उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
चेतना का परिष्कार—अध्यात्म
परमपूज्य गुरुदेव के उद्बोधनों की विशिष्टता यह होती थी कि वे साधकों की आंतरिक जिज्ञासा को भाँपकर उसका समाधान अपने उद्बोधनों के माध्यम से सहजता से कर दिया करते थे। अनेकों के मन में अध्यात्म के वास्तविक स्वरूप के संदर्भ में जिज्ञासा हुआ करती है। उनकी इसी जिज्ञासा का समाधान वे अपने इस उद्बोधन में करते दिखाई पड़ते हैं। वे कहते हैं कि किसी भी वस्तु का मूल्य उसके परिशोधन से आता है। जमीन से निकलने वाला क्रूड ऑयल बहुत मूल्य का नहीं होता, पर उसी का परिशोधन होने पर वह पेट्रोल में, डीजल में अर्थात कीमती पदार्थों में बदल जाता है। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि अध्यात्म भी इसी तरह से मनुष्य के व्यक्तित्व का परिशोधन सूक्ष्मतम स्तर तक करता है। चेतना का परिष्कार ही सच्चा अध्यात्म है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........
व्यक्तित्व का परिशोधन
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
देवियो, भाइयो! जमीन में से जब तेल निकलता है तो उस समय अगर आप देखें, तो आपको अचंभा होगा कि जमीन में से कैसा काला-काला, गाढ़ा-गाढ़ा क्रूड ऑयल के तरीके से बहुत बेकार-सा तेल निकलता है। जमीन में से निकले हुए तेल को धीरे-धीरे साफ करना शुरू करते हैं। सड़कों पर जो काले रंग की कोलतार-डामर बिछाई जाती है, वह उसी का मैल है। साफ करने के बाद में डीजल-तेल निकलता है। उस तेल को फिर साफ कर लेते हैं, तो मिट्टी का तेल निकल जाता है। मिट्टी के तेल को फिर और साफ करते हैं, तो पेट्रोल बन जाता है।
पेट्रोल को साफ करने पर हवाई जहाजों के काम आने वाला बढ़िया पेट्रोल बन जाता है। उसको बाद में फिर से साफ करते हैं, तो रेक्टीफाइड स्प्रिट बन जाती है, जो दवा के काम आती है। कौन-सी चीज? वह तेल, जो पहले काला, गंदा सा दीखता था, जो छूने से ऐसा अजीब-सा मालूम पड़ता था, जो हाथ-पैर और कपड़े भी खराब करता था, अब वह संशोधन करते-करते रेक्टीफाइड स्प्रिट बन जाता है।
मित्रो ! मैं क्या कह रहा था? मैं यह कह रहा था कि परस्पर शोधन करते-करते सामान्य चीजें, घटिया चीजें भी बढ़िया चीजें बन जाती हैं। इसी प्रकार व्यक्तित्व के बारे में यह कह रहा था कि आदमी के व्यक्तित्व की सत्ता का परिशोधन करते-करते, शुद्ध करते-करते व्यक्ति संत बन जाता है। व्यक्ति सिद्धपुरुष बन जाता है। व्यक्ति महात्मा बन जाता है, व्यक्ति धर्मात्मा बन जाता है और परमात्मा बन जाता है-पेट्रोल के तरीके से, रेक्टीफाइड स्प्रिट के तरीके से, इसी तरह आप जो बारूद देखते हैं, वह क्या चीज है? वह जला हुआ कोयला है।
जितनी भी बारूद बनती है, वह कोयले से बनती है। कोयले में फॉस्फोरस जैसी कुछ चीजें मिला देते हैं, जो बाद में मामूली-सी बारूद बन जाती है। कौन-सी वाली बारूद? जो ब्याह-शादियों में और दीवाली के समय बच्चों के लिए खेल-तमाशे करने के काम आती है। सस्ती वाली बारूद के बाद में, बंदूकों में काम आने वाली वह बारूद बनती है—कारतूस, जो निशाना लगाने के काम आती है, गोली चलाने के काम आती है।
मित्रो! उसके बाद में क्या बनता है? उसके बाद और अधिक साफ करते-करते, और अधिक परिशोधन करते करते डायनामाइट बन जाती है। डायनामाइट किसे कहते हैं? बेटे! डायनामाइट उसे कहते हैं, जिससे छोटे-छोटे कारतूस बना दिए जाते हैं और पहाड़ों के नीचे उन्हें लगा देते हैं, किलों के नीचे लगा देते हैं और उनसे पहाड़ों को, किलों को बिस्मार कर देते हैं। उस छोटे से कारतूस को जमीन में गड्ढा खोदकर ठूँस देते हैं और फिर उसमें किसी तरीके से आग की चिनगारी पहुँचा देते हैं।
चिनगारी जैसे ही पहुँची, वह बारूद इस तरह से उड़ती है कि टैंकों को, ट्रैक्टरों को, बुलडोजरों को एक कारतूस खतम कर देता है। एक कारतूस, एक टैंकर को खतम करने के लिए काफी है। यही डायनामाइट थी, जब पाकिस्तान का हमला हुआ था। जब टैंक हमला करने आए थे, तो उन्होंने इन्हें लगा दिया था और उसी से उनका सफाया करके, चील के तरीके से, कुत्तों के तरीके से उड़ाकर फेंक दिए थे। इतनी बड़ी-बड़ी मशीनें तबाह हो गई थीं। बड़ी जबरदस्त होती है बारूद। जो कोयला जमीन में से निकलता है, वह सफाई करते-करते इतना जबरदस्त बन जाता है कि वह हीरे के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
इनसान-इनसान में गुणवत्ता का फरक
मित्रो! हीरे और कोयले में क्या फरक पड़ता है? कुछ फरक नहीं पड़ता। आप दोनों को लेबोरेट्री में भेज दीजिए और पता कीजिए कि कोयले में क्या फरक है और हीरे में क्या फरक है? दोनों के भीतर जो परमाणु हैं, उनमें कोई फरक नहीं है। दोनों बिलकुल एक चीज हैं। जैसे पत्थरों का कोयला खदान से निकलता है, ऐसे ही हीरे भी निकलते हैं। चमक का फरक नहीं है? बेटे! बिलकुल फरक नहीं है, रत्ती भर का फरक नहीं है, तो क्या फरक है? क्वालिटी का फरक है। यही बात इनसान के बारे में भी लागू होती है।
इनसान में भी क्वालिटी का फरक है। नेपोलियन बोनापार्ट जरा-सा आदमी था। पाँच फुट, दो इंच का आदमी था। कितना पहलवान था? बिलकुल पहलवान नहीं था। कमजोर-सा आदमी था, लेकिन उसकी क्वालिटी थी। आल्प्स पहाड़ के पास जाकर वह बोला—आल्प्स, अब तक कोई इनसान तुझे पार नहीं कर सका। अब तुझे हमें रास्ता देना पड़ेगा। अगर रास्ता नहीं देगा, तो इन्हीं पैरों की, बूट की ठोकर मारते हुए, रौंदकर तुझे फेंक दूँगा। तुझे रास्ता देना पड़ेगा। वास्तव में आल्प्स पहाड़, जो यूरोप का सबसे ऊँचा पहाड़ है, उसको पार करने का दावा करने या पार करने की हिम्मत किसी में नहीं थी, लेकिन नेपोलियन ने उस आल्प्स पहाड़ के ऊपर होकर के पार जाने का रास्ता बना लिया और दुनिया को दिखा दिया कि नेपोलियन अपने पैरों के नीचे, पैरों की, बूट की ठोकर से आल्प्स को कुचलकर फेंक सकता है।
मित्रो! क्या ऐसा हो सकता है? हाँ, हो सकता है। नेपोलियन में क्या बात थी? आदमी था। कैसा आदमी था? क्या फरक था? कुछ भी फरक नहीं था। बेटे, सिर्फ क्वालिटी का फरक था। आपकी क्वालिटी, घटियावाली क्वालिटी है। दरिद्र क्वालिटी है, गई-गुजरी क्वालिटी है, घिनौनी क्वालिटी है, सड़ी हुई क्वालिटी है और बदबूदार क्वालिटी है। अभी और कुछ कहूँ या इतना ही काफी है। यह आज के इनसानों की क्वालिटी है। धर्म-अध्यात्म में हम आपको क्या सिखाते हैं? जरा बताइए।
मित्रो! हम एक चीज यही सिखाते हैं कि आदमी की क्वालिटी कैसे बढ़ाई जाती है? यही अध्यात्म है? इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। नहीं, साहब! अध्यात्म का तो मतलब कुछ और होता है। क्या मतलब होता है? बताना तो सही। साहब! यह मतलब होता है कि कोई क्रिया कीजिए और क्रिया करने से चमत्कार पैदा कीजिए। बेटे! यह क्या कह रहा है? साहब! यह कह रहा हूँ कि क्रिया कीजिए और चमत्कार पैदा कीजिए। क्रिया से चमत्कार कैसे पैदा होगा? नहीं, साहब! क्रिया कीजिए, चमत्कार पाइए, क्रिया कीजिए, चमत्कार पाइए।
बाजीगरी नहीं है अध्यात्म
मित्रो! क्रियाएँ क्या हैं? आपको यह मालूम है? क्रियाएँ संकेत करती हैं, दिशाएँ देती हैं कि आखिर हमको करना क्या है? आखिर हमको जीना कैसे है? यह सारे-का अध्यात्म, वह अध्यात्म है, जिसको आपने बाजीगरी का नाम दिया हुआ है। आपको मैं बाजीगरी का इतिहास बताता हूँ। आप बाजीगरी के विद्यार्थी हैं। बाजीगर कौन होते हैं? जो क्रिया पर विश्वास करते हैं। हाथ की हेराफेरी करने से ये मिल सकता है और यह करने से यह मिल सकता है। नेति करने से यह मिलता है, धोति करने से यह मिलता है, बज्रोली करने से यह मिलता है।
आप क्रिया पर विश्वास करते हैं, इसलिए मैं आपको बाजीगर कहता हूँ और बाजीगर की संतान कहता हूँ। क्रिया से क्या हो सकता है? तमाशे से क्या हो सकता है? कुछ नहीं हो सकता। क्रिया किस काम के लिए है? क्रियाओं का मकसद एक है। क्रिया एक शिक्षण है। प्राचीनकाल में पुस्तकें कम थीं, इसलिए ये इशारे बना दिए गए थे कि जीवनयापन करने के ये तरीके अख्तियार करने चाहिए। तरीके अख्तियार करने के लिए तरह-तरह की क्रियाएँ बना दी गई थीं। क्रिया का अपने आप में कोई महत्त्व नहीं है। क्रिया का महत्त्व सिर्फ इस माने में है कि वह मार्गदर्शन करती है कि आपको जीना कैसे चाहिए?
मित्रो! पहले यह जान लीजिए कि अध्यात्म क्या चीज है? अध्यात्म के पीछे की बात बाद में जानिए। अध्यात्म है—"साइंस ऑफ सोल?" 'सोल' की साइंस है—अध्यात्म। 'सोल' किसकी? जीवात्मा की। जीवात्मा की साइंस होती है? एक फिजिक्स साइंस होती है। एक साइंस वह है जो पदार्थ से, मैटर से ताल्लुक रखती है, जिसे केमिस्ट्री कहते हैं, जूलॉजी कहते हैं, बायोलॉजी कहते हैं। यह सारी-की चीजें पदार्थ से ताल्लुक रखती हैं। यह फिजिक्स है, जिसे विज्ञान कहते हैं, साइंस कहते हैं।
चेतना का परिष्कार—अध्यात्म
एक और साइंस है। वह कौन-सी साइंस है? उसका नाम है—"साइंस ऑफ सोल।" पदार्थ की साइंस अलग है, मैटर की साइंस अलग है, परंतु 'सोल' मैटर नहीं है। 'सोल' एक चेतना है। चेतना को हम कैसे परिष्कृत कर सकते हैं? चेतना में निखार कैसे ला सकते हैं और चेतना की क्वालिटी हम कैसे बढ़ा सकते हैं? सारे-के उच्चस्तरीय सिद्धांतों के समुच्चय का नाम अध्यात्म है। अध्यात्म को आप क्या समझते हैं? आप तो ऐसी वाहियात बातें समझते हैं, जिन्हें जानकर गुस्सा आता है। आप क्या समझते हैं? आप तो यह समझते हैं कि शरीर में, दिमाग से क्रिया करेंगे, तो यह कमा लेंगे। यह फायदा कर लेंगे, इस देवता को पकड़ लेंगे। मुक्ति पा लेंगे। यह चमत्कार मिल जाएगा। आप न जाने क्या-क्या ख्वाब सँजो करके रखते हैं?
