उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
स्वाधीन है मनुष्य
देवियो, भाइयो! भगवान ने जहाँ मनुष्य को एक बहुमूल्य मानव शरीर दिया है, वहाँ एक और भी विशेषता दी है कि वह काम करने के लिए स्वतंत्र है। हर प्राणी स्वाधीन नहीं है। प्रत्येक प्राणी को विचार करने का मौका भी नहीं मिला है। प्रकृति ने उन्हें जो भी, जैसा कुछ भी बना दिया है, उसी पर सीमित रहना पड़ता है। मसलन बकरी के लिए घास और पत्तियाँ बना दी हैं। उसे पत्ती और घास पर ही निर्भर करना पड़ेगा। दूसरी चीजें खाकर अगर वह गुजारा करना चाहे तो नहीं कर सकती। लेकिन मनुष्य के बारे में ऐसी बात नहीं है। वह हर तरह से काम चला सकता है।
मछली पानी में ही रह सकती है। पानी में ही उसका जीवन व्यतीत होता है। वह पानी से बाहर नहीं निकल सकती, हवा में तैर नहीं सकती, लेकिन मनुष्य को स्वाधीनता मिली हुई है। वह हवा में भी तैर सकता है और पानी में भी डुबकी लगा सकता है और अपनी स्वाधीनता को जिस तरीके से चाहे उस तरीके से प्रयोग कर सकता है।
मित्रो! मनुष्य स्वाधीन है। भगवान ने उसे स्वाधीन बना दिया है। स्वाधीनता में जो कमी रह गयी है, उसको पूरा करने के लिए वह कोशिश भी करता रह सकता है कि जो बंधन उसके ऊपर बँधे हुए हैं, उनसे मुक्ति मिल जाय, छुटकारा मिल जाय। मुक्ति का यही मतलब होता है कि भवबंधनों से छुटकारा मिल जाय। अर्थात वह स्वाधीनतापूर्वक जैसा बनना चाहता है, वैसा बन सकने में समर्थ हो सके। प्रगति करने के लिए उसके रास्ते में जिन चीजों की अथवा शारीरिक कमियों की अथवा सामाजिक सहयोग की जो कमी पड़ती है, उस कमी को वह स्वयं अपने पुरुषार्थ से पूरा करने में समर्थ हो सके, मुक्ति इसी का नाम है। भवबंधनों में बहुत सारे सामाजिक, वैयक्तिक और दूसरी तरह की आदतों के जो बंधन बँधे हुए हैं, उसको तोड़ सकने में वह समर्थ हो सके, स्वाधीनता का मतलब तो यही हुआ ना? मुक्ति इसी को तो कहते हैं।
मनुष्य की स्वाधीनता
मित्रो! जीवन मुक्ति के लिए हम जो चाहते हैं, हम जो प्रयास करते हैं, उसमें यही देखते हैं कि मनुष्य को अपनी इच्छानुसार अपना निर्माण करने में, अपने भविष्य को बनाने में जो कुछ भी करना चाहिए, उसके मामले में जो भी रुकावटें हैं, वे दूर हो जायँ। मनुष्य को स्वाधीन बनाया गया है। स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए मनुष्य कोशिश भी करता रहता है, लेकिन आगे बहुत सी अड़चनें सामने खड़ी मिलती हैं। स्वाधीनता पराधीनता से भरी हुई मिलती है।
स्वाधीनता तो है, लेकिन पराधीनता तो उससे भी ज्यादा है। आदमी को, सेनापति को यह स्वाधीनता तो है कि वह चाहे जिस तरीके से अपनी सेना को चलाये। हुक्म देने की पूरी छूट है कि वह सेना को पैदल चलायेगा या वाहन से ले जायेगा। बंदूक चलानी चाहिए, खाई खोदनी चाहिए, बैठ जाना या छिप जाना चाहिए। पूरी तरीके से उसको इसके लिए स्वाधीनता दी हुई है। मिलिट्री में सेना का चाहे जिस तरीके से उपयोग करे। जो गोला-बारूद है, वह चाहे जिसके सुपुर्द कर दे। जीपों को जहाँ चाहे, वहाँ भगा दे। जो भी इंतजाम करना चाहे, अपनी आजादी से कर सके।
