उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
अपने बच्चों से, साथियों से, मिशन के कार्यकर्ताओं से मिलने का मेरा बड़ा मन था। पर संयोग नहीं मिल पा रहा था। पहले मन यह था कि यहाँ बुलाऊँ और बुला करके एक-एक से बात करूँ और अपने मन को खोलकर आप सबके सामने रखूँ और आपकी नब्ज़ भी देखूँ पर अब यह सम्भव नहीं रहा। कितने कार्यकर्ता हैं? यहाँ शान्तिकुञ्ज के स्थायी कार्यकर्ता एवं सामयिक स्वयंसेवक आए हुए हैं। एक समुदाय जो शुरू में आया था वह समुदाय, न केवल यहाँ का, वरन् गायत्री तपोभूमि का, वह भी हमारा समुदाय है। सब लोगों को बुलाने के लिए मैं विचार करता रहा कि क्या ऐसा सम्भव है कि एक-एक करके आदमियों को बुलाऊँ और अपने जीवन के अनुभव आऊँ और अपनी इच्छा और आकांक्षा बताऊँ। लेकिन एक-एक करके बुलाने में तो मालूम पड़ा कि यह संख्या तो इतनी बड़ी है कि इनको बुलाने में महीनों लगाऊँ तो भी पूरा नहीं हो सकेगा। इसलिए आप यह मानकर चलिए कि आप से व्यक्तिगत बात की जा रही है और एकांत में, अकेले में बुलाकर के, कन्धे पर हाथ रखकर के और आप से ही कहा जा रहा है किसी और से नहीं।
आप इन बातों को अपने जीवन में प्रयोग करेंगे तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपकी ऐसी उन्नति होती चली जाएगी जैसी कि एक छोटे-से देहात में जन्म लेने के बाद हम उन्नति करते चले आए और उन्नति के ऊँचे शिखर पर जा पहुँचे। आपके लिए भी यह रास्ता खुला हुआ है। आपके लिए भी सड़क खुली हुई है। लेकिन अगर आप ऐसा नहीं कर पाएँगे तो आप यह विश्वास रखिए कि आप घटिया आदमी रहे होंगे किसी भी समय में और घटिया ही रहकर जाएँगे। भले से ही आप शान्तिकुञ्ज में रहें। आपकी कोई कहने लायक महत्त्वपूर्ण प्रगति न हो सकेगी और आप वह आदमी न बन सकेंगे जैसे कि बनाने की मेरी इच्छा है।
अब क्या करना चाहिए? आपको वह काम करना चाहिए जो कि हमने किया है। क्या किया है आपने? क्रिया-कलाप गिनाऊँ आपको? नहीं क्रिया-कलाप नहीं गिनाऊँगा। क्रियाकलाप गिनाऊँगा तो मुझे वहाँ से चलना पड़ेगा जहाँ से काँग्रेस का वालंटियर हुआ और फिर यहाँ आकर के होते-होते वहाँ आ गया, जहाँ अब हूँ। वह बड़ी लम्बी कहानी है। उन सब कहानियों का अनुभव और निष्कर्ष निकालना आपके लिए मुश्किल हो जाएगा। उस पर तो ध्यान नहीं देता, लेकिन मैं सैद्धान्तिक रूप से बताता हूँ। हमने आस्था जगाई, श्रद्धा जगाई, निष्ठा जगाई। निष्ठा, श्रद्धा और आस्था किसके प्रति जगाई? व्यक्ति के ऊपर? व्यक्ति तो माध्यम होते है। हमारे प्रति, गुरुजी के प्रति श्रद्धा है। बेटा, यह तो ठीक है, लेकिन वास्तव में सिद्धान्तों के प्रति श्रद्धा होती है। आदमियों के प्रति श्रद्धा, मूर्तियों के प्रति श्रद्धा, देवताओं के प्रति श्रद्धा टिकाऊ नहीं होती। इसका कोई ज्यादा महत्त्व नहीं। महत्त्वपूर्ण वह जो सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा होती है। हमारी सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा रही। आजीवन वहाँ से जहाँ से चले, जहाँ से विचार उत्पन्न किया है, वहाँ से लेकर निरन्तर अपनी श्रद्धा की लाठी को टेकते-टेकते यहाँ तक चले आए और यहाँ तक आ पहुँचे। अगर यह श्रद्धा की लाठी हमने पकड़ी न होती तो तब सम्भव है कि हमारा चलना, इतना लम्बा सफर पूरा न होता। यदि सिद्धान्तों के प्रति हम आस्थावान न हुए होते तो सम्भव है कि कितनी बार भटक गए होते और कहाँ से कहाँ चले गए होते और हवा का झोंका उड़ाकर हमको कहाँ ले गया होता? लोभों के झोंके, मोहों के झोंके, नामवरी के झोंके, यश के झोंके, दबाव के झोंके ऐसे हैं कि आदमी को लम्बी राह पर चलने के लिए मजबूर कर देते है और कहीं से कहीं घसीट ले जाते हैं। हमको भी घसीट ले गए होते। ये आदमियों को घसीट ले जाते हैं। बहुत-से व्यक्ति थे जो सिद्धान्तवाद की राह पर चले और कहाँ से कहाँ जा पहुँचे?
