उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!
लंका-दहन के पश्चात् राक्षस तो मारे गये, लेकिन वातावरण ज्यों का त्यों गंदा बना रहा। वातावरण में राक्षसपन बराबर बना हुआ था। फिर उसका निवारण कैसे हो? वातावरण का मुकाबला कैसे किया जाए? तो रामचन्द्र जी ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। दशाश्वमेध घाट, कभी आप बनारस जाएँ तो वहाँ देखें कि वहाँ घाट का नाम ‘दशाश्वमेध घाट’ रखा गया है।
कौरवों के जमाने में कंस से लेकर के जरासन्ध तब जो अत्याचार कर रहे थे, वे महाभारत में मारे तो गये, लेकिन वातावरण वैसा ही गंदा बना रहा और वैसे ही उसमें दुष्टता भरी रही। उसका शमन कैसे हो? इसका एक ही उपाय भगवान कृष्ण ने बताया कि इसके लिए यज्ञ करना चाहिए। राजसूय यज्ञ उसी समय हुआ था और उसका उद्देश्य था—वातावरण का संशोधन।
वातावरण दिखायी नहीं पड़ता, पर उसका प्रभाव ऐसा बुरा होता है कि चारों ओर हाहाकार फैल जाता है। आज भी वातावरण वैसा ही दूषित है, जैसा कि दो घटनाएँ मैंने सुनायी जो उस समय था। आज भी चारों ओर अशांति फैली हुई है। सारे विश्व में वातावरण की वजह से दुर्घटनाएँ बराबर हो रही हैं। कहीं सूखा पड़ रहा है? कहीं पानी बरस रहा है। कहीं बाढ़ आ रही है, कहीं बीमारियाँ फैल रहीं हैं। ये तो यहाँ हैं, सारे संसार भर में देखिये, लड़ाई का वातावरण बन रहा है। जगह-जगह युद्ध चल रहे हैं, जगह-जगह द्वेष हो रहे हैं, जगह-जगह मार-धाड़ हो रही है, मार-काट हो रही है और आतंकवाद फैला हुआ है। बहुत-सी बातें हो रही हैं। ये कैसे हो रही हैंं? ये वातावरण के दूषित होने की वजह से हो रही हैं। इसकी प्रेरणा वातावरण से मिलती है। वातावरण से प्रकृति भी नाराज है, आज प्रकृति भी हमारा संग नहीं दे रही है। फसल ठीक तरह से पैदा नहीं हो रही। मनुष्यों में जो शांति और चैन होना चाहिए, वह भी नहीं मिल रहा है।
क्या उपाय करना चाहिए वातावरण संशोधन करने के लिए? वायुमंडल भी दूषित है। वातावरण ही नहीं, वायुमंडल भी। कैसे? ये कारखाने चलते हैं, मिलें चलती हैं। इनका धुँआ निकलता है। इन धुओं की वजह से वायुमंडल भी दूषित हो रहा है। एटमबमों का जो परीक्षण चल रहा है, उसकी वजह से विकिरण फैल रहा है और विकिरण की वजह से संतानें खराब हो रही हैं। बुरे स्वभाव की हो रही हैं। अंधी-पंगी हो रही हैं। वातावरण का प्रभाव, वायुमंडल का प्रभाव, विकिरण का प्रभाव सारे संसार भर में छाया हुआ है। इसका क्या उपाय करना चाहिए? ये पुस्तकीय उपायों से काम नहीं चल सकता। इसके लिए तीर-तलवार काम नहीं दे सकते। मनुष्य का सांसारिक पुरुषार्थ काम नहीं दे सकता है। इसके लिए आध्यात्मिक पुरुषार्थ ही कारगर हो सकता है। आध्यात्मिक पुरुषार्थों में यज्ञ की बड़ी महत्ता बतायी गयी है। यज्ञ की ऋषियों ने बड़ी महत्ता गायी है। यज्ञ को पिता बताया गया है और गायत्री को माँ बताया गया है। गायत्री और यज्ञ मिलकर के माता-पिता होते हैं। गायत्री यज्ञों से वह शक्ति पैदा होती है, जो कि नया दृश्य पैदा कर सके और वातावरण में जो गंदगी भरी पड़ी है उसको झाड़-बुहारकर साफ कर सके। यह सफाई करने की शक्ति केवल यज्ञ में है। यज्ञ से आप सारे संसार भर की सेवा कर सकते हैं।
