उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! क्रिया और विचार इन दोनों बातों का समन्वय अगर आप कर डालें, तो चमत्कार पैदा हो जाएगा। बया नाम का एक पक्षी होता है। जब वह अपना घोंसला बनाता है, तो कैसी तबियत से बनाता है, कैसे मन से बनाता है कि छोटे-छोटे तिनकों को एक-एक चुनकर के लाता है। उन्हें गूँथकर ऐसा बढ़िया घोंसला बना देता है कि क्या मजाल है कि अंडा हवा के झोंके से तबाह हो जाए? क्या मजाल है कि कौआ उसमें झपट्टा मार दे? उसमें उसके बच्चे मौज के साथ बैठे देखते रहते हैं। कोई आदमी सड़क पर से जब निकलता है, तो उस घोंसले को देखता रह जाता है कि यह बया का घोंसला है। कितना शानदार घोंसला है। हर जगह से उसकी प्रशंसा होती है। बया स्वयं प्रसन्न रहती हैं और देखने वालों की तो तबियत बाग बाग हो जाती है।
मित्रो! क्या विशेषता है बया में? कोई विशेषता नहीं है बेटे, मन लगाकर कोई भी काम करो, तो शानदार होता हैं। मन लगाकर काम नहीं किया (जाए तो बेटे उसका सत्यानाश हो जाता है। एक पक्षी का नाम है -कबूतर। कबूतर बया की तुलना में चार पाँच गुना बड़ा होता है। इतना बड़ा होता है, पर घोंसला कैसे बनाता है? बया का घोंसला जग आप देखना और कबूतर का भी घोंसला देखना। वह बड़ी-बड़ी लकड़ी बीनकर ले आता है जोर एक इधर रख दी, एक उधर रख दी और एक किधर को रख लेता है और उसमें ही अपने अंडे देने लगता है। उस पर ही बैठा रहता है। हवा क। झोंका आता है बस घोंसला गिरता है नीचे और कबूतर गिरता है ऊपर। अंडे फूटकर अलग हो जाते हैं बच्चे मरकर जहन्नुम चले जाते हैं। उसकी सारी की सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है और देखने वाले कहते हैं कि यह कबूतर कैसा बेअकल है, कैसा बेवकूफ है?
काम में मन लगाइए
बेटे! मैं क्या कहता हूँ? यह कहता हूँ कि अपने सामान्य जीवन के सारे क्रिया-कलाप, चाहे वे बहिरंग जीवन के हों या अंतरंग जीवन के, मामूली काम के लिए भी अगर आपने काम में तबियत नहीं लगाई, आपने मन नहीं लगाया, तब काम बड़ा फूहड़, कुरूप, बेसिलसिले का, बेहूदा, बेढंगा हो जाएगा। अगर किसी काम में मन लगा दिया जाए तो उसमें एक चमत्कार दिखाई पड़ेगा, जादू दिखाई पड़ेगा। मन लगाकर किए हुए काम और बिना मन लगाए किए हुए कामों में जमीन-आसमान का फर्क होता है। स्पष्ट दिखाई देता है कि यह मन लगाकर किया गया है या नहीं। यह मशीन हमारे सामने रखी है। इसमें दो तार हैं, एक निगेटिव कहलाता है और एक पॉजिटिव कहलाता है। इन्हें ठंडे और गरम तार भी कहते हैं। दोनों मिल जाते हैं तो करंट चालू हो जाता है और अगर दोनों को अलग कर देते हैं, तो एक तार बेकार सा हो जाता है, दूसरा भी बेकार पड़ा हुआ है, कुछ काम आता नहीं। शरीर को हम अलग कर दें और मन को हम अलग कर दें, दोनों का हम समन्वय न करें, तो हमारे जो भी काम होंगे बेसिलसिले के और बेहूदे होंगे।
मित्रो! एक काम है भजन। भजन के संबंध में भी यही बात है। बिना मन से किया हुआ भजन और मन से किए हुए भजन में जमीन-आसमान का फर्क होता है। बिना मन से किया हुआ भजन ऐसा है, जिसमें केवल जबान की नोंक की लपालपी और हाथों की उँगलियों की नोंक की हेरा-फेरी की क्रिया भर होती रहती है। चावल यहाँ रख दिया, नमस्कारं करोमि, जैसी क्रियाएँ दीपक इधर का उधर किया, आरती उतार दी, यह कर दिया, वह कर दिया। हाथों की हेरा-फेरी, वस्तुओं की उलटा-पलटी और जीभ की लपालपी, बस भजन हो गया। अच्छा तो हो गया अनुष्ठान, हो गई साधना? नहीं बेटे, कुछ नहीं हुआ। यह तो केवल शारीरिक क्रिया हुई है। शरीर की क्रियाओं का जो फल मिलना चाहिए बस वही मिलता है। इससे ज्यादा कुछ और फल नहीं मिल सकता।
मन क्यों भाग जाता है?
