उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलें-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
आयुर्वेदीय शरीर कल्प की तरह आध्यात्मिक भावकल्प को समानांतर समझा जाना चाहिए। एक में काया को दुर्बलता, रुग्णता, जीर्णता आदि अनपेक्षित परिस्थितियों से मुक्त किया जाता है, दूसरे में आस्था, आकांक्षा एवं अभ्यास पर चढ़ी हुई कुसंस्कारिता से त्राण पानेका प्रयत्न किया जाता है।
शरीर की प्रकृति संरचना ऐसी अद्भुत है कि यदि उस पर असंयमजन्य अस्तव्यस्तता न लादी जाए तो वह शतायु की न्यूनतम परिधि को पार करके सैकड़ों वर्ष जी सकता है। मरण तो प्रकृति धर्म है, पर जीर्ण-शीर्ण होकर जीना, यह मनुष्य का अपना उपार्जन है। आरंभसे की सुपथ पर चला जाए, तब तो कहना ही क्या, अन्यथा मध्यकाल में रुख बदल दिया जाए तो भी ऐसा सुधार हो सकता है जिसे अद्भुत, अप्रत्याशित कहा जा सके।
चेतनातंत्र की संरचना भी ऐसी ही है। ईश्वर का अंश होने के कारण उसमें सभी उच्चस्तरीय विभूतियाँ भरी पड़ी हैं। पिंड ब्रह्माण्ड का छोटा रूप है। परमात्मा की ही छोटी प्रतिकृति आत्मा है। शरीर में वे अभी तत्त्व विद्यमान हैं जो प्रकृति के अंतराल में बड़े एवं व्यापक रूपमें पाए जाते है।
काय साधना से न केवल आरोग्य लाम मिलता है, वरन तपश्चर्या की ऊर्जा से तपा-पकाकर ऐसा भी बहुत कुछ पाया जा सकता है जो प्रकृति को रहस्यमय परतों में खोजा पाया जाता है। सिद्धपुरुषों का प्रकृति पर आधिपत्य होता है। इसका आधारभूत कारण यह है किकाया में उन्हीं रहस्यों को बीज रूप उपस्थिति को कृषि कार्य जैसे साधनों से विकसित कर लिया जाता है फलतः काया समूची माया का प्रतिनिधित्व करने लगती है। काया और प्रकृति के बीच आदान-प्रदान होने लगता है। जिस प्रकार पृथ्वी के ध्रुवकेंद्र व्यापक ब्रह्माण्डसे अपनी आवश्यक सामग्री खींचते, उपयोग करते रहते हैं उसी प्रकार सिद्धपुरुषों की काया न केवल ब्रह्माण्डव्यापी माया से, प्रकृति से आदान-प्रदान करती है, वरन चेतनात्मक विशेषता के कारण कई बार उस पर आधिपत्य भी करने लगती है। तपस्वियों कीअलौकिक चमत्कारी सिद्धियों का यही रहस्य है।
योग किसी शारीरिक या पदार्थपरक हलचल का नाम नहीं है। जैसा कि आमतौर से आसन-प्राणायाम या नेति-धोति आदि को जाना बताया जाता है। ये शरीर और मन के व्यायाम भर हैं जो प्रकारांतर से आत्मपरिष्कार में सहायक सिद्ध होते हैं। तत्त्वतः योग अंतराल परचढ़े हुए अवांछनीय आच्छादनों को हटाने और उनके स्थान पर उच्चस्तरीय परिधान पहनाने की भावनात्मक प्रक्रिया है। उसमें अभ्यस्त आदतों के रूप में स्वभाव का अंग बनी हुई कुसंस्कारिता की जड़ें काटनी पड़ती हैं और उन झाड़-झंखाड़ों के स्थान पर उच्चस्तरीयआस्थाओं को अंतराल में उगाना परिपुष्ट करना होता है। अंतःक्षेत्र का यह समुद्र मंथन ही योग है। खारे निषिद्ध जलाशय को मथकर किसी समय विष-वारुणी को हटाया और अमृत जैसी अनेकों विभूतियों को हस्तगत किया था। संक्षेप में आंतरिक परिष्कार का नामयोग और क्रिया-प्रक्रिया में संयम-अनुशासन का समावेश तप कहा जाता है। इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ प्रत्यक्ष प्रयोग-उपचार भी चलाने पड़ते हैं। कल्प साधना की क्रिया-प्रक्रिया ऐसे ही निर्धारणों से भरी पड़ी है।