भस्मासुर का पुराना नाम बताऊँ आपको। मारीचि का पुराना नाम बताऊँ आपको। ये सभी योग्य तपस्वी थे। पहले जब उन्होंने उपासना-साधना शुरू की थी, तब अपने घर से तप करने के लिए हिमालय पर गए थे। तप और पूजा-उपासना के साथ-साथ में कड़े नियम और व्रतों का पालन किया था, तब वे बहुत मेधावी थे, लेकिन समय और परिस्थितियों के भटकाव में वे कहीं के मारे कहीं चले गए। भस्मासुर का क्या हो गया? जिसको प्रलोभन सताते हैं, वे भटक जाते हैं और कहीं के मारे कहीं चले जाते हैं।
तो श्रद्धा आदमी को टिकाऊ बनाए रखने के लिए एक रस्सी या एक सम्बल है, जिसके सहारे, जिसको पकड़ करके मनुष्य सीधी राह पर चलता हुआ चला जाता है। भटक नहीं पाता। आप भटकना मत। घर से आप चले थे न, यह विचार लेकर चले थे न कि हम लोककल्याण के लिए, जनमंगल के लिए घर छोड़कर चले गए हैं। आप जब कभी भी भटकन आए तो आप अपने उस दिन को, उस समय की मनःस्थिति को याद कर लेना जबकि आपके भीतर से श्रद्धा का एक अंकुर उगा था और अंकुर उगकर के फिर आपके भीतर एक उमंग पैदा हुई थी और उमंग को लेकर आप यहाँ आ गए थे। आपको याद है जब आप यहाँ आए थे, जिस दिन आप आए थे उसी मन को याद रखना।
साधु-बाबाजी जिस दिन घर से निकलते हैं, उस दिन यह श्रद्धा लेकर निकलते हैं कि हमको संत बनना है, महात्मा बनना है, ऋषि बनना है, तपस्वी बनना है। लेकिन थोड़े दिनों बाद वह जो उमंग होती है, वह ढीली पड़ जाती है और ढीली पड़ने के बाद में संसार के प्रलोभन उनको खींचते है। किसी की बहिन-बेटी की ओर देखते हैं, किसी से पैसा लेते हैं। किसी को चेला-चेली बनाते हैं। किसी की हजामत बनाते हैं। फिर जाने क्या से क्या हो जाता है? पतन का मार्ग यहीं से आरम्भ होता है। ग्रैविटी—गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की हर चीज को ऊपर से नीचे की ओर खींचती है। संसार भी एक ग्रैविटी है, जो ऊपर से नीचे की ओर खींचती है। आप लोगों से सबसे मेरा यह कहना है कि आप ग्रैविटी से खिंचना मत। रोज सवेरे उठकर भगवान् के नाम के साथ में यह विचार किया कीजिए कि हमने किन सिद्धान्तों के लिए समर्पण किया था? और पहला कदम जब उठाया था तो किन सिद्धान्तों के आधार पर उठाया था? उन सिद्धान्तों को रोज याद कर लिया कीजिए। रोज याद किया कीजिए कि हमारी उस श्रद्धा में, और उस निष्ठा में, उस संकल्प और उस त्यागवृत्ति में कही फर्क तो नहीं आ गया। संसार ने हमको खींच तो नहीं लिया। वातावरण ने हमको गलीज तो नहीं बना दिया। कहीं हम कमीने लोगों की नकल तो नहीं करने लगे। आप यह मत करना।
यह नहीं करेंगे तो क्या हो जाएगा? यदि आपकी श्रद्धा कायम रही तो फिर एक नई चीज पैदा होगी। तो उसमें से अंकुर जरूर पैदा होगा। फिर क्या पैदा होगा—आपको काम करने की लगन पैदा होगी। काम करने की ऐसी लगन कि आपने जो काम शुरू किया है उसको पूरा करने के लिए कितने मजबूत कदम उठाए जाएँ, कितने तेज कदम उठाए जाएँ, यह आपसे करते ही बनेगा। आप फिर यह नहीं कहेंगे कि हमने छह घण्टे काम कर लिया, चार घण्टे काम कर लिया। यहाँ बैठे हैं, वहाँ बैठे हैं। ओवरटाइम लाइए और ज्यादा काम हम क्यों करेंगे? नहीं, फिर आप काम किए बिना रह नहीं सकेंगे।
