उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
कल्प-साधना सत्र अब आपका एक-दो दिन में समाप्त होने को है। आपको यहाँ से जाने की तैयारी करनी चाहिए और तैयारी के साथ में एक बात-प्रत्यक्ष रहनी चाहिए कि आप यहाँ से बदलते हुए जाएँगे। कल्प, कल्प का अर्थ होता है—‘बदल जाना’। किसको बदल जाना? जमाने को? समय को? परिस्थितियों को? नहीं। न जमाना बदल सकता है, न परिस्थितियाँ बदल सकती हैं। सिर्फ आप बदल सकते हैं। अपने आप को बदल देना आपके हाथ की बात है। परिस्थितियों को बदलना आपके हाथ की बात नहीं। लोगों की मर्जी को बदलना आपके हाथ की बात नहीं। जो आपके हाथ की बात नहीं है, उसके लिए आप प्रयत्न करेंगे, तो बेकार हैरान होते रहेंगे। आपके घर वालों को—अच्छा करना चाहिए, अच्छा बनना चाहिए—ये मत सोचिये। आप ये देखिये कि आप उन घर वालों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं कि नहीं। बस, इतना ही काफी है और आगे बढ़िये मत। परिस्थितियाँ आपके अनुकूल बन जाएँगी; यह मत सोचिए। परिस्थितियाँ कहाँ बन पाती हैं? आदमी की स्थिति के अनुरूप। श्रीकृष्ण भगवान सारे जीवन भर पुरुषार्थ करते रहे, पर परिस्थितियाँ कहाँ बनी उनके हाथ से, आप बताइये। राधा जी का गोपियों से साथ छूट गया, पाण्डव कैसे परेशान हुए? आप जानते नहीं है? श्रीकृष्ण भगवान भी इन परेशानियों से जूझते रहे। उनका भांजा अभिमन्यु मारा गया और क्या-क्या नहीं हुआ? मथुरा छोड़कर भाग खड़े हुए और वे द्वारिका चले गए। द्वारिका में भी गृह-कलह और सारे परिवार के लोग मारे गए। अन्ततः उनको, जो अपना राज-पाट बड़ी मेहनत से जमाया था, सुदामा जी के हवाले करना पड़ा। इतना ही नहीं, जंगल में जब जा रहे थे, तब बहेलिये ने इनको मार गिराया। फिर बताइये आपकी परिस्थितियाँ अनुकूल कैसे हो सकती हैं? भगवान की परिस्थितियाँ जब अनुकूल नहीं हुईं, तो अगर आप ये सपना देखते हैं कि हमारी मनोकामनाएँ पूरी हो जाएँगी और हमारी इच्छानुकूल परिस्थितियाँ बदल जाएँगी, तो आप ऐसा सोचना बन्द कीजिए। ये दुनिया आपके लिए बनी हुई नहीं है। आप की इच्छा के लिए सुपात्रता की और पूर्व संचित कृत्यों की जरूरत है। वे अगर न हों, तो आप क्यों सोचते हैं सब कुछ आपके इच्छानुकूल हो जाएगा? आप बदल दीजिए। क्या बदल दें? बूढ़े से जवान हो जाएँगे। आपके हाथ की यह बात नहीं है। ये शरीर प्रकृति का बनाया हुआ है और प्रकृति इसकी मालिक है। वह जब चाहती है, पैदा करती है और जब चाहे समेट लेती है। आप प्रकृति के मालिक हैं क्या? बुढ़ापे को जवानी में बदल सकते हैं क्या? ना। मौत को जिन्दगी में बदल सकते हैं क्या? ना! आदमी की सीमा है और जिस सीमा से आप बँधे हुए हों, उसी सीमा की बात कीजिए; उसी सीमा का विचार कीजिये, तो पूरा होना भी सम्भव है। असीम बातों को सोचेंगे, असम्भव बातों की कल्पनाएँ-मान्यताएँ बनाकर बैठेंगे, तो सिवाय हैरानी के आपके