू भी ऐसा ही कर, आ जा चुपके से, क्या-क्या करना पड़ा था? ऐसे ही मकान बना लिया। दीवार चुपचाप खड़ी है, बोलती नहीं, बात नहीं करती। हिंदी भी नहीं जानती, अँग्रेजी भी नहीं जानती। टेलीफोन भी नहीं है। चुपचाप कह देती है—मैं जी रही हूँ, बस। आओ सबका स्वागत है और वह मोटर-अपने आपको सिखाती है कि हर एम.एल.ए. और हर एम.पी. और हर अफसर मुझे यही बात कहता है कि इस रास्ते पर चलो, उस रास्ते पर चलो। हर जगह से लाखों पुकार और लाखों आवाजें आती हैं कि चलने का रास्ता प्रेय है।
मित्रो! गायत्री महामंत्र का पहला चरण जब हमें सिखाया गया, तो मुझे यह सिखाया गया—‘‘असतो मा सद्गमय।’’ अपनी विचारणा को सत्य की ओर मोड़ और मैंने अपनी विचारधारा को सत्य की ओर मोड़ दिया। मैं भूखा मरा? नहीं, मैं कभी भूखा नहीं मरा। मुझे दोनों वक्त रोटी मिली। क्या मैं नंगा रह गया? नहीं, मैं किसी दिन नंगा नहीं रहा। कपड़े मैंने बराबर पहने। क्या मैं खुले में सोया? बरसात मेरे सिर पर गिरी? नहीं, बरसात मेरे सिर पर नहीं गिरी। मैं छाया के नीचे सोया, ठंडक में भी छाया के नीचे सोया। आप जिस तरीके से छाया में सोते हैं, मैं ठीक उसी तरह सोता हूँ और आप जिस तरीके से चार रोटियाँ खाते हैं, मुझे भी उसी तरह से पूरी रोटियाँ मिलती हैं। मैं उतने ही कपड़े पहनता हूँ, जितने कि आप कपड़े पहनते हैं। आपसे मैं गरीब हूँ क्या? आपसे मैं पिछड़ा हुआ हूँ क्या? नहीं, मैं पिछड़ा हुआ नहीं हूँ, मैं ठीक उसी तरह का हूँ, जितना कि सारे विश्व का हर नागरिक जिस तरह का जीवनयापन करता है। उससे कम सुविधाएँ नहीं हैं।
दृष्टिकोण बदलने से मिलते हैं भगवान
लेकिन मित्रो! क्या फर्क पड़ गया? फर्क यह पड़ गया कि मेरी विचारणाओं, मेरी आकांक्षाओं, मेरी इच्छाओं ने दिशायें बदल दीं। दिशायें बदलकर जब मैंने देखा तो मुझे यह मालूम पड़ा कि दुनिया में कोई दुःख नहीं है। दुनिया बड़ी सुखी है। इसमें केवल स्वर्ग भरा हुआ है और दुनिया में केवल आनन्द है। दुनिया में केवल संतोष है और दुनिया में केवल शांति है। मैंने केवल शांति को देखा, अशांति को नहीं। मैंने दुनिया में सुख को देखा, दुःख को नहीं। दुनिया में मैंने संतोष को देखा, असंतोष को नहीं।
मेरी आँखों में अलग तरह का चश्मा लगा दिया गया, तो मैंने सारी की सारी दुनिया को पीले रंग की तरह देखा और मुझे यह मालूम पड़ा कि सारी दुनिया पीले रंग की है। अपना दृष्टिकोण बदल लेने के बाद आदमी न जाने कितना खुश, कितना प्रसन्न और कितना संतुष्ट बन सकता है। जिस आदमी ने अपनी दिशायें बदल दीं और जिस आदमी ने अपनी इच्छाएँ बदल दीं, उसके काम करने का ढंग ऐसा बेहतरीन हो जाता है कि उसके काम करने के ढंग को देख करके भगवान खिंचा हुआ चला आता है।
मित्रो! भगवान कहता है कि मेरे पास मदद बहुत दिनों से सुरक्षित रखी हुई है और मैं मदद दूँगा। अर्जुन जब भगवान का काम करने के लिए खड़ा हुआ, तो भगवान ने कहा-मैं तेरे घोड़े चलाऊँगा और जब समुद्र मंथन का महाकार्य हुआ और देवताओं ने इसे अपने जिम्मे लिया और मन्दराचल पर्वत जमीन के नीचे खिसकने लगा, तो भगवान ने कहा-मैं कछुए का रूप बना करके अभी आता हूँ और मन्दराचल पहाड़ को अपनी पीठ पर रखूँगा और तुम्हारे समुद्र मंथन की प्रक्रिया को पूरा करूँगा। भगवान बुद्ध बढ़ती हुई हिंसा को दूर करने के लिए कटिबद्ध हो गये थे। उन्होंने कहा-दुनिया में पाप और अनाचार, जीवों के प्रति हिंसा ज्यादा फैली हुई है, मैं इसको दूर करूँगा। मुझे सामान की जरूरत है और मुझे सहकारियों-सहायकों की जरूरत है। आवश्यकता इस बात की हुई कि पैसा पास में नहीं है। अपनी सेना कहाँ से खड़ी करेंगे? खिलायेंगे कहाँ से? ऐसे आदमी आयेंगे, तो मुश्किल पड़ जायेगी। काम कैसे चलेगा?
