उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा ने शान्तिकुञ्ज में युग निर्माण हेतु संकल्पित वरिष्ठ परिजनों को १९७६ में अति महत्त्वपूर्ण संदेश दिये थे। उसी प्रवचन को लिपिबद्ध कर पुस्तकाकार में प्रकाशित किया जा रहा है।
युग निर्माण योजना की कार्य पद्घति को तीन चरणों में विभाजित किया गया है। पहला चरण ज्ञान यज्ञ-लोगों को दिशाएँ देना, लोगों की विचारों की विकृतियों का समाधान करना, गलत सोचने के तरीके को सही सोचने में परिणत कर देना-यह रहा पहला कदम। आदमी के विचार करने का क्रम यदि सही न हो तो वह अच्छे काम-सही काम नहीं कर सकता। सही काम आदमी करे, इसके लिए उसके चिन्तन की शैली, विचार करने की शैली को परिष्कृत होना ही चाहिए।
इन पिछले दिनों में जब विचारों की विकृति चारों ओर से फैला दी गई है, क्या धर्म, क्या समाज, क्या राजनीति? हर क्षेत्र में मनुष्य को दिग्भ्रान्त करने की कोशिश की गयी है। उसके विचारों को सुलझाने की अपेक्षा और ओछा और उजड्ड बना दिया। इन उद्विग्न मानसिक परिस्थितियों का समाधान करना आवश्यक है और नये सिरे से पुराने घास-कूड़े को जो हमारे विचारों, मान्यताओं और परम्पराओं के रूप में विद्यमान है, उसको हटाकर के उसमें जो विवेकयुक्त और बुद्धिसंगत विचार पद्घति है, उसकी स्थापना करने का काम ज्ञान यज्ञ का है।
पहला कार्य अपनी योजना का ज्ञान है। ज्ञान अगर न हो, विचार न हो तो आगे वाले कदम कैसे उठाएँ जा सकते हैं? इसलिए पहला ज्ञानयज्ञ का परिचय बताया जा चुका।
ज्ञान ने मनुष्य के जीवन को प्रभावित किया कि नहीं? मनुष्य में उसकी संवेदना उत्पन्न हुई कि नहीं? मनुष्य ने उस पर विश्वास किया कि नहीं, जो सुना था? जो सुना था, उस पर विश्वास किया तो उसके लिए कुछ त्याग करने के लिए, कुछ कष्ट सहने के लिए, कुछ आगे कदम बढ़ाने के लिए तैयार होना ही चाहिए।
इसीलिए अपनी युग निर्माण योजना का दूसरा कदम ये है कि लोगों को कुछ रचनात्मक कार्य करने की, सेवा करने की प्रेरणा दी जाए। अपनी ही सेवा न करें आदमी, अपने बेटे की ही न करे बल्कि जिस समाज में पैदा हुआ है, जिस धर्म में पैदा हुआ है, जिस संस्कृति में पैदा हुआ है, जिस विश्व में पैदा हुआ है, उसकी भी सेवा करना उसका फर्ज है। ये बात समझ में आए, और थोड़ा सा समय से लेकर पैसे तक लोकमंगल के लिए खर्च करने लगे, तब ये जानना चाहिए कि हाँ, अब इस आदमी में थोड़ी सी परिपक्वता आई। परिपक्वता का चिह्न सेवा की कसौटी पर कसकर ही जाना जा सकता है।
हर आदमी को सेवाभावी होना चाहिए। सेवा ही तो भजन है। कहते हैं सेवा-पूजा करता है कि नहीं। पूजा के साथ सेवा। पूजा की और सेवा न कर सका जो लूली-लँगड़ी, कानी-कुबड़ी पूजा। इसलिए सेवा करने की वृत्ति समाज में पैदा करने की शिक्षा और हर आदमी को अपने जीवन का एक अंग मानकर के रचनात्मक कार्यों में जुट जाने की प्रेरणा रचनात्मक कार्य पद्घति की है। यह हमारा दूसरा चरण है। दूसरा चरण यही है कि आदमी को आठ घंटा सोना और आठ घंटा कमाना, आठ घंटे बच जाते हैं, उसमें से कम से कम चार घंटे खर्च करने चाहिए लोक मंगल के लिए।
पहले एक घंटे की बात थी। ज्ञान प्रसार के लिए एक घंटा और दस पैसा (युग ऋषि कम से कम आधा कप चाय या आधी रोटी की कीमत निकालने की बात कहते रहे हैं। आज की स्थिति में उसी अनुपात में अंशदान निकालना चाहिए।) खर्च करना चाहिए। अब इससे अगला कदम कम से कम चार घंटे खर्च करना चाहिए। और पैसे की दृष्टि से यदि संभव हो तो एक दिन की आमदनी खर्च करनी चाहिए, लोक सेवा के कार्यों में। उनतीस दिन की आमदनी वह अपने लिए खर्च कर ले, चलिये कोई बात हुई। लेकिन एक दिन की आमदनी न खर्च कर सके समाज के लिए, ये क्या बात? एक दिन तो आदमी को अपनी आजीविका का खर्च करना ही चाहिए।
अगर आदमी 100 रू. रोज कमाता है, तो तीन रुपये उसके हो गए। इतना भी नहीं देगा क्या समाज के लिए? सब बेटे को ही खिला देगा क्या? अपने पेट को ही खिला देगा क्या? क्या समाज का हक कुछ भी नहीं है ?? समाज का हक है आदमी की आमदनी के ऊपर। सरकार टैक्स लेती है वो भी समाज का हक है। हर मनुष्य अपनी स्वेच्छापूर्वक समाज के लिए पैसे से लेकर समय तक का अनुदान दे, यह भी आवश्यक है। तभी तो रचनात्मक कार्य हो सकेंगे। वरना सब एक दूसरे को कहते भर रहेंगे, करेगा कोई नहीं।
करने के लिए समय चाहिए, करने के लिए श्रम चाहिए, पसीना चाहिए और पैसा भी चाहिए। ये जो लोग देने लगें, तो समझना चाहिए दूसरा कदम हमारा आगे बढ़ा। व्यक्ति की दृष्टि से और कार्यक्रमों की दृष्टि से भी। ज्ञानयज्ञ का जब विस्तार होने लगे और लोग-बाग उससे प्रभावित होने लगें और ये कहने लगें कि हाँ ये विचार ठीक हैं, तब उनको कहना चाहिए कि विचार ठीक हैं तो उसमें सहयोग दीजिये और कुछ काम कीजिए। लोगों को काम पर नहीं लगाया जाए और काम नहीं दिए जाएँ तब केवल मान्यता और विश्वास और विचार टिकाऊ नहीं रह सकते। वो नष्ट हो जाते हैं, चले जाते हैं और हवा में गायब हो जाते हैं।