पल्ले कुछ पड़ने वाला नहीं है। आप हैरानी में न पड़ें। जो उचित है, उसी को विचार करें; जो सम्भव है, उसी में हाथ डालें। आपके हाथ में ये सम्भव है कि अपने मन को बदल लें, अपने ढर्रे को बदल दें, अपने रवैये को बदल दें, अपने सोचने के तरीके को बदल दें, अपने स्वभाव को बदल दें। ये बदल देना आपके लिये बिल्कुल सम्भव है। आप यहाँ से जाएँ, तो आप एक ऐसी जिन्दगी लेकर के जाएँ, जो हर किसी को बदली हुई मालूम पड़े। आकृति तो नहीं बदल सकती आपकी; पर प्रकृति बदल जाएगी। आकृति कैसे बदल सकती है? आकृति नहीं बदली जा सकती, आपके शरीर की बनावट नहीं बदली जा सकती। आपका स्वभाव बदला जा सकता है। जो बदल सकता है, कल्प तो उसी का होगा न। आप उस कल्प को कर डालिए।
कल्प को कर जाएँ, तब? मजा आ जाएगा। क्या काम करें? आप यहाँ से जाने के बाद में तीन काम और जीवन में शामिल कर लीजिये। अब तक तो आपकी जिन्दगी में दो काम शामिल रहे। एक का नाम है—पेट का भरना। दूसरा काम आपके जिम्मे रहा है—प्रजनन। शादी कर लेना, ढेरों-के बच्चे पैदा करना, ढेरों-के बच्चों के खर्चे के वजन को कन्धे पर उठाना। उस भारी वजन को उठाने के लिए उचित और अनुचित काम करते रहना, दिन और रात चिन्ता में डूबे रहना। पेट और प्रजनन के लिए यही तो काम रहा न? और बताइये और कौन-सा काम किया आपने? इन दो कामों के अलावा आपने क्या काम कर लिया? चलिये तीसरा एक और काम भी किया होगा आपने। अपने अहंकार की पूर्ति के लिए, ठाठ-बाट बनाने के लिए, लोगों की आँखों में चकाचौंध पैदा करने के लिए हो सकता है आपने कुछ ऐसे काम किए हों, जिससे आपको बड़प्पन का आभास होता हो। दूसरों की आँखों में चकाचौंध पैदा करके आप किस तरीके से बड़े बन पाएँगे? बड़ा बनना तो अपने व्यक्तित्व की कीमत और व्यक्तित्व के मूल्य बढ़ा देने के ऊपर निर्भर है। आँखों में चमक तो अनेक लोग पैदा कर सकते हैं। आँखों में चमक से क्या होता है? आँखों में चमक तो तस्वीरें भी पैदा कर लेती हैं, मूर्तियाँ भी पैदा कर लेती हैं, बीमार आदमी को सजाकर बिठा दिया जाए, तो भी चमक पैदा कर लेता है। चमक पैदा करना भी कोई कोई काम है! वह अहंकार की पूर्ति के अतिरिक्त दूसरा कुछ है नहीं। हम बड़े हैं, हम बड़े हैं। अरे! आप क्या बड़े आदमी हैं! मन आपका बड़ा नहीं है, व्यक्तित्व आपका बड़ा नहीं है, संस्कार आपके बड़े नहीं हैं, तो बड़प्पन कैसे आ जाएगा? सारी जिन्दगी आपकी इन तीनों कामों में खत्म हो गई है। अब कृपा कीजिए, अपनी जिन्दगी में कुछ नये काम शामिल कीजिए। क्या काम शामिल करें? एक काम आपका है—व्यक्ति निर्माण। अपने आपको निर्माण करने की कसम खाकर जाइये—हम अपने स्वभाव को बदल दें, हम अपने चिन्तन को बदल दें, हम अपने आचरण को बदल दें, नम्बर एक। दूसरा परिवर्तन जो आपको यहाँ से लेकर जाना चाहिए, वह ये परिवर्तन ले के जाना चाहिए कि आपके, परिवार के सम्बन्ध में जो मान्यताएँ हैं, जो आधार हैं, उनको बदल देंगे। परिवार के व्यक्ति तो नहीं बदले जा सकते, उन पुराने परिवार के व्यक्तियों को आप बर्खास्त कर दें और नये व्यक्तियों को कुटुम्ब में शामिल कर लें या उनका रवैया बदल दें या मकान बदल दें, उनकी शिक्षा बदल दें, उनका स्वरूप बदल दें—ये तो नहीं हो सकता; पर आपका अपने कुटुम्ब के प्रतीक जो रवैया है, जो आपका सोचने का तरीका है, उसको आप आसानी से बदल सकते हैं और आपको बदल ही देना चाहिए। व्यक्ति-निर्माण, परिवार-निर्माण और समाज-निर्माण; समाज के प्रति अपने कर्तव्यों और दायित्वों से आप छुटकारा पा नहीं सकेंगे। समाज की उपेक्षा करते रहेंगे, फिर आप विश्वास रखिए, समाज आपकी उपेक्षा करेगा; फिर आपका कोई वजन नहीं बनेगा; आप सम्मान नहीं पा सकेंगे और सहयोग नहीं पा सकेंगे। उपेक्षा करते रहिए, अपने आप में सीमाबद्ध हो जाइए, इक्कड़ हो जाइए, अकेले रहिए, खुद ही खाइए, खुद ही मजा उड़ाइए। फिर? फिर आप ये भूल जाइए कि हमको समाज में सहयोग मिल सकेगा और सम्मान मिल सकेगा। सम्मान और सहयोग भी मनुष्य की जीवात्मा की भूख और प्यास हैं। उनको आपको खरीदना है। उनको अगर आप खरीदना ही चाहते हों, तो कृपा करके ये विश्वास कीजिए कि समाज के प्रति आपके जो दायित्व हैं और जो कर्तव्य हैं, वह आपको निभाने चाहिए। आप उन कर्तव्यों और दायित्वों को निभा लेंगे, तो बदले में सम्मान और सहयोग खरीद लेंगे, जिससे आपकी खुशी और आपकी प्रसन्नता और तरक्की में चार चाँद लग जाएँगे। तीन काम हुए न? आत्मा को, अपने आप का निर्माण कर लेना—नम्बर एक। अपने परिवार का निर्माण कर लेना—नम्बर दो। अपने समाज को प्रगतिशील बनाने के लिए, उन्नतिशील बनाने के लिए कुछ-न योगदान देना—नम्बर तीन। तीन काम अगर आप कर पाएँगे, तो आपको समझना चाहिए कि आपने आत्मा की भूख को बुझाने के लिए और आत्मिक जीवन को समुन्नत बनाने के लिए कुछ कदम बढ़ाना शुरू कर दिया, अन्यथा यही कहा जाएगा कि आप शरीर के लिए ही मरे हैं और शरीर के लिए ही जिए हैं। शरीर ही आपका इष्टदेव है। इन्द्रियों के सुख ही तो आपकी आकांक्षा है। वासना और तृष्णा ही तो आपको सबसे प्यारे मालूम पड़ते हैं। इन्हीं में तो आपका जीवन खर्च हो गया और किस काम में खर्च हुआ? आप कृपा कीजिये, आत्मा को भी मान्यता दीजिये। शरीर ही सब कुछ नहीं है, शरीर की आकांक्षाएँ ही सब कुछ नहीं हैं, इन्द्रियाँ ही सब कुछ नहीं हैं। कहीं आत्मा भी आपके भीतर है और आत्मा अगर आपके भीतर है, तो आप ये भी विश्वास रखिये कि उसके भूख और प्यास भी हैं। आत्मा के अनुदान भी असीम और असंख्य हैं; लेकिन उसके भूख और प्यास भी हैं। पौधों के द्वारा, पेड़ों के द्वारा हरियाली भी मिलती है, छाया भी मिलती है, फल-फूल भी मिलते हैं, प्राणवायु भी मिलती है; पर उनकी अपनी जरूरतें भी तो हैं। आप जरूरत को क्यों भूल जाते हैं? खाद की जरूरत नहीं है? पानी की जरूरत नहीं है? उनकी रखवाली की जरूरत नहीं है? उनकी रखवाली न करेंगे, खाद-पानी नहीं देंगे, तो पेड़ों से और पौधों से क्या आशा करेंगे? इसी तरीके से जीवात्मा का पेड़ और वृक्ष भी अपनी खुराक माँगता है। खुराक क्यों माँगता है? मैंने निवेदन किया आपसे। व्यक्ति-निर्माण, परिवार-निर्माण और समाज-निर्माण के लिए आपकी गतिविधियाँ चलनी चाहिए और आपके प्रयत्नों को अग्रगामी होना चाहिए।