भगवान करते हैं इनसान का सहयोग
बुद्ध विचार करने लगे कि वैदिक हिंसा और सारे विश्व में संव्याप्त पाप का मुकाबला करने के लिए खड़ा होऊँगा, तो मेरे पास साधन कहाँ हैं? साधन कहाँ से आयेंगे? एक छोकरा भागता हुआ चला आया। उसने कहा-पिताजी! मेरा सारा का सारा धन आपके चरणों पर न्यौछावर है। उसका नाम था—अशोक। भगवान अशोक के रूप में आये और अशोक के रूप में आ करके कहा—हम तेरी मदद करेंगे और तेरे महान कार्य को सम्पन्न करायेंगे। अशोक बुद्ध के यहाँ आये और बुद्ध के ढाई लाख मनुष्यों की सेवा के लिए खाने-पीने का इन्तजाम हो गया। ठहरने का इन्तजाम हो गया और सारे एशिया में और सारे विश्व में बुद्ध की सेना—‘‘बुद्धं शरणं गच्छामि,’’ ‘‘संघं शरणं गच्छामि,’’ ‘‘धम्मं शरणं गच्छामि’’ का संदेश गुंजाती हुई निकल पड़ी और सारे एशिया को और जहाँ तक उस जमाने के लोग पहुँच सकते थे, उस सारे के सारे इलाकों को बुद्धवाद से आच्छादित कर दिया। इसके लिए करोड़ों रुपयों की जरूरत पड़ी होगी और अशोक जैसे न जाने कितने व्यक्ति उनकी सहायता करने के लिए चले आये।
मित्रो! भगवान मनुष्य की सहायता नहीं करता है क्या? हाँ, करता है। भगवान ने सहायता की थी एक छोटे से नाचीज जानवर की। एक हाथी जोर से एक बार चिल्लाया। उसने कहा—भगवन्! मैं पानी में घिसटता हुआ चला जा रहा हूँ और मुझे ग्राह घसीटता हुआ चला जा रहा है। तबियत के साथ, मन के साथ, अन्तरात्मा के साथ गज ने भगवान को पुकारा और गज की सहायता करने के लिए भगवान दौड़े आये। भगवान पर अटूट विश्वास करने वाली, भगवान की राहों पर चलने वाली, भगवान को प्यार करने वाली और भगवान के संकेत और आदर्शों पर चलने वाली, भगवान के इशारों पर नाचने वाली मीरा को जब जहर पिलाने की तैयारियाँ की गयीं और कहा गया कि मीरा को जहर पिला दिया जायेगा तो भगवान आये। उन्होंने कहा—मेरी नन्हीं सी मीरा जहर कैसे पी सकती है? उसका कलेजा जल जायेगा, उसकी जीभ जल जायेगी, उसका गला जल जायेगा। अपनी मीरा को मैं कैसे जल जाने दूँगा? फिर जहर कौन पियेगा? भगवान ने कहा—जहर पीने के लिए मैं मौजूद हूँ। मीरा पानी पियेगी और जहर मैं पियूँगा। जहर भगवान ने पिया और पानी मीरा ने पिया।
भक्त के लिए जहर भी पीते हैं भगवान
मित्रो! मीरा को काटने के लिए साँप भेजे गये। जहरीले साँप, कोबरा साँप—इसलिए भेजे गये कि मीरा को ये काट खायें और मीरा को मार डालें। मीरा को काट खाने के लिए साँप आये, तो भगवान ने कहा—मेरे इशारे पर चलने वाली और मेरे आदर्शों और मेरे संकेतों को पूरा करने वाली मीरा किस तरीके से साँप का जहर बर्दाश्त करेगी। साँप का जहर तो बहुत खतरनाक होता है और आदमी की जान ले लेता है। मेरी मीरा की जान ले ली जायेगी, तो मेरे लिए मुश्किल पड़ेगी। और मेरी प्यारी लड़की कहाँ से मिलेगी और मेरे साथ नाचने का दावा कौन करेगा? मीरा को नहीं मारा जाना चाहिए और मीरा को बचाया जाना चाहिए। साँप काटने के लिए आया और भगवान ने अपनी अंगुलि साँप के मुँह में ठूँस दी। उन्होंने कहा तू इन्हें काट। ये काटने लायक थीं। मीरा को मत काटना। मीरा को साँप ने काटा। सिर्फ पानी का-खून का एक बूँद लेकर रह गया और जहर भगवान की अंगुलियों में चला गया। मीरा बच गई।
अभागे नहीं, भगवान की कृपा के अधिकारी बनें
मित्रो! भगवान ने हमेशा मनुष्य की हिमायत और सिफारिश की। भगवान ने हमेशा मनुष्य की सहायता की। प्यासा भगवान इस बात के लिए बैठा हुआ है कि कोई आदमी सामने आये, जिसके ऊपर हम अपनी सहायता बिखेर दें। लेकिन हम कंजूस मनुष्य हैं कि अपना मुँह नीचे की ओर किये हुए हैं। अमृत की वर्षा रात भर होती रही और हमारा मुँह ऊपर की ओर न खुल सका। ऊपर की ओर, भगवान की ओर हमारा मुँह खुला होता, तो अमृत हमारे मुँह में आया होता और हम अजर-अमर हो गये होते। वर्षा हुई भगवान का प्यार बिखरता रहा। पीने वालों ने पिया। लेने वालों ने लिया और इकट्ठा करने वालों ने इकट्ठा किया और हम अभागे मनुष्य सीप और घोंघे इकट्ठे करते रहे।