मित्रो! अगर साधना का चमत्कार आपको देखने का मन हो और साधना से सिद्धि की जो बात बताई गई है, वह करना हो तो आपको पहला काम क्या करना पड़ेगा? आपको सबसे पहले अपने काम में मन लगाना पड़ेगा। कोई भी काम हो, जिसमें भजन भी शामिल है, मन लगाकर करना पड़ेगा। भजन के साथ में मन लगाना चाहिए। मन लगाने से क्या मतलब है? मन लगाने से मतलब यह है कि मन भागना नहीं चाहिए और उपासना में लगना चाहिए। महाराज जी, यही तो हमको शिकायत है। क्या शिकायत है? मन भाग जाता है, अच्छा तो आपको यह शिकायत है। चलिए हम बताते हैं, फिर मन भाग जाए तो आप हमसे कहना। अब क्या करें? बेटे! मन को किसी काम में लगाया जाए। मन की बनावट ऐसी है कि जब कोई काम नहीं होगा तो मन भाग जाएगा। जब मन के भागने की आप शिकायत करते हैं, तो मैं हमेशा उसका उत्तर यह देता हूँ कि शायद आपने मन को किसी काम में नहीं लगाया। मन को काम में नहीं लगाया जाएगा तो मन भागेगा ही। घोड़े को आप काम में लगा दीजिए ताँगे में लगा दीजिए सवारी में चला दीजिए कहीं भी लगा दीजिए तो घोड़ा काम में लगा रहेगा। घोड़े को आप खोल दीजिए उसके गले में से रस्सी खोल दीजिए फिर देखिए घोड़ा भागेगा ही। फिर आप कहेंगे कि साहब हमारा घोड़ा भाग गया। बैल को आप खाली छोड़ दीजिए वह भाग जाएगा।
मित्रो! उपासना के समय भी हम अकसर अपने मन को खाली छोड़ देते हैं, छुट्टल छोड़ देते हैं। उसे कोई काम सौंपते नहीं, कोई जिम्मेदारी सौंपते नहीं, इसीलिए मन भाग जाता है। मन भागेगा नहीं तो क्या करेगा? नहीं साहब! मन भागना नहीं चाहिए। बेटे! मन भागेगा नहीं तो क्या करेगा? भागना तो उसकी आदत है। उसकी तो बनावट ही ऐसी है, उसकी संरचना ही ऐसी है, उसकी इलेक्ट्रानिक संरचना ही ऐसे ढंग से की गईं है कि उसको भागना चाहिए। भागना तो उसका स्वाभाविक गुण है। अगर वह भागेगा नहीं तो आदमी या तो सिद्धपुरुष हो जाएगा, समाधि में चला जाएगा या फिर पागल हो जाएगा। दो में से एक काम हो जाएगा। मन को तो भागना ही चाहिए। भागना उसका स्वाभाविक गुण है इसलिए उसका कोई कसूर नहीं है। मन का भागना बंद कीजिए। नहीं बेटे! यह नहीं हो सकता।
मन का भागना बंद करने के क्या तरीके हैं? यह मैं कल आपको समझा रहा था कि उपासना में क्रिया के साथ-साथ मन को भी लगाइए। मन कैसे लगाएँ? बेटे, मैं यही तो समझा रहा था। प्रत्येक क्रिया के साथ क्या संकेत जुड़े हुए हैं, क्या शिक्षण भरा हुआ है, उस पर गौर कीजिए। साथ ही यह भी गौर कीजिए कि किस काम के लिए यह किया जा रहा है? जिस काम के लिए भी किया जा रहा है, क्रियाएँ जो भी की जा रही हैं, उनका उद्देश्य क्या है आम लोगों ने क्रियाओं को यह समझ रखा है कि कोई ऐसी बात नहीं है। कुछ लोगों का यह भी ख्याल है कि क्रियाओं को देखकर भगवान भी प्रसन्न हो जाते हैं। क्या कर रहे हैं? बच्चों जैसी उलटी पुलटी हरकतें करते हैं। मम्मी हम यह घर बना रहे हैं: हाँ बहुत खूब बेटे, अच्छा है घर बनाओ। भगवान जी! हमारे बच्चे को गायत्री मंत्र आता है। कैसा गायत्री मंत्र आता है? '' ॐ भूः भुव: स्वः''। अच्छा तो तू भी ऐसे ही भू भुव: कर लेता है। भगवान जी वैसे तो समझते हैं कि आदमी जबान से क्या क्या बकवास कर लेता है? अब चलिए मैं आपके मंत्रों को बकवास कहता हूँ। जीभ की नोंक से आप क्या बक बक मचाते रहते हैं? उससे भगवान प्रसन्न नहीं होता है, तो क्या केवल हाथों की उलटा पुलटी और जीभ की नोंक की हेरा-फेरी से भगवान प्रसन्न नहीं होता है? हाँ बेटे, नहीं होता है। तो किससे प्रसन्न होता है? आपके मन से, हृदय से और भावनाओं से।
चेतना व चिंतन का मेल हो
मित्रो! आपका जो वास्तविक अस्तित्व है जो हाथ नहीं आता है, वह पदार्थ नहीं है, चावल और धूपबत्ती नहीं है, जीभ की नोंक नहीं है। आपका जो वास्तविक अस्तित्व है, जिसके द्वारा भजन किया जाना चाहिए वह है आपका चिंतन। चेतना, चिंतन से ताल्लुक रखती है। चेतना का स्रोत है-चिंतन। चिंतन को कहाँ लगाएँ? सीधी सी बात है-चिंतन कहाँ लग रहा है, यह आप देखें। आप कहीं लग रहे हों, जीभ कहीं लग रही हो, वस्तुएँ कहीं भी रखी हों, माला कहीं भी चल रही हो, पर बेटे, आप यह बताइए कि आपका चिंतन कहाँ लग रहा है? गुरुजी! चिंतन तो भागता रहता है। तो बेटे, भजन कहाँ हो रहा है? चिंतन को लगाने का उद्देश्य यह है कि जिस काम के लिए जो क्रियाएँ कराई जा रही हैं, आप उस इशारे पर आ जाइए कि उस इशारे के साथ में आपको क्या चिंतन करना चाहिए?