हमारा भी यही हुआ। श्रद्धा जब उत्पन्न हुई तो हमने यह सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि प्रलोभन हमको खींचने लगे। तो वहाँ से घर की सम्पत्ति को त्याग करने से लेकर के स्त्री के जेवरों से लेकर के और जो कुछ भी था, सबको त्याग करते चले आए कि कहीं प्रलोभन खींचने नहीं लगें। प्रलोभन खींचने नहीं पाएँ और वह श्रद्धा हमको निरन्तर बढ़ाती हुई चली आई। फिर उसने लगन को कम नहीं होने दिया। घीयामण्डी के मकान में १७ वर्ष तक बिना बिजली के हमने काम किया। न उसमें पंखा था, न उसमें बल्ब। मकान मालिक से झगड़ा हो गया था, सो मकान मालिक कहता था कि मकान खाली करो तो उसने बिजली के सेंक्शन पर साइन नहीं किये थे और बिजली हमको नहीं मिली। १७ वर्षों तक हम केवल मिट्टी के तेल की बत्ती जलाकर रात के दो बजे से लेकर सबेरे तक अपना पूजा-पाठ से लेकर के और अपना लेखन-कार्य तक बराबर करते रहे। पंखा था नहीं, घोर गर्मियों के दिनों में लू में भी काम करते रहे। १८ घण्टे काम करते रहे। यह काम हमने किया।
अब क्या बात रह गईं—दो बातों के अलावा। दो बातों में से आप में से हर आदमी को देखना चाहिए कि हमारी श्रद्धा कमजोर तो नहीं हुई। एक ओर हमारी लगन कमजोर तो नहीं हुई अर्थात् परिश्रम करने के प्रति जो हमारी उमंग और तरंग होनी चाहिए, उसमें कमी तो नहीं आ रही। किसान अपने घर के काम समझता है तो सबेरे से उठता है और रात के नौ-दस बजे तक बराबर घर के कामों में लगा रहता है। वह १८ घण्टे काम करता है। किसी से शिकायत नहीं करता कि हमको १८ घण्टे रोज काम करना पड़ता है। हमें अवकाश नहीं मिला या हमको इतवार की छुट्टी नहीं मिली और हमको यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ, इसकी कोई शिकायत नहीं करता क्योंकि वह समझता है कि हमारा काम है। यह हमारी जिम्मेदारी हे। खेत को रखना, जानवरों को रखना और बाल-बच्चों की देख−भाल करना यह हमारा काम है। जिम्मेदारी हर आदमी को दिन-रात काम करने के लिए लगन लगाती है और वह आपके प्रति भी है। आपको भी व्यक्तिगत जीवन में अपनी श्रद्धा को कायम रखना—एक और अपनी लगन को जीवंत रखना—दो काम तो आपके व्यक्तिगत जीवन के है, वह आपको करने चाहिए।
अब एक और नई बात शुरू करते हैं। नई बात यह है कि यह मिशन हमने कितने परिश्रम से बनाया? कितना विस्तार इसका हो गया, कितना फैल गया, कितना खुल गया? कितना विस्तार होता जाता है? आप सुनते रहते है न, हजार कुण्ड के यज्ञीय समाचार आपको मिलते हैं। आपको २४०० शक्तिपीठों की स्थापना की बात मिलती है। इस साल जो युग-निर्माण सम्मेलन हुए है उन सम्मेलनों की बात याद है। यहाँ तक कि शिविर चलते हैं उनकी बात याद है। गवर्नमेण्ट के कितने शिविरों को हम चलाते हैं, इसकी बात याद है। यहाँ की फिल्म स्टूडियो, टी वी स्टूडियो, फिल्म चलाने वाले हैं—यह सब बातें आपको याद हैं। बहुत बड़ा काम है। बहुत बड़ी योजना है। इस काम को हमने आरम्भ किया, लेकिन अब यह जिम्मेदारी हम आपके सुपुर्द करते हैं। आपमें से हर आदमी को हम यह काम सौंपते हैं कि आप हमारे बच्चे के तरीके से हमारी दुकान चलाइए, बंद मत होने दीजिए। हम तो अपनी विदाई ले जाएँगे, लेकिन जिम्मेदारी आपके पास आएगी। आप कपूत निकलेंगे तो, फिर आदमी आपकी बहुत निंदा करेगा और हमारी बहुत निंदा करेगा।
