उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
शिक्षा को दूसरी आँख कहा गया है। एक आँख तो वे हैं, चमड़े की, जिनसे हमको सामने वाली चीजें दिखाई पड़ती हैं, लेकिन शिक्षा वह वस्तु है जो सामने से दिखाई नहीं पड़ती है और जो आसपास के वातावरण में नहीं है उन चीजों को भी हम देख सकते हैं। पुस्तकों के माध्यम से, जानकारियों के माध्यम से, इतिहास के माध्यम से, हम अतीतकाल को, भूत को देख और समझ सकते हैं और भविष्य की संभावनाएँ वर्तमान की समस्याएँ सारी दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, दुनिया भर का क्या स्वरूप है, इन सब बातों को जानने के लिए शिक्षा की नितांत आवश्यकता है। शिक्षा न हो तो उसे सिर्फ ये कहा जा सकता है कि उसके दो आँखों में से एक आँख है। वह सिर्फ सामने के और आसपास की चीजों को ही देख सकता है। न उनको भूतकाल समझ में आता है, न इतिहास समझ में आता है। न ये सारी विश्व की समस्याएँ समझ में आती हैं। बिना पढ़े और बिना जाने इतनी जानकारी कैसे हो सकती है। आदमी संकीर्ण ही बना रहेगा। छोटे दायरे में कूपमण्डूक बना रहेगा और आस-पास की दुनिया को ही सारी दुनिया मानता रहेगा। शिक्षा बौद्धिक विकास के लिए शिक्षा मनुष्य में सभ्यता की स्थापना करने के लिए शिक्षा मनुष्य को जीविका का ठीक तरीके से उपार्जन कर सकने के लिए अनेक दृष्टियों से, किसी भी दृष्टि से देखा जाए शिक्षा की नितांत आवश्यकता है।
शिक्षा का जितना ज्यादा संभव हो सके विस्तार करना चाहिए। जिस आदमी के पास शिक्षा नहीं है अर्थात पढ़ा-लिखा नहीं है वह पढ़ नहीं सकता लिख नहीं सकता। उसको हम एक तरीके से अज्ञानी कहें तो कोई हर्ज की बात नहीं है। मनुष्य के ज्ञान के दरवाजे खोलने के लिए शिक्षा की आवश्यकता है। दुर्भाग्य की बात है कि हमारा देश बड़ी संख्या में बिना पढ़ी का देश है जबकि दुनिया का कोई भी देश इतना अशिक्षित और अनपढ़ नहीं है। सारी दुनिया में शिक्षित ही शिक्षित लोग पाए जाते हैं जबकि हमारे देश में बहुत अधिक लोग हैं इनको अनेक तरह की चेतना देने की जरूरत है। शारीरिक ज्ञान, मानसिक ज्ञान, पारिवारिक ज्ञान, राष्ट्रीय ज्ञान, नैतिक ज्ञान, धार्मिक ज्ञान ये दिमागी सूनापन दूर करने के लिए ही बताया जाता है। आदमी को इनके लिए पढ़ना पड़ेगा। कोई भी आदमी इतना सारा जीवन संबंधी ज्ञान और सामयिक समस्याओं के बारे में जानकारी सिवाय साहित्य के सिवाय पुस्तकों के सिवाय पत्र-पत्रिकाओं के कैसे प्राप्त कर सकता है? इनको पढ़ने के लिए आदमी के पास शिक्षा का होना आवश्यक है।
शिक्षा की आवश्यकता
जिस तरीके से पेट की भूख को मिटाने के लिए रोटी की जरूरत है। ठीक उसी तरीके से मन और मस्तिष्क की भूख को बुझाने के लिए शिक्षा की जरूरत है और यह प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता है। इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए लोकसेवियों से लेकर के सरकारों तक हर एक के लिए और हर एक को पूरा पूरा प्रयत्न करना चाहिए। मनुष्य की इस प्रारंभिक आवश्यकता को पूरा करने में कुछ उठा नहीं रखना चाहिए। निरक्षरता को दूर करने के लिए सरकारी प्रयास जो चल रहे हैं, वो पर्याप्त नहीं हैं। भारत सरकार और प्रांतीय सरकारें जिस गति से काम कर रही हैं, उस गति से हमारा देश सौ वर्ष में भी शिक्षित नहीं हो सकता क्योंकि जिस हिसाब से स्कूल बढ़ते हैं और शिक्षा योजना में सुधार होता है, उस हिसाब से उसकी अपेक्षा कहीं ज्यादा तेज गति से आबादी बढ़ जाती है। जब आबादी बढ़ जाएगी तो वो पिछले वाले शिक्षा की दिशा में किए हुए उन्नति के प्रयास भी कम पड़ जाएँगे।
इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि इस मामले में पूरी तरीके से सरकार पर निर्भर न रह करके लोकसेवियों के माध्यम से जनता के स्तर पर प्रयास किया जाना चाहिए। खासतौर से बड़े लोगों की शिक्षा की समस्या है। बड़े लोगों को मरा हुआ तो नहीं माना जा सकता। महिलाएँ अपने देश में पचास फीसदी हैं और पचास फीसदी महिलाओं में से दस फीसदी की शिक्षा है, नब्बे फीसदी महिलाएँ जो आमतौर से देहातों में रहती हैं और शहरों में भी रहती हैं, उनकी शिक्षा शून्य के बराबर है। ये इतना बड़ा वर्ग विश्व का अशिक्षित बना रहे, ये बड़े दुर्भाग्य की बात है। करोड़ों लोगों में, जिनमें किसान आते हैं और मजदूर आते हैं, उनकी शिक्षा का भी सवाल है। बच्चों की बात तो जाने दीजिए बच्चों के लिए सरकार भी प्रयत्न कर रही है और अभिभावकों का भी ध्यान थोड़ा बहुत इस ओर गया है कि बालकों को शिक्षण दिया जाए लेकिन बालक जो इस समय है, जिनकी उम्र पाँच साल है, दस साल है, वो तो कहीं दस-बीस साल में इस लायक होंगे कि उनको भी कोई एक समर्थ नागरिक और सुशिक्षित नागरिक बना सके और वे देश की समस्याओं में और अपने जीवन की समस्याओं में दिलचस्पी ले सकने में समर्थ हो सकें। बीस साल तक इंतजार नहीं किया जा सकता। हमको आज ही जल्दी से जल्दी ये प्रयत्न करना चाहिए कि अपना निरक्षर देश जितनी जल्दी साक्षर हो जाए उतना अच्छा।
प्रौढ़ पाठशाला कैसे चलाएँ
इसके लिए प्रौढ़ पाठशालाओं की आवश्यकता है और रात्रि पाठशालाओं की, इसका जाल बिछाया जाना चाहिए। ये कार्य लोकसेवियों के द्वारा और सार्वजनिक संस्थाओं के द्वारा किया जाना चाहिए। देहात में किसानों का प्रश्न आता है और शहरों में मजदूरों का प्रश्न आता है। मजदूरों को भी सुविधा नहीं है। उनके बच्चे छोटी उमर से काम करने लगते हैं। जब थोड़ा सा श्रम करने लगते हैं, तो घर वालों को मोह हो जाता है कि इनको क्यों पढ़ाया जाए। पहले रिवाज भी नहीं था, जब वो समझते थे कि नौकरी तो करनी नहीं है, नौकरी के लिए पढ़ाई होती है। नौकरी और पढ़ाई का क्या ताल्लुक, ये तो मनुष्य के विकास की समस्या है। नौकरी और विकास का कोई ताल्लुक नहीं। इसीलिए अब उनको ऐसा करना चाहिए कि जो अशिक्षित लोग हैं उनके लिए बड़े लोगों के लिए रात्रि के समय की पाठशालाएँ चलाई जानी चाहिए। रात्रि का समय प्राय: कामकाज करने वाले लोगों के लिए फुरसत का होता है। प्राय :: सबेरे से लोग काम किया करते हैं और सायंकाल में काम करने की बात खतम हो जाती है। जीविका रोटी कमाना अक्सर और अधिकांश लोग दिन में ही पूरी कर लेते हैं। रात्रि का समय जब आता है, तो खाना-पीना खाने के बाद में अक्सर आदमी को फुरसत रहती है। अपनी बात-चीत करते रहते हैं, गपशप करते हैं, सिनेमा देखते हैं, थोड़ा सा मनोरंजन करते हैं। बस यही ठीक समय हैं जिसमें कि प्रौढ़ लोगों की शिक्षा एवं समस्याओं का समाधान किया जा सके। रात्रि को जब सात बजे के करीब सब लोग काम से आकर के और नित्य कर्म करके खाना पीना खा करके जल्दी निवृत्त हो जाएँ तब सात से नौ तक अथवा ठंडक और गरमी के हिसाब से इस समय को आगे-पीछे बढ़ाया जा सकता है दो घंटे की पाठशालाएँ चल सकती हैं।
शिक्षित लोगों के लिए आवश्यक है कि वो अपना थोड़ा सा समय इसके लिए श्रमदान के रूप में दें और समाज के लिए अनुदान के रूप में दें। पढे़ लिखे लोग यदि उत्साही हों, इस तरह की पाठशाला आपस में मिलजुलकर के चला लें, समय का निर्धारण कर लें और किसी दिन ड्यूटी किसी की हो और किसी दिन ड्यूटी किसी की हो अथवा एक महीना किसी की हो अथवा ऐसे लोग हों जो नियमित रूप से ही समय देने लगें, तो मोहल्ले-मोहल्ले में, गली-गली में, गाँव-गाँव में रात्रि पाठशालाएँ चल सकती हैं। इसके लिए जिन लोगों को संकोच सा लगता है, झिझक लगती है, अपनी तौहीन समझते हैं कि हमारी इतनी बड़ी उमर हो गई और हम बच्चों के तरीके से पढ़ने क्या जाएँ?