जोश तो किसी भी बात पर आ जाता है। जैसा हम देखते हैं, वैसे ही आ जाते हैं जोश। और बस जोश आया और पानी के बबूले की तरीके से खतम। उस जोश और विश्वास को कायम रखने के लिए रचनात्मक कार्यक्रमों की प्रक्रिया और शृंखला आवश्यक है। इसीलिए अपने इन कार्यक्रमों में इस बात को जोड़कर रखा गया है कि जो भी व्यक्ति अपने कार्यक्रमों से-विचारों से प्रभावित हों, उन्हें किसी न किसी रूप से समाज के लिए कुछ श्रम करने का-कुछ काम करने को और राष्ट्र को-विश्व को बनाने को और मनुष्य को बनाने को और परिवार को बनाने का कोई न कोई रचनात्मक कार्य करना ही चाहिए। शतसूत्री योजना में इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
तीसरा चरण जो अपना रह जाता है, वह संघर्ष का है। संघर्ष के बिना अवांछनीय तत्त्वों को हटाया नहीं जा सकता है। कुछ निहित स्वार्थ ऐसे होते हैं, उनकी दाढ़ में ऐसा लग जाता है अथवा किसी अपनी बेवकूफी को ऐसा प्रेस्टीज प्वाइंट बना लेते हैं कि उससे पीछे हटना ही नहीं चाहते हैं। अपनी बुद्धिमानी, अपनी अक्लमन्दी और अपना अहंकार-अपने घमंड को इतना ज्यादा बढ़ा लेते हैं कि अपने साथ जुड़े हुए जो विचार हैं उनका ही समर्थन करते हैं।
मान लीजिए कोई बूढ़ा आदमी है, और उसने कोई गलती की, चार धाम की यात्रा करके आया और सारा पैसा फूँक करके घर में आ गया। अब उसकी गलती को बताओ तो कोई मानेगा नहीं और दूसरे गाँव वालों को भी कहेगा-हम तो मुक्ति ले आए, तुम भी मुक्ति ले आओ। उसे समझाओ तो मानता ही नहीं।
कुछ आदमी इस तरह के होते हैं, जिनको जड़ कहते हैं और अपनी गलती को ही प्रेष्टीज प्वांइट बना लेते हैं। ब्याह शादी का मामला है, नाक का प्रश्न बना लेते हैं। कहते हैं कि साहब हमारे बाप-दादे के समय ऐसी शादी होती थी। ठीक है आप जो कहते हैं वो तो सही कहते हैं। आपकी बात भी सही है, ठीक माननी चाहिए। पर हम क्या कर सकते हैं? हमारे यहाँ तो ऐसा ही होता रहा है।
इस तरीके से रूढ़िवादियों से लेकर के जिनके स्वार्थ जुड़े हैं, जागीरदारों से लेकर के ताल्लुकेदारों तक और पण्डे-पुजारियों से लेकर के दूसरे अवांछनीय तत्त्वों तक जिनके दाढ़ में हराम के पैसों का, हराम की आमदनी का, बेकार की बातों का चस्का लग गया है, रिश्वतखोरी का चस्का लग गया, वो सीधे तरीके से मान जाएँगें क्या? नहीं। हम जब समझाएगें, हाँ, हाँ, हाँ करेंगे। कहेंगे कि आपने बिलकुल सही कहा, ऐसा ही होना चाहिए। फिर भ्रष्टाचार विरोधी समिति के प्रेसीडेन्ट बन जाएँगे और करेंगे पूरा भ्रष्टाचार। इस तरीके से इस तरह के लोग ही अधिकांश हैं। उनसे निपटा कैसे जाए? समझाते हैं उनको तो हमसे भी ज्यादा वो दूसरों को समझाते हैं। ऐसे लोगों को समझाने से क्या बात बनेगी? ऐसे जड़ लोग बातों से समझ नहीं सकते।
अनीति का प्रतिरोध जरूरी
फिर किस तरीके से क्या किया जाए? रचनात्मक कार्य करने में लोगों का श्रम करने की, रचना करने की और सेवा करने की वृत्ति का विकास तो होता है, इस दृष्टि से तो बहुत अच्छा है, जो कार्य नहीं होते हैं, वो होने लगेंगे। कुछ भाग नहीं हो रहा है, होने लगेगा। जो विकास नहीं हुआ है, होने लगेगा। लेकिन जो निहित स्वार्थ रोड़े की तरह खड़े हुए हैं, उनका क्या किया जाए? इसके लिए और कोई तरीका नहीं है। एक ही तरीका है कि उनका संघर्ष किया जाए, उनको धमकाया जाए, उनको हटाया, उनका मुकाबला किया जाए और मोर्चा लिया जाए।
मोर्चा लेना जब अनिवार्य हो जाता है और कोई रास्ता नहीं रहता तब मनुष्य का शौर्य और विवेक अवतरित होना चाहिए और शौर्य और विवेक को समय-समय पर अवतरित होना पड़ा है। भगवान् ने जब-जब अवतार लिए हैं, उस समय लिए हैं, जब ऋषियों के शिक्षण बेकार हो गये हैं और जब ऋषियों की रामायण की कथा और भागवत् की कथा बेकार हो गयी। तब फिर भगवान को वही तीर कमान संभालना पड़ा। दसों अवतार हुए हैं, दसों अवतार में से आप प्रत्येक की गणना कर लीजिए। कच्छ-मच्छ से लेकर वराह तक और परशुराम से लेकर रामचन्द्रजी तक। एक -दो ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने ज्ञान के द्वारा भी काम चला लिया जैसे बुद्ध भगवान का अवतार। वामन का अवतार। जिन्होंने ज्ञान के द्वारा भी काम चला लिया बाकी सारे अवतार ऐसे हुए हैं जिनको लड़ाई-झगड़ा करना पड़ा है और लड़ाई-झगड़े के लिए जनता को तैयार करना पड़ा है।
अब समय ऐसा भी आ गया है जब संघर्ष, एक घनघोर संघर्ष करना पड़ेगा अवांछनीय तत्त्वों के साथ। और ये सहज में निपटने वाले नहीं हैं। शिक्षा से मानने वाले नहीं हैं। ऐसा सन्त कहाँ से आए जो सबको ठीक कर दे? ऋषियों ने बहुतों को समझाया, परन्तु उनमें से कुछ ही समझ सके। बाकी दुष्टों-दुराचारियों को तो उनके हिसाब से ही लगाना पड़ता है। उस हिसाब से लगाने के लिए संघर्ष की बहुत जरूरत पड़ेगी।