मित्रो! प्रत्येक क्रिया के पीछे शिक्षण है। प्रत्येक क्रिया के पीछे प्रेरणा है, प्रत्येक क्रिया के पीछे मार्गदर्शन है और प्रत्येक क्रिया के पीछे सूक्ष्म प्रक्रिया है, जो हमको सिखाती है कि हमारे जीवन की क्वालिटी कैसी रहनी चाहिए? क्वालिटी का एक उदाहरण मैं आपको बता सकता हूँ। देवताओं के सामने हम पूजा-पत्री का सामान रखते हैं। क्या-क्या रखते हैं? धूपबत्ती रखते हैं, चंदन रखते हैं, रोली रखते हैं, अक्षत रखते हैं, दीपक रखते हैं। आपकी परिभाषा के मुताबिक़ ये सब चीजें—चमत्कारिक होनी चाहिए। आपकी परिभाषा से देवताओं को इन वस्तुओं के द्वारा प्रसन्न होना चाहिए। इन वस्तुओं के द्वारा बृहस्पति को प्रसन्न करने का क्या तरीका है? पीपल का पत्ता, केले का पत्ता, केले के पत्ते पर हल्दी, हल्दी के ऊपर आँवला, आँवले के ऊपर सुपारी लेकर के चले जाइए और बरगद के नीचे रख करके आइए, बृहस्पति देवता प्रसन्न हो जाएँगे। आपकी परिभाषा के मुताबिक़ यही तरीका है न?
जैसे आप, वैसे आपके विचार। जैसे आपके सिद्धांत, जैसे आपके विश्वास—एक से बढ़कर एक वाहियात हैं—बृहस्पति देवता को प्रसन्न करने के लिए, शनि देवता को प्रसन्न करने के लिए लोहे की अंगूठी पहन लीजिए। अच्छा आप अँगूठी पहनेंगे और शनि देवता को क्या मिलेगा? चार आने। तेल में उनकी झाँकी देख लीजिए। बेटे! यही तेल शनि देवता को दे आ, ताकि शनि देवता अपनी मालिश तो कर लेंगे। तेल से दाल में बघार लगा लेंगे, छौंक लगा लेंगे और दाल तो खा लेंगे। नहीं साहब! शनि के दिन तेल लगा लीजिए, मालिश कर लीजिए, तो शनि देवता को फायदा हो जाएगा। चल मूर्ख! बेसिर-पैर की बातें करता है, बेबुनियाद की बात करता है।
अध्यात्म को बदनाम ना करें
मित्रो! बात को समझिए। समझेंगे नहीं, तो हमारा अध्यात्म बदनाम होता चला जाएगा, नाश होता चला जाएगा और हर आदमी नास्तिक होता चला जाएगा। यह नास्तिकता की निशानी है। नहीं साहब! क्रिया करने से यह फायदा हो जाता है। आध्यात्मिकता का यह सस्तापन नास्तिकता की निशानी है। अगर इतना सस्ता अध्यात्म को बनाएँगे, तो आप निराश होंगे। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हम जब देवी-देवताओं के सामने पूजा करते हैं, तो उस पूजा करने के पीछे शिक्षण है, मार्गदर्शन है, प्रेरणा है। हम देवता के सामने फूल चढ़ाते हैं। फूल चढ़ाने से क्या फायदा होता है? आपके हिसाब से देवता एक ऐसा आदमी है, जिसको हमेशा गंदगी में रहना पड़ता होगा, जैसे मच्छर, मक्खी गंदगी में रहते हैं।
देवता माने गंदगी में रहने वाला, जिसको कभी खुशबू नहीं मिली, तो साहब! लीजिए, फूल लीजिए। क्या बात है आपने फूल खिला दिया? जिंदगी भर तो हमारे बाप दादाओं ने फूल नहीं देखे थे, यह आपकी व्याख्या है। फूल को पाकर के देवता को प्रसन्न होना चाहिए और फिर ले वरदान, ले वरदान। आपकी इस वाहियात सोच, वाहियात कसौटी के हिसाब से देवता को शक्कर की गोलियाँ खानी चाहिए। देखिए साहब! हमको तो बीस साल से शक्कर की गोली नहीं मिली। आपके बराबर दयालु और दानी और कोई नहीं है। अच्छा, तो लीजिए वरदान। शक्कर की सात गोली और सात वरदान—आपकी मान्यता तो यही है न?
मित्रो! हनुमान जी के पास दीपक जलाइए और वरदान पाइए। क्यों साहब! क्या माँगना है? दीपक क्यों ले आए? अरे साहब! हम यहाँ अँधेरे में पड़े थे। रास्ता पता नहीं था कि कहाँ, किधर जाएँ, कहाँ पानी पिएँ? हम घुप्प अँधेरे में पड़े थे। आपने दीपक जला दिया, बहुत मेहरबानी आपकी। अब आप दीपक जलाने का वरदान लीजिए, पर मैं बहुत नाराज हूँ कि आप देवताओं की ऐसी मिट्टी पलीद करते हैं। ये परिभाषाएँ नहीं हैं, जो अपने आप सोच रखी हैं। फिर क्या परिभाषाएँ हैं?
पूजा के प्रतीकों का अर्थ
इसकी परिभाषा यह है कि पूजा के प्रतीक जब हम देवता के सामने रखते हैं, तो वह नसीहत देता है, मार्गदर्शन करता है। फूल हमारा मार्गदर्शन करता है। उस साइंस के हिसाब से जिसका अर्थ होता है—अपने आप को बदलना। फूल हमको बताता है कि वह एक किताब है। फूल एक गुरु है, फूल एक व्याख्यान है, फूल एक कथा है। फूल यह बताता है कि देवता के समीप जाना है, देवता का प्यार पाना है, तो आपको फूल जैसा जीवनक्रम बनाना चाहिए। फूल जैसी सुगंध, फूल जैसा कोमल, फूल जैसा शालीन, फूल जैसा परोपकारी, फूल जैसा हँसने और हँसाने वाला होना चाहिए।
अगर आप फूल से यह शिक्षण प्राप्त कर सकते हों, तो आपका फूल चढ़ाना सार्थक है। क्यों? क्योंकि उस सार्थकता से आपको प्रेरणा मिलेगी, प्रकाश मिलेगा। आप चाहे जहाँ उसका उपयोग करें। हमारी जिंदगी में क्या परिवर्तन होना चाहिए और हमें अपना क्या विकास करना चाहिए? अगर फूल चढ़ा दिया, तो उसके गुण हमको ध्यान रखने चाहिए कि हमें अपनी जिंदगी में क्या करना है? हमें क्या करना है? यह बिना बोलने वाला फूल अपनी मूकवाणी से सिखाता है।
मित्रो! दीपक से क्या मतलब है? दीपक से यह मतलब है कि हमारा दिल स्नेह-प्यार से लबालब भरा हुआ हो। स्नेह क्या है? चिकनाई। तेल, घी को भी स्नेह कहते हैं और प्यार को भी स्नेह कहते हैं। स्नेह से हमारा दीपक, हमारा मिट्टी का कटोरा, हमारा हृदय लबालब भरा हो और हमारी संपदा, हमारी प्यार की संपदा जलती रहे। हम स्वयं जलते रहें, हम स्वयं प्रकाशवान हों और दूसरों को प्रकाश फैलाएँ। अपने आप को जला करके दूसरों को रोशनी देता है, यह दीपक अपने आप में फिलॉसफी है। दीपक अपने आप में दर्शन है। दीपक अपने आप में शिक्षण है। दीपक अपने आप में एक पुस्तक है।
दीपक अपने आप में एक व्याख्यान है। इस व्याख्यान को आप सुनें और समझें, तत्पश्चात यह विचार करें कि क्या यह हमारे लिए संभव है कि दीपक जैसी जिंदगी जिएँ, क्या हमारे जीवन में दीपक जैसे सद्भावों का समावेश संभव है। यदि आप विचार कर सकें और दीपक आपको प्रेरणा देने में समर्थ हो सके और आप दीपक से प्रेरणा ग्रहण कर सकें और प्रेरणा ग्रहण करने के बाद में अपने जीवन में कुछ हेर-फेर बदलाव कर सकें, तो आपका दीपक जलाना सार्थक है। दीपक का यह महत्त्व बिलकुल सही है। दीपक जलाने का माहात्म्य बिलकुल सही है, पर शर्त सिर्फ यही है कि आप दीपक की फिलॉसफी को समझें। फिलॉसफी को समझें ही नहीं, वरन उससे प्रेरणा और प्रकाश लेकर के अपने आप को बदलना शुरू करें, तो आपका दीपक जलाना ठीक है।
मित्रो! हम भगवान को शक्कर की गोलियाँ अर्पित करते हैं, शक्कर की गोलियाँ खिलाते हैं। शक्कर की गोलियाँ खिलाने का तात्पर्य है कि भगवान मिठास को प्यार करते हैं। हमारी वाणी में मिठास हो, हमारे व्यवहार में मिठास हो, हमारे आचरण में मिठास हो। हम चारों ओर शहद बिखेरते फिरें, ताकि हर आदमी हमारी ओर आकर्षित हो। शहद हमारी वाणी, शहद हमारा व्यवहार हो। शक्कर की गोलियाँ भगवान को प्यारी लगती हैं। भगवान शक्कर खाना पसंद करते हैं। भगवान को और कोई जायका पसंद नहीं है। सिर्फ एक ही जायका पसंद है, वो है शक्कर—मिठास।
भगवान जी! आप मिर्च का अचार खा लीजिए। नहीं साहब! हम नहीं खाएँगे मिर्च का अचार, अच्छा तो कचौड़ी का भोग लगा लीजिए। नहीं, कचौड़ी नहीं, हलुआ का प्रसाद बँटेगा। नहीं साहब! हलुआ नहीं, हम तो दालमोंठ बाँटेंगे। नहीं बेटे! शक्कर का ही बाँटना। क्यों साहब! यह क्या मामला है? शक्कर खाते-खाते महादेव जी के दाँतों में कैविटी हुई कि नहीं? दाँत खराब हुए कि नहीं हुए? ज्यादा शक्कर खाने से दाँतों में कीड़े लग जाते हैं और बच्चों के दाँत खराब हो जाते हैं।
आचरण में मिठास लाएँ
मित्रो ! शंकर भगवान तो जब से पैदा हुए, तब से लेकर आज तक शक्कर ही खाते रहते हैं। जो भी पूजा करता है, यही कहता है कि खाइए शक्कर। उससे क्या हुआ? दो खराबियाँ हुई हैं। हमने शंकर जी से पूछा भगवान! सभी लोग आपको शक्कर खिलाते हैं। इससे आपको कोई नुकसान तो नहीं हुआ। शक्कर खाने से दाँत खराब हो गए और ज्यादा शक्कर खाने से डायबिटीज हो गई और देखिए हमको रोज इंसुलिन के इंजेक्शन लगवाने पड़ते हैं। ज्यादा शक्कर खाने वालों का लीवर खराब हो जाता है। ज्यादा शक्कर खिलाने से सारे-का पाप इन्हीं पर पड़ेगा। आप कह देना कि ज्यादा शक्कर खिलाओगे, तो शंकर भगवान नाराज हो जाएँगे और अगर उन्होंने इशारा कर दिया, तो उनकी शक्ति दुर्गा तलवार लेकर के आपका सफाया कर देगी। आप मानते नहीं हैं। महाराज जी! फिर क्या चक्कर है शक्कर का? बेटे ! कुछ नहीं है। क्या है? आपको यह मानकर चलना पड़ेगा कि मिठास जीवन को प्यारी है। अत: आपको भगवान का प्रिय बनने के लिए अपने व्यवहार में, अपने आचरण में, अपने क्रियाकलापों में मिठास का समावेश करना चाहिए।
मित्रो! ये सारी-की क्रियाएँ, जिनको आप क्रियाएँ कहते हैं, इनका मूल्य राई की नोंक के बराबर भी नहीं कह सकते और पहाड़ के बराबर भी नहीं कह सकते। राई की नोंक के बराबर क्या है? राई की नोंक के बराबर यह है कि यह एक शिक्षण है और पहाड़ के बराबर इसलिए है कि इन शिक्षणों को आप स्वीकार कर लें और अपने जीवन में धारण करना शुरू कर दें। अगर आप इन शिक्षणों के अनुरूप अपने आप को ढालना शुरू कर दें, तो पहाड़ के बराबर है और जो माहात्म्य शास्त्रों में दिए गए हैं, वे सभी सही होकर के आपको धन्य कर देंगे।
