उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!! आपमें से सैकड़ों व्यक्ति शिकायत करते पाये गये है कि हमें अपनी साधना से सिद्धि नहीं मिली। हमने इतना जप किया, इतना पूजा-पाठ किया, इतना भजन किया; लेकिन हमको तो कोई चमत्कार दिखाई नहीं पड़ा। मेरे ख्याल से अधिकांश आदमी आप में से ऐसे हैं, जो ऐसी शिकायत करते पाये जाते हैं। तो क्या पूजा-पाठ का, मन्त्र जप का विधान गलत है? क्या यह ऋषियों की धोखेबाजी है? कोई बौद्धिक मायाजाल है? न, ऐसी बात नहीं। अगर आपने ऐसा विचार किया है व आप निराश हो गये हैं कि पूजा-पाठ, साधना से कोई लाभ नहीं होता, तो आप मन से इन विचारों को निकाल दीजिए। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि साधना से सिद्धि अवश्य मिलती है।
आपके सामने मैं एक ऐसा गवाह पेश करना चाहता हूँ जिससे आप चाहें, तो जिरह भी कर सकते है व इम्तहान लेना चाहें, तो वह भी ले सकते हैं। कौन है वह गवाह। वह मैं स्वयं हूँ। आप मुझे किसी भी प्रयोगशाला में, किसी भी अदालत में खड़ा कर दीजिए व देखिए कि इस आदमी ने साधना की है व इसे सिद्धियाँ मिली हैं या नहीं। आप जिरह कीजिए व प्रमाण मिलने पर ही इसे सच मानिये।
वास्तव में साधना से सिद्धि का जुड़ा हुआ सम्बन्ध है, ऐसा जैसे कि बोने व काटने के बीच होता है। बोयेंगे, तो आप काटेंगे भी। इसी तरह आप साधना करेंगे, तो सिद्धियाँ भी आपको मिलेंगी। हमने साधना सही ढंग से की है व आपने गलत ढंग से की है, इसलिये आप शिकायत करते पाये जाते हैं। गलत यह कि मात्र बीज बोना ही काफी नहीं, उसमें खाद-पानी देना भी उतना ही जरूरी है। खाद आप देंगे नहीं, पानी आप लगायेंगे नहीं, तो आपको उम्मीद लगाना कि फसल पैदा होगी, पेड़ में फल लगेंगे, गलत है। साधना का बीज बोया हमने; पर खाद-पानी भी साथ-साथ लगाया। इसीलिए फला। कैसे लगाया जाता है खाद-पानी? चलिए मैं आपको दो घटनाएँ अपने जीवन की सुना देता हूँ। सारी तो अधिक हैं, मुश्किल पड़ेगी पर दो घटनाएँ सुना देता हूँ।
एक यह कि हमारे पिताजी दस वर्ष की उम्र में हमें महामना मालवीय जी के पास हिन्दू विश्वविद्यालय में ले गये व हमारा दीक्षा-संस्कार कराया था। मालवीय जी ने हमें गायत्री मंत्र दिया था, एक जनेऊ पहनाया था व एक खास बात हमारे कान में कही थी, जो अभी तक याद है, वह यह कि ‘‘गायत्री ही कामधेनु है।’’ कामधेनु स्वर्गलोक की एक गाय है, जिसका दूध पीकर देवता अजर-अमर हो जाते हैं, गायत्री मन्त्र सबके लिए नहीं, मात्र ब्राह्मण की कामधेनु है। इसके लिए ब्राह्मण बनना चाहिए। ब्राह्मण उसे कहते हैं, जो औसत नागरिक के हिसाब से गुजारा कर ले व बचे समय को समाज के लिए लगा दे, ज्ञान और विचार में लीन रहे, स्वार्थ को परमार्थ में बदल दे। मैंने यह बात अच्छी तरह समझ ली। पिताजी व मालवीय जी से पूछकर समाधान कर लिया व बात पत्थर की लकीर की तरह मन में बैठ गई है।
