उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! दो प्रश्न आपके मस्तिष्क में संभवतः उठते रहते होंगे। एक प्रश्न यह कि हमें क्या करना है और क्या बनना है? दूसरा यह कि हमें क्या कराना है और क्या बनाना है? इसके संबंध में स्थूल रूप से आपको कई चीजें दिखाई पड़ती है। क्या करना है? सवेरे उठना चाहिए, नहाना चाहिए, पूजा करनी चाहिए हवन करना चाहिए। ये क्रियाएँ हैं और जनता में क्या कराना चाहिए? जनता में हवन कराने चाहिए, सम्मेलन कराने चाहिए, त्यौहार-संस्कार कराने चाहिए।
क्रिया व विचार दोनों महत्त्वपूर्ण
मित्रो! ये क्रियाएँ आपको दिखाई पड़ती हैं कि जनता के बीच में आपको क्या क्रियाएँ करानी चाहिए और अपने आप में क्या क्रियाएँ करनी चाहिए? क्रियाओं का अपना मूल्य है, महत्त्व है। हम जानते हैं कि क्रियाओं के माध्यम से विचारों के निर्माण में बहुत ही अधिक सहायता मिलती है। क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण होती हैं, यह बात भी सही है लेकिन मित्रो! यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि क्रियाओं और विचारणा में जमीन आसमान का अंतर होना भी संभव है। क्रिया क्या हो सकती है और हमारे ढंग क्या हो सकते हैं। इसमें फर्क रह गया तो क्रिया का, खासतौर से धार्मिक क्रिया का कोई लाभ न मिलेगा। भौतिक क्रिया का लाभ तो मिल भी जाएगा। जैसे आपके जी में हरामखोरी का मन है, चोरी चालाकी का मन है तो बात अलग है, लेकिन अगर आप काम करते हैं, मेहनत-मशक्कत करते हैं, रिक्शा चलाते हैं तो आपको उसकी मजदूरी के पैसे मिलते हैं। चाहे आप अपने मालिक से वैर रखते हैं, लेकिन अगर आप काम करते हैं तो भौतिक जीवन में आपको मजदूरी के पैसे मिल भी सकते हैं।
मित्रो! चूँकि हमारा जीवन भौतिक जीवन नहीं है। हमारे क्रियाकलाप, भौतिक क्रिया-कलाप नहीं हैं। हमारा कार्यक्षेत्र भौतिक कार्यक्षेत्र नहीं है। अतः विचार यह करना पड़ेगा कि हमारी दृष्टि और हमारा चिंतन आध्यात्मिक किया के अनुरूप है कि नहीं। यदि क्रिया के अनुरूप हमारी दृष्टि और चिंतन नहीं हुआ तो, उससे कुछ लाभ नहीं मिलेगा। दृष्टि कुछ और रही, चिंतन कुछ और रहा, तो जो यह विडंबना आज हमको अपने धार्मिक क्षेत्र में आमतौर से दिखाई पड़ती है कि लोग बाहर से कृत्य तो बहुत अच्छे-अच्छे करते है, पर उस क्रिया-कलाप के साथ में जैसी दृष्टि का समावेश होना चाहिए था, उसका अभाव दिखाई पड़ता है। कृत्यों का मित्रो! कुछ खास महत्त्व नहीं होता, बल्कि और भी ज्यादा नुकसान होता है। कैसे? नुकसान ऐसे होता है जैसे गोशाला के नाम पर कई आदमी गायों को रक्षा के लिए चपरास पीठ पर बाँध लेते हैं। डंडा और गुल्लक हाथ में ले लेते हैं। गोरक्षा के लिए रेल के डिब्बों में आवाज लगाते है, चंदा इकट्ठा करते हैं। क्यों साहब। आप तो गो-रक्षक है? बिलकुल। कितनी जिंदगी खतम हो गई आपकी? साहब चालीस साल। बीस वर्ष की उम्र से हम गोरक्षा का काम करते आ रहे हैं और अब साठ साल के हैं। गऊओं की जय बोलते हैं।
दृष्टिदोष का परिणाम
आपको क्या फायदा हुआ? कुछ फायदा नहीं हुआ। बेसिलसिले की गलत तस्वीरें छपवा लेते हैं। रेलगाड़ियों में चंदा माँगते हैं। यहाँ-वहाँ चंदा माँगते है और रात को सिनेमा देखते हैं, सिगरेट पीते हैं। न कोई गाय है, न कोई बैल, फिर कैसी गोसेवा? अरे साहब! हमारी ये इंद्रियाँ ही गाय हैं। हमारी जो जीभ है, यह गाय है। जीभ को हम मिठाई खिलाते हैं, कॉफी मिलाते हैं। तो क्या यह गऊ माता को खिलाना नहीं हुआ? हमारी आँखें भी गाय हैं। देखिए हम अपनी आँखों को सिनेमा दिखाते है। गायों का पालन करते हैं। इंद्रियाँ जितनी भी हैं सब गाय है। संस्कृत में इन्हें गाय कहते हैं। तो आपकी गऊशाला है कि नहीं? नहीं साहब! गऊशाला तो नहीं है।
