उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
जून, १९७७ में गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज में दिया उद्बोधन (पूर्वार्द्ध)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो, क्रिया और विचार इन दोनों बातों का समन्वय अगर आप कर डालें, तो चमत्कार पैदा हो जाएगा। बया नाम का एक पक्षी होता है। जब वह अपना घोंसला बनाता है, तो कैसी तबियत से बनाता है, कैसे मन से बनाता है कि छोटे-छोटे तिनकों को एक-एक चुनकर के लाता है। उन्हें गूँथकर ऐसा बढ़िया घोंसला बना देता है कि क्या मजाल है कि अंडा हवा के झोंके से तबाह हो जाए? क्या मजाल है कि कौआ उसमें झपट्टा मार दे? उसमें उसके बच्चे मौज के साथ बैठे देखते रहते हैं। कोई आदमी सड़क पर से जब निकलता है, तो उस घोंसले को देखता रह जाता है कि यह बया का घोंसला है। कितना शानदार घोंसला है। हर जगह से उसकी प्रशंसा होती है। बया स्वयं प्रसन्न रहती है और देखने वालों की तो तबियत बाग-बाग हो जाती है।
मित्रो, क्या विशेषता है बया में? कोई विशेषता नहीं है। बेटे, मन लगाकर कोई भी काम करो, तो शानदार होता है। मन लगाकर काम नहीं किया जाए, तो बेटे उसका सत्यानाश हो जाता है। एक पक्षी का नाम है कबूतर। कबूतर बया की तुलना में चार-पाँच गुना बड़ा होता है। इतना बड़ा होता है, पर घोंसला कैसे बनाता है ? बया का घोंसला जरा आप देखना और कबूतर का भी घोंसला देखना। वह बड़ी-बड़ी लकड़ी बीनकर ले आता है और एक इधर रख दी, एक उधर रख दी और एक किधर को रख लेता है और उसमें ही अपने अंडे देने लगता है। उस पर ही बैठा रहता है। हवा का झोंका आता है, बस घोंसला गिरता है नीचे और कबूतर गिरता है ऊपर। अंडे फूटकर अलग हो जाते हैं, बच्चे मरकर जहन्नुम चले जाते हैं। उसकी सारी-की-सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है और देखने वाले कहते हैं कि यह कबूतर कैसा बेअकल है, कैसा बेवकूफ है।
काम में मन लगाइए
बेटे, मैं क्या कहता हूँ? यह कहता हूँ कि अपने सामान्य जीवन के सारे क्रियाकलाप, चाहे वे बहिरंग जीवन के हों या अंतरंग जीवन के, मामूली काम के लिए भी अगर आपने काम में तबियत नहीं लगाई, आपने मन नहीं लगाया, तब काम बड़ा फूहड़, कुरूप, बेसिलसिले का, बेहूदा, बेढंगा हो जाएगा। अगर किसी काम में मन लगा दिया जाए, तो उसमें एक चमत्कार दिखाई पड़ेगा, जादू दिखाई पड़ेगा। मन लगाकर किए हुए काम और बिना मन लगाए किए हुए कामों में जमीन-आसमान का फरक होता है। स्पष्ट दिखाई देता है कि यह मन लगाकर किया गया है या नहीं। यह मशीन हमारे सामने रखी है। इसमें दो तार हैं, एक निगेटिव कहलाता है और एक पॉजिटिव कहलाता है। इन्हें ठंडे और गरम तार भी कहते हैं। दोनों मिल जाते हैं तो करंट चालू हो जाता है और अगर दोनों को अलग कर देते हैं, तो एक तार बेकार सा हो जाता है, दूसरा भी बेकार पड़ा हुआ है, कुछ काम आता नहीं। शरीर को हम अलग कर दें और मन को हम अलग कर दें, दोनों का हम समन्वय न करें, तो हमारे जो भी काम होंगे बेसिलसिले के और बेहूदे होंगे।
मित्रो, एक काम है भजन। भजन के संबंध में भी यही बात है। बिना मन से किया हुआ भजन और मन से किए हुए भजन में जमीन-आसमान का फरक होता है। बिना मन से किया हुआ भजन ऐसा है, जिसमें केवल जबान की नोंक की लपालपी और हाथों की उँगलियों की नोंक की हेराफेरी की क्रिया भर होती रहती है। चावल यहाँ रख दिया नमस्कारं करोमि, जैसी क्रियाएँ, दीपक इधर का उधर किया, आरती उतार दी, यह कर दिया, वह कर दिया। हाथों की हेराफेरी, वस्तुओं की उलटा पलटी और जीभ की लपालपी, बस भजन हो गया। अच्छा तो हो गया अनुष्ठान, हो गई साधना? नहीं बेटे, कुछ नहीं हुआ। यह तो केवल शारीरिक क्रिया हुई है। शरीर की क्रियाओं का जो फल मिलना चाहिए बस वही मिलता है। इससे ज्यादा कुछ और फल नहीं मिल सकता।
मन क्यों भाग जाता है
मित्रो, अगर साधना का चमत्कार आपको देखने का मन हो और साधना से सिद्धि की जो बात बताई गई है, वह करना हो तो आपको पहला काम क्या करना पड़ेगा? आपको सबसे पहले अपने काम में मन लगाना पड़ेगा। कोई भी काम हो, जिसमें भजन भी शामिल है, मन लगाकर करना पड़ेगा। भजन के साथ में मन लगाना चाहिए। मन लगाने से क्या मतलब है? मन लगाने से मतलब यह है कि मन भागना नहीं चाहिए और उपासना में लगना चाहिए। महाराज जी, यही तो हमको शिकायत है। क्या शिकायत है? मन भाग जाता है, अच्छा तो आपको यह शिकायत है। चलिए हम बताते हैं, फिर मन भाग जाए तो आप हमसे कहना। अब क्या करें? बेटे, मन को किसी काम में लगाया जाए। मन की बनावट ऐसी है कि जब कोई काम नहीं होगा तो मन भाग जाएगा। जब मन के भागने की आप शिकायत करते हैं, तो मैं हमेशा उसका उत्तर यह देता हूँ कि शायद आपने मन को किसी काम में नहीं लगाया, मन को काम में नहीं लगाया जाएगा तो मन भागेगा ही। घोड़े को आप काम में लगा दीजिए, ताँगे में लगा दीजिए, सवारी में चला दीजिए, कहीं भी लगा दीजिए तो घोड़ा काम में लगा रहेगा। घोड़े को आप खोल दीजिए, उसके गले में से रस्सी खोल दीजिए, फिर देखिए घोड़ा भागेगा ही। फिर आप कहेंगे कि साहब हमारा घोड़ा भाग गया। बैल को आप खाली छोड़ दीजिए, वह भाग जाएगा।
मित्रो, उपासना के समय भी हम अक्सर अपने मन को खाली छोड़ देते हैं, छुट्टल छोड़ देते हैं। उसे कोई काम सौंपते नहीं, कोई जिम्मेदारी सौंपते नहीं, इसीलिए मन भाग जाता है। मन भागेगा नहीं तो क्या करेगा? नहीं साहब! मन भागना नहीं चाहिए। बेटे, मन भागेगा नहीं तो क्या करेगा? भागना तो उसकी आदत है। उसकी तो बनावट ही ऐसी है, उसकी संरचना ही ऐसी है, उसकी इलैक्ट्रॉनिक संरचना ही ऐसे ढंग से की गई हैं कि उसको भागना चाहिए। भागना तो उसका स्वाभाविक गुण है। अगर वह भागेगा नहीं तो आदमी या तो सिद्धपुरुष हो जाएगा, समाधि में चला जाएगा या फिर पागल हो जाएगा। दो में से एक काम हो जाएगा। मन को तो भागना ही चाहिए। भागना उसका स्वाभाविक गुण है इसलिए उसका कोई कसूर नहीं है। मन का भागना बंद कीजिए। नहीं बेटे, यह नहीं हो सकता।
मन का भागना बंद करने के क्या तरीके हैं ? यह मैं कल आपको समझा रहा था कि उपासना में क्रिया के साथ-साथ मन को भी लगाइए। मन कैसे लगाएँ ? बेटे, मैं यही तो समझा रहा था। प्रत्येक क्रिया के साथ क्या संकेत जुड़े हुए हैं, क्या शिक्षण भरा हुआ है, उस पर गौर कीजिए। साथ ही यह भी गौर कीजिए कि किस काम के लिए यह किया जा रहा है। जिस काम के लिए भी किया जा रहा है, क्रियाएँ जो भी की जा रही हैं, उनका उद्देश्य क्या है? आम लोगों ने क्रियाओं को यह समझ रखा है कि कोई ऐसी बात नहीं है। कुछ लोगों का यह भी ख्याल है कि क्रियाओं को देखकर भगवान भी प्रसन्न हो जाते हैं। क्या कर रहे हैं? बच्चों जैसी उलटी-पुलटी हरकतें करते हैं। मम्मी हम यह घर बना रहे हैं। हाँ, बहुत खूब बेटे, अच्छा है घर बनाओ। भगवान जी! हमारे बच्चे को गायत्री मंत्र आता है। कैसा गायत्री मंत्र आता है ? "ऊँ भूं भूं भुवः"। अच्छा तो तू भी ऐसे ही भूं भूं कर लेता है। भगवान जी, वैसे तो समझते हैं कि आदमी जबान से क्या-क्या बकवास कर लेता है। अब चलिए मैं आपके मंत्रों को बकवाद कहता हूँ। जीभ की नोंक से आप क्या बक-बक मचाते रहते हैं। उससे भगवान प्रसन्न नहीं होता है। तो क्या केवल हाथों की उलटा-पलटी और जीभ की नोंक की हेरा−फेरी से भगवान प्रसन्न नहीं होता है? हाँ बेटे, नहीं होता है। तो किससे प्रसन्न होता है? आपके मन से, हृदय से और भावनाओं से।
चेतना व चिंतन का मेल हो
मित्रो, आपका जो वास्तविक अस्तित्व है, जो हाथ नहीं आता है, वह पदार्थ नहीं है, चावल और धूपबत्ती नहीं है, जीभ की नोंक नहीं है। आपका जो वास्तविक अस्तित्व है, जिसके द्वारा भजन किया जाना चाहिए, वह है आपका चिंतन। चेतना चिंतन से ताल्लुक रखती है। चेतना का स्रोत है—चिंतन। चिंतन को कहाँ लगाएँ ? सीधी-सी बात है—चिंतन कहाँ लग रहा है यह आप देखें। आप कहीं लग रहे हों, जीभ कहीं लग रही हो, वस्तुएँ कहीं भी रखी हों, माला कहीं भी चल रही हो, पर बेटे, आप यह बताइए कि आपका चिंतन कहाँ लग रहा है ? गुरुजी! चिंतन तो भागता रहता है। तो बेटे, भजन कहाँ हो रहा है? चिंतन को लगाने का उद्देश्य यह है कि जिस काम के लिए जो क्रियाएँ कराई जा रही हैं, आप उस इशारे पर आ जाइए कि उस इशारे के साथ में आपको क्या चिंतन करना चाहिए?
बेटे, हम सबेरे आत्मध्यान कराते हैं। आत्मध्यान कराने के साथ-साथ सजेशन देते हैं, निर्देश देते हैं। इसका क्या मतलब है? निर्देश से मतलब है कि जिस समय हम जो बात कहें, वैसे ही आपका विचार चलना चाहिए। जो हम कहें वैसी कल्पना कीजिए। हमने कहा, सप्तऋषियों का तपस्थान, आप ध्यान कीजिए कि सात ऋषि बैठे हुए हैं। बड़ा घना जंगल है और सातों ऋषि समाधि लगाए हुए बैठे हुए हैं। यह पुनीत स्थान जहाँ उनके शरीर पेड़ों की सघन छाया में हैं। आप इस तरह की कल्पना कीजिए, मन स्थिर हो जाएगा। बेटे, आपका मन भाग जाए, तो हमसे कहना। हम जो बताते हैं उसमें आपको ध्यान लगाना चाहिए, फिर देखिए कैसे मन भाग जाएगा। सबेरे हम आपको जो सजेशन देते हैं, उसके हिसाब से आप अपने चिंतन को और अपने विचार करने की श्रेणी को उसी पर स्थापित कीजिए, केंद्रित कीजिए। हमने आपसे कहा प्रात:काल का स्वर्णिम सूर्योदय। आप विचार कीजिए कि प्रात:काल का लाल रंगा सूरज, सबेरे निकलता हुआ बड़ा वाला सूरज, पूरब से निकला, थोड़ा निकला, अभी थोड़ा और बढ़ा, अभी और बढ़ा और पूरा सूरज निकल आया। क्या मतलब है ? बेटे, हमने आपसे कहा कि अपने मन को हमारी कही हुई बात पर लगा दें, फिर आपका मन उस काम पर लग जाएगा, तो भागने का सवाल ही नहीं है। यदि काम पर नहीं लगा, तब तो भागेगा ही।
इसलिए क्या करना चाहिए? प्रत्येक क्रिया के लिए जो कर्मकाण्ड बनाए गए हैं, वे श्रेष्ठ काम के लिए बनाए गए हैं। कर्मकाण्ड करते समय आपका ध्यान इस क्रिया पर जाए, जो बोलकर तो नहीं बताई गई है, पर क्रिया के माध्यम से बता दी गई है। कल हमने आपको बताया था कि आचमन से हमारी वाणी का परिष्कार होता है। कल जब आप आचमन करें तो यह ध्यान करें, यह विचार करें कि हमारी वाणी का संशोधन हो रहा है। वाणी को हम धो रहे हैं, वाणी को हम साबुन लगा रहे हैं। वाणी को पत्थर पर पीट रहे हैं, वाणी की ढलाई कर रहे हैं। वाणी पर पानी डाल रहे हैं। जैसे बच्चा गंदा हो जाता है, टट्टी कर आता है, तो उसके ऊपर बाल्टी से पानी डालते हैं, उसे धोते हैं, नहलाते हैं, उसको साफ करते हैं। आप यह विचार कीजिए कि हमारी वाणी जो अभक्ष्य खाने की वजह से, अवांछनीय वार्तालाप करने की वजह से गंदी हो गई है, इसको हम धोते हैं और साफ करते हैं। जैसे धोबी, धोबीघाट पर कपड़े ले जाकर पत्थर पर रगड़ता है। आप कल्पना कीजिए कि अपनी जीभ को धोबी की तरह से हम घाट पर ले जाते हैं और पत्थर पर रगड़कर धोते हैं। पानी का जो हमने आचमन कर लिया, उसके सहारे हम अपनी जीभ को दे पिटाई-दे पिटाई, दे डंडा-दे डंडा और उसका सारा-का-सारा कचूमर निकाल देते हैं। फिर देखिए कि वह गंदी रहेगी कि साफ होगी? साफ होगी।
साधना ऐसे जीवंत होगी
गुरुजी! और क्या बताएँगे? बता तो रहे हैं। बेटे, प्रत्येक क्रिया के साथ में चिंतन दिया हुआ है। ऋषियों ने जितने भी कर्मकाण्ड बनाए हैं, उनके साथ में चिंतन दिया है। चिंतन के साथ-साथ क्रिया को मिला देंगे, तो मन और क्रिया का समावेश हो जाएगा। यह दो चीजें शामिल हो जाएँगी—विचारणा और क्रिया तो चमत्कार हो जाएगा। विचारणा और क्रिया को मिला देने से हमारा शरीर और मन जिस तरीके से दोनों एक बन जाते हैं, वैसे ही आपकी साधना जीवंत हो जाएगी। प्रत्येक क्रिया के साथ हम पाँच उपासनाएँ बताते हैं। पाँच उपासनाओं का मोटा-मोटा स्वरूप हमने पत्रिकाओं में भी छाप दिया था और पिछले साल भी हमने स्वर्ण जयंती साधना भी सिखाई थी। गुरुजी ! हम स्वर्ण जयंती साधना वर्ष की साधना करते हैं और भजन भी पैंतालीस मिनट करते हैं। भजन तो करता है बेटा, पर तू एक बात तो बता कि उस कर्मकाण्ड के साथ-साथ जो विचार हैं, उनको भी करता है कि नहीं।
नहीं महाराज जी! मैं तो लगा रहता हूँ, बस माला पूरी कर लेता हूँ। माला पूरी कर लेता है तो तेरे लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। तेरे लिए बहुत आशीर्वाद, परंतु बेटा जब माला करता है, तो उसके साथ-साथ विचारों को भी लाता है कि नहीं? महाराज जी, विचार तो मेरे भागते रहते हैं। तो बेटा, भगवान की उपासना तेरी अधूरी है। तेरी उपासना का जो परिणाम मिलना चाहिए था, उससे जिस वातावरण का परिशोधन होना चाहिए था, उस वातावरण का परिशोधन हुआ क्या? जिस उद्देश्य से हमने प्रेरणा दी थी, शक्ति दी थी और दीक्षा दी थी, शिक्षा दी थी। न हमारा उद्देश्य पूरा हुआ, न तेरा हुआ और न ही भगवान का। तीनों में से एक का भी उद्देश्य पूरा नहीं हुआ, इसलिए क्रिया के साथ-साथ में विचारणा का समावेश करने की शिक्षा मैं हमेशा देता रहा हूँ और देता रहूँगा।
