उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!
गायत्री महाशक्ति के सम्बन्ध में कितने ही सवाल हैं, जिनका मैं सबेरे जब ध्यान कराता हूँ, तब आपको थोड़ा-सा इशारा किया करता हूँ। गायत्री को त्रिपदा कहा गया है, इस सम्बन्ध में त्रिपदा की शक्ति के बारे में मैं जब सुबह आपको प्रातःकाल ध्यान करा रहा था, तब बता रहा था कि तीन चरणों वाली गायत्री, तीन टाँगों वाली गायत्री के तीन फायदे हो सकते हैं, पर शर्त यह है कि अगर आप ठीक तरह से उपासना करें तब। क्या-क्या, फायदे हो सकते हैं? त्रिपदा को कल्पवृक्ष, अमृत और पारस—इन तीन नामों से पुकारा गया है। क्यों साहब! ये तीनों चीज कहाँ रहती हैं? मालूम नहीं कहाँ रहती हैं? सुना है स्वर्गलोक में रहती हैं और देवताओं के पास रहती हैं। देवताओं के पास रहती हैं तो जमीन पर भी रह सकती हैं? हाँ जमीन पर भी रह सकती हैं, तीनों चीजें। अमृत भी जमीन पर रहता है। पारस भी जमीन पर रहता है और कल्पवृक्ष भी जमीन पर रहता है। ये तीनों डालियाँ, तीनों शाखाएँ उपासना की हैं। जिसका हम शिक्षण करते हैं, जिसका हम सिद्धान्त बताते हैं और जिसका हम मर्म हृदयंगम कराने के प्रयत्न करते हैं।
कैसे होता है कल्पवृक्ष? कल्पवृक्ष के बारे में कहावत है कि उसके नीचे जो कोई भी जाकर बैठता है उसकी मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं। मनोकामना किसे कहते हैं? मनोकामनाएँ बेटे, कई तरह की हो सकती हैं। सांसारिक मनोकामनाएँ वे कहलाती हैं, जो सांसारिक वस्तुओं को पूरा करने से सम्बन्धित होती हैं। सांसारिक मनोकामना को पूरा करने का लाभ कल्पवृक्ष के नीचे मिल जाता है। ऐसा बताया गया है तो क्या उपासना भी कल्पवृक्ष हो सकती है? हाँ, उपासना ही कल्पवृक्ष हो सकती है। कैसे हो सकती है? मैं आपको बताता हूँ।
सांसारिक मनोकामनाएँ क्या होती हैं? सांसारिक मनोकामनाएँ घुमा-फिरा कर एक ही है कि हमारे शरीर के लिए सुविधाएँ जुटें, पैसा जुटे, यही मनोकामना है और कुछ नहीं है। पैसा, सुविधा मिल जाए तो बाकी सब खरीद ली जाती है। पैसा मिल जाए तो सब हो जाती हैं। क्यों साहब ! उपासना से पैसा भी मिल सकता है? हाँ पैसे भी मिल सकते हैं। आप कहें तो मैं पुरानी बात बता सकता हूँ। गुरु जी पुरानी बात बताइये। चलिए पुरानी बात बता सकता हूँ कि उपासना एक कल्पवृक्ष है। विभीषण उपासना करता रहा। विभीषण ने न कोई फौजदारी की, न कोई लड़ाई लड़ी, न कोई व्यापार किया, न कोई खेती-बाड़ी की। कुछ भी नहीं किया। लेकिन वह लंका का, जो सोने की बनी हुई थी, राजा बन गया। तो सोना कमा लिया? हाँ सोना कमा लिया। किसने कमा लिया। विभीषण ने कमा लिया और किसने कमा लिया? सुग्रीव ने कमा लिया। हार गया था, सब कुछ छिन गया था। बीबी-बच्चे भी छिन गए थे। राजपाट भी छिन गया था। सब कुछ चला गया था हाथ से। कुछ भी नहीं रह गया था। प्राण बचाने के लिए एक पहाड़ की खोह में छुपा बैठा रहता था। दिन काटता रहता था। लेकिन उपासना के माध्यम से उसने अपना गँवाया हुआ राजपाट पा लिया।
अच्छा और किसने पा लिया? अभी और बताता हूँ किसने पा लिया? नरसी मेहता का नाम आपने सुना है? नरसी मेहता गुजरात में रहते थे और भगवद् भजन के साथ जनकल्याण में जुटे रहते थे। सुना है उन नरसी मेहता के यहाँ बरसी थी भगवद् कृपा दौलत के रूप में, अक्षय झोली के रूप में। सुना है आपने? हाँ सुना है। अच्छा चलिये और बताता हूँ आपको। सुदामा का नाम सुना है आपने? हाँ साहब सुदामा का नाम सुना है हमने। सुदामा जी मालदार हो गए थे। कहाँ से लाए? क्या-क्या उद्योग चलाए थे उन्होंने बताना जरा? फैक्ट्रियाँ खोली थीं? कारखाने खोले थे? सुदामा जी की कहीं फैक्ट्रियाँ नहीं थीं और न कारखाने ही। लेकिन द्वारिकापुरी में जो कुछ भी था वह सारे का सारा वैभव पोरबन्दर में आ गया था—सुदामापुरी में आ गया था। अरे गुरु जी! अगर ये बात सही है तो आप पुरानी बात नहीं, कोई नयी बात बताइये। ये तो मरे हुए व्यक्तियों की बात है। गुरुजी आपको जिन्दा व्यक्तियों की बात बतानी चाहिए। अच्छा जिन्दा व्यक्तियों की बता दूँगा, बेटे कि उपासना का कल्पवृक्ष कैसे फलदायी हो सकता है? मरे हुए व्यक्ति की बात बताता हूँ, जो अपनी जिन्दगी में तो नहीं कमा सके, पर बाद मे मालदार हो गए। मसलन नानक जी। नानक जी जो थे, वे एक किसान के बेटे थे दुकानदार के बेटे थे। बेटा जब बड़ा हो गया तो पिता नाराज हुए कि पैसे कमाने चाहिए और अपना पेट पालना चाहिए, तो नानक ने कहा—हम क्या कर सकते हैं? हमारी तो अकल कमजोर है। पिता ने नानक को बीस रुपया दिया और कहा कि बीस रुपये लेकर के आप पड़ोस के गाँव में जाइए और दुकानदारी का सामान खरीदकर लाइए, दुकानदारी शुरू कीजिए और अपना पेट पालिए, हम रोटी नहीं खिलाएँगे। नानक बीस रुपये लेकर गए और जहाँ सामान लेने जाने वाले थे, उसी रास्ते में संतों की एक मण्डली मिल गयी। वे उन्हीं के साथ सत्संग में लग गये। शाम को सब लोग भूखे सोने लगे। खाने का कोई इन्तजाम नहीं था अतः नानक ने बीस रुपये निकाले और सन्तों के खाने-पीने में खर्च कर दिये। सारे रुपये खर्च हो गए। दूसरे दिन नानक घर आए। पिताजी ने पूछा बेटा बीस रुपये तुम लेकर गए थे, उसका सामान बाजार से खरीदकर लाए होंगे दुकानदारी चलाने को। नहीं पिताजी, मैंने एक ऐसी दुकानदारी की है, जिसमें हजारों का मुनाफा होता है। ऐसी कौन-सी दुकानदारी है बेटे जरा बताना? उन्होंने कहा—सन्तों के काम में हमने खर्च कर डाले। बाप बहुत नाराज हुए और नानक को मारपीट कर घर से निकाल दिया। घर से निकलने के बाद बहुत दिन पीछे नानक वापस आए। वास्तव में उन्होंने अपना धन ऐसे काम में लगा दिया था कि जिसमें से धन हजारों गुना-लाखों गुना होकर के आये।
एक बार नानक के गुरुद्वारे में जब मैं गया तो मैंने देखा कि नानक को मरे हुए सैकड़ों वर्ष हो गये, परन्तु उनका मकान कितना जबरदस्त है? स्वर्ण मंदिर आप में से किसी ने देखा होगा शायद, बहुत कीमती मंदिर है। करोड़ों रुपये कीमत का बना हुआ मंदिर है। उसमें बहुत सोने का इस्तेमाल हुआ है। ये क्या बात कह रहा हूँ मैं? यह कि मरने के बाद नानक मालदार हो गए थे। नानक जब जिन्दा थे तब मालदार नहीं हुए थे, लेकिन मरने के बाद वे मालदार हो गये।
कल एक और आदमी का नाम गिना रहा था मैं। किनका नाम गिना रहा था? कल मैं बुद्ध का नाम गिना रहा था और यह बता रहा था कि इस कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर के सांसारिक दृष्टि से मरने के बाद में वे मालदार हो गए थे। स्वर्ण मंदिर जैसा कि मैंने आपको अभी-अभी बताया। उसी तरह आप कभी वर्मा जाएँ तो वहाँ एक स्वर्ण मंदिर बना हुआ है। लंका में तो नहीं है स्वर्ण मंदिर। लंका में तो मैं गया हूँ। कहते हैं सोने की लंका थी, लेकिन अगर आप सोने की इमारतें, मकान देखना चाहें तो वर्मा जाइये वहाँ पैगोडा है, उसमें बहुत सोना लगा हुआ है। रंग जी के मंदिर में भी हमारे यहाँ सोना लगा हुआ है। कितना लगा हुआ है? बारह किलो बताते हैं, पर वहाँ बहुत सोना लगा हुआ है। वहाँ पर बीस-तीस मन सोना जरूर लगा होगा। वर्मा के पैगोडा में। आप ये किसकी बात कह रहे हैं? बेटे! मैं बुद्ध की बात कह रहा हूँ। उस बुद्ध की बात जिसकी मैं जावा की बात कह चुका हूँ। साँची के स्तूपों की बात कह चुका हूँ। बौद्ध-गया के मंदिरों की बात कह चुका हूँ। इस सारे संसार में जो बौद्धधर्म के बड़े-बड़े विशालकाय विहार बने हुए हैं, उनकी बात बता चुका हूँ मैं। इस तरह कोई मालदार हो सकता है क्या? हाँ बेटे! मालदार हो जाता है। किससे मालदार हो जाता है? कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर के। कल्पवृक्ष अगर नहीं होता, वैसी कोई चीज नहीं होती तो आज हमारी आध्यात्मिकता की जिस तरह मिट्टी-पलीद हो रही है, ऐसी आध्यात्मिकता की मिट्टी-पलीद होने वाली बात रही होती तो ऋषियों ने उपासना का कभी समर्थन न किया होता और लाखों मनुष्यों का श्रम, लाखों मनुष्यों का समय, लाखों मनुष्यों के धन के साथ खिलवाड़ न की होती, अगर कल्पवृक्ष के वास्तविक कोई लाभ न हुए होते तब। यह क्या है? यह उपासना का कल्पवृक्ष है।
महाराज जी! आप तो पुराने जमाने की बात कह रहे हैं। नहीं बेटे पुराने जमाने की ही बात नहीं कह रहा हूँ, अभी के जमाने की ही बात भी बता सकता हूँ कि उपासना से आदमी मालदार हो सकता है, क्योंकि आपकी दृष्टि से किसी चीज की सफलता की निशानी मेरे ख्याल से मालदार बनना ही रहा होगा। जब आप ऋद्धि-सिद्धि की बात कहते हैं तो आपकी दृष्टि में एक ही चीज रहती है मालदार होना। कल्पवृक्ष इसीलिए कहा गया है कि उससे आदमी मालदार हो सकता है। इस कल्पवृक्ष से कौन-कौन से आदमी मालदार हो गये थे। नाम बताइये? मालदार आदमियों में मैं कई नाम आपको गिना सकता हूँ। हिन्दुस्तान के कहें तो हिन्दुस्तान के गिना सकता हूँ और विदेशों के कहें तो विदेशों के गिना सकता हूँ। हिन्दुस्तान के गिना दीजिए? अच्छा हिन्दुस्तान के जिन्दा आदमियों के नाम गिनाता हूँ। एक मामूली-सा वकील था। छोटा-सा वकील जो नागपुर की अदालत में वकालत करता था। साइकिल से घर जाया करता था। उसने रास्ते में पड़े हुए 6 कोढ़ियों को देखा। उनका चेहरा देखा और कहा चेहरे से ऐसे मालूम पड़ते थे कि वे भले घर के आदमी हैं, पर कोढ़ी हो गए थे और सड़क पर बैठे हुए भीख माँग रहे थे। वकील ने अपनी बाइसिकल रोकी और उतरकर उनके पास गये और कहा—भाईसाहब! आप कुछ ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो कोई समझदार और पढ़े-लिखे लोग हों, फिर आप भीख क्यों माँगते हो? देखिए हम कोढ़ी हो गए हैं और कुछ नहीं कर सकते हैं। कोढ़ी हो गए हैं तो आपके हाथ कोढ़ी हो गए हैं ना, आपका सारा शरीर तो कोढ़ी नहीं हो गया है। साहब, सारा शरीर तो कोढ़ी नहीं है, बस अँगुलियों और पैर ही कोढ़ी हो गए हैं। इससे कोई हर्ज की बात नहीं, आइए इस बाकी वाले हिस्से को हम ठीक तरीके से इस्तेमाल करें। हम आपको यह बात बतायेंगे कि किस तरीके से अपना गुजारा कर सकते हैं बिना भीख माँगे?