व्यक्ति-निर्माण के लिए आप एक काम करें, एक निश्चय कर लें कि हमको एक औसत भारतीय के तरीके से जिन्दा रहना है। औसत भारतीय स्तर पर अपने मुल्क में कितने आदमी रहते हैं? सत्तर करोड़ आदमी रहते हैं। अतः मुट्ठी भर आदमियों की ओर गौर मत कीजिए। थोड़े-से आदमी मालदार हैं, थोड़े-से आदमी सम्पन्न हैं, थोड़े-से आदमी मजा उड़ाते हैं, थोड़े-से आदमी फिजूलखर्च करते हैं, थोड़े-से आदमी ठाठ-बाट से रहते हैं, तो आप उनको क्यों महत्त्व देते हैं? उनकी नकल क्यों करना चाहते हैं? उनके साथ में अपनी समृद्धि क्यों मिलाना चाहते हैं? आप उनके साथ में समृद्धि मिलाइये न, जो आपसे कही गये-बीते हैं; कितने किफायत से गुजारा करते हैं, कितने मामूली से काम चला लेते हैं? आप ऐसा कीजिए ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के सिद्धान्तों का परिपालन कीजिए। सादगी, सादगी, सादगी....। अगर आपने ये अपना सिद्धान्त बना लिया, तो आप विश्वास रखिए आपका बहुत कुछ काम हो जाएगा; बहुत समय बच जाएगा आपके पास और उन तीनों कर्तव्यों को पूरा करने के लिए आप विचार भी निकाल सकेंगे, श्रम भी निकाल सकेंगे, पसीना भी निकाल सकेंगे, पैसा भी निकाल सकेंगे। अगर आपने व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा को जमीन-आसमान के तरीके से ऊँचा उठाकर के रखा, फिर आपको स्वयं के लिए ही पूरा नहीं पड़ेगा; उसके लिए आपको, अपनी कमाई से गुजारा नहीं हो सकेगा। फिर आपको बेईमानी करनी पड़ेगी, रिश्वत लेनी ही चाहिए, कम तोलना ही चाहिए और दूसरों के साथ में दगाबाजी करनी ही चाहिए, फिर आपको कर्ज लेना ही चाहिए और जो भी आप बुरे-से कृत्य कर सकते हैं, करने ही चाहिए ऐसा सोचेंगे। अगर आप अपनी हविश को कम नहीं कर सकते, अगर अपनी भौतिक खर्च की महत्त्वाकांक्षा और बड़प्पन की महत्त्वाकांक्षा को काबू में नहीं कर सकते, तो फिर यह मानकर चलिए कि आत्मोन्नति की बात धोखा है। आपको यह करना ही पड़ेगा। नहीं करेंगे, तो फिर आत्मा की बात कहाँ रही? आत्मा की उन्नति का सवाल कहाँ रहा? आत्मा की उन्नति कोई खेल-खिलौने थोड़े ही हैं कि आप रामायण पढ़ लेंगे, गीता पढ़ लेंगे, माला घुमा देंगे, गंगा जी में डुबकी लगा देंगे, तो उसका उद्धार हो जाएगा। ये तो केवल शृंगार हैं, सज्जा हैं, उपकरण हैं। ये कोई आधार थोड़े ही हैं, जिनके आधार पर आप न जाने क्या-क्या सपने देखते रहते हैं? ये तो वास्तव में माध्यम हैं कि आपके व्यक्तित्व का कैसे