उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
गुरु द्रोणाचार्य ने जब पाण्डवों को विद्याध्ययन कराया, तो प्राचीन परम्परा के अनुरूप उन्होंने वही मंत्र पढ़ाए जो ब्राह्मण ग्रंथों में लिखे हुए हैं। शतपथ ब्राह्मण में विद्यार्थी को अक्षर ज्ञान से भी पहले जो पाठ पढ़ाया जाता है, वह है—‘सत्यं वद्’, ‘धर्मं चर’, ‘स्वाध्यायन्मा प्रमदितव्यम्।’ यह ऋचाएँ अक्षर ज्ञान से भी पहले याद कराई जाती हैं, जिससे आदमी को मालूम पड़ जाए कि विद्या का उद्देश्य क्या है? ज्ञान का उद्देश्य क्या है? पढ़ने का उद्देश्य क्या है? उद्देश्य पहले बताया जाता है और उसका प्रयोग पीछे पढ़ाया जाता है। क, ख, ग पीछे पढ़ाया जाता है, पहले यह बताया जाता है कि यह किस काम के लिए है? द्रोणाचार्य न पाँचों पाण्डवों को प्राचीन परम्परा के अनुरूप वही पाठ पढ़ाए—‘सत्यं वद्’, ‘धर्मं चर’, ‘स्वाध्यायन्मा प्रमदितव्यम्।’ चारों पाण्डवों ने तो वे सारे के सारे पाठ याद कर लिए, लेकिन सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर वह पाठ याद न कर सके। उन्होंने कहा—गुरुदेव! पाठ थोड़ा जटिल है। ‘‘सत्यंवद्’’ कहिए तो मैं सुना देता हूँ, लेकिन अध्यात्म में कोई ज्ञान ऐसा नहीं है जो केवल जबाब की नोंक से कहा जाए और कान के छेदों से सुना जाए और जो परिणाम उसके बताए गए हैं, उन्हें पूरा करने में समर्थ हो सके। जीभ का नहीं, यह अध्यात्म का विषय है। आपने जो पाठ मुझे पढ़ाया उसके लिए मैंने कोशिश की कि वह मेरे जीवन में प्रयोग होता हुआ चला जाए और मेरी जीवात्मा उसको धारण कर ले तो बात बने। महाराज युधिष्ठिर सारे जीवन भर इसी पाठ को याद करते रहे। उसमें भी एक बार गलती हो गई थी और ‘‘नरो वा कुंजरो वा’’—हाथी है या अश्वत्थामा आदमी यह पता नहीं चला, ऐसा कहकर उन्होंने गलती कर ही डाली।
मित्रो! अध्यात्म में जो शिक्षण हम प्राप्त करते हैं, उसको जीवन में उतारना पड़ता है। इससे कम में कोई बात बनती नहीं, गाड़ी आगे बढ़ती नहीं। उच्चारण हमारे लिए आवश्यक तो है, पर काफी नहीं है। राम नाम या गायत्री मंत्र तो सभी याद कर लेते हैं। केन्या (पूर्वी अफ्रीका) का हमारा लड़का यहाँ बैठा हुआ है। उसके यहाँ कांगो का एक तोता है, जो ऐसा बढ़िया गायत्री मंत्र बोलता है कि उसकी और मनुष्य की आवाज में कोई फर्क ही नहीं मालूम पड़ता। पर क्या इतने से सुग्गे को गायत्री माता सिद्ध हो गई? क्या वह आशीर्वाद दे सकता है? नहीं, क्योंकि उसे मात्र अक्षर याद हैं। अक्षर याद कर लेने भर से अध्यात्म का कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता, जैसा कि आम लोगों का ख्याल है। आम लोगों को मुद्दतों से इसी तरह बहकाया जाता रहा है कि अक्षर याद कीजिए, अक्षरों का उच्चारण कीजिए और स्वर्गलोक को चले जाइए। पर ऐसा होता नहीं है। शुरुआत हम राम नाम से करें, ठीक है। नाम तो लेना ही पड़ता है। नाम नहीं लेंगे तो बात कैसे बनेगी? जिस तक पहुँचना है उसका नाम तो लेना ही पड़ेगा। स्टेशन का नाम बताए बिना तो उसका टिकट भी नहीं मिलता। वस्तु का नाम बताए बिना दुकानदार से कहते रहिए कि अमुक चीज, यह चीज, वह चीज दे दीजिए तो वह भी कहेगा कि भाग यहाँ से। नाम की पहले जरूरत है, क्योंकि नाम हमको दिशा बताता है। लेकिन अगर नाम के उच्चारण तक ही सीमित रहा गया तो समझना चाहिए कि जिस तरीके से सुग्गा राम नाम और गायत्री मंत्र को बोलता रहता है, पर लाभ कुछ नहीं पाता, उसी तरह उससे कम या अधिक लाभ आपको भी नहीं मिलेगा।
