उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
विज्ञानमयकोश की साधना—करुणा का जागरण
परमपूज्य गुरुदेव के उद्बोधनों की यह विशिष्टता रही है कि अध्यात्म की गहन साधनाओं को वे इस तरह से समझाते हैं कि सामान्य व्यक्ति के लिए भी उनको सहजता से समझ पाना और उनको अपने जीवन में आत्मसात् कर पाना संभव हो पाता है। प्रस्तुत उद्बोधन में वे इसी शैली में विज्ञानमयकोश की विशिष्ट साधना और उसको करने से व्यक्तित्व में होने वाले परिवर्तनों के संदर्भ में चर्चा करते दिखते हैं। साधना और उसका उद्देश्य बताने से पहले वे श्रोताओं को यह बताते हैं कि साधना करने से पहले हमारे व्यक्तित्व में एकाग्रता के गुण की अत्यधिक आवश्यकता होती है। वे कहते हैं कि जहाँ व्यक्ति का मन उस तरह से लग जाता है, जिस तरह से अर्जुन का मन और दृष्टि मछली की आँख की ओर एकाग्र हो गए थे, तो वहीं पर उसके लिए सफलता को प्राप्त कर पाना संभव हो पाता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को......
मनुष्य के भविष्य का आधार
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
देवियो, भाइयो! राजा द्रुपद की कन्या द्रौपदी अपने समय में बड़ी योग्य लड़की थी। उसके पिता राजा द्रुपद उसके लायक वर तलाश करने के लिए बड़े व्याकुल थे कि जैसी योग्य हमारी लड़की है, वैसा ही लड़का मिलना चाहिए। उन्होंने बहुत तलाश किया, पर वे एक बात का अंदाज नहीं लगा सके कि किसका भविष्य अच्छा है? आज कोई आदमी सुखी है। आज कोई आदमी स्वस्थ, नीरोग है। आज कोई आदमी अच्छा है, पर इससे यह अंदाजा तो नहीं लगता कि कल क्या होने वाला है? कल की बात देखनी पड़ती है, फिर लड़की की बात तो जिंदगी भर की है। जिंदगी में आज लड़का अच्छा है, कल खराब हो जाए, कल दुःखी रहे। उसकी उन्नति के द्वार बंद हो जाएँ। बेटी भी परेशान हो और जमाई भी परेशान हो, तो बात कैसे बने? राजा द्रुपद इसी फिक्र में थे कि कोई ऐसा लड़का तलाश करें, जिसका भविष्य अच्छा हो। चाहे आज की स्थिति कमजोर हो, पर भविष्य अच्छा हो।
मित्रो! भविष्य को तलाश करने के लिए उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य को बुलाया और यह पूछा—भगवन्! एक बात बताइए कि यह कैसे मालूम पड़े कि किसी आदमी का भविष्य खराब है या अच्छा है? जन्मपत्री की बात चली, तो उन्होंने कहा कि यह बेकार की बात है। जो ग्रह लाखों-करोड़ों मील दूर रहते हैं, वे आदमी पर क्या असर डाल सकते हैं? अगर डालेंगे, तो सारी जमीन, सारी सृष्टि पर डाल सकते हैं। पूरी मनुष्य जाति पर असर डाल सकते हैं। केवल एक आदमी पर ही दृष्टि डालें, यह गलत है। ऐसा हो नहीं सकता। यह बिलकुल गलत है, बे-सिलसिले की बात है। हम किसी की जन्मपत्री देख करके यह नहीं बता सकते कि इस आदमी का भविष्य खराब है या अच्छा है। हाथ देख करके भी हम यह नहीं बता सकते कि इस आदमी का भविष्य खराब है कि अच्छा है, तो फिर कैसे पता चलेगा कि जिससे हम अपनी लड़की का ब्याह करेंगे, उसका भविष्य अच्छा होगा या खराब होगा। द्रोणाचार्य ने राजा द्रुपद से कहा कि एक बात जिससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि इस आदमी का भविष्य अब खराब होने जा रहा है या अच्छा होने जा रहा है। बताइए साहब! वही उपाय बताइए। द्रोणाचार्य ने कहा कि हमें यह देखना चाहिए कि आदमी मन लगा करके कोई काम करता है, या नहीं। जो आदमी मन लगा करके कोई काम नहीं करता है, तो बेटे, उसमें उसका नुकसान होगा। काम खराब हो जाएगा, गंदा हो जाएगा, उथला हो जाएगा। उसकी निंदा होगी। उसका बॉस नाराज हो जाएगा और यह कहेगा कि हमारा काम बिगाड़ दिया। उसका काम अस्त व्यस्त हो जाएगा और जहाँ कहीं भी जाएगा, असफलता मिलेगी। ऐसा व्यक्ति शरीर से तो काम कर रहा है, पर उसका मन कहीं और घूम रहा है। ऐसे व्यक्ति को सफलता नहीं मिल सकती। राजा द्रुपद! अगर आपको लड़का तलाश करना हो, तो ऐसा तलाश करना, जो मन लगा करके अपने काम में लग जाता हो।
जहाँ मन लगे, वहाँ मिलेगी सफलता
मित्रो! अपने काम से मेरा मतलब भौतिक से भी है और आध्यात्मिक से भी है। आध्यात्मिक सफलताएँ आपको तब मिलेंगी, जब उस काम में आपका मन लगे। अगर मन नहीं लगा, तो बेगार भुगतने के तरीके से, लकीर पीटने के तरीके से कोई भजन-पूजन कर लेंगे, तो इससे क्या परिणाम निकलने वाला है और क्या फल मिलने वाला है? कुछ परिणाम नहीं निकलेगा। लकीर पीटने से किसी को क्या मिला है? कुछ नहीं। लकीर पीटने के हिसाब से घर का कोई काम करते रहें, तो बेटे! क्या मिलने वाला है? कुछ सफलता नहीं मिलेगी, जब तक कि आप उस काम में अपने को घुला नहीं देंगे। गँवा नहीं देंगे। तन्मय नहीं हो जाएँगे।
मित्रो! यही सिद्धांत बहुत देर तक राजा द्रुपद को द्रोणाचार्य समझाते रहे। राजा बोले—महाराज जी! यह बताइए कि मैं कैसे जमाई तलाश करूँ? कैसे अपनी लड़की का ब्याह करूँ? द्रोणाचार्य ने कहा कि इसके लिए कोई परीक्षा रखनी पड़ेगी, जिससे यह पता चलेगा कि कोई आदमी मन लगाकर काम करता है कि नहीं करता। हमको तो मालूम नहीं है कि मन की परीक्षा क्या हो सकती है? उन्होंने एक मछली का इंतजाम किया, जो एक चक्र के ऊपर घूमती थी, जैसे कि पंखा घूमता है। उस पर उन्होंने यह शर्त रखी कि जो कोई मछली की आँख में तीर मार देगा, बस, उसको हम जान लेंगे कि यह व्यक्ति मन लगाना जानता है और निशाना लगाना जानता है। मन लगाना और निशाना लगाना एक ही बात है। मन लगाने और निशाना लगाने में कोई फरक नहीं पड़ता। मन लगाना एक कला है।
मित्रो! स्वयंवर का इंतजाम हुआ। दूर-दूर के राजाओं व राजकुमारों ने सुना कि द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है। हजारों राजकुमार पहुँचे। उन्होंने कहा कि द्रौपदी बड़ी योग्य है, हम उससे शादी करेंगे। द्रोणाचार्य ने कहा—मछली की आँख में आप निशाना लगा सकते हैं, तो द्रौपदी का स्वयंवर हो सकता है और आपके साथ शादी हो सकती है। उन्होंने देखा कि बहुत से राजकुमार आए हुए हैं। इससे बड़ी भीड़ लगेगी और समय भी खराब होगा। आचार्य ने कहा—पहले आप हमारी बात का जवाब दीजिए, फिर हम देखेंगे कि आप निशाना लगा सकते हैं कि नहीं। एक राजकुमार आगे आया।
द्रोणाचार्य ने उससे पूछा—अच्छा, यह बताइए कि चक्र में घूमने वाली मछली की क्या-क्या चीजें दिखाई देती हैं? उसने कहा—हमको मछली की टाँगें दिखाई पड़ती हैं, हाथ-पैर दिखाई पड़ते हैं, सिर दिखाई पड़ता है, तो आप भाग जाइए। आप निशाना नहीं लगा सकते? नहीं साहब! हम तो लगाएँगे, तो लगाकर दिखाइए। निशाना लगाया, पर लगा नहीं। जब आपको सारी मछली दिखाई पड़ती है, तो भला आप निशाना कैसे लगा सकते हैं? दूसरा आया, तीसरा आया, चौथा आया। सबसे सवाल पूछते चले गए और जिन्होंने कहा कि मछली का ये हिस्सा, वो हिस्सा दिखाई देता है, उनको उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि तुम्हें तीर चलाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि तुम्हें सफलता नहीं मिल सकती।
सफलता पाने की कला
मित्रो! सभी राजकुमार भागते चले गए। आखिर में एक लड़का आया। उसने कहा—गुरुदेव! मैं निशाना लगाने की कोशिश करूँगा। बेटे! निशाना लगाने से पहले यह बताओ कि तुमको पानी की छाया में मछली का क्या-क्या है भाग दिखाई पड़ता है? गुरुदेव! हमें तो केवल मछली की आँख दिखाई पड़ती है और कुछ नहीं दिखाई पड़ता। ठीक है बेटे! अपना तीर उठाओ और निशाना लगाओ। अर्जुन ने निशाना लगाया और तीर ठीक निशाने पर बैठा। क्यों साहब! निशाना लगाने की कला ठीक है? बेटे! अच्छा काम करने की और सफलता पाने की दुनिया में कोई कला नहीं है। सफलता पाने की एक ही कला है कि आप सारा मन लगा करके किसी काम में अपने आप को खो देते हैं, गँवा देते हैं, घुला देते हैं। उस काम में इतने तन्मय हो जाते हैं कि आप अपने होश-हवाश गायब कर दें और वही चीज सामने रह जाए और दूसरी रहे नहीं, तो आपको सफलता मिल सकती है। फिर चाहे वे सफलताएँ भौतिक जीवन की हों अथवा आध्यात्मिक जीवन की।
मित्रो! कल मैं आपको तीन कोशों की बाबत बता रहा था। ये तीनों-के कोश हमारे स्थूलशरीर से संबंधित हैं। हमारा एक कोश अन्नमयकोश है, जिसके बारे में बता रहा था। अगर आप अन्नमयकोश ठीक रखें, तो आपकी सेहत अच्छी रह सकती है और लंबे समय तक आप जिंदा १ रह सकते हैं। आलस्य और प्रमाद को हटा देने के पश्चात आप किस तरह से दुनियाबी सफलताएँ पा सकते हैं, इस बारे में मैंने बाटा का हवाला दिया था, हजारी किसान का हवाला दिया था और पिसनहारी का हवाला दिया था।
श्रम का देवता जो अपने पसीने की बूँदों के रूप में हीरे और मोती टपकाता रहता है, आप उन हीरे-मोतियों को समेटकर रख सकते हों, तो मैं आपको यकीन दिला सकता ॐ हूँ कि आप मालदार हो करके रहेंगे। जो भी आपकी मालदारी की इच्छा हो, जैसे कि विद्या की दृष्टि से आप मालदार होना चाहेंगे, तो विद्वान हो जाएँगे। आप पैसे की दृष्टि से मालदार होना चाहेंगे तो पैसे वाले हो जाएँगे। आप शरीर की दृष्टि से मालदार होना चाहेंगे, तो सेहतवाले हो जाएंगे। जो भी आप होना चाहेंगे, हो जाएँगे, पर शर्त यह है कि आप शरीर को बरबाद न करें, तबाह न करें। इसको छेनी हथौड़ा लेकर के आप तोड़ने के लिए खड़े हो गए हैं, कृपा कीजिए, इसको तोड़िए मत। आप इसको बना नहीं सकते, भगवान ने जो शरीर दिया है, आप उस तरीके से, तमीज से रहिए, होशियारी से रहिए, भले मानुष के तरीके से रहिए। इसको बरबाद करने पर उतारू मत रहिए। अगर आप ये कर सकते हों, तो अन्नमयकोश की साधना हो जाएगी।
जो मिला, पहले उसका करें उपयोग
महाराज जी! कोई परोक्ष साधना बताइए। बेटे, मैं बता दूँगा, मेरा प्राण क्यों खाता है? नहीं साहब! कोई ऐसी विधि बताइए, कोई ऐसा जादू बताइए, जो शॉर्टकट से सिद्धि दिला सके। बेटे! जादू पीछे पूछना, जादू पूछने से पहले यह देख कि जो अन्नमय शरीर है, व्यावहारिक जीवन में उसकी उपासना कैसे की जा सकती है। जादू तो जामन है। दूध में जामन डाल देते हैं, तो दही जम जाता है। नहीं साहब! जामन लाइए। बेटे, जामन तो हम ला देंगे, पर पहले तू दूध का तो इंतजाम कर। महाराज जी! दही नहीं है, तो कैसे जमेगा? अच्छा तेरे पास दही नहीं है, तो मैं और तरीके बता सकता हूँ। चाँदी की कोई चीज ले और दूध में डाल दे। चाँदी की वजह से भी दही जम जाएगा। महाराज जी! चाँदी न हो, तो फिटकरी का जरा-सा टुकड़ा ले ले और १ बारीक पीस करके दूध में डाल दे, तो दही जम जाएगा। बाजार में पंसारी की दुकान पर एक तबाशीर आता है। उसे पीसकर दूध में बुरक दे, तो भी दही जम जाएगा। महाराज, जी! अगर कुछ भी न हो तो? तो बेटे! ठंडक में रहने दे, तब भी दूध जम जाएगा।
अच्छा महाराज जी! यह बताइए कि कोई-सा जामन न लाऊँ, तो दूध जमेगा क्या? बेटे! तू तो जामन के ही पीछे पड़ गया है। दूध का इंतजाम है नहीं, दोहनी तेरे पास है नहीं, जमावन है नहीं। फिर क्यों रट लगाए हुए है कि, जामन बताइए, विधि बताइए, साधना बताइए। मित्रो! साधना यह है कि जिसकी वजह से हम आपको बताते हैं कि हमारे पास जो शक्तियाँ हैं, जो सामर्थ्य है, जो साधन हैं, उनका हम, ठीक तरीके से उपयोग कर सकें, तो बेटे! हम निहाल हो सकते हैं। आपको नई चीजें पाने की जरूरत क्या है? जो चीजें पहले से आपके पास हैं, पहले उनको तो इस्तेमाल कर लें। नहीं साहब! नई चीजें दिलवाइए, नया पैसा दिलवाइए। बेटे! हम तुझे नया पैसा दिलवाएँगे, यह हमारी जिम्मेदारी है, पर पहले यह तो बता कि जो पैसा तुझे पहले। से मिलता रहा है, उसको तूने खरच कहाँ किया? बस, हम तेरी तमीज, तेरी औकात, तेरी अक्ल और तेरी पात्रता इस आधार पर आँकेंगे कि तुझे जो मिलता रहा है, उसे तूने खरच कहाँ किया? पहले यह बता।
नहीं साहब! आपको इससे क्या मतलब है? हम चाहे जैसे खरच करेंगे। आप तो बस पैसा दिलवाइए। नहीं, हम नहीं दिलवाएँगे। तू बेकार की बातें करता है। पहले यह बता कि तू इसे कहाँ खरच करता है और किस काम के लिए माँगता है? नहीं साहब! हम चाहे जैसे खरच कर सकते हैं। नहीं बेटे, चाहे जैसे नहीं खरच कर सकते। पैसा पात्रता के हिसाब से मिलता है। गाँधी जी को लोगों ने पैसे दिए। उनमें से एक पैसा जमीन पर गिर पड़ा। बड़ी भारी, भीड़ थी। गाँधी जी जमीन पर बैठ गए और जमीन की रेत, में से उस पैसे को तलाश करने लगे। लोगों ने पूछा—"एक पैसे के लिए आप क्यों समय खराब करते हैं? हम आपको दूसरा पैसा दे देंगे। आप चलिए, यहाँ समय खराब होता है।" उन्होंने कहा—"आपके लिए इस एक पैसे की कीमत कुछ नहीं है, लेकिन जिस आदमी ने अपना पेट काट करके इस जिम्मेदारी से मुझे दिया था, कि मेरे पैसे का सही इस्तेमाल होगा, उसको अब मैं क्या जवाब दूँगा? आप यह बताइए कि जिसने यह समझकर दिया था कि गाँधी इस पैसे का ठीक से इस्तेमाल करेगा और मैं ठीक इस्तेमाल नहीं कर सका। मैंने इसको गुमा दिया। अब मैं उसको क्या जवाब दूँगा?"
मित्रो! आपको तरह-तरह की चीजें माँगने से पहले, तरह-तरह की फरमाइशें करने से पहले यह देखना पड़ेगा कि आपमें इतनी तमीज, इतनी योग्यता और पात्रता है कि कोई चीज भगवान आपको दे, तो भगवान की दी हुई चीजों का आप ठीक से इस्तेमाल कर सकें। आप अपने हाथ-पाँव से कमाइए और बिगाड़िए। भगवान से आपको क्या मतलब है? नहीं साहब! हम तो भगवान जी से माँगेंगे, सिद्धपुरुष से माँगेंगे। हाँ, सिद्धपुरुष और महात्मा भी दे सकते हैं, देवता ॐ भी दे सकते हैं। देते हैं और दे रहे हैं, लेकिन क्या यह बताएगा कि क्यों देते हैं? नहीं महाराज जी! आपको क्या मतलब है?
नहीं बेटे, हमको मतलब है। हम तेरी औकात, तेरा व्यक्तित्व, तेरी तमीज, तेरा ज्ञान और तेरी पात्रता को इस बात से नहीं जान सकते कि तूने क्या कमाया है? लेकिन तूने खरच कैसे किया, यह सीधी बात बताओ। तेरे पास जो अक्ल है, उसे कहाँ खरच करना है? अगर यह बात बता देगा, तो मैं तुझे नई अक्ल दूँगा। नहीं महाराज जी! ज्ञान दीजिए। आपके गुरु ने तो बहुत ज्ञान दिया है। हाँ बेटे, हमारे गुरु ने हमको बहुत ज्ञान दिया है। विद्या के भंडार दिए हैं, लेकिन उससे पहले यह पूछा था कि इस ज्ञान का तू क्या करेगा? जब उन्होंने इस बात का विश्वास कर लिया कि जिस काम में खरच करेगा, तो ज्ञान के भंडार उँड़ेल दिए।
मित्रो! पैसे की बाबत मैं अपना सबूत अपने गुरु को देता रहा हूँ। हम अपने घर में पाँच आदमी रहे हैं। हम और हमारी धर्मपत्नी, एक हमारी बूढ़ी माँ, जो 92 वर्ष की उम्र पाकर उस समय मरीं, जब मैं यहाँ आया। तीन हो गए और दो हमारे बच्चे। कुल पाँच आदमी थे हम। पाँच आदमियों में दो सौ रुपये हम मासिक खरच करते थे। हम गरीब नहीं हैं। हमारे पास दो हजार बीघा जमीन थी। उसका जब पैसा मिला, तो हमने उसे गायत्री तपोभूमि में जमा कर दिया। इससे पहले जब हम घर से आए, तो हमारे पास अस्सी बीघा जमीन थी, जो पाँच हजार रुपये प्रति बीघा के हिसाब से बिकी और उससे चार लाख रुपया आया। उस चार लाख की दौलत को हमने अपने गाँव के हायर सेकेंड्री स्कूल में खरच कर दिया। हम गरीब नहीं हैं। कंगाल नहीं हैं। बेटे, हम अभी भी कुछ काम करने लगें, अपनी कलम की नौकरी करने लगें, तो हमको दो हजार रुपये महीना कोई भी दे सकता है, अगर हम कलम का इस्तेमाल करें तब? हम क्या लिखते हैं? बेटे, हम गजब का लिखते हैं।
अगर हम कुछ करना चाहें और किसी प्रकाशक के लिए लिखने लगे, तो दो हजार रुपया महीना यहाँ घर बैठे दे जाएगा। लेकिन बेटे, हमने गरीबी की जिंदगी जी। क्यों गरीबी की जिंदगी जी? दो हजार रुपये में हमने क्यों जिंदगी जी? एक-एक पैसा हमने, यह समझकर रखा कि, यह कितना कीमती है। हम अपने लिए अनावश्यक कामों में, विलासिता में और दूसरी फजूलखरची में खरच कर दें, उसकी अपेक्षा यह पैसा कहाँ खरच हो सकता है? इसका क्या उपयोग हो सकता है? उसको प्राथमिकता दें। हमारी अक्ल ने यह अध्यात्म हमारे ऊपर लाद दिया।
अध्यात्म की कसौटी
मित्रो! अध्यात्म उस कसौटी का नाम है कि जो कुछ मिला हुआ है, उसकी पात्रता पहले साबित करनी है। नई चीजें मत माँगिए, अपना मुँह बंद कीजिए। सबसे पहले आप यह बताइए कि आप करेंगे क्या? हम जबान की बात, भी नहीं मानते। पहले आप सबूत दीजिए कि आपका व्यक्तित्व इस लायक है कि आप कोई कीमती चीजें, भगवान, के दिए हुए अनुग्रह को पा करके हजम कर सकते हैं या उन्हीं कामों में खरच कर सकते हैं जिसके लिए कि भगवान १ अथवा देवता दिया करते हैं और दे रहे हैं और देंगे। उसमें आप खरच करेंगे, इसका जवाब दीजिए। बेटे, इसका परिणाम क्या हुआ? हमने एक-एक पाई को इस तरीके से खरच किया कि एक पैसा भी हीरे का होता है, मोती का होता है, जवाहरात का होता है।
हमने बहुत किफायतदारी की है। कई बार लोगों ने कहा कि आपको सोलह घंटे काम करना पड़ता है। दिमागी काम करना पड़ता है। आपकी खुराक कुछ होनी चाहिए? मैंने कहा कि हम भगवान का काम करते हैं, तो भगवान खुराक देगा ही। किसी ने माताजी को बता दिया कि आचार्य जी को एक गिलास नारंगी का जूस दिया कीजिए। जाने कैसे उनकी समझ में आ गया? वे एक दिन ले आईं। कई बार तो मैंने मना कर दिया। फिर मेरा भी मन आ गया कि शायद कुछ फायदा हो जाए और ज्यादा काम कर सकूँ।
मित्रो! ऐसी मेरी अक्ल ने गवाही दी। मैंने पहला चॅट पिया और मुझे उलटी हो गई। मेरे ईमान ने कहा कि यह कैसे हो सकता है कि जिस गायत्री तपोभूमि में हम इतने सारे कार्यकर्ता रहते हैं, जो अपना घर छोड़कर आए हैं। जिन्होंने अपने बच्चों को छोड़ा है। जो रूखी रोटी खाते हैं। वे रूखी रोटी खाते रहें और हम संतरे का रस पिएँ, यह कैसे हो सकता है? बेटे, उलटी हो गई। दोबारा मैंने गले में उँगली डाल करके फिर उलटी करने की कोशिश की कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारे गले में और संतरे का रस रह गया हो? जब मुझे विश्वास हो गया कि उलटी से रस पूरी तरह से निकल गया है, तो मैंने एक दिन का उपवास किया और सोचा फिर नहीं पीऊँगा, तो क्या बात थी? किसी ने नहीं दिया था? नहीं, किसी ने नहीं दिया था। हमने पैसे से लिया था, अपने पैसे से नारंगी खरीदी थीं। फिर आपने क्यों नहीं खाया? बेटे, हम नहीं खा सकते थे; क्योंकि जिस समाज में, हम रहते हैं; जिस देश में हम रहते हैं; जिस धर्म और संस्कृति में रहते हैं, वे सब हमारे भाई हैं।
गाँधी जी की पत्नी किसी गाँव में सफाई की शिक्षा देने गईं, तो गाँववालों ने यह कहा कि आप हमें सफाई की। नसीहत देने आई हैं, पर यह बताइए कि हमारे पास एक ही धोती है। इसमें से आधी को हम धो लेते हैं और आधी को पहन लेते हैं। फिर आधी को धोते हैं। अब आप बताइएकि हम सफाई-धुलाई कैसे कर सकते हैं? कस्तूरबा ने गाँधी जी को बताया कि जिस देश में हम रहते हैं, वहाँ इतने गरीब लोग रहते हैं। गाँधी जी की आँखों में आँसू आ गए। और उन्होंने उसी दिन से आधी धोती पहनना और आधी धोती को ओढ़ना शुरू कर दिया। उन्होंने कहा कि जब हम लाखों-करोड़ों लोगों को खुशहाल नहीं बना सकते, जब तक पैसे वाले नहीं बना सकते, तब तक हमको हक नहीं है कि हम अच्छी जिंदगी जिएँ। अच्छी मौज करें, मजा करें, विलासिता भरा जीवन जिएँ।
करुणा का विकास—सच्चा तप
मित्रो! तपश्चर्या यहाँ से प्रारंभ होती है। नहीं साहब! मैं तो एकादशी के दिन उपवास करूँगा, चांद्रायण व्रत करूँगा। हाँ, तू जरूर चांद्रायण व्रत करेगा और एकादशी का व्रत करेगा। निष्ठुर कहीं का, तू क्या एकादशी का व्रत करेगा? यह तो बेटे, करुणा से ताल्लुक रखता है। तेरे अंदर क्या इतनी करुणा है कि दूसरे आदमी, जिनको सहायता की आवश्यकता है, उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तू अपनी विलासिता के मुकाबले में क्या महत्त्व देता है और क्या तरजीह देता है? अपनी बीबी के लिए पाँच हजार रुपये की हीरे की अंगूठी खरीद करके लाया, ठीक है; पर मैं यह पूछता हूँ कि पचास रुपये में एक अंधी बुढ़िया की आँख का ऑपरेशन हो सकता था। मोतियाबिंद का इलाज हो सकता था। बेचारी बुढ़िया पचास रुपये का इंतजाम न कर सकी, सो बची हुई जिंदगी में अंधी बन करके रही। अगर तूने पचास रुपये प्रति बुढ़िया के हिसाब से खरच कर दिया होता, तो सौ बुढ़ियाओं की आँखों में रोशनी पैदा हो गई होती। बेटे! तूने पाँच हजार रुपये की अंगूठी खरीदी है। अपने पैसे से लाया है। चोरी की तो नहीं है, लेकिन चोरी की हो तो क्या और अपनी हो तो क्या? पैसा तुझे मिला था। तूने इसे कैसे खरच किया और कहाँ खरच किया, पहले यह बता दे। तूने अक्ल कहाँ खरच की, मशक्कत कहाँ की? तूने समय कहाँ खरच किया, इसका जवाब दे। अगर इसके पास कोई जवाब है, तो भगवान की तरफ से, सिद्धपुरुषों की तरफ से, देवताओं की तरफ से मैं आपको वचन दे सकता हूँ और आपको शपथ दे सकता हूँ कि हम आपकी आवश्यकताओं को पूरा करेंगे और हम आपको मालदार बना देंगे। लेकिन अपने लिए मालदार बनने के लिए विलासी, लोभी, मोह में डूबा हुआ छोटा आदमी और घटिया आदमी उलटा चलता है। वह देवताओं से माँगता है। देवता तुझे क्या देंगे? नहीं साहब! हमको मालदार बना दीजिए। बेटे! मालदार बनना तेरी अक्ल के ऊपर है। देवताओं के पास मत जाना, नहीं तो तेरी पिटाई होगी।
मित्रो! क्या होता रहा है? मेरे गुरु मुझे बराबर अनुदान, देते चले गए। पैसे की दृष्टि से जब उनने जान लिया कि इस आदमी के हाथ में पैसा देने से कोई जोखिम नहीं है। पैसों का इस्तेमाल ठीक से करेगा। फिर तो बेटे, पैसा मेरे ऊपर कहाँ से बरसता हुआ चला गया? अपनी जिंदगी में मैंने करोड़ों रुपया खरच किया। एक-एक हजार कुंड के यज्ञ किए। जब मैं मथुरा से विदा हुआ था, तब पाँच प्रांतों में पाँच हिंदी भाषी और मिलते-जुलते प्रांतों में एक-एक हजार कुंड के यज्ञ हुए थे। मैं समझता हूँ कि कोई भी यज्ञ ऐसा नहीं रहा होगा, जिसमें पाँच लाख रुपये से कम खरच हुआ हो। बेटे! मैंने एक साल में करोड़ों रुपये खरच करा दिए।
गाँधी जी को तो करोड़ों रुपये आते थे, लेकिन मुझे करोड़ों तो नहीं आते, पर लाखों की तादाद में मुझे भी जरूर आते हैं। मथुरा में एक हजार कुंडीय यज्ञ हुआ था। चार लाख आदमी आए थे। पाँच दिन तक रहे थे। बीस लाख रुपया खाने-पीने में खरच हुआ था और बीस लाख के करीब ही टेंट में, बिजली में, हवन में और पंडाल में खरच हुआ था। कुल चालीस लाख रुपया हुआ था। यह कहाँ से आया था? बेटे! मैं तुझे नहीं बताऊँगा कि कहाँ से आया। कहीं से आया था? लेकिन इनसान का दिया हुआ नहीं था। कहाँ से चला आता है? ऐसी एक शक्ति है, जो प्राचीनकाल में भी थी। त्रेता में भी थी और कलियुग में भी है।
शाश्वत हैं ये सिद्धांत