मैं गायत्री मन्त्र का जप करने लगा। जप के साथ यह ध्यान मन में बना रहा कि मुझे ब्राह्मण बनना है। बराबर यही ख्याल रहा। इसका फल क्या हुआ? पाँच साल के भीतर ब्राह्मणत्व इतना विकसित हुआ कि एक और गुरु मेरे घर पन्द्रह साल की आयु में आए। यह मेरे जीवन की दूसरी घटना। गुरु स्वयं घर आए। हम नहीं गए उनकी तलाश में। गुरु तलाश करते हुए स्वयं आते हैं। उनकी तलाश करना बेकार है; क्योंकि पात्रता जब तक विकसित नहीं होती, तब तक कोई गुरु नहीं आता। कच्चे फल होते हैं, तो खाने के लिए कोई चिड़िया नहीं आती; किन्तु फल के पकने की सुगन्ध आते ही जाने कहाँ-कहाँ से चिड़ियाँ आ जाती हैं व फल खाने लगती हैं। ऐसा ही हुआ। मैंने ब्राह्मणत्व का जीवन जिया। बदले में सूक्ष्म शरीर से मेरे गुरु पास आए व हमसे कहा कि गायत्री का जो बाकी हिस्सा रह गया है, वह हम तुम्हें सिखायेंगे। उन्होंने कहा कि गायत्री मन्त्र तो यही है, पर इसके साथ एक और सिद्धान्त है—बोया और काटा। क्या मतलब? जो कुछ भी तुम्हारे पास है, उसे भगवान के खेत में बीज की तरह बोना शुरू करो और तुम्हारे पास सौ गुना ज्यादा होता चला जाएगा। मक्का, बाजरा खेत में बोते हैं, तो एक दाने के बदले में सौ दाने पैदा होते हैं। तू बोना और काटना शुरू कर। मैंने कहा-कहाँ? तो उन्होंने कहा-भगवान के खेत में। मैंने पूछा-भगवान का खेत कहाँ है? तो उन्होंने कहा—सारा समाज भगवान का ही विराट् रूप है। किसी ने भी आज तक भगवान को आँख से नहीं देखा है क्योंकि वह निराकार है, व्यापक है। कैसे उसे देख सकें गे? आग को तो देख सकते हैं पर गर्मी को कैसे देखेंगे? हवा को कैसे देखेंगे? भगवान को देखा नहीं जा सकता, अनुभव किया जा सकता है। बस! तू भगवान के खेत में बोना शुरू कर। तेरे पास सम्पत्ति है, उसे दे। देख तुझे चमत्कार मिलता है कि नहीं। हमने कहा—हमारे पास तो कुछ भी नहीं है। यह हम कुर्ता-धोती पहने बैठे हैं, बस। उन्होंने कहा—तीन चीजें तो तू भगवान के यहाँ से लेकर आया है। एक तूने अपने पुरुषार्थ से कमाई है; चाहे इस जन्म में कमाई हो, चाहे पिछले जन्मों की कमाई हो। चार चीजें तेरे पास हैं—यह शरीर व उसके साथ जुड़ी तीन चीजें—समय, श्रम व बुद्धि, चौथी तेरी सम्पत्ति। इन सबको भगवान के लिए लगा। तू लगायेगा, तो देखेगा कि यह सौ गुना ज्यादा होकर आ रहा है।
सूक्ष्म शरीरधारी उन गुरु का भी मैंने कहना मानना शुरू कर दिया। मैंने मालवीय जी के कहे अनुसार अपने जीवन को ब्राह्मण जैसा बनाने की कोशिश की। ब्राह्मण माने संयमी। संयमी माने वह, जिसने अपनी इन्द्रियों पर, धन, समय व विचारों पर नियन्त्रण कर लिया हो। सारी शक्तियाँ एकाग्र हो गईं। जैसे आप फैली बारूद को जलाते हैं, तो भक्क से जल जाती है एवं इकट्ठी की बारूद को गोला के रूप में चलाते हैं तो कमाल दिखाती है। एकाग्रता इसी का नाम है। इस तरह हमने अपने आपको एकाग्र कर लिया, अपने आप पर संयम कर लिया। ध्यान की एकाग्रता में क्या रखा है? आप चाहे घण्टों बैठें। ध्यान ही