वकील ने बाइसिकल अपने घर वालों के सुपुर्द की और उन छह कोढ़ियों को लेकर अपने गाँव चला गया। गाँव में थोड़ी-सी जमीन थी महाराष्ट्र में। वहाँ मुर्गीपालन को खराब को खराब धन्धा नहीं मानते, हमारे यहाँ तो खराब मानते हैं। उन्होंने सबसे पहले मुर्गियाँ पाल लीं। मुर्गियों के बाद में बकरियाँ पाल लीं। भेड़ें पाल लीं। उन छह कोढ़ियों की मदद से वहीं जंगल में झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। वे कोढ़ी मुर्गी पालने में, बकरी पालने में, भेड़ पालने में मदद करने लगे। घास-पात की उन्हीं की सहायता से उन्होंने झोपड़ी बनाई। यह शुरुआत थी। अब बेटे मैं उनके झोंपड़ी बनाई। यह शुरुआत थी। अब बेटे मैं उनके मालदारी की बात कहता हूँ। मालदारी की बात कहिए। वही कोढ़ीखाना आज अभी जिनका मैं नाम ले रहा था जिन्दा आदमी का नाम ले रहा था उनका नाम है बाबा साहब आम्टे। वे जिन्दा हैं। मर गए, नहीं जिन्दा हैं अभी। बाबा साहब आम्टे को तीस साल हो गए उस संस्थान को चलाते हुए, उस कोढ़ीखाने को चलाते हुए। उसकी आज क्या स्थिति है? आज बेटे, वह विश्वविद्यालय है। किस बात का विश्वविद्यालय है? अपंगों के कार्यकर्ताओं को शिक्षण देने का, अपंगों, अन्धों को, लँगड़ों को, कोढ़ियों को शिक्षित करने वाले कार्यकर्ताओं का शिक्षण करने का एक विश्वविद्यालय है महाराष्ट्र में। और क्या है? और वहाँ दो सौ बैड कोढ़ियों के हैं। कोढ़ियों के अलावा और भी लोग रहते हैं। आँखों से अंधों का विद्यालय भी है और ब्रेल लिपि में उन्हें शिक्षण दिया जाता है। अपंगों के लिए शिक्षण किया जाता है। पोलियो से जिनके हाथ-पाँव खराब हो गए उनके लिए शिक्षण की व्यवस्था है। सब मिलाकर के दो हजार आदमियों के रहने का और निवास करने का स्थान है। इतना बड़ा स्थान महाराज जी कैसे बन गया? बाबा साहब आमटे बड़े मालदार हैं क्या? हाँ बेटे बड़े मालदार हैं। एक बार रीडर डाइजैस्ट अख़बार आपने कभी देखा हो, अँग्रेजी का अख़बार है। विदेश से निकलता है, हिन्दुस्तान से भी निकलता है उसका एक डेलिगेशन आया था। उसने कहा था हिन्दुस्तान की अच्छी समाजसेवी संस्थाओं में से कौन-कौन सी हैं? उन्होंने बाबा साहब आमटे की संस्था को बहुत पसन्द किया और एक लाख रुपए का चेक उनको भेजा कि यह छोटी-सी हमारी भेंट स्वीकार कीजिए। एक बार आस्ट्रेलिया गवर्नमेण्ट का डेलिगेशन आया। उसने कहा—हिन्दुस्तान की अच्छी समाज सेवी संस्थाओं का नाम बताइए। उसने बाबा साहब आमटे की संस्था को देखा और एक जहाज गेहूँ भरकर जो करीब पचास लाख रुपये का था, उस संस्था के लिए भेजा और कहा कि हमारा यह अनुदान—हमारी यह छोटी-सी भेंट भारत सरकार के मार्फत हम उस संस्था को भेंट करते हैं। तब वहाँ थोड़ी-सी जमीन थी। अब कितनी जमीन ? बेटे अब सैकड़ों एकड़ जमीन है, संस्था के पास। बड़ी समर्थ संस्था है। बाबा साहब आमटे संस्था के संचालकों में से हैं।
ये क्या कह रहा हूँ? बेटा, मैं मालदारी की बात कह रहा हूँ। मालदारी की बात तो ही आप समझते हैं और कोई भाषा ही नहीं समझते। गुरुजी हमें कोई और भाषा नहीं आती हम तो सिवाय मालदारी के न भगवान की भक्ति का कोई मतलब निकालते हैं, न पूजा का मतलब निकालते हैं? न सिद्धि का मतलब निकालते हैं। हमारी एक ही कसौटी है बस मालदारी की बात। चलिए मैं आपको बताता हूँ एक और मालदार आदमी का नाम। वह प्राइमरी स्कूल का अध्यापक था। उसके जी में आया कि नौकरी करते रहेंगे तो गवर्नमेण्ट जहाँ हमें भेजेगी वहीं जाना पड़ेगा। सरकार प्रायः खाते-पीते गाँव में ही भेजती है, उन देहातों में नहीं भेजती है, जहाँ पर पढ़ाई-लिखाई का कोई इन्तजाम नहीं है। वहाँ पर गवर्नमेण्ट क्यों भेजने लगी? क्यों स्कूल खोलने लगी? अब तो हम स्वयं अपने बलबूते पर जाकर के वहाँ काम करेंगे, जहाँ कोई नहीं कर सकता। एक छोटे-से देहात में वे चले गए और देहात में जाकर के वहाँ पर छोटी बच्चियों को बुलाकर एक प्राइमरी स्कूल खोल लिया। उस प्राइमरी स्कूल में खुद पढ़ाने लगे। पेड़ के नीचे पढ़ाने लगे, फिर घास-फूस इकट्ठा करके छप्पर बना लिया। यह क्या हुआ? यह शुरुआत हुई। फिर आखिर में क्या हुआ? आखिर में यह हुआ कि वहाँ पर राजस्थान का वनस्थली बालिका विद्यालय बन गया। कभी आपने देखा हो या आप कभी गए हों तो हिन्दुस्तान की नारी-संस्थाओं में, कन्या शिक्षण संस्थाओं में लगभग विश्वविद्यालय स्तर की वह संस्था है। अभी तक उसे विश्वविद्यालय की मान्यता नहीं मिली, पर मैं समझता हूँ उसका विस्तार, उसका फैलाव, उसकी सम्पत्ति, उसकी शिक्षण की प्रक्रिया लगभग उसी स्तर की होनी चाहिए जैसी कि विश्वविद्यालय की होती है।
ये किनकी बात मैं कह रहा हूँ? हीरालाल शास्त्री की बात मैं कह रहा हूँ। हीरालाल शास्त्री कौन थे? हीरालाल शास्त्री प्राइमरी स्कूल के अध्यापक का नाम है, जो पहली बार हिन्दुस्तान सरकार के साथ में अँग्रेज सरकार का हिन्दुस्तान की काँग्रेस के साथ में अँग्रेज सरकार का हिन्दुस्तान की काँग्रेस के साथ जब सरकार का राजीनामा हुआ तो सरकार ने राजीनामे के समय कहा—अच्छा तो शुरू में एक बार अपनी मर्जी की गवर्नमेण्ट बना लीजिए, फिर जब चुनाव होगा तब देखा जाएगा। राजस्थान में काँग्रेस को जब गवर्नमेण्ट बनाने का मौका मिला तो पंडित नेहरू ने टेलीफोन उठाया और श्री शास्त्री जी को बुलाकर यह कहा कि आपको एक जरूरी काम के लिए हमने बुलाया है। शास्त्री जी ने कहा—आप बताइये क्या हुक्म हैै—हमारे लिये। आपके लिए ये हुक्म है कि आपको राजस्थान का मुख्यमंत्री बनना होगा। हम तो प्राइमरी स्कूल के अध्यापक हैं और हम तो बराबर इन लड़कियों के शिक्षण में लगे हुए हैं। नहीं, आपको बनना पड़ेगा तो फिर आप हुक्म कीजिए मैं बनने को तैयार हूँ। राजस्थान का मुख्यमंत्री सबसे पहले जब काँग्रेस सरकारें बनी थीं, तो हीरालाल शास्त्री को मुख्यमंत्री बनाया गया। इसके पश्चात्? अभी-अभी इनका स्वर्गवास हुआ है। आपने कभी देखा होगा टिकट चलते हुए। हीरालाल शास्त्री का पच्चीस पैसे का टिकट चलता है। डाकखाने के लिफाफे पर। हीरालाल शास्त्री किस आदमी का नाम है? बड़े मालदार आदमी का नाम है। बड़े सेठ आदमी का नाम है, तो क्या कोई सेठ हो सकता है? कैसे हो सकता है? उपासना से हो सकता है।
मित्रो! आध्यात्मिकता के सहारे व्यक्ति मालदार भी हो सकता है और सम्पन्न भी हो सकता है, जैसे कि गाँधी जी करोड़ों रुपए की इमारत में जो आदमी रहता था और जिसका सारे भारतवर्ष में मान है। हो सकता था? हाँ हो सकता था। कैसे हो सकता है? उपासना के सहारे। उपासना किसे कहते हैं? अध्यात्म को कहते हैं। उपासना का सिद्धान्त ही मैं आपको समझाने वाला था और कुछ समझाने वाला नहीं था। सिद्धान्त आपकी समझ में आ जाता तो आपका समय और हमारा समय सार्थक हो जाता। उपासना अगर आपके समझ में आ जाती और उपासना करने की विधि कोई आपको सिखा जाता तो आप निहाल हो जाते। अभी मैंने बताया कि उपासना से मालदार होने वाले आदमी का नाम गाँधी था। क्या गाँधी जी मालदार थे, बाप-दादाओं के हिसाब से? नहीं, बाप-दादाओं के हिसाब से मालदार नहीं थे। पोरबन्दर के हजार कुण्डीय यज्ञ में मैं गया। वहाँ अपना गायत्री यज्ञ हुआ था। सबसे पहले पोरबन्दर जाने का मेरा मन इसलिए हुआ कि गाँधी जी का जन्म जिस घर में हुआ है, वहाँ जाकर देखूँ तो सही कि जिस गाँधी का इतना सम्मान है, तो इनके बाप-दादा क्या करते थे? मैंने सुन रखा था कि कोई दीवान थे, कोई बहुत बड़े आदमी थे तो शायद उनके मकान भी बड़े-बड़े होंगे। घर जाकर देखा तो मुझे बहुत निराशा हुई। बहुत छोटा-सा घर था। इतना छोटा-सा घर यदि हरिद्वार में रहा होता तो कोई आदमी 50 रुपये महीने से ज्यादा किराया नहीं दे सकता था। बिल्कुल छोटा-सा मकान, बिल्कुल मामूली-सा मकान। गाँधी का जो मकान मैंने देखा तो लगा कि गाँधी जी बड़े आदमी के बेटे रहे होंगे, जरूर उनकी घरेलू स्थिति अच्छी रही होगी। जिस घर में गाँधी जी ने अपना पढ़ना-लिखना जारी रखा था उस कमरे को देखकर मेरा गर्व विलीन हो गया। लोगों के सामने मैं गरीबी का इजहार किया करता था और यह कहा करता था कि मैंने चारों वेदों के भाष्य नौ फुट लम्बी और नौ फुट चौड़ी और नौ फुट ऊँची कोठरी में बैठकर किए हैं और मैंने इतना सारा कार्य इतनी छोटी जगह पर बैठकर किया है, इतनी गरीबी में रहकर के किया है, बेटे क्या बताएँ? लेकिन गाँधी जी की कोठरी को जब मैंने देखा जिसमें उन्होंने पढ़ा था, तो मेरा मस्तक नीचा हो गया। उसमें छः फुट से अधिक शायद ही ऊँचाई रही होगी और सोने के लिए मैं समझता हूँ शायद वह कोठरी जो गाँधी जी के हिस्से में आई थी, सात-आठ फुट लम्बी रही होगी। उसकी चौड़ाई मैं समझता हूँ, 4-5 फुट से ज्यादा नहीं रही होगी। बहुत छोटी-सी कोठरी थी जिसमें आदमी मुश्किल से एक तख्त बिछा सकता होगा या करवट ले सकता होगा। इतनी छोटी-सी कोठरी में रहते थे गाँधी जी। गरीबी हालत में पढ़े थे। लेकिन अमीरी? उनकी अमीरी को मैं क्या कह सकता हूँ? उनके मरने के बाद में राजघाट की समाधि—यदि आपने देखी हो तो जरा पता लगाना कितनी कीमत की हो सकती है।
गाँधी जी ने अपने जिन्दगी में जो भी काम किए, कोई भी काम उनका करोड़ से कम की गिनती में नहीं आता। करोड़ रुपए से कम वे गिनना नहीं जानते थे, हमारी गिनती तो एक-दो, तीन-चार से होती है, पर उनकी गिनती करोड़ से होती है। उन्होंने चरखा बनाया, करोड़ रुपए का बनाया। उन्होंने सर्वोदय की कार्यपद्धति बनाई, करोड़ों रुपए की बनाई। उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा का जो भी कार्य आरम्भ किया, करोड़ों रुपए से आरम्भ किया। उन्होंने करोड़ों रुपए खर्च करा दिए। मरने के बाद गाँधी स्मारक निधि के नाम पर पैंसठ करोड़ रुपया जनता ने दिया और उनकी धर्मपत्नी का जब स्वर्गवास हो गया तो पैंतीस करोड़ के करीब रुपया कस्तूरबा स्मारक फंड में जमा किया गया। दोनों को मिलाकर सौ करोड़ रुपया खर्च किया गया। गाँधी जी माने सौ करोड़ रुपया। बड़े मालदार आदमी थे वे। नहीं साहब, वे तो थर्ड क्लास में चला करते थे। बेटे, थर्ड क्लास में चला करते थे, पर तुझे मालूम भी है कुछ, जब थर्ड क्लास में चला करते थे तो पूरा डिब्बा रिजर्व हुआ करता था, पूरी बोगी रिजर्व होती थी। बोगी किसे कहते हैं? जिसमें 36 सीट होती हैं और आप तो फर्स्ट क्लास में आए। फर्स्ट क्लास में तीन गुना किराया लगता था, कौन इतना किराया देता? पहले जमाने की अपेक्षा अब तो मुझे मालूम नहीं क्या लगता है? पहले थर्ड क्लास की तुलना में फर्स्ट क्लास का किराया पौने तीन गुना अधिक लगता था और गाँधी जी के थर्ड क्लास का किराया 36 गुना देना पड़ता था, तब तो यह बड़ा महँगा पड़ता था? हाँ बेटे! बड़ा महँगा पड़ता था? और गाँधी जी तो बड़े गरीब थे, बकरी का दूध पीते थे और बहुत सस्ता खाते थे। लेकिन उनकी बकरी अंगूर खाती थी। अंगूर का दूध क्या भाव होता था? घास का दूध ढाई रुपये में हम खरीदते हैं और अंगूर का दूध कितना पड़ेगा जरा बताना? घास में और अंगूर में कितना फर्क है? घास क्या भाव आती है और अंगूर क्या भाव? घास का दूध ढाई रुपये आ सकता है तो अंगूर का दूध क्या भाव पड़ेगा? बेटा 250 रुपये किलो पड़ेगा। 250 रुपये का दूध पीते थे गाँधी जी। हाँ बेटे! क्यों? क्योंकि वह बहुत मालदार आदमी थे। गाँधी जी बहुत मालदार आदमी थे। यह मालदारी कहाँ से आ गयी? मालदारी कौन-से व्यापार से कमा ली? एक ही व्यापार था—उसका नाम चाहे तो अध्यात्म कह लीजिए और चाहे तो उपासना कह लीजिए।