नाम उच्चारण आवश्यक है, पर इससे आगे उसे हमारी अंतरात्मा में इस गहराई तक समा जाना चाहिए कि वह हमारे व्यवहार में उतरने लगे। इस संदर्भ में प्रह्लाद की घटना मुझे याद हो आई। प्रह्लाद को उसके मास्टर ने सबसे पहले पट्टीपूजन कराया और रामनाम पट्टी पर लिखकर कहा—पहले रामनाम लिख, पीछे क, ख, ग भी बताएँगे। वह रोज रामनाम लिखने लगा। पहले दिन, दूसरे दिन, तीसरे दिन, चौथे दिन भी रामनाम। मास्टर ने कहा—अब रामनाम लिखना बंद करो और गिनती लिखो। उसने कहा—नहीं साहब, अभी तो हम रामनाम ही पढ़ेंगे, क्योंकि यह पाठ अभी पक्का नहीं हो पाया और वह रामनाम ही पट्टी पर लिखकर लाता रहा। पिता से शिकायत की गई। उन्होंने कहा—नहीं, जहाँ तक ज्ञान का सम्बन्ध है, वहाँ तक पढ़ाई पक्की कर लेनी चाहिए, तब आगे पढ़ना चाहिए। प्रह्लाद सारी जिन्दगी भर उसी पढ़ाई में लगे रहे और उसे पक्की करते रहे। हम भी बार-बार गायत्री मंत्र याद करने की बात कहते हैं और अभी 24 हजार का जप करा रहे हैं। आप यह पूछ सकते हैं कि उसे चाहें हम एक बार जप कर लें या 24 हजार बार। फिर आप बार-बार क्यों कराते हैं? उससे क्या फायदा? गायत्री मंत्र याद भी हो गया और उसका अर्थ भी हम समझ गए कि हे भगवान हमारी बुद्धि को शुद्ध-पवित्र बना दीजिए। आप यही रेपिटिशन बार-बार क्यों कराते हैं? किस काम के लिए कराते हैं? आपको यह सवाल करना चाहिए और इसका जवाब मालूम करना चाहिए।
साथियो! रेपिटिशन इसलिए कराते हैं कि हमारा मस्तिष्क बड़ा भुलक्कड़ है। ऐसा भुलक्कड़ है कि इससे ज्यादा भुलक्कड़ इस दुनिया में कोई होगा क्या? जहाँ तक भौतिक जीवन का सवाल है, वहाँ तक हम और आप बिल्कुल सही हैं, कभी भुलक्कड़ नहीं हो सकते। इस मामले में हमारा दिमाग बहुत चालाक है, लेकिन इस मामले में वह इतना वाहियात है कि हम अपने जीवन-लक्ष्य को अनायास ही भूल जाते हैं। हम कौन हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? हमारा कर्तव्य क्या है? हमारे जीवन का स्वरूप क्या है? हमको मालूम नहीं है। मूल चीज को हम एकदम भूल जाते हैं। बाहर की सब चीजें हमको याद रहती हैं कि दुकान में कितना नफा होगा, किसका लेना है, किसका देना है आदि बातें हमको ऐसे याद रहती हैं कि कभी भी उसमें भूल नहीं पड़ती। लेकिन जहाँ तक अपनी जीवात्मा का सवाल है, परमात्मा का सवाल है, इसमें भूल पर भूल होती चली जाती है। इसलिए इस भुलक्कड़पन को दूर करने के लिए हम बार-बार आपसे गायत्री मंत्र का जप कराते हैं, ताकि आपकी जीवात्मा में वह घुल जाए और आपके स्मरण में, अंतःचेतना में उसको प्रवेश करने का मौका मिल जाए। ग्रामोफोन के रिकार्ड के तरीके से हमारी जीभ की नोंक कई तरह से अक्षरों का, मंत्रों का उच्चारण कर लेती है, पर हमारे जीवन में वे समाविष्ट नहीं हो पाते, प्रवेश नहीं कर पाते। फलतः हमको बार-बार याद करना पड़ता है। उच्चस्तरीय सिद्धान्तों को जीवन में प्रवेश कराने के लिए, अंतःचेतना में नए संस्कार जमाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। जिस तरह इम्तहान की तैयारी के लिए उसे बार-बार याद करना पड़ता है, उसी प्रकार हम आपको गायत्री मंत्र के जप के रूप में बार-बार रेपिटिशन कराते हैं ताकि आपकी याददाश्त में से जो बेशकीमती चीज भूल गई, उस गँवाई हुई चीज को आप तलाश पाएँ।