आप इनसे प्रेरणा ग्रहण करें और अपने जीवन का स्वरूप बदलें। अगर आपका यह ख्याल हो कि क्रिया करने से फायदा हो जाता है, लेकिन हमारा जीवन जैसा घिनौना है, वैसा ही रहना चाहिए। हमारा चिंतन जैसा है, वैसा ही रहना चाहिए। हमारे भीतर जो मलीनताएँ छाई हुई हैं—उन मलीनताओं में हेर-फेर करने की जरूरत नहीं है। केवल क्रियाओं के करने से ही हमको वह फायदा मिल जाएगा, तो मैं यह कहता हूँ कि आप बहुत भारी गलती पर हैं।
मित्रो! आपको जानना चाहिए कि अध्यात्म क्या है? अध्यात्म बाजीगरी नहीं है। उसमें क्रियाओं का घटाटोप नहीं है। क्रियाओं के लंबे-चौड़े महत्त्व नहीं हैं, जैसा कि आपने समझ रखा है। क्रियाओं का क्या महत्त्व हो सकता है? यह मैं आपको कल बता रहा था। क्रियाओं का मैं मजाक उड़ा रहा था, क्योंकि हम सोचते हैं कि परिश्रम कितना कम होना चाहिए और चमत्कार ज्यादा मिलना चाहिए। चमत्कार पाने के लिए—"कर का मनका छोड़कर, मन का मनका फेर।"
मन का मनका फेर
अर्थात मन का मनका फेरना होगा। मन का मनका फेरने के लिए, परिवर्तन करने के लिए अपने आप में हेर-फेर करने के लिए जो शिक्षण दिया जाता है, उसके लिए हम बार-बार हाथ को घुमाते हैं। घूमिए, आगे बढ़िए, आगे चलिए, अपने में परिवर्तन कीजिए। आप तो जड़ होकर बैठे हैं। जड़ता को छोड़िए और चेतना को पकड़िए। परिवर्तन की प्रक्रिया का ध्यान रखिए। इसके लिए सारे-का जीवन चक्र बना है। इसी के लिए हमारी माला है। नहीं साहब! हम तो यह कुछ नहीं करेंगे, बस माला घुमाते रहेंगे।
मित्रो! आप क्रिया को ही काफी मानते हैं, तो आप बाजीगरी पर विश्वास करते हैं। बाजीगरी केवल अपना मन बहलाने के लिए और दूसरों का मन बहलाने के लिए शायद काम भी आती हो, किंतु इसका परिणाम कुछ भी नहीं होगा। बाजीगरों से हमने पूछा कि भाई साहब! क्या हाल है? बोले, अरे साहब! गुजारा भी नहीं होता। आप तो हाथ घुमाकर रुपया बना देते हैं। हाँ साहब! पर वह रुपया हमारे काम नहीं आता। बाजीगर वह है, जो क्रिया को महत्त्व देता है। बाजीगर साहब! आप तो झोली में से आम निकाल देते हैं। आम का दाम तो महँगा है। आपके पास तो आम थे, जो एक किलो के होने चाहिए। कुछ कम भी हो सकते हैं।
कोई बात नहीं, सवेरे से शाम तक आम पैदा कीजिए और चार रुपये किलो के भाव से बीस किलो बना लिया कीजिए, आपका गुजारा हो जाएगा। बोला—अरे साहब! क्या बात करते हैं? सारे दिन भीख माँगते हैं, तो कुछ पैसे इकट्ठे हो जाते हैं और उसी से अपना पेट पाल लेते हैं। आप तो आम बनाते थे, रुपया बनाते थे, दूध बनाते थे? अरे साहब! हम कैसे रुपया, आम और दूध बना सकते हैं, यह सब तो बाजीगरी है। नहीं तो हम 5-5 पैसे क्यों माँगते फिरते? आप भी क्रियाओं को महत्त्व देते रहेंगे, तो ख्वाबों की दुनिया में घूमते रहेंगे।
[क्रमश:]
चेतना का परिष्कार—अध्यात्म
(द्वितीय किस्त)
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव गायत्री साधकों को संबोधित करते हुए अपने इस अप्रतिम उद्बोधन में कहते हैं कि साधना का मूल आधार चेतना का परिष्कार और व्यक्तित्व का परिशोधन है। मनुष्य के व्यक्तित्व का सही और सच्चा मूल्य उसके परिष्कार के उपरांत ही आ पाता है। वे कहते हैं कि जिस तरह से क्रूड ऑयल का मूल्य ज्यादा नहीं होता, परंतु रिफाइनरी से परिशोधित हो जाने के उपरांत वही क्रूड ऑयल महँगे पेट्रोल और ऐरोनॉटिकल ऑयल में बिकता है—वैसे ही अनगढ़ मनुष्य का ज्यादा मूल्य और महत्त्व नहीं होता, परंतु एक परिष्कृत व्यक्तित्व का मूल्य सहस्रों गुना ज्यादा हो जाता है। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि ऐसा करने के लिए हमें हमारे जीवन में सच्ची भगवद्भक्ति को और सच्चे साधनात्मक अनुशासन को स्थान देने की आवश्यकता होगी। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.....
भगवद्भक्ति को प्राथमिकता बनाएँ
देवियो, भाइयो! ख्वाबों की दुनिया में घूमने का परिणाम क्या होगा? आपके हाथ निराशा लगेगी। फिर निराशा का परिणाम क्या होगा? निराशा का परिणाम यह होगा कि उस सिद्धांत के प्रति आपकी आस्था कमजोर हो जाएगी। आस्था कमजोर हो जाने के बाद में फिर आप नास्तिक हो जाएँगे। नास्तिक होने के बाद में क्या कहेंगे? चूँकि आप में हिम्मत नहीं है, तो नास्तिकता को किन शब्दों में कहेंगे? आप कहेंगे कि हमको टाइम नहीं मिलता, फुरसत नहीं मिलती और मन नहीं लगता, आप यही कहेंगे। यह कौन बोलता है? नास्तिक बोलता है। जब आप भीतर से यह कहते हैं कि हमारा मन भजन में नहीं लगता। भजन से क्या मिलता है? यह कौन बोल रहा है? बेटे, नास्तिक बोल रहा है। नास्तिक में यह हिम्मत नहीं है। आपको डर मालूम पडता है कि भगवान हुआ तब? तब वह आपके कान उखाड़ लेगा। इसलिए डर के मारे आप नहीं कहते। डर के मारे आपकी हिम्मत नहीं पड़ती। आप यही कहते हैं कि भगवान को हम नहीं मानते। भगवान पर विश्वास नहीं है।
मित्रो! आपकी अपेक्षा कम्युनिस्टों को मैं बहादुर मानता हूँ। वे खुलेआम अपनी मनमरजी की बात कह देते हैं। आप तो अपनी मनमरजी की बात भी नहीं कह पाते। आपने कह दिया कि टाइम नहीं मिलता है। बेटे! जानता नहीं, टाइम किसे नहीं मिलता? जो चीजें दुनिया में सबसे वाहियात होती हैं, बेसिलसिले की होती हैं, बेकार होती हैं, बेवकूफ की होती हैं, उनके लिए हमको एक ही शब्द कहना पड़ता है कि टाइम नहीं मिलता। जिस चीज को हम महत्त्वपूर्ण मानते हैं, हमारे फायदे की है, उसको हम प्राइऑरिटि-प्राथमिकता देते हैं। सबसे पहले उसको करते हैं, अगर आपके मन में भजन की बाबत, यह विश्वास रहा होता कि यह हमारे लिए काम का है, उपयोगी है, महत्त्वपूर्ण है, तब आपने यह कभी न कहा होता कि हमको टाइम नहीं मिला और मन भी नहीं लगता। दुकान पर आप सवेरे से शाम तक बैठे रहते हैं, मन लगता है कि नहीं लगता? अरे साहब कहीं जाना पड़ता है, तो हमारा सब काम हर्ज हो जाता है दुकान में से पैसा मिलता है, आप उसे छोड़ नहीं सकते, उसमें खूब मन लगता है। हाँ, आपका मन लगना चाहिए।
मित्रो! आपका मन नहीं लगता और आप समय भी नहीं लगाते, क्यों? क्योंकि आपके भीतर निराशा छाई हुई है। किस बात की निराशा? आपके भीतर वाले ईमान ने कहा—बेकार की बात है। जबान से तो आप नहीं कह सकते कि बेकार की बात है। इसलिए उसमें समय लगाने की जरूरत नहीं है। यह नास्तिकता कहाँ से आ गई? निराशा कहाँ से आई? जो चीज, जैसी बनी थी, आपने वैसी कल्पना करना शुरू कर दी। आपने क्रियाओं के बारे में कल्पना करना शुरू कर दी कि इन क्रियाओं से यह फायदा हो सकता है, वह फायदा हो सकता है। उसका परिणाम यह हुआ।
क्रियाएँ बहुत छोटी हैं। आप ध्यान रखिए कि क्रियाओं की बाबत, जो कोई आदमी ज्यादा पूछताछ करते हैं, तो मैं अक्सर नाराज हो जाता हूँ। लोग कहते हैं कि विधि बताइए। किसकी विधि बताएँ? भगवान के दर्शन करने की विधि बताइए। कोई विधि नहीं है बेटे! विधियों की कीमत रत्ती की नोंक के बराबर है। इसीलिए तो घटिया आदमी, छोटा आदमी क्रियाओं का बहाना बना करके अपना पिंड छुड़ाना चाहता है। क्रियाओं के साथ में जो अपने आप का आत्मसंशोधन, आत्मपरिष्कार करने के लिए जो अपने आप से लड़ाई लड़नी पड़ती है, पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, जद्दोजहद करनी पड़ती है और महाभारत जैसा संग्राम खड़ा करना पड़ता है, उससे अपनी जान छुड़ाना चाहता है। उससे वह बचना चाहता है और उन क्रियाओं की आड़ में, जो रत्ती-रत्ती भर मूल्य के थे, न जाने कहाँ-कहाँ के सपने, न जाने कहाँ-कहाँ के बेसिर-पैर के सपने जमा करके रखे हैं और क्रिया करता है, संशोधन करने के लिए तैयार नहीं होता।
मित्रो! मैंने आपको यह बताया था कि आध्यात्मिकता के मार्ग में आगे बढ़ते हुए आपको क्या करना पड़ेगा? इसके लिए दो बातें मैं आपको बता चुका हूँ। सांसारिक जीवन के लिए भी दो बातें बता चुका हूँ कि अगर आपको मालदार बनना हो, तो क्या करना पड़ेगा? आपको अपना श्रम और अपनी बुद्धि को पैना करना पड़ेगा। अगर इन्हें पैना करेंगे, तो आप सांसारिक जीवन में, भौतिक जीवन में सफलता प्राप्त कर सकेंगे, यह मैंने पहले ही आपको बता दिया था। अगर आप श्रम करने से जी चुराते होंगे और अपनी अक्ल, सड़ी हुई अक्ल जहाँ-की बनाए रखेंगे। अपने आप का, अपनी बुद्धि का विकास नहीं करेंगे। योग्यता का विकास नहीं करेंगे, क्रियाशीलता का विकास नहीं करेंगे। कौशल का विकास नहीं करेंगे। वही सड़ी-सड़ाई अक्ल, छोटी वाली अक्ल जहाँ-की बनाए रखेंगे और श्रम से जी चुराते रहेंगे, तो सांसारिक जीवन में असफल रहेंगे। यह मैंने पहले भी बता दिया था।
चेतना का परिष्कार