वर्तमान समय में संघर्ष करने के लिए मनुष्य और मनुष्य में टक्कर खाने की जरूरत नहीं है लेकिन विचार और विचारों में घनघोर टक्कर होने ही वाली है। ये संघर्ष जिसका मैं वर्णन करता रहा हूँ और ये कहता रहा कि युग परिवर्तन के साथ-साथ एक बहुत भारी महाभारत की संभावना जुड़ी हुई है; वो महाभारत के लड़ाई-झगड़े के बारे में मैं नहीं कहता, तोप-तलवारों के बारे में नहीं कहता। तोप-तलवार वाले जो युद्ध होते हैं उससे कोई समस्या का हल नहीं होता बल्कि नयी-नयी समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। कभी भी लड़ाई हुई उससे नयी समस्याएँ पैदा हो गयी जिससे समाज का ढाँचा लड़खड़ा गया।
हिन्दुस्तान में महाभारत हुआ। महाभारत के बाद में वो परिस्थितियाँ आ गयीं जो अब तक सँभलने में नहीं आ रही हैं। द्वितीय विश्व युद्ध हुआ, उसमें कोई व्यक्ति है क्या जिसको हम मार डालेंगे। लाखों मनुष्य मार डाले जाते हैं, लाखों मनुष्यों की हत्या हो जाती है, और लाखों मनुष्यों का न जाने क्या से क्या हो जाता है? उससे सारे समाज में विशृंखलता पैदा हो जाती हैं। लाभ नहीं होता है। इसलिए भावी युद्ध तो होगा ही लेकिन तमंचों का, तोपों का एटम बमों का युद्ध होगा ऐसा मैं कुछ नहीं कहता। होता होगा तो होगा, न होता होगा न होगा। लेकिन सतयुग को लाने के लिए जिस महायुद्ध की जरूरत है, जिस महाभारत की जरूरत है, वो कुछ अजीब किस्म का होगा। वह उस किस्म का होगा जिसमें हर विचारशील व्यक्ति को हर अविवेकी व्यक्ति के साथ लड़ना-झगड़ना पड़ेगा और जद्दोजहद करनी पड़ेगी। समझाने के साथ हम जो काम करते हैं और उसकी शुरुआत पहले विरोध के रूप के रूप होगी। जो आदमी गलत हैं, गलत काम करते हैं, उनका हमको असहयोग करना चाहिए और विरोध भी।
पहला कदम असहयोग
गलती हमारी ये होती है कि जब हम ये देखते हैं कि ये आदमी आतंकित कर सकता है और हमारा नुकसान कर सकता है तो हम उसकी हाँ में हाँ मिला देते हैं। खुल्लमखुल्ला विरोध की शक्ति नहीं रखते। उससे असहयोग कर नहीं सकते बल्कि उसके सहयोगी बन जाते हैं। मनुष्य की यह कायरता ही गुण्डागर्दी और पापों को बढ़ाने में समर्थ होती है। मनुष्य अगर सीना तानकर खड़ा हो जाए और ये कहे कि हम आपकी गलत काम में सहायता नहीं कर सकते और हम आपके साथ नहीं हैं और हम आपका समर्थन नहीं कर सकते। ऐसा करने से दुष्टों की हिम्मत पचास फीसदी कम हो जाती है।
बहादुरी हममें लड़ने की न हो, तो कोई बात नहीं, पर कहने की तो हो। वोट माँगने के लिए आया, तो कहे कि साहब आपका चाल-चलन ऐसा नहीं है और आप इस लायक नहीं हैं कि हम आपको एसेम्बली में भेजें और हम आपका चुनाव में वोट नहीं देंगे। तो आदमी की आधी हिम्मत कम हो जाती है। हममें से बहुत से लोगों को इस बात का माद्दा ग्रहण करना ही चाहिए कि जो आदमी सही काम नहीं कर सकते हैं और जो गलत रास्ते पर जा रहे हैं, उनके साथ में हर आदमी राजी नामा न करें, समझौता न करे, समर्थक न बनें। उसकी हाँ में हाँ न मिलाएँ।
ठीक है, अगर विरोध करने की शक्ति अपने अन्दर नहीं है और लड़ने की शक्ति नहीं है तो कुछ देर के लिए चुप भी बैठ सकते हैं और उस लड़ाई के वक्त का इन्तजार भी कर सकते हैं। लेकिन समर्थन तो किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए और सहयोग तो किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए। उसका मित्र बनकर तो किसी भी हालत में नहीं रहना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि हम अनैतिकता का पोषण करते हैं, अनैतिकता का समर्थन करते हैं।
संघर्ष यहाँ से शुरू होता है। संघर्ष की पहली प्रक्रिया वह है कि हम किसी बुरे आदमी का सहयोग न करें। कोई जुआरी हमसे उधार माँगने आये कि हम ब्याज से पैसे दे देंगे, कहें कि हम पैसे नहीं दे सकते। ये असहयोग हुआ। जो आदमी बुरा है उसे बुरा कहना, अच्छा है उसे अच्छा कहना। नम्र शब्दों में हम कहें, ठीक है। इज्जत खराब न करें, ये भी ठीक है। लेकिन हमको जो बात है-जो फैक्ट है उसको खोल ही देना चाहिए। खोल देने से अच्छाई रहेगी।
यदि कोई बुरा आदमी सज्जनता की बाना पहने हैं, एक सियार-शेर का चमड़ा ओढ़कर रहता है और उसके बारे में लोगों की आँखें खुल जाएगी, तो क्या हर्ज की बात है? हमको सही कहना, अच्छे को अच्छा कहना, बुरे को बुरा कहना सीखना चाहिए और हमको गलत आदमियों का असहयोग करना सीखना चाहिए। उनके साथ में हम सहयोग न करें।