मित्रो! सूरज सतयुग में भी था, द्वापर में भी था, त्रेता 2 में भी था और कलियुग में भी है। ज्यों-का निकलता है, जैसा कि पहले निकलता था और अब भी निकलता है। चंद्रमा रात को ही निकलता था और ठंडा निकलता था। द्वापर, सतयुग, त्रेता में और अभी भी निकलता है। भगवान अभी भी ज्यों-का है। भगवान की परंपरा ज्यों-की त्यों है, लेकिन इनसान घटिया होता चला गया। मंत्र सारे वही हैं। गायत्री मंत्र वही है। गायत्री मंत्र और कोई नहीं है। जो विश्वामित्र के पास था, वसिष्ठ के पास था, वही है, परंतु बटिया आदमी इस मंत्र का क्या करेगा? घटिया आदमी के लिए मंत्र भी क्या करेगा? इसलिए व्यक्तित्व को परिष्कृत करना आवश्यक है। मंत्र की शक्ति देखने के लिए, भगवान की शक्ति देखने के लिए, अध्यात्म की शक्ति देखने के लिए • व्यक्तित्व का परिष्कार होना आवश्यक है। आपको मैं यही प्रशिक्षण देता हूँ। आप अपना कर्तव्य पूरा कीजिए, हम अपना करेंगे। आप स्कूल जाइए और पढ़कर दिखाइए। मेहनत से पढ़िए। हम बेटे तेरी रोटी का इंतजाम करेंगे और तेरे लिए किताब खरीद देंगे।
मित्रो! चलिए अब हम छोटे मुँह बड़ी बात कहते हैं। चलिए आप जिस उपासना के, जिस साधना के पीछे पड़े हुए हैं, उसे हम पूरी कर देंगे। भगवान जी कैसे पार लगा देंगे? वे पार लगा देंगे। जब युधिष्ठिर सहित पाँचों, पाण्डव हिमालय पर गलने के लिए गए, तो उनमें से चार तो गल गए, पर एक युधिष्ठिर रह गए। उनको लेने के लिए एक विमान आया। आपको शरीर समेत स्वर्ग को चलना चाहिए? उन्होंने कहा—"यह कुत्ता, जो हमारे साथ है, उसका क्या होगा?" कुत्ते तो स्वर्ग में नहीं जाते, केवल आप ही चल सकते हैं? कुत्ता नहीं जाएगा, तो हम भी नहीं जा सकते। आप अपना विमान वापस ले जाइए। विमान वापस चला गया। दोबारा जब देवताओं की सभा, हुई, तो उन्होंने कहा कि युधिष्ठिर कहते हैं कि कुत्ते के बिना हम नहीं जा सकते, इसलिए कुत्ते को भी लाना चाहिए। बेटे! न आप कुत्ते हैं और न हम राजा युधिष्ठिर हैं। हम और आप मित्र हैं और अपनी नाव में बैठा करके हम आपको पार करा देंगे।
मित्रो! हमारे गुरु ने अपनी कमाई का, अपने तप का बहुत सारा हिस्सा हमको दे दिया। अपनी साधना का हिस्सा हमको दे दिया। हम भी उतने निष्ठुर नहीं हैं कि आपको अपनी साधना का अंश और अपनी उपासना का अंश न दें। जिंदा रहें तो क्या और जिंदा न रहें तो क्या? यहाँ रहें तब और हिमालय पर चले जाएँ तब, आपका हक और आपका हिस्सा आपको न दें, ऐसी बात नहीं है। बेटे! हम जरूर देंगे, आपका हक भी देंगे और हिस्सा भी देंगे। उस हक और हिस्से से आपको सिद्धियाँ मिलेंगी। हम वायदा करते हैं कि आपको सिद्धियाँ मिलेंगी, लेकिन बात वहीं आ गई कि, तू इन्हें हजम कैसे करेगा? हम सिद्धियाँ देंगे, लेकिन तू हजम नहीं कर सकता। बच्चे को हम सोहन हलुआ खिला दें, बादाम का हलुआ खिला दें, तो बेटे, बच्चे का पेट जाम हो जाएगा। वह इसे हजम नहीं कर सकता, उसके लिए सुपाच्य चीज देनी चाहिए। तुझे सिद्धियाँ दी तो तू हजम कैसे करेगा? यह बता कि मैं आशीर्वाद दिला हूँ, तो तू हजम कैसे करेगा?
इस जीवन में ही अमृत, पारस, कल्पवृक्ष हैं।
पहले यह सबूत दे दे कि तू हजम कर सकता है, फिर मैं तुझे देना शुरू कर दूँगा। व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए, व्यक्तिगत लोभ के लिए दैवीय शक्तियों का आश्रय नहीं लेना चाहिए। न माँगा जाना चाहिए, न वे देंगी। इसलिए आपको क्या करना पड़ेगा? आपको अपनी पात्रता का विकास करना चाहिए। हमारे पास कल्पवृक्ष है। हम अपना कल्पवृक्ष रूपी जीवन लेकर के आए हैं। अमृत इसी के भीतर भरा 2 पड़ा है। पारस इसी के भीतर भरा पड़ा है। अमृत, पारस और कल्पवृक्ष—तीनों के इसी शरीर के अंदर भरे पड़े हैं, अगर हम ठीक तरीके से इसका इस्तेमाल कर सकें तब।
मित्रो! मैंने शरीर की बात आपको बताई, प्राण की बात बताई। हिम्मत के बारे में बताया। हिम्मत का मतलब चोरी, डकैती से नहीं है। कल आपसे मैं यह निवेदन कर रहा था कि हमारी हिम्मत श्रेष्ठ काम करने के लिए होनी चाहिए। बताया जाता है कि अध्यात्म के मार्ग में बड़ी रुकावटें आती हैं। चारों तरफ से दबाव पड़ते हैं और चारों तरफ से लोग दिखाई पड़ते हैं। चारों तरफ से बहकाने वाले, फुसलाने वाले लोग जहाँ कहीं भी जाइए, आपके मार्ग में अड़ंगा अटकाने वाले मिलेंगे। बेशक, बेटे! बड़ी रुकावटें आती हैं। वे कहाँ से आती हैं? कहीं से नहीं आती, हमारे पड़ोसियों से आती हैं। हमारे घरवालों से आती हैं। हमारे मित्रों से आती हैं और हमारे संबंधियों से आती हैं। वे ही अभागे हमको बार-बार यही कहते हैं कि आपको अच्छे कामों से बाज आना चाहिए और सारी जिंदगी आपको चालाकी और बेईमानी के और किसी काम में खरच नहीं करनी चाहिए। लोभ, मोह के दायरे से जब आप एक कदम
बाहर निकलते हैं, तो आपके हितैषी, शुभचिंतक का बाना पहनने वाले वे ही सबसे बड़े अड़ंगे लगाते हैं और वही व्यवधान बन करके खड़े हो जाते हैं।
हर कदम पर परीक्षा है
यहाँ मित्रो! हमारे मन की कमजोरियाँ भी रुकावट पैदा कर देती हैं। कहती हैं कि अरे साहब! क्या रखा है इन बातों में? चलो अपना दो पैसा कमाएँगे और मौज करेंगे। भजन-वजन तो ऐसे ही तमाशे की चीज है। इससे क्या फायदा है? बेटे! हमारी कमजोरियाँ भी रुकावट डालती हैं। हमारे शुभचिंतक भी रुकावट डालते हैं। ये दो हो गए रुकावट डालने वाले और तीसरा भगवान भी रुकावट डालता है, क्योंकि भगवान भी ऐसा भला आदमी कहाँ है? वह भी यह देखता है कि पहले इस व्यक्ति का इम्तहान ले लो, ठोक-बजा लो।
टके की हाँडी हम खरीदते हैं, तो ठोक-बजा करके खरीदते हैं। क्या पीट रहे हो? मिट्टी की हाँडी पीट रहे हैं। क्या मामला है? क्यों पीटते हैं आप? इसलिए पीटते हैं कि अगर कहीं हाँडी टूटी हुई तब? दरार हुई तब? अगर दरार हुई तो जरा-सा ठोकने पर हमें शक हो जाता है और हम उसे अलग रख देते हैं। अब तो वे रुपये रहे नहीं, जो पहले चाँदी के थे। लीजिए साहब! दो रुपये। टन-टन। आप यह क्या कर रहे हैं? ठोकर मार रहे हैं। किसलिए? इसलिए कि पहले देख लें कि यह खरा है या खोटा है खोटा हुआ तब? खोटा हुआ तो हम नहीं लेंगे। पहले जमाने में रुपया बजाने के लिए जिनके अंगूठे में दम होता था, वे अंगूठे से बजाया करते थे। इसे हमने देखा था। जिनके अंगूठे में दम नहीं था, वे यों ही उछालकर पत्थर पर टन-टन पटकते जाते थे। एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह इस तरह क्रम से पटकते जाते थे और खरे खोटे की पहचान कर लेते थे। अरे साहब! यह खोटा है, इसे वापस लीजिए।
मित्रो! भगवान भी ऐसे ही दुकानदार का नाम है, जो सिक्का अपना लेता है, पहले उसे ठोकता-बजाता है। वह भी एक मुसीबत है। साहब! यह पाँच तोले का जेवर है, आप खरीद लीजिए। लाइए, पहले दिखलाइए। किस भाव, का है? पहले बैठ जा, फिर बताएँगे। क्या करता है? पहले अँगीठी में डालता है, फिर कसौटी पर कसता है, तब बात, करता है। पहले दाम बताइए। बेटे! पहले हम दाम कैसे बता सकते हैं? पहले कस लें कि यह लोहे का है या पीतल का है। नहीं साहब! आप तो दाम बता दीजिए, जैसा भी, कुछ है। नहीं बेटे! पहले ठोंकना-बजाना पड़ेगा। ठोकने बजाने वाली प्रक्रिया न जाने क्यों लोगों ने भुला दी? न जाने, क्यों इसकी आवश्यकता नहीं समझी? न जाने क्यों उपेक्षा करने लगे कि हमारा व्यक्तित्व गंदा बना रहे, तो बना रहे। हम तो भजन करेंगे और भगवान की कृपा पाएँगे। बेटे, ऐसा नहीं हो सकता।
कल मैं यह बता रहा था कि भौतिक जीवन में सफलताएँ पाने के लिए तीन वृक्षों की आपको साधना करनी पड़ेगी। तीन देवताओं की साधना आपको करनी पड़ेगी? जिसमें एक का नाम मैंने आपको बताया था—शरीर। जब आप नीरोग होंगे, तो पैसा भी कमा सकते हैं, स्वास्थ्य भी कमा सकते हैं, मौज-मस्ती और विलासिता भी कर सकते। हैं। रोटी भी हजम कर सकते हैं। दंगल में भी पछाड सकते हैं। वैरी का मुकाबला भी कर सकते हैं।
मित्रो! सिद्धियाँ और चमत्कार शरीर के हैं। महाराज जी! ये सिद्धियाँ और चमत्कार शरीर के हैं, तो इन्हें भगवान देगा? हाँ बेटे, भगवान देगा, लेकिन भगवान का पूजन केवल वस्तुओं से नहीं हो सकता? गुणों और कर्मों के द्वारा होता है। भगवान का पूजन जो हमारे शरीर में कर्मरूप में रहता है, उसका पूजन हमको संयम के आधार पर और श्रम के आधार पर करना चाहिए। श्रम और संयम—इन दो आधारों पर आप शरीर के देवता की उपासना कर सकते हैं, तो बेटे, वह आपको निहाल करेगा, आपको मालदार बनाएगा। आपको समृद्ध बनाएगा, सशक्त बनाएगा। यही तो हम आपको सबेरे के कुंडलिनी योग में सिखाते हैं।
कल हम आपको यह सिखा रहे थे कि सांसारिक सफलताएँ बाद में जाकर के तो आध्यात्मिकता में भी शामिल हो जाती हैं। सफलताएँ किसी भी क्षेत्र में क्यों न हों आगे जाकर के आध्यात्मिकता में प्रवेश कर जाती हैं। चलिए अब तो मैं वहाँ आ गया। कहाँ? चोर और डाकुओं पर आता हूँ। चोर-डाकुओं की डकैती की सफलता की वजह से उन्हें जेल हो जाती है, निंदा होती है और जो रुपया कमा करके वे ले आते हैं, वह साहस की कीमत पर लेकर के में आते हैं। यह साहस का एक आध्यात्मिक गुण है। साहस की कीमत पर लोग जंगलों में चले जाते हैं और रात में पड़े रहते हैं, विराने में पड़े रहते हैं। अकेले पड़े रहते हैं। अकेले चलते रहते हैं। मार-पीट हो जाए तो; कोई कुछ छीन ले तो; सिर काट डाले तो; कुछ भी हो सकता है, पर हिम्मत-सो। हिम्मत के आधार पर डाकू से लेकर चोर तक और जेबकतरों से लेकर बेईमानों तक, सब हिम्मत के आधार पर रोज दुस्साहस करते हैं और कमाकर लाते हैं। बेटे, यह साहस है, तू समझता नहीं है क्या?