जो गोताखोर अपनी जिंदगी को जोखिम में डालकर नीचे समुद्र में उतरते चले गये वो मोती इकट्ठे करके लाये और हम समुद्र के किनारे बैठे हुए कमजोर, कंजूस और कृपण मनुष्य, लोभी और स्वार्थी मनुष्य केवल इस ख्वाब में बैठे रहे कि भगवान कभी हमारे चक्कर में फँस जायेगा और हम भगवान का मलीदा बनायेंगे। मछली पकड़ने वाले आते हैं और एक लम्बी वाली रस्सी लेते हैं और उसमें आटे की गोलियाँ लगा देते हैं और पानी में फेंक देते हैं। इसलिए फेंक देते हैं कि कोई लम्बी वाली मछली हाथ में आ जाये, तब उसको पकड़ लिया जाये। फिर उसका ऐसा मलीदा बनाया जाये, उसके पेट में ऐसे मसाले भरे जायें कि जीभ कहे कि हाँ, कोई खाने वाला, पकड़ने वाला मिला था। हम भी ऐसे ही मछली को आटे की गोलियों से, चिड़िया को बहेलिये के तरीके से पकड़ने के लिए विभिन्न तरह की गोलियाँ इकट्ठी कर लेते हैं। चिड़िया फँस जाये, उसके पंख फाड़े जायें और उसका शोरबा बनाया जाये।
मित्रो! हम भी कुछ ऐसा ही धंधा किया करते हैं। लकड़ी की गोलियाँ खरीद लाते हैं और धागे में पिरो लेते हैं और मछली पकड़ने वाले की तरीके से संतोषी माता को पकड़ने के लिए फेंकते रहते हैं कि संतोषी माता चक्कर में आ जायें, तो उसका पेट फाड़ें कि उसको नानी याद आ जाये। हनुमान जी को पकड़ने के लिए भी हम ऐसा जाल बिछाते रहते हैं कि हनुमान जी आ जायें, कोई गणेश जी आ जायें, कोई अमुक देवता आ जायें और ऐसे फँस जायें, तो हम उनका ऐसा मलीदा बनायें, ऐसा कवाब बनायें कि उनके बच्चों को याद आ जाये कि हाँ कोई चेला मिला था। हमारी तरकीबें और हमारे ढंग, हमारी नीति और हमारे उद्देश्य, घटिया वाले उद्देश्य और घटिया वाले मनुष्य, घटिया वाले व्यक्ति—क्या भगवान से प्यार पाने के अधिकारी बन सकते हैं? नहीं बन सकते हैं।
दृष्टिकोण बदलें तो बदलेगा जीवन
मित्रो! हमको अपने दृष्टिकोणों को परिष्कृत करना पड़ेगा। जिस दिन हम अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करेंगे, उस दिन हमको यह मालूम पड़ेगा कि हम बहुत मालदार आदमी हैं और हम गरीब आदमी नहीं हैं। आपकी गरीबी उसी दिन गायब हो जायेगी जिस दिन आपको अपने जीवन में यह विश्वास जम जायेगा कि हम श्रेय मार्ग पर चलने वाले हैं और श्रेय मार्ग पर चलने वाला गरीबी का जीवन अनुभव नहीं कर सकता। स्वामी रामतीर्थ थे, जो अपने आपको रामबादशाह समझते थे। रामबादशाह कैसे थे? लंगोटी लगाने वाले बादशाह थे। क्या लंगोटी लगाने वाले भी बादशाह होते हैं? हाँ होते हैं। लंगोटी लगाने वाले बादशाह इसलिए होते हैं, लंगोटी लगाने वाले फकीर होते हैं कि उनकी नीयत और उनका मन उस बुढ़िया के तरीके से होता है, जो अपने बच्चों को मिठाई खिलाना चाहती है, चीजें खिलाना चाहती है, मेवा खिलाना चाहती है, चीजें खिलाना चाहती है और खुद रूखी रोटी खा करके खुश हो जाती है और खुश हो करके काम चला लेती है। छोटी चीजों से काम चला लेती है। ऐसा उसका मन बन जाता है। वास्तव में वे गरीब नहीं होते।
मित्रो! चाणक्य गरीब नहीं था। गरीब था क्या? हाँ साहब! गरीब था। बेचारा जरा सी धोती पहनता था। फूस की झोपड़ी में रहता था। तीन मील पैदल चल करके नंगे पैर जाता था। उस बेचारे के पास साइकिल भी नहीं थी और स्कूटर का भी नम्बर नहीं आया था। स्कूटर चार हजार का आता है और अगर चाणक्य नम्बर लगाता तो शायद नम्बर ही नहीं आता गरीब का। दूसरे लोग अपनी-अपनी लाइन में नाम लिखा लेते और चाणक्य मारा-मारा डोलता। उसके पास स्कूटर भी नहीं था। चाणक्य फकीर था, लेकिन फकीर की ताकत का कोई ठिकाना है? अनाथ लड़का, रखैल का बच्चा, मुरा और नानकी राम का पाला हुआ वह लड़का चन्द्रगुप्त मौर्य, जिसके सिर पर चाणक्य ने हाथ रख दिया।
संत कभी गरीब नहीं होते
इतिहास की दृष्टि से सारे अखण्ड भारत का सबसे बड़ा सम्राट बन गया। पहले क्या था, मुझे मालूम नहीं, पर जब मैंने हिस्ट्री पढ़ी, तब मुझे यह मालूम पड़ा कि चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल इतना बड़ा था कि किसी और के पास इतना बड़ा साम्राज्य नहीं था। गरीब चाणक्य का शिष्य अमीर। अमीर कौन? चन्द्रगुप्त मौर्य और कामना पूर्ण करने वाला चाणक्य। चाणक्य के दिमाग में आया कि नालन्दा विश्वविद्यालय बनाया जाना चाहिए और सारी फैकल्टीज का समावेश करना चाहिए। उसमें बड़े-से-बड़े प्रोफेसर और बड़े-बड़े वाइस चांसलर दुनिया में से ढूँढ़-ढूँढ़ करके बुलाये जाने चाहिए। बहुत बड़ा काम था और करोड़ों रुपये का था लेकिन सौ करोड़ रुपया न जाने कहाँ से भागता हुआ चला आया। महात्मा चाणक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त के इशारे पर नालन्दा विश्वविद्यालय बनकर तैयार हो गया।
