उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
अध्यात्म—अंतरंगका परिष्कार
परमपूज्य गुरुदेव के उद्बोधनों की यह विशिष्टता है कि वे भारतीय चिंतन के सर्वाधिक गुह्य विषयों का प्रतिपादन अत्यंत सहज एवं सारगर्भित भाषा में करते हैं। प्रस्तुत उद्बोधन में भी वे अध्यात्म का अर्थ कुछ इन्हीं शब्दों में समझाते दृष्टिगोचर होते हैं। वे कहते हैं कि आध्यात्मिकता ज्ञान की सर्वोच्च धारा है और उसका मूल उद्देश्य जीवात्मा के स्तर को ऊपर उठाना और उसकी भावना का विकास करना है। पूजा कर्म करते समय पुष्प अर्पण, चंदन अर्पण, मिष्ठान्न अर्पण से लेकर दीपक के प्रज्ज्वलन की वे एक सम्यक् व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इन सबका मूल उद्देश्य मनुष्य के अंतरंग का परिष्कार करना है। यदि मनुष्य का अंतरंग परिष्कृत हो जाता है तो उसे दैवीय शक्तियों का सहयोग स्वतः ही प्राप्त होने लग जाता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को......
ज्ञान की सर्वोच्च धारा-आध्यात्मिकता
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
देवियो, भाइयो! जो लोग अपने कार्य पूरे करने के लिए, पैसे इकट्ठे करने के लिए और दूसरी चीजों के लिए अपनी जिंदगी को तबाह करते रहते हैं, मित्रो! मैं उनको समझदार कहूँ? कैसे समझदार कहूँ? मैं तो उन्हें नासमझदार ही कहूँगा। आपकी दुनिया नासमझ है और आध्यात्मिकता का उद्देश्य आदमी की नासमझ को समझदारी में समन्वय करना है। मेरे साथ यही हुआ। पैंतालीस वर्ष पूर्व मेरी नासमझी में समझदारी का समन्वय किया गया और मैं छोटा-सा नासमझ मनुष्य और छोटा सा मगरमच्छ स्वार्थों का मारा, इच्छाओं का मारा, वासनाओं का मारा, एक गया-गुजरा छोटा-सा मनुष्य—मेरे पास ज्ञान की धारा की एक अमृत किरण आई, तो मैं न जाने क्या-से-क्या हो गया।
मेरे साथ मेरे गुरुदेव ने जो किया और मैं चाहता हूँ कि स्थिति को भुला करके मैं भी आपके साथ वही करूँ, जो मेरे गुरुदेव ने मेरे साथ किया। मेरे गुरुदेव ने मेरा ज्ञान की धारा से परिचय कराया कि आध्यात्मिकता उस चीज का नाम है, जो मनुष्य के जीवन में समाविष्ट हो जाती है और जीवन में जो ज्ञान उतारा जा सकता है, उस चीज का नाम आध्यात्मिकता है।
मित्रो! मुझे बहुत पहले यह मालूम था कि आध्यात्मिकता उस चीज का नाम है, जो थोड़ी-सी पूजा, थोड़े से टंट-घंट जैसी चीजों में काम में लाई जाती है। मुझे आध्यात्मिकता का मतलब इतना मालूम था कि माला घुमाई जा सकती है, पूजा की जा सकती है, रामायण, गीता, भागवत् पढ़ी जा सकती है, भगवान को चावल चढ़ाया जा सकता है, रोली चढ़ाई जा सकती है। आरती उतारी जा सकती है।
अंतरंग का परिष्कार है अध्यात्म
आध्यात्मिकता के बारे में पहले मेरा यही ख्याल था, फिर मेरा यह ख्याल बदल गया। मेरी अकल और समझ को बदल दिया गया। उसमें जमीन-आसमान जैसा फरक हो गया। मुझे जब असलियत मालूम पड़ी, तो मैंने कुछ और ही बात पाई। असलियत जब मैंने देखी तो यह पाया कि जो भी कर्मकाण्ड हैं, जो भी उपासना है, उसका ऊपर का मतलब और उनका उद्देश्य एक ही है कि मनुष्य का अंतरंग का, उसकी जीवात्मा का स्तर ऊँचा उठाया जाए और मनुष्य की भावनाओं का विकास किया जाए।
मित्रो! भावनाओं का घटियापन है तो आदमी घटिया ही बना रहेगा। श्रेष्ठ नहीं बन सकता। अगर भावनाएँ ऊँची हैं तो वह कभी भी ऊँचा बन सकता है। ऊँचा व्यक्तित्व श्रेष्ठ व्यक्तित्व की निशानी है। ऊँचा व्यक्तित्व जहाँ कहीं भी होगा, ऊँचा व्यक्तित्व जहाँ कहीं भी निवास करता होगा, उसको लोकहितप्रधान और पालक माना जाएगा और घटिया वाला व्यक्तित्व यदि मनुष्य का है, तो दुनियाभर की असुविधाएँ और कठिनाइयों पैदा हो रही होंगी। आंतरिक जीवन का तो सवाल ही कहाँ पैदा होता है। इसलिए हमें कर्मकाण्डों का, पूजा-उपासना का सारे-का-सारे रहस्य सिखाया गया है।
पुष्प अर्पण का अर्थ
यह बात मेरी समझ में आ गई और मेरे रोम-रोम में समा गई। मैंने यह पाया कि जो कुछ भी हमें पूजा-पाठ के क्रिया-कृत्य करने हैं, उनके माध्यम से हमको अपने व्यक्तित्व, अपनी विचारणा, अपनी भावना और क्रियापद्धति का परिष्कार करना चाहिए। यह तथ्य मुझे मालूम पड़ा। पूजा का यह रहस्य मुझे मालूम पड़ा। भगवान के चरणों पर क्यों गुलाब का फूल चढ़ाया जाता है, मेरी समझ में आ गया। खिलता हुआ गुलाब, हँसता हुआ गुलाब, मुस्कराता हुआ गुलाब, सुगंध से भरा हुआ गुलाब का फूल इस बात का अधिकारी है कि भगवान के चरणों में स्थान पाए और भगवान के गले में स्थान पाए।
मित्रो! गुलाब केवल उस पौधे का नाम नहीं है, जो वनस्पति के ढंग से पैदा होता है। भगवान उस आदमी का नाम नहीं है, जो गंदगी में रहता है और गुलाब का फूल अगर सूँघने को मिल जाए तो फूलकर कुप्पा हो जाता है। गुलाब के फूल से क्या लेना-देना भगवान को? सारी-की-सारी सारी दुनिया में गुलाब ही तो खिले हुए हैं। बोलो क्या करेगा वह तुम्हारा गुलाब ले करके?