एक संत थे। उन्होंने एक चवन्नी भेजी, दूसरे संत के पास और यह कहा कि इस चवन्नी की कोई चीज लेकर तुम्हारी जमात में जितने आदमी हैं—सबको खाना खिला दीजिए। उन्होंने चवन्नी का घी मँगाया और उसमें से ही हींग और लौंग मँगायी और दाल में बघार लगा दिया। सभी खाने वालों ने खाया और सबने कहा—हमने खा लिया और फिर दूसरे संत की परीक्षा लेने के लिए उन्होंने एक पैसा भेजा और एक पैसा भेजकर कहा कि आप इससे सारे संसार भर को भोजन करा दीजिए। सारे संसार भर को? थोड़े-से आदमियों को तो करा सकते हैं, पर एक पैसे में सारे संसार भर को भोजन कैसे कराया जाए? उन्होंने कहा—कराया जा सकता है? एक पैसे का घी और हवन-सामग्री उन्होंने उठाकर लिया। उस जमाने की बात कह रहा हूँ, जबकि एक पैसे ही बहुत कीमत थी। तो, किसको लिया और यज्ञ कर दिया। हवन करने से सारे के सारे वायुमंडल में उसकी सुगंध फैल गयी और जिस किसी ने साँस ली, उन सबकी साँस में हवन की वह सूक्ष्म सामग्री गयी। उससे सारे संसार के मनुष्यों को ही नहीं—पशुओं को, पक्षियों को, प्राणियों को, सबको खाने को मिला। आहार मिला, वायु मिली। वायु जो मिली, उससे उनका परिपोषण हुआ। उनके शरीर के रोग-निवारण हुए। उससे एक पैसा कितना काम आया? किसी को एक पैसा आप दान दे दें या खिला दें, तो उससे क्या हो सकता है? लेकिन यज्ञ कर दें, तो यज्ञ हवा में शामिल होकर के इस तरीके से फैल जाता है जैसे पानी में तेल डाल दें आप, तो वह तमाम जगह फैल जाता है। इसी प्रकार से यज्ञ में जो चीज हवन की जाती हैं, उन सबका सारे वातावरण पर असर पड़ता है। सारे वायुमण्डल पर असर पड़ता है।
वायुमडण्ल का संशोधन करने के लिए, प्रकृति का संशोधन करने के लिए और सारे संसार में सुख-शांति लाने के लिए, कलह-क्लेशों को दूर करने के लिए यज्ञ सबसे बड़ी चीज है भारतीय धर्म में। इसके बारे में इतनी ज्यादा प्रशंसा की गयी है, इतना महत्त्व बताया गया है, इतने गुणगान किये गये हैं कि यज्ञ से बड़ा पुण्य और परोपकार कोई और नहीं हो सकता। आप लोग यज्ञ कर रहे हैं इससे वायुमण्डल का संशोधन होने से बीमारियों को दूर होने से लेकर के लड़ाई-झगड़े, क्लेश, कुपात्र संतानें पैदा होने से लेकर के जो भी इस तरह की कठिनाइयाँ हैं, उनके समाधान होने में मदद मिलेगी। इसलिए यह करके जो आप बड़ा पुनीत कार्य कर रहे हैं, बड़ा पुण्य कार्य कर रहे हैं उसके हम बधाई देते हैं।
इस समय इसकी क्या आवश्यकता पड़ गयी? इस समय एक और नयी बात पैदा हो गयी। इस समय युद्ध के संकट और दूसरे संकट तो प्रत्यक्ष हैं ही जो दिखायी पड़ रहे है। आतंकवाद का भय भी आपको सब तरफ फैला दिखायी पड़ रहा है, सारे विश्व में दिखायी पड़ रहा है। हिन्दुस्तान में ही नहीं, पंजाब में ही नहीं सारे विश्व में ही यह वातावरण दूषित हो रहा है। इस दूषित वातावरण का संशोधन करने के लिए यज्ञ से बड़ी कोई और वस्तु नहीं है जिससे कि हम सूक्ष्म-जगत का परिष्कार कर सकें। इनकी वजह से ही यज्ञों को पुनरावृत्ति के रूप में करना पड़ा।
