उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
आत्मिक उन्नति का राजमार्ग—विद्या
परमपूज्य गुरुदेव की यह विशिष्टता है कि वे अपने सारगर्भित व्याख्यानों के माध्यम से गुह्य ज्ञान के सूत्रों को अत्यन्त सरल, सहज, सुगम भाषा में प्रस्तुत कर देते हैं। उनका यह प्रस्तुत व्याख्यान एक ऐसी ही ज्ञान की धारा, विद्या के संदर्भ में समस्त आयामों को सहजता से प्रस्तुत करता है। युगऋषि कहते हैं कि मनुष्य, अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है, सृष्टि के नियंता की भूमिका में अपने को पाता है, क्यों? इसका कारण यह है कि मनुष्य ज्ञानार्जन कर सकता है। ज्ञानार्जन के भी दो पहलू हैं-हमारी सामाजिक उन्नति व विकास के लिए जिस धारा की जरूरत होती है, उसे हम शिक्षा कहते हैं और जिसके माध्यम से हम आत्मिक उन्नति को प्राप्त करते हैं, उचित-अनुचित का भेद समझते हैं, विवेकशील बनते हैं-उसे विद्या कहा जाता है। इसी विद्या को आत्मज्ञान, ब्रह्मविद्या, ऋतम्भरा प्रज्ञा का नाम भी दिया जा सकता है। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि हम शिक्षा तो अवश्य प्राप्त करें परंतु अपने जीवन में विद्या के गुणों व सूत्रों को आत्मसात् करना न भूलें। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........
ज्ञान मनुष्य की मुख्य आवश्यकता
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
देवियो,भाइयो! मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता क्या है? ज्ञान। ज्ञान न हो तब? ज्ञानविहीन होने की वजह से चेतन होते हुए भी सब प्राणियों को निचले दर्जे में गिना जाता है। जीवन तो वनस्पति में भी है, परंतु ज्ञान नहीं है। दूसरे प्राणियों—यथा मक्खी, मच्छर, कीड़े-मकोड़े, सभी में जीवन है। मेढ़क में भी जिंदगी है। मछली में भी जीवन है। कछुए में भी जीवन है। चिड़िया में भी जिंदगी है फिर हम उनको निम्न स्तर का क्यों मानते हैं? उनमें एक ही कमी है कि उनमें ज्ञान नहीं है। मनुष्य ज्ञान का देवता माना गया है। ज्ञान की वजह से, मननशील होने की वजह से, विचारशील होने की वजह से मनुष्य का स्तर ऊँचा रहा है। कल्पना कीजिए कि प्राचीनकाल में जब मनुष्य वनमानुष रहा होगा, जब उसको ज्ञान नहीं रहा होगा। सामाजिकता का ज्ञान नहीं रहा होगा और अपनी जिम्मेदारियों का ज्ञान नहीं रहा होगा, अपनी गौरव-गरिमा और गुण, कर्म, स्वभाव की विशेषताओं के बारे में कोई जानकारी नहीं रही होगी, तब? तब जैसे कि विकासवादी वैज्ञानिक डार्विन साहब कहते थे कि—‘‘मनुष्य बंदर की औलाद है।’’ तब वास्तव में बंदर की औलाद की तरीके से इनसान भी रहा होगा।