कबीर का बच्चा ऐसा हुआ था जो कबीर के रास्ते पर चलता नहीं था, तो सारी दुनिया ने उससे यह कहा—'बूढ़ा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल।' आपको कमाल कहा जाएगा और कहा जाएगा कि कबीर तो अच्छे आदमी थे, लेकिन उनकी संतानें दो कौड़ी की भी नहीं हैं। आपको दो कौड़ी की संतानें पैदा नहीं करना है। आपको इस कार्य का विस्तार करना है। जो काम हम करते रहे हैं, वह अकेले हमने नहीं किया। मिल-जुल करके ढेरों आदमियों के सहयोग से किया है और यह सहयोग हमने प्यार से खींचे हैं, समझा करके खींचे हैं, आत्मीयता के आधार पर खींचे हैं। ये गुण आपके भीतर पैदा हो जाएँ तो जो आदमी आपके साथ-साथ काम करते रहते हैं, उनको भी मजबूत बनाए रहेंगे और नए आदमी जिनकी कि इससे आगे भी आवश्यकता पड़ेगी। अभी ढेरों आदमियों की आवश्यकता पड़ेगी। आपको संकल्प का नाम याद है न—'नया युग लाने का संकल्प।' नया युग लाने का संकल्प दो आदमियों का काम है, चार आदमियों का काम है, हजारों आदमियों का काम है। जो काम हमने अपने जीवन में किया है, वही काम आपको करना है।
नए आदमियों को बुलाने का भी आपका काम है। कैसे बुलाना? यहीं शान्तिकुञ्ज में कितने आदमी काम करते है? यहाँ २४० के करीब आदमी काम करते हैं। एक कुटुम्ब बनाकर बैठे हैं और उस कुटुम्ब को हम कौन-सी रस्सी से बाँधे बैठे हैं? प्यार की रस्सी से बाँधे हुए हैं, आत्मीयता की रस्सी से बाँधे हुए हैं, भावना की रस्सी से बाँधे हुए हैं। ये रस्सियाँ आपको तैयार करनी चाहिए, ताकि आप नए आदमियों को बाँध करके अपने पास रख सकें और जो आदमी वर्तमान में हैं आपके पास उनको मजबूती से जकड़े रह सकें। नहीं तो आप इनको भी मजबूती से जकड़े नहीं रह सकेंगे, यह भी नहीं रहेंगे। इनकी सफाई भी आपको करनी है। आत्मीयता अगर न होगी और आपका व्यक्तित्व न होगा तो आपके लिए इनकी सफाई करना भी मुश्किल हो जाएगा।
इसलिए क्या करना चाहिए? आपके पास एक ऐसी प्रेम की रस्सी होनी चाहिए, आपके पास ऐसी मिठास की रस्सी होनी चाहिए, आपके पास अपने व्यक्तिगत जीवन का उदाहरण पेश करने की ऐसी रस्सी होनी चाहिए, जिससे प्रभावित करके आप आदमी के हाथ जकड़ सकें, पैर जकड़ सकें, काम जकड़ सकें। सारे के सारे को जकड़ करके जिंदगी भर अपने साथ बनाए रख सकें। यह काम आपको भी विशेषता के रूप में पैदा करना पड़ेगा। संस्थाएँ इसी आधार पर चलती हैं। संस्थाओं की प्रगति इसी आधार पर टिकी है। संस्थाएँ जो नष्ट हुई हैं, संगठन जो नष्ट हुए हैं, इसी कारण नष्ट हुए हैं। चलिए मैं आपको एक-दो उदाहरण सुना देता हूँ।
