उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
भगवान बुद्ध ने धर्मचक्र के नाम से अपना आन्दोलन चलाया था। यह क्या था? धर्म के चक्र को प्रवर्तित कर देना, धर्म के चक्र को घुमा देना। भगवान बुद्ध ने इसका शुभारंभ किया और सम्राट अशोक ने इसे आगे बढ़ाया। आपको अपने राष्ट्रीय झण्डे के अन्तर्गत जो अशोक-चक्र दिखाई पड़ता है, वह धर्मचक्र के प्रवर्तन का चिन्ह है। इसका मतलब जो रुकी हुई धाराएँ थीं, उनको भगवान बुद्ध ने फिर से प्रवाहमान बना दिया, जाग्रत कर दिया और फिर से चला दिया। तालाब का पानी रुका हुआ हो तो सड़ जाता है। नदी का पानी चलता रहता है। प्रवाह माने पानी का बहाव। नदी के पानी की धारा अगर छोटी भी हो तथा पानी चल रहा हो तो वह सड़ेगा नहीं। तालाब कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसका पानी सड़ने लगता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी प्रगति की ओर चलना पड़ता है। उसे बार-बार विचार करना पड़ता है कि हमसे गलतियाँ कहाँ हुईं, क्या हुईं? इस प्रकार के विचार करते रहने से आदमी का बहाव ठीक रहता है। आज का दिन वह है, जिसमें हमें विचार करना होगा कि पिछले दिनों हमसे क्या-क्या भूलें हुई हैं? कहाँ हमने गलतियाँ की हैं? उन्हें सुधारने की आवश्यकता है। यह धर्म-चक्र का दिन है, प्रातःकालीन उदीयमान सूर्य का दिन है, अन्धकार की समाप्ति का दिन है। आज हमको अपनी गतिविधियों पर नये सिरे से विचार करना होगा।
एक विचार हमारे सामने आता है और आना भी चाहिए कि गाड़ी के दो पहियों में से एक पहिया छोटा हो गया है। इस स्थिति में गाड़ी आगे कैसे चलेगी? गाड़ी आगे चल नहीं सकती है। हमने-आपने कई बार यह सुना है कि अमुक रोड पर मोटर, ठेलागाड़ी पलट गयी। अगर हम इस दुर्घटना पर निगाह डालें तो यह पायेंगे कि उस मोटर-ठेले का एक पहिया पंचर हो गया था। इस पंचर के कारण ही गाड़ी पलट जाती है और दुर्घटना हो जाती है। इसमें क्या होता है कि एक पहिया बड़ा हो जाता है और एक पहिया हवा निकल जाने के कारण छोटा हो जाता है। जिस समय ऐसा होता है उस समय उसके ऊपर लदा हुआ माल एक तरफ झुक जाता है और संतुलन बिगड़ने के कारण गाड़ी पलट जाती है। कई बार तो ड्राइवर, कण्डक्टर की मृत्यु भी हो जाती है और कीमती ट्रक चकनाचूर हो जाता है। इसके कारण मालिक को और ड्राइवर के घर वालों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
उसी प्रकार मनुष्य रूपी गाड़ी भी दो पहियों की है। इसमें एक का नाम पुरुष तथा दूसरे का नाम स्त्री है। ये दोनों अलग-अलग नहीं हैं। आपने अर्द्धनारीश्वर का चित्र तो देखा ही होगा। आधे अंग में शंकर एवं आधे अंग में पार्वती, आधे अंग में राधा एवं आधे में कृष्ण की मूर्तियाँ बनायी जाती हैं। आधे में सीता और आधे में राम होते हैं। यह मूर्तियाँ आपको जगह-जगह के मेलों में मिलती रहती हैं। वहाँ आपने इन्हें देखा भी होगा तथा अपने घर में रखा भी होगा। इसका मतलब है कि दोनों अंग समान हैं, दोनों अंग मिले-जुले हैं तथा दोनों अंग बराबर महत्त्व के हैं। मनुष्य के दोनों हाथ बराबर के हैं, अगर किसी के थोड़े उन्नीस-बीस हो जाएँ तो हम कुछ कह नहीं सकते हैं, परन्तु सामान्यतया दोनों हाथ बराबर के हैं। गाँधी जी का जब दाहिना हाथ थक जाता था तो वे बायें हाथ से लिखने का काम करते थे। उसी प्रकार वे चरखा को