लेकिन मित्रो! आज मनुष्य सृष्टि का स्वामी बना हुआ है। किस वजह से? क्या उसके हाथ-पाँव बड़े हो गये हैं? नहीं, हाथ-पाँव बड़े नहीं हुए हैं। उसके हाथ-पाँव वही हैं। उनमें कोई अंतर नहीं आया है। लम्बाई-चौड़ाई में भी कोई अंतर नहीं आया है। नाक, आँख, कान की बनावट में भी कोई अंतर नहीं हुआ है लेकिन जो अंतर प्राचीनकाल की तुलना में आज हो गया है, वह यह है कि आदमी का ज्ञान बढ़ता हुआ चला गया है। ज्ञान की दो धाराएँ हैं और दोनों को ही बढ़ाना चाहिए। ज्ञान की एक धारा वह है जो हमारी जीविका पैदा करने के काम आती है। उसको शिक्षा कहते हैं। लोक-व्यवहार उसी के आधार पर सीखा जाता है। बच्चों को स्कूल में हम जो पढ़ाते हैं, शिक्षा पढ़ाते हैं। शिक्षा का मतलब क्या है? शिक्षा का मतलब यह है कि उनको लोकाचार आये। उनको यह मालूम पड़े कि संसार की बनावट क्या है? भूगोल क्या है? इतिहास क्या है? दुनिया में इनसानों के चाल-चलन क्या रहे हैं? दुनिया में किस तरीके से उतार-चढ़ाव आते रहे हैं? ये बातें वे इतिहास से सीखें।
इसी तरह मित्रो! पेड़ कैसे पैदा होते हैं? यह सृष्टि क्या है? राजनीति क्या है? समाज क्या है? नागरिक कर्तव्य क्या है? आजीविका उपार्जन कैसे करना चाहिए? अर्थशास्त्र क्या है? आदि बातें सीख करके हम आजीविका उपार्जन कर सकते हैं और इस क्षेत्र में प्रवीणता हासिल कर सकते हैं। लोक-व्यवहार में प्रवीण बनने के संबंध में, आजीविका उपार्जन करने के संबंध में जो जानकारियाँ हमको मिलती हैं, उसका नाम शिक्षा है। शिक्षा आवश्यक है। अगर शिक्षा न होगी तो आदमी अपने शरीर को कैसे सँभाल पायेगा? समाज के साथ किस तरीके से तालमेल बिठा पायेगा? अपनी अकल का उपयोग किस तरीके से कर पायेगा? इन सब जानकारियों के लिए शिक्षा तो आवश्यक है, लेकिन शिक्षा से ही काम चलने वाला नहीं है। शरीर के लिए, भौतिक जीवन को ठीक बनाये रखने के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है। लेकिन केवल एक भौतिक जीवन ही तो नहीं है। एक और भी तो हमारा जीवन है, जिसको हम आध्यात्मिक जीवन कहते हैं। हमारे भीतर कोई चेतना भी तो है। आत्मा भी तो कोई हमारे भीतर है। विवेक भी तो कोई हमारे भीतर है। संवेदनाएँ भी तो कोई हमारे भीतर हैं।
शिक्षा ही नहीं विद्या भी
मित्रो! इन सबको ठीक रखने के लिए एक और चीज की जरूरत है, जिसका नाम है—‘विद्या’। ज्ञान की धारा उसी को कहते हैं, जिसको विद्या कहा गया है। उस विद्या का पूरा नाम अध्यात्म विद्या है। आप इसे अध्यात्म विद्या माने तो भी हर्ज नहीं है। ऋतम्भरा प्रज्ञा कहें तो भी कोई हर्ज नहीं है। आप इसको विवेक कहें, तो भी हर्ज नहीं है। इसको आप गायत्री कहें, तो भी कोई हर्ज नहीं है। वास्तव में महत्त्व उसी का है। दुनिया की जानकारियों के बारे में ढेरों आदमी ऐसे हैं, जिनकी जानकारियाँ बहुत हैं। वे बहुत होशियार हैं। दुनिया में विद्वान कम हैं क्या? दुनिया में कलाकार कम हैं क्या? चतुर आदमी दुनिया में कम हैं क्या? क्रियाकुशलों की कमी है क्या? पर वे सब स्वयं के लिए हैं। दूसरों के लिए वे क्या साबित हुए, आप बताइए ना? जेलखाने में पड़े हुए लोगों को आपने देखा है ना? वे एक से बढ़कर एक होशियार आदमी हैं और एक-से समझदार आदमी हैं। कहाँ हैं? वहीं कैदखाने में हैं। जालसाजों में पढ़े-लिखे आदमी ही ज्यादा होते हैं। नासमझ आदमी जालसाजी नहीं कर सकते। नासमझ आदमी जेबकटी कर सकते हैं और छोटे-मोटे अपराध कर सकते हैं। दुनिया में जितनी बड़ी-बड़ी जालसाजियाँ हुई हैं, वह सब पढ़े-लिखे लोगों ने की हैं।