मित्रो! गुप्त साम्राज्य इतना बड़ा साम्राज्य बनकर तैयार हो गया, जिसका कोई सानी नहीं था। समर्थ गुरु रामदास बहुत गरीब थे? हाँ गरीब थे। अमीर थे? हाँ, इतना अमीर कि कोई ठिकाना नहीं। जंगल में रहने वाले, कुटिया में रहने वाले, फूस की झोपड़ी में रहने वाले समर्थ गुरु रामदास के जी में आया कि किसी आदमी को जबरदस्त आदमी बनाया जाना चाहिए और हिन्दुस्तान को एक शक्तिशाली सत्ता के रूप में पेश किया जाना चाहिए। एक लड़का आया, जो इधर-से-उधर घूम रहा था। उन्होंने उससे पूछा—क्या नाम है तेरा? शिवाजी। क्या काम करता है? मैं तो लकड़हारा हूँ और जानवर चराता हूँ और गाँव में रहता हूँ। लकड़ी तोड़ना बंद कर, मेरे पाँव तो दबा दे। वह उनके पाँव दबाने लगा। जरा देर पाँव को दबाया, तो उन्होंने कहा—अच्छा तो मैं तुझे बादशाह बना दूँ? भला मैं बादशाह कैसे बन सकता हूँ? मैं तो गाँव का आदमी हूँ, बकरी चराता हूँ और छोटा हूँ। उन्होंने कहा—मैं तुझे बादशाह बनाऊँगा। बस उनकी तबियत आ गयी। किसकी आ गयी? समर्थ गुरु रामदास की।
मित्रो! समर्थ गुरु रामदास की तबियत आ गयी और उन्होंने उसके सिर पर हाथ रख दिया और वह छत्रपति शिवाजी किलों का स्वामी बन गया। सम्राटों का निर्णय लेने वाला शिवाजी, इतिहास में अजर, अमर रहने वाला शिवाजी बन गया। शिवाजी छत्रपति था, शासक था, राजा था, अमीर था, किले वाला था, हाथी वाला था, मोटर वाला था और समर्थ गुरु रामदास फूस की झोपड़ी में रहने वाले थे। फूस की झोपड़ी को उनके ऊपर किसी ने लादा नहीं था। उन्होंने इच्छा से झोपड़ी का वरण किया था। उनके ऊपर किसी ने लाद नहीं दिया था कि तुमको यहाँ रहना पड़ेगा। अगर उन्होंने चाहा होता और कहा होता कि शिवाजी तेरे रहने का किला जितना बड़ा है, मेरे लिए उससे बड़ा किला बनवा करके दे। तेरे पास सेना में जितने नौकर हैं, उससे ज्यादा मेरे लिए नौकर रख। शिवाजी की हस्ती थी कि वे यह कहते कि हम आपके लिए नहीं रख पायेंगे।
मित्रो! वे लोग गरीब दिखाई पड़ते हैं। कौन? महापुरुष। महापुरुष इसलिए गरीब दिखाई पड़ते हैं कि अगर वे गरीबी का जीवन नहीं जियें, तो तृष्णाएँ उनको ऐसे बुरे तरीके से जकड़ डालेंगी कि उनके पास वक्त नाम की चीज बचेगी नहीं। भावना नाम की चीज बाकी न रह जाये और उनके पास उत्साह नाम की कोई चीज न रह जाये। लगन नाम की कोई चीज न रह जाये। निष्ठा नाम की कोई चीज न रह जाये, केवल ढोंग बाकी रह जाये। शंकर जी के ऊपर पानी चढ़ाकर के चाहे इसे पूरा कर लिया जाये, चाहे संतोषी माता को चना-गुड़ चढ़ा करके पूरा कर लिया जाये। ढोंग बाजीगर भी करता है। आप भी इसे कर लीजिए। आप भी ढोंग कर सकते हैं अगर आपकी इच्छाएँ उस ओर प्रेरित न की गयी हों, जिस ओर मेरी इच्छाएँ प्रेरित की गयीं। मेरी इच्छाएँ जिस ओर प्रेरित की गयीं, तब जो सर्वसाधारण की आकांक्षाएँ होती हैं, उनसे मेरी आकांक्षाओं का तरीका कुछ अलग तरह का हो गया।
मित्रो! एक बार ऐसा हुआ। खलीफा उमर जो थे, उनको तीन दीनार रोज खाने के लिए मिलते थे। उन्होंने अपनी नौकरी तीन दीनार रखी। उन्होंने कहा—हमारी रियाया को जितनी खुराक मिलती है, उतनी खुराक पर हमको भी जिन्दा रहना चाहिए। एक दिन उनकी बीबी ने कहा—हजरत। अभी ईद का त्यौहार आने वाला है। तो क्या करना चाहिए? ईद के त्यौहार में मिठाइयाँ बननी चाहिए, पकौड़ियाँ बननी चाहिए, हलवा बनना चाहिए और पुलाव बनना चाहिए। किसने कहा? उनकी बीबी ने कहा। हजरत ने बहुत लापरवाही से कहा—भाई! तीन दीनार तो मुझे मिलते हैं उसी में काम चलाओ। एक-दो दिन ऐसा कर लो-फाका कर लो। बीच में खाना बंद कर दो। दूध को जमा कर लो, काम चल जायेगा। उन्होंने कहा—ठीक है। उन्होंने क्या किया कि ईद का त्यौहार नजदीक आने लगा। तीन दीनार रोज जो मिलते थे, उसने दो दीनार से गुजारा करना शुरू कर दिया और एक दीनार बचा लिया। एक दीनार के हिसाब से पाँच दिन में पाँच दीनार बच गये। और पाँच दीनार की पकौड़ी बनाई, मिठाई बनाई, हलवा बनाया, रबड़ी बनाई और खलीफा के सामने थाली बना करके रखी।
मित्रो! खलीफा बहुत तारीफ करने लगे। उन्होंने कहा—बीबी। तुम तो बहुत बढ़िया हो, तुम तो बहुत अच्छी हो और तुम तो बड़ी नेक हो। तुमको तो खाना बनाना बहुत बढ़िया आता है। खलीफा उमर पत्नी की बहुत तारीफ करने लगे। बीबी ने कहा—बस, इतनी ही बात कही और मेरी खास बात तो आपने कही ही नहीं। तुम्हारी खास बात क्या है? यही कि मैं कितनी किफायतसार हूँ। मैंने दो ही दीनार में पाँच दिन तक काम चलाया और आपको पता भी नहीं चलने दिया। घी भी आपको खिला दिया और रोटी भी घर में बनाती रही। मैंने जरा सी किफायतशारी की और जरा सी कम लकड़ी जलाई और जरा से में सारा काम कर लिया और इस तरह एक दीनार की किफायत रोज होने लगी। यह तारीफ आपने नहीं की। उन्होंने कहा—ओ हो! खास तारीफ तो तुम्हारी यही है, मैं तो भूल गया। खास तारीफ तो तुम्हारी यही थी तुमने कम खर्च में किस तरीके से काम चला लिया। तुम दो दीनार में काम चला सकती हो। उन्होंने बीबी की पीठ थपथपाई, बहुत प्यार किया और बोले-बेगम! तुम बहुत अच्छी हो। तुम दो दीनार में काम चला सकती हो।