रात्रि पाठशाला की उपयोगिता
उनके पास जाकर के एक सभा-मीटिंग के रूप में बुला करके और अच्छे तरीके से समझाया जाए और शिक्षा की महत्ता को समझाया जाए बताया जाए तो मेरा ऐसा ख्याल है कि अगर मनुष्य के, व्यक्ति के विकास करने के लिए कुछ सीखने की, लाभ की बात कही जा रही है, तो देर सबेर में उसको मान ही लेनी चाहिए। प्रौढ़ लोगों की शिक्षा के लिए रात्रि पाठशालाएँ चलाई जानी चाहिए। इतना उनको शिक्षित किया जाना चाहिए कि अपनी ठीक तरीके से पढ़ने-लिखने की बात को समझ सकें और संसार में क्या हो रहा है, अपने देश में क्या हो रहा है और भूतकाल में क्या हो रहा था, आज की समस्याएँ क्या हैं, उनके समाधान क्या हैं? इस विषय में उनको थोड़ी जानकारी होने लगे, इतना पढ़ना लिखना आवश्यक है। मैं समझता हूँ प्रौढ़ शिक्षा की दृष्टि से प्राइमरी स्कूल की जिसको आजकल पाँचवाँ दरजा कहते हैं, यह योग्यता अनिवार्य रूप से आवश्यक होनी चाहिए। उसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र से घोर प्रयत्न करना चाहिए।
महिलाओं के लिए प्रौढ़ पाठशाला
महिलाओं को रात को बहुत काम करना पड़ता है। उनके पास फुरसत का वक्त तीसरे पहर का है। दोपहर को रोटी-पानी बना-खा करके बच्चों को भेज करके उनके पास अक्सर तीसरा पहर अर्थात दो से पाँच अथवा तीन से पाँच या और आगे-पीछे इस समय दो घण्टे का समय आसानी से बच सकता है। प्रत्येक महिला को अक्सर यह वक्त फुरसत का मिलता है। यह फुरसत का वक्त इस काम के लिए लगाया जाना चाहिए। मोहल्ले-मोहल्ले में, गली-गली में और गाँव-गाँव में ऐसी पाठशाला लगाई जाएँ जिनमें प्रौढ़ महिलाएँ पढ़ने के लिए आएँ। उनको साक्षरता की दृष्टि से इस लायक बनाया जा सके कि वो अपनी आवश्यक जीवनोपयोगी बातों को सुन सकें, समझ सकें और जान सकें। इस तरह की शिक्षा महिलाओं के लिए तीसरे पहर और पुरुषों के लिए सायंकाल को होनी चाहिए। इस तरीके से शिक्षा की व्यवस्था की जाए जो अपने लिए बहुत ही उपयोगी और बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी। थोड़े दिनों में सारा देश साक्षर हो जाएगा। लोगों के अंदर सेवा करने की वृत्ति विकसित होगी। हर आदमी, हर शिक्षक ये अनुभव करेगा कि शिक्षा ऋण को चुकाया जाना चाहिए।
शिक्षा की व्यवस्था अत्यधिक आवश्यक है और उसको पूरा करने के लिए हर आदमी को और हर व्यक्ति को किसी न किसी रूप में भाग लेना चाहिए। जो लोग बाहर वालों की सेवा नहीं कर सकते, कम से कम उनको इतना तो करना ही चाहिए कि अपने घर के लोग हैं, बच्चे हैं, बुड्ढे हैं जो घर की अशिक्षित स्त्रियाँ हैं या अशिक्षित व्यक्ति हैं, उनको पढ़ाने के लिए समय दिया करें। उनको आगे बढ़ाने के लिए इस तरह की पाठशालाओं की आवश्यकता है। मान लीजिए किसी ने मिडिल पास किया है। उसकी इच्छा मेट्रिक पास करने की है। उनको ऐसी सुविधाएँ होनी चाहिए उनके लिए ऐसे ट्यूटोरियल स्कूल होने चाहिए जिसमें कि उस फुरसत के वक्त में, रात के वक्त में पढ़ सकें। महिलाएँ जो थोड़ी पढ़ी हुई हैं और आगे पढ़ना चाहती हैं, उनके लिए ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जो सायंकाल के वक्त जो फुरसत का वक्त है उसमें वो पढ़ें और पढ़ लिखकर अपनी योग्यता बढ़ाएँ परीक्षा दें और शिक्षा प्राप्त करें और उच्च शिक्षा को प्राप्त करने की अधिकारी हो जाएँ। ऐसी व्यवस्था का जमाना एक बड़ी भारी सामाजिक आवश्यकता है। उसको पूरा किया ही जाना चाहिए।
बच्चों को क्या पढ़ाया जाए?