अध्यात्म फिलॉसफी का नाम है और उपासना प्रैक्टिस का नाम है। ‘थियॉरी’ और ‘प्रैक्टिस’ दोनों को मिलाकर एक बात सम्पूर्ण हो जाती है। उपासना और अध्यात्म दोनों को मिला देंगे तो एक बात सम्पूर्ण हो जाएगी। अध्यात्म के सिद्धान्त जो अभी हमारी—आपकी समझ में नहीं आते यदि समझ में आ जाते तो बेटे गजब हो जाता। फिर आपको यह कहने की शिकायत नहीं पड़ती कि भजन से कोई फायदा नहीं हुआ। भजन करने में हमारा बहुत समय चला गया और हमने इससे कुछ नहीं पाया। ये शिकायतें आपको नहीं करनी पड़ सकती थीं, अगर आपको सिद्धान्त समझ में आ जाते, कुछ समझा जाता तब। कोई अभागा, कोई बाहर वाला उसे समझा गया है, उसके छीटें-छिलके से हमारी जान-पहचान करा गया है, किसी ने आपको सच्ची और आँखों देखी बात नहीं बताई, मैं चाहता था कि बताऊँ और उसके भीतर की जो तह की बातें हैं, वह भी आपको समझाऊँ। दूसरी चीज क्या चीज हो सकती है? मैंने बताया था आपको कि उपासना एवं अध्यात्म दोनों एक ही बात है। इसका एक और नाम है पारस और तीसरा नाम है—अमृत। पारस किसे कहते हैं? पारस किसे कहते हैं जिसे छूकर के आदमी का कुछ से कुछ रूपान्तरण हो जाए। पारस के स्पर्श मात्र से व्यक्ति का रूपान्तरण हो जाता है। पुरानी शक्ल नहीं रहती, जिसके द्वारा रूपान्तर हो जाता है, उसका नाम है ‘पारस’, जो आदमी की पुरानी वाली शक्ल ही बदल देता है। पुरानी शक्ल को बदल देता है? हाँ बेटे, पुरानी शक्ल को बदल देता है और उस चीज का नाम होता है पारस। पारस किसे कहते हैं? पारस बेटे अध्यात्म को कहते हैं। बताइए? आपको पुराने-नमूने बताऊँ कि नए बताऊँ? महाराज जी पुरानों पर तो हमारा कम विश्वास है। पुरानों में तो ऐसी बात मालूम पड़ती है जो गप-शप जैसी हो या कुछ अलंकारिक बना दी गयी हो। इसलिए पुरानों को तो मत बताइए, आप नयी बातें बता दीजिए। चलिये नयी बातें बता देते हैं।
पारस किसे कहते हैं? पारस उसे कहते हैं, जिसे लोहे जैसा तुच्छ आदमी छूकर बड़ा समर्थ हो सकता है। बताइए? अच्छा बेटे, अभी बताता हूँ कि कैसे हो सकता है। प्राचीनकाल की बातों को तो आपने मना कर दिया है अतः मैं अब आपको नए आदमियों के नाम बताऊँगा, जिनका कायाकल्प हो गया। कौन-कौन से व्यक्तियों का काया-कल्प हो गया? कायाकल्प करने वालों में एक आदमी का नाम मैं बता सकता हूँ। क्या बता सकता हूँ? जिन्दा आदमियों के नाम बताऊँगा जिनकी जिन्दगी में कायाकल्प हो गया। शेखावटी का था एक जाट। माँ-बाप गए मर। वह बेचारा अपने पड़ोसियों के यहाँ मजदूरी करने लगा। बे-पढ़ा था। बीस साल का था। ब्याह शादी? अरे कौन ब्याह-शादी करेगा। घर नहीं है, जिसके खेती नहीं, बाड़ी नहीं, पढ़ा-लिखा नहीं ऐसे व्यक्ति की ब्याह-शादी की कोई बात नहीं हो सकती। जाट जब 22 साल का हो गया और अपनी मेहनत-मजदूरी करके कुछ कमाने लगा। तब इतनी मेहनत-मजदूरी के क्या पैसे मिलते थे? 3 आने, 4 आने का मजदूर आया करता था तब 3-4 आने की मजूरी से अपना पेट पाल लिया करता। एक दिन जाट के मन में यह बात आयी कि कोई नयी बात करनी चाहिए, भगवान का भजन करना चाहिए। दूसरे दिन उसने लाल रंग का गेरू लाकर कपड़े को रंग लिया और कुर्ते को रंग लिया और बस संत—महात्मा हो गया। सारा गाँव कहता बदमाश कहीं का, काम नहीं करेगा तो क्या करेगा? जाट ने कहा—इस गाँव में नहीं रहूँगा कहीं और चला जाऊँगा। जाट गाँव से निकल गया और साधू हो गया—महात्मा हो गया, बाल बढ़ा लिए, दाढ़ी बढ़ा ली। इस तरह जहाँ जाता वहीं भीख माँग लाता और जीवन व्यतीत करता। कभी यहाँ चला गया, कभी वहाँ चला गया, हरिद्वार चला गया, दूर-दूर तक घूमता रहा वह। मोटा भी हो गया और मेहनत-मजूरी भी नहीं करनी पड़ी। एक दिन वह विचार करने लगा कि जिसका हमने यह भेष बनाया है, अध्यात्म का लबादा पहना है, उसको ग्रहण कर लेना चाहिए। वास्तव में संत बन जाना चाहिए।
हम और आप लबादा ही पहने थे और लबादा ही पहने हैं। भीतर न कभी अध्यात्म प्रवेश किया, न कभी उसने चमत्कार दिखाया। न हमको किसी अभागे ने कभी यह बताया कि अध्यात्म किस चीज का नाम है? उपासना के पीछे जो फिलॉसफी छिपी हुई है, जो तत्त्वज्ञान छिपा हुआ है, कोई सिखाने नहीं आया सिर्फ छिलके और कलेवर बता जाते हैं, विधियाँ बता जाते हैं, विधान बता जाते हैं, पर वास्तव में गहराई कोई बताता नहीं है। प्राण कोई बताता नहीं है। लाश हमको दिखा जाते हैं। प्राण की कोई जानकारी नहीं देते। मित्रो, जाट यह विचार करने लगा कि अध्यात्म का कलेवर पहना है तो वास्तविक अध्यात्म भी करना चाहिए। कई दिन विचार करता रहा कि क्या करना चाहिए? समझ में आ गया कि यह करना चाहिए। अध्यात्म का अर्थ क्या होता है यह उसकी समझ में आ गया। आपकी समझ में नहीं आया, पर उसकी समझ में आ गया। मैं बताऊँगा क्या समझ में आ गया। उस अध्यात्म को समझने के बाद में जाट अपने गाँव चला गया और सोचा अगर अध्यात्म सही चीज है तो उसकी इज्जत हर जगह होगी। गाँव में बेइज्जती एवं और जगह इज्जत हो तब तो वह चीज गलत है, झूठी चीज है। सही चीज है, तो गाँव में भी इज्जत होनी चाहिए। उसने निश्चय कर लिया कि मैं गाँव में ही जाऊँगा और अगर मेरा अध्यात्म सही है और जो मेरी वास्तविकता को जानते हैं—असलियत को जानते हैं, तो मैं वहीं जाकर दिखाऊँगा कि अध्यात्म सही है। एक प्लान बनाकर चला गया अपने गाँव में। जा करके क्या काम किया उन्होंने? जो उनकी जान-पहचान के थे, जिनके यहाँ नौकरी करते थे वहाँ जा पहुँचे। उन्होंने कहा—अरे! तू फिर आ गया। बेशरम फिर आ गया गाँव में ही। मजदूरी से, मेहनत से जी चुराने वाले महात्मा का ढोंग बनाकर आ गया है। वह चुप हो गया, उसने कुछ कहा नहीं। जब सब किसान अपने-अपने काम पर चले गए तो वह उनके घरों में जा पहुँचा। स्त्रियों के पास पहुँचा—दादी राम-राम। राम-राम बेटा! तू तो कहाँ चला गया था तब से। अरे दादी मैं तो महात्मा हो गया। अच्छा भाभी तुम तो पहले भाभी थीं अब तो माताजी हो गयी। माताजी नमस्कार। हम तो तुम्हारी भाभी थीं? भाभी पहले कभी थीं अब तो माताजी हैं हमारी। कहाँ चले गए थे। बहुत दूर चले गए थे। अब कहें तो गाँव में रहें नहीं तो चले जाएँ। नहीं आप गाँव में ही रहें तो फिर एक रोटी दे दिया करें तो गाँव में रहा करूँगा। एक रोटी हम दे दिया करेंगे। घर वाले लड़ेंगे तो नहीं। ठीक बात है हम रोटी खिला सकते। जाटवाद फैला दिया। अच्छी बात है हम रोटी खिला दिया करेंगे। उन्होंने कहा—एक-एक रोटी हमारे यहाँ से ले जाया करो। एक-एक रोटी जाट माँगकर ले आता सौ घर थे सौ रोटी माँग लाया। क्या करूँ इसका, खानी तो चार हैं, पर आ गईं सौ। उसने कहा माताजी बात यह है कि हमको रोज-रोज आने में डर लगता है, कि कहीं भइया जी आ जाएँगे और ताऊ जी आ जाएँगे, तो आपको भी मारेंगे और हमको भी मारेंगे। हाँ ये तो है तो ऐसा करो, मैं आपको मिट्टी का एक घड़ा दे जाता हूँ, जिसमें मेरी एक रोटी का अनाज डाल दिया करो। इकट्ठी करके मैं अपने आप पीस लिया करूँगा। पीसता तो मैं पहले भी था, मेरा घर तो अभी भी है, टूटा हुआ, मैं अपने हाथ से पीस लिया करूँगा। आप अनाज डाल दिया करें। जब मेरी मर्जी आएगी और भैया जी या ताऊ जी घर में नहीं होंगे तो चुपके से अनाज ले जाया करूँगा।
सौ घरों में ऐसे मिट्टी के घड़े रख दिए। एक-एक मुट्ठी अनाज आने लगा। महीने भर में सारा अनाज इकट्ठा हो गया। जब सारा अनाज इकट्ठा हो गया तब उसने देखा कि सौ घरों में एकत्र मुट्ठी-मुट्ठी अनाज कितने दाम का हो सकता है तो पता चला कि वह 30 रुपये का होता है। उस समय मंदी के जमाने की बात है उस जमाने में मिडिल क्लास अध्यापक 5-5, 6-6 रुपए महीने मिल जाते थे। उन्होंने दस-दस रुपये के तीन अध्यापक रख लिए। उनसे कहा—गाँव में सारे बच्चे पढ़ेंगे—बेटियाँ पढ़ेंगी। लड़कियों के लिए अलग, लड़कों के लिए अलग। 50-50 बच्चों के हिसाब से 100 बच्चे पढ़ने लगे। एक अच्छा स्कूल खड़ा हो गया। कहाँ से स्कूल चलता है? खर्च कैसे कौन करता है? करता है—केशवानन्द। पहले उसका नाम कुछ और था, बाद में केशवानन्द नाम रख लिया। केशवानन्द ने इस तरह से प्राइमरी स्कूल का शिक्षण शुरू किया। एक दिन गाँव में गया और कह गया—माताजी हम जो भीख माँगते थे, वास्तव में ईमानदारी की बात यह है कि हम स्कूल के लिए माँगते थे। स्कूल और हम तो एक ही हैं। हमें मत दीजिए, हम तो हाथ-पैर चलाकर अपना गुजारा कर लेंगे, पर आप स्कूल के लिए दिया कीजिए। यह जो घड़ा है जब भर जाएगा तब एक आदमी इसे ले जाया करेगा और आप यह समझ लेना कि आप केशवानन्द को दे रही है। वास्तव में यह स्कूल के लिए है इससे और भी स्कूल खुलेगा। शेखावटी के सारे गाँवों में केशवानन्द घूमा और साठ के साठ गाँवों में स्कूल खुलवा दिए और गाँव के सब बच्चों को पढ़ने का इन्तजाम कर दिया।