मित्रो, कल मैंने आत्मशोधन की प्रक्रिया आपको बताई थी कि गायत्री पंचमुखी भी है। पाँच कोशों में उसके पाँच मुख हैं। गायत्री उपासना पाँच चरणों में बँटी हुई है। पहला कृत्य है—आत्मशोधन की क्रिया। आत्मसंशोधन की क्रिया जिसमें हम पाँच कृत्य कराते हैं। १. पवित्रीकरण कराते हैं, २. आचमन कराते हैं, ३. शिखा बंधन कराते हैं, ४. प्राणायाम कराते हैं, ५. न्यास कराते हैं। इन पाँच क्रियाओं का एक उद्देश्य है कि हम अपने पाँचों कोशों को, पाँचों तत्त्वों को, पाँचों प्राणों को शुद्ध बनाते हैं। उपासना में पहला काम है सफाई करना। हमारे दिमाग में एक बात आनी चाहिए कि हमको भगवान के चरणों में जाने के लिए नहा-धोकर जाना चाहिए। स्वच्छ और पवित्र होकर जाना चाहिए। हमारे जीवन की क्रियाएँ पवित्र होनी चाहिए। हमारा चिंतन पवित्र होना चाहिए। हमारे साधन पवित्र होने चाहिए और हमारे जीवन की गतिविधियाँ पवित्र होनी चाहिए। अगर हम पवित्रता का पहला उद्देश्य पूरा कर लेते हैं, तो समझना चाहिए कि पाँच मुख वाली गायत्री की हमारी उपासना सफल हुई।
सर्वप्रथम, जीवन का परिष्कार
गायत्री के पंचकोश जागरण करने की प्रक्रिया में गुरुजी आपने तो ब्रह्मचर्य की बात कही थी। बेटे, हम बताते हैं कि ब्रह्मचर्य तेरे लिए यहीं से शुरू होता है। औरों के लिए, बड़ों के लिए हम कुंडलिनी बता देंगे, पर तेरे लिए कुंडलिनी जगाना बेकार है। तेरे लिए तो यहीं से शुरू होता है। तू यह बता कि तूने अपने जीवन का परिष्कार कर लिया कि नहीं, तभी बेटे बात बनेगी अन्यथा नहीं? हमारे गुरु ने हमें बार-बार बुलाया है। बार-बार बुलाने की शृंखला उन्होंने उस समय से प्रारंभ की जिस समय कि हमारे चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण पूरे हो गए। जब उन्होंने यह देख लिया कि इसने अपना मन, अपना शरीर और अपनी जिह्वा का संशोधन करके इस लायक बना लिया कि हमारी गोदी में आ सकता है, तब उन्होंने अपनी लंबी वाली भुजाएँ फैलाईं और कहा, अब तो तुझको मेरे पास आना चाहिए। मैंने कहा, पहले क्यों नहीं बुलाया था आपने? मुझे चौबीस साल हो गए, जब तो मैं जवान ही था। उन्होंने कहा, तब तक तू संशोधित नहीं हो सका था। मैंने देखा था कि तेरी सफाई में कमी थी, तेरी शुद्धता में कमी थी। तेरी शारीरिक और मानसिक शुद्धता का जो स्तर होना चाहिए, उसमें मैंने कमी पाई, इसलिए मैंने सोचा कि अभी और निखार लूँ, अभी और तेरे कपड़ों की धुलाई कर लूँ। अब तेरी चड्ढी भी धुल गई, तेरा मन भी धुल गया, तेरा सब धुल गया, अब मेरा मन आता है कि तुझे गोदी में लूँ। अपने पिता से मैं लिपटता हुआ चला गया, उनका दूध पीता हुआ चला गया, उनकी शक्ति-सामर्थ्य को प्राप्त करता हुआ चला गया।
मित्रो, संशोधन का यह काम आवश्यक है, उपासना से भी ज्यादा, भजन से भी ज्यादा। कर्मकाण्ड से भी ज्यादा आवश्यक है। अति आवश्यक है कि आप भी अपना आत्मसंशोधन कर लें, तो बात बने। लोहा जब तक कच्चा रहता है, तब तक उसकी कोई चीज नहीं बन सकती। हमने भिलाई और टाटानगर में कच्चा लोहा देखा। कच्चा लोहा वैगन में भरकर आता था। कच्चा लोहा कहाँ से आता है ? साहब! यह जमीन में से खोद-खोदकर आता है। साहब! जरा लोहा दिखाना। यह ऐसा लोहा जैसे मिट्टी मिला हो। यह लोहा है। यह कैसा लोहा है? साहब! यही लोहा है। अरे बाबा! यह कैसा लोहा है, यह तो कुछ और ही है। नहीं बाबा! यही लोहा है मिट्टी मिला कच्चा लोहा। बेटे, कैसा लोहा था—मिट्टी थी, भारी-भारी पत्थर थे। तो अब इससे लोहा कैसे निकलेगा? देखिए अब तमाशा दिखाते हैं कि इसमें क्या-क्या होता है। कच्चा लोहा लिया और तुरंत लेने के बाद उसको भट्टी में डाल दिया, गरम किया, पकाया। पकाने के बाद में मिट्टी अलग होती चली गई और लोहा अलग होता चला गया। एक बार सफाई हो गई। दुबारा लोहे को फिर से भट्टी में डाल दिया, उसमें जो कचाई थी, कमजोरी थी, फिर उसमें से साफ हो गई। आगे भी फिर यही प्रक्रिया दोहराई गई। ऐसा होते-होते आखिर में सफाई की प्रक्रिया जब चलती चली जाती है, तो स्टेनलेस स्टील बनती जाती है। स्टेनलेस स्टील कैसी होती है ? बेटे, ऐसी होती है, चाँदी जैसी। लोहे में और चाँदी में फरक नहीं होता है ? नहीं साहब! लोहा काला रहता है। नहीं साहब ! काला नहीं होता सफेद होता है। लोहा मैला होता है, जंग लग जाती है। नहीं साहब! लोहे को जंग नहीं लगती। स्टेनलेस स्टील को देखिए, इसको जंग नहीं लगती है। तो क्या कच्चा लोहा स्टेनलेस लोहा हो सकता है? हाँ हो सकता है। कब, जब लोहे को परिशोधित करते हुए, संशोधित करते हुए चले जाएँ।
सबसे बड़ा योगाभ्यास
मित्रो, वास्तव में जीवन जीने की विधि भी यही थी। पर हाय रे भगवान, न जाने लोगों ने क्या कर दिया, लोगों ने क्या व्याख्या कर दी। उपासना को, साधना को लोगों ने जादू मान लिया। अध्यात्म को मनोकामना पूरा करने का जादू मान लिया। यह जादू नहीं है, यह जीवन जीने की कला है। जीवन को संशोधित करने की विधि है। आपका जीवन इतना बड़ा जीवन है कि इस पर हम देवताओं को निछावर करते हैं, भगवान को हम इस पर निछावर कर सकते हैं। भगवान से बड़ा है जीवन। वह साक्षात् भगवान है। इस जीवन को परिष्कृत करना अपने आप में सबसे बड़ा योगाभ्यास है। उसे साधना कहिए, उसे तप कहिए, उसे भजन कहिए—इन सबका उद्देश्य भगवान को रिझाना नहीं है, भगवान की खुशामद करना नहीं है, भगवान को फुसलाना नहीं है, भगवान को बहकाना नहीं है। भगवान के आगे तरह-तरह के जाल बिछाना नहीं है। भगवान की उपासना का उद्देश्य एक तो यह है कि हम अपने आपको परिशोधित करते चले जाएँ। अपने आपका परिशोधन करते हुए चले जाएँगे, तो फिर देखेंगे कि क्या कमाल होता है। देखें फिर क्या मजा आता है। देखिए आपके पास कैसे सब चमत्कार आते हैं। मैं आपसे यही कहने वाला था कि आप अपनी वाणी को संशोधित कर लीजिए, फिर आप अपनी जुबान से कहिए कि तेरा भला हो जाए, आशीर्वाद हो जाए और तेरा कल्याण हो जाए। फिर देखना क्या होता है और क्या नहीं होता है। कैसी-कैसी चीजें उड़ती हुई चली आती हैं।
आप अपनी आँखों को संशोधित कर लीजिए फिर देखिए, कैसे चमत्कार होता है। आँखों को संशोधित कैसे करें? आँखों को संशोधित ऐसे करें जैसे गान्धारी ने की थीं। गान्धारी ने कैसे किया था? गान्धारी ने आँखों को संशोधित करने के लिए अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली थी। पट्टी बाँधने का मतलब यह है कि दूसरों की, व्यक्तियों की, नर और नारियों की जो मान्यताएँ हैं, उससे आप प्रभावित न हों। गान्धारी ने तो अपनी आँखों में पट्टी इसलिए बाँध ली थी कि उसका जो अंधा पति था, उससे उसकी शादी हुई थी, इसलिए उसने अपनी आँखों में पट्टी बाँध ली थी कि मेरा मर्द एक ही है, दूसरा कोई मर्द है ही नहीं। आँखों का संशोधन करने के पश्चात् न कोई जप किया, न तप किया और न कोई पूजा की, न कोई अनुष्ठान किया, न कोई ध्यान किया। गान्धारी ने आँखों में जो पट्टी बाँधी थी, उसका मतलब आपको समझ लेना चाहिए। पट्टी बाँधने का मतलब यह नहीं है कि अपने आप से पट्टी बाँधे। क्यों साहब, सूरदास जी ने अपनी आँखें फोड़ ली थीं या फूट गई थीं और हम भी फोड़ लें तो क्या भगवान दिखाई पड़ेंगे? बेटे, यह गलती तो मत कर लेना। आँखें फोड़ने से मतलब है कि हमारी जो कमीनी आँखें, दुष्ट आँखें हैं, जो नारी को, मातृशक्ति को विषय वासना के रूप में देखती हैं, तो उन्हें हम फोड़ दें अर्थात् बदल दें। फिर देखना आँखों का चमत्कार कैसे होता है।
गुरु जी, सिद्धियों का दूसरा तरीका बताइए? क्या तरीका बताएँ। कोई ऐसा मंत्र बताइए कि जिससे काली हमारे काबू में आ जाए, देवी हमारे काबू में आ जाए, फलानी हमारे काबू में आ जाए। धूर्त, देवी तेरे काबू में आ जाएगी, तो तेरा कचूमर निकाल देगी। कैसे? वैसे ही जैसे एक बार शुंभ ने अपने दूत से संदेश भेजा, कहा कि देवी तू हमारे काबू में आ जा। काबू से क्या मतलब है। तू हमारी बीबी बन जा। किससे कहने लगा था? चंडी से कि हमारे कहने में चल, हमारे या हमारे भाई निशुंभ की सेवा में आ जा। देवी ने कहा, अच्छा आप हमें बीबी बनाना चाहते हैं ? हाँ, आप हम पर हुकुम चलाना चाहते हैं ? हाँ, आप हमें गुलाम बनाना चाहते हैं ? देवी ने कहा, हम आपकी नौकरानी बन सकती हैं और गुलामी भी कर सकती हैं, पर हमने एक प्रतिज्ञा कर रखी है। आपको हमारी एक शर्त माननी पड़ेगी। बोले—क्या?
यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्प व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥
मैं तुझे अपना पति बनाने को तैयार हूँ और मैं तेरी पत्नी बनने को तैयार हूँ, लेकिन शर्त तो पूरी कर। कैसे पूरी करूँ? 'यो मां जयति संग्रामे' जो मुझको संग्राम में जीतेगा। आ जा मुझसे लड़, इतना पराक्रम, इतना पौरुष, इतना साहस दिखा। जितना साहस मुझ में है, इतना ही पराक्रम-पौरुष दिखा और यह कार्य 'यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति' संसार में जो मेरे समान बलवान होगा। जो मुझे संग्राम में पराजित कर देगा, हरा देगा, वही मेरा स्वामी होगा। मैं उसी की पत्नी बनूँगी, वरना नहीं बनूँगी। उसने कहा, मैं लड़ने को तैयार नहीं हूँ। तब देवी ने कहा, अब मैं तेरी अकल ठीक कर दूँगी।
मित्रो, देवी को आप क्या बनाना चाहते हैं? देवी को औरत बनाना चाहते हैं, आप देवी के पति बनना चाहते हैं न। कौन बनना चाहता है ? पति बनना चाहता है या भक्त बनना चाहता है? यह क्या कह रहा है गंदे मुँह से। बेटे, देवी हमारी माँ है। माँ हुकुम देती है और बच्चे को उसका पालन करना पड़ता है। पति का मतलब यह है कि पति हुकुम देता है अपनी बीबी को, खाना बना देना, थोड़ा काम कर हमारे पैर दबा आकर यही कह रहे थे न कि देवी जी को हमारा हुकुम मानना पड़ेगा, हमारा कहना मानना पड़ेगा। सब पर हुकुम चलाते हैं, गुरु जी को हमारा हुकुम मानना पड़ेगा। देवता को, भगवान को हमारा हुकुम मानना पड़ेगा। क्यों? हमने धूपबत्ती जला दी, आपके ऊपर हमने माला पहना दी। आप हुकुम चला रहे थे हमारे ऊपर? हाँ साहब, हम तो हुकुम चलाएँगे आपके ऊपर, हम तो चेला हैं। बड़ा आया चेला।
अपने मन को भगवान के साथ जोड़ दें बेटे, आपको क्या करना पड़ेगा? आपको अपने मन को भगवान के साथ, देवता के साथ जोड़ देना पड़ेगा। कल हमने आपको बताया था कि परिशोधन की प्रक्रिया के साथ सारे-के-सारे विचार उसमें जुड़े हुए हैं। किसमें? जो हम कर्मकाण्ड कराते हैं उसके साथ। कर्मकाण्डों का जादू इतना ही है कि प्रत्येक कर्मकाण्ड के साथ में शिक्षा भरी पड़ी है। वे सारी-की-सारी शिक्षाएँ आपके हृदयों में गूँजती रहें, दिमागों में चलती रहें। आपके चिंतन और विचारों की धारा वहीं बहती रहें, तो मैं समझूँगा कि आपने विचारों का और क्रिया का समन्वय कर दिया।
(क्रमशः)
परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
ध्यान क्यों करें? कैसे करें? -२
(गतांक से आगे)
मित्रो, पहले हमने आत्मशोधन की क्रिया बताई थी। अब गायत्री की पंचमुखी साधना का दूसरा वाला चरण बताता हूँ, जिसका नाम है, 'देव-पूजन'। देव-पूजन किसे कहते हैं? बेटे, इस बारे में तो हम बताते रहते हैं कि गायत्री माता का एक फोटो रख लेना। हाँ, वह तो मैंने रख लिया है। और बेटे, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत चढ़ा दिया करना, चंदन लगा दिया करना। हाँ गुरुजी, वह तो मैं लगा देता हूँ। इसमें क्या रखा है? वह तो मैंने एक छोटी-सी डिबिया में रख लिया है और एक डिब्बी में धूपबत्ती भी रख ली है। हाँ बेटे, तूने यह बहुत अच्छा किया। महाराज जी, मैंने सेंट भी रखा हुआ है। यह तो और भी अच्छा किया। बेटे, नैवेद्य कितने पैसे का लाया था? गुरुजी, पच्चीस पैसे का लाया। था। इससे दो महीने का काम चल जाता है। दो इलायची दाने रख देता हूँ। बेटे, तेरा नैवेद्य का काम तो बहुत बढ़िया है। यह तो बहुत दिन चल जाता होगा? हाँ महाराज जी, इसके अलावा और कमी हो तो मुझसे कहिए।
उपासना में मन को लगाइए
