उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!
एकलव्य नाम के भील को ये इच्छा उत्पन्न हुई कि हमको ऐसी बाण-विद्या सीखनी चाहिए कि संसार में किसी को भी न आती हो। ऐसी बाण-विद्या कौन सिखाएगा, जो मनुष्यों को न आती हो। वो भगवान् सिखाएगा, तो भगवान से किस तरह से सीखा जा सकता है? भगवान की कोई शक्ल भी नहीं है, भगवान् का कोई स्वरूप भी नहीं है, भगवान् का कोई गाँव भी नहीं है, भगवान् का कोई पता भी नहीं है। भगवान किस तरीके से खुश होते हैं, किस तरह से नाखुश होते हैं? इसकी जानकारी भी नहीं है। भगवान से कैसे प्रार्थना की जाए कि हमको बाण-विद्या सिखा दी जाए। एकलव्य ने एक तरीका निकाला। उसने उस जमाने के बेहतरीन विद्वान द्रोणाचार्य के बारे में सुन रखा था, सबसे पहले उन्होंने वहाँ कोशिश की कि उनसे सहायता ली जाए, लेकिन वह मिल न सकी; क्योंकि वह अछूत था। उसने फिर एक नया तरीका निकाला। क्या तरीका निकाला कि मिट्टी का खिलौना बना लिया। मिट्टी कैसी होती है? बेजान होती है, जान नहीं होती कुछ भी। अक्ल-वक्ल भी नहीं कुछ। उस मिट्टी को उन्होंने जीवन्त बना लिया। मिट्टी को जीवन्त? हाँ, मिट्टी को जीवन्त बनाया जा सकता है और वे असली द्रोणाचार्य से भी ज्यादा कारगर साबित हो सकती है। कौन-सी चीज बन सकती है? मिट्टी। क्यों साहब! मिट्टी कैसे बन सकती है? मिट्टी बन सकती है तब, जब उसमें श्रद्धा का समावेश कर दिया जाए। श्रद्धा किसी चीज में समाविष्ट कर दी जाए, तो वह जीवन्त हो सकती है। इतनी जीवन्त हो सकती है कि मनुष्यों में किसी के पास भी वह सामर्थ्य नहीं। उससे ज्यादा सामर्थ्यवान, यहाँ तक कि भगवान् के बराबर भी सामर्थ्यवान बन सकती है। यही हो गया। द्रोणाचार्य का खिलौना मिट्टी का उसने बनाया और उसके माध्यम से सीखना शुरू किया और उस खिलौने ने कमाल कर दिया, कमाल! क्या कर दिया? इतनी जबरदस्त शिक्षा दी कि पाण्डवों के कुत्ते का जब उसने मुँह बन्द कर दिया, तो पाण्डवों ने कहा—ऐसी बाण-विद्या तो पृथ्वी के, दुनिया के इतिहास में अभी तक नहीं देखी। सामने से तीर चलाए जाते हैं, पार निकल जाते हैं, ये तो होता रहा है, तिकोने तीर नीचे से चलते हों, सिर्फ होंठ को सीते हों, गले में भी नहीं जाते हों, कहीं इधर-उधर नहीं लगते हों, सिर्फ मुँह को बन्द कर दें, कमाल है! ऐसी बाण-विद्या किसी ने भी नहीं सीखी? कुत्ते का नुकसान तो भूल गए ये पता लगाने लग गए कि ऐसा विद्वान कौन आ गया है? तलाश करने लग गए तो मालूम पड़ा—एकलव्य नाम का एक लड़का, ये बाण-विद्या सीख रहा था। हम भी इससे सीखेंगे। उससे पूछा—भाई साहब! ये कुत्ता मारा गया, मर जाने दीजिए, कोई बात नहीं, कुत्ता नया पाल लेंगे; लेकिन एक बात बताइये—आपने ये बाण विद्या किससे सीखी है? उसी से हम भी सीखने के इच्छुक हैं, सो उसने मिट्टी के खिलौने की तरफ इशारा किया। ये है हमारा गुरु, इन्होंने हमें सिखा दी। मिट्टी का खिलौना? हाँ, मिट्टी के खिलौने को आप समझते क्या हैं! क्यों? साहब! मिट्टी का खिलौना हम भी बना लें, चाहे किसी का भी बना लें, आपके लिए वह कतई कारगर नहीं हो सकता। क्यों? कैसे? आपका क्यों कारगर हो गया? पाण्डव पूछने लगे एकलव्य से। उसने कहा—मिट्टी के साथ में हमारी जुड़ गई है श्रद्धा। सुनते हो कि नहीं श्रद्धा? श्रद्धा भी सुनी है कि नहीं? कभी श्रद्धा भी देखी है? श्रद्धा को भी जानते हो? श्रद्धा को भी पूछते हो? श्रद्धा का भी कुछ मालूम है?
खिलौने लिए फिरते हो। बेवकूफो! केवल खिलौने से कोई बात नहीं बनेगी। शालिग्राम लाए हैं, फलानी चीज लाए हैं, गणेशजी लाए हैं, रुद्राक्ष की माला लाए हैं। इन पदार्थों को लिए फिरते हों; वस्तुओं को लिए फिरते हो। जिसकी वजह से जान प्राण पैदा होता है, उसको भी जानते हो कि नहीं? वस्तुओं की जरूरत है? वस्तुओं की भी जरूरत है। कर्मकाण्ड उपयोगी है? कर्मकाण्ड की भी जरूरत है। प्रतीकों की जरूरत है? प्रतीकों की भी जरूरत है; लेकिन प्रतीक मूल्यवान तब हो सकते हैं; प्रतीक सामर्थ्यवान तब हो सकते हैं, जब साधक की श्रद्धा का समन्वय हो जाए। अध्यात्म का प्राण है—श्रद्धा! श्रद्धा!! अध्यात्म के कलेवर हैं—कर्मकाण्ड, प्रतीक, खिलौने, मूर्तियाँ—ये सब प्रतीक हैं। कर्मकाण्ड—यह प्रतीक हैं। कर्मकाण्ड प्रतीक हैं, जिसको आप करते रहते हैं और जिसके बारे में न जाने क्या-से कल्पना लगाए बैठे हैं कि ये कर्मकाण्ड करेंगे, तो ये मिल जाएगा और ये कर्मकाण्ड करेंगे, तो वो मिल जाएगा, ये प्रतीक ले आएँगे, तो ये मिल जाएगा। प्राण भी मालूम है? उन्हें प्राण का आशय क्या है? प्राण को समझते हैं? प्राण किसे कहते हैं?
मीरा की इच्छा थी कि भगवान को पाएँगे और भगवान का साक्षात्कार करेंगे; भगवान को साथ-साथ खिलाएँगे और इस तरह से खिलाएँगे कि जिस तरीके से आदमी-आदमी को खिलाता है। ये कैसे किया जा सकता है? भगवान कहाँ रहते हैं? विष्णु भगवान कहाँ रहते हैं? कृष्ण को मरे हुए मुद्दतें हो गईं, तो अब किस तरीके से पाएँ कृष्ण को? कृष्ण जी ने न जाने कहाँ जन्म ले लिया होगा! कहाँ रहते हैं? कृष्ण, मालूम नहीं है, तो उन्होंने कहा—कृष्ण चन्द्र जी नहीं मिलते, तो कोई बात नहीं। हम नया कृष्ण गढ़ सकते हैं। गढ़ लिया मीरा ने। कैसे गढ़ लिया? प्रतीक की जरूरत पड़ गई उसको, प्रतीक की। प्रतीक क्या है? प्रतीक बेटे! एक स्वामी जी आए थे, बाबाजी आए थे। मीरा ने कहा—श्रीकृष्ण भगवान की भक्ति करना चाहती हूँ। आप श्रीकृष्ण भगवान से मिला दीजिए तो उन्होंने पत्थर का एक टुकड़ा उनके हवाले कर दिया और कहा—यही है गिरधर गोपाल। गिरधर गोपाल को, उन्होंने एक पत्थर को क्यों मान लिया? पत्थर को देवता मान लिया; पत्थर को भगवान मान लिया; पत्थर को न जाने क्या मान लिया? पत्थर को प्रतीक, प्रतीक पत्थर को पति मान लिया। पत्थर को माना जा सकता है? पत्थर का पति नहीं हो सकता। पत्थर का क्या पति होगा? बेचारा! अपने आप पड़ा हुआ है एक कोने में। पति तो रोटी भी खिलाता है, प्यार भी करता है और काम करता है। पत्थर क्या कर सकता है? कुछ भी नहीं कर सकता है।
तो साहब! प्रतीकों में कोई सामर्थ्य न हो तो? तो भी प्रतीकों को जिन्दा किया जा सकता है। किस तरीके से? जैसे मीरा ने कर लिया था। मीरा के पास क्या था कमाल? मीरा के पास थी—श्रद्धा! श्रद्धा!! श्रद्धा!!! जो उसका प्राण है, अध्यात्म का प्राण है। कर्मकाण्डों के पीछे भटकने वालो! प्रतीकों के पीछे समय गँवाने वालो! उसके प्राण को समझो। लाश के ऊपर सिर फोड़ने वालो! लाश को कन्धे पर उठाये फिरने वालो! उसके प्राण को तलाश कर। प्राण कहाँ से आता है? शक्ति कहाँ से आती है? सामर्थ्य कहाँ से आती है? सामर्थ्य आदमी के भीतर से निकलती है। आदमी की जो उच्चस्तरीय वस्तु है, उसका नाम है—श्रद्धा। मीरा को क्या होने लगा? मीरा के लिए पत्थर का टुकड़ा कमाल करने लगा! असली भगवान के बराबर। असली नहीं, साहब! नकली था, कल्पना थी। अरे बेटे! असली में और कल्पना में क्या फर्क होता है, समझता नहीं है। जब तक कल्पना तब तक कल्पना है, बाद में वही असली बन जाती है। कल्पना की सामर्थ्य को नहीं समझता! देवताओं की सामर्थ्य समझता है और भावनाओं की सामर्थ्य को नहीं समझता? देवताओं की क्या सामर्थ्य है? कोई सामर्थ्य नहीं है। सामर्थ्य भावना की है। भावना देवता को गढ़ती है। भावना कौन है? भावना है—देवताओं की माता। समझता नहीं है कुछ! देवता! देवता!! देवता!!! लिए फिरता है देवताओं को। पूजा-पूजा लिए फिरता है। इसका प्राण कहाँ है? ये भी कुछ मालूम है। इसका रक्त कहाँ से आता है? इसका जीवन कहाँ से आता है? सामर्थ्य कहाँ से आती है? मीरा ने वो सामर्थ्य पैदा कर ली। पत्थर के माध्यम से। पत्थर को माध्यम बना लिया। माध्यम न बनता तो? तो मुश्किल थी बेटे! पत्थर न मिलता तो? तो मुश्किल थी। क्यों? क्योंकि आदमी की श्रद्धा को परिपक्व करने के लिए, श्रद्धा का संवर्धन करने के लिए, श्रद्धा को समुन्नत बनाने के लिए किसी-न साधन की जरूरत पड़ती है; प्रतीक की जरूरत पड़ती है। प्रतीक मीरा को मिल गया। क्यों साहब! प्रतीक मीरा को नहीं मिलता, पत्थर न मिलता तो? तो मुश्किल थी। एकलव्य को मिट्टी का खिलौना न मिलता तो? तो बेटे मुश्किल थी; क्योंकि भावना का संवर्द्धन और श्रद्धा का एकत्रीकरण किसी प्रतीक की अपेक्षा करता है। प्रतीक नहीं होगा, तो मुश्किल पड़ जाएगी। नहीं, ऐसे ही में कर लेंगे। नहीं, बेटे! बनेगा नहीं। मन को एकाग्र करने के लिए, चित्त को एकाग्र करने के लिए, चित्त को एकाग्र करने के लिए, चित्त को केन्द्रीभूत करने के लिए हमको प्रतीकों की जरूरत पड़ती है। ये आप ध्यान रखिए। प्रतीक साधन हैं, साध्य नहीं हैं। साध्य क्या है? साध्य है—श्रद्धा और प्रतीक? प्रतीक को बेटे! साधन कहते हैं। आप समझते क्यों नहीं है? मीरा ने यही कर लिया और किस-किस ने किया? बेटे! अब कहाँ तक नाम गिनाऊँगा आपको। किस-किस के नाम गिनाऊँगा?
