उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ।
याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम्।।
गोस्वामी तुलसीदास जी जब रामायण का निर्माण करने लगे तो उनके मन में एक विचार आया कि इतना बड़ा ग्रंथ जिसके जहाज पर बिठा करके संसार के प्राणियों का उद्धार किया जा सकता है, उसे बनाने के लिए मुझे क्या करना चाहिए? इसके लिए किस शक्ति की सहायता लेनी चाहिए? उन्होंने यह कहा कि भवानी-शंकर की वंदना करनी चाहिए और उनकी सहायता लेनी चाहिए। उनकी शक्ति के बिना इतना बड़ा रामचरितमानस, जिस पर बिठा करके अनेक मनुष्यों को भवसागर से पार किया जा सकता है, कैसे सम्भव होगा? उन्होंने भवानी और शंकर की वंदना की। जैसे कि सायंकाल आरती के समय हमने और आप लोगों ने भगवान शंकर और पार्वती की वंदना की। पश्चात् उनके जी में एक और विचार आया कि आखिर भगवान शंकर हैं क्या? शक्ति कहाँ से आ जाती है? क्यों आ जाती है? उद्धार कैसे हो सकता है? ऐसे अनेक प्रश्न तुलसीदास जी के मन में उत्पन्न हुए। उनका समाधान भी उसी श्लोक में हुआ जिसका कि मैंने आप लोगों के सम्मुख विवेचन किया—‘भवानी शंकरौ वन्दे’ भवानी शंकर की हम वंदना करते हैं।
ये कौन हैं? ‘श्रद्धा विश्वास रूपिणौ’ अर्थात् श्रद्धा का नाम पार्वती और विश्वास का नाम शंकर। श्रद्धा और विश्वास—इन दोनों का नाम ही शंकर-पार्वती है। इनका प्रतीक, विग्रह मूर्ति हम मंदिरों में स्थापित करते हैं। इनके चरणों पर अपना मस्तक झुकाते हैं, जल चढ़ाते हैं, बेल-पत्र चढ़ाते हैं, आरती करते हैं। यह सब क्रिया-कृत्य करते हैं, लेकिन मूलतः शंकर क्या है? श्रद्धा और विश्वास। ‘याभ्यां बिना न पश्यन्ति’—जिनकी पूजा किए बिना कोई सिद्धपुरुष भी भगवान को प्राप्त नहीं हो सकते। भवानी शंकर की इस महत्ता और माहात्म्य पर मैं विचार करता रहा तब एक और पौराणिक कथा मेरे सामने आई।
पौराणिक कथा आती है कि एक संकट का समय था जब भगवान परशुराम को यह मालूम पड़ा कि सब जगह अन्याय, अत्याचार फैल गया, अनाचार फैल गया। इसके निवारण के लिए क्या करना चाहिए? परशुराम जी उत्तरकाशी गए और वहाँ भगवान शिव का तप करने लगे। तप करने के पश्चात् भगवान शंकर ने उन्हें एक परशु दिया और कहा—अनीति का, अन्याय का और अत्याचार का इस संसार में से उच्छेदन किया जा सकता है और आपको करना चाहिए। भगवान शंकर की ऐसी महत्ता और ऐसी शक्ति का वर्णन पुराणों में पाया गया है, पर आज हम देखते हैं कि वह शक्ति कुंठित कैसे हो गई? हम शंकर की पूजा करते हैं, पर समस्याओं से घिरे हुए क्यों हैं? शंकर की शक्ति वरदान हो करके सामने क्यों नहीं आती? शंकर के भक्त होते हुए भी हम किस तरीके से पिछड़ते और पददलित होते चले जा रहे हैं? भगवान हमारी कब सहायता करेंगे? यह विचार मैं देर तक करता रहा।