भगवान को गुलाब समर्पित करने का मतलब उसकी किसी जरूरत को पूरा करना नहीं है, बल्कि अपने मन के ऊपर एक छाप, एक संस्कार को डालना है कि मनुष्य का जीवन इस गुलाब के पुष्प की तरह से खिला हुआ होगा तो हम भगवान का प्यार और भगवान की समीपता पाने का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। क्या हम गुलाब के फूल के तरीके से खिलने की कोशिश करते हैं?
क्या हमने अपने आप को गुलाब की तरह सुगंधित बनाया? क्या अपने आप को हँसता हुआ आदमी बनाया? क्या अपने आप को पुष्प बनाया? क्या अपने आप को हँसता-हँसाता, खिलता-खिलाता व्यक्ति बनाया? क्या अपनी खुशी को दूसरे आदमी को खुशी देने का अधिकार दिया? अगर हमने ऐसा किया तो समझना चाहिए कि हमने फूल चढ़ाने की बात और फूल चढ़ाने का रहस्य जान लिया। अगर हमारी समझ में इतनी-सी बात आ गई तो मैं समझता हूँ कि आपका फूल चढ़ाना सार्थक हो गया।
चंदन अर्पण का अर्थ
मित्रो! इसी तरीके से हमने भगवान को चंदन चढ़ाया, कर्मकाण्ड किया। सिंदूर चढ़ाने का मतलब यह नहीं कि भगवान गंदगी में रहता है और उसकी नाक में बदबू भरी रहती है। उनको चंदन लगा देंगे तो उनका काम चल जाएगा। इसका यह मतलब नहीं है। भगवान जहाँ रहता है, वहाँ खुशबू की कोई कमी नहीं है। वहाँ सुगंधित पदार्थ बहुत भरे रहते हैं। वहाँ धूपबत्तियाँ बहुत जलती रहती हैं। अगर हम चंदन न चढ़ाएँ तो भगवान जी को कोई तकलीफ होने वाली नहीं है।
सुगंधित पदार्थ चढ़ाने का मतलब यह है कि हमारा जीवन शांत और सुगंधित हो। जहाँ कहीं भी चंदन लगाया जाए, वहाँ शांति और सुगंध हो। जहाँ कहीं भी मस्तक पर लगाया जाए, उसे शीतल कर दे। चंदन के सम्मुख जो भी पौधे उगे हुए हों, वह उन उगे हुए पौधों में अपनी खुशबू उड़ेल दे। हम अपने पास, अपने सम्मुख रहने वाले व्यक्तियों को भी वैसा ही बना दें, जैसा कि चंदन अपने समीप के पौधों को सुगंधित बना देता है। चंदन के आस-पास साँप, बिच्छू के जहर का उस पर असर आया? नहीं आया। वह आदमी जो चंदन के तरीके से अपने जीवन को बना लेता है या बना सकता है—उसी को यह हक है कि हमने चंदन चढ़ा करके, चंदन चढ़ाने का मकसद और चंदन चढ़ाने का उद्देश्य पूरा कर लिया।
मिष्टान्न देने का मर्म
मित्रो! भगवान को हम शक्कर चढ़ाते हैं, मिठाई चढ़ाते हैं। शक्कर चढ़ाने का मकसद और मिठाई चढ़ाने का मतलब क्या है? मिठाई चढ़ाने का मतलब यह है कि भगवान को मीठा प्रिय है। इसका मतलब यह नहीं है कि भगवान को खटाई नापसन्द है। इसका मतलब यह नहीं कि भगवान जी मिरच नापसन्द करते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे जायके भगवान को पसंद नहीं हैं।
मिठाई चढ़ाने का मतलब सिर्फ एक है कि भगवान सबसे ज्यादा जिसे प्यार करते हैं, भगवान की सबसे प्रिय वस्तु जो हो सकती है, वह मनुष्य की वाणी की मिठास, मनुष्य के व्यवहार की मिठास, मनुष्य की क्रिया की मिठास, मनुष्य की वृत्तियों की मिठास है। अगर मिठास हमारे जीवन के हर क्रियाकलापों में घुल जाए तो हम इस बात के अधिकारी बन सकते हैं कि भगवान को हमारा जीवन और हमारी मनोभावना को मीठे की तरह समर्पित कर सकते हैं। हमारा व्यवहार मिठास से युक्त हो।
दीपक जलाने का अर्थ
मित्रो! हम दीपक जलाते हैं। दीपक जलाने का मतलब यह नहीं है कि भगवान की आँखों की रोशनी कम हो गई है। जब आदमी को कम दिखाई पड़ता है, तो माइनस और प्लस के चश्मे लगाने पड़ते हैं। भगवान जी को मोतियाबिंद हो गया, यह मतलब नहीं है। भगवान जी की आँखें सही हैं। भगवान जी के आँखों को धरती पर रखी किताब पढ़ने में और अख़बार पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आती। उनकी आँखें सही हैं।
फिर दीपक जलाने से क्या मतलब है? हमको तो दीपक जलाने की जरूरत होती है। क्योंकि दिन में जब अँधेरा हो जाता है और बादल छा जाते हैं और प्रकाश कम होता है, तो बत्ती जलानी पड़ती है। ठीक है आँखें कमजोर हैं, इसलिए बत्ती जलानी पड़ती है। लेकिन भगवान जी की आँखें कमजोर नहीं हैं। भगवान जी की आँखों के आगे दीपक जलाएँ, या न जलाएँ, उन्हें कोई दिक्कत होने वाली नहीं है। फिर दीपक जलाने की आवश्यकता क्या है? दीपक जलाने की जरूरत केवल यह है कि हम अपने जीवन में एक तरह की भावना का विकास करें कि भगवान को दीपक प्यारा है।
भगवान दीपक को मुहब्बत करते हैं। दीपक वह. जिसके मन में जलने की तमन्ना है। दीपक के पेट में प्यार भरा हुआ है। प्यार स्नेह-सत्कार को कहते हैं और स्नेह का दूसरा अर्थ घी भी होता है, तेल भी होता है। जिसके पेट में स्नेह भरा हुआ पड़ा है, वह है दीपक। और जिसने यह नीति अख्तियार कर ली है कि मैं दुनिया में उजाला फैलाऊँगा और अँधेरे में उजाला करूँगा—इसके लिए मैं जलने के लिए तैयार हूँ। जो आदमी उजाला करने के लिए जलना मंजूर करता है, वह आदमी उन सितारों के तरीके से है, जो रात के समय जब चारों ओर अँधेरा छाया रहता है और उस अँधेरे से जो मुसाफिर रास्ता भूल सकते थे, भटक सकते थे, उनको अपनी छोटी-सी समझदारी के द्वारा रास्ता दिखाता रहता है। बच्चे गाते रहते हैं—"ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार, हाऊ आई वंडर व्हाट यू आर।"
मित्रो! इस तरीके से छोटा वाला मनुष्य अपनी छोटी-छोटी प्रवृत्तियों के कारण इस संसार में प्रकाश कैसे फैला सकता है। दूसरों को रास्ता दिखाने वाली जिंदगी कैसे जी सकता है। हम रास्ता दिखाने वाली जिंदगी जी सकते हैं। रास्ता दिखाने वाली जिंदगी गरीब आदमी भी जी सकते हैं और हजारों मनुष्यों को रास्ता दिखा सकते हैं। काश! हमने ऐसी जिंदगी जी हो। ऐसी जिंदगी को जीना भगवान की भक्ति का, दूसरे कर्मकाण्डों का, पूजा का उद्देश्य, भगवान का उद्देश्य पूरा कर सकता है। हमारे मन में केवल कर्मकाण्ड की क्रिया समझ में आए और उद्देश्य समझ में आए तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। तब हम अपने लक्ष्य तक पहुँच पाएँगे कि नहीं यह कहना मुश्किल है।