इसलिए मित्रो! मैं शिक्षा की बात नहीं कहता। शिक्षा अपनी जगह पर मुबारक, इससे मुझे कुछ नहीं लेना-देना। लेकिन जहाँ तक आप लोगों की सेवा में, मैं कुछ बात कह रहा हूँ, विद्या के बारे में कह रहा हूँ। आपको विद्या का महत्त्व समझना चाहिए। विद्या का महत्त्व अगर आप समझ सकें, तो मजा आ जाये। विद्या से क्या मतलब है? विद्या का मतलब यह है कि आप अपने विचारों का इस्तेमाल किस तरीके से करें? आप अपने शरीर का इस्तेमाल किस तरीके से करें? परिस्थितियों का उपयोग किस तरीके से करें? अपने पास जो साधन और सामान मिला हुआ है या मिल सकता है, आप उसे किस तरीके से, ठीक तरह से इस्तेमाल कर पायेंगे, बस इसी का नाम विद्या है। इसके लिए सामान्य लोकज्ञान से काम नहीं चलता। इसके लिए आदमी को थोड़े ऊँचे स्तर पर बैठकर विचार करना होता है और यह देखना पड़ता है कि इन्सान की गरिमा, इन्सान की महत्ता की सुरक्षा किस तरीके से की जाय? उसके लिए क्या करना चाहिए? बस इसी का नाम विद्या है और अगर किसी को विद्या मिल जाय तब? तब वह धन्य हो जाता है।
विद्या ही अमृत है
मित्रो! शास्त्रों में विद्या की महत्ता के बारे में न जाने क्या-क्या कहा गया है। ‘‘विद्याऽमृतमश्नुते’’—विद्या को अमृत कहा गया है। जिसने विद्या प्राप्त कर ली, उसको अमृत मिल गया। जो ठीक तरीके से उचित और अनुचित का फल जानता है, उसके लिए फिर दुनिया में कोई चीज मुश्किल नहीं रह जाती। जिसको यह मालूम है कि समस्याएँ किस तरीके से पैदा होती हैं और उनके समाधान क्या हैं? सामान्यतया लोगों को यह मालूम नहीं होता है। प्रायः लोगों का यह ख्याल है कि परिस्थितियों की वजह से समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। दूसरों की वजह से परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती, वरन् आदमी की मनःस्थिति इसकी जिम्मेदार है। आमतौर से यह बात लोगों की समझ में नहीं आती। महापुरुषों के इतिहास को आप पढ़ें, तो यह आसानी से जान सकते हैं कि समस्याएँ कहाँ से उत्पन्न हुईं और आदमी किस तरीके से उनसे लोहा लेकर के आगे बढ़े और महापुरुषों की श्रेणी में जा बैठे।
मित्रो! आपने अब्राहम लिंकन का नाम सुना है ना? जॉर्ज वाशिंगटन को जानते हैं ना? गाँधी जी का जीवन इतिहास आपने पढ़ा है ना? बुद्ध का इतिहास पढ़ा है ना? इनकी परिस्थितियों में क्या खास बात थी, बताइये। कुछ नहीं थी वरन् सामान्य लोगों के बराबर अथवा उससे भी गई-बीती परिस्थितियाँ थीं लेकिन गई-बीती परिस्थितियों में भी उनकी मनःस्थिति इतनी शानदार थी कि न जाने वे कहाँ-से उठते हुए और कहाँ-से बढ़ते हुए चले गये। शंकराचार्य में क्या विशेषता थी, आप बताइये? समर्थ गुरु रामदास में क्या विशेषता थी, बताइये? कबीर की क्या परिस्थितियाँ थीं, बताइये? कबीर को कौन कंधे पर उठाकर ले गया था?