हमारे जीवन को पचहत्तर वर्ष हुए। ये पचहत्तर पन्ने की किताब है। इसमें सारे अध्यात्म के रहस्य हमने खोल-खोल कर रखे हैं। आपने कोई किताब न पढ़ी हो जीवन में, तो हमारा जीवन पढ़ लीजिए और हमारे जीवन से आप देख लीजिए, कि अध्यात्म सार्थक कैसे हो सकता है? इसकी हीरक जयंती सब लोगों ने मिलकर मनायी है तो कोई नाराजगी नहीं हुई। प्रसन्नता ही हुई है। ‘अखण्ड ज्योति’ परिवार के चौबीस लाख के करीब आदमी हैं। पत्रिकाएँ भी बहुत निकलती हैं। इन सबकी इच्छा थी कि हीरक-जयंती मनायी जाए। हीरक जयंती में ही यह संकल्प किये गये थे कि एक-एक लाख के पाँच बड़े यज्ञ होंगे जो आपने पढ़े ही हैं। जो आप कार्यान्वित कर ही रहे हैं।
यहाँ का नालंदा विश्वविद्यालय सबसे ज्यादा सफल रहा है। इसमें एक हजार आदमी के करीब शिक्षण प्राप्त करने के लिए हमेशा आते रहते हैं प्रत्येक महीने। जब तक एक लाख आदमियों को शिक्षित न कर लेंगे, तब तक चैन नहीं लेंगे। पहला संकल्प था। इसके अलावा था एक लाख जन्मदिन मनायेंगे, एक लाख पेड़ लगायेंगे और बहुत-सी बातें थी। वे हमारी हीरक-जयंती से सम्बन्धित हैं। उसकी पूर्णाहुति इसी यज्ञ के साथ हो रही है, जो आपके यहाँ होगा इस वर्ष। हमारे हीरक-जयंती की भी पूर्णाहुति है।
दूसरा बात ‘अखण्ड-ज्योति’ की यह स्वर्ण-जयंती है। ‘अखण्ड-ज्योति’ की वजह से हमने संगठन किया है। इतने विचार लोगों को दिये हैं। जो पत्रिकाएँ आजकल निकलती हैं उनमें दो लाख से ज्यादा ‘अखण्ड-ज्योति’ निकलती हैं। एक लाख से ज्यादा गुजराती की निकलती हैं। मराठी की पत्रिका निकलती हैं, उड़िया की निकलती हैं। हिन्दी का एक दूसरा पत्र निकलता है। सब मिलाकर छह-सात लाख पत्रिकाएँ निकलती हैं। इनके द्वारा हमारे विचारों ने दुनिया में एक बड़ा संगठन खड़ा कर दिया है। चौबीस लाख आदमियों का एक संगठन है। यह संगठन इसी वजह से बना है कि हमारे विचारों को ‘अखण्ड-ज्योति’ के द्वारा हमारी वाणी को लोगों ने सुना और हमारी लेखनी को चखा। लेखनी और वाणी दोनों का सम्मिश्रण है, यह अखण्ड-ज्योति। इसका पचासवाँ वर्ष शुरू होता है। उनचास वर्ष पूरे हो गये और अब इसी महीने से, इसी साल से पचासवाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ है तो इसकी स्वर्ण-जयंती है। स्वर्ण-जयंती मनाने में यज्ञ और गायत्री ये ही दो तो हमारे माता-पिता रहे हैं। गायत्री का तो इसके साथ में जप होगा ही, आहुतियाँ तो दी जाएँगी, गायत्री-यज्ञ है ही। इससे हम अपने-पिता को, अखण्ड-ज्योति को भी पूर्णाहुति के रूप में याद करते हैं और अखण्ड ज्योति का स्वर्ण-जयंती वर्ष मनाते हैं।
इसके सिवाय, तीसरा हमने जो कार्य किया, वह तीन वर्ष का सूक्ष्मीकरण-अनुष्ठान किया था। तीन वर्ष पूरे होते हैं। अधिकांश समय हमें एकांत में रहना पड़ा, मौन में रहे और क्या-क्या किया? उन सब बातों को बताने की आवश्यकता नहीं है। इसके लिए आपको जनवरी की ‘अखण्ड-ज्योति’ पढ़नी चाहिए। जनवरी की ‘अखण्ड-ज्योति’ को हम ‘कुण्डली-जागरण’ अंक अथवा ‘सावित्री-साधना’ अंंक के नाम से छाप रहे हैं। इस सावित्री-साधना का क्या विज्ञान है? किस तरीके से, संभव