भगवान रामचन्द्र की सीता जी को रावण चुरा ले गया। रामचन्द्र जी ने पहाड़ों से, नदियों से, तालाबों से, पेड़ों से, हवा से—हर एक से पूछताछ की कि कहीं सीता आपने देखी हैं। सीता के बिना राम बिल्कुल निर्जीव से हो गए थे। उनकी जीवात्मा निकल गई थी। वे हारे-थके हुओं के तरीके से वन-वन में घूम रहे थे और सीता-सीता पुकारते थे। हम भी पुकारते हैं अपनी जीवात्मा को, जिसको कि हमने गँवा दिया है, खो दिया है। साँप के फन में से और हाथी के सिर में से मणि निकल जाती है तो वह बेकार हो जाता है। साँप और हाथी के सिर में मणि होती है कि नहीं यह तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं जानता हूँ कि मनुष्य के भीतर एक मणि अवश्य होती है, जिसको गँवा देने के बाद आदमी निष्प्राण हो जाता है, निस्तेज, निर्जीव, छूँछ हो जाता है और व्यथाओं, कष्टों, चिंताओं से घिर जाता है। सारे जीवन पर निराशा के बादल छा जाते हैं। वह मणि है हमारी जीवात्मा, जिसको हमने गँवा दिया। अब लोहार की मरी हुई धौंकनी की तरीके से साँस भर चलती है। आज आदमी मरे हुए के बराबर है। मनुष्य जीवन के साथ जो श्रेष्ठताएँ, उमंग, उत्साह और उल्लास जुड़े हुए होते हैं, जिन्हें कि आदमी अमृत की तरीके से बिखेरता रहता है वह चेहरे पर कहीं दिखाई नहीं देता। ऐसे खीजे हुए बेचैन एवं चिन्तित आदमी को मैं मरे हुए में शुमार करता हूँ। सीता जी के चले जाने के बाद रामचन्द्र जी चिंतित-दुःखी हो गए थे और अपना उत्साह, आनंद, अपनी खुशी को सीता के नाम से पुकारते थे। हम भी आपसे निवेदन करते हैं कि आप अपनी सीता को पुकारिए, आत्मा को पुकारिए, जिसका नाम हमने गायत्री माता रख दिया है। गायत्री माता को पुकारने के लिए गायत्री मंत्र का जप करने के लिए हमने कहा है।
गायत्री माता क्या हो सकती है? गायत्री बेटे, आपकी जीवात्मा हो सकती है और वह उच्चस्तरीय जीवात्मा जब आपके अंतःकरण में प्रवेश करती है तो आपको आनन्द और उल्लास से भर देती है और देवता बना देती है। वह गायत्री माता, जो बीस साल पहले हमको एक छवि के रूप में सुपुर्द की थी, जिसको आप चंदन, धूपबत्ती चढ़ाते थे, प्रणाम करते थे, माला घुमाते थे, बहुत पुरानी बात है, जब आप छोटे वाले बालक थे, तब हमने बताया था कि गायत्री माता हंस पर सवारी करती है और हाथ में पुस्तक, पुष्प, कमण्डलु लिए रहती है। पर आज मैं ज्ञान की बात कहता हूँ। जिस गायत्री माता का हम जप कराते हैं, उपासना और अनुष्ठान कराते हैं उसकी फिलॉसफी, उसका तत्त्वज्ञान, उसका सार, प्रकाश और मूल बताना चाहते हैं। मैं समझता हूँ कि अब आप इस लायक हो गए हैं कि खुले दिल से, खुले मन से आपको हम असलियत समझा सकते हैं कि आखिर गायत्री माता क्या हो सकती है, जिसके लिए हम आपको बार-बार कहते हैं। जो सिद्धियों की, चमत्कारों की देवी है, जो शांति की, वरदान की देवी है, जो ऐसी देवी है जिसको प्राप्त करने के बाद में और कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रह जाता। वह गायत्री मंत्र जो गुरु वशिष्ठ के पास था, जो विश्वामित्र के पास था, जिन्होंने अपना सारा राजपाट छोड़कर जंगल में तप करने के बाद गायत्री माता का साक्षात्कार किया था और जिसने कहा था—‘‘धिक्बलं क्षत्रिय बलं ब्रह्मतेजो बलं बलम्।’’ मैं आपको उसी गायत्री मंत्र को बताना चाहता हूँ, जो आपको निहाल कर सकता है, धन्य कर सकता है और आपको चमत्कारी बना सकता है, महामानव बना सकता है, देवता बना सकता है और भगवान बना सकता है।
वह गायत्री मंत्र जो ‘मह्यम दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्’ प्रदान करता है, ब्रह्मतेजस् और ब्रह्मवर्चस् प्रदान करता है, वह गायत्री माता का प्राण है। जिसका हमने कलेवर-शक्ल बना करके रखा है अन्यथा जो निराकार शक्तियाँ हैं, वे देखी और दिखाई नहीं जा सकतीं। उनकी शक्लें नहीं होती हैं। ठंडी, गर्मी, प्रेम, मुहब्बत, क्रोध जैसी संवेदनाओं की शक्ल नहीं हो सकती। भगवान की केवल संवेदनाएँ, विचारणाएँ, प्रेरणाएँ, निष्ठाएँ, आस्थाएँ और अनुभूतियाँ हो सकती हैं। उनकी कोई शक्ल नहीं हो सकती। शक्ल हमारी कल्पना है। कल्पना इसलिए है कि हमको निष्ठा तक पहुँचने के लिए रास्ता मिल जाए। जिस तरह इंजैक्शन की सुई शरीर के भीतर रक्त में दवा पहुँचा देती है, उसी प्रकार शक्लों के माध्यम से हमारा मस्तिष्क किसी चीज को पकड़ सकता है। शक्ल के बिना, नाम और रूप के बिना हमारी स्मरण-शक्ति और दिमाग की बनावट काम नहीं कर सकती और हम उन संवेदनाओं को पकड़ नहीं सकते। इस संवेदना को, निष्ठा और आस्था को पकड़ने के लिए हमने शक्लों की, मूर्तियों की कल्पना की है।
