उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
(३० जनवरी, १९७७ को शान्तिकुञ्ज परिसर में दिया गया प्रवचन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
कस्मै देवाय हविषा विधेम
देवियो, भाइयो, ! ऋषि के मन में एक सवाल उत्पन्न हुआ "कस्मै देवाय हविषा विधेम"। हम किस देवता की प्रार्थना करें और किस देवता के लिए हवन करें, यजन करें, प्रार्थना करें। कौन-सा देव है, जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा कर सके। हमको शान्ति प्रदान कर सके, हमें ऊँचा उठाने में मदद दे सके। किस देवता को प्रणाम करें। मित्रो ! बहुत से देवताओं का पूजन करते-करते हम बाज आ गए। हमने शंकर जी की पूजा की, हनुमान जी की पूजा की, गणेश जी की पूजा की और न जाने क्या-क्या चाहा? लेकिन कोई कामना पूरी न हो सकी। हम एक को छोड़कर के दूसरे पर गए। दूसरे को छोड़कर के तीसरे पर गए। क्या कोई ऐसा देव होना संभव भी है, जो हमारी मनोकामना को पूर्ण करने में समर्थ हो सके? जो हमको प्रत्यक्ष फल निश्चित रूप से देने में समर्थ हो सके—निश्चित फल, प्रत्यक्ष फल, तत्काल फल। क्या कोई ऐसा भी देवता है, जिसके बारे में यह कहा जा सके कि इनकी पूजा निरर्थक नहीं जा सकती? "कस्मै देवाय हविषा विधेम"। ऐसा देव कौन है ?
मित्रो! एक देव मेरी समझ में आ गया। यह देवता ऐसा है कि अगर आप इसकी पूजा कर सकते हों, इसका यजन कर सकते हों, हवन कर सकते हों तो यह देवता आपके जीवन में समुचित परिणाम देने में समर्थ है। कौन-सा है, वह देव? उस देवता का नाम है—'आत्मदेव।' अपने आप की पूजा अगर हम कर पाएँ, अपने आपको हम अगर सँभाल पाएँ, सुधार पाएँ। अपने आपको अगर हम सभ्य और सुसंस्कृत बना पाएँ तो मित्रो! हमारी प्रत्येक आवश्यकता, प्रत्येक कामना को पूरी करने में समर्थ है, हमारी भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति के द्वार खोलने में समर्थ है, हमारा यह—आत्मदेव।
आत्मदेव की पूजा, आत्मदेव का भजन, आत्मदेव का यजन, आत्मदेव का हवन—इसी का नाम है साधना। साधना किस की? गणेश जी की। नहीं बेटे! गणेश जी को तो तरीका मालूम है कि उनको क्या करना और कैसे रहना चाहिए? उनके पास तो सब इंतजाम हैं। दो-दो बीबियाँ हैं—ऋद्धि-सिद्धि। एक खाना पका देती है, एक कपड़े साफ कर देती है। आपको कोई जरूरत नहीं है गणेश जी की साधना करने की।
आत्मदेवरूपी कल्पवृक्ष की साधना
मित्रो! साधना अपने आपकी कीजिए। हमारा जीवन कल्पवृक्ष है। अगर इस कल्पवृक्ष की साधना हम कर पाएँ तो ये हमारी सारी-की-सारी मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ है। मैंने सुना है कि एक कल्पवृक्ष होता है। कहाँ होता है? स्वर्गलोक में होता है। इसकी क्या विशेषता होती है ? इसकी विशेषता मैंने यह सुनी है कि जो कोई उस पेड़ के नीचे जा बैठता है, उसकी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं । जो कुछ चाहता है, तुरन्त सब मिल जाता है । क्या ऐसा कोई कल्पवृक्ष होना संभव है? हाँ, एक कल्पवृक्ष है और वह है—हमारा जीवन । हम अपने जीवन की महिमा को, गरिमा को समझ पाएँ। जीवन के महत्त्व और मूल्य को समझ पाएँ, उसका ठीक तरीके से उपयोग करने में समर्थ हो पाएँ तो हमारे जीवन में मजा आ जाए, तो फिर क्या हो सकता है? फिर, हम मनुष्य से आगे बढ़कर देव बन सकते हैं। देव? हाँ बेटे! देव । देवता तो वहाँ स्वर्ग में रहते हैं। नहीं बेटे! देवता स्वर्ग में नहीं रहते।
मित्रो! देवता एक प्रकृति का नाम है और राक्षस भी एक प्रकृति का नाम है। आकृति नहीं प्रकृति। राक्षसों की शक्ल कैसी होती है? काली होती है। क्यों साहब दक्षिण भारत के लोग तो काले होते हैं, फिर ये सब राक्षस हैं ? नहीं बेटे! ये राक्षस नहीं हो सकते। राक्षस कैसे होते हैं ? जिनके दाँत बड़े-बड़े होते हैं। हमारे पिताजी के दाँत बड़े-बड़े हैं तो क्या वे राक्षस हैं ? नहीं बेटे! वे राक्षस नहीं हो सकते तो फिर बड़े दाँत वालों को और काले चेहरे वालों को आपने कैसे राक्षस बता दिया? राक्षस सींग वाले होते हैं। सींग तो साहब गाय के होते हैं, तो गाय हो गई—राक्षस? अरे महाराज जी! आप क्या उलटी-पुलटी बात कह रहे हैं। हाँ बेटे! मैं उलटी बात कहकर यह समझा रहा हूँ कि यह जो आलंकारिक वर्णन किया गया है, यह प्रकृति का वर्णन है—आकृति का नहीं। जिनके चेहरे दुष्कर्मों और दुर्बुद्धि की वजह से कलंक लगे, काले-कलूटे हो गए हैं, वे आदमी राक्षस हैं।
आकृति नहीं, प्रकृति देखिए
जिनके दाँत बड़े हैं अर्थात जो पेटू हैं । जो किसी भी कीमत पर सबका खाना चाहते हैं, जमा करना चाहते हैं। उनके बड़े-बड़े दाँत सियार जैसे, सिंह जैसे, कौए जैसे और कुत्ते जैसे हैं। जो हर किसी का खून पी जाएँ, इन आदमियों का नाम राक्षस है। राक्षसों के सींग बड़े होते हैं। मनुष्यों के तो मैंने सींग नहीं देखे हैं। नहीं साहब! मनुष्यों के भी होते हैं। हाँ बेटे! होते तो हैं। बिना कारण से इसको भी चोट मार दी, उसको भी चोट पहुँचा दी। इसको भी नुकसान पहुँचा दिया, उसको भी नुकसान पहुँचा दिया, ऐसे आदमी राक्षस होते हैं। तो महाराज जी! राक्षस की कोई आकृति नहीं होती? नहीं बेटे! आकृति कोई नहीं है, प्रकृति होती है। राक्षस वैसे ही होने संभव हैं, जैसे आप और हम।
देवता स्वर्ग में रहते हैं। हाँ बेटे! रहते होंगे, मैं कह नहीं सकता। देवता कोई मनुष्य बन सकता है? हाँ, देवता कोई आकृति नहीं है, देवता भी एक प्रकृति है। हम और आप जैसे मनुष्यों के बीच में बहुत से देवता भी हो सकते हैं। देवता कैसे होते हैं ? देवता बेटे ! गोरे रंग के होते हैं। साहब ! यूरोप में सब गोरे रंग के रहते हैं, पंजाब में और सीमाप्रांत में भी सब गोरे रंग के रहते हैं तो क्या ये सब देवता हैं? नहीं बेटे! गोरी शकल से मेरा मतलब नहीं है। मेरा मतलब यह है कि जिनके विचार, जिनका व्यवहार, जिनके आचरण, जिनका दृष्टिकोण स्वच्छ है, गोरा है, शुद्ध है, निर्मल है, उज्ज्वल है—उनका नाम देव है।
क्यों साहब! देवता कभी तो बुड्ढे होते होंगे? नहीं बेटे! देवता कभी बुड्ढे नहीं होते। हमेशा जवान रहते हैं तो साहब जब प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु होती है तो देवताओं की भी मृत्यु होती होगी। हाँ बेटे! मृत्यु तो जरूर होती होगी, लेकिन बुड्ढे नहीं होते। बुड्ढा किसे कहते हैं ? बुड्ढा उसे कहते हैं, जो आदमी थक गया हो, हार गया, निराश हो गया, टूट गया, जिसने परिस्थितियों के सामने सिर झुका दिया। जिसने यह कह दिया कि परिस्थिति बड़ी है और उससे लड़ने से इनकार कर दिया, वह आदमी बुड्ढा। जिस आदमी की जवानी टिटहरी के तरीके से बनी रहती है। कैसे? समुद्र बड़ा था, वह टिटहरी के अण्डे बहा ले गया। टिटहरी ने कहा समुद्र आप बड़े हैं तो ठीक है, लेकिन हम तो आपसे लड़ेंगे और लड़ते-लड़ते मर भी जाएँगे तो कोई हर्ज की बात नहीं है। मर ही तो जाएँगे, पर आपसे लड़ेंगे। जिनमें ये हिम्मत है, जुर्रत है, वे आदमी कौन हैं? वे आदमी देवता हैं।
मित्रो! देवता कभी बुड्ढे नहीं होते, हमेशा जवान रहते हैं। क्यों साहब! ८० वर्ष के हो जाएँ तो भी जवान? गाँधी जी ८० वर्ष के हो गए थे और ये कहते थे कि मैं तो १२० वर्ष जिऊँगा। ४० वर्ष वे और जीना चाहते थे। विरोधियों ने उन्हें मार डाला, वे जी भी सकते थे। पंडित नेहरू लगभग ७५ वर्ष के करीब जा पहुँचे थे, लेकिन सीढ़ियों पर चढ़ते हमने उनको बुढ़ापे में भी देखा। वे इस तरीके से चढ़ते थे, जिस तरीके से कोई बच्चा चढ़ता है। जिनके भीतर उमंग हैं, आशा है, उत्साह है, जीवन और जीवट है, वे आदमी देवता हैं। देवता उन्हें कहते हैं, जो दिया करते हैं। जिनकी वृत्ति हमेशा यह रहती है कि हम देंगे। क्या चीज देंगे? देने को तो हमारे पास कुछ है ही नहीं। अच्छा तो आपका मतलब है कि आपके पास पैसा नहीं है, आपको पैसे चाहिए। पैसे को ही आप सबसे बड़ी चीज मानते हैं। पैसा चौथे नंबर की शक्ति है और इस जमाने में तो मैं कहता हूँ कि विनाशकारी शक्ति है। पैसा भी कोई शक्ति होती है। पैसा कोई शक्ति नहीं होती। आदमी की शक्तियों में मूलभूत शक्ति वह है, जो आपके पास पूरी मात्रा में विद्यमान है और वह है—श्रम। पैसा उसी से आता है। उसे आप देना चाहें तो दानी बन सकते हैं।
श्रम का दान हजारी किसान
मित्रो! श्रम हमारे पास है। मैंने कितनी बार हजारी किसान का किस्सा कहा है। जो बेचारा पढ़ा-लिखा भी नहीं था, मालदार भी नहीं था। केवल अपनी मशक्कत को लेकर खड़ा हो गया और बिहार के गाँव-गाँव में जाकर आम के बगीचे लगाता फिरा। हजार गाँवों में आम के हजार बगीचे अपनी जिंदगी में लगा दिए। हजारी किसान की वजह से जिले का नाम हजारीबाग पड़ा। चूँकि हजारी किसान ने हजार बाग लगाए थे, इसलिए भी हजारीबाग एक जिला है। क्यों साहब! आदमी के पास केवल परिश्रम हो तो। हाँ बेटे! तो भी काफी है। अन्य लोगों के पास, महापुरुषों के पास केवल परिश्रम था और क्या बताना? कुछ भी नहीं था, शरीर था उनके पास। पैसा था? पैसा भी नहीं था। मकान था? नहीं साहब! मकान भी नहीं था। कोई चीज नहीं थी, उनके पास, केवल श्रम था। श्रम के आधार पर भी हम समाज को बहुत कुछ देने में समर्थ हो सकते हैं।
मित्रो! हमारे पास देने के लिए बहुत सारी चीजें हैं। अक्ल हमारे पास इतनी जबरदस्त है कि हम चाहें तो अक्ल के माध्यम से व्यास के तरीके से, वसिष्ठ के तरीके से, कबीर के तरीके से, दादू के तरीके से, कितने अन्य लोगों के तरीके से इस दुनिया को ऐसी चीजें देकर जा सकते हैं, जिससे कि दुनिया हमारी अक्ल का लोहा मानती रहे। अक्ल हमारे पास है, श्रम हमारे पास है, समय हमारे पास है, बुद्धि हमारे पास है, भावना हमारे पास है, प्रतिभा हमारे पास है। हमारे पास इतने जखीरे भरे हुए पड़े हैं। इतने बड़े जखीरे को लेकर हम दुनिया में न जाने क्या-से-क्या कर सकते हैं। देने की वृत्ति अगर आपके पास हो और आपके पास धन नहीं है तो कोई हर्ज की बात नहीं है। फिर भी आप कुछ-न-कुछ देने में पूरी तरह से समर्थ हो सकते हैं। दुनिया की सेवा कर सकते हैं। देवता उन्हें कहते हैं, जिनमें देने की वृत्ति होती है, मैं चाहता हूँ कि आपको देवता बनाकर के जाऊँ। मैं चाहता हूँ कि यहाँ से जब आप विदा हों तो एक नए किस्म के आदमी बनकर देवता बन करके विदा हों।