आध्यात्मिकता का आधार—साहसिकता
मित्रो! यही साहस है, जो आगे जाकर के आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश हो जाता है, तो सारी दुनिया एक ओर १ रहती है और हिम्मतवाला आदमी एक ओर रहता है। समर्थ गुरु रामदास जी की शादी होने लगी तो उन्होंने कहा कि हमको अपनी जिंदगी अच्छे कामों के लिए व्यतीत करनी है, पर यह सलाह कौन देगा? सारे-के सलाहकार एक ओर, मौसा-मौसी, नाना-नानी, दादा-दादी सब एक कोने पर खड़े रहे। समर्थ गुरु रामदास ने कहा अपनी जिंदगी से मुझे कुछ महत्त्वपूर्ण काम करना है, तो यह परिवार रोज सँभालूँगा या समाज को, देश को सँभालूँगा?" बस, समर्थ गुरु रामदास को ख्याल आ गया और वे छलाँग मारकर ये गए, वो गए। पकड़ना .....पकड़ना। वे खेतों में होकर भाग गए। बेटे! यह बात हिम्मत और कमाल की है। किसी सिद्धांत और आदर्श को पूरा करने के लिए आपके भीतर हिम्मत है? रोज विचार करते हैं और रोज काँप जाते हैं। हिम्मत के धनी चाहे वे डकैत हों; चाहे समर्थ गुरु रामदास हों; चाहे वे शंकराचार्य हों। अथवा कोई और हों; चाहे वे नेपोलियन बोनापार्ट हों, सफलताएँ हिम्मत के ऊपर टिकी हुई हैं।
प्राणवान का अर्थ है—साहसी और हिम्मती
मित्रो! हिम्मत को मैंने प्राणमयकोश के आधार पर आपको समझाने की कोशिश की थी। अध्यात्म की भाषा में, इन चीजों के अच्छे-अच्छे और रहस्यमय नाम बना दिए गए हैं। प्राण क्या होता है? बेटे! इसी को प्राण कहते हैं, जिसका नाम है—साहस और हिम्मत। मैंने आपको बताया था कि हमारा प्राणमयकोश ही हिम्मतवाला शरीर है। ताँतिया डाकू की बड़ी हवा थी। उसको 150 वर्ष की जेल हुई थी। जिन दिनों वह जेलखाने में था, तो लोगों ने जेलर से कहा कि साहब! हमको भी दिखा दीजिए। अच्छा, जेलखाने में दिखाएँगे। एक दिन जेलर ने कैदियों को इकट्ठा कर लिया और कहा कि यह है ताँतिया। उसका नाम कुछ और था। ताँत माने रूई धुनने की दुबली-पतली रस्सी होता है। वह ऐसा ही दुबला-पतला था। लंबे बाँस जैसा दुबला था। हड्डियाँ चमड़ी तक दीख रही थीं। ताँतिया डाकू यही है ?हाँ, यही है। इसने सैकड़ों डकैतियाँ डाली हैं।
सब लोगों ने कहा—"साहब! यह ताँतिया नहीं है, न जाने किसने कैसे इस पर मुकदमा चला दिया, यह ताँतिया नहीं हो सकता। यह इतने बड़े काण्ड और कमाल कैसे कर सकता है ?" ताँतिया डाकू ने कहा—"हजूर! अगर थोड़ी देर के लिए मुझे हुक्म दे दें और मेरी हथकड़ी खोल दें, तो मैं अपना कमाल दिखा सकता हूँ।" कमाल दिखाइए, क्या दिखा सकते हैं? लोगों ने देखा कि चारों तरफ जेलखाना है। इतनी बड़ी ऊँची दीवार है। चारों तरफ बंदूकवाले सिपाही खड़े हैं। यह क्या कमाल दिखाएगा? दिखाइए।
बस, जिस तरह से मौत के कुएँ में मोटर साइकिल, चलती चली जाती है, ऐसे ही वह भागता हुआ चला गया और 12 फुट ऊँचाई वाली दीवार के ऊपर जा बैठा और बोला—"बताइए हजूर! उछल करके इधर को आऊँ या उधर को जाऊँ?" जेलर ने कहा—"इधर को ही आ जाइए, उधर मत जाओ। उधर में आपके लिए भी जोखिम है और हमारे लिए तो है ही। दोनों के लिए जोखिम है, इसलिए भलाई इसी में है कि आप इधर ही आ जाइए।" वह कूदकर इधर आ गया। ताँतिया डाकू कमाल का था।
मित्रो! हिम्मत किसी में भी हो सकती है। आप में भी हो सकती है, अगर आपके भीतर हिम्मत हो तब। वास्तव में यह शरीर की गलती नहीं है। असल में कमी है आपकी हिम्मत की। हिम्मत वाले आदमी न जाने दुनिया में क्या-क्या कमाल करते गए, न जाने कहाँ-से जाते रहे। बेटे! उसी हिम्मत के लिए मैंने प्राणमयकोश की साधना के लिए आपसे कहा था। मनोमयकोश अर्थात मन, जिसको आप निगृहीत कर सकें, संगृहीत कर सकें और उसे एक काम में लगा सकें। कल मैंने आपसे ईमानदारी की बात कही थी और आपसे तन्मयता एवं जिम्मेदारी की बात कही थी, जो मन लगाकर काम करने की बात थी। इसको साध लेने पर आपको सांसारिक जीवन में जरूर सफलता मिल जाएगी। यह तीन कोश स्थूल हैं। अगर आपको सांसारिक जीवन की सफलताएँ पानी हों, तो आपको इन तीनों को ठीक करना पड़ेगा। आपको शरीर की दृष्टि से संयमी होना पड़ेगा और अपनी हिम्मत की दृष्टि से साहसी होना पड़ेगा और मानसिक दृष्टि से अपने कामों में तन्मय हो जाने वाला, जिम्मेदार और ईमानदार आदमी बनना पड़ेगा। इतना काम अगर आप कर सकते हों, तो आपको हर काम में सफलता मिलेगी।
जिम्मेदारी है आध्यात्मिक गुण
मित्रो! कल मैंने आपको बाटा का नाम बताया था। वेस्टन वॉच कंपनी का नाम भी मैं कभी-कभी लिया करता हूँ, जिसका शेयर किसी जमाने में सौ रुपये का था और अब दो हजार का है। वह कंपनी अब बीस गुना ज्यादा मुनाफा कमाती है। इसलिए कमाती है कि उसने ईमानदारी और मशक्कत के साथ में, ध्यान देने के साथ काम किया। दूसरी घड़ियाँ बनाने वाली कंपनियाँ ऐसे ही उलटी-पुलटी घड़ियाँ बनाकर बेच देती हैं। कोई ठिकाना नहीं है कि फास्ट चलेंगी या स्लो चलेंगी। वेस्टन वॉच कंपनी के ऑफिस की दीवारों पर घड़ियाँ टँगी रहती हैं और अगर चौबीस घंटे में एक सेकंड का भी फरक पाया जाता है, तो घड़ी उतार ली जाती है और रिबिल्ट करने के लिए भेज दी जाती है। जब ठीक हो जाती है, तो फिर से दीवार पर टाँग दी जाती है।
चौबीस घंटे में फिर भी अगर एक सेकंड का फरक पाया गया, तो तब तक वह कंपनी में सौ बार टेस्ट होगी और जब तक सौ फीसदी ठीक नहीं होगी, रिलीज नहीं की जाएगी। यही विश्वास, ईमानदारी और जिम्मेदारी आपके पास होनी चाहिए। आप ज्यादा मुनाफा कमा भी लें, चलिए मैं यह भी मानता हूँ, तो भी कोई आदमी मना करने वाला नहीं है। वेस्टन वॉच कंपनी की घड़ी के लिए लोग खड़े रहते हैं कि इस कंपनी की घड़ी कब आएगी? साहब! कोटा थोड़ा है। इस महीने तो नहीं, अगले महीने के लिए। आपका आर्डर नोट कर लेते हैं। आप अगले महीने पता लगा लेना, आएगी तो आपको भी दे देंगे। हर डीलर यही कहता है।
मित्रो! इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यही है कि किसी काम में आप जिम्मेदारी और तन्मयता को मिला सकते हों, तो फिर आप कमाल देखिए, गजब के चमत्कार देखिए, सिद्धियाँ देखिए। बेटे, यही सिद्धि है, यही चमत्कार है। लौकिक जीवन में, भौतिक जीवन में अन्नमयकोश, मनोमयकोश, प्राणमयकोश—ये तीन कोश हैं, जो आदमी को सांसारिक सफलताएँ दिया करते हैं। दो कोश और हैं, जिनको हम आध्यात्मिक कोश कहते हैं। इनका नाम विज्ञानमयकोश और आनंदमयकोश है। ये दोनों वे कोश हैं, जो मनुष्य को देवता बनाते हैं। मनुष्य से भगवान बनाते हैं और मनुष्य का स्तर अवतारी जैसा, ऋषि जैसा, देवात्मा जैसा, महामानव जैसा बना देते हैं। ऐसा बना देते हैं कि भगवान उसके ऊपर छाया करते हुए चलते हैं। किस तरह से? बॉडीगार्ड के तरीके से, पायलट के तरीके से आगे-आगे चलते हैं और अंगरक्षक के तरीके से पीछे चलते हैं। पी० ए० और सेक्रेटरी के तरीके से, जैसे मिनिस्टरों के पी० ए० और सेक्रेटरी दाएँ-बाएँ चलते हैं, उसी तरीके से भगवान हमारे चारों तरफ चलते हैं, अगर हमारा विज्ञानमयकोश जाग्रत हो जाए तब।
विज्ञानमयकोश किसे कहते हैं? बस, बेटे! हृदय में, ध्यान कर। उसमें ऐसी-ऐसी हलचलें हो रही हैं। तो महाराज जी! इससे हो जाएगा? नहीं बेटे, इससे नहीं होगा। फिर क्या होगा? आप अपने जीवन में हृदयचक्र को जगाइए जिसको जाग्रत करने के लिए हम आपसे कहते हैं। आप अपनी सहृदयता को जगाइए। महाराज जी! अगर हम अपनी सहृदयता को जगा लेंगे, तो लोग हमको ठग ले जाएँगे और हमसे नाजायज फायदा उठा लेंगे। हाँ बेटे! यह भी संभव है। यह भी जोखिम है, लेकिन आखिर में अगर समझदारी से काम लेगा, तो लोग अनुचित फायदा नहीं उठाएँगे। जो आदमी उसके पात्र हैं, वही फायदा उठाएँगे। चलिए एक बार के लिए मैं यह भी मान लूँ कि आपसे कोई अनुचित फायदा उठा ले जाएगा, तो भी—आप नफे में रहेंगे। कैसे—
साई आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठगा सुख ऊपजे, और ठगे दुःख होय॥
चलिए गलती से, बेवकूफी से ठग भी जाएँ और आप घाटे में भी रहें, तो भी मैं यह कहता हूँ कि आप शालीनता की वजह से, सज्जनता की वजह से, जो शालीनता और सज्जनता की प्रतिक्रिया होगी, उससे आप निहाल होते हुए चले जाएँगे और जो व्यक्ति आपसे अनुचित लाभ उठा ले गया है, वह मरेगा। वह नष्ट होगा और वह हजम भी नहीं कर सकेगा और समाप्त हो जाएगा। बेटे! आपकी सज्जनता आपके लिए फिर भी बनी रहेगी। इसका मतलब यह नहीं है कि मैं यह कहने जा रहा हूँ, दुष्टों को और दुराचारियों को, ठगों को और बेईमानों को आपको मदद करनी चाहिए, हिमायत करनी चाहिए और उनके साथ पेश आना चाहिए। नहीं बेटे, मैं ऐसा नहीं हूँ, ऐसा हिमायती नहीं हूँ, मैं तो उन्हीं लोगों में से हूँ, जो हमेशा से यह कहते रहे हैं कि अपनी अंदर की प्राणशक्ति जगाकर आत्मावलम्बी बनिए।
धर्म की स्थापना में सहायक बनें
मित्रो! भगवान के अवतार दो उद्देश्यों को ले करके हुए हैं—एक अधर्म का नाश करने के लिए और दूसरा धर्म की स्थापना करने के लिए। आपको धर्म की स्थापना से बहुत ही प्यार होना चाहिए। सहकारी होना चाहिए और सहायक होना चाहिए और अच्छा होना चाहिए, लेकिन जहाँ आपको अनीति दिखाई पड़ती हो, वहाँ आपको बड़ा क्रोधी होना चाहिए। वह क्रोध भी आध्यात्मिकता में शुमार है—मन्युरसि मन्यु मे देहि। हे भगवान! आप मन्यु हैं और हमको मन्यु दीजिए। आप क्रोध करने वाले हैं और हमको आप क्रोध करना सिखाइए। आप रुद्र हैं और हमको रुद्रपन सिखाइए, ताकि हम अनीति के विरुद्ध, अवांछनीयता के विरुद्ध चाहे वह हमारे भीतर निवास करती हो, चाहे हमारे व्यवहार में, चाहे हमारी वाणी में निवास करती हो, अथवा हमारे पड़ोस में, समाज में कहीं भी निवास करती हो, हम अनीति से जरूर लड़ेंगे। हम किसी भी तरीके से नहीं मानेंगे।
भगवान राम ने जहाँ मर्यादाओं की स्थापना की, भाई के लिए राज्य दे दिया। जहाँ श्रेष्ठता ही है, वहाँ सब कुछ किया, पर जहाँ ऋषियों के अस्थि-समूह को देखा तो दोनों हाथ उठा करके प्रतिज्ञा की—"निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।" "सुनि रघुवीर नयन जल छाए।" भगवान की आँखों में जल आ गया। उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जिन लोगों ने ऋषियों की हड्डियों को जमा किया है, जिन्होंने ऋषियों को खाया है, सताया है, उनको हम—"निसिचर हीन करउँ महि" अर्थात निसिचरों को हम पृथ्वी पर रहने नहीं देंगे।
मित्रो! यह मन्यु है और जरूरी भी है। यह आध्यात्मिकता का एक अंश है, अंग है। हम समग्र आध्यात्मिकता को विकसित देखना चाहते हैं और जीवंत देखना चाहते हैं। इसलिए बेटे आपको सिखाते हुए चले आ रहे हैं। अगर आपको भौतिक उन्नति की आवश्यकता हो तो आपको अपने शरीर, मन और प्राण—इनको सशक्त और समर्थ बनाना चाहिए। आध्यात्मिकता का लाभ प्राप्त करना हो तो कोमलता के साथ में, करुणा के साथ में जो कोश जुड़े हुए हैं, उन्हें जाग्रत करना चाहिए। उन्हें मैं बाद में बताऊँगा लेकिन पहले यह बताऊँगा, कि संसार आपके ऊपर छाया हुआ है। संसार की सफलता आपके ऊपर हावी है तो पहले अपने आप को ठीक कीजिए, फिर उसका कमाल देखिए। बेटे! मुझे तो अपनी सांसारिक सफलता की बाबत याद है। मेरी जो कुछ भी सांसारिक सफलता आपको दिखाई देती है; गुरुजी में कोई सांसारिक चमत्कार है और सांसारिक विशेषताएँ हैं, उनका कारण क्या है ?