मित्रो! कल मैंने यह कहा था कि हमको अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत करने के लिए, जिसमें सिद्धियाँ भी शामिल हैं। भोग की सिद्धियाँ तो खतम हो गईं। अहंकार की पूर्ति के लिए पैसा आपको मिल सकता है, बस, यही बात खतम हो गई। अब वह बात आती है, जिसमें आदमी का व्यक्तित्व महान बनता है। अब मैं व्यक्तित्व के निर्माण की बात कहता हूँ। अब मैं व्यक्ति निर्माण की बात नहीं, सुविधा-साधनों की नहीं, वरन व्यक्तित्व निर्माण की बात कहता हूँ। इसके लिए आपसे कल यह कहा था कि आदमी के दो हिस्से हैं। एक उसका बहिरंगपरक, जड़परक हिस्सा है, जिसे भौतिक हिस्सा कहते हैं, जिसके साथ में आदतें जुड़ी हैं।
दूसरा आदमी का वह हिस्सा है, जिसको हम चेतना वाला हिस्सा कहते हैं। इसके साथ में मान्यताएँ, भावनाएँ और आकांक्षाएँ जुड़ी हुई हैं। आकांक्षाओं, मान्यताओं और भावनाओं वाला हिस्सा वह है, जिसको हम चेतना कहते हैं। एक हमारा जड़ वाला हिस्सा है, जो हमारे गुण, कर्म और स्वभाव से ताल्लुक रखता है। जो हमारी आदतों से ताल्लुक रखता है। हमारा बहिरंग आदतों का जखीरा है और हमारा अंतरंग श्रद्धा का जखीरा है। हमारा अंतरंग श्रद्धा के अनुरूप बनता है।
मित्रो! आप क्या हैं? आपकी श्रद्धा को परख करके मैं बता सकता हूँ। गीताकार ने कहा है—श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥17/3॥ आदमी का विश्वास जहाँ कहीं भी है, वह वही है। आपका विश्वास ऋषि के ऊपर है, तो आप ऋषि हैं और अगर आपका विश्वास डाकू के ऊपर है, डकैती की मंशा है, तो विशुद्ध रूप से आप डाकू हैं। जिस चीज के ऊपर आपका विश्वास है, गहरा अंतरंग विश्वास है, आप वही हैं। यह व्यक्तित्व का वह अंश है, जिसको हम अंतरंग जीवन कहते हैं। व्यक्तित्व का वह अंश, जिसको हम बहिरंग कहते हैं, वह आपकी आदतों से संबंधित है। आदतों को हम तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं। ये हैं—गुण, कर्म और स्वभाव। आदतों को हमें सँभालना पड़ता है। अध्यात्म की दृष्टि से उसका नाम है—तप अर्थात कल्प।
आध्यात्मिकता के दो मार्ग—योग और तप
मित्रो! मैंने यह कहा था कि हमारा जो अंतरंग है, उसको सँभालना पड़ता है, जिसकी बाबत मैंने कल नाम दिया था—'योग'। एक योग और एक तप—बस, दो ही आध्यात्मिकता के मार्ग हैं। तीसरा कोई भी मार्ग नहीं है। इस पर चलते हुए, हमको लंबे सफर करने पड़ते हैं। हमारे पास दो साधन हैं, तीसरा कोई नहीं है। हमारे पास दो चरण हैं। दो पाँव से हम चलते हैं और लेफ्ट, राइट करते हुए आगे आगे बढ़ते चले जाते हैं और लंबी मंजिल पार कर लेते हैं। आत्मिक प्रगति के सिर्फ दो मार्ग हैं, तीसरा कोई नहीं है।
इनमें से एक का नाम है—तप और एक का नाम है—योग। जितना भी अध्यात्म है, इन सबको, हम दो हिस्सों में बाँट सकते हैं, दो में वर्गीकरण कर सकते हैं। सारे बहीखाते को आप चाहें तो हम दो हिस्सों में बाँट सकते हैं। कौन से दो हिस्से? एक का नाम है—आमदनी और एक का नाम है—खरच। बताइए साहब! लाइए बहीखाता, अभी हम बता देंगे कि इतनी आपकी आमदनी हुई और इतना खरच हुआ। अच्छा महाराज जी! इसे दो हिस्से में बाँट लूँ? हाँ, बेटे! दो हिस्से में बाँटने से काम चल जाएगा। दो हिस्सों में बाँटने से हम यह बता देंगे कि तेरे पास कुछ बचा हुआ है या नहीं। गरीब हो या अमीर हो।
महाराज जी! हमारे बहुत से खाते हैं। बेटे! बहुत से खाते हैं, तो फिर कभी देख लेंगे, जब कभी टाइम मिलेगा। अभी तो यह बता देंगे कि खाने में कितना खरच किया, कपड़ों में कितना खरच किया। बच्चों की शिक्षा में कितना खरच किया और अभी तेरे पास कितना बचा है? दो हिस्सों में बाँटकर हम अपनी संपदा का पता लगा सकते हैं। ठीक इसी प्रकार से आत्मिक प्रगति को दो हिस्सों में हम बाँट सकते हैं। एक आपका प्रयत्न है, जिसको हम तप कहते हैं और दूसरा प्रयत्न है—जिसको योग कहते हैं। योग हमारे चिंतन से ताल्लुक रखता है और तप हमारे कर्म से ताल्लुक रखता है, क्रिया से ताल्लुक रखता है। चलिए अब आज मैं आपको तप की परिभाषा सिखाना चाहूँगा। तप की फिलॉसफी समझाना चाहूँगा, फिर कल से योग की बाबत बताना शुरू कर दूँगा।
तप का दर्शन
मित्रो! तप से क्या मतलब है? बेटे! हमने शुरू में बताया था कि जब हम अपने बहिरंग को तपाते हैं, तो जैसे पानी को तपाने से भाप बन जाती है, उसी तरीके से आदमी का बहिरंग व्यक्तित्व जब तप के द्वारा तपाया जाता है, तो उस तपस्वी के क्या कहने? दधीचि तपस्वी थे। इन्द्रलोक में हाहाकार मचा हुआ था। उन्हें एक ऐसा हथियार चाहिए था, जिससे वृत्तासुर को मारा जा सके। उस समय वृत्तासुर को मारने लायक कोई हथियार पैदा नहीं हो सका था। एटम बम शायद उस जमाने में नहीं रहे होंगे। लेकिन वह दैत्य वृत्तासुर इतना जबरदस्त था, जिसको मारने के लिए कोई हथियार काम में नहीं लाया जा सका। अंतत: महर्षि दधीचि की अस्थियों का वज्र बनाया गया। वह वज्र ऐसा जबरदस्त था कि जब वह गिरा, तो वृत्तासुर के सारे परिवार का सफाया हो गया। ऐसा हो सकता है? हाँ, बेटे! हो सकता है। कैसे हो सकता है? ऐसे हो सकता है कि उनकी अस्थियों के भीतर इतना शक्तिशाली माद्दा पैदा हो गया था कि उसके प्रभाव को असुर बरदाश्त नहीं कर सके। यह क्या था? बेटे! यह तप की शक्ति थी। दधीचि की? दधीचि की नहीं, तप करने से उनकी अस्थियाँ शक्तिशाली हो गई थीं।
मित्रो! तप की महिमा मैं कहाँ तक बताऊँ? पुराणों का सारा साहित्य तप की महिमा से भरा पड़ा है। भगीरथ की तपगाथा आपको मालूम है न? नहीं, महाराज जी ! कुछ कमाई की बात बताइए। बेटे! भगीरथ ने तप करना शुरू किया। तप का परिणाम यह हुआ कि उन्हें वह दौलत मिली, जो संसार की सबसे बड़ी दौलत है, जिसे पाने से हमारे बगीचे, हमारी खेती हरी-भरी रहती है। हमारे यातायात की आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। हरियाली पैदा होती है। हजारों शहरों को पानी मिलता है और हमारे मरे हुए बाप दादाओं को वैकुंठ मिलता है। किससे? गंगा जी से, गंगा जी में हम नहाते हैं। उससे जाने हमें क्या-क्या मिलता है? भगीरथ यह दौलत कहाँ से कमाकर लाए थे? उनने एक ही काम किया था, जिसका नाम था—तप। भगीरथ ने तप करने से यह कमाई की थी। बेटे! मैं क्या-क्या बताऊँ कि तप करने से क्या-क्या मिलता है? सारे-का इतिहास तप के माहात्म्य से भरा पड़ा है। शुरू से आखिर तक तप-ही भरा पड़ा है।
मित्रो! तप से भगवान को हम मजबूर कर सकते हैं। प्रह्लाद का किस्सा आपको मालूम है न? पार्वती का किस्सा मालूम है न? उन्होंने भगवान की नाक में दम कर दिया था। शंकर भगवान कहते थे कि और सब तो ठीक है, पर ब्याह-शादी नहीं करनी चाहिए। पहली पत्नी ने नाक में दम कर दिया था। हमने कहा कि अपने बाप के यहाँ मत जा। बोली—नहीं, मैं तो मिठाई खाने जाऊँगी। नहीं मानी, चली गई और कहाँ आफत पैदा कर दी? वहाँ सम्मान नहीं मिला, तो चुपचाप चली आती, पर वहाँ भी दिमाग खराब करके हवन कुंड में जा पड़ी, कुंड में मर करके कितनों का सफाया करवाया। नंदीगण गए, बाप को मार डाला। बाप का सिर कटा और वहाँ भी हाहाकार मचा दिया।
शंकर भगवान ने कहा कि अब शादी-ब्याह नहीं करेंगे? दुनिया में ब्याह के बराबर वाहियात धंधा कोई नहीं है। अब हम कुँवारे रहेंगे और शंकर भगवान ने सौ वर्ष की, एक हजार वर्ष की समाधि लगा दी। पार्वती जी ने कहा नहीं, स्वामी जी! आपको हमसे ब्याह करना ही पड़ेगा? चल, बड़ी आई ब्याह करने वाली, हम क्या ब्याह करेंगे? फिर आएगी तो वैसा ही होगा। नहीं, महाराज जी! हम तो आप से ही ब्याह करेंगे। पार्वती जी ने तप करना शुरू किया और महादेव जी को मजबूर कर दिया कि हमारा कहना मानना पड़ेगा। हमसे ब्याह-शादी करनी पड़ेगी। शंकर जी को ब्याह करना पड़ा।
तप के चार सिद्धांत
मित्रो! तप की और कहानियाँ सुनाऊँ आपको? इतिहास में शुरू से लेकर आज तक जितने भी महान कार्य हुए हैं, चाहे वे भौतिक कार्य हों, चाहे आध्यात्मिक कार्य, उनकी सारी-की सफलताएँ आदमी के तप की शक्ति के ऊपर टिकी हुई हैं। तप से आदमी के भौतिक जीवन की क्वालिटी बनती है। क्वालिटी के परिणाम से हम अभीष्ट परिणाम प्राप्त कर सकते हैं, तो क्वालिटी के लिए क्या करना पड़ेगा? तप के लिए क्या करना पड़ेगा? तप के बारे में मैं क्रियाओं का जिक्र नहीं करना चाहता हूँ। पानी मत पीजिए, यह चीज मत खाइए, यह चीज खा लीजिए। बेटे! मैं इस झगड़े में नहीं जाऊँगा, मैं सिद्धांत समझाऊँगा।
सिद्धांत समझने के बाद में बहुत सारी बातें अपने आप आ जाती हैं। सिद्धांत समझाने के बाद में संगीत मास्टर साहब को हम देखते हैं। वे लड़कियों को संगीत के सिद्धांत समझा देते हैं। फिर वे अपने आप चाहे जो धुन, जो संगीत बजाती रहती हैं। सिद्धांत समझाइए, चौपाई निकाल दीजिए। मास्टर जी ने रामायण की चौपाई, दोहे, राधेश्याम रामायण की धुन—सबके सिद्धांत बता दिए। कहाँ उँगली रखनी है? एक नंबर पर, पाँच नंबर पर, सात नंबर आदि। बस, अभ्यास करो। इस तरह संगीत सिखा देते हैं।