आत्मदेवता ही जीवनदेवता
देवता बनने के लिए क्या करना पड़ेगा? साधना करनी पड़ेगी। साधना किसकी करनी पड़ेगी? बेटे! अपने जीवन की साधना करनी पड़ेगी। शंकर जी की कर लूँ साधना? नहीं बेटे! शंकर जी के पास तो भूत-पलीत, साँप, पार्वती जी, कार्तिकेय जी, गणेश जी और उनका शेर, बैल, उनका चूहा और मोर आदि बहुत सारे सेवा करने वाले तैयार हैं। तू सेवा साधना नहीं करेगा शंकर जी की तो कोई हर्ज नहीं है। तो किसकी सेवा करूँ? कस्मै देवाय हविषा विधेम। बेटे! अपनी सेवा कर और किसकी सेवा करेगा? देवता की सेवा करूँगा। नहीं, देवता को तेरी सेवा की जरूरत नहीं है, उनके पास सब इंतजाम है। देवता अपना गुजारा कर लेते हैं तो गुरुजी! आपके पैर दबा दूँ। बेटे! हमको तो मरने की भी फुरसत नहीं है। गुरु जी पंखा झलेंगे। तब तो हमारा दिमाग और भी खराब करेगा, भाग...। नहीं महाराज जी! आपकी सेवा करेंगे। क्या सेवा करेगा। आपके सिर में तेल लगाऊँगा। बेटे! जितने समय में सिर में तेल लगाएगा, उतने में तो हम बीस काम करेंगे, क्यों हमारा समय खराब करेगा? नहीं महाराज जी! विष्णु भगवान की सेवा करूँगा। बेटा! कोई जरूरत नहीं है, विष्णु भगवान को अपना काम करने दे और तू अपना काम कर।
मित्रो! जिस देवता की साधना मैं जीवन भर करता रहा हूँ, वह साधना मैं आपको भी सिखाना चाहता हूँ। मुझे एक संत का एक वाक्य याद आता है कि—"मुझे नरक में भेज दो, मैं वहीं अपने लिए स्वर्ग बना लूँगा।" क्या ऐसा होना संभव है? हाँ, ऐसा संभव है। आदमी अपने श्रेष्ठ गुण, श्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ आचरण लेकर के जहाँ कहीं भी रहेगा, वहाँ परिस्थितियाँ बदलती चली जाएँगी। यदि नरक में वह रहेगा तो स्वर्ग वहीं बनता चला जाएगा। युधिष्ठिर एक बार नरक भेज दिए गए थे। अपने अच्छे व्यवहार की वजह से उनने सारे वातावरण को, परिस्थितियों को बदल दिया था और स्वर्ग बनाने में सफल हो गए थे। क्या ऐसा हो सकता है ? हाँ बेटे! हो सकता है। जहाँ कहीं भी ऐसी श्रेष्ठ मनःस्थिति रहेगी, वहाँ की सारी परिस्थितियाँ, वातावरण को बदल सकती हैं और अपने लिए स्वर्ग बना सकती हैं। मैं चाहता हूँ कि आप स्वर्ग में रहें और नरक में से निकल जाएँ। आप नर-पशु के कलेवर में से निकल जाएँ, नर-कीटक के कलेवर में से निकल जाएँ और ऐसे कलेवर में रहें, जिसको देवता कहते हैं। आप देवता के तरीके से जिएँ।
देवों की विशेषताएँ
मित्रो! देवता की कुछ विशेषताएँ होती हैं और वे विशेषताएँ मैं चाहता हूँ कि आपके भीतर पैदा हो जाएँ। देवता की पाँच विशेषताएँ मैंने पढ़ी हैं। उन पाँच विशेषताओं की अगर आप जीवन में साधना शुरू करें तो आप देवता के स्तर पर प्रवेश कर सकते हैं और पाँचों वस्तुएँ पा सकते हैं। देवता के गुणों में, देवता के पास जो सिद्धि होती है, उनमें एक होती है—'आप्तकाम'। आप्तकाम किसे कहते हैं? आप्तकाम उसे कहते हैं, बेटे! जिसकी सब मनोकामनाएँ पूरी हो जाएँ। क्यों साहब! फिर हमारी भी मनोकामना पूरी हो जाएँगी? बेशक, आपकी मनोकामना पूरी हो जाएगी, अगर आप देवता बनने के लिए खड़े हो जाएँ तब। कैसे हो जाएँगी? आप्तकाम क्या होता है ? कामना का स्तर बदल देता है। स्तर बदल देने की वजह से सारी-की-सारी समस्याओं का समाधान होना संभव है। दुनिया में से काँटे नहीं बीने जा सकते, पर हम जूते पहन सकते हैं। जूते पहनकर हम काँटों की कठिनाई से छुट्टी पा सकते हैं।
साहब ! हमारी बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं। क्या कामना है आपकी? हमारी कामना है कि यह सारी दुनिया हरे रंग की हो जाए। और रेल, सड़क, खेत, आदमी सब रंगीन हो जाएँ। अच्छा तो बेटा! ला हमको ठेका दे दे, हम सारी दुनिया को हरे रंग की बना देंगे। सारी दुनिया को हरा बनाने के लिए कितना रुपया चाहिए? फिलहाल बेटे! तू मुझको सौ करोड़ रुपये दे दे, जिससे हम पेंट मँगा लें और सारी सड़कों और दीवारों की रंगाई करना शुरू कर दें। महाराज जी! सौ करोड़ तो मेरे पास नहीं हैं, फिर भी मैं आपको दे ही दूँ पेंट के लिए। फिर तो आप नहीं माँगेंगे? बेटे! फिर मैं सौ करोड़ लेबर के लिए माँगूँगा। तो महाराज जी! आप इसमें कितना समय लगाएँगे? बेटे! सौ करोड़ वर्ष में कर दूँगा। महाराज जी! फिर यह कैसे पूरा होगा। बेटे! तू सूरज को रँगवाना चाहता है, चंद्रमा को रँगवाना चाहता है, जमीन को रँगवाना चाहता है, आसमान को रँगवाना चाहता है, पेड़ों को रँगवाना चाहता है, समुद्र को रँगवाना चाहता है। फिर कैसे ये कम समय में रँगा जाएगा। समय तो लगेगा ना? हाँ महाराज जी! टाइम तो लगेगा। अच्छा तो सौ करोड़ पेंट के लिए और सौ करोड़ लेबर के लिए जमा कर। तो महाराज जी! हो जाएगा? बेटे! मैं कह नहीं सकता कोशिश करूँगा तेरे लिए।
महाराज जी! तो फिर हमारी मनोकामना पूरी नहीं हो सकती क्या? बेटे! तेरी मनोकामना कभी पूरी नहीं हो सकती। महाराज जी! कोई ऐसा शॉर्ट तरीका बता दीजिए, जिससे कि हमारी मनोकामना पूरी हो जाए। हाँ बेटे! मैं एक तरीका बता सकता हूँ कि जिससे तेरी दुनिया सेकेंडों में हरी हो सकती है। बताइए महाराज जी! देख ये ले सवा दो रुपये का चश्मा और आँखों पर लगा ले। इससे सूरज भी हरा, चंद्रमा भी हरा, बादल भी हरे, जमीन भी हरी, आसमान भी हरा दीखेगा। इसमें न तेरे सौ करोड़ रुपये ही लगेंगे और न सौ करोड़ वर्ष ही लगेंगे।
आप्तकाम हों
मित्रो! आप्तकाम होने के लिए कामना का स्तर बदलना पड़ता है। आप जिन कामनाओं को पूरी करना चाहते हैं, वो पूरी नहीं हो सकतीं। रावण की कामनाएँ पूरी नहीं हो सकीं, कंस की पूरी नहीं हो सकीं, हिरण्यकशिपु की पूरी नहीं हो सकीं। नेपोलियन की पूरी नहीं हो सकीं; सिकंदर की पूरी नहीं हो सकीं। फिर आपकी कैसे पूरी हो जाएँगी? हाँ, एक शर्त पर आपकी कामनाएँ पूरी हो सकती हैं। कैसे? आप कामनाओं का स्तर बदल दीजिए। स्तर कैसे बदला जाएगा, मैं आपको यह थोड़ी देर में बतलाऊँगा।
साथियो! देवता होने के लिए यह जरूरी है कि आपकी इच्छाएँ, आपकी कामनाएँ, जिस प्वाइंट पर लगी हुई हैं, उस प्वाइंट को आप बदल दीजिए। रेडियो किस नंबर पर लगा हुआ है ? कहाँ से बोल रहा है? साहब! सीलोन से बोल रहा है। महाराज जी! सीलोन वाला तो बड़े गंदे गाने सुनाता है। हाँ बेटे! वह बड़े गंदे गाने सुनाता है। अच्छे गाने वाले स्टेशनों को आप सुन सकते हैं, बस जरा-सी सुई मोड़ दें। कहाँ मोड़ दूँ? विविध भारती पर लगा दें। आहा! ये तो बहुत अच्छा आ रहा है। फिर बेटे! सुई मोड़-सुई मोड़। अगर हम अपने विचारों की सुई मोड़ पाएँ-बदल पाएँ, अपने दृष्टिकोण को अगर बदल पाएँ तो जो जलन और खीझ अभी हमको खाए जा रही है और जब तक हम जिएँगे, शांत न हो सकेंगे। वह हमें
अभी और जलाएगी। वह सब शांत हो सकती है।
तो क्या महाराज जी! ये कामनाएँ कभी पूरी नहीं हो सकती? हाँ बेटे! ये कभी पूरी नहीं हो सकतीं। जितनी तेरी कामनाएँ पूरी होती चली जाएँगी, उतनी ही उसी हिसाब से तेरी खीझ कम नहीं, वरन् बढ़ती चली जाएगी। संपत्ति बढ़ेगी तो तेरी खीझ बढ़ेगी। संतान बढ़ेगी तो तेरी खीझ बढ़ेगी। पद बढ़ेगा तो तेरी खीझ बढ़ेगी। हर चीज खीझ बढ़ाने वाली है। इच्छा या कामना दूर से इतनी खूबसूरत मालूम पड़ती है, लेकिन जब वह हमारे नजदीक आती है तो वह इतनी बेचैनी लेकर के आती है कि क्या कहने का है? जब तक ब्याह नहीं हुआ था, तब तक, हाँ, बेटा! तेरा ब्याह हो जाएगा। ब्याह हो जाएगा तो बहुत सुख पाएगा। अच्छा चल तेरा ब्याह कराता हूँ। यह आ गई बीबी। लाइए नायलॉन की साड़ी, लाइए जेवर, लाइए अँगूठी। अरे साहब! दो सौ रुपए महीने मिलते थे और मौज करते थे, लेकिन यह कहाँ से आ गई? दो सौ रुपया तो कपड़े-लत्ते के लिए भी नहीं होगा। नहीं साहब! आप जाइए, चोरी कीजिए, कुछ भी कीजिए, पर पैसा कमाकर लाइए। फिर क्या हो गया? बीबी आ गई, फिर बच्चे पर बच्चा आ गया। अरे महाराज जी! ये क्या हुआ? ये तो बच्चों की परेशानी आ गई। बेटे तू तो यही कह रहा था न कि ब्याह होने से सुख मिलता है। ले ले, सुख कहाँ से मिलेगा।
सुख बाहर नहीं, अंदर है
मित्रो! ये जो इच्छाएँ हैं, ये केवल हमको खुशी भर दिखाती हैं, दे नहीं सकती। अगर आप सुख पाना चाहते हैं, शांति पाना चाहते हैं, संतोष पाना चाहते हैं तो आपको नया दृष्टिकोण ग्रहण करना पड़ेगा। अपने चिंतन का तरीका, सोचने का तरीका, मान्यताएँ, आस्थाएँ, निष्ठाएँ इन सबमें हेर-फेर करना पड़ेगा। अगर आप यह कर पाएँ तो आप पाएँगे कि आप कितने चैन से रह रहे हैं। कितनी शांति से रह रहे हैं। कितने उन्नतिशील, कितने अपने आपको संपन्न अनुभव कर रहे हैं। पहले दृष्टिकोण को तो बदलिए।
मित्रो! देवता बनने के लिए दृष्टिकोण का बदलना आवश्यक है। देवता की बहुत सारी विशेषताएँ हैं। देवता के पास धन बहुत होता है। कितना धन होता है ? बेटे! बहुत ही धन होता है तो महाराज जी! मुझे भी देवता बना दीजिए। मैं तुझे बना सकता हूँ, लेकिन पैसा देकर के नहीं। पैसा दे करके तुझे बना भी दूँ तो तू सिकंदर के तरीके से अपने सारे धन को आँखों के सामने देखकर रोता हुआ जाएगा, जैसे कि सिकंदर रोया था। उसने कहा कि यह धन मेरे साथ नहीं जा सकता, जिसके लिए उसने अपनी सारी जिंदगी खरच कर डाली। यह सारा धन साले के लिए रह गया, बहनोई के लिए रह गया, जमाई के लिए रह गया, बेटे के लिए रह गया। हमारे लिए किस काम आया? हमने क्यों कमाया? सिकंदर ने