गायत्री माता क्या हो सकती है? अब मैं उसकी शक्ल की व्याख्या करूँगा। गायत्री माता बेटे, एक जवान स्त्री का नाम है जैसे कि हमने फोटो में छापा है और मंदिर में स्थापित किया है। जवान स्त्री इसलिए कि उसके प्रति तेरे भीतर मातृबुद्धि पैदा हो, आँखों में शुद्ध पवित्रता का भाव पैदा हो, क्योंकि मनुष्य की भावना और ईमान इन दो बातों में सबसे ज्यादा गंदा हो जाता है। एक धन को देखकर, दूसरा जवान स्त्री को देखकर। एक पैसे को देखकर आदमी भ्रष्ट हो जाता है। दूसरे विपरीत सैक्स की जवानी देखकर न जाने कैसा शैतान दिमाग में आ जाता है कि आदमी सब कुछ भूल जाता है, यहाँ तक कि अपने कर्तव्यों को भी भूल जाता है। कामिनी और कंचन—दोनों को देख करके जो अपने ईमान को सही रख सकता है, उसे कह सकते हैं कि यह आदमी बहादुर है, शूरवीर है। इसके पास वह शक्ति है जिसका नाम-ब्रह्मवर्चस है। जिसके पास ब्रह्मवर्चस है वह भगवान को भी मजबूर कर सकता है कि आप आइए जमीन पर और हमारे सामने खड़े होइए। भगवान को इसके आधार पर हम खड़ा कर सकते हैं। भगवान को इसके सामने नत होना पड़ता है। मित्रो, ब्रह्मवर्चस और ब्रह्मतेजस् वह शक्ति है जो भगवान को अपना भक्त बना लेने के लिए मजबूर कर देती है। यह ब्रह्मतेजस् आता कहाँ से है? चरित्र में से आता है। पूजा चरित्र के लिए है। पूजा से भगवान नहीं मिल सकते। पूजा हमारा माध्यम है, लक्ष्य नहीं। पूजा के माध्यम से हम अपनी चरित्रनिष्ठा, विचारशीलता और आंतरिक उदात्तता का विकास करते हैं। उपासना इसी के लिए की जाती है।
मित्रो! ब्रह्मवर्चस प्राप्त करने के लिए हमको वह साहसिकता जगानी पड़ेगी जो कि अध्यात्म का मूल उद्देश्य है। उसी के लिए सारे का सारा क्रिया-कलेवर खड़ा किया है, जिसमें सत्संग भी आता है, रामायण पाठ, गीता पाठ, गायत्री जप, देवदर्शन, तीर्थयात्रा आती है। ये सबके सब साधन हैं और साध्य है अपनी अन्तरात्मा का परिष्कार। अन्तरात्मा का परिष्कार जिस हिसाब से, जिस अनुपात से होता हुआ चला जाता है, उसी हिसाब से भगवान और उनकी शक्तियाँ मनुष्य के नजदीक आती हुई चली जाती हैं। अध्यात्म इसी के लिए बनाया गया था। उसका मूल उद्देश्य आदमी को श्रेष्ठ बनाना है, क्रमशः जीवात्मा से महात्मा, महात्मा से देवात्मा और देवात्मा से परमात्मा बनाना है। इन तीन सीढ़ियों को पार करते हुए चलना है। इसी मूल उद्देश्य को पूरा करने के लिए सारे के सारे धर्म-तंत्र बनाये गये, योगाभ्यास बनाये गये, तपश्चर्याएँ बनायी गईं। साधना विज्ञान बनाये गये और सारे का सारा अध्यात्म का इतना बड़ा कलेवर बनाया गया। आपको इसके उद्देश्यों को, पूजा-उपासना के उद्देश्यों को समझना चाहिए।
ब्रह्मवर्चस पैदा करने वाली गायत्री माता की छवि हमको यह बात बताती है कि हमारी आँखों में दिव्य तत्त्व का प्रवेश होना चाहिए। हमारी आँखों में जो चीज जैसी है, उसी तरह की देखने का माद्दा पैदा होना चाहिए। नारी क्या हो सकती है? नारी हमारी माँ हो सकती है, बेटी हो सकती है, बहिन हो सकती है और उससे भी ऊँचा एक और स्थान है, उसको धर्मपत्नी कह सकते हैं। पत्नी नहीं धर्मपत्नी, जो हमारी सहअंगिनी, सहधर्मिणी है और समाज को श्रेष्ठ नागरिक देने के उद्देश्य से है। दोनों हाथों से जिस तरीके से नाव को