कल्प साधकों को उपवास, जप, स्वाध्याय, सत्संग जैसे दैनिक कृत्यों की पूर्ति तो शास्त्र परंपरा के अनुसार करनी ही चाहिए, पर साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अवधि तत्त्वतः अंतर्जगत् की गुत्थियों को सुलझाने के लिए किए जाने वाले मंथन के लिए ही है। उसीको चिंतन एवं मनन कहते हैं। इस क्रियारहित प्रक्रिया को चांद्रायण कल्प का मेरुदंड आधार केंद्र कहना चाहिए।
साधनाकाल में आस्था एवं विचारणा के क्षेत्र में नवनिर्माण का प्रयत्न पूरी तत्परता के साथ चलना चाहिए। शरीर तप अनुशासन में संलग्न रहे। विचार प्रवाह को भौतिक क्षेत्र से हटाकर अंतर्मुखी रहने के लिए विवश करना चाहिए। इन दिनों भौतिक क्षेत्र की चिंतासमस्याओं से उपराम हो लेना चाहिए। जो गंभीरतापूर्वक कभी सोचा ही नहीं गया, उसे इन दिनों सोचना चाहिए। जिस क्षेत्र में कभी बुहारी तक नहीं लगी, कभी दृष्टि ही नहीं गई, उसे इन दिनों साफ-सुथरा बनाने से लेकर सुंदर सुसज्जित बनाने के लिए तत्परता एवंतन्मयता के साथ जुटे रहना चाहिए।
चिंतन का विषय है-आत्मशोधन। मनन का उद्देश्य है-आत्मपरिष्कार। दोनों को एक दूसरे का पूरक कहना चाहिए। मल त्याग के उपरांत ही पेट खाली होता है, तभी भूख लगती और भोजन गले उतरता है। धुलाई के उपरांत रँगाई होती है। नींव खोदने पर दीवार चुनीजाती है। साँस छोड़ने पर नई साँस मिलती है। आत्मपरिष्कार प्रथम और आत्म-विकास द्वितीय है।
चिंतन का विषय अनुशासन है, इसी को संयम कहा जाता है। इंद्रियसंयम, अर्थसंयम, समयसंयम और विचारसंयम की चर्चा, अपने वर्तमान स्वभाव अभ्यास में इन प्रसंगों में कहाँ? क्या त्रुटि रहती है, इसकी निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जाँच पड़तालकी जानी चाहिए। आत्मपक्षपात मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण है। दूसरों के दोष ढूँढ़ना, अपने छिपाना आम लोगों की आदत होती है। कड़ाई से आत्मसमीक्षा कर सकने की क्षमता आध्यात्मिक प्रगति का प्रथम चिह्न है। पाप-कर्मों का प्रकटीकरण और प्रायश्चित कासाहस इस बात का चिह्र है कि इस क्षेत्र में प्रगति की आवश्यक शर्त को समझा और अपनाया जा रहा है। इसी श्रृंखला का अगला कदम स्वाध्याय, सत्संग के द्वारा बाहरी प्रकाश परामर्श प्राप्त करना है। चिंतन में गुण-कर्म -स्वभाव में घुसी हुई अवांछनीयताओं कोबारीकी से ढूँढ़ निकालने का पर्यवेक्षण करना होता है। साथ की उन्हें किस प्रकार निरस्त किया जाए? यह न केवल सोचना होता वरन उसके लिए दिनचर्या का ऐसा ढाँचा बनाना होता है जिसे अपनाकर उपर्युक्त चारों संयमों का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे। आदतों कोबदलने के लिए उनकी प्रतिद्वंद्वी आदतों को दैनिक व्यवहार में सम्मिलित करना होता है। असंयम की गुंजाइश जिन कारणों से, जिन कार्यक्रमों से बनती है, उनको भी बदलना होता है।