अपने दोनों हाथ ताबूत से बाहर निकाल दिए। वह इसलिए निकलवा दिए कि देखने वाले यह देखें कि सिकंदर जो आया था, खाली हाथ आया था और खाली हाथ चला गया। जो कमाया था, वह जहाँ का तहाँ धरा रह गया।
अपनापन जुड़े तो खुशी
साथियो! फिर देवता धनी कैसे हो सकता है? बेटे! देवता धनी ऐसे होता है, जिसके धन की मैं तुझे फिलॉसफी समझाना चाहता हूँ। धन क्या होता है? धन मित्रो ! उसे कहते हैं, जिसको हम अपना समझ लें कि वह हमारा धन है और वह खुशी देता है। कैसे? मतलब यह घड़ी हमारी है। कौन ले गया घड़ी? कैसे बिगाड़ दी आपने घड़ी? घड़ी हमारी है और हमारे कमरे में रखी है तो हो गई न हमारी संपत्ति? अगर इसको बेच दें तब? तब आपकी हो गई। क्यों साहब! आपसे घड़ी ले गए थे, वह खराब हो गई। हाँ बहुत पुरानी थी जो चीज हमारी है, जिसको हम अपना मान लेते हैं, वही हमारी संपत्ति है, वही हमारी खुशी का माध्यम है। कोई भी चीज जिसको आप अपना मानते हैं, मकान को अपना मानते हैं, मोटर को अपनी मानते हैं, जमाई को अपना मानते हैं वही तो आपकी है।
क्यों साहब! अगर जमाई से लड़ाई हो जाए और हमारी लड़की से तलाक ले ले तब? तब वह हमारा जमाई नहीं है। तब कौन है ? हमारा बैरी है और दुश्मन है। क्यों साहब! दो महीने पहले तो वह आपका जमाई था? हाँ दो महीने पहले था, लेकिन उसने तलाक दे दिया है, इसलिए हमारा बैरी है और विरोधी है। अच्छा साहब! क्या हो गया? व्यक्ति तो वही है। अरे व्यक्ति तो है वही, लेकिन हमने क्या बदल दिया? हमने अपना विचार बदल दिया। जिसका हम विचार करते हैं, जिसको हम अपना मान लेते हैं, वह चीज अपनी हो जाती है। वही अपनी संपत्ति हो जाती है, लेकिन यह भी सच कहाँ है? जिस जमीन पर हम बैठे हुए हैं, वह किसकी है? हमारी है। नहीं बेटे! यह हमारी नहीं है, यह ब्रह्माजी ने बनाई थी। कब बनाई थी? करोड़ों वर्ष पहले बनाई थी। जहाँ हम बैठे हुए हैं, उसे पटवारी के खाते में देख करके आ। लाखों आदमियों के नाम काटे जा चुके हैं और इससे आगे जब तक यह जमीन खतम होगी, तब तक हमारे जैसे लाखों आदमियों के नाम दरज होते जाएँगे और लाखों के नाम काटे जाएँगे।
अक्ल ठीक कर लें, सब ठीक हो जाएगा
महाराज जी! अभी तो आप कह रहे थे कि ये सब हमारी है। हाँ बेटे! है तो हमारी, लेकिन कैसे है ? इसलिए कि हम मानते हैं कि ये हमारी है। जिसके ऊपर हम अपनी मान्यता डाल देते हैं, वह हमारी हो जाती है। अच्छा तो मान्यता के ऊपर है? हाँ बेटे! मान्यता के ऊपर है। जिसके ऊपर हम अपनेपन का टॉर्च डालते हैं, वही चीज अपनी दिखाई पड़ती है। जिसके प्रति हम अपना टॉर्च बंद कर देते हैं, वह दिखाई नहीं पड़ती। अपनापन जिसके ऊपर फैला देते हैं, वही हमारी हो जाती है। देख मैं तुझे संपत्ति दिला सकता हूँ। मैंने तेरे नाम गंगा जी का पट्टा लिख दिया अब तू गंगा जी का मालिक है। नहीं महाराज जी! मैं कैसे मालिक हूँ? अरे बेटे! तू जा, गंगा जी में पानी पी और भरकर ले आ, कोई तुझे रोके तो मुझसे कहना। अगर तू अपने को गंगा जी का मालिक मान लेगा तो फिर तू उसका मालिक है। और देख तू हिमालय का मालिक है हरिद्वार से लेकर ऋषिकेश तक तुम्हारा है, तू चाहे जहाँ घूम। तुझे कोई रोकता हो तो मेरे पास आना। मैं कहूँगा कि ये सब इसका है। और क्या-क्या है आपका? सूरज तेरा है, चाँद तेरा है, हिमालय तेरा है, जमीन तेरी है, आसमान तेरा है। हवा तेरी है आज से।
बेटे! स्वामी राम, अपने को राम बादशाह कहते थे और कहते थे कि मैं दुनिया का बादशाह हूँ। बादशाहत मिल सकती है? हाँ बेटे! मिल सकती है, अगर अपनी अक्ल ठीक कर ले तब। तेरी अक्ल जितनी संकीर्ण, जितनी छोटी होगी, उतना ही तू गरीब होगा, दरिद्र होगा और उतना ही पिछड़ा हुआ होगा। अपनी अक्ल को चौड़ा कर, समझ को चौड़ा कर और फिर देख, सारी दुनिया तेरी होती है कि नहीं।
(क्रमश:)
(गतांक से आगे)
हमारा वंश
महाराज जी! आपके कितने बेटे हैं? हमारे बहुत बेटे हैं। पिछले वर्ष स्वर्ण जयंती साधना वर्ष (१९७५) में हमने अपील की थी कि आप हमारे साथ-साथ ४५ मिनट जप करना और जप करने वालों में अपना नाम लिखा देना। हमारे रजिस्टरों में अब तक एक लाख आदमियों के नाम लिखे हुए हैं। इस तरह एक लाख आदमियों ने हमारे साथ ४५ मिनट उपासना की। महाराज जी! तो ये आपके बेटे हुए? हाँ बेटे! हमारी 'अखण्ड ज्योति' पत्रिका हिंदी में और दूसरी भाषाओं में निकलती है, उसके मेम्बर एक लाख से ज्यादा हो जाते हैं। ये सभी १२ रुपया साल पत्रिका की फीस जमा करते हैं, इसलिए हमारे बेटे हैं। नाती कितने हैं ? एक-एक आदमी दस-दस आदमियों को अखबार, पत्रिका पढ़ाता है। इन सब को कह दिया है कि अखण्ड ज्योति जहाँ भी जाए, दस-दस आदमियों को पढ़ानी चाहिए तो हमारे पोते हैं १० लाख और परपोते? अभी ठहर जा बेटे! हमारे कुटुंबी बहुत हैं। अभी तो ७० साल की उम्र हुई है। अभी तो हमारे बेटे, पोते हो पाए हैं, अभी तो परपोते होंगे तब तुझे गिनाएँगे कि कितने हैं? ।
महाराज जी! ये कहाँ हैं आपके? इनमें से तो कोई कायस्थ है, कोई बनिया है। अरे बेटे! इसलिए कि इन्हें हम अपना मानते हैं, ये हमारे और हम इनके हैं। बेटे! अगर हम बूढ़े हो जाएँ, थक जाएँ और आपके घर में रहना चाहें और ये कहें कि आप हमको एक चारपाई की जगह और दो रोटी दे दिया करना तो आप में से कोई ऐसा है, जो मना करेगा कि मैं तो नहीं देता। आज के जमाने में जब बेटे बाप को निकाल देते हैं, बाप के लिए तो रोज दुआ करते हैं कि कब मरेगा या कब चला जाएगा! चार भाई होते हैं तो बाप से कहते हैं, अरे साहब! आप यहीं बैठे रहते हैं, बड़े भाई के पास भी जाया कीजिए, वहाँ भी तो रहा कीजिए। दूसरे भाई के पास जाते हैं, तो वह कहता है कि आप उस भाई के पास क्यों नहीं जाते, आप यहाँ ही बैठे रहते हैं। एक भाई चाहता है कि दूसरे के यहाँ चले जाएँ और दूसरा चाहता है कि तीसरे के यहाँ चले जाएँ। हमारे बारे में भी क्या यही बात है, हर आदमी चाहेगा कि हम किसके घर जाएँ? जो पहले हाथ उठाएगा, उसी के यहाँ जाएँगे। अरे साहब! पहला नंबर हमारा है, पर उसके यहाँ भी चलिए। आप लोगों में से कोई यह तो नहीं कहेगा कि आप हमें नहीं चाहिए। आप हमारे हैं और हम आपके हैं।
मुहब्बत से बँधी जमा पूँजी
मित्रो! हमने आपको मुहब्बत की जंजीरों से बाँध लिया है, इसलिए आप हमारे बेटे और हम आपके पिता हैं। मुहब्बत की जंजीरों से आप दुनिया को बाँध लें, जीव-जंतुओं को, प्राणियों को बाँध लें तो सारी दुनिया आपकी है, उसके आप मालिक हैं। देवता हैं, देवता के पास असीम संपत्ति होती है। बाल-बच्चे हमने कमाए, पैसा हमने कमाया। कहाँ है साहब पैसा? हमारी बैंक में जमा है। कौन-सी बैंक में रखा हुआ है? ये सब लोग जो बैठे हैं, इनका नाम बैंक है। हमको अगर आवश्यकता पड़े और कहें कि दस-दस रुपये का मनीऑर्डर भेजो। यह कौन-सा महीना है ? जनवरी। अगले महीने फरवरी में दस-दस रुपये के हिसाब से एक लाख आदमियों के दस लाख रुपये जमा हो जाएँगे। आपका जमा क्या है? हाँ जमा है, तो हमारा जमा कर लेते? नहीं बेटे! कोई चोर छीन ले जाएगा, इसलिए हम पैसे अपने पास नहीं रखते। क्यों साहब! बैंक में जमा नहीं किया? बैंक में हमारा विश्वास नहीं है। बैंक से ज्यादा ईमानदार आदमी हमको अपने बच्चे मालूम पड़ते हैं, बेटे-पोते मालूम पड़ते हैं। इसलिए हमने अपना धन लाखों, करोड़ों की तादाद में जमा करके रखा है और जब भी आवश्यकता पड़ती है, खट्ट से खरच करा लेते हैं, मँगा लेते हैं।
बेटे! हमने बहुत धन कमाया है। हमारी बहुत सारी संतानें हैं और हम देवता हैं। और माता जी की बेटियाँ? माता जी की बेटियों की तो कुछ कहो ही नहीं, ये तो रानी मक्खी हैं। पिछले साल बेटियाँ थीं सौ, अब की बार हो गईं दो सौ। छोटी-छोटी बेटियाँ चिल्लाती और रोती होंगी? नहीं बेटे! कोई मैट्रिक, कोई इण्टर, कोई बी० ए० तक पढ़ी हुई हैं। अभी ४५ लड़कियाँ तो ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट हैं। ये कब पैदा हुईं ? ये बेटे! अभी जुलाई में पैदा हुई थीं। जुलाई में पैदा हुईं और जनवरी में एम० ए० हो गईं? नहीं साहब! माता जी की नहीं हैं। अच्छा ये माता जी की नहीं हैं तो फिर हम आपसे ये पूछते हैं कि लड़कियाँ जब विदा होती हैं तो ऐसे क्यों रोती हैं ? फूट-फूटकर, बिलख-बिलखकर ऐसे रोती हैं, जैसे सास के घर जाने में लड़की रोती है। उससे भी ज्यादा दुखी होकर, फफक-फफककर, पल्ला पकड़कर, छाती से चिपटकर रोती हैं। माता जी हम यहाँ से जा रहे हैं। बेटी तेरे बाप ले जा रहे हैं तो हम क्या कर सकते हैं ? तू यहाँ रहना चाहे तो जिंदगी भर रह सकती है। मुहब्बत बाप-बेटी की माँ-बेटी से कम नहीं ज्यादा है। कहाँ से आ गईं ये बेटियाँ ? तो माता जी को कष्ट उठाना पड़ा होगा? नहीं बेटे! ये तो बिना कष्ट के पैदा हो गईं। मुहब्बत की जंजीरें अगर हमारे पास हों तो सारी दुनिया हमारी हो सकती है और हम सबके हो सकते हैं।
देवत्व का अर्थ
मित्रो! यही है देवत्व। देवत्व का अर्थ है, हमारे भीतर अगर मुहब्बत हो तो व्यक्ति एक, ढंग दो, संपदा तीन, शांति चार और हम अजातशत्रु । देवता अजातशत्रु होते हैं। देवता का बैरी होता है ? नहीं बेटे! देवता का कोई बैरी नहीं होता। क्यों साहब! उससे तो आप की लड़ाई है और वह तो आपसे बैर करता है। हाँ बेटे! उसे करने दे, हम बैर नहीं करते। वह तो आपको गाली देता है। हाँ बेटे! उसे देने दे, उससे क्या बनता है? हम तो नहीं देते, हम तो नहीं करते बैर। इसलिए जलन-दाह हमारे भीतर तो नहीं है। ईर्ष्या, क्रोध हमारे भीतर तो नहीं है। नहीं साहब! वह विरोध करता है। तो बेटा! उसे करने दे, हमें क्या नुकसान है? उसी का नुकसान होगा। देवता अजातशत्रु होते हैं। शत्रु कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकते। नहीं साहब! शत्रु तो नुकसान कर सकते हैं और मारकाट सकते हैं?