मित्रो! दूसरा दिन आया और उन्होंने खजांची को बुलाया। उन्होंने कहा—हमारी बेगम बहुत बढ़िया है। हमारी बेगम बहुत किफायतसार है और हमारी बेगम बहुत शरीफ है और हमारी बेगम बहुत बरकतमंद है। उसको यह बात मालूम है कि जिस रियाया का हम पैसा लेते हैं, उसमें से बहुत आदमी गरीब हैं। बहुत से आदमी दुःखी रहते हैं। बहुत से आदमियों को तकलीफ रहती है। इसलिए खलीफा ने कहा—एक दीनार रोज बचाया जाना चाहिए और उन्हीं लोगों के लिए खर्च किया जाना चाहिए, जो कि एक दीनार के बिना अपने बच्चों का इलाज कराने में और अपने बच्चों की फीस देने में महरूम हैं। इसलिए एक दीनार कम में हम काम चला सकते हैं। नौकरी में तीन दीनार लेना गलत था। आप ऐसा करना, एक दीनार हमारी तनख्वाह में से कम कर दें और दो दीनार की तनख्वाह खलीफा के लिए भेजी जाया करे। खलीफा उमर को दो दीनार मिलने लगे और एक दीनार काट दिया गया। खलीफा दो दीनार में खुश। दो दीनार में आदमी खुश रह सकता है क्या? हाँ, दो दीनार में आदमी बहुत खुश रह सकता है, अगर आदमी की इच्छाएँ कम हो जायें तब।
संतोष परम धन
मित्रो! एक बार ऐसा हुआ—शेखसादी नमाज पढ़ने के लिए गये। किसी कारणवश नाराज हो गये और नाराजगी में जाकर उन्होंने नमाज पढ़ी। उनके पास में एक अमीर आदमी नमाज पढ़ रहा था। अमीर आदमी के जूतों की तरफ नजर उठा करके जब शेखसादी ने देखा, तब यह मालूम पड़ा कि उसके जूते मखमल के बने हुए थे। बढ़िया कारीगरी और मीनाकारी का काम हो रहा था।
बस, शेखसादी का गुस्सा दूना हो गया और वे भगवान को बहुत गालियाँ देने लगे। कहने लगे कि यह आदमी कभी-कभी आया है। नमाज पढ़ने के लिए साल भर में एक दिन आया है। इसके लिए इतने कीमती जूते और मखमल के जूते क्यों? हम पाँच वक्त की नमाज अदा करते हैं और हम रोज आते हैं और नंगे पाँव आते हैं। बस, वे गालियाँ देने लगे कि भगवान बड़ा बेइन्साफ है। भगवान बड़ा निकम्मा आदमी है। भगवान की पूजा नहीं करनी चाहिए और भगवान को गालियाँ देने लगे।
मित्रो! थोड़ी देर में क्या हुआ? एक आदमी नमाज पढ़ने के लिए आया, जिसके पाँव लकवे में मारे गये थे। वह घिसट-घिसटकर चलता हुआ आ रहा था। बड़ी मुश्किल से वह पाँव को इधर-उधर रखता हुआ मस्जिद में आया और नमाज पढ़ने लगा। शेखसादी ने बहुत गौर के साथ उसको देखा और उनका गुस्सा ठंडा हो गया। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि या पाक परवरदिगार! तूने रहम किया। कम-से-कम तूने मुझे ऐसा बनाया कि मेरे दोनों पाँव साबित तो हैं, जबकि इस बेचारे के दोनों पाँव चलने से महरूम हैं। जूते पहनना तो दूर, चप्पल पहनना तो दूर, दूसरी चीजें पहनना तो दूर, यह बेचारा तो चल भी नहीं सकता, इसलिए तूने मुझे इस लायक तो बनाया कि मेरे पाँव सही हैं।
आदमी का धन—संतोष जब कभी भी आता है, तब आदमी बहुत आराम से, बहुत अच्छे तरीके से, थोड़े पैसे में भी बड़े मजेदारी से जीवनयापन कर लेता है। अगर आदमी को संतोष न रहे, तो हजार रुपये भी कम, दो हजार भी कम, लाख भी कम, दस लाख भी कम पड़ जाते हैं। असंतोष की आग में जलता हुआ मनुष्य बचाया नहीं जा सकता।
दुःख का कारण है असंतोष
मित्रो! असंतोषी मनुष्य दुनिया में दुःख पायेगा और दुनिया में कलह पैदा करेगा। असंतोषी मनुष्य दुनिया में संघर्ष पैदा करेगा और दुनिया में अशांति पैदा करेगा और जीवन को दुःख और दर्द से ओत-प्रोत करेगा। असंतोषी मनुष्य दुनिया में खुशहाल नहीं हो सकता। असंतोषी मनुष्य ने, मृगतृष्णा में डूबे हुए मनुष्यों ने दुनिया में कोहराम मचाया है और दुनिया में परेशानियाँ पैदा की हैं।
सिकंदर की ख्वाहिश थी कि मुझे बहुत सारा पैसा इकट्ठा कर लेना चाहिए। इसलिए वह यहाँ चला, वहाँ चला, यहाँ लूटा, वहाँ लूटा और यहाँ गया, वहाँ गया। चंगेज खाँ और नादिरशाह का नाम मालूम है ना? हाँ, हमको मालूम है, जिन्होंने दुनिया में जाकर अपनी ख्वाहिशें और तृष्णाएँ पूरी करने के लिए कितनी मारकाट मचायी थी। जब उनकी इच्छाओं की, तृष्णाओं की आग ज्यादा जलने लगी, आग जब ज्यादा तेज हो गयी तो इन्होंने इस बात पर विचार करने से इंकार कर दिया कि ईमानदारी क्या होती है और बेईमानी क्या होती है? आदमी ईमानदारी और बेईमानी का फर्क करना तब बंद कर देता है, जब उसकी ख्वाहिशें और उसकी तृष्णाएँ और तमन्नाएँ इतनी तेज हो जाती हैं कि किसी भी कीमत पर कहीं से हमको, हमारे पास पैसे आने चाहिए। कहीं से भी हमारे पास दौलत जमा होनी चाहिए।