बेटे! हम सवेरे आत्म-ध्यान कराते हैं। आत्म-ध्यान कराने के साथ-साथ सजेशन देते हैं, निर्देश देते हैं। इसका क्या मतलब है? निर्देश से मतलब है कि जिस समय हम जो बात कहें, वैसे ही आपका विचार चलना चाहिए। जो हम कहें वैसी कल्पना कीजिए। हमने कहा, सप्तऋषियों का तपस्थान, आप ध्यान कीजिए कि सात ऋषि बैठे हुए हैं। बड़ा घना जंगल है और सातों ऋषि समाधि लगाए हुए हैं। यह पुनीत स्थान जहाँ उनके शरीर पेड़ों की सघन छाया में है। आप इस तरह की कल्पना कीजिए मन स्थिर हो जाएगा। बेटे, आपका मन भाग जाए, तो हमसे कहना। हम जो बताते हैं उसमें आपको ध्यान लगाना चाहिए फिर देखिए कैसे मन भाग जाएगा। सवेरे हम आपको जो सजेशन देते हैं, उसके हिसाब से आप अपने चिंतन को और अपने विचार करने की श्रेणी को उसी पर स्थापित कीजिए, केंद्रित कीजिए। हमने आपसे कहा प्रातःकाल का स्वर्णिम सूर्योदय। आप विचार कीजिए कि प्रातःकाल का लाल रँगा सूरज, सवेरे निकलता हुआ बड़ा वाला सूरज, पूरब से निकला, थोड़ा निकला, अभी थोडा़ और बढ़ा, अभी और बढ़ा और पूरा सूरज निकल आया। क्या मतलब है? बेटे, हमने आपसे कहा कि अपने मन को हमारी कही हुई बात पर लगा दें, फिर आपका मन, उस काम पर लग जाएगा, तो भागने का सवाल ही नहीं है। यदि काम पर नहीं लगा, तब तो भागेगा ही।
इसलिए क्या करना चाहिए? प्रत्येक क्रिया के लिए जो कर्मकाण्ड बनाए गए हैं, वे श्रेष्ठ काम के लिए बनाए गए हैं। कर्मकाण्ड करते समय आपका ध्यान डस क्रिया पर जाए जो बोलकर तो नहीं बताई गई है, पर क्रिया के माध्यम से बता दी गई है। कल हमने आपको बताया था कि आचमन से हमारी वाणी का परिष्कार होता है। कल जब आप आचमन करें तो यह ध्यान करें, यह विचार करें कि हमारी वाणी का संशोधन हो रहा है। वाणी को हम धो रहे हैं, वाणी को हम साबुन लगा रहे हैं। वाणी को पत्थर पर पीट रहे हैं, वाणी की ढलाई कर रहे हैं। वाणी पर पानी डाल रहे हैं। जैसे बच्चा गंदा हो जाता है, टट्टी कर आता है, तो उसके ऊपर बाल्टी से पानी डालते हैं, उसे धोते हैं, नहलाते हैं, उसको साफ करते हैं। आप यह विचार कीजिए कि हमारी वाणी जो अभक्ष्य खाने की वजह से, अवांछनीय वार्त्तालाप करने की वजह से गंदी हो गई है, इसको हम धोते हैं और साफ करते हैं। जैसे धोबी, धोबीघाट पर कपड़े ले जाकर पत्थर पर रगड़ता है। आप कल्पना कीजिए कि अपनी जीभ को धोबी की तरह से हम घाट पर ले जाते हैं और पत्थर पर रगड़कर धोते हैं। पानी का जो हमने आचमन कर लिया, उसके सहारे हम अपनी जीभ को दे पिटाई-दे पिटाई, दे डंडा-दे डंडा और उसका सारा का सारा कचूमर निकाल देते हैं। फिर देखिए कि वह गंदी रहेगी कि साफ होगी? साफ होगी।
साधना ऐसे जीवंत होगी
गुरुजी! और क्या बताएँगे? बता तो रहे हैं। बेटे, प्रत्येक क्रिया के साथ में चिंतन दिया हुआ है। ऋषियों ने जितने भी कर्मकाण्ड बनाए हैं, उनके साथ में चिंतन दिया है। चिंतन के साथ-साथ क्रिया को मिला देंगे, तो मन और क्रिया का समावेश हो जाएगा। ये दो चीजें शामिल हो जाएँगी-विचारणा और क्रिया तो चमत्कार हो जाएगा। विचारणा और क्रिया को मिला देने से हमारा शरीर और मन जिस तरीके से दोनों एक बन जाते हैं, वैसे ही आपकी साधना जीवंत हो जाएगी। प्रत्येक क्रिया के साथ हम पाँच उपासनाएँ बताते हैं। पाँच उपासनाओं का मोटा-मोटा स्वरूप हमने पत्रिकाओं में भी छाप दिया था और पिछले साल भी हमने स्वर्णजयंती साधना सिखाई थी। गुरुजी हम स्वर्णजयंती साधना वर्ष की साधना करते हैं और भजन भी पैंतालीस मिनट करते हैं। भजन तो करता है बेटा, पर तू एक बात तो बता कि उस कर्मकाण्ड के साथ-साथ जो विचार हैं, उनको भी करता है कि नहीं।