बेटे! मारकाट तो बुखार भी कर सकता है। नहीं साहब! वह तो आपको मार डालेगा। अरे बेटे! वह तो बड़ा आदमी है। मार भी सकता है, लेकिन मैं तो यह कहता हूँ कि एक मच्छर, एक बिच्छू आदमी को मार सकता है। एक सुई भी आदमी को मार सकती है। मारना भी कोई आफत है। एक दियासलाई आदमी को मार सकती है। आठ आने का मिट्टी का तेल सिर पर डाल ले और एक छदाम की दियासलाई लगा ले, मार डालेगी सवा आठ आने में। मनुष्य को मार डालना भी कोई बड़ी बात है ? देवता अजातशत्रु होते हैं। मैं चाहता हूँ कि आपको देवता बना दूँ तो मेरा शिविर पूरा हो जाए और हमारा आपको यहाँ बुलाना सार्थक हो जाए। देवता होना किस तरीके से संभव है ?
जीवन-साधना बनाती है देवता
मित्रो! देवता होने के लिए थोड़े से प्रयास करने पड़ेंगे और उस प्रयास का नाम है—जीवन-साधना । साधना किसे कहते हैं ? बेटे! अनगढ़ को सुगढ़ बनाने का नाम साधना है। मसलन ये जमीन जिस पर हम और आप निवास करते हैं। आज से लाखों वर्ष पहले जब बनी थी तब ये ऊबड़-खाबड़ जमीन थी। कहीं गड्ढे थे, कहीं क्या थे। मनुष्य ने मशक्कत की, इसको समतल बनाया, इस पर घास-पात लगाए, पेड़-पौधे लगाए, कुएँ बनाए, नहरें बनाईं और ये जो ऊबड़-खाबड़ जमीन जिस पर चलने के लिए कहीं जगह नहीं थी, आज कैसी अच्छी जमीन दिखाई पड़ती है। समतल जमीन दिखाई पड़ती है। ये अनाज और फल पैदा करती है। साग और घास पैदा करती है। निवास करने के लिए यह जमीन सुगढ़ बना दी, सुसंस्कृत बना दी।
मित्रो! जीवन को सुसंस्कृत बना देना एक बहुत बड़ा काम है। हमारा व्यवहार और हमारा चिंतन बदले। हमारे चिंतन में संस्कृति और व्यवहार में सभ्यता आए। व्यवहार में जब हम सभ्यता ले आते हैं तो हम सुसंस्कृत हो जाते हैं। हमारे व्यवहार में शालीनता, शिष्टता और अच्छाई जब समाविष्ट हो जाती है तो उसको सभ्यता कहते हैं। सभ्यता से हम जीवन को परिष्कृत करते हैं। संस्कृति किसे कहते हैं ? संस्कृति कहते हैं—विचार करने की शैली को, चिंतन को, भावना को और दृष्टिकोण को। जब हमारा दृष्टिकोण परिष्कृत होता हुआ चला जाता है तो फिर मजा आ जाता है।
साधना किसे कहते हैं ? अनगढ़ चीजों को सुगढ़ बना लेने का नाम साधना है। मसलन सरकस के लोग शेरों को, हाथियों को, कुत्तों को सुधार करके ठीक कर लेते हैं और वे कैसे-कैसे तमाशे दिखाते हैं, ढेरों पैसा कमा लाते हैं। लोग रीछों को सिखा लेते हैं, साध लेते हैं। बंदरों को, साँपों को साध लेते हैं और साध लेने की वजह से वे सब कैसे-कैसे कमाल दिखाते हैं, कैसी कैसी करामात दिखाते हैं ? उनके कमाल और करामात की वजह से बाजीगर अपना गुजारा कर लेते हैं, अपना पेट पाल लेते हैं। मित्रो! अगर रीछ को, बंदर को, साँप को, शेर को साध लेना संभव है तो अपने जीवन को साध लेना क्या संभव नहीं है? जीवन को साध लेने का नाम ही साधना है।
गुणों को साधिए
क्यों साहब! हमने सुना है कि जो लोग देवताओं की साधना करते हैं, वे मालदार हो जाते हैं। हाँ बिलकुल ठीक कहता है बेटे! देवता कौन-कौन से हैं ? देवता का नाम है—हमारे गुण, हमारी हिम्मत। अगर हमारे भीतर हिम्मत हो तो हमारे सामान्य शरीर कितने बड़े, कितने समर्थ हो सकते हैं और क्या-से-क्या करते चले जा सकते हैं। नेपोलियन एक जरा-सा आदमी था और आल्पस पहाड़ को चैलेंज करने लगा कि हमको रास्ता दीजिए, नहीं तो पैरों के नीचे रौंदकर फेंक देंगे। उसने कहा कि हम रास्ता देंगे। जिसको किसी ने रास्ता नहीं दिया, उसे आल्पस ने रास्ता दिया। मित्रो! आदमी की हिम्मत और आदमी की जुर्रत ये क्या हैं? देवता हैं। इनका नाम क्या है? इनका नाम है—हनुमान जी। हनुमान जी ऐसे होते हैं? हाँ बेटे! ऐसे होते हैं। और कितनी विशेषताएँ हमारे अंदर हैं। इनमें से एक-एक गुण, एक-एक कर्म, एक-एक आदत, स्वभाव को हम बनाएँ तो हमको सिद्धियाँ मिल सकती हैं।
मित्रो! हमारे अपने जीवन की साधना में एक घंटा रोज पढ़ने का, अध्ययन का क्रम हमेशा रहा। टहलते भी रहे और एक घंटा पढ़े भी। दोनों का हमने जिंदगी भर सम्मिश्रण रखा है। इस सत्तर वर्ष की उम्र में से पंद्रह वर्ष तो आप निकाल दीजिए। पचपन साल तक हमने यह क्रम एक घंटा रोज स्वाध्याय का जारी रखा है। उस स्वाध्याय का परिणाम क्या हुआ? उसका परिणाम यह हुआ कि हमने दस लाख पन्ने पढ़ लिए, आप कागज पेंसिल लेकर हिसाब लगा लीजिए। हमने उपयोगी विषय पढ़े हैं, काम के विषय पढ़े हैं। किस्से कहानी नहीं पढ़े। नियमित रूप से, गंभीरतापूर्वक पढ़ा है और चिंतन से पढ़ा है। उसका परिणाम क्या हुआ है? लोग ये कहते फिरते हैं कि गुरु जी तो जीवंत एन्साइक्लोपीडिया हैं। चलते-फिरते एन्साइक्लोपीडिया हैं।
नियमित साधना-स्वाध्याय
मित्रो! मेरे पचासों विषय समझे हुए हैं। जिनके विषय में विचार करना, चिंतन करना शुरू करता हूँ। आपने 'अखण्ड ज्योति' के लेख पढ़े हैं। कभी मैं शरीर विज्ञान पर लिखना शुरू करता हूँ तो लोग कहते हैं कि इन्हें सिविल सर्जन होना चाहिए। हाँ बेटे! मैं सिविल सर्जन हूँ। और क्या-क्या कहते हैं ? जब मैं कानून के ऊपर और लॉजिक के ऊपर लिखना शुरू करता हूँ तो लोग कहते हैं कि ये आदमी कोई हाईकोर्ट का जज होना चाहिए। हाँ बेटे! मैं जज हूँ और मैंने ज्यूरिसप्रूडेंस और दूसरी चीजों के बारे में बहुत बारीकी से पढ़ा है। असंख्य विषय मैंने पढ़े हैं तो महाराज जी! समय कहाँ से लाए। बेटे! पढ़ने के लिए एक घंटा नियमित था। व्यस्तता के साथ पढ़ा। परिणाम क्या हुआ? उसने अथाह ज्ञान दे दिया। ये क्या चीज है? ये बेटे! स्वाध्याय के प्रति तन्मयता है। ये क्या है ? सरस्वती की पूजा है तो क्या आप सरस्वती के पुत्र हैं? हाँ हम सरस्वती के पुत्र हैं, क्योंकि हमने स्वाध्याय से प्रेम किया है। स्वाध्याय के प्रेम में दिलचस्पी हो तो यही सरस्वती का प्रेम है। सरस्वती का यही प्रेम आपको निहाल करा सकता है, विद्वान बना सकता है। यह कोई अचंभे की बात नहीं है।
गुरु जी! आपने चारों वेदों के भाष्य किए हैं ? हाँ किए हैं। अठारह पुराणों के? हाँ किए हैं। उपनिषदों के, दर्शनों के? हाँ किए हैं। २५०० किताबें भी लिखी हैं ? हाँ बेटे! लिखी हैं तो कोई आपका स्टेनो है? नहीं बेटे! हमारा कोई स्टेनो नहीं है। कोई पी० ए० है आपका? नहीं, कोई पी० ए० नहीं है। आप ही लिखते हैं ? हम ही लिखते हैं। ये कैसे हो गया? इतने लंबे जीवन का आप हिसाब लगा लीजिए। मैं आपको हिसाब लगाकर बता सकता हूँ कि आदमी इतने लंबे जीवन में पाँच घंटे रोज नियमित रूप से लिखे तो जो कुछ भी मैंने लिखा है, उससे ज्यादा लिखा जा सकता है। अरे महाराज जी! ये तो अचंभा है, जादू है। ये अचंभा नहीं है और जादू भी नहीं है, साधना है। साधना, क्रमबद्धता, नियमितता और व्यवस्था अगर जीवन में लाई जा सकती हो तो आदमी कमाल कर सकता है, चमत्कार दिखा सकता है।
अब भी सीख सकते हैं, आत्मदेव की साधना
मित्रो ! मैं चाहता हूँ कि जिस आत्मदेव की उपासना मैं सारी जिंदगी करता रहा, आप भी उसको सीख पाएँ तो मजा आ जाए। अभी भी सीख लें, जिंदगी में जो दिन चले गए, सो चले गए। जो रह गए हैं वे इतने शानदार हैं कि आप उन्हीं को इस्तेमाल कर लें तो कोई खराब बात नहीं है। पंडित सातवलेकर ५५ साल की उम्र में ड्राइंग मास्टर से रिटायर हुए। रिटायर होने के बाद उन्होंने संस्कृत पढ़ना शुरू किया, वेदों को पढ़ना शुरू किया। बची हुई जिंदगी में उन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा और जीवन के अंतिम समय तक वेदों के अनोखे विद्वान, वेदों के अनोखे भाष्यकार, न जाने क्या से क्या बन गए। इसी का नाम है—साधना। साधना जादू का नाम नहीं है, जैसा कि आम लोग समझते हैं। मंत्र बताइए, जादू की करामात दिखाइए। बेटे! कोई भी मंत्र नहीं है, कोई भी जादू नहीं है—साधना है।