गुरुदेव के सांसारिक गुरु
मित्रो! सांसारिक सफलताओं की यह शिक्षा, मेरे गुरु जो हिमालय पर रहते हैं, उनकी दी हुई नहीं है। उनकी तो दूसरी शिक्षाएँ हैं, लेकिन सांसारिक शिक्षा देने वाले मेरे एक सांसारिक गुरु भी हैं। मेरे कई गुरु हैं। दत्तात्रेय के चौबीस गुरु थे। चौबीस तो नहीं, पर मेरे भी कई गुरु हैं। उनमें से एक गुरु ऐसे भी हैं, जिन्होंने मुझे सांसारिक सफलताओं का है रहस्य ऐसे तरीके से समझा दिया कि मैं सांसारिक दृष्टि से अगर सफल हूँ तो उसका सारा श्रेय उसी आदमी को मिलेगा, जिसने मुझे वह नसीहत दी। सांसारिक सफलता की नसीहत किसने दी? बेटे! तब मैं 13-14 वर्ष का रहा होऊँगा। उन दिनों सन् 1921 में आरंभ हुआ स्वराज्य आंदोलन बड़े जोरों से चल रहा था और गाँधी जी के बारे में गाँव-गाँव में बड़ी अफवाह थी।
एक अफवाह यह थी कि गाँधी जी में बड़ा जादू है, बड़ा चमत्कार है। उन्हें अँगरेज पकड़ते हैं और वे जेलखाने में से भाग जाते हैं। गाँधी जी जहाँ कहीं भी जाते हैं, हर आदमी उन्हें माला पहनाता है और खूब रुपया बरसाता है। मेरे मन में भी बैठे-बैठे एक दिन बात आई कि मुझे भी कोई गिरफ्तार करे और मेरी माँ मुझे पकड़े तो खटाक से छुड़ाकर भाग जाऊँ। ऐसा हो जाए तब? और मास्टर साहब जब किसी दिन गलती हो जाए और पकड़ने के लिए आएँ तो मैं खट् से गायब हो जाऊँ, जैसे गाँधी जी जेलखाने में से गायब हो जाते हैं। स्कूल में से लड़का कहाँ गया? भाग गया। बस, मजा आ जाए। अगर मुझे भी यह सिद्धि आ जाए तो मैं जहाँ कहीं भी जाऊँ तो फूलमाला ही मेरे गले पड़े और जहाँ कहीं भी जाऊँ, बस, लीजिए रुपये-लीजिए रुपये। फिर मैं नौकरी क्यों करूँगा? क्यों खेती-बारी करूँगा? गाँधी जी की तरह से मेरे ऊपर रुपया ही बरसेगा। फिर चाहे जो करूँगा और चाहे जो लाऊँगा।
मित्रो! एक दिन मेरे मन में ख्वाब आया कि मैं गाँधी जी हो जाऊँ तो कितना अच्छा होगा, फिर विचार आया कि गाँधी बनना कौन सिखाएगा? गाँधी बनना तो महात्मा गाँधी ही सिखा सकते हैं और कोई नहीं सिखा सकता। मैं गाँधी जी के पास जाऊँगा और यह कहूँगा कि महाराज जी! आप सारी जादू विद्या, योग विद्या और प्राणायाम विद्या मुझे सिखा दीजिए तो मैं भी गाँधी बन जाऊँ। मेरे मन में कई दिनों तक ऐसे ख्वाब आए, विचार घूमते रहे। फिर मैंने गाँधी जी को एक चिट्ठी लिखी कि मैं आपके आश्रम में रहना चाहता हूँ और आपकी सेवा करना चाहता हूँ और मैं संत बनना चाहता हूँ। 14-15 वर्ष का बच्चा था, न जाने क्या-क्या है लिख दिया।
वह चिट्ठी साबरमती अहमदाबाद के आश्रम में जा पहुँची और गाँधी जी के सेक्रेटरी ने, या न जाने किसने जवाब दे दिया। उन्होंने लिखा कि आप आइए और यहाँ आश्रम में तीन महीने रहिए। बस, मैंने अपने घरवालों को, गाँववालों को बुलाया और कहा—तुम सब अब मेरा कमाल देखना, मेरा चमत्कार देखना। तीन महीने बाद आऊँगा और तुममें से कोई मुझे मकान में बंद करेगा। और मैं खट् से गायब हो जाया करूँगा। फिर देखना कि तुम लोग जो कमाते हो या जिसके घर में जो भी पैसा है, जब मैं वापस आऊँगा, तुम लोग सारा पैसा मुझे दे दोगे और खाली हाथ हो जाओगे। लोगों ने कहा—यह तो पागल हो गया है। इसका दिमाग खराब हो गया है। नहीं, दिमाग खराब नहीं हो गया है। जब गाँधी जी का दिमाग खराब नहीं है तो हमारा दिमाग क्यों खराब है। हम तो गाँधी जी बनेंगे।
मित्रो! बस मैं चल पड़ा। बहुतों ने रोका। पिताजी का तो स्वर्गवास हो गया था। माताजी थीं, पर माताजी की कौन सुनता है। मैं तो चल ही दिया और जा करके साबरमती आश्रम में पहुँचा। मित्रो! पौने तीन महीने तक मुझे संडास साफ करना, झाड़ लगाना, अमुक काम करना, बरतन साफ करना—ये सारे-के आश्रम से संबंधित काम करने में पड़े, जैसे आप लोग एक घंटा श्रमदान करते हैं। बस, उसी तरह से मुझे चौबीस घंटे वही काम करना पड़ा। भजन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा कुछ नहीं। केवल गाँधी जी जब प्रार्थना करते थे, हम भी जा बैठते थे और उनके साथ-साथ जो वे कहते, हम भी कहते रहते थे। कुछ हिंदी में बोलते, कुछ गुजराती में बोलते थे। मुझे गुजराती तो आती नहीं थी, वे जो कुछ कहते उसे दोहरा लेते थे।
ऐसे ही पौने तीन महीने निकल गए। फिर मैंने सोचा, कि अब कुछ समय बाद घर जाऊँगा, अगर रुकूँगा तो यही सब सिखाएँगे—झाड़ लगाना, संडास साफ करना। तो मैं क्यों रहूँ यहाँ? मैंने पूछा—ज्यादा दिन रहने देंगे या नहीं? कहा—जितनी आज्ञा मिलती है, उतने दिन ही रहना है। अब मैं विचार करने लगा कि मेरे घरवाले मुझे यह कहेंगे कि मैंने इतना किराया खरच किया इतना समय खरच किया और क्या सीखा तो क्या जवाब दूँगा। मैं महादेव भाई देसाई के कमरे के पास चला गया। वे गाँधी जी के सेक्रेटरी थे। मैं चुपचाप खड़ा हो गया। मैं छोकरा ही था। महादेव भाई को फुरसत मिली तो उन्होंने मुझे देखा और पूछा—क्या बात है, कैसे खड़े हो?
मैंने कहा—मैं कुछ कहना चाहता था, पर हिम्मत नहीं पड़ती है। उन्होंने कहा—आ जाओ और जो कहना है कहो। मैंने कहा कि मैं इस ख्याल से आया था कि मैं योगी हो जाऊँगा, महात्मा हो जाऊँगा और सिद्धपुरुष हो जाऊँगा, पर तीन महीने में तो कुछ नहीं हुआ। मेरे वापस जाने के दिन पास आ गए हैं। मैं गाँववालों को, घरवालों को क्या जवाब दूँगा, यह बात मेरे मन में चल रही है। इसलिए आपके पास आया। महादेव भाई देसाई ने सूखे मुँह से कहा—देखो भाई! हम तो उनके सेक्रेटरी हैं। हम तो टाइप करते हैं, चिट्ठियाँ लिखते हैं। न हम सिद्ध हैं, न महात्मा। टाइप करना, चिट्ठियाँ लिखना सीखना चाहो तो हमारे पास आ जाओ। हम सिखा सकते हैं। महात्मा बनना हो तो वे ही सिखा सकते हैं। गाँधी जी महात्मा हैं, हम तो हैं नहीं।
मैंने कहा—साहब! उन्हीं से मिला दीजिए। हम कैसे मिल सकते हैं ? रामचंद्र जी से मुलाकात के लिए गोस्वामी जी को हनुमान जी की और हनुमान जी से पहले भूत की जरूरत पड़ी। हमें गाँधी जी से सीधे कौन मिलने देगा? उन्होंने कहा कि हम आपकी मुलाकात का इंतजाम किए देते हैं। कल आप गाँधी जी के साथ टहलने चले जाएँगे। गाँधी जी टहलने के लिए जाते थे तो लोगों को अपने साथ ले जाते थे। मेरा नंबर लगा दिया। मैं फाटक पर ठीक पाँच बजे खड़ा हो गया। गाँधी जी टहलने के लिए चले। उन्होंने इशारा किया और मैं उनके पीछे-पीछे चलने लगा। थोड़ी दूर जाकर वे मेरी ओर मुड़े और मेरी तरफ देखा। बोले तुम ही वो लड़के हो, जो गाँधी जी बनने आए थे। योगी, महात्मा बनने आए थे। हाँ साहब! मैं ही हूँ। अच्छा तो किसी ने तुमको महात्मा गाँधी बनाया कि नहीं बनाया।
गाँधी जी की शिक्षा
मित्रो! मैं बच्चा था, इसलिए वे भी मजाक करने लगे। नहीं साहब! किसी ने नहीं बनाया। तो क्या-क्या सिखाया? हमने कहा—साहब! सबसे पहले संडास साफ करना सिखाया, झाड़ लगाना सिखाया और कुछ नहीं सिखाया। तो हम बताते हैं कि जो काम तुम सीखने आए थे, वही काम सिखाने के लिए हमने यह आश्रम बनाया है और जो कुछ भी हम कराते हैं, वह सब उसी का योगाभ्यास है, जो तुम सीखना चाहते थे। क्या मतलब? उन्होंने मुझे एडीसन नामक एक वैज्ञानिक की कथा सुनाई, जिसकी माँ यह चाहती थी कि हमारा लड़का वैज्ञानिक बन जाए, लेकिन वह इतनी गरीब थी कि पैसे खरच नहीं कर सकती थी।
वह चाहती थी कि कोई वैज्ञानिक इस लड़के को नौकर रख ले और वैज्ञानिक बना दे, परंतु किसी ने उसकी बात को मंजूर नहीं किया। एक वैज्ञानिक के पास गई। उसने कहा कि पहले हम यह देख लें कि तुम्हारे लड़के में वह गट्स है कि नहीं। अगर होगा तो रख भी लेंगे और वैज्ञानिक भी बना देंगे। उन्होंने बच्चे के हाथ में झाड़ थमा दी। गाँधी जी ने यह किस्सा मुझे सुनाया। लड़के से कहा कि झाड़ लगाओ। वैज्ञानिक एक कोने में बैठा देखता रहा। लड़के ने ऐसी झाड़ लगाई कि कमरे के कोने में जहाँ मकड़ी के जाले थे, साफ कर डाले और मेज के जो गुटके होते हैं, उन पर जो धूल जम रही थी, बारीकी से, साफ कर दी। हर चीज को व्यवस्थित कर डाला। झाड़ तो रोज लगती थी, पर उस दिन की झाड़ से कमरे में गजब की चमक आ गई। वैज्ञानिक ने कहा—ठीक है इसके अंदर गट्स है और इसे हम जरूर वैज्ञानिक बना देंगे। एडीसन का नाम वैज्ञानिकों में आज अग्रगण्य है।
मित्रो! महात्मा गाँधी जी की योगाभ्यास की वह व्यावहारिक शिक्षा मेरे जीवन का अंग बन गई। आप मुझे लिखता हुआ देखते हैं। आप अपना काम करते रहिए। पास से निकल जाइए, घड़ी उठा ले जाइए, पैड उठा लीजिए, फिर भी देखेंगे कि मैं उसी मुस्तैदी के साथ अपना काम, करता हूँ। मुझे पता नहीं है कि कौन आया और कौन चला गया। मैं पूरी तरह से अपने काम में मुस्तैद रहता हूँ। यह विधि मैंने गाँधी जी से सीखी थी कि जो भी मुझे काम करना हो, उसी तरीके से करना चाहिए। मेरे स्वभाव में यह हेर फेर, मेरे स्वभाव की यह नवीनता मैंने गांधी जी के आश्रम में जा करके सीखी, जो अभी तक विद्यमान है। बेटे! उस समय तो मैं गाँधी नहीं हुआ, पर उस समय जो मेरी गाँधी बनने की इच्छा थी, वह सौ फीसदी पूरी हो गई। हिंदुस्तान से ले करके विदेशों में जहाँ कहीं भी गया और लोगों ने देखा, कि आचार्य जी की वाणी सुनने के लिए लोग हजारों की संख्या में नहीं, लाखों की संख्या में आते हैं।
भीड़ जुटाने के लिए लोग ट्रक, बसें ले करके जाते हैं। रेलगाड़ियों में फ्री टिकटों का इंतजाम करते हैं। जनता को बुलाते हैं। स्कूलों की छुट्टी कर देते हैं। सी.आई.डी. और पुलिसवालों को जमा कर लेते हैं, ताकि नेता जी को मालूम पड़े कि कितनी बड़ी भीड़ है। अभी की बात है। अटल बिहारी वाजपेयी जी यहाँ के मिनिस्टर हुए हैं। किसी ने उनसे कहा कि आचार्य जी के बारे में आपको जानकारी है? अरे साहब! आचार्य जी के बारे में जानकारी क्यों नहीं होगी? कैसे? अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा—हम एक बार दिल्ली से बड़ौदा जा रहे थे, उसी गाड़ी से आचार्य जी बम्बई जा रहे थे। हमने देखा कि दिल्ली से ले करके हर स्टेशन पर लोग मिलने आए।
व्यक्तित्व का विकास—सर्वोपरि आवश्यकता