मनःस्थिति में विकसित करें विवेक
केवल मनःस्थिति थी, जिसमें विवेकशीलता मुख्य है। मनःस्थिति में एक चीज और आ जाय—‘विवेक’। आदमी के भीतर यदि विवेक आ जाय, तो वह अपनी समस्याओं का हल स्वयं कर सकता है और दूसरों की समस्याओं को भी हल कर सकता है। आदमी के पास विवेक हो, तो अपने पास जो साधन-सामग्री मिली हुई है, वह उसका ठीक तरीके से इस्तेमाल कर सकता है। आदमी को समय मिला हुआ है, आदमी को श्रम मिला हुआ है, आदमी को कैसा अच्छा-खासा शरीर मिला हुआ है? आदमी को कैसा बढ़िया वाला दिमाग मिला हुआ है? आदमी को कैसा अच्छा कुटुम्ब मिला हुआ है और आदमी को कैसा कार्यक्षेत्र मिला हुआ है? लेकिन इस सारे-के क्षेत्र का, उचित और अनुचित का समाधान हम नहीं निकाल पाते।
मित्रो! क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? बस यहीं हम भटक जाते हैं और इस वजह से हम कहीं के मारे, कहीं जा पहुँचते हैं। जो हमको करना चाहिए, वह हम कर नहीं पाते और जो हमको नहीं करना चाहिए, वह करने लगते हैं। इसकी वजह क्या है? इसकी वजह यह है कि हमारे पास खास किस्म का ज्ञान नहीं है, जिसको हम विवेक कहते हैं। ज्ञान का अर्थ यहाँ विवेक है। ज्ञान का अर्थ ‘नॉलेज’ नहीं है। ज्ञान का अर्थ है—‘विज़डम’।
‘विज़डम’ अगर आपके पास है, तो आप हर चीज को उचित और अनुचित की कसौटी पर कस सकते हैं और सिर्फ उसी बात को अपने जीवन में धारण कर सकते हैं, जो आपको करनी चाहिए। इसके लिए सबसे बड़ी कमजोरी और सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हम दूसरों को काम करते देखकर, दूसरों के रास्ते पर चलने लगते हैं। यह काम तो भेड़ों का होता है, इन्सानों का थोड़े ही है। जहाँ ज्यादा लोग चलें, वहीं हम भी चलें, जो दूसरे लोग करें, वही हम करें। जो दूसरे लोग कहें, वही हम कहें। दूसरे लोग जिस तरीके से मरें, हम भी उसी तरीके से मरें। जीने का यह भी कोई ढंग है? यह कोई ढंग नहीं है। आध्यात्मिकता का तकादा यही है कि प्रत्येक परिस्थिति के बारे में, गुण के हिसाब से, उसके परिणाम के हिसाब से आदमी को स्वयं विचार करना चाहिए। स्वतंत्र चिंतन इसी का नाम है। स्वतंत्र चिंतन अगर आपके पास है तो आप उचित और अनुचित का निर्धारण कर सकते हैं।
उचित-अनुचित में भेद का प्रतीक हंस
मित्रो! आपको यहाँ गायत्री माता का प्रशिक्षण दिया जाता है। आप यहाँ इस उपासना में गायत्री का शिक्षण प्राप्त करते हैं। आप गायत्री उपासना में ही लगे हुए हैं लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि गायत्री किसके कंधे पर सवार होती है और कौन गायत्री को अपने इशारे पर नचाये फिरता है, आप गायत्री माता की जिस तस्वीर का ध्यान करते हैं, उस तस्वीर में उसका वाहन देखा है ना आपने? उस वाहन का नाम है—हंस। हंस किसे कहते हैं? हंस के ऊपर गायत्री माता सवारी करती है, यह बात शायद आपकी समझ में न आये क्योंकि इनसान के बराबर जिनका शरीर है, वह तो किसी जानवर पर, पशुओं पर सवारी तो कर सकती है, लेकिन पक्षियों पर सवारी नहीं कर सकतीं। आप घोड़े पर बैठ सकते हैं, गधे पर बैठ सकते हैं, हाथी पर बैठ सकते हैं, ऊँट पर बैठ सकते हैं, भैंसे पर बैठ सकते हैं, बैल पर बैठ सकते हैं। लेकिन आप बताइये कि किसी पक्षी पर, जिस बेचारे का वजन नहीं के बराबर है, उसके ऊपर आदमी कैसे बैठ पायेगा? बैठना मुश्किल है; क्योंकि उसकी लम्बाई-चौड़ाई इतनी नहीं है। उसकी पीठ भी छोटी-सी है। ऐसी स्थिति में इन्सान के बराबर कोई देवता, हंस या दूसरे पक्षी की पीठ पर बैठेगा तो कैसे बैठेगा?