अब बच्चों का सवाल आता है कि बच्चों को क्या पढ़ाया जाए? इसे दुर्भाग्य कहना चाहिए कि हमारे देश में शिक्षा की मनोवृत्ति और शिक्षा का स्वरूप कुछ ऐसा विलक्षण हो गया है कि हर आदमी पढ़ने के साथ-साथ में इस बात को जोड़ लेता है कि हमको पढ़ने के बाद में नौकरी मिल ही जाएगी और नौकरी करनी ही चाहिए। नौकरी अर्थात शिक्षा ये दोनों पर्यायवाची शब्द हो गए हैं आज। विद्यार्थियों से, स्कूलों और कॉलेजों में जाकर पूछा जाए कि आपका भविष्य क्या है और आप क्या करेंगे? उनमें से 99 प्रतिशत बच्चों का एक ही उत्तर होगा कि हम नौकरी करेंगे। इतनी नौकरी कहाँ से आएँगी? जब सारे के सारे देश के नागरिक पढ़ने लगेंगे और हर नागरिक की यह इच्छा होगी कि हमको नौकरी ही मिलनी चाहिए। तो सबको नौकर कौन रखेगा? नौकर की कहीं-कहीं जरूरत पड़ती है। फिर क्या होगा? पढ़ाई और नौकरी बिलकुल अलग-अलग बात है।
नौकरी का अर्थ यह जरूर है कि शिक्षा के साथ लोगों को इतना ज्ञान और बुद्धि होनी चाहिए ताकि अगर आवश्यकता पड़े, तो वह स्वावलंबी बन सके। उनके पैतृक व्यवसाय जो कुछ भी होते हैं, उसमें उनको निष्णात करना शिक्षा का काम है। जो किसानों के बच्चे हैं, उनको खेती बाड़ी की शिक्षा, पशुपालन की शिक्षा, इसके बारे में आवश्यक जानकारी दी जानी चाहिए और वो बच्चे अपने बड़े होने के बाद में पढ़ लिख करके अपने माँ बाप के तरीके से भी अच्छी तरह खेती बाड़ी करना शुरू करें, पशु पालन शुरू करें, नया उद्योग शुरू करें। ऐसी जानकारी मिले तो किसानों के बालकों को नौकरी तलाश करने की आवश्यकता क्यों हो? शिक्षा का यह उद्देश्य है, किस ओहदे का लड़का है, प्राइमरी शिक्षा लेने के बाद में बच्चों की रुचि और व्यवसाय का निर्धारण वहीं हो जाना चाहिए। ये देखा जाना चाहिए कि नौकरी तो सब को नहीं मिल सकती आखिर उनको जीविका के लिए क्या करना है? किसान के बच्चों को किसान के लायक शिक्षा, दुकानदार के बच्चों को दुकानदार के लायक शिक्षा, जिनके माँ-बाप जिनके घर वाले व्यापार करते हैं उनको उस तरह की शिक्षा की व्यवस्था कर देनी चाहिए छोटी उमर से ही।
प्राइमरी के बाद शिक्षा व्यवस्था कैसी हो?
पाँचवें दरजे के बाद बेसिक शिक्षा का निर्धारण हो जाना चाहिए। दुकानदार के बच्चों को किस चीज की जरूरत है। हिसाब-किताब से लेकर के और व्यापारिक ज्ञान तक उनको पढ़ाया जाना चाहिए। जिस आदमी को सरकारी नौकरी करनी है, उसे देखा जाए कि उसको नौकरी की आवश्यकता भी है कि नहीं। उसके लिए सरकार को या दूसरी संस्था को पहले से ही माँग घोषित करनी चाहिए कि हमारे यहाँ प्रतिवर्ष इतने नौकरों की जरूरत पड़ेगी। उन नौकरों की माँग के अनुरूप और अनुपात से, इस तरीके से व्यक्ति विकसित किए जाने चाहिए कि उन नौकरियों में फिट हो सकें और लगभग उतने ही पढ़ें। हर साल नए इंजीनियरों की भरती जिसमें बूढ़े लोगों का रिटायर हो जाना शामिल है, और नयों की वृद्धि शामिल है, मान लीजिए एक हजार इंजीनियरों की आवश्यकता है, तो हमारे इंजीनियरिंग कॉलेजों में भरती करने के साथ पहले ही देख लेना चाहिए कि एक हजार की जगह पर सवा हजार इंजीनियर को पैदा करने का इंतजाम किया जाए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक हजार इंजीनियरों की जरूरत है और दस हजार इंजीनियर पैदा किए जाएँ और नौ हजार इंजीनियर जिन्होंने पढ़ाई' लिखाई की है, बहुत सारा वक्त खरच किया है और पैसा खरच किया है, उनका क्या होगा?