हुई? ये हम ‘अखण्ड-ज्योति’ के जनवरी के अंक में बतायेंगे और इक्कीसवीं सदी कैसे आयेगी? नया युग कैसे आयेगा? नये युग में क्या-क्या बातें होंगी? यह सब बातें फरवरी के अंक में होंगी। ‘अखण्ड-ज्योति’ का जो स्वर्ण-जयंती वर्ष है, यह भी बड़ा शानदार वर्ष है। क्योंकि बहुत कम पत्रिकाएँ ऐसी हैं, हिन्दुस्तान में जो पचास वर्ष से ज्यादा से चल रही हैं। इनकी संख्या अँगुलियों पर गिनने लायक हैं। कोई पत्रिका दो वर्ष निकलती है, कोई एक वर्ष निकलती है, तो कोई चार वर्ष निकलती है। प्रायः बंद हो जाती हैं। इतने लम्बे समय तक लगातार, जिसका कभी विराम न हुआ हो, जिसके कभी साप्ताहिक अंक न निकले हों, जिसकी कभी नागा न हुई हो, इस तरह की पत्रिका शायद ही कहीं कोई हो भारतवर्ष में। इसकी भी स्वर्णजयंती मनायी जा रही है।
आपका जो यज्ञ है, यह उस स्वर्ण-जयंती का भी यज्ञ है। हमारी ये तीन वर्ष की जो साधना हुई है, वह भी सारे विश्व-कल्याण के लिए हुई है। वातावरण संशोधन के लिये हुई है जो संसार में पाप-अनाचार फैले हुए हैं, उसके साथ संघर्ष के लिए, उसके साथ में लोहा लेने की शक्ति पैदा करने के लिए हुई है। ये साधना बड़ी महत्त्वपूर्ण है। न केवल संसार के लिए है, बल्कि हमारा सारा कुटुम्ब जो है उसके लिए भी। अपने कुटुम्ब के लिए इतनी बड़ी सेवाएँ जो की हैं उसके लिए हमको अभी संतोष नहीं हो रहा है। अब ये हमारा मन है कि हमारे जो कुटुम्बी हैं, गायत्री परिवार के परिजन हैं इनकी कुछ और ज्यादा सेवा करें। ज्यादा सेवा करने के लिए पूँजी की आवश्यकता है। सम्पदा तो होनी ही चाहिए। हमारे पास कुछ साधन तो हों, जिससे हम सेवा करें। सेवा मुँहजबानी थोड़े ही हो जाती है। उसके लिए ये तीन वर्ष इसीलिए बीत गये हैं कि संसार का वातावरण संशोधित हो और अपने प्रज्ञा-परिवार के जितने भी व्यक्ति हैं, उनकी सेवा करने का, उनकी सहायता करने का, उनके दुःखों को दूर करने का, उनकी इच्छाओं को पूरा करने के लिए जितनी सहायता हम कर सकते हैं, उसके लायक शक्ति एकत्रित करने के लिए, उपार्जित करने के लिए भी ये यज्ञ हैं।
इन यज्ञों के साथ यह तीन बातें साथ में जुड़ी हुई हैं। वातावरण, वायुमण्डल और विकिरण सम्बन्धी समस्याएँ जो सारे संसार भर में फैली हुई हैं, उनके समाधान के लिए यह यज्ञ देखने में छोटा-सा मालूम पड़ेगा आपको। लेकिन सौ कुण्डीय यज्ञ भी कम है इस समस्या को देखते हुए। कितनी बड़ी समस्या है और उस समस्या से संघर्ष करने के लिए कितना बड़ा काम करना चाहिए? वह बड़ा काम हम यों करने जा रहे हैं—सौ कुण्डीय के हिसाब से जो यज्ञ करने जा रहे हैं, वे एक लाख कुंड में समाप्त होंगे। एक लाख कुण्डों तक चलेंगे। सौ को सौ से गुणा कर दे तो दस हजार होते हैं और फिर उसको दस से गुणा कर दो तो एक लाख होते हैं तो जूनियर और सीनियर यज्ञों को मिलाकर के एक लाख यज्ञ करने का हमने संकल्प किया है। ये पूरा होकर रहेगा। हमारा कोई संकल्प अधूरा नहीं रहा। गायत्री शक्तिपीठें जब बनायी थीं तो चौबीस का संकल्प छपा था। आपने पहली पुस्तक हमारी देखी होगी। उसमें चौबीस स्थान भी दिये थे कि चौबीसों स्थानों में गायत्री शक्तिपीठें बनाकर के रहेंगे। बस, वह संकल्प प्रकाशित हुआ और उसके बाद में चौबीस सौ बनीं। यानि सौ गुनी ज्यादा हो गयीं। अभी हमारा एक लाख कुण्डों का संकल्प है। पहले ये सौ-सौ कुण्डीय-यज्ञों को करने का संकल्प हुआ। फिर अभी और बढ़ा है। एक लाख कुण्डों का तो बड़ी आसानी से पूरा हो जाएगा। इसमें किसी तरह की—न पैसे की दिक्कत पड़ेगी और न कोई और तरह की दिक्कत पड़ेगी।