अनाथालयों का काम कैसा है? बहुत ही अच्छा काम है। बेचारे अनाथ बच्चों का शिक्षण करें, पालन-पोषण करें। जिनके माँ-बाप नहीं है, उन अनाथों को आप सेवा करें। जिनका कोई आश्रय नहीं है, उनको आश्रय देना बहुत अच्छी बात है। इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है? लेकिन मित्रो! आपकी क्रिया में और दृष्टि में फर्क हुआ तब? तो आपका अनाथ पालन ऐसी विडंबना बन जाएगा, मसलन ऐसे कई अनाथालय देखे गए हैं, जो किराये के बच्चों को नौकरी पर रख लेते हैं। तू अपने लड़के को छह-आठ घंटे के लिए भेज दिया कर रे! हाँ साहब! हम तो गरीब आदमी हैं। हम तुझे पच्चीस रुपया महीना दिया करेंगे। तेरे बच्चे को रोटी खिला दिया करेंगे। बस पाँच-सात बच्चे पकड़ लिए और बाँसुरी बजाना, ढोल बजाना सिखा दिया। बच्चे घर-घर भीख माँगते रहे। पच्चीस-पच्चीस रुपए बच्चों के हवाले कर दिए और हजार रुपया महीना अपनी जेब में डाल लिया। क्या करते हैं साहब? हम तो अनाथों का पालन करते है। बेटे! तेरी दृष्टि में फर्क रहा तो कुछ बनेगा नहीं।
हवन भी एक तमाशा
अच्छा तो महाराज जी! हवन किया करें। हवन तो पंडित भी करते हैं, और लोग भी करते है। हवन को भी लोगों ने धंधा बना लिया है। चंदा जमा करते हैं और सब हजम कर जाते है। हम तो हवन करते हैं, यज्ञ करते हैं। हाँ बेटे! यज्ञ भी करते हैं। इससे कुछ लाभ होगा? नहीं, कुछ लाभ नहीं होगा। न तो वातावरण का संशोधन होगा, न ही करने वालों को धर्म की शांति मिलेगी। जो लोग हवन में शामिल हुए थे, उनके भीतर जो छाप, जो प्रभाव पड़ना चाहिए था, वह प्रभाव भी नहीं पड़ सकेगा, क्योंकि छाप डालने वाली शक्ति हमारी जीवात्मा होती है। अगर हमारी जीवात्मा ही कमजोर है, निर्बल है तो कैसे पड़ेगा प्रभाव, आप बताइए तो सही। हवन करने वालों की, हवन-व्यवस्था करने वालों की, पंडित जी, पुरोहित जी की हरेक की नीयत खराब है तो उस अग्नि जलाने का, सुगंधि फैलाने का, जलाने का फायदा मनुष्यों के मनों में, हृदयों में, अंतःकरण में मिलेगा क्या? मेरा विश्वास है कि शायद न मिल सकेगा। खेल-तमाशा तो हो गया, विडंबना तो बन गई। वातावरण नहीं बन सकता।
चिंतन उच्चस्तरीय हो
इसीलिए मित्रो! यह बात ध्यान में रखकर चलना पड़ेगा कि आपको बनना क्या है और बनाना क्या है? करना क्या है और कराना क्या है? इन दोनों प्रश्नों के उत्तर में एक ही जवाब है कि हमको अपनी दृष्टि का परिशोधन करना है। स्वयं का प्रश्न जहाँ तक आए, आप एक ही बात ध्यान रखिए कि हमारी दृष्टि परिष्कृत होनी चाहिए। हमारा चिंतन उच्चस्तरीय होना चाहिए। हमारे मनों में सिद्धांतों के लिए, आदर्शों के लिए ऊँची निष्ठा होनी चाहिए। अगर ये आपके भीतर हैं, तो आप क्या क्रिया करते हैं, क्या नहीं करते? चलिए आपकी क्रिया घटिया किस्म की हो तो भी मैं यह कहूँगा कि आप योगी हैं, आप संत हैं आप तपस्वी हैं और आप ज्ञानी है। क्रियाकृत्य आपका सामान्य जैसा दिखाई पड़ता हो तो भी, उसके लिए हँसी-मजाक उड़ाया जाता हो तो भी, इतिहास में नाम छपने लायक न हो तो भी। इसका बड़ा भारी असर पड़ेगा, फिर आपके लिए तो पड़ना भी चाहिए। इसलिए दृष्टि को ऊँचा करना, चिंतन को ऊँचा करना, आस्थाओं -निष्ठाओं को ऊँचा करना, यह हमारा पहला काम है।
मित्रो! यह मुख्य काम है और आखिरी काम भी है। इसी के लिए हम तरह-तरह के क्रियाकृत्य करते हैं। उसमें जप भी शामिल है, भजन भी शामिल है, अनुष्ठान भी शामिल है। ये जप, भजन और अनुष्ठान एक कृत्य हैं। अगर आपने इनको उच्चस्तरीय दृष्टिकोण बनाने के लिए किया है, तो मैं आपको बधाई देता हूँ और ये कहता हूँ कि भगवान करे ऐसा भाव हरेक के मन में उत्पन्न हो। ऐसा अनुष्ठान हरेक के मन में हो, लेकिन अगर आपकी दृष्टि अनुष्ठानों के पीछे निकृष्ट है। किसी का पैसा लेकर जप करने की आपके मन में दृष्टि है तो मैं समझता हूँ कि कोई खास फायदा नहीं है। आप एक मजदूरी करते हैं। गायत्री माता का कोई फल मिलेगा? बेटे! मैं कह नहीं सकता, क्योंकि तेरा उद्देश्य मजदूरी है। गायत्री माता का फल मिलेगा? बेटे। जरूर मिलेगा, अगर तेरी दृष्टि ऊँची रहेगी तब। दृष्टि का उसमें समावेश नहीं हुआ तो मैं जानता हूँ कि शायद ही उसका कोई परिणाम और शायद ही कोई अच्छा फल तुझे मिल सकता होगा।