विकास हो? व्यक्तित्व का विकास न हुआ इनके माध्यम से, तो इनको फिर सिवाय ढकोसले के और क्या कहेंगे? ये ढकोसले हैं इनके द्वारा आप अपने व्यक्तित्व को विकसित कैसे कर सकेंगे? फिर क्या करना चाहिए? किफायतसार बनिये। किफायतसार अगर बनते हैं, तो आपको नौ सौ निन्यानवे बुराइयों से छुटकारा मिल जाएगा। जितनी भी बुराइयाँ हैं, जितने भी पाप हैं, या तो पैसे के लिए होते हैं या पैसे मिलने पर होते हैं। पैसा पाने के लालची बुरे-बुरे कर्म करते हैं। पैसा होने के बाद में जो अहंकार उत्पन्न होता है, मद उत्पन्न होता है, उसी के प्रदर्शन में वह खर्च होता है। अतः अगर आपने इतना मान लिया है कि आपको गुजारे तक ही सीमित रहना है, गुजारा ही आपके लिए संतोषजनक है, फिर आपके पास फालतू बचेगा ही नहीं; फिर आप फालतू कमाएँगे ही नहीं; फिर बेईमानी का सवाल कहाँ रहा? फिर पापों का सवाल कहाँ रहा? धृष्टता सवाल कहाँ रहा? इतना करने के बाद में एक और बड़प्पन की बात हो जाती है। फिर आप किफायतसार हो जाते हैं; आप का ढेरों-का समय बच जाता है, श्रम बच जाता है, अक्ल बच जाती है, पैसा बच जाता है। आप उनको लगाइए। आत्मा की उन्नति के लिए कुछ तो लगाना पड़ेगा न, पूँजी लगानी पड़ेगी। आप पूँजी कहाँ से लाएँगे, बताइए? श्रम की पूँजी आप कहाँ से लाएँगे? समय की पूँजी आप कहाँ से लाएँगे? साधनों की पूँजी आप आत्मा की उन्नति के लिए लगा सकते थे, उसको कहाँ से लाएँगे? ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का मतलब ये है कि ऊँचे विचार की जिन्दगी अगर आपको जीनी है, उत्कृष्ट जीवन आपको जीना है, तो सादगी का जीवन जिएँ। ये आत्मा की उन्नति के लिए सबसे पहला, सबसे आधारभूत सिद्धान्त है।
दूसरा सिद्धान्त ये है कि आप अपने समय को, दिनचर्या को नियमित बना लीजिये, बाँट लीजिए; श्रम को बाँट लीजिये, समय को बाँट लीजिये। आपको शरीर और जीवात्मा के लिए, दोनों के लिए अपना समय, श्रम को बाँट देना चाहिए। दोनों के हिस्से का बँटवारा कर लीजिये। कैसे करें? आप शरीर के लिए और भौतिक जीवन के लिए कितना समय रखेंगे? चौबीस घण्टे का समय होता है। सात घण्टे आप सोया करें। सात घण्टे एक जवान आदमी के लिए, स्वस्थ आदमी के लिए बिल्कुल पर्याप्त हैं और तीन घण्टे आप अपने नहाने-धोने और खाने-पीने में खर्च कर सकते हैं। शरीर के लिए दस घण्टे से ज्यादा की जरूरत नहीं है। चौबीस घण्टे में से दस घण्टे आपके सोने और खाने में खर्च हो गए। आठ घण्टे आप शरीर को, कुटुम्ब को जिन्दा रखने के लिए कमाई में लगा दीजिए। अगर आप रोज कुआँ खोदते हैं, रोज पानी पीते हैं, तो आठ घण्टे आपको मेहनत करना काफी होना चाहिए, तमाम दिन मत कीजिए। तमाम दिन दुकान खोल के बैठते हैं, तो ग्राहक तो उतने ही आएँगे। आप चौबीस घण्टे खोल के बैठेंगे, तो भी उतनी ही बिक्री होगी। आप आठ घण्टे से ज्यादा श्रम नहीं कर सकते। धन के उपार्जन के