इस तरीके से जो नौकरी की बात है उसको पहले राष्ट्रीय आवश्यकता को ध्यान में रखा जाए कारखानों की आवश्यकता को ध्यान में रखा जाएँ और मोटा अनुपात लगाया जाए कि इतने लोगों के लिए नौकरी का स्थान होगा, उतने ही लोगों को शिक्षित किया जाए खासतौर से सरकारी नौकरियों के बारे में। प्राइवेट नौकरियों की तो बात अलग है, वहाँ उसकी व्यवस्था का अंदाज लगाना मुश्किल है, सरकारी नौकरों का अंदाज लग सकता है और उस तरह की नौकरी के स्कूल, सरकारी सेवा और प्रशासनिक ढाँचे के बारे में प्राथमिक शिक्षा से ही जानकार बनें, ताकि वो उस मशीनरी में ठीक से फिट हो सकें। इस तरीके से खासतौर से सरकारी नौकरियों के बारे में इस अनुपात से ही शिक्षण दिया जाना चाहिए और अनावश्यक लोगों की भरती पहले से ही बंद कर देनी चाहिए ताकि किसी तरह की समस्या खड़ी न हो बेकारी की समस्या न हो, बेरोजगारी की समस्या न हो।
शिक्षा के साथ स्वावलंबन, कुटीर उद्योग
शिक्षा का एक और भी उद्देश्य होना चाहिए कि वह स्वावलंबन शिक्षा के बारे में कुटीर उद्योगों पर ध्यान दे। अपना देश इस तरीके से बिखरा हुआ है, उस बिखरे हुए देश में बड़े उद्योग देहातों में चल नहीं सकते। बड़े व्यवसायों के लिए केवल शहरों में गुंजाइश है, छोटे देहातों में बड़े व्यवसाय नहीं हो सकते हैं। बड़े व्यवसायों को बड़ी पूँजी लगानी पड़ती है। बड़ी मशीनें भी लगानी पड़ती है। इसलिए हमारे देश में जो बहुत ही गरीब देश है, पिछड़ा हुआ देश है, फैला हुआ देश है, कुटीर उद्योगों का विकास किया जाना चाहिए।
जापान की आदर्शवादिता
जापान ने भी जो उन्नति की है, कुटीर उद्योगों के माध्यम से की है। उन्होंने गाँव-गाँव, घर-घर और मोहल्ले-मोहल्ले में इस तरह का प्रयत्न किया है कि हर व्यक्ति का जो श्रम बच जाता है, जो समय बच जाता है, उसका उपयोग किया जा सके। जापान में पढ़ने के बाद में स्कूली बच्चे भी कुछ काम कर लेते हैं अपने घर में लगी हुई मशीनों के द्वारा। महिलाएँ खाना-पकाने के बाद और घर की व्यवस्था बनाने के बाद जो बच्चों को सँभालती हैं, घर में रहती हैं, उनके लिए भी ऐसे गृह उद्योग मिल जाते हैं जिसमें कि वे कई घंटे काम कर सकें, कई घंटे काम करके जीविका कमा सकें। प्रत्येक व्यक्ति को अपने श्रम का उपयोग करने के लायक कुछ काम मिल सके, इसकी बहुत सख्त जरूरत है। उसके बिना हमारी आर्थिक व्यवस्था का सुधार नहीं हो सकता।
एक आदमी कमाए और सारा घर खाए ये क्या बात है? एक कमाता है, बाकी लोग जो समर्थ हैं, बड़ी उमर के हैं और जो काम करने में समर्थ हैं, उनको काम क्यों नहीं मिलना चाहिए?