मित्रो! यहाँ आजादी तो है, लेकिन पराधीनता उससे भी ज्यादा है। कोई दूसरा सिपाही झपकी भी ले सकता है, लेकिन सेनापति को तो झपकी लेने की भी छूट नहीं है। ड्यूटी पर जिस समय वह झपकी लेने लगेगा, उस समय तक तो सैकड़ों-हजारों सिपाहियों का सफाया हो जायेगा। इसका जिम्मेदार कौन होगा? जो जितना जिम्मेदार है, उसके ऊपर उतना ही ज्यादा बंधन भी है। वह बंधनों में बँधा हुआ है। सिपाही चाहे तो छुट्टी की एक बात भी कह सकता है। चपरासी चाहे तो बिना कहे घर भी बैठ सकता है। दो-चार रुपये जुर्माना हो जायेगा, लेकिन अगर सेनापति गड़बड़ी कर दे, तब? तब सारे—के—सारे राज्य की स्वाधीनता ही संकट में जा पड़ेगी। इसलिए वह अनेक बंधनों से बँधा हुआ है। घर में बीमारी की चिट्ठी आई है। नहीं साहब! बीमार को मर जाने दीजिये। जब यहाँ सैकड़ों सिपाही रोज गोली के शिकार होते हैं, तो हमारी माँ बीमार है। माँ बीमार है, तो मर जाने दीजिए। दिक्कत की क्या बात है, मर जाने दीजिये। इतने आदमी मर गये है, एक माँ भी मर गयी, तो क्या हर्ज है।
जिम्मेदार व्यक्तियों के हैं ज्यादा दायित्व
मित्रो! एक सामान्य आदमी के लिए यह बात समझ में आती है कि हम माँ के दर्शन कब करेंगे। आज रात तो जाना ही पड़ेगा। कोई जरूरी काम हो तो भी हम जायेंगे और माता जी के दर्शन करेंगे, लेकिन सेनापति के लिए यह बात कहाँ समझ में आती है? सेनापति के लिए यह बात समझ में नहीं आती। घर में शादी ब्याह है। तो इसमें ब्याह-शादियों का क्या करें। वह तो होती रहती है। दुनिया भर के बाजार में रोज सैकड़ों शादियाँ होती हैं। नहीं साहब! शादी में जाना पड़ेगा।
जो कमजोर तबियत के आदमी हैं, छोटे आदमी हैं, उनके ऊपर तो ये बातें लागू होती हैं, लेकिन किसी खास या जिम्मेदार व्यक्तियों के ऊपर ये बातें लागू नहीं होती। ऐसे व्यक्तियों पर बहुत बंधन बँधे हुए हैं। जो लोग समाज की जिम्मेदारियाँ समझते हैं उनके ऊपर हजार बंधन बँधे हुए हैं। अगर उन्हें बड़ी जिम्मेदारियों के लिए कभी अपने घर की, कुटुम्ब की और परिवार की जिम्मेदारियाँ छोड़नी पड़ती हैं, तो वे छोड़ भी सकते हैं। इंसान हजारों तरीके से जिम्मेदारियों से बँधा हुआ है, जिन्हें फर्ज कहते हैं, कर्तव्य कहते हैं। फर्जों से और कर्तव्यों से आदमी बँधा हुआ है।
धर्म का दूसरा नाम है कर्म
मित्रो! फर्ज और कर्तव्य का ही दूसरा नाम है—धर्म। धर्म इसी को कहते हैं, धार्मिकता इसी का नाम है। धर्म का दूसरा नाम है—कर्म। ‘‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।’’ धर्म और कर्म एक ही बात है। कर्म का मतलब यहाँ श्रम नहीं है, लेबर या दास नहीं है। धर्म का मतलब विशुद्ध रूप से यह है कि आप अपनी जिम्मेदारियों को समझिये, अपने फर्ज और कर्तव्यों को समझिये। गीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की ही चर्चा हुई है। कल हमने आपसे ज्ञानयोग का जिक्र किया था और कहा था कि ज्ञान किस तरीके से आवश्यक है।