हाँ बेटे, तेरी उपासना में एक कमी है। तू यह सारी-की-सारी क्रियाएँ करने के साथ में उपासना में मन को क्यों नहीं लगाता। जब भी कोई क्रिया करे, तो उसमें अपने मन को लगा लिया कर। इन वस्तुओं के साथ में जो शिक्षण दिया हुआ है, उसे हृदयंगम करने से ही उपासना का प्रतिफल मिलता है। क्या शिक्षण दिया हुआ है? पंचोपचार में पाँच चीजें आती हैं। जब इसमें से एक चीज चढ़ाया करें, तब अपनी विचारणा को, विचारों को उन वस्तुओं के साथ उसी प्रकार से लगा लिया करें, जिसका शिक्षण उसका आधार बनाया गया है। क्या आधार बनाया गया है? सबसे पहले हम जिस देवता का पूजन करते हैं, जल चढ़ाते हैं और मंत्रोच्चार करते हैं—'पाद्यं समर्पयामिः', 'अर्घ्यं समर्पयामि', 'आचमनं समर्पयामिः'। ये तीन चीजें हैं। तीन चम्मच जल से यह प्रक्रिया पूरी होती है। बेटे, तू यह तीन चम्मच से कराता है या तीन बालटी से? महाराज जी, मैं तो तीन चम्मच से कराता हूँ और कहता हूँ, 'स्नानं समर्पयामि।' अच्छा बता, तीन चम्मच से तू कैसे नहा लेगा? इस चम्मच से या तो तू नहा ले या अपने बच्चे को नहला ले। जब तेरा बच्चा नहा लेगा, तब हम जानेंगे कि भगवान को नहला सकता है। नहीं महाराज जी, मैं तो ऐसे ही कर देता हूँ, 'आचमनं समर्पयामि।' अच्छा बेटे, तो यह बता कि जब कुल्ला करता है तो कितना पानी खरच कर देता है? महाराज जी, एक लोटा तो खरच हो ही जाता है, हाथ-मुँह धोने और कुल्ला करने में। अच्छा तो अब तू ही बता कि एक चम्मच जल से भगवान जी का होठ भी गीला नहीं होगा, फिर आचमन क्या कराता होगा? भगवान से मखौल करता है, दिल्लगीबाजी करता है और कहता है कि एक चम्मच जल से भगवान जी को स्नान कराता हूँ। बेटे, भगवान का पूजन इस तरह से नहीं होता।
महाराज जी, आपने ही तो बताया था यह। बेटे, मैंने तो बहुत-सी बातें बताई थीं, वह तो याद नहीं रखीं, केवल क्रिया याद रखी। यह याद नहीं कि जल चढ़ाते समय क्या वृत्ति रहनी चाहिए। उस समय यह वृत्ति रहनी चाहिए कि हम अपने आपका समर्पण करें। देवता से माँगना मत, वरन् यह भाव व्यक्त करना कि हम आपको समर्पण करेंगे। आपको हम देंगे। जो देता है, वही देवता कहलाता है। देवताओं ने भगवान को दिया है और आपको भी देवता की कृपा प्राप्त करने के लिए देने की वृत्ति सीखनी पड़ेगी। जब तक आपके अंदर देने की वृत्ति नहीं आएगी, कोई भी देवता आपके ऊपर कृपा नहीं कर सकता।
देने का भाव सदा मन में हो
मित्रो, देने की वृत्ति का अर्थ यह है कि हम जो जल चढ़ाते हैं, उसके पीछे भगवान को यह आश्वासन दिलाते हैं कि हमारी पसीने की बूँदें, हमारे श्रम की बूँदें, हमारी मेहनत, हमारा वक्त और हमारा समय आपके कामों के लिए लगा करेगा। जल चढ़ाते समय हम बार-बार विचार करते हैं कि हमारा श्रम अर्थात पसीने की बूँदें अर्थात मेहनत। मेहनत माने पसीने की बूँदें, जो जल का प्रतीक हैं, हमारी मशक्कत का प्रतीक हैं, हमारी मेहनत का प्रतीक हैं, अपने समय का हिस्सा हैं, ये समाज के लिए, देश के लिए, संस्कृति के लिए, धर्म के लिए अर्थात भगवान के लिए लगा करेगा। भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, यह आप ध्यान रखना। भगवान के लिए हम देते हैं। कहाँ है भगवान? साहब, वह तो मंदिर में बैठा हुआ है। नहीं बेटे, जो मंदिर में बैठा हुआ है, वह तो कोई खिलौना है। फिर कहाँ है भगवान? मनुष्य की श्रेष्ठता के रूप में, ऊँचे समाज के रूप में भगवान है। भगवान ने जब अर्जुन को, यशोदा माता को अपना विराट रूप दिखाया था, तो सारे समाज के रूप में दिखाया था। समाज ही भगवान का रूप है। समाज की सेवा के लिए, लोकहित के लिए, लोकमंगल के लिए तू जो पसीना बहाता है, श्रमदान करता है, वास्तव में यह जल चढ़ाना उसी का प्रतीक है।
ध्यान के लिए भगवान को रिश्तेदार बनाइए
भगवान निराकार है। निराकार भगवान श्रेष्ठ विचारणा के रूप में, आदर्शों के रूप में, सिद्धांतों के रूप में है। भगवान कोई व्यक्ति नहीं है। महाराज जी, हमने तो व्यक्ति बना रखा है। बेटे, हमने उसे ध्यान के लिए बना रखा है। ध्यान करने के लिए किसी-न-किसी चीज पर मन को एकाग्र करना पड़ता है, इसलिए ध्यान में एकाग्रता के लिए हम कोई-न-कोई शक्ल बना लेते हैं और केवल शक्ल ही नहीं बनाते, वरन् उससे कोई-न-कोई रिश्ता भी कायम कर लेते हैं, जबकि भगवान किसी का रिश्तेदार नहीं है। बिजली किसी की रिश्तेदार नहीं है। नहीं महाराज जी, भगवान हमारा रिश्तेदार है। बेटे, भगवान को हमें रिश्तेदार बनाना पड़ता है, ताकि मनुष्य का ध्यान उनमें लगा रहे। ध्यान की तीव्रता के लिए, मन की चंचलता को दूर करने के लिए, मन की वृत्ति को ध्यान में लगाए रखने के लिए हम किसी-न-किसी रूप की कल्पना करते हैं। कल्पना करने के पश्चात उसमें अपना मन लगाए रहते हैं। यह मन को एकाग्रचित्त करने का तरीका है।
मित्रो, असल में भगवान एक ही है। अगर दुनिया में इतने तरह के देवी-देवता होते, तो आपस में मार-काट फैल जाती, लड़ाई-झगड़ा होता, मुकदमेबाजी शुरू हो जाती, फिर फौजदारी खड़ी हो जाती। ये संतोषी माता, वह काली माता। काली माता कहती कि हमारे अच्छे चेले को संतोषी माता झटक ले गईं। अच्छा मैं उनके बाल उखाड़ूँगी। संतोषी माता का चेला, जो कल तक शुक्रवार के दिन खटाई-मिठाई नहीं खाता था, अब रात्रि में चंडी की पूजा करने लगा, तो संतोषी माता गाल फुला के बैठ गईं। संतोषी माता का चेला चंडी के यहाँ और चंडी माता का चेला संतोषी माता के यहाँ चला गया, तो वे आपस में लड़ मरेंगी। जिस तरह औरतों में लड़ाई होती है, चेलों में लड़ाई होती है, सबमें लड़ाई होती है, उसी तरह देवी-देवताओं में लड़ाई होती और सबके कचूमर निकल पड़ते। तो महाराज जी, यह क्या चक्कर है? बेटे, कोई चक्कर नहीं है। दुनिया में भगवान एक ही है। तो अनेक तरह के देवी-देवता क्या हैं? ये बेटे कल्पनाएँ हैं। कल्पना न होती, तो इतने तरह के फर्क कैसे हो जाते? अगर दुनिया में हजारों भगवान होंगे, तो मुश्किल आ जाएगी। भगवान एक है, अनेक भगवान नहीं हैं। फिर दुनिया में तरह-तरह की शक्लों वाले भगवान कैसे हो गए? बेटे, मुसलमानों ने अपना दाढ़ी वाला बना लिया है, हमने अपना मोर मुकुट वाला बना लिया है। अमुक ने अपना अमुक तरह का बना लिया है, ये सब कल्पनाएँ हैं।
तो महाराज जी, असली भगवान क्या है? बेटे, उच्च एवं श्रेष्ठ विचारणा के समुच्चय को, उत्कृष्टता के समुच्चय को, सद्गुणों के समुच्चय को भगवान कहते हैं। बेटे, भगवान जब कभी आता है, तो श्रेष्ठ विचारों के रूप में आता है, आदर्श उत्कृष्टता के रूप में आता है। उत्कृष्ट चिंतन के रूप में आता है, शक्ल के रूप में नहीं आता। महाराज जी, हमने रात को हनुमान जी को देखा। तो देखा होगा, अच्छी बात है। बेटे, भगवान करे तुझे रोजाना दिखाई पड़ें। महाराज जी, हमें तो कल लक्ष्मी जी दिखाई पड़ी। बेटे लक्ष्मी जी दिखाई पड़ी तो तुझे कुछ रुपया-पत्ता भी दे गईं कि नहीं? नहीं महाराज जी, दे-दिवा तो कुछ नहीं गईं। बेटे, तूने ख्वाब देख लिया है, अन्यथा यदि लक्ष्मी जी तेरे घर आई होतीं, तो खाली हाथ क्यों चली गईं, कुछ तो दे जाती। नहीं साहब, कुछ दिया तो नहीं है, वैसे ही शक्ल दिखाकर भाग गई। नहीं बेटे, ये तेरे अपने जाल-जंजाल हैं, मैं इन पर विश्वास नहीं करता।
आदर्शों का समुच्चय भगवान
श्रेष्ठता के प्रति, आदर्शों के प्रति, जिसको मैं भगवान कहता हूँ, उस श्रेष्ठता का, आदर्शों का जिन्होंने पालन किया, वह भगवान के भक्त कहलाए और भगवान के अनुग्रह के अधिकारी होते चले गए। देव-पूजन के साथ जुड़े हुए जो लोग श्रेष्ठता के विचार हैं, वही हमारे विचार होने चाहिए कि हम अपना श्रम, अपना पसीना अच्छे उद्देश्यों के लिए, श्रेष्ठ कामों के लिए निरंतर खरच किया करेंगे। आप जितनी देर तक जल चढ़ाया करें, आचमन चढ़ाया करें, पानी चढ़ाया करें, उतनी देर तक अपने विचारों को इस तरह घुमाते रहें कि हम अपना श्रम यानि पसीना लोकहित के लिए समर्पित करेंगे। जब अक्षत चढ़ाएँ, 'अक्षतं समर्पयामि' तब क्या विचार करना चाहिए? महराज जी, अक्षत से क्या फायदा है? बेटे, अक्षत से आपके विचार से यह फायदा है कि गणेश जी को कोई खाना दे जाता है, कोई नहीं देता। तो जो वह चार-पाँच चावल तू उन पर फेंक देता है, तो गणेश जी खा जाते हैं, उनके चूहे खा जाते हैं। नहीं महाराज जी, चार-पाँच चावलों से क्या हो जाता है? बेटे, कुछ भी नहीं होता है।
महाराज जी, तो फिर हम चावल क्यों चढ़ाते हैं? चावल हम इसलिए चढ़ाते हैं कि अपने आपको हम शिक्षित करें कि देख भुलक्कड़, तुझे सब कुछ पाकर सब कुछ याद है। अपनी नौकरी और प्रमोशन याद है, अपने बेटे को वकील बनाना भी तुझे याद है, पर यह याद नहीं है कि इतने करोड़ों रुपये मूल्य का यह जो जीवन भगवान ने दिया है, उसका भी कुछ कर्ज चुकाना है। उसकी भी कुछ ब्याज देनी है। उसकी भी कुछ सेवा करनी है, इसलिए हम चावल लेकर रोजाना अक्षत चढ़ाते हैं और ये कहते हैं कि अपनी कमाई का एक अंश आपको निष्ठापूर्वक (अक्षत की तरह बिना टूटे) नियमित रूप से देते रहेंगे। आप हमारी जिंदगी के हिस्सेदार हैं। आप हमारे शेयर होल्डर हैं। ये हमारी जिंदगी की दुकान है। इसमें अकेले मनुष्य का ही हिस्सा नहीं है। इसमें कुछ भगवान का भी हिस्सा है। इसमें भगवान की भी कुछ पूँजी लगी हुई है। इसमें भगवान ने भी कुछ रकम लगाई है। भगवान की मशीनें इस फैवटरी में काम कर रही हैं। इसमें सब कुछ आपका ही नहीं है। आपकी अपनी अकल है, पर बेटे, सारी-को-सारी मशीनें तो किराये की हैं। तुझे मालूम नहीं है क्या कि जिससे तू देख रहा है, जिसकी अकल तू ले रहा है, जो कंप्यूटर तेरे दिमाग में फिट किया हुआ है, यह तेरा नहीं है। यह किसी और का है। उसका भी कुछ शेयर है। क्या सारा माल तू ही हजम कर जाएगा कि उसको भी कुछ देगा? तो क्या महाराज जी, उसको भी कुछ देना पड़ेगा? हाँ बेटे, क्योंकि इसमें सारा धन उसी का लगा हुआ है। तू तो केवल उसकी फैक्टरी में काम करता है। तू तो काम करने वाला मुनीम है, मालमत्ता तो सारा उसी का है।
भगवान के लिए निकालिए अपना एक अंश
इसलिए मित्रो, जो अक्षत-चावल हम चढ़ाते हैं, उसके पीछे यह शिक्षण छिपा हुआ है कि हमारे मन में इस वृत्ति या भावना का उदय होना चाहिए कि हमारी कमाई का एक अंश ब्याज के रूप में, कर्ज चुकाने के रूप में अपने शेयर होल्डर का, अपने पार्टनर का हिस्सा-शेयर अपने हिस्से में से हमको निरंतर देना पड़ेगा, तो हम निरंतर देते रहेंगे। भगवान को हम अपना रिश्तेदार मानते हैं। चलिए आप भगवान को अपना रिश्तेदार तो क्या मानेंगे, अपना बेटा ही मान लें। साहब, हमारे चार बेटे हैं, तो पाँचवाँ बेटा हम भगवान को भी मान सकते हैं। नहीं महाराज जी, भगवान तो हमारा गुरु है। नहीं बेटे, गुरु तो मत मान, बेटा ही मान ले। अब तुझे क्या करना पड़ेगा? चार बेटों को खिलाता-पिलाता है। हाँ गुरुजी, उन्हें खिलाता-पिलाता हूँ, कपड़े पहनाता हूँ। तो बेटे, पाँचवें को भी पहना। पाँचवाँ कौन-सा है— भगवान। अच्छा बेटे, एक पर कितना खरच आता है? महाराज जी, किसी की पढ़ाई में ढाई सौ रुपये महीना खरच करता हूँ, किसी में सवा सौ रुपये खरच करता हूँ, किसी में पौने दो सौ रुपये खरच करता हूँ, किसी में चालीस रुपये खरच करता हूँ। बेटे, एक और को भी ले ले। नहीं महाराज जी, भगवान को तो मैं धूपबत्ती खिलाऊँगा। और बेटे को? बेटे को जलेबी खिलाऊँगा। अच्छा तो बेटे को भी धूपबत्ती खिला? नहीं साहब, अपने बेटों को जलेबी खिलाएगा और भगवान को धूपबत्ती खिलाएगा, बदमाश कहीं का।
मित्रो, क्या करना पड़ेगा? हमको वास्तविकता के धरातल पर उतरना पड़ेगा। हमको यथार्थता पर आना पड़ेगा। हमको यह मानकर चलना पड़ेगा कि भगवान हमारा कोई रिश्तेदार है। भगवान ने हमारे जीवन में जितनी ज्यादा सुविधाएँ और संपदाएँ दी हैं, उसके लिए हमको कुछ करना चाहिए। हमारा अक्षत, हमारे चावल, हमारा श्रम, हमारी कमाई, हमारा उपार्जन, जिसमें पैसा भी शामिल है, बुद्धि भी शामिल है, भाव भी शामिल है, प्रतिभा भी शामिल है, इसका एक हिस्सा लोकहित के लिए है। वह समाज के कल्याण के लिए, देश के लिए, धर्म और संस्कृति के लिए खरच होना चाहिए। जब आप अक्षत चढ़ाएँ, तो साथ-साथ में ये विचार, ये भाव भी करते जाएँ।
महाराज जी, ऐसा ध्यान बताइए कि जिससे मन एक जगह एकाग्रचित्त हो जाए। मन कहीं भागे नहीं। बेटे, ऐसा एकाग्र मन, जैसा तू चाहता है, कैसे हो सकता है? तूने अभी मनोविज्ञान पढ़ा नहीं है, न्यूरोलॉजी पढ़ी नहीं है, इसलिए तू बोलता रहता है कि मन एक बिंदु पर एकत्र हो जाए। बेटे, मन एक बिंदु पर हो ही नहीं सकता। हम जो साकार उपासना बताते हैं, गायत्री माता की उपासना बताते हैं, उसमें गायत्री माता के एक हाथ में कमंडल, एक हाथ में पुस्तक, एक हंस, एक मोर मुकुट है। ये क्या चीज हैं? यह क्या चक्कर है महाराज जी? बेटे, चक्कर यह है कि मन को सीमाबद्ध करने के लिए उसे इतने बड़े दायरे में घुमाना पड़ेगा। कभी कमल को देख, कभी हंस को देख, कभी मुकुट को देख, कभी उनके होठों को देख, कभी साड़ी को देख, कभी इसको देख। इतने ही दायरे में जब मन भागेगा, तो जो मन कभी भी घंटों में ध्यान से नहीं रुकता था, वह इतने ही दायरे में यहाँ-वहाँ भागता रहेगा। मन एक सीमा में भागता रहेगा, एक सीमा में घूमता रहेगा।
ऐसे आएगी तन्मयता-एकाग्रता