नहीं महाराज जी! मैं तो लगा रहता हूँ बस माला पूरी कर लेता हूँ। माला पूरी कर लेता है तो तेरे लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। तेरे लिए बहुत आशीर्वाद, परंतु बेटा जब माला करता है, तो उसके साथ-साथ विचारों को भी लाता है कि नहीं? महाराज जी, विचार तो मेरे भागते रहते हैं। तो बेटा! भगवान की उपासना तेरी अधूरी है। तेरी उपासना का जो परिणाम मिलना चाहिए था, उससे जिस वातावरण का परिशोधन होना चाहिए था, उस वातावरण का परिशोधन हुआ क्या? जिस उद्देश्य से हमने प्रेरणा दी थी, शक्ति दी थी और दीक्षा दी थी, शिक्षा दी थी। न हमारा उद्देश्य पूरा हुआ, न तेरा हुआ और न ही भगवान का। तीनों में से एक का भी उद्देश्य पूरा नहीं हुआ, इसलिए क्रिया के साथ-साथ में विचारणा का समावेश करने की शिक्षा मैं हमेशा देता रहा हूँ और देता रहूँगा।
मित्रो! कल मैंने आत्मशोधन की प्रक्रिया आपको बताई थी कि गायत्री पंचमुखी भी है। पाँच कोशों में उसके पाँच मुख हैं। गायत्री उपासना पाँच चरणों में बँटी हुई है। पहला कृत्य है-आत्मशोधन की क्रिया। आत्मसंशोधन की क्रिया जिसमें हम पाँच कृत्य कराते हैं। (१) पवित्रीकरण कराते हैं (२) आचमन कराते हैं, (३) शिखा बंधन कराते हैं, (४) प्राणायाम कराते हैं, (५) न्यास कराते हैं। इन पाँच क्रियाओं का एक उद्देश्य है कि हम अपने पाँचों कोशों को, पाँचों तत्वों को, पाँचों प्राणों को शुद्ध बनाते हैं। उपासना में पहला काम है सफाई करना। हमारे दिमाग में एक बात आनी चाहिए कि हमको भगवान के चरणों में जाने के लिए नहा-धोकर जाना चाहिए। स्वच्छ और पवित्र होकर जाना चाहिए। हमारी जीवन क्रियाएँ पवित्र होनी चाहिए। हमारा चिंतन पवित्र होना चाहिए। हमारे साधन पवित्र होने चाहिए और हमारे जीवन की गतिविधियाँ पवित्र होनी चाहिए। अगर हम पवित्रता का पहला उद्देश्य पूरा कर लेते हैं, तो समझना चाहिए कि पाँच मुख वाली गायत्री की हमारी उपासना सफल हुई।
सर्वप्रथम, जीवन का परिष्कार
गायत्री के पंचकोश जागरण करने की प्रक्रिया में गुरुजी आपने तो ब्रह्मचर्य की बात कही थी। बेटे, हम बताते हैं कि ब्रह्मचर्य तेरे लिए यहीं से शुरू होता है। औरों के लिए बड़ों के लिए हम कुंडलिनी बता देंगे, पर तेरे लिए कुंडलिनी जगाना बेकार है। तेरे लिए तो यहीं से शुरू होता है। तु यह बता कि तूने अपने जीवन का परिष्कार कर लिया कि नहीं, तभी बेटे बात बनेगी अन्यथा नहीं? हमारे गुरु ने हमें बार-बार बुलाया है। बार-बार बुलाने की शृंखला उन्होंने उस समय से प्रारंभ की जिस समय कि हमारे चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण पूरे हो गए। जब उन्होंने यह देख लिया कि इसने अपना मन, अपना शरीर और अपनी जिह्वा का संशोधन करके