ऐसी भावना लेकर जप निरर्थक
क्या करते है साहब? गायत्री माता का जप करते हैं। यह तो बहुत अच्छी बात है। किस काम के लिए करते है? साहब! हमारे पड़ोसी के ऊपर जो मुकदमा चल रहा है, वे जीत जाएँ। और किसके लिए करते? हमारे बेटियाँ न हो, बेटा हो जाए। बेटे-बेटियाँ तो बहुत अच्छी होती है। बेटा होने से यया कायदा है? नहीं महाराज जी! बेटा हो जाए, इसलिए हम गायत्री माता का जप करते है। तेरी दृष्टि बहुत छोटी है, ओछी दृष्टि है, घटिया दृष्टि है, कमीनी दृष्टि है, जानवरों जैसी दृष्टि है। ऐसी दृष्टि को लेकर के तू गायत्री माता का जप कर रहा होगा तो मैं नहीं जानता कि इससे तेरी जीवात्मा को कोई लाभ मिल सकता है कि नहीं। तेरी जीवात्मा में कोई प्रकाश आ सकता है कि नहीं। भगवान की कृपा और अन्य शक्तियाँ मिलेंगी कि नहीं। नहीं साहब! मैं तो ८१ हजार जप करूँगा। चाहे ८१ हजार जप कर ले, चाहे ५१ हजार, अगर दृष्टि तेरे पास नहीं है तो उस क्रियाकृत्य का क्या परिणाम निकलेगा, मैं नहीं जानता। मेरा विश्वास है कि दृष्टि को ऊँचा किए विना अध्यात्म और धर्म जो कि हमारा कार्यक्षेत्र है, उसमें कोई महत्त्वपूर्ण लाभ नहीं मिल सकता। इसलिए हमको दृष्टि का परिष्कार करने वाली बात सोचकर चलना चाहिए।
बोलना सीखना कोई बड़ा काम नहीं
मित्रो! आप हमारे वानप्रस्थ शिविर में आ करके क्या फायदा उठाएँगे? महाराज जी! बोलने की शैली आ जाए बस। बोलने की शैली बेटे! एक छोटी सी, जरा भी बात है, 'तिल के पीछे ताड़ है। इस जरा सी बात को तू अपने मन से निकाल दे। इसमें कुछ है नहीं। बोलना तो बच्चों को भी आता है। आपको अपने पड़ोसी से बात करनी पड़ती है तो धारा प्रवाह बात करते चले जाते हैं। घर में गप्पें हाँकते चले जाते हैं। स्टेज पर बैठकर बोलने में क्या आफत आ गई आपको? नहीं साहब! स्टेज पर बैठकर बोलना नहीं आता। दो बातें हो जाती हैं, इसलिए बोलना नहीं आता। हम सिखा देंगे। साइकिल चलानी आती है तुझे? हाँ महाराज जी! कभी आती है कभी भूल जाते हैं। नहीं बेटे! साइकिल चलाना सीख ले। साइकिल चलाने में जिन दो बातों का ध्यान रखना पड़ता है, उन्हीं बातों को व्याख्यान देने में भी याद रखना पड़ता हैं। यहाँ से जाऊँगा तो गुरुजी! व्याख्यान आ जाएगा? बेटे! साइकिल चलाना आता होगा तो आ जाएगा। कैसे? साइकिल चलाने में डर लगता है। गिर पड़ेंगे तो डर पक्का है। दो इंच की चौड़ाई पर दो पहिये चलते हैं और हम भी चलेंगे तो गिरेंगे। बेटे! जरूर गिरेगा। इसके पहिये समान-बराबर भी नहीं हैं। देख हमारी टाँगें बराबर हैं और टाँगें आगे-पीछे होती तो? शायद हम गिर पड़ते। साइकिल के पहिये तो आगे पीछे हैं बेटे! गिरेगा जरूर। लेकिन अगर यह सोच लेगा कि सैकड़ों आदमी चलाते है तो खट चल जाएगी तेरी साइकिल। हिम्मत अगर आदमी के मास आ जाए, तो फिर कुछ भी कठिन नहीं है।
मात्र झिझक निकलनी चाहिए