स्वयं को ही सँभालना—साधना होगा
मित्रो! हर आदमी को अपने आपको सँभालना पड़ेगा। हर आदमी को अपने ऊपर अंकुश लगाने पड़े हैं। हर आदमी को अपने आप को व्यवस्थित बनाना पड़ा है, ठीक करना पड़ा है। नहीं साहब! हमको व्यवस्थित होने की जरूरत नहीं है। कोई देवी ठीक कर देगी। नहीं बेटा! कोई देवी अगर है तो तेरी अक्ल है। नहीं महाराज जी! शंकर जी को ठीक कीजिए, साधिए ! शंकर जी अगर कोई हैं तो बेटे तेरी बुद्धि, तेरी अक्ल, तेरा साहस और तेरा पराक्रम है। बेटा! देवता काबू में आने वाले नहीं हैं। वे बड़े जबरदस्त और बड़े बेसिलसिले के हैं, वे किसी का कहना नहीं मानते। हम शंकर जी का पाठ करें तब? नहीं बेटे ! शंकर जी नहीं मानेंगे, तुझे तो मारकर भगा देंगे। उनके गले में साँप बैठा है। जब तू जाएगा बस, साँप काट लेगा। मैं तो शंकर जी को प्रणाम करने आया था तो महाराज जी! वे प्रसन्न नहीं होंगे। नहीं तेरा शंकर जी तेरे भीतर बैठा हुआ है। उसको प्रसन्न करने की कोशिश कर, यही है वह शिक्षण जो इस शिविर में मैं आपको देने वाला था।
मित्रो! जीवन-साधना के बारे में मेरी इच्छा थी कि मैं आपको कुछ कीमती बातें, काम की बातें सिखाऊँ। पंचकोशों की उपासना मैं आपको कई दिनों से सिखा रहा हूँ। हमारे व्यावहारिक जीवन में भी इसका समावेश होना चाहिए। स्थूल जीवन में और सूक्ष्म जीवन में भी इसका समावेश होना चाहिए। सूक्ष्म जीवन में पंचकोशों की उपासना आप किस तरीके से कर सकते हैं? इस बारे में आपको थोड़ी-सी जानकारी मैंने कई दिन से दी है। आपको अन्नमयकोश की उपासना, प्राणमयकोश की उपासना, मनोमयकोश की उपासना, विज्ञानमय और आनंदमयकोश की उपासना के बाबत समझाता रहा हूँ। इन पाँच कोशों की साधना की उपासनात्मक प्रक्रिया मैंने समझाई है, लेकिन अब मैं जीवन-साधना के संबंध में, जीवनदेवता के संबंध में पाँच उपासनाएँ आपको सिखाने का इच्छुक हूँ।
जीवन-साधना के पंचोपचार
मित्रो ! पंचोपचार की पूजा आपने सुनी होगी। अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, चंदन वगैरह पाँच चीजों से देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। आपको मालूम है ? हाँ साहब! मालूम है। पाँच कोश, पाँच देव, पाँच प्राण, पाँच तत्त्व। हाँ ये भी ठीक है। जीवन-साधना के पाँच प्रकार अर्थात पंचोपचार जीवन-साधना के भी हैं। मैं चाहता था कि उनको आप सीख पाएँ तो मजा आ जाए। अगली अखण्ड ज्योति पत्रिका आपके पास आएगी, उसमें 'आध्यात्मिकता के पंचशील' नाम से लेख आया है, 'अपनों से अपनी बात' शीर्षक स्तंभ में। उसमें मैंने पाँच प्रार्थनाएँ की हैं। ये कहा है कि जो आदमी वास्तविक आध्यात्मिक होना चाहता हो, उसको पाँच मान्यताएँ, पाँच उपचार, पाँच धारणाएँ अपने जीवन में समाविष्ट करनी चाहिए। उसी का हवाला, उसी की जानकारी दे रहा हूँ।
मित्रो! आप अपनी नई दुनिया बसा लीजिए और उसी में रहना शुरू कीजिए। यह दुनिया जिसमें आप रहते हैं, बड़े चोरों और बड़े चालाकों की है। इसमें एक-से-एक चालाक, एक-से-एक धूर्त बैठा हुआ है। इन्हीं लोगों में आप शामिल रहेंगे तो ये आपका सफाया कर देंगे और आपको छूँछ बनाकर के छोड़ेंगे। अतः आप अपनी एक अलग दुनिया बसा लीजिए। गुरु जी ! कहाँ बसाएँ ? बेटे! तू अपनी एक अलग झोपड़ी बना ले या कहीं जंगल में एक गुफा बना ले और वहीं रहना शुरू कर दे। नहीं, महाराज जी! फिर तो मेरा काम हर्ज हो जाएगा। तेरा काम हर्ज हो जाएगा तो अपने विचारों की एक अलग दुनिया बसा ले। वह दुनिया कैसी हो? जिसमें तेरे मित्र, तेरे भाई, तेरे कुटुंबी, तेरे सलाहकार, मंत्री बिलकुल अलग रहते हों। यह दुनिया इन लोगों से भिन्न होनी चाहिए। अच्छे स्तर की होनी चाहिए।
अपनी दुनिया अलग बनाएँ
बेटे! हमारे तो मित्र अलग हैं। गुरु जी! आप तो अकेले रहते हैं। बेटे! हम अकेले कहाँ रहते हैं। हमारे साथ बहुत लोग रहते हैं। हमारी कमेटी में, हमारे कुटुंब में और खानदान में ढेरों आदमी हैं। नाम बताइए? बेटे! सातों ऋषि हमारे कुटुंबी हैं और हमारे कमरों में रहते हैं। जब कभी सलाह करनी होती है, पूछ-ताछ करनी होती है, सलाह-मशविरा करना पड़ता है तो हम अपनी बीबी से, बेटे से, भतीजों से, भानजे से, पड़ोसी से कोई भी सलाह नहीं करते। हम उन ऋषियों को बुलाकर सलाह करते हैं और पूछते हैं कि कहिए व्यास जी। आपका क्या मामला है? आप बताइए। वसिष्ठ जी की जीवात्मा का हम आह्वान करते हैं और पूछते हैं कि बताइए साहब! हम क्या काम करें? अत्रि ऋषि को हम बुलाते हैं और खट-खट हमको सवाल-जबाब मिलते हुए चले जाते हैं, क्योंकि वे हमारे घनिष्ट मित्र हैं। हमने इनको अपना मित्र बनाकर के रखा है।
मित्रो! सलाह-मशविरा के मामले में दुनिया में इसमें से एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जो आपको आध्यात्मिक जीवन के बारे में मुनासिब सलाह देने में समर्थ हो सके। विभिन्न व्यक्तियों को सलाह देते हैं, गए-बीते आदमी हैं, हारे-थके आदमी हैं, गए-गुजरे आदमी हैं, टूटे हुए आदमी हैं, घटिया आदमी हैं। आपको ऊँचा उठाने वाली सलाह ये क्या दे सकते हैं ? नहीं साहब! हमारे पिताजी आज्ञा दे देंगे, तब तो बेटा तेरा हो गया कल्याण। न तेरे पिताजी आज्ञा दें और न तू अच्छा कदम बढ़ाए। पिताजी की आज्ञा, बेटे की आज्ञा, बीबी की आज्ञा अगर इनकी आज्ञा के ऊपर आप टिके रहेंगे तो जिस स्तर के ये लोग हैं, जिस तरह की इनकी दुनिया है, उसी स्तर की वे सलाह देंगे।
योगी की दिनचर्या उलटी
इसलिए गीताकार ने कहा है कि योगी दिन में सोया करते हैं और रात में जगा करते हैं। जब दुनिया सोया करती है, तब योगी जगा करते हैं और जब योगी सोया करते हैं, तब दुनिया जगा करती है। क्या मतलब है इसका? बेटे! इसका एक ही मतलब है कि दुनिया के विचार, दुनिया का दृष्टिकोण, दुनिया का चलन, दुनिया की रिवाजें अपनी जगह पर हैं, जो उन्हें मुबारक हों। लेकिन हमारे चलन, हमारी मान्यताएँ, हमारी निष्ठाएँ, हमारे आदर्श और क्रिया-कलाप, हमारा चिंतन और हमारी फिजियोलॉजी हमारी अलग दुनिया से प्रभावित होनी चाहिए। उसमें आप उन आदमियों को शामिल कीजिए जिनके चिंतन, चरित्र और आदर्श ऊँचे हों।
मित्रो! वास्तव में आप दो कदमों के आधार पर चल सकते हैं—एक आपका ईमान और दूसरा आपका भगवान। आप अपने ईमान से सलाह लीजिए, अपने भगवान से सलाह लीजिए कि हमको क्या करना चाहिए? आप इन दो की ही सलाह पर चलिए, अकेले चलने की जुर्रत इकट्ठी कीजिए। सूरज अकेला चलता है, चंद्रमा अकेला चलता है, हवा अकेली चलती है और आप अकेले चलिए। अरे साहब! लोग क्या कहेंगे? लोगों की आप सेवा कीजिए, लोगों की आप सहायता कीजिए, मदद कीजिए और दुनिया में उस तरीके से रहिए, जैसे कैदी जेलखाने में रहता है। कैदी जेलखाने में साहब का हुकुम मानता है, अमुक काम करता है, खेत जोतता है, तमुक काम करता है, लेकिन दिमाग कहाँ रहता है? दिमाग तो अपनी घरवाली के पास रहता है। जब जेलर पूछता है कि क्या कर रहा है रे? तो वह बोलता है कि हुजूर अभी तो घास छील रहा था। घास छील रहा था कि ऐसे ही बैठा था? हाँ साहब! बच्चों की याद आ रही थी। हमारी खेती-बारी सूख रही होगी। हमारी बीबी बीमार तो नहीं है? हमारे बाप का क्या हो रहा होगा? काम तो यहाँ करते हैं, लेकिन चिंतन घर का बना रहता है।
मित्रो! आप इस दुनिया में काम तो कीजिए, लेकिन कैदी के तरीके से। आप अपनी दुनिया अलग बसा लीजिए। यह दुनिया सिद्धांतों की दुनिया होगी, आदर्शों की दुनिया होगी। क्यों गुरु जी! तो क्या इसमें सलाहकारों की जरूरत पड़ेगी? हाँ बेटे! सलाहकारों की भी जरूरत है। आप हनुमान जी को सलाहकार बना लीजिए। अच्छा भगवान की भक्ति कैसे करनी चाहिए? बताइए स्वामी ब्रह्मानंद जी? आप गणेश जी की मूर्ति ले आइए, हनुमान जी, शंकर जी को ले आइए और उनकी आरती उतारिए। देवी का मंत्र हम बता देते हैं—बताइए? ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे.......। अच्छा यह है काली का मंत्र? हाँ बेटे! मंत्र तो ठीक है, लेकिन भगवान की भक्ति अलग है।