इस लायक बना लिया कि हमारी गोदी में आ सकता है, तब उन्होंने अपनी लंबी वाली भुजाएँ फैलाई और कहा, अब तो तुझको मेरे पास आना चाहिए। मैंने कहा पहले क्यों नहीं बुलाया था आपने? मुझे चौबीस साल हो गए जब तो मैं जवान ही था। उन्होंने कहा, तब तक तू संशोधित नहीं हो सका था। मैंने देखा था कि तेरी सफाई में कमी थी, तेरी शुद्धता में कमी थी। तेरी शारीरिक और मानसिक शुद्धता का जो स्तर होना चाहिए उसमें मैंने कमी पाई, इसलिए मैंने सोचा कि अभी और निखार लूँ अभी और तेरे कपड़ों की धुलाई कर लूँ। अब तेरी चड्ढी भी धुल गई, तेरा मन भी धुल गया, तेरा सब धुल गया, अब मेरा मन आता है कि तुझे गोदी में लूँ। अपने पिता से मैं लिपटता हुआ चला गया, उनका दूध पीता हुआ चला गया, उनकी शक्ति-सामर्थ्य को प्राप्त करता हुआ चला गया।
मित्रो! संशोधन का यह काम आवश्यक है, उपासना से भी ज्यादा, भजन से भी ज्यादा। कर्मकाण्ड से भी ज्यादा आवश्यक है। अति आवश्यक है कि आप भी अपना आत्मसंशोधन कर लें, तो बात बने। लोहा जब तक कच्चा रहता है, तब तक उसकी कोई चीज नहीं बन सकती। हमने भिलाई और टाटानगर में कच्चा लोहा देखा। कच्चा लोहा वैगन में भरकर आता था। कच्चा लोहा कहाँ से आता है? साहब! यह जमीन में से खोद खोदकर आता है। साहब! जरा लोहा दिखाना। यह ऐसा लोहा जैसे मिट्टी मिला हो। यह लोहा है। यह कैसा लोहा है? साहब! यही लोहा है। अरे बाबा! यह कैसा लोहा है, यह तो कुछ और ही है। नहीं बाबा! यही लोहा है मिट्टी मिला कच्चा लोहा। बेटे, कैसा लोहा था-मिट्टी थी, भारी भारी पत्थर थे। तो अब इससे लोहा कैसे निकलेगा? देखिए अब तमाशा दिखाते हैं कि इसमें क्या-क्या होता है? कच्चा लोहा लिया और तुरंत लेने के बाद उसको भट्ठी में डाल दिया, गरम किया, पकाया। पकाने के बाद में मिट्टी अलग होती चली गई और लोहा अलग होता चला गया। एक बार सफाई हो गई। दोबारा लोहे को फिर से भट्ठी में डाल दिया, उसमें जो कचाई थी कमजोरी थी, फिर उसमें से साफ हो गई। आगे भी फिर यही प्रक्रिया दोहराई गई। ऐसा होते-होते आखिर में सफाई की प्रक्रिया जब चलती चली जाती है, तो स्टेनलेस स्टील बनती जाती है। स्टेनलेस स्टील कैसी होती है? बेटे, ऐसी होती है, चाँदी जैसी। लोहे में और चाँदी में फर्क नहीं होता है? नहीं साहब! लोहा काला रहता है। नहीं साहब! काला नहीं होता सफेद होता है। लोहा मैला होता है, जंग लग जाती है। नहीं साहब! लोहे को जंग नहीं लगती। स्टेनलेस स्टील को देखिए इसको जंग नहीं लगती है। तो क्या कच्चा लोहा स्टेनलेस लोहा हो सकता है? हाँ हो सकता है। कब, जब लोहे को परिशोधित करते हुए संशोधित करते हुए चले जाएँ।
सबसे बड़ा योगाभ्यास
मित्रो! वास्तव में जीवन जीने की विधि भी यही थी। पर हाय रे भगवान! न जाने लोगों ने क्या कर दिया, लोगों ने क्या व्याख्या कर दी? उपासना को, साधना को लोगों ने जादू मान लिया। अध्यात्म को मनोकामना पूरा करने का जादू मान लिया; यह जादू नहीं है, यह जीवन जीने की कला है। जीवन को संशोधित करने की विधि है। आपका जीवन इतना बड़ा जीवन है कि इस पर हम देवताओं को निछावर कर सकते हैं, भगवान को हम इस पर निछावर कर सकते हैं। भगवान से बड़ा है जीवन। वह साक्षात