मित्रो! झिझक, आत्महीनता का भाव कि हम बड़े कमजोर हैं, लोग हमारी मजाक उड़ाएँगे, हमारी दिल्लगीबाजी हो जाएगी। हमारा भाषण किसी काम का नहीं होगा और हम पढे लिखे नहीं हैं, मूर्ख हैं। इतनी कमजोरियाँ बस जबान पर आकर हावी हो जाती है और आदमी को बोलने में रुकावट पड़ती है। गुरुजी! व्याख्यान करना सीख जाऊँगा? हाँ सीख जाएगा, बस झिझक निकाल दे। यहाँ व्याख्यान देना सीखकर गंगा जी के किनारे चला जाया कर। वहाँ पत्थर रहते हैं। हमारी बात तुमको सुननी पड़ेगी। तुम्हारे पत्थर जैसे दिमाग और पत्थर जैसी अक्ल, पत्थर जैसी जिंदगी को मुलायम बनना चाहिए। हमारे गुरुजी बताते हैं कि आपको हमारी बात सुननी चाहिए। गंगा के किनारे रहकर भी अरे मूर्खों! ऐसे के ऐसे ही रह गए। ये तो तुम्हारी नासमझी है। समझ से काम लो और जरा गीले होने की कोशिश करो। जरा चलने फिरने की कोशिश करो। लुढ़कना शुरू करोगे तो तुम थोड़े दिनों में शालिग्राम बन सकते हो। अभी तो तिकोने पत्थर पड़े हो। समझा न व्याख्यान देना, झिझक खुली, गाड़ी चली तो चली। साइकिल चली तो चली, पहिया घूमा तो घूमा और बात खतम हो गई।
व्याख्यान देना एक कला
बेटे! व्याख्यान देना कोई खास बात नहीं है। मुझे फुरसत कम मिलती है, नहीं तो मैं तेरे पीछे पड़ जाऊँगा व्याख्यान देने के लिए तो मैं समझता है कि एक सप्ताह में तुझे बुलवाकर छोड़ूँगा। ये हमारी लड़कियाँ हैं। बाहर भेजा था इनको। बस इनके ऊपर हावी हो गया था, बैठो, बोलो, यह क्या, ऐसे बोल, ऐसे बोल। क्यों नहीं बोलती? ऐसे बोला जाता है। फिर ऐसे बोलने लगीं कि बस गजब को गया। व्याख्यान में भी कुछ होता है क्या? कुछ भी नहीं है। बस तेरा दिमाग अपसेट हो जाता है। तेरी जिन्दगी फैली हुई है, बंदर की तरह मचक-मचक करता है। किसी बात में दिमाग नहीं लगाता, किसी बात पर ध्यान नहीं देता। अपने प्वाइंट बना ले, दिशाधारा निर्धारित कर ले कि ये-ये बोलना है। नहीं साहब! उस वक्त जो मन में आएगा, सो बोलेंगे। नहीं बेटे! अपने प्वाइंट निश्चित कर ले, सामने रख ले और उसी हिसाब से कायदे से बोलता हुआ चला जा। पहले उसे याद कर ले, रिहर्सल कर ले तो फिर बोलना आ जाएगा। गुरुजी मैं अपनी जिंदगी में वक्ता हो जाऊँगा? जरूर हो जाएगा, मैं यह आशीर्वाद देता हूँ।
बेटे! अपने मन को नियंत्रित करना और झिझक हटाना सीख ले। जहाँ ये दो बातें सीखीं, बस वहीं तेरी सारी की सारी बात ठीक हो जाएगी। शरीर का बैलेंस बनाना सीख ले और हिम्मत से साइकिल पर सवारी करना सीख ले। पढ़ा है, बिना पढ़ा है तो भी बोल जाएगा। गँवार है तो भी बोल जाएगा और विद्वान है तो भी बोल जाएगा। बेटे! बोलना एक कला है, विद्या थोड़े ही है। बाजीगरों को यह कला आती है और वे जनता को इकट्ठा कर लेते हैं। ताबीज बेचने वालों को बोलना आता है। गोशाला वालों को, अन्य सैकड़ों आदमियों को बोलना आता है। नहीं साहब, गुरु जी यहाँ से जाऊँ तो आशीर्वाद देना कि मैं बोलता चला जाऊँ। हाँ, मैं दे दूँगा आशीर्वाद, कुछ है नहीं इसमें, यह एक खेल है, तमाशा है, जादू है।
सफलता का मापदण्ड
मित्रो! यहाँ जो वानप्रस्थ शिविर में हम आपको रामायण की कथा कहने के लिए बुलाते हैं। व्याख्यान के लिए स्टेज पर जाकर आप मचक करके बैठ जाएँ और जाता आपको सुनने लगे। आपके गले में फूलमाला पहनाई जाए तो यह कोई सफलता नहीं है। इस सफलता में क्या रखा है? यह तो स्कूलों के सब मास्टर, लेक्चरर कर लेते है। क्या पोस्ट है आपकी? लेक्चरर। आप क्या काम करते हैं? अरे साहब! लेक्चर झाड़ने का पैसा कमाते हैं। धत तेरे की? और कुछ काम करते हो? नहीं साहब! कुछ काम नहीं, आप देख लीजिए हमारी पोस्ट। लेक्चर झाड़ना, रोटी कमाना। कालेज और स्कूल कितने है? लाखों की तादाद में हैं। और लेक्चरर? जितने देखिए लेक्चरर ही लेक्चरर। लेक्चर से हम जनता का उद्धार कर देंगे। लेक्चर से हम यश कमा लेंगे। लेक्चर से हम बड़े आदमी हो जाएँगे। नहीं बेटे! लेक्चर बड़ी वाहियात और घटिया चीज है। थोड़े दिन पीछे अभी और देखना तमाशा। जिन लोगों ने लेक्चर देने का धंधा कायम कर रखा है और जिनके चाल-चलन में जमीन आसमान का फर्क है। इन लोगों को सड़क पर बैठना मुश्किल पड़ जाएगा। कौन है यह? लेक्चरर है। अरे यह चालाक आदमी है, बदमाश आदमी है। लोगों को बहकाने के लिए आ गया है। अभी ही हो गया है, थोड़े दिनों बाद तो बिलकुल खतम हो जाएगा। लेक्चरर की क्या कीमत रह सकती है?