अपने जीवन की समस्याओं का समाधान करने के लिए किस तरह के फार्मूले हमारे हाथ में होने चाहिए, जिससे हम सवाल का सही समाधान कर सकें। ज्ञानयोग इसी का नाम है। यह हमें यही सिखाता है कि हम अपना रवैया बदल दें और नीर-क्षीर विवेकबुद्धि का विकास करें। बीमारियों से, बुराइयों से लड़ें, बीमार या बुरे व्यक्ति से नहीं। अगर आप व्यक्ति को और बुराइयों को अलग करना सीख लें, तो मैं आपको ज्ञानवान कह सकता हूँ, कर्मयोगी कह सकता हूँ, धर्मपरायण कह सकता हूँ, कर्तव्यपरायण कह सकता हूँ। जिस दिन आप ज्ञानवान बनेंगे, उस दिन आपका दर्द दूर हो जायेगा।
कर्तव्य का पालन है कर्मयोग
मित्रो! कर्मयोग का यह मतलब नहीं है कि आप कोल्हू के बैल की तरीके से मेहनत करते हैं कि नहीं करते और मजदूर की तरीके से वजन उठाते हैं कि नहीं उठाते हैं। यह कर्म नहीं है। यह तो सिर्फ श्रम है। श्रम की मैं निन्दा नहीं करता। श्रम की तो मैं बहुत हिमायत करता हूँ और कहता हूँ कि हर आदमी को श्रमशील होना चाहिए। परन्तु यहाँ आध्यात्मिकता की चर्चा चल रही है और यह बात कही जा रही है कि आपको कर्तव्यपरायण होना चाहिए।
कर्तव्य क्या है? हमारे सैकड़ों कर्तव्य हैं, जिनकी जंजीरों से आप बँधे हुए हैं। आप स्वेच्छानुसार इनको अपने आप जकड़ लीजिए। जिस तरह से सिपाही स्वेच्छानुसार अपने आपको कर्तव्यों से जकड़ लेता है। लेफ्ट-राइट अपने आप चलता है, दायें-बायें अपने आप चलता है। सीना तानकर अपने आप चलता है। दोनों हाथों को हिलाते हुए मार्च करता है। यह सारी बातें उसके लिए स्वाभाविक हो जाती हैं। यह क्या है? यह सब उसके स्वभाव के हिस्से बन जाते हैं।
मित्रो! यह सब आपके स्वभाव के हिस्से ऐसे बनने चाहिए, जिसमें फर्ज और कर्तव्य सबसे ऊँचा हो। इसमें दो-तीन बातें बाधक होती हैं। एक बात तो यह बाधक होती है कि हमारी अपनी आदतें और हमारे अपने स्वभाव तंग करते हैं। दूसरी बाधा यह पड़ जाती है कि जिनको हम अपना कहते हैं, अपना समझते हैं, जिनके साथ मोह करते हैं, उनकी हम हिमायत करते हैं, पक्षपात करते हैं। यह बात हम भूल जाते हैं कि उनके लिए क्या बात मुनासिब थी? जितना मुनासिब था, उससे ज्यादा देने की कोशिश करते हैं। उनका बचाव करते हैं। उनके लिए वह काम करते हैं, जो दूसरों के लिए नापसन्द होता है। यह हुई दूसरी बात।
तीसरी बात यह है कि जब हम किसी पर नाराज हो जाते हैं, तो नाराज होने के साथ हमारा मन यह होता है कि उसको नुकसान पहुँचाना चाहिए अथवा जो उसका मुनासिब हक है, वह उसको नहीं देना चाहिए। इन तीन वजहों से अक्सर ऐसा होता रहता है कि आदमी अपने कर्तव्य, फर्ज और जिम्मेदारियों को भूल जाता है और वह काम करने लगता है, जो उसको नहीं करने चाहिए।
कर्मयोग ही है गीता का उद्देश्य
मित्रो! आपको कर्मयोगी होना चाहिए। गीता में कर्मयोग के बारे में बार-बार कहा गया है। गीता का उद्देश्य ही एक तरीके से कर्मयोग है। कर्म का मतलब यह होता है कि हमारे फर्ज क्या कहते हैं? फर्जों को निभाने में हमें या दूसरे आदमियों को नुकसान उठाना पड़ता है, तो पड़े। अर्जुन से भगवान यही तो कह रहे थे कि तेरे कुटुम्बियों को नुकसान पहुँचता है तो पहुँचे। हमको समाज की व्यवस्थाओं को सही रखने के लिए जिस चीज की आवश्यकता है, उस काम को क्यों नहीं करना चाहिए? इससे हमारे संबंधियों को नुकसान पहुँचता है, तो पहुँचे, हम क्या कर सकते हैं। इसलिए गीताकार ने कर्म को कर्तव्यों का वाहन बताया है।