मित्रो! मैं आपको तप के सिद्धांत सिखा देता हूँ। जिससे परिस्थिति के अनुसार जब आपका मन लगे कि हमें तप कैसे करना चाहिए और किसके लिए करना चाहिए? यह आप समझ सकें। तप के चार हिस्से हैं—एक हिस्सा वह है, जो हमारी इंद्रियों से संबंध रखता है। इंद्रियाँ हमारी शक्तियों का जखीरा हैं। यह भगवान का दिया हुआ और हमारा कमाया हुआ खजाना है। इन सारी-की शक्तियों में से बहुत सारा अंश इन छिद्रों में से निकल जाता है। आपको चलनी दे दें और गाय का दूध दुहने के लिए कहें और यह कहें कि इस चलनी में दूध दुह करके ले आइए, तो सारा-का दूध उस चलनी के छेदों में से होकर निकल जाएगा और आप जब दूध दुह करके उठेंगे तो आपका सारा परिश्रम बेकार चला जाएगा। गाय की मेहरबानी बेकार चली जाएगी। दूध छेदों में से होकर गिर जाएगा।
इसी तरह हमारी शक्तियों का अधिकांश हिस्सा, हमारी इंद्रियों के छेदों से होकर व्यर्थ चला जाता है। मैंने आप से कहा था कि हमारे मुँह का जो छेद है, यह क्या है? यह हमारी कब्र है। कब्र किसे कहते हैं? कब्र बेटे, गड्ढे को कहते हैं, जिसमें आदमी को दफन किया जाता है। हकीम लुकमान हमेशा यह कहते रहे कि आदमी अपने मरने के लिए कब्र स्वयं खोदता है। उसमें फावड़े का काम करती है—उसकी जीभ। हमारी जिंदगी को जितना तबाह हमारी जिह्वा ने किया है, उतना किसी ने नहीं किया है। सौ तरह के वायरस, सौ तरह के जीवाणु हमको नष्ट नहीं कर सकते थे, जितना कि जीभ ने हमें नष्ट कर दिया है।
मित्रो! यह क्या है? यह छेद है, जो जायके के नाम पर बिना मतलब की चीजें, बेकार की चीजें, हमारे गले में उतारती रहती है और हमारी जिंदगी खराब करती रहती है। यह है—जीभ। अगर आप इस छेद पर काबू कर सके होते, तो मैं कितने नाम आपको गिना चुका हूँ। चंदगीराम का नाम गिना चुका हूँ। सैंडो का नाम गिना चुका हूँ। गाँधी जी का नाम गिना चुका हूँ, जिनको तीस साल की उम्र में एनीमा लगाए बिना पेट साफ नहीं होता था। फिर उन्होंने यह निश्चय किया कि जीभ पर काबू करना चाहिए और जीभ पर काबू किया। अस्सी वर्ष की उम्र में वे कहते थे कि मैं एक सौ बीस वर्ष जीना चाहता हूँ। ऐसा क्या हाथ लग गया? उन्होंने जीभ पर काबू पा लिया था। क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए? यह उन्होंने अपनी अक्ल के हिसाब से तय कर लिया था और जीभ से मना कर दिया था कि आपकी हुकूमत अब नहीं चलेगी। अपने स्वास्थ्य के हिसाब से हम जो चीज खाएँगे, उसकी मात्रा का निर्धारण करना आपका काम नहीं।
मित्रो! संयम के बारे में मैं कह रहा था कि यह तप ही है। कौन-सा? यह इंद्रियों का तप है। ब्रह्मचर्य की बाबत मैं हनुमान जी का किस्सा बता चुका हूँ। भीष्म पितामह का किस्सा आप जानते हैं। जगद्गुरु शंकराचार्य का क्या किस्सा सुनाऊँ आपको? आप सब जानते हैं। स्वामी दयानंद के बारे में क्या बताऊँ आपको? आप सब जानते हैं। एक दिन दो साँड़ लड़ते हुए, टक्कर मारते हुए कहीं से आए। स्वामी दयानंद कान पर जनेऊ चढ़ाए, लोटा हाथ में लिए जंगल से आ रहे थे। दोनों साँड़ एक−दूसरे को ऐसी भयंकर टक्कर मारते जा रहे थे, कि लगता था कि एक−दूसरे का पेट फाड़ देंगे और जिंदा नहीं छोड़ेंगे। साँड़ बड़े खूँखार थे। स्वामी जी ने लोटा तो जमीन पर रखा और साँड़ों से बोले—बड़े बेवकूफ हो, क्यों लड़ाई करते हो? भागते हो कि नहीं, आपस में ही लड़ोगे, क्या बात है? तुम्हारी क्या दुश्मनी है? साँड़ों ने कुछ नहीं सुना और लड़ना जारी रखा। स्वामी जी ने हाथ को ऊँचा किया और दोनों साँड़ों के बीच में चले गए। एक हाथ से, एक साँड़ का पैर पकड़ लिया और एक से दूसरे का और एक को धक्का मारा तो इधर गिरा और दूसरे को धक्का मारा तो उधर जा गिरा।
जीवनीशक्ति को रखें सुरक्षित
महाराज जी ! ऐसा हो सकता है? हाँ, हो सकता है। आपसे भी हो सकता है। मैं क्या कहूँ? आपने तो सारी की-सारी क्षमताएँ, शक्तियाँ सब निचोड़ करके फेंक दिया। नीचे वाला नल खोल देता है और ऊपर वाला चिल्लाता रहता है कि भाई साहब! नल बंद कीजिए, हमें भी पानी चाहिए। आप सारा-का पानी बहा रहे हैं और हम बिना नहाए बैठे हैं। पानी का इंतजार कर रहे हैं। मेरा मतलब आप समझ गए होंगे। नीचे वाले सूराखों में से होकर के अपनी जीवनीशक्ति का किस तरीके से अपव्यय करते हैं ! अगर उस शक्ति का अपव्यय हमने रोका होता और उसे दूसरे कामों में खरच कर लिया होता, तो हम क्या-से बन सकते थे?
पुराने इतिहास तो मैं नहीं बताता, पर गाँधी जी का इतिहास तो बता ही सकता हूँ। उन्होंने बत्तीस वर्ष की उम्र में अपनी धर्मपत्नी को माँ कहना शुरू कर दिया था और उनका वह तेजस इकट्ठा होता हुआ चला गया और गाँधी जी की आँखों में से चमक आने लगी। बोलने में तो ज्यादा जोरदार वाणी नहीं थी, लेकिन बड़ी प्रभावशाली थी। उनकी आँखों में से कुछ ऐसा तेज चमकता था, जिससे जो भी उनके पास आता गया, उन्हीं का होता हुआ चला गया। पटेल आए, उन्हीं के हो गए। राजेंद्र बाबू आए, उन्हीं के हो गए। गाँधी जी के नजदीक जो भी आया, उन्हीं का हो गया, विनोबा हो गया। उनकी आँखों में मोहिनी शक्ति थी। उनके बारे में चर्चिल ने ठीक ही कहा था कि गाँधी जी की आँखों में मैजिक पावर है, हिप्नोटिक पावर है। वह इस जादू की लकड़ी से किसी को भी अपने चंगुल में फँसा लेता है। गाँधी जी जादूगर थे? बेशक जादूगर थे। यह जादू कहाँ से आया? उनकी आँखों में था।
मित्रो! उनकी आँखों में जादू कहाँ से आ गया? यह उनके संयम की वृत्तियाँ थीं। असंयम बरतने पर ये, इस कदर बिखरती हैं कि आप समझ ही नहीं पाते। आदमी का मैगनेट, आदमी का ओजस्, तेजस्, आदमी की प्राण-ऊर्जा किस तरीके से वासना के चक्कर में बरबाद होती रहती है। काम सेवन से जो हमारी शक्तियों का अपव्यय होता रहता है, उसकी अपेक्षा बीस गुना ज्यादा अपव्यय हमारे दिमाग में से होता है। असल में वासना जो है, यह हमारी पेशाब की जगह नहीं रहती। यह तो हमारे दिमाग में रहती है। कामोत्तेजनाएँ दिमाग में से पैदा होती हैं, इंद्रियों में से उत्पन्न नहीं होती। इंद्रियों की शक्ति खराब भी होती चली जाए, तो कोई बड़ा नुकसान नहीं होता, लेकिन दिमाग में से उत्तेजना, विचारों की उत्तेजना, कामुकता के विचारों की वजह से आदमी की प्राण-ऊर्जा इतनी ज्यादा क्षीण और अपव्यय होती है कि इसके लिए मैं क्या कह सकता हूँ? मैं आप से इंद्रियों के तप के बारे में कह रहा था। अगर इंद्रियों का तप करना आपके लिए संभव हो सके, जिसको हम संयम कहते हैं, तो आप इसका चमत्कार आध्यात्मिक जीवन में भी देख सकते हैं और भौतिक जीवन में भी देख सकते हैं।
मित्रो! भौतिक जीवन में चमत्कार के बारे में मैं गाँधी जी के उदाहरण बता चुका हूँ। स्वामी दयानंद का उदाहरण दे चुका हूँ। भीष्म पितामह का उदाहरण दे चुका हूँ। हनुमान जी का उदाहरण दे चुका हूँ। यह क्या चीज है? कुछ नहीं, शक्तियों के अपव्यय को रोक देना है। "योगः चित्तवृत्तिनिरोधः।" अर्थात चित्तवृत्तियों को रोक देना ही योग है। चित्त जहाँ बहता रहता है, भागता रहता है, उसके मार्ग में रुकावट डाल देना, अवरोध पैदा करना, इतना ही काफी नहीं है। बाँधों में क्या होता है? पानी का बहाव जिस रास्ते से हो रहा है, उसमें रुकावट डाल देते हैं और उस रुकावट का परिणाम यह होता है कि पानी के जखीरे जमा होते चले जाते हैं और वहाँ से नहरें निकलती हैं। हजारों एकड़ जमीन की सिंचाई होती रहती है। अगर हम बाँध न बनाएँ, तो पानी ऐसे ही बहता हुआ चला जाएगा। पता नहीं, किस धारा में कहाँ चला जाएगा और जमीन सूखी-की रह जाएगी? जमीन को काटता हुआ चला जाएगा। इसे रोक सकते हैं? हाँ, रोक सकते हैं। अगर आप बाँध बनाने का मतलब समझ गए हों, तो आपको इंद्रियनिग्रह की बात को भी समझना होगा। अगर आपको अपनी अतींद्रिय शक्तियों का बचाव करना है, आपको सामर्थ्यवान बनना है, तो अपनी इंद्रियों की क्षमताओं को सुरक्षित करना पड़ेगा।
[क्रमशः समापन अगले अंक में]
चेतना का परिष्कार—अध्यात्म
(समापन किस्त)
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अपने इस महत्त्वपूर्ण उद्बोधन में साधकों को यह समझा रहे थे कि साधना की परिणति आध्यात्मिक उत्कर्ष में होती है और अध्यात्म का सच्चा और मूल आधार चेतना का परिष्कार ही है। चेतना का परिष्कार किए बिना, अपनी सोच बदले बिना—बाहर के सारे परिवर्तन निरर्थक कहे जा सकते हैं। चेतना का परिष्कार करने के लिए पूज्य गुरुदेव दो आध्यात्मिक पथों का उल्लेख करते हैं—योग एवं तप। तप के विषय में बोलते हुए वे कहते हैं कि तप का अर्थ निग्रह से है, ऊँचे उद्देश्यों के लिए समर्पित होने से है एवं अपनी इंद्रियों को संयमित व नियंत्रित करने से है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........