यहाँ से लड़ाई शुरू होती है और लड़ाई में दोनों तरफ के लोग घायल होते हैं। सामने वाला भी घायल हो जाये और अपने को चोट नहीं आयेगी ये कैसे हो सकता है? अपने आपको भी चोट आ सकती है, ये मानकर लड़ाई के मैदान में आना चाहिए। संघर्ष के मोर्चे पर सिर्फ उसी को आना चाहिए, जो इस बात के लिए तैयार हो कि मैं एक ऐसा काम करने जा रहा हूँ, जिसमें मुझे लड़ाई-झगड़ा करना पड़ेगा। लड़ाई झगड़ा करने में सामने वाला ही मारा जाता हो, सामने वाला ही घायल होता हो, सामने वाला को ही हरा दिया जाता हो, ऐसी बात तो नहीं है न। जो आदमी लड़ाई लड़ता है वो भी इस चपेट में आता है, वह भी घायल होता है, जख्म होता है। तो हमारे विरोध करने की कीमत पर अगर दूसरे लोग हमारे ऊपर हमला करेंगे, हमें नुकसान पहुँचाएँगे तो उसको भी देखेंगे। उसको भी समझेंगे, उसके लिए भी तैयार हैं। ये हिम्मत आदमी के भीतर उत्पन्न होनी चाहिए। इतनी हिम्मत अगर उत्पन्न हो जाए और आदमी के असहयोग करने का माद्दा विकसित हो जाए, बुरे को बुरा कहने का माद्दा विकसित हो जाये तो समझना चाहिए कि पाप, अनीति और अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करने का पचास फीसदी मोर्चा फतह कर लिया।
अगला चरण विरोध
अब इससे आगे भी बढ़ना होगा और न केवल असहयोग बल्कि विरोध भी करना पड़ेगा और उनकी आज्ञाओं का उल्लंघन करना भी शुरू करना पड़ेगा। जैसे कि पिता जी ने कहा हमको तो बीस हजार दहेज लेना है और हमारा कहना मानो। श्रवणकुमार ने भी तो कहना माना था, रामचन्द्र ने भी तो कहना माना था। तुम हमारे बेटे हो, हम तुम्हारे बाप हैं, हम तुम्हारा ब्याह करते हैं। बाप का हुकुम मानो।
ऐसे मौकों पर बाप के हुकुम न मानने की बेटे में हिम्मत तो होनी ही चाहिए कि बाप के पैर छुए, उनको प्रणाम करे और कहे कि आप हमारे पिताजी हैं और आपकी शान और इज्जत के हिसाब से आपका सम्मान करना मेरा काम है। मैं आपको प्यार करूँगा और आपकी सेवा करूँ गा लेकिन मैं आपका गलत काम स्वीकार नहीं कर सकता। गलत काम को अस्वीकार करना और गलत बात की मर्यादा का उल्लंघन करना कोई बुरी बात नहीं है। आप बड़े हैं, बाप हैं लेकिन बाप से भी धर्म बड़ा है, ईमान बड़ा है, विवेक बड़ा है, न्याय बड़ा है। आप न्याय से बड़े नहीं हो सकते हैं।
न्याय निष्ठों के उदाहरण
आप को कितने उदाहरण दिये जा सकते हैं प्रह्लाद का उदाहरण। प्रह्लाद का बाप था हिरण्यकश्यपु। वो ये कहता था कि सोना कमाकर के लाये ईमानदारी से या बेईमानी से। राम का नाम लेने और समाज की सोचने से क्या फायदा? यही कहता था उसका बाप। बेटा कहता था कि नहीं पिताजी सोना की जरूरत नहीं है। जब अपने देश में गरीब और दुखियारे लोग रहते हैं तो हम कम में भी काम चला सकते हैं और जो हमारे पास है वही काफी है। हम अपने सारी जिन्दगी धन कमाने के लिए क्यों लगायें? हमको अच्छे काम क्यों नहीं करने चाहिए और भगवान की आज्ञा के अनुसार विश्व में शान्ति लाने के लिए कोशिश क्यों नहीं करनी चाहिए?
बाप नाराज हुआ, बोला-नहीं मेरा कहना मान। प्रह्लाद ने कहा नहीं, मैं कहना नहीं मानूँगा। उनने कहना नहीं माना और बाप बराबर उसको तंग करता रहा। बाप ने मारा, गालियाँ दीं, बुरा-बुरा कहा। ठीक है बेटे ने गालियाँ तो नहीं दीं, उसके बदले में बेटे ने बाप को मारा तो नहीं, लेकिन शांत चित्त से ये कहता रहा कि आपका कहना नहीं मानूँगा। आपका इज्जत करूँगा ठीक है, पर कहना किसी कीमत पर नहीं मानूँगा। और उसने बाप का कहना नहीं माना। ठीक, प्रह्लाद को जला दिया गया और क्या-क्या कर दिया गया, लेकिन प्रह्लाद ने कहना नहीं माना।
कोई आदमी हमारे बाप है या हमारा बुजुर्ग है या हमारी बिरादरी का कोई पंच है और कोई गलत बात कहने के लिए करने के लिए कहता है, तो उसे कहिये हम नहीं मानेंगे आपकी बात। दूसरे उदाहरण दिये भी जा सकते हैं संबंधियों के कुटुंबियों के। अक्सर संबंधी और कुटुंबी हमें अनावश्यक रूप से धन कमाने के लिए और गलत काम करने के लिए भी सहमति और प्रोत्साहन देते रहते हैं। उनकी बातों का हमें अवज्ञा करना चाहिए।
जैसे कि मैं आपको कई उदाहरण पेश कर सकता हूँ। विभीषण का उदाहरण इसी तरह का है। रावण उसका बड़ा भाई था, बड़े की बात मानी जानी चाहिए मोटे रिवाज के हिसाब से। लेकिन बड़े भाई की बात तभी मानी जानी चाहिए जब उसकी बात सही हो, मुनासिब हो। अगर बड़ा भाई गलत काम करता है उसका समर्थन करने की कोई जिम्मेदारी छोटे भाई की नहीं है। रावण खराब काम करता था, कुम्भकरण खराब काम करता था और विभीषण से कहा गया आप हमारे खानदान के हैं, हमारे कुटुंब के हैं, हम लोग जैसे करते हैं वैसा आप भी कीजिए। उन्होंने कहा मैं खानदान का हूँ जरूर और खानदान सम्बन्धी खानपान और दूसरी बातों की बात आयेगी तो मैं आपकी सहायता भी करूँगा। लेकिन गलत काम मानने के लिए और आपकी गलत नीतियों में सहयोग करने के लिए मैं बाध्य नहीं हूँ। विभीषण ने अपने भाइयों का कहना नहीं माना और भाइयों को छोड़कर चला आया।