साथियो! मैं क्या कह रहा हूँ? मैं अध्यात्म की बात कह रहा हूँ। अध्यात्म को ही भजन कहते हैं क्या? चल हट। भजन तो इसका कलेवर है। भजन तो इसकी लाश है। भजन इसका लिफाफा है। लिफाफे के अन्दर क्या हुआ कि स्वामी केशवानन्द ने सौ गाँव के अन्दर करीब अस्सी प्राइमरी स्कूल खुलवा दिये। जब विद्यार्थी ज्यादा हो गये और आगे की पढ़ाई करने के इच्छुक हो गये तो उसने उन्हीं सब गाँवों से व्यवस्था बनाकर उसकी भी पूर्ति कर दी। तब तक लोग भी समझदार हो गए थे। श्रद्धा भी करने लगे थे। उन्होंने मिडिल स्कूल बनवा दिए मिडिल स्कूल की पढ़ाई पूरी हो गई तो हाईस्कूल बनवा दिए। इसके बाद में कॉलेज बनवा दिए। अगर संगरिया, बीकानेर में कभी आप गए हों तो वहाँ बीकानेर जिले में संगरिया नाम का गाँव है। संगरिया गाँव में सात कॉलेजों का एक यूनिट बना हुआ है, जिसमें लड़कियों की एम. एस-सी. तक पढ़ाई होती है। उसमें कॉमर्स वाले विभाग हैं, साइंस वाले विभाग हैं, उसमें कितने टीचर्स-ट्रेनिंग वाले विभाग हैं? सात कॉलेज हैं वहाँ जिस तरीके से हीरालाल शास्त्री को टेलीफोन किया गया था उसी तरह जब स्वराज्य हुआ तब पुरुषोत्तम दास टंडन, जो कांग्रेस के प्रेसीडेण्ट थे, उन्होंने स्वामी केशवानन्द के नाम फोन मिलाया और कहा—हम स्वामी केशवानन्द से बात करना चाहते हैं। कहिए क्या बात है? आपको उस डिवीजन से शेखावटी डिवीजन से पार्लियामेण्ट के मेम्बर के लिए खड़ा होना चाहिए। काँग्रेसी होने के नाते मैं आज्ञा भी नहीं मान सकता और मैं खड़ा भी नहीं होना चाहता तो उन्होंने ऐसे अड़ंगे अटकाना शुरू कर दिया जिससे कि उनकी बात भी रह जाए और वे खड़े भी न हों और जाकर मना भी न करें। ऐसे अड़ंगे अटकाना शुरू कर दिया। क्या अड़ंगा अटकाया? एक तो मैं किसी के पास वोट माँगने नहीं जाऊँगा। अच्छा साहब, मंजूर है। दूसरा मैं खड़ा होना नहीं चाहता। एक अड़ंगा यह अटकाया कि मेरे मुकाबले में कोई खड़ा हो गया तो मैं खड़ा नहीं होऊँगा। अपना पर्चा वापस ले लूँगा। खड़े होने पर हम कैसे रोक सकते हैं, नहीं साहब खड़ा हो गया तो हम नहीं खड़े होंगे। स्वामी केशवानन्द खड़े होना नहीं चाहते थे। पुरुषोत्तम दास टंडन ने कहा जो होगा सो देखा जाएगा। आप अपना पर्चा दाखिल कर दीजिए। पर्चे कई और आदमियों ने दाखिल कर दिए। शेखावटी डिवीजन के जाटों ने कहा आप हमारे स्वामी जी के मुकाबले में खड़े होंगे तो आपको हमारी गाँव की सीमा में से होकर निकलना मुश्किल हो जाएगा। सबने अपने नाम वापस ले लिये। सारे के सारे शेखावटी डिवीजन जिसमें कि जाट ही जाट भरे हैं। जब उन्होंने कहा का आप हमारे स्वामी जी के मुकाबले में खड़े होंगे और जब इतनी लाल-लाल आँखें एक साथ निकलीं तो काँपते हुए उन्होंने पर्चा वापस ले लिया। स्वामी जी पार्लियामेण्ट के मेम्बर हो गए। पाँच साल के लिए मेम्बर हो गये। दूसरी बार पाँच साल के लिए मेम्बर हुए।
तीसरी बार पाँच साल के लिए मेम्बर हुए। चौथी बार भी पार्लियामेण्ट के वे ही मेम्बर थे और तब तक रहे जब उनका एक्सीडेंट हो गया, जीप की चपेट में आकर और उनकी मृत्यु हो गई। यहाँ शान्तिकुञ्ज भी वे आए थे, जब मैं हिमालय चला गया था। उन्हें पता चला कि आचार्य जी बाहर चले गए, तो उन्होंने माता जी से कहा—आपने रोका नहीं आचार्य जी को। वे हिमालय चले जाते हैं और यहाँ का काम पड़ा है। उन्होंने कहा स्वामी जी, आप नाराज न हों वे थोड़े दिन के लिए गए हैं, फिर आ जाएँगे और फिर काम करेंगे। हाँ, तो थोड़े दिन के लिए जाने में कोई हर्ज नहीं है। चले तो नहीं गए हैं। नहीं चले नहीं गए हैं। स्वामी जी आपको किसी बात की दिक्कत है, परेशानी है। नहीं हमें कोई परेशानी नहीं है। आपकी कृपा है, यहाँ कोई दिक्कत की बात नहीं है। इस तरह व्यक्तित्व था स्वामी केशवानन्द का।
वे कितने दबंग आदमी थे इसे इस बात से जान सकते हैं आप। राजस्थान गवर्नमेण्ट के शिक्षा विभाग में वे एक दिन पहुँच गए। उन्होंने कहा—तुमने आचार्य जी की पुस्तकें पढ़ी हैं। हमें तो मालूम नहीं, कौन आचार्य जी हैं? तुम्हें क्यों मालूम पड़ेगा, तुम्हारे यहाँ पर तो खुशामदी और चापलूस आ जाते हैं और उनकी ही बात तुमको मालूम पड़ती है। तुम किसी आदमी से सी. आई. डी. से यह पता लगा लेते हो कि डाकू कौन है और चोर कौन है, परन्तु यह पता नहीं लगा सकते कि इसमें भला आदमी कौन है और इसमें विद्वान कौन है? आपको पता लगाना चाहिए था और आचार्य जी का साहित्य आपको मँगाना चाहिए था। आप ही बताइये साहब, हमने तो कभी देखा भी नहीं है कि आचार्य जी का साहित्य कैसा हैं? उन्होंने सारे के सारे स्कूल एवं कॉलेज की लाइब्रेरियों, शिक्षण-संस्थाओं में हमारे साहित्य को रखने की सिफारिश की। किस-किस को लाइब्रेरियों से लेकर राजस्थान गवर्नमेण्ट के शिक्षामंत्री तक से कहा और हमारे यहाँ गायत्री तपोभूमि एवं अखण्ड-ज्योति कार्यालय में भी चिट्ठी लिखी कि जहाँ कहीं भी किताबों के आर्डर आएँ आप भेज दीजिएगा, पैसा मैं वसूल करके भेज दूँगा, पैसे की जिम्मेदारी मेरी। जितने भी उनके आर्डर आये हमने भेज दिए। मैं सोचता हूँ कि शायद साठ-सत्तर हजार रुपए के मनीआर्डर आए होंगे हमारे यहाँ पर। जो भी साहित्य था पुराना-धुराना, नया बचा-खुचा, सब स्वामी जी ने साफ करा दिया और सत्तर हजार रुपया राजस्थान गवर्नमेण्ट से वसूल कराकर हमें भिजवा दिया। वे बड़े दबंग आदमी थे। स्वामी केशवानन्द ने एक बार कहा था कि राजस्थान गवर्नमेण्ट ने मुझसे यह कहा कि आप तीस लाख रुपया अगर इकट्ठा कर दें तो हम आपके सांगरिया के यूनिट को विश्वविद्यालय बनवा देंगे, तो मैं जाने वाला हूँ कलकत्ता और वहाँ से तीस लाख रुपया इकट्ठा करके लाऊँगा और फिर विश्वविद्यालय बनवाऊँगा। पर इसी बीच उनका स्वर्गवास हो गया।
यह किनकी बात कर रहा हूँ? स्वामी केशवानन्द की बात कह रहा हूँ। मैं पारस की बात कह रहा हूँ। पारस किसे कहते हैं? पारस उसे कहते हैं जो आदमी के जीवन का कायाकल्प कर दे। कायाकल्प हो गया? हाँ एक बिना पढ़े-लिखे जाट का कायाकल्प हो गया। मैं उसी की बात कह रहा हूँ जो पार्लियामेण्ट का मेम्बर ही नहीं, सारी की सारी शेखावटी का हृदय सम्राट था। यह हो सकता है? हाँ हो सकता है। शर्त केवल यही है कि अध्यात्म आपके पास हो। पारस आपके पास न हो तब? पारस नहीं है तब बेटे मैं नहीं जानता। लेकिन अध्यात्म के बारे में मेरा विश्वास है कि असली अध्यात्म का अगर किसी ने स्पर्श किया होगा तो उसकी हैसियत गई-गुजरी नहीं रह सकती। तब उसकी हैसियत ऊँची होनी चाहिए, बढ़िया होनी चाहिए। बेटे, पारस के और किस्से सुनाऊँ? हाँ गुरुजी। सुना दीजिए।
एक मराठा बालक ऐसे ही जानवर चराता हुआ घूमता-फिरता था। एक दिन एक स्वामी जी आये और उसकी बाँह पकड़ ली। उसने पूछा—क्या बात है महाराज जी? उन्होंने कहा—बेटे हम तुझे राजा बनाना चाहते हैं। हमें राजा बनाना चाहते हैं आप? हाँ आपको ही बनाना चाहते हैं। पर हम तो जानवर चराते हैं। बिना पढ़े-लिखे हैं। फिर आप हमें राजा कैसे बना देंगे? राजा बना देंगे तो बना दीजिए, फिर बातचीत हुई। उन्होंने कहा—आपको असली अध्यात्म के सम्पर्क में आना पड़ेगा, पारस के सम्पर्क में आना पड़ेगा, पारस के सम्पर्क में आना पड़ेगा। पारस क्या हो सकता है? यह मैं थोड़ी देर में बताऊँगा। कि पारस क्या हो सकता है? पारस छूना स्वीकार करा लिया समर्थ गुरु रामदास ने। उस मराठा बालक से उन्होंने कहा—आप आज से छत्रपति शिवाजी होंगे। छत्रपति शिवाजी हो गए। छत्रपति शिवाजी होकर जो रोल अदा किया वह एक अनोखा रोल है। बेटे, हिन्दुस्तान की आजादी दिलाने की शुरुआत जहाँ से होती है, वह छत्रपति शिवाजी से प्रारंभ होती है और खत्म कहाँ होती है? खत्म वहाँ होती है, जहाँ सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज थी। बीच में कई बार सत्याग्रही आ जाते हैं, काँग्रेसी आ जाते हैं और लोग आ जाते हैं। क्रांतिकारी आ जाते हैं, लेकिन आजादी की लम्बी लड़ाई वहाँ से शुरू होती है, जहाँ से शिवाजी का उदय होता है।
ये कौन-सी बात है शिवाजी की? शिवाजी की नहीं है और न ही समर्थ गुरु रामदास की बात है। उपासना का तत्त्वज्ञान और फिलॉसफी मैं समझाऊँगा आपको थोड़ी देर में कि उपासना क्या हो सकती है और अध्यात्म क्या हो सकता है? अभी तो यह बताता हूँ कि पारस किसे कहते हैं? पारस उसे कहते हैं जिसके स्पर्श से जो चीज जैसी हो, वैसी न रहकर के बेशकीमती हो जाए। लोहा कम कीमत का होता है। पारस को छू करके बहुत कीमत का हो जाता है। कम कीमत की चीज जब बेशकीमती हो जाए, जिस तरीके से उस तरीके का नाम है पारस तो कोई और उदाहरण बताइये? अच्छा एक और उदाहरण बता सकते हैं। एक छोटा-सा बच्चा घूम रहा था। बच्चे को एक स्वामी जी ने पकड़ लिया और कहा कि आपको हम चक्रवर्ती शासक बनाना चाहते हैं। चक्रवर्ती तो क्या, वह एक छोटे-से इलाके का राजा था। छोटे-से इलाके का राजा था वह लड़का जिसको उन्होंने कहा कि आपको तो मैं चक्रवर्ती बनाऊँगा। चक्रवर्ती बनाना चाहते हैं आप, परन्तु हमें कैसे बना सकते हैं? हम तो गद्दी पर ही नहीं बैठ सकते। हम तो अछूत हैं। अछूत नहीं था वह। क्या था? वह था चन्द्रगुप्त मौर्य। मौर्य किसे कहते हैं। मौर्य, बेटे नाई जो हजामत बनाने वाले होते हैं। इन्हीं मे से राजा की एक रखैल थी। उनके पेट में से चन्द्रगुप्त मौर्य पैदा हुए थे। राजा-रानी के पेट में से पैदा नहीं हुआ था वह। उस जमाने की परम्परा में यह कोई अनहोनी बातें नहीं थीं। पुराने-जमाने की परम्परा में ऐसा था कि जो राजपूत होते थे, सवर्ण होते थे, वही गद्दी पर बैठते थे। अछूतों को गद्दी पर नहीं बैठने देते थे। इसी कारण से चन्द्रगुप्त भी कह रहा था कि हमको आप चक्रवर्ती कैसे बनाएँगे, हमको तो गद्दी पर भी बैठने का अधिकार नहीं है। नहीं तुम्हारा अधिकार है और हम बना देंगे। चाणक्य ने क्या कर डाला? चन्द्रगुप्त मौर्य को सम्राट बना दिया। वह केवल सम्राट ही नहीं हो गया, वरन् इतना बड़ा चक्रवर्ती शासक हो गया जितना कि हिन्दुस्तान की तारीख में इतने बड़े नक्शे हैं, जी और कहीं दिखाई नहीं पड़ते, जितने कि उसके हैं। बहुत बड़ा भारत कहते हैं। बृहत्तर भारत कहाँ तक और कितना फैला हुआ था? वहाँ तक फैला हुआ था बृहत्तर भारत, जितना कि संसार में सबसे बड़ा कोई दूसरा देश हुआ ही नहीं इतिहास में। इतिहास से पहले की बात मैं नहीं कहता। आधुनिक इतिहास की बात कहता हूँ कि इतिहास में सबसे बड़ा साम्राज्य बृहत्तर भारत था। इसमें अफगानिस्तान भी आता था, इसमें मध्य एशिया के बहुत से इलाके भी आते थे। ये किसका राज्य था? चन्द्रगुप्त मौर्य का। महाराज जी! चन्द्रगुप्त मौर्य को चक्रवर्ती कैसे बना दिया? कहाँ पढ़ा था वह? क्या-क्या किया था उसने? पैसा कहाँ से लाया था? बेटे, हम नहीं जानते कहाँ से लाया था। लेकिन हम यह जरूर जानते हैं कि चाणक्य ने इतना बड़ा रुतबा उसे प्रदान कर दिया था। चाणक्य एक व्यक्ति का नाम है और चन्द्रगुप्त एक व्यक्ति का नाम है, परन्तु चमत्कार सिद्धान्तों पर टिका हुआ है, आदर्शों पर टिका हुआ है। इन्हीं आदर्शों और सिद्धान्तों के आधार पर चाणक्य स्वयं इतना महान बनता हुआ चला गया और चन्द्रगुप्त को भी महान बना दिया।