इतने आदमियों की श्रम शक्ति बेकार चली जाए तो राष्ट्रीय उत्पादन में कमी होना स्वाभाविक ही है। एक ही आदमी कमाए सारा घर खाए तो घर में आर्थिक संकट होना स्वाभाविक ही है। हर आदमी को किसी न किसी रूप में कमाना चाहिए। यह हमारे समाज की व्यवस्था का काम है, शिक्षा की व्यवस्था का काम है कि ऐसा शिक्षण दे, खासतौर से कुटीर उद्योगों के संबंध में कि प्रत्येक घर में कोई न कोई उद्योग लगे और उन कुटीर उद्योगों से बनी वस्तुओं को बेचने का और उनको मार्केट में लाने का, बिक्री करने का कार्य कोऑपरेटिव सोसायटी से होना चाहिए। एक आदमी चीज बनाए और वही बेचता फिरे। ये क्या ढंग है? साबुन घर में कोई बनाए और वही सिर पर रखकर घर-घर में बेचे, तो एक चौथाई समय बनाने के लिए और तीन चौथाई समय बेचने के लिए। फिर क्या लागत आएगी? बिक्री का काम उत्पादक का नहीं होना चाहिए। उत्पादक अलग हों और विक्रय करने वालों की संस्थाएँ अलग हों। इससे बनाने वाले को भी निश्चिंतता होती है, बिक्री के लिए स्रोत भी ठीक बन जाते हैं और बाहर भेजना हो तो वो भी ठीक बन जाता है। हमारे शिक्षण का उद्देश्य स्वावलंबन होना चाहिए।
शिक्षा का उद्देश्य मानव जीवन की हर समस्या के बारे में व्यक्ति को जानकारी कराना है, जैसे स्वास्थ्य की समस्या, एनाटॉमी से लेकर फीजियोलॉजी तक। हमारे अंग किस तरीके से काम करते हैं और क्यों बीमार हो जाते हैं, बीमार हुए लोगों को किस तरीके से ठीक किया जा सकता है और घर में कोई बीमार पड़ जाए तो उसकी परिचर्या के लिए और प्राथमिक सहायता के लिए क्या किया जाना चाहिए? ये शिक्षा का महत्त्वपूर्ण अंग होना चाहिए पर हम देखते हैं कि ये अंग बहुत कम हैं। हर आदमी जब बड़ा हो जाता है, तो उसको पैसे कमाने पड़ते हैं और उद्योग करना पड़ता है, रोटी कमानी पड़ती है, हिसाब-किताब रखना पड़ता है, पर हम ये देखते हैं कि जो सामान्य शिक्षा है उसमें आवश्यक बातों के लिए कोई स्थान नहीं। प्रत्येक व्यक्ति का एक कुटुंब होता है, परिवार होता है, परिवार की समस्या होती है, स्त्री की समस्या होती है, बच्चे पैदा होने की समस्या होती है, गर्भवती की समस्या होती है, बालकों के विकास की समस्या होती है। जो आदमी कुटुंब बनाता है और कुटुंब में रहता है, उनको इस बात की जानकारी होनी चाहिए लेकिन हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश जीवन का इतना महत्त्वपूर्ण अंग और हमारी शिक्षा में इनके लिए कोई गुंजाइश नहीं। मनुष्य की राष्ट्रीय समस्याएँ सामाजिक समस्याएँ धार्मिक समस्याएँ आत्मिक समस्याएँ जीवन के विकास करने की समस्याएँ व्यक्तित्व को ठीक रखने की समस्याएँ इत्यादि असंख्य समस्याएँ मनुष्य के जीवन में हैं और खासतौर से आज इस प्रगतिशील जमाने में तो इनकी संख्या और भी बढ़ गई है। इन समस्याओं के समाधान क्या हो सकते हैं और क्या होने चाहिए और दुनिया के लोगों ने किस तरीके से अपने-अपने देश की आवश्यकता को पूरा किया। कठिनाइयों का समाधान किया। इसकी जानकारी देना शिक्षा का काम है, लेकिन हम देखते हैं कि कूड़े-कबाड़ी की तरीके से निरर्थक बातें बच्चों के दिमाग में ठूँसी जाती हैं? उसको जबानी याद करने के लिए मजबूर किया जाता है, जबानी याद करने की क्या बात है?
व्यर्थ का ऐतिहासिक शिक्षण
व्यर्थ का ऐतिहासिक शिक्षण जैसे इतिहास को लीजिए। इतिहास में हमको राजाओं का इतिहास पढ़ाया जाता है। कौन सा राजा हुआ, अकबर बादशाह हुआ, बाबर हुआ, हुमायूँ बादशाह हुआ, औरंगजेब हुआ और लार्ड क्लायड आया। क्या मतलब है इनका? ये कहानी एक आधा घंटे में समझाई जा सकती है। इसी तरीके से मुसलमान आए उसके बाद दूसरा आया, तीसरा बैठा, चौथा बैठा, मारकाट मचाई, राज किया और भाग गए और मर गए इससे क्या बनता है और क्या नहीं बनता, इससे क्या लाभ है और क्या हानि।