रामकृष्ण परमहंस के पास भी एक खिलौना था। खिलौना? हाँ, खिलौना। खिलौना कहाँ रखा हुआ है? दक्षिणेश्वर के मन्दिर में। क्या रखा हुआ है? खिलौना और देवी! देवी नहीं है, खिलौना है। अभी यहीं पड़ी हुई है वह पत्थर की मूर्ति एक कोने में—दक्षिणेश्वर के मंदिर में। क्या हुआ काली के भीतर? काली के भीतर प्राण फूँक दिया। किसने प्राण फूँका? रामकृष्ण परमहंस ने। वो सिद्ध देवी थी? हाँ, वो सिद्ध देवी थी? काली किसकी थी? रामकृष्ण परमहंस की काली थी। फिर क्या हुआ उस काली का? क्या हुआ! जब रामकृष्ण परमहंस मरे, तो उनके साथ में काली भी मर गई। अब जिन्दा है? बेटे! अब तो मर गई। अब कहाँ है! मर गई वो काली। स्वामी विवेकानन्द को बहुत कमाल दिखाया था! विवेकानन्द को क्या दिखाया था? जमीन से लेकर आसमान तक विराट् स्वरूप। उसने ये प्रत्यक्ष पूछा था विवेकानन्द से—क्यों भाई! क्या बात है? क्या माँगता है? उसने कहा—माँ! मैं जरा नौकरी माँगने आया, तो क्या माँगता है? माँ मैं भक्ति माँगता हूँ, शक्ति माँगता हूँ, ज्ञान माँगता हूँ, तो काली जी ने हँसकर कहा—अच्छा, अच्छा, हमने तीनों चीजें दे दीं। उन तीनों चीजों को लेकर के, वे असली थीं कि नकली? वहम तो नहीं था? शायद वहम था कहीं। दो कौड़ी का शक्की स्टूडेण्ट, जो एल.डी.सी. की नौकरी तलाशने आया था उसे रामकृष्ण परमहंस ने क्या बना दिया? विवेकानन्द बना दिया।
विवेकानन्द कौन थे? मैं क्या बताऊँ आपको कौन थे? विवेकानन्द किसने बना दिया? काली ने बना दिया। क्यों साहब! काली थी क्या? काली पत्थर थी। पत्थर नहीं थी। वो क्या थी? काली थी रामकृष्ण परमहंस की श्रद्धा, जो पत्थर में पूँजीभूत होकर के, पत्थर से टकरा करके, गूँज करके इतनी शानदार बन गई थी। ये कौन दे रही थी? वरदान, काली दे रही थी? काली नहीं दे रही थी बेटे! रामकृष्ण परमहंस की श्रद्धा दे रही थी, जो पत्थर से टकराती थी और टकरा करके फिर करती थी चमत्कार। यही है? हाँ, बेटे! यही है और कौन-सी बताऊँ? एक बार मैंने एक अन्य कहानी आपको सुनाई थी। एक शिष्य की कहानी आपको सुनाई थी, जो अपने गुरु के पैर धोकर के ले आता था और उस पानी से बीमारों को अच्छा कर देता था। एक बूँद डालता था। और रोगी अच्छे हो जाते थे। मैंने ये कथा एक बार सुनाई थी आप लोगों को। मैंने ये भी कहा था उसी दवा से उन्होंने अपने गुरु को अच्छा कर दिया था; उसकी बीमारियों को दूर कर दिया था। फिर मैंने ये भी कहा था आपसे कि बाद में उन्होंने अपने पैर धोये थे; अपने पैर धोकर के स्वयं पिया औरों को पिलाया। कोई फायदा नहीं हुआ था। पानी की जरूरत है? नहीं बेटे! पानी में कोई दम नहीं होता। पैर धोकर पानी पी जाएँ आप। पी आइए। किसका पानी पीना चाहते हैं? गाय का पी लेंगे। गाय का पैर धोकर पिला देंगे। किसका महात्मा जी का पिएँगे? महात्मा जी का पिला देंगे। किसका पीना चाहते हैं? अमुक का पीना चाहते हैं। अच्छा, हम पानी पिला देंगे कुछ भी नहीं होगा। सब पानी एक-सा। एक-से पानी से क्या होता है? कुछ भी नहीं होता। तो साहब! पानी में कमाल कहाँ से आ गया? कमाल की जरूरत थी। आदमी की श्रद्धा। क्यों साहब! श्रद्धा को अकेला बना दें। नहीं, उसके साथ प्रतीकों की भी जरूरत है बेटे! पानी नहीं लिया होता, गुरु कोई नहीं बनाया होता, पैर नहीं धोया होता, पैरों को धो करके नहीं पिया होता, शीशी में बन्द नहीं किया होता, गुरु का नाम लेकर के मन्त्र जप करके नहीं दिया होता, तो शायद मुश्किल हो जाती। प्रतीकों की जरूरत है। आप प्रतीकों का खण्डन करते हैं। कहाँ खण्डन करता हूँ? आप तो समझते नहीं हैं। आप जप करेंगे, तो ये तो हैं नहीं कि उसमें से श्रद्धा को निकाल देंगे और केवल कर्मकाण्डों को, प्रतीकों को सब कुछ मान लेंगे और जब मैं यह कहता हूँ श्रद्धा को और प्रतीकों को जोड़ने की जरूरत है, तो आप ये कहने लगते हैं—श्रद्धा तो आपने बेकार बता दी। न तो आप इधर करेंगे न उधर करेंगे; न तो आप दोनों का समन्वय कर सकते। समन्वय अगर नहीं कर सकते, तो आपके पास अध्यात्म में से, आध्यात्मिकता के क्षेत्र में से कुछ नहीं निकलेगा। अगर आपने श्रद्धा का महत्त्व नहीं समझा और कर्मकाण्डों का महत्त्व समझा है, तो आप रीते रह जाएँगे।
अरे! आने वाला है ये चमत्कार इक्कीस माला में! उन्तीस माला में! अट्ठावन माला में! मालाओं की क्रियाशीलता में, हलचलों में अगर आपने चमत्कार मान लिया, तो आप भूल कर रहे हैं। ऐसी भूल कर रहे हैं कि जिसमें प्राण नहीं हैं। फिर क्या है? इसमें कलेवर है। कलेवर कमाल करता है? हाँ, कलेवर की जरूरत है बेटे! कलेवर की तो आप निन्दा करते हैं। बेटे! मैं कहाँ निन्दा करता हूँ कलेवर की? मैं पहले बैठा हूँ कलेवर। क्या पहने बैठे हैं। देख! मैं कलेवर पहले बैठा हूँ। काहे का है? ये माँस का है, रक्त का है, हड्डी का है। ये कलेवर है, लिफाफा है। अच्छा, आप सारा काम इसी से करते हैं? हाँ, भजन हमने इसी से किया है, अनुष्ठान इसी से किया है, जप-तप हमने इसी से किए हैं। आपके सामने व्याख्यान इसी से दे रहे हैं। हमारी जीभ बोल रही है और हमारी अक्ल काम कर रही है। असल में जीभ का आप चमत्कार देख रहे हैं। हमारी आँखों का चमत्कार देख रहे हैं। क्यों साहब! ये बात है। हाँ, यही बात है। भजन में बहुत ताकत है। कलेवर में बहुत ताकत है। अच्छा, तो हम आपके कलेवर से काम चला लें? नहीं, केवल कलेवर से काम नहीं चलेगा। हमारे भीतर एक और चीज काम करती है, जो जीवन्त है, जीवन्त; जो दिखाई नहीं पड़ती। उस दिखाई न पड़ने वाली सत्ता ने इस कलेवर को पकड़ रखा है और कलेवर न उस सत्ता को पकड़ रखा है। दोनों के एक-दूसरे को पकड़ लेने से वो चीज देख रहे हैं, जो कि हमारी हलचलों के रूप में दिखाई पड़ती है। गुरुजी दोनों को अलग कर दें तब? अकेले कलेवर में ताकत है? अकेले कलेवर में, हम जब मरें तो उसको आप उठा ले जाना। गुरु जी! व्याख्यान कहिए—आप कहना उस कलेवर से। यही तो बोल रहा है ना। जीभ तो यही है ना। जीभ को निकाल लेना, शीशी में बन्द कर लेना। जीभ से आप कहना—बोलिए न! भाषण दीजिए न! बोले तो हमको बताना फिर। नहीं साहब! वह तो नहीं बोलेगी। बोलेगी कहाँ से! उसमें प्राण तो है ही नहीं। प्राण के बिना भी कहीं बोलती है जीभें! नहीं साहब! जीभ प्राण से बोलती है। भाई साहब! हमने मान लिया जीभ बोलती है। आँखें देखती हैं—ये भी सही है। हम कब मना करते हैं जीभ नहीं बोलती, आँख नहीं देखती। फिर आपको मालूम है कि नहीं कि आँखों के आगे जिन्दगी होनी चाहिए; आँखों के पीछे लाइफ होनी चाहिए; रोशनी होनी चाहिए; रोशनी यदि नहीं है, तो? जिन्दगी नहीं है तो? लाइफ नहीं है तब? आँखें रखी हैं। आप घर ले जाना इसमें से निकाल के। आँखें देखेंगी? आप देख लेना मिट्टी है। फिर क्या रखा जाएगा? आप क्या कहना चाहते हैं? मैं यह कहना चाहूँगा, कहना चाहता हूँ कि जो भी कर्मकाण्ड हैं, जो आपने सीखे हैं, जो हमने सिखाए हैं, अभी और सिखाएँगे—कर्मकाण्डों का लाभ कब मिलेगा?
इससे कम में नहीं मिलेगा, जब तक उसमें प्राण समन्वित नहीं करेंगे, श्रद्धा का समन्वय न करेंगे, तो बेटे बात बनेगी नहीं। कर्मकाण्ड मामूली भी हो सकते हैं, छोटे भी हो सकते हैं; नगण्य भी हो सकते हैं; नाचीज भी हो सकते हैं। अगर आप कर्मकाण्डों में कोई भूल करते हैं, तो वह क्षमा भी हो सकती है। अगर आप कर्मकाण्डों को पूरी मुस्तैदी से करते हों, पूरी जानकारी रखते हों, सही तरीके से करते हों, तो भी बिल्कुल वृथा जा सकते हैं। कैसे? आपको कर्मकाण्ड करना नहीं आता। किनको आता है कर्मकाण्ड करना। कर्मकाण्ड करना संस्कृत के पंडितों को आता है। संस्कृत के पंडितों ने संस्कृत की किताबें पढ़ी हैं, और उनका प्रोनन्सिएशन (उच्चारण) सही है। वे ठीक तरह से बोल सकते हैं। कौन-सा मंत्र कैसे बोलना चाहिए? किस विधि से क्या करना चाहिए? उनको आता है और कर्मकाण्डों की बात सही न रही होती, तो अब तक प्रत्येक पंडित करोड़पति हो गया होता। प्रत्येक पंडित ने लक्ष्मीजी को सिद्ध कर लिया होता। लक्ष्मीजी को सिद्ध करने की वजह से प्रत्येक पंडित करोड़पति बन गया होता और प्रत्येक पंडित की अक्ल गणेश जी के बराबर होती; क्योंकि गणेश जी का पाठ करने के बाद में ये हो जाता और प्रत्येक पंडित ने महादेव जी को अपने चंगुल में फँसा लिया होता और महादेव जी से वो काम निकाल लिए होते, जो रावण ने निकाल लिए थे, कुम्भकरण ने निकाल लिए थे, मेघनाथ ने निकाल लिए थे, विभीषण ने निकाल लिए थे; सबने निकाल लिए थे। उनको क्या आता है? उनको विधियाँ आती हैं, कर्मकाण्ड आते हैं। कर्मकाण्ड इन पंडितों को आते, तो महादेव जी का कचूमर निकाल लेते और महादेव जी का सारा माल अपने घर में जमा कर लेते और कर्मकाण्डों की विधियाँ अगर सही रही होतीं, तो गणेश जी की ऋद्धि और सिद्धि दोनों बीबियों को गिरफ्तार कर लेते और गणेश जी से कहते—इन बीबियों को हमारे हवाले करिए और आप चले जाइए। गणेश जी को मारकर भगा देते। उनकी ऋद्धियों और सिद्धियों से काम लेते, अगर पंडितों का बस चल जाता तब। पंडितों का जप चल जाता, तो महामृत्युञ्जय जप उन्होंने सिद्ध कर लिया होता। फिर क्या होता? फिर कोई और मरता तो भले ही मरता, पंडित जी के खानदान वाला कोई नहीं मरता, पंडित जी के रिश्तेदार में एक भी न मरता। महामृत्युञ्जय जप आता है न उनको? हाँ साहब! पिताजी आपके मर गए? नहीं साहब! पिताजी तो मर रहे हैं, हकीम को बुलाकर ला रहे हैं। पंडित जी आप महामृत्युञ्जय मंत्र का जप कर दीजिए न। उनको, पिताजी को हकीम जी की क्या जरूरत पड़ रही है जी, ये बस ऐसे ही हैं। लोगों को बहकाने का हमारा धन्धा है ये तो। इसीलिए हम जप करते रहते हैं तो बाप नहीं मरेगा? बाप तो मरेगा; क्योंकि ये मरीज हैं। कब तक रह सकते हैं? महामृत्युञ्जय मंत्र से आप कहते हैं, अवश्य अच्छा कर देंगे, तो फिर आप बाप को अच्छा क्यों नहीं कर पाते? नहीं साहब! हमारा तो बाप अच्छा नहीं हो सकता। हम तो हकीमजी से इलाज करायेंगे। फिर आपका मृत्युञ्जय मंत्र? हकीमजी कहते हैं पंडित जी से मृत्युञ्जय मंत्र करायेंगे और पंडित जी कहते हैं हकीम जी से इलाज करायेंगे। ये क्या मतलब? या तो पंडित जी की बात सही है या हकीम जी की बात सही है। नहीं साहब? दोनों की बात सही है। दोनों अँधेरे में हैं। फिर क्या करना चाहिए? मैं आपसे ये कह रहा हूँ, मैं आपकी श्रद्धा कमजोर नहीं करना चाहता हूँ। कर्मकाण्डों के प्रति उपेक्षा, अवज्ञा नहीं पैदा करना चाहता हूँ; पर मैं यह कहता हूँ कि कर्मकाण्डों के पीछे, प्रतीकों के पीछे, जिसको आपने बहुत कुछ पकड़कर रखा है; जिसके लिए आपने बहुत कुछ मेहनत की है; जिसके लिए आपका बहुत सारा समय लिया है इन प्रतीकों के लिए, इन कर्मकाण्डों के लिए इसके साथ-साथ में एक चीज और शामिल कर दीजिए उसका नाम है—श्रद्धा। श्रद्धा शामिल कर दें, फिर आप देखिये किस तरह से कमाल होता है? श्रद्धा को शामिल करने के बाद में अगर आपके कर्मकाण्डों में गलती रह जाती है, तो फिर कोई हर्ज की बात नहीं। कर्मकाण्ड करने में गलती हो जाए तो मैं आपसे वादा करता हूँ कि आपको कोई परेशानी नहीं होगी।