मित्रो, ध्यान में मन को एक सीमा में घुमाया जाता है। एक मिनट के लिए भी अगर मनुष्य का मन एकाग्र हो जाता है, तो मनुष्य समाधि में चला जाता है। बार-बार मन को एकाग्र करने की बात करता है कि हमारे मन को एकाग्र कर दीजिए। मनुष्य समझता नहीं कि मैं क्या कह रहा हूँ। अगर मन एक बिंदु पर एक मिनट के लिए भी इकट्ठा हो जाए, तो वह समाधि में चला जाएगा, बेहोश हो जाएगा, इसलिए हम कहते हैं कि एकाग्रता का मतलब होता है—एक धारा, एक दिशा। सबेरे जब हम आपको ध्यान कराते हैं एक धारा देकर, एक दिशा देकर कराते हैं। मन को एकाग्र होने का दावा नहीं करते, वरन् एक दिशा देते हैं। वैज्ञानिकों की एक दिशा होती है, एक धारा होती हैं। प्रयोग-परीक्षण करके वह सिद्ध कर देता है कि इसमें ये कैमीकल मिल जाएगा, तो ये हो सकता है। ये मिल जाएगा, तो अमुक हो सकता है। सारी-की-सारी इतनी शतरंज बिछी हुई हैं कि पास में से चूहा गया है, तो यह मालूम नहीं है, क्योंकि उसे अपने काम की जल्दी पड़ी है। वह उसके साथ एकाकार हो गया है, एकाग्र हो गया है।
महाराज जी, अभी तो आप कह रहे थे कि वह हजारों तरह के विचार करता है। हाँ बेटे, हजारों तरह के विचार करता है। उसे मैं एकाग्रता कहता हूँ। उसकी इच्छा एक है, दिशा एक है। अपने उद्देश्य से एक हो गया है, बस इतनी एकाग्रता हो सकती है। अंतर केवल इतना है कि आप जो विचार करते हैं, वह असंभव विचार करते हैं। मन कहीं भागने ही न पाए, एक विशेष अवस्था में लगा रहे, यह हो सकता है। बेटे, जब हम लेख लिखते हैं, तो एकाग्र हो जाते हैं। लोकमान्य तिलक के पैर का ऑपरेशन होने वाला था। डॉक्टरों ने उनसे कहा कि आपको बेहोश करना पड़ेगा। उस जमाने में बेहोशी का तरीका बहुत घटिया था। एक बार क्लोरोफार्म सुँघा दिया, तो महीने भर तक उल्टियाँ आती रहती थीं, सिर चकराता रहता था। बहुत शिकायतें रहती थीं। उन्होंने कहा कि महीने भर तो आपको दिक्कत रहेगी। तिलक ने कहा कि फिर तो महीने भर में मेरा काम बड़ा हर्ज होगा। आप ऐसा कीजिए कि बिना बेहोशी के ही ऑपरेशन कर दीजिए, मैं चिल्लाऊँगा नहीं।
डॉक्टर ने कहा, आप चिल्लाएँगे। उन्होंने कहा, बिलकुल नहीं, लाइए हम अपनी गीता की पुस्तक पढ़ना शुरू करते हैं। इसे पढ़ने में हम इतना तन्मय हो जाएँगे कि इतने समय में आप मुझे काटकर पटक देना। अच्छी बात है। तिलक ने गीता की पुस्तक मँगाई। उन्होंने अपनी टाँग लंबी कर दी और पढ़ने में तन्मय हो गए। ध्यान से सुनना, वे पुस्तक में से पढ़ने लगे, "स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥" और वे समाधि में चले गए। डॉक्टर ने झट से पाँव का ऑपरेशन करके रुग्ण भाग को काटकर फेंक दिया। उन्होंने कहा कि ऑपरेशन हुआ कि नहीं हुआ। अरे हो तो गया। बहुत जल्दी ऑपरेशन कर दिया।
हो एक विषय पर गहरा चिंतन
बेटे, यह क्या बात है? ध्यान का खेल है। ध्यान की बात यह है कि एक विषय पर, एक धारा पर, एक सब्जेक्ट पर आदमी इतनी गहराई से चिंतन करे कि बाकी बातों को, सबको भूल जाए, केवल ध्यान की बात रह जाए। जब हम लेख लिखते हैं, तब इतने एकाग्र हो जाते हैं कि हमें पता ही नहीं चलता कि कौन बैठा हुआ है और कौन चला गया। कौन आ गया और कौन क्या कर गया, कुछ पता ही नहीं चलता। बस हम अपने काम में लगे रहते हैं। उस समय हमारे मन की दिशा एक होती है और इतने तरह के विचार आते हैं, इतने रिफरेंस आते हैं कि अमुक विद्वान ने ये कहा, उसने ये कहा। हमारे हाथ लिखते चले जाते हैं और हमारे दिमाग की फिल्म इतनी तेजी से दौड़ रही होती है कि सिनेमावाली फिल्म तो एक कोने पर रखी रहेगी। हजारों किताबें हमारे दिमाग में मिनटों और सेकण्डों में घूमती चली जाती हैं। इस तरह हमारे दिमाग की चाल तेज होती है। अगर आप लोग कभी हमारे दिमाग की चाल को देख लें, तो कहेंगे कि महाराज जी, ऐसी चाल तो हमने कभी देखी नहीं। बेटे, तूफान की चाल और हमारे दिमाग की चाल एक होती है, जो एकाग्र होती है।
महाराज जी, जब हम एकाग्र होते हैं, तो स्थिर नहीं होते। बेटे, एकाग्र होना अलग बात है और स्थिर होना अलग बात है। समझता तो है नहीं और चिल्लाता रहता है कि हमारे मन को स्थिर कर दीजिए। कैसे स्थिर कर दें, खा जा अफीम की गोली, फिर स्थिर कर देंगे। सनक में डूबा रहेगा और कहेगा कि महादेव जी दिखते हैं। ऐसे कोई स्थिर नहीं होता। मीरा जो थी, हमेशा कहती रहती थी, "घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय।" हर वक्त वह बेचैन मालूम पड़ती थी। रामकृष्ण परमहंस उछलते रहते थे। चैतन्य महाप्रभु जब चिंतन करते थे, तो उछलकर बेहोश हो जाते थे और कीर्तन करते थे। वे एकाग्रचित्त हो जाते थे। अरे, कैसे एकाग्र हो जाएँगे? एक विषय पर, एक धारा पर आदमी का दिमाग लगा रहे, तो वह एकाग्र हो जाता है, लेकिन एक तरह के विचारों पर बहुत देर तक आदमी का मन स्थिर नहीं रह सकता, इसलिए हम सबेरे भी आपको ध्यान कराते हैं, छोटे-छोटे पीसों में कराते हैं। अलग-अलग तरह के वैराइटीज में कराते हैं, ताकि आपको एक विचार के ऊपर, एक क्रियापद्धति पर ध्यान को लगाने का, सीखने का मौका मिले। आपको यही करना चाहिए।
मित्रो, उपासना का जब समय आए, तो आप अपनी उपासना के समय जो क्रिया-कृत्य करते हैं, तो उसके पीछे जो शिक्षण दिए गए हैं, उनके साथ अपने आपको मिलाइए। जब आप देवता को फूल चढ़ाते हैं, तो इस चक्कर में मत पड़िए कि साहब, ये चमेली का फूल है कि गेंदा का फूल है कि गुलाब का फूल है या बेला का फूल है। महादेव जी न आक का फूल खाते हैं, न गणेश जी चमेली का फूल खाते हैं और न विष्णु भगवान गुलाब का फूल खाते हैं। ये बेकार की बातें छोड़िए और सोचिए कि आदमी का जीवन फूल जैसा होना चाहिए। फूल जैसा कोमल जीवन होगा, तो भगवान के चरणों में भी स्थान मिल सकता है, गले में भी स्थान मिल सकता है, सिर में भी वे स्थान दे सकते हैं। हर जगह स्थान मिल सकता है। शर्त केवल यह है कि हम फूल जैसे जीवन के हों। हँसता हुआ जीवन, कोमल एवं फूल जैसा मुलायम जीवन, सुगंधित जीवन बनाने की हम कोशिश करें।
हर वस्तु अर्पण के साथ गुणों का चिंतन
इन विचारों के साथ जब आप फूल चढ़ाया करें, तो यही विचार करें कि हम अपना जीवन फूल जैसा बनाएँगे। हमारा जीवन फूल जैसा बनना चाहिए। फूल जैसा जीवन बनाना अपना उद्देश्य होना चाहिए। फूल चढ़ाता रहे और बेकार की बातें सोचता रहे कि गुलदस्ता बनाऊँ या माला बनाऊँ, ये करूँ था वो करूँ। इन बेकार की बातों में अपना समय खराब करता रहता है और यह नहीं सोचता कि हमको अपना जीवन फूल जैसा बनाना है।
मित्रो, हम जब दीपक चढ़ाते हैं, उस समय हमारा विचार होना चाहिए कि भगवान को दीपक दिखाने की जरूरत नहीं है। भगवान के पास तो दो दीपक जलते ही रहते हैं। दिन में सूरज जलता रहता है और रात में चंद्रमा जलता रहता है। आप भगवान के लिए दीपक नहीं जलाएँगे, तो भगवान का कोई हर्ज नहीं हो सकता। महाराज जी, फिर तो हम बार-बार दीपक जलाने में पैसा क्यों खरच करें? क्यों बार-बार दीपक जलाएँ? बेटे, उसका भी एक कारण है। एक ऐसा बेवकूफ आदमी है, जो आँखों से अंधा है, जिसको कुछ दिखाई नहीं पड़ता। उसके सामने दीपक दिखाओ तो कुछ तो दिखाई पड़े। कौन है वह बेवकूफ और अंधा आदमी? वह है तू और हम, जिनको अंधे कह सकते हैं। जिन्हें कुछ पता ही नहीं है, कुछ दिखता ही नहीं है, कुछ सूझता ही नहीं है। जिन्हें न अपना मरना दीखता है और न जीना दीखता है। बस एक ही चीज दिखती है विलासिता, एक ही चीज दिखती है—तृष्णा, एक ही चीज दिखती है—वासना, एक ही चीज दिखती है—भोग, एक ही चीज दिखती है—लोभ। वह एक ही चीज देखता है और कुछ नहीं। उसकी आँखें खराब हैं। उसे मोतियाबिंद की शिकायत है। अत: अँधेरे में भटकने वालों को रोशनी की जरूरत है।
दीप प्रज्ज्वलन का अर्थ रोशनी भरा जीवन
मित्रो, इसलिए हम भगवान के सामने दीपक जलाते हैं, ताकि भगवान के बहाने हम अपने आपको देख सकें कि हमारी जिंदगी का स्वरूप ऐसा होना चाहिए, जैसा कि दीपक का है। रोशनी, रोशनी माने जीवन। रोशनी कैसी, जैसे दीपक की, बिजली की। महाराज जी, दीपक की, बिजली की बत्ती तो मैं रोजाना ही जलाता रहता हूँ। नहीं बेटे, उससे हमारा मतलब नहीं है। रोशनी से हमारा मतलब, 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' से है। इससे है कि हमको अंधकार से प्रकाश की ओर लेकर चलिए। इसका मतलब ये नहीं है कि टार्च आ गया और उसे जलाते चलिए और आकर के हमको अँधेरे में से ले चलिए। हमारा मतलब इस चमक की रोशनी से नहीं है, वरन् रोशनी से हमारा मतलब है—ज्ञान। दीपक जब हम जलाते हैं, तो इसका मतलब यह है कि हमारा मस्तिष्क ज्ञान से भरा हुआ हो, विचारणा से भरा हुआ हो, प्रज्ञा से भरा हुआ हो, रोशनी से भरा हुआ हो। अगर हमारा मस्तिष्क इन सबसे भरा हुआ हो, तो हम क्या काम करें? बेटे, तब हम जलने की बात सोचें, जलने की बात सीखें, दूसरों के फायदे की बात सीखें, कुरबान होने की बात सीखें, समन्वय की बात सीखें, शरणागति की बात सीखें, विसर्जन की बात सीखें, विलय की बात सीखें। नहीं साहब, हम तो लेने की बात सीखेंगे। नहीं बेटे, लेने वालों की यह कंपनी नहीं है, यह देने वालों की है।
बेटे, तू कौन-सी कंपनी में दाखिल हो गया है? अरे महाराज जी, मैं तो भजन करने वालों में आ गया। इसमें क्यों आ गया? महाराज जी, इसमें इसलिए आ गया कि भजन करने वालों को बड़ा नफा होता है। अरे बेटे, तुझे किसी ने गलत बहका दिया है। भजन करने वालों को इसमें नफा नहीं होता और अगर होता भी है, तो उनको तो ऐसा शाप लगा हुआ है कि वह स्वयं नहीं खा सकते हैं, केवल दूसरों को खिला सकते हैं। बाजीगर से एक बार हमने पूछा, क्यों भाई, एक बात बताओ कि अभी जो आपने आम के पेड़ से फल तोड़े और डिब्बे में से मिठाई निकाली और सबको खिलाया। क्या यह सच्ची मिठाई है। हाँ साहब, सच्ची मिठाई है। तब तो आप रोजाना मिठाई बनाते होंगे और अपने बाल-बच्चों को खिलाते होंगे। नहीं साहब, इसको हम नहीं खा सकते। किसी और को खिला सकते हैं। क्यों, आप भी खा लिया करो। नहीं साहब, हम स्वयं नहीं खा सकते, औरों को खिला सकते हैं।
भगवत्कृपा से जुड़ा एक शाप
मित्रो, भगवान की दया में, कृपा में एक शाप लगा हुआ है कि यदि आप उसे खाने की कोशिश करेंगे, तो वह आपके पास नहीं रह पाएगी। आप खिला सकते हैं, खा नहीं सकते। संत खा नहीं सकता। संतों ने जब खाना शुरू कर दिया, तो संत का संतपन उसी दिन खत्म हो गया। भगवान हमको दीजिए, भगवान हमको दीजिए। बेटे, भगवान देता तो है, पर उसकी कृपा पारे की तरह है। पारे को आप देख लीजिए और दिखा लीजिए, पर खाइए मत। भगवान की कृपा को भी खाना मत। संत खाते नहीं हैं, ऋषि कभी खाते नहीं, तपस्वी कभी खाते नहीं। अगर आप भगवान की कृपा को स्वयं खाना शुरू करेंगे, तो फिर आपकी देने की ताकत खत्म हो जाएगी। खा लीजिए, फिर देखिए आप किसी को कुछ दे नहीं सकते, किसी की सहायता नहीं कर सकते। आप चाहें कि खाने के बाद में हम अध्यात्म से किसी का फायदा कर दें, तो आप नहीं कर सकते। पैसा लेकर अनुष्ठान शुरू कीजिए, ठीक है, आपकी जीविका चल जाएगी। उसका प्रभाव होता होगा तो होगा, लेकिन आपकी वाणी के अंदर जो शक्ति है, वह नहीं रहेगी। फिर आप चाहें कि किसी का भला कर दें, तो नहीं कर सकते।
मित्रो, भगवान की कृपा खाई नहीं जा सकती। इस बारे में मैं लोगों को बताता रहता हूँ कि तुम्हें भगवान की कृपा से अगर फायदा कराना हो, तो इसकी अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा है कि तुम नौकरी कर लो। धंधा कर लो। नहीं साहब, उसमें कम फायदा होता है। तो बेटे, चोरी कर ले। चोरी करेगा तो तीन महीने की सजा हो जाएगी, लेकिन भगवान की कृपा से तेरा पिंड तो छूटेगा। बेटे, भगवान की कृपा से जो लिया हुआ है या प्राप्त हुआ है, वह सब परमार्थ के लिए होता है, लोकहित के लिए होता है। याद रखिए, भगवान की कृपा से सुख नहीं, शक्ति मिलती है। हर एक को शक्ति मिली है, सुख किसी को नहीं मिला है। यदि शक्ति की जरूरत हो, तो भगवान की कृपा के चक्कर में फँस और यदि तुझे सुख की जरूरत है, तो भगवान से दूर रहो। हाँ, भगवान से दूर रहने वालों में जितने भी तेरे संसाधन दिखाई पड़ते हैं, हर सांसारिक आदमी उस दृष्टि से गरीब दिखाई पड़ता है, कंगाल दिखाई पड़ता है।
खाना नहीं, खिलाना सीखो