चलाते हैं, उसी तरीके से स्त्री-पुरुष दोनों मिल करके जीवन की नौका को खेने के लिए और उसे पार करने के लिए खड़े हो जाते हैं। स्त्री हमारी सहधर्मिणी है, इसीलिए वह देवी है और पूजा करने योग्य है। अगर यह वृत्ति अपने अन्दर बसाई और बनायी जा सके तो हमारे मस्तिष्क की दिव्यसत्ता का अस्सी फीसदी बिखराव में जो नष्ट होता हुआ चला जाता है, उसे बचाया, रोका जा सकता है और अपनी आँखों में वह तेजस् पैदा किया जा सकता है, जिसके आधार पर हम भगवान को भी मजबूर कर सकते हैं और भौतिक लोगों को भी प्रभावित कर सकते हैं। अगर अपनी आँखों के द्वारा जो बिजली नष्ट होती रहती है उसको रोक पाएँ तब मैं आपसे कहता हूँ कि आपकी और हमारी आँखों में गान्धारी के तरीके से वह तेजस् पैदा हो सकता है कि हम अपने बच्चों को अगर यह आशीर्वाद दें कि तेरा शरीर लोहे का हो जाएगा तो लोहा बन सकता है और अपनी आँखों में वह ब्रह्मतेज पैदा किया जा सकता है जो गाँधी जी की आँखों में था। 32 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपनी स्त्री को ‘बा’ कहना शुरू कर दिया था, इससे उनकी आँखों में वह ब्रह्मतेज पैदा हुआ कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल को अपने वायसराय को यों लिखना पड़ा कि आप गाँधी जी से आँख मत मिलाना, उसकी आँखों में हिप्नोटिक पावर है। जिसको भी देख लेता है, उसी को वह प्रभावित कर लेता है, उसी को मैस्मराइज् कर देता है और अपने चंगुल में फँसा लेता है। आपमें से हर आदमी की आँखों में वह मैग्नेट पैदा हो सकता है कि आप अपने लोगों को, पड़ोसियों को और हर आदमी को प्रभावित कर सकते हैं, अगर आप अपनी आँखों के बिखराव को रोक पाएँ तब।
मित्रो! गायत्री माता हंस के ऊपर सवारी करती है। हंस से मतलब उस प्रतीक से है, जो हमारे भीतर एक वृत्ति पैदा करती है, संकल्प पैदा करती है कि जो आदमी हंस है गायत्री माता उसके ऊपर सवारी करेंगी। हंस गायत्री माता का प्रतीक है, जो जवान स्त्री के प्रति, भिन्न सैक्स के प्रति दिव्यता का, पवित्रता का भाव पैदा करता है, हंस वह आदमी जो मोती खाए, जिसके ऊपर दाग-धब्बे न हों। जो आदमी दूध और पानी को अलग करना जानता हो अर्थात् जिसके रोम-रोम में इनसाफ भरा हुआ पड़ा हो। हंस मोती खाता है अर्थात् जो विवेकवान है वे मोती खाते हैं अर्थात् न्याय की कमाई खाते हैं, ईमानदारी की कमाई खाते हैं और शुद्ध चीजें खाते हैं। वह आदमी हंस हैं, जो दूध और पानी में फर्क करते रहते हैं अर्थात् जो चीज सामने आती है, उसमें से यह फर्क करते हैं कि उचित क्या है और अनुचित क्या है? यह कसौटी है खरे-खोटे की पहचान की। पुराने जमाने में जब सोने-चाँदी के सिक्के चलते थे, तब उनके ऊपर कसौटी लगाई जाती थी कि कौन सिक्का खरा है और कौन खोटा? आपके पास जो भी घटना आये, परिस्थिति आये, व्यक्ति या विचार आये, प्रत्येक के ऊपर कसौटी लगाइये और देखिए कि इसमें क्या उचित है और क्या अनुचित है? कौन नाराज होता है और कौन खुश होता है—यह देखना आप बंद कीजिए। यह दुनिया ऐसे पागलों की दुनिया है कि अगर आपने यह विचार करना शुरू कर दिया कि हमारे हितैषी किस बात में प्रसन्न होंगे, तो फिर आप कोई सही काम नहीं कर सकते। सही काम करना है तो फिर आपको यह बात उठाकर ताक पर रखनी पड़ेगी कि कौन नाराज होगा, कौन नहीं? अगर आपको भगवान को प्रसन्न करना है और अपने ईमान को प्रसन्न करना है, जीवात्मा को प्रसन्न करना है तो लोगों की नाराजगी और प्रसन्नता की बाबत विचार करना एकदम बंद कर देना पड़ेगा। हमको भगवान की प्रसन्नता की जरूरत है, लोगों की प्रसन्नता की नहीं। आपको सर्टीफिकेट लेना है तो अपनी जीवात्मा का लीजिए और किसी का मत लीजिए।