कर्मकाण्डों में गलतियाँ किससे नहीं होतीं? कर्मकाण्डों में गलतियाँ तांत्रिक से होती हैं, क्योंकि उसका सारा-का आधार जड़ है। उसका आधार चेतना नहीं है। उसका आधार, तन्त्र का आधार क्या है? मनुष्य के शरीर की इलेक्ट्रिसिटी को पैदा करना, इलेक्ट्रिसिटी का इस्तेमाल करना, इलेक्ट्रिसिटी से हमला करना। ये विधि साइन्स है। इसमें गलती करेंगे तो हम शॉट (झटका) पाएँगे। गलती करेंगे, तो नुकसान उठाएँगे और यदि पानी पीने में गलती करें? नहीं बेटे! पानी पीने में गलती कोई नुकसान नहीं है। गिलास से पी लें? गिलास से पी लो। कटोरी से पी लें? कटोरी से पी लो। हाथ से पी लें? हाथ से पी लो। सोके पी लें? सोकर पी लो। लेटकर पानी पी लें? हाँ, बीमार हो, तो लेटकर पानी पी लो। खड़े हुए पानी पी लें? हाँ, खड़े हुए पानी पी लो। नहीं, महाराज जी। मैं तो पालती मारकर बैठूँगा और पानी पीऊँगा। कोई नुकसान नहीं। आध्यात्मिक चर्या के उपक्रमों में, कर्मकाण्डों से कोई फर्क नहीं पड़ता। तांत्रिक में वो इलेक्ट्रिसिटी है, शरीर की पावर है, कुण्डलिनी है। कुण्डलिनी क्या है? कुण्डलिनी हमारे नर्वस सिस्टम की इलेक्ट्रिसिटी है। इसको इस्तेमाल करते हैं और जरूरत के वक्त इससे फायदा भी उठाते हैं। जरूरत के वक्त यदि किसी पर हमला करना चाहें, तो हमला भी कर देते हैं। ये जो होते हैं रिंगमास्टर सर्कस वाले, उनके हाथ में चाबुक रहता है। चाबुक में इलेक्ट्रिक रहती है। क्या करते हैं? जब कोई शेर या हाथी तंग करता है, तो एक हंटर घुमाते हैं, तो क्या होता है? सन्नाटा खिंच जाता है इलेक्ट्रिसिटी के कारण। हंटर तो, हंटर तो बेटे वही हैं जो बाजार में बिकते हैं। उसमें चाबुक क्यों मारता है? उसमें इलेक्ट्रिसिटी होती है। फिर शरीर की इलेक्ट्रिसिटी का विज्ञान क्या है? ये शरीर की इलेक्ट्रिसिटी भौतिक, पदार्थपरक शक्ति है, अतः केवल पदार्थपरक कामों में ही काम आती है और किसी काम नहीं आती है। इससे रूहानी कामों में उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। इससे केवल भौतिक उद्देश्य पूरे हो सकते हैं।
ये तो शारीरिक है, इसलिए हमको अमुक करना पड़ता है, ये खाना पड़ता है और वहाँ जाना पड़ता है, अमुक व्यायाम करना पड़ता है, इसलिए कि शरीर की इलेक्ट्रिसिटी को डेवलप (विकसित) कर लेते हैं; तो काम आ जाती है। अध्यात्म में अगर आपसे कोई गलती होती हो, तो यकीन रखिए आपको कोई नुकसान नहीं होने वाला है, आप चाहे जैसे कर लीजिए। बाल्मीकि को राम-नाम लेना नहीं आया था। उन्होंने गलत तरीके से लिया था, ‘मरा-मरा’ का उच्चारण किया था और मरा-मरा का उच्चारण करने पर भी उनको सिद्धि मिल गई थी और चमत्कार मिल गया था। नहीं साहब! मन्त्र का गलत उच्चारण कर लें। कर लीजिए मंत्र का गलत उच्चारण। क्या हर्ज है? मैं अफ्रीका गया। वहाँ कितने ही नीग्रो को गायत्री मंत्र सिखाना पड़ा, कई दिन सिखाया। एक और सज्जन, जिनके यहाँ हम ठहरे हुए थे, उन्होंने भी सिखाया। उन्होंने क्या सिखाया कि प्रोननसिएशन (उच्चारण) में गायत्री मंत्र का जो पहला भाग है ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ ‘तत्’ बस यहीं गाड़ी रुक गई उनकी। जो रोमन लिपि में लिखते हैं, उसमें ‘त’ नहीं है, फिर क्या है? ‘ट’ है। उसको ‘टट्-टट्’ कह रहे थे। ‘प्रचोदयात्’ का ‘त्’ हमने हर चन्द कोशिश कर ली; पर ‘त्’ आया ही नहीं। ‘सवितुर्वरेण्यं’ का उच्चारण कराया। किसी तरीके से नहीं आया। इसमें कई शब्द ऐसे हैं, जिसमें ‘त’ है जबकि रोमन और अरबी में ‘त्’ ही नहीं है। इसके अतिरिक्त अरबी और रोमन में ‘द’ नहीं है। क्या है बेटे! ‘ट’-‘ट’ है। ‘प्रचोदयात्’ ‘द’ का उच्चारण कराइए किसी से? जो आदमी रोमन जानते हैं, उनसे आप कहिए बोलिए—‘त’। ‘त्’ नहीं बोलेंगे ‘ट’ ही बोलेंगे। सारे-के प्रोननसिएशन गलत। तो क्यों साहब! वहाँ तो गायत्री काम नहीं कर सकती? गायत्री कमाल करती हैं और वहाँ भी उतना ही काम करती हैं, जितना यहाँ और जो प्रोननसिएशन गलत था, सो। हाँ, गलत था। प्रतीकों में कोई कमाल है क्या? बेटे! प्रतीकों में कमाल नहीं है। उनकी श्रद्धा में कमाल है।
एक स्वामी जी थे, वहाँ पर गंगाजी में पानी बहुत बहता है। लोग कहते गंगाजी में से पार निकाल दीजिए, नाव नहीं है तो हमने स्वामीजी से कहा। उन्होंने कहा—हम एक मंत्र बताते हैं कान में आपके। कान में मंत्र बताएँगे, उसको कहते हुए चले जाना। उससे आप पार निकल जाएँगे। डूब गए तो आप हमको डुबो देना। घर वालों से कह जाइए, डूब गए, तो हमको डुबो दें। आपको पार निकाल देंगे। कान में दिया हुआ मंत्र जपते रहते और पार निकल जाते। कहना मत किसी से। किसी से नहीं कहेंगे साहब! बस, पार निकल जाते हैं। एक आदमी था, उसने सोचा देखना चाहिए, इंक्वारी (निरीक्षण) करना चाहिए, वो कौन-सा मंत्र है? इसकी विधि और कर्मकाण्ड में क्या फर्क है? क्या कमाल है? उन्होंने विधि और कर्मकाण्ड के बारे में पूछा—स्वामीजी क्या मंत्र है? कान में कह दिया उन्होंने—राम नाम है। लोगों ने कहा—आप कान में क्यों कहते हैं? उन्होंने कहा—कान में इसलिए कहते हैं कि सबको मालूम पड़ेगा, तो विश्वास कम हो जाएगा। अरे! ये तो राम नाम बताता है। आप गुरु का मंत्र कहेंगे तो आप विश्वास बढ़ा देंगे, इसलिए कान में कहते हैं? राम नाम कहते हैं। राम नाम से पार निकल जाते हैं। एक मौलवी साहब थे। कहीं और रहते थे। मुसलमानों ने कहा—देखिये हिन्दुओं के मंत्रों में बड़ा कमाल है। क्या कमाल है? राम-नाम का मंत्र बताते हैं और पार निकल जाते हैं और हमारे इस्लाम धर्म में तो कोई मंत्र नहीं है। वाह! इस्लाम धर्म में कैसे नहीं है! हमारे पास भी वैसे ही जबरदस्त मंत्र हैं। आप बताइए फिर हमको। वह, पंडित ये दावा करता है कि हम डूब जाएँगे, तो हमको डुबो देना, फाँसी पर चढ़ा देना। आप ये दावा कर सकते हैं? हम भी दावा करेंगे। आप जाइए गंगाजी में से पार निकल जाइये और ये मंत्र बोलते जाइए। आप भी पार हो जाएँगे और डूब जाएँ तो हमको डुबो देना। उन्होंने कहा—हाथ-पाँव बाँध दीजिए हमारे, अगर ये लड़का डूब जाए, तो बहती गंगा में हमको डुबो देना। उसको मौलवी ने मंत्र बता दिया। उनका भी कमाल है! इनका भी कमाल है! दोनों का कमाल है! काहे का? मंत्रों का। उन्होंने कहा—क्या करना चाहिए? मंत्रों का फायदा उठाना चाहिए। वो एक दिन स्वामीजी के पास गया, उनका राम-नाम का मंत्र लेकर आया, पार चला गया। दूसरे दिन मौलवी साहब के पास आया। मौलवी साहब आप ही बताइये। मौलवी साहब ने मंत्र बता दिया और हो गया पार।
दोनों मंत्रों ने कमाल कर दिया! वह कहने लगा देखो भाई! क्या बात है? ये मंत्र तो ऐसे ही काम करते हैं, चाहे जिसका मंत्र हो। उसने फिर ये कहा—अच्छा तो उसका पार होने में आधा घण्टा लगा था। राम-राम कहने से और खुदा-खुदा कहने से आधा घण्टा लगा था। राम और खुदा को मिलाकर कहने से बनाते हैं मिक्सचर (मिश्रण) तो पन्द्रह मिनट में पार हो सकते हैं। राम + खुदा दोनों मिल गए और दोनों का इस्तेमाल करेंगे। डबल इस्तेमाल होगा न। एक साइकिल एक घण्टे में पाँच मील चलती है और एक साइकिल एक घण्टे में दस मील चलती है। हो गई न डबल स्पीड। डबल स्पीड होने से वह आधा घण्टे में पहुँच जाएगी और वह एक घण्टे में पहुँचायेगी।
उसने हिसाब लगा लिया। ज्योमेट्री (रेखागणित) का और अंकगणित का। बस, वह क्या करने लगा? वह गंगाजी में चला, उसने राम नाम की जगह राम-खुदा, राम-खुदा कहने लगा। राम-खुदा कहते वह थोड़ा आगे चला और डूब गया उसमें बेचारा! किसी और की कहता हूँ? आपकी कहता हूँ। आपकी, राम-खुदा वालों की। राम-खुदा वालों की तरह ये गायत्री का मंत्र है, ये महादेव जी का मंत्र है, ९९ की संख्या रखी है चौकी पर। महादेव बाबा, साँई बाबा, संतोषी माता, लक्ष्मी माता। सब दुनिया भर के कबाड़े इकट्ठे कर रखे हैं। बेशर्म? वेश्या! बेशर्म! एक से काम ही नहीं चलता। ९९ खसम चाहिए इनको। कुछ इनसे काम चलाएगा, कुछ साँई बाबा दे देगा, कुछ आचार्य जी दे देंगे। कुछ महादेव जी दे देंगे, कुछ संतोषी माता दे देंगी, कुछ लक्ष्मी माता पैसे दे जाएँगी, कुछ गणेश जी से मिल जाएँगे। ९९ चाहिए इनको खसम। ९९ में से कोई अँगूठी दे जाएगा, कोई मिठाई दे जाएगा, कोई रूमाल दे जाएगा। कोई शंख दे जाएगा। चुप रंडी! मैं क्या कह रहा था? मैं यह कह रहा था आपसे इसमें कर्मकाण्डों का बराबर का समन्वय रखा है। आप ये ख्याल रखेंगे, जब हम विदा होंगे, तो गुरुजी हमें, कर्मकाण्ड बतायेंगे। तो आप भूल कर रहे हैं। मैं कोई कर्मकाण्ड नहीं बताने वाला आपको। गुरुजी! विदाई का समय आ गया, कोई अच्छी विधि सिखा दीजिए? क्या विधि सिखा दें? आचार्य जी! ऐसी कोई विधि आप सिखा दीजिए। इस विधि की कोई वजह? आपने जो फायदा उठाया, व दूसरों से जो फायदा उठाया, वह विधि सिखा दीजिए। विधि, विधि पूछता है? पागल! विधि नहीं है। फिर क्या चीज है, जिससे कमाल होते हैं और चमत्कार दिखाई पड़ते हैं। उसका नाम है—विधा। विधि नहीं, विधा है, जो कमाल दिखाती है। विधा मायने कायदा, कानून, नियम, बढ़िया वाली फिलॉसफी। ये विधा है। इसको हम समझा देंगे। आपकी समझ में नहीं आया? आपकी समझ में नहीं आता फिर उससे आगे बात मत पूछिये। अक्षरों के उच्चारण सिखाइए, फायदा कराइए, बेटे! अक्षरों के उच्चारण से कोई फायदा नहीं हो सकता। ये मंत्र बताइये? क्या मंत्र बताएँ? बता तो दिया आपको गायत्री मंत्र। फिर भी नहीं भरा पेट। नहीं साहब! फिर कुछ और कमाल बताइये? इसके बीजमन्त्र बताइये, इसके नौ ओंकार लगाइये। लगाइये, हम कब मना करते हैं? एक पीछे ओंकार लगाइये, एक बीच में ओंकार लगाइये। नहीं साहब! कुछ और ऐसा बताइये, जिसमें कमाल हो जाए। कमाल इसमें नहीं आता, चाहे तू इसमें ९९ मंत्र लगा ले, चाहे कुछ भी लगा ले। इसमें कमाल नहीं आ सकता। कमाल कहाँ से आएगा? आपको समझना चाहिए। कमाल कहाँ से आते हैं? कमालों की जड़ कहाँ है? कमालों की जड़ है—मनुष्य की निष्ठा, श्रद्धा और विश्वास। यहाँ से गाड़ी चलती है। इसके बिना आध्यात्मिकता की राह पर प्रगति होना मुश्किल है। फिर क्या करना चाहिए? बेटे! मैं यही कह रहा था आपसे। आप बताइये उपासना। अब मैं आपको उपासना बताता हूँ। उपासना आप उस तरह से करना, जैसे मैं कहना चाहता हूँ। प्रतीकों को क्या मानें? प्रतीकों को माने आप भगवान् की मूर्ति। आप यहाँ से समझें। प्रतीक का देव-पूजन। पूजन हमारे कर्मकाण्डों में और गायत्री उपासना में आवश्यक है। यहाँ हमने प्रतीक रखा हुआ है। कौन-सा प्रतीक रखा हुआ है? गायत्री माता का प्रतीक रखा हुआ है। यज्ञ, हमने भगवान् का प्रतीक रखा हुआ है। ये प्रतीक हैं। प्रतीकों के नियम होते हैं। प्रतीकों को आप क्या मानेंगे? प्रतीकों के बारे में ये मान्यता लेकर जाना ये भगवान् के नुमाइन्दे हैं। ये भगवान् हैं। कौन-से? देवता! ये भगवान हैं। भगवान किसे कहते हैं? भगवान कहते हैं—सिद्धान्तों को, आदर्शों को। भगवान व्यक्तियों को नहीं कहते। सबसे बड़ी भूल यहाँ कर डाली है। भगवान कोई व्यक्ति नहीं है। भगवान सिद्धान्तों का नाम है और भगवान को हम उच्चस्तरीय सिद्धान्तों के प्रतीक और प्रतिमा मान लेते हैं। आपकी यहाँ से गाड़ी चले तो आगे बढ़े और आपने यही बनाकर रखा हुआ कि ये देवी का खिलौना, ये चामुण्डा का खिलौना, ये माता का खिलौना, ये फलाने का खिलौना है। इन खिलौनों में कमाल देखा है, तो आपने प्रारम्भिक भूल कर दी। प्रारम्भिक उन्नति नहीं हुई। ये मानिये कि ये शक्ति जगाने वाली, सामर्थ्य जगाने वाली, ये भगवान से आने वाली है। भगवान से सामर्थ्य को पाने के लिए ये मीडियम हैं, ये माध्यम हैं। ये कौन बोल रहा है? ये माइक बोल रहा है। माइक नहीं बोल रहा, हम बोल रहे हैं। हमारा हलक नहीं बोल रहा, हमारे विचार बोल रहे हैं, हमारी वाणी बोल रही है। कौन बोल रहा है? माइक बोल रहा है? नहीं, भाईसाहब! माइक नहीं बोल सकता। कौन बोलता है? हम बोलते हैं, आप बोलते हैं, हमारी अक्ल बोलती है, हमारी भावना बोलती है, हमारी विचारणाएँ बोलती हैं। ये वो बोलती है, जो आप माइक से कान से सुन रहे हैं। ये माइक बोल रहा है, गलत कहते हैं आप। इसलिए क्या करना चाहिए आपको?