भावनाओं का परिष्कार—अध्यात्म
इसलिए मित्रो! मेरे गुरुदेव ने मुझे बताया कि आध्यात्मिकता के सहारे, पूजा के सहारे, गायत्री महामंत्र के सहारे हमें अपने आप का, अपनी जीवात्मा का विकास करना चाहिए और अपनी विचारणाओं, अपनी भावनाओं का परिष्कार करना चाहिए। भावनाओं और विचारणाओं का परिष्कार जहाँ कहीं भी जिन व्यक्तियों ने शुरू किया। छोटे-से, नगण्य-से, गरीब-से मामूली आदमी महानतम व्यक्ति होते हुए चले गए। भगवान का अनुग्रह, कृपा और वरदान प्राप्त करने के लिए उन्हें इंतजार नहीं करना पड़ा। उन्होंने वह सब कुछ प्राप्त किया, जिसकी मामूली आदमी ख्वाब में कल्पना भी नहीं कर सकता।
ऐसी चीजों का हकदार आप में से हर आदमी बन सकता है। अगर आप लोगों को यह ख्याल आए कि आप लोगों को अपना मन, आपको अपनी नीयत, आपको अपना चाल-चलन, आपको अपनी रीति-नीति और आपको अपनी जिंदगी की गिरी हुई स्थिति को ठीक कर लेना चाहिए। इतनी छोटी-सी बात अगर आपकी समझ में आ जाए, तो मजा आ जाए। आपको भगवान का प्यार और भगवान की कृपा मिलती हुई चली जाए।
भगवान की निधि
मित्रो! इसी तरीके से निधि भी है। निधि पाने के लिए भगवान की कृपा और भगवान की दया और भगवान की मुहब्बत सुरक्षित रखी हुई है। भगवान बहुत देर से इस इंतजार में बैठा हुआ है कि कोई तो आदमी हो, जिसको कि मेरी मुहब्बत पाने का हक है। कोई तो आदमी हो, जिसको कि मैं अपना प्यार दूँ। कोई तो आदमी हो, जिसको कि मैं अपनी सहायता दूँ।
भगवान ने यही भरोसा किया है और उन्होंने बहुत तरह की बहुतों को सहायता दी है। अर्जुन को उन्होंने कहा—"अर्जुन दुनिया में बुराइयाँ बहुत फैली हैं। बुराइयों का मुकाबला करने के लिए अपने आप को जोखिम में डालना चाहिए और दुनिया में से बुराई को दूर करना चाहिए।" अर्जुन ने कहा—"मुझे आप क्यों झगड़े में फँसाते हैं। इस काम को आप, किसी और को सौंप दीजिए और मुझे तो आप पूजा करने की बात बता दीजिए, जो दुनिया में सबसे सुगम काम है। इससे सुगम काम कोई और नहीं है। यह सबसे सस्ता और सबसे सरल काम है। कारोबार चलाना हो तो आपको अकल की जरूरत है। धागा टूटे नहीं और सूत खराब न हो जाए और कपड़ा खराब न हो जाए, बिक्री अच्छी हो, तभी फायदा मिलेगा और माला घुमानी हो तो खट-खट घुमाते रहिए। स्पीड का ध्यान रखना। खट् खट् माला घुमा दीजिए। सबसे सस्ता और सबसे सरल और सबसे हलका काम है भगवान का।"
लेकिन मित्रो! अर्जुन ने कहा—"यह माला जैसा सस्ता काम दे दीजिए हमको 56 लाख आदमी गंगा जी पर बैठे रहते हैं और सटक-सटक माला घुमाते रहते हैं। बस, यही काम मैं कर लूँगा, तो भी मेरा काम बन जाएगा। आप झगड़े में मुझे मत फँसाइए।" भगवान ने कहा—"अर्जुन! तुझे झगड़े में फँसना ही पड़ेगा; क्योंकि मैं जब भी दुनिया में अवतार लेता हूँ, तब मेरे अवतार लेने के दो उद्देश्य हैं—एक उद्देश्य है-"धर्मसंस्थापनार्थाय" और दूसरा है—"परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम"। धर्म की स्थापना और दुष्टों का विनाश। मैं कभी भी कहीं भी आऊँगा तो इन दो कामों के लिए ही स्वयं आऊँगा और कोई भी मेरा मकसद नहीं। अगर मैं मनुष्य के भीतर कभी आऊँगा, तो इन्हीं दो कामों के लिए आऊँगा, तीसरा कोई मकसद नहीं है मेरे आने का। जब मैं आऊँगा तो सभी को इस काम में लगाऊँगा। धर्म की स्थापना करने के लिए जो व्यक्ति अपने स्वार्थ को भुला दे और अपनी सारी शक्ति को खरच कर डाले—वह आदमी पाप, अन्याय और बुराइयों को दूर करने के लिए अपनी शक्तियाँ खरच कर डाले। ऐसा तुम्हें भी करना चाहिए।
मित्रो! अर्जुन ने भगवान की बात को मंजूर कर लिया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—"अपना गांडीव उठा और तीर चला। बाकी सब काम में कर लूँगा।" अर्जुन ने कहा—मैं थक गया तब?" श्रीकृष्ण ने कहा—"मैं तुझे थकने नहीं दूँगा।" "मैं रास्ता भूल गया तब" तब उन्होंने कहा—"मैं तेरे घोड़े चलाऊँगा।" भगवान आगे-आगे रथ चलाते हुए चले गए और अर्जुन गाण्डीव से तीर चलाता रहा। गाण्डीव चलाने वाला अर्जुन, जो कि भगवान का काम करने को कटिबद्ध हुआ, भगवान की सहायता करने का अधिकारी हुआ।
धर्म की स्थापना, अधर्म का नाश
यह तो पुराने जमाने की बात हुई। भगवान की आज्ञानुसार गौतम बुद्ध, पूजा-पाठ करते हुए उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि आपका प्यार पाने के लिए मुझे क्या करना होगा। अपने जीवन में क्या काम करना होगा। उन्होंने कहा—"एक धर्म की स्थापना और एक पाप का विनाश। इसलिए तुम धर्म की स्थापना करो।" लोगों से कहा—"बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि।" समाज में संघबद्ध रहो और विवेक बुद्धि की, अकल की सहायता से अज्ञान और अनाचार, अवसाद और छोटापन, परंपराओं और मान्यताओं, इनके पीछे भागने वाली दुनिया को रोको और कहो—बुद्धं शरणं गच्छामि—बुद्धि की शरण में जाऊँगा, विवेक की शरण में जाऊँगा। विवेक के अतिरिक्त अन्य सबको निस्तारित कर दूँगा। उन्होंने कहा—सब संघबद्ध हो जाओ। इकट्ठे हो जाओ।
मित्रो! बुद्ध ने भगवान की आज्ञा मानी! "बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि और संघ शरणं गच्छामि" का संदेश लेकर भगवान बुद्ध चले गए और वैदिक हिंसा, तामसी और अंध परंपरा जो देश में फैली हुई थी, उसके लिए उन्होंने धर्मगत संघर्ष किया।