ज्ञान की कीमत
मित्रो! सामर्थ्य की कीमत पर ही सुविधाएँ मिलती हैं। मैट्रिक पास करने वाले को 175 रुपये, बी.ए. पास करने वाले को 500 रुपये, एम.ए. पास करने वाले को 600 रुपये और इंजीनियर को 700 रुपये मिलते हैं। डॉक्टर को 800 रुपये मिलते हैं। अन्य किसी को 900 और किसी को 1000 रुपये मिलते हैं। यह क्या बात है? यह है—ताकत की कीमत, ज्ञान की कीमत। बेटे, तू समझता नहीं है। आजकल एक मजदूर को 4 रुपये, एक को 7 रुपये देते हैं। एक को 15 रुपये देते हैं और एक को 16 रुपये देते हैं। यह उसकी शारीरिक क्षमता के हिसाब से देते हैं।
क्षमता का मूल्य संपदा है। अगर आपकी इंद्रियों की क्षमताएँ सुरक्षित हैं, तो आपको भौतिक जीवन में सफलता मिलेगी। अगर आपने इंद्रिय क्षमताओं को कमजोर बना दिया है, नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है, तो फिर आपकी ताकत कमजोर हो जाएगी। अगर आप बुड्ढे हो जाएँ और बुढ़ापे में आपका ब्याह कर दें, तो आप पड़ोसियों से प्रार्थना करेंगे कि जरा हमारी पत्नी की देख-भाल करना। क्या बात है? यह जवान औरत आई है, कहीं कोई गड़बड़ न फैला दे, तो आप तो ब्याह कर रहे थे? हाँ, हम ब्याह कर रहे थे, लेकिन हमसे गलती हो गई। अब हम क्या कर सकते हैं? आपके पास शक्ति का अभाव है। आप जो भी सामर्थ्य चाहें, हम आपको दे सकते हैं, लेकिन वे चीजें आपके लिए फायदेमन्द नहीं, नुकसानदायक हो जाएँगी।
मित्रो! आप पैसे की सुरक्षा कर सकते हैं, लेकिन पैसे की सुरक्षा करने की ताकत आप में नहीं है। इसलिए मैं कहता हूँ कि पैसा आपकी जान को ग्रहण लगा देगा। सुरक्षा का इंतजाम है? नहीं, सुरक्षा का इंतजाम नहीं है, तो बेटे, मैं कहूँगा कि यह तो बहुत बड़ी बला है। अजी साहब! डेढ़ लाख की लॉटरी लगी है। तेरे पास चौकीदार है? नहीं साहब! नहीं है। बंदूक है? नहीं साहब! नहीं है, तो बेटे! तेरी जान को खतरा है, क्योंकि सुरक्षा का इंतजाम नहीं है। फिर दौलत का फायदा कैसे उठा सकते हैं? मित्रो! यह मैं शक्ति की बात कह रहा था। शक्ति, जिसको हम तपश्चर्या कहते हैं। तप के मार्ग में परेशानी होती है और उस परेशानी का नाम है—तप। परेशानी में तप करना पड़ता है।
तप का जो अभ्यास बना होता है, उसे रोकते हैं, मना करते हैं, तो हमारी इंद्रियाँ हमसे नाखुश रहती हैं और हमारे ऊपर दबाव डालती हैं कि आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। हमें अपने आप से लड़ाई लड़नी पड़ती है; क्योंकि हमारी इंद्रियाँ जो पहले से अभ्यस्त हैं, वे कहती हैं कि हम तो यही चीज खाएँगे, दूसरी चीज नहीं खाएँगे। तब आपकी इंद्रियाँ नाराज होती हैं। आप से दुःखी होती हैं। इस परेशानी का नाम है—तप।
उच्च उद्देश्य के लिए होता है तप
मित्रो! किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए इच्छापूर्वक कठिनाई को निमंत्रण देने का नाम तप है। एक कठिनाई वह आती है, जो आपके कर्मों के फलस्वरूप होती है, जैसे कि कभी आप बीमार हो जाते हैं। हर आदमी को जिंदगी में ढेरों-की परेशानियाँ आती हैं। ये अच्छे लोगों पर भी आती हैं और बुरे लोगों पर भी, पांडवों पर भी आई थीं। रामचंद्र जी भी जंगल में वनवास पर गए और दूसरे लोग भी परेशान होते हैं। ये परेशानियाँ सांसारिक कारणों से हैं। इन्हें हमारे ऊपर कोई थोप नहीं सकता। एक परेशानी वह होती है, जो इच्छानुसार है। इस परेशानी को दावत कहते हैं, निमंत्रण कहते हैं कि आप आइए, हम आपका स्वागत करते हैं। हम ऊँचे उद्देश्य के लिए परेशानियाँ बरदाश्त करते हैं। तपस्वी की परिभाषा यह है कि किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए, ऊँचे आदर्श के लिए जब आदमी जान-बूझकर कठिनाइयों को निमंत्रित करता है, दावत देता है, तो उसका नाम तप है। तप करना इंद्रियों से, खान-पान से भी ताल्लुक रखता है।
मित्रो! मैं अपनी माताजी की तपश्चर्या की आपको याद दिलाऊँगा। मेरी माताजी एकादशी का उपवास करती थीं। बचपन से लेकर जब तक जीवित रहीं, मरण के पूर्व तक एकादशी के दिन कुछ भी नहीं खाती थीं। केवल पानी पीती थीं। पानी पीने के बाद दूसरे दिन, एक दिन में जितना अन्न खाया जा सकता है, उतना सामान निकालतीं। आटा, दाल, गुड़, घी, चावल निकाल करके हमको मंदिर में देने के लिए भेजती थीं। मंदिर से पंडित जी एक टोकन अर्थात प्रसाद का लड्डू देते थे। उसे लाकर हम माताजी को दे देते थे। उन्होंने वह टोकन—लड्डू ले लिया और रसीद आ गई। सबको लड्डू बाँटने के बाद वे स्वयं प्रसाद लेकर पानी पीती, खाना खातीं। यह क्या है? यह तप है।
तप किसे कहते हैं? स्वयं मुसीबत मोल लेने को, हम क्यों मुसीबत उठाएँ? ताकि हमारी मुसीबत से जो चीज बच सकती है, उसको किसी अच्छे काम में लगा दें। आपने एकादशी का उपवास किया, अच्छी बात है, लेकिन इससे आपने बचत क्या की? नहीं साहब! बचत तो नहीं की, वरन और ज्यादा खरच हो गया। क्यों? सेब मँगाए, केले मँगाए, रबड़ी मँगाई, तो रोजाना जितना खाते थे, उससे ज्यादा खरच हो गया। उपवास करके जो बचाया जाता है, उसे अच्छे काम में लगाना चाहिए। उपवास के पीछे कुछ उद्देश्य छिपा होना चाहिए। कोई आदर्श, सिद्धांत नहीं है, केवल चिह्न−पूजा है, तो उपवास ढोंग है। यह उपवास साँप निकल गया और लकीर पीटने के बराबर है। उसके पीछे कोई दर्शन नहीं, दर्शन हमारी माताजी के पास था। कठिनाई बरदाश्त करने के पश्चात जो कुछ भी बचत हो सकती है, वह चाहे समय की हो, चाहे पैसे की हो या श्रम की हो, उसे किसी श्रेष्ठ काम में लगा दें।
श्रेष्ठता के लिए कठिनाई सहना है—तप
मित्रो! श्रेष्ठ काम के लिए कठिनाई बरदाश्त करना इसका नाम तप है। धूप में खड़े हैं साहब! किसने कहा कि धूप में खड़े हो? नहीं साहब! गंगा के पानी में नहाएँगे और वैकुण्ठ को जाएँगे। भगवान को ब्लैकमेल मत कीजिए। भगवान पर दबाव मत डालिए कि आप यह काम कीजिए, नहीं तो यह करेंगे। तो क्या करेंगे? भगवान से मार-पीट करेंगे? मार पीट तो नहीं करूँगा, पर भगवान को बदनाम कर दूँगा या तो आप हमारा यह काम कर दीजिए, नहीं तो हम आपकी पोल खोल देंगे। आपकी बदनामी करेंगे। नहीं, भाई साहब! ऐसा मत कीजिए। यह ब्लैकमेलिंग बंद कीजिए। क्या आप सात दिन तक खाना नहीं खाएँगे अच्छा? हमारे गाँवों में पहले कंजर आते थे और बीबी, बच्चों को भी साथ लाते थे। वे हाथ में ईंट-पत्थर लिए रहते थे और कहते थे कि पाँच किलो अनाज दीजिए। वे कहीं बैठ जाते थे। आधा किलो ले लीजिए। नहीं साहब! आधा किलो नहीं, पाँच किलो से कम नहीं लेंगे और वे अपनी औरत और बच्चों को मारना शुरू कर देते थे।
बच्चे चिल्लाते थे—अरे! मर गए, अरे! कोई बचाना रे। वे ऐसा हाहाकार मचाते थे कि सारे गाँववाले इकट्ठे हो जाते थे। क्या बात है? साहब! पाँच किलो अनाज दिलवाइए, नहीं तो बच्चों को मार डालूँगा। लोग कहते कि भाई साहब! गरीब आदमी है, कहाँ से लाएगा पाँच किलो अनाज। तीन किलो ले जाइए, चार किलो ले जाइए। आप भी वैसा ही करते हैं। पानी नहीं पीऊँगा, रोटी नहीं खाऊँगा, हमारा अमुक काम कर दीजिए। अच्छा यह काम कर दीजिए। हाँ, महाराज जी! यह फायदा करा दीजिए। जब तक फायदा नहीं होगा, तब तक दबाव डालेंगे। बेटे! इस ब्लैकमेलिंग का नाम तप नहीं है।