अपनी उपासना का उपक्रम यहाँ से जाते-जाते आप सीखते जाइए। क्या सीखकर जाएँ कि मूर्ति के बिना गाड़ी नहीं चलती। मूर्ति आवश्यक है; मूर्ति बहुत जरूरी है। मूर्ति के बिना ,, प्रतीकों के बिना उपासना नहीं हो सकती। हो ही नहीं सकती। नहीं साहब! बहुत-से मजहब वाले कहते हैं, नाम बताइये हमको। साहब! वो कहते हैं मुसलमान। मुसलमान बिना मूर्ति के करते हैं उपासना। जब काबा में जाते हैं, हज पर जाते हैं, वहाँ एक पत्थर रखा हुआ है, जिसका नाम है ‘संगेअसवद’ मोहम्मद साहब के काम आता था और उस ‘संगेअसवद’ का हर मुसलमान को चुम्बन लेना पड़ता है, बोसा लेना पड़ता है। इसके बिना हो ही नहीं सकता। ये पत्थर क्या हैं? अरे पत्थर है? नहीं साहब! ये वो है संगेअसवद। संगेअसवद क्या होता है? पत्थर है। साहब तराशा हुआ पत्थर है। नहीं साहब! ये तो पत्थर को बोसा लेना पड़ता है। हम शालिग्राम को बोसा ले लें या पानी चढ़ा दें, तो क्या आफत आ गई? प्रतीकों के बिना कुछ नहीं चल सकता। नहीं साहब! ये जो होते हैं कम्युनिस्ट, ये तो मूर्ति नही मानते। उन्होंने एक लेनिन की मूर्ति ज्यों-की बना रखी है। लेनिन जब मरे, तो उनके शरीर में से मलबा निकाल दिया और मलबा निकाल देने के बाद में ऐसे केमिकल उनमें भर दिया है कि लेनिन ज्यों-के जिन्दा खड़े प्रतीत होते हैं। वही कोट, वही कपड़े, उनको बदल देते हैं, थोड़े दिन के पीछे। पुरानापन वैसे ही बना लेते हैं। लेनिन जो कोट पहनते थे, उसी टाइप का कोट हूबहू मिल जाए। लेनिन ज्यों-के खड़े हुए दीखते हैं। कोई शरीर समेत यों ही खड़े रह सकता है? नहीं साहब! पत्थर के थोड़े ही हैं। अरे! पत्थर के नहीं बाबा! वही चमड़ा है, वही आँखें, वही इनके दाँत हैं, और वही नाखून हैं, ज्यों के त्यों केमिकल्स जब खराब होने लगते हैं, घटने लगते हैं, तो और चीजों से इसकी मरम्मत कर देते हैं। ज्यों-का -त्यों बना करके रखा है; लेनिन वहाँ खड़े हैं। उनको क्या करते हैं? दुनिया के सारे-के कम्युनिस्ट आते हैं, जो भी उनका तरीका है, पूजा का क्या तरीका होता है? अभिवादन भी हो सकता है, माला चढ़ाना भी हो सकता है, जो भी हो सकता है—मैं नहीं जानता; पर हर आदमी उनके सामने मस्तक झुकाता है, हर आदमी अभिवादन करता है।
ये भला मूर्तिपूजा नहीं हुई? तो क्या हुई? नहीं साहब! ये तो वो हैं। ये लोग नहीं हो सकते। ये समाजवादी हैं, ये फलानेवादी हैं, ढिमाकेवादी हैं। इनके यहाँ मूर्तिपूजा नहीं होती है। सरकार तो धर्म निरपेक्ष है, मूर्तिपूजा नहीं होती है। सरकार तो धर्म निरपेक्ष है, मूर्ति-पूजा नहीं हो सकती। मूर्ति नहीं है। नहीं साहब! तो ये तिरंगा झण्डा क्या है? मूर्ति किस चीज की बनाई है? एक कपड़े की बना ली हमने। हमने प्लास्टिक की बना ली या कागज की बना ली हमने। हमने काय की बना ली, तो इससे क्या अन्तर पड़ता है। नहीं साहब! हम तो झण्डे का अपमान करेंगे, झण्डे को फेंक देंगे और झण्डे को फाड़ेंगे और झण्डे को इधर कर देंगे, झण्डे को उधर कर देंगे। करके दिखाइये न आप जरा? झण्डा तो हमारा है, हम चाहे जो करेंगे? आपका है, तो करके दिखाइये? पुलिस आ जाएगी और आपकी रिपोर्ट कर देंगे। ये हमारा झण्डा है, राष्ट्रीय झण्डा है। अपने घर पर लगा रखा है और अपमान करते हैं? तिरस्कार करते हैं? पुलिस पकड़कर ले जाएगी, जेल में डाल देगी। नहीं साहब! हम जलाएँगे जलाकर दिखाइये जरा! हम तो कम्युनिस्टों का झंडा जला देंगे। किसी कम्युनिस्ट के सामने न कह देना, जान ले लेगा। नहीं साहब! ये कम्युनिस्ट तो मूर्तिपूजा नहीं मानते। कौन कहता है नहीं मानते मूर्तिपूजा! मूर्तिपूजा प्रतीक हैं। किसके प्रतीक हैं? हमारी भावना के प्रतीक हैं। भगवान के प्रतीक हैं। अगर मूर्ति को आपने समर्थ समझ लिया, मूर्ति को ही सब कुछ मान लिया, तो आप गलती कर रहे हैं। मूर्ति प्रतीक है। किसी की भी हो चाहे वो छोटी हो, चाहे बड़ी हो; अमुक स्थान पर हों, चाहे किसी अन्य स्थान पर हों। प्रायः लोग कहा करते हैं कि श्रीकृष्ण भगवान वृन्दावन में कमाल दिखाते हैं और मथुरा में नहीं दिखाते हैं। मथुरा की मूर्ति में, रंग जी की मूर्ति में भगवान बड़े जबरदस्त और फलाने मंदिर में कमजोर हैं। बेटे! ऐसा मत कह। श्रीकृष्ण भगवान कहीं भी हो सकते हैं। जहाँ कहीं भी होंगे, वहाँ बराबर उनकी सामर्थ्य होगी। नहीं साहब! वहाँ वाले में चमत्कार है। कहाँ वाले में चमत्कार है साहब! बद्रीनाथ के कृष्ण भगवान बहुत जोरदार हैं। महाकालेश्वर के महादेव बड़े जबरदस्त हैं। चुप रह! पागल कहीं के! महादेव की शक्ति इसको हम कहीं भी बुला सकते हैं। बच्चे के मन में भी बुला सकते हैं और अपने घर में जो हमारा पत्थर रखा है, उसमें भी बुला सकते हैं। उतना ही कमाल हो सकता है हमारे दीपक में। क्यों साहब! आपके दीपक में कमाल है? हाँ बेटे! है।
अलादीन का चिराग आपने सुना होगा? अलादीन के चिराग में बड़ा कमाल था। क्यों साहब! ये बात सही हो सकती है? हाँ, मेरे ख्याल से तो सही होगी। अलादीन का चिराग आपके पास भी है? मेरे पास भी है। अलादीन का चिराग हमारे घर में, जिसको हमने पचपन साल से प्राणों की बाती की तरह रखा है। क्यों साहब! हम भी दीपक जला लेंगे। तब? आप जला लीजिए। कौन मना करता है? हम भी दीपक जलाएँगे आपके तरीके से तो करामात आ जाएगी? करामात आ जाएगी? काहे का जलाते हैं? हम तो घी का जलाते हैं। जला लीजिए। तेल का जलाते हैं, तो आप जला लीजिए। कौन मना करता है? फिर तो आप कोई ऐसी बात बता दीजिए, घी का भाव तो बहुत महँगा है, घी का मूल्य बहुत महँगा है। हाँ बेटा! घी का भाव बहुत महँगा है। कोई बात नहीं, तेल का जला लीजिए। पंडित जी! तेल भी बहुत महँगा हो गया है तो किसका जलाएगा? मुझे ऐसी तरकीब बता दीजिए, जिससे पचास पैसे में मेरा अखण्ड दीपक जलता रहे। बताइये किसी बिजली कम्पनी ने ऐसा दीपक बनाया है जिसकी लौ हर वक्त जलती है, लप-लप जलती रहती है, उसको आप जला दीजिए और दूर रख दीजिए। कोई नहीं पकड़ सकता और न पहचान सकता है कि बिजली का है कि तेल का है। आप उसमें लगा दिया कीजिए। फिर अखण्ड दीपक में रात को जगना पड़ता है, रात को बत्ती जलानी पड़ती है। उसमें तो कुछ भी नहीं करना पड़ता। तू बस करेण्ट उसमें लगा दिया कर। रेफ्रिजरेटर में करेण्ट चालू कर देते हैं और रेफ्रिजरेटर बराबर ठण्डक करता रहता है। तू इसमें करेण्ट चालू कर दे, दीपक अखण्ड रूप से बराबर जलता रहेगा। फिर क्या हो जाएगा? महात्मा हो जाएगा, सत्पुरुष हो जाएगा, ज्ञानी हो जाएगा, तपस्वी हो जाएगा। अरे! तो तुम्हारी बत्ती जल तो रही है। किस चीज की बत्ती है? तेल की जला दी तो क्या! मिट्टी के तेल की जला दी तो क्या! और घी की जला दी तो क्या! और मोमबत्ती जला दी तो क्या! बिजली की जला दी तो क्या! रोशनी तो जल रही है। क्या करेगा? आग तो जल रही है। आग जल रही है। कमाल दिखाया आग ने। क्या कमाल हो सकता है? आग में कमाल है जरूर। आग में क्या कमाल है? रेलगाड़ी में, इंजन में जलता है कि नहीं जलता। हाँ साहबा! जलता रहता है। लोहा गलाने की भट्टियों में जलती रहती है कि नहीं? उनमें तो और भी ज्यादा कमाल होगा। रेल के इन्जन में तो और भी ज्यादा कमाल होगा। आग में शक्ति नहीं होती। किसमें होती है? शक्ति उसमें होती है, जिसको हम कहते हैं—श्रद्धा। हमने श्रद्धा का आरोपण किया है। किसके ऊपर? अखण्ड दीपक के ऊपर। जब हम उसके नीचे बैठते हैं, तो हमें रोशनी दिखाई पड़ती है, जो औरों को दिखाई नहीं पड़ती। फिर उन्हें क्या दिखाई पड़ता है? अपनापन दिखाई पड़ता है, आपकापन दिखाई पड़ता है, दुनिया दिखाई पड़ती है और उस रात-दिन के चिराग के नीचे न जाने हम क्या-क्या देखते हैं और क्या-क्या बनाते-बुनते रहते हैं। जाने क्या-क्या ख्वाब आते रहते हैं! हमको दीपक का रहस्य बता दीजिए? हम भी दीपक जलाना चाहते हैं। अरे बेटे! हम आपको कैसे बताएँगे? दीपक को पचासों आदमी जलाते रहते हैं, उसके मुखाग्नि से मालूम कीजिए, क्या है दीपक? दीपक में तो कुछ भी नहीं। फिर कहाँ से आता है प्रकाश? बेटे! वहाँ से आता है, जहाँ पर हम श्रद्धा का समन्वय करते हैं। मैं आपको यही सिखा रहा था। आप ऐसे करना। क्या काम करें? आप उपासना के कर्मकाण्डों को उसके साथ जोड़ दें। किसके साथ? प्राण के साथ।
प्राण क्या होता है? चिन्तन। चिन्तन क्या होता है? श्रद्धा। श्रद्धा क्या होती है? भावना। इन तीनों को आप जोड़कर चलें, तो छोटे-से कर्मकाण्ड भी आपके लिए कमाल दे सकता है और ये आपको प्रेरणा दे सकता है। जैसे आप छोटी-सी उपासना करें। क्या उपासना करें? छोटी-सी करें। गायत्री माता की छवि मूर्ति के रूप में चौकी पर रख लें। फिर आप क्या करेंगे चौकी पर? गायत्री मन्त्र का उच्चारण धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन। हो गया न आपका पूजन। हाँ साहब! हो गया। चावल चढ़ा देते हैं, धूप-बत्ती चढ़ा देते हैं, नैवेद्य चढ़ाने में कोई विचार तो नहीं। नहीं, कोई विचार नहीं। हम चावल चढ़ा देते हैं—अक्षतान् समर्पयामि, नैवेद्यं समर्पयामि। कोई विचार तो नहीं आता? नहीं साहब, विचार तो नहीं आता। हमने ये समझाया कि आपने पदार्थ के द्वारा पूजन कर लिया और हाथ-पाँव की चेष्टाओं के द्वारा पूजा कर ली। ये कौन-सी पूजा है? ये जड़ पूजा है। जड़ कैसे? जड़ वो है, जिसमें चावल है, फूल है, अक्षत है, नैवेद्य है। ये सब क्या चीज है? ये सब पदार्थ हैं—मैटर हैं, सब जड़ हैं और क्या कर रहा था? काहे से पूजा कर रहा था। गायत्री माता के सामने? हाथ से कर रहा था। काहे के हाथ, देखें। ये तो मिट्टी के हाथ हैं और माँस के हैं। माँस के नहीं, मिट्टी के। माँस-मिट्टी एक ही बात है। माँस से जप कर रहा था और क्या कर रहा था? शीश नवा रहा था। सिर और हाथ क्या है? मिट्टी के हैं और क्या कर रहा था? मुँह में पानी डाल रहा था और आरती उतार रहा था और ये दिखाना जरा! आरती काहे की है? पीतल की है? हाँ महाराज जी! पीतल की है। इसमें क्या रखा है? इसमें रखा है घी और कपूर। इसको काहे से जलाते हैं—दियासलाई से। ये भी मिट्टी है तो आप मिट्टी से कर रहे थे? हाँ बेटे! मिट्टी से आप लोग कर रहे थे ये कर्मकाण्ड। ये सारे कर्मकाण्ड जो आपकी क्रिया है। क्रिया क्या होती है? हलचल। जो भी पदार्थ हैं—जड़ हैं। जड़ में एक चीज पाई जाती है, वो है हलचल। एटम में हलचल पाई जाती है, हवा में हलचल पाई जाती है, पत्ते हिलते पाये जाते हैं। हर चीज में? जल जो जड़ है, उसमें भी हलचल पाई जाती है। समुद्र में ज्वार-भाटे पाये पाये जाते हैं। हलचल तो प्राण में भी पाई जाती है। हलचल अगर आप करते हैं, तो चावल को इधर-उधर कर देते हैं, नैवेद्य को इधर कर देते हैं, अक्षत को उधर कर देते हैं। हाथ से नमस्कार कर देते हैं। जीभ की नोंक से तरह-तरह के उच्चारण कर लेते हैं। ये क्या हो गया? ये बेटे! उपासना का तन्त्र हो गया। ये अधूरा है, ये जड़ है। ये केवल पदार्थजन्य है। ये काफी नहीं है। इसके द्वारा लाभ नहीं मिल सकता। इसके साथ-साथ में दो और चीजें शामिल करनी पड़ेंगी, वह है आपके तीन शरीर। तीनों शरीरों को आप शामिल कर दें।