उस जमाने का महान क्रांतिकारी बुद्ध अकेला था और जंगल में बैठा हुआ था। भगवान से उसने कहा आपने मुझे इतना बड़ा काम सौंपा, मैं किस तरीके से काम करूँगा? मेरे पास रुपया-पैसा कहाँ हैं और मेरे पास साधन कहाँ हैं? भगवान ने कहा—चल आगे-आगे और मैं आया रुपया ले करके और मित्रो! वे आए, सम्राट अशोक आए। उन्होंने कहा—आप हैं जो भगवान का काम करने के लिए बैठे हैं। उन्होंने कहा—हाँ, भगवान की आज्ञानुसार, भगवान की इच्छानुसार मैंने अपने जीवन को हथेली पर रखा और अपनी सारी-की-सारी बागडोर भगवान के सुपुर्द कर दी। सम्राट ने कहा—फिर आपको सामान, साधनों की जरूरत होगी। उन्होंने कहा—हाँ, मुझे पैसा चाहिए, साधन चाहिए। अशोक ने कहा—भगवान का सारा साधन आपके चरणों पर स्थापित है। सारी-की-सारी चीजें, धन और दौलत उनके पास आ गई। बुद्ध भगवान ने ढाई लाख शिष्यों के माध्यम से समूचे एशिया और सारे विश्व में क्रांति की लहर फैलाई और भगवान स्वयं अशोक के रूप में उनकी सहायता कर रहे थे।
भगवान का सहयोग
मित्रो! एक बार देवता और असुर मिलकर समुद्र मंथन करने लगे। उनसे भगवान ने इच्छा और आज्ञा की कि पुरुषार्थ किया जाना चाहिए और इस विश्व-वसुधा में जो अमूल्य रत्न भरे पड़े हैं, उनको निकाला जाना चाहिए। देवताओं ने कहा-हम हार जाएँगे और असुरों ने कहा हम हार जाएँगे। भगवान ने कहा—मैं तो जिंदा हूँ, तुम्हें हारने नहीं दूँगा। समुमंथन होने लगा। मंदराचल पर्वत समुद्र के नीचे तलहटी में चलने लगा। देवता चिल्लाए—महाराज! जिस मंदराचल से हम मथानी का काम ले रहे हैं, वह तो अब डूबा और हमारा काम फेल हुआ। कच्छप का रूप बना करके भगवान आए और मंदराचल को अपनी पीठ पर उठा लिया। समुद्रमन्थन होता रहा और समुद्र से रत्न निकाले जाते रहे।
मित्रो! शंकराचार्य भगवान का कार्य करने के लिए रवाना हुए और उनकी दिग्विजय की यात्रा बाधित हो गई। वे बीमार हो गए। शंकराचार्य ने कहा—भगवन्! मैं बीमार हूँ। मैं बाईस साल का छोकरा हूँ और देखिए मुझे भगंदर का फोड़ा है। मैं बहुत छोटा हूँ और बीमार हूँ। आपका काम कैसे करूँगा? सम्राट मान्धाता उनके पास आए। उन्होंने कहा शंकराचार्य! आप शंकर दिग्विजय करने के लिए विश्व में जा रहे हैं। उन्होंने कहा—हाँ! जा रहा है। तब राजा ने कहा—आप मेरी सेना ले जाइए और मेरे रथ और सैनिक ले जाइए। आपसे शास्त्रार्थ में जो कोई मुकाबला करे, जो ज्ञान से आपका मुकाबला करे तो आप कीजिए और जो बल से मुकाबला करे, ताकत से धमकाना चाहे तो मेरे सैनिक उसकी अकल ठिकाने लगा देंगे। राजा मान्धाता की करोड़ों की सेना और भरा खजाना आ गया शंकराचार्य की मदद के लिए।
मित्रो! मैं गाँधी जी की बात कहूँगा, जो अभी-अभी की बात है। कैसे भगवान की सहायता मनुष्य के ऊपर बरसती हुई चली गई और चली जाती रहेगी। जापान में एक छोटा-सा छोकरा था। उसके मन में आया कि कमाते खाते तो सभी हैं। धनवान, सुखी रहने की तमन्ना तो सभी के जी में है। मुझे एल.डी.सी., यू.डी.सी. बनने की अपेक्षा कुछ बेहतरीन काम करना चाहिए। मनुष्य का जीवन कुछ बेहतरीन कामों के लिए मिला है। इसलिए मुझे उन्हीं कामों में अपनी जिंदगी को लगा देना चाहिए।
जापान के गाँधी कागावा के जी में यह बात आई। जिस तरह से महात्मा गाँधी की तसवीरें अपने यहाँ हर जगह रहती हैं। सभी महात्मा गाँधी की जय बोलते हैं, सारा-का जापान भी एक ही आदमी की जय बोलता है और उस आदमी का नाम है—कागावा। एक छोटा-सा विद्यार्थी, जिसके माँ-बाप मर चुके थे। अकेला बच्चा रह गया था। क्या करना चाहिए? हमारे आपके जैसा आदमी होता तो यह ख्याल करता, यह ख्वाब देखता कि ब्याह कर लेना चाहिए। बच्चे पैदा करना चाहिए और नौकरी करनी चाहिए। अच्छा घर लेना चाहिए और सिनेमा देखना चाहिए। बीबी के लिए जेवर बनाने चाहिए। इन्हीं ख्वाहिशों में सारी-की-सारी जिंदगी खतम हो जाती।
मित्रो! अगर हमारे आपके जैसा घटिया आदमी जापान का गाँधी कागावा होता तो? पर कागावा की तमन्नाएँ वो थीं, जो आध्यात्मिक मनुष्यों की होनी चाहिए। उन्होंने कहा मुझे जापान की सेवा करने के लिए भगवान ने भेजा है, मैं सेवा करूँगा। वह गाँव-गाँव गया, मुहल्ले-मुहल्ले गया। जहाँ कहीं भी गंदगी देखी, जहाँ कहीं भी कोढ़ी और गंदे लोग देखे, जहाँ कहीं शराबी, गरीब, गंदे लोग रहते थे, रोज खून-खच्चर होते थे। गाली-गलौज होते थे। जहाँ सारे-के-सारे लोग नरक में डूबे पड़े थे। जापान के गाँधी कागावा वहाँ गए और उस मुहल्ले में अपनी झोपड़ी बना ली। उन्हीं दरिद्र लोगों के बीच रहने लगे।
(क्रमशः)
(गतांक से आगे)
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अपने इस महत्त्वपूर्ण उद्बोधन में सभी साधकों को संबोधित करते हुए उन्हें यह बताते हैं कि अध्यात्म का सही अर्थ अपनी भावनाओं, चिंतन, दृष्टिकोण एवं अंतरंग का परिष्कार करना है। वे कहते हैं कि पूजा, अर्चना के क्रम में हम जिन क्रियाकलापों को करते हैं, वे क्रियाकलाप भी वस्तुस्थिति में एक महत्त्वपूर्ण भावनात्मक परिवर्द्धन की ओर इशारा करते हैं। पुष्प अर्पण, चंदन अर्पण, दीप प्रज्ज्वलन, मिष्टान्न अर्पण जैसे अनेक कर्मकाण्डों का उदाहरण देते हुए परमपूज्य गुरुदेव उनकी लौकिक गतिविधियों के पीछे सन्निहित मर्म से श्रोताओं को अवगत कराते हैं। इसके साथ ही वे बताते हैं कि जब हम अध्यात्म के पथ का सही अर्थों में अनुपालन करते हैं तो भगवान की निधि और भगवान का सहयोग हमें किस रूप में प्राप्त होते हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......