लिए आठ घण्टे मेहनत किया कीजिए और दस घण्टे शरीर के लिए खर्च कीजिए। अठारह घण्टे हो गये न? अठारह घण्टे से ज्यादा आप भौतिक जीवन के लिए खर्च मत कीजिए। छह घण्टे नियमित रूप से आप आध्यात्मिक उन्नति के लिए अपनी दिनचर्या को दो हिस्सों में बाँट सकते हैं। आप उसको उपासना में बाँट सकते हैं। उपासना-एक और उपासना के अलावा स्वाध्याय—दो; मनन-चिन्तन—ये भी उसी में आता है, आध्यात्मिक उन्नति के दैनिक कृत्यों में आता है। इसके अलावा आप परिवार-निर्माण और समाज-निर्माण के लिए अलग से समय निकाल के रखिए। अलग से समय निकाल के रखेंगे, तो आपके सामाजिक कर्तव्य, जो आजकल उपेक्षित रहने की वजह से एकदम समाप्त हो गए हैं, निभते रहेंगे। कोई जमाना था, जब वानप्रस्थों की परम्परा थी, तब हर आदमी अपने समय का एक अंश समाज के लिए निकालता था, समाज की सेवा होती थी, समाज समुन्नत होता था। कोई समय नहीं निकालेगा, श्रम नहीं करेगा और समाज को उन्नतिशील बनाने के नाम पर ढकोसला-ढिंढोरा पीटते रहेंगे, पैसे खर्च करेंगे, आडम्बर बना लेंगे, तो कैसे बनेगा? निर्माण के लिए तो समय चाहिए न? श्रम चाहिए? आप समय और श्रम का एक हिस्सा उसके लिए लगा दीजिए। बस, ये दो काम आप कर लें। एक तो आप मितव्ययिता की जिन्दगी जिएँ और जो आपके पास समय है, बुद्धि है, साधन हैं, उनको दो हिस्सों में बाँट दें—शरीर के लिए और आत्मा के लिए। फिर आप देखें किस तरीके से आपके जीवन की प्रगति का आधार बनकर खड़ा हो जाता है।
आप दृष्टिकोण को बदल ले जाइए यहाँ से। जिसका परिवर्तन होता है, असल में वह दृष्टिकोण होता है। आप शरीर के लिए नहीं, आत्मा के लिए जिएँ। आत्मा हैं आप, शरीर नहीं हैं। आत्मा के ही रूप में आप करोड़ों-लाखों वर्षों से जिन्दा हैं और करोड़ों-लाखों वर्ष तक जिन्दा रहेंगे। शरीर तो आपके पहिनने-ओढ़ने के कपड़े के तरीके से हैं। आप अपने आप को शरीर प्रधान न मानें, अपने आपको आत्मा प्रधान मानें और आत्मा के कल्याण को मुख्य स्थान दीजिए। शरीर का उपयोग तो करना है, इसलिए जिन्दा तो रखना चाहिए; शरीर की जरूरतों को तो पूरा कीजिए; पर शरीर के लिए ही मत कीजिए। रोटी खाइए तो सही; पर रोटी के लिए ही जिन्दा मत रहिए। जिन्दगी के लिए रोटी खाइए। यदि दृष्टिकोण आप बदल देंगे, तो आत्मा का उत्कर्ष, आत्मा के कल्याण की अनेकों बातें आपको सूझ पड़ेंगी। अगर ये बातें सूझती नहीं हैं, दृष्टिकोण आप बदलते नहीं हैं, तो मुश्किल हो जाएगी। परिवार में आप माली के तरीके से रहें। माली के जिम्मे पेड़-पौधे होते हैं; माली उनको बड़ी होशियारी के साथ लगाता है, काटता-छाँटता है और उसमें अपना गर्व अनुभव करता है कि बगीचे को कैसा अच्छा बना दिया! पर माली मालिक नहीं होता आमतौर से। किसी राजा का, सेठ का या बड़े आदमी का बाग होता है, तो माली को श्रेय मिलता है। देखिए ये माली है, इसने ऐसा बगीचा लगा दिया! श्रेय बहुत है माली