अनुगमन जरूरी
बेटे! हम यहाँ जो प्रशिक्षण करते हैं। जो क्रियाकृत्य कराना चाहते हैं, उसमें अनुशासन जरूरी है। अच्छा तो गुरु जी! हवन करने की विधि सिखा दीजिए। हाँ बेटे! हवन करने की विधि भी सिखा देंगे ,, इसमें कोई खास बात नहीं है। थोड़े दिन, महीना-पंद्रह दिन तू मेहनत कर ले। श्लोक बोलने को शैली सीख ले। क्रियाकृत्य में किसके बाद क्या करना चाहिए यह देख ले। अनुशासन किस तरह से सभा में रखा जाता है यहीं नेता बनाने के लिए सिखाते है। पच्चीस आदमी हवन करने के लिए बैठे हों तो क्या करना चाहिए? डिसिप्लिन कायम रखना चाहिए और देखना चाहिए कि एक तरीके से सबकी क्रियाएँ हो रही हों। इतने आदमियों पर हावी रहो कि कोई आदमी गलत काम न कर रहा को। बोलने में सबकी आवाजें साथ-साथ आ रहीं हों। नहीं साहब! बकरों को तरह से में-में, में-में। कोई तो प्रचोदयात् बोल रहा है, कोई तत्सवितुर्वरेण्यं बोल रहा है, लगा गाल में एक चाँटा। हम यहाँ बोलते हैं कि हमारे साथ−साथ बोलिए। कोई पीछे बोल रहा है, कोई इधर, कोई उधर बोल रहा है। ये बेटे! डिसिप्लिन का उल्लंघन है।
मित्रो! हम डिसिप्लिन, अनुशासन सिखाते है। हर आदमी को अनुशासित होना चाहिए, डिसिप्लिन में रहना चाहिए। नहीं साहब! हमारी मरजी है, हम तो जोर से चिल्लाएँगे। नहीं, जोर से नहीं चिल्लाने देंगे, जबान बंद रखो। या तो हमारे साथ-साथ बोलो या चुप बैठो। नहीं साहब! आप प्रचोदयात् बोलिए हम धीमहि बोलेंगे। एक ऊँचा चिल्ला रहा है, एक नीचा चिल्ला रहा है, ऐसे नहीं बोलने देंगे। साथ-साथ गले से गला मिलाकर बोलो। हम यह अनुगमन सिखाते हैं, ताकि आप में से हर आदमी हवन कराने में डिसिप्लिन रखना सीख जाए और अपने पड़ोस को एक कायदे-कानून में चलाना सीख जाए। यदि आप अनुशासन में रहना सीख लेते हैं तो मैं आपका ब्रह्मा नाम, आचार्य नाम रख दूँगा। नहीं साहब! हमको श्लोक आते हैं और झपकी लेते रहते हैं तथा श्लोक बोलते रहते हैं। हमें तो अपने माइक से और किताब से काम है। कोई सुने, चाहे न सुने, बोले या न बोले। हम तो बकवास करते चले जाते हैं। बेटे! थोड़ी सी बातें है, जो तुझे वहाँ यज्ञ में करनी चाहिए। बोलना और यज्ञ करना, ये बिलकुल मामूली बातें है। महीने भर में नहीं सीखेगा तो दो महीने में सीख जाएगा।
हमारा उद्देश्य अलग है
लेकिन मित्रो! इससे हमारा वह उद्देश्य पूरा नहीं होगा, जिसमें कि हम अपनी कीमती जिंदगी को खरच करते चले जाते हैं और जिसके आधार पर हम लंबे-चौड़े ख्वाब देखते चले जाते हैं। उन ख्वाबों के आधार पर मनुष्य जाति के भाग्य का फैसला टिका हुआ है। अगर हमारे ये विचार और हमारे सपने नाकारा और निरर्थक साबित हुए तो हम कह सकते हैं कि यह असफलता केवल हमारी नहीं है, अपितु समूची मानव जाति की असफलता है। यह असफलता सभ्यता की है, संस्कृति की है, धर्म की हैं, अध्यात्म की है, ऋषियों की है। यह असफलता हमारी उन महान परंपराओं की है, जिन्होंने विश्व का निर्माण, निर्धारण किया था। इसीलिए मित्रो। मैं आपसे अपने सपनों के पीछे छिपी हुई दृष्टि की बावत कहना चाहूँगा। हमको आखिर करना क्या है और बनना क्या है? कराना क्या है और बनाना क्या है?