मित्रो! हमारे विकास में सबसे बड़ी बाधा, सबसे बड़ी कमी यह है कि हमने अपने व्यक्तित्व को सुधारने के लिए कोशिश नहीं की। अगर आपने अपने व्यक्तित्व को सँभालने की कोशिश की होती तो बेटे यही कल्पवृक्ष होता। कौन-सा? हमारा व्यक्तित्व, देवता इसी में निवास करते हैं। भगवान इसी में निवास करते हैं। सारी-की सिद्धियाँ और चमत्कार, जिनको आप बाहर तलाश करते हैं, वे बाहर नहीं हैं, हमारे भीतर निवास करती हैं। जिन चीजों की आपको तलाश हैं और जिन्हें आप चाहते हैं, वे सब अपने ही भीतर समाहित हैं। कस्तूरी का हिरन चाहता है कि हमको सुगंध मिले। भागता तो है, दौड़ तो लगाता है, लेकिन वह खाली हाथ रह जाता है। उसकी इच्छा तब पूरी होती है, जब वह अपनी नाक को अपनी नाभि से लगा करके चैन से सूँघता है तो महसूस करता है कि खुशबू तो हमारे भीतर से ही आ रही थी।
बेटे! हमारे भीतर से ही सब कुछ आता है। मुसीबत हमारे भीतर से आती है। बीमारियाँ हमारे भीतर से आती हैं। क्लेश और द्वेष हमारे भीतर से आते हैं। रोष-निंदा हमारे भीतर से आते हैं। ये प्रतिक्रियाएँ हैं। जिन चीजों को आप मुसीबत समझते हैं, वे मुसीबत नहीं हैं, प्रतिक्रिया हैं। बीमारी क्या है? हमारे भीतर की गंदगी की प्रतिक्रिया है। मच्छर-मक्खी क्या हैं? कीड़े क्या हैं? कुछ भी नहीं, गंदगी की प्रतिक्रिया हैं। अगर गंदगी बनी रहेगी तो मच्छर जरूर पैदा होंगे। मक्खियाँ जरूर पैदा होंगी, कीड़े जरूर पैदा होंगे और दूसरी चीजें जरूर पैदा होंगी। गंदगी जब तक आपके पास कायम है, तब तक बेटे आपके खिलाफ वाली प्रतिक्रियाएँ और परिस्थितियाँ जरूर आती रहेंगी। इन्हें कोई नहीं रोक सकता। अगर रोकना है तो अपने आप को साफ कीजिए, अपने आप को ठीक कीजिए। बाहर की परिस्थितियाँ ठीक करें, बेटे! हम सुधार देंगे, लेकिन भीतर वाली परिस्थितियाँ अगर ज्यों-की बनी रहीं तो बाहर वाली सहायता और बाहर वाले सहकार से, आपका कैसे भला हो सकता है।
मित्रो! जो मदद भगवान शंकर ने भगीरथ की की थी, वही मदद भस्मासुर को दी थी। जो मदद शंकर जी ने अन्य किसी की की होगी, वही मदद शंकर भगवान ने रावण की भी की थी। रावण की मनोकामना पूर्ण करने के लिए आशीर्वाद दिया। कंस को भी दिया, हिरण्यकशिपु को भी दिया और कुम्भकरण को भी दिया, लेकिन अपनी भीतरी कमजोरी की वजह से शंकर जी का वरदान, शंकर जी का आशीर्वाद इनका कुछ भी भला नहीं कर सका। मित्रो! हमें अपनी कमजोरियों को दूर करने के साथ-साथ यह भी देखना पड़ेगा कि हमारा आध्यात्मिक जीवन श्रेष्ठ गुणों की वजह से, जिन शालीनताओं की वजह से, जिन विशेषताओं, की वजह से उन्नतिशील नहीं हो पा रहा था, उनको हमको कैसे पूरा करना चाहिए। ये दोनों हिस्से अध्यात्म के हैं। अगर आप अध्यात्म के दोनों हिस्से पूरे कर रहे हैं अर्थात दोष-दुर्गुणों का निवारण-निष्कासन और श्रेष्ठ सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्द्धन कर रहे हैं तो आपके दोनों कदम धीरे-धीरे बढ़ते हुए चले जाएँगे और आप इन्हीं दोनों कदमों के सहारे लेफ्ट-राइट करते हुए बड़ी-से और लंबी मंजिल को पार करने में समर्थ हो सकेंगे।
मित्रो! आध्यात्मिकता के संबंध में मैं यह कह रहा था कि आप भौतिक जीवन में उन्नति करने के इच्छुक हों तो जो कीमती वाले देवता आपको शरीर और मन के रूप में मिले हुए हैं—आप अपने इस शरीर और मन को ठीक कीजिए। उन्नतिशील बनिए। सही व्यक्तित्व का विकास कीजिए। उन्नति के रास्ते पर चलिए और देखिए कि दुनिया आपका सहकार करती है कि नहीं करती है और आपको आगे बढ़ाती है कि नहीं; आपकी मदद करती है कि नहीं, यदि आपका व्यक्तित्व इस लायक होगा तब। आप अगर लोगों से जबरदस्ती सहयोग पाना चाहेंगे तो बेटे—"काठ की हाँडी कितने दिन तक चढ़ेगी।" "कागज की नाव कितने दिन तक चलेगी।" किसी तरीके से आप चालाकी और जालसाजी से दूसरों का सम्मान पा भी लें, सहयोग पा भी लें तो वह कब तक टिकेगा? वह ठहर नहीं सकता, खतम हो जाएगा।
चालाकियों में और सब बात अच्छी है, पर यह खराबी भी है कि वे देर तक जिंदा नहीं रह सकतीं। चालाकियों में यह अच्छाई है कि आप को अच्छाई के रास्ते से, ईमानदारी के रास्ते से उन्नति करने में समय लगेगा, लेकिन आप बेईमानी के रास्ते से, चालाकी के रास्ते से अपेक्षाकृत जल्दी फायदा उठा सकते हैं, परंतु उसमें कमी एक ही है कि वह ठहर नहीं सकती। बस, हवा-की में गायब हो जाती है और थोड़े दिनों में वास्तविकता निकलकर सामने आ जाती है। हम अपनी कमजोरियों को, अपनी चालाकियों को, बेईमानियों को देर तक छिपा नहीं सकते हैं, पर अंततः वे खुलती हैं और आदमी को खतम कर देती हैं। पहले से भी ज्यादा नीचे गिरा देती हैं।
आध्यात्मिक उन्नति का स्थायी मार्ग
इसलिए मित्रो! मैं यह कह रहा था कि भौतिक उन्नति की आप लोगों में से किसी की इच्छा हो और टिकाऊ इच्छा हो, तब तो आपको इसी रास्ते पर चलना पड़ेगा। टिकाऊ की बात न हो तो आपकी मरजी की बात है। तब वह रास्ता भी ठीक हो सकता है। कौन-सा वाला? जिसको हम चोरी और बेईमानी का रास्ता कहते हैं। शायद वह भी काम दे जाए, तब अगर पकड़ में आ गया तो बेवकूफी का कहलाएगा। लेकिन सही रास्ता, जिसमें कोई जोखिम नहीं है और जिसका परिणाम निश्चित रूप से अच्छा हो सकता है, वह है व्यक्तित्व का विकास। मैंने कल-परसों में कितने ढेरों उदाहरण आप लोगों को दिए कि हमको शरीर, मन और अपने व्यक्तित्व को ठीक तरीके से परिष्कृत करना चाहिए। यह किसी तरह से भगवान की पूजा से कम नहीं है। भगवान सत्कर्म के रूप में और सद्भाव के रूप में हमारे भीतर विद्यमान हैं। अगर हम सत्कर्मों का, सद्भावों का पोषण ठीक तरीके से करते हुए चले जाते हैं तो बेटे, यह भगवान की पूजा है।
मित्रो! भगवान कहाँ है, बताइए जरा? साहब! भगवान वहाँ मंदिर में बैठा हुआ है। बेटे! मंदिर में एक खिलौना रखा है। यह छोटा-सा हिस्सा ही है, सारा पहाड़ तो नहीं है। हाँ साहब! छोटा-सा हिस्सा है तो आपने मान लिया। छोटे में ही भगवान को मान सकते हैं। श्रीकृष्ण जी भगवान हैं? हाँ श्रीकृष्ण जी कोई एक इनसान ही तो हैं। ऐसी शक्ल वाले तो लाखों-करोड़ों आदमी होंगे। हाँ महाराज जी! होंगे तो सही। उन्हीं में से तो एक हैं वे। इसलिए तो मैं यह कहता हूँ कि गुणों के रूप में हमें भगवान को मानने में क्या आपत्ति है? जब आप उन्हें शक्ल के रूप में मान सकते हैं, रंग-रूप के रूप में मान सकते हैं तो गुणों के रूप में मानने में क्या आफत है।
बेटे! हम अपने शरीर में सत्कर्मों के रूप में भगवान को मान सकते हैं और सत्कर्मों को जीवन में धारण करते हुए हम भगवान की पूजा का आनंद ले सकते हैं और भगवान की पूजा से जो वरदान मिलने चाहिए, उनको प्रत्यक्ष पा सकते हैं। सत्कर्मों के रूप में, सद्विचारों के रूप में और सद्ज्ञान के रूप में हम भगवान को पा सकते हैं। सत्साहस के रूप में हम उनको पा सकते हैं। इन गुणों को जितना ज्यादा हम अपने भीतर धारण करते हैं, उसके लिए हम जितना साहस करते हैं, बेटे! वह सारा-का भगवान की उपासना से कम नहीं है। देवता की उपासना से कम नहीं है है। योगाभ्यास से कम नहीं है। तपश्चर्या से कम नहीं है। अपने आप का संशोधन कर लेना और अपने गुणों का परिष्कार कर लेना सब से बड़ी साधना है। सबसे बड़ी उपासना है, सबसे बड़ी पूजा है।
प्रत्यक्ष भगवान का प्रत्यक्ष परिणाम
मित्रो! अगर आप ऐसा करते हैं तो मैं आपसे कहूँगा कि आप प्रत्यक्ष भगवान की पूजा करते हैं और आपको प्रत्यक्ष परिणाम मिलने चाहिए। परोक्ष भगवान की पूजा के परोक्ष परिणाम भी हो सकते हैं, लेकिन मैं तो प्रत्यक्ष उपासना की बात कहता हूँ। प्रत्यक्ष भगवान की बात कहता हूँ। प्रत्यक्ष मंत्र की बात कहता हूँ और यह कहता हूँ कि आप प्रत्यक्ष का परिणाम प्रत्यक्ष में पाइए, प्रत्यक्ष में देखिए। भगवान की दुनिया में कायदा काम कर रहा है, एक कानून काम कर रहा है। एक नियम काम कर रहा है। एक मर्यादा काम कर रही है, आप समझते क्यों नहीं हैं। यहाँ अंधेर नगरी थोड़े ही है। यहाँ तो एक क्रम है, एक कायदा है।
कायदे और क्रम से अगर आप चलेंगे तो आप पाएँगे कि हम उन्नतिशील होते चले जाते हैं। फिर आपकी उन्नति को दुनिया के परदे पर कोई रोक नहीं सकता। अगर आप अपने को परिष्कृत नहीं कर रहे हैं तो बेटे दुनिया की सारी मदद आपके लिए बेकार साबित हो जाएगी। फिर आप उलटे मुँह गिरेंगे और आप रोएँगे और पछताएँगे। इसलिए मैं आप में से प्रत्येक आदमी से यह कह रहा था कि हमारे भीतर अन्नमयकोश, प्राणमयकोश और मनोमयकोश के रूप में तीन देवता हैं। इन देवताओं से अगर आपको सिद्धियों की आवश्यकता हो तो आप इन तीनों का पूजन करना शुरू करें और तीनों को अपने स्वभाव का, गुण का और कर्म का हिस्सा बनाने का प्रयत्न करें।
मित्रो! एक और भी देवता है, जिसको विज्ञानमय-कोश कहते हैं। प्रात:काल हम आपको जो ध्यान कराते हैं, उसमें यह बताते हैं कि विज्ञानमयकोश कहाँ हो सकता है। हृदयचक्र को हमने विज्ञानमयकोश का आधार-केंद्र बताया है। उसमें जब हम आपको अंत में ध्यान कराते हैं तो यह कहते हैं कि सहृदयता जाग्रत, सज्जनता जाग्रत। यह क्या है? बेटे! यह भी आदमी का एक योगाभ्यास है और यह भी तपश्चर्या है। सहृदयता का होना, हृदयवान का होना। हृदयवान होने से मतलब यह है कि दूसरों के दुःखों को, दूसरों के कष्टों को देख करके आपकी आँखों में जब आँसू आ जाते हैं तो बेटे मैं आपको हृदयवान कहता हूँ और दूसरों को सुखी बनाने में आपको उतनी ही खुशी होती है जितना कि स्वयं को सुखी देखकर उत्साह आता है और वैसा ही उत्साह दूसरों के लिए आता है, तो मैं आपको सहृदय कहूँगा। सहृदय व्यक्ति को क्या मिल सकता है, तुम जैसी चाहो वैसी कथा बता दूं। कहें तो मैं पुराणों की कथा बता दूँ और कहें तो अभी की इतिहास की बात बता दूँ। पुराणों पर तेरा विश्वास है? हाँ महाराज जी! थोड़ा-थोड़ा तो है। तो चल मैं थोड़ा-सा इतिहास बताता हूँ।
संत एकनाथ की करुणा
मित्रो! एक कथा संत एकनाथ के जीवन की आती है। संत एकनाथ कंधे पर काँवड़ रख करके गंगाजल लेकर के रामेश्वर पर जल चढ़ाने के लिए जा रहे थे। रास्ते में एक गधा मिला, जो प्यास की वजह से अपने प्राण त्याग रहा था। संत एकनाथ ने यह मुनासिब समझा कि एक के प्राण की रक्षा हो सकती हो, तो यह ज्यादा अच्छा है। देवता न प्रसन्न होते हों क्या हर्ज है? वैकुण्ठ न मिलता हो तो क्या हर्ज की बात है? उन्होंने गंगाजल उतारा और गधे के मुँह में डाल दिया। गधे ने लंबी साँस खींची और कहा कि एक घड़ा पानी और मिल जाता तो शायद हम इस लायक हो जाते कि इस जंगल में से निकल जाते।