संत और ऋषि का स्तर
मित्रो! जीवात्मा और परमात्मा के एक में शामिल होने के लिए हमको गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा और भावना की भूमिका में प्रवेश करना पड़ेगा। चेतना की भूमिका में प्रवेश करना पड़ेगा। भावना की भूमिका में प्रवेश करने की आप में हिम्मत नहीं थी। आपने अपने बहिरंग क्रियाकलापों को अपने जीवन के लिए काफी मान लिया और आपने यह बात जान ली कि हमने जो कुछ भी शरीर से कर लिया, वह काफी हो गया। जबान की नोंक से जो जप कर लिया, वह काफी हो गया। पुस्तक को हमने पढ़ लिया, वह काफी हो गया। नाक से पानी पी लिया, कान से घंटी बजने की आवाज को सुन लिया, वह काफी हो गया।
तो मित्रो! मैं आपको बालक कहूँगा, बच्चा कहूँगा और गैरजानकार, नासमझ कहूँगा। क्या आप इन सारे-के-सारे क्रियाकलापों को यह मानते हैं कि हमारी जीवात्मा का स्तर ऊँचा हो गया और लक्ष्य पूरा हो गया। वह सब हो गया, जो संत का होना चाहिए था। एक ऋषि का होना चाहिए था।
मित्रो! संत और ऋषि का स्तर बढ़ाने के लिए आपको अपने अहं को ठीक करना पड़ेगा, सुधारना पड़ेगा। अगर आपका अहं काबू में नहीं आया, तो आपके सारे-के-सारे कार्य—जैसे एक टाँग पर खड़े रहना; पानी में बैठे रहना; धूनी तापते रहना; एकादशी का उपवास करने का मतलब कुछ है ही नहीं, आप सही मान लीजिए। फिर और कोई मतलब नहीं है, अगर आपने दूसरी वाली मंजिल पूरी न की। साधन काम के लिए किए जाते हैं। साध्य अलग होता है। साधना का महत्त्व अपने आप में होगा।
मैं यह कैसे कहूँ कि साधना का महत्त्व नहीं है, लेकिन साध्य अलग चीज है। साध्य वह है, जो हमारी जीवात्मा के स्तर को सही करता है। ठीक बनाता है और हमारी अहंता का निराकरण करता है। हमारी अहंता का जब निराकरण हो जाता है, तब हम योगी हो जाते हैं। हमने अपने आप को भगवान से जोड़ लिया। जोड़ने के लिए पूजा-पाठ, स्तोत्र की विधियाँ अपने आप में उपयोगी होंगी। कैसे उपयोगी नहीं होंगी? मैं तो सिखाता रहता हूँ कि ये उपयोगी हैं, पर पूर्ण नहीं हैं, समग्र नहीं हैं।
मित्रो! निवेदन मैं यह कर रहा था कि हमको मूलतः चेतनास्तर तक प्रवेश करना पड़ेगा। अगर चेतना के स्तर तक हमारा प्रवेश न हो सका, तो बात कुछ बनने वाली नहीं है। हमारी अहंता को हलका पड़ना चाहिए और ढीला पड़ना चाहिए। हमारी अहंता कम होनी चाहिए और मैं का भाव हट करके हम में प्रवेश होना चाहिए।
गायत्री मंत्र का न्यूक्लियस
गायत्री मंत्र की सबसे बड़ी विशेषता, जो मुझे मालूम पड़ी; सारे-का-सारे जादू जो उसका मालूम पड़ा; उसकी सारी-की-सारी दिशाएँ मालूम पड़ीं; प्रेरणाएँ मालूम पड़ी। जो प्रकाश मुझे गायत्री के अंदर मालूम पड़ा, उससे मैं धन्य हो गया। मुझे यह मालूम पड़ा कि इसका प्राण कहाँ है? इसका न्यूक्लियस कहाँ है? गायत्री का केंद्र कहाँ है? केंद्र को मैंने सारे में तलाश किया। जो जर्रा होता है, एटम होता है, हमारे जीवाणु होते हैं। हमारे जीवाणु का एक बीच वाला भाग होता है, जिसको हम ध्रुवकेन्द्र कहते हैं; न्यूक्लियस कहते हैं; नाभिक कहते हैं।
गायत्री का नाभिक कहाँ है? नाभिक को, न्यूक्लियस को तलाश किया तो मुझे यह मालूम हुआ कि 'धियो यो नः' जो शब्द है, इसका न्यूक्लियस ही है। मैं नहीं 'हम...हम'। हमारा मैं जितना ढीला होता चला जाता है, जितना हलका होता हुआ चला जाता है। हमारी अहंता जितनी कम होती चली जाती है और हमारी व्यापकता जितनी विस्तृत होती चली जाती है, हमारा दायरा बढ़ता हुआ चला जाता है।
मित्रो! हम छोटे से दायरे के लिए नहीं हैं। थोड़े से लोगों के लिए नहीं हैं। हम शरीर तक सीमित नहीं हैं। हमारे कुटुंब के लोगों तक, उनकी खुशहाली तक हमारे स्वार्थ सीमित नहीं हैं। हमारे स्वार्थ सारे विश्व तक व्यापक हो गए हैं। प्रत्येक मानव तक व्यापक हो गए हैं। हमारे स्वार्थ धर्म तक व्यापक हो गए हैं, संस्कृति तक व्यापक हो गए हैं। अध्यात्म तक व्यापक हो गए हैं। आस्तिकवाद तक व्यापक हो गए हैं।
मानवीय पीड़ा हमारी पीड़ा है। मानवीय सुख और शांति हमारी सुख और शांति है। इसलिए हमारे स्वार्थ स्वयं के लिए हैं और हमें अपनी रोजी-रोटी कमानी चाहिए, कपड़ा पहनना चाहिए। यही दरद, यही इच्छा जब विस्तृत और व्यापक होकर के इतनी असीम हो जाती है कि जो खुराक हमको जरूरी है, वह सबको मिलनी चाहिए। पैसे की जो जरूरत हमको है, वह सबको मिलनी चाहिए और यही विद्या जो हमको जरूरी है, सबको मिलनी चाहिए। यही सुख जो हमको जरूरी है, सबको मिलना चाहिए।
प्रतिध्वनि है भगवान