जो भी उपासना चाहें वो छोटी हो या बड़ी हो, आपको चमत्कार दिखा देगी, आपको लाभ दिखायेगी और आपको अवसर दिखायेगी। आपको प्रत्यक्ष उसका परिचय तुरन्त मिलने लगेगा। कैसे मिलता है? ये मशीनें काम कर रही हैं। क्या पहचाना? देखिये, इसमें ये लाल बत्ती लप-लप कर रही है। ये कहती है लाल रंग की बत्ती कि हमारे भीतर करेंट चल रहा है। ये बता दीजिए कौन-सी बत्ती लाल रंग की है? आपको तुरन्त मालूम पड़ेगा। आपके भविष्य में कोई सम्भावना है कि नहीं, सिद्धियाँ मिलनी हैं कि नहीं, चमत्कार मिलने वाले हैं कि नहीं, और आपका भविष्य उज्ज्वल होने वाला है कि नहीं। ये देवता आपसे प्रसन्न हैं कि नहीं, करामात होगी कि नहीं। सब मालूम पड़ जाएगा। ये बल्ब तुरन्त बतायेगा। साहब! ये तो कैसा है? ये बत्ती आपको बताती है जब भी आप टेप को दुबारा सुनेंगे, तो गुरुजी का भाषण ठीक आ जाएगा और लड़कियों का संगीत ठीक आ जाएगा। ये कह रहा था टेप रिकार्डर। हाँ भाईसाहब! कह रहा था। इसके जुबान नहीं है। जुबान नहीं; पर ये सब कर रहा है कि हम ठीक काम कर रहे हैं। आपको भविष्य की सम्भावना है? आपकी कोई भी उपासना, चाहे गायत्री मन्त्र हो, चाहे कोई भी हो, मैं तो एक जनरल बात कहता हूँ। गायत्री मन्त्र की भी नहीं कहता। आप सभी तो गायत्री की उपासक हैं, इसलिए अभी तो मुझे गायत्री उपासना की बात कहनी चाहिए। कहीं और जाने लगें, तो गायत्री उपासना की बात नहीं कहूँगा।
मुसलमान देश में जाना पड़े। सम्भव है मेरा ट्रांसफर मुसलमान देश में होने वाला हो। फिर आप इसाइयों में भी जा सकते हैं? हाँ बेटे। मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि मेरा ट्रांसफर और मेरी तरक्की कहीं ईसाई देशों में न हो जाए। हिन्दू तो ३२ करोड़ हैं और मुसलमान ८० करोड़ हैं। साहब! हिन्दू कितने रह गये ३० करोड़ हिन्दुस्तान में हैं और २ करोड़ बाहर हैं। इसमें नेपाल भी शामिल है, भूटान भी शामिल है। बाहरी दुनिया में भी फैले हुए हैं थोड़े-थोड़े। कुल ३० और २ यानि ३२ करोड़ हिन्दू। मुसलमान ८० करोड़ और इसाई १२० करोड़ हैं इसके अतिरिक्त चीनी एवं कितनी ही अन्य जातियाँ हैं? इस तरह से दुनिया में कुल ४०० करोड़ की आबादी है। इस प्रकार सारा-का ब्यौरा मैंने आपको बताया तो इनमें आपका ट्रान्सफर हो सकता है? हाँ हो सकता है। तो आप क्या करेंगे? गायत्री माता को ले जाएँगे? नहीं बेटे! मुश्किल है। गायत्री माता को साथ में कहीं ले जाना बहुत कठिन पड़ जाएगा और उनमें मुसलमानों में? मुसलमानों में गायत्री माता आप ले जाएँगे क्या? बेटे! ये भी बड़ा कठिन पड़ेगा। बड़ा मुश्किल है। आज से सौ वर्ष बाद शायद बात बन जाए, पर आज तो उन्हीं के सिक्के से काम चलाना पड़ेगा। उनकी चीज से चमत्कार दिखा देंगे। मगर कैसे दिखायेंगे? ये प्रतीकों के पीछे पागल हो गए हैं। प्राण भरना पड़ेगा। श्रद्धा भरनी पड़ेगी। आप तो प्रतीकों के पीछे पागल हो गए हैं और आप तो कर्मकाण्ड को न जाने क्या समझ बैठे हैं? और श्रद्धा जो प्राण थी, उसको आपने ध्यान भी नहीं दिया; उसको आप समझना भी नहीं चाहते; उसको आप सुनना भी नहीं चाहते; उसको आपने छुआ भी नहीं है; उसको आपने देखा भी नहीं है; उसको आपने सँजोया भी नहीं है; उसको अपनी उपासना के साथ मिलाया भी नहीं है। क्या आपके हाथ में चमत्कार इस तरीके से आएँगे?
बेटे! मैं ये कह रहा था आपसे, आप गायत्री माता की उपासना का छोटा-सा स्वरूप अपना लें, छोटी-सी उपासना किया करें। मैंने तो आपको कितना बता दिया है! अनुष्ठान बता दिए हैं। क्या-क्या बता दिए हैं। मैंने तो आपको बी०ए०, एम०ए० तक की पढ़ाई बता दी है; पर मान लीजिए बी०ए०, एम०ए० तक की न आती हो, पहले दर्जे की पढ़ाई पढ़ना चाहते हों। मान लीजिए आप पहले दर्जे के विद्यार्थी हों तो पहले दर्जे की पढ़ाई को आप ठीक तरह से पढ़ लें, तो काम चल सकता है। कैसे पढ़े? आप ऐसे कीजिए कि मन्त्र के साथ-साथ में आपने पढ़ा होगा— योगशास्त्र में लिखा है—क्या लिखा है? मन्त्र को अर्थ समेत जपना चाहिए। अर्थ समेत आप कहाँ जपते हैं? ये गलत बात है। गायत्री मन्त्र की जिस प्रकार से बोलने की स्पीड है, उस तरह से विचार की स्पीड नहीं हो सकती। ‘भूः’ का अर्थ ये है, ‘भुवः’ का अर्थ ये है, तत् का अर्थ ये है। इस प्रकार से अर्थचिन्तन के साथ जप का समन्वय सम्भव नहीं और देखें जुबान कितनी तेजी से चलती है। अर्थ का चिंतन कितने धीमे से होता है? जप के साथ चिंतन नहीं हो सकता। गलत कहा है—गलत या तो गलत लिखा है या आपने गलत समझा है। गलत क्या बात है? इसका अर्थ ये है—कोई आप कृत्य करते हैं। प्रत्येक कृत्य को पीछे पता चलाना पड़ेगा। क्या पता चलाना पड़ेगा कि इसके पीछे प्रेरणा क्या है? शिक्षा क्या है? स्थूल शरीर से आप प्रतीकों का पूजन करेंगे, चावल चढ़ाएँ, हाथ जोड़ें, नमस्कार करें, माला घुमाएँ, मन्त्र का उच्चारण करें। ये स्थूल शरीर की क्रियाएँ हैं। इतने से काम बनने वाला नहीं। फिर क्या करना चाहिए? आदमी को ये करना चाहिए कि प्रत्येक कर्मकाण्ड के पीछे की विचारणाएँ, प्रेरणाएँ समझें। विचारणाएँ क्या हैं? प्रत्येक कर्मकाण्ड हमको कुछ शिक्षा देता है, कुछ नसीहत देता है, कुछ उम्मीदें कराता है। आपने उपासना की है, कर्मकाण्ड किया है, तो इस कर्मकाण्ड के माध्यम से जो आपको अपने जीवन में हेर-फेर करने चाहिए, विचारों में परिवर्तन करने चाहिए, उस परिवर्तन के लिए आप विचारमग्र हों, और विचार करें कि आखिर ये क्यों किया जाए? आप तो कर्मकाण्ड करते रहते हैं और ये विचार तक नहीं करते कि क्यों करते रहते हैं? वेदान्त का, फिलॉसफी का पहला वाला सूत्र है, क्या सूत्र है? ब्रह्म-जिज्ञासा। पहला काम ये है कि आप जानिए। ये क्या चक्कर है? गायत्री माता की मूर्ति हो, तो आप ये पूछिए कि क्या बात है साहब! हमने तो मूर्ति रख दी और दण्ड पेल रहे हैं। दण्ड पेलिये मत। पहला काम ये है कि समझो।
क्यों और क्या? पहले यहाँ से चल। भजन पीछे करना। ये क्या चक्कर है? पहले ये पूछना, फिर इसके बाद शुरू करना। ये आपकी क्या है? जिज्ञासा है। प्रत्येक कर्मकाण्ड देखने से खिलवाड़ मालूम पड़ते हैं। चावल चढ़ा दिया गणेश जी पर। काहे के लिए चढ़ा दिया गणेश जी पर। काटे के लिए चढ़ा दिया गणेश जी पर। गणेश जी चावल खाएँगे और ऐसा चावल खाएँगे, कच्चा चावल खाएँगे गणेश जी। आप भी खाइए कच्चा चावल। गणेश जी मरेंगे कि जिएँगे कच्चा चावल खाने से? कच्चा चावल खाएँगे। कच्चा चावल नहीं खा सकते गणेश जी। गणेश जी को चावल खिलाना है, तो पकाकर लाइए। पका कर लाए हैं? हाँ साहब! और चावल कितना चावल लाए हैं? गणेश जी पर चढ़ा रहे थे—अक्षतान् समर्पयामि। दिखाइये चावल जरा। ये रहे छह दाने। छह दानों से क्या होगा? गणेश जी का पेट तो इतना बड़ा है? थैली भर चावल पकाकर लाइये। अगर आप यही मानते हैं कि चावल चढ़ाना है, तो मखौल मत कीजिए। मक्खनबाजी मत कीजिए। जो बात मुनासिब है, वो कीजिए। अगर हम आपके घर जाएँ और आप कहें—गुरु जी! लीजिए खाना खाइये। हाँ बेटे! हमने तो आज खाया भी नहीं है। ये लीजिए चावल खा लीजिए छह दाने। छह दाने चावल बेटे! कैसे खा लूँ? पकाए हैं ना? नहीं साहब! पकाने की क्या जरूरत है इसमें? थाली में रखकर ला। नहीं साहब! थाली में भी क्या करेंगे आप? क्या करेंगे? यहीं पटक देंगे, ये छह चावल के दाने। बेटे! इसको हम क्या करें? खा लीजिए। ये तो मुश्किल है, छह चावल तो हमारी दाढ़ी में चिपके रह जाएँगे। पेट कैसे भरेगा? और गणेश जी का? गणेश जी को ‘अक्षतं समर्पयामि’, गणेश जी को अक्षत चढ़ाता ही जा रहा है। समझता नहीं कि क्या चक्कर है? समझता है कि नहीं? नहीं साहब! मुझे क्यों समझना है। अक्षत चढ़ाऊँगा। भाड़ चढ़ाएगा अक्षत। मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको ये करना पड़ेगा कि क्रिया के साथ-साथ में शिक्षाएँ और प्रेरणाएँ आपको समझनी चाहिए और समझनी ही नहीं वरन् हृदयंगम भी करनी चाहिए।
पुराने जमाने में ऋषियों ने एक परम्परा बनाई थी। प्रत्येक कर्मकाण्ड को एक शिक्षण बना दिया था। शिक्षण, चीनी भाषा में आपको मालूम नहीं? चीनी भाषा में जो अक्षर है, खिलौने के रूप में हैं। जैसे चिड़िया है—‘च’, तो ‘च’ को चिड़िया के रूप में व्यक्त करेंगे। जैसे ‘क’ माने कबूतर हमारे यहाँ बनता है, तो ‘च’ माने चिड़िया अगर बनेगी, तो चीनी भाषा में चिड़िया की शक्ल बना देंगे, तो वो ‘च’ हो जाएगा। हमारे यहाँ कैसा है? हमारे यहाँ सिद्धान्तों को, जीवन की प्रेरणा को, जीवन की शिक्षाओं को, जीवन-निर्माण की दिशाधाराओं को इन कर्मकाण्डों के साथ-साथ में गूँथ दिया है। गूँथ दिया हैं, ताकि जब ये कर्मकाण्ड सामने आएँ, तो आदमी कुछ शिक्षा ग्रहण करे, प्रेरणा ग्रहण करे। किसके लिए? जीवन-निर्माण के लिए। ये जीवन-निर्माण क्या है? बेटे! समझता क्यों नहीं है तू? ये जीवन-निर्माण का खेल है सारा। देवताओं को पकड़ने की विद्या नहीं है, देवताओं को गिरफ्तार करने की विद्या नहीं है। देवता किसी की गिरफ्त में नहीं आ सकते और देवता किसी के साथ पक्षपात नहीं कर सकते और देवता किसी के ऊपर फूल नहीं बरसा सकते। देवता, आपके ऊपर जो फूल बरसाते हैं, वो है आपका अन्तर्मन। अन्तर्मन को प्रशिक्षित करना—यही देवता की पूजा है। आप संक्षेप में यही मानो। अपने आपको सही कर लेना—देवता की यही पूजा है। भगवान को प्रसन्न करने का दुनिया में एक ही तरीका है। अपना व्यक्तित्व ऊँचा बना लेना, परिष्कृत कर लेना। फूल के तरीके से आप खिलें, तो आपके ऊपर भौंरें आएँ, तितली आएँ, शहद की मक्खी आएँ। अपने व्यक्तित्व को खिलाएँ, अपने व्यक्तित्व को आप परिमार्जित कर लें, ताकि देवता आपके पास झक मारें; देवता जय बोलें; देवता आपके पैर धोएँ; देवता आपकी आरती उतारें; देवता आपकी जूठन खाएँ और देवता आपके साथ-साथ फिरें। नहीं साहब! ये कैसे हो सकता है? आप देवताओं की शान में ऐसी बात कह रहे हैं। देवताओं की शान में हम सही बात कह रहे हैं। देवताओं ने मनुष्यों की जूठन खाई। कब खाई है जूठन? शबरी की जूठन खाई ने देवता ने। क्यों साहब! क्यों खाने गया था जूठन? इसलिए जूठन खाने गया था कि वो दुनिया को साबित करना चाहता था कि भक्त बड़ा होता है और भगवान छोटा होता है। आप समझते क्यों नहीं है? अगर आप भक्त हैं, तो भगवान आपका जूठन खाने आएगा। आपको भगवान का जूठा खाने की जरूरत नहीं है, अगर आप भक्त हैं तो। भक्त ही बन जाने का सारा खेल है, आपको कैसे कहूँ? आपको कैसे समझाऊँ? आपने उसे क्या मान लिया, मुझे पता नहींं। ऋषि क्या कहना चाहते थे और न जाने आपकी अक्ल में क्या बवाल आ गया है। आपकी अक्ल में ये बवाल आ गया है कि देवता हैं बेवकूफ। सबसे बेवकूफ कौन होता है? देवता। बन्दर नहीं। बन्दर तो बहुत चालाक होता है। टोपी लेकर भाग जाता है। कौन होता है दुनिया में सबसे ज्यादा बेवकूफ? कौन होता है—देवता। अच्छा, देवता को पकड़ने का तरीका क्या है? देवता को पकड़ने का