मित्रो! वह गायत्री मंत्र जिसका हम आपको जप कराते हैं, जिस गायत्री माता की उपासना कराते हैं, वह सिर्फ उस आदमी के गले में माला पहना सकती है जो सत्यवान है। सत्यवान और सावित्री की कथा आपने सुनी होगी कि उसने सत्यवान का वरण किया था और कहा था कि हमने अपनी मनमर्जी से ब्याह किया है। यह सावित्री और गायत्री एक ही शक्ति का नाम है। गायत्री और सावित्री वरण कर सकती है। वरदान दे सकती है। कहना मान सकती है। उत्तर है—हाँ। नंदा नाई के बदले में पैर दबाने भगवान गए थे और गायत्री माता भी आपको दूध पिलाने के लिए और आपके पैर दबाने के लिए आ सकती है, आपका वरण कर सकती हैं, पर शर्त एक ही है कि आपको सत्यवान होना चाहिए। जो सत्यवान नहीं है, जिन्होंने अपना सारा जीवन झूठवान बना करके रखा है, जिसके व्यवहार में झूठ, विचारों में झूठ, नियम में झूठ, रोम-रोम में झूठ भरा पड़ा है, उसका यदि ख्याल हो कि गायत्री मंत्र बोलने के बाद में किसी ऐसी शक्ति को गुलाम बना सकता है, जो उसके मनमर्जी के मुताबिक़ जो भी मनोकामना होगी, उसको पूरा कर दिया करेगी, तो मेरे हिसाब से यह ख्याल गलत है। दुनिया में ऐसी कोई देवी नहीं है, जो किसी पूजा-पत्री करने वाले को निहाल इसलिए कर दिया करे कि उसने इतना जप किया, धूपबत्ती जलाई या हवन कर दिया है। हवन, धूपबत्ती और जप की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना को पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया में नहीं है।
गायत्री क्या हो सकती है? उसका वाहन हंस क्या हो सकता है? उसका सार और आधार समझाने की हमने भी कोशिश की है कि गायत्री उपासना से आपकी आँखों के अंदर दिव्यता, पवित्रता आनी चाहिए, जिससे आपको प्रत्येक के भीतर देवत्व दिखता हुआ चला जाए। कंचन और कामिनी के प्रति अपना दृष्टिकोण साफ करके रखें, ताकि आपकी आँखों में अर्जुन और शिवाजी की तरीके से वह तेज आ जाए। अर्जुन को गाण्डीव मिला था, आँखों का संयम कर लेने और उर्वशी के प्रति अपनी मातृ-बुद्धि रखने की वजह से और छत्रपति शिवाजी को देवी से तलवार मिली थी। तलवार और गाण्डीव देवी-देवता देते हैं या नहीं, लेकिन वे साहसिकता के रूप में, आदर्शवादिता के रूप में, चरित्रनिष्ठा के रूप में अवतरित अवश्य होते हैं और उसमें हजार हाथी के बराबर बल हो जाता है। अगर गाण्डीव में तथा शिवाजी की तलवार में हजार हाथी के बराबर ताकत रही होगी तो मैं इसको अचंभा नहीं मानता, सब सही है। अंतरात्मा की महानता में कितना बल होता है, आपसे मैं कैसे कह सकता हूँ? आपने तो देखा भी नहीं है। अगर आप अध्यात्म की छाया में खड़े हुए होते तो आपको मालूम पड़ता कि गाँधी, बुद्ध, ईसा और विवेकानन्द में कितनी बड़ी ताकत थी और संतों में कितनी बड़ी ताकत थी? अध्यात्म को आप समझते तक तो है नहीं। बार-बार वही माला, वही धूपबत्ती तक अपने आपको सीमित किए हुए हैं, फिर आपको किस तरीके से आध्यात्मिक लाभ हो सकता है? गायत्री माता, जिसकी हम आपको उपासना कराते हैं, अनुष्ठान कराते हैं, उसकी भक्ति के अगर आप इच्छुक हैं तो यहाँ से जाने से पूर्व कम से कम उसका सही स्वरूप अपनी अंतरात्मा में अवश्य निर्धारित कर लीजिए। इससे आपका फायदा तो होगा ही, साथ ही अध्यात्म के ऊपर जो एक कलंक आ गया है कि इसका कोई माहात्म्य नहीं है, कोई फल नहीं है, वह दूर हो जाएगा। प्राचीनकाल में केवल सात ऋषि थे और उन सात ऋषियों की वजह से सारी दुनिया में अध्यात्म जिंदा था। अगर दुनिया में सात आदमी भी अध्यात्मवादी रह जाएँ तो भी अध्यात्म जिंदा रहेगा। वही आदमी अध्यात्म के स्वरूप को जिंदा रखेंगे और उनकी वजह से ढेरों आदमी आ जाएँगे।