अठारह पुराणों का अनुवाद मैंने संस्कृत से हिन्दी में किया है। उसमें से शिवपुराण की एक कथा मुझे याद आई, जिसने हमारी शंका का समाधान कर दिया कि भगवान शंकर सहायता क्यों नहीं करते हमारी? क्यों नहीं उनकी शक्ति का लाभ मिलता? क्यों उनके चमत्कार हमें दिखाई नहीं पड़ते? जबकि शंकर भगवान के भक्त जिन्होंने क्या से क्या अनुदान प्राप्त किए हैं, जो भी तप करने के लिए खड़ा हो गया वह न जाने क्या से क्या प्राप्त करता चला गया? हम और आप जैसे शिव-उपासक उस शक्ति को प्राप्त न कर सकते हों सो ऐसी बात नहीं, पर कहीं न नहीं चूक रह जाती है, कहीं न कहीं भूल रह जाती है। उस भूल को हमें निकालना ही पड़ेगा और निकालना ही चाहिए। इसके बिना अध्यात्म का पूरा लाभ नहीं मिल सकेगा और दुनिया के सामने हम सिर ऊँचा उठा कर यह नहीं कह सकेंगे कि हम ऐसी शक्ति के उपासक हैं जो अपनी उँगली के इशारे से सारी दुनिया को हिला सकती है तो गलती और चूक कहाँ हो गई? चूक और गलती वहाँ हो गई जहाँ भगवान शिव और पार्वती का असली स्वरूप हमको समझ में नहीं आया। उसके पीछे जो फिलॉसफी है वह समझ में नहीं आई, मात्र उसका बाहरी स्वरूप समझ में आ गया।
भगवान शंकर का भी एक कलेवर है और एक प्राण, एक बहिरंग स्वरूप है और एक अंतरंग स्वरूप। जब हम दोनों को मिला देंगे तब पॉजिटिव और निगेटिव दोनों तारों को मिलाकर जिस तरीके से स्पार्क उठते हैं और करेंट चालू हो जाता है, उसी प्रकार से भगवान का करेंट चालू हो जाएगा। बहिरंग रूप के बारे में आप जानते हैं और जिस तक आप सीमित हो गए हैं, वह कलेवर है जो मंदिर में बैठा हुआ है। जिसके चरणों में हम मस्तक झुकाते हैं, जल चढ़ाते हैं, पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, आरती उतारते हैं और जय-जयकार करते हैं—वह बहिरंग कलेवर है जिसकी भी सख्त जरूरत है, परन्तु यही सब कुछ नहीं है। हमें अंतरंग रूप के बारे में भी जानना चाहिए।
भगवान शंकर का अंतरंग रूप क्या है? उसकी फिलॉसफी क्या है? भगवान शंकर का रूप गोल बना हुआ है। गोल क्या है—ग्लोब। यह सारा विश्व ही तो भगवान् है। अगर विश्व को इस रूप में मानें तो हम उस अध्यात्म के मूल में चले जाएँगे जो भगवान राम और कृष्ण ने अपने भक्तों को दिखाया था। गीता के अनुसार जब अर्जुन मोह में डुबा हुआ था, तब भगवान ने अपना विराट् रूप दिखाया और कहा—यह सारा विश्व-ब्रह्माण्ड जो कुछ भी है, मेरा ही रूप है। एक दिन यशोदा कृष्ण को धमका रही थी कि तैने मिट्टी खाई है। वे बोले—नहीं, मैंने मिट्टी नहीं खाई और उन्होंने मुँह खोलकर सारा विश्व-ब्रह्माण्ड दिखाया और कहा—यह मेरा असली रूप है। भगवान राम ने भी यही कहा था। रामायण में वर्णन आता है कि माता-कौशल्या और काकभुशुण्डि जी को उन्होंने अपना विराट् रूप दिखाया था। इसका मतलब यह है कि हमें सारे विश्व को भगवान की विभूति, भगवान का स्वरूप मानकर चलना चाहिए। शंकर की गोल पिंडी उसी का छोटा-सा स्वरूप है जो बताता है कि यह विश्व-ब्रह्माण्ड गोल है, एटम गोल है, धरती माता-विश्वमाता गोल है। इसको हम भगवान का स्वरूप मानें और विश्व के साथ वह व्यवहार करें जो हम अपने लिए चाहते हैं दूसरों से, तो मजा आ जाए। फिर हमारी शक्ति, हमारा ज्ञान, हमारी क्षमता वह हो जाए जो शंकर भक्तों की होनी चाहिए।