मित्रो! यह एक अलंकार है, जिसमें यह बताया गया है कि हंस उस व्यक्ति का नाम है, जो उचित और अनुचित का फर्क करना जानता है। आपको उचित और अनुचित का फर्क करना आना चाहिए। लोग किस रास्ते पर चल रहे हैं, उनके चलने के ढंग को आपको अलग खड़े हो करके देखना चाहिए कि मुनासिब रास्ता क्या है? लोग गलती करें तो आप क्या कर सकते हैं? लोग तो गलतियाँ करेंगे ही क्योंकि यह गलतियों का जमाना है। आप पानी के बहाव में तिनके की तरीके से बहते चले जायें, भला यह भी कोई समझदारी है। आप हवा में उड़ते हुए पत्तों के तरीके से उड़ते हुए चले जायें, भला यह भी कोई समझदारी हुई। आपका गौरव होना चाहिए, वजन होना चाहिए। आपका व्यक्तित्व भारी-भरकम होना चाहिए। भारी-भरकम का मतलब यह है कि आपको अपने जिंदगी के फैसले के बारे में, फैसले स्वयं करना चाहिए। अपने रास्ते का चुनाव करने में आपकी हिम्मत आपकी सहायक होनी चाहिए। भगवान और आपका ईमान—ये दो चीजें ऐसी हैं, जिसकी सहायता से आप बड़े-से फैसले कर सकते हैं।
मित्रो! इसके लिए आपको लोगों के रास्ते से हट करके, अलग खड़े हो करके नये ढंग से विचार करना चाहिए कि हमारे लिए क्या मुनासिब है और क्या मुनासिब नहीं है? आपका भविष्य किन बातों से बनता है और किन बातों से नहीं बनता है? अगर आप यह बात तय करने लगेंगे, तो मैं आपको ज्ञानवान कहूँगा। ज्ञानवानों की कहानी आपने पढ़ी है न? भगवान बुद्ध का नाम सुना है न? भगवान बुद्ध में क्या विशेषता थी? भगवान से उनको क्या वरदान मिला? उनको क्या विशेष संपदा मिली? आप उनके जीवन को पढ़िये। जिस बोधिवृक्ष पेड़ के नीचे उन्होंने तप किया था, वहाँ उनको एक खास चीज मिल गयी। उस खास चीज का नाम है—विवेक।
दूर की बात समझने का उनको माध्यम मिल गया। उन्होंने कहा कि सारी दुनिया से हमको प्रभावित नहीं होना है, वरन् हमको, दूसरों को प्रभावित करना है। जीवनयापन करने के संबंध में, जीवनसंपदा का उपयोग करने के संबंध में अधिकांश लोगों की राय गलत है। लोगों के ढर्रे गलत हैं। उन्होंने अपने आपको, लोगों से अलग खड़ा करना शुरू किया और जमाने की ओर से आँखें बंद कर लीं। आपने भगवान बुद्ध की ज्ञानमुद्रा देखी है न? ध्यानमुद्रा का मतलब यही है कि उन्होंने अपनी आँखें बंद कर ली। आँखें बंद करके स्वयं अपने भीतर देखा और अपनी जिम्मेदारियों को देखा। अपने भविष्य को देखा, अपने कर्तव्यों को देखा और उन्होंने वह फैसले किये, जिसके आधार पर एक सामान्य राजकुमार भगवान का अवतार कहलाने में समर्थ हुए।
आत्मज्ञान और प्रज्ञा
मित्रो! उन्होंने विवेक को महत्त्व दिया और ‘‘बुद्धं शरणं गच्छामि’’ का संदेश दिया। उनका नाम ही बुद्ध रखा गया। जन्मजात नाम तो उनका सिद्धार्थ था, बुद्ध नहीं था, लेकिन विवेक को, वास्तविकता को उन्होंने अंगीकार कर लिए, इसलिए वे बुद्ध कहलाये। बुद्ध का यहाँ अर्थ विवेक है, वास्तविकता है। उन्होंने यह फैसला किया कि जो वास्तविकता होगी, सच्चाई होगी, हम सिर्फ उसी बात को मानेंगे और बेतुकी बातों को नहीं मानेंगे। इसी का नाम है—‘आत्मज्ञान’। इसी का नाम है—‘ब्रह्मविद्या’। इसी का नाम है—‘प्रज्ञा’, इसी का नाम है—‘ऋतंभरा’। इसी को ‘विद्या’ कहा गया है। मैं आपसे यही निवेदन कर रहा था कि आपने शिक्षा बहुत प्राप्त कर ली होगी और करनी भी चाहिए, लेकिन आप विद्या से वंचित न रहिए।