दायें हाथ से कातते थे। जब वह थक जाता था तो चरखा का पहिया घुमा देते थे और बायें हाथ से कातने का काम किया करते थे। हम एवं आप अभ्यास के कारण ही दायें हाथ से ज्यादा काम कर लेते हैं, परन्तु अगर हम अभ्यास करें तो देखेंगे कि दायें हाथ से बायाँ हाथ भी कम काम नहीं करता है। बहुत-से लोगों को हमने देखा है कि वे बायें हाथ से भी दायें हाथ की तरह ज्यादा और जल्दी काम करते हैं। इसी प्रकार हमारी दोनों आँखें बराबर हैं। इनमें से न कोई हमारी मालिक है और न कोई गुलाम है। इनमें न कोई हिन्दू है और न कोई मुसलमान है, बल्कि एक ही नस्ल की हैं। हमारी दो टाँगें हैं, इनमें से कोई बड़ी एवं कोई छोटी नहीं हैं। अगर बड़ी-छोटी टाँगें हो जाएँ तो हमारा चलना मुश्किल हो जाएगा। फिर स्त्री और पुरुष में भेद क्यों? शरीर के दोनों अंगों की भाँति वे समान हैं। इसलिए दोनों को साथ-साथ पाँव से पाँव मिलाकर, कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहिए। हमारी प्रगति का रास्ता दोनों के द्वारा ही संभव है।
प्राचीनकाल के इतिहास को उठाकर जब देखते हैं तो हमें कहीं भी कोई फर्क दिखाई नहीं पड़ता। एक बार की बात है—देवताओं ने राजा दशरथ को युद्ध में सहायता करने के लिए बुलाया था। निमंत्रण पाकर उनका साथ देने के लिए राजा दशरथ उस युद्ध में गये। इस देवासुर संग्राम में उनकी रानी कैकेयी, जो कि धनुष-बाण चलाने में निपुण थी, घुड़सवारी भी कर लेती थी, उनके साथ गयी थीं। कहते हैं कि उस देवासुर संग्राम में जब दशरथ के रथ का पहिया कील निकल जाने के कारण डगमगाने लगा तो उसे वीराँगना कैकेयी ने देख लिया और राजा दशरथ को पता भी नहीं लगने दिया और अपने हाथ की अँगुली उस पहिये में लगाकर सारे युद्ध में डटी रही। वास्तव में वह किसी भी प्रकार राजा दशरथ से कम नहीं थी। वह बराबर की योद्धा, बराबर की वीर, बराबर की शूरमाँ और बराबर की शक्तिशाली महिला थीं, जो रणनीति में भी निपुण थीं।
एक बार श्रीकृष्ण-अर्जुन में लड़ाई हुई थी, ऐसा एक काव्य में लिखा है। पता नहीं सत्य है या गलत है, परन्तु यह बात सही है कि जब अर्जुन लड़ने के लिए श्रीकृष्ण के पास गये, उस समय सारथी द्रौपदी थीं, जो रथ चला रही थीं और अर्जुन धनुष-बाण चला रहे थे। दोनों ही बराबर के योद्धा-लड़ाई लड़ने वालों में से थे। रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती का नाम हमें मालूम है। उन्हें हम भूला नहीं सकते। हम यह कहना चाहते हैं कि न केवल लड़ाई के सम्बन्ध में बल्कि विद्या एवं ज्ञान के सन्दर्भ में भी नारियाँ नर से कभी भी, किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं रहीं। राजा जनक की सभा में गार्गी एवं याज्ञवल्क्य का संवाद होता है। प्रश्नोत्तर का क्रम चलता है, गार्गी जब याज्ञवल्क्य से प्रश्न पर प्रश्न पूछती चली गयी तो उनको पसीना आ गया और वे चक्कर में पड़ गये। गुस्से में आकर याज्ञवल्क्य जी ने कहा कि अगर तुम इसी तरह बार-बार सवाल करती चली गयीं तो हम तुम्हें शाप दे देंगे और तुम्हारा सिर कटकर नीचे आ जाएगा। गार्गी ने कहा—बस हो गया, क्या आपका ज्ञान केवल सिर काटने वाली बात तक ही सीमित है? अरे ऋषिवर! आप हमारे प्रश्नों का उत्तर दीजिए, चुप क्यों हो गये? मित्रो, हम कहना यह चाहते हैं कि गार्गी भी उसी प्रकार की विद्वान एवं विदुषी महिला थीं, जिस प्रकार याज्ञवल्क्य ऋषि थे। प्राचीनकाल के इतिहास को हम देखते हैं तो हमें पता चलता है कि वेद को बनाने वाली तथा मंत्रों की द्रष्टा रहीं हैं। सात ऋषि पत्नियों में एक अनुसूया का नाम भी आती है। वे इतनी महान थीं कि सात ऋषियों का नेतृत्व करती थीं।