भगवान शंकर के स्वरूप का कैसा-कैसा सुन्दर चित्रण मिलता है? शिवजी की जटाओं में से गंगा प्रवाहित हो रही है। गंगा का मतलब है—ज्ञान की गंगा। पानी बालों में से प्रवाहित नहीं होता, यदि होगा तो आदमी डूब जाएगा, पैदल नहीं चल सकेगा। इसका मतलब यह है कि शंकर-भक्त के मस्तिष्क में से ज्ञान की गंगा प्रवाहित होनी चाहिए, उसकी विचारधारा उच्चकोटि की और उच्चस्तरीय होनी चाहिए। घटिया किस्म के आदमी जिस तरीके से विचार करते हैं, जिनकी जिंदगी का मकसद केवल एक ही है कि किसी तरीके से पेट भरना चाहिए और औलाद पैदा करनी चाहिए, शंकर जी के भक्त को उस तरह के विचार करने वाला नहीं होना चाहिए। जो कोई ऊँची बात सोच नहीं सकते, देश की, समाज की, धर्म की, लोक-परलोक की बात, कर्तव्य-फर्ज की बात जिनकी समझ में नहीं आती, उनको इनसान नहीं हैवान कहेंगे और ज्ञान की गंगा जिन लोगों के मस्तिष्क में से प्रवाहित होती है, उनका नाम शंकर का भक्त होता है। हमारे और आपके मस्तिष्क में से भी ज्ञान की गंगा बहनी चाहिए, जो हमारी आत्मा को शांति और शीतलता दे सकती है और पड़ोस के लोगों को, समीपवर्ती लोगों को उसमें स्नान कराकर पवित्र बना सकती है। यदि हमारा मस्तिष्क ऐसा व्यवहार करता हो तो जानना चाहिए कि शंकर जी की छवि आपने घरों में टाँग रखी है, उसके मतलब को, उसकी फिलॉसफी को जान लिया और समझ लिया है।
भगवान शंकर के मस्तिष्क के ऊपर चन्द्रमा लगा हुआ है। चन्द्रमा शांति का प्रतीक है, जो बताता है कि हमारे मस्तिष्क को संतुलित होना चाहिए, ठंडा होना चाहिए, बलिष्ठ होना चाहिए। हम पर मुसीबतें आती हैं, संकट के, कठिनाई के दिन आते हैं। हर हालत में हमें अपनी हिम्मत बना करके रखनी चाहिए कि हम हर मुसीबत का सामना करेंगे। इनसानों ने बड़ी-बड़ी मुसीबतों का सामना किया है। जो घबरा जाते हैं, उनका मस्तिष्क संतुलित नहीं रहता, गर्म हो जाता है। जिस व्यक्ति का दिमाग ठंडा है, वही सही ढंग से सोच सकता है और सही काम कर सकता है पर जिसका दिमाग गरम हो जाता है, असंतुलित हो जाता है, तो वह काम करता है जो नहीं करना चाहिए और वह सोचता है कि जो नहीं सोचना चाहिए। मुसीबत के वक्त आज जब घटाएँ चारों ओर से हमारी ओर घुमड़ती हुई आ रही हैं, तब सबसे जरूरी बात है हम शंकर भगवान के चरणों में जाएँ। आरती उतारने के बाद मस्तक झुकाएँ और यह कहें कि आपके मस्तक पर शांति का प्रतीक, संतुलन का प्रतीक, विभेद का प्रतीक चन्द्रमा लटक रहा है। क्या आप हमको धीरज देंगे नहीं? संतुलन देंगे नहीं? क्या शांति नहीं देंगे? हिम्मत नहीं देंगे? क्या आप इतनी भी कृपा नहीं कर सकते? अगर हमने यह प्रार्थना की होती तो मजा आ जाता, फिर हम शांति ले करके आते और शंकर जी के भक्तों के तरीके से रहते।
शंकर भगवान के गले में पड़े हुए हैं काले साँप और मुण्डों की माला। काले विषधरों का इस्तेमाल इस तरीके से किया है, उन्होंने कि उनके लिए ये फायदेमन्द हो गए, उपयोगी हो गए और काटने भी नहीं पाए। शंकर जी इस शिक्षा को हर शंकर-भक्त को अपनी फिलॉसफी में सम्मिलित करना ही चाहिए कि विषैले लोगों से किस तरीके से ‘डील’ करना चाहिए, किस तरीके से उन्हें गले से लगाना चाहिए और किस तरीके से उनसे फायदा उठाना चाहिए? शंकर जी