गीताकार ने एक और बात कही है कि उसको, कर्तव्य को—अपना सबसे बड़ा गौरव, सबसे बड़ा मान और सबसे बड़ी सफलता मानकर चलना चाहिए। हमारे लिए यह संभव नहीं है कि जैसा हम चाहते हैं, वैसी ही परिस्थितियाँ कल मिलेंगी कि नहीं, कौन जाने? आपने एक खेत बोया है। कौन जानता है कि वर्षा होगी कि नहीं होगी। वर्षा नहीं हुई और आपका खेत सूख गया तब? तब आपको हैरान होना पड़ेगा। इस हैरानी से आपको अपना बचाव करना पड़ेगा और इसके लिए एक ही तरीका है कि हम इच्छाएँ न करें। इच्छाओं से मतलब यह नहीं है क हम फर्ज पूरा न करें, परन्तु जैसा परिणाम चाहते हैं, वह मिलेगा ही, इसकी क्या गारण्टी है।
कर्म हमारे हाथ में है, परिणाम नहीं
मित्रो! इम्तिहान में पास होने के लिए आपने साल भर पढ़ने की कोशिश की। और मान लीजिए उस समय आप बीमार हो गये। किसी से लड़ाई-झगड़ा होने से या घर में कोई शोक-संताप की घटना हो जाने से आपका मस्तिष्कीय बैलेन्स गड़बड़ा गया, तो साल भर की तैयारी के होते हुए भी आपकी परीक्षा अच्छी नहीं हुई। अथवा जो परीक्षक है, उसका मूड खराब था और उसने अच्छी तरह से आपकी कापी देखी नहीं और गलत नम्बर दे दिये और आपको फिर फेल कर दिया, आदि ढेरों ऐसी बातें होनी संभव है जिसमें कि जैसा आप परिणाम चाहते हैं, वैसा परिणाम न मिले।
इच्छानुकूल परिणाम न मिलने से आमतौर से आदमी दुखी पाये जाते हैं और परिणाम इच्छा से ज्यादा मिल जाने पर आदमी उछलते—कूदते पाये जाते हैं। इससे दिमाग का बैलेन्स खराब होता है। दिमाग का बैलेन्स खराब न होने पाये, संतुलन ठीक बना रहे, ताकि आदमी अपने मस्तिष्क रूपी कम्प्यूटर से ठीक तरीके से काम लेने में समर्थ हो सके। इसका एक ही तरीका है कि इच्छित सफलताओं की अपेक्षा हम लोग इस बात का ख्याल करें कि जो हम चाहते हैं, वह अगर नहीं मिलता है तो इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है।
मित्रो! जैसा हमने अपेक्षा की थी, वह न मिला, तो न सही लेकिन हमने अपने कर्तव्यों को पूरा किया, फर्ज का पालन किया। यह अपने आपमें इतनी बड़ी खुशी की बात है, यह अपने आप में इतनी घमंड की बात है, इतने बड़े गौरव की बात है कि हमें उसके मुकाबले में सफलता मिलती हो तो क्या? न मिलती हो तो क्या? अपना कर्तव्य पालन करने का अगर एक लक्ष्य बना लें, तो फिर जिस स्थिति में रहना पड़ रहा है, उसी में हम प्रसन्न रह सकते हैं। खुशहाल रह सकते हैं।
हम अपना सिर हमेशा इसलिए ऊँचे उठाये रह सकते हैं क हम जो कर सकते थे, उसे हमने पूरी जिम्मेदारी और पूरी ईमानदारी से किया। यह हमारे हाथ की बात है, लेकिन परिस्थितियाँ हमारे हाथ में कहाँ हैं? जैसा हम चाहते हैं, वैसा ही मिल जायेगा, यह हमारे हाथ की बात नहीं है। मान लीजिए कि आप दुकानदार हैं, व्यापारी हैं और आपने कोई चीज खरीदी और जिस भाव से खरीदी थी उसकी अपेक्षा वह मंहगी हो जाती है, तो आपको नफा मिल जाता है। मान लीजिए अगर वह सस्ती हो गयी, तो आपको नुकसान उठाना पड़ता है ना?