मित्रो! आप सिर्फ यह ध्यान रखिए कि हमको मनुष्य का चिंतन, मनुष्य की दृष्टि और मनुष्य की निष्ठाएँ, इनका स्तर ऊँचा उठाना है। इसके लिए आपको कर्मकाण्डों की सहायता लेनी पड़ेगी। ठीक है, लेकिन आपकी स्वयं की दृष्टि जिसको मैं फिलॉसफी दर्शन कहता हूँ। वास्तव में जो दर्शन था, प्राचीनकाल में इसी मामले में इस्तेमाल हुआ था। अब तो दर्शन के नाम की ऐसी मिट्टी पलीद हो गई है जैसे गाँधी जी ने हरिजन राम दिया था। क्यों साहब! आप तो हरिजन मालूम पड़ते हैं, तिलक लगाए हैं जनेऊ पहने हुए हैं। अरे साहब! हमें हरिजन क्यों कहते हैं आप? हरिजन तो उन्हें कहते हैं, अछूतों को। अरे बेटे! हरिजन माने जो भगवान का आदमी मालूम पड़ता हो। नहीं साहब! हरिजन मत कहिए हमें! धत तेरे का। हरिजन नाम की ऐसी मिट्टी पलीद हो गई। इतना ऊँचा नाम था और कितना घटिया अर्थ उसका लग गया। ठीक इसी तरीके से दर्शन की भी ऐसी मिट्टी पलीद हुई है कि क्या कहें।
दर्शन का अर्थ देखना नहीं
मित्रो! कहाँ गए थे? दर्शन करने गए थे? किसका दर्शन करने गए थे? साहब! बद्रीनाथ का दर्शन करने गए थे। तो कर लिया दर्शन? हाँ साहब! खूब दर्शन हो गए। भीड़ तो बहुत थी ,, पर हम पंद्रह मिनट खड़े रहे और अच्छी तरह से दर्शन हो गए। दर्शन से आपका मतलब क्या है? बेटे! दर्शन का अर्थ यदि देखना भर लगाता है तो देखने का इतना ही फायदा होगा कि उसकी यह व्याख्या कर सकता है कि बदरीनारायण संगमरमर के बने हैं या भूसा के बने हुए है। उनकी नाक लंबी है कि चौड़ी है। बस, इतना ही फायदा होगा। इस दर्शन से तो महाराज जी! इस दर्शन से तो बैकुंठ मिलेगा न? नहीं बेटे! तुझे नहीं मिलेगा, क्योंकि तेरे दर्शन के माने-मतलब का अर्थ जो तुमने समझा है, वह मात्र देखना समझा है। वास्तव में दर्शन का अर्थ देखना नहीं है।
साथियो! दर्शन का मतलब 'दर्शन' ट्रू फिलॉसफी'। दर्शन के पीछे एक दृष्टि काम करती है। आप किसको देखने के लिए गए थे? गाँधी जी को। गाँधी जी की देखने के लिए तो लाखों लोग गए होंगे है तो क्या पुण्य मिला? बेटे! मैं समझता हूँ कि कोई पुण्य नहीं मिला होगा। जो भी आदमी उन्हें देखने के लिए अपना किराया भाड़ा खरच कर गए होंगे तो सिर्फ इतनी जानकारी लेकर के आए होंगे कि एक छोटी कद-काठी का काला व ठिगना आदमी था, जिसकी आँखें छोटी और नाक लंबी थी। बस, इतनी सी जानकारी का जो पुण्य होगा, मिला होगा। नहीं महाराज जी! गाँधी जी के पास जाने से तो बड़ा पुण्य मिलता है। नहीं बेटे! अगर उनके दिमाग में दृष्टि नहीं है, तब कोई पुण्य नहीं मिलता। हाँ, जिनकी आँखों में दर्शन रहा होगा, उनने गाँधी जी को देखा होगा और देख करके उनकी फिलॉसफी को समझा होगा। उनके प्रति जो उनकी निष्ठा-श्रद्धा थी कि गाँधी जी बहुत अच्छे आदमी हैं, उस निष्ठा को ग्रहण किया होगा और ग्रहण करने के बाद उनका नाम विनोबा हो गया।
विनोबा कौन है? दूसरे नंबर के गाँधी है। गाँधी जी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह में जब अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तो लोग बहुत उम्मीद लगाए बैठे थे कि गाँधी जी के जेल जाने के बाद में दूसरे नंबर पर कौन हो सकता है? दूसरा नंबर जवाहरलाल नेहरू का होना चाहिए, सरदार पटेल का होना चाहिए। सब अख़बार वाले इंतजार कर रहे थे कि गाँधी जी अपना उत्तराधिकारी डिक्लेयर करेंगे। दोनों में से या तो जवाहरलाल नेहरू हो सकते हैं या फिर सरदार पटेल हो सकते हैं। ये दोनों बड़े दबंग थे, लेकिन गाँधी जी ने, सन् १९३६ में जब व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन शुरू हुआ था तो उसमें डिक्लेयर किया कि मेरे गिरफ्तार होने के बाद में राष्ट्र की लगाम चलाने वाला और दूसरे नंबर का सत्याग्रही होगा तो विनोबा भावे होगा।