गायत्री की महत्ता आपने जानी है, अब आप उसका वाहन बनना शुरू कीजिए। उसके वाहन की दो विशेषताएँ हैं—एक तो वह नीर और क्षीर को अलग कर देता है—पानी और दूध को अलग कर देता है। इस दुनिया में बहुत घपला है। सब कुछ गुड़-गोबर मिला हुआ है। एक ओर सच्चाई की झलक दिखाई पड़ती है, तो उसी के साथ में बुराई और बेईमानी का कितना पुट दिखाई पड़ता है। इसे आप किस तरीके से अलग करेंगे? विवेकशीलता के माध्यम से ही यह संभव है कि आप इन दोनों को एक-दूसरे से अलग कर दें। अन्यथा दूध और पानी मिलता ही चला जायेगा। सच्चाई की थोड़ी-सी झलक और बेईमानी का अधिक-से माद्दा, यही तो लोक-व्यवहार है। यही तो दुनिया है। इसे आप अलग कीजिए और हंस बनने की कोशिश कीजिए। व्यवहार में उतारने की कोशिश कीजिए।
मित्रो! हंस क्या खाता है? मोती खाता है, कीड़े नहीं खाता है। अर्थात् जो चीजें मुनासिब हैं, सही हैं, वह उन्हीं को अपनी जिंदगी में ग्रहण कर लेता है और बाकी चीजों के बारे में इंकार कर देता है कि हमको यह नहीं चाहिए। राजहंस के बारे में बताया गया है—‘‘या हंसा मोती चुगे, या लंघन मर जाय।’’ लंघन से मरना ठीक है, परंतु बेईमानी का खाना मंजूर नहीं। अगर आप ईमानदारी से कमा नहीं सकते, मुनासिब जिंदगी नहीं जी सकते, तो ऐसी जिंदगी जीने से क्या फायदा? ऐसी जिंदगी मत जियें। इसका मतलब यह है कि आप गरीबी में गुजारा कर लें, कंगाली में गुजारा कर लें, तकलीफ में गुजारा कर लें। तकलीफ में गुजारा ढेरों आदमी करते हैं। आप भी सच्चाई की वजह से, ईमानदारी की वजह से मुसीबत उठा लें तो हर्ज की क्या बात है? किफायतशारी बनकर रहें, अपना खर्च कम करके चलें और अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को गिराकर रहें, तो आपकी जिंदगी में फिर कोई दिक्कत नहीं आ सकती। ज्ञान आपको यही सिखाता है कि हम अपना रवैया बदल दें। आप अपने गुण, कर्म, स्वभाव के बारे में विचार करना शुरू करें, अपने चरित्र की देख−भाल करना शुरू करें और यह विचार करें कि कहीं कमियाँ हमारे भीतर तो नहीं हैं। आप अपनी कमियों को सुधारने की बाबत तैयार हो जायें तो आप देखेंगे कि सारी दुनिया किस तरीके से बदल गयी। अभी जो दुनिया आपको गंदी, जलील और गलीज मालूम पड़ती है, अपना दृष्टिकोण बदल देने के बाद में कैसे खूबसूरत मालूम पड़ने लगती है।
दृष्टिकोण का परिवर्तन—विद्या
मित्रो! आप अपने आपको बदल लीजिए ना। अपने आपको बदलने के बारे में अगर आपको जानकारी हो, तो इसका नाम ‘विद्या’ है। ‘विद्या’ उस चीज का नाम है, जो दुनियाबी जानकारियों के संबंध में नहीं वरन् अपनी विशेषताओं के संबंध में ज्ञान कराती है। न केवल विशेषताओं के बारे में ज्ञान कराती है, बल्कि यह बताती है कि वृत्तियाँ भीतर से पैदा होती हैं, बाहर से नहीं। पेड़ों-से पैदा होता है, हवा से नहीं। हवा से पेड़ को सहायता तो मिलती है, लेकिन उसको खुराक जड़ों से ही मिलती है। आदमी के भीतर जो कुछ भी है, वही उसकी जिंदगी के विकास करने का मूलभूत आधार है। इस मूलभूत आधार को आप स्वयं विकसित कीजिए। बाहर के लोगों की आप क्यों खुशामद करते हैं? बाहर के आदमियों के लिए आप यह क्यों देखते हैं कि इनका सहयोग हमको मिला कि नहीं मिला? दूसरों का सहयोग नहीं मिला, तो न सही, दूसरे आदमी अच्छे नहीं है तो न सही, आप अच्छे बन जाइये ना? आप अपना दृष्टिकोण ठीक कर लीजिए ना? आप अपना रवैया ठीक कर लीजिए ना? आप अपने पैरों पर खड़े हो जाइए ना? फिर आप देखेंगे कि किस तरीके से आपकी जिंदगी में जो शिकायतें थीं, वह सारी शिकायतें दूर हो गयीं। इसी का नाम ‘विद्या’ है।