महाराज जी, क्या भगवान की कृपा पाने वाले कंगाल नहीं होते। हाँ बेटे, भगवान जिस पर कृपा करते हैं, उसे कंगाल तो नहीं करते, परंतु यह बात जरूर है कि भगवान की कृपा पाने वाले इतने उदार हो जाते हैं कि वे खा नहीं सकते, खिला सकते हैं। वे खाते नहीं, खिलाते रहते हैं। ईश्वरचंद्र विद्यासागर को पाँच सौ रुपये महीने नौकरी में मिलते थे। जब वह पाँच सौ रुपये आते थे, तो उनको अपनी जिंदगी के वे दृश्य सामने आ खड़े होते थे, जब उन्हें बिजली के अभाव में, रोशनी के अभाव में सड़क के किनारे खड़े होकर पढ़ना पड़ता था। सड़क के किनारे लगे खंभों पर जो बिजली जलती है, उसके नीचे खड़े होकर किताब पढ़नी पड़ती थी। सारे विद्यार्थी, जो सड़क के किनारे खड़े होते थे, उनकी आँखों के आगे खड़े हो जाते थे। उन्हें अब पाँच सौ रुपये तनख्वाह मिलती है। जब पढ़ते थे, तब उनके पास चार आने महीने होते थे, जिसमें से मिट्टी का तेल खरीदकर उसकी बत्ती के प्रकाश का प्रबंध भी पूरा नहीं हो पाता था। आज उनकी आँखों के सामने इसी तरह के हजारों बच्चे आ खड़े होते और कहते कि हमारी मदद कीजिए।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने निश्चय कर लिया था कि पचास रुपये महीने में हम अपना गुजारा करेंगे और साढ़े चार सौ रुपया महीना उन लोगों के लिए सुरक्षित रखेंगे जिनको फीस की जरूरत है, जिनको किताबों की जरूरत है, जिनको दूसरी चीजों की जरूरत है। वे हजारों परेशानियाँ सहते रहे, पर अपना गुजारा पचास रुपये में ही करते रहे। महाराज जी, फिर तो वह गरीब ही रहे, अमीर नहीं बन पाए। हाँ बेटे, वह अमीर नहीं बन पाए। संत अमीर नहीं हो सकता। भगवान के भक्त के हिस्से में अमीरी नहीं आई है। वह अमीर बना तो सकता है, पर स्वयं अमीर नहीं बन सकता। गाँधी जी ने बादशाह तो ढेरों बनाए, किंतु स्वयं बादशाह नहीं बन सके। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को तो बादशाह बनाया, पर स्वयं बादशाह नहीं बन सके। चाणक्य ने चंद्रगुप्त को बादशाह तो बनाया, पर स्वयं बादशाह नहीं बन सके। संत बादशाह नहीं बन सकता, इसलिए यदि संत बनना है, भगवान की कृपा, भगवान की दया प्राप्त करनी है, तो उसे बाँटना सीखिए, दूसरों को खिलाना सीखिए। स्वयं मत खाइए।
(अगले अंक में जारी)
परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
ध्यान क्यों करें? कैसे करें? -३
(गतांक से आगे)
दीपक की तरह जलें, प्रेरणा दें
मैं आपको दीपक का उदाहरण देकर समझा रहा था कि दीपक आप जलाएँ। दीपक जलाने के साथ-साथ और दीपक जलाने के बाद आप यह ध्यान रखें कि भगवान की भक्ति का एक मूलभूत सिद्धांत यह भी है कि आदमी को जलना पड़ता है, गलना पड़ता है। यह भगवान का भक्त जो है, वह बरगद के पेड़ की तरह से बड़ा तो हो जाता है, यह हमने माना, लेकिन बरगद के पेड़ की तरह से बड़ा होने से पहले बीज को गलना पड़ता है। बड़ा होने से पहले आदमी को भी गलना तो पड़ेगा। महाराज जी ! मैं तो वृक्ष की तरह से बड़ा हो जाऊँगा? हाँ बेटे, जरूर हो जाएगा, लेकिन गलना तो पड़ेगा। नहीं, मैं गलना तो नहीं चाहता। जो कुछ भी हो, मैं तो मालदार बनना चाहता हूँ; मोटा बनना चाहता हूँ। बेटा, मोटा तो तू नहीं बन सकता, तेरी औलाद बन सकती है।
बेटे, जो प्रेरणाएँ मैं आपको दे रहा हूँ, ये आपके मस्तिष्क में गूँजती रहें, गूँजती रहें। दीपक आप जलाते चले जाएँ और यह विचार करते चले जाएँ कि हमारी एक छटाँक जैसी हैसियत और औकात है। हमारे भीतर जो स्नेह चिकनाई लबालब भरी हुई है, उसके द्वारा हम अपने आपको जलाते हैं और जलकर रोशनी पैदा करते हैं, दिशाएँ देते हैं। रोशनी कैसे पैदा करते हैं ? जैसे प्रकाश-स्तंभ बीच समुद्र में जलते रहते हैं और जल करके निकलने वाले राहगीरों को, चलने वाली नावों को रास्ता बताते रहते हैं। आप उधर से मत जाइए, इधर से जाइए। स्वयं रात में प्रकाशस्तंभ (लाइट हाउस) जलते रहते हैं।
सितारे ऊपर रात में जलते रहते हैं और हम निकलने वालों को रास्ता बताते रहते हैं आप इधर से चले जाइए, आप उधर से चले जाइए। सितारे जी! आपको क्या फायदा है ? हमको यह फायदा है कि आपको ठोकर नहीं लगे, आप अपने रास्ते पर चले जाएँ, इसीलिए हम रात भर जलते रहते हैं। कौन जलता रहता है ? तारे जलते रहते हैं और छोटे बच्चे उनको दुआएँ देते रहते हैं। थैंक्यू। ट्विंकिल ट्विंकिल लिटिल स्टार, हाऊ आई वंडर ह्वाट यू आर.......! आसमान पर चमकने वाले सितारे चमको चमको, तुम ऊपर चमकते रहो। तुम्हारी तरह हमें भी रास्ता मिलता रहे। आप पहले आसमान के सितारों की तरह जलो। गाँधी जी ने जब राजा हरिश्चंद्र का ड्रामा देखा, तो यह निश्चय किया कि हम भी इनके तरीके से सत्य पर चलेंगे। हम भी ऐसी शानदार जिंदगी जिएँगे।
बेटा, दीपक जलाने से मतलब यह है कि हम जलें और दूसरों को भी जलने के लिए प्रोत्साहित करें। हम अपनी जिंदगी में रोशनी पैदा करें, शानदार जिंदगी ही जिएँ और उतनी रोशनी दूसरों को भी दें; यही सिद्धांत बनाएँ। ये भाव दीपक जलाते समय होने चाहिए। नहीं साहब, दीपक जलाने से भगवान जी प्रसन्न हो जाते हैं। आप से हुए होंगे, मेरे खयाल से प्रसन्न नहीं हो सकते। नहीं महाराज जी, दीपक जलाने से भगवान जी बहुत प्रसन्न हो जाते हैं, पर असली गाय के घी से प्रसन्न होते हैं और नकली घी से प्रसन्न नहीं होते। अच्छा! पर मेरा ऐसा खयाल है कि हमारी जिंदगी दीपक की तरह जलने वाली हो तो भगवान भी हमारे ऊपर प्रसन्न हो जाते हैं।
कब बरसेगा दैवी अनुग्रह
मित्रो, भगवान हमारे नजदीक हैं। भगवान का अनुग्रह हमारे पास है। जो फल भक्ति के लिखे हुए हैं, वे सब आपको मिलते चले जाएँगे। एकोएक फल मैं आपको निश्चित दिला सकता हूँ और इस बारे में मैं आपको विश्वास दिला सकता हूँ, इसकी गारंटी हमारे पास है। आप जिस देवता की कृपा की कहें, उसी देवता की कृपा करा दूँ, लेकिन शर्त यह है कि अपना जीवन गंदा नहीं हो। नहीं साहब, जीवन तो हमारा गंदा ही रहेगा। नहीं बेटे, जीवन गंदा रहेगा तो देवता भी कृपा नहीं करेंगे।
मित्रो, भगवान को जल से स्नान कराने से मतलब चेतना को स्नान कराने से है। नहीं महाराज जी, चेतना को तो मैं स्नान बाद में कराऊँगा, पहले पानी से अपने शरीर को नहलाऊँगा। बेटे, कैसे करा लेगा, बता तो सही, शरीर से क्या काम हो जाता है ? महाराज जी! मैं तो ऐसे ही नहा लेता हूँ। नहा लेता है तो तू एक बात बता कि तेरी चमड़ी के खोल में क्या-क्या भरा हुआ है ? माँस भरा हुआ पड़ा है। अच्छा, तो तू यह बता कि पूजा की कोठरी में माँस तो नहीं ले जाता? नहीं महाराज जी, पूजा की कोठरी में माँस तो नहीं ले जाता। और हड्डी? हड्डी भी नहीं ले जाता। मुँह से जब भजन करता है तो पहले तू कुल्ला कर लेता है न? हाँ महाराज जी, कुल्ला कर लेता हूँ। मुँह में गंदी चीज तो नहीं रखता? नहीं महाराज जी, नहीं रखता। ऐसा तो नहीं होता कि तेरे मुँह में माँस-वास भरा रहता हो और तू जप करता रहता हो? नहीं महाराज जी, मुँह में माँस भरा रहेगा तो मैं जप कैसे करूँगा। ऐसा तो नहीं कि सूखी हड्डी मुँह में भरे रहता हो और राम नाम लेता हो। ऐसी गलती मत करना कहीं। यदि इस तरह जप किया तो भगवान जी नाराज हो जाएँगे। नहीं महाराज जी, ऐसा तो नहीं करता।
बाहर की नहीं, भीतर की सफाई
मित्रो, जहाँ कहीं भी शास्त्रों में स्नान का वर्णन है, वहाँ शरीर के धोने का सिद्धांत नहीं है। शरीर के धोने का मतलब इच्छाओं, भावनाओं, विचारणाओं की सफाई से है। जो केवल अपने शरीर को खुशबूदार बनाते रहते हैं और शरीर को कितनी ही बार धोते रहते हैं। सारे दिन कोई पाउडर लगाता रहता है, कोई सेंट लगाता रहता है, कोई क्रीम लगाता रहता है, कोई सुपर लक्स से नहाता है, कोई बढ़िया से बढ़िया साबुन से नहाता रहता है। नहाने के बारे में तो उन लोगों को देखो, जो अपने शरीर को तो धोते रहते हैं, परंतु भीतर से कैसे-कैसे धंधे करते हैं। किस-किस तरह से पैसा कमाते रहते हैं, इसमें भिक्षा भी शामिल है। बेटे, अगर हम भीतर की भी सफाई रोज करें तो भगवान भी प्रसन्न होगा और अपना आपा भी। शरीर कम धोया, कोई बात नहीं। बेटे, तू समझता क्यों नहीं, स्नान करना एक सिद्धांत है कि हमारा मन और हमारी चेतना का परिष्कार होना चाहिए। देव-पूजन से भी हमारा मतलब यही है।
मित्रो, जप करने से क्या मतलब है? जप करने से हमारा मतलब देव-पूजन से है। इसमें देव-पूजन के साथ आत्मशोधन की दो क्रियाएँ जुड़ी हुई हैं। यह दूसरा वाला चरण है जप का और तीसरा वाला चरण है ध्यान का। जप और ध्यान को हम मिला देते हैं। दोनों को मिला देने से एक प्रक्रिया बनती है, नहीं तो जप अधूरा रह जाएगा। आपका जप अधूरा है, अगर आप ध्यान नहीं कर रहे होंगे। जप करने पर लोगों की शिकायत होती है कि मन भागता रहता है। बेटे, मन न भागे, इसीलिए हम जप के साथ-साथ में दो ध्यान भी बताते रहते हैं। अक्सर हम एक साकार ध्यान बताते रहते हैं और दूसरा निराकार ध्यान।
साकार ध्यान का स्वरूप
बेटे, साकार ध्यान यह है कि माँ गायत्री की कृपा हमारे ऊपर बरसती है, उसका अनुग्रह हमारे ऊपर बरसता है। गायत्री माता क्या है ? गायत्री माता वह है कि जिसमें हम जवान स्त्री को माता के रूप में देखना शुरू करते हैं। जो सद्बुद्धि की देवी है, जो सद्विवेक की देवी है। सद्विचारणाओं की देवी का नाम गायत्री है। गायत्री देवी है महाराज जी! हाँ देवी है। तो आपको खूब सामान दे जाती है? हाँ बेटे, पहले देवी कभी-कभी आती थी, पर अब हमें यह खयाल आया कि देवी है भी कि नहीं, सो हमने अपने गुरु का ध्यान शुरू कर दिया है। गुरु का ध्यान? हाँ बेटे, हम अपने गुरु का ध्यान करते हैं। गुरु को हमने देखा है। उनके बारे में हमको विश्वास है। गायत्री माता के बारे में तो हमको यह विश्वास हो गया है कि जो शक्ल हमने बना रखी है, यह शक्ल हमारी कल्पित है। यह कल्पना है? हाँ, ये कल्पना है, सिद्धांतों की, आदर्शों की। यह आदर्श है। कौन-सा आदर्श? जिसमें हम जवान औरत को जिस भावना से और दृष्टि से देखते हैं वह, हम माँ की तरह से देखते हैं। उस भावना का नाम ही गायत्री है।
मित्रो, कोई जवान औरत हमको दिखाई पड़े और आँखों में यह भाव आए कि यह हमारी माँ है, तो समझिए कि आपको गायत्री आ गई। जैसे शिवाजी की आँखों में एक जवान मुसलमान महिला को देखकर यह भाव आया कि काश! यह हमारी माँ होती तो अच्छा होता। अर्जुन भी एक बार देवलोक में गए। देवलोक में अर्जुन को क्या-क्या उपहार मिलने चाहिए थे? इसकी परीक्षा लेने के लिए उन्होंने क्या किया? उन्होंने यह किया कि उपहार पीछे देंगे, पहले देखें कि यह इस लायक भी है या नहीं। उन्होंने स्वर्ग की सबसे सुंदर एक महिला उर्वशी को उसके पास भेजा। उर्वशी जब उसके पास गई तो यह कहने लगी कि अर्जुन, देवताओं ने हमको तुम्हारे पास भेजा है। हम तुमसे प्रार्थना करने और यह कहने आई हैं कि तुम्हारे जैसा बच्चा हमको चाहिए। वह समझ गया कि इसका मतलब क्या है।
अर्जुन ने कहा—अच्छा, आपको मेरे जैसा बच्चा चाहिए, पर आप जिस तरीके से चाहती हैं, उस तरीके से बच्चा न हुआ, कन्या हो जाए तब? और फिर मेरे जैसा न होकर पंगु हो जाए, काना हो जाए तब? आप मेरे जैसा ही चाहती हैं न, तो मैं एक ही हूँ। भगवान ने जितने भी जानवर बनाए, सब एक ही बनाए, दूसरा नहीं बनाया। एक पेड़ भी एक जैसा ही बनाया, दूसरा वैसा पेड़ ही नहीं बनाया। एक पत्ता किसी पेड़ का जैसा है, दूसरा वैसा पत्ता दुनिया में नहीं बनाया। वह हर चीज अलग बनाता है, दूसरी तो बनाता ही नहीं है। मैं भी जैसा बनाया गया हूँ, मैं तो एक ही हूँ, दूसरा तो भगवान बनाने वाला नहीं है। इसलिए मेरे जैसा तो मैं एक ही हूँ और आपकी प्रार्थना मैं स्वीकार करता हूँ। आपके आदेश को मानता हूँ। अतः आज से मैं आपका बेटा होता हूँ। अच्छा आइए माताजी, यह टीका मस्तक पर लगाइए और फिर आज से मैं आपका बेटा हूँ और आप हमारी माँ हैं।
सिद्धांत जीवन में उतरें
यह क्या है ? बेटे, यह एक बुद्धि है, एक विचारणा है, एक संकल्प है, एक सिद्धांत है। अगर ये सिद्धांत हमारे और आपके मन में आएँ तो आप गायत्री के निश्चित रूप से उपासक हैं। यह विवेक आपके भीतर है, तो आप गायत्री के उपासक हैं। हमने इसके शिक्षण के लिए कलेवर बनाकर रखा है—हंस, जिस पर गायत्री सवार रहती है। गायत्री हरेक पर सवार नहीं होती। क्यों महाराज जी? हमारे यहाँ तो वह है, भैंसा। उस पर बैठा लाएँ तो आ जाएगी? नहीं बेटे, उस पर नहीं आएगी। तो महाराज जी, हमारे पास घोड़ा है, घोड़े पर ले आएँ ? नहीं बेटे, घोड़े पर भी नहीं आएगी। तो महाराज जी, हम गायत्री माता को बुलाने के लिए रिक्शा लेकर चले जाएँ? रिक्शे पर बिठाकर ले आएँ, रिक्शे पर तो आ ही जाएँगी। नहीं बेटे, रिक्शे पर भी नहीं आएँगी। गायत्री माता को लाना हो तो बेटे, हंस के सिवाय और किसी पर नहीं आ सकतीं। महाराज जी, हंस तो बेकार होता है, किसी और सवारी पर नहीं आ सकती? घोड़ा कहें तो घोड़ा ला दूँ, हाथी कहें तो हाथी ला दूँ? घोड़े-हाथी पर तो वे कतई नहीं बैठती। वे तो हंस पर ही बैठती हैं। हंस से क्या मतलब है? हंस से मतलब है वह व्यक्ति, जो धुला हुआ हो। जिसने अपने कपड़ों को धोकर साफ-सुथरा बनाया हो। हंस से मतलब है वह व्यक्ति, जिसको कि मोती खाने की आदत हो, जो कीड़े मकोड़े नहीं खाता हो। हंस से मतलब है वह व्यक्ति जो दूध और पानी को अलग-अलग करना जानता हो। महाराज जी, ऐसा हंस कौन-सा होता है ? कोई नहीं होता, बेटे, हम और आप हो सकते हैं।