बेटे! हमने अपनी जिंदगी में सही अध्यात्म को समझने की और जीवन में उतारने की कोशिश की और ढेरों आदमी आ गए। हम से एक लाख आदमी वे बँधे हुए हैं जो अखण्ड-ज्योति पढ़ते हैं। अखण्ड-ज्योति कौन-कौन पढ़ता है, अपने से बँधने का यह मैंने मानदण्ड रखा है। इससे एक लाख आदमी बँधे हुए हैं और एक लाख के सहारे, जो उनके स्त्री-बच्चे, पड़ोसी हैं, सब मिलाकर 50 लाख हो जाते हैं। एक सही अध्यात्मवादी 50 लाख आदमियों को प्रकाश देने में समर्थ है। हम लोगों को यह यकीन दिलाने, विश्वास दिलाने में समर्थ हैं कि गायत्री मंत्र में कुछ जान है और लोगों ने देखा कि आचार्य जी गायत्री मंत्र का जप करते हैं, इस मंत्र में कोई शक्ति होती है। बस इसी एक वजह से इतने लोग इकट्ठा हो रहे हैं और अभी जब तक मैं जिंदा हूँ मैं समझता हूँ कि सारी दुनिया भर में करोड़ों आदमियों को गायत्री मंत्र का उपासक बनाकर जाऊँगा, क्योंकि मैं एक सही अध्यात्मवादी आदमी हूँ और लोगों को यह मालूम है कि उपासना और उपासना का फल इनके पास है। इसलिए एक आदमी काफी है और सबके सब नास्तिक हो जाएँ तो इससे कोई बनता-बिगड़ता नहीं है। उस एक आदमी की वजह से ही ढेरों आदमी अध्यात्मवादी बन जाएँगे। इसलिए मैं चाहता था कि अध्यात्म का, गायत्री माता का असली स्वरूप आप समझ करके जाएँ, तब काम चले। तब फायदा हो। तब उद्देश्य की पूर्ति हो। तब फिर आपको भी आनन्द आए, गायत्री माता को आनन्द आए। फिर सबकी शिकायतें दूर हो जाएँगी। आपके पास वास्तविकता आ जाएगी और आपको जप करने के आधार और कारण मालूम पड़ते हुए चले जाएँगे।
हम आपको जो बार-बार जप कराते हैं, उसके कई प्वाइंट हैं। पहला प्वाइंट मैंने आपको शिक्षक-छात्र का पढ़ने-पढ़ाने का बताया है। दूसरा व्यायामशाला का। व्यायामशाला में आप जाइए और पहलवान जी से पूछिए क्यों साहब, क्या हो रहा है? आप कितने दंड-बैठक करते हैं? उत्तर मिलेगा 200-300 बैठक करते हैं। यह क्या है? रेपिटिशन जिसे बार-बार करना पड़ता है। मिलिट्री वाले लेफ्ट-राइट और कवायद के रूप में रोज रियाज करते रहते हैं। संगीत को जानने वाले रोज अपना रियाज करते रहते हैं। रियाज हाथ से गया कि संगीत हाथ गया। स्नान करने और दाँत माँजने में हम रोज रेपिटिशन करते हैं। बर्तन साफ करते हैं तब, कपड़े साफ करते हैं तब, यह सब रेपिटिशन है। मन के ऊपर जो मलीनताएँ छाई हुई हैं, उसे धोने के लिए राम-नाम के माध्यम से, बार-बार जप करने के माध्यम से रेपिटिशन करना पड़ता है। हम बार-बार भगवान को पुकारते हैं। गज और ग्राह की लड़ाई में गज की एक टाँग ग्राह के मुँह में चली गई थी और ग्राह उसे घसीटता हुआ चला जा रहा था। जब गज ने देखा कि हमारा कोई ठिकाना नहीं है, बचाव की कोई सूरत नहीं है, तो उसने आवाज लगाई और भगवान को 1008 बार पुकारा। गजराज के एक हजार आठ बार पुकारने पर भगवान दौड़े हुए चले आये। बेटे, एक टाँग मुँह में पकड़कर घसीट ले गया था, कौन? ग्राह। किसकी? गज की और आप लोगों की तो सारी की सारी टाँगों को पकड़कर यह मगर घसीटे ले जा रहा है। एक काम, दूसरा क्रोध, तीसरा लोभ, चौथा मत्सर, पाँचवाँ अहंकार, छठा मोह—ये छह ग्राह कहाँ-कहाँ चिपके हैं—गर्दन पर, हाथ पर, पैर पर और पूँछ पर। ये सभी मुँह से पकड़कर घसीटे ले जा रहे हैं। इसलिए हम भगवान को पुकारते हैं कि हे भगवान! आप कहाँ हैं? आइए। हमारी जीवात्मा! आप कहाँ हैं? आइए। हमारे जीवन-लक्ष्य, हमारे उद्देश्य, हमारे जीवन की महानता आप कहाँ हैं? हे हमारे आदर्श! आप कहाँ हैं? आप आइए और हमको ले करके चलिए। बेटे, इसी के लिए हम जप कराते हैं आपसे।