भगवान है; इस जीवन को परिष्कृत करना अपने आप में सबसे बड़ा योगाभ्यास है। उसे साधना कहिए उसे तप कहिए उसे भजन कहिए-इन सबका उद्देश्य भगवान को रिझाना नहीं है, भगवान की खुशामद करना नहीं है, भगवान को फुसलाना नहीं हैं, भगवान को बहकाना नहीं है। भगवान के आगे तरह-तरह के जाल बिछाना नहीं है। भगवान की उपासना का उद्देश्य एक तो यह है कि हम अपने आप को परिशोधित करते चले जाएँ। अपने आपका परिशोधन करते हुए चले जाएँगे, तो फिर देखेंगे कि क्या कमाल होता है? देखें फिर क्या मजा आता है? देखिए आपके पास कैसे सब चमत्कार आते हैं? मैं आपसे यही कहने वाला था कि आप अपनी वाणी को संशोधित कर लीजिए, फिर आप अपनी जुबान से कहिए कि तेरा भला हो जाए, आशीर्वाद हो जाए और तेरा कल्याण हो जाए। फिर देखना क्या होता है और क्या नहीं होता है। कैसी-कैसी चीजें उड़ती हुई चली आती हैं।
आप अपनी आँखों को संशोधित कर लीजिए फिर देखिए कैसे चमत्कार होता है। आँखों को संशोधित कैसे करें? आँखों को संशोधित ऐसे करें जैसे गान्धारी ने की थीं। गान्धारी ने कैसे किया था? गान्धारी ने आँखों को संशोधित करने के लिए अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली थी। पट्टी बाँधने का मतलब यह है कि दूसरों की, व्यक्तियों की, नर और नारियों की जो मान्यताएँ हैं, उससे आप प्रभावित न हों। गान्धारी ने तो अपनी आँखों में पट्टी इसलिए बाँध ली थी कि उसका जो अंधा पति था, उससे उसकी शादी हुई थी, इसलिए उसने अपनी आँखों में पट्टी बाँध ली थी कि मेरा मर्द एक ही है, दूसरा कोई मर्द है ही नहीं। आँखों का संशोधन करने के पश्चात न कोई जप किया, न तप किया और न कोई पूजा की, न कोई अनुष्ठान किया और न कोई ध्यान किया। गान्धारी ने आँखों में जो पट्टी बाँधी थी, उसका मतलब आपको समझ लेना चाहिए। पट्टी बाँधने का मतलब यह नहीं है कि अपने आप से पट्टी बाँधें। क्यों साहब, सूरदास जी ने अपनी आँखें फोड़ ली थीं या फूट गई थीं और हम भी फोड़ लें तो क्या भगवान दिखाई पड़ेंगे? बेटे, यह गलती तो मत कर लेना। आँखें फोड़ने से मतलब है कि हमारी जो कमीनी आँखें, दुष्ट आँखें हैं; जो नारी को, मातृशक्ति को विषय वासना के रूप में देखती हैं, तो उन्हें हम फोड़ दें अर्थात बदल दें। फिर देखना आँखों का चमत्कार कैसे होता है?
गुरु जी, सिद्धियों का दूसरा तरीका बताइए? क्या तरीका बताएँ? कोई ऐसा मंत्र बताइए कि जिससे काली हमारे काबू में आ जाए, देवी हमारे काबू में आ जाए फलानी हमारे काबू में आ जाए। धूर्त, देवी तेरे काबू में आ जाएगी, तो तेरा कचूमर निकाल देगी। कैसे? वैसे ही जैसे एक बार शुंभ ने अपने दूत से संदेश भेजा, कहा कि देवी तू हमारे काबू में आ जा। काबू से क्या मतलब है? तू हमारी बीबी बन जा। किससे कहने लगा था? चंडी से कि हमारे कहने में चल, हमारे या हमारे भाई निशुंभ की सेवा में आ जा। देवी ने कहा, अच्छा आप हमें बीबी बनाना चाहते हैं? हाँ, आप हम पर हुकुम चलाना चाहते हैं? हाँ, आप हमें गुलाम बनाना चाहते हैं? देवी ने कहा, हम आपकी नौकरानी बन सकती हैं और गुलामी भी कर सकती हैं, पर हमने एक प्रतिज्ञा कर रखी है। आपको हमारी एक शर्त माननी पड़ेगी। बोले-क्या?
यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति। यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति।।
मैं तुझे अपना पति बनाने को तैयार हूँ और मैं तेरी पत्नी बनने को तैयार हूँ लेकिन शर्त तो पूरी कर। कैसे पूरी करूँ? '' यो मां जयति संग्रामे '' जो मुझको संग्राम में जीतेगा। आ जा मुझसे लड़, इतना पराक्रम, इतना पौरुष, इतना साहस दिखा। जितना साहस मुझ में है, इतना ही पराक्रम-पौरुष दिखा और यह कार्य '' यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति '' संसार में जो मेरे समान बलवान होगा, जो मुझे संग्राम में पराजित कर देगा, हरा देगा, वही मेरा स्वामी होगा। में उसी की पत्नी बनूँगी, वरना नहीं बनूँगी। उसने कहा, मैं लड़ने को तैयार नहीं हूँ। तब देवी ने कहा, अब मैं तेरी अक्ल ठीक कर दूँगी।
मित्रो, देवी को आप क्या बनाना चाहते हैं? देवी को औरत बनाना चाहते हैं, आप देवी के पति बनना चाहते हैं न। कौन बनना चाहता है? पति बनना चाहता है या भक्त बनना चाहता है? यह क्या कह रहा है गंदे मुँह से। बेटे, देवी हमारी माँ है। माँ हुकुम देती है और बच्चे को उसका पालन करना पड़ता है। पति का मतलब यह है कि पति हुकुम देता है अपनी बीबी को, खाना बना देना, थोड़ा काम कर हमारे पैर दबा आकर। यही कह रहे थे न कि देवी जी को हमारा हुकुम मानना पड़ेगा, हमारा कहना मानना पड़ेगा। सब पर हुकुम चलाते हैं, गुरुजी को हमारा हुकुम मानना पड़ेगा देवता को, भगवान को हमारा हुकुम मानना पड़ेगा। क्यों? हमने धूपबत्ती जला दी, आपके ऊपर हमने माला पहना दी। आप हुकुम चला रहे थे हमारे ऊपर? हाँ साहब, हम तो हुकुम चलाएँगे आपके ऊपर, हम तो चेला हैं। बड़ा आया चेला।
अपने मन को भगवान के साथ जोड़ दें
बेटे! आपको क्या करना पड़ेगा? आपको अपने मन को भगवान के साथ, देवता के साथ जोड़ देना पड़ेगा। कल हमने आपको बताया था कि परिशोधन की प्रक्रिया के साथ सारे के सारे विचार उसमें जुड़े हुए हैं। किसमें? जो हम कर्मकाण्ड कराते हैं उसके साथ। कर्मकाण्डों का जादू इतना ही है कि प्रत्येक कर्मकाण्ड के साथ में शिक्षा भरी पड़ी है। वे सारी की सारी शिक्षाएँ आपके हृदयों में गूँजती रहें, दिमागों में चलती रहें। आपके चिंतन 'और विचारों की धारा वहीं बहती रहे, तो मैं समझूँगा कि आपने विचारों का और क्रिया का समन्वय कर दिया। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥
प्रभु की आज्ञा मानें सन्मार्ग पर चलें
हम सब ईश्वर की संतान हैं। परमात्मा ने अनेक प्रकार की सुविधाएँ देकर हमें बड़ा कर दिया। मानव शरीर जैसा बहुमूल्य वाहन, स्वास्थ्य, बुद्धि, विद्या, परिवार, आजीविका, मित्र आदि साधन देकर इस योग्य बना दिया कि संसार में भली प्रकार जीवन निर्वाह कर सकें। उसने हमारी अंतरात्मा में सद्बुद्धि की एक पुकार भी पैदा की है, जिसकी सलाह पर आचरण करने से हमें सदैव सुख और सुविधाएँ ही उपलब्ध होती रह सकती हैं।
हम करते यह हैं कि उस अंतरात्मा की पुकार को पग-पग पर ठुकराते हैं-अनुचित मार्ग अपनाते हैं, अनावश्यक इच्छाएँ करते हैं, अवांछनीय तृष्णाओं और वासनाओं का जंजाल अपने ऊपर लाद लेते हैं, इतना सब करने के बाद, इन गड़बड़ियों के फलस्वरूप जो नाना प्रकार की परेशानियाँ, चिंताएँ, पीड़ाएँ, कमियाँ अनुभव होती हैं इन्हें हमारी मन मरजी के अनुसार हल करने के लिए परमात्मा से आशा करते हैं और जब वह हमारी उलटी गतिविधि, उलटी तृष्णा को पूर्ण नहीं करता तो कभी अपने ऊपर कभी अपने भाग्य के ऊपर, कभी परमात्मा के ऊपर नाराज होते हैं। हममें से अधिकांश व्यक्ति इसी प्रकार के जंजालों में उलझे रहते हैं। परमात्मा को पुकारते तो हैं पर अपनी ऊट-पटांग गतिविधि से उत्पन्न भौंड़ी समस्याओं को हमारी तृष्णा और वासना के अनुरूप हल करने के लिए पुकारते हैं। शरीर का बचपन समाप्त हो गया पर मानसिक बचपन नहीं जाता।