अंतर दो स्थितियों में
मित्रो! विनोबा भावे और जवाहरलाल नेहरू में क्या मुकाबला है? एक छोटे, गरीब घर में, कंगाल घर में पैदा हुए। न इनके पास साइकिल है, न इनके पास मोटर है, न इनके पास और कुछ भी है, बिलकुल नाचीज आदमी। ऐसे नाचीज आदमी और दुनिया में नहीं है तो क्या विनोबा भावे व्याख्यान दे सकते हैं? बेटा! मामूली सा देते हैं, कोई खास व्याख्यान नहीं देते। पढ़े-लिखे हैं? श्री साहब। वो क्या पढ़े-लिखे हैं, ऐसे ढेरों आदमी पढ़े-लिखे हैं। अभी कल परसों अपने यहाँ हरिद्वार के एक प्रिंसिपल आए थे। उन्होंने बताया कि मैंने कितने विषयों में एम. ए. किया है। ढेरों विषयों में एम. ए. किया हुआ है। उन्होंने कहा कि अभी बहुत सारे विषयों में और एम. ए. करूँगा। अगर विनोबा भावे ने एम. ए. कर लिया है या कई भाषाएँ पढ़ ली हैं तो कौन भी नई बात हुई? कोई खास बात नहीं है। मित्रो! उनके अंदर क्या विशेषता है? उनकी दृष्टि, उनका चिंतन, उनकी मान्यताएँ, उनकी निष्ठाएँ, उनकी आस्थाएँ, बस। असल में आदमी की शक्ति इसी में है। आदमी का वर्चस्व इसी में है। आदमी का गौरव इसी में है। आदमी का प्रभाव इसी में रहता हैं। आदमी की सामर्थ्य इसी में रहती है।
मित्रो! आपसे हम कर्मकाण्डों का जो कृत्य कराते हैं और जिस पर हम अधिक जोर देते हैं। धर्मतंत्र से लोकशिक्षण' में कर्मकाण्डों की धूम मचा दी है और कहा है कि आप पर्व मनाइए, संस्कार मनाइए, यज्ञ कराइए, वसंतपंचमी का त्यौहार मनाइए, जन्मदिन मनाइए। रामायण की कथा कराइए, भागवत् की कथा कराइए, कितने सारे धार्मिक क्रिया-कलाप लोगों को दिए हैं। आपको स्वयं कितने क्रिया-कलाप दिए हैं। जप कीजिए, उपासना कीजिए, खेचरी मुद्रा कीजिए, ध्यान कीजिए आदि कितने सारे कर्मकाण्ड जनता को एवं आपको बता दिए हैं। तो क्या गुरुजी! इन कर्मकाण्डों का इतना बड़ा महत्त्व है? बेटे! कोई महत्त्व नहीं है। इन कर्मकाण्डों का महत्त्व व्यक्तिगत जीवन में और सामूहिक जीवन में सिर्फ एक बात पर टिका हुआ है कि आपने इन कर्मकाण्डों के साथ दृष्टि, चिंतन, फिलॉसफी को जोड़ करके रखा है कि नहीं रखा। यदि ये चीजें आपके कर्मकाण्डों के साथ जुड़ी होंगी तो आपके व्यक्तिगत जीवन में उससे बहुत फायदा होगा। सामूहिक जीवन में, सामाजिक जीवन मे, जिस क्षेत्र को आप ऊपर उठाना चाहते हैं, आगे बढ़ाना चाहते हैं, उसको बेहद लाभ होगा।
जरूरी है दृष्टिकोण का परिष्कार
साथियो! अगर अपने स्वयं में दृष्टिकोण का परिष्कार नहीं किया और जनता के दृष्टिकोण का परिष्कार नहीं किया। आप मात्र हवन कराते रहे। कितनी आहुतियाँ दीं? साहब! बाईस हजार आहुतियाँ दे दीं, दस हजार आहुतियाँ दे दीं, तो मैं यह पूछता हूँ कि इतनी आहुतियाँ देने के बाद, जो लोग इसमें आहुतियाँ देने के लिए आए थे, आखिर में आहुति देने के पीछे जो फिलॉसफी जुड़ी हुई है कि हमको उसमें किसकी आहुति देनी चाहिए, क्या त्याग करना चाहिए, बलिदान करना चाहिए, सेवा को जीवन का अंग बनाना चाहिए, यह भी सिखाया क्या? नहीं साहब! यह तो नहीं सिखाया। फिर क्या सिखाया, दे आहुति-दे आहुति . . .। बेटे! इससे तेरा क्या फायदा हुआ होगा? मालूम नहीं, शायद धुएँ से किसी की आँखें खराब हो गई हों। नहीं महाराज जी! उस समय तो किसी की आँखें खराब नहीं हुई थीं, हाँ आँखों में से पानी तो बहुतों की से टपक रहा था। देख ले, यही फायदा हो गया कि आँखों में कोई कीचड़-वीचड़ रहा होगा, सो धुएँ से निकल गया। और क्या फायदा हो गया होगा? और बेटे! ठंडक में हवन कराया था या गरमी में कराया था? गुरुजी! ठंडक में कराया था। अच्छा तो एक फायदा यह हो गया कि जाड़े के मारे जो लोग काँप रहे होंगे, वे हाथ सेंक रहे होगे और हवन भी कर रहे होंगे। और कोई फायदा हुआ? और कोई फायदा नहीं हुआ।