सब पापों के मूल में तृष्णा
मित्रो! जब कभी भी मनुष्य के भीतर ख्वाहिशें बढ़ती चली जायेंगी, आध्यात्मिकता की शक्तियाँ और आध्यात्मिकता की धारायें कम होंगी तो आदमी उस आनंद को नहीं उठा सकेगा, जिसको हम इसी जीवन में स्वर्ग के नाम से पुकारते हैं। स्वर्ग इसी जीवन में है। स्वर्ग उस चीज का नाम है, जिसमें आदमी को संतोष होता है। आदमी के विचार करने का ढंग और विचार करने का दृष्टिकोण उच्च कोटि का होता है।
स्वर्ग उस चीज का नाम है और नरक? नरक उस चीज का नाम है, जिसमें कि मनुष्य दिन और रात दुनियावी ख्वाहिशों की आग में जला करता है और उस जलन को, उन ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए, उन कामों को पूरा करने के लिए तैयार हो जाता है, जो काम उसे नहीं करने चाहिए। काम वासना की ख्वाहिशें आदमी की जब तीव्र हो जाती हैं तो वह भूल जाता है कि बहन किसे कहते हैं और भांजी किसे कहते हैं और रिश्ता किसे कहते हैं? बाहर से बहन जी-बहन जी कहता जाता है और चुपचाप गलत रास्ते पर चला जाता है। चुपचाप छेड़ता चला जाता है। वह यह भूल जाता है कि अभी तो बाहर बहन-बहन जी कहकर आया था और अभी यह सब कर रहा है। इस तरीके से आदमी बेशरम और बेहया हो जाता है, जब आदमी की तमन्नाएँ तेज हो जाती हैं।
मित्रो! जब आदमी की तमन्नाएँ पैसे के बारे में तेज हो जाती हैं, तो दुनिया का कोई काम ऐसा नहीं है—छोटे-से और बड़े-से, निकम्मे-से, जो कि आदमी करने के लिए तैयार न हो जाय। अगर तैयार न हो जाता, तो दुनिया में आज एक ही चीज है, जो पाप बढ़ा रही है, जो आदमी में असंतोष पैदा कर रही है और वह है—तृष्णा। संसार में पैसे की कमी नहीं है वरन् तृष्णा की बढ़ोत्तरी आज इस कदर बढ़ती चली जा रही है कि आदमी बुरे-से काम करने के लिए तैयार है।
हममें से हर आदमी, चाहे हमारी औकात, हमारी हैसियत और हमारा ज्ञान कुछ भी हो पर हमारा स्तर घटिया हो तो हम घटिया किस्म की चालाकी कर सकते हैं। इसलिए हम चालाकी करने से बाज नहीं आते। जब हम आटे की चक्की पीसते हैं, तराजू में दो बाट रखते हैं। अनाज रखा और खट् से पल्ले को पकड़े रहते हैं और जब आटा लेने वाला आदमी आता है, जरा झटका दिया और पलड़ा जरा सा ऊँचा हुआ, खट् से कितना हो गया, लिख ले पाँच सेर तीन छटाँक। पल्ला तो ऊँचा था। अरे भाई! कोई बात नहीं, यहाँ तो ऐसे ही पाँच सेर तीन छटाँक है। नहीं साहब! यह तो पाँच सेर दो छटाँक था। कोई बात नहीं, जो हो गया, सब ठीक है।
मित्रो! जब वही आदमी देने आता है, तो दुबारा लेने के लिए तराजू के पल्ले को पकड़ा। हाँ भाई! कितना रखना है? यही कोई तीन सेर, तीन छटाँक। अरे भाई! नंबरदार के डिब्बे से कुछ निकाला नहीं क्या? अरे साहब क्या निकालना? ये अपने आदमी हैं और झटका मार दिया। एक छटाँक पहले काट लिया और एक छटाँक यह काट लिया। इस तरह हर तरीके से छोटे-से आदमी, बड़े-से आदमी आज इस बात पर लगा हुआ है कि किस तरीके से मुनासिब और गैरमुनासिब तरीके से उसके पास पैसा बढ़ता हुआ चला जाय। क्या वास्तव में आदमी को उतने पैसे की जरूरत है? नहीं है। मैंने कल आपको कहा था कि आदमी के खाने का हक और आदमी के खाने का कोटा मुकर्रर है। उससे ज्यादा नहीं खाया जा सकता। आप तमाशा देख सकते हैं, नुमाइश देख सकते हैं। काहे की? पैसे की, पर आप छू नहीं सकते, खा नहीं सकते।
मुकर्रर है आदमी का कोटा
मित्रो! भूत के बारे में सुना है कि भूत का आकार ऐसा होता है कि वे कुछ भी मँगा सकते हैं और सब कुछ देख सकते हैं। जब आप भूत से सामान खरीदने चले जायेंगे, तो कोयला आ जाता है, सब पत्थर हो जाता है। मालूम नहीं, पर मैंने सुना है कि भूत से सामान मँगाया और वह राख हो गया, कोयला हो गया। पैसे के बारे में तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन ख्वाहिशों के बारे में मैं कह सकता हूँ कि आदमी का एक बहुत छोटा कोटा मुकर्रर है और उस कोटे से ज्यादा कोई भी आदमी अपने लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता।