दोस्तो! हंस एक अलंकार है। जैसा हंस हमने कल्पना कर रखा है, उसे दूध और पानी कहाँ से मिलेगा? दूध पानी को वह कैसे अलग कर सकता है। यह तो अलंकार है। यह हंस जो कि गायत्री माता का वाहन है, ऐसा हमको भक्त बनना चाहिए अर्थात हमारा जीवन ऐसा बनना चाहिए, जैसा कि हंस का होता है। तभी गायत्री माता हमारे कंधे पर सवार होंगी, हमारी पीठ पर सवार होंगी, हमारे सिर पर सवार होंगी। हमारे ऊपर उनकी छत्रछाया बनी रहेगी। क्या मतलब है ? बेटे, इसका मतलब यह है कि हमको ध्यान करना चाहिए। किसका? साकार गायत्री माता का। गायत्री माता हमको स्नेह देती हैं। भगवान को जब हम माता के भाव से मानते हैं तो क्या देते हैं भगवान हमको? स्नेह देते हैं, हमको करुणा देते हैं, हमको दयालुता देते हैं और हमको श्रद्धा देते हैं।
निराकार ध्यान ऐसे करें
मित्रो, दूसरा वाला ध्यान हम सविता का कराते हैं, जिसको हम निराकार ध्यान कहते हैं। वह हमारे अंदर शक्ति देता है। महाराज जी! हम सविता का शुरू में ध्यान करें? नहीं बेटे, शुरू में मत करना, पहले माता का ध्यान करना, बाद में सविता का ध्यान करना। सविता क्या देता है? सविता बेटे, सारा सामान देता है। क्या-क्या सामान देता है ? पिता क्या देता है ? पिता बेटे की पढ़ाई के लिए फीस देता है, अपनी कमाई का मकान देता है और तेरी औरत को जेवर बनाकर देता है। कहीं तेरी नौकरी के लिए सिफारिश के लिए जाता है। बेटे, बाप के पास माल है और अम्मा के पास माल नहीं है। तो अम्मा के पास क्या है ? बेटे, उसके पास प्यार है, दुलार है। तुम्हें छाती से वही लगाए रहेगी, दूध वही पिलाएगी। तू जब गंदगी कर लेगा तो धोएगी भी वही, प्यार भी वही देगी। और बाप? बाप के पास टट्टी कर लेता है, तो कहता है, अजी ले जाओ जी इसे, इसकी टट्टी धोओ, हमारे कोट को भी धो देना और कपड़े भी धो देना। अरे तो आप धो देते? नहीं साहब, यह हमारा काम नहीं है। बेटे, बाप कहता है कि अपने बच्चे को ले जाओ यहाँ से और इसकी सफाई करो और कुरता भी ले जाओ, देखो जी, यह सब गंदा कर दिया, दूसरा कुरता लाओ। बच्चे पर भी झल्ला रहा है, उसकी माँ पर भी झल्ला रहा है और खुद पर भी झल्ला रहा है।
कौन झल्ला रहा है ? बाप। बाप कौन है ? सविता—हमारा पिता। एक आँख प्यार की और एक आँख सुधार की। प्यार की आँख गायत्री माता के पास है और सुधार की आँख सविता के पास है। स्नेह, जिसकी हमको प्रारंभिक आवश्यकता है, गायत्री माता से मिलता है और शक्ति हमें सविता से मिलती है। दोनों की उपासनाओं की जरूरत है। ध्यान करते समय आपको यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर आप प्रारंभिक उपासक हों, तो आपको गायत्री माता का ध्यान करना चाहिए। ध्यान करना चाहिए कि सद्बुद्धिरूपी माता, सद्विवेक की माता, सद्ज्ञानरूपी माता, करुणारूपी माता, प्रेमरूपी माता अपना अमृत-सा दूध हमको पिला देती है। उस दूध को पीकर हमारी नसें और हमारी नाड़ियाँ शुद्ध-पवित्र होती हुई चली जाती हैं। हम स्नेह से भर रहे हैं, करुणा से भर रहे हैं, भावना से भर रहे हैं, कोमलता से भर रहे हैं। हमारा जो दुष्ट मन है, उसके अंदर कोमलता तो पैदा होनी ही चाहिए, सरसता तो पैदा होनी ही चाहिए, श्रद्धा तो पैदा होनी ही चाहिए।
मित्रो, हमारी प्रारंभिक आवश्यकता है सौम्यता की, करुणा की। अभी हमारा संबंध सब जगह से निष्ठुरता से भरा हुआ पड़ा है। जब इसमें दयालुता आ जाए, श्रद्धा आ जाए तो फिर हम यह कहने के अधिकारी हैं कि भगवान हमको शक्ति दीजिए। अगर शक्ति आपको आ गई। कब? जब तक कि आप शुद्ध-पवित्र नहीं हुए, तो आपकी हानि हो जाएगी। आपका नुकसान हो जाएगा। दुर्वासा ऋषि ने अपने क्रोध का समापन नहीं किया था और उपासना करने लगे तो उनके क्रोध की वृद्धि हो गई। विश्वामित्र जब तक अपने आप को संशोधित करने की पूरी प्रक्रिया नहीं कर सके थे और तपस्या करने लगे। उस तप में, भजन में लगने का परिणाम यह हुआ कि उनकी कामवासना ज्यादा उद्दीप्त हो गई। उसके फलस्वरूप फिर क्या हुआ? बेटे, उनके यहाँ अप्सरा से एक लड़की पैदा हुई थी, तुझे मालूम नहीं है। विश्वामित्र ऋषि के पास एक मेनका नामक अप्सरा आई थी। उसने चक्कर चलाकर विश्वामित्र से विवाह कर लिया था। महाराज जी, ऐसा हो सकता है? हाँ बेटे, ऐसा हो सकता है, इसीलिए शक्ति को प्राप्त करने से पहले पवित्रता-संशोधन की जरूरत है। संशोधन आप प्राप्त कर लें तब, तब आपको सविता का ध्यान करना चाहिए।
शक्ति की साधना
सविता का ध्यान कराने के लिए हम आपको थोड़ी सी बानगी बताते हैं, चाशनी बताते हैं, थोड़ी-सी जानकारी देते हैं। सविता का ध्यान कैसे कराया जाएगा, इसका सैंपुल हम बताते हैं। कैसे कराया जाएगा, कराइए तो साहब! बेटे, हम ब्रह्मवर्चस की साधना कराएँगे। इसे कराने से पहले हम आपको प्रारंभिक प्रशिक्षण देते हैं। यह पी०एम०टी० का कोर्स है। कौन-सा? यह जो अभी हम कराते हैं। अभी हम आपको प्रारंभिक शिक्षा इसलिए दे रहे हैं कि क्या आप अपना संशोधन कर सकते हैं? क्या आपके लिए ऐसा संभव है ? क्या आप अपना चिंतन और अपने विचार बदल सकेंगे? यदि हाँ, तो हम आपको शक्ति दिलाएँगे। ब्रह्मवर्चस् साधना में हम आपको शक्ति देने के लिए बुलाते हैं, पर आपके लिए शर्त यही है कि आप अपने वर्तमान जीवन का स्वयं ही संशोधन कर लें, क्योंकि तभी जो शक्ति आएगी, वह आप के जीवन के लिए लाभदायक हो सकती है। आपका भला कर सकती है अन्यथा यदि शक्ति आई, तो आपका पेट फट जाएगा। आप उस शक्ति को सहन नहीं कर सकेंगे।
मित्रो, शक्ति को प्राप्त कर लेना मुश्किल नहीं है, शक्ति को हजम करना, जब्ज करना मुश्किल है। घी में बेटे, बड़ी ताकत होती है। घी प्राप्त करना कोई मुश्किल नहीं है। पच्चीस रुपये यदि तेरे पास हों, तो मुझे दे, मैं तेरे लिए एक किलो घी लाकर दे दूँगा। फिर तो महाराज जी, मैं खा लूँ? खा ले बेटे, तेरे चेहरे पर चमक आ जाएगी, तू मोटा हो जाएगा। अच्छा लाइए, एक किलो का डिब्बा है, मैं तो आज ही खा जाता हूँ। हजम नहीं होगा बेटे। हजम न होने से तुझे तेरा घी नुकसान करेगा, तेरे पैसे भी जाएँगे, तुझे दस्त हो जाएँगे और तुझे उल्टी भी हो जाएगी। शक्ति प्राप्त करना और भगवान का अनुग्रह प्राप्त करना मुश्किल नहीं है। नहीं महाराज जी, बड़ा मुश्किल है। नहीं बेटे, कोई मुश्किल नहीं है। मुश्किल है तो चल, मैं तेरे साथ आता हूँ। मेरा गुरु मेरी सहायता करता है। क्या सहायता करता है?
सर्वश्रेष्ठ ध्यान : गुरु का ध्यान
मित्रो, सवेरे के वक्त जब मैं यहाँ आता हूँ तो उससे पहले अपने गुरु के सम्मुख बैठा रहता हूँ। हम दोनों के बीच ऐसे सूत्र स्थापित हो गए हैं कि शरीर तो उनका न जाने कहाँ रहता है और हमारा शरीर यहाँ रहता है, फिर भी हम आपस में बैठे हुए दो व्यक्तियों की तरह से बात करते रहते हैं। परामर्श करते रहते हैं, सलाह-मशविरा करते रहते हैं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। हमको क्या दिक्कत आ जाती है और क्या परेशानी आ जाती है और उसका क्या हल हो सकता है ? बहुत-सी बातों के लिए आपस में जैसे दो मित्र बैठकर बात कर लेते हैं, वैसे ही हम दोनों कर लेते हैं। तो महाराज जी, हमको भी यह लाभ मिल सकता है ? बेटे, यह लाभ तो मैं तुझे दिला सकता है, पर पहले तू अपना कर्तव्य पालन कर और न करे तो ना सही, मैं तो कर सकता हूँ।
मित्रो, प्रात:काल चार से पाँच बजे का वक्त अपने बच्चों के लिए, परिजनों के लिए मेरा हमेशा के लिए सुरक्षित है। चार से पाँच बजे के वक्त में जब कभी आपको आवश्यकता पड़े, जरूरत पड़े, गुरुजी से कोई बात पूछनी है, परामर्श करना है या कोई सलाह लेनी है या कोई शक्ति की जरूरत है या कोई सहायता की जरूरत है, तो उस वक्त चुपचाप उठकर बैठ जाना। गुरुजी, स्नान कर लूँ? नहीं बेटे, कर सके तो कर ले, नहीं तो स्नान किए बिना ही बैठ जाना। बैठ करके यह ध्यान करना, जैसे मैं अपने गुरु का ध्यान करता हूँ। ध्यान करता हूँ कि मैं अपने गुरु की गोदी में बैठा हुआ हूँ। वे मेरे सिर पर हाथ फेरते जाते हैं, तो मुझे बड़ा मजा आता है। गायत्री माता के बारे में तो यह भी ध्यान आता है कि यह हमारी कल्पना की हुई एक मूर्ति है। ऐसा ध्यान आ जाता है, तब मेरा मन डाँवाडोल हो जाता है। अब ऐसा होने लगा है, पहले मेरे मन में ऐसा नहीं होता था। इसलिए अपने गुरु को, जिनको मैंने देखा है, जिनको जाना है, जिनके ऊपर मेरा विश्वास है, जिनको मैं भगवान मानता हूँ और मैं उन्हीं का दास हूँ, उनके बारे में ऐसा संदेह नहीं उत्पन्न होता है, संकल्प-विकल्प उत्पन्न नहीं होते। शक्ल भी किसी की मुझे नहीं बनानी पड़ती।
मित्रो, जिन गुरुजी को मैंने जाना है, देखा है, परखा है। जिनकी अपार कृपा का भार मेरे ऊपर है, जिनसे मैं लड़ाई भी लड़ सकता हूँ, तो उन्हें क्यों न मानूँ भगवान ! जब मुझे कल्पना ही करनी पड़ी तो श्रीकृष्ण की कल्पना, शेषशायी भगवान की कल्पना की। लेकिन फिर देखा कि हमारे यहाँ जो श्रीकृष्ण का फोटो टँगा हुआ है, तो उसमें किसी का मुँह लंबा है, किसी की नाक चौड़ी है। क्यों साहब, श्रीकृष्ण भगवान की नाक लंबी थी या चौड़ी थी? नहीं बेटे, हमें नहीं मालूम। देखिए, आप ही बताइए कि चौड़ी नाक वाले कृष्ण हैं या ये हलकी नाक वाले कृष्ण हैं। बेटे, ये तो तसवीर बनाने वालों ने बनाए हैं। असली कृष्ण कैसे थे, नहीं मालूम। असली कृष्ण ऐसे भी हो सकते हैं, जैसा तू है। महाराज जी, वे तो बहुत ही खूबसूरत थे। शायद वे खूबसूरत भी हो सकते हैं और कुरूप भी हो सकते हैं। असली कृष्ण कैसे थे, हमें नहीं मालूम। यह फोटो हमने बनाया है। यदि हम ही फोटो बना सकते हैं तो हम अपने मन का क्यों न बना लें।
(समापन किश्त अगले अंक में)
परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
ध्यान क्यों करें? कैसे करें?
(चतुर्थ समापन किस्त)
मित्रो! हमने अपने मन का भगवान बना लिया है। हमारे मन का भगवान आपने हमारी पूजा की कोठरी में देखा होगा। माताजी जो ध्यान करती हैं, वह गायत्री माता का ध्यान करती हैं। हम जो ध्यान करते हैं—अपने गुरु का ध्यान करते हैं। चौबीस घंटे हमको एक ही दिखाई पड़ता है। हमारे आत्मोत्थान का श्रेय जब खुलता है, तो हमको वही दाढ़ी दिखाई पड़ती है, वही चमक दिखाई पड़ती है, बड़ी-बड़ी तेजस्वी आँखें दिखाई पड़ती हैं, लंबे वाले बाल दिखाई पड़ते हैं। हिमालय पर रहने वाला एक व्यक्ति दिखाई पड़ता है, जो न कभी खाता है, न कभी पीता है। हमेशा उसका सूक्ष्म शरीर ही काम करता रहता है। मैंने तो उसी को भगवान भी मान लिया है। गायत्री माता को भी वही मान लिया है। मेरे मन की एकाग्रता उन पर जम गई है।
ध्यान की सही विधि
मित्रो! एकाग्रता जमने की वजह से क्या होता रहता है? वे मेरे समीप ही दिखाई पड़ते रहते हैं। मुझे अब यह अनुभव नहीं होता कि हम अपनी कोठरी में अकेले रहते हैं या दो रहते हैं। मुझे यह लगता है कि हम दो रहते हैं और एक साथ में रहते हैं। अब मुझे बिलकुल ऐसा लगता है कि राम-लक्ष्मण कभी रहे होंगे, अर्जुन और कृष्ण कभी रहे होंगे। उसी तरह मैं अपने आप को यह अनुभव करता हूँ कि हम दो आदमी साथ-साथ रहते हैं, साथ-साथ चलते हैं और साथ-साथ खाते हैं। देवी काली के साथ जैसे रामकृष्ण परमहंस खाते थे, बेटे, अपने भगवान के साथ में हम भी ऐसे ही खाते रहते हैं। आपने हमें देखा ही कहाँ है ! देखना है तो बेटे, हमारी आँख से देखना। तो क्या आप आँख से देखते हैं? हाँ बेटे, आँख से ही देखते हैं और देखते रहते हैं। आप भी ऐसा ध्यान कर सकते हैं।
यदि इस तरह का ध्यान आपकी समझ में न आता हो, मन न लगता हो, तो आप यह समझना कि गुरु के प्रति आपकी श्रद्धा और विश्वास नहीं है। हाँ, अगर सचमुच श्रद्धा और विश्वास नहीं है तो आप ध्यान मत करना। अगर आपके अंदर श्रद्धा-विश्वास है तो आप ऐसे भी ध्यान कर सकते हैं कि हम गुरुजी के पास बैठे हुए हैं, उनकी गोदी में बैठे हुए हैं। वे हमको प्यार करते हैं, हमको सलाह देते हैं। थोड़े दिन आप ऐसे ही ध्यान करना। थोड़े दिनों के बाद हमारे और आपके अंतरंग मिलने लगेंगे, तो फिर आप देखना, आदान-प्रदान का सिलसिला शुरू हो जाएगा। आपकी बातें हम तक आती हैं और हमारी बातें आप तक जाती हैं, यदि आप और हम वास्तव में मिलना शुरू कर दें तब। लेकिन अगर हमारी शक्लें ही मिलती रहेंगी, तो बात नहीं बनेगी। हमें भावना को भी मिलाना है, हृदय को भी मिलाना है और मस्तिष्क को भी मिलाना है। इस तरह अगर हम भीतर से मिले तो फिर देखना हमारा और आपका आदान-प्रदान अपने आप चालू हो जाएगा।
ध्यान बंद करने से क्या होगा?