सिद्धांतों के लिए कष्ट उठाना है तप
मित्रो! तप उस चीज का नाम है, जिसमें आदमी सिद्धांतों के लिए कष्ट उठाता है। अभी हमने इंद्रियों की बाबत, समय की बाबत तप बताया। अगर आप समय का तप करेंगे, तो समय का सारा-का हिस्सा अपने लिए मत रखिए। समय का निर्धारण कीजिए। समय भी भगवान का हिस्सा है। समाज, देश और धर्म के प्रति भी समय लगाइए। समय को बचाकर रखिए। मनोयोग का भी बचाव कीजिए। मन को रोकना भी एक तप है। जो हम योगाभ्यास कराते हैं, उसमें ध्यानयोग की क्रिया भी सम्मिलित है। यह मनोयोग कहलाता है। मन को रोकना भी एक तप है। मन कहाँ-से चला जाता है। आवारा मन, जब उसकी मरजी होती है, न जाने कहाँ चला जाता है, कहाँ चले गए थे भाई साहब! अजी क्या बताएँ? कल जो हमने सिनेमा देखा, रात भर हमारे मन में यह ख्याल आता रहा कि हेमामालिनी से अगर हमारी शादी हो जाती, तो कितना अच्छा होता, तो रात को हेमामालिनी से शादी हुई कि नहीं हुई? शादी तो नहीं हुई। बाजार से हम उसका एक फोटो खरीद लाए।
वह चित्र हमारे कमरे में टँगा हुआ है, तो क्या करेंगे? उनके जन्मदिन पर एक कार्ड भेजेंगे और कहेंगे कि अपना ऑटोग्राफ भेज दें। ऑटोग्राफ से क्या करेंगे? क्या करेंगे? हमारा मन तो ऐसा कहता है कि हमारे पास रहती। हम नौकरी कर लेते। कितना कमा लेता है? ढाई सौ रुपये मिलते हैं। ढाई सौ रुपया तो हेमामालिनी का, स्वयं का एक दिन का खरच है। इतने में खाएगा क्या और उसे कहाँ से खिलाएगा? नहीं, महाराज जी! मेरा मन चलता है। तू अपने आप को सँभाल, आवारा मन, गलत मन चौबीस घंटे बेसिलसिले के विचार, बेहूदे विचार, गंदे विचार, अनावश्यक विचार, जिनकी न कोई संगति है, न कोई क्रम है, न व्यवस्था। विचारों को किसी काम में लगाया होता, क्रमबद्ध किया होता, तो बेटे मजा आ जाता।
मित्रो! वैज्ञानिक, दार्शनिक क्या करते हैं? शास्त्रकार, कलाकार क्या करते हैं? वे एक काम करते हैं—अपने विचारों की शक्ति का निग्रह करते हैं और एक खास काम पर लगाते हैं। एक काम पर लगे हुए विचार न जाने कहाँ-से पहुँच जाते हैं? कालिदास का मन जब तक हमारी, आपकी तरह घूमता रहा, तब तक बुद्धू बना रहा, लेकिन जब उनकी पत्नी ने धमकाया कि आपको पढ़ना चाहिए और पढ़ने के लिए मन को एकाग्र करना चाहिए? उन्होंने कहा कि अच्छा मैं पढ़ूँगा। पढ़ने की तरफ जब अक्ल लगी, तो परिणाम क्या हुआ कि कालिदास विद्वान हो गए। आपके और हमारे विचारों की शक्ति बेसिलसिले घूमती रहती है, न पढ़ने में लगती है और ऐसे ताने-बाने बुनती रहती है, जिसका कोई ठिकाना नहीं है। अगर हम अपने विचारों को निगृहीत करना शुरू कर दें, तो फिर इसकी शक्ति का क्या कहना है।
तप का अर्थ है—निग्रह
मित्रो! निग्रह कहते हैं—तप को। तप क्या हो सकता है? तप कई तरह का हो सकता है। मन का तप—एक, इंद्रियों का तप—दो, समय का तप—तीन और चौथा वाला तप है—धन का तप। आप जो कुछ भी धन कमाते हैं, उसे आप कहाँ खरच करते हैं? आपने कितना कमाया, उसकी प्रशंसा मैं नहीं करता। नहीं साहब! हम तो एक हजार रुपये कमाते हैं। बेटे! मैं उसे सुनना नहीं चाहता। हजार कमाए तो तू जाने। तेरा बाप हराम का पैसा छोड़कर मरा होगा, तो तेरे लिए। दो हजार की आमदनी छोड़कर गया होगा? तो तेरे लिए। मैट्रिक पास लोगों को मैं जानता हूँ, जो स्टेट बैंक में नौकरी करते हैं और पंद्रह सौ रुपये कमाते हैं। मैंने पूछा बाद में क्या मिलेगा? बोले—हमारा तो बोनस, प्रोविडेंट फंड मिला करके 80,000 रुपया मिल जाएगा और पेंशन? पेंशन भी चार-पाँच सौ रुपये की मिल जाएगी।
बेटा! अच्छी बात है। यह क्या है? बेटे! यह तुक्का है। एक होता है—तीर और एक होता है—तुक्का। मैट्रिक पास वालों को क्या मिलना चाहिए? तीन सौ रुपये से पंद्रह सौ रुपये। बेटे! यह तुक्का है। महँगा और सस्ता होने की वजह से किस चीज का भाव कहाँ पहुँच जाए? मालदार, अमीर और सस्ता हो सकता है। मैं तो सिर्फ यह पूछना चाहता हूँ कि आपने खरच कहाँ किया? पैसे के संबंध में खरच सोच समझकर करना। यह तप है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर को 500 रुपया महीना मिलता था। उन्होंने यह निश्चय किया था कि हम औसत भारतीय का जीवनस्तर जिएँगे और ऐसा निश्चय करके वे मात्र 50 रुपये में अपना खरच चलाते थे तथा 450 रुपये विद्यालय के गरीब बच्चों को पढ़ाई आदि के लिए दे देते थे।
मित्रो! तपस्वी को, आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने वाले को तपस्वी का जीवन जीना चाहिए। तपस्वी जीवन का यह अर्थ होता है कि औसत देश निवासी की स्थिति के अनुरूप अपने जीवन को ढाल लें। औसत भारतीय किस स्तर का गुजारा करता है? आपका स्तर उस तरह का होना चाहिए। स्वरूप उसी प्रकार का होना चाहिए। नहीं साहब! हम तो ज्यादा कमाते हैं, तो ज्यादा खाएँगे। आपको कमाने की छूट है, लेकिन खाने की छूट नहीं है। जब आप अपने लिए खाने की छूट लेना चाहते हैं, तब मैं आपको तपस्वी नहीं कह सकता। तब मैं आपको अध्यात्म मार्ग का विद्यार्थी नहीं कह सकता।
सादा जीवन-उच्च विचार
आत्मिक दिशा में बढ़ने वाले की दृष्टि में आप लँगड़े हैं, क्योंकि एक टाँग आपने तोड़ डाली। आपने अपने खरचों में लग्जरी बढ़ा ली, विलासिता बढ़ा ली और आप औसत भारतीय से ज्यादा का खरच करते हैं। औसत भारतीय से ज्यादा का खरच नहीं करना चाहिए। अध्यात्म जहाँ से शुरू होता है, वहाँ से सादा जीवन-उच्च विचार का सिद्धांत लागू हो जाता है। उच्च विचार केवल वहाँ रहेंगे, जहाँ सादा जीवन होगा। जहाँ सादा जीवन नहीं है, वहाँ उच्च विचार नहीं रह सकते। वहाँ बेटे! कितने अहंकार आ जाएँगे, कितनी लग्जरी आ जाएगी, कितनी वासना आ जाएगी। आप समझते ही नहीं कि इतनी चीजें आ जाएँगी। जहाँ से आदमी का लग्जरी जीवन शुरू हुआ, वहाँ आदमी अध्यात्मवादी नहीं हो सकता। अध्यात्मवादी के लिए ये परंपराएँ हमेशा से रही हैं। आप क्या कमाते हैं? हम नहीं जानते, पर उसको खरच करने के लिए रोक है, बंधन है।
मित्रो! प्राचीनकाल का जीवन ब्राह्मण का जीवन था, साधु का जीवन था। किसी जमाने में ब्राह्मण के जीवन के लिए एक बंधन था कि तीन दिन से ज्यादा का खाद्यान्न उसके घर में नहीं होना चाहिए। अब तो उतने बंधन की बात नहीं सोची जाती, पर किसी जमाने में था और उसका अर्थ यह था कि उसे संपन्न नहीं होना चाहिए। ब्राह्मण जीवन क्यों है? गायत्री की शक्ति किसके ऊपर उतर कर आती है? ब्राह्मण के ऊपर आती है। ब्राह्मण कौन होता है? ब्राह्मण उसे कहते हैं जो अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए खरच करने के संबंध में किफायत बरतता है। ब्राह्मण उसी का नाम है। संत किसे कहते हैं?