एक मैं उदाहरण सुनाऊँगा—स्वामी श्रद्धानन्द का। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में अपने मकान को बेच करके गुरुकुल काँगड़ी नाम के एक छोटे-से गाँव में छप्पर बनाया। दस विद्यार्थियों को लाए। मास्टर एवं नौकर रखने की हैसियत नहीं थी, इसलिए पढ़ाना भी उन्होंने ही शुरू कर दिया। रसोइया रखने की हैसियत नहीं थी, इसीलिए खाना पकाना भी उन्होंने शुरू कर दिया। यह लगन, यह निष्ठा जिन किन्हीं ने भी देखी, वही आदमी प्रभावित होता चला गया, वही सहयोगी होता हुआ चला गया। यह उनका विश्वास था कि जिसने मकान बेच करके साधु बना दिया और वह उनकी लगन थी, जिसमें कि उन्होंने झाड़ू लगाने से लेकर के खाना पकाने तक के और पढ़ाने तक के और बच्चों के कपड़े धोने तक के सारे काम अपने जिम्मे लिए। उनकी लगन, उनकी श्रद्धा—बस यही दो शक्तियाँ जागीं, बस मैग्नेट बन गया, चुंबक बन गया और लोगों का पैसा भी आता चला गया। यह भी होता हुआ चला गया। बढ़ता हुआ चला गया। गुरुकुल काँगड़ी बन गई और स्वामी श्रद्धानन्द की वजह से ४0-४५ आदमी उनके जमाने में, गुरुकुल काँगड़ी जिन दिनों स्थापित हुई थी, ऐसे पैदा हुए जिन्होंने हिन्दुस्तान में तहलका मचा दिया। आर्यसमाजियों में नया जीवन फूँक दिया। नए गुरुकुल उन्हीं दिनों खुले थे और ढेरों के ढेरों गुरुकुल खुले थे। स्वामी जी ने उनको आज्ञा दी थी कि जैसा गुरुकुल यहाँ का गुरुकुल काँगड़ी है—अपने क्षेत्र में वैसा ही गुरुकुल कायम रखना, तो उन्हीं दिनों २० के करीब गुरुकुल स्थापित हुए थे।
मैं अभी और उदाहरण सुनाता हूँ आपको। प्रेम महाविद्यालय का नाम सुना है आपने। हमारी गायत्री तपोभूमि से कुछ आगे जाकर के वृन्दावन रोड पर बना हुआ है। पहले जहाँ प्रेम महाविद्यालय था—राजा महेन्द्र प्रताप ने अपनी जमीन तो दान कर दी थी, बना भी दिया, लेकिन उसको चलाने के लिए बाबू सम्पूर्णानन्द और आचार्य जुगलकिशोर, ब्रह्मचारी कृष्ण चंद्र जैसे पहली श्रेणी के लोग आए जिनका कि व्यक्तिगत चरित्र, ज्ञान नहीं चरित्र और लगन उनमें थी। उन्होंने क्या काम किया कि प्रेम महाविद्यालय में जो विद्यार्थी पढ़ने आते थे, उनमें ऐसी लगन फूँक दी, ऐसे प्राण फूँक दिए, ऐसी जान फूँक दी कि यू. पी. काँग्रेस का सारे का सारा काम सत्याग्रह के दिनों में उन्होंने किया। यू. पी. सत्याग्रह में, किसी जमाने में जब नमक सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ था, तब पहली श्रेणी का था जिसमें कि इतने आदमी गिरफ्तार हुए, इतने आदमी जेल गए। इतने आन्दोलन हुए। इसका सबका श्रेय, ६० फीसदी श्रेय जो है प्रेम महाविद्यालय को था, जो पहले साल में पढ़े, दूसरे साल में पढ़े, तीसरे साल में पढ़े। उन पढ़े हुए विद्यार्थियों ने इतना हाहाकार मचा दिया कि गवर्नमेण्ट को प्रेम महाविद्यालय बन्द करना पड़ा। जितने भी विद्यार्थी थे, चाहे वे सत्याग्रह कर रहे थे, चाहे नहीं कर रहे थे, प्रेम महाविद्यालय के सारे विद्यार्थियों को मकानों से पकड़-पकड़ करके जेल में बन्द कर दिया कि इनको बागी बना दिया गया।
दो उदाहरण—एक मैंने श्रद्धानन्द का उदाहरण सुनाया, दूसरा मैंने प्रेम महाविद्यालय का उदाहरण सुनाया। लगन की बात कह रहा हूँ आपसे लगन की और आप से श्रद्धा की बात कह रहा हूँ। श्रद्धा और लगन, श्रद्धा और लगन। लगन आदमी के अंदर हो तो सौ गुना काम करा लेती है। इतना काम करा लेती है, कि हमारे काम को देखकर आपको आश्चर्य होगा। इतना साहित्य लिखने से लेकर इतना बड़ा संगठन खड़ा करने तक और इतनी बड़ी क्रांति करने से लेकर इतने आश्रम बनाने तक जो काम शुरू किए हैं वे कैसे हो गए? बेटा, यह श्रम है श्रम। यह हमारा श्रम है। यदि हमने श्रम से जी चुराया होता तो उसी तरीके से घटिया आदमी होकर रह जाते जैसे कि अपना पेट पालना ही जिनके लिए मुश्किल हो जाता है। चोरी-ठगी से, चोरी-चालाकी से जहाँ कहीं से मिलता पेट भरने के लिए, कपड़े पहनने के लिए और अपना मौज-शौक पूरा करने के लिए पैसा इकट्ठा करते रहते, पर इतना बड़ा काम सम्भव न होता।