ये संघर्ष घर वालों से भी किया जा सकता है। माँ की आज्ञा का उल्लंघन करना कैकेयी और भरत का उदाहरण है। कैकेयी कहती थी मैं तेरी माँ हूँ और तू मेरा बेटा है। माँ जो कहे उसे बेटे को मानना चाहिए। और तुझे मेरा कहना मानना चाहिए। मैंने राज्य तेरे लिए रखा है, सो तुझे राज्य गद्दी पर बैठना चाहिए और रामचन्द्र जी को वनवास जाने देना चाहिए और तुझे मौज करनी चाहिए। भरत जी ने कहा-आप हमारी माँ हैं, हम आपको रोटी खिलायेंगे, आपके पैर धोयेंगे और आपको प्रणाम करेंगे लेकिन आपकी गलत बात को मानने के लिए हम कतई तैयार नहीं हैं। हम आपकी बात किसी कीमत पर नहीं मानेंगे आप माँ हैं तो हैं। माँ से भगवान बड़ा है, आत्मा बड़ी है, न्याय बड़ा है। इस तरह के संघर्ष हमारे पारिवारिक संघर्षों में विकसित किये जा सकते हैं।
रूढ़ियाँ नहीं, विवेक अपनाएँ
अपने यहाँ समाज में अनेक कुरीतियाँ और अनेक बुराइयाँ भरी पड़ीं हैं। इसमें से पुरातनपंथी लोग, बूढ़े लोग और औरतें और बुढ़ियाएँ न जाने क्या से क्या कहती रहती हैं। अमुक रिवाज पूरा करो आदि-आदि न जाने क्या-क्या कहती रहती हैं। उनकी बात माना जाए क्या? सफेद बाल वाला कोई समझदार होता है क्या? भेड़ के बाल सफेद होते हैं तो कोई भेड़ बूढ़ी होती है क्या, बुजुर्ग होती है क्या, कोई गुरु होती है क्या? सफेद बाल वाले बुड्ढ़े ऐसे बेवकूफ और अहमक पाए गये हैं, जिनको दुनिया का जरा भी ज्ञान नहीं है। वे उलटी बात कहते हैं कि उसको अपनी प्रेस्टीज का प्वाइंट बना लेते हैं। उनकी बात नहीं ही माना जाना चाहिए। अवज्ञा की जानी चाहिए, ब्याह शादियों के बारे में तो खास तौर से।
शादियों के बारे में विवाह विरोधी आंदोलन जो हमने शुरू किया है, उसमें इसी तरह का घरेलू संघर्ष खड़ा करना पड़ेगा। निहित स्वार्थों का जिनके दाढ़ में खून लग गया है, जो चाहते हैं कि बेटे को बेचकर के कमाई कर लें और घर में दौलत इकट्ठी कर लें और घर में वाह-वाही इकट्ठी कर लें, उनका विरोध करना ही पड़ेगा और प्रह्लाद के तरीके से हर नौजवान बच्चे को इससे लड़ने के लिए खड़ा करना ही पड़ेगा।
बुढ़िया लोग कहती हैं फलाना चीज नहीं आयी, बहू ने ऐसा नहीं किया, वो फलाना नहीं है, ढेकाना नहीं है, उनसे कहें माताजी हम आपकी सेवा करेंगे, लेकिन आप अनावश्यक रूप से तानाशाही चलाना चाहें तो हम आपकी बात नहीं मानेंगे, आप नाराज हों तो हो जायें। इंसाफ बड़ा है। आप चाहें कि हम अपनी बीवी को डराएँ, धमकाएँ तो ये कैसे हो सकता हैं? इंसाफ को मानेंगे, आपको कतई नहीं मानेंगे। ये संघर्ष माता के विरुद्ध भी होना चाहिए और पिता के विरुद्ध भी। भाई के विरुद्ध भी होना चाहिए और स्त्री के विरुद्ध भी।
स्त्रियों के विरुद्ध घरेलू संघर्ष नहीं हुए हैं क्या? हाँ, शंकराचार्य अपनी माता को छोड़कर चले गये थे। उन्होंने कहा-हमें आप कहती हैं कि हमको घर-गृहस्थी में रहना चाहिए और समाज की सेवा नहीं करनी चाहिए, हम आपकी बात नहीं मान सकते। आप माँ हैं, अपनी जगह पर हैं। लेकिन हम आपकी बात क्यों माने? स्त्रियों की बात भी ऐसी रहती है और बच्चों की बात ऐसी रहती है, सारा का सारा इतिहास इस तरह से भरा हुआ पड़ा है कि संघर्ष की वृत्ति हमको सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन करने के लिए अपने परिवारों में से ही विकसित करनी चाहिए।
जाति बिरादरी के मामले भी इसी तरह के हैं जिसमें पुरातनपंथी लोग आज भी जाल में बुरी तरह से फँसे हुए हैं। हम तो कान्यकुब्ज हैं। और कान्यकुब्ज में अठारह बिश्वा के हैं और हम तो बाजपेयी हैं। हम तो अपनी बिरादरी में ब्याह करेंगे और हम तो किसी बात सुनेंगे नहीं, किसी का छुआ खायेंगे नहीं। ये कोई बात है? ख्वामखाह के पागल आदमी!
इस तरीके से बेवकूफ और वाहियात लोगों की बातों को मान कर के हम किस तरह से न्याय और इंसाफ की हत्या कर सकते हैं? हमें इनके विरुद्ध बगावतें खड़ी करनी पड़ेंगीं। और आगे चलकर हमको उन अवांछनीय तत्त्वों के विरुद्ध जिन्होंने की समाज को बिगाड़ने का ठेका ले रखा है और जो समाज को तबाह कर रहे हैं, उनके विरुद्ध हमको गाँधी जी के उन हथियारों का इस्तेमाल करना पड़ेगा जिनको सत्याग्रह कहते थे, जिनको असहयोग कहते थे।
असहयोग और सत्याग्रह अब आगे आकर धीरे-धीरे विकसित होने लगा और उसकी प्रक्रिया घेराव के रूप में परिणत होने लगी है। अब सत्याग्रह यह नहीं है कि हम खड़े होंगे और आप छाती पर से निकल जाइये। उसमें दबाव भी रहता है कि हम आपको नहीं बढ़ने देंगे और नहीं निकलने देंगे। पहले सत्याग्रह का अलग स्वरूप था अहिंसक सत्याग्रह था कि हम आपके दरवाजे पर पड़े हुए हैं और हमारी छाती पर पाँव रखकर के आप निकल जाइये और ऐसे बेशरम लोग भी होते थे जो छाती पर पाँव रखकर निकल जाते थे।
अब ऐसे आदमियों को ज्यादा शह नहीं दी सकती। उनके कदमों पर देर तक नहीं चला जा सकता। हिंसात्मक और अहिंसात्मक सत्याग्रह के बीच की एक नयी चीज निकल पड़ी है उसका नाम है -घेराव। आदमी को दो हजार आदमी घेरकर के बैठ जाते हैं कि साहब आप अब आप यहाँ रहिये, हम आपको बाहर नहीं घर से निकलने देंगे। हम आपको मजबूर करेंगे।