तरीका बहुत सरल है और सबका कठिन है। क्यों साहब! हम तुमको पकड़ना चाहें तब? क्या पकड़ना चाहते थे? जंगल में से हाथी पकड़ना चाहते थे, बेचेंगे तो हाथी पकड़कर लाइए न? हाथी पकड़ने में तो बड़ा भारी पसीना आता है, बहुत मुश्किल पड़ती है। बेटा! हाथी पकड़ना क्या समझते हो सरल है नहीं? मछली पकड़ने वाले भी सारे दिन बैठे रहते हैं। हाथी पकड़ने वाले भी सारे दिन बैठे रहते हैं। दो-चार मछलियाँ आती हैं और बाकी मछलियाँ भाग जाती हैं। मछलियाँ भी नहीं आतीं। और हाथी भी पकड़ में नहीं आते, मुर्गा? मुर्गा भी नहीं आता। हिरन? हिरन पकड़ लिया कर। बकरा बिकता है आजकल। एक-एक बकरा ८०-८० रुपये में बिकता है। माँस का भाव क्या हो गया है? तू क्या किया कर, जंगल में चला जाया कर और हिरन पकड़ लाया कर। इसका क्या करूँ गा? बकरा तो ८० रुपये में बिकता है, हिरन १०० रुपये में बिकेगा, १२५ रुपये में बिकेगा। इसके सींग भी होते हैं, चमड़ी भी होती है, माँस बहुत ज्यादा बिकता है, जायकेदार होता है। तू हिरन पकड़ लाया कर। कैसे पकड़ लाया करूँ? ऐसे ही चला जाया कर। सब पकड़ में आ जाएँगे हिरन। कैसे पकड़े जाएँगे? गुरुजी बताइये ऐसा कर। एक माला ले आना। माला लेकर के पेड़ के नीचे बैठ जा और चाहे तो घूमते रह। क्या करूँ फिर? माला बैठकर किया कर। ॐ हिरनाय नमः, ॐ हिरनाय नमः तो क्या हो जाएगा? सारे-के हिरन इकट्ठे होकर हाथ जोड़कर सामने खड़े हो जाएँगे। कहिए बाबूजी! क्या कहना है? आइए, आइए अब आपकी सवारी होनी है और आपको ऊपर सामान ढोना है और आपको गाड़ी में चलाया जाना है। ये कौन कहेंगे? हिरन? आपको हिरन पकड़ने हों, तो आप यही करना और क्या काम करें? जंगल में आप चले जाइए। जंगल में आप जाइए और जो भी जानवर पकड़ना हो, आप इसी तरह से पकड़िए। हाथी पकड़ने हों, शेर पकड़ने हों, जो भी जानवर हों, पकड़ लाइए इस तरीके से। माला ले जाइए, लोमड़ी पकड़ लाइए। कितनी महँगी है? बेटे! बहुत महँगी होगी लोमड़ी की खाल। लोमड़ी की खाल की माँग आती है। लोमड़ी पकड़ ले और लोमड़ी की खाल बेचता रह तू। मालामाल हो जाएगा। लखपति हो जाएगा। लोमड़ी को पकड़ने का तरीका बताइये? वही तरीका दुनिया में। आपने तो एक ही तरीका सीखा है न? कौन-सा बस वो एक तो ॐ लोमड़िआय नमः। लोमड़ी ले जाइए और घर पर बैठ जाइए। चंदन चढ़ाइए, अक्षत चढ़ाइए, रोली चढ़ाइए और लोमड़ी पकड़ लाइये। नहीं साहब! आपने कहा था और हम गए, तो लोमड़ी पकड़ में नहीं आई। नहीं आई? तो क्या पकड़ लाया। शहद की मक्खी पकड़ लाया। क्या पकड़ लाया? ‘ॐ नमः शहदाय् नमः’ शहद आ गया। नहीं महाराज जी! शहद नहीं आया और मक्खी काटने आई और हिरन मारने आए। नहीं, कुछ भी नहीं आया। तो बेटे! दुनिया में एक ही बेवकूफ रहता है, उसे पकड़ ला। इसके बराबर उल्लू, इसके बराबर अहमक और बेवकूफ और इसके बराबर बेहूदा, जाहिल, इसके बराबर जलील इस दुनिया में कोई नहीं। पकड़ ला तू। फिर इसका कचूमर बना और मलीदा बना। चल, बेवकूफ कहीं के! बात को समझता तक नहीं है। जाहिल कहीं के! बात को समझिए अन्यथा वृथा खेल बन्द कीजिए। खिलवाड़ करना बन्द कीजिए। करना है, तो ढंग से कीजिए। समय मत खराब कीजिए। देवता इतने कमजोर नहीं हैं कि माला से गिरफ्त में आ जाएँ। आप किसकी बाबत सिखा देते हैं और क्या सिखाते हैं? देवता हमारे लिए सत्प्रवृत्तियों का नाम है। जब ये विकसित होती हैं, तो कमाल करती हैं। जमीन को फाड़ डालती हैं, आसमान को तोड़ देती हैं। जब कृतियाँ विकसित होती हैं, तो सिद्धियों का ठिकाना, न चमत्कारों का ठिकाना, एक छोटे-से लकड़हारे का बेटा अब्राहम लिंकन बन जाता है, जॉर्ज वाशिंगटन बन जाता है, आप समझते तो हैं नहीं। अपने आपको तो समझा नहीं, अपने को तो देखा नहीं है, अपनी तो मिट्टी पलीद की है। अपने को तो मार-मार कर भुर्ता बना दिया है। दुनिया से इसका लाएँगे, उसका मारेंगे, इसकी काटेंगे, उसकी मारेंगे जेब। जेब काटना बन्द कीजिए।
अध्यात्म एक ही चीज का नाम है—अपने आप को परिष्कृत करने की शैली का नाम। परिष्कृत करने की शैली के लिए क्या करना पड़ता था? यही तो मैं आपको बता रहा था। देवता के माध्यम से आप यह देखिए कि जीवन को परिष्कृत करने का ढंग क्या है? गायत्री माता क्या है? एक किताब है। गायत्री माता क्या है? गायत्री माता भगवान का एक टेपरिकार्डर है। ये आपके लिए शिक्षण है—मौन शिक्षण। आपके लिए व्याख्यान तो नहीं है, पर मौन शिक्षण है। क्या मौन शिक्षण है? देवताओं की शक्ति को विकसित करने के लिए, गायत्री माता का चमत्कार देखने के लिए आप ये सारे-के शिक्षण ही ग्रहण कर लीजिए। ये क्या है? ये आपका मस्तिष्क। मस्तिष्क का शिक्षण कीजिए। किससे? पूजा की चौकी से। क्या शिक्षण ग्रहण करें? बेटे क्या करना पड़ता है? सफाई करनी पड़ती है। बिना सफाई के पूजा नहीं हो सकती है। शरीर को साफ कर पूजा के निमित्त। नहा कर जाना उपासना के निमित्त और क्या करें? मैला कपड़ा, नहीं बेटे! मैला कपड़ा मत पहनना, देख, धुला हुआ कपड़ा पहनकर जाना और क्या करूँ ?? देख जहाँ जमीन पर पूजा करना हो, वहाँ पर झाड़ू लगा देना। नहीं महाराज जी! मैं क्या झाडू लगाऊँगा, ऐसे ही बैठ जाऊँगा। ऐसे नहीं बैठना, गायत्री माता नाराज हो जाएँगी। और क्या करूँ? जो कुछ भी बरतन हैं तेरे पास, पंचपात्र आदि। पंचपात्र तो महीने भर से रखा है। नहीं भाई! ऐसे मत किया कर। हर जगह की सफाई अनिवार्य है। आचरण की सफाई, व्यवहार की सफाई, पानी की सफाई, विचारों की सफाई— सब चीजों की सफाई, हर जगह की सफाई। सफाई से अपनी मलीनता का परिष्कार करने से गायत्री माता के दरवाजे में प्रवेश करने का मौका मिलता है, नहीं तो दरवाजा बन्द। गन्दे आदमी के लिए दरवाजा बन्द। गन्दे कपड़े पर रंग चढ़ाने की मत सोचिए। आप गन्दगी धोइए। वहाँ से शुरू कीजिए। देवता के दरवाजे पर पीछे जाना। पहले वहाँ से चलिये, देवता के दरवाजे के लिए जहाँ से प्रवेश-पत्र मिलता है। यह उन्हीं को मिलता है। किनको? जो अन्तरंग और बहिरंग की दृष्टि से सफाई पर विश्वास करते हैं। उनको स्वच्छ होना चाहिए, उनको निर्मल होना चाहिए, उनको शरीफ होना चाहिए, उनको ईमानदार होना चाहिए। उनको निष्पाप होना चाहिए और उनको निष्कलंक होना चाहिए। ये वृत्तियाँ अगर आपने स्वीकार कर लीं तो आपने दरवाजा खोल दिया। किसके लिए? भगवान् के दरवाजे पर जाने के लिए। अब क्या करें? अब अगली कक्षा की तैयारी यह सब शिक्षण है, बाबा शिक्षण! शिक्षण है जादूगरी नहीं है, ये बाजीगरी नहीं है। सारी-की उपासना को लोगों ने जादूगरी बना रखी है, बाजीगरी बना रखी है जिसको देखो बाजीगरी और जादूगरी से कम में बात नहीं करता। बाजीगरी और जादूगरी है? है बेटे! लेकिन ये प्रॉपर चैनल (उचित माध्यम )) से जादूगरी है। इससे कम में जादूगरी नहीं है। फिर क्या करना चाहिए? गायत्री माता की उपासना प्रारम्भ कर चमत्कार हो जाएँगे? हाँ बेटे! चमत्कार हो जाएँगे। कैसे चमत्कार हो जाएँगे? गायत्री माता की छवि क्या है? जरा उसको दिखाओ, तो देखें। महाराज जी! गायत्री माता हंस पर बैठी हैं। ये बैठी हैं। ठीक है बेटे! उसको जरूरत होगी, तो बैठ लेंगी, हंस की सवारी लेनी होगी, तो ले लेंगी। तू भी सवारी ले ले। नहीं साहब! वो सवारी की बात बड़ी भारी है। क्या चीज है? इसको समझ। क्या समझ? नारी की प्रतिमा हमने ली हुई है। नारी कैसी? जवान औरत। जवान औरत को हमने गायत्री माता बनाया हुआ है। ये क्या है? ये हमारे दृष्टिकोण का परिवर्तन है, ये हमारी मानसिक धरातल की क्रान्ति है। हमारे सारे जीवन ने नारी को क्या समझा है? नारी को एक दृष्टि से देखा है, जिसका नाम है—वेश्या। नारी के बारे में हमारा क्या ख्याल है? हमारा ख्याल है नारी होती है वेश्या। नारी किसे कहते हैं? नारी वेश्या को कहते हैं। नारी का दूसरा नाम क्या है—वेश्या। रमणी इसका नाम है, कामिनी इसका नाम है। आपने जब भी इन आँखों से, गन्दी और जलील आँखों से नारी को देखा है तो कामिनी के रूप में देखा है, रमणी के रूप में देखा है। आप आँखें बदल दीजिए, दृष्टिकोण बदल दीजिए। अरे! नारी दृष्टिकोण होता है। नारी आकर्षण है। नारी के लिए नर आकर्षण है। नर के लिए नारियाँ आकर्षण हैं। इसलिए ये आकर्षण गिरावट वाले आकर्षण हैं, इसको आप बदल दीजिए और सच्चाई की तरफ लाइए। ये क्या है? ये मौलिक जीवन की क्रान्ति है। गायत्री माता को नारी के रूप में प्रतिष्ठित करना, ज्योति के रूप में प्रतिष्ठापित करना—ये आपकी मानसिक और भावनात्मक क्रान्ति है। आप क्या कहें? गायत्री माता को क्या कहूँ बेटे! इसको माँ कहना। माँ से क्या मतलब है? माँ से ये मतलब है कि ये पूज्य और पवित्र हैं। पवित्रतम् और पूज्यतम्। कौन हैं? ये नारी। नारी कौन? ये देवी। कौन देवी? ये गायत्री माता, जो चौकी पर बैठी हुई हैं। इसके बारे में, इसके माध्यम से आप अपनी दृष्टि का विकास कीजिए। ये जवान औरत की छवि है। ये चौकी पर बैठी हुई हैं। आप जवान औरत को कहिए माँ। माँ कहिए इससे क्या करें? अभ्यास। ये प्राथमिक अभ्यास है। इस प्राथमिक अभ्यास को विकसित करते हैं, फिर सारे-के दृष्टिकोण में इसे आप ले आइए। क्या लाएँ? कि हमको अपने अन्दर श्रेष्ठता को धारण करना है।
हर व्यक्ति के भीतर एक पक्ष रहता है शैतान, एक पक्ष रहता है भगवान्। नारी के अन्दर शैतान रहता है? नारी के अन्दर शैतान भी रहता है। रहता है? बिल्कुल रहता है। क्यों साहब! नारी के अन्दर वो वाहियात बातें, जो अखबारों में और किताबों में पढ़ते हैं वो? ये बेटे! सब होती हैं। आपको क्या करना है? आपको उधर ध्यान ही नहीं देना है। आपको नारी के अन्दर जो महान है, बस उसको देखना है। उपासना यहाँ से प्रारम्भ होती है—महान को देखना। गायत्री माता की आप उपासना शुरू करें, लम्बे कर्मकाण्ड बाद में बताऊँगा। शुरुआत कीजिए। इसके बिना हमारी उपासना नहीं हो सकती। गायत्री माता की सवारियाँ, गायत्री माता के वाहन। हाँ बेटे! क्या करना चाहिए? गायत्री माता की शक्ति प्राप्त करने के लिए गायत्री माता को अपने कन्धे पर बैठाकर रखना चाहिए। गायत्री माता का वाहन बनने के लिए, आपको हंस बनना चाहिए। हंस कैसा होता है? राजहंस। राजहंस और परमहंस। परमहंस और राजहंस में परमहंस ज्यादा ऊँचे स्तर के हैं। और सामान्य मनुष्य, जिसको हम शालीन कहते हैं, सज्जन कहते हैं, शरीफ कहते हैं, श्रेष्ठ कहते हैं, वो क्या होता है? उसको हम राजहंस कहते हैं। हंस तो महाराज जी! ये रहते हैं तालाब में। तालाबों की बात कौन कह रहा है? साहब! गायत्री माता शायद रहती हों उस तालाब में। ताला में रहने वाले हंस पर बैठती हों। चल! तालाब में बैठती हैं। तुझे बैठना है, तो तू भी बैठ। गायत्री माता मुझसे भारी हैं क्या या हल्की है? मुझसे तो भारी हैं। तेरा वजन कितना है? सौ मन है। अच्छा! गायत्री माता कितनी भारी हो सकती हैं? गायत्री माता का भार भी ढाई मन हो सकता है। तीन मन क्यों नहीं? तीन मन से तो कम नहीं होगी। नहीं महाराज जी! तीन मन से कम में क्या होंगी? तीन मन की गायत्री को