एकनाथ ने दूसरा वाला घड़ा, जो रामेश्वर पर चढ़ाने के लिए सुरक्षित रखा था, उसे भी गधे के मुँह में डाल दिया। गंगाजल के दोनों घड़े पीकर के गधा खड़ा हो गया और हँसने लगा और कहने लगा कि आओ एकनाथ हम और आप छाती-से मिला करके मिलें। उन्होंने कहा—चल-चल, गधे के साथ मैं क्यों मिलूँगा, मैं गधा थोड़े ही हूँ? तो कौन हैं आप? हम तो रामेश्वरम् हैं। यहाँ कैसे पड़े हैं? हम यह तलाश करने के लिए पड़े हुए थे कि किसी के पास दिल भी है क्या? हृदय भी है क्या? हृदय मीन्स करुणा। करुणा भी किसी के अंदर है क्या? दरद भी किसी के अंदर होता है क्या? संवेदनाएँ भी किसी के अंदर हैं क्या? दूसरों से सहानुभूति रखने वाले भी दुनिया में कहीं रहते हैं क्या? हम यह देखने आए थे कि संत का लिबास पहने ढेरों आदमी घूमते थे, लेकिन वह आदमी जो करुणा से ओत-प्रोत हो, देखा नहीं। हैं तो हम रामेश्वरम्, पर यह देखने आए थे कि कहीं हमको संत के साक्षात्कार हो जाएँ, संत के दर्शन मिल जाएँ, तो हमारी आँखें धन्य हो जाएँ। हमने आपको संत के रूप में देख लिया, आपके हृदय में भरी हुई करुणा को देख लिया। आइए आप संत हैं, हम आपको छाती से लगाएँ। संत एकनाथ ने गधे को छाती से लगाया और कहा कि हमने भी भगवान को पा लिया पीड़ित और पतित के रूप में।
पीड़ा-पतन का करें निवारण
मित्रो! पीड़ा और पतन-निवारण के लिए भगवान दोनों हाथ पसारे बैठे हैं। पीड़ा पुकारती है कि आप कुछ मदद कर सकते हों तो कीजिए। पतित पुकारता है कि आप हमारी मदद कर सकते हों, तो हमें ऊँचा उठा दीजिए। पीड़ा और पतन—बेटे! ये भगवान के दो हाथ हैं, जो यह माँगते हैं कि आप हमको कुछ दें, फिर हम आपको देंगे। संत एकनाथ ने कहा कि हमने आपको पीड़ित और दुखियारे के रूप में, पतित के रूप में पा लिया। भगवान ने कहा कि हमने आपको सहृदय और सज्जन के रूप में पा लिया। हम आपको अपनी छाती से लगाते हैं। दोनों मिले। यह कौन-सी कथा है? यह पुराणों की कथा है। आपको पुराणों की कथा पर विश्वास है कि नहीं? चलिए मुसलिम धर्म की एक कथा और बता देता हूँ, फिर इतिहास की कथा बताऊँगा। पुराणों की कथा पर आपका विश्वास नहीं होगा।
हजरत मूसा को खुदाबंद करीम ने बुलाया और उन्हें अपनी बनाई हुई नई जन्नत दिखाई और कहा कि हमने स्वर्ग बनाया है, तो यह किसके लिए है? नमाज पढ़ने वालों के लिए, जकात देने वालों के लिए, काबा जाने वालों के लिए, रोजा रखने वालों के लिए—सबके लिए एक-एक फ्लैट खाली पड़ा हुआ था। हजरत मूसा ने अल्लाह ताला से पूछा—हजूर! यह किसके लिए है और खाली क्यों पड़ा है और इसमें कोई क्यों नहीं आता? उन्होंने कहा—यह संतों के लिए बनाया था, पर संत इसमें नहीं आते। हजरत ने पूछा—क्यों? संत क्यों नहीं आते? संत दुनिया में हैं नहीं क्या? संत हैं तो सही, पर कोई आने को तैयार नहीं होता। क्यों? संत कहते हैं—
न त्वहं कामये राज्यम्
न सौख्यं न पुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानाम्
प्राणिनाम् आर्तिनाशनम्॥
प्राणियों की पीड़ा और प्राणियों का दुःख दूर करने में जो हमको आनंद आता है, यहाँ हराम का माल उड़ाने में क्या आनंद आएगा? यहाँ बैठे-बैठे ऐय्याशी किया कीजिए, इंद्र देवता के यहाँ नृत्य देखा कीजिए। शराब पिया कीजिए, कल्पवृक्ष के माल उड़ाया कीजिए। मौज-मजा करने में क्या आनंद हो सकता है? शरीर की इंद्रियों को आनंद हो सकता है, पर हमारी अंतरात्मा को जो आनंद हो सकता है, वह दुखियारों की, पीड़ितों की, पतितों की सेवा करने में होता है।
बेटे, मूसा ने कहा—अब समझ गए होंगे कि स्वर्ग में संत क्यों नहीं आते? ऋषियों की भी यही कामना थी—"न त्वहम् कामये राज्यं न सौख्यं न पुनर्भवम्।" स्वर्ग की हमको अपेक्षा नहीं है। किसी चीज की हमको अपेक्षा नहीं है। हम तो—"कामये दुःखतप्तानाम् प्राणिनाम् आर्तनाशनम्।" प्राणियों के दुःखों से हम दुःखी हो जाते हैं और दुःखी होकर के उनकी सेवा करने के लिए अपना सारा श्रम लगा देते हैं। इससे ज्यादा आनंद हमको कहाँ मिल सकता है? बेटे! यह बात हजरत मूसा की है।
अच्छा महाराज जी! हमारे शंकर जी की बात बताइए? तो बेटे, शंकर जी की बात सुन। एक बार सोमवती अमावस्या के दिन हजारों-लाखों आदमी गंगास्नान कर रहे थे। पार्वती जी ने शंकर जी से पूछा—महाराज जी! यह क्या बात है, इतनी भीड़ क्यों जमा है? शंकर जी ने कहा—आज सोमवती अमावस्या है। इस सोमवती अमावस्या के स्नान से क्या फायदा है? शंकर जी बोले—जो कोई आदमी आज के दिन गंगा नहाता है, सो वैकुण्ठ को चला जाता है। पार्वती जी चुप हो गईं और कुछ विचार करने लगीं। उन्होंने कहा—क्या बात है? वैकुण्ठ तो महाराज जी वही है—जिसमें हम और आप रहते हैं। उन्होंने कहा—हाँ, तो वहाँ तो-दो हजार लोगों के रहने की जगह नहीं है और ये तो पचास लाख लोग स्नान कर रहे हैं। अगर ये पचास लाख आदमी स्वर्ग में जाएँगे, तो वहाँ रहेंगे कहाँ? हर साल में कितनी सोमवती अमावस्या होती हैं? चार-पाँच तो होती ही हैं, तो महाराज जी! ये तो दो करोड़ आदमी हो गए। दो हजार आदमियों की जगह नहीं है और हर साल दो करोड़ लोग जाएँगे, तो बीस साल में, तीस साल में, पचास साल में तो वहाँ करोड़ों, अरबों, खरबों आदमी हो जाएँगे। फिर ये रहेंगे कहाँ?
निर्मल अंतःकरण से होगा गंगास्नान
पार्वती जी ने कहा—यह बात गलत है कि सोमवती अमावस्या पर स्नान करने वाला हर व्यक्ति वैकुण्ठ को जाता है। हर व्यक्ति वैकुण्ठ को नहीं जा सकता? नहीं पार्वती! जाता है, यह शास्त्रों में लिखा है। नहीं महाराज जी! नहीं जाता होगा, शास्त्रों में गलत बताया गया होगा? नहीं ठीक लिखा है। अच्छा, शंकर जी ने कहा—देखो, ये जो नहाने जा रहे हैं, ये तमाशबीन हैं। ये घुमक्कड़ हैं, ये पर्यटक हैं। ये मेला-ठेला देखने के लिए आए हैं। गंगा जी नहाने का इनका मन ही नहीं है। बद्रीनाथ की यात्रा पर जो लाखों आदमी जाते हैं, ये घुमक्कड़ हैं, पर्यटक हैं। ये ऐसे ही मटरगश्ती करते रहते हैं। यहाँ-से, वहाँ-से डोल डालकर आ जाते हैं, पर महाराज जी! ये तो गंगास्नान करने आए हैं। नहीं, गंगास्नान के लिए नहीं आए हैं। कैसे? चलिए मैं तुम्हें बताता हूँ। गंगास्नान करने वाला वह व्यक्ति होगा, जिसका हृदय, जिसका अंत:करण भी गंगा के जल की भाँति निर्मल होगा। भीतर भी जिसने अपने आप को निर्मल बनाया होगा और बाहर से भी बना रहा होगा। ऐसा व्यक्ति गंगा जी में नहाने वाला है, बाकी सब तमाशबीन हैं। ठंडी में नहा रहे हैं, तो तमाशबीन कैसे हो सकते हैं? शंकर जी बोले—चलिए तुम्हें दिखाऊँ।
मित्रो! दोनों ने अपना रूप बदल लिया। पार्वती जी ने बहुत ही सुंदर रूप बना लिया और शंकर जी ने बुड्ढे कोढ़ी का रूप धारण कर लिया। जिधर से गंगा नहाने वाले जा रहे थे, उसी रास्ते में जा बैठे। जो भी गंगा नहाने वाला निकले, मजाक करे और कहे कि अरे यहाँ इस बुड्ढे के साथ क्या करेगी? कौन है यह बुड्ढा? यह बुड्ढा हमारा पति है। तेरा पति है तो इसको धकेल दे गंगा जी में, बुढ़ापे में इसने ब्याह कर लिया। इसके साथ क्यों आ गईं? अच्छा तो फिर क्या करूँ? हमारे घर चल। हमारे यहाँ मकान है, भैंस दूध देती है, सोने-चाँदी के जेवर पहना देंगे।
जो भी आए उस बेचारी से ऐसी ही बातें कहते चले गए। कोई रुपया दिखाता, कोई मिठाई दिखाता। पार्वती जी की बड़ी आफत आ गई। उन्होंने कहा—महाराज जी! जिंदगी भर देवताओं ने हमें माताजी कहा। आप हमें इन गंगास्नान वालों के पास ले आए हैं। ये हमारी कैसी मिट्टी पलीद कर रहे हैं? शंकर जी बोले—देख लीजिए, आप ही कह रही थीं कि ये गंगा जी नहाने आए हैं। ये कोई गंगा नहाने नहीं आए, वरन मौज-मस्ती करने आए हैं। इनका गंगा जी से कोई संबंध नहीं है। शाम तक यह सब देखकर पार्वती जी बोलीं—महाराज जी! यह तो घोर कलियुग आ गया। ढोंग-ही, चालाकियाँ-ही, बेईमानी-ही छा गई है। चलिए यहाँ से।
शंकर जी ने सोचा कहीं ऐसा न हो कि पार्वती जी के मन में अनास्था छा जाए, सो उन्होंने कहा—देखो, कोई ऐसा भी होगा, जो वास्तव में गंगा नहाने आया होगा? ठीक है, महाराज जी! वह भी दिखा दीजिए। बस, थोड़ी देर में एक आदमी आया। उसने दोनों को देखा और पूछा—देवी! ये कौन हैं? पार्वती जी बोलीं—ये हमारे पति हैं और कोढ़ी हो गए हैं। कोढ़ी होने की वजह से गंगास्नान के लिए इन्हें हम कंधे पर रखकर लाए हैं। हम थक गए हैं, इसलिए यहाँ बैठ गए हैं। गंगा थोड़ी दूर रह गई हैं—यह कोई एक-दो मील। कुछ देर में चलेंगे और इन्हें गंगास्नान करा देंगे। अच्छा, देवी आप धन्य हैं। आप जैसी नारियों की वजह से पृथ्वी पर सूरज और चाँद टिके हुए हैं और जमीन टिकी हुई है। आप जैसी नारियाँ न होतीं, तो यहाँ धर्म कहाँ रह पाता? धन्य हैं आप और उनकी परिक्रमा करके कहा माता आप आज्ञा दें तो मैं कुछ सेवा कर दूँ। क्या? माँ मैं हूँ तो बड़ा गरीब और मैं चाहता हूँ कि आपके पति को अपने कंधे पर बैठाकर गंगा जी तक मैं लेकर के चलूँ। इनका तो खून, मवाद टपकता है, तुम कैसे लेकर चलोगे? नहीं माताजी! आप आज्ञा दे दें, तो मैं आपके पति को लेकर के चलूँगा।
जिनके शरीर से मवाद टपक रहा था, बदबू आ रही थी, उन्हें अपने कंधे पर लेकर दो मील तक वह आदमी गया और गंगास्नान कराया और मक्के के सत्तू जो उसके पास थे, वे निकाले और बोला—आप भी खा लीजिए और हम भी खाएँगे। सत्तू को तीन हिस्सों में बाँटा। एक हिस्सा पार्वती जी को दिया, एक हिस्सा महादेव जी को दिया और एक स्वयं खाने लगा। पार्वती से महादेव जी ने कहा—देखो, यह एक ही आदमी है, जो स्वर्ग को-वैकुण्ठ को जाता होगा, तो क्रिया-कृत्यों के आधार पर नहीं, वरन मनःस्थिति को ठीक करने के आधार पर ही जाता होगा। स्वर्ग के लिए माहात्म्य यदि लिखा है कि गंगास्नान करने वालों को स्वर्ग मिलना चाहिए, तो केवल एक ऐसे ही व्यक्ति के लिए लिखा है और किसी के लिए नहीं। पार्वती जी की समझ में आ गई।
करुणा से बने वाल्मीकि कवि