माता पिता छोटे बच्चे की टट्टी धोते हुए कुछ संकोच नहीं करते पर यदि जवान बेटा पाखाने में टट्टी न जाकर माता से बचपन की भाँति टट्टी समेटवाने की क्रिया करावे तो माता उसके कार्य को अनुचित ही समझेगी। जब बेटा समर्थ हो गया तो माता की इच्छा, अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिए उसे कुछ करना चाहिए था, न कि उलटे उसे उन अनावश्यक बातों के लिए परेशान करना, जिनमें से अधिकांश तो बिलकुल निरर्थक होती हैं और अधिकांश ऐसी होती हैं कि मनुष्य अपनी समझ और कार्यप्रणाली में थोड़ा हेर-फेर कर ले तो उन्हें आसानी से हल कर सकता है। पर उतना कष्ट कौन करे? आत्मनिरीक्षण, अपनी त्रुटियों को ढूँढ़ना, अपने विचारों, आदतों और कार्यों में सुधार करना उस झमेले में पड़ने की बजाय लोग अपनी औंधी इच्छाओं को परमात्मा से पूर्ण करने की मनौती मानते रहते हैं। ऐसे लोगों के प्रति, परमात्मा की मान्यता वैसी ही रहती है, जैसी पिता से टट्टी समेटवाने वाले जवान बेटे के प्रति पिता की रह सकती है। हम भक्ति करते हैं, प्रार्थना करते हैं, पूजा करते हैं, पर उसके भीतर जो कुछ छिपा रहता है, वह लगभग इसी श्रेणी का होता है। दयालु पिता कई बार हमारी कुछ आवश्यकताएँ पूर्ण भी कर देते हैं पर उनके मन में हमारे प्रति कोई सद्भाव उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि प्रभु इतना कुछ दे देने के बाद जवान बेटों से तरह-तरह की फरमाइशों की नहीं, वरन अपनी इच्छाओं की पूर्ति की आशा रखते हैं। जैसी कि सभी माता पिता अपनी समर्थ संतान से रखते हैं
परमात्मा हमें मनुष्य का बहुमूल्य शरीर इसलिए प्रदान नहीं करता किं हम अपनी आवश्यकताएँ, लालसाएँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ बढ़ाते जावें और उनकी पूर्ति के लिए दिन रात परेशान रहने में ही सारा समय लगा दें। मनुष्य जीवन का उद्देश्य यह है कि जीव अपने विवेक को -जाग्रत करके चिरसंचित कुसंस्कारों से अपनी मनोभूमि को शुद्ध करे, भवबंधनों को काटे, दूसरों की सेवा करे और अपने आदर्श चरित्र द्वारा संसार के सामने उदाहरण उपस्थित करके अपनी कीर्ति को अमर करे। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जो प्रयत्न करते हैं, वे ही ईश्वर को प्रिय लगते हैं ओर उन्हीं को वे अपना सच्चा प्रेम, वात्सल्य तथा अनुग्रह प्रदान करते हैं। ऐसा अनुग्रह प्राप्त कर लेना ही जीवन की सार्थकता है। इस मार्ग पर चलने के लिए मनुष्य को छह कार्यक्रम अपनाने पड़ते हैं। (१) अपनी आवश्यकताएँ कम से कम रखना, (२) अपनी वस्तुओं को ईश्वर की वस्तु समझकर अपने को उनका ट्रस्टी-संरक्षक मात्र समझना, (३) सामने उपस्थित कठिनाइयों से परेशान न होकर उन्हें विवेकपूर्वक सुलझाना, जो न टल सकें उन्हें प्रारब्ध भोग समझकर धैर्यपूर्वक सहना, (४) मन को भगवान में लगाए रखने के लिए भजन, साधन करना, (५) अपने कुविचारों, दुर्गुणों तथा अकर्मों को हटाने तथा घटाने के लिए निरंतर प्रयत्न करना। (६) दूसरों की भलाई के लिए कुछ न कुछ काम ईश्वर की सेवा समझकर नित्य ही करते रहना। जो व्यक्ति इन छह कार्यक्रमों को जितने अंशों में अपनाता है, वह उतना ही भगवान का भक्त है। परमपिता उससे उतना ही प्रसन्न और संतुष्ट रहता है। जिसके कार्य इन छह बातों से जितने ही विपरीत हैं समझना चाहिए कि वह ईश्वर की उतनी ही अवज्ञा कर रहा है और उसका कोपभाजन बन रहा है।
सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त करने का अलभ्य अवसर प्राप्त करने के पश्चात सबसे बड़ी बुद्धिमानी यह है कि अपने आप को भवबंधनों से मुक्त करने के लिए सच्चे हृदय से और पूरी सावधानी के साथ लगा जाए। शरीर को जीवन-यात्रा के प्रयोजनों में और मन को भगवान में लगाए रहे। सत्कर्मों के द्वारा अपना आदर्श उज्ज्वल करना, प्रभु के बगीचे-संसार को अधिक सुरम्य बनाने के लिए निरंतर लोक-सेवा एवं परमार्थ के कार्यों में संलग्न रहना यही जीवन का सर्वोत्तम सदुपयोग है। भगवान हमसे ऐसी ही आशा रखते हैं। वे सब कुछ देकर हमें समर्थ इसलिए बनाते हैं कि हम उनके आदेशों और प्रयोजनों को पूरा करें। तृष्णाओं और वासनाओं को बढ़ाते रहकर नाना प्रकार की कामनाएँ करते रहना ईश्वर को प्रसन्न करने का नहीं नाराज करने का तरीका है।