नहीं, समग्र जीवन की एकाग्रता। हमने अपने आपको ब्राह्मण बनाने की कोशिश की, दस साल से पन्द्रह साल की उम्र तक। पाँच वर्ष तक पूरा यत्न रहा कि ब्राह्मण का चिन्तन-व्यवहार जैसा होना चाहिए, वैसा हो। हम ब्राह्मण बन गए। क्यों? आप नहीं थे क्या? कौम से तो ब्राह्मण थे; एक सनाढ्य ब्राह्मण के घर में जन्म हुआ है हमारा; पर कोई भी आदमी जन्म से ब्राह्मण नहीं होता, कर्म से होता है। हमने कर्म से अपने आपको ब्राह्मण बनाया। जब हमारी उम्र काफी हो गई, तो हमारे पास हिन्दुस्तान के बड़े पहुँचे हुए ऊँचे आदमी आए। उन्होंने यह सुना था कि इस आदमी की जबान से जो कुछ निकल जाता है, वह सौ फीसदी सच हो जाता है। कैसे हो जाता है? शृंगी ऋषि का नाम आपने सुना होगा। उनने एक शाप दिया तो, राजा परीक्षित मिट्टी में मिल गया व वरदान दिया, तो राजा दशरथ, जिसे बच्चे नहीं होते थे, एक साथ चार बच्चे हुए उनको। यह ब्राह्मण की जिह्वा है। हर आदमी नहीं होता ब्राह्मण। ब्राह्मण कौम से नहीं, कर्म से। उन्होंने पूछा कि यह सिद्धियाँ आपको कैसे मिली? हमें भी सिखा दीजिए। हमने उनसे कहा कि जितनी भी सिद्धियाँ हमने पाई है, यह हमारे ब्राह्मण बनने की सिद्धियाँ हैं। ब्राह्मणत्व का ही चमत्कार देखा है अब तक लोगों ने। साधना व तप को तो तिजोरी में बन्द करके रखा है। उसको हम संसार के एक बड़े काम में खर्च करेंगे। यह जो कह देते हैं, तो उससे किसी का भला हो जाता—यह मात्र ब्राह्मण की विशेषता है।
जब हमने पहली किताब छापी व उसका नाम रखा—गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है, तो लोग शिकायत करने लगे कि पुराणखंडी पंडित भी यही कहते हैं कि गायत्री मात्र ब्राह्मणों को जपनी चाहिए और कौमों को नहीं, तो हमने कहा—सब पागल है। क्या विषय चला रहा है व कहीं-से ले जाते हैं। वंश जन्म से नहीं, कर्म से चलता है। महात्मा गाँधी बनिया नहीं ब्राह्मण थे। हमने अपने को कर्म से ब्राह्मण बनाया। जब लोगों की शिकायतें किताब के सम्बन्ध में आईं, तो मैं कहा-अरे! यह तो लोगों ने गलत मतलब निकाल लिया। मैं क्या कहना चाहता था, ये क्या समझे। मैं कर्म से ब्राह्मण कह रहा था, इन्होंने जन्म से मतलब निकाल लिया। दुबारा किताब छपी तो मैंने ब्राह्मण शब्द निकालकर लिखा ‘गायत्री ही कामधेनु है’ बस, इतना ही नाम! किन्तु अभी भी मेरा विश्वास है कि गायत्री मात्र ब्राह्मण की कामधेनु है और किसी की है क्या? चोर की है? नहीं, ठग की, उठाईगीर व जालसाज की भी नहीं। साधना करने से पहले ब्राह्मण बनना पड़ता है। कपड़े को रँगने से पहले धोना पड़ता है, मैले कपड़े पर रंग नहीं चढ़ता। अपने आपको शुद्ध व पवित्र बनाने के लिए, जीवन का शोधन करने के लिए सेवा करनी पड़ती है। परोपकार और पुण्य—इन दोनों के बिना जीवन-शोधन सम्भव नहीं। सेवा किये बिना कोई साधना सफल नहीं हो सकती। ब्राह्मण-साधु पहले सारा जीवन सेवा करते थे। आज तो साधु का नाम भी नहीं दिखाई पड़ता। आज