यदि इतिहास पढ़ाया जाना हो, तो उस जमाने की परिस्थितियों में परिवर्तन किस तरह से हुआ और उन परिस्थितियों में हेर-फेर क्यों हुआ विदेशी शासकों के आने का क्या कारण था और शासन व्यवस्था में क्या चूक हुई और जनता से क्या चूक हुई? इस तरह का विश्लेषणात्मक शिक्षण दिया जाए जिससे कि आदमी परिस्थितियों के हेर-फेर के बारे में थोड़ा जान सके तब तो बात समझ में आती है। हमने भूतकाल का शिक्षण प्राप्त करने के लिए इतिहास पढ़ा और इस तरह के इतिहास का शिक्षण जरा समझ नहीं आता, क्योंकि इसका मतलब बच्चों के सिर के ऊपर अनावश्यक भार डालने के बराबर है।
आवश्यक विषय ही पढ़ाए जाएँ
ज्योमेट्री की हर आदमी को क्या आवश्यकता पड़ती है। जरा बताइए न, ओवरसीयर को पड़ सकती है, इंजीनियर को पड़ सकती है पर हर बच्चे को ज्योमेट्री पढ़नी पड़े इसकी कोई तुक है? ऐसे तो बहुत से विषय हैं जिन्हें कहा जाए यह भी जरूरी होता है तो जमीन खोदने से लेकर के और आसमान में तारे-सितारे गिनने तक सब पढ़ता रहे, तो सौ जन्म में भी शिक्षा पूरी नहीं हो पाएगी। बच्चों के ऊपर उतना अनावश्यक भार नहीं डालना चाहिए जो जीवन में काम नहीं आता है। जीवन में काम आने वाले ज्ञान को सर्वसाधारण के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए और जो विशेष विषय के विशेषज्ञ बनना चाहते हैं उनके शिक्षण की अलग व्यवस्था हो।
जैसे कि मान लीजिए ग्रह-नक्षत्रों के चाल के बारे में कोई बच्चा रुचि रखता है या अन्य विदेशी भाषा के बारे में उसको कोई ज्ञान है, इच्छा है, उसके लिए अलग से शिक्षण किया जाए? सारे बच्चों पर भार क्यों डाला जाए। शिक्षा की व्यवस्था में प्रत्येक के लिए आवश्यक है कि व्यावहारिक जीवन नहीं आन्तरिक जीवन जो कि मनुष्य का वास्तविक जीवन है, उसको कैसे जिया जाए इसका परिपूर्ण शिक्षण किया जाना चाहिए।
शिक्षा एवं विद्या
शिक्षा उस चीज को कहते हैं, जो भौतिक आवश्यकताओं में सहायता कर सकती है। जानकारी का नाम शिक्षा और विद्या उस चीज का नाम है जो मनुष्य को कर्तव्यों के बारे में जिम्मेदारियों के बारे में सद्गुणों के बारे में अपने कर्मों और स्वभाव को सही बनाने के बारे में आदमी को आगाह करती है और उसके लाभ-हानि समझाती है और सही रास्ते पर चलना सिखाती है और बुरे मार्ग से बचना सिखाती है। इस तरह की प्रभावशाली जानकारी का नाम विद्या है और ये विद्या, उससे भी ज्यादा आवश्यक है जिसे शिक्षा कहते हैं। शिक्षा का महत्त्व मैं अभी आपको बता रहा था। वो प्रारंभिक बात थी, लेकिन इससे आगे मनुष्य को समर्थ और सबल, सही और अच्छा, उत्कृष्ट बनाना है, तो हमको शिक्षा के साथ-साथ में विद्या के अंगों का आवश्यक समावेश करना ही चाहिए भले ही आप उसको नैतिक शिक्षा कहिए भले ही उसको सांस्कृतिक शिक्षा कहिए भले ही उसको धार्मिक शिक्षा कहिए, भले ही उसको आध्यात्मिक शिक्षा कहिए। जो भी उसे कहा जाए नाम कुछ भी दिया जाए लेकिन उन चीजों का समावेश हमारी शिक्षा में अत्यधिक आवश्यक है जो पढ़ते समय बच्चों के मस्तिष्क-पर निरंतर ये छाप डालती है, कि हमको एक अच्छा नागरिक बनना है, हमको कर्तव्यपरायण नागरिक बनना है, हमें समाज का एक जिम्मेदार हिस्सा बनना है। कभी हमको राष्ट्र का नेतृत्व करना पड़े, समाज का नेतृत्व करना पड़े, किन किन बुराइयों से बचना है और किन किन बुराइयों से समाज को बचाना है। ये व्यक्ति और समाज के मूलभूत जीवन के, अंतरंग जीवन के बारे में जितनी गहरी जानकारी होगी, उतना ही आदमी का व्यक्तित्व, उतना ही आदमी का क्रिया कलाप सही होता हुआ चला जाएगा। यह बहुत ही आवश्यक है कि हम किस तरीके से अच्छा और ठीक जीवन जिएँ। इस तरह की शिक्षा हमारे देश में होनी ही चाहिए।
गुरुकुल परंपरा का पुनर्जागरण हो