भला बुला और एक हंस को, फिर ट्राई (कोशिश) करते हैं। एक हंस हम रख देते हैं और तीन मन की बोरी, जिसमें आलू भरकर आता है, इसके सिर पर धर दे, फिर देख बेटा! हंस का क्या होता है? अरे महाराज जी! हंस का तो कचूमर निकल जाएगा। गायत्री माता हंस पर बैठेंगी, तो क्या हो जाएगा? हंस पर बैठती हैं। तेरे सिर पर बैठती हैं। ये अलंकार हैं, शिक्षण हैं। अलंकारों को समझता नहीं है? शिक्षण को समझता नहीं है? भावना को समझता नहीं है? प्रेरणा को समझता नहीं है? हिसाब को समझता नहीं है? बस, वही ‘राम नाम जपना पराया माल अपना’। यही भजन सुन रखा है बाजीगरों से। बाजीगरों की बात छोड़िए। फिर क्या करना चाहिए? मित्रो! आपको वहाँ से राजहंस की तरह से विकसित होना चाहिए, जो उचित है और मुनासिब भी। जो मुनासिब उसका नाम है—राजहंस। जो आदमी मोती खाते हैं वे नहीं मिलने पर भूखे रह जाते हैं। नहीं साहब! मर जाएगा! तो मर जाना। वैसे भी तो मरेगा न आदमी। बुखार से मर जाते हैं, खाँसी से मर जाते हैं, टी०बी० से मर जाते हैं, आप भी मर जाइए। भूखे मर जाइए। नहीं साहब! इसके बिना गुजारा नहीं चलता। गुजारा नहीं चलता, तो मर तो सकते हैं। भूखे हैं, मरिए फिर। नहीं साहब! मर तो हम नहीं सकते तो फिर आप शिक्षण ग्रहण कीजिए। आपको जो ग्रहण करना है, आपको जो खाना है, जो उपयोग करना है, जिसका उपभोग करना है, वो क्या होना चाहिए? वो मोती के तरीके से होना चाहिए। और जो आपको स्वीकार करना है, वो दूध के तरीके से होना चाहिए। सीप हटाइए और कीड़े हटाइए। सीप हटाइए और मोती ग्रहण कीजिए। ये किसकी आदत है? ये राजहंस की आदत है। राजहंस की आदत अगर आपको स्वीकार हो, तो फिर आप आगे बढ़िए। अब गायत्री माता पूरी हो गईं।
आगे क्या करना पड़ेगा? उनका पंचोपचार पूजन। पंचोपचार क्यों करने पड़ते हैं? पंचोपचार में क्या करना पड़ता है? पंचोपचार में क्या होता है? रोली होती है, जल होता है, अक्षत होते हैं, नैवेद्य होता है और पुष्प होते हैं। ये सब होते हैं? हाँ बेटे! पाँच चीजें होती हैं। बस, कम-से इतना तो कर ले। इतने से ही चमत्कार दिखाई देगा। बस, इन्हीं की प्रेरणा ग्रहण कर। प्रेरणा क्या है? हमने कई बार आपको बता दिया है। चन्दन क्या सिखाता है? हमने कितनी बार सिखा दिया आपको। फूल क्या सिखाता है? हमने कितनी बार सिखा दिया आपको। दीपक क्या सिखाता है? हमने कितनी बार आपको बताया। मिठास क्या सिखाता है? और शक्कर क्या सिखाती है? वो हमने कितनी बार बताया और अक्षत क्या सिखाता है? कितनी बार बताया। जल क्या सिखाता है? जल सिखाता है हमारा श्रम और हमारा पसीना श्रेष्ठ कामों के लिए और श्रेष्ठ वृत्तियों के लिए नियोजित हो। सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन के लिए हमारा पसीना बहना चाहिए। इससे हमारा प्रशिक्षण किया जाता है।
अक्षत क्या होता है? एक अंश, अपनी आजीविका का एक अंश, समय का एक अंश, साधन का एक अंश नियमित रूप से निकालना अंशदान है, हिस्सा बाँट है। हिस्सा साहब! हमने समाज को दे दिया था पिछले साल। समाज में बाँटने से बात नहीं चलती है। हिस्सा बाँट निकाल इसमें। नहीं साहब! हिस्सा क्यों बाँटूँ? साहब! हम तो कभी-कभी देते हैं। कभी-कभी नहीं देते। अक्षत धन हमने कमाया था और हम कमाते हैं और इसमें से नियमित रूप से निःस्वार्थवश लोकहित के लिए और सत् प्रयोजन के लिए निकालते हैं। ये क्या है? ये भगवान के लिए। भगवान क्या होता है? मनुष्य होता है? कोई मनुष्य नहीं है भगवान। ये क्या है? श्रेष्ठ वृत्तियों के लिए, सत्कर्मों के लिए, सत् प्रयोजनों के लिए। नियमित रूप से अंशदान निकालते रहना। अक्षतं समर्पयामि। अक्षत से क्या मतलब है आपका? आप पसीना बहाते हैं, समय देते हैं, श्रम करते हैं, संसार में श्रेष्ठ वृत्तियों के संवर्द्धन के लिए। नहीं साहब! चौबीसों घण्टे अपने मतलब में लगे रहते हैं। क्या मतलब है आपका? हमारा मतलब है—पाद्यं समर्पयामि, स्नानं समर्पयामि। किसको स्नान करा रहे थे। भगवान को? अच्छा! तो भगवान को आप स्नान कराते हैं। भगवान आपसे बड़े हैं या छोटे। भगवान हमसे तो बड़े हैं। आपको नहाने में कितना पानी चाहिए? कितना पानी चाहिए बताइए? हमारे नहाने में दो बाल्टी लग जाता है। आपको मालूम है आप कितने में नहाते हैं? हमारे में तो दो बाल्टी लग जाता है। गुरु जी! आपसे तो बहुत बड़े हैं। तो कितना बाल्टी चाहिए? भगवान जी तो बड़े हैं। हाथी नहाते हैं तो सौ बाल्टी लग जाता है। थोड़ा नहलाते हैं, तो १५-२० बाल्टी लग जाता है। भगवान जी घोड़े की तरह हैं? घोड़े के बराबर नहीं हैं। घोड़े से कम है। घोड़े को कितना बाल्टी में नहलाएँगे? घोड़े को तो बेटे! दस बाल्टी में नहलाएँगे। तो भगवान जी को दस बाल्टी से नहला। ये क्या कर रहा था? स्नानं समर्पयामि। किससे स्नान कराया? चम्मच से। बस! बहका रहा है भगवान् को। बहकावे का नाम भजन रखा है आपने? किसने कहा था आपको भगवान को बहका? स्नान कराएँगे! बहुत स्नान कराएँगे! स्नान कराने के लिए आपको अपना श्रम, पसीना बहाना चाहिए अथवा आपको अपना अंशदान करना चाहिए। चंदन के तरीके से सुगन्धित जीवन, पुष्प के तरीके से हँसता-हँसाता जीवन और दीपक के तरीके से प्रकाश पैदा कीजिए, अपने आपको जलाइए, रोशनी दीजिए नई पीढ़ियों को, ताकि आप जलें और दुनिया में प्रकाश पैदा हो।
ये क्या है? आध्यात्मिक जीवन है। आध्यात्मिक जीवनयापन करने के लिए शिक्षण, चरित्रवान बनने के लिए शिक्षण, सारे-के बेटे! आध्यात्मिक जीवन के रहस्य हैं और क्या हैं? नहीं, मैं तो जैसा हूँ वैसा ही रहूँगा। क्यों? वैसा क्यों रहेंगे? नहीं महाराज जी! भगवान पापियों का भी उद्धार करते हैं। पापियों का उद्धार कर देते हैं? हाँ, सैकड़ों आदमी थे पापी, उन्होंने राम-नाम लिया और स्वर्ग मिल गया था। पापियों का उद्धार हो गया था। अच्छा बता एकाध के नाम बता। लीजिए गुरुजी बताता हूँ आपको। तो आपको चुप कर दूँगा। चुप कर देगा! अच्छा, बता तो सही चुप हो जाएँगे। गणिका, अजामिल, सदन कसाई। अहा! ये मामला है। ये कहना चाह रहा था तू। गणिका जो थी वेश्या, राम के नाम लेने से पहले, जो दुराचार-व्यभिचार करती थी, वो राम का नाम लेने के बाद भी करती थी कि नहीं करती थी। बाद में नहीं, पहले करती थी। अब हम तेरी बात मानते हैं, तू हमारी बात मान। राम नाम लेने के पहले वेश्या थी, बाद में नहीं। सूरदास, विल्वमंगल राम नाम लेने से पहले थे कि बाद में। नहीं महाराज जी! बाद में नहीं थे। बाद में तो, वो जब से सन्त हो गए थे तो उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया था। डाकू अंगुलिमाल राम नाम लेता था, बुद्ध का शिष्य हुआ था। पहले डकैत था या बाद में। नहीं साहब! बाद में नहीं। बाद में तो असली सन्त हो गया था। बाल्मीकि? बाल्मीकि भी बेटे! डाकू था। लेकिन ये बता डाकू तो था; लेकिन राम नाम लेने के बाद डाकू रहा कि नहीं। नहीं महाराज जी! नहीं था। नहीं, कुछ ऐसा चलता रहता हो, दिन में माला जपता हो और रात में डकैती डालता हो। नहीं, फिर नहीं किया था। आप क्या कह रहे थे? आप क्या चाहते हैं? वेश्यावृत्ति भी जारी रखी जाए, चोरी भी जारी रखी जाए और काम भी जारी रखी जाएँ, भजन भी जारी रखा जाए? जारी रखा जा सकता है; पर उसकी शर्त ये है—राम नाम को लेने के पश्चात् में, फिर आपको वो काम नहीं करने चाहिए, जो आपके लिए शोभा नहीं देते, जो भगवान् को नापसंद हैं। ये क्या? जीवन को ढ़ालना है बेटे! जीवन को ढ़ालने में करामात ही करामात है। आपके सारे जीवन में करामात ही भरी पड़ी है। आपकी जीभ है, आप इसको विपरीत कर लीजिए। आप दूसरों को मत दिखाइये, दिल में छुपाइये। दूसरों को बुरी सलाह मत दीजिए, दूसरों को पतन के गड्ढे में मत ढकेलिए। आप अपनी जीभ को काबू में करिए। फिर देखिए, आप अपनी जीभ की करामात। जिस जीभ में आपने चरणामृत और भोग ग्रहण किया है, वह जब बोलती है, तो आशीर्वाद बोलती है, उसमें से मन्त्र निकलते हैं। ऋषियों की वाणी में से सत्य निकलता है। ऋषियों की वाणी में से आग निकलती है। ऋषियों की वाणी में से शक्ति निकलती है। ऋषियों की वाणी में से बिजली निकलती है। ऊर्जा भी निकल सकती है? हाँ, निकल सकती है। शर्त ये है कि आप उसको धोएँ।
साधना किसकी? अरे! साधना आपकी अपनी-अपनी। देवता की? देवता की नहीं बेटे! अपने भीतर की। आपके भीतर देवत्व भरा पड़ा है; उसके संवर्द्धन की साधनाएँ। साधना जीभ की। जीभ की आपने करामात देखी है न? जीभ को विपरीत कीजिए। स्वाद के सम्बन्ध में साधिये, देखिए आपकी दूसरे दिन से सेहत अच्छी होती है कि नहीं। हम गारण्टी देते हैं। आप अपनी जीभ हमारे हवाले कीजिए। हम सेहत आपके हवाले करते हैं। आपको ये इकरारनामा और ये एग्रीमेण्ट स्वीकार हो, तो मानिए। आप जीभ हमारे हवाले कर दीजिए। आप जीभ पर अपना हक छोड़ दीजिए। जीभ को आपकी मर्जी पर नहीं चलने देंगे। हम आपसे वायदा करते हैं कि हम आपकी खोई हुई सेहत को फिर मँगा देंगे और आपकी खोई हुई जवानी फिर आ जाएगी वापस। ये सारा-का खेल क्या है? ये आत्म-नियन्त्रण है। सारे-का शिक्षण देवता को गिरफ्तार करने का नहीं है, देवता को फुसलाने का नहीं है। देवता बरगलाए नहीं जा सकते, देवता फुसलाए नहीं जा सकते। बरगलाना है अपने आपको। फुसलाना है अपने आपको। हाथ इसी के जोड़िए, नमस्कार इसी को करिए। अपने देवत्व को नमस्कार करिए और कहिए—शरण में आए हैं हम हमारी, दया करो हे दयालु! भगवन्! किससे कहें बेटे! भगवान बहुत विशाल हैं। वहाँ कौन सुनेगा तेरी? वहाँ तो इतना हल्ला मच रहा है कि नक्कारखाने में तेरी तूती की आवाज कोई नहीं सुनेगा। तो हम किससे प्रार्थना करें? अपने आप से कीजिए। हमारे भीतर जो सुपरमैन बैठा हुआ है, देवता बैठा हुआ है, हमारे भीतर जो हमारा सुपर ईगो बैठा हुआ है, इसको हम गायत्री कहते हैं, अति-मानव कहते हैं। यही हमारा भगवान का प्रतीक है। इसी से कहिए आप—हे हमारे देव! प्रसन्न हो जाइए। देव! हमारे ऊपर करुणा कीजिए। देव! आप हमारा उद्धार कीजिए। आप हमको शरण में ले लीजिए। अभी हम किसकी शरण में रह रहे हैं? अपने देवत्व की शरण में नहीं, अनाचार की शरण में, वासनाओं की शरण में, तृष्णाओं की शरण में, अहंकार की शरण में, लोभ की शरण में, मोह की शरण में, इन सबकी शरण में भटक रहे हैं। कृपा करके स्वीकार कर लीजिए और अगर अपनी शरण में ले लें, तो कौन-सा वाला भगवान? जो परमात्मा के रूप में संव्याप्त है। आत्मा छोटी होती है। परमात्मा बड़ा होता है। पुरुष ‘जीव’ को कहते हैं और पुरुषोत्तम उस स्यूपीरिअरिटी (श्रेष्ठता) को कहते हैं, जो हमारे भीतर रहता है। नर इनसान को कहते हैं, नारायण उसे कहते हैं, जो आदमी के भीतर महान रहता है। परब्रह्म की बात नहीं कहते बेटे! वो तो उसके बारे में हम चिंतन भी नहीं कर सकते। फिर भजन-पूजन कैसे कर सकते हैं? परब्रह्म की कौन पूजा करेगा? परब्रह्म की ओर ध्यान भी नहीं हो सकता। परब्रह्म के तो कायदों का पालन हो सकता है। बस, और क्या हो सकता है? परब्रह्म को कुछ नहीं हो सकता है केवल कायदे का पालन हो सकता है और भय रखना पड़ता है कि परब्रह्म की सत्ता हमारे ऊपर है। उसका अंकुश हमारे ऊपर है। अंकुश को स्वीकार कर लेना, उसको स्वीकार कर लेना, उसके नियमों का पालन कर लेना परब्रह्म की पूजा के लिए काफी है। फिर और कोई जरूरत नहीं। फिर किसका भजन करें? उसका करें, जो हमारे भीतर परमात्मा के रूप में, पुरुषोत्तम के रूप में, नारायण के रूप में, सुपर ईगो के रूप में बैठा हुआ है। ये उसी का खेल है।