अच्छा साहब! और उदाहरण बताइए? बेटे मैं और बता सकता हूँ, जिनका कि काया-कल्प हो गया। काया-कल्प किनका हो गया? विवेकानन्द छोटी-सी नौकरी माँगने की हैसियत से रामकृष्ण परमहंस के पास गये। वहाँ कहने लगे हमारे पिताजी की मृत्यु हो गयी है आप हमको कहीं सलैक्ट करा दीजिए। कहीं कोई एल. डी. सी. की पोस्ट दिला दीजिए। वहाँ सौ रुपए की तनख्वाह मिल जाए और भाई-बहनों का हम पालन कर सकें। माँ विधवा हो गई है और हम भाई-बहन रह गए हैं। पेट पालना मुश्किल है। रामकृष्ण ने कहा—जा इस काली के पास जा उसी से माँग ले। विवेकानन्द ने काली को देखा। विकराल काली जमीन से आसमान तक छाई हुई थी। काली महानता को कहते हैं। महानता को देखा है आपने कभी? आपने महानता को कभी नहीं देखा है। आपने पत्थर का खिलौना भर देखा है और उसी पर टनाटन घण्टी बजाते रहते हैं। वह काली देखी ही नहीं, वह गायत्री देखी ही नहीं, जो जमीन से लेकर आसमान तक मानवीय महानता के रूप में, सिद्धान्तवादिता के रूप में, आदर्शवादिता के रूप में जीभ लपलपाती और आग की तरीके से जलती हुई दिखाई पड़ती है। विवेकानन्द ने इस काली को देखा और उसे देखकर काँप गए। परमहंस के पास आए उन्होंने कहा—काली के पास आए तब तुम्हें कुछ और बना देते हैं। अब हम आपको बदल देते है। बदल देने के बाद में मनुष्य की सामान्य समस्याएँ बाकी रह जाती हैं क्या? नहीं सामान्य समस्याएँ क्या बाकी रह जाएँगी? पेट पालने की समस्या? अरे बाबा, पेट पालने की समस्या भी कोई समस्या है क्या? कीड़े अपना पेट पाल लेते हैं, मच्छर पाल लेते हैं, मक्खी पाल लेती है। कुत्ते पाल लेते हैं, चिड़ियाँ पाल लेती हैं। फिर तेरे सामने क्या आफत है? नहीं साहब, पेट पालना बड़ी समस्या है। पेट पालना कोई समस्या नहीं है। पेट किसी के पास ज्यादा तो नहीं है। मेढक कहाँ तक पढ़ा है। मेढक ने बी. ए., एम. ए. किया है क्या? नहीं साहब, एम. ए. पास तो नहीं किया। तो कहाँ से आती है तनख्वाह? तनख्वाह यहीं तालाब में से आती है। मछली तालाब में से आ जाती है पकड़ लेता हूँ खा जाता हूँ। कीड़े पकड़ लेता हूँ खा जाता हूँ। चिड़ियाँ पेट पाल लेती हैं, मेढक पेट पाल लेता है। नहीं साहब नौकरी कहाँ से लगेगी? तेरे सिर से, छोटा आदमी केवल पेट पालने की चिन्ता में ही डूबा रहता है।
मित्रो! रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को छुआ और छूने के बाद जाने क्या बना दिया, कितना विशाल बना दिया, जो नौकरी पाने के लिए आया था। विदेश से घूम करके विवेकानन्द आया तो कलकत्ते की सड़कों पर उसका जब जुलूस निकाला गया—हाईकोर्ट के जज और सीनियर एडवोकेट लोग आए। उन्होंने कहा—विवेकानन्द की गाड़ी में घोड़ों को लगाने की जरूरत नहीं है, घोड़ों का काम हम कर सकते हैं। विवेकानन्द का जब जुलूस निकला, तब उसमें जज भी शामिल थे और दूसरे लोग भी शामिल थे। कलकत्ते के संभ्रांत नागरिक उस जुलूस में उस बग्घी को खींचते हुए चले गए थे। विवेकानन्द बहुत बड़े आदमी थे, मैं कल कह चुका था। कन्याकुमारी पर उनका दो करोड़ रुपए का भव्य स्मारक बना हुआ है। रामकृष्ण परमहंस की कल मैं चर्चा कर चुका हूँ। वेलूर मठ जो उनने एक गुरु के नाम पर बनाया था, गजब का है।
मैं क्या कह रहा था? बेटे, मैं पारस की बात कह रहा था। पारस उसे कहते हैं जिससे आदमी की शक्ल बदल जाए। आदमी की सूरत बदल जाए। नहीं सूरत नहीं बदल जाता, आदमी की प्रकृति बदल जाती है। स्तर बदल जाती है, अगर असली अध्यात्म आए तब। नकली अध्यात्म आए तो नकली की तो बात ही नहीं। नकली का तो मैं जिक्र ही नहीं करता। नकली का अगर मैं जिक्र करता तो आपको तो नहीं, पर मुझे भी शरम आ जाती। मंदिरों में पूजा करने वाले एक लाख के करीब पुजारी हिन्दुस्तान में हैं। सब क सब सबेरे से शाम तक ठाकुर जी को भोजन कराते हैं। कभी हजामत बनाते हैं। कभी चाय पिलाते हैं, कभी ब्रेकफास्ट कराते हैं, कभी पंखा झलते हैं। जैसे गरीब भगवान वैसे ही गरीब पुजारी। पुजारी बेचारे को न रोटी खाने को मिलती है, न कपड़ा पहनने को मिलता है। पुजारी भी और ठाकुर जी भी बीमार। पुजारी भी भूखा बैठा है, ठाकुर जी भी भूखे बैठे हैं। दोनों की ही एक-सी हालत है, दोनों ही फटेहाल हैं। ठाकुर जी का भी कुर्ता फटा हुआ है और पुजारी जी का भी कुर्ता फटा हुआ है। पुजारी भी कच्ची रोटी खा रहे हैं और भगवान जी भी कच्ची रोटी खा रहे हैं। मकड़ी का जाला भगवान जी के कमरे में छाया हुआ है और पुजारी जी के भी घर में छाया है। दोनों की एक-सी हैसियत है। यही अध्यात्म है क्या? बेटे! नहीं, यह अध्यात्म नहीं है। अध्यात्म कहीं होता तो आग की तरीके से जलता रहता, सूरज की तरीके से चमकता रहता और सोने की तरीके से जगमगाता रहता। असली अध्यात्म सिखाने वालों को मैं कुछ नहीं सिखाना चाहता।
असली अध्यात्म वह है जिसको छूकर आदमी पारस बन सकता है। असली अध्यात्म उस चीज का नाम है, जिसको पी करके आदमी अमर हो सकता है। अमर होने वाली चीज का नाम है—अमृत। अमृत, गुरु जी ऐसा होता है क्या? अमृत मेरे ख्याल से ऐसा तो नहीं होता है। क्यों? अगर इस दुनिया में अमृत होता और थोड़े-से भी आदमियों को भी पीने को मिल जाता तो वे जिन्दा बने रहते। जिन्दा होने के बाद मरने का नम्बर नहीं आए और नए बच्चे पैदा होते रहें तो फिर दुनिया में इतनी घिच-पिच हो जाएगी कि रहने लायक कहीं जगह नहीं मिलेगी।
अमृत कहीं नहीं है। अमृत अगर दुनिया में होता तो मुसीबत हो जाती। अमृत है दुनिया में, परन्तु वह दूसरा अमृत है। किस चीज का नाम है? अमृत बेटे, अध्यात्म को कहते हैं। अध्यात्म अमृत को कहते हैं। अध्यात्म का अमृत अगर हमारे भीतर आ जाए तो फिर हम क्या होते? तो फिर हम अजर-अमर हो सकते हैं। फिर हमको कोई मार नहीं सकता। कोई नहीं मार सकता? नहीं कोई नहीं मार सकता। देखिए ध्रुव जो है, आसमान में टँगा हुआ है। यह मरेगा? नहीं, यह नहीं मर सकता। सारे ग्रह परिक्रमा करते हैं, सूर्य-मण्डल की परिक्रमा करते हैं और यह आसमान में टँगा हुआ है। सात ऋषि आसमान में टँगे हुए हैं तो क्या मर गए ऋषि? मर नहीं सकते ऋषि। अध्यात्मवादी मरता नहीं है। अध्यात्मवादी की मृत्यु नहीं हो सकती। प्राण की दृष्टि से भी और कीर्ति एवं यश की दृष्टि से भी। वह कभी मर नहीं सकता। सातों ऋषि टँगे हुए हैं आसमान में वे अमर हैं।
कौन-कौन टँगा हुआ है? जमीन वालों के नाम बताइए? जमीन वालों के नाम बताता हूँ—अभी। बताइए एक-आध का नाम? चलिए मैं औरों के नाम बता सकता हूँ जैसे राजा हरिश्चन्द्र का। गुरु जी! हरिश्चन्द्र जो थे वे तो मर गए। नहीं, बेटे मेरे ख्याल से वे मरे नहीं हैं। गाँधी जी सबसे पहले जब राजा हरिश्चन्द्र का एक बार ड्रामा देखने गए, तब उनकी उम्र थोड़ी-सी रही होगी, नौ-दस साल के रहे होंगे तो उन्होंने राजा हरिश्चन्द्र जी का ड्रामा देखकर यह कहा कि हम भी राजा हरिश्चन्द्र होकर उनकी जैसी जिन्दगी जियेंगे और वे हरिश्चन्द्र होकर ही जिए। उन्होंने कहा—सत्याग्रह का—सत्य का ही जीवन जियेंगे। चाहे नफा हो चाहे नुकसान हो। जीवन जीते-जीते वे हरिश्चन्द्र बन गए। उनका गुरु कौन था? गाँधी जी का गुरु बेटा हरिश्चन्द्र था, जिसने दीक्षा दी थी जब वे ड्रामा देख रहे थे। हरिश्चन्द्र तो मर गए? नहीं बेटा हरिश्चन्द्र मर नहीं सकते। यह तो एक गाँधी का मैंने तुझे हवाला दिया, पर न जाने कितने गाँधी बनाये होंगे उन्होंने। अनीति की राह चलने वालों का उन्होंने हाथ पकड़ लिया होगा। हरिश्चन्द्र ने कहा होगा—अरे! हम भी तो एक थे। जो सत्य के लिए अपने बीबी-बच्चों को बेच चुके थे और एक तू है दुष्ट कि तेरे पास खाने को भी है, गुजारे को भी है और तू अपना ईमान डिगाता फिरता है। हरिश्चन्द्र ने न जाने कितने आदमियों को गाल में चपत मारी होगी? कितने आदमियों को सिखाया होगा? मर गया? मर नहीं सकता हरिश्चन्द्र। और कौन-कौन नहीं मरा? बेटा, मेरे ख्याल से भगीरथ भी नहीं मरे। भगीरथ कौन से थे? भगीरथ तप करने के लिए चले गए और गंगा जी को लेकर आए। गंगा जी आने को जब तैयार हो गईं तो उन्होंने भगीरथ से कहा—मैंने आपकी बात तो माल ली, पर एक बात आप हमारी भी मान लीजिए। तो भगीरथ ने कहा आप बताइये तो सही हम मान लेंगे। गंगा जी ने कहा—आज से आप हमारे बाप और हम आपकी बेटी। माता जी आप ये क्या कहती हैं? आप तो स्वर्गलोक से आयी हैं, तरण-तारिणी हैं, सबका उद्धार करती हैं। ठीक है, उद्धार करते हैं, पर उस व्यक्ति का जिसके भीतर अध्यात्म होता है। वह गंगा से भी बड़ा है। मैं आपकी बेटी रहना चाहती हूँ। उसी दिन से गंगा का नाम भगीरथ पड़ गया। भगीरथ की बेटी का नाम भगीरथी। जनक की बेटी का नाम जानकी। गंगा जी के बाप का नाम भगीरथ। भगीरथ तो एक इनसान था? हाँ बेटे इनसान था। गंगा जी तो देवता है। ठीक है और वह स्वर्गलोक से आई थी। ठीक बात है ये कि उस भगीरथ ने अध्यात्म को छुआ था। अध्यात्म किसे कहते हैं? बेटा मैं यही कह रहा था। उपासना किसे कहते हैं? मैं यही बता रहा था। अगर आप इतना समझ जाएँ तो ये शिविर हमारा सार्थक हो गया और अगर यह समझ न आए तो आज तक का शिविर और आपका भजन गड्ढे में चला गया और भविष्य में भी जो उपासना-भजन करेंगे सब बेकार जाने वाले हैं। अब तक जो भी पढ़ा-पढ़ाया है वह धूल के बराबर है।
असली अध्यात्म किसे कहते हैं? असली अध्यात्म वह है, जिसमें कि इनसान भगवान के नजदीक चला जाता है और नजदीक चले जाने के बाद में उसकी विशेषताओं को ग्रहण कर अपने भीतर हृदयंगम कर लेता है और समा लेता है। चलिये भगवान की दो विशेषताएँ मान लेते हैं। वैसे तो बहुत-सी विशेषताएँ हैं, पर दो मान लेता हूँ। एक विशेषता यह है कि भगवान निर्मल है। उस पर कोई मलिनता नहीं है। हम यह प्रयत्न करें कि हमारे जीवन में से मलीनताएँ धुलती हुई चली जाएँ। यह मलीनताएँ ही हैं जो हमको आगे नहीं बढ़ने नहीं देतीं। कौन रोकता है हमको? कोई नहीं रोकता हमें। ये कषाय और कल्मषों का पर्दा है, जिसने हमारे व हमारे भगवान के बीच में दरार की तरीके से, दीवार के तरीके से खड़ा हो गया है। इसी को तोड़िए। भगवान की प्रार्थना करेगा। काहे की प्रार्थना करेगा तू भगवान को बुलाऊँगा। भगवान की बात सुनूँगा। तो तुझे सुनाई नहीं पड़ता क्या? दिखाई नहीं पड़ता क्या? नहीं महाराज जी मुझे तो दिखाई नहीं पड़ता। देख, अपने सीने पर हाथ रखकर, देख-कौन बोल रहा है? इसके भीतर एक शंकर भगवान का डमरू बजता है। डम-डम, लप-डप, लप-डप। ये कौन बोल रहा है? ये शंकर भगवान बोल रहे हैं। कहाँ बैठा हुआ है? ये हृदय में बैठा हुआ है। दिखाई नहीं पड़ता क्या? नहीं महाराज जी, मुझे तो दिखाई नहीं पड़ता। आँखें खोल और ईमान के रूप में, सदाचारिता के रूप में, उत्कृष्ट आदर्शों के रूप में जो भगवान बैठा है, उसे देख। अपनी नाक की ओर ध्यान दे। इसमें श्रीकृष्ण भगवान की बाँसुरी बजती है। कैसी सुन्दर बजती है? कहाँ बजती है? किसकी बजती है? भगवान की बेटे। नाक के ये जो दो सुराख हैं, इसमें से कृष्ण भगवान की बाँसुरी बजती रहती है। इसे तू सुन। महाराज जी मैं कैसे सुनूँ? क्या करूँ? बेटे, मलीनताओं को जब तक धोएगा नहीं, कषाय-कल्मषों को जब तक शुद्ध नहीं करेगा, अपने आपको परिष्कृत नहीं करेगा, अपने गिरेबान में मुँह नहीं डालेगा, अपने दोषों पर ध्यान नहीं देगा, दुर्गुणों की ओर ध्यान नहीं देगा तब तक ये दीवार खड़ी रहेगी। भगवान् तुझसे हजार मील दूर रहेगा और तू भगवान से हजार मील दूर रहेगा।