मित्रो! आप अपने समय का उपयोग करना सीखिए। अपने शरीर का उपयोग करना सीखिए। अपने प्रभाव का उपयोग करना सीखिए। अपनी अक्ल का उपयोग करना सीखिए। भगवान ने जो कुछ भी दिया है, उन सब चीजों का ठीक से इस्तेमाल करना सीखिए। जरा सीखिए तो सही। अगर आप, अपने आप इन सब चीजों का सही ढंग से इस्तेमाल कर लें, तो फिर आपके सामने वो ढेरों-की समस्याएँ—जो कभी आपको तकलीफ के रूप में दिखाई पड़ती हैं, कभी बीमारी के रूप में दिखाई पड़ती हैं, कभी मान-अपमान के रूप में दिखाई पड़ती हैं। कभी लोगों के असहयोग के रूप में दिखाई पड़ती हैं, कभी क्या और किस रूप में दिखाई पड़ती हैं? आप उन सारी समस्याओं का मुकाबला कर सकते हैं। अगर आपने, अपने आपको सही करने का ज्ञान प्राप्त कर लिया है और उस समझदारी को अपने जीवन में धारण कर लिया है, तो उस दिन से आपकी सारी समस्याएँ और दर्द दूर हो जायेंगे।
इसलिए मित्रो! आप अपनी गरीबी-अमीरी की परिभाषा को ही बदल दें। अपने सोचने के तरीके को ही ठीक तरह से बदल दें और अपनी रीति-नीति में आवश्यक सुधार कर लें, तो मैं आप से यह कहता हूँ कि आपकी सारी-की गुत्थियों के समाधान होंगे और आप सुखी जीवन जियेंगे, शांति का जीवन जियेंगे। आप खुशी की जिंदगी जियेंगे और आप खुशहाली की जिंदगी जियेंगे। इसलिए विद्या की ओर आपको गौर करना चाहिए। शिक्षा आपको अपने बुद्धि-कौशल को बढ़ाने में मदद करती है, लेकिन विद्या आपको अपनी आंतरिक स्थितियों के बारे में देख−भाल करना सिखाती है। आपको अपने गुण, कर्म, स्वभाव का पुनर्निरीक्षण और पुनर्निर्धारण करना चाहिए। आपको अपनी गतिविधियों के बारे में, दृष्टिकोण के बारे में विचार करना चाहिए कि इसमें गलतियाँ कहाँ हैं? जहाँ कहीं भी गलतियाँ हैं, अगर उसको आप सुधार पायें, तो फिर मैं कहूँगा कि आपके हाथ एक ऐसी चीज लग गयी, जिसके आधार पर आप खुशी की जिंदगी जियेंगे। मोहब्बत की जिंदगी जियेंगे, प्यार की जिंदगी जियेंगे। आप एक ऐसी जिंदगी जियेंगे, जिसमें आपकी खुशी उन सब लोगों को मिले, जो आपके नजदीक आते हों, जो आपसे सम्बन्ध रखते हों। अगर आप विवेकशीलता को अख्तियार कर लें तो आपके घरवाले आपसे बेहद खुश देखे जायेंगे।
मित्रो! अगर आप, अपने आपको साँचा बना लें, तो जो कोई भी आपके नजदीक आयेगा, वह उस ढाँचे में ढलता हुआ चला जायेगा। अगर चंदन के नजदीक आने के बाद में झाड़-झंखाड़ खुशबूदार बन सकते हैं तो कोई वजह नहीं कि अगर आप समुन्नत स्तर के व्यक्ति हैं, तो जो कोई भी आपके नजदीक आये, जो भी आपका सहयोगी बने, जो भी आपके संपर्क में आये तो खुशहाल न बने, समुन्नत न हो। आत्मकल्याण का भी यही रास्ता है और लोककल्याण का भी इसी में रास्ता है। ये दोनों रास्ते आपको विद्या के आधार पर, ज्ञान के आधार पर मिल सकते हैं। इसलिए शिक्षा के तरीके से विद्या को भी महत्त्व देना चाहिए और उसको प्राप्त करने के लिए निरंतर कोशिश करते रहना चाहिए।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