तीन-चार रोटियों से ज्यादा आप नहीं खा सकते और तीन गज से ज्यादा कपड़ा आप पहन नहीं सकते। आप चार गज से बड़ी चारपाई पर नहीं सो सकते। आप सौ गज की चारपाई पर सो करके दिखाइये? आप ऐसा कीजिए कि कुर्ता बनवाइए, जो सौ गज का हो। आप इतना बड़ा कुर्ता सिलवाइए, तब मैं जानूँ कि आप कैसे कमाने वाले और कैसे खाने वाले हैं? अच्छा आपके घर में सौ मन गेहूँ पैदा हुआ है। आप ऐसा कीजिए कि पहले आप चार रोटी खाते थे, आज आप अस्सी रोटी खा करके दिखाइये। कैसे खायी जा सकती हैं? नहीं खायी जा सकतीं।
मित्रो! आदमी का कोटा मुकर्रर है। उससे ज्यादा आदमी इस्तेमाल नहीं कर सकता। केवल अपने मन बहलाव के लिए यह कह सकता है कि हमारे पास इतनी चीजें थीं और इतनी चीजों के हम मालिक थे। वास्तव में यह एक खालिस वहम है। आपके पास क्या था और क्या रह सकता है? न आपके पास कुछ था और न आपके पास रखा जा सकता है? आपके मरने के बाद आपकी चीजें, आपके साले की हो जाती हैं, बहनोई की हो जाती हैं, भतीजे की हो जाती हैं, लड़के की हो जाती हैं। मौसी की हो जाती हैं, मौसा की हो जाती हैं। आपका कुछ भी नहीं रहता, क्योंकि वे दुनियावी चीजें थीं। मौसी और मौसा के पास रहती हैं क्या? नहीं, फिर वे मौसी-मौसा के पास भी नहीं रहतीं। साले के पास भी नहीं रहतीं। फिर उसे साले-का ले जाता है। इस तरीके से सारी-की दुनियावी जो चीजें हैं, दौलतें हैं, आपस में घूमती रहती हैं और घूमना उनका काम है। घूमना एक फर्ज है।
मित्रो! अभी जो नोट हमारे जेब में था, अब वह आपकी जेब में आ गया। अभी उसकी जेब में चला गया। अभी हलवाई के जेब में चला गया। हलवाई की दुकान से पान वाले की दुकान की ओर चला गया। पान वाले के पास से वह दूसरे के पास चला गया। शाम तक न जाने कितनों के पास वह पैसा जाता है? पैसा घूमता रहता है। चीजें घूमती रहती हैं, लेकिन हम हैं, जो यह ख्याल और यह तमन्ना बनाये बैठे रहते हैं कि इस दौलत के हम मालिक हैं। इससे क्या हर्ज होता है? इससे बड़ा हर्ज होता है। इससे यह हर्ज होता है कि मनुष्य इतना वक्त, इतना समय, इतना श्रम, इतनी अक्ल, इतनी भावनायें—यह जो तीन-चार चीजें उसके पास हैं। उन्हीं तीन-चार चीजों को दुनियावी कामों में, छोटे कामों में, निकम्मे कामों में खर्च कर डालता है। फिर भगवान के लिए उसके पास क्या बचेगा? कुछ नहीं बचेगा, केवल उसके पास क्रियाकृत्य रह जाता है। इस तरह वह उद्देश्य अधूरा रह जाता है, जो आध्यात्मिकता का था और हम कर्मकाण्ड मात्र करके पूरे हो जाते हैं, संतुष्ट हो जाते हैं और यह मान लेते हैं कि जो हमारा आध्यात्मिक फर्ज था, हमने पूरा कर लिया। वस्तुतः हमारा आध्यात्मिक फर्ज पूरा नहीं हुआ।
स्वर्गीय जीवन का सूत्र—आध्यात्मिकता
मित्रो! मेरे गुरु ने मुझे ४५ वर्ष पूर्व बताया था कि आध्यात्मिकता मनुष्य को सामर्थ्य देने वाली है। आध्यात्मिकता जो मनुष्य के नारकीय जीवन को स्वर्गीय आनंद से भर देने वाली, स्वर्ग के जीवन में बदल देने वाली है। हमें केवल विचार करने की जरूरत है, दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है। मरने का इंतजार करने की जरूरत नहीं है कि मरने के बाद आपको स्वर्ग मिलेगा। आपको इसका इंतजार करने के लिए एक मिनट की भी जरूरत नहीं है। आप अपनी विचारणाओं को बदल दीजिए। अपनी भावनाओं को बदल दीजिए, फिर आप देखिए। आप अपने तौर-तरीके बदल दीजिए, फिर आप देखिए कि आपने जो नेकी के काम करने शुरू किये और आपने स्वार्थपरता के कामों से हाथ खींचना शुरू किया, तो फिर आपको कैसा मजा आया।
मित्रो! खाने का भी एक मजा होता है और खिलाने का भी एक मजा होता है। खिलाने का मजा किसी-किसी को आता है। हमारे पड़ोस में एक राजा महेंद्र प्रताप थे। उनकी उम्र बहुत हो गयी। वे पचास वर्ष के हो गये। उनके यहाँ कोई संतान नहीं थी। हरेक ने कहा कि आपको ब्याह कर लेना चाहिए? क्यों? इसलिए कि आपको संतान नहीं हुई। किस काम के लिए? इस काम के लिए कि जो कुछ भी आपके पास कमाई है, वह आपकी संतान खाये। उन्होंने कहा—संतान के अलावा और लोग खा लें तो? नहीं साहब! जो कुछ भी आदमी कमाये, उसकी संतान खाये और कोई नहीं खाये। राजा साहब ने कहा—भाई! यह क्या बात हुई कि केवल संतान खाये और कोई नहीं खाये। कई लोग आये और उन्होंने कहा—आप दूसरा ब्याह नहीं करना चाहते, तो हमारा बच्चा गोद ले लीजिए और जो कुछ भी है, सब उस लड़के को दे जाइये। राजा साहब ने कहा—यह गलत बात है। एक आदमी क्यों खायेगा? इस देश में असंख्य मनुष्य भूखे हैं, पीड़ित हैं, दुःखी हैं, दरिद्र हैं, उनको क्यों नहीं दिया जाय?