तो बाबाजी दिखाई देते हैं, जो भीख माँगते हैं व माला घुमाते हैं कि किसी तरह ऋद्धि मिल जाए, सिद्धि मिल जाए, बैकुण्ठ मिल जाए—इसी जंजाल में रहते हैं। हमने अपना जीवन पुराने ऋषियों के जीवन के आधार पर सेवा में लगाया। पूजा जो भी करनी हो, रात्रि में सोने से पहले व दिन में सूरज उगने से पहले कर ली। सूर्य निकलने से अस्त होने तक हम समाज-सेवा में लगे रहते हैं। यही हमारा भजन है, यही हमारी पूजा है।
हमने चारों सम्पत्तियों को गुरु के कहे अनुसार समाज के खेत में बोया। समय को हमने समाज में लगा दिया। श्रम भी हमारा इसी निमित्त लगा। हमारे पसीने की एक बूँद भी व्यापार-पैसा कमाने में खर्च नहीं हुई। हमारी बुद्धि ने कभी भो जालसाजी नहीं की, न चोरी की; मात्र यही सोचती रही कि लोक कल्याण कैसे ही सकता है? समाज में सत्प्रवृत्ति कैसे बढ़ाई जाए? इसी में बुद्धि लगी। इन तीनों चीजों को बोने से आपको क्या मिला? समय का हमने ठीक उपयोग किया, तो उसे हमने पाँच गुना बढ़ा लिया। अभी तक की हमारी जिन्दगी का लेखा-जोखा लें, तो देखें कितना बड़ा संगठन हमने अकेले खड़ा कर दिया। चौबीस लाख के चौबीस पुरश्चरण सम्पन्न किये; शरीर के वजन से भी ज्यादा साहित्य लिखकर रख दिया; पाँच आदमी निरन्तर आठ घण्टे रोज लगें, तो जितना काम हो, उतना हमने रोजाना किया। हमारा समय पाँच सौ गुना होकर हमारे पास चला आया। थोड़ी-सी जिन्दगी में जो कमाल करके दिखा दिया, वह दो सौ वर्षों में भी नहीं हो सकता।
श्रम हमने किया जनता को सुखी बनाने के लिए। हमारे घर से खाली हाथ कोई नहीं गया। हर आदमी का यह कहना है कि जो भी इनके घर आया, प्यासा-भूखा वापस नहीं गया, बिना दवा-दारू के नहीं गया क्योंकि हम सेवा करते है। सेवा अर्थात् प्यार। प्यार माने सेवा। हमने दूसरों के लिए जीवन भर श्रम किया है, प्यार दिया है, जीवन में प्यार बाँटा है व बदले में समेटा है। हमारी जिन्दगी प्यार से लबालब व सराबोर है। ये लाखों आदमी जो हमारे इशारे पर चलते हैं, हमारे व्याख्यानों का फल नहीं है, यह हमारे जीवन के उस हिस्से का परिणाम है, जिसके द्वारा हमने लोगों को प्यार किया व दिया है। बदले में पाया है—यह सही है।
बुद्धि हमारी इतनी बढ़ी कि हम लाखों आदमियों की टेढ़ी बुद्धि को उलटकर सीधा कर देते हैं। हमने न एम. ए. किया, न कोई डिग्री ली; पर हम प्लानिंग करते हैं—सारे समाज की, सारे विश्व के कायाकल्प की प्लानिंग, जो कोई भी मिशन नहीं कर सकता। साहित्य जो हमने लिखा है व वेद-पुराण आदि का भाष्य किया है, इससे अन्दाज मत लगाइये कि हम कितने बुद्धिमान हैं? यह देखिए कि हमारी बुद्धि कितनी बड़ी-बड़ी सार्थक योजनाएँ बनाती है, किस दिशा में चलती है? सारे युग का नव-निर्माण कैसे हो? यह हमारी बुद्धि ने सोचा है व करेगी।