तो क्या करना चाहिए। बेटे, मैं नहीं बताता हूँ। कैसे कहूँ आपको, देख लीजिए और हमको पढ़ लीजिए। हमारी श्रद्धा को पढ़ लीजिए। जिस दिन से हमने साधना के क्षेत्र में, सेवा के क्षेत्र में, अध्यात्म के क्षेत्र में कदम बढ़ाया, उस दिन से लेकर आज तक हमारी निष्ठा ज्यों की त्यों बनी हुई है। इसमें कहीं एक राई-रत्ती, सुई के नोंक के बराबर फर्क नहीं आएगा। जिस दिन तक हमारी लाश उठेगी उस दिन तक आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि इन्होंने अपनी श्रद्धा डगमगा दी। इन्होंने अपने विश्वास में कमी कर दी।
आप हमारी वंश-परम्परा को जानिए और हम मरने के बाद में जहाँ कहीं भी रहेंगे, भूत बनकर देखेंगे। हम देखेंगे कि जिन लोगों को हम पीछे छोड़कर आए थे, उन्होंने हमारी परम्परा को निबाहा है और अगर हमको यह मालूम पड़ा कि इन्होंने हमारी परम्परा नहीं निबाही और इन्होंने व्यक्तिगत ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया और अपना व्यक्तिगत अहंकार, अपनी व्यक्तिगत यश−कामना और व्यक्तिगत धन-संग्रह करने का सिलसिला शुरू कर दिया। व्यक्तिगत रूप से बड़ा आदमी बनना शुरू कर दिया, तो हमारी आँखों से आँसू टपकेंगे और जहाँ कहीं भी हम भूत होकर के पीपल के पेड़ पर बैठेंगे, वहाँ जाकर के हमारी आँखों से जो आँसू टपकेंगे-आपको चैन से नहीं बैठने देंगे और मैं कुछ कहता नहीं हूँ। आपको हैरान कर देंगे हैरान। दुर्वासा ऋषि के पीछे विष्णु भगवान का चक्र लगा था तो दुर्वासा जी तीनों लोकों में घूम आए थे, पर उनको चैन नहीं मिला था। आपको भी चैन नहीं मिलेगा। अगर हमको विश्वास देकर के विश्वासघात करेंगे तो मेरा शाप है आपको चैन नहीं पड़ेगा कभी भी और न आपको यश मिलेगा, न आपको ख्याति मिलेगी, न उन्नति होगी। आपका अधःपतन होगा। आपका अपयश होगा और आपकी जीवात्मा आपको मारकर डाल देगी। आप यह मत करना, अच्छा!
मुझे अपने मन की बात कहनी थी, सो मैंने कह दी। अब करना आपका काम है कि इन बताई हुई बातों को किस हद तक कार्य में लें और और कहाँ तक चलें? बस ये ही मोटी-मोटी बातें थीं जो मैंने आपसे कहीं। बस मेरा मन हल्का हो गया। अब आप इन्हें सोचना। मालूम नहीं आप इन्हें कार्यरूप में लाएँगे या नहीं लाएँगे। यदि लाएँगे तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी और मैं समझूँगा कि आज मैंने जी खोलकर आपके सामने जो रखा था आपने उसे ठीक तरीके से पढ़ा, समझा और जीवन में उतार करके उसी तरह का लाभ उठाने की सम्भावना शुरू कर दी जैसे कि मैंने अपने जीवन में की।
यह रास्ता आपके लिए भी खुला है, भले आप पीछे-पीछे आइए, साथ आइए। हमको देखिए और अपने आपको ठीक करिए।
बस हमारी बात समाप्त।
ॐ शान्ति।