भक्ति का मर्म
भगवान की भक्ति का अर्थ है—भगवान का कहना मानना और उनका काम करना । हनुमान जी ने भगवान की भक्ति की थी और कहा था—राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम। बेटे! मैंने किस तरीके से भगवान की भक्ति की? मैंने भजन किया कि नहीं, अनुष्ठान किया कि नहीं, जप किया कि नहीं, प्राणायाम किया कि नहीं—ये नहीं मालूम है, लेकिन दिन और रात मैं भगवान की भक्ति में लगा रहा। उनकी इच्छा, उनकी आज्ञा ही मेरे लिए सब कुछ है। अपनी कोई मनोकामना नहीं है। अच्छा गुरु जी! आपने भी तो कुछ कहा होगा? आपने भी तो वरदान माँगा होगा? बेटे! हम क्या वरदान माँगते ? जब हम भगवान के ही हो गए तो हमारे माँगने का सवाल ही कहाँ रहा? इसलिए हमने कोई वरदान नहीं माँगा, कोई इच्छा नहीं जताई। क्यों साहब! आपकी इच्छा क्यों नहीं हुई? बेटे! इच्छा तो थी, पर एक ही इच्छा थी—राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम।
सलाह लें दिव्यात्माओं से
मित्रो! हनुमान जी अगर आपके सलाहकार हों तो वे इस तरह की सलाह दे सकते हैं। दूसरे लोग सलाह दे सकते हैं, तीसरे लोग सलाह दे सकते हैं। आप अपने सलाहकारों की एक नई दुनिया बसा लीजिए। अपनी एक अलग कमेटी बना लीजिए। अरे साहब। वे तो मर गए। नहीं बेटे! दिव्य आत्मा कभी नहीं मरती। भगवान मर गए? 'नहीं', भगवान नहीं मरे। उनकी शकल नहीं दिखाई पड़ती, इसलिए आप समझते हैं कि वे मर गए। मरने का शकल से कोई ताल्लुक नहीं है। गाँधी जी मर गए? नहीं बेटे! वे जिंदा हैं। ईसामसीह? वो भी जिंदा हैं। बुद्ध? वो भी जिंदा हैं। दिव्य आत्माएँ कभी भी नहीं मरा करतीं। हमारे गुरु मर गए? नहीं बेटे! मरे नहीं, वे तो जिंदा हैं। गुरु जी! वो तो बहुत दूर रहते हैं, बहुत दूर रहने से क्या मतलब है? उनकी प्रेरणा तो विद्यमान है, उनका प्रकाश तो विद्यमान है, उनकी शिक्षाएँ तो विद्यमान हैं, उनके ग्रंथ तो विद्यमान हैं। विवेकानन्द की मृत्यु हो गई? नहीं बेटे! उनकी मृत्यु नहीं हुई। उनकी सारी किताबें रखी हुई हैं। आप उनसे सलाह ले सकते हैं, प्रकाश ले सकते हैं।
(क्रमश:)
(समापन किस्त)
मित्रो! अपनी एक ऐसी दुनिया बसा करके रखिए जिसमें आप उन श्रेष्ठ लोगों की सलाह लेना। इन स्वार्थी लोगों की सलाह मत लेना, इनकी तो सेवा, सहायता करना। ये तो बीमार हैं, इन बीमारों की सहायता करनी चाहिए। ये तो दुखियारे हैं, गरीब हैं, पिछड़े हुए हैं। इनकी सेवा करना, इनके ऊपर दया-करुणा करना, इनकी सहायता, मदद करना। बस, इससे आगे नहीं, महाराज जी! अगर इनकी सलाह मानें तो? बेटे! सलाह मानेगा तो तेरे लिए आध्यात्मिक जीवन, श्रेष्ठ जीवन जी सकना कभी संभव नहीं हो सकेगा। इनकी सलाहें किस काम की हैं? दो कौड़ी की सलाह हैं। क्यों साहब ! अपनी अम्मा की सलाह तो मानूँ? नहीं बेटे! तू अम्मा की मत मानना। नहीं साहब! अम्मा तो हमारी मर गई। उसी ने हमारा ब्याह करा दिया था। कब करा दिया था? जब १३ वर्ष के थे, कहती थी कि मैं मर जाऊँगी, मेरे बेटे का ब्याह कराओ और वही अम्मा हमारे बड़े भाई से यों कहती थी कि बेटा! दूसरा ब्याह कर ले। इसके तीन लड़कियाँ हो गईं, नहीं तो मैं कुएँ में गिर जाऊँगी, जहर खा लूँगी। अम्मा के कहने से बड़े भाई ने दूसरा ब्याह कर लिया। तीन लड़कियाँ पहले थीं और सात दूसरी की हो गईं।
बेटे! श्रेष्ठ चरित्र वाले व्यक्ति और महिलाएँ जहाँ कहीं भी हों, उनका तू कहना मान, उनकी शिक्षाएँ मान, उनके संदेशों, उनके निर्देशों पर चल। अगर ऐसा करेगा तो वह संतों की दुनिया, ऋषियों की दुनिया, ज्ञानियों और तपस्वियों की दुनिया तुझे सलाह और सहारा देती रहेगी। आगे बढ़ाती रहेगी, ऊँचा उठाती रहेगी और तू देवता बनने की जीवन-साधना के मार्ग पर चलता रहेगा। इनका कहना न मानेगा तब? तेरी मिट्टी पलीद हो जाएगी। मीरा के सामने एक ऐसा ही सवाल पैदा हो गया। मीरा के घर वाले न भजन-पूजा करने देते थे, न ध्यान करने देते थे, न संत के पास जाने देते थे, न कहीं प्रचार के लिए जाने देते थे और न जीवन का उद्देश्य पूरा करने देते थे। कहते थे कि यहीं कैदखाने में रहना पड़ेगा और हमारा कहना मानना पड़ेगा। मीरा ने एक पत्र गोस्वामी तुलसीदास जी को लिखकर भेजा। बताइए महाराज जी ! मैं घर वालों का कहना मानूँ या न मानूँ? मेरे घर वाले हैं तो बड़े-बूढ़े, हैं तो बुजुर्ग, पर बहुत तंग करते हैं। इनका कहना मानना चाहिए या नहीं मानना चाहिए?
क्या करें, तुलसीदास जी से सुनें
गोस्वामी तुलसीदास जी ने साफ तो कुछ नहीं लिखा कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, पर एक कविता मीरा के नाम लिख करके भेजी। कितनी सुंदर कविता है, जिसमें सारी-की-सारी फिलॉसफी, हमारा शिक्षण जो कि मैं आज आपको दे रहा हूँ। यह सारा शिक्षण मीरा के नाम गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा लिखे पत्र में सम्मिलित है। वह पत्र कविता के रूप में है। उसमें उन्होंने लिखा—
जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलिगुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भयेमुद-मंगलकारी॥
तो क्या आप भी त्यागने के लिए कह रहे हैं? नहीं बेटे! त्यागने के लिए नहीं कह रहा। मैं तो ये कह रहा हूँ कि इन मरीजों को त्यागने की जरूरत नहीं है। इन मरीजों को सलाह दे, इन मरीजों की हिफाजत कर, इन मरीजों की सेवा कर, पर इन मरीजों के कहने के मुताबिक तू चलने लगेगा, तो बेटे ! तू इलाज नहीं कर सकेगा, डॉक्टर नहीं रह सकेगा। अपना दृष्टिकोण-अपना चिंतन अलग, अपनी मान्यताएँ-अपनी निष्ठाएँ अलग, अपना विश्वास और अपना निश्चय इन लोगों से अलग रख। महाराज जी! हमारी बीबी कह देगी तो हम गायत्री परिवार में आ जाएँगे। नहीं बेटे! तेरी बीबी नहीं कहेगी, तुझे आना हो तो आ, न आना हो तो मत आ। गुरुजी! कुछ ऐसी कृपा कर दीजिए कि हमारी धर्मपत्नी हमारी सहायक हो जाए। धर्मपत्नी तेरी सहायक नहीं होगी, तू इस लायक हो जा।
अपनी दुनिया अलग बसा लें
मित्रो! पहला वाला शिक्षण यह है कि आप अपनी एक दुनिया अलग बसा लीजिए। उसी में मौज से रहा कीजिए। छावनी में रहा कीजिए, मोरचे पर लड़ने जाया कीजिए और फिर छावनी में आ जाया कीजिए। गुफा में रहा कीजिए, जंगल में लकड़ी काटने जाया कीजिए और फिर गुफा में आ जाया कीजिए। मित्रो! यदि ऐसी गुफा बना लें तो आपके लिए संभव है कि आप आध्यात्मिक जीवन जिएँ, कोई महत्त्वपूर्ण निश्चय-निर्णय करें। कोई महत्त्वपूर्ण कदम उठाएँ, अन्यथा आपको कोरी कल्पनाएँ आती रहेंगी कि मैं संत बनूँगा, ऐसा करूँगा, ये करूँगा, पर आप कुछ नहीं कर सकेंगे। आप जिस दुनिया में रहते हैं, उसके रिवाज, कायदे, नियम, उसके ढर्रे, उसके स्वभाव आपको इतने ज्यादा प्रभावित करते रहेंगे कि आपको एक कदम भी नहीं बढ़ने देंगे।
आपकी बीबी मान जाएगी तो बेटा नहीं मानेगा, बेटा मान जाएगा तो साला नहीं मानेगा, साला मान जाएगा तो जमाई नहीं मानेगा, पड़ोसी नहीं मानेंगे, सारा समाज नहीं मानेगा। सारे समाज की दीवार-दीवार, ईंट-ईंट आपसे कहेगी—अरे साहब! किस चक्कर में फँस गए हैं। आप यहाँ आइए हमारे पास और देखिए हमने इतनी बड़ी हवेली बना ली। कैसे बना ली आपने हवेली? अरे आप सब जानते हैं कि हम नंबर दो का काम करते हैं। कैसे बना ली? ये दीवार कहती है, ईंटें कहती हैं, आदमी कहता है, मकान कहता है, संपत्तियाँ कहती हैं, आकर्षण कहता है, चोर कहते हैं, सब कहते हैं। सबका शिक्षण एक ओर और आप एक ओर। तो क्या करें?