साथियो! आप लोग कहते हैं कि संत का मिलना मुश्किल है, गुरु का मिलना मुश्किल है, भगवान का मिलना मुश्किल है। नहीं बेटे, यह कोई मुश्किल नहीं है। केवल ध्यान करना मुश्किल है। ध्यान कैसे करेंगे? अगर ध्यान न कर सके तो क्या हो जाएगा? देख बेटे, तुझे मैं थोड़े से नाम बताता हूँ, जो ध्यान न कर सके, लेकिन किसी तरह से भगवान की कृपा प्राप्त कर ली थी, पर उसको हजम करने की ताकत किसी ने नहीं प्राप्त की थी, इसलिए उनको नुकसान हो गया था। वे कौन-कौन व्यक्ति थे? बेटे, उनमें से एक का नाम रावण था। रावण ने बहुत तप किए थे और तप करने की वजह से शंकर जी को प्रसन्न कर लिया था और किसी तरह से उसने वरदान भी पा लिया था, आशीर्वाद भी पा लिया था। वरदान और आशीर्वाद पाने के पश्चात रावण को कुछ मिला? नहीं, वह घाटे में रहा और उसका नुकसान ही हुआ।
किसी को बुखार आता है, किसी की मृत्यु होती है, पर रावण की मृत्यु? रावण ने ऐसी भयंकर मृत्यु देखी, जैसी किसी और ने नहीं देखी। उसने अपनी औरतों को जलते देखा, अपने बच्चों को जलते देखा, नाती-पोतों को जलते देखा। ऐसा भयंकर दृश्य कहीं देखा है आपने? मरे हुए व्यक्तियों को तो देखा है कि मरने के बाद उन्हें जला दिया गया, पर जिंदा बेटों को, जिंदा बेटियों को, जिंदा पोतियों को, जिंदा पोतों को जलते हुए क्या किसी ने देखा है? नहीं, महाराज जी! अगर ऐसा दृश्य हम देखेंगे तो हमारा कलेजा फट जाएगा। हाँ बेटे, परंतु एक का कलेजा फटा है। किसका? रावण का। रावण अगर कोई तपस्वी न होता, वह कोई दुकानदार होता। बेटे, उसने हजामत बनाने की कोई दुकान खोल ली होती, चाय की दुकान खोल लेता, उसका 'रावण रेस्टोरेंट' होता, तो खूब मजे में लोग आते, चाय पीते। मजे में 'रावण टी स्टॉल', 'टी कॉर्नर', 'कॉफी कॉर्नर' चल रहा होता। वह अपना घर बना लेता और बैंक में हजार-दो हजार रुपये जमा कर लेता। अपने बाल-बच्चों को पुलिस में नौकरी करवा देता और इन्कमटैक्स में ऑफीसर बना देता। फिर न रावण की बीबी मरती, न बच्चे मरते, कोई भी नहीं मरता।
मित्रो ! रावण ने भजन तो किया, लेकिन बेचारे को हजम करने की शक्ति न मिल सकी। वह तपता रहा और जैसे ही शक्ति आई कि बीबी लाऊँगा, पैसा लाऊँगा, मकान बनाऊँगा आदि मनसूबे पूरे करने लगा। उस अभागे से यह नहीं बन पड़ा कि हमारे पिता लोमश ऋषि, जैसे जीवन जीते थे, वैसे जिएँ। जिस भी काम में वह लग गया, उसका सफाया हो गया। वह कुछ नहीं कर पाया। कुंभकर्ण भी कुछ नहीं कर पाया। कुंभकर्ण ने अपनी वाणी को शुद्ध नहीं किया और अशुद्ध वाणी से ही जप करता रहा। जब सरस्वती सामने आकर खड़ी हो गईं और बोली कि वरदान माँग, तो उसने कहा कि छह महीने सोता रहूँ और एक दिन जगता रहूँ। क्यों क्या बात थी कि 'छह महीने जागूँ और एक दिन सोऊँ' का वरदान न माँग सका? अक्ल खराब थी उसकी। उसके मुँह से निकल गया कि 'छह महीने सोऊँ और एक दिन जागूँ।' वह छला गया। अगर वह नेपोलियन बोनापार्ट होता तो एक दिन भी न सोता। नेपोलियन एक दिन भी नहीं सोता था और जब सोने का वक्त आता तो घोड़े को पेड़ के नीचे खड़ा किया और झट से सो गया, आराम किया और फिर घोड़े को लेकर चल दिया। वह मजे से अपना काम कर लेता था। कुंभकर्ण से तो नेपोलियन अच्छा था। वह न भजन करता, न पूजा करता, दिन में भी काम करता और रात में भी काम करता। कुंभकर्ण का क्या हुआ? बेटे, उसकी मिट्टी पलीद हो गई। क्या फायदा कर लिया उसने? कुछ नहीं कर सका।
मित्रो! इसी तरह हिरण्याक्ष से लेकर हिरण्यकशिपु तक, कंस से लेकर जरासंध तक और मारीचि से लेकर सुबाहु तक, सब-के-सब तपस्वी थे और सब-के-सब भजन करने वाले थे, पूजा करने वाले थे। लेकिन वे अपना आत्मशोधन न कर सके। आत्मशोधन के अभाव में भगवान की कृपा तो मिली, यह तो मैं नहीं कहता कि कृपा नहीं मिलती, पर आदमी इससे फायदा नहीं उठा सकता, हाँ, इससे अपना नुकसान जरूर कर सकता है।
हमारी साधकों को गारण्टी
इस शिविर में बुलाकर मैं आपको निमंत्रण देता हूँ कि आप ब्रह्मवर्चस की साधना में आने की तैयारी करें। जिस शक्ति की आप तलाश करते हैं, उसको कोई ऐसा देने वाला तो हो, जो आपको दे सके। बेटे, हम गारण्टी देते हैं कि वह शक्ति हम आपको दिलाएँगे। महाराज जी! रामकृष्ण परमहंस जैसा गुरु हो और हम उसके पैर पड़ जाएँ, तो जिस तरह से विवेकानन्द में उनकी सारी शक्ति आ गई थी, ऐसा ही गुरु हमको मिल जाए और हमको विवेकानन्द बना दे, तो बहुत अच्छा हो। अच्छा बेटे, तेरे लिए तो हम कहीं से भी ऐसा गुरु ढूँढ़कर ला देंगे और वह तुझे शक्ति दे देगा, लेकिन पहले तुझे एक काम करना पड़ेगा, तुझे विवेकानन्द बनना पड़ेगा। नहीं महाराज जी! पहले मैं अपना फोटो अखबार में छपाने को तैयार हूँ। अमेरिका के लिए मुझको हवाई जहाज का टिकट मिल जाएगा, मैं घूम भी आऊँगा और 'स्पीच' भी दे आऊँगा। नहीं बेटे, स्पीच देने की बात तो पीछे की है, पहले तुझे विवेकानन्द बनना पड़ेगा।
मित्रो! कैसा विवेकानन्द बनना पड़ेगा? अमेरिका में विवेकानन्द जिसके यहाँ ठहरे थे, वहाँ एक महिला थी, जो उनसे मजाक करने लगी, दिल्लगी करने लगी। थोड़े दिन तक वह वैसे ही सेवा करने लगी और कहने लगी कि आपकी शिष्या हूँ, फलानी हूँ-ढिकानी हूँ। थोड़े दिन बाद उसने साधुजी के साथ कुछ दिल्लगीबाजी शुरू कर दी। अमेरिका में कुछ ऐसा रिवाज ही है। विवेकानंद के गुरु जी ने कहा, अहा....! तो ये बात है। उनने लाल-लाल आँखें तरेरी और कहा कि ठहर जा, तुझे अभी बताता हूँ। क्या तुझे इसीलिए शक्ति दी है? रामकृष्ण परमहंस की आँखों ने वहाँ से देखा और कहा कि स्वयं के लिए, अपने लिए, विलासिता के लिए मेरी शक्ति से लोगों को प्रभावित और चमत्कृत करेगा? उसके द्वारा जो लोगों में श्रद्धा उत्पन्न होगी, तो तू उससे अपने लिए लाभ उठाएगा? अच्छा, ठहर, अभी तुझे बताता हूँ। यह दृश्य देख विवेकानन्द वहीं अमेरिका में काँपने लगे। उन्होंने अपने आप को धुना और अपने आप को पीटा। केवल धुना और पीटा ही नहीं, वरन् अपने मन को धोया। उन्होंने अपने मन को समझाया कि अरे मूर्ख! तू समझता ही नहीं कि तू क्या करने जा रहा था।
स्वयं को वैसा बनाओ तो
साथियो! विवेकानन्द को उस समय और तो कुछ समझ में नहीं आया था, जब गुरु ने आँखें निकाली। उन्होंने देखा कि सामने जोर का स्टोव जल रहा है। वे खाना अपने आप पकाते थे। उनका स्टोव के ऊपर रखा तवा जल रहा था। वे जलते हुए तवे के ऊपर बैठ गए। इससे उनके दोनों पुठ्ठे जल गए। जब जल गए, तब उस पर से उठे। उन्होंने अपने मन से कहा कि अब तू समझा कि नहीं समझा? आग छूते हैं तो छाले पड़ते हैं कि नहीं पड़ते? हाँ साहब! पड़ते हैं। तो तू उसे छू रहा है, जो आग से भी प्रचंड है। इससे छाले नहीं पड़ेंगे क्या? विवेकानन्द गुरु का संकेत समझ गए। इसके बाद महीने भर पड़े रहे, घर पर ही विश्राम करते रहे। एक महीने बाद उन्होंने अपना काम शुरू किया। एक बार वे बोले, महाराज जी! आप कुंडली जगा देंगे? रामकृष्ण परमहंस ने जगा दी। तो गुरुजी, आप भी हमारी कुंडली जगा देंगे? हाँ बेटे, हम जगा देंगे। इसके लिए तो हम व्याकुल हैं। जिस तरह गाय के थनों में दूध फटा पड़ता है और वह उसे अपने बछड़े को पिलाने के लिए व्याकुल रहती है, ठीक वही हाल हमारा है। गाय का दूध फटा पड़ता है तो साहब! हमको पिला दीजिए। बेटे, यही तो हम तलाश करते रहते हैं, लेकिन गाय तो अपने बच्चे को ही पिलाती है, कुत्ते के बच्चे को नहीं पिला सकती। गाय गाय के बच्चे को अपना दूध पिला सकती है, लेकिन कुत्ते के बच्चे को नहीं पिला सकती। अत: आप पहले गाय का बच्चा बनने की कोशिश करें।
साथियो! हमने इस ब्रह्मवर्चस शिविर में आपको इसलिए बुलाया कि आप जो कर्मकाण्ड करते हैं, जो उपासना करते हैं, पूजा करते हैं, भजन करते हैं, हनुमान चालीसा पढ़ते हैं, जो भी पढ़ते हैं, उसमें एक काम तो यह करें कि उसमें अपने विचारों का समन्वय करें। जितने समय तक आपका जप चलता रहे, उतने समय तक प्रत्येक क्रिया के साथ-साथ, जप के साथ-साथ में जो भावनाएँ जुड़ी हुई हैं, विचारणाएँ जुड़ी हुई हैं, उसमें अपने मस्तिष्क को पूरी तरीके से लगाए रखें। दूसरा विचार उसमें न आने दें। दूसरे विचारों को रोकिए मत, उसकी दिशा बदल दीजिए, जप में लगा दीजिए। वह अपने आप रुक जाएगा।
एक महात्मा ने अपने एक शिष्य से कह दिया कि भजन करते समय तू बंदर का ध्यान मत करना। जैसे ही वह ध्यान करने बैठता, मन में यही विचार आने लगता कि बंदर आ जाएगा। परेशान शिष्य जब महात्मा जी के पास गया तो उन्होंने कहा कि हमने तुझे गलत बता दिया था, अब हम तुझे ठीक बताते हैं। अब से जब भी तू ध्यान किया करे तो गाय का ध्यान किया कर, 'गऊ माता बैठी है, गऊ माता खड़ी हुई है.........।' इस तरह जब तक तू गऊ माता का ध्यान करता रहेगा, तब तक बंदर नहीं आएगा। तो गुरुजी! मन को भागने से रोक दें। बेटे, मन भागने से नहीं रुकेगा। मन को नहीं भागने दूँगा, मन भाग जाएगा, तो रोक लूँगा, मन को पकड़ लूँगा। मन को मार डालूँगा। बेटे, ऐसा करेगा तो मन भागेगा ही। तो क्या करूँ? मन को एक काम में लगा दे। किस काम में लगाऊँ ? बेटे, हमारे चिंतन के साथ में भावनाएँ जुड़ी हुई हैं। हवन में हम आपको भावना बताते हैं, जप में हम भावना बताते हैं, उपासना में हम भावना बताते हैं, देवपूजन में हम भावना बताते हैं। उसके साथ मन को जोड़ दे।
पहले हमारे विचारों को पढ़िए
मित्रो! आपने हमारी किताबें पढ़ी नहीं हैं, ध्यान से पढ़िए। आप तो वही छोटी-सी बात पूछते हैं कि लक्ष्मी कमाने के लिए 'श्री' बीज मंत्र तीन बार लगाने हैं या पाँच बार लगाने हैं। आप तो केवल यही पूछते हैं जिससे लक्ष्मी फटाफट चली आए और यह नहीं पूछते कि उपासना के साथ-साथ में जितने भी कर्मकाण्ड हैं, उन कर्मकाण्डों के साथ में जो शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं, प्रेरणाएँ भरी पड़ी हैं, दिशाएँ भरी पड़ी हैं, उनको बता दीजिए। बेटे, हमने किताबों में बेशक छापा है, हमने पैंतालीस मिनट की जो उपासना बताई थी, उसका एक विशेषांक निकाला था। उस विशेषांक में हरेक को बताया था कि जब आप जप किया करें, तो ये वाला जप किया करें। पूजा-उपासना के संबंध में अभी भी वह हमारी किताब है, उसे तो कोई खरीदता नहीं है और यह कहता है कि महाराज जी! वह किताब बताइए जिससे लक्ष्मी आने लगे। ठीक है बेटे, वह पच्चीस पैसे की आती है, खरीद ले जा। हाँ महाराज जी! वही चार पाँच कापी खरीद ले जाऊँगा। खरीद ले जा बेटे, सबको लक्ष्मी आ जाएगी। उस विधि वाली किताब को तो लोग खरीद लेते हैं, पर उसे कोई नहीं खरीदता। कौन सी को? उपासना वाली को, जिसमें यह बताया गया है कि उपासना के समय कर्मकाण्डों के साथ-साथ किस तरह से हमारे विचारों का चिंतन चलना चाहिए।
चिंतन की आवश्यकता के बाद तीसरा जो चरण आता है, वह है हमारी भावनाओं का। भावना किसे कहते हैं ? भावना उस उमंग को कहते हैं, जो क्रिया बिना चैन नहीं लेती, किए बिना चैन नहीं लेने देती। वे कल्पनाएँ जो आपके दिमाग में आती रहती हैं कि हम जप करेंगे, संत बनेंगे, महात्मा बनेंगे, ज्ञानी बनेंगे, ब्रह्मचारी बनेंगे और नित्य प्रार्थना करते हैं, 'हे प्रभु आनंददाता! ज्ञान हमको दीजिए। शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।' तो क्यों भाई! एकाध दुर्गुण छोड़ना तो नहीं है ? नहीं महाराज जी! छोड़ने-छाड़ने का चक्कर नहीं है। मैं तो केवल गीत गाता रहता हूँ। अरे! तो गीत से क्या बनेगा अभागे।
मित्रो! क्या करना चाहिए? विचारों के साथ-साथ में हमारे अंदर भावना का समावेश होना चाहिए। भावना का अर्थ यह है कि इसके अंदर तड़पन पैदा हो, ऐसी उमंग पैदा हो कि हम इसे किए बिना रह नहीं सकें। आप जो भी क्रिया-कृत्य करें, कर्मकाण्ड करें, उसके साथ चिंतन भी करें कि हम दीपक की तरह से जिएँगे, हम अपना आत्मशोधन करेंगे। जप करेंगे, नैवेद्य चढ़ाएँगे, इस तरह के जो भी कृत्य हों, इन क्रियाओं के साथ-साथ में विचारों का समन्वय हो। विचारों के समन्वय के पश्चात जब आपके विचार जमने लगे, तो आप यह कोशिश कीजिए कि इसके साथ में भाव अर्थात उमंगें भी उमगें। 'हम यही करेंगे, बस यही करेंगे' का संकल्प जाग्रत हो कि हम श्रेष्ठता से असीम श्रद्धा करेंगे। श्रेष्ठता से असीम श्रद्धा, जिसको हम असीम प्यार कहते हैं। इससे ज्यादा कोई प्यारी चीज नहीं है। हमको श्रेष्ठता से असीम और कोई प्यारा नहीं है। भगवान से ज्यादा और कोई प्यारा नहीं है हमको। अनुशासन से ज्यादा प्यारा और कोई नहीं है। हम सबको नाराज कर सकते हैं, पर इसको नहीं करेंगे।