हम क्या कह सकते हैं? अगर प्राचीनकाल की धर्म-संस्कृति के इतिहास को देखें, तो आपको पता चलेगा कि उनका स्थान कितना महान था? नर-नारी दोनों में कोई फर्क नहीं था। अगर हम ध्यान से देखते हैं तो हमें पता चलता है कि नारियाँ सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, वीरता एवं पारिवारिक किसी भी क्षेत्र में नर से पीछे नहीं रहीं। गाड़ी के दोनों पहिये बराबर थे। पटरी पर गाड़ी ठीक चल रही थी। हम उन दिनों प्रगति पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते चले जा रहे थे। परन्तु हाय रे हमारा समय, हाय रे हमारा दुर्भाग्य! जिसने न जाने हमें क्या-क्या सिखा दिया तथा न जाने क्या-क्या करने को हमें मजबूर कर दिया। जब हम अपने गौरवमय अतीत का विचार करते हैं तो यह पाते हैं कि भारतीय संस्कृति एवं धर्म के अन्तर्गत नारी को हमेशा शक्तिरूपा एवं भगवान माना जाता था और उसकी स्तुति इस प्रकार करते थे—
या देवी सर्वभूतेषु, मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
नारी हमारी माँ है और नारी हमारी धर्मपत्नी भी है। वह हमारी गृहिणी है। घर उसी ने बनाया है, अगर वह नहीं होती तो हम जंगलों में भिखारी एवं फकीर की तरह घूम रहे होते एवं मस्जिद में नमाज पढ़ रहे होते अथवा मंदिर में कीर्तन-भजन गा रहे होते। हमारी धर्मपत्नी ने हमारे लिए एक घोंसला बनाया, जिसमें जब हम थककर आते हैं तो जाकर विश्राम करते हैं। अगर वह नहीं होती तो हमें न जाने कहाँ जाना पड़ता और न जाने हम किस तरह से मारे-मारे फिरते होते?
मित्रो! नारी हमारी बेटी है, जो हमारे और आपके अन्दर सौजन्य एवं स्नेह भरती है। हमारी आँखों में पवित्रता भरती है और उसे जीवित रखती है। अगर बहिन हमारी न हो, तो हमारे एवं अन्य स्त्रियों में कुत्ते एवं कुतिया की तरह रिश्ता हो जाता और उस समय हर आदमी इस धरती पर शालीनता एवं मर्यादा का उल्लंघन करने लग जाता। बहिन हमारे ऊपर अंकुश लगाती है ताकि हम इस संसार में एक संस्कारवान इनसान के रूप में जी सकें। परम पवित्रता की मूर्ति हमारी बेटी, शालीनता एवं मर्यादा की प्रतीक हमारी बहिन, घोंसला बनाने वाली हमारी धर्मपत्नी, हमारी सहयोगी, वीर योद्धा, अर्द्धांगिनी और हमारी माँ, जिसके पेट में हमने अपना नौ महीने का समय बिताया। उसके पेट में हमने नौ महीने पैर पसारा और उसकी छाती का दूध पिया है। उसे हम कैसे भूल सकते हैं? वास्तव में हम नारी को माँ, पत्नी, बहिन, बेटी कि सी भी रूप में देखें। हर रूप में वह त्याग, तपस्या, क्षमा, करुणा और दया की मूर्ति हमें दिखायी पड़ती है, जिसके कारण हमें मनुष्य होने का गौरव प्राप्त हुआ है। वह पूज्य है, जिसका भारतीय संस्कृति एवं धर्म में कितना महत्त्वपूर्ण स्थान था? परन्तु हाय रे भगवान! आज हम जब उसकी स्थिति देखते हैं तो हमें रोना आता है कि हे भगवान उसका रूप क्या हो गया? नारी के दयनीय रूप को आज हम देखते हैं तो हमें बड़ा दुःख, बड़ा क्लेश होता है। आजकल यह सब उनके अभ्यास में आ गया है, स्वभाव में आ गया है।