कस्तूरी हिरण की नाभि में छिपी होती है, पर वह उसे बाहर तलाश करता-फिरता है भीतर नहीं तलाश करता। इसी तरह तू भीतर जब तलाश करेगा तो तेरी सुगन्धि का ठिकाना नहीं रहेगा। शुद्ध जीवन, पवित्र जीवन, परिष्कृत जीवन यदि किसी के पास है तो, मैं कहता हूँ कि उसके पास अध्यात्म है। अध्यात्म का शिक्षण-अध्यात्म का उपदेश यही है। अध्यात्म का सारे का सारा शिक्षण इस बात पर टिका हुआ है कि आदमी अपने आपको धोए उन मलीनताओं को धोए, कुसंस्कारों को धोए। अपनी आकांक्षाओं को धोए, अपनी क्रियाशीलता को धोए, अपनी धारणाओं को धो करके स्वच्छ और निर्मल बनाये। राजहंस के तरीके से जैसे गायत्री माता का वाहन हंस है, धुला हुआ हंस, नीर-क्षीर विवेक करने वाला हंस-मोती चुगने वाला हंस, पवित्र जीवन जीने वाले हंस की तरह यदि आप हैं तो मैं आपसे वादा करता हूँ कि आपके लिए मैं गायत्री माता को बुला करके ला दूँगा। यह काम आप मेरे जिम्मे सौंप दीजिए। बेटे, भगवान यहीं आएगा। भगवान से मेरी जान-पहचान है। भगवान को मैं जबरदस्ती पकड़ करके ले आऊँगा। बेटे, यदि तू मेरे ऊपर विश्वास करता है तो मैं तुझे विश्वास दिला सकता हूँ कि भगवान यहीं आयेगा, बस एक काम तू कर दे और एक काम मैं कर दूँगा। क्या काम कर लूँ मैं? एक काम कर अपने आपको मुझे सौंप दे और अपने कषायों को-अपने कल्मषों को, अपने दोषों को, अपनी संकीर्णताओं को और अपनी स्वार्थपरता को धोने का प्रयत्न कर। यह काम तेरा है।
मेरा काम? मेरा काम यह है कि तुम्हारे पास भगवान को ला दूँगा और तेरे पास खड़ा कर दूँगा। नहीं गुरुजी, भगवान के यहाँ जाना पड़ता है, वह तो बड़ी मुश्किल से भी नहीं आते। बेटे, भगवान् से ज्यादा सरलतापूर्वक आने वाली कोई चीज नहीं हो सकती। भगवान तो तलाश करता फिरता है—मारा-मारा फिरता है कि कोई भक्त कहीं से आ जाए तो मैं चला जाऊँ। देख मैं भगवान का कच्चा चिट्ठा खोलकर दिखा सकता हूँ। भगवान बड़ा भूखा है। भगवान बड़ा प्यासा है। मारा-मारा डोलता है। तलाश करता डोलता है भिखारी के तरीके से। शबरी के यहाँ वह भीख माँगने को गया था और कहा था—तेरे पास कुछ खाने को हो तो दे दो। शबरी ने जूठे बेर उन्हें खिलाए थे और कहा था कि तुझे खाना है तो खा ले, मेरे पास तो यही है। भगवान ने कहा—मैं इसी से अपना गुजारा कर लूँगा। वह भूखा फिरता है ढूँढ़ता-फिरता है, कि अगर कोई शबरी जैसी महिला हो तो मैं उसके पास जाऊँ। शबरी किसे कहते हैं? शबरी किसी स्त्री का नाम नहीं है, यह एक फिलॉसफी का नाम है। वह फिलॉसफी जो जंगल में रहकर गरीबी में अपना गुजारा कर सकती है। जो बची हुई जिन्दगी को लोगों के दुःख और कष्टों को दूर करने के लिए खर्च कर सकती हैं। शबरी का एक ही क्रिया-कलाप था—वह मातंग ऋषि के आश्रम में जाने वाली विद्यार्थियों की सड़क को रोज झाड़ती थी, जिससे काँटे उनके पैरों में चुभने न पाएँ। सारी जिन्दगी लोकहित के लिए, लोक-पीड़ाओं को दूर करने के लिए, लोगों के कष्टों में सहायता करने के लिए उसने व्यतीत कर डाली। अगर आप शबरी नहीं हैं तो शबरी होने की कोशिश कीजिए, तो आपका मन उदार हो जाएगा। अगर आप उदार हो जाएँगे तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपके यहाँ भी भगवान इसी तरीके से भीख माँगने आएगा जैसे शबरी के यहाँ आया था।
बेटा, भगवान तो बहुत भूखा है, वह भावनाओं का भूखा है। श्रीकृष्ण भगवान विदुर के घर गये तो उनको विदुर की पत्नी केले के छिलके खिलाती जा रही थी और केले का गूदा जमीन पर डालती जा रही थी। महात्मा विदुर आये तो उन्होंने कहा अरे मूर्ख, ये क्या करती है? भगवान को केले के छिलके खिलाती है और गूदे को जमीन पर डालती जाती है। भगवान ने कहा विदुर आप नहीं जानते मैं क्या खाया करता हूँ और मुझे क्या खिलाया जाता है? केवल प्यार खाता हूँ। न मैं मिठाई खाता हूँ न अमुक चीज खाता हूँ। जिसको भक्ति आप कहते हैं, प्यार कहते हैं, प्यार की व्याख्या बेटे यदि आप जान जाएँ तो आपकी भक्ति धन्य हो जाए। प्यार किसे कहते हैं? प्यार उसे कहते हैं जिसमें कि आदमी अपने प्रेमी के लिए, अपने प्रियतम के लिए अपने को निछावर कर देता है। प्रेम उस चीज का नाम है, जिससे कि हम प्यार करते हैं, उसे सुखी बनने के लिए उसकी मन की इच्छा पूरी करने के लिए हमारे पास जो कुछ भी होता है उसे सौंप देते हैं। माँ अपने बच्चे को प्यार करती है तो प्यार के बदले में अपना सब कुछ सौंप देती है। अगर आप भगवान को प्यार करते हैं तो आपके पास जो कुछ भी है लाकर के भगवान के पास सुपुर्द करें और यह कहें कि ये चीजें हमारे पास हैं और यह हम आपके लिए लाए हैं। प्यार इससे कम में नहीं हो सकता।
नहीं साहब, प्यार तो इसे कहते हैं जिसमें किसी से हम कोई लाभ उठा लेते हैं और उसे चंगुल में फँसाकर हजम कर जाते हैं। हाँ ठीक है, मैं आपके प्यार को जानता हूँ। आप तो सयानी बच्चियों के साथ में ऐसा ही प्यार करते हैं न। साहब हमारा तो प्यार ऐसा ही है। पहले हम प्रेमपत्र लिखते हैं, फिर हम मिठाई भेजते हैं, फिर उसको सिनेमा दिखाने का लालच देते हैं और फिर उसका ईमान खराब कर देते हैं और उसको बेइज्जत कर देते हैं, उसकी जिन्दगी खराब बना देते हैं। उसकी ब्याह-शादी में अड़ंगा लग जाता है और उस बेचारी की सारी की सारी जिन्दगी बेइज्जत हो जाती है। ये कैसा रहा प्यार आपका? नहीं हमारा प्यार ऐसा ही है। हमारा प्यार ऐसा होता है जैसे कि भेड़िये का। भेड़िये का प्यार कैसा होता है? भेड़िया छोटे बच्चे को बहुत प्यार करता है। कैसे प्यार करता है? यह तलाश करता फिरता है कि खरगोश कहीं से मिले तो मैं चटकर जाऊँ। छोटा बच्चा मिले तो बहुत अच्छा, क्योंकि खरगोश के बड़े बच्चे में हड्डियाँ मजबूत होती हैं। भेड़िया छोटे बच्चे को खाता रहता है। प्यार आपका ऐसा ही है ना? हाँ, प्यार में जो कोई भी मिल जाए, उसको हम हड़प कर जाएँ। कौन मिल जाए? साईं बाबा मिल जाए तो उसको मैं साफ खा जाऊँ। कैसे खा जाऊँगा? महाराज जी मैं वह वरदान मागूँगा कि सब हैरान रह जाएँगे। तेरे वरदान को पूरा करने के लिए तू यह नहीं समझता है कि कोई भी चीज दुनिया में फ्री नहीं मिलती। साईं बाबा अगर कोई चीज देंगे तो उन्हें अपना पुण्य और अपना तप खर्च करना पड़ेगा। रामकृष्ण परमहंस आशीर्वाद दिया करते थे और उनके ‘क्रेेडिट’ का ‘बैलेन्स’ बिगड़ गया। गले में कैन्सर हो गया। स्वामी विवेकानन्द ने पूछा—महाराज जी आप जैसे ऋषि और आप जैसे महात्मा-सन्त को कैसे कैन्सर हो गया गले में? उन्होंने कहा बेटे तू जानता नहीं है, मैंने हिसाब रखा नहीं। मैं आशीर्वाद देता चला गया। तप की पूँजी कम पड़ गई, फिर भी मैंने लोगों को दिया। जबान से कह देने भर से आशीर्वाद फलित नहीं होते।
आशीर्वाद को फलित करने के लिए तपस्वियों को अपने पुण्य और तपों की शक्ति खर्च करनी पड़ती है। लोग हमारे यहाँ आँखों में आँसू भर कर आते हैं और बेटे हम उन्हें हँसते हुए और मुसकराते हुए भेजते हैं। महाराज जी आपकी जबान में जादू है, आप तो हर एक को यह कह सकते हैं। नहीं—बेटे, जबान में जादू नहीं है हमारी। हम मेहनत करते हैं और तप करते हैं और जो हम कमाते हैं, अपनी उस कमाई का एक-एक हिस्सा हम बाँट देते हैं। आशीर्वाद नाम की कोई चीज दुनिया में नहीं है। आशीर्वाद-आशीर्वाद की बेकार की बक-बक लगाये हुए हैं। क्या आशीर्वाद होता है? कोई आशीर्वाद नहीं होता। आप कमाइए, हमको दीजिए, हम कमाएँगे आपको आपको देंगे। यह आज की दुनिया का बिल्कुल सीधा-सा कायदा है और नियमित कायदा है और विशुद्ध कायदा है। बाजार में आप जाइए, आपके पास पैसा है तो दूध खरीद लीजिए। आपके पास पैसा नहीं है तो हमसे पैसा ले जाइए और दूध खरीद लीजिए। दुकानदार पैसा लेगा हर हाल में, आपके पास पैसा है तो भी और हमारे पास है तो भी।
सुख प्राप्त करने के लिए मित्रो! क्या हो सकता है? भगवान से आप प्यार करते हैं। नहीं बेटे, भगवान से आप प्यार नहीं करते हैं। प्यार अगर किया होता आपने शबरी की तरीके से तो भगवान आपके यहाँ खुराक माँगने आते। अगर आपने प्यार किया होता तो गोपियों की तरीके से प्यासा भगवान माँगकर यह कहता कि बहिन मेरा तो गला सूख गया है, जरा-सी कोई मुझे छाछ, दे तो मजा आ जाता। गोपियों ने कहा—यह छाछ, फोकट की नहीं है, जरा नाचकर दिखाइए। नाच करके दिखाते थे भगवान आँगन में, तब गोपियाँ थोड़ी छाछ पिलाती थीं। अभी और छाछ पिलाइए, तो फिर दुबारा कीजिए नाच। भगवान नाच करने करने के लिए बड़ा प्यासा है, बड़ा भूखा बैठा है। उसको किसकी जरूरत है? उसे केवल एक चीज की जरूरत है जिसे प्यार कहते हैं और जिसे मोहब्बत कहते हैं और जिसे हम सफाई कहते हैं। स्वच्छता कहते हैं। स्वच्छता और सफाई अगर हमारे जीवन में आ जाए, उदारता अगर हमारे जीवन में आ जाए, पात्रता हमारे जीवन में आ जाए, तो मजा आ जाए।
नहीं साहब! पात्रता की आवश्यकता नहीं है। भगवान से हम यह माँगेंगे, वह माँगेंगे। बेटे पात्रता की बहुत जरूरत है। पाने के लिए पात्रता की जरूरत है। एक आया छोकरा और जा करके किसी मालदार आदमी के पास बैठ गया। मालदार ने कहा—आप आ गए। अच्छा—इनको ले जाना, ठहराना और अच्छी चाय लाना और पिश्ता की बर्फी लाना। वे आ गए, अरे भाई, ये बड़े भले आदमी हैं। एक लड़का वह था जिसके साथ सेठ ऐसे व्यवहार करने लगा। दूसरा लड़का आया शक्ल वैसी ही थी। उम्र उतनी बड़ी थी। सेठ ने कहा अच्छा तो ठीक है, तुम आ गए। अरे मुनीम इन्हें पाँच रुपये दे देना। अच्छा बेटा अभी चले जाओ। पीछे आना। इस वक्त हम जाएँगे। कुछ माँगने आया था—चन्दा-वन्दा। माँगने आया था अतः उसे बैठने भी नहीं दिया। क्यों साहब! सेठ जी यह क्या मामला है? इसको तो आप मिठाई खिलाते हैं, पिश्ते की बर्फी खिलाते हैं। इसको आप ये करते हैं वो करते हैं और दूसरे को भगा देते हैं। आपको मालूम नहीं कि ये मेरा जँवाई है। जँवाई से मतलब यह है कि यह हमारी बेटी की रखवाली करता है। बेटी को खुशहाल रखता है। जो कमाकर लाता है हमारी बेटी को खिला देता है। इसीलिए अपनी बेटी के लिहाज की वजह से हमें इस जँवाई का ख्याल रखना पड़ता है। भक्त क्या है? भक्त है भगवान का जँवाई। भक्त किसे कहते हैं? भक्त कहते हैं भगवान के जँवाई को। उसे पैसा चुकाना नहीं पड़ता है भगवान को? किसलिए चुकाना पड़ता है? इसीलिए चुकाना पड़ता है कि उसकी दुनिया का, उसकी बेटी का पेट भरता है। बेटी की देख−भाल करता है। बेटी को खुराक देता है। जो उसकी बेटी को खुराक देता है भगवान उसकी इज्जत करता है। भगवान उसका सम्मान करता है।
आप तो भक्ति को क्या मान बैठे हैं? खिलवाड़। पूजा में चावल यहाँ रख देंगे, नाक में से हवा निकाल देंगे। घण्टी बजा देंगे। यह खिलवाड़ ही तो करते रहते हैं आप लोग। यह खिलवाड़ क्या है? यह है कला। चलिए अब मैं आपके खिलवाड़ की बुराई करूँगा। यह कला है। कला किसे कहते हैं? कला कहते हैं बाजीगरी को। बच्चे क्या दिखाते हैं? कला दिखाते हैं। ओ हो क्या नाचते हैं। कभी कहते हैं कि मैं तो नाराज हो जाऊँगा और मैं तो ये ले लूँगा। अच्छा तो माँगने से भी मिलती हैं चीजें। हाँ बेटे माँगने से भी मिलती हैं। लेकिन माँगने वाले की सीरत और माँगने की कीमत पर जो मिलती हैं वो बहुत छोटी चीजें मिलती हैं। भिखारियों को आप देख लीजिए हरिद्वार में बैठे रहते हैं और एक-एक रुपया दे जाते हैं और गरीब आदमी आते हैं तो दो-दो सिक्का बाँट देते हैं—फेंक जाते हैं। किसी ने कुछ दिया है उनको तो किसी ने कुछ। सारे दिन मशक्कत करते हैं और जो पाते हैं वह जरा-सी चीज पाते हैं। पेट भरने लायक पाते हैं चाहे बिड़ला सेठ आ जाए तो और चाहे कोई भी आ जाए तो, चाहे दो पैसे देने वाले आ जाए तो। बेचारे सारे दिन मेहनत करते हैं तो पेट भरने तक के लायक पाते हैं और मशक्कत करने वाले? मशक्कत करने वालों ने मकान बना लिया। कोठियाँ बना ली, महल बना लिए और ऊँचे हो गए और अपने बाल-बच्चों के लिए पैसे कमा लिए मशक्कत करने वालों ने।