निष्काम कर्म कैसे करें
अब आप बताइए कि यह आपके हाथ की बात है क्या? नहीं, यह आपके हाथ की बात नहीं है। उसी में आप दुःख मनाएँ, उसी में आप परेशान होते फिरे। उसी के लिए अपना दिमागी बैलेन्स खराब कर डालें और दिमागी बैलेन्स खराब होने की वजह से जो कल अच्छे कर्म कर सकते थे, वह भी न कर पायें। इसमें क्या समझदारी रही? एक तो नुकसान हो गया और आप जो चाहते थे, वह भी नहीं हुआ। चलिए इसको किसी तरीके से बर्दाश्त भी कर लें, लेकिन यह तो पूरी तरह आपके मुट्ठी की बात है कि आप चाहें तो अपने दिमाग का बैलेन्स बनाये रखें।
मित्रो! अपने दिमाग के बैलेन्स को बनाये रखना आदमी की बहुत बड़ी समझदारी की बात है। इसलिए हमारे यहाँ कर्मयोग की शिक्षा दी जाती है। ‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’’ अर्थात तुम्हारे अधिकार में, तुम्हारी सीमा में, तुम्हारी परिधि में सिर्फ इतना है कि अपने जो फर्ज हैं और कर्तव्य हैं, उनको आप पूरा करें। जो फर्ज आप पूरा नहीं कर सकते, परिस्थितियाँ आपकी मुट्ठी में नहीं है, उनके बारे में इतना ज्यादा संवेदनशील नहीं होना चाहिए कि हमको जो चाहिए, वही मिलेगा। मान लीजिए कि आपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया भी ठीक तरह से, हर तरह से कोशिश भी की, लेकिन जैसा आप चाहते हैं, वैसा वे नहीं बन सके, तब क्या आप अपना दिमागी बैलेन्स खराब करेंगे?
गाँधी जी का बड़ा लड़का था—हीरालाल गाँधी। वह कभी शराब पीता था, कभी मुसलमान बनता था, कभी क्या करता था? गाँधी जी ने अगर यह ख्याल किया होता कि हमारा बेटा हमसे बेकाबू हो गया है और हम बेटे को सुधार नहीं सके, सँवार नहीं सके, दुनिया क्या कहेगी? अगर यह ख्याल करते तो गाँधी जी का दिमाग इतना खराब हो जाता कि वे जो महत्त्वपूर्ण काम कर सके, वह अपनी जिंदगी में एक भी नहीं कर पाते। उनके दिमाग में हर समय यही बात छाई रहती कि अरे! हमारा बेटा तो कहना नहीं मानता, फिर दुनियाँ क्यों और कैसे मानेगी? दुनिया हमें क्या कहेगी? दुनिया को हम क्या कर सकते हैं? दुनिया जो कहेगी, सो कहेगी। बस हर आदमी के लिए इतना काफी है कि उसने ईमानदारी के साथ में अपने फर्ज और ड्यूटी को अंजाम दिया कि नहीं दिया। बस इतने भर से काम बन सकता है।
मित्रो! आपको हर काम के बारे में सतर्क होना चाहिए, जागरूक होना चाहिए। जो भी आपके जिम्मे काम हैं, उनको आप शानदार ढंग से करें—यह आपका फर्ज है। जो वस्तु आपके हाथ में सुपुर्द की गयी है, आप उनका बेहतरीन ढंग से इस्तेमाल करें—यह आपका फर्ज है। मसलन आपको एक अच्छा-खासा शरीर मिला हुआ है। भगवान ने यह एक ऐसी मशीन दी है कि आप इसको अगर ठीक तरीके से चलायें, तो यह लम्बे समय तक काम भी दे सकती है, बीमार भी नहीं पड़ सकती। यह मोटर जो आपके हाथ में दी गयी है, अगर आप इसे ठीक तरीके से चलायें, कायदे से चलायें, तो यह बहुत लम्बा सफर कर सकती है और देखने में ठीक लग सकती है। अगर आप उतावली में काम करें, जल्दीबाजी में काम करें, आँखें बंद करके काम करें, नशे में काम करें, तब आपकी मोटर एक ही दिन में चकनाचूर हो जाएगी।
भगवान का काम करने के लिए मिला है शरीर