के लिए। आप अपने कुटुम्बियों के मालिक मत बनो। मालिक आप बनेंगे, तो आप हैरान हो जाएँगे और आपकी नाक में दम हो जाएगा। औरत के आप मालिक हैं। औरत को आपके कहने पर ही चलना चाहिए। कैसे हो सकेगा? जाने कितने जन्मों के संस्कार बेचारी लेकर आई है! ठीक है, आप उसकी सेवा कर सकते हैं। बच्चे हैं, न जाने कितने जन्मों के संस्कार लेकर के आए हैं! क्या बनाएँगे आप? हम अपने लड़के को पी.सी.एस., आई.सी.एस. बनाएँगे। आपके क्या हाथ की बात है? आप अपने कर्तव्य का पालन कीजिए। हर कुटुम्बी के लिए कर्तव्य का पालन कीजिए। उनको स्वावलम्बी बनाइए। कोई कुटुम्बी आपका ऐसा न हो, जो स्वावलम्बी न हो, शिक्षित न हो, सुसंस्कारी न हो। ये आप कर सकते हैं। आप अपने बच्चे को पी.सी.एस., आई.सी.एस. कैसे बना पाएँगे? आप अपने बच्चे के लिए इतना खर्च कहाँ से दे पाएँगे? आप अपनी लड़की को लाख-करोड़ रुपये दहेज में कैसे दे पाएँगे? जो बात आप नहीं कर सकते, उसके लिए आप बेचैन रहते हैं!
हमको अपने कुटुम्बियों के लिए करना चाहिए। कुटुम्बियों की प्रसन्नता मत देखिए। कुटुम्बियों के साथ में ऐसा व्यवहार कीजिए, जिससे उनका कल्याण हो जाए। उनकी प्रसन्नता न जाने किन चीजों पर टिकी हुई है? ये न जाने क्या माँग बैठेंगे? न जाने क्या-क्या फरमाइशें उनकी चालू हो जाएँगी? आप उनकी फरमाइशों को पूरा करके उनको प्रसन्न रखने की कोशिश करेंगे, तो निराश रहेंगे। फिर न आपको प्रसन्नता मिलेगी, न आपके घर वाले आपके साथी बन सकेंगे और न आप उनके प्रति जो स्वावलम्बन का, शिक्षा का, सुसंस्कारिता का उद्देश्य है, वह पूरा कर सकेंगे। उनकी खुशामद करेंगे, उनकी हाँ-में मिलाएँगे! हाँ-में मिलाने से कहीं कुटुम्ब बनते हैं क्या? एक आँख प्यार की और एक आँख सुधार की अगर आप रखते हैं, तो आप अपने कुटुम्बियों के प्रति कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का ठीक तरह से निर्वाह करने में समर्थ होते हैं। अगर आप ऐसा नहीं करते तब? तब उनके साथ जो उनकी ओर से न्याय मिलना चाहिए था, नहीं मिलता। आप हरेक की खुशामद करेंगे? हरेक की मर्जी को पूरा करेंगे? अपनी मर्जी पूरी करेंगे? मर्जियों की ओर ध्यान मत दीजिए। औचित्य पर ध्यान दीजिए। उनकी क्या माँग उचित है, उस पर ध्यान दीजिए। क्या माँग पूरी करना चाहते हैं और किसमें खुश रहना चाहते हैं—इसकी ओर से आँखें बन्द कर लीजिए।
ये दृष्टिकोण अगर आपका बदल जाए तब? तब फिर मजा आ जाए! तो आपकी बहुत-सी समस्याओं का हल हो जाए। व्यक्तिगत जीवन में जीवन के दृष्टिकोण को बदलिए और पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में दृष्टिकोण को बदलिए, सामाजिक जीवन के बारे में अपने व्यवहार को बदलिए। अपना व्यवहार यदि नहीं बदल सकते, तो समाज के लोगों को आप कैसे बदल सकेंगे? समाज के लोगों का स्वभाव कैसे बदल जाएगा? आप अपना व्यवहार इस तरीके से करें, जिससे कि उन