के गले पर पड़ी मुण्डों की माला भी यह कह रही है कि जिस चेहरे को हम बीस बार शीशे में देखते हैं, सजाने-सँवारने के लिए रंग-पावडर पोतते हैं, वह मुण्डों की हड्डियों का टुकड़ा मात्र है। चमड़ी, जिसे ऊपर से सुनहरी चीजों से रंग दिया गया है और जिस बाहरी टुकड़े के रंग को हम देखते हैं, उसे उघाड़कर देखें तो मिलेगा कि इनसान की जो खूबसूरती है, उसके पीछे सिर्फ हड्डी का टुकड़ा जमा हुआ पड़ा है। हड्डियों की मुण्डमाला की यह शिक्षा है, नसीहत है मित्रो! जो हमको शंकर भगवान के चरणों में बैठकर सीखनी चाहिए।
शंकर जी का विवाह हुआ तो लोगों ने कहा कि किसी बड़े आदमी को बुलाओ, देवताओं को बुलाओ। उन्होंने कहा नहीं, हमारी बारात में तो भूत-पलीत ही चलेंगे। रामायण का छंद है—‘तनु क्षीन कोउ अति पीत पावन कोउ अपावन तनु धरे।’ शंकर जी ने भूत-पलीतों का, पिछड़ों का भी ध्यान रखा और अपनी बारात में ले गये। आपको भी इनको साथ लेकर चलना है। शंकर जी के भक्तों! अगर आप इन्हें साथ लेकर चल नहीं सकते तो फिर आपको सोचने में मुश्किल पड़ेगी, समस्याओं का सामना करना पड़ेगा और फिर जिस आनन्द में और खुशहाली में शंकर के भक्त रहते हैं, आप रह नहीं पाएँगे। जिन शंकर जी के चरणों में आप बैठे हुए हैं, उनसे क्या कुछ सीखेंगे नहीं? पूजा ही करते रहेंगे आप! यह सब चीजें सीखने के लिए ही हैं। भगवान् को कोई खास पूजा की आवश्यकता नहीं पड़ती।
शंकर भगवान की सवारी क्या थी? बैल। वह बैल पर सवार होते हैं। बैल उसे कहते हैं, जो मेहनतकश होता है, परिश्रमी होता है। जिस आदमी को मेहनत करनी आती है वह चाहे भारत में हो, इंग्लैण्ड, फ्रांस या कहीं का भी रहने वाला क्यों न हो—वह भगवान की सवारी बन सकता है। भगवान सिर्फ उनकी सहायता किया करते हैं जो अपनी सहायता आप करते हैं। बैल हमारे यहाँ शक्ति का प्रतीक है, हिम्मत का प्रतीक है। आपको हिम्मत से काम लेना पड़ेगा और अपनी मेहनत तथा पसीने के ऊपर निर्भर रहना पड़ेगा, अपनी अक्ल के ऊपर निर्भर रहना पड़ेगा, आपके उन्नति के द्वार और कोई नहीं खोल सकता, स्वयं खोलना होगा। भैंसे के ऊपर कौन सवार होता है—देखा आपने शनीचर। भैंसा वह होता है जो काम करने से जी चुराता है। बैल-हमेशा से शंकर जी का बड़ा प्यारा रहा है। वह उस पर सवार रहे हैं, उसको पुचकारते हैं, खिलाते-पिलाते, नहलाते-धुलाते, और अच्छा रखते हैं। हमको और आपको बैल बनना चाहिए, यह शंकर जी की शिक्षा है।
भगवान शंकर मरघट में निवास करते हैं। मरघट में क्यों रहते हैं? इसका मतलब कि हमें जिंदगी के साथ मौत को भी याद रखना पड़ेगा। सब चीजें याद हैं, पर मौत को हम भूल गए। अपना फायदा, नुकसान, जवानी, खाना-पीना सब कुछ याद है, पर मौत जरा भी याद नहीं है? मौत की बात भी अगर याद रही होती तो हमारे काम करने और सोचने के तरीके कुछ अलग तरह के रहे होते। वे ऐसे न होते जैसे कि इस समय आपके हैं। अगर यह ख्याल बना रहे कि आज हम जिंदा हैं, पर कल हमें मरना ही पड़ेगा; आज मरे हैं, पर कल जिंदा रहना ही पड़ेगा तो यह स्मृति सदा बनी रहती कि हमको क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? हमारे लिए मरघट और घर दोनों एक ही होने चाहिए। समझना चाहिए कि आज का घर कल मरघट होने वाला है और आज का मरघट कल घर होने वाला है। आज की जिंदगी कल मौत में बदलने वाली है तो कल की मौत नई जिंदगी में बदलने वाली है। मौत और जिंदगी रात और दिन के तरीके से खेल है, फिर मरने के लिए डरने से क्या फायदा? यह नसीहतें हैं जो शंकर भगवान मरघट में रहकर के हमको सिखाते हैं।