मित्रो! जब ये भावनाएँ हमारे भीतर आ जाती हैं, तो हम योगी हो जाते हैं और भगवान से जुड़ जाते हैं। भावनाओं की यही प्रतिक्रिया लौट करके हमारे पास आ जाती है और हम भगवान हो जाते हैं। भगवान क्या है? भगवान, मित्रो! प्रतिध्वनि है और प्रतिच्छाया है। भगवान और कुछ नहीं है, वह प्रतिध्वनि और प्रतिच्छाया है। जैसे हमारे विचार होते हैं, जैसी हमारी भावना होती है, उसी की प्रतिक्रिया, प्रतिध्वनि गूँज करके हमारे पास आ जाती है।
भगवान के जवाब ठीक वही होते हैं, जो हमारे जवाब होते हैं। भगवान से जब हम यह कहते हैं कि अमुक चीज चाहिए, अमुक चीज चाहिए। निकालिए, हमें बेटा दीजिए, लाइए हमको पैसा दीजिए। लाइए हमको ये दीजिए, लाइए हमको वो दीजिए। लाइए हमारी नौकरी में तरक्की कराइए। लाइए हमारी बीमारी अच्छी कीजिए। ये सारी-की-सारी बातें जो हम कहते हैं, ठीक उसी की प्रतिध्वनि इस अंतरिक्ष में से हो करके हमारे पास चली आती है और हमसे यह पूछती है कि लाइए, आपके पास पैसा कहाँ है, हमको दीजिए। आपके पास शरीर-श्रम कहाँ है, हमको दीजिए। आपके पास नौकरी में तरक्की कहाँ है? नहीं साहब! हमारी नौकरी में तरक्की कराइए। हमको संतान की जरूरत है और वह भगवान की संतान जैसी होनी चाहिए। लाइए हमको संतान दीजिए।
मित्रो! यह कौन कहता है? भगवान कहता है। किससे कहता है? उस माँगने वाले से कहता है। माँगने वाले में जद्दोजहद बराबर बनी रहती है और ऐसी बनी रहती है, जैसी कि दाराशिकोह और उसके भाई में बनी रहती थी। दारा और उसका भाई, दोनों ही यही कहते थे कि हमको उम्र चाहिए और राज्य चाहिए। दोनों भाइयों में जद्दोजहद होने लगी और लड़ाई होने लगी। दोनों की लड़ाई में बड़े भाई ने छोटे भाई का सिर कटवा दिया और सिर कटवा करके थाली में रखकर मँगवा लिया।
हम और हमारा भगवान दाराशिकोह और औरंगजेब हैं और दोनों बैठे हैं कि राज्य हमको चाहिए और दौलत हमको चाहिए। हम कहते हैं कि दौलत हमको चाहिए और भगवान कहता है कि तेरी दौलत हमको चाहिए। तेरे पास क्या है, निकाल और हम कहते हैं कि तेरी दौलत कहाँ है, निकाल, दे हमको। भगवान कहता है कि निकाल तेरे पास कहाँ है। हम दोनों अपने-अपने चाकू लिए हुए हैं, तलवार लिए हुए हैं। छुरे लिए हुए बैठे हैं। कब किसका सिर काट डालें और कब किसका खात्मा कर डालें।
प्रतिध्वनि बदले तो प्रतिक्रिया बदले
लेकिन मित्रो! जब यह प्रतिध्वनि, यह प्रतिक्रिया बदल जाती है, उस क्षण जब हम भगवान से यह कहते हैं कि हमारी सारी चीजें तुम्हारी हैं। हमारा शरीर तुम्हारा है। हमारी अकल तुम्हारी है। हमारी भावना तुम्हारी है और हमारा धन तुम्हारा है। हमारा सब कुछ तुम्हारा है। हमारे पास जो कुछ भी है, सब तुम्हारा है और तुम्हारे लिए है। यह विचार जिस क्षण हमारे मन में आ जाता है, तो हमारी लड़ाई का मोर्चा बदल जाता है और हमारी लड़ाई के लड़ने वाले शूरवीरों की शकलें बदल जाती हैं। हमारी लड़ाई के लड़ने वाले शूरवीर राम और भरत जैसे हो जाते हैं।
रामचंद्र जी कहते थे कि भरत गद्दी तेरे लिए है। तुझे लेनी चाहिए। गद्दी पर तुझे बैठना चाहिए। मैं बड़ा हूँ। मैं तो जंगल में अभी रहूँगा। तू छोटा बच्चा, छोटा भाई है और तुझे ही गद्दी पर बैठना चाहिए। तू गद्दी पर बैठ। भरत कहते थे कि आप बड़े भाई और आप पिता के तुल्य हैं, आपको ही गद्दी पर बैठना चाहिए। मैं तो आपका सेवक हूँ, मैं क्यों बैठूँगा। दोनों में खूब बहस हुई। फिर जीता कौन? धर्म जीता और योग जीता और हारा कौन? 'मैं' हार गया, 'अहं' हार गया। रामचंद्र जी वनवास को चले गए और भरत जी नंदीग्राम में जा करके उसी तरह साधुओं जैसा लिबास पहनकर जमीन पर सोने लगे और राम की तरह वनवासी जीवन जीने लगे। अयोध्या के सिंहासन पर रामजी के खड़ाऊँ रख करके राजपाट चलाने लगे।
मित्रो! यह क्या हो गया? राम और भरत की कथा हम पढ़ते हैं, सुनते हैं। राम और भरत का चित्रकूट में मिलन हम पढ़ते हैं। छाती-से मिलाकर जब हम मिलते हैं, तो कितना आनंद आता है। सारी रामायण एक ओर और राम-भरत का मिलन एक ओर। जब गहराई से इसको पढ़ते हैं तो हमको ऐसा आनंद आता है और मालूम पड़ता है कि आध्यात्मिकता का सार, रामायण का सारा-का-सारा सार उसी में रखा है। यह रामायण का न्यूक्लियस वहाँ है, केंद्र वहाँ है; नाभिक वहाँ है, जहाँ राम और भरत छाती-से मिलाकर मिलते हैं। ऐसा आनंद और कहीं नहीं आता।
योग की सच्ची व्याख्या