मजबूर करेंगे-ये घेराव का एक नया तरीका है, उसको इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जहाँ अवांछनीय बातें होती हों, जहाँ रिश्वतखोरी होती हो, जहाँ मिलावट की बात होती हो, जहाँ बेइंसाफी होती हो, जहाँ बेईमानी होती हों, वहाँ लोगों को इस तरीके से मजबूर करना चाहिए और रोका जाना चाहिए। रोकने और मजबूर करने के लिए हमें एक ऐसी संघर्ष सेना-युग निर्माण सेना खड़ी करनी पड़ेगी जिसकी ताकत इस तरह के लोगों को डराने में समर्थ हो।
जो आदमी नहीं मानते हैं और जो आदमी गलत काम करते हैं, गलत प्रभाव पैदा करते हैं, अपनी छोटी लड़की को बूढ़े के साथ में ब्याह करते हैं, उसके यहाँ न केवल सत्याग्रह किया जाना चाहिए, न केवल पिकेटिंग किया जाना चाहिए बल्कि घेराव किया जाना चाहिए कि ऐसा वर जो छोटी लड़की से ब्याह कर रहा हो घोड़े पर आगे नहीं बढ़ सकता। नहीं बढ़ने दिया जायेगा। दो हजार आदमी रास्ता रोककर खड़े हो जायें। उसके बाप को बंद कर दिया जाय कमरे में कि आपको कमरे से नहीं निकलने दिया जायेगा। उसके कोई भी परिणाम क्यों न होते हों, कानूनी उल्लंघन होता हो तो जेल जाया जायेगा। गाँधीजी के जमाने में भी कितने आदमी जेल गये थे, आप भी जेल जा सकते हैं।
पशु-बलि जैसे घृणित कर्म रोका ही जाना चाहिए। माँस खाये या न खाये, ये बात अलग है लेकिन देवता एक आदमी का नहीं है और देवता का मालिक एक आदमी नहीं है जो देवता को बदनाम करे। देवता को बदनाम हम नहीं करने देंगे। देवी तुम्हारी ही नहीं है, देवी हमारी भी है और देवी सारी हिन्दू समाज की है। आप समाज की देवी को कलंकित न करें। आप पूजा करें ठीक है, चन्दन चढ़ायें ठीक है, फूल चढ़ायें ठीक है। लेकिन देवी को आप डाकिन, पिशाचिन और चुड़ैल के रूप में पेश करना चाहें तो हमारी माँ की बेइज्जती होती है। हम आपको ऐसा नहीं करने दे सकते हैं।
जानवर देवी के लिए काटते हैं? क्या मतलब होता है देवी के लिए काटने का? धर्म होता है? देवी खून पीती है? देवी कभी खून नहीं पी सकती। जो देवी खून पीती हैं वो देवी कैसे हो सकती हैं? वो देवी नहीं कही जा सकती। वो पिशाचिन और चुड़ैल ही कही जा सकती हैं और चुड़ैल और पिशाचिन को धर्म में कोई स्थान नहीं मिल सकता। हत्या के लिए धर्म में क्या स्थान है? खून पीने को क्या स्थान है? कत्ल करने के लिए धर्म से क्या ताल्लुक है? ये तो घोर नृशंस पाप है, पिशाचपन है?
ये पिशाचपन हमारे हिन्दू समाज में जहाँ तहाँ फैला हुआ पड़ा है। हमको लोगों के अंदर विवेक उत्पन्न करना चाहिए। इस पिशाचपन और धर्म का कोई ताल्लुक नहीं है आपस में। देवी दुनिया में कोई ऐसी नहीं होती जो जानवरों का, मनुष्यों का, बकरों का और मुर्गियों का खून पिये और माँस खाये। ये देवियों का काम नहीं हो सकता।
प्रखर आंदोलन चले
इन गंदे रिवाजों के विरुद्ध जहाँ कहीं भी हो सके, हमें सत्याग्रह करना चाहिए और जेल जाना चाहिए। भले ही इससे थोड़ा सा नुकसान हो और कानून का उल्लंघन हो, हम नहीं जानते कहाँ कानून होता है, कहाँ नहीं होता पर अगर कानून न्याय के और इंसाफ के विरुद्ध बाधक होता है, तो हम कानून को भी देखेंगे और कानून को तोड़ने का जो खामियाजा उठाना पड़ता है, उस नुकसान को भी उठायेंगे और बर्दाश्त करेंगे। न्याय बड़ा है, कानून बड़ा नहीं है। कानून बड़ा नहीं है अगर कानून यह कहता है कि बूढ़े आदमी के साथ में छोटी बच्ची का ब्याह करने में कोई कानूनी रुकावट नहीं है और अगर बच्ची का बाप छोटी बच्ची का बूढ़े आदमी के साथ शादी कर रहा है और कानूनी रुकावट नहीं है, तो हम कानून की परवाह नहीं करेंगे और हम कानून को तोड़ेंगे।
इस तरीके से लोगों में बगावत का भाव पैदा किया ही जाना चाहिए और वो बात पैदा की जानी चाहिए जो समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है। धर्म के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, जितना पैसे का अपव्यय हो रहा है हमको उसके लिए संघर्ष करना पड़ेगा। हमको ये कहना पड़ेगा कि निहित स्वार्थवश जिन्होंने महंत और गद्दी के नाम पर इतना अकूत धन जमा कर के रखा है और जो व्यक्तियों के सुविधा के लिए खर्च किया जा रहा है, उसको हमें समाज के लिए खर्च करना चाहिए। हमें ऐसे मंदिरों में धन नहीं देना चाहिए। ऐसे पुजारियों और महंतों को जो करोड़पति और अरबपति बने हुए हैं और राजा और महाराजाओं के बाप बने हुए हैं और इस तरीके से विलासी जीवन जी रहे हैं, जिस तरह का कोई करोड़पति ही जी सकता, इस तरह के विलासी लोगों को हम कहेंगे कि आप धर्माचार्य नहीं हो सकते और हम आपको धर्माचार्य नहीं रहने देंगे। अगर आप धर्माचार्य हैं तो आपको संत के तरीके से जीना चाहिए और जो आपके पास धन सम्पत्ति है उसे लोक मंगल के लिए खर्च किया जाना चाहिए इस पिछड़े हुए समाज में।