मित्रो! जो आवे, वह यही कहे कि साहब! ब्याह कर लीजिए, नहीं साहब गोद ले लीजिए। जीजा आवे तो यह कहे, साला आवे तो यह कहे, मित्र आवे तो यह कहे और कोई मोहल्ले वाला आवे, तो यही बात कहे। उन्होंने कहा—अच्छा मैं तुम्हारा इलाज करता हूँ बेईमानों। तुम जो कह रहे हो, वह तो मैं नहीं करूँगा। बस, राजा महेंद्र प्रताप ने क्या काम किया? सब जगह खबर भेज दी कि हमारा एक छोकरा हो गया, लड़का हो गया। बस, नफीरी बजने लगी, शहनाई बजने लगी और निमंत्रण कार्ड छप गये। सब जगह कार्ड भेज दिये गये कि राजा साहब के लड़का हुआ है। शामियाने लग गये और तंबू लग गये। जब बच्चे का नामकरण रखा जाने वाला था, पत्नी आई हुई थीं। दोनों खड़े हुए। दोनों ने हाथ जोड़कर कहा—भाइयो! बच्चा औरत को नहीं हुआ है, मेरे हुआ है। उन्होंने अपनी सारी संपदा का एक ट्रस्ट बनाया और उसे जनता को, राष्ट्र को समर्पित कर दिया। उससे जो आनंद उन्हें मिला, उसकी व्याख्या भला कौन कर सकता है।
देने वाले का नाम है—देवता
मित्रो! खिलाने का आनंद देवता को आता है। देवता उन्हें कहते हैं, जो खाते तो कम हैं, लेकिन खिलाते ज्यादा हैं। इंद्र देवता हैं, जो खाता तो कम है। जब कभी आपका मन आता है, तो इंद्र देवता को आहुति देते हैं—‘‘इन्द्राय स्वाहा—इदम् इन्द्राय इदम् न मम।’’ अपना स्वार्थ भूल जाइये और इंद्रदेव की ओर देखिए। वह आपको मकान के ऊपर पानी, छत के ऊपर पानी, घर के ऊपर पानी, धरती के ऊपर पानी, सारी रात पानी फेंकता रहता है। बताइये ‘‘इन्द्राय स्वाहा’’ में कितना घी लगा। सात आहुति की थी, उसमें से एक आपकी थी। एक बूँद घी दे दिया। किसको? इन्द्र देवता को और इन्द्र देवता ने कितना पानी दिया? बहुत पानी दिया। देने की वृत्ति जिनके अंदर होती है, वह आदमी सूखा नहीं रहता। देने की वृत्ति मनुष्य के अंदर जब कभी भी आयेगी, तो मनुष्य सूखा नहीं रह जायेगा, वरन् बड़ा शांत और बड़ा उदात्त हो जायेगा और भगवान की सारी की सारी दौलत उसके ऊपर न्यौछावर हो जाएगी, उसके ऊपर बरसना शुरू हो जायेगी। दुनिया में यही हुआ है और यही होता रहेगा।
मित्रो! हमारे बारे में भी यही हुआ। आध्यात्मिकता का पहला चरण मुझे सिखाया गया था—‘‘असतो मा सद्गमय’’ और दूसरा वाला चरण जो मैंने आज आपको बताया और आज आपको सिखाया, जो मुझे सिखाया गया था, वह था—‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’—अंधकार की ओर नहीं, प्रकाश की ओर चल। आज असंख्य मनुष्य अंधकार की ओर बढ़ते हुए चले जाते हैं। असंख्य मनुष्यों को मैंने देखा, जिनमें से हर आदमी अँधियारे में चल रहा है। हर आदमी संग्रह की ओर चल रहा है। हर आदमी अपना वैभव बनाने के लिए चल रहा है। हर आदमी काम वासना के लिए चल रहा है। हर आदमी तृष्णा के लिए चल रहा है। मैंने हरेक आदमी को एक दिशा में चलता हुआ देखा और मैंने अपनी आँखें बदल दीं, अपनी नजरें बदल दीं और मुझे गीता का ज्ञान हो गया। गीता के ज्ञान में मैंने एक बार, एक श्लोक पढ़ा था। इसमें यह बात बतायी गयी थी कि योगी दिन में सोया करते हैं और रात को जागा करते हैं और मनुष्य दिन में जागा करते हैं और रात को सोया करते हैं।
मित्रो! मुझे बड़ा खराब लगा कि योगियों की ऐसी मिट्टी पलीद हो गयी कि रात में योगी जागें और दिन में सोयें। ऐसा क्यों? रात में योगी जागेगा और चोरी करेगा। डाका डालेगा। व्यभिचार करेगा। जानवर खोलकर ले जायेगा। आखिर रात में वह क्या करेगा? पहरा देगा, क्या करेगा रात में? नहीं साहब! योगी को दिन में सोना चाहिए और रात को जागना चाहिए। यह भी कोई बात है? मुझे बहुत बेतुका और बेहूदा लगा। लेकिन जब मैंने बहुत बारीकी से गौर करना शुरू किया, तब मुझे यह मालूम पड़ा कि वह तो अलंकार था।
अलंकार के रूप में यह कहा गया था कि सारे-के मनुष्य माया में डूबे हुए हैं। अज्ञान में डूबे हुए मनुष्य और अंधकार में डूबे हुए मनुष्य जिस तरीके से विचार करते हैं और जिस तरीके से सोचते हैं और जिस तरह की गतिविधियाँ अपनाते हैं, उससे एक अलग किस्म का तरीका होता है उन लोगों का। उन लोगों का अलग किस्म का तरीका होता है, जो आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलते हैं। उनके विचार करने का क्रम और सोचने का क्रम और काम करने का क्रम अलग-अलग है। आप लोगों को भी यही मार्ग अपनाना चाहिए और श्रेयमार्ग का पथिक बनना चाहिए। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