बार-बार मन करता है कि रामायण के प्रसंगों को पढ़ना चाहिए। यह क्या हो रहा है? यह मैं योग की व्याख्या कर रहा हूँ। आप जिस उद्देश्य के लिए, जिस उद्देश्य को पूरा करने के लिए यहाँ आए हैं; उस उद्देश्य का नाम है योग। हमने आपको योग सिखाने के लिए बुलाया है। आपने तो समाज की सेवा करना बता दिया और यज्ञ करना बता दिया। आपने योग करना कहाँ बताया? आप यकीन रखना, मैंने सचमुच योग बताया है। झूठ वाले योग बताने वालों में से मैं नहीं हूँ, ताकि मैं आपको तरह-तरह के खेल-खिलौने हथेली पर दे करके यह कहूँ कि देख बेटा, चंद्रमा मँगा दिया। मुझे लक्ष्मी जी मँगवा दीजिए। अच्छा बेटा! मैं तुझे लक्ष्मी जी दूँगा।
तो गुरुजी! कब देंगे? कल सवेरे दे दूँगा। आज शाम को लक्ष्मी जी को मँगा लूँगा और वह सवेरे ही आ गया, लाइए लक्ष्मी जी दे दीजिए। हाँ बेटे! ले लक्ष्मी जी। लक्ष्मी जी किसकी बनी हैं? दोनों तरफ हाथी बैठे हैं और बीच में लक्ष्मी जी बैठी हैं। दोनों हाथी लक्ष्मी जी के ऊपर पानी चढ़ा रहे हैं। लक्ष्मी जी कमल के फूल के ऊपर बैठी हैं। ले बेटा, ले जा लक्ष्मी जी को। दो आने की खरीद करके लाए हैं, ले जा।
गुरुजी! ये कैसी लक्ष्मी जी हैं। ये तो बिरला के बराबर भी धनवान नहीं बना सकीं और टाटा के बराबर भी नहीं और मफतलाल के बराबर भी नहीं बना सकीं। ये कैसी लक्ष्मी जी हैं? बेटे! जैसी तैने माँगी थी, वैसी लक्ष्मी जी मैंने दे दी। नहीं साहब! हमको असली लक्ष्मी दीजिए और हमको बिरला, टाटा तो बना ही दीजिए। आपने यह क्या दे दिया। बेटे! यह बच्चों का खिलौना है। तू भी तो खिलौना ही माँग रहा था, सो मैंने तेरे हाथ में खिलौना थमा दिया। नहीं गुरुजी! हमको तो योग बता दीजिए। देख बेटा, अभी बताते हैं। नाक बंद कर, खोल, लंबा-लंबा श्वास ले—निकाल, बस, योग आ गया। नहीं बेटे, यह तो योग नहीं हुआ।
मित्रो! योग ऐसे नहीं बनता है। नाक में कहीं योग रखा है। नहीं साहब। हवा खींचूँगा और निकालूँगा। बिलकुल पागल आदमी है। नाक की हवा में कहाँ है योग? नाक में तो कफ भरा पड़ा है। नहीं साहब! मैं तो नाक से योग करूँगा। बेटे! नाक में योग नहीं है। तो फिर कहाँ है? योग, मित्रो! भावनाओं में है। विचारणाओं में है। भावनाओं का और विचारणाओं का परिष्कार करना वास्तव में, असल में यही योग है। आपको जब कभी भी यह बात समझ में आ जाए, चाहे आज आए, चाहे हजारों वर्ष बाद आए।
मनुष्य और भगवान का मिलन है योग
योग का मतलब कभी भी आपको जानना पड़े, समझना पड़े तो एक ही दिशा आपको मालूम पड़ेगी और एक ही बात आपको मालूम पड़ेगी कि योग का अर्थ दो तत्त्वों का जुड़ना है। अर्थात चेतन तत्त्वों का जुड़ना, एकाकार होना। जड़ चीजों की तो मैं नहीं कहता। जड़ चीजों की तो एक की भी अलग हस्ती बनी रहती है, पर चेतन जब कभी भी मिलेगा, तो वे दोनों एक हो जाएँगे। एकदूसरे में विलय हो जाएँगे। फिर दोनों की हस्ती कभी अलग रह ही नहीं सकती। हाइड्रोजन गैस और ऑक्सीजन गैस जब कभी भी आपस में मिलेंगी, तो पानी बन जाएँगी और दोनों की शकल बदल जाएगी। कुछ और ही बन जाएगी।
मित्रो! मनुष्य और भगवान जब कभी भी मिलेगा, तो मनुष्य, मनुष्य रह ही नहीं सकता। फिर मनुष्य और भगवान दोनों जब मिल जाएँगे तो हम पानी बन जाएँगे। देवता बन जाएँगे और हम संत बन जाएँगे, ब्राह्मण बन जाएँगे। इससे कम में हमारा गुजारा हो ही नहीं सकता। इससे कम हमारी हस्ती रह ही नहीं सकती। भक्त और भगवान दो अलग रह ही नहीं सकते।
मित्रो! मैं योग की बात कह रहा है। चेतन चीजों को जब आप मिला देंगे, तो वे फिर किस तरीके से अलग रह जाएँगी। गंगाजल और यमुनाजल मिला दीजिए, दोनों एक ही हैसियत के हो गए। क्यों? क्योंकि आपने दोनों को मिला दिया। अब आप अलग कर दीजिए न गंगाजल और यमुना जल को। कहाँ अलग हो सकते हैं। आपने उन्हें मिला जो दिया। अब वे अलग नहीं हो सकते। दोनों एक हो गए। भगवान के साथ जब जीवात्मा मिल जाएगी, तो फिर दोनों एक हो जाएँगे। दो अलग रह ही नहीं सकते। योग करने की शिक्षा इसीलिए मैं आपको दे रहा था।
मनोवृत्ति से तय होते हैं योगी या भोगी
मित्रो! आपको न केवल भावनाओं की दृष्टि से, बल्कि क्रियाओं की दृष्टि से भी असल में योगी होना चाहिए। इसीलिए मैं आपको योगी बनाना चाह रहा हूँ। मेरा असली लक्ष्य आपको योगी बनाना है। योगी बनने के लिए आपको अपनी भूमिका भोगी से हटा देनी पड़ेगी; क्योंकि योगी और भोगी दोनों एकदूसरे की भिन्न दशाएँ हैं। भोगी वह है, जो माँगता रहता है और चाहता रहता है। जरूरतमंद बनना चाहता है; मालदार बनना चाहता है और संपन्न बनना चाहता है; अमीर बनना चाहता है। उस आदमी का नाम क्या है—भोगी है।
भोगी से भिन्न प्रकार का स्तर जो है, वह क्या है? उसका नाम योगी है। योगी भगवान के लिए समर्पित होता है और भोगी भगवान को अपने लिए समर्पित कराना चाहता है। वह भगवान से तरह-तरह की ख्वाहिशें और तरह-तरह की फरमाइशें पेश करता रहता है। भगवान के पास कोई बल है, शक्ति है और ताकत है, सो अपने लिए माँगता रहता है। उसका नाम भोगी है। योगी उस आदमी का नाम है, जो माँगता नहीं है, बल्कि भगवान से यह कहता है कि हमारे पास जो चीजें हैं, सो हम आपको सब देंगे। यह चीजें आपकी हैं। बस, मूलत: मनोवृत्ति में इतना फरक है।
मित्रो! वास्तव में एक मनोवृत्ति का नाम योग है और दूसरी मनोवृत्ति का नाम ही भोग है। अन्यथा जिंदा तो आपको भी रहना पड़ता है और हमको भी रहना पड़ता है। योगी को भी रहना है और संत को भी रहना पड़ता है। अनाज तो आप भी खाते हैं। अनाज तो संत भी खाते हैं। कपड़ा आप भी पहनते हैं। संत छाल पहनता है, कंबल पहनता है और मृगछाला पहनता है। शरीर को वह भी ढकता है। शरीर को ढके बिना किसका काम चला है? किसी का भी नहीं चला है। खाए बिना न आपका काम चलता है और न उनका काम चला है।
शरीर-निर्वाह की क्रियाएँ तो मित्रो! एक-सी ही होती हैं। क्या योगी की, क्या भोगी की। सबको अपना पेट भरना पड़ता है। ठीक है आपने गेहूँ से भर लिया, योगी ने मक्का से भर लिया, पर अन्न तो उसको भी लेना पड़ा न। शरीर का निर्वाह करने के लिए सोना आपको पड़ता है और संत को भी सोना पड़ता है। आप पलंग पर सो जाते हैं और वह जमीन पर पत्ते-घास बिछाकर सो जाता है। बात तो एक ही हो गई न। उनमें और आप में फरक कहाँ रहा। जीवन निर्वाह करने की क्रिया और जीवनयापन करने में योगी और भोगी में कुछ खास फरक नहीं होता। विचार करने की शैली में फरक होता है। सोचने के तरीके में फरक होता है। आदमी सोचता है कि भगवान का नाम ले करके, पूजा करके वह हमारे वश में आ जाएगा; हमारे काबू में आ जाएगा, बेटे! यह उसका अज्ञान है।
मित्रो! मैं आपसे यह कह रहा था? मैं आपको योगी बना रहा था और यह कह रहा था कि आप अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा को कम कर दीजिए और यह करना शुरू कर दीजिए कि हमको हमारा शरीर मिला है तो शरीर का निर्वाह करने के लिए हम परिश्रम करेंगे। अपनी कमाई से ही हम अपना पेट भरेंगे।
यह हमारा ऑटोमेटिक शरीर है। हमको किसी से माँगने की, किसी के आगे हाथ पसारने की जरूरत क्या है। हमको भगवान ने हाथ दिए हैं, कलाइयाँ दी हैं। हम जमीन में लात मारेंगे और पानी निकाल लेंगे। अपनी कलाइयों से मेहनत करेंगे और रोटी खा लेंगे। शरीर-निर्वाह के लिए आप के ऊपर यह एक छोटे से बगीचे की जिम्मेदारी दी है। इसके लिए आपको अपने फ़र्जों को पूरा करना चाहिए। कुटुंब, परिवार जो भी है, उसको शिक्षित बनाना आपका काम है। उसको संस्कारवान बनाना, स्वावलंबी बनाना आपका काम है, बस, उससे आगे नहीं। उससे आगे जो भी कदम आप उठाएँगे, तो परिवार के साथ अत्याचार कर रहे होंगे। इन लोगों को खुश करने के लिए, उनकी इच्छानुसार चलने के लिए अगर आपने कदम बढ़ाए, तो मित्रो! आपकी दुर्गति होना सुनिश्चित है।
मित्रो! आप सबको खुश नहीं रख सकते। तो फिर किसे खुश करना चाहिए? एक भगवान को खुश करना चाहिए और एक अपनी अंतरात्मा को खुश करना चाहिए। इन दो के अलावा किसी तीसरे को खुश करने की जरूरत नहीं है। आप इन दो को खुश कीजिए; क्योंकि आगे जो आपको राह पार करनी है वह अपनी जीवात्मा के सहारे पार करनी है। मिलाना तो इन दोनों को ही है ना दुनियावालों को नहीं मिलाना है. मित्रो। इसीलिए मैंने आपको योगी बनाने के लिए बुलाया है, ताकि अपने आप को आप भगवान में समर्पित कर दें। उसके लिए क्या करना पड़ेगा? वही, जो मैंने आपसे पहले कहा और फिर कहता हुआ चला जाऊँगा कि आप अपने आप की सफाई कीजिए। अपने मन की मलीनताओं की सफाई कीजिए। मन की मलीनताओं की सफाई का मतलब साबुन से साफ करना नहीं है। नेति, धोति और गंगा जी में नहाना नहीं है, वरन वे कषाय-कल्मष जो आपके ऊपर लोभ के रूप में, मोह के रूप में, वासना-तृष्णाओं के रूप में हावी हो गए हैं. सवार हो गए हैं; आपको उन्हीं की सफाई करनी है और किसी की सफाई नहीं करनी है।
मित्रो! शरीर के धोने, न धोने से भगवान नाराज नहीं हो सकते। भगवान जी जब कभी भी आपसे नाराज होंगे और जब कभी भी नाखुश होंगे, जब आपके मन के ऊपर मलीनताएँ छाई रहेंगी। योग इसी आत्मशोधन का, आत्मपरिष्कार का नाम है। मैंने आपको यही सिखाया कि आपको योगी बनना चाहिए और वह योगाभ्यास करना चाहिए, जिसमें कि आपकी अहंता, जिसमें आपकी स्वार्थपरता, जिसमें आपके लोभ का निराकरण होता हो, समाधान होता हो। इसके लिए जो कर्मकाण्ड बताए, आत्मशोधन की प्रक्रियाएँ बताई, आत्मविस्तार की प्रक्रियाएँ बताई, वो सारा-का-सारा योगाभ्यास ही है और यह भावनात्मक योग है। आपको इसी को सीखना और जीवन में धारण करना है।
आज की बात समाप्त।
॥ॐशान्तिः॥