संत ब्राह्मण से भी ज्यादा किफायत से रहता है। ब्राह्मण तो फिर भी कपड़े पहन लेता है, लेकिन संत इस मामले में और भी आगे बढ़ा रहता है। लँगोटी लगाना ही वह काफी समझता है। अन्न और वस्त्र दो ही चीजें आवश्यक हैं। इस मामले में संत और भी एक कदम आगे रहता है। कपड़े नहीं हैं, तो कोई बात नहीं, देखिए मिट्टी ले ली, राख ले ली और पानी मिला लिया और दोनों को मिलाकर सारे शरीर पर लपेट लिया। यह क्या पहन रहे हैं? साहब! यह स्वेटर पहन रहे हैं। स्वेटर मिट्टी का भी हो सकता है? नहीं, साहब! स्वेटर तो ऊन का होता है, ऊनी कपड़े का होता है। आपका कहना सही है, पर हमारा कहना आप से ज्यादा सही है। मिट्टी और राख दोनों को मिला करके, पानी के साथ में अगर शरीर के ऊपर लपेट लिया जाए, तो यह स्वेटर धोना भी नहीं पड़ता। चौबीस घंटे काम देता है और पच्चीसवें घंटे नहा-धोकर साफ कर लेते हैं और फिर नया पहन लेते हैं। फ्रेश स्वेटर तैयार है। नई रोटी, डबल रोटी है, वह भी मंगाराम की, स्वेटर आपका तो बेकार है, पर हमारा अच्छा है। रोज-का फ्रेश और हमको ठंडक भी नहीं लगती, गरमी भी नहीं लगती। यह किफ़ायती का जीवन है।
किफ़ायती का जीवन—साधु का जीवन
मित्रो! वानप्रस्थ का जीवन किफ़ायती का जीवन है। साधु का जीवन किफ़ायती का जीवन है। ब्राह्मण का जीवन किफ़ायती का जीवन है। अगर आप किफ़ायती का जीवनयापन नहीं कर सकते, तो मैं कहता हूँ कि आप तपश्चर्या का प्रारंभिक सिद्धांत नहीं जानते। यदि तपश्चर्या का प्रारंभिक सिद्धांत नहीं जानते हैं, तो आपकी उन्नति का रास्ता रुका हुआ है। नहीं साहब! हम तो महादेव जी पर फूल चढ़ाएँगे। नहीं बेटे, आप वहाँ से चलिए, जहाँ से तपश्चर्या की शुरुआत होती है। महादेव जी तपश्चर्या की मूर्ति हैं। महादेव जी की पूजा करूँगा। चाँदी का छत्र चढ़ाऊँगा। बेईमान कहीं का, जैसा खुद है, वैसा ही महादेव जी को समझता है। मैं तो महादेव बाबा पर चाँदी का छत्र और सोने का मुकुट चढ़ाऊँगा। पहले तो खुद पहन ले सोने का मुकुट, महादेव को रहने दे। जैसा अपना घटियापन है, वैसा ही महादेव को समझता है।
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? हमको किफ़ायती जीवनयापन करना चाहिए, अगर हम तपस्वी जीवन जीना चाहते हैं तब? किफ़ायती का जीवन, आदर्श जीवन, सादा जीवन-उच्च विचार वाला जीवन हमें जीना चाहिए। उच्च विचारों की स्थापना करने के लिए सादगी से भरा जीवन आवश्यक है। मुझे तो भर्तृहरि की बात याद आ गई। भर्तृहरि को जब संन्यास की दीक्षा दी गई, तो उनसे यह कहा गया कि आपको अपने जीवन में सबसे पहले आध्यात्मिकता का पाठ यह याद रखना है कि किफ़ायती का जीवन, मितव्ययी जीवन, तपस्वी का जीवन जीना है।
भर्तृहरि ने कहा कि हम सब कर लेंगे, पर थोड़ी-सी आदतें हमारी ऐसी हैं, जिनमें हमें हेर-फेर करना चाहिए। थोड़ी चीजें हमको मिलनी चाहिए। क्या चीजें चाहिए? उन्होंने कहा—हमको तीन चीजें आप दे दीजिए, तो हमारा गुजारा हो जाएगा। एक चीज—तकिया। तकिये के बिना हमको नींद नहीं आएगी। एक पंखा दीजिए, हमको तो जरा-सी देर में गरमी लगती है। पंखे के बिना नींद नहीं आएगी। दो चीजें हो गई। तीसरी चीज—एक गिलास दीजिए। अन्यथा हम पानी किसमें पिएँगे। तीन चीजें हमें दे दीजिए।
मित्रो! राजा भर्तृहरि को तीनों चीजें दे दी गईं। तपस्वी जीवन, आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए भर्तृहरि तीन चीजें लेकर के चले। वे घर से निकलने के बाद जंगल में चले गए। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक किसान जमीन जोतकर बैलों को पेड़ के नीचे बाँधकर और जमीन पर ऐसे ही लेट गया और सिर के नीचे बाँह का तकिया लगाकर खूब खर्राटे भरते हुए सो गया। उन्होंने सोचा कि जब हाथ को मोड़ करके तकिया बनाया जा सकता है, तो इस तकिये को लेकर के मैं क्यों चलूँ? भगवान ने तो इतना अच्छा तकिया दे रखा है। फिर कुछ आगे चले, तो देखा कि एक आदमी कहीं से धूप में चलकर आया और अपने कुरते से हवा कर रहा था। उन्होंने सोचा कि जब कुरते से हवा हो सकती है, तो पंखा लेकर मैं क्यों चलूँ? और पंखा भी फेंक दिया और गिलास लेकर के चलने लगे। आगे चलकर उन्होंने देखा कि एक आदमी झरने के नीचे से हाथ की अंजलि से पानी पी रहा था। उन्होंने सोचा कि जब हाथ में कटोरे पहले से ही बने हैं, तो गिलास, कटोरे की क्या जरूरत है? और उन्होंने गिलास भी फेंक दिया।
वासनाओं पर नियंत्रण कीजिए
मित्रो! मैं यह कह रहा हूँ कि व्यक्तिगत जीवन में जब अपनी इच्छाओं को, वासनाओं को आप कम करते चले जाएँगे, तो आप यह देखेंगे कि आपका दरिद्रपन दूर होगा और आप में भी दानशीलता प्रारंभ होगी। दरिद्रता तभी तक है, जब तक कि आपकी हवस और आपकी आवश्यकताएँ बढ़ी हुई हैं। आप अपनी आवश्यकताओं को बढ़ा-चढ़ाकर रखेंगे, तो आप ईमानदारी का जीवन नहीं जी सकते। ईमानदार जीवन जीने के लिए आपको आवश्यक है कि अपने खरचों में किफायत बरतें। अगर आप अपने खरचे बढ़ाकर रखते हैं, तो आपके लिए मुश्किल हो जाएगा कि आप ईमानदारी का जीवन जिएँ। फिर आपको कहीं न-कहीं कर्जे लेने पड़ेंगे? फिर आपको रिश्वत लेनी पड़ेगी? कहीं से दूसरों पर दबाव डालना पड़ेगा। कुछ-न जरूर करना पड़ेगा।
अगर नहीं भी कर सकेंगे और ईमानदारी से गुजारा कर लेंगे, तब मैं यह कहता हूँ कि आपके मानव जीवन के जो कर्तव्य जुड़े हैं, उनकी सेवा, सहायता करने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। जब आपने इतने खरचे बढ़ा रखे हैं, तो आपको बचेगा कहाँ से? आपकी अपनी आवश्यकताएँ ही पूरी नहीं हो पा रही हैं, तो आप दूसरों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कहाँ से लाएँगे? इसलिए भी कि हमारे आर्थिक खरचों के हिसाब से मितव्ययिता को बरतना आध्यात्मिक जीवन के लिए आवश्यक है और यह तपस्वी जीवन का अंग है। आपकी क्या आमदनी है? मैं नहीं जानता।
मैं तो यह कहता हूँ कि आमदनी आपकी ज्यादा है, तो किसी और काम में खरच करिए। हमारी आमदनी ज्यादा है, भगवान ने हमको दिया है, तो अपने खरचे के लिए ही नहीं दिया, वरन इसलिए दिया है कि यह भगवान की अमानत है। जितने कम में गुजारा हो सकता हो, उतने कम में गुजारा कर और शेष किसी अच्छे काम में लगा देना चाहिए। तपस्वी जीवन में ज्यादा धन कमाने के लिए गुंजायश नहीं है और ज्यादा खरच करने के लिए गुंजायश नहीं है।
तपश्चर्या का प्रारंभ
मित्रो! मैं क्या कह रहा हूँ? मैं यहाँ से कह रहा हूँ, जहाँ से तपश्चर्या प्रारंभ होती है। भौतिक तपश्चर्या भी इसी में शामिल है। तपस्वी जीवन से आप यह समझते हैं कि गायत्री उपासना में जो फल लगे हैं, इसके लिए हमने अकेले बीज नहीं बोया है। गायत्री मंत्र के शब्दों के साथ-साथ में हमने इसमें खाद लगाई है, पानी लगाया है और रखवाली की है। सारी-की चीजों की रखवाली की है, तब यह गायत्री मंत्र का फल हमारा पकता हुआ चला आया। अगर आप यह चाहते हैं कि केवल बीज का उच्चारण करने से, बीज बोने से ही यह फल देगा, तो बीज बोने से फल नहीं देगा। उन चीजों को, जिनको मैं तपश्चर्या कहता हूँ, आचरण में धारण करने की कोशिश करनी चाहिए। इंद्रियों की बाबत हमारे गुरु ने पहले ही कहा था कि गायत्री मंत्र का चमत्कार देखना है, तो इंद्रियों की रोक-थाम करनी चाहिए।
मित्रो! हमने अपने खान-पान और दूसरी बातों का भी ध्यान रखा, जिसमें चौबीस साल का पुरश्चरण भी शामिल था, जिसमें छाछ और जौ की रोटी खाई। हमने सभी इंद्रियों की रोक-थाम की, जो आध्यात्मिक जीवन के लिए और तपस्वी जीवन के लिए आवश्यक था; ताकि गायत्री मंत्र में चमत्कार पैदा होने का माद्दा आ सके।
इंद्रियों से लोहा लेना है तप
मित्रो! उसके बाद अपने मन को इस तरीके से मार करके रखा है कि हमको जो निर्धारित काम करने हैं, उन्हें पूरा करें। हमारा मन कहीं नहीं जाता है। अगर हमारा मन कहीं जाएगा, तो हम उसे मार डालेंगे, डंडे से पिटाई करेंगे। मन कैसे जा सकता है? मन हमारा है कि हम मन के हैं? मन के साथ में लड़ते-लड़ते मन को पीट-पीटकर इस लायक बना दिया है कि हम जहाँ चाहते हैं, वहीं मन लगता है, अन्य कहीं नहीं। यह क्या है? मन के साथ में जद्दोजहद, लड़ाई है। मन ने हमसे हजार बार कहा कि हमको चलने दीजिए। नहीं, चलने देंगे। इंद्रियों ने कहा कि हमें चलने दीजिए। हमने कहा कि नहीं चलने देंगे। बराबर लड़ाई लड़ते रहे। इसी लड़ाई का नाम है—तप। कठिनाई बरदाश्त करना, इंद्रियों के विरुद्ध लोहा लेना यही है—तप। इंद्रियों से हमने कहा कि हम आपकी बात नहीं मानेंगे। मन ने भी हमसे बीसों बार कहा कि हमें चलने दीजिए। हमने उसे रोका और अपने काबू में लिया। यह क्या है? बेटे! यह तप है।
मित्रो! आध्यात्मिकता जबान से ताल्लुक नहीं रखती। आध्यात्मिकता जीवनयापन करने की एक शैली है। जीवनयापन करने की एक विधि है, सिद्धांत है, जीवन को परिष्कृत करने की पद्धति है। आप यहाँ से चलेंगे, तो मैं आप से यह कहता हूँ कि आप तपस्वी हैं। आप अच्छा कपड़ा पहनते हैं, सादा कपड़ा पहनते हैं, आप किस तरीके से रहते हैं, यह मैं नहीं जानता। लेकिन अगर आपके भीतर उस तपश्चर्या का माद्दा है, जिसका अर्थ होता है—श्रेष्ठ कामों के लिए, कठिनाइयों को बरदाश्त करना और खुशी से करना। अगर आपके भीतर तपश्चर्याओं के प्रति यह माद्दा बन रहा होगा, तो मैं आप से यह कहता हूँ कि आपके भीतर वह बल प्राप्त होगा, जो भौतिक जीवन की सफलताओं के लिए आवश्यक है।
भौतिक जीवन की सफलताओं के लिए आदमी का श्रम और ज्ञान भी आवश्यक है और उससे भी ज्यादा आवश्यक है कि आदमी तपस्वी हो। यह वह चीज है, जिसे हम संपदा कहते हैं, गौरव कहते हैं, सिद्धियाँ कहते हैं, जो अपने भी काम आ सकती हैं और दूसरों का भला करने के काम भी आ सकती हैं। दूसरों को राहत देने के काम भी आ सकती हैं। दूसरों को ऊँचा उठाने के काम भी आ सकती हैं; लेकिन इसकी शर्त यह है कि जीवन में तपश्चर्या हो। अगर आप तपश्चर्या से इनकार करते हैं, तो मैं आप से कहता हूँ कि आपके भौतिक जीवन में कोई ऐसी विशेषता पैदा नहीं हो सकती, जिसको देख करके आप यह नहीं कह सकते कि हम इस राह पर हैं और हमने कुछ पाया है।
मित्रो! अगर आप बहिरंग जीवन में यह अनुभव करें कि हमारे अंदर ऐसी कोई विशेषता है कि हम अपनों के अतिरिक्त किसी और का भला कर सकते हैं। यह आपके भीतर तब तक नहीं आएगी, जब तक आप तपश्चर्या का सिद्धांत स्वीकार करने के लिए तैयार न हों। तपस्वी जीवन हमारे बहिरंग जीवन के परिष्कार का नियम और पद्धति है। घाटा जरूर होता है, तकलीफ जरूर उठानी पड़ती है, पर मैं आप से कहता हूँ कि इस मार्ग में कितनी भी कठिनाई उठानी पड़ती है, उसकी अपेक्षा लाभ उठाने के लिए हजारों-लाखों गुंजाइश भरी पड़ी हैं। अगर आप तपस्वी जीवन जीने के सिद्धांतों को स्वीकार करें और यह देखें कि हम वर्तमान जीवन-पद्धति में तपश्चर्या के सिद्धांतों को कहाँ तक लागू कर सकते हैं? अगर आपने ऐसा कुछ व्रत लिया है, तो आप सफल रहेंगे। आज मैंने तपश्चर्या के सिद्धांत बताए। अगले दिनों मैं आपको योग-अभ्यासों के बारे में बताऊँगा। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