आप इतनी बात समझ जाएँ, तो सारा-का आध्यात्मिकता का सार समझ में आ जाएगा, रहस्य समझ में आ जाएगा और आपकी सिद्धियों के चमत्कार का द्वार खुल जाएगा। ऐसी सिद्धियाँ, जो आपको निहाल कर सकती हैं; ऐसी सिद्धियाँ, जो निहाल होने के बाद में दूसरों के लिए बाँट सकते हैं, दूसरों के लिए आप बिखेर सकते हैं, दूसरों को आप दे सकते हैं, दूसरों को आप धन्य कर सकते हैं। आप कब तक भिखारी रहेंगे? आप कब तक माँगते रहेंगे? हम पर भगवान् दया कीजिए, दया मत कीजिए! आपके भीतर वो सब कुछ है। कौन-सा वाला? जो आपके लिए आवश्यक है। आपकी कस्तूरी नाभि में लगी हुई है। जो आप चाहते हैं, वो सब चीजें आपके भीतर हैं। न केवल आपके लायक, बल्कि आपकी जरूरतों को पूरा करने के लायक, आपकी चिन्ताओं को दूर करने के लायक, आपकी बीमारियों को दूर करने के लायक, आपके जीवन को महान बनाने के लायक और आपको यश तथा कीर्ति देने लायक और आपको संतोष देने लायक आपके भीतर बहुत मसाला भरा हुआ है। भगवान ने आपको परिपूर्ण बनाकर भेजा है। यह सब कब और कैसे प्राप्त हो सकता है? जब आप उपासना करते हैं, तब। उपासना करते हैं, तब अपने विशाल को निखार लेते हैं। फिर क्या हो जाता है? फिर आप अपनी ये जरूरतें पूरी कर लेते हैं। आपकी जरूरतों के लिए कभी किसी के आगे हाथ पसारने की जरूरत नहीं पड़ती; क्योंकि आप पूर्ण हैं—‘‘पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।’’
मेंढक बिना माँगे गुजारा कर सकता है, मछली बिना माँगे गुजारा कर सकती है, हिरन अपना बिना माँगे गुजारा कर सकता है, मच्छर अपना गुजारा कर सकता है, तो आपके ऊपर कहाँ से आफत आ गई? भगवान से आप माँगते फिरेंगे, क्यों माँगेंगे? आप भगवान से? भगवान ने आपको दिया क्या नहीं है? भगवान् ने आपको हर चीज दी हुई है। आपने देखा नहीं है? मालूम नहीं किया है? अनदेखी चीज को देख लें। सोई हुई चीज को जगाइए। अपने गए-बीते स्तर को परिष्कृत कीजिए। ये उपासना है। उपासना के लिए क्या करें? भगवान भी देगा, तो कितना देगा? आपके श्रम के हिसाब से जो मिल सकता है, वो चीज ऐसी है, जो आपके काम की है और आपके लिए पर्याप्त है। अभी और जरूरत है? हाँ बेटे! अभी और जरूरत पड़ गई। क्या जरूरत पड़ गई? ये जरूरत पड़ गई कि भगवान के कामों के लिए अर्थात लोकहित के लिए, समाज-कल्याण के लिए, जन-जीवन के लिए आपको अभी और कुछ काम करना है। उससे क्या मिल जाएगा? उससे आपको पुण्य मिल जाएगा, परमार्थ मिल जाएगा, भगवान की प्रसन्नता मिल जाएगी। इसके लिए साधन? हाँ, इसके लिए साधन भी मिल सकते हैं। कहाँ से मिलेंगे? उसी स्त्रोत से मिलेंगे। शर्त ये है कि अपने आपको उसके काबिल बना लें; इस लायक बना लें कि भगवान आपको दें और आप उसको ग्रहण करें तथा लोगों को बाँट दें। ग्रहण करने की सामर्थ्य नहीं होगी, तो नहीं हो सकता। बेटे! बादल ग्रहण करते हैं, फिर जमीन को बरसा देते हैं। जमीन पी जाती है, जमीन नदियों को दे देती है। चक्र चलता रहता है। क्यों साहब! जमीन सुखी हुई हो और जमीन पिए नहीं तो? घास पैदा होगी कि नहीं? घास पैदा नहीं हो सकती। सारी-की जो अध्यात्म की प्रक्रिया है, वह पात्रता का संवर्द्धन, आत्म-परिष्कार, अपने आपको धोना, अपने आपको ठीक करना, अपने आपको सँवारना है। अपने आपको सँवार लेने के दो ही चरण थे, जैसा कि मैंने आपको कल बताया था—अपने आपको ठीक कर लेना। अपने आपको ठीक कर लेना ही नहीं, बल्कि दूसरों के लिए उपयोगी बन जाना, समाज के लिए उपयोगी बन जाना, देश के लिए उपयोगी बन जाना, संस्कृति की सेवा करना। ये आदमी का वो अंश है, जो उदार है। उदार अंश हमारे भीतर आता है, तो भगवान के अनुग्रह मिलते हैं। उदार अंश नहीं आएँगे तो नहीं मिलेगा।
नदियाँ उदारता को लेकर चलती हैं। उनको जमीन को पानी देना है, उनका उद्धार करना है, बगीचों की सिंचाई करनी है, लाखों आदमियों की प्यास बुझानी है। देने के लिए, बाँटने के लिए जब गंगा चलती है, तो हिमालय कहता है कि तुम बाँटती चली जाओ, तुम्हारे अन्दर कमी नहीं आएगी। हिमालय ने गारण्टी दी हुई है कि तुम चाहे कितनी बाँटती रहना, चाहे कितने नाले इसमें से निकलते रहें, नहरें निकलती चलें, कमी नहीं हो सकती। कमी हुई क्या? कमी नहीं हुई। गंगा जहाँ से निकलती थी, गोमुख से, वहाँ से बढ़ी, फिर आगे और बढ़ी और बढ़ी फिर क्या बनी? बेटे! नहरें निकलती रहीं। आपने देखी हैं? बड़ी-बड़ी नहरें निकलती रहीं; लेकिन आपने देखा उसमें? कोई कमी नहीं पड़ी। बिहार में आप जाइए, सोनपुर में आप देखिए, गंगा का कितना चौड़ा पाट है। पटना में चले जाइए, गंगाजी में जहाज चलते हैं। नहीं समुद्र में चलते हैं। अरे बेटे! नदी में चलते हैं। नदी में नहीं चल सकते? नदी में नहीं चलते, तो आप चले जाइए नदी में, गंगाजी में वो चलते हैं। वहाँ तो सुख गई होंगी। क्यों? बहुत-सी नहरें निकल गई हैं, बहुत-से लोगों ने पी लिया होगा, बहुत-से नलों में खर्च हो गया। गंगाजी का पानी इलाहाबाद में खर्च हो गया, कानपुर में खर्च हो गया और कहाँ-कहाँ पानी खर्च हो गया? बनारस में पानी खर्च हो गया, तो गंगा जी क्या कम हो गईं? कम नहीं हो सकतीं। ये लोकहित में प्रवाहित इसके लिए क्या कम पड़ने वाला है? कम किसका पड़ने वाला है? सड़ेगा कौन? सड़ेंगे वो स्वार्थी और फलेगा कौन? फलने वाला है परमार्थी। गंगा फलेगी और कौन देगा? हिमालय। अरे! हिमालय नहीं देगा तो दुनिया देगी। चम्बल ने कहा—हम भी चलेंगे। सरयू ने कहा—हम भी चलेंगे। घाघरा ने कहा—हम भी चलेंगे। ढेरों-की नदियाँ शामिल होती चली गईं गंगा में। आप जाकर देखिए। गंगा की हजार धाराएँ हो गई हैं। गंगा की एक धारा गोमुख से निकलती है और गंगा में हजार धाराएँ हो गईं। गाँव-गाँव में धारा है, गाँव-गाँव में गंगा है। ऐसा क्या हो सकता है? हाँ, आपका भी हो सकता है, आपके साथ भी हो सकता है, लेकिन अगर आपके जीवन में कृपणता आएगी, तो आप सड़ेंगे। नालों का पानी सड़ता है, गड्ढों का पानी सड़ता है। झरनों का पानी न सड़ता है, न सीमित होता है। झरने साफ रहते हैं। मनुष्य जीवन की वृत्ति को भगवान की वृत्ति कह सकते है। भगवान की सेवा का नाम, भगवान की प्रार्थना का नाम है, भगवान की प्रवृत्ति का नाम है—आदमी का जीवन में उदार होना। वृत्ति सेवा को कहते हैं, वृत्ति परमार्थपरायणता को कहते हैं और एक अंश रह गया—साधना। साधना क्या है? साधना अपने आपको सँवारना, अपने आपको सँभाल लेना, साध लेना। किसको? अपने आपको। अपने अनगढ़ जीवन को सुगढ़ बना लेना और सुगढ़ जीवन को सुसंस्कृत बनाना। सुसंस्कृत माने—जिसमें दया की मात्रा हो, करुणा की मात्रा हो, मिल-बाँटकर खाने का माद्दा हो, परोपकार की मात्रा हो। ये दोनों एक फिलॉसफी हैं और दोनों एक साइंस हैं, दोनों एक जीवनयापन करने की शैली है। आदमी के सोचने का तरीका है—अध्यात्म। आप तो समझते ही नहीं हैं, मैं क्या करूँ? आपके लिए? पूजा तक सीमित रहते हैं और पूजा को अभी तक समझ नहीं पाये, जिसका अर्थ होता है—शिक्षण; मस्तिष्क को शिक्षण और भावना का संवर्द्धन। भावना का संवर्द्धन अर्थात् हमारे विश्वास और निष्ठा का वो उभार, जिसके आधार पर हमारा मस्तिष्क और शरीर दोनों श्रेष्ठ मार्ग पर चलने लगते हैं। हमारी आकांक्षाएँ, जिसको कि भावनाएँ कहते हैं। भावनाएँ वो चीज हैं, जो आदमी को प्रेरित करती हैं, हमारे विश्वास को प्रेरित करती हैं। ‘‘यो यच्छ्रद्धः स एव सः’’—जिसकी जैसी श्रद्धा, वह वैसा ही बन जाता है। अगर हमारी चोर की श्रद्धा है, तो हमारा दिमाग चोर का और हमारे हाथ चोर के और हमारे क्रियाकलाप चोर के। हमारी श्रद्धा अगर सन्त की है, तो हमारा चिंतन सन्त का, हमारे हाथ-पाँव सन्त के, हमारे क्रियाकलाप सन्त के और हमारा भविष्य सन्त का बन जाता है। इसलिए आदमी की जो मूलवृत्ति है, जो मूल केन्द्र है, जहाँ से आदमी का सारा-का उछाल निकलता है, ये आदमी का अन्तःकरण है। इस अन्तःकरण में भावना के रूप में ऋतम्भरा-प्रज्ञा के रूप में, सद्भावना के रूप में, सत्प्रवृत्तियों के रूप में गायत्री माता की स्थापना हो। मस्तिष्क में सद्-विचारणाओं के रूप में और कर्मों में सत्कर्मों के रूप में, निष्ठा के रूप में, प्रज्ञा के रूप में, श्रद्धा के रूप में गायत्री माता को जीवन में ओत-प्रोत कर लेना, उसको अपने जीवन का अंग और भविष्य बना लेना—यही है उद्देश्य। जो आदमी आप में से इस सन्दर्भ में जितने अंशों में थोड़ा और बहुत चलने में समर्थ होगा, उसको उसी हिसाब से, उसी मात्रा में, आत्म-सन्तोष, जनसहयोग, लोकसम्मान और भगवान का अनुग्रह मिलता जाएगा। आप छोटे कदम उठाइए, थोड़े हिस्सों में पाइये। आप बड़े कदम उठाइए, ज्यादा हिस्सों में पाइये। गायत्री माता की पूजा और उपासना, जिसमें कि अनुष्ठान भी शामिल है; पर ये कर्मकाण्ड हैं। केवल कर्मकाण्डों तक अगर आप सीमित हैं, तो ये काफी नहीं पर्याप्त नहीं और इनसे आप फल की आशा नहीं कर सकते और अगर आपने सारे-के कर्मकाण्डों की भावनाएँ, प्रेरणाएँ, दिशाएँ, शिक्षाएँ समझी हैं; उनको जीवन में समाविष्ट करने की कोशिश की है, तो मैं आपको अपने पूरे मन से विश्वास दिलाता हूँ कि सिद्धियाँ आपके साथ-साथ हैं, सिद्धियाँ आपके आगे हैं, सिद्धियाँ आपके पीछे हैं, सिद्धियों में आप हैं और आप में सिद्धियाँ हैं। मनुष्य का व्यक्तित्व यदि परिष्कृत हैं, तो उसी का नाम सिद्ध पुरुष है। अलग से कोई बड़ा भारी पराक्रम करने की जरूरत नहीं है; अलग से कोई बड़ा भारी पराक्रम करने की जरूरत नहीं है; अलग से कोई काम करने की जरूरत नहीं है। ये सारी-की उपासनाएँ इसी बात के लिए हैं कि आदमी परिष्कृत रहें, शुद्ध बनें, महान बने और सफलताएँ पाएँ। योगी और सिद्ध पुरुषों के पास यह विभूतियाँ होती हैं। अपना उद्धार करके और असंख्यों का उद्धार करके वे पार कर देते हैं। आप भी ये लाभ उठा सकते हैं, अगर उपासना का वह स्वरूप जो मैंने समझाया, जो शुरू में बताया था, वो स्वीकार कर लें आप तब। अगर आप स्वीकार न करें, कर्मकाण्डों तक सीमित रहें, तो आपकी मर्जी है। फिर आप शिकायत न करना कि आपको ये चमत्कार नहीं मिले, देवताओं का अनुग्रह नहीं मिला, देवताओं के लाभ नहीं मिले, आप यह शिकायत न करना। अपने को परिष्कृत करें तो अच्छी बात है। बहुत-से लोग बहुत-से काम करते हैं। ये भी काम करें, तो क्या हर्ज है। लेकिन लाभ उसी तरीके से हो सकता है जैसा कि शुरू में निवेदन आपसे मैंने किया। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्तिः