आध्यात्मिकता के दो तरीके हैं। एक तरीका तो वह है जो भीख माँगने से, नाक रगड़ने के माध्यम से उपयोग किया जाता है। सारी दुनिया उसी के पीछे पड़ी हुई है और कहती है कि माँगने का तरीका बताइए। कैसा तरीका बतावें? तीन ओऽम् लगाने का। अच्छा आप बताइए। दो ओऽम् लगाने का। आप बताइए बीजमंत्र लगाने का। इसका क्या मंत्र है? इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है हाथ जोड़िए तो चवन्नी मिलेगी और यों हाथ जोड़िए तीन रुपये मिलेंगे और यों हाथ जोड़िए तो ढाई रुपये मिलेंगे। हाथ जोड़िए भाईसाहब। श्रीमान् कहिए तो चवन्नी मिलेगी। महोदय जी कहिए तो अठन्नी मिलेगी और ऐसे कह दीजिए तो एक आना मिलेगा। बेकार की बात करता है। कर्मकाण्डों के माध्यम से भगवान को पकड़ने के लिए चले हैं। कर्मकाण्डों का बादलों की तरह महत्त्व है। बादलों की तरह बढ़ाइए मत। जितना है उतना रखिए। प्राण क्या है? चमत्कार क्या है? उसके माध्यम से अभी जो उदाहरण दे चुका हूँ, वह लाभ हो सकते हैं। वही वास्तविक लाभ हैं। हमारा सारा जीवन-क्रम अध्यात्म में समाविष्ट हैं। हमारा जीवन-क्रम वैसा हो जैसा कि भगवान के नजदीक बैठने वालों का होना चाहिए। भगवान् के नजदीक बैठने वालों की इज्जत वैसी होनी चाहिए, जैसी कि भगवान् की है। हमारा चिन्तन और हमारे विचार करने की शैली उसी की तरह की रहनी चाहिए जैसी कि भक्तों में रही है। भक्तों का इतिहास हम देखते हैं प्राचीनकाल से लेकर के अनादिकाल तक तो हमको मालूम पड़ता है कि भक्त किस तरीके से रहे हैं? भक्तों ने अपने जीवन में क्या हेर-फेर किया है। भक्तों के चिन्तन में क्या विशेषताएँ आई हैं? भक्तों के क्रिया-कलाप में और उद्देश्य में क्या फर्क आया है? हम देखते हैं शुरू से लेकर अन्तिम दिन तक। भक्त की हम पहचान देखते हैं और भक्त का लिफाफा? लिफाफे तो कई तरीके के पहने जा सकते हैं। बहरूपिए कई तरीके के लिफाफे पहन लेते हैं। कभी राजा बन जाते हैं। कभी सिपाही बन जाते हैं। कभी औरत बन जाते हैं तो कभी मर्द बन जाते हैं। कई तरीके के लिफाफे पहन लेते हैं।
मित्रो! आज के भक्तों का लिफाफा भी इसी तरह है। कभी इसका लिफाफा, कभी उसका लिफाफा, कभी पीला कपड़ा, कभी हरा कपड़ा। पीले कपड़े से क्या मतलब है? पीले कपड़े से मतलब है त्यागी का होना। सन्त का होना। महात्मा का होना। ज्ञानी का होना। तो आपने पीले कपड़े पहन लिए। बिल्कुल, अब गायत्री माता प्रसन्न हो जाएगी। गुरु जी! गायत्री माता आवेगी तो ये देखेगी कि यह महात्मा बैठा हुआ है और बेटे तेरे पेट में जो टट्टी भरी हुई है वह? वह तो पता ही नहीं चलेगा, गायत्री माता को। बस यही भेष बना लूँगा और तिलक लगा लूँगा और गायत्री माता आयीं और बाहर से देखा वाह! तिलक वाला बाबाजी बैठा हुआ है। सीधे चली आएँगी और पेट का तो उसे मालूम ही नहीं। पेट का तो किसी को पता नहीं चलता। पेट का तो मुझे ही मालूम है या मेरी बीबी को मालूम है। गायत्री माता या शंकर जी तो पागल हैं। हर दर्जे की उन्हें तो केवल बाहर की चीजें दिखायी देनी चाहिए। जीभ चाहे बक-बक करने में लगे हुए हों। हाथ चाहे कोई हेरा-फेरी करने में लगे हुए हों। बस उन्हें कुछ मालूम नहीं चलता। तेरी ईमानदारी का कुछ मालूम नहीं। तेरे चरित्र का तो कुछ पता ही नहीं है। तेरे स्वभाव का तो कुछ पता ही नहीं है। तेरे दृष्टिकोण का तो कुछ पता ही नहीं है। बेटे ये तू क्या कह रहा है? क्यों इसी को उपासना कहते हैं? उपासना तो बेटे, उस चीज का नाम है जिसका कल मैं उदाहरण दे रहा था। गर्मी और सर्दी के पास हम बैठते हैं तो हम गर्म और सर्द हो जाते हैं। भगवान की विशेषताओं के सम्पर्क हम आ जाएँ तो भगवान की विशेषताएँ हममें पैदा होनी चाहिए। हमारे भीतर चारित्रिक पवित्रता पैदा होनी चाहिए। हमारे भीतर करुणा पैदा होनी चाहिए। भगवान की भक्ति इससे कम में न आज तक किसी के पास आयी है और न आएगी।
जिसके भीतर करुणा नहीं आयी, दूसरों के दुःखों को देखकर दर्द नहीं आया, तो फिर भगवान कैसे आ सकता है? मैंने कितनी बार एक कहानी आपको सुनाई है। कौन-सी वाली? नेवले वाली कहानी नेवला सोने का हो गया था। पाण्डवों के यहाँ गया था। कैसे हुआ था? एक ब्राह्मण ने किया था। ब्राह्मण को चांडाल की सात दिन बाद एक रोटी मिली थी तो वह खड़ा हो गया था और चिल्लाने लगा था। हम सात दिन के भूखे लोग हैं, हमसे भी ज्यादा कोई दुःखी हो तो आए और हिस्सा बँटाए। एक चांडाल ने कहा हमने एक महीने से रोटी नहीं खायी है। तो आप आइए पहला हक आपका है, फिर हमारा। एक महीना हो जाएगा तब हम रोटी खाएँगे। आप खा सकते हैं। चांडाल आया था। बेटे और रोटी खा गया था। ये है करुणा। करुणा तेरे अन्तःकरण में है तो मैं वादा कर सकता हूँ कि भगवान को लाकर तेरे चरणों में बैठा दूँगा। चरणों में बैठा देंगे? हाँ चरणों में बैठा दूँगा। चरणों में बैठता रहा है भगवान। सुदामा के पैर धोकर भगवान ने पिए थे और राजा बलि के दरवाजे पर हाथ जोड़कर खड़ा रहता था भगवान और यह कहता था हम 52 अंगुल के हैं और आप 5 फुट 6 इंच के हैं। आप राजा हैं और हम भिखारी हैं और हमें साढ़े तीन फुट जगह चाहिए। साढ़े तीन फुट जगह माँगने को आया था। आप पैदा तो कीजिए करुणा। करुणा है तेरे भीतर? करुणा है नहीं और सवाल पूछता है भगवान से। करुणा किसे कहते हैं? करुणा उसे कहते हैं, जो पीड़ितों को देखकर रो पड़ता है। जो पिछड़े हुए को देखकर रो पड़ता है। रो पड़ने वाला कैसा होता है? रो पड़ने वाला ऐसा होता है जैसे ठक्कर बापा! ठक्कर बापा गाँधी जी के मिशन में काम करते थे। वे भंगियों के मोहल्ले में काम करते थे। भंगियों की दयनीय स्थिति, दुःखियों की दयनीय स्थिति देखकर उनके आँसू आ गए। आँसुओं में डूबकर उन्होंने इन्जीनियरिंग के पद से इस्तीफा दे दिया और भंगियों के मोहल्ले में नौकरी कर ली और उनके साथ-साथ काम करने लगे। बच्चों को पढ़ने से ले करके भंगियों को योग्य बनाने तक काम करने लगे। इसे कहते हैं करुणा। और निष्ठुर? निष्ठुर वह जो आदमी अपनी बीबी के लिए पाँच सौ रुपये की हीरे की अँगूठी खरीदकर लाया है। ये कौन हैं? ये हैं निष्ठुर। और क्या कहता है? आँखों के सामने बुढ़िया खड़ी हुई थी और ये कह रही थी कि हमारी आँखों में मोतियाबिन्द हो गया है, अगर आप पाँच सौ रुपये का इन्तजाम कर दें, हमारे खाने-पीने के लायक, किराये-भाड़े के लायक, तो हम अस्पताल में चली जाएँ और अपनी आँखों का ऑपरेशन करा लें। हमारी आँखों की जो रोशनी खत्म हो गई है, वह फिर से हमारी आँखों में पैदा हो जाएगी। बेटे! बुढ़िया चिल्ला रही थी कि हमें पचास रुपए दीजिए, ताकि हमारी आँखें ठीक हो जाएँ। हम अंधी हो गई हैं। पचास रुपया हम नहीं दे सके। वह बुढ़िया जो हमारे सामने खड़ी हुई थी, जो हाथ पसार रही थी। पचास रुपया अगर आपके पास हो तो आप कृपा कीजिए। हमारी आँखें अच्छी हो सकती हैं। हमने कहा नहीं, आपकी आँखों से हमें कोई सहानुभूति नहीं है। हमें अपनी बीबी के लिए पाँच हजार की अँगूठी बनवानी है। आप कौन हैं? निष्ठुर। पत्थर के बने हुए हैं, स्टील के बने हुए हैं, फौलाद के बने हुए हैं जिसे अपनी ही महत्त्वाकांक्षा, अपना ही लालच, अपना ही लोभ, अपना ही बड़प्पन दिखाई पड़ता है। दुनिया की पीड़ा दिखाई नहीं पड़ती। दुनिया का कष्ट दिखाई नहीं पड़ता। ये आदमी करुणा से रहित हैं जो कहते हैं कि केवल मुझे अमीर बनाइए। मेरे बेटे को इन्कमटैक्स ऑफिसर बनाइए। मेरे लिए हवेली लाइए। मेरे को मोटर दिलवाइए। बस मेरे लिए—मेरे लिए रटता रहता है।
मनुष्य के भीतर जब करुणा आती है, तब वह कहता है कि मैं गलकर रहूँगा, गरीबी से रहूँगा, दुःखियारों की तरीके से रहूँगा और ये मेरे पसीने की बूँद भी है तो मैं खर्च करता हुआ चला जाऊँगा। इसका नाम है—करुणा। मैं कहता हूँ कि अगर करुणा तेरे पास है तो भगवान भी तेरे पास में है। भगवान् आएगा? हाँ बेटे भगवान आएगा। कैसे आएगा? आदमी का इम्तिहान लेने के लिए कि आदमी के भीतर करुणा है कि नहीं। करुणा के कितने सारे उदाहरण हमने आपको सुनाएँ। एकनाथ का एक बार मैं किस्सा सुन रहा था। गधे की कहानी कह रहा था। प्यासे गधे के रूप में भगवान पड़े हुए थे और यह तलाश कर रहे थे कि कोई करुणावान आदमी निकल रहा है कि नहीं। उधर बहुत-से सन्त गए, बाबाजी गए, दूसरे गए, तीसरे गए। जय बोलते चले गए। जय बम भोला की रट लगाते चले गए। शंकर जी पर जल चढ़ाते चले गए। एकनाथ कंधे पर काँवर में गंगाजल लेकर जा रहे थे, उन्होंने गधे को पड़े हुए देखा। गधे ने कहा—हम प्यासे हैं, हमें पानी पिला सकते हो तो पिला दीजिए। संत एकनाथ ने काँवर में से गंगाजल लेकर गधे के मुँह में डाल दिया। गधे ने कहा मुझे अभी और पानी चाहिए। दूसरा घड़ा पीकर गधा उठकर के खड़ा हो गया। उन्होंने कहा—हम ही तो रामेश्वरम् हैं और हम तो भगवान हैं। आप रामेश्वरम् जा रहे थे क्या? हाँ रामेश्वरम् तो हम ही तो रामेश्वरम् हैं। आइए हमसे मिलिए तो सन्त एकनाथ कहने लगे आप तो गधे हैं और बीमार पड़े हुए हैं। गधे मायने वह आदमी जो बौद्धिक स्थिति से गिरे हुए हैं। जिन आदमियों की विचारणाओं को अज्ञानता ने छाप दिया है। उनका नाम है गधा। और प्यासा? प्यासा आदमी वह जो हर दम हारा है, जिनको भौतिक दृष्टि से अभाव और आध्यात्मिक दृष्टि से अज्ञान घेरे हुए हैं। दोनों से जो घिरे हुए हैं, वह गधा अभी भी आपके सामने पड़ा हुआ है और यह कहता है कि आप अपने गंगाजल को हमें पिला सकते हैं क्या? अगर पिला सकते हैं तो मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ भगवान की ओर से कि भगवान आपको छाती से लगाने के लिए तैयार हैं।