अगर वो नहीं मानते या उनके निहित स्वार्थ ऐसे हैं, जो हमारी बात स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं तो हमको संघर्ष करना पड़ेगा। संघर्ष के क्या तरीके होते हैं समय पर बताये जायेंगे। हमको एक लोक वाहिनी-इस तरह की सेना खड़ी करनी पड़ेगी, जो स्वयं सेवक होंगे, जो इस बात के लिए तैयार होंगे कि हम मरेंगे या मिटेंगे। इस तरह की लोक वाहिनी सेना के संरक्षण करने के लिए छावनियाँ और अखाड़े भी बनाये जा सकते हैं और बनाये जाने चाहिए। उनका कार्य प्रदर्शन करना भी होना चाहिए, उनका काम घेराव करना भी होना चाहिए, उनका काम सत्याग्रह करना भी होना चाहिए। उनका काम ऐसा होना चाहिए जो लोगों के भीतर बगावत के भाव पैदा करें। जहाँ विरोधी तत्त्व ज्यादा समर्थ हों जिनके विरुद्ध जिन पर अत्याचार किया जा रहा-सताया जा रहा है उनकी संख्या अगर कम है तो कम संख्या वाले लोगों की सहायता करने के लिए एक बड़ी सेना-एक बड़ी लोक वाहिनी तैयार हो।
सरकारी सेना के तरीके से तो नहीं, पर क्रांतिकारियों के सेना के तरीके से लोक निर्माण की सेना के तरीके से भावी महाभारत का स्वरूप देने के लिए एक सेना खड़ी करनी पड़ेगी। जो भ्रष्टाचारियों से लेकर के बेईमानों तक, दूध में मिलावट करने वालों से लेकर के कम नापने और कम तौलने वालों तक और अवांछनीय प्रक्रियाएँ और अवांछनीय चीजें समाज में उत्पन्न करने वाले और फैलाने वालों से लोहा लेना पड़ेगा, मुकाबला करना पड़ेगा और उनको मजबूर करना पड़ेगा कि आप ऐसा काम नहीं कर सकते और आपको ऐसा काम नहीं करना चाहिए।
संघर्ष की अनेक धाराएँ
आपको अपने पैसे से हर काम करने की छूट नहीं मिली है। सिनेमा वालों के विरुद्ध हमें पिकेटिंग करना पड़ेगा और धरना देना पड़ेगा, उनके कैमरों के सामने लेटना पड़ेगा और उनके काम को विफल करने के लिए यदि मौका हो तो हमें जो कुछ भी करना पड़ेगा वो हम करेंगे। संगीत, गायक और दूसरे लोग जो इस तरह के गीत गाते हैं जिससे फूहड़पन पैदा होता है उनके विरुद्ध सत्याग्रह पैदा करना पड़ेगा।
जो इस तरह के साहित्य लिखने वाले जिन्होंने समाज को जलील किया-बदनाम किया है, उनके दरवाजे पर भूख हड़ताल करके किसी को प्राण भी देना पड़े तो देना ही चाहिए। उनके जो कृतियों के प्रसंग कि इन्होंने लोगों को क्या क्या कहा और क्या-क्या समझाया, उसके कोटेशन उद्धृत करके सारे समाज में बाँटने पड़ेंगे और बताना पड़ेगा कि ये लोग ऐसे हैं जिन्होंने पैसे के लिए, अपनी कमाई के लिए-लोभ के लिए समाज को कितनी हानि पहुँचाई और कितने लोगों को खराब किया। इस तरीके से इनके भंडाफोड़ करने वाली बातों के विरुद्ध में हमें खड़ा होना ही चाहिए।
गुंडातत्त्व इसलिए जिंदा हैं कि वो समझते हैं कि हमारा कोई मुकाबला करने वाला नहीं है और हम चाहे जो काम कर करते हैं। इन गुंडा तत्त्वों को जब ये मालूम पड़ेगा कि समाज में से वो तत्व उठकर खड़े हो गये हैं जो हमारा मुकाबला करेंगे और हमारे गलत काम और उच्छृंखलता के विरुद्ध लोहा लेंगे, इस तरह की उनको जब जानकारी होगी तो उनके हौसले पस्त हो जायेंगे। गुण्डागर्दी आजकल इस लिए हावी होती जा रही है कि एक आदमी का नुकसान होता है तो दूसरा आदमी उसके बारे में आवाज नहीं उठाता। ये कहता है कि हम क्यों उस मुसीबत में फँसें इससे तो और मुसीबतें आयेंगी।
लेकिन जिन लोगों ने अपना सिर हथेली पर रख लिया है, जिन्होंने मुसीबतों को ही आमंत्रण दिया है, जो मुसीबत के लिए ही उठकर खड़े हो गये हैं और जिन्होंने अपना जीवन और जान को ऐसी चुनौतियाँ स्वीकार करने के लिए ही समर्पित कर दिया है, ऐसी लोकसेना उठकर खड़ी हो जाये तो बात बन जाये। तब वे लोग जो अपने आप को अकेला अनुभव करते हैं, जो ये ख्याल करते हैं कि हम अकेले क्या कर सकते हैं, हमको कुचल दिया जायेगा और हमारे विरोधी बहुत हो जायेंगे, गुंडे हमको तंग करेंगे इसलिए वे मन मारकर चुप बैठ जाते हैं; उनके हौसले चौगुने और सौैगुने हो जायेंगे। तब अनीति का मुकाबला करने के लिए न केवल लोकवाहिनी सेना बल्कि असंख्य लोग उनके साथ में उठकर खड़े हो जायेंगे और एक ऐसी क्रांति उत्पन्न होगी जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति के बीच समाज-समाज के बीच, वर्ग-वर्ग के बीच और अवांछनीय-वांछनीय तत्त्वों के बीच जो विग्रह की आग सुलग रही है, उस आग को या तो इधर कर दिया जायेगा या उधर कर दिया जायेगा।
उपयुक्त रणनीति बनें
हम असंतोष की आग को केवल भीतर तक धधकने देना नहीं चाहते हैं, हम असंतोष के आग को खुली रूप में विकसित करना चाहते हैं। जो असंतोषजनक परिस्थितियाँ हैं उनको हम दूर करना चाहते हैं, उनसे लड़ना चाहते हैं, उनको हटाना चाहते हैं। इसीलिए हमारा अगला वाला-अंतिम कदम तब उठना चाहिए जबकि लोग ज्ञान यज्ञ से प्रभावित हो जायें और जबकि रचनात्मक कार्यों द्वारा अपनी मनोभूमि ऐसी बना लें कि समाज के प्रति हमारे कुछ कर्तव्य और फर्ज हैं, समाज के लिए हमको कुछ काम करना चाहिए-त्याग करना चाहिए। ये माद्दा जब विकसित हो जाये, मनुष्य थोड़ी सी अपने अंदर समर्थता अनुभव करने लगे तब उसके बाद का तीसरा चरण ये होता कि हमें संघर्ष करने के लिए विशाल प्लान बनाना चाहिए।