हम अभ्यास की बाबत क्या कह सकते हैं? रोम में कैदियों को एक ऐसे बन्द कमरे में रखा जाता था, जहाँ रोशनी भी नहीं पहुँचती थी। जब उन्हें रिहा किया जाता था तो वे पागलों की तरह से भागते थे और यह कहते थे कि हमें सूरज की रोशनी नामंजूर है। हम बाहर नहीं जाएँगे। हमें अँधेरे में ही रहने दें ताकि हमारी आँखों की रोशनी बनी रह सके। इसी प्रकार आज के समाज, परिवार, व्यक्ति के अन्तर्गत यह स्वभाव-सा बन गया है कि उन्हें नर-नारी के बीच कोई अन्तर दिखाई नहीं पड़ता है। स्त्रियाँ घर में खाना बनाती हैं, घर का अन्य काम करती रहती हैं। हम बाहर खेतों में, कारखानों में काम करते हैं। इसमें क्या फर्क है, इसमें क्या सोचना है? परन्तु यह कहने की बात नहीं है। यह भेद आपको तब मालूम पड़ सकता है, जब आपको स्त्री बना दिया जाए। आपके ऊपर जादू का डण्डा फिरा दिया जाए और आपको स्त्री बना दिया जाए। आप सबके लम्बे-लम्बे बाल हो जाएँ तथा दाढ़ी-मूँछें समाप्त हो जाएँ। सबके दो-तीन बच्चे हो जाएँ। आपको जब भी बाहर जाना हो तो एक आदमी को लेकर जाना होगा। आप कहेंगे कि गुरुजी! हम तो मर जाएँगे। हमें इस प्रकार दंडित मत करो। हम तो दफ्तर से आते हैं और सिनेमा देखने चले जाते हैं। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि हम घर के जेलखाने में बन्द रहें। यह तो हमारे लिए मुश्किल होगा। चलिए, इतना नहीं तो इतना ही हम करते हैं कि आप में से हर आदमी को कल से कम से कम घूँघट मारकर दफ्तर, बाजार जाना होगा। आप कहेंगे कि कोई आदमी इस तरह नहीं रह सकता है। गुरुजी, हमारी तो मिट्टी पलीद हो जाएगी और हम कहीं के नहीं रहेंगे, हम तो बर्बाद हो जाएँगे। वास्तव में यह सत्य है कि इस प्रकार की प्रथा तो इनसान के लिए गैर मुनासिब है।
बेटे! जिस प्रकार के बन्धन जानवर बर्दाश्त नहीं कर पाते, वे बन्धन इनसान पर लगा दिये जाएँगे तो वह कैसे बर्दाश्त करेगा? जानवर मुँह खोलकर सड़क पर चल सकते हैं, परन्तु यह क्या तुक है कि हमारी पत्नी मुँह नहीं खोल सकती। हमारे मारने-डाँटने पर वह कुछ न कहे तथा घर में चिल्लाये भी नहीं, यह कैसे हो सकता है? अरे अगर वह चिल्लाएगी तो हमारे पड़ोसी इकट्ठे हो जाएँगे तथा हमारी बेइज्जती हो जाएगी। यदि इस बात को वह अपने भाई से, बाप से कह दे तो, आप उसे भला-बुरा कहते हैं कि तूने हमारी शिकायत क्यों की? बेटे! बात-बात पर हम यह कहते हैं कि हम मर्द हैं और तू औरत है। इसलिए हमारी बात को तुझे अपने भाई से नहीं कहना चाहिए और हम जैसे कहते हैं, तुझे वैसा ही करना चाहिए। ये विचित्र परिस्थितियाँ जैसे घूँघट वाली, लड़के एवं लड़की में भिन्नता वाली, शिक्षा से वंचित हो जाने वाली न जाने क्यों और कहाँ से उत्पन्न हो गयी हैं, जिसके कारण नारियों की स्थिति दयनीय हो गयी है। भगवान न करे कहीं आपको लड़की बना दिया जाए और आपकी बहिन को लड़का बना दिया जाए तथा घर में भैंस का दूध आये और आपको न दिया जाए तो आपकी क्या मनःस्थिति होगी? जरा सोचने का प्रयास करें कि अगर आपकी मम्मी यह कहें कि लड़कियाँ दूध नहीं पीती हैं, अगर वे दूध पी लेंगी तो उनकी मूँछें निकल आयेंगी। लड़की बाद में कहती है कि मम्मी हम दूध नहीं पियेंगे, पर हमारी मूँछें मत निकलवाना।