बेटे! इस दुनिया से भाग जा और गुफा में चला जा। कौन-सी गुफा में? मैंने बताया तो था, अपने मन की गुफा में। अपने मन में एक ऐसी गुफा बना ले, अपने मस्तिष्क में एक ऐसी दुनिया बसा ले, जिसमें कि श्रेष्ठ व्यक्ति, श्रेष्ठ आचार, श्रेष्ठ शिक्षाएँ भरी पड़ी हों। इतना अगर तू कर पाए तो समझ ले कि तेरी दुनिया बस गई। फिर इस दुनिया से लड़ने में तू समर्थ है, भव-बंधनों से लड़ने में समर्थ है। फिर लोगों की सेवा कर सकता है, प्रेम दे सकता है, मदद-सहायता कर सकता है, उनका मार्गदर्शन कर सकता है। तुझे उनके मार्गदर्शन पर चलने की जरूरत नहीं है। उनको श्रेष्ठ मार्गदर्शन, श्रेष्ठ शिक्षा दे, अगर ऐसा करेगा तो बेटे! यह पहला वाला शिक्षण, पहली वाली पंचशील की शिक्षा है, जहाँ से आदमी देवता बनने का कदम बढ़ाता है। अपने निष्कर्ष स्वयं निकालता है, अपने निर्णय स्वयं करता है। तब उसके लिए संभव है कि वह ऊँचे मार्ग पर चलने में समर्थ हो सके। दूसरों की सलाह पर टिका, परावलंबी है तो उसके लिए कभी कुछ संभव न हो सकेगा। कल्पनाएँ तो करता रहेगा पर चल न सकेगा। बेटे! यह हुई नंबर एक बात।
इच्छाओं, आकांक्षाओं को बदलिए
नंबर दो—मित्रो! एक बात मैं आपसे यह कहूँगा कि जीवन की दिशाएँ एक धाराएँ जिस चीज से और जहाँ से प्रारंभ होती हैं, उस चीज का नाम है—मनुष्य की इच्छाएँ, आकांक्षाएँ। अक्ल की खराबी नहीं है। इंद्रियों की शिकायत करना बेकार है। नहीं साहब! हमारी इंद्रियाँ नहीं मानतीं। बेटा! इंद्रियाँ भी कोई मानने जैसी चीज हैं क्या? इंद्रियाँ क्या होती हैं, कुछ भी नहीं होती? ये जो हमारी निष्ठाएँ, हमारी आकांक्षाएँ, हमारी इच्छाएँ हैं, वहाँ तू चल। इच्छाएँ हमारी क्या हैं? इस समय में हमारी भौतिक इच्छाएँ तीन हैं—वासना, तृष्णा, अहंता। हमने अपने आपको भूत मान लिया है। कौन हैं आप? हम तो भूत हैं। अरे तू तो अभी जिंदा है। नहीं महाराज जी! भूत हूँ। भूत कैसा होता है? जिसकी इच्छाएँ वस्तुओं और पदार्थों के साथ जुड़ी हुई हैं।
मित्रो! हमारा शरीर मिट्टी का बना हुआ है। इसकी इच्छा भी मिट्टी की चीजों की है। क्या खाना चाहता है ? जलेबी, पकौड़ी, मिर्च का अचार खाना चाहता है। मिर्च क्या होती है? मिट्टी। नींबू क्या होता है? मिट्टी। जलेबी क्या होती है? मिट्टी। खाना कौन चाहता है ? मिट्टी। ये क्या हैं ? ये हमारी भौतिक इच्छाएँ हैं। हमारी जीभ की मिट्टी मिर्च की मिट्टी को खाना चाहती है। मित्रो! ये वासना है। हमारी जितनी भी इंद्रियाँ हैं, ये मिट्टी की बनी हुई हैं और मिट्टी की चीजें माँगती हैं। काम-वासना के अंग मिट्टी के बने हुए हैं। क्या चाहते हैं ? मिट्टी का संपर्क, मिट्टी का सहयोग चाहते हैं। हमारी वासनाएँ, तृष्णाएँ भौतिक हैं। क्या चाहते हैं आप? बेटा चाहते हैं, मकान और रुपया-पैसा चाहते हैं, और क्या चाहते हैं ? बस, ये ही चीजें चाहते हैं। मिट्टी चाहते हैं न? हाँ साहब! मिट्टी चाहते हैं।
तीसरी आकांक्षा क्या है? अहं। एक आदमी का अहं, मेरा बड़प्पन, मेरा यश, मेरा नाम, मेरा गौरव, मेरा श्रेय। अरे साहब! मेरे बेटे का ब्याह हुआ, मैंने ५० हजार रुपया खरच किया और मेरे बेटे की बहू को ८१ तोले सोना चढ़ाया और मेरी लड़की की बरात में २५० बराती आए। मैं-मैं......। सारे दिन मैं-ही-मैं चिल्लाता रहता है। मेरा अपमान हो गया, मेरा ये हुआ। मित्रो! ये ही तीन चीजें हैं, जिनके लिए हमारी सारी इच्छाएँ नियोजित हैं। अगर हम अपनी इच्छाओं का दायरा बदल दें तो वे इच्छाएँ जो कभी पूरी नहीं हो पाती हैं, पूरी होनी शुरू हो जाएँ। हमारा दृष्टिकोण यदि ऐसा हो जाए कि इन वस्तुओं के स्थान पर हम सिद्धांत और आदर्श अपनाएँ, सत्य पर चलना चाहें, ईमानदारी से रहना चाहें तो इसमें कोई कठिनता नहीं आती।
शांति भरा सुगम जीवन
मित्रो! हमारा जीवन सुगम है, अगर हम अपनी आकांक्षाएँ सत्य पर, न्याय पर टिका दें, सादगी और सिद्धांतों के ऊपर टिका दें तो इसमें कोई कठिनाई नहीं आ सकती। फिर हम शांति से जीवन जी सकते हैं। हमारी इच्छाएँ सेकिण्डों में पूरी होनी संभव हैं, अगर हमारी आकांक्षाएँ वस्तुपरक और पदार्थपरक न हों तो पदार्थों की भी आवश्यकता होती है। आप उस आवश्यकता को पूरा करने तक सीमित हो जाएँ तो आपकी ८० फीसदी समस्याएँ खत्म हो जाएँगीं। भौतिक आवश्यकताएँ हर आदमी के पास कामचलाऊ हैं, अगर आदमी उधर से संतोष कर ले और अपने सिद्धांतों को, आदर्शों को पूरा करने के लिए अपनी अक्ल और समय लगा दे तो जो समय और शक्ति हमारी निरर्थक खरच होती चली जाती है, उसे हम बचा सकते हैं और उस बची हुई शक्ति से ज्ञान का प्रसाद और भगवान की भक्ति इकट्ठा कर सकते हैं। अभी तो आपके पास न तो बचती है अक्ल, न बचता है मन, न बचता है समय और न बचता है श्रम। ये कौन ले जाता है ? ये तीन चुडैलें जोर से पकड़ लेती हैं—एक हथकड़ी के रूप में, एक बेड़ी के रूप में और एक कमर के रस्से के रूप में। इनके बंधन ढीले करें तो आप श्रेष्ठता की, आदर्शों की, उत्कृष्टता की दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं।
एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण जीवन बदलने वाला शील यह है कि हम अपनी इच्छाओं को परिष्कृत करें। घटिया, छोटी, नगण्य और बेकार इच्छाएँ, जिनके बिना हमारा न कोई काम हर्ज हो रहा है और न जिनको प्राप्त करने से कोई उद्देश्य पूरा होता है। मित्रो! अगर आप अपने दृष्टिकोण में हेर-फेर कर पाएँ तो जीवन की दिशा बदलने की ओर, महान कार्य करने की ओर, भगवान को प्राप्त करने, आत्मशक्ति का विकास करने और देवत्व की ओर चलने के लिए आप समय, श्रद्धा, आस्था सब चीजें पा सकते हैं।
कर्मयोगी बनिए, वर्तमान में रहिए
तीसरा वाला शिक्षण यह है कि आप अपने कर्तव्य को समझना शुरू कीजिए, कर्मयोगी बनिए, फर्ज, कर्तव्य पूरा करिए बस, परिणाम? परिणाम हम नहीं जानते बेटे! क्या होगा? हमने खूब अच्छी तरह से पढ़ा, खूब मेहनत की, लेकिन जिस दिन परीक्षा देने का समय आया, आ गया बुखार और फेल हो गए। क्यों साहब! ये क्या हो गया? बेटे! कर्म करना हमारे हाथ में है, फेल या पास होना हम नहीं जानते। भविष्य का अध्ययन करना छोड़ दीजिए । भविष्य का विचार छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि आप यह विचार भी न करें कि हम किसी का भला करने जा रहे हैं या बुरा करने जा रहे हैं। आप तय कर लीजिए कि हमको ये काम करना है—जैसे हमें पढ़ना है, दुकान करनी है, खेती करनी है। पूरे परिश्रम, पूरी ईमानदारी के साथ काम कीजिए। पूरे परिश्रम, मेहनत से खेती की है, लेकिन बरसात न हो, अधिक वर्षा हो, टिड्डी आ जाए, कीड़े लग जाएँ तब! हम नहीं जानते कि कल क्या होने वाला है। कल की कल्पनाओं, कल की आकांक्षाओं में बेकार दिमाग न खराब करें। ये सोचें कि हम किसान हैं, पूरी मेहनत के साथ खेती करनी है, फसल बोनी है, अनाज उगाना है, खाद-पानी लगाना है बस, चूँकि हमने ईमानदारी से खाद लगाया, ईमानदारी से पसीना बहाया, ईमानदारी से रखवाली की, इतना ही संतोष करना हमारे लिए काफी है।
मित्रो! आप बुड्ढे मत बनिए, बच्चे मत बनिए। बुड्ढे कौन होते हैं ? बुड्ढे वे होते हैं, जो पिछली राम कहानी कहते रहते हैं। क्या बाबा आदम के जमाने की बातें करते रहते हैं ? जिससे न हमारा कोई उद्देश्य पूरा होता है, न कोई शिक्षा मिलती है। गड़े मुरदे उखाड़ने से क्या काम बनता है? बच्चे उन्हें कहते हैं, जो आगे की बात सोचते हैं। हमारा ब्याह हो जाएगा तो हवाई जहाज में बैठेंगे, यहाँ-वहाँ जाएँगे। ये हैं— भविष्य की कल्पनाएँ। बेटे! भविष्य की कल्पनाएँ करना बंद कर, भूतकाल की शिकायतें करना बंद कर। भूत अच्छा गया तो गया, बुरा गया तो गया। उसने गलती की तो, तूने गलती की तो, अब भूतकाल तो किसी तरह वापस नहीं आ सकता। हमें आज क्या करना है, इस पर विचार कर।
मित्रो! कर्मयोगी वह है, जो वर्तमान पर दृष्टि रखता है। अपनी सारी समझ, अक्ल, बुद्धि, मेहनत और मनोयोग अपने कर्तव्य को, कर्म को अच्छा बनाने के लिए लगाता है। 'वर्क इज वर्शिप' अर्थात काम को भगवान की पूजा इसलिए बताया गया है कि आदमी अपने काम को ईमानदारी से, जिम्मेदारी से करे। काम का मतलब केवल मशक्कत, केवल श्रम नहीं है। काम के साथ में ईमानदारी, एक—जिम्मेदारी, दो—सुरुचि-खूबसूरती, तीन—तन्मयता, तत्परता, उत्साह, जोश, बारीकी मिली हो, प्यार मिला हो, चार—काम को हम ऐसे ढंग से करें कि सामान्य होकर भी असामान्य हो जाए। ऐसे असामान्य कार्यों को हम कर्मयोग कहते हैं। हमको और आपको कर्मयोगी बनना चाहिए, अगर हम कर्मयोगी बनते हैं और अपने दिमाग को संतुलित बनाए रखते हैं तो हमारी जिंदगी में आनंद आ जाता है।
समय का महत्त्व समझिए
मित्रो! हमारी शक्तियाँ तीन तरीके से खरच होती, बरबाद होती, नष्ट होती रहती हैं । आप देखें कि हमारा जीवन कितना निरर्थक चला गया तो पाएँगे कि तीन चौथाई समय आपने ताश खेलने, नशेबाजी, यहाँ-वहाँ बैठे रहने में बेकार गँवा दिया। समय का ठीक तरीके से उपयोग किया होता तो समय काल था। रावण ने काल को अपनी पाटी से बाँधकर रखा था, इसीलिए रावण इतना बड़ा हो गया। समय को अगर आप बाँधकर, व्यवस्था बनाकर रखें तो समय न जाने क्या-से-क्या करता हुआ चला जाता है ? बेटे! मैंने साहित्य की रचना की, सेवा कर ली, पूजा-भजन भी कर लिया, लोगों से मिल भी लिया, संगठन खड़ा कर लिया। ये सब कैसे करता हूँ ? बेटे! मेरा समय बँधा हुआ है। नहीं महाराज जी! मैं तो जब मरजी होगी, मिलने के लिए आकर बैठ जाऊँगा। नहीं बेटे! जब चाहे तब न तो मिलने दूँगा, न बैठने दूँगा, तू नाराज होगा तो हो जा। मैं अपना समय देखूँ या तुझे देखूँ।