बेटे! मैं क्या कहता हूँ? मैं हृदय वालों की बात कहता हैं, कलेजे वालों की बात कहता हैं, सहृदय लोगों की बात कहता हूँ। क्रौंच पक्षी को घायल देख करके वाल्मीकि की आँखों में आँसू टपकने लगे। उन्होंने देखा कि एक प्रेमी अपने साथी के लिए किस तरीके से तड़प सकता है। तीर से घायल होकर एक साथी तड़प सकता है और दूसरा उसकी पीड़ा को, दुःख को देख करके तड़प सकता है। दोनों की तड़पन बिजली के तरीके से जिस आदमी के कलेजे पर गिरी, वह भी रोया। उसी तरीके से रोया, जिस तरीके से वे दोनों रो रहे थे। बस, जिस क्षण वाल्मीकि की आँखों में आँसू आए, मित्रो! आप सही मानना, उसी दिन से उनके मन में काव्य की धारा बहने लगी और वे आदिकवि कहलाए। कौन? वाल्मीकि। वाल्मीकि का जो कवित्व उस करुणा के रूप में फूटा, वाल्मीकि रामायण उसी के आधार पर लिखी गई। बाद में वाल्मीकि रामायण का अनुवाद अन्यान्य भाषाओं में होता चला गया। तुलसीदास जी की रामचरितमानस में भी हुआ। बेटे! वह करुणा, जिसमें राम-भरत के मिलाप से लेकर के न जाने क्या-क्या हम देखते हैं? रामायण पढ़ते पढ़ते बीच-बीच में, आँखों में आँसू आ जाते हैं। ये आँसू कहाँ से आते हैं? बेटे! ये आँसू वाल्मीकि की आँखों के आँसू हैं और ये क्रौंच पक्षी की आँखों के आँसू हैं, जो वाल्मीकि के हृदय में, कलेजे में घुसते हुए चले गए।
मित्रो! यह करुणा है, जिससे दूसरों के दुःखों को देखकर आदमी इतना व्याकुल, विह्वल हो जाता है कि हमको इनकी सहायता करनी ही चाहिए। जटायु ने सीता जी को देखा। सीता जी को रावण लिए जा रहा था। उनका विलाप सुनकर जटायु की आँखों में आँसू आ गए। विचार करने लगा कि मैं क्या करूँ? इस बच्ची को कैसे छुड़ा हूँ? इस बच्ची की सहायता कैसे करूँ? यह सोचकर जटायु तड़प उठा। उसने कहा—मैं शायद इसको बचा न सकूँ, पर अपनी जिंदगी तो उसे बचाने में खतम कर ही सकता हूँ। अपनी पूरी ताकत के साथ वह रावण से लड़ा। अंत में रावण ने अपनी तलवार से उसके पंख काट दिए। वह नीचे गिर गया। जटायु बेशक हार गया, लेकिन भगवान आए और जटायु को उठाकर कलेजे से लगा लिया और अपने आँसुओं से उसके घावों को धोया और छाती से लगाकर कहा जटायु मैं तुझे जिंदा कर दूँ तब? उसने कहा—नहीं महाराज जी! जीवन का जो सबसे बड़ा लाभ था, सो मैंने पा लिया। अब मैं जिंदा रह करके क्या करूँगा? इस बुड्ढे जीवन से क्या करूँगा? अब मुझे कोई हवस नहीं है। संत, सुधारक और शहीद—तीन ही तो आपके यहाँ की सबसे बड़ी डिगरी हैं। मैंने तीसरी वाली डिगरी पा ली।
श्रेष्ठता के लिए करें स्वयं को होम
मित्रो! श्रेष्ठता के लिए, आदर्शवादिता के लिए अपने आप को होम देना, अपने आप को खतम कर देना, उसी के लिए संभव है, जिसके मन में से बेहिसाब करुणा टपकती हो और बेहिसाब छलकती हो। जहाँ कहीं भी हम देखते हैं, बेटे, हमको करुणा ही दिखाई पड़ती है, जो आदमी को उन्नति के पथ पर आगे बढ़ाती चली जाती है। जितने भी अच्छे-श्रेष्ठ आदमियों को हम देखते हैं, वे सब करुणा से भरे हुए हैं। जापान में कागाबा को गाँधी कहते हैं, जैसे कि हिंदुस्तान के गाँधी थे। कागाबा कौन है? बेटे! कागाबा उस आदमी का नाम है, जिसने एम0 ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद में यह निश्चय किया कि अपनी बची हुई जिंदगी को दुखियारों के लिए खरच करूँगा। जिन मुहल्लों . में पीड़ित लोग रहते थे, शराबी, बीमार, कोढ़ी लोग रहते थे, उसी जगह उन्होंने अपनी झोंपड़ी डाल ली और जिंदगी भर दरिद्रनारायण की सेवा में समर्पित हो गए। पचास रुपये, में अपना गुजारा करने वाले जापान के गाँधी कागाबा सारे-के दुखियारों की, दीनों की, पीड़ितों-पतितों की सेवा करने में लगे रहे। जापान की गवर्नमेंट ने, जनता ने उन्हें भरपूर सहायता दी।
मित्रो! भगवान की सहायता किसको मिली? जिनके पास कलेजा और हृदय है। आपके पास हृदय है कहीं? जरा अपनी छाती पर हाथ रखकर देखें। अक्ल तो है, पर कितनी बड़ी है? जालिम अक्ल, बेईमान अक्ल, दुष्ट अक्ल, पापी अक्ल, पतित अक्ल और कमीनी अक्ल हमारे ऊपर बे-हिसाब रूप से हावी हो गई है और हमको न जाने कहाँ-कहाँ ले जाती है और न जाने क्या-से कराती है, न जाने कितने तरह के जाल बुनने को हमें मजबूर करती है और न जाने कहाँ-कहाँ हमको भटकाती और ले जाती है? बेटे! यह अक्ल एक कोने पर, लेकिन जहाँ तक आध्यात्मिक जीवन का संबंध है, जहाँ तक भगवान की भक्ति का संबंध है, जहाँ तक मनुष्य की श्रेष्ठता और शालीनता का संबंध है, ये सारी-की बातें हृदय से ताल्लुक रखती हैं। ये आदमी की उदारता से ताल्लुक रखती हैं। ये आदमी की श्रद्धा से ताल्लुक रखती हैं। ये आदमी की भक्ति से ताल्लुक रखती हैं। जो आदमी मुलायम हृदय होगा, वह अकेले खा नहीं सकता, जमा नहीं कर सकता, अमीर नहीं बन सकता; क्योंकि उसके सामने हजारों हाथ पीड़ितों के चारों ओर फैले दिखाई पड़ेंगे। वह खा नहीं सकता। ईश्वरचंद्र विद्यासागर के तरीके से वह रो पड़ेगा।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने देखा कि अमीरी और गरीबी, अमीरी और पिछड़ापन समाज में अभी भी विद्यमान है, जो हमारे समय में था। हमारे पिता सुविधा नहीं जुटा पाए। हम किताबें माँग करके लाते और स्ट्रीट लाइट के नीचे खड़े होकर के पढ़ते थे। यदि आज भी ऐसे विद्यार्थी हैं, तो उनकी मुझे सहायता करनी चाहिए। मुझे मौज-मस्ती नहीं करनी चाहिए। उनके ईमान ने सोचा कि जो भगवान गरीबों के रूप में हजारों-हजारों हाथों से आदमी से माँगता और पुकारता है, उसके लिए मुझे कुछ करना चाहिए।
मित्रो! अगर ईमान हमारे और आपके भीतर हो तब, उदार हृदय हमारे पास हो तब? पर हम तो हृदयहीन हैं। हृदय कहीं से धड़कता तो है, लपडप-लपडप करता तो है, पर यह लोहार की धौंकनी के तरीके से है। इसमें करुणा का नाम भी नहीं है। दया, उदारता का नाम भी नहीं है। इसमें तो महत्त्वाकांक्षाएँ, लालसाएँ और लिप्साएँ इतनी ज्यादा जमा हो गई हैं कि हमारे पास कुत्साएँ और कुंठाएँ ही भर गई हैं। यहाँ आकर के भगवान क्या करेगा, यहाँ आकर के देवी क्या करेगी, यहाँ आकर के आध्यात्मिकता क्या करेगी? ईश्वरचंद्र विद्यासागर को पाँच सौ रुपये तनख्वाह मिलती थी। उन्होंने अपने घरवालों से कहा कि आप लोगों को पचास रुपये महीने में ही गुजारा करना पड़ेगा। आपके ऊपर ज्यादा खरच नहीं किया जा सकता? चार सौ पचास रुपये महीने के बारे में उन्होंने यह व्यवस्था बनाई कि जो विद्यार्थी यह अनुभव करते हों कि हमारे पास किताबों, पेंसिल, मिट्टी के तेल, फीस आदि की कमी है या दूसरी चीजों की कमी है, वे हमारे घर से ले जाया करें। सब बच्चे आते और अपनी जरूरत की चीजें ले जाते।
मित्रो! उस जमाने में भले, ईमानदार आदमी रहे होंगे, लेकिन आजकल जैसे बेईमान और चालाक कम रहे होंगे। आज तो फीस माफ करवाने के लिए मालदारों के बच्चे अपने रिश्तेदारों के नाम पर फीस माफ करवा लेते हैं और जो वास्तव में जरूरतमंद हैं, वे गरीब रह जाते हैं। आज सब बंटाधार होता चला जा रहा है। किसी जमाने में लेने वालों में भी शराफत थी और देने वालों में भी शराफत थी। केवल वे ही विद्यार्थी पाते थे, जो पाने के हकदार होते थे। चार सौ पचास रुपये में हजारों विद्यार्थी लाभ उठाते। कोई पेंसिल, कोई मिट्टी का तेल, कोई कॉपी, कोई फीस माँग ले जाते। चार सौ पचास रुपये में सैकड़ों-हजारों बच्चों की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए ईश्वरचंद्र विद्यासागर निहाल होते थे।
भगवान की भक्ति का सही तरीका
भगवान की भक्ति का यही तरीका है। दुनिया में जितने भी श्रेष्ठ आदमी हुए हैं, वे सब हृदयवान आदमी हुए हैं। कलेजे वाले आदमी हुए हैं। सहृदय आदमी हुए हैं। सहृदय आदमी की पहचान यह है कि वह अपने व्यक्तिगत जीवन की महत्त्वाकांक्षाओं को पैरों से पहले कुचलता है। अमीरी भी होगी और हम दान करेंगे? नहीं बेटे, तू ढोंग करेगा। लोगों के ऊपर छाप डालेगा कि हम बड़े अमीर हैं, हम बड़े दानी हैं। धर्मशाला पर पत्थर लगाने के लिए पैसा देगा और लिखवाएगा कि दो सौ रुपया लाला चुन्नूलाल, बेटा मुन्नूलाल का, पोता सुन्नूलाल का, इसने अपनी नानी के, दादी के, मौसी के स्वर्गवास में एक सौ इक्यावन का दान दिया। अऽऽहा? बड़ा भारी दान दिया। बड़ा भारी दानी है। तेरी बात हम सब जानते हैं कि तू कैसा दानी है? नाम के लोभी, यश के लोभी अगर किसी अच्छे काम के लिए तेरा देने का मन होता, तो भगवान तेरे पास आ जाता और तू भगवान का हो गया होता।
मित्रो! विज्ञानमयकोश, जिसको हम हृदय चक्र कहते हैं, यह मनुष्य की करुणा से ताल्लुक रखता है। दया से ताल्लुक रखता है। मुलायमियत से ताल्लुक रखता है, कोमलता से ताल्लुक रखता है। श्रद्धा-भक्ति से ताल्लुक रखता है। ये गुण अगर आपके भीतर पैदा होने लगे, तो बेटे आप विश्वास रखना कि भगवान आपके भीतर हृदय में प्रवेश कर रहे हैं और जिसके हृदय में भगवान विराजमान हैं, उनकी हैसियत हनुमान के तरीके से होनी चाहिए। हनुमान जी को, सीता जी ने मणिमाला दी और वे चबा-चबाकर फेंकने लगे, तो सीता जी ने पूछा—हमने इतनी कीमती माला आपको दी है, आप इसको क्यों फेंकते हैं? हनुमान जी ने कहा—हमारे हृदय में भगवान विराजमान हैं। अरे! हृदय में भगवान कैसे विराजमान हो सकते हैं? हनुमान जी ने अपना कलेजा हृदय चीर करके दिखाया और कहा—देखिए हमारे हृदय में बैठे हुए हैं। आप भी हनुमान के तरीके से हो सकते हैं। हृदय चीरने की जरूरत नहीं है। ऑपरेशन करने की जरूरत नहीं है। एक्स-रे करवाने की जरूरत नहीं है कि देखिए भगवान हमारे हृदय में हैं।
मित्रो! भगवान मनुष्य के हृदय में करुणा के रूप में, दया के रूप में, उदारता के रूप में, सेवा और शालीनता के रूप में आते हैं। अगर इस तरीके से भगवान आएँ, तो समझना चाहिए कि आप भगवान के भक्त हैं और भगवान के भक्तों को जो अनुग्रह परमपिता देते हैं और उन अनुग्रहों को पाकर के, किस तरीके से फलते और फूलते रहे हैं। अपनी नाव में स्वयं पार होते रहे हैं और अपनी नाव में असंख्यों को बैठाकर पार करते रहे हैं, वह रास्ता अभी भी खुला हुआ है। वह राजमार्ग जहाँ-का है। वह राजमार्ग रुका नहीं है, न आपके लिए रुका है और न किसी और के लिए रुका है, न भगवान के भक्तों ने कोई और रास्ता ढूँढा, न आपके लिए कोई और नया रास्ता बन सकता है। अपने व्यावहारिक और व्यक्तिगत जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए यदि आप कदम बढ़ा सकते हों, तो मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ, आपसे वायदा कर सकता हूँ कि आध्यात्मिकता के जो गुण, भगवान की भक्ति के जो महत्त्व बताए गए हैं, वे सौ फीसदी सही हैं। उनका लाभ आप भी उठा सकते हैं। मैंने भी लाभ उठाने की कोशिश की, तो वैसा ही पाया, जैसा कि ऋषियों ने लिखा है।
॥आज की बात समाप्त॥
॥ॐ शांति॥