बेटे! एक ही माँ के पेट से जन्मे दो बच्चों में से एक को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा जाता है और दूसरे को नहीं भेजा जाता है। एक को अपनी जायदाद में से हिस्सा दे दिया जाता है और दूसरे को दूध में से मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया जाता है। यह कैसी विडम्बना है हमारे समाज की? इतना ही नहीं लड़के की शादी होती है तो पैसा लिया जाता है और जब लड़की की शादी होती है तो समाज के लोग यह कहते हैं कि इस मरी हुई गाय को हम खरीदने के लिए तैयार नहीं हैं, अगर इसको देना ही चाहते हैं तो इसके कफ़न के लिए, इसके खाने के लिए आपको पैसा देना होगा। तब हम यह कहते हैं कि हमारी लड़की गूँगी, बहरी, अंधी नहीं है। आपके घर में चार रोटी खायेगी, फटे-पुराने कपड़े पहनेगी, परन्तु आपके घर का काम करके पैसा चुका देगी। आप हमसे पैसा क्यों माँगते हैं? आपके घर में सफाई का काम, खाना बनाने का काम, बच्चा पैदा करने का काम, चौकीदारिन का काम करेगी तथा आपसे केवल चार ही तो लेगी। साहब आप पैसा क्यों माँगते हैं? जिस लड़की को योग्य बनाया, जो बी.ए., एम.ए. पास है। आप उसके पिता से पैसा माँगते हैं, लानत है आपको।
आपको मालूम नहीं है, हमारे आश्रम में जो महिलाएँ खाना पकाती हैं, उनको हम खाना देते हैं, कपड़े देते हैं, उनका स्वास्थ्य खराब होने पर दवा-दारू की भी व्यवस्था करते हैं तथा हर महीने साठ रुपये उनके बैंक खाते में पैसा भी जमा करते हैं। बेटे, तुम्हें मालूम होना चाहिए कि केवल खाना पकाने की मजदूरी इतनी होती है, जबकि घर की महिलाएँ तो किफायतशारी होती हैं। आपको तो उन्हें इससे भी अधिक देना चाहिए, क्योंकि वे सफाई करती हैं ,, कपड़े धोती हैं। आपको एक बात और बताएँ, जब हम गायत्री तपोभूमि में रहते थे, उस समय आस-पास ज्यादा बस्ती तो थी नहीं, सो चोर आया करते थे। तब हमने एक बूढ़ा चौकीदार रखा था। हम उसको पचास रुपये माहवार देते थे। अब हम आपसे पूछते हैं कि आपकी स्त्री चौकीदारिन है कि नहीं? हाँ साहब है तो, क्योंकि हम तो सुबह ऑफिस चले जाते हैं, दुकान चले जाते हैं और शाम को कभी-कभी ज्यादा काम होने पर रात को भी आते हैं। वह सारे दिन घर की रखवाली करती है और रात में भी करती है। आप पचास रुपये प्रतिमाह के हिसाब से दिन एवं रात के रुपये निकालिये। अगर यह घर में नहीं होती और आप ऑफिस चले जाते, तो चोर आते और आपके कमरे का ताला तोड़कर सारा सामान चुराकर ले जाते। यह हिसाब आपको जोड़ना चाहिए कि खाना पकाने का, चौकीदारी का, कपड़े धोने का, बाल-बच्चा पैदा करने का, घर को व्यवस्थित रखने का कितना पैसा खर्च करना पड़ेगा, उतना पैसा हिसाब से दीजिए। यह सब हम सांसारिक बातों का जिक्र करते हैं आपसे! अभी हम उसकी आत्मा की बात नहीं करते। इतना होने के बाद भी आप पन्द्रह-बीस हजार रुपये माँगते हैं। इस बात पर कभी तो आपको सोचना चाहिए कि यह क्या है?
मित्रो! यह अनीति है, भ्रष्टाचार और अन्याय है, दुष्टता है, अत्याचार है। जिस दिन ये चीजें समाज का अंग बन जाएँगी, उस दिन समाज का सत्यानाश हो जाएगा। यहाँ पर मनुष्यता का कोई मूल्य ही नहीं रह जाएगा। वह समाज नष्ट हो जाएगा, वह समाज कभी फल-फूल नहीं सकता है। हजार वर्ष तक गुलाम बनाकर मुसलमान शासक हमारे ऊपर बुरी तरह से हुकूमत करते रहे। इतनी बुरी हुकूमत दुनिया में कभी भी नहीं हुई। इतने कत्लेआम किसी जमाने में नहीं हुए होंगे। शहर के शहर, गाँव के गाँव जिसमें स्त्री, पुरुष और बच्चे सभी रह रहे होