उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
गायत्री की पंचकोशी साधना
(प्रथम किस्त)
परमपूज्य गुरुदेव का जीवन साधनात्मक जीवन जीने वालों के लिए एक उच्चतम आदर्श के रूप में है। न केवल उन्होंने अपने जीवन और व्यक्तित्व के भीतर उन परिवर्तनों को साकार करके दिखाया, जिन्हें हम आध्यात्मिक पुरुषार्थ की अंतिम परिणति मान सकते हैं, वरन उन गूढ़ विषयों को जनसामान्य के लिए भी इतना सहज और सुलभ बना दिया कि उनका मर्म समझकर साधारण-से-साधारण व्यक्ति भी अपने जीवन में असाधारण प्रगति कर सकता है। एक ऐसे ही गुह्य विषय का प्रतिपादन वे अपने इस प्रस्तुत व्याख्यान में करते हुए नजर आते हैं। गायत्री की पंचकोशी साधना अनेक अभीप्सुओं के लिए एक गहन अनुसंधान का विषय रही है। उसके विषय में इतनी ज्यादा जटिल मान्यताएँ उपलब्ध हैं कि सत्य क्या है, यह जान पाना अनेकों के लिए संभव ही नहीं हो पाता। इस उद्बोधन में परमपूज्य गुरुदेव उस साधना के समस्त पक्षों को अत्यंत ही सरल भाषा में सभी के लिए उपलब्ध करा देते हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......
देवताओं के विषय में मान्यताएँ
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
देवियो, भाइयो! पंचकोशों के संदर्भ में कल मैं आपसे यह चर्चा कर रहा था कि भगवान ने हमारे साथ जो पंचकोश देकर भेजे हैं, वे इतने बड़े समर्थ हैं कि उनकी तुलना देवताओं से की जाए, तो भी कम है। देवताओं के बारे में हमारी बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ हैं।। देवता हमारे ऊपर प्रसन्न हो जाते हैं, तो पैसा दे देते हैं, धन दे देते हैं, विद्या देते हैं, बुद्धि देते हैं, फल देते हैं, मुक्ति दे देते हैं, बहुत-सी चीजें दे देते हैं। पर देवता रहते कहाँ हैं? देवता कैसे हैं? कुछ मालूम नहीं है। उनका कुछ पता नहीं है। उनका पता नहीं चलता। हिंदुओं के पास तो देवता अनेकों हो सकते हैं। हिंदुओं के अलावा हमारे मुसलमान भाइयों से पूछें कि भाई साहब! हनुमान जी के बारे में आपका क्या ख्याल है? आप तो बेकार की बात करते हैं। हनुमान जी होते, तो हमको क्यों नहीं दिखाई पड़ते? आप हिंदुओं तक ही सीमित क्यों रह जाते? हमारे यहाँ क्यों नहीं आते? सब बेकार की बकवास है।
मित्रो! ईसाई से हमने यह पूछा कि हनुमान जी के बारे में आपका क्या ख्याल है? साहब! हमारी समझ में कुछ नहीं आता। वे न सपने में दिखते हैं, न दिन में दिखते हैं और न रात में दिखते हैं।। हम कुछ नहीं जानते। देवताओं के बारे में हम कुछ कह नहीं सकते; क्योंकि हमारी मान्यता है। यह कहाँ तक सही है, कहाँ तक गलत है, हम कुछ कह नहीं सकते। देवताओं के क्रिया-कृत्यों से कहाँ तक फायदा हो सकता है, कहाँ तक नहीं हो सकता—इसमें शक है; क्योंकि हम क्रिया करने वाले लोगों को भी देखते हैं, पुजारियों को भी देखते हैं। पूजा करने वालों को भी देखते हैं, देवताओं को मानने वालों को भी देखते हैं, लेकिन उनके भीतर जब कोई नवीनता दिखाई नहीं पड़ती, कोई विशेषता दिखाई नहीं पड़ती तो निराशा और मायूसी-सी दिखाई पड़ती है और हमारे मन में यह संदेह उत्पन्न होता है कि देवताओं के बारे में जो कहा जाता है, वह सही है या गलत है।
मान्यताएँ नहीं सिद्धांत है अध्यात्म
लेकिन मित्रो! अध्यात्म एक ऐसी विद्या का नाम है, जो साइन्टिफिक, विचारपरक, बुद्धिपरक, प्रत्यक्षवादी मान्यता पर टिका हुआ है। अध्यात्म मान्यता पर टिका हुआ नहीं है, सिद्धांत पर टिका हुआ है। यह प्रत्यक्ष है, जो चैलेंज करता है कि हम जो बात करते हैं, सही करते हैं। आप सही करके देखें। देवताओं के बारे में हम पंचकोश की साधना की बाबत जो बताते हैं। हम खास बातों का जिक्र करते हैं और कहते हैं कि पंचदेव, गायत्री के पाँच मुख, चेतना के पाँच प्राण यह बताते हैं कि ये हमारे अंतर्जगत में रहते हैं और ये हमारे जीवन में समाये हुए हैं। हमारी चेतना में समाये हुए हैं। हमारे शरीर में रक्त समाया हुआ है, माँस समाया हुआ है, हड्डियाँ समायी हुई हैं, नसें समायी हुई हैं। कितने सेल्स समाये हुए हैं।
इन सारी—बहुत-सी चीजों को हमारा शरीर समाये हुए है; जिनको हम मन कहते हैं; चेतना कहते हैं; जिनको हम पंचप्राण कहते हैं। पाँच देवताओं की संज्ञा—धारण की दृष्टि से इन प्राणों को देखते हुए इनका नाम पाँच देवता रख दिया। ये देवता सौ फीसदी सही हैं। इनके बारे में शंका करने की गुंजाइश नहीं है। इन देवताओं की पूजा करना शुरू कर दें। इनका भजन करना शुरू करें, उपासना करना शुरू करें, तो हम निहाल हो सकते हैं और मालामाल हो सकते हैं।
मित्रो अध्यात्म के नाम पर जो सिद्धियाँ और चमत्कार हमको बताए जाते हैं, वे एक-एक कदम पर सही हो सकते हैं; जबकि यह कोई नहीं कह सकता कि यह जो पाँच देवता हमारे भीतर हैं, अगर आपने इनका भजन और अनुष्ठान किया है, तो वे आपको फल नहीं दे सकते। बेटे, आपने भजन और अनुष्ठान का मतलब बहुत छोटा बतला दिया, बड़ा सीमित बता दिया। इससे निराशा होती है।
आपने सारे-के-सारे भजन को दो बातों में सीमित कर दिया। जबान की नोंक की लपालपी ..... बक-बक भजन पूजा, ऐसी हो गई है। नहीं बेटे! ऐसे कोई भजन पूजन नहीं होता, जीभ को इधर घुमा लिया, उधर घुमा लिया। जीभ की नोंक से ही अगर सिद्धियाँ मिल गई होती, चमत्कार मिल गए होते, इसी से भगवान का भजन और भक्ति हो गई होती, तो बड़े सस्ते में ज्ञान मिल जाता। बड़े सस्ते में बड़ी-बड़ी चीजें मिल गई होतीं। मित्रो! अध्यात्म सस्ता नहीं, महँगा है। लोगों ने जिसे हाथों की हेरा-फेरी मान रखा है, जिससे मतलब है कि मिष्ठान्न ऐसे दिखा दिया, धूपबत्ती ऐसे जला ली। चावल यहाँ रख दीजिए, फूल यहाँ रख दीजिए। यह क्या है? यह हाथों की हेरा-फेरी है, वस्तुओं की उलटा-पलटी है। पैसों की उलटा-पलटी है। इस हेरा-फेरी का नाम लोगों ने भजन रखा है। लोगों ने यह मान रखा है कि जीभ की नोंक से कुछ शब्दों को कह देने का नाम भजन है।
पाँच देवताओं की साधना
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? इन देवताओं की साधना करनी पड़ती है। साधना कैसे की जाती है? यही तो मैं निवेदन कर रहा था। साधना के लिए जो आदमी समर्थ है, चाहे कलियुग हो, चाहे पुराना जमाना हो, आप जवान हों, चाहे आप बुड्ढे हों, आपको बराबर अनुदान मिलते हुए चले जाएँगे और जिन-जिन ने साधना की क्रिया से चमत्कार पाए हैं, आप चाहें, तो आप भी प्राप्त कर सकते हैं। कैसे प्राप्त कर सकते हैं? इन पाँच देवताओं की साधना करके। ये देवता कौन से हैं?
ऐसे देवताओं का नाम, पता भी नहीं मालूम है। उनका स्थान भी मालूम नहीं है। इसलिए क्रिया और उपासना का विधि-विधान भी नहीं मालूम है, लेकिन अपने भीतर रहने वाले देवताओं के बारे में विधि-विधान हमको पूरी तरीके से मालूम है और मैं इसी बात को कह सकता हूँ, वायदा कर सकता हूँ और वचन दे सकता हूँ कि ये देवता जो भी आपकी मदद करने लायक हैं, उसे पूरी तरह से करेंगे। इससे कम में उपासना की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती।
अन्नमय कोश की साधना
मित्रो! ये पाँच देवता कौन हो सकते हैं? ये हैं आपके पंचकोश। पहला है—अन्नमय कोश। अन्नमय कोश के बारे में मैं कल भी आपको समझा चुका हूँ। अगर आप अन्नमय कोश की साधना करना शुरू करें, तो इसके सत्परिणाम देखकर आप हैरान रह जाएँगे। साधना का अर्थ है—साध लेना, काबू में ले आना। अपने वश में कर लेना। अन्नमय कोश को आप अपने काबू में ले आ सकें, अपने वश में कर सकें, तो आपको मैंने क्या बताया था?
मैंने आपको बताया था कि अन्नमय कोश का प्रवेश द्वार है—जिह्वा यानि मुख। इसको अगर आप काबू में ले आवें, तो आपकी गई हुई सेहत फिर से ठीक हो जाएगी। मैंने आपको चंदगीराम का हवाला दिया था, सैंडो पहलवान का मैंने हवाला दिया था। गाँधी जी का मैंने हवाला दिया था। उनकी सेहत खराब हो गई थी तब उन्होंने एक देवता की उपासना आरंभ की थी। वह देवता कौन था? अन्नमय कोश था।
उन्होंने जीभ की उपासना की और जबान की उपासना की, जिसकी वजह से उनको दीर्घ जीवन मिला। शरीर को साधा जा सके और इंद्रियों पर काबू रखा जा सके। ईमानदारी को अपने मन से मिलाया जा सके, और इसके लिए शरीर के साथ ईमानदारी से श्रम की व्यवस्था की जा सके, तो कमाल हो सकता है और गजब हो सकता है।
मित्रो! यह शरीर हमारे लिए कमाल कर सकता है। क्या-क्या कर सकता है? शरीर के अंगों का इस्तेमाल करना जरूरी है। आलस्य में पड़े हुए, प्रमाद में पड़े हुए नब्बे फीसदी लोग जिंदगी को बरबाद करते रहते हैं।। आपने जो काम किया है, उसका लेखा-जोखा बताएँ, तो बताऊँगा कि आपने मुश्किल से दो घंटा रोज का काम किया है, जिसमें आप कहते हैं कि आठ-दस घंटे काम किया, पर ईमानदारी की बात यह है कि सारे-के-सारे काम को जो आप अभी करते हैं, वह एक समझदार आदमी मन से काम करने वाले, तन से काम करने वाले, मेहनत करने वाले आदमी का काम दो घंटे के काम के बराबर है, जिसे आप दस-बारह घंटे में करते हैं।
आप जो मेहनत करते हैं, उस मशक्कत के साथ में मुहब्बत मिली हुई नहीं होती। उसके साथ में तन्मयता मिली हुई नहीं होती; मनोयोग मिला हुआ नहीं होता है; मुस्तैदी मिली हुई नहीं होती; दिलचस्पी मिली हुई नहीं होती। अगर आपके काम में दिलचस्पी मिली हुई होती, तो कल्याण हो जाता।
आप कालिदास के तरीके से बेअकल और बेवकूफ होते तो भी आप सम्पन्न बन जाते। परंतु आपने इन्हें कभी मिलाया ही नहीं। मशक्कत की तो बेमन से। मन लगाया तो मन नहीं लगा? शरीर कहीं लगा और मन कहीं लगा। दोनों को आपने एक साथ मिला दिया होता, तो वे जीवन में चमत्कार दिखाते। आपकी उन्नति होती और सफलता मिलती।
मित्रो! इतना मरने-खटने के बाद भी आपके घरवाले आपसे खुश नहीं हैं। इसलिए मैं आपसे कहता हूँ कि आप मन लगा करके काम करने के अभ्यस्त हो जाएँ, तो आपकी योग्यता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाएगी। आपको मास्टर की जरूरत नहीं है कि मास्टर मिलेगा तो समझदारी से पढ़ाएगा, समझाएगा। आप तबीयत लगाकर काम कीजिए, मन लगाकर काम कीजिए। मन लगाकर काम करते जाएँगे, तो आप अपने काम में इतने माहिर, इतने पारंगत होते चले जाएँगे कि समझदारी भी आपकी बढ़ती चली जाएगी। आप मन लगाकर तो काम कीजिए। मन लगाकर काम नहीं किया बेटे, इसलिए हमारी अन्नमय कोश की उपासना बेकार चली गई। अन्नमय कोश की उपासना अगर हमने की होती, तो हमने नवनिधियाँ पा ली होतीं।
मित्रो! एक और बात मैं आपसे यह कहता हूँ कि अगर आपने अपने कार्य में, क्रियाकलाप में कदाचित् ईमानदारी शामिल कर दी होती, तब बस, फिर आप समझ लीजिए कि त्रिवेणी बन जाती। पहला—श्रम, दूसरा—मनोयोग और तीसरा—ईमानदारी तीनों को मिला देते, तो फिर देखते कि कैसा कमाल होता है; कैसा गजब होता है; कैसे चमत्कार उत्पन्न होते हैं; और आप इसी जिंदगी में, गई-गुजरी जिंदगी में किस तरीके से उन्नति करते हुए चले जाते हैं। सफलता प्राप्त करते हुए चले जाते हैं और दूसरे आदमी जो आपके साथ रहने वाले तमाशा देखते रहते हैं और कहते रहते हैं कि हमारा तो भाग्य नहीं खुला।
आप अपने आस-पास रहने वालों को देखिए कि उनकी मान्यता कैसी है? बया पक्षी का उदाहरण मैं प्रायः देता रहता हूँ। बया का घोंसला आप कंपटीशन में बैठा दीजिए। बाकी सब पक्षियों को एक तरफ रखिए और बया को एक कोने में बैठा दीजिए। तबीयत, मेहनत और मनोयोग से बनाया गया घोंसला कितना खूबसूरत और अच्छा है। उसके बच्चे चैन से अपना दिन गुजार लेते हैं। बारिश हो तो क्या, हवा चले तो क्या, शोर-गुल हो तो क्या? रास्ता चलते हुए लोग कहते हैं कि देखिए यह घोंसला कितना सुंदर है। यह बया का घोंसला है। बया का घोंसला देखकर के लोगों की आँखों में इतनी खुशी होती है, जो गुलाब का फूल देखकर के भी नहीं होती। उसकी कलाकारी की सब तारीफ करते हैं। यह प्रेस्टिज प्वाइंट है।
मन लगाकर करें काम
मित्रो! आदमी मन लगाकर काम करे तो सफल और श्रेष्ठ कार्य किस तरीके से कर सकता है और ईमानदारी को भी इसमें शामिल कर लिया जाए, तो हम कैसे उन्नतिशील बन सकते हैं और कैसे हमारी इज्जत बढ़ती चली जाती है। हर आदमी हमारा सम्मान और सहयोग करने के लिए खड़ा हो सकता है। यह बात मैंने श्रम की बाबत बताई, अन्नमय कोश की बाबत बताई कि हमारी भौतिक उन्नति में हमारा शारीरिक श्रम और शरीर को ठीक तरीके से सँभालने का क्रम किस तरीके से उन्नतिशील बन सकता है।
एक छोटे से बच्चे का किस्सा मैं सुनाना चाहता हूँ। तेरह वर्ष की उम्र में बच्चे के माता-पिता का देहांत हो गया। बिना पढ़ा बच्चा था। पिता के साथ पहले जाता था और सड़क पर बैठकर पुरानी चप्पलें, पुराने जूतों की मरम्मत करता था। और कोई काम वह सीख ही नहीं पाया। पढ़ने भी नहीं जा सका। पिता की मृत्यु हो गई, माँ की मृत्यु हो गई। लड़का अकेला रह गया। कहाँ जाए, क्या करे? वह सड़क पर उसी जगह पर बैठने लगा, जहाँ पर पिता बैठता था। लोगों ने पूछा—"बेटा! तुम्हारे पिताजी जो जूतों की मरम्मत करते थे, अब नहीं आते।" उसने कहा—"मेरे पिता का स्वर्गवास हो गया और आप कृपा करके जूते मरम्मत के लिए हमको दे दीजिए। हम उन्हें अच्छी तरह से बनाएँगे।"
मित्रो! बच्चे ने कहा—"अगर आपको अच्छा न लगे, ठीक से मरम्मत न हो तो हमें पैसे मत देना। अच्छा ठीक है, काम ठीक होगा तो हम आपसे मदद की उम्मीद करेंगे। आप हमें काम देने में मदद कर दें तो हमारा दिन अच्छा होगा।" लोगों ने कहा—"लो, ये हमारे फटे हुए जूते ठीक कर दो।" उस बच्चे ने काम को प्रेस्टिज प्वाइंट बना लिया। उसने कहा कि काम के पैसे ज्यादा मिलते हैं या कम मिलते हैं, इसकी परवाह नहीं। कम पैसा मिलता है, कोई बात नहीं, पर सच्चाई की राह चलूँगा, जिससे आगे भी काम मिलता रहे। बेटे, ऐसा बढ़िया काम करके दिखा कि अपने मालिक को निहाल कर दे।
यह है काम करने की इज्जत, काम करने वाले की आबरू। काम खराब करना—यह बेटे, बहत गलत है। यह अपनी इज्जत खराब करने के बराबर है। उस बच्चे ने ऐसे बढ़िया ढंग से जूते ठीक किए कि जिनके जूते थे, वे सब उन्हें देखकर दंग रह गए। वे बोले—"हमने तो जूते जहाँ से फटे थे, उसे ठीक करने को ही कहा था।" बच्चे ने कहा "मैंने सोचा कि केवल फटा हुआ हिस्सा ठीक करूँगा, तो कल दूसरी जगह से फट जाएगा। इसलिए मैंने पूरा जूता ही ठीक कर दिया। मेरा जो पैसा बने, आप दे दीजिए।" उन्होंने कहा—"लड़का बड़ा ईमानदार है और बड़े मन से काम करता है। दो आने की उसकी मजदूरी थी और नौ पैसे उसको दिए। वह खुश होकर चला गया।"
मित्रो! बच्चे ने कहा—"भले ही आप मुझे नौ पैसे की जगह सात पैसा दीजिए, पर अगली बार भी मरम्मत का काम मुझे ही दीजिए। मेरा कोई सहारा ही नहीं है। मेरा कोई हिमायती भी नहीं है। आप मेरे पिता पर विश्वास करते थे, अब मुझ पर विश्वास करें तो अच्छा है।" उन लोगों ने कहा—"हमारा या हमारे मित्र का कोई काम होगा, तो तुम्हें ही काम देंगे।" मित्रो! जीभ की नोंक दिलों को जीत भी सकती है और जीभ की नोंक बिच्छू के डंक की तरह वार भी करती है। उस बच्चे ने ऐसे प्यार से बात की। ईमानदारी से काम किया, तो आदमी उसका नौकर हो गया, गुलाम हो गया और उसका विज्ञापन करने लगा।
अपने ऑफिस में उसने कहा—"देखो भाई! किसी को अपने जूतों की मरम्मत करानी हो तो नीम के पेड़ के नीचे जो बच्चा बैठता है, उससे अपना काम कराना। बड़ा ईमानदार और बड़ा अच्छा लड़का है।" बिना पैसे के उसका विज्ञापन हो गया। लोगों ने कहा—"हाँ! हम उसी से अपना काम कराएँगे।" धीरे-धीरे उस लड़के के पास जूतों के ढेर लगने लगे। एक दिन लोगों ने कहा—"क्यों रे छोकरे! तू तो ऐसे नए जूते भी बना सकता है।" हाँ साहब! बना सकता हूँ, पर मेरे पास इतना पैसा कहाँ है कि नए जूते बनाने के लिए सामान खरीदकर लाऊँ? यदि चमड़ा और सामान खरीद सकूँ तो नए जूते भी बना सकता हूँ।
ईमानदारी, जिम्मेदारी और मेहनत
मित्रो! लोगों ने उसे सामान के पैसे दे दिए। वह सामान खरीद लाया और नए जूते बनाए। उनकी माँग इस कदर बढ़ी कि जो भी आए, वह कहे कि हमारा जूता तो तुझे ही बनाना पड़ेगा। धीरे-धीरे उसका काम बढ़ता चला गया और उसकी दुकान बन गई। उसका काम लोगों को इतना पसंद आया कि उसने दुकान बनाने के बाद कंपनी बना ली। आपको मालूम है कि उसका नाम बाटा पड़ा। हिंदुस्तान में जहाँ जाइए, हर जगह बाटा की दुकान मिलेगी।
एक बार मैं हिंदुस्तान से बाहर अफ्रीका गया, वहाँ भी बाटा की दुकानें देखीं। यह क्या है? भगवान की कृपा है। भगवान बेटे, इसी का नाम है। यह अन्नमय कोश में हमारे साथ तीन रूपों में प्रवेश करता है, पहला है—ईमानदारी। दूसरा है—जिम्मेदारी अर्थात मन लगाकर काम करना, काम में दिलचस्पी लेना। तीसरा है—मेहनत, मशक्कत। मेहनत कीजिए, जिम्मेदारी से कीजिए, मन लगा करके कीजिए और ईमानदारी से कीजिए। इन तीन बातों को मिला करके कीजिए, फिर देखिए कि क्या कमाल होता है। क्या गजब होता है और आप इसी जिंदगी में क्या-से-क्या बनते हुए चले जाते हैं।
मित्रो! तीनों को आपने कभी मिलाया नहीं। इनको आपने धूल कर दिया, कचरा कर दिया और आप कर्मफल के लिए रोते हैं और कहते हैं कि हमारा शरीर बीमार पड़ा है। शरीर हमें इसलिए मिला था कि हमारी सेवा करे, सहायता करे, लेकिन यह आपकी सेवा नहीं करेगा, सहायता नहीं करेगा; क्योंकि इसके साथ आपने बदसलूकी की है, बदतमीज़ी की है। आपका साथ यह नहीं देगा। पंचतत्त्वों का शरीर आपको बहुत तरह की बीमारियाँ देगा और तरह तरह के दरद देगा। आपको बहुत शिकायत होने वाली है। पेट में पेप्टिक अल्सर होगा, कमर में दरद होगा, जुकाम होगा, कम दिखाई देने लगेगा। अजी! यह क्या बात है? बेटे, यह आपका दंड है कि आपने शरीर के साथ में जो सलूक करना चाहिए था, इसकी शक्तियों को जिस हिसाब से, जिस कार्य के लिए खरच करना था, आपने उस हिसाब से खरच नहीं किया। हमारे शरीर में ऐसे कीमती स्थान हैं, जहाँ से जमा की हुई शक्ति हमारी आँखों से होकर चमकती है, हमारे दिमाग में चमकती है, हमारी वाणी में होकर चमकती है, हमारे कलेजों में होकर चमकती है और हमारी हिम्मत में होकर चमकती है।
एक ऐसा प्रकाश है, जो हमारे भीतर दीपक जैसे जलता है, पर हम क्या कर सकते हैं? हमने तो भीषण जगत में पूरा खरच कर दिया, सारा-का-सारा तेल टपक गया। अब दीपक जलता तो है, टिमटिम करता तो है, पर ठीक से काम नहीं होता। आँखों से दिखाई कम पड़ता है। दिमाग में रोशनी कम, कानों में रोशनी कम, सब जगह रोशनी कम पड़ गई है।
मित्रो! क्या मामला है? साहब! पहले तो हम फर्स्ट डिवीजन आते थे, फिर थर्ड आए, फिर कंपार्टमेंट में आए और अब फेल होने के आसार हैं। बेटे, जो कुछ तेरे हाथ है, वह भी जाने वाला है। क्यों? क्योंकि जो जखीरे तेरे पास हैं, जो जमा पूँजी तेरे पास है, उसे बदतमीज़ी से खरच करता हुआ चला जाता है। जानवरों के पास जा और जानवरों से सीख करके आ। मुझे कहने में भी शरम आती है कि मनुष्य जानवरों से भी गया-गुजरा है। जानवरों से पूछ कि काम वासना के संबंध में आपका क्या ख्याल है? तो साँड़ आपको यह बताएगा कि हम बैलों और गायों के साथ घूमते तो रहते हैं और यदि गाय कुछ कहना चाहती है, तो हम सेवा तो कर देते हैं, पर बाकी गायों की तरफ हम आँख उठाकर भी नहीं देखते। हम जवान हैं तो क्या, हट्टे-कट्टे हैं तो क्या, गाय के साथ रहते हैं तो क्या? पर गाय की इच्छा के बिना, हम गाय के पास भी नहीं जा सकते?
बेटे, आप जानवर होते, तो भी आपने मर्यादा का पालन किया होता, लेकिन आपने अपनी सेहत का सत्यानाश कर लिया। उसके आपने प्राण ही नहीं निकाले, बाकी सब काम कर लिया। हमें हजारों शिकायतें मिलती हैं। यह हमने क्या किया? हमने अपनी तबाही को न्योत-न्योतकर बुलाया। बेटे, यह बात मैं शरीर की बाबत कहता है, अन्नमय कोश की बाबत कहता हूँ। आपने अपनी सेहत खराब कर ली, अपनी बीबी की सेहत खराब कर ली। जो कोई भी आपके संबंधी होंगे, आप उनकी भी सेहत खराब करेंगे।
[क्रमशः]
(गतांक से आगे)
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव साधना पथ के सभी समर्पित पथिकों को संबोधित करते हुए उनको गायत्री की पंचकोशी साधना के मर्म से परिचित कराते हैं। साधना के गुह्यतम सोपानों पर चढ़ने से पूर्व वे सभी श्रोताओं को बताते हैं कि अध्यात्म का सच्चा अर्थ, मान्यताओं से नहीं, बल्कि उसमें समाहित सिद्धांतों से तय होता है। वे कहते हैं कि अध्यात्म का मूल अर्थ जीवन के समग्र परिवर्तन और समुचित रूपांतरण से है। गायत्री की पंचकोशी साधना को वे पाँच देवताओं की साधना के रूप में बताते हैं, जिसमें से प्रत्येक कोश के जागरण का उद्देश्य वे एक-एक देवता की आराधना से बताते हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को......
संयम—अन्नमय कोश की साधना
मित्रो! आपको जो यह शरीर मिला हुआ था, आपको यह समझ में नहीं आया कि इस देवता का कैसे सम्मान करना चाहिए? यह भगवान की दी हुई धरोहर है। बेटे! यह हमारी पूँजी है, भगवान की दी हुई यह एक संपत्ति है। इसको आपने सँभालकर रखा होता, तो इसने आपकी इतनी सहायता की होती, जिसका कोई मूल्य ही नहीं है।
विक्रमादित्य के पास पाँच वीर रहते थे। वे उन्हें जो हुक्म देते थे, वे वही काम करके ले आते थे। वे विक्रमादित्य के शरीररूपी पाँच वीर थे। आपने भी अगर शरीररूपी इन पाँचों वीरों को जाग्रत कर लिया होता, तो मजा आ जाता।
विक्रमादित्य के पाँच वीरों को मैं अपने ढंग से देवता कहता हैं। संयम के माध्यम से, ईमानदारी के माध्यम से, मनोयोग के माध्यम से इन देवताओं की पूजा करना अगर आप सीख जाते, तो वे सिद्ध होते और इनके प्रत्यक्ष प्रमाण आपको मिलते। मैं परोक्ष की बात नहीं करता। मैं तो यह कहता हूँ कि सिद्धियाँ अगर हैं, तो प्रत्यक्ष होनी चाहिए। उनकी कीमत होनी चाहिए। नहीं साहब! अगले जन्म में होंगी।
अगले जन्म में क्या होगा बेटे? मैं नहीं जानता और इस बाबत मैं कुछ भी नहीं कह सकता। मैं तो इसी जन्म की बात कहता हूँ। मैंने अध्यात्म को जिस तरह से काम में लिया, उसका परिणाम मैंने इसी जीवन में पाया। जो कुछ भी मैं करता हूँ, हिसाब से करता हूँ और हिसाब से फल मिल जाता है। अगर आपका अध्यात्म ऐसा नहीं है कि इस हाथ करने से उस हाथ फल देता हो, तो मैं कहता हूँ कि आपके अध्यात्म की विधि गलत है या आपको बताया गया तरीका गलत है। इन दो में से एक बात गलत है।
मित्रो! अन्नमय कोश की साधना कैसे की जा सकती है? संयम से। संयम की बाबत मैं कई दिन से आपको बता रहा हूँ। मेहनत की बात बता रहा है। संयम की बात बता रहा हूँ। मनोयोग की बात बता रहा हूँ। इन सब चीजों को अगर आप ध्यानपूर्वक और ईमानदारी से करें और कानून में रखें और नियम से रहें और ठीक तरीके से इस्तेमाल करते रहें, तो आपकी प्रगति का द्वार खुला हुआ है।
शारीरिक श्रम करने वाले लोगों ने लोक और परलोक दोनों सँवारे हैं, सुधारे हैं। अकल नहीं है? जाने दे अकल को। भावना नहीं है? मरने दे भावना को। भजन नहीं है? रहने दे भजन को। केवल शरीर को लेकर खड़ा हो जा, फिर मैं बता दूँगा कि शरीर के माध्यम से लौकिक शक्तियाँ ही नहीं, पारलौकिक शक्तियाँ भी मिल सकती हैं। कैसे मिल सकती हैं।
प्रायः मैं हजारी किसान का नाम सुनाया करता हूँ, जो एक छोटे से देहात में पैदा हुआ था। जिसके पास न अकल थी, न समझ थी, न गीता पढ़ा था, न रामायण-भागवत् पढ़ा था। उसने केवल शरीर की मेहनत-मशक्कत के द्वारा घूम-घूम करके आम के बगीचे लगाए। एक हजार आम के पेड़ एक-एक गाँव में लगाए। उसके मरने के बाद उस इलाके का नाम हजारीबाग रखा गया। हजारी किसान ने हजार बाग लगाए थे, इसलिए हजारीबाग जिला बना।
शरीर के देवता का चमत्कार
मित्रो! ताजमहल, शाहजहाँ ने मुमताज की स्मृति में एक स्मारक बनवाया था। ताजमहल एक ओर और हजारी प्रसाद का स्मारक एक ओर। लंबे समय से हजारी जिला चला आ रहा है और अभी हजारों वर्षों तक चलेगा। बच्चे-बच्चे की जबान पर हजारीबाग का नाम है। वह अपने नाम के साथ हजारीबाग जरूर लिखता है। हर व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में अपने जिले का नाम जरूर लेता है। भले ही वह उस किसान की तारीफ नहीं करता, पर प्रकारांतर से उसकी ईमानदारी और श्रेष्ठ कामों के लिए की गई मेहनत को अवश्य याद करता है।
बेटे, मैं शरीर के देवता की करामात कहता हूँ, जिसका मूल्य आप समझते नहीं हैं और मारे-मारे फिरते हैं। कोई चामुण्डा पर मारा-मारा फिरता है, कोई संतोषी माता के पास जाता है। कोई भवानी के पास, तो कोई चंडी देवी के पास मारा-मारा फिरता है और जो देवी अपनी धुन में बैठी हुई है और दोनों हाथों में वरदान लिए बैठी है, उस देवी के पास भी नहीं जाता। इस देवता के पास भी नहीं झगड़ा जाता, पर भैरों जी के पास और फलाने के पास न जाने कहाँ-कहाँ मारा-मारा डोलता है? और जो देवता वरदान उठाए बैठा है, उसके पास भी नहीं फटकता।
मित्रो! पिसनहारी का नाम तो मुझे नहीं मालूम, पर वह हमारे मथुरा क्षेत्र की रहने वाली थी। चौदह वर्ष की उम्र में विधवा हो गई थी। माँ-बाप ने कहा कि दोबारा ब्याह कर लो, हम मरने वाले हैं। उसने कहा कि हम ब्याह क्यों करेंगे? हमारा एक देवर है और एक है जेठ, दोनों हमारी सहायता करेंगे। बाप ने पूछा—कौन है तेरा देवर और जेठ? उसने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाए और कहा कि ये हैं हमारे देवर और जेठ। इनमें से एक हमारा देवर है और एक हमारा जेठ है। हमारे दोनों हाथ काम करेंगे। हमें ब्याह करने की क्या जरूरत है? हमारे पास किसी बात की क्या कमी है? उसने चक्की से अनाज पीसना शुरू किया।
उस जमाने में मंदी थी। दो आने, तीन आने की मजदूरी कर लेती थी। सात पैसे में गुजारा कर लेती थी और एक-दो पैसे रोज के हिसाब से बचा लेती थी। जब बुड्ढी हुई, तो उसने गाँववालों को बुलाया और कहा—मैंने एक-दो पैसा बचाकर, ढेरों पैसा जमा कर लिया है। इसे अच्छे काम में लगा दीजिए। लोगों ने एक कुआँ बनवा दिया।
मित्रो! हमारे सारे इलाके में सभी कुओं का पानी खारा है। हमारे गायत्री तपोभूमि का भी पानी खारा है। बहुत मेहनत के बाद 80 फीट गहरा खोदने के बाद एक हैंडपंप लगाया। उसका पानी मीठा है। मथुरा के सारे क्षेत्र में पानी खारा है।। वह एक कुआँ, जो पिसनहारी के पैसे से बना, जो दिल्ली जाने वाले मार्ग में बना हुआ है, उसका पानी मीठा है। सारे इलाके के कुएँ देखने के बाद आपको उसी एक कुएँ में मीठा पानी मिलेगा।
लोगों का ख्याल है कि उस कुएँ के पानी को पीने से तपेदिक ठीक हो जाती है। तरह-तरह की बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं। दूर-दूर से लोग आते हैं और पानी भरकर ले जाते हैं और मरीजों को पिलाते हैं। आने-जाने वाली बरातें, वहीं पिसनहारी के कुएँ के पास ठहरती हैं। इतना शानदार कुआँ, इतनी बड़ी धर्मशाला है। ईमानदारी के साथ मशक्कत और उसमें भावना मिली हुई थी। अगर आदमी ऐसी मेहनत करना भी सीख जाए, तो कमाल हो जाए। पर हम क्या कर सकते हैं? चिराग तले अँधेरा दिखाई पड़ता है। हमारे भीतर, हमारा देवता प्यासा बैठा हुआ है। हमारा देवता हाथ जोड़े बैठा हुआ है। इस देवता से वरदान लेने के बजाय हम न जाने कहाँ-कहाँ मारे-मारे फिरते हैं? यह जिंदगी बेहतरीन कस्तूरी के हिरण से भी गई-बीती है। अगर हमने कस्तूरी को अपनी नाभि में देखा होता, तो हम निहाल हो गए होते।
जो भी करें, ईमानदारी से करें
मित्रो! मैं एक और भी किस्सा आपको बता सकता हूँ? आपको कोई और विधि-विधान न आते हों, तो कोई बात नहीं। आप केवल अन्नमय कोश की उपासना कर लें, तो आप देवता बन सकते हैं। ऋषि बन सकते हैं, ख्यातिवान बन सकते हैं। चलिए मैं और बात कहता हूँ कि आप भगवान बन सकते हैं। केवल शरीर की बात कीजिए, मन को आप मरने दीजिए। बुद्धि, चित्त, अहंकार सबको मरने दीजिए। मैं केवल शरीर की बात कहता हूँ आपसे। शरीर का संयम इस तरीके से काम दे जाता है।
संयम में केवल यह नहीं है कि खाएँगे नहीं। गलत चीजों का इस्तेमाल नहीं करेंगे। आहार-विहार के संबंध में गलतियाँ नहीं करेंगे—बेटे, यह तो एक शर्त है। इससे अन्नमय कोश का उद्धार नहीं होता। हम जो भी काम करेंगे, ईमानदारी के साथ करेंगे। बेईमानी का काम उसमें शामिल नहीं होगा। आपने मशक्कत तो की, लेकिन गंदे कामों के लिए की, तो बेटे, फल नहीं मिलेगा। ईमानदारी से काम होना चाहिए एक। और काम केवल ईमानदारी से ही नहीं, मन लगाकर होना चाहिए, तन्मयता से होना चाहिए।
मित्रो! चलिए अन्नमय कोश की साधना के संबंध में मैं एक नाम बताना चाहता हूँ। एक कहार सत्तर वर्ष की उम्र का था। अनेक देशों से आए फिलॉसफरों की एक सभा थी। बातें होती रहीं। वह कहार खाना पकाता था और बरतन साफ करता था। और जब सभा का समय होता तो उस स्थान पर जाकर एक कोने में बैठ जाता था और सबकी बातें सुनता रहता था।
जब सभा समाप्त हो गई, तो उसने बड़े साहब से हाथ जोड़कर कहा—"साहब! कोई ऐसी भी विधि है कि ये जो इतने विद्वान हैं, इनकी तरह हमें भी ज्ञान हो जाए और हम भी समझदार हो जाएँ।" तब फिलॉसफर ने उससे पूछा—"कितनी उम्र है तेरी?" उसने कहा—"सत्तर साल।" बस, सत्तर साल का ही है तू? हाँ साहब! फिलॉसफर ने कहा—"अरे अभी क्या है? भगवान ने मनुष्य की उम्र सौ वर्ष बनाई है। तीस साल अभी तेरे पास हैं। तू मशक्कत से काम कर और पढ़ना शुरू कर दे। विद्या तेरे पास आ जाएगी और जैसे हम सब फिलॉसफर हैं, उसी श्रेणी में तू आ जाएगा। मेरी बात मान और पढ़ना-लिखना शुरू कर दे।"
मित्रो! 70 साल की उम्र में उसने कहारी करते-करते पढ़ना-लिखना शुरू किया। उसने कलम मँगाई, पट्टी मँगाई और पढ़ना शुरू कर दिया। जिंदगी के अंतिम समय तक संसार के इतिहास में उस जैसा फिलॉसफर कोई नहीं हुआ। उसने फिलॉसफी पर अनेक ग्रंथ लिखे। वह न केवल अपने देश का, अपितु सारी दुनिया का सबसे बड़ा फिलॉसफर माना जाता है।
यह मैं क्या कह रहा हूँ? बेटे, यह मैं शरीर के अन्नमय कोश के देवता के अनुग्रह की बात कह रहा हूँ। अन्नमय कोश को आप समझते नहीं हैं। आपके पास कितना मूल्यवान यंत्र है, कितना मूल्यवान देवता हमारे साथ-साथ खड़ा हुआ है और भगवान के साथ बैठा हुआ है। हमेशा उसकी अवज्ञा, उपेक्षा कर मारा-मारा फिरता है और कहता है कि मैं तो दरिद्र हूँ। मैं तो बीमार हूँ, मैं तो कंगाल हूँ और मैं तो गिरा पड़ा हूँ। देवता की अवज्ञा करने वाले की जो मिट्टी पलीद होनी चाहिए थी, वही हो रही है।
मित्रो! मैं हिंदुस्तान के एक ऐसे व्यक्ति का नाम बता सकता हूँ, जिनका नाम सातवलेकर है। 55 साल की उम्र में ड्राइंग मास्टर की नौकरी से रिटायर हो गए और यह विचार करने लगे कि अब मैं 55 साल का हो गया। अब क्या करूँ? उस जमाने में पेंशन भी थोड़ी-सी मिलती थी। 15-20 रुपये पेंशन मिलती थी। अब क्या करना चाहिए? उनके विद्यार्थी मन में एक बात आई कि अब मुझे संस्कृत पढ़नी चाहिए। 55 साल के बच्चे ने यह निश्चय किया।
55 साल की उम्र हुई तो क्या? कोई फरक नहीं पड़ता। छापेखाने वाले कई बार गलती कर जाते हैं। एक अक्षर की जगह दो अक्षर लगा देते हैं। 5 की जगह पर 55 लगा देते हैं।। सातवलेकर ने सोचा कि नौकरी से तो मैं अलग हो गया। मेरी उम्र भी हो गई। पेंशन भी हो गई। अब उम्र की दृष्टि से, विचारों की दृष्टि से कुछ करना है। उन्होंने पढ़ना शुरू किया। मित्रो! पं० सातवलेकर उस आदमी का नाम है, जिसने वेदों के भाष्य किए, जो माने हुए भाष्य हैं। भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण की उपाधि से अलंकृत किया। वे बहुत बड़े विद्वान माने जाते थे। उन्होंने ढेरों-की-ढेरों किताबें लिखीं। उनकी विद्वत्ता के बारे में सारा हिंदुस्तान जानता है।
स्वयं को सँभालने का नाम साधना
मित्रो! यह मैं शरीर की बात कहता हूँ। अगर आप अपने शरीर को क्रमबद्ध रूप से ईमानदारी के साथ में लगा सकते हों, फिर आप उसके चमत्कार देखिए, परिणाम देखिए। श्रम तो आप करते नहीं हैं, साधना तो आप करते नहीं हैं। साधना किसे कहते हैं? साधना बेटे, अपने को सँभालने का नाम है। साधना करने का मतलब है—अपने आप को सँभालना। साधना किसकी की जाती है?
साधना श्रेष्ठ की की जाती है। शरीर की हम साधना करते हैं, तो हम पहलवान हो जाते हैं। मन की साधना करते हैं, तो विद्वान हो जाते हैं। खेती-बारी की साधना करते हैं, तो धनवान हो जाते हैं, यह सत्य है। मुझे याद है कि आणंद के पास एक छोटा-सा गाँव है—गामड़ी। वहाँ के एक सज्जन अक्सर आया करते थे। उनसे किसी ने कह दिया था कि आचार्य जी के आशीर्वाद से न जाने क्या-से-क्या हो जाता है। उनका एक 14 साल का बच्चा था, जिसका देहांत हो गया था। सो वे बहुत दुःखी रहने लगे। किसी ने याद दिलाया कि आचार्य जी के पास चले जाओ। उनका आशीर्वाद फलीभूत हो जाता है। वे मेरे पास आए और कहने लगे कि महाराज जी! मेरा 14 साल का बच्चा नहीं रहा। कुछ ऐसा करिए कि हमारे घर में सब ठीक हो जाए।
मित्रो! मैंने कहा—बेटे, मैं क्या करूँ? अच्छा भगवान से प्रार्थना करूँगा। प्रार्थना का क्या असर हुआ, यह तो भगवान जाने, लेकिन साल भर बाद उनके घर बच्चा हो गया। उसके बाद से वे हर साल आया करते थे और जितने साल का बच्चा हुआ, उतने किलो घी अखण्ड दीपक के लिए लाते थे। कितना बड़ा बच्चा हुआ? नौ साल का हुआ। सो वे नौ किलो घी ले आए। 12 साल का हुआ, तो 12 किलो, 22 साल का हुआ, तो 22 किलो घी ले आए। वे कहते थे कि महाराज जी! यह आपके अखंड दीपक का परिणाम है।
एक बार जब मैं उधर गया, तो वे मुझे अपने घर ले जाने के लिए मोटर लेकर आ गए। मैंने कहा—अरे भाई! हम तो बैलगाड़ी में चले चलते। 6 मील के लिए आप गाड़ी क्यों लाए? नहीं साहब! नहीं गुरुजी! आपको हम इस तरह कैसे ले चलेंगे? आपको तो मोटर में ही चलना पड़ेगा। उसने बताया नहीं कि मोटर हमारी है। मोटरगाड़ी घर के बाहर खड़ी कर दी। मैंने कहा—भले आदमी! गाड़ी वापस भेज दे। शाम को मैं जाऊँगा, तो बैलगाड़ी से चला जाऊँगा।
बाद में मैंने पूछा—क्या मामला है? मोटरगाड़ी में इतना पैसा क्यों खरच करते हो? गरीब आदमी हो। उन्होंने कहा कि हम गरीब थोड़े ही हैं। यह गाड़ी हमारी है। हमारी बच्चियाँ बी०ए०, एम०ए० में पढ़ती हैं और रोजाना मोटर उन्हें कॉलेज छोड़कर आती है और शाम को ले आती है। इसलिए हमारे बच्चे पढ़े-लिखे हैं और मोटर हमने इसीलिए रखी है। उन्होंने कहा कि ये लड़कियाँ पढ़ाई भी करती हैं और खेती में सहयोग भी करती हैं। हमारा पैसा मेहनत का, मशक्कत का पैसा है। हमारी लड़कियाँ भी काम करती हैं और महिलाएँ भी काम करती हैं। खेत में से हम सोना पैदा करते हैं और चाँदी पैदा करते हैं। ये पसीने की बूँदें मोती बनकर टपकते हैं, हीरे बनकर टपकते हैं। हमको पसीना बहाना आता है और देखिए हम मालदार आदमी हैं और अमीर आदमी हैं।
आलस्य माने दरिद्रता
मित्रो! आपको पसीना बहाना आता है? पसीना बहाना अगर हमको आ गया होता, तो हमारी विद्या, पैसा चक्कर लगा रहे होते। बेटे, पैसा हमारा चला गया और दरिद्रता आ गई। आलस्य माने—दरिद्रता। हम आलसी हैं, तो दरिद्र रहेंगे ही। समझदारी के हिसाब से दरिद्र रहेंगे। उत्साह के हिसाब से दरिद्र रहेंगे और मनहूसों की तरह से हमेशा बैठे रहेंगे और कहते रहेंगे कि काम करने से क्या फायदा? भाग्य में हमारे काम करना लिखा है। बच्चियों को वहाँ ब्याहने का प्रयास करते हैं कि हमारी बेटी को काम न करना पड़े। गुरुजी! हमने तो अपनी लड़की का बहुत अच्छे घर में ब्याह किया, जहाँ खाना पकाने वाली खाना पकाती है। कपड़ा धोने वाली नौकरानी कपड़ा धोने आती है। चौका-बरतन, झाड़ू-पोंछा करने वाली अलग आती है। उसे कोई काम नहीं करना पड़ता।
तो बेटे, अब की बार जब तेरा जमाई आवे, तो दो बातें मेरी ओर से कहना कि हमारी बेटी को दो बातों से कष्ट है। उसे और दूर कर दे तो भाग्यवान हो जाए। क्या-क्या? खाना खाती है, तो रोटी चबानी पड़ती है। कुल्ला-मंजन करना पड़ता है, तो उसके बदले कोई और खाना खा लिया करे और बेटी चुपचाप बैठी रहा करे। दूसरा—उसे पेशाब-पाखाने जाना पड़ता है। फिर हाथ धोती है, कुल्ला करती है। एक नौकरानी रखे जो इसके बदले पेशाब-टट्टी से निपट लिया करे। बस, तेरी बेटी साक्षात् लक्ष्मी हो जाएगी; क्योंकि खाना बनाएगी नहीं और खाएगी भी नहीं। बस, पलंग पर बैठी-बैठी सोया करेगी। कामचोर और हरामखोर यह दो गालियाँ जब सुनाई पड़ती हैं, तो मुझे बहुत बुरा लगता है। क्योंकि इन दो गालियों से और गंदी कोई गाली नहीं है।
क्या मतलब है आपका? बेटे, मेरा मतलब यह है कि शरीर के श्रम का, अन्नमय कोश का अपमान, अन्नमय कोश का उपहास जो भी आदमी करते होंगे, वे दरिद्र होंगे। अन्नमय कोश का उनके लिए शाप यह है कि तुम दरिद्र हो। दरिद्रता का मतलब पैसे की कमी नहीं है। बेटे, मैं आपको अन्नमय कोश की शिक्षा दे रहा था और कह रहा था कि जो व्यक्ति अन्नमय कोश का ठीक तरह से इस्तेमाल कर ले, तो वह पैगंबर हो सकता है, भगवान बन सकता है।
हजरत इब्राहिम मुसलमान धर्म के बड़े पैगंबर हुए हैं। जैसे हमारे यहाँ राम और कृष्ण हुए हैं, वही स्थान मुसलिम धर्म में हजरत इब्राहिम का है। वे एक दिन खुदाबंद करीम को याद करते-करते अपने घर से रवाना हुए। घूमते-घूमते एक किसान के यहाँ जा पहुँचे। दोपहर का वक्त था। खाना माँगा। किसान ने खाना तो खिला दिया, फिर यह पूछा कि आप कौन हैं? कैसे आए? उन्होंने कहा कि हम भजन करते हैं और खुदा की याद में चलते रहते हैं। भीख माँगते हैं। किसान ने कहा—बड़े शरम की बात है। आप खुदाबंद को याद करते हैं, तो भीख क्यों माँगते हैं? आप दो घंटे भजन कीजिए और छह घंटे श्रम कीजिए, मेहनत कीजिए और हाथ-पाँव से परिश्रम करके रोटी कमाइए। मेहनत की रोटी खाइए। पराया अन्न खाएँगे, तो जो भी कुछ पुण्य आप करते हैं, वह सब उसके खाते में जाएगा, जो रोटी खिलाता है।
मित्रो! कैसा अन्न है, कैसा नहीं, इससे क्या फायदा होगा? इब्राहिम की समझ में यह बात आ गई। उन्होंने कहा—भाई साहब! हमारा गाँव तो बहुत दूर रह गया। अब हम यहाँ आ गए हैं। आपने इतनी सलाह दी, तो एक और सलाह दें कि हमको आपके जैसे मित्र के यहाँ रहने के लिए जगह मिले। हमारे खाने, कपड़े का इंतजाम हो जाए, कहीं ऐसी जगह नौकरी लगवा दीजिए। हम मेहनत करेंगे, ताकि खाना-कपड़ा मिल सके। किसान ने कहा कि अगर आप इस बात पर तैयार हैं, तो हमारे यहाँ नौकरी कर लीजिए। क्या करना पड़ेगा? उसने कहा—आप बगीचे की रखवाली कर दिया करें। खाना-कपड़ा आपको मिल जाएगा।
हजरत इब्राहिम उस बगीचे में नौकरी करने लगे। बहुत दिन बाद जब फल आए, तो किसान ने कहा—हमें मीठे-मीठे फल लाकर दीजिए। आज हम आए हैं, तो बगीचे के मीठे फल खाएँगे। हजरत इब्राहिम ने आम के बड़े-बड़े, पीले-पीले फल लाकर दिए। किसान ने हरेक फल को चखा, सभी खट्टे निकले। उसने कहा—अरे भाई! आपको यह भी पता नहीं है कि कौन-सा फल मीठा है? इस बगीचे में ढेरों फल मीठे हैं और ढेरों फल खट्टे हैं। आपको यह ज्ञान नहीं है कि कौन से फल मीठे हैं। उन्हें देखकर लाना चाहिए था। हजरत इब्राहिम ने कहा—हमें क्या पता कि कौन से फल मीठे हैं और कौन से खट्टे हैं? जमीन पर जो फल गिर जाते हैं, वे मीठे होते हैं।
मित्रो! हजरत इब्राहिम ने कहा—जो हमारा हक है, उसके अलावा हम क्यों खाएँगे? बेईमानी का पैसा क्यों खाएँगे? चोरी का पैसा क्यों खाएँगे? छिपा हुआ क्यों खाएँगे? आज तक हमने ऐसी कोई चीज नहीं खाई। हमने आपका एक फल भी नहीं चखा है। कौन-सा खट्टा है और कौन सा मीठा है, हमें क्या पता? हम तो अपनी मेहनत की कमाई ही खाते हैं।
किसान ने समझा कि यह कैसा शानदार आदमी है। कैसा ईमानदार आदमी है। उसने ईमानदारी का इस तरह संकल्प किया। उसने कहा—आप संत हैं। हमारे बगीचे में भजन किया कीजिए, रोटी आपको मिलती रहेगी। काम करने की जरूरत नहीं है। तीन-चार दिन बाद हजरत इब्राहिम ने किसान को चिट्ठी लिखी कि आप वह आदमी नहीं हैं, जिनने हमको नसीहत दी थी कि मेहनत करके रोटी खानी चाहिए और ईमानदारी से रहना चाहिए। अब आप हमको यह नसीहत देने लगे कि आप हराम की रोटी खाइए और भजन कीजिए। यह तो हम पहले ही कर रहे थे। बस, चिट्ठी लिखकर रख दी और वहाँ से चले गए।
मित्रो! हजरत इब्राहिम सारी जिंदगी अपनी मेहनत की रोटी खाते रहे और भगवान का नाम लेते रहे। वे मेहनत-मजदूरी की रोटी खाते और ईमानदारी से रहते थे। फालतू चीज अगर कोई बच जाती, तो मुनासिब लोगों में बाँट देते थे। बस, हो गया भजन, हो गई सिद्धि, हो गया चमत्कार। बेटे, तमीज से जिंदगी जीता नहीं है और बहाने बनाता है कि चमत्कार सिखा दीजिए और सिद्धियाँ सिखा दीजिए। ऐसे थोड़े ही होगा चमत्कार। बेटे, हजरत इब्राहिम मुसलिम धर्म के इतने बड़े संत हुए हैं कि उनको मुहम्मद साहब की तरीके से पहले जमाने का पैगंबर माना जाता है।
[क्रमशः समापन अगले अंक में ]
(समापन किस्त)
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अपने इस विशिष्ट उद्बोधन में सभी साधकों का मार्गदर्शन करते हुए कहते हैं कि गायत्री की पंचकोशी साधना का मूल उद्देश्य व्यक्तित्व का समग्र एवं समुचित रूपांतरण है। वे समस्त गायत्रीसाधकों को पुनः यह स्पष्ट करते हैं कि आध्यात्मिक उत्कर्ष का आधार हमारे वैचारिक एवं आत्मिक परिवर्तन से निर्धारित होता है, बाह्य कर्मकाण्डों एवं उपचारों से नहीं। वे सर्वप्रथम अन्नमय कोश के जागरण की साधना साधकों को बताते हुए कहते है कि अन्नमय कोश की साधना संयम से पूर्ण की जाती है। संयम ही अन्नमय कोश के जागरण का मूल आधार है। इसके अतिरिक्त शारीरिक क्षमताओं का एवं योग्यताओं का सम्यक् एवं उचित उपयोग भी अन्नमय कोश की शुद्धि का आधार बनता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........
प्राणमय कोश की उपासना
मित्रो! कमाल है। किसका? मेहनत का, मशक्कत का। देवता आपके पीछे-पीछे फिरते हैं। आप उस देवता की ओर ध्यान नहीं देते हैं। बाहर वालों की ओर ध्यान दे रहे हैं। आप बाहर वाले देवता की पूजा करने जा रहे है और घर का देवता मारा-मारा फिर रहा है। वह ठोकरें खाता फिरता है। इस अन्नमय कोश को आप ध्यान नहीं देते। दूसरा वाला देवता है, जिसको हम प्राणमय कोश कहते है। प्राणमय कोश क्या होता है? प्राणमय कोश का साइंटिफिक रीजन मैं फिर बताऊँगा। यह हमारा भीतरी शरीर है। इन शरीरों को कैसे जाग्रत करना चाहिए? इसका एक साइंटिफिक तरीका है। मैं आपको इनकी उपासना की विधि और सारी चीजें बता दूँगा। मेरे पास प्रोसीजर है और जब मैं मरूँगा तो कहीं-न-कहीं लिख करके जाऊँगा कि अमुक कोश को जगाने के लिए क्या करना होता है? उपासना करने की विधियाँ क्या हैं? यह सब मैं बताकर जाऊँगा। इस जमाने के लिहाज से उपासना किस तरीके से की जानी चाहिए? यह मैं अपने जीवन में प्रयोग करने में लगा हुआ हूँ। पुरानी पद्धतियों में उधेड़बुन करके जाऊँगा। प्राणमय कोश का जागरण कैसे किया जाता है? प्राणमय कोश की विधियाँ क्या हैं? बेटे, मैं सब बता दूँगा। हम ऐसी विधियाँ बता देंगे, जिनसे फायदा हो सकता है। लेकिन ध्यान रखना, केवल कर्मकाण्ड और विधियाँ काफी नहीं हैं। उनके साथ-साथ में जमीन बनानी पड़ेगी। जमीन अगर हमारे पास नहीं है, तो जो विधियाँ मैं बताऊँगा, वे कोई फल नहीं देंगी।
मित्रो! कुंडलिनी जागरण की विधियों मैं तब बता सकता हूँ, जब आपके जीवन का क्रम बदले। जीवन का क्रम इतना गंदा, इतना फूहड़ आपने बना रखा है कि इसमें बीज उगेगा कहाँ से? मैं आपसे बार-बार कहता हूँ कि आपको किसी और झगड़े में पड़ने की जरूरत नहीं है। नहीं गुरुजी ! कर्मकाण्ड बता दीजिए। बेटे! कर्मकाण्ड मेरी जेब में सुरक्षित रखा है। रामकृष्ण परमहंस से विवेकानन्द ने यह पूछा कि उपासना बता दीजिए, कर्मकाण्ड बता दीजिए। उन्होंने कहा—कर्मकाण्ड बताने की कोई जरूरत नहीं है। हम अपना सारे-का-सारे कर्मकाण्ड तुम्हें सौंप सकते हैं और रामकृष्ण परमहंस ने सारे-का-सारे विधि-विधान उन्हें सौंप दिया था। रामकृष्ण के आखिरी समय में विवेकानन्द देखने लगे कि आप तो जा रहे हैं. अब हमारा क्या होगा? उन्होंने हाथ उठा करके उनके सिर के ऊपर रखा। उन्होंने देखा कि सारी-की-सारी जमीन घूमने लगी और सूरज के तरीके से सब चमकने लगा। वे पूछने लगे—गुरुदेव! यह क्या हो रहा है? क्या हो रहा है—अरे ! हमारे पास जो धरोहर थी, शक्ति थी, वह सब कुछ दे करके हम जा रहे हैं। हमारे पास जो कुछ भी था, सब दे दिया है। अब हमारे पास कुछ भी नहीं है।
मित्रो! क्या ऐसा संभव है? हाँ! बिलकुल संभव है। जिस तरीके से माँगने वाले याचक खड़े होते हैं और कहते हैं कि हमको देना चाहिए, हमको देना चाहिए। देने वाले उससे भी ज्यादा समझदार होते हैं। बालक चिल्लाता है कि हमको दूध मिलना चाहिए। गाय जब जंगल से चरकर आती है, तो भागती हुई चली आती है। उसे ऐसा मालूम पड़ता है कि हमारा थन अब फटा। वह भी व्याकुल है कि हमको बच्चा मिले तो दूध पिला दें। देने वालों की कमी है क्या? नहीं, देने वालों की कमी नहीं है। संतों की कमी है? नहीं, कोई कमी नहीं है। अनुदान देने वाले, सहायता करने वाले बेटे! बहुत हैं, पर लेने वाले नहीं हैं। नहीं, महाराज जी! हमको दिला दीजिए। चल, पहले पात्रता तो विकसित कर। बेटे! गाय अपने थन का दूध, अपने बच्चे को पिलाती है, कुत्ते के बच्चे को नहीं। हमको सिद्धि दिला दीजिए। बेटे! पहले इस लायक पात्र तो बन, ताकि सिद्ध पुरुष, महात्मा, देवता अनुग्रह कर सकें।
पात्रता का विकास करें
मित्रो! पात्रता का विकास करने के लिए तप करना पड़ता है और तप करने के लिए हिम्मत चाहिए, साहस चाहिए और संकल्पवान होना चाहिए। पार्वती जी जब शंकर जी को पाने के लिए तप कर रही थीं। तब पार्वती जी के पास सप्तर्षि आए। उन्होंने कहा—"क्यों अपना समय नष्ट कर रही हो?" पार्वती जी बोलीं—"जब तक हमारा प्रण पूरा नहीं होता, तब तक हम तप करेंगी।" श्रेष्ठ कामों के लिए हिम्मत चाहिए। हिम्मत, ऐसा साहस जो डगमगा न पाए। पार्वती जी हिमालय की पुत्री थीं। उनका संकल्प अडिग था। सप्तर्षियों ने उनकी परीक्षा ली। उन्होंने कहा—"क्या फायदा ऐसे व्यक्ति के लिए तप करने से, जिसने कामदेव को भस्म कर दिया। जिसके पास खाने-पीने को भी नहीं है। न घर है, न कोई साधन? आप तो राजकुमारी हैं। सुख-सुविधाओं में पली हैं। आपको तो अनेक वर मिल जाएँगे।" आपको पता है कि फिर पार्वती जी ने क्या कहा? उन्होंने कहा—
जन्म कोटि लगि रगर हमारी।
बरई संभुन त रहउँ कुआरी॥
एक जन्म नहीं, कोटि जन्म तक की प्रतीक्षा है। एक जन्म, दस जन्म, सौ जन्म, हजार जन्म, लाख जन्म नहीं, कोटि जन्म तक की बात है। हम उनको पाकर के रहेंगे, ऐसा दृढ़ निश्चय पार्वती जी का था। यह कार्य निष्ठावान, दृढ़ संकल्प, साहसवान का है। साहस श्रेष्ठ कार्य के लिए होना चाहिए। हमने तो निश्चय कर लिया है कि अपने प्रण से हटना नहीं है। किसी श्रेष्ठ काम को करने की, आदर्श काम करने की लोगों में कल्पना ही नहीं आती? किसी की हिम्मत ही नहीं होती और हिम्मत भी की तो हमारे घरवाले नाराज हो जाएँगे। हमारी नानी नाराज हो जाएँगी। हमारे मुहल्ले वाले नाराज हो जाएँगे। इस तरह पानी के बबूलों के तरीके से हमारे सारे-के-सारे निश्चय और संकल्प मिट जाते हैं।
मित्रो! संकल्प मन से किए जाते हैं और उन्हें निभाने के लिए दृढ़ निश्चय की, साहस की आवश्यकता होती है। मन की गति को मैं नहीं जानता, लेकिन कहा जाता है कि मन में हजार हाथियों के बराबर शक्ति और साहस होता है। मन चंचल भी होता है और साहसी भी होता है। अगर मन से कुछ संकल्प कर लिया जाता है, तो उसे कोई ताकत पूरा करने से रोक नहीं सकती। हाँ, बाधाएँ तो आती हैं, पर संकल्पवान व्यक्ति उन्हें पार करके अपने लक्ष्य तक पहुँच ही जाता है। मैं सामान्य कार्यों की बात नहीं कर रहा। श्रेष्ठ कार्य निष्ठावान, निश्चयवान, साहसवान व्यक्ति ही कर पाता है। किसी से कुछ लेने के लिए नहीं कि हमने निश्चय कर लिया कि हम अमुक चीज लेकर ही रहेंगे। श्रेष्ठ काम, आदर्श काम, जिसको करने के लिए तो कल्पना ही नहीं आती। कुछ-कुछ कल्पना उठी भी तो जल्दी ही खतम हो जाती है। कभी हिम्मत ही नहीं पड़ी। अगर हिम्मत पड़ी भी तो घरवाले नाराज हो जाएँगे, बीबी नाराज हो जाएँगी, पड़ोसी नाराज हो जाएँगे। मुहल्ले वाले क्या कहेंगे कि देखो माला घुमाता है? पानी के बबूलों के तरीके से हिम्मत कहाँ गायब हो जाती है? समझ ही नहीं आता।
सिद्धांतों की जीत है सच्ची जीत
मित्रो! आप क्या सोचते हैं? क्या करते हैं? मैं नहीं जानता, लेकिन मन की शक्ति को तो कहते हैं कि हाथी के बराबर वह शक्तिशाली है। शरीर की दृष्टि से मैं नहीं कहता, लेकिन मन की दृष्टि से आदमी को बहुत मजबूत और हिम्मतवाला होना चाहिए। एक टिटहरी और उसके बच्चे का साहस देखिए, हार-जीत मत देखिए। ईसामसीह को फाँसी पर-क्रास पर लटका दिया था, तो उनको हारा हुआ कहें या जीता हुआ कहें? आपके हिसाब से जीता हुआ हो या हारा हुआ हो, लेकिन मेरी दृष्टि में बेटे! वही आदमी सफल है, जो सिद्धांतों के लिए, आदर्शों के लिए अपनी जान गँवाना स्वीकार कर ले। वे आदमी हारे हुए नहीं, जीते हुए हैं। गाँधी जी को गोली मार दी गई। उनको आप हारा हुआ मानेंगे या जीता हुआ मानेंगे? गणेश शंकर विद्यार्थी को कानपुर के दंगे में शहीद कर दिया गया। ऐसे व्यक्ति को आप हारा हुआ मानेंगे या जीता हुआ मानेंगे? आदमी का साहस ही क्या जो मौत का मुकाबला नहीं कर सकता? मुसीबतों का मुकाबला नहीं कर सकता? बेटे! जीतता वह है, जो सिद्धांतों पर चलता है और सिद्धांतों को जीता है और जो सिद्धांतों से हार गया, वह मरा हुआ आदमी है। वह शारीरिक दृष्टि से तगड़ा है, तो क्या और दुबला पतला है तो क्या? इससे कोई फरक नहीं पड़ता। बात आदर्शों और सिद्धांतों को जीवन में समाविष्ट करने की है। आदमी की हिम्मत और साहस, उसे हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। अच्छे कामों के लिए, श्रेष्ठ कामों के लिए हिम्मत बनाकर चलिए।
मित्रो! अच्छे कामों के लिए, अच्छे सिद्धांतों के लिए पूरी हिम्मत और बहादुरी के साथ लगे रहेंगे, तो हमेशा मददगार मिलते रहेंगे। अगर हमारा इरादा गलत है, तो शुरू में एकाध मददगार मिलेगा, परंतु जब वह समझ लेगा कि इनका इरादा ठीक नहीं है, तो कहेगा कि अरे यह बेवकूफ है और उसका मजाक उड़ाएगा। सहयोग भी नहीं करेगा। अगर आपका इरादा नेक है और आप आदर्शों के लिए, सिद्धांतों के लिए जीते हैं, तो आपको अनुदान मिलते चले जाएँगे। आप सब महापुरुषों की हिस्ट्री देख लीजिए। श्रेष्ठ काम करने वालों की हिस्ट्री इसी बात पर टिकी रही है कि वे सिद्धांतों के लिए जिए हैं और सिद्धांतों के लिए मरे हैं। जो हिम्मत के साथ अपने सिद्धांतों पर डटे रहे, वे सफलता के शिखर तक पहुँचे। इस हिम्मत का नाम है—'प्राणमय कोश'। प्राणमय कोश की ताकत अगर हमारे पास हो, तो हम आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं। प्राणमय कोश की ताकत-प्राणमय कोश को शक्ति टैंकों से बड़ी है, रॉकेटों से बड़ी है, तोपों से बड़ी है, बंदूकों से बड़ी है। प्राणवान आदमी, हिम्मतवाला आदमी संकल्प के साथ में, जिस क्षेत्र में काम करने के लिए चल देता है, तो परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने पर भी उसे आगे बढ़ने में कोई नहीं रोक सकता। वह अवरोधों को पार करता हुआ, अपने लक्ष्य तक पहुँच ही जाता है। वह हिम्मत के सहारे स्वयं भी आगे बढ़ता है और अनेकों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।
मित्रो ! दूसरों को ओर मत देखो। दूसरों का आसरा मत तको। दूसरों पर आश्रित मत रहो। अपना सहारा स्वयं बनो और दूसरों को भी सहारा दो। यह क्या है? बेटे! यह स्वावलंबन की विधि है। आत्मनिर्भर बनो। यह वह विधि है, जो आपका काम पूरा करने की राह बनाती है। रुकावटें तो आएँगी, पर उनको पार करना और हिम्मत से मुकाबला करना आवश्यक है। यह हमारा देवता है, जिसको हम प्राणदेवता, हिम्मतवाला देवता कहते हैं। दुनिया में कितनी कथा-कहानियाँ हैं, जिसमें देवताओं ने उनकी सहायता की। वे देवता हमारे और आपके भीतर हैं। सबकी सहायता हिम्मत ने की। कहावत है—'हिम्मत-ए-मर्द तो मदद-ए खुदा।' जो व्यक्ति हिम्मत करते हैं, उनकी सहायता भगवान करता है।
मनोमय कोश का जागरण
साथियो! तीसरा देवता एक और भी है, जिसको हम मनोमय कोश कहते हैं। मनोमय कोश किसे कहते हैं? यह हमारा मन है, मस्तिष्क है। यह इस बात पर टिका है कि हमारा मन कैसा है? भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में सीधा भी रहता है और उलटा भी रहता है। दोनों ही परिस्थितियों में हम अपने आप को काबू में रखें, तो रास्ता तलाश कर सकते हैं। अपने को कायम रख सकें, शक्ति इसी का नाम है। संतुलन इसी का नाम है। कभी हमारा काम ठीक चलता है, तो कभी हम कम काम करते हैं। परिस्थितियाँ हैं—कभी बिगड़ जाती हैं, तो कभी ठीक हो जाती हैं। इसके लिए घरवालों को, भाई-भतीजों को अथवा दूसरों को दोष न दें। हम अपने दिमाग को शांत रखें, स्थिर रखें और अपनी बात पर कायम रहें।
मित्रो! परिस्थितियाँ आती-जाती रहती हैं। इसमें हम क्या कर सकते हैं? परिस्थितियों का अंदाजा लगाना एक बात है और परिस्थितियों का मुकाबला करना एक बात है। परेशान होना और हैरान होना—ये अलग बातें हैं। एक मुसीबत तो यह थी कि आपके घरों में चोरी हो गई, मौत हो गई और एक मुसीबत यह है कि आपने शोर मचाना शुरू कर दिया। रोटी खाना बंद कर दिया। आपकी आँखें और खराब हो जाएँगी। जो मरा-सो, यह तो जिंदा होने वाला नहीं है। अब आप अस्पताल जाकर अपनी आँखें ठीक कराइए। नहीं साहब! रोना तो पड़ेगा। मित्रो। परिस्थितियाँ तो आती ही हैं। आदमी जिन परेशानियों को दूर करने में लगा रहता है, उनसे सीख नहीं लेता! हे राम! अब क्या करेंगे? कैसे रहेंगे? अपनी मनोभूमि ठीक करें। मन-बुद्धि से काम लें। परिस्थितियों से निपटने पर विचार करें। उन्हें काबू में करने की कोशिश करें। परंतु हम क्या करते हैं? हंगामा शुरू कर देते हैं। दहाड़ें मारते हैं और सारे-के-सारे घरवालों की नाक में दम कर देते हैं। हमें अपने दिमाग पर कंट्रोल ही नहीं है। सुख-दुःख तो आते ही रहते हैं। हम हर परिस्थिति में संतुलन बनाकर चलें। धैर्य और मनोबल से काम लें, तो जिंदगी में मजा आ जाए।
मित्रो ! मनोमय कोश में एक और बात जुड़ी हुई है और वह है—हमारा विवेक। दूर की बात सोच-समझकर चलें। जवानी में हम अपनी हर बात सबसे मनवाते हैं। क्या दूसरे की कोई इच्छा नहीं? नहीं साहब! हमारी मनमरजी ही चलेगी। जैसा हम कहेंगे, वैसा ही सबको करना पड़ेगा। सबसे अच्छा किसान है, जो अपने खेत में बीज बो देता है और छह महीने तक इंतजार करता है। मेहनत करता है और सोचता है कि परमात्मा जो करेगा, अच्छा करेगा। और वह सफल भी होता है। यह किसान को दूरदर्शिता है। इसी के साथ एक और चीज जुड़ी है, जो हमारे दिमाग से संबंध रखती है। उसका नाम है—कर्तृत्व। यह हमारे दिमाग का काम है, हमारे मनोमय कोश का काम है। हमारे कर्तृत्व और हमारे फर्ज ऐसे होने चाहिए कि समाज हम पर गर्व करे। मनोमय कोश के ऊपर आपने नियंत्रण कर लिया, तो मैं यह कहता हूँ कि आप अपनी जिंदगी में यशस्वी होते चले जाएँगे। तेजस्वी होते हुए चले जाएँगे। और न जाने क्या-से-क्या होता चला जाएगा? अगर हम अपने दिमाग को संतुलित और नियंत्रित कर लें तब? अन्यथा हमारा मन दो कौड़ी के लोभ में फँसा रहता है और हम लोभ की दलदल में फँसते चले जाते हैं। मन ही हमारे अच्छे-बुरे कर्मों का जिम्मेदार है। हमारे नियंत्रित एवं संतुलित मन को बड़े-से-बड़े प्रलोभन भी नहीं डिगा सकता।
विषम परिस्थितियों में संतुलन रखें
मित्रो! माँगने वाले की इच्छाएँ कभी पूरी नहीं होती, बढ़ती ही जाती हैं। छाया के पीछे भागिए, छाया आगे-आगे भागती है। आप देवताओं से माँगते रहिए, पर अगर हमारा व्यक्तित्व और कर्तृत्व ठीक है, तो देवताओं को हमारी मदद करने में देर नहीं लगती। राम ने जब राक्षसों का संहार किया, तो देवताओं ने फूल बरसाए। मेघ बूँद-बूँद पानी बरसाते हैं और सागर, ताल-तलैया, बरतन सब भर जाते हैं। देवताओं से लेने की पात्रता भी होनी चाहिए। हर किसी को थोड़े ही उनके अनुदान मिलते हैं। मानसिक संतुलन का संबंध केवल मानसिक क्रियाकलापों से ही नहीं है, वरन परिस्थितियों से भी है। आप दिमाग से ठीक काम कर सकते हैं कि नहीं? जिम्मेदारियों का आप क्या करेंगे? आपकी परिस्थितियाँ बाधित होती हैं, तो आप अपने कर्तव्य पूरे कैसे करेंगे? बेटे! परिस्थितियों से तालमेल बैठाना आपके मन का काम है। आपका मन मनोमय कोश की सिद्धि है। मनोमय कोश की सिद्धि का चमत्कार यही है कि विषम परिस्थितियों में भी संतुलन बना रहे। मन में दृढ़ संकल्प हो तो सब ठीक हो जाता है।
मित्रो! सावित्री की कथा आपने सुनी होगी। उसके मन में एक ही बात थी कि मैं जैसी हूँ, वैसा ही मुझे पति मिल जाए। अनेक राजकुमार, राजा उसके पिता ने देखे। शकल से अच्छे, धन-वैभव सब होते हुए भी पुत्री के योग्य कोई नहीं दिखा। उन्होंने बेटी से कहा—"तुम स्वयं अपना वर तलाश करो।" सेना की एक टुकड़ी के साथ सावित्री रथ में बैठकर वर तलाशने निकली। जंगल में एक युवक उसे दिखा, जो लकड़ी काट करके ले जा रहा था। बड़ा ही तेजस्वी, देखकर उसने सेना को रुकने का आदेश दिया और युवक से पूछा—"आप कौन हैं?" उसने कहा—"हमारे माता-पिता जंगल में तप कर रहे हैं और हमने निश्चय किया है कि जब तक हमारे माता-पिता हैं, हम उनकी सेवा करेंगे। उन्हीं के साथ रहेंगे।" "गुणवान, विद्यावान्, रूपवान होते हुए भी आप जंगल में रहते हैं। शादी क्यों नहीं की?" सावित्री ने कहा ! उसने कहा—"हमने अपने माता-पिता की सेवा का संकल्प लिया है। सो मन, वचन और कर्म से उनकी सेवा करेंगे या अपनी गृहस्थी सँभालेंगे?" सावित्री ने मन में दृढ़ निश्चय किया कि शादी तो इसी से करनी है। वापस आकर पिता को सब बताया। नारद जी ने कहा—"वह लड़का तो एकाध साल ही जिंदा रहेगा। तुम दूसरा कोई वर ढूँढ़ लो।"
मित्रो! सावित्री ने कहा—"अब तो कुछ भी हो, शादी तो हम सत्यवान से ही करेंगी।" सबने छान-बीन की और कहा—"घर उसके पास नहीं है। संपत्ति उसके पास नहीं है। उसके माँ-बाप का राज्य भी छिन गया है। खाने पीने का ठिकाना नहीं है।" उसने कहा—"स्वाभिमान उसके पास है। हिम्मत उसके पास है।" जिसके पास मनोबल है, वह व्यक्ति इतना जबरदस्त है कि कोई उसका मुकाबला नहीं कर सकता। मैं तो यही कहता हूँ कि सावित्री उसी का वरण करेगी, जो सत्यवान है। निष्ठावान है, उसी की मदद सावित्री करेगी। गायत्री-सावित्री की पूजा अक्षत, पुष्प द्वारा की गई पूजा नहीं है, अपितु एक मानसिक वृत्ति है, ताकि लोभ और मोह से अपने आप को अलग रख सकें। अपनी दिनचर्या, अपने क्रियाकलापों पर ध्यान रखें। हमारे फर्ज क्या हैं? हमें क्या करना चाहिए? मानसिक वृत्तियों की ताकत इतनी जबरदस्त होती है कि उसने मौत-से मुकाबला किया और मौत के देवता को भी मजबूर कर दिया कि वे अपना इरादा बदल दें। उसने केवल मजबूत मन की शक्ति के द्वारा पति, राज्य, पुत्र आदि सब कुछ प्राप्त कर लिया। इस कथा में मित्रो ! सिद्धांत का प्रतिपादन है। यह बात सौ फीसदी सही है कि कमजोर-से-कमजोर आदमी, कम प्रगति का आदमी, निर्बल आदमी भी दृढ़ निश्चय के साथ, ईमानदारी के साथ अगर पारमार्थिक काम करता है, तो वह काम इतना शानदार और महत्त्वपूर्ण होगा कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते। जिस तरीके से सावित्री ने मौत को भी हरा दिया। एक छोटी-सी कन्या ने यमराज को अपना फैसला बदलने पर मजबूर कर दिया, आप भी ऐसा कर सकते हैं।
मित्रो! अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश—ये तीनों हमारे जीवन में ऐसी शक्तियाँ हैं कि अगर इनको हम बढ़ाना चाहें, तो अपने आप को सँभालने, अपने आप को सही करने की कोशिश करें, तो हमारा जीवन धन्य हो जाए। ये हमारे जीवन के प्रत्यक्ष देवता हैं, देवस्थान हैं, अमिट स्थान हैं। सारी चीजें हमारे भीतर ही हैं। ये आंतरिक शक्तियों हैं। हमारा बहिरंग जीवन हमेशा भटकता रहता है। हम हर चीज को हाथ लगाकर देखते हैं। हर देवी-देवता से हम मिन्नतें करते हैं। नाक रगड़ते हैं कि आप हमारी सहायता कीजिए। हम हारे-थके दर-दर भटकते हैं। अगर हम अपने भीतर देखना शुरू करें, मंथन करें, अंतःकरण में झाँकें तो हम देखेंगे कि हमारे भीतर के ये देवता किस तरीके से जाग्रत होकर हमें लाभ देते हैं।
देवता, बाहर की शक्ति, बाहर की परिस्थिति उसी हिसाब से होती है, जिस हिसाब से हमारा अंतरंग होता है। हमारा अंतरंग ठीक होगा, हमारा व्यक्तित्व ठीक होगा, हमारा मनोबल दृढ़ होगा, हमारा साहस सही होगा, संयम हमारा सही होगा। देवता इन्हीं का नाम है। हमारे जीवन में धैर्य, साहस, संयम, कर्तव्यनिष्ठा अगर है, तो भगवान का अनुग्रह प्राप्त होगा। भगवान का कृपा-पात्र होने के लिए हमको अपने जीवन में अध्यात्म की शक्तियों का समावेश करना और उनकी प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए। अपने अंदर पात्रता का विकास करना चाहिए, अंतर्जगत् के देवताओं का अनुग्रह मिलना तभी संभव है। आज मैंने तीन बातें बताई। आशा है आप इन्हें अपने जीवन में लाने का प्रयास करेंगे और अपने गुणों का विकास करेंगे।
आज की बात समाप्त।
॥ॐशान्तिः॥