लोगों के हमले आपके ऊपर कामयाब न हों। आप उनकी सलाह मानिये मत। किसी की सलाह मत मानिये। आप अपने ईमान की सलाह मानिये और भगवान की सलाह मानिये। दो के अलावा न कोई आपका साथी हो सकता है, न आपका सलाहकार। आप इन दो के साथ-साथ और इनकी सलाह को मानकर के इन्हीं के ऊपर निर्भर होना शुरू कर दें। फिर आपको किसी की सहायता की जरूरत नहीं है, किसी के सहयोग की जरूरत नहीं है। सहयोग और सहायता की जरूरत नहीं पड़ेगी और आपकी अनायास ही सेवा बनती चली जाएगी, अगर कृत्य और आपका क्रियाकलाप, भले ही वह आत्मकल्याण के लिए क्यों न किया गया हो, उससे अनायास ही समाज-कल्याण की बात बन जाएगी। आप अपना व्यक्तित्व अच्छा बनाते हैं, तो उससे असंख्य आदमियों पर असर पड़ने ही वाला है। अगर आप स्वयं सादगी का जीवन जीते हैं, तो आपके पास बची हुई चीजें समाज सेवा के लिए अनायास ही मिलने वाली हैं। फिर आप कहाँ खर्च करेंगे? किस काम में खर्च करेंगे? बचा हुआ समय जाएगा कहाँ? आत्मा का कल्याण लोकसेवा के ऊपर टिका हुआ है। भगवान का भजन ही वास्तव में लोकसेवा के साथ जुड़ा हुआ है। सेवा को ही भजन कहते हैं। सेवा के साथ में अगर आपका मन जुड़ा हुआ है, तो आप वास्तव में भजन करते हैं। अगर आप केवल माला घुमाते रहते हैं, लकड़ी की माला घुमाते रहते हैं, जीभ से तरह-तरह के मन्त्रों का, शब्दों का उच्चारण करते रहते है; लेकिन अगर आपका सेवाविहीन जीवन है, तो आपका भजन नहीं हुआ, आप विश्वास रखिए। ‘भज’ शब्द जो संस्कृति में बना है, सेवा से बना है—‘भजसेवायाम’ आपको सेवामय जीवन जीना ही चाहिए समाज के प्रति। परिवार को माली के तरीके से रखना चाहिए और शरीर को? आत्मा और शरीर दो हिस्सों में बाँट करके अपने कर्तव्यों का निर्धारण करना चाहिए। ऐसा निर्धारण करके अगर आप ले जाएँ, ऐसा कार्यक्रम यहाँ से बनाकर ले जाएँ, ऐसी तैयारी में जाते ही आप जुट जाएँ, तो मैं ये कहूँगा कि आपका कायाकल्प बिल्कुल सार्थक हो गया और आपका भविष्य इतना शानदार होगा कि आप देखकर के स्वयं दंग रह जाएँगे और जो भी आपके संपर्क में आएँगे, वह सब ये कहते रहेंगे—इस आदमी का कायाकल्प हो गया। शान्तिकुञ्ज धन्य हो जाएगा। अपना कायाकल्प देखकर के आप धन्य हो जाएँगे। यहाँ एक महीने का समय लगाकर के आप धन्य हो जाएँगे! जिन्होंने ये प्रयत्न किया है कि आदमी में देवत्व का उदय किया जाए और आदमी में देवत्व का उदय करके धरती पर स्वर्ग का अवतरण किया जाए, हमारी आकांक्षाएँ पूरी हो जाएँगी, अगर आप यहाँ से कायाकल्प करके जा सकें तो, वह और नहीं कोई करेगा, आप ही करेंगे अपना कायाकल्प। अपना दृष्टिकोण आप बदल दीजिए। हम आपकी सहायता करेंगे, हम आपको हिम्मत देंगे, हम आपको बद देंगे। हम आपके सहयोगी हैं, मित्र हैं; पर करना तो आपको ही पड़ेगा। आप ऐसा कर पाएँ, तो आपका सार्थक हो जाए ये शिविर। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