आपके पास दया नाम की कोई चीज है क्या? नहीं, दया नाम की चीज नहीं है तो फिर मैं नहीं कह सकता कि भगवान आपको मिलेगा या नहीं। बेटे मैं तो यह कहता हूँ कि दया और उपासना एक ही चीज है। उपासना और दया में कोई फर्क नहीं पड़ता। नहीं, महाराज जी आप तो उपासना का अर्थ यह बता रहे थे कि नजदीक बैठने को उपासना कहते हैं। बेटे, नजदीक बैठने को कहते हैं, पर भगवान के हृदय के नजदीक बैठने को कहते हैं। नहीं, आप तो ये कह रहे थे कि पूजा की चौकी पर जा बैठा करो, उसके नजदीक बैठा करो। अच्छा तो तूने यही मतलब समझा है। शरीर को तू पास बैठा देगा। हाँ महाराज जी, मैंने तो यही समझा कि मन्दिर के पास जाएँगे। उपासना का मतलब पास बैठना—सो मंदिर के पास बैठेंगे। बाहर से भगवान के दर्शन करेंगे तो उतना पुण्य नहीं होगा तो कैसे पुण्य होगा? वृन्दावन में रंग जी के मंदिर में यह कहते रहते थे पुजारी कि आपको भीतर से भगवान के दर्शन करने हों तो 50 रुपये निकालिए। भगवान के पैर छूने हों तो 101 रुपए निकालिए। भगवान को स्नान कराना हो तो 201 रुपए निकालिए। हमने तो समझा था कि उपासना का अर्थ यह होता है कि भगवान के जितने अधिक पास हम चलते चले जाएँगे उतना ही फायदा हमें होगा। नहीं बेटे, ये तेरा ख्याल गलत है। पास बैठने वाले अगर हमारी भावनाओं के नजदीक नहीं हैं, हमारे विचारों के सम्पर्क में नहीं हैं तो उनसे क्या सहानुभूति हो सकती है? अरे, नहीं साहब पास रहने का बहुत फायदा होता है। बेटे, पास रहने का मतलब-भावनाओं के पास रहना होता है। हमने तो ये समझा था कि शरीर का शरीर से नजदीक होना उपासना है। नहीं बेटे, शरीर के नजदीक तो हमारे सिर में जुँए भी रहते हैं और ये तो 24 घंटे जैसे अम्मा अपने बच्चे को छाती पर लगाए रहती है, ऐसे हम अपनी जूँ को सिर पर लगाए रहते हैं और आपके पास कौन रहता है? बेटे, खटमल जो है हमारी चारपाई पर सोता रहता है। बच्चा तो कभी-कभी आता है और कहता है—पिताजी हमें सुला लीजिए। तो उसको हम 15 मिनट, आधा घंटा सुलाते हैं। और फिर कहते हैं कि अब बेटा जाओ। उसकी माता जी को दे देते हैं। माता जी इसको ले जाइए, हमें तंग कर रहा था। बच्चा अब तो सो गया अब आप ले जाइए। हम नहीं सुलाएँगे। लेकिन खटमल तो हमारी खाट में ही सोता रहता है। जूँ हमारी खाट पर सोता है और बेटे एक और तरह का जूँ आता है। सिर का जूँ तो फिर भी यहाँ-वहाँ घूमता रहता है, पर ये तो ऐसे चिपक जाता है कि फिर हटता ही नहीं है। क्या कहते हैं? इधर हमारे यहाँ जोंक कहते हैं उसको जो खुजाने से बड़ी मुश्किल से छूट जाती है। खून में ही चिपकी रहती है। खून पी जाती है। वह बिल्कुल पास बैठती है जोंक। जोंक एक बार चिपक जाए तो फिर यह कहती है कि मैं तो आपकी शरणागत हूँ। आपकी शरण में पड़ी हूँ। आपके चरणों में ही पड़ी हूँ, अब आपसे अलग नहीं हो सकती और आपके साथ ही रहूँगी और आपके साथ मरूँगी। यह तब तक चिपकी रहती है जब तक खून नहीं पी जाती। तो महाराज जी जोंक कौन है? जोंक क्या करती है? बेटे, उपासना करती है। जूूँ क्या करता है? उपासना। खटमल क्या करता है? उपासना। उपासना किसे कहते हैं पास बैठने को। इन सबको उपासना कहते हैं, सब पास बैठे रहते हैं। एक और भी जानवर है जो और भी पास बैठा रहता है। कौन बैठा रहता है पेट के सफेद रंग के कीड़े? वे ऐसे बैठे रहते हैं जैसे माँ के पेट में गर्भ में बच्चा बैठा रहता है।
बेटे! शरीर से पास होना ही उपासना नहीं कहलाती। तो महाराज जी फिर हमारी उपासना कैसी है? तेरी उपासना—बस ऐसे ही समझ ले बेटा जैसे बिच्छू अपनी माँ के पेट में बैठा रहता है और भीतर ही भीतर खाता रहता है और जब माँ के सारे माँस को खा जाता है तो फाड़कर बाहर आ जाता है। तेरी इसी तरह की उपासना है। इस उपासना में चमत्कार हो सकते हैं? मेरी दृष्टि से तो नहीं हो सकते हैं। उपासना के लिए जीवन का क्रम बदलना होगा। दृष्टिकोण बदलना होगा, चिंतन बदलना होगा, व्यवहार बदलना होगा, कर्म बदलना पड़ेगा। ये बदलाव लाये बगैर बिना वे चमत्कार जो अध्यात्म के माध्यम से हुए हैं मिल नहीं सकते। उपासना का उद्देश्य है—अपने आपका शिक्षण करना कि आदमी को अपने आपको नेक-नीयत बनाना चाहिए, चरित्रवान बनाना चाहिए। ये सारे के सारे शिक्षण हमारी उपासना पद्धति के आधार पर लिखे हुए है। यह उसकी फिलॉसफी है। किसकी? उपासना की और हमारी यह फिलॉसफी है कि जितना अधिक आदमी संत और अध्यात्मवादी होता हुआ चला जाएगा ,, उसको उतनी ही मात्रा में उदार बनना पड़ेगा। उसको उतनी ही मात्रा में लोकसेवी बनना पड़ेगा। अपने साथ में किफायत बरतनी और दूसरों के हित के लिए अधिक से अधिक त्याग और बलिदान करने के लिए कमर बाँधनी पड़ेगी। यही है बेटे आध्यात्मिकता की निशानियाँ, यही है आध्यात्मिकता का अध्यात्म। बेटे भगवान के यहाँ हमेशा इस बात का हिसाब रहा है कि तेरी क्रिया क्या है और तेरे कर्म क्या हैं?
कर्म से भागता है अभागे। हाँ, मैं तो कर्म से भागता रहता हूँ। खिलवाड़ करता रहता हूँ। मैं तो जादू-मंत्र करता रहता हूँ। खिलवाड़ करता रहता हूँ। कर्म से मैं भागता हूँ। नहीं, कर्म से भागें नहीं। यह खिलवाड़ जिसे हम कर्मकाण्ड और उपासना कहते हैं, जिसको हम प्राणायाम और ध्यान कहते हैं, यह इसका कलेवर है, यह इसका श्रृंगार है। यह शोभा है। यह इसका प्राण है। मनुष्य का जीवन है। मित्रो! द्रौपदी को उसके कर्म के बदले में सारे के सारे वस्त्र मिलते हुए चले गये। चमत्कारों की बात, सिद्धियों की बात, स्वर्ग में उड़ने की बात, पाताल लोक की बात, आसमान की बात, ये बातें आप मत कीजिए, जमीन पर चलिए। एक समय संत राबिया नाम की मुस्लिम महिला हुई। उसकी सब जगह बड़ी ख्याति थी कि वह बड़ी सिद्ध है, बड़ी संत है। एक और संत थे हसन। हसन उनके पास गए। अपना चमत्कार राबिया को दिखाने के लिए कि तुम क्या समझती हो कि तुम ही सिद्ध हो। अरे हम तुम से भी बड़े सिद्ध हैं। सिद्धि का चमत्कार दिखाने के लिए वे राबिया के यहाँ गये। राबिया ने सुना कि हसन हमारे यहाँ आ गए हैं, तो बड़ी प्रसन्न हुईं। जब उन्होंने राबिया को अपनी चमत्कारिक शक्ति दिखाने के लिए कहा कि आओ राबिया आज हम लोग साथ-साथ नमाज पढ़ेंगे। हाँ, ठीक है, कोई हर्ज की बात नहीं। तो उन्होंने पास में पानी के तालाब में अपना मुसल्ला फेंक दिया। मुसल्ला उसे कहते हैं जो पूजा का आसन होता है जिस पर नमाज पढ़ी जाती है। मुसल्ला जब फेंक दिया पानी के ऊपर तो वह पानी के ऊपर तैरने लगा डूबा नहीं। उन्होंने राबिया को दावत दी कि जमीन पर क्या करेंगे, पानी पर तैरेंगे और नमाज पढ़ेंगे। राबिया उनका मतलब समझ गईं। सामान्य जीवन जीना, व्यावहारिक जीवन जीना, जमीन पर चलना आपको नापसन्द है, आप पानी पर चलना चाहते हैं। आसमान पर चलना चाहते हैं ठीक है, राबिया समझ गईं। राबिया ने चमत्कार दिखाने के लिए एक और काम किया। उसने अपना मुसल्ला आसमान में फेंक दिया जो हवा में तैरने लगा। राबिया ने कहा—हसन इस समय नमाज पानी में पढ़ने से क्या फायदा? चलो हवा में तैरेंगे और हवा में तैरकर नमाज पढ़ेंगे। संत की आँखें नीची हो गईं। वह नीचे बैठे हुए थे। शर्मिन्दा हो गए थे। वह अपना चमत्कार दिखाना चाहते थे। उन्होंने और भी बड़े चमत्कार दिखा दिए। राबिया गंभीर हो गईं। उसने कहा—हसन! पानी, जिस पर आप चलना चाहते हैं, उस पर तो नाचीज मछली भी चल सकती है और हवा जिसके ऊपर मैं आपको चलाना चाहती थी, उस पर एक मक्खी और मच्छर भी चल सकता है। हम और आप मक्खी और मच्छरों से बड़े हैं। आओ जमीन पर चलें। जमीन पर नमाज पढ़ें। मित्रो! जमीन पर चलना चाहिए। स्वर्गलोक की बात, मक्खी लोक की बात ठीक है, वह भी करिए, लेकिन पहले अपनी जमीन ठीक करिए। बादलों की बात, पानी की बात, ऊँचे की बात, राष्ट्रों की बात, नीचे की बात, चमत्कारों की बात और दूसरी बातें—वहाँ से कीजिए जहाँ कि हमारे जीवन का चमत्कार होता है और वह है श्रेष्ठता का जीवन, शालीनता का जीवन, पवित्रता का जीवन, गरिमा से भरा हुआ जीवन, आत्मा को संतोष देने वाला जीवन। हमको लोक-संग्रह और लोकमंगल और लोककल्याण देने वाला जीवन, भगवान का अनुग्रह लाने वाला जीवन और लोकहित करने वाला जीवन, भगवान् को संतोष देने वाला जीवन, आत्मा को शान्ति देने वाला जीवन, और लोकसम्मान और लोकश्रद्धा से भरा हुआ जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए। यही है अध्यात्म। उपासना का यही है अर्थ। भगवान के पास जा करके हम यही सीखते हैं और हमें यही सीखना चाहिए। अगर आपने जीवन-क्रम में इस तरह की पद्धति अपनाई होती, मन में निश्चित की होती या की हो तो आपके लिए अध्यात्म का द्वार खुला हुआ है। उपासना का लाभ और चमत्कार, अमृत आपके पास है। अमृत और कल्पवृक्ष आपके पास है और पारस आपके पास है।
तो क्या गुरुजी! पारस आपको मिला है। हाँ बेटे, मिला है। हमने पारस के रूप में, अमृत के रूप में, कल्पवृक्ष के रूप में अपने तीनों शरीरों के भीतर भगवान को अवतरण करने की कोशिश की है। व्यावहारिक जीवन में सिद्धान्तों का समावेश करके, व्यावहारिक जीवन में आदर्शों का समन्वय करके। आदर्शों का अगर आप समन्वय न कर सकेंगे, जीवन को श्रेष्ठ और शालीन न बना सकेंगे, अपने भीतर करुणा और उदारता का वर्धन न कर सकेंगे, अपने भीतर पवित्रता का समावेश न कर सकेंगे तो आपकी उपासनाएँ क्या फल दे सकती हैं। मैं नहीं जानता। पर मैं चाहता जरूर हूँ कि आपकी उपासना, साधना से भरी हुई पड़ी हो। आपका पूजन और आपका व्यक्तित्व और आपका भक्तिमय जीवन सिद्धान्तवादी हो, आदर्शवादी हो। चिंतन उत्कृष्ट हो और आदर्श एवं कर्तव्य आपके भीतर समाए हुए हों। अगर आप ऐसा कर सकें तो मैं अपने जीवन की, अपने सत्तर वर्ष के जीवन की साक्षी दे करके उसकी कसम खा करके कह सकता हूँ और भगवान की ओर से आश्वासन और विश्वास दिला करके कह सकता हूँ कि आपको उपासना से कभी निराश नहीं होना पड़ेगा। उपासना से ज्यादा बढ़कर के बुद्धिमान, उपासना से बढ़कर तिजारत, उपासना से बढ़िया लाभदायक चीज और दुनिया में हो नहीं सकती। उपासना का अर्थ है अध्यात्म और उदार जीवन। करुणा से भरा हुआ जीवन। लोकहित के लिए समर्पित जीवन और बादलों की तरीके से लोकहित के लिए खर्च होने वाला जीवन। मैंने यही कोशिश की, इसी तरह की उपासना जीवन में प्रारम्भ करूँ और मैंने पाया भगवान मेरे नजदीक हैं। अपने आप को भगवान के नजदीक और भगवान को अपने नजदीक पाया। हम दोनों पास-पास रहते हैं।
यही वह चीज है जो हम दोनों को गोंद की तरीके से मिलाती है, जोड़ती है। आप भी अगर चाहें तो इन्हीं दोनों चीजों का आधार लेकर अपने और भगवान को साथ-साथ जोड़ सकते हैं। जहाँ भगवान आएगा वहाँ प्रकाश भी आएगा। जहाँ भगवान आएगा वहाँ सम्पत्ति भी आएगी। जहाँ भगवान आएगा वहाँ से अँधेरा भी दूर होगा। जहाँ भगवान आएगा वहाँ से कष्ट और क्लेश भी दूर होंगे। आप अपनी नाव को पार कर सकेंगे और अपनी नाव में बैठाकर असंख्यों को पार करा सकेंगे। आपके लिए नितान्त सम्भव है अगर आध्यात्मिकता और उपासना को आपने सही रूप में समझा हो तब जैसा कि मैंने समझा अपने जीवन में। कृपा कीजिए आप भी उसी मायने में उपासना को जीवन में काम में लाइए। कदम बढ़ाइए हिम्मत के साथ, श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए और लोकमंगल से भरे हुए जीवन के लिए। समाजहित जीवन चरित्रवान जीवन। अगर आप ऐसे जीवन जी पाएँगे, तो कोई भी उपासना आपके लिए चमत्कारिक फल देने में समर्थ हो सकती है। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