आपको जो शरीर मिला है वह लम्बे समय तक भगवान का काम करने के लिए सुपुर्द किया गया है। यह शरीर आपकी अपनी नियामत, दौलत नहीं है। इस पर आपके सारे कुटुम्बियों का भी हक है। आपके बच्चों का भी हक है। आपके माता-पिता का भी हक है, जिन्होंने आपको जन्म दिया है। इन सबकी सेवा करने की सामर्थ्य को बनाये रखने के लिए आपका यह फर्ज हो जाता है कि आप इस शरीर को ठीक तरीके से बनाये रखें। इस शरीर में बीमारियाँ न होने दें। आप संयम का पालन करें। प्रकृति के नियमों का ध्यान रखें। खान-पान के बारे में और आहार-विहार के बारे में उस समझदारी से काम लें, जिससे आपका शरीर, जो भगवान ने अमानत के रूप में दिया है, ठीक तरह से बना रहे।
मित्रो! यह क्या है? यह आपका फर्ज है। आपका फर्ज यह भी है कि आपका दिमाग कैसा अच्छा वाला दिमाग है, जिससे आप बढ़िया-से-बढि़या काम कर सकते हैं, सोच सकते हैं। बहुत-सी चीजों का आविष्कार कर सकते हैं। विद्वान हो सकते हैं। अपने लिए और दूसरों के लिए भलाई की कितनी ही योजनाएँ बना सकते हैं। लेकिन अगर आपने, अपने दिमाग के ऊपर कंट्रोल नहीं रखा और इस तरह के कामों में लगाये रखा, जो गैर मुनासिब थे, तो समझना चाहिए कि अपने शरीर से भी ज्यादा कीमती जो कम्प्यूटर आपको दिमाग के रूप में मिला हुआ है। इसमें आपका भविष्य और सारे समाज का भविष्य ऊँचा उठाना संभव था, उसको आपने बिल्कुल तबाह कर दिया है। उसको आपने बिस्मार कर दिया है।
आप ऐसा मत कीजिए। आपकी जिम्मेदारियाँ हैं, फर्ज हैं। आपकी धर्मपत्नी है। उसके लिए आपके फर्ज हैं। केवल यही नहीं है कि इससे हमको लाभ मिला कि नहीं मिला। यह हमारा कहना मानती है कि नहीं और हमारे कहने पर चलती है कि नहीं और हमारी काम-वासना पूरी करती है कि नहीं और अमुक काम करती है कि नहीं करती? इसकी अपेक्षा आप स्वयं को देखें कि हम उसके तईं अपना फर्ज पूरा करते हैं कि नहीं करते हैं?
हम अपने कर्तव्य का पालन करें
मित्रो! दूसरे आदमी अपना फर्ज पूरा करते हैं कि नहीं करते, इसका मतलब यह तो नहीं है कि आप भी अपने फर्ज पूरे नहीं करेंगे। आपको तो अपना फर्ज हर हालत में पूरा करना चाहिए। दूसरे आदमी को भी आप कह सकते हैं कि वह अपना फर्ज पूरा करे। लेकिन अगर दूसरा आदमी अपना फर्ज पूरा नहीं करता, तो आपके लिए यह मुनासिब नहीं है कि हम भी फर्ज पूरा नहीं करेंगे। कोई कुत्ता आपकी टाँग को काट खाये, तब आप कुत्ते की टाँग को काटेंगे कि नहीं? नहीं, आपको नहीं काटना चाहिए। एक आदमी सड़क पर पेशाब करता है, गंदगी कर देता है, तो क्या आपको भी यही करना चाहिए? नहीं, दूसरा आदमी गलती करता है, तो करे। मसलन आपकी बीबी गलती करती है, तो करे, आपके माँ-बाप गलती करते हैं, तो करें, लेकिन आप क्यों गलती करते हैं? आपको तो अपना फर्ज पूरा करना है।
माँ-बाप के प्रति जो आपकी जिम्मेदारियाँ हैं, वह फर्ज पूरे करने ही चाहिए। उनके स्वभाव अच्छे नहीं हैं, लड़ाई-झगड़ा करते हैं और अपने फर्ज को पूरा करने में समर्थ नहीं हैं, तो कोई बात नहीं है। आपको तो अपने फर्ज पूरे करने ही चाहिए। इसी तरीके से जो आपके कुटुंबी हैं, बच्चे हैं, उनके प्रति भी अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ पूरी करें। जिस समाज में आप रहते हैं, उसमें जो बुराइयाँ फैली हुई हैं, उससे छुटकारा दिलाना, यह भी आपका काम है।