भगवान शंकर न जाने क्या-क्या सिखाते हैं? उनके शरीर को देखा जाए तो मालूम पड़ेगा कि उस पर भस्म लगी हुई है और गले में मुण्डों की माला पड़ी है। अगर सही ढंग से जीवन जीना आता होता तो हमने शंकर जी की भस्म का महत्त्व समझा होता। पूजा करने के बाद हम हवन करते और उसकी भस्म मस्तक पर लगाते हैं। इसका अर्थ है ‘भस्मांतक œ शरीरम्’—यह शरीर खाक होने वाला है। यह शरीर मिट्टी और धूल है, जो हवा में उड़ने वाला है। जिस शरीर पर हम लोगों को अहंकार और घमंड है, वह कल लोगों के पैरों तले कुचलने वाला है और हवा के धुर्रे की तरीके से आसमान में उड़ने वाला है। शंकर भगवान की यह फिलॉसफी अगर हमने सीखी होती तो मजा आ जाता।
शंकर भगवान की तीन आँखें हैं। दो आँखें तो सबके होती हैं, पर शंकर जी की तीन आँखें क्यों बनाई गईं? शंकर भगवान की यह वह आँख है, जो मनुष्य के ‘विवेक’ की आँख कहलाती है। यह तीसरी आँख आपके भी होती है। उन्होंने इसका इस्तेमाल तब किया जब कामदेव उन्हें हैरान करने और पाप में डुबाने के लिए चला आ रहा था। जैसे ही शंकर भगवान ने तीसरी आँख खोली, कामदेव जलकर भस्म हो गया। रामायण में यह कथा आप लोगों ने पढ़ी होगी, पर यह गौर क्यों नहीं किया कि तीसरी आँख क्या है? कामदेव जलने की बात क्या है? जिन लोगों ने साइंस पढ़ी है वे ‘थ्री डायमेंसन’ की बात समझते हैं—लम्बाई, चौड़ाई और गहराई की बात जानते हैं। तीसरी आँख हमें गहराई में घुसने की बात सिखाती है। गहराई में हम घुसते नहीं, बाहर की चीजें देखते हैं। हमें दो चीजें दिखाई देती हैं—सुख और दुःख, लाभ और हानि। यही दो चीजें दिखाई देती हैं—सुख और दुःख, लाभ और हानि। यही दो चीजें हैं जो दोनों आँखें दिखा सकती हैं। ये दुनियाबी आँखें हैं जो भगवान् ने आपको दी हैं। शरीर क्या माँगता है? इन्द्रियाँ क्या माँगती हैं? यह हम सबको मालूम है। एक और आँख भी है जो खुशहाली की बात दिखाती है। शंकर के हर एक भक्त को भी एक तीसरी आँख रखनी चाहिए और खोलनी चाहिए और वह है दूरगामी विवेकशीलता।
शंकर का भक्त जब अपने भगवान के चरणों में जाता है, तब वह देखता है कि उस ठप्पे पर मुझको भी अपने को ढालना चाहिए। शंकर भगवान क्या हैं—एक ठप्पा। ठप्पा उसे कहते हैं, जिसमें गीली मिट्टी को चिपकाकर कुम्हार बर्तन बनाता चला जाता है। शंकर भगवान के लिए पूजा और आरती ही काफी नहीं है, बल्कि यह भी आवश्यक है कि उनका भक्त उनके जैसा हो जाए। उपासना का मतलब ही होता है, पास बैठना। पास बैठने का मतलब है—उनसे सीखना, उनके साथ सम्बन्ध जोड़ना। लकड़ी जब तक आग के समीप नहीं बैठती, अग्नि नहीं बन सकती। हमको शंकर भगवान के पास तक जाना पड़ेगा, दूर रहकर ही प्रणाम करने से काम चलने वाला नहीं है। शंकर जी से चिपक जाना चाहिए और अपने आप को ठप्पा बना लेना चाहिए। हमको अपनी तीसरी आँख खोलनी चाहिए और दूर की बात सोचनी चाहिए।