वो प्लान बनाने का अभी समय नहीं आया क्योंकि हम अभी ज्ञान की बात कर रहें हैं, हम अभी रचनात्मक कार्यक्रमों को दिशाएँ दे रहे हैं, लेकिन जहाँ कहीं भी इस तरह का माद्दा पाया जाय कम से कम उसका स्वरूप तो खड़ा किया जाना चाहिए। हमको एक ऐसी लोकवाहिनी-युग सेना खड़ी करनी चाहिए जो अनीति कि विरुद्ध और अवांछनीयता के विरुद्ध, अनावश्यक बातों के विरुद्ध और रूढ़िवादिता के विरुद्ध-मूढ़ता के विरुद्ध लोहा ले।
ये लोहा किस तरह से लिया जाय यह स्थानीय परिस्थितियों पर टिका हुआ है। लड़ाई के लिए एक नीति निर्धारित की जा सकती है, उसका स्वरूप नहीं बनाया जा सकता। किस मोर्चे पर कब गोली चलाई जायेगी या छुपकर बैठा जायेगा या आगे बढ़ा जायेगा या पीछे हटा जायेगा, यह उस समय के सेनापति का काम है। पहले से उस मोर्चे की रूपरेखा नहीं बन सकती जैसे कि रचनात्मक कार्यक्रमों और ज्ञानयज्ञ के कार्यक्रमों की रूपरेखा बना दी गयी है। संघर्ष के बारे में उसका स्वरूप उस समय की परिस्थितियों पर टिका हुआ है। कहाँ अवांछनीयता कि तनी ज्यादा है और कहाँ आदमी का क्रोध ज्यादा से ज्यादा उफन रहा है और कहाँ जनता सहयोग करने के लिए प्रस्तुत है, वहीं उस तरह के कमजोर मोर्चों को हमको पहले लेकर चलना चाहिए और जहाँ हमारी सफलता की आशा हो पहले उन कामों को लेना चाहिए।
बहरहाल काम कहाँ से शुरू किया जाय और अंत कहाँ किया जाय ये पीछे की बात है, लेकिन हमको ये विश्वास होना चाहिए और मानकर चलना चाहिए कि नया युग लाने से पहले-व्यक्ति का निर्माण करने से पहले हमको अवांछनीय तत्त्वों से जूझना ही पड़ेगा, लड़ना ही पड़ेगा। उस लड़ाई के लिए हमको अपने लोगों को भी तैयार करना चाहिए, स्वयं भी तैयार होना चाहिए और एक लोकवाहिनी संघर्ष सेना होनी चाहिए और इस तरह की छावनियाँ बनायी जानी चाहिए जहाँ कुछ आदमियों के खाने-पीने का इंतजाम हो, रहने-सहने का इंतजाम हो, जो अपने जीवन को हथेली पर रखकर के केवल पाप और अनाचार के विरुद्ध उसी तरीके से संघर्ष करें, जिस तरह से सुरक्षा सेनाएँ किया करती हैं और प्राचीनकाल के क्षत्रिय काम किया करते थे।
ब्राह्मण का काम ज्ञान-यज्ञ के द्वारा, क्षत्रियों का कार्य संघर्षों के द्वारा और वैश्य एवं साधारण व्यक्ति जिनकी सेवा में रुचि है, उनके लिए रचनात्मक कार्यक्रम का आयोजन है। रचनात्मक कार्यक्रम तीन अंगों में हैं। गायत्री के तीन चरणों के अनुरूप हमने युग निर्माण योजना को तीन भागों में बाँट दिया है। अभी ज्ञान यज्ञ, अगले दिनों रचनात्मक कार्यक्रम और अंततः संघर्ष जो ऐसे होंगे जो पाप को अंततः विनाश करके ही छोड़ेंगे, अनाचार को जीवित नहीं ही रहने देंगे। अविवेक, अज्ञान और अन्याय जो सारे समाज पर छाया हुआ है, उसे जड़-मूल से हटा करके ही छोड़ें ऐसा एक अंतिम युद्ध होगा, जिसको हम भावी महाभारत कहेंगे। भारत छोटा नहीं रह जायेगा बल्कि एक विश्वव्यापी भारत होगा जिसको हम महान भारत कह सकते हैं। ऐसा एक महाभारत अर्थात ऐसा एक संघर्ष होगा जिसके कारण कोई पाप, कोई कुरीति और कोई अनाचार बचेगा नहीं। इस तरह के संघर्ष के लिए हमको तैयारी करनी चाहिए और जहाँ कहीं इसका छोटा-मोटा स्वरूप खड़ा किया जाना सम्भव हो, वहाँ विरोध आंदोलन के रूप में और हस्ताक्षर आंदोलन के रूप में तथा बुरे काम न करने की प्रतिज्ञा के रूप में आरंभ करने चाहिए और धीरे-धीरे उनका विकास करना चाहिए।
केवल विचार मात्र ही मानव चरित्र के प्रकाशक प्रतीक नहीं होते। मनुष्य का चरित्र, विचार और आचार दोनों से मिलकर बनता है। संसार में बहुत से ऐसे लोग पाये जाते हैं, जिनके विचार बड़े ही उदात्त, महान् और आदर्शपूर्ण होते हैं, किन्तु उनकी क्रियाएँ उनके अनुरूप नहीं होतीं। विचार पवित्र हों और कर्म अपावन तो वह सच्चरित्रता नहीं हुई।
--अखण्ड ज्योति, मई १९६९, पृष्ठ २२
आदमी सुनने भर का व्यसनी हो जाये आज गीता, कल गीता, आज गीता, कल गीता, आज रामायण कल भागवत्, इस तरह से सुनता ही चला जाय, तो सिर्फ यह एक तरह का मनोरंजन, व्यसन बन जाता है। व्यसन कितने ही तरीके के होते हैं। किसी को बार-बार तम्बाकू पीने का व्यसन होता है। किसी को ताश खेलने का व्यसन होता है। किसी को सिनेमा देखने का किसी को सत्संग सुनने का और सत्संग करने का व्यसन पैदा हो जाता है। और यहाँ बाबा जी का कहानी सुन ली और वहाँ पण्डित जी की भागवत् सुन ली। ऐसी अपने समय का विक्षेप करता रहता है। अगर यहीं तक कथा सुनने भर की बात हो तो उसे केवल ज्ञान का व्यसन कहा जायेगा। जब मनुष्य उन विचारों को इस ढंग से सुने और समझे, कि क्या ये कार्य में लाये जाने योग्य हैं, अगर ये कार्य में लाये जाने योग्य हैं तो उसे कार्य में लाये जाने की हिम्मत भी आदमी के भीतर में होनी चाहिए। आत्मबल इसी को कहते हैं।