जप का मोटा उद्देश्य तो मैं कितनी बार आपको समझाता रहा हूँ। गायत्री मंत्र का टाइपराइटर से उदाहरण देता रहा हूँ। मंत्र का हमारी जीभ से उच्चारण होता है। इससे शक्तिकेन्द्र खुल जाते हैं। बार-बार एक लयबद्ध और क्रमबद्ध शब्दों के उच्चारण करने से एक गति पैदा होती है—शब्द की गति। लोहे के पुल के ऊपर से फौजी कदम से कदम मिलाकर चलते हैं तो क्रमबद्ध एक लय उत्पन्न होती है, जिससे पुल के गिरने का जोखिम पैदा हो जाता है। इसलिए उन्हें कदम से कदम मिलाकर पुल पर चलने से मना कर दिया जाता है। इसी तरह एक लयबद्ध, दिशाबद्ध, क्रमबद्ध ढंग से उच्चारण किया हुआ शब्द इतना शक्तिशाली हो जाता है, जिसे समझाना मेरे लिए मुश्किल है। लेकिन साइंस के साथ मैं आपको समझा सकता हूँ, कि बार-बार एक ही शब्द को, एक ही गति से, एक चक्र से घुमा देने से ‘सेंट्रीफ्यूगल फोर्स’ पैदा हो जाती है। श्रेष्ठ शब्दों के गुंथन और बार-बार उनके उच्चारण के माध्यम से हमारे भीतर सेंट्रीफ्यूगल फोर्स पैदा हो जाती है। इसके अतिरिक्त बार-बार एक ही शब्दोच्चारण का एक साइकोलाजिकल प्वाइंट भी है। पैरासाइकोलॉजी एवं मेटाफिजिक्स के हिसाब से हमारी चेतना चार हिस्सों में बँटी हुई है, जिसे प्रशिक्षित करने के लिए चार आधार और स्तर हैं। पहला वाला स्तर जिसको हम ‘लर्निंग’ कहते हैं। यह दिमाग का वह स्तर है, जो केवल एक बात को समझा देने से जानकारी मिल जाती है, जैसे आपको बता दिया कि ऋषिकेश यहाँ से 22 मील दूर है। इसकी जानकारी आपको हो गई। दूसरी परत वह है जिसे हम ‘रिटेंशन’ कहते हैं अर्थात् प्रस्तुत जानकारी को स्वभाव का अंग बना लेना। जिस बात को हम निरंतर करते रहते हैं, बहुत दिनों बाद वह हमारे स्वभाव में शामिल हो जाती है, आदत में शामिल हो जाती है। यह रिटेंशन कहलाता है। एक और परत है, जिसमें बहुत सी चीजें दबी हुई पड़ी रहती हैं और बड़ी मुश्किल से ही कभी-कभी याद आ जाती हैं। चेतना की इस परत में बहुत सारी चीजें दबी हुई पड़ी होती हैं, जिन्हें हम भूल गए हैं। भूली हुई उन चीजों के ऊपर जब हम जोर देते हैं, उन पर प्रकाश फेंकते हैं तो वे स्मृतियाँ उठकर खड़ी हो जाती हैं, जाग जाती हैं, जिसे ‘रीकाल’ कहते हैं। आखिरी परत है—‘रीकॉग्नीशन।’ रीकॉग्नीशन उसे कहते हैं, जिसमें कि मान्यताएँ, आस्थाएँ, निष्ठाएँ और विश्वास जम जाते हैं। एक के बाद एक परत मिलती हुई चली जाती हैं। जप के द्वारा, उपासना के द्वारा अपनी जीवात्मा को उस स्थिति पर ले जाना पड़ता है जिसमें कि ‘रीकॉग्नीशन’ की स्थिति पैदा हो जाती है।
‘सियाराममय सब जग जानी’ यह वाक्य हमने हजार बार पढ़ा और हजार बार सुना है, लेकिन हमारे भीतर न राम के प्रति भावना पैदा होती है और न सिया के प्रति भावना पैदा होती है। हर आदमी हमें शिकार मालूम पड़ता है, हर मर्द शिकार मालूम पड़ता है, हर औरत शिकार मालूम पड़ती है। जबान से हम कहते हैं तो क्या बना? रीकॉग्नीशन नहीं हो सका। मान्यताएँ, निष्ठाएँ परिपक्व नहीं हो सकीं। निष्ठाओं को परिपक्व करने के लिए बराबर रस्सी से जिस तरीके से पत्थर के ऊपर निशान बनाने के लिए रगड़ करनी पड़ती है, उसी तरीके से जप के द्वारा, उपासना के द्वारा बार-बार रगड़ बना करके अपनी अंतःचेतना के ऊपर निष्ठाएँ जमानी पड़ी हैं। इसीलिए हम आपको जप कराते हैं, इस तथ्य को आप लोग ध्यान रखना। आप जप करने का स्वरूप समझिए, कारण समझिए। किस कारण से जप कराते हैं, वह वजह समझिए। अगर आप समझ जाएँगे तो ठीक है, फिर आपको जप करना हो तो करना और न करना हो तो मत करना, पर कम से कम आपकी मान्यता तो सही होनी चाहिए। मान्यताएँ सही हो जाएँ, जानकारी सही हो जाए तो ठीक है। तब आप समझना कि पचास फीसदी मंजिल पार कर ली। आगे आपकी मर्जी। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