मित्रो! अपनी जीवात्मा के प्रति भी आपके कुछ कर्तव्य हैं और परमात्मा के प्रति भी आपके कुछ कर्तव्य हैं। जिस देश, समाज और संस्कृति में आपने जन्म लिया है, उसके लिए भी आपके कुछ फर्ज हैं। इनसान के प्रति भी आपके कुछ फर्ज हैं। जानवरों, पेड़-पौधों और वनस्पतियों के लिए भी आपके फर्ज हैं। चाहे जिसको चाहे जिस तरीके से उसे तबाह करेंगे, ऐसा मत कीजिए। चारों ओर से जिस समाज में आप रहते हैं, चारों ओर से जिन प्राणियों के बीच में आप रहते हैं, जिस समुदाय के बीच आप रहते हैं, उन सबके साथ में आपके कर्तव्य और फर्ज जुड़े हुए हैं।
आप ईमानदारी से रहिए, अपने नागरिक कर्तव्यों का पालन कीजिए और समाजनिष्ठ होकर रहिए। ऐसा व्यवहार कीजिए, जिसकी परंपराओं से दूसरे आदमियों को गलत रास्ते पर चलने का मौका न मिले। वरन् आपको इस तरह की जिंदगी जीनी चाहिए जिससे कि आपके पीछे वाले लोग कुछ प्रेरणा ग्रहण कर सकें और आपके रास्ते पर चलने वाले कदम बढ़ा सकें। यह आपका कर्तव्य है, फर्ज है।
अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहें हम
मित्रो! आप चारों ओर से अपने कर्तव्यों से घिरे हुए हैं। अपने कर्तव्यों को समझिये। बच्चा छोटेपन में अपने जिम्मेदारियों को समझता नहीं है। बच्चा नंगा भी फिर सकता है, लेकिन जवान आदमी कैसे नंगा फिरेगा? जवान आदमी को तो कपड़े पहनने चाहिए। क्यों? क्योंकि वह अपने आपको जिम्मेदार समझता है। अगर आप बौद्धिक दृष्टि से, भावनात्मक दृष्टि से बालक हैं, तब मैं आपसे क्या कह सकता हूँ? लेकिन अगर आप समझदार हो गये हैं और जिम्मेदार हो गये हैं, तो जिम्मेदारी और समझदारी आपसे यह कहती है कि आप हर मामले में ईमानदार रहें। अपनी जिम्मेदारियों के बारे में आप पूरी ईमानदारी से काम करें। दूसरे आदमियों को सुधारिए, झगड़िए, दूसरे आदमियों के लिए जो कुछ हो सकता है, वह कीजिए। दूसरे आदमियों की गलतियों की सजा आप अपने आपको मत दीजिये। दूसरे आदमी ने आपसे बेईमानी की, तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपको भी बेईमानी करनी चाहिए।
मित्रो! आप उसके साथ में लड़ाई कीजिए; सुधारने के जो और भी तरीके हैं, वह कीजिए, लेकिन इस तरीके को मत अख्तियार कीजिये, जिससे कि आपका व्यक्तित्व और आपका चरित्र भी उसी सामने वाले घटिया आदमी के बराबर का हो जाता हो। ऐसे बहुत से कर्तव्य और फर्ज हैं और इन्हीं का नाम ‘कर्मयोग’ हैं। आप इसी कर्मयोग को कीजिए। आध्यात्मिक क्षेत्र में ज्ञानयोग—जिसका मैंने कल आपसे जिक्र किया था कि आप अपने बारे में—अपने आपको जानिए और समझिये। आपसे मैं अपने कर्तव्यों का पालन करने की प्रार्थना करता हूँ। ‘कर्मयोग’ उसी का नाम है, जिसका पूरा नाम कर्तव्ययोग है, फर्ज है, ड्यूटी है। आप इस चीज को पूरा करके, जागरूक होकर के रहें, तो मैं आपको धर्मात्मा कहूँगा और धर्मपरायण मानूँगा, धार्मिक व्यक्तित्व वाला मानूँगा। आप ऐसा ही कीजिए। इतना करेंगे तो आप धन्य होकर के रहेंगे। आज की बात समाप्त।
॥ ॐ शान्तिः॥