जो पूजा-उपचारभर की आवश्यकता पूरी करते हैं, उनसे आत्मिक प्रगति की समग्र आवश्यकता पूरी नहीं होती। जिस प्रकार शरीर को स्नान, दाँतों को मंजन, कपड़े को धोना, कमरे को बुहारना आवश्यक हैं उसी प्रकार मनःक्षेत्र की स्वच्छता का दैनिक प्रयोगनभर पूराहोता है। जीवनलक्ष्य की पूर्ति भजन से नहीं हो सकती। उसके लिए आत्मा को श्रद्धा, प्रज्ञा एवं निष्ठा जैसी उच्चस्तरीय आस्थाओं से अभ्यस्त कराना होता है। अभ्यास में उद्देश्य और श्रम का समन्वय रहना चाहिए। शरीर को सत्प्रवृत्तियों में नियोजित करने के लिएलोकमंगल की साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मनुष्य जन्म की धरोहर इसीलिए मिली है कि ईश्वर के विश्व उद्यान को सुविकसित बनाने में कुशल माली की भूमिका निभाई जाए। स्रष्टा की विश्व व्यवस्था में उत्कृष्टता बनाने-बढ़ाने में सहायक की तरह हाथबँटाया जाए। लोकमानस के भावनात्मक परिष्कार का कार्यक्रम बनाने और उसमें साधनों का महत्त्वपूर्ण भाग लगाते रहने से ही ईश्वर की इच्छा पूरी होती है, साथ−साथ आत्मकल्याण का, आत्मोत्कर्ष का प्रयोजन भी पूरा होता है।
मनन का एक ही विषय है कि जीवनचर्या में उस सेवा साधना का समन्वय कितना, किस प्रकार किया जाए जिससे आत्मकल्याण का जीवन-लाभ मिल सके। आत्मसंतोष, लोकसम्मान एवं दैवी अनुग्रह अर्जित करने के लिए उपासना ही पर्याप्त नहीं, इसके लिए संयमसाधना और लोकमंगल की आराधना का समन्वय करके अपना प्रयासक्रम त्रिवेणी संगम जैसा बनाना पड़ता है। यह किस प्रकार संभव हो इसी का इन दिनों नाना-बाना बुना जाना चाहिए। कल्प अवधि में तो भावी-जीवनचर्या का शुभारंभ एवं प्राथमिक प्रयोग अभ्यासकरना पड़ता है। उसकी सार्थकता तो तभी बनती है जब यह परिवर्तनक्रम आजीवन बना रहे और ठीक तरह निभता रहे।
कार्यक्रम तो आवश्यकता एवं स्थिति के अनुरूप बनते-बदलते रहते हैं। मूल प्रश्न यह है कि उसे संपन्न करने की सामर्थ्य-सामग्री कहाँ से प्राप्त हो? इसके लिए शरीर और परिवार की लिप्सा और तृष्णा के निमित्त जो समूची शक्ति खप जाती है, उसमें कटौती की जाएऔर आत्मकल्याण के निमित्त जो कुछ भी बन पड़ता, उसकी पूर्ति उस कटौती के द्वारा की जाए। प्रकारांतर से यह वही प्रक्रिया है जिसे समयदान-अंशदान के रूप में प्रत्येक जागरूक आत्मा को सनातन परंपरा अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
गायत्री परिवार के प्राथपिक सदस्यों को न्यूनतम चिन्हपूजा की तरह एक घंटा समय और एक रुपया नित्य ज्ञानयज्ञ में लगाते रहने के लिए बाधित किया जाता है। जाग्रत आत्माओं, प्राणवान प्रज्ञापुत्रों को इससे कुछ अधिक करने का दबाव डाला जाता है। उन्हें महीने मेंएक दिन की आजीविका एवं अवकाश के क्षणों का महत्त्वपूर्ण अंश समयदान के रूप में देते रहने के लिए कहा जाता है। कृपणता, निष्ठुरता चट्टान की तरह अड़ी बैठी रहे, न श्रद्धा उमँगे और न उदार सेवा साधना का कोई चिन्ह उभरे तो समझना चाहिए कि ऊसर भूमि मेंकृषि कर्म करने, उद्यान लगाने की निरर्थक विडंबना पल रही है।