मित्रो, क्या करना चाहिए? हमको अपनी सामर्थ्यों को सार्थक, रचनात्मक कार्यों, सृजनात्मक और विकासोन्मुख कामों में लगाना चाहिए। जिसमें हमारा, हमारे घर वालों का, हमारे पड़ोसियों का, समाज का और देश का विकास होता हो, दूसरों की भलाई होती हो। अपनी सामर्थ्यों का हम इस तरीके से नियोजन करने में समर्थ हो सकें। हम व्यर्थ, अनर्थ कार्यों और दुष्टता से बचें तो आप देखेंगे कि हमारे पास ढेरों-की-ढेरों शक्ति, सामर्थ्य, बुद्धि, अक्ल, भावनाएँ बाकी बच जाती हैं। हम उनको अगर सार्थक, सृजनात्मक कामों में लगाना शुरू करें तो आप देखेंगे कि कैसा चमत्कार होता है, आपके जीवन में। आपको ऊँचा उठने का, आपकी उन्नति के लिए कैसे रास्ता खुलता है। आप जो भी लक्ष्य बना करके चलेंगे, उसमें विद्वान बनते हुए चले जाएँगे। स्वास्थ्य-संवर्द्धन का मन हो तो आप पहलवान बन सकते हैं। भगवान का भक्त बनने का अगर मन हो तो वही अक्ल, वही समझ, वही शक्ति, वही साधन और पैसा आपको भगवान की ओर बढ़ाता हुआ चला जाता है। आत्म निरीक्षण कीजिए, अपने को देखिए, समझिए।
शरीर व जीवात्मा दोनों का ध्यान रखें
मित्रो! अगर आपको श्रेष्ठ जीवन जीना है, देवत्व की दिशा में बढ़ना है तब, एक काम जरूर करना। आपकी दुकान में दो पार्टनर हैं। दोनों का हिस्सा, दोनों के शेयर का हिसाब-किताब रखना। कोई पार्टनर किसी से चालाकी, बेईमानी न करने पाए। जिसका जितना लाभांश है, उसको उतना मिल जाए। जिसका जितना हक है, दोनों को मिल जाए। आपके दो बेटे हैं? हाँ साहब! कहीं ऐसा न हो कि एक बेटे को तो सारा माल दे दें और दूसरा बेटा बिचारा ऐसे ही हाथ मलता रह जाए। नहीं महाराज जी! ऐसा अन्याय तो नहीं करेंगे। हाँ बेटे! अन्याय मत करना। तेरी दुकान में कितने हिस्सेदार हैं ? दो हिस्सेदार हैं तो उनको भी मुनाफा देता है कि नहीं। महाराज जी! दिया करूँ? हाँ बेटे! उसे दिया कर। तेरे पिता की संपत्ति जो मिली, वह सब तेरे पास है और तेरा एक भाई भी है। भाई का शेयर, हिस्सा नहीं देगा क्या? नहीं महाराज जी! सारा मैं ही खा जाऊँगा। नहीं, उसको भी दे, दोनों खाओ, ईमानदारी की, न्याय की बात है।
मित्रो! हमारे जीवन की दुकान में भी दो हिस्सेदार हैं। कौन-कौन हिस्सेदार हैं ? एक हमारा शरीर और एक हमारी जीवात्मा। एक हमारा कलेवर और एक हमारा प्राण। इसका जो मुनाफा होता हो, दोनों को बराबर बराबर दें। शरीर की देख-भाल कर, मैं ये थोड़े ही कहता हूँ कि शरीर को खाना, कपड़ा मत दे। शरीर की व्यवस्था भी कर, लेकिन सारा-का-सारा यदि शरीर को चला गया और जीवात्मा को नहीं तो जीवात्मा हमारी भूखी, तड़पती रही, व्याकुल रही, उसके लिए कुछ न कर सका। सारी जिंदगी जीवात्मा ने पुकारा कि हमें भी कुछ मिलना चाहिए। अच्छा, तुम्हें भी मिलना चाहिए। मित्रो! जब बच्चा रोया करता है तो उसकी माँ दूध में अफीम घोलकर पिला देती है और बच्चा सो जाता है। हमारी जीवात्मा भी जब रोई, चिल्लाई तो अफीम की गोली घोल-घोलकर इसको पिला दी।
अफीम की गोली क्या? माला आहा! ये बात है। माला में क्या होता है? नमः शिवाय-नमः शिवाय और क्या कह रहा है ? श्रीकृष्ण शरणं मम-श्रीकृष्ण शरणं मम। श्रीकृष्ण मेरी शरण में आ जा, इसका मैंने ये अर्थ लगाया। इससे क्या फायदा हो जाएगा? इससे ये फायदा हो जाएगा कि श्रीकृष्ण भगवान की गाय, बछड़े, बंसरी, कपड़े सब मेरे पास आ जाएँगे।
माला और भलाई
बेटे! मनुष्य को जीवन अमानत के रूप में दिया है। ये ऐसे कामों के लिए दिया है कि इस दुनिया के, भगवान के उद्यान में हम माली के तरीके से काम करें। उसे सुव्यवस्थित, समुन्नत और श्रेष्ठ बनाएँ। भगवान के पी० ए० के तरीके से, इन्जीनियर के तरीके से, उसके सेक्रेटरी के तरीके से कुछ काम करें। मित्रो! ये काम करना हमारा उद्देश्य था और आवश्यक था। अगर हमने ये किया होता तो मजा आ जाता हमारी जिंदगी में, लेकिन हम ऐसा न कर सके और जीवात्मा के हिस्से में कुछ नहीं पड़ा। अरे महाराज जी! हमने जीवात्मा को माला दे तो दी। अच्छा बेटे! तो ये बता क्या कमाता है ? ५५० रुपये कमाता हूँ तो ऐसा कर कि तू ५५० रुपया तो दे दिया कर जीवात्मा को, भगवान को और शरीर को, शरीर को बेटे तू माला दे दिया कर। माला से क्या काम चलेगा शरीर का? बेटे! माला चबा लिया कर और पहन लिया कर। अच्छा, महाराज जी! रात को ठंढ लगे तब? ठंढ लगे तो ओढ़ लिया कर माला को। नहीं, भगवान तो माला खाकर चुप रह जाते हैं। अच्छा भगवान के हिस्से में माला और तेरे हिस्से में मलाई। नहीं बेटे! भगवान माला खाकर चुप नहीं रहते।
भगवान तेरा श्रम माँगता है, तेरा पसीना माँगता है, तेरा समय, तेरा वक्त माँगता है। तेरा ईमान, तेरी भावना और तेरी श्रद्धा माँगता है। मित्रो! जीवात्मा परमात्मा के लिए और शरीर यात्रा दोनों के लिए हमारा संतुलित विभाजन होना चाहिए। संतुलित विभाजन का मैंने नाम रखा है—अंशदान । अंशदान के लिए मैंने कहा था कि आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश अंशदान के बिना संभव नहीं है। हमारी दो संपदाएँ हैं—एक भगवान की दी हुई, एक मनुष्य की दी हुई। भगवान की दी हुई संपदा का नाम है—समय। समय को जहाँ भी आप खरच करेंगे, उसी के बदले में ये नोट-रुपये हैं। आप इनको बाजार में ले जाइए और चाहे जो खरीद लाइए। समय के बदले में आपको पैसा, स्वास्थ्य, विद्या, लोक-परलोक कुछ भी खरीद लीजिए। ये भगवान की संपत्ति है और मनुष्य की कमाई है—पैसा। ये दोनों ही साधन हमारे पास हैं, इन दोनों साधनों का उपयोग आप विभाजित रूप से किया कीजिए।
ईमानदार बनिए, हिस्सेदारी में
मित्रो! भौतिक जीवन के लिए हमारे समय का कितना हिस्सा लगना है और आध्यात्मिक जीवन के लिए, परमार्थ जीवन के लिए कितना समय लगाना है, विभाजित कीजिए और साफ-साफ बताइए कि कितना हिस्सा देना चाहते हैं । नहीं साहब! हम तो जीवात्मा को रुपया में दो आने देंगे और शरीर को मुनाफे में से चौदह आने देंगे, चल कुछ तो दे। महाराज जी! मैं तो कुछ भी नहीं दूँगा, बेटे! जीवात्मा को, भगवान को अँगूठा मत दिखा। नहीं चावल चढ़ा दूँगा, रोली चढ़ा दूँगा। भगवान को तू बहकाए मत कि चावल-रोली चढ़ा दूँगा, धूपबत्ती चढ़ा दूँगा। अच्छा तू अपने शरीर को ही धूपबत्ती दिखा दिया कर। नहीं महाराज जी! शरीर का तो धूपबत्ती से काम नहीं चलेगा तो फिर भगवान का कैसे काम चल जाएगा। भगवान जी पर चंदन चढ़ाऊँगा, अच्छा तो तू चंदन अपने ऊपर चढ़ा ले। नहीं महाराज जी! चंदन से मेरा काम नहीं चलेगा तो भगवान का काम कैसे चलेगा?
इसलिए मित्रो! जो हमारी संपदाएँ हैं, उनके बारे में हमें ईमानदार होना चाहिए और नेक होना चाहिए। हमको कुछ इस तरह से विभाजन करना चाहिए कि हमारे समय का इतना हिस्सा शारीरिक जीवन के लिए और इतना परमात्म जीवन के लिए। इतना लोक-मंगल के लिए और इतना हमारे लिए। हमारे धन का भी एक हिस्सा विभाजित होना चाहिए। हम जो धन कमाते हैं, उसके बारे में ऋषि कहते हैं—तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम् जो केवल अपने लिए कमाता है और स्वयं ही खाता है, वह चोर है। सांसारिक दृष्टि से वह चोर नहीं है। मान लीजिए आपको ५५० रुपये तनख्वाह मिलती है। आप ५५० रुपये खाइए। संसार की दृष्टि से कोई आफत नहीं आ सकती। आप इनकमटैक्स का पैसा दे दीजिए और घर बैठिए। आप ईमानदार और शरीफ हैं, लेकिन आध्यात्मिक जीवन के तरीके से आप शरीफ नहीं हो सकते।
समाज का ऋण चुकाएँ
आध्यात्मिक जीवन आपसे यह कहता है कि आप समाज के ऋणी हैं। समाज ने आपको ज्ञानवान बनाया है। समाज का लाभ लेकर के आपको अनाज मिलता है। समाज का लाभ लेकर के आप कपड़े पहनते हैं। समाज का लाभ लेकर के आपने शिक्षा पाई है। समाज का लाभ लेकर के आपको सवारियाँ मिली हैं। समाज का लाभ लेकर के आपको दवा-दारू का इंतजाम हुआ है। समाज का लाभ लेकर के आपका विवाह हुआ है। नहीं साहब! तो कहाँ से हुआ है तेरा विवाह ? किसी और की पैदा की हुई बेटी को साथ लिए फिरता है और ऊपर से ये कहता है कि समाज का कोई ऋण नहीं है। तेरे ऊपर ऋण है, तू समाज का ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए जो हमारे पास है, उसका एक मुनासिब हिस्सा निकालने के लिए हमको कोशिश करनी चाहिए।
मित्रो! आप आध्यात्मिक जीवन जीना चाहते हैं तो सचाई पर आइए, वास्तविकता पर आइए। इस कठोर सचाई को, वास्तविकता को समझिए। अगर आप वास्तविक अध्यात्म को पाना चाहते हैं, वास्तविक भगवान को पाना चाहते हैं, वास्तविक उन्नति करना चाहते हैं, वास्तविक प्रतिभा को चाहते हैं, वास्तविक देवत्व चाहते हैं तो उसकी वास्तविक कीमत चुकाइए।
पंचशीलों की साधना—पंचाग्नि विद्या
मित्रो! ये आध्यात्मिकता के पंचशील हैं तो कठोर और कठिन। कठोर इसलिए कि हमारे स्वभाव में नहीं आते और हमको भय मालूम पड़ता है। अरे साहब! ये करेंगे तो आफत आ जाएगी और ये कैसे होगा? इसका जो भय है, वास्तव में वही दिक्कत का कारण है। अगर आप आध्यात्मिक जीवन पर चलें, पंचशील का जीवन जिएँ, जीवात्मा की, आत्मदेव की पूजा पंचोपचार के ढंग से करें तो आपको मालूम पड़ेगा कि पंचशील कितने सरल हैं, सरस हैं। वर्तमान जीवन, स्वार्थी जीवन, घटिया नारकीय जीवन, पापी-पतित जीवन की अपेक्षा वह जीवन सरल है, शांतिमय है और सुखद है। वही आदमी समुन्नत है और उसकी सिद्धियाँ प्रत्यक्ष हैं। मित्रो ! मैं चाहता था कि आप देवत्व की ओर बढ़ते, देवत्व के पंचतप करते, पंचाग्नि विद्या को अपनाते। नचिकेता के तरीके से पंचाग्नि विद्या में अपने आपको तपाते। पंचशीलों को ग्रहण करते और अपने व्यक्तित्व को उभारते और श्रेष्ठ बनाते, व्यक्तित्व को समुन्नत बनाते। उसके बदले में वे सिद्धियाँ पाते जो महापुरुषों ने पाईं, ज्ञानियों ने पाईं, तपस्वियों ने पाईं, देवमानवों ने पाईं। उन सिद्धियों से आप इसी जीवन में संपन्न हो जाते, अगर आप जीवन देवता की, आत्मदेव की साधना करने के लिए हिम्मत इकट्ठी कर सकते तब। आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शान्तिः॥