चौथी सम्पत्ति—हमारा धन। धन कहाँ है आपके पास? धन हमने तो कमाया ही नहीं; पर हमारे पूर्व जन्म का कमाया हुआ था, जो हमारे पिताजी छोड़कर मरे थे 2000 बीघा जमीन हमारे पास थी। इसे, जब हम समाज सेवा में पदार्पण करने लगे, तो बच्चों से पूछा कि पुश्तैनी जायदाद होने के नाते कानूनी हक तो तुम्हारा भी है; लेकिन हमारी इच्छा है कि इस हक को तुम छोड़ दो; क्योंकि कानून चोरों ने बनाया व चोरों के लिए बनाया है। नैतिकता का कानून भिन्न है। इस जायदाद को समाज को दे देना चाहिए। बताओ क्या राय है तुम्हारी? दोनों बच्चों ने कहा-पिताजी! आपने हमें पढ़ा दिया है, हमें लायक बना दिया है; अब हमें एक पैसा भी नहीं चाहिए। हमने सारी जमीन दान कर दी। पत्नी के पास जो जेवर थे, वे भी बिक गये। किस्तों में हम देते चले गये व किश्तें लगती चली गई। पहली उस स्कूल में लगी, जो हमारे गाँव में बना अब एक इण्टर कॉलेज बन गया है। फिर अगली हमने गायत्री तपोभूमि में लगा दी। इसमें औरों का भी पैसा लगा है; पर पहली किश्त हमारी है। आपने शान्तिकुञ्ज देखा है? ब्रह्मवर्चस देखा है? चौबीस सौ शक्तिपीठें देखी हैं। करोड़ों रुपये की बिल्डिंगें हैं यह। इनसे आपको अन्दाज लगेगा कि कितना धन हमने भगवान के खेत में बोया व कितना गुना यह हो गया? सहस्रकुण्डी यज्ञ, जो हमने मथुरा में किया, से लेकर यहाँ के रोजाना खर्च का आप हिसाब लगाएँ, तो पता चलेगा कि लाखों रुपये रोज का खर्च है। न जाने कहाँ से आता है यह! हमने प्रतिज्ञा की है कि हम मनुष्य के आगे हाथ नहीं फैलायेंगे; लेकिन भगवान हमें सब देता चला गया। हमने न कभी ईमान गँवाया, न भगवान को। इसका परिणाम यह कि जितना हमने बोया, उससे कहीं अधिक काटा है। साधना की सिद्धि जितनी मिलनी चाहिए थी, हमें मिलती चली गई। अभी और आपका बचा हुआ समय है, उसके बारे में बताइए? जब तक हमारा शरीर है, तब तक व्यक्ति के ही नहीं, समाज के निमित्त हमारा रोम-रोम लगेगा—यह हमारा संकल्प है।
साधना से सिद्धि का सिद्धान्त उपासना, साधना, आराधना—इन तीनों सूत्रों पर चला है। ये तीनों क्या हैं? ये हैं—जमीन, खाद और पानी। भगवान के चरणों में हमने अपने आपको समर्पित किया है व भगवान जितने शक्तिशाली हैं, उतने ही हम हो गये। ईंधन को आग में डाल देते हैं, वह भी उतना ही गर्म और आग जैसा हो जाता है। हम भी वैसे हो गये हैं। यह उपासना है। साधना हमने जीवन भर की है। साधना अर्थात् माला जपना नहीं, साधक का जीवन जीना। हमने अपनी इन्द्रियों को साधा है। मन को, बुद्धि को संयत किया है, ठीक तरह से रखा है। यह साधना है। तीसरी, आराधना वह, जिसके लिए हमने आपको अभी कहा। यह है समाज के लिए, देश के लिए, संस्कृति के लिए, भगवान के लिए जीवन जीना। भगवान का विराट् रूप यही है। जनमानस को ऊँचा उठाने के लिए लगे रहने को ‘आराधना’ कहते हैं। हमने जीवन भर आराधना, साधना व उपासना की है तथा उसका परिणाम हमारे सामने है। यही आप अपने जीवन में देखना चाहें, तो आप भी प्रयोग कर सकते हैं। फिर आप हमें बताइए कि आपकी साधना सिद्धि की दिशा में फली कि नहीं।
हमारी बात समाप्त।
ॐ शान्ति।