प्राचीनकालीन गुरुकुल परंपरा को जीवित किया जाए और शिक्षा के साथ साथ अगर संभव हो तो ऐसा प्रयत्न किया जाना चाहिए कि बच्चों को बोर्डिंग में ही रखा जाए। प्राचीनकाल में गुरुकुल प्रणाली थी और बहुत ही अच्छी और बहुत ही मुनासिब प्रणाली थी। अक्सर देखा यह गया है कि घरों का वातावरण उतना अच्छा नहीं होता और प्रत्येक परिवार में उतनी सांस्कृतिक व्यवस्था नहीं होती। घर में अनेक लोग रहते हैं और अनेक तरह के लोग रहते हैं उनको अपने साथ मिला करके ही चलना पड़ता है।
हिंदुस्तान जैसे संयुक्त परिवार प्रणाली के देश में मान लीजिए कोई बाप हुक्का पीता है कैसे मना किया जाए। कोई माँ गाली देने की अभ्यस्त है और लड़ाई-झगड़ा करने की अभ्यस्त है, माँ को कैसे घर से निकाल दिया जाए? घर का वातावरण सही रखना हर के बस का काम नहीं है। किसी-किसी से ही बन पड़ता है। अच्छे वातावरण में जब तक बच्चों को नहीं रखा जाएगा, तब तक बच्चों का नैतिक, सांस्कृतिक और आत्मिक विकास नहीं हो सकता। इसीलिए पुरानी पद्धति ये थी कि जहाँ शिक्षण दिया जाए वहाँ उसका उनको संरक्षण भी दिया जाए।
ये प्रथा गुरुकुलों द्वारा संभव थी, क्योंकि वहाँ महर्षियों के आश्रम में ऋषियों की धर्मपत्नियाँ उत्कृष्ट विचारधारा वाली थीं। जहाँ के सहायक अध्यापकों से लेकर के कर्मचारियों तक सब उसी स्तर के बने हुए थे जो बच्चों के ऊपर एक स्वस्थ प्रभाव डालें। बच्चों के लिए कुमार्ग पर जाने के लिए कुछ गुंजाइश जहाँ न हो, गाली देने की कोई गुंजाइश न हो, कामचोर बनने और आलस में पड़े रहने के लिए कोई गुंजाइश न हो, बुरे लड़कों के साथ में खेलने की कोई गुंजाइश न हो। इस तरह की सारी गुंजाइश जहाँ नहीं रहती है। वहाँ का वातावरण बढ़िया बन जाता है। वातावरण का प्रभाव बच्चों के मन और मस्तिष्क पर पड़ता हुआ चला जाता है। जब बड़े होते हैं, तो श्रेष्ठ नागरिक होते चले जाते हैं। आज भी इसी तरह की शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है। बच्चों को जब माँ-बाप खाना खिलाते ही हैं, कपड़ा पहनाते ही हैं, फीस और पढ़ाई का खरच देते ही हैं, तो उनको आँखों के आगे ही रख करके खरच उठाया जाए ये क्या बात है? ऐसा भी तो हो सकता है जो खरच माँ-बाप बच्चों के लिए उठाते हैं वह खरच उस तरह की शिक्षा प्रणाली के लिए गुरुकुल को दे दिया जाए। वहाँ बच्चों की न केवल शिक्षा बल्कि सारी की सारी दिनचर्या का क्रम ढाला जाए। अपनी शिक्षा में इस तरह की क्रांति की आवश्यकता है जहाँ बच्चों की पढ़ाई से ले करके उनकी दिनचर्या, उनके विचार करने की शैली से लेकर बौद्धिक व्यवस्था, बौद्धिक ज्ञान के अभिवर्द्धन की पूरी गुंजाइश रहे।
भावी पीढ़ी के निर्माण को एक राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर दूसरे स्रोतों से खरच में कटौती करें। अच्छा हो कि अपनी भावी पीढ़ियों का निर्माण करने के लिए अगर इस सिलसिले में थोड़ा ज्यादा भी खरच उठाया जाना आवश्यक हो, तो उठा लिया जाना चाहिए। तरह-तरह के टैक्स लगाए जा सकते हैं या दूसरी चीजों पर कमी की जा सकती है, ये जो कि मनुष्य के जीवन और मरण का प्रश्न है नई पीढ़ी का प्रश्न है आदमी को बनाने का प्रश्न है। आदमी को बनाने का मतलब समाज को बनाना, राष्ट्र को बनाना, भावी व्यवस्था को बनाना, उसके लिए अगर हमको शिक्षा पर खरच भी करना पड़ता हो और टैक्स भी देना पड़ता हो और सरकार को बड़ी व्यवस्था भी बनानी पड़ती हो, तो भी इसके लिए प्रबंध किया जाना चाहिए। शिक्षा और विद्या की उपयोगिता और शिक्षा के स्वरूप के बारे में हर विचारशील आदमी को चिंतन करना चाहिए। अपनी इस राष्ट्र की प्राथमिक आवश्यकता और महती आवश्यकता का समाधान करने के लिए ऐसा हल ढूँढ़ के निकालना चाहिए, जिससे अपना देश शिक्षित बन सके साक्षर बन सके विद्यावान् बन सके गुणी बन सके और व्यक्तित्व का विकास करने वाला बन सके। ऐसे व्यक्तित्वों का विकास और ऐसी शिक्षा प्रणाली ही हमारे देश को ऊँचा उठा सकती है। हमारे धर्म और संस्कृति को और राष्ट्र को मजबूत बना सकती है और विश्व शांति का आधार बन सकती है।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