उमंगें भीतर से जन्में
मित्रो! अगर ये उमंगें हमारे भीतर से पैदा हों, तो हमारे जीवन में क्रिया की विशिष्टता आ जाए। कर्मकाण्ड के साथ में जुड़े हुए विचार, विचारों के साथ जुड़ी हुई भावनाएँ, भावनाओं से ओत-प्रोत, रसविभोर हमारा जीवन आनंद से सराबोर हो जाए, तो उसका परिणाम हमारे जीवन में संत के रूप में सामने आएगा। इस तरह फिर आप देखिए कि संत बनते हैं कि नहीं बनते? फिर देखिए कि आप ऋषि बनते हैं कि नहीं बनते? फिर देखिए कि आपको भगवान का अनुग्रह प्राप्त होता है कि नहीं? ये सभी चीजें आपको प्राप्त होती चली जाती हैं। शर्त यही है कि आप अपने आप को, अपने जीवन को, अपनी विचारणाओं को, अपने चिंतन को, अपने लक्ष्य को, अपने आदर्श को इस लायक बनाने की कोशिश करें, जैसे कि संत के होने चाहिए। जैसे कि उपासना करने वाले के होने चाहिए। अगर आप थोड़े-बहुत कदम उठाने के लिए तैयार हैं, तो यह आपका सौभाग्य है। लोग तो तलाश करते फिरते हैं कि कोई ऐसी शक्ति हमें मिले, जो इस विषय में पारंगत हो। बेटे, हम अपनी बात तो नहीं कहते, किंतु हमारे गुरु पारंगत हैं। आप भी कह सकते हैं कि वे पारंगत हैं। उनकी हम जमानत दे सकते हैं और कह सकते हैं कि आपकी सहायता हम कर सकते हैं।
महाराज जी! आप अपने गुरु जी के दर्शन करा दीजिए। अबकी बार गुरु जी, आप हिमालय पर चलें तो मुझे भी ले चलना। हाँ बेटे, ले चलेंगे, इसमें क्या दिक्कत है! तो फिर गुरु जी की कृपा मिलेगी? नहीं बेटे! कृपा क्यों नहीं मिल सकती? फिर क्या फायदा करेंगे? बेटे, तू पहले विचार कर ले, कृपा का वायदा मैं नहीं कर सकता। मैं तुझे ले चल सकता हूँ, दिखा भी लाऊँगा, पर दिखाने के साथ-साथ यों कहिए कि कोई वरदान-आशीर्वाद देंगे या नहीं, नहीं देंगे तुझे। क्यों? इसलिए नहीं देंगे कि तू वरदान को हजम नहीं कर सकता। वरदान को हजम करने के लायक तेरी स्थिति नहीं है। बेटे, अगर हम वरदान को हजम करने लायक स्थिति पैदा कर लें, तो घर बैठे अनुदान हमें मिल सकते हैं। हमारे गुरु का हम पर अनुग्रह है। वे हिमालय पर रहते हैं, जहाँ जाकर हम लेकर आते हैं, लेकिन आपको तो यहीं बैठे मिल सकता है। ब्रह्मवर्चस को आरण्यक हमने इसीलिए बनाया है कि वे व्यक्ति उपासना करने के लिए यहाँ आएँ, जिन्होंने सारी जिंदगी भर उपासना की है, पर प्राप्त कुछ नहीं हुआ, पर अब थोड़े समय में प्राप्त कर सकते हैं।
मित्रो! रामकृष्ण परमहंस ने जो जन्म-जन्मांतरों तक की उपासना की और प्राप्त किया, उसको विवेकानन्द ने थोड़े दिनों में प्राप्त कर लिया। आप भी थोड़ी देर में प्राप्त कर सकते हैं, जो हमने मुद्दतों से पाया। गाय ने चौबीस घंटे घास खाकर के और उसको हजम करके जो दूध पेट में जमा किया है, उसको आप पाँच मिनट में पी सकते हैं। आपका सौभाग्य है। आप बच्चे हैं, दूध पी लीजिए। गाय ने उसे चौबीस घंटे में तैयार किया है। बेचारी दिन भर घूमती रही और घास खाती रही है, तब दूध जमा किया है उसने। आप उसे पी लीजिए, यह आपका सौभाग्य है। आप दूध पी सकते हैं, लेकिन आपको इतना तो करना ही पड़ेगा कि गाय का दूध पीने के लिए आपको गाय के बच्चे के समतुल्य होना पड़ेगा।
आप गाय के बच्चे के समतुल्य होते हैं कि नहीं, अगर होते हैं, तो विश्वास रखिए, आपको वह सब कुछ मिलेगा, जो एक साधक को मिलना चाहिए। इस शिविर के साथ हमने ब्रह्मवर्चस की साधना को भी जोड़कर रखा है। इसमें कुंडलिनी-जागरण भी शामिल है, पंचकोशों का अनावरण भी शामिल है। इसमें भगवान का साक्षात्कार भी शामिल है। इसमें मनुष्य के भीतर विद्यमान आत्मतत्त्व का ज्ञान होना भी शामिल है। इसके द्वारा आपके समीपवर्ती वातावरण में स्वर्गीय परिस्थितियों का पैदा होना भी शामिल है। ये सारी-की-सारी विभूतियाँ, विशेषताएँ जो बताई गई थीं, वे सारी-की-सारी सिद्धियाँ आपका स्वागत करती हैं और आपको बुलाती हैं और आपसे प्रार्थना करती हैं कि आप चाहें तो हमें स्वीकार कर सकते हैं। आपको प्रार्थना करने की जरूरत नहीं है। देवता आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमको स्वीकार कीजिए, लेकिन आपको उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। वह इस रूप में चुकानी पड़ेगी कि आप अपना जीवन परिष्कृत करें। श्रेष्ठ दृष्टिकोण, ऊँचा चिंतन, आदर्श जीवन का स्वरूप बनाएँ। अगर इतना आप बना लें, तो आपको वे सिद्धियाँ और वे चमत्कार, वे ऋद्धियाँ, जिनकी बावत ऋषियों ने बहुत सारे माहात्म्य बताए और वर्णन किए हैं और जिनके लिए आपको मैंने पहले दिन बताए थे और आज अंतिम दिन भी बताता हूँ कि वे सारी-की-सारी सिद्धियाँ और चमत्कार प्राचीनकाल के लोगों के तरीके से आज भी सुरक्षित हैं। लेकिन इसके साथ शर्त है, बिन शर्त नहीं मिलेगा।
बिना शर्त अनुदान नहीं
महाराज जी! बिना शर्त के दिलाइए। नहीं बेटे, बिना शर्त के नहीं मिलेगा। बिना शर्त के हमें कलेक्टर बना दीजिए। नहीं बेटे, बिना शर्त के नहीं बन सकता। कलेक्टर बनने से पहले तुझे ग्रेजुएट होना चाहिए। ग्रेजुएट होने के साथ-साथ में तुझे आई०सी०एस० पास करना चाहिए। तब फिर तुझे कलेक्टर बनवा दूँगा। नहीं महाराज जी! पहले ही बनवा दीजिए, चाहे जैसे भी हो। आप तो इंदिरा गाँधी को बहुत जानते हैं, मोरार जी देसाई आपके मिलने वालों में से हैं, आप हमको तो कलेक्टर बनवा ही दीजिए। अरे! कुछ पास भी है क्या? हाँ, पाँचवें दरजे तक पढ़ा हूँ। तो फिर कलेक्टर कैसे बनवा दूँ। अरे! आपकी तो जान पहचान है। ऐसे ही तीर-तुक्का मारता है। अरे भाई, तुक्का मारा जाता है कहीं? नहीं साहब! भगवान जी के यहाँ ऐसे ही तुक्का मारो कि हमारा सब काम हो जाएगा। नहीं बेटे, ऐसा तो नहीं हो सकता।
मित्रो! इसके लिए हमको पात्रता का विकास करना चाहिए। पात्रता का विकास करने के लिए मेरे गुरु ने मुझ पर दबाव डाला, तब मैंने अपनी पात्रता का विकास किया। पात्रता का विकास जिस कदर होता चला गया, उसी कदर मुझे देवता का, भगवान का, ऋषियों का अनुग्रह मिलता चला गया। आपके लिए भी वही रास्ता है, जो मैंने आपको पहले दिन बताया था कि हमको गायत्री उपासना करते हुए जो चमत्कार और सिद्धियाँ मिलीं, उसके आधार पर रहस्य को क्यों छिपाया जाए? यह रहस्य बताकर मैं अपनी बात समाप्त करूँगा। आपको मैं फिर यह कहता हूँ कि उपासना से लाभ उठाने के लिए अटूट श्रद्धा का होना नितांत आवश्यक है। श्रद्धा अर्थात भगवान के आदेशों पर चलने के लिए विश्वास। जैसे कि मैंने आपको एक किसान का किस्सा बताया था कि किस तरह वह अन्य किसानों को तारता चला गया। भगवान पर उसका अटूट विश्वास था। भगवान पर विश्वास के आधार पर यदि आप श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए, आदर्शवादी जीवन जीने के लिए तैयार होते हैं, तो आप अपनी नाव उस पार तो ले जाएँगे ही, अन्य असंख्यों को भी तार देंगे, अपनी नाव पर बिठाकर ले जाएँगे।
तीन का त्रिवेणी संगम
साथियो! अगर आप ऐसा जीवन जी सकते हों तो हमारी राय है कि श्रद्धा एक, चरित्र दो और ऊँचा उद्देश्य तीन, इन तीनों की त्रिवेणी आप मिलाइए। आप तप कीजिए, किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए। भगवान से माँगिए, किसी ऊँचे काम के लिए। देखिए फिर मिलता है कि नहीं मिलता? एक बच्चा जब अपने बाप से रुपये माँगता है कि पिताजी पाँच रुपये दे दीजिए। बाप कहता है क्यों? किसलिए? बच्चा कहता है कि सिनेमा देखने जाना है। पिताजी कहते हैं कि तू रोज-रोज पाँच रुपये ले जाता है और सब सिनेमा में खरच कर देता है। भूखों मरेगा और भीख माँगेगा। सौ गाली देता है। दूसरी ओर एक बेटा कहता है कि पिताजी, अमुक चीज मंदी हो गई है। मंदी चीज को खरीद लेने से उम्मीद है कि दो महीने के बाद हमको इसमें से मुनाफा हो जाएगा। हाँ बेटे, ठीक है, खरीद ले। पिता जी, पंद्रह हजार रुपये हों, तो हम माल खरीद लेंगे और बीस हजार रुपये में बेच देंगे। अच्छा बेटे, तो अब क्या करना चाहिए? पिताजी, पंद्रह हजार रुपये का इंतजाम करना चाहिए। अच्छा बेटा, देख अभी करता हूँ। देख तिजोरी में कितने रुपये हैं। नौ हजार हैं और देख ऐसा कर कि अपनी माँ के जेवर ले जा और छह हजार में गिरवी रख दे। कम पड़ेगा तो देख मैं अपने रिश्तेदार को चिट्ठी लिख दूँगा कि तुम मेरी जिम्मेदारी पर दो हजार रुपये दे दो। पंद्रह दिन के अंदर भेज दूँगा।
मित्रो! उसके लिए वह कर्ज माँगता है। अपनी औरत के जेवर बेच देता है। नौ हजार रुपये तिजोरी में रखे हैं, उन्हें निकालकर देता है। हजार रुपये छिपाकर रखे थे, वह भी दे देता है। सब खजाने खोल देता है बाप। क्यों देता है बाप उस बेटे को? इसलिए देता है कि वह किसी ऐसे काम के लिए खरच करना चाहता है कि जिससे बाप की इज्जत, बाप की शान बढ़े। जिस घर में वह रहता है, सबके लिए फायदा होता हो, इसलिए वह देता है। फिर बच्चे को पाँच रुपये देने से क्यों इनकार कर रहा था? इसलिए कि वह अपने लिए माँगता है, ऐय्याशी के लिए माँगता है, बेकार की बातों के लिए माँगता है। इसलिए बाप इनकार करता था। भगवान भी इसीलिए इनकार करता है अनुदान देने से कि आप अपने लिए माँगते हैं। आप ऊँचे उद्देश्य के लिए भजन कीजिए, चरित्रवान बनिए, श्रद्धा से अपना अंत:करण परिपूर्ण कीजिए। भजन की मात्रा कम हो या ज्यादा, इससे कुछ बनता नहीं है। आप थोड़ा भजन कर लें, वह भी काफी हो सकता है।
श्रद्धा ही है धुरी
मित्रो! आप एकाध घंटा भजन कर लें, तो भी पर्याप्त है। महात्मा गाँधी आधा घंटा भजन करते थे। बिनोवा आधा घंटे भजन करते थे। इन लोगों के थोड़े-थोड़े भजन होते थे। थोड़े भजन में भी चमत्कार हो सकते हैं। शर्त यह है कि आप उसमें खाद-पानी देने और निराई करने का क्रम निरंतर जारी रखें। इसका अर्थ यह होता है कि श्रद्धा का समावेश, चरित्रवान होना और ऊँचे उद्देश्य के लिए उपासनाएँ करना अपने लिए नहीं। अगर आप ये तीन काम कर सकते हों, तो ऋषियों की परंपरा से लेकर हमारी परंपरा तक, सब में एक ही बात चली आई है कि भगवान का अनुग्रह आपको मिलेगा, भगवान का प्यार आपको मिलेगा, अगर आपने लोभ और मोह पर अंकुश रखना सीख लिया। आपको यदि लोभ और मोह से ही प्यार है, तो फिर दोनों चीजें आपको नहीं मिल सकी। अगर आप एक चीज लेंगे, तो दूसरी आ जाएगी। प्रकाश की ओर चलेंगे, तो छाया पीछे आ जाएगी। छाया की ओर चलेंगे, तो प्रकाश भी नहीं रहेगा और छाया भी नहीं रहेगी।
मित्रो! हम प्रकाश की ओर चले, तो छाया हमारे साथ-साथ चली है। छाया को हजारों बार फेंका, हजारों बार धिक्कारा, टेढ़ी आँखें दिखाईं, फिर भी वह आ गई। इससे मना करो तो कहती है कि हम फिर भी आएँगे। अतः आप प्रकाश की ओर चलिए, छाया पीछे-पीछे आएगी। छाया की ओर चलेंगे, तो छाया भी आगे-आगे भागेगी। फिर आप प्रकाश को भी गँवा बैठेंगे। बेटे यही है सिद्धांत। जिसके आधार पर मैंने सारे जीवन में उन्हें दिमाग में उतारकर व्यवहार में लाता रहा। उसका परिणाम है, जो आज आप देखते हैं कि अपनी भी मैंने नाव पार लगा दी और अपनी नाव में बैठाकर असंख्यों को पार लगा दिया। आप भी अपनी नाव पार लगा सकते हैं और असंख्यों को उस पर बैठाकर पार लगा सकते हैं, लेकिन शर्त यही है कि आपका अध्यात्म सही हो। सही अध्यात्म कैसा होता है, इसी का परिचय मैंने आपको इस शिविर में दिया। मुझे आशा है कि आप इस पर विचार करेंगे और उसी के अनुरूप अपने जीवन को ढालने की कोशिश करेंगे। अगर आप ऐसा कर सके तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ और आश्वासन देता हूँ कि आपकी साधना वैसी ही सफल होकर रहेगी, आपका ध्यान निश्चित ही लगेगा, जैसा कि हमारे साथ हुआ। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