केवल यज्ञ ही इसमें शामिल नहीं है। इसके साथ-साथ में राष्ट्रीय-एकता सम्मेलन भी जुड़े हुए हैं। आजकल छिन्न-भिन्न होता हुआ दिखायी पड़ता है—देश। भाषाओं के नाम पर, सम्पदाओं के नाम पर और जाति-बिरादरियों के नाम पर। हजारों चीजें ऐसी हैं जो हमारे बीच बिखराव पैदा करती हैं। इस बिखराव को एकता में बदलने के लिए, सबको एक सूत्र में बाँधने के लिए, सबको एक परिवार के रूप में गठित करने के लिए हमने ये राष्ट्रीय एकता सम्मेलन प्रत्येक यज्ञ के साथ जुड़े रखे हैं। चाहे जूनियर यज्ञ हों, चाहे सीनियर यज्ञ हों। चाहे एक कुण्डीय यज्ञ हों, चाहे पाँच कुण्डीय यज्ञ हों। सबमें राष्ट्रीय एकता सम्मेलन का नाम दिया जाएगा और उस विषय में व्याख्यान और प्रवचन और उपस्थित जनता को उनका मार्गदर्शन करने का भी क्रम रहेगा।
इस तरीके से इसमें दोहरा लाभ है। इन समस्त लाभों को देखते हुए जो खर्च इसमें आयेगा, वह तो नगण्य है। उसकी तो बहुत कम कीमत है। इसमें तो हमने और भी सब बातों की किफायत कर दी है। यज्ञ का सारे का सारा सामान यहीं से भेजा जा रहा है और वहाँ के लोगों को जहाँ ये आयोजन होंगे, वहाँ तो कम पैसे ही खर्च करने होंगे। इस तरीके से यह योजना क्रमबद्ध रूप से बनायी गयी है। इन सबसे सारे भारतवर्ष के कोने-कोने में यज्ञों की हवा बनाने का उद्देश्य है। इस हवा को बनाने में आप मदद दीजिए। इसमें आप सहयोग दीजिए। इसमें आप सम्मिलित होइये और यहाँ से हमारे प्रवचन सुनने के बाद में ये विचार लेकर के जाइये कि ‘‘हमको अपने गाँव में अपनी बस्ती में अपने इलाके में भी इन यज्ञों को करना है। छोटे यज्ञ भी होंगे आगे जाकर के। छोटे हों चाहे बड़े हों, पर कहीं न कहीं इन यज्ञों की हवा फिर सारे भारतवर्ष में पैदा करनी है हमको। तो उसमें आपके सहयोग की जरूरत है, सहायता की जरूरत है। अगर आप सहायता करेंगे, सहयोग करेंगे तो आप खाली हाथ नहीं रहेंगे। यज्ञ भगवान ने कहा है—हे यज्ञ करने वालो! तुम चम्मच भरकर घी लाये—तुम मुट्ठी भरकर सामग्री लाये। हमने तुम्हारी मुट्ठियों को खाली हाथ नहीं रहने दिया है। तुम्हारी मुट्ठियों में हजार गुनी कीमती चीजें भर दी हैं।’’
इस यज्ञ में शामिल होने वालों का जो समय लगेगा, श्रम लगेगा, पैसा लगेगा—हम आपको यकीन दिलाते हैं, कि उनका सौ गुना होकर के आप लोगों को घूम-फिर के मिलेगा। आप उससे ज्यादा लाभ उठायेंगे। शारीरिक लाभ भी उठायेंगे, मानसिक लाभ भी उठायेंगे। पारिवारिक लाभ उठायेंगे, आर्थिक लाभ उठायेंगे और आध्यात्मिक लाभ उठायेंगे। सब तरह के लाभ आपको इन यज्ञों से होंगे। ऐसा हम आपको यकीन दिलाते हैं। इन शब्दों के साथ अपनी बात समाप्त करते हैं।
॥ॐ शान्तिः॥