देवताओं की शिक्षाओं और प्रेरणाओं को मूर्तिमान करने के लिए ही अपने हिन्दू समाज में प्रतीक-पूजा की व्यवस्था की गई है। जितने भी देवताओं के प्रतीक हैं, उन सबके पीछे कोई न कोई संकेत भरा पड़ा है, प्रेरणाएँ और दिशाएँ भरी पड़ी हैं। अभी भगवान शंकर का उदाहरण दे रहा था मैं आपको और यह कह रहा था कि सारे विश्व का कल्याण करने वाले शंकर जी की पूजा और भक्ति के पीछे जिन सिद्धान्तों का समावेश है हमको उन्हें सीखना चाहिए था, जानना चाहिए था और अपने जीवन में उतारना चाहिए था। लेकिन हम उन सब बातों को भूलते चले गए और केवल चिन्ह-पूजा तक सीमाबद्ध रह गए। विश्व-कल्याण की भावना को हम भूल गए। जिसे ‘शिव’ शब्द के अर्थों में बताया गया है। ‘शिव’ माने कल्याण। कल्याण की दृष्टि रखकर के हमको कदम उठाने चाहिए और हर क्रिया-कलाप एवं सोचने के तरीके का निर्माण करना चाहिए। यह शिव शब्द का अर्थ होता है। कल्याण हमारा कहाँ है? सुख हमारा कहाँ है? लाभ नहीं, वरन् कल्याण हमारा कहाँ है? कल्याण को देखने की अगर हमारी दृष्टि पैदा हो जाए तो यह कह सकते हैं कि हमने भगवान् शिव के नाम का अर्थ जान लिया। ‘ॐ नमः शिवाय’ का जप तो किया, लेकिन ‘शिव’ शब्द का मतलब क्यों नहीं समझा। मतलब समझना चाहिए था और तब जप करना चाहिए था, लेकिन हम मतलब को छोड़ते चले जा रहे हैं और ब्रह्म रूप को पकड़ते चले जा रहे हैं। इससे काम बनने वाला नहीं है।
हिन्दू समाज के पूज्य जिनकी हम दोनों वक्त आरती उतारते हैं, जप करते हैं, शिवरात्रि के दिन पूजा और उपवास करते हैं और न जाने क्या-क्या प्रार्थनाएँ करते-कराते हैं। क्या वे भगवान शंकर हमारी कठिनाइयों का समाधान नहीं कर सकते? क्या हमारी उन्नति में कोई सहयोग नहीं दे सकते? भगवान को देना चाहिए, हम उनके प्यारे हैं, उपासक हैं। हम उनकी पूजा करते हैं, वे बादल के तरीके से हैं। अगर पात्रता हमारी विकसित होती चली जाएगी तो वह लाभ मिलते चले जाएँगे जो शंकर भक्तों को मिलने चाहिए।
शंकर भगवान के स्वरूप का जैसा कि मैंने आपको निवेदन किया, इसी प्रकार के सारे पौराणिक कथानकों, सारे देवी-देवताओं में संदेश और शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं। काश! हमने उनको समझने की कोशिश की होती, तो हम प्राचीनकाल के उसी तरीके से नर-रत्नों में एक रहे होते जिनको कि दुनिया वाले तैंतीस करोड़ देवता कहते थे। 33 करोड़ आदमी हिन्दुस्तान में रहते थे और उन्हीं को लोग कहते थे कि वे इनसान नहीं देवता हैं, क्योंकि उनके ऊँचे विचार और ऊँचे कर्म होते थे। वह भारत भूमि जहाँ से आप लोग पधारे हैं।
वह देवताओं की भूमि थी और रहनी चाहिए। देवता जहाँ कहीं भी जाते हैं, वहाँ शांति, सौंदर्य, प्रेम और सम्पत्ति पैदा करते हैं। आप लोग जहाँ कहीं भी जाएँ वहाँ आपको ऐसा ही करना चाहिए। आप लोगों ने जो अब तक मेरी बात सुनी, बहुत-बहुत आभार आप सब लोगों का।
॥ॐ शान्ति:॥