सोने का नेवला
मित्रो! हवन का, कर्मकाण्ड का जो मूल लाभ है, वह उसके चिंतन का लाभ है। दृष्टिकोण के स्तर की ऊँचाई बढ़ाने का लाभ है, आप यह बात ध्यान रखना। प्राचीनकाल का इतिहास और नया इतिहास यह बराबर बताते हैं कि यदि क्रियाकृत्य सामान्य हों, तो भी उसके फल असामान्य होंगे। पिछले शिविर में एक दिन मैंने आपको एक नेवले की कहानी सुनाई थी। एक ब्राह्मण थे, जो चार रोटी का अनाज कहीं से लाए थे और भूखे रहते हुए उन्होंने चारों रोटियाँ दान कर दी थीं। रोटी एक चांडाल ले गया था। उसके जूठे पानी में नेवले का थोड़ा अंग भीग गया था और वह सोने का हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण ने जब पाण्डवों का यज्ञ कराया था तो उसमें वह नेवला गया था और कहने लगा था कि साहब! इस यज्ञ का इतना पुण्य नहीं हुआ। तो महाराज जी! किससे होता है पुण्य ?? इससे पुण्य होता है कि तुम अपनी थाली में एक-एक रोटी रख लो और जो कोई भी आदमी आए, उसे चारों रोटी दान कर दो। महाराज जी! तो क्या नेवला इससे सुनहला हो जाएगा? नहीं होगा। अच्छा तो मैं चार रोटी की जगह छह रोटियाँ रख दूँ अथवा एक किलो आटे की रोटियाँ थाली में रख दूँ? और दान कर दूँ तो, तो भी नहीं होगा। क्यों?
क्योंकि इसका जो अर्थ तू समझता हैं, वह दृश्य को समझता है, कृत्य को समझता है, पदार्थ को समझता है, यही मतलब है न तेरा? लेकिन पदार्थ का क्या मूल्य हो सकता है, क्या महत्त्व हो सकता है? पदार्थ को तो घर में चूहे भी खा जाते है। हाँ महाराज जी! अनाज का पुण्य करने से क्या हो जाएगा? कुछ भी नहीं हो जाएगा। कैसे हो जाएगा? बेटे! उसका एक ही आधार है, और दूसरा कोई भी नहीं है और उसका नाम हैं-दृष्टि। अभी मैंने आपको उस आदमी का हवाला दिया, जिसको चार रोटियों ने यह कमाल कर दिया था। उसके पीछे एक दृष्टि थी, एक फिलॉसफी थी और वही यज्ञ हो गई। इतना बड़ा यज्ञ हो गई कि उसके मुकाबले में श्रीकृष्ण का पाण्डवों द्वारा लाखों रुपया खरच करके कराया गया यज्ञ नाचीज हो गया। लेकिन भूखे ब्राह्मण का वह चार रोटी दान करने वाला यज्ञ बड़ा हो गया।
मित्रो! वह क्या था? एक दृष्टि थी, जो उस आदमी के भीतर काम करती थी। वह दृष्टि यह काम करती थी कि मैं अपने पेट पर पट्टी बाँध सकता हूँ, पर मुझसे भी ज्यादा पिछड़े हुए आदमी हैं, गिरे हुए, दुखियारे आदमी समाज में हैं तो उनका यह हक है कि मैं उनकी सेवा करूँ। इसके लिए चाहे मुझे मुसीबतें ही क्यों न उठानी पड़ें, तो उठाऊँ। यह दृष्टि, यह निष्ठा, यह आस्था, यह विश्वास इतना शक्तिशाली था कि देवताओं के सोने के सिंहासन हिल गए। आज की बात समाप्त।
।। ॐ शांतिः।।
चिंतन बिंदु-
:-परमेश्वर का प्यार केवल सदाचारी और कर्तव्यपरायणों के लिए सुरक्षित है।
:-प्रसन्न रहने के दो ही उपाय हैं-आवश्यकताएँ कम करें और परिस्थितियों से तालमेल बिठाएँ।
:-सभ्यता का स्वरूप है सादगी, अपने लिए कठोरता और दूसरों के लिए उदारता।
:-जो अपनी सहायता आप करने को तत्पर हैं, ईश्वर केवल उन्हीं की सहायता करता है।
:-गृहस्थ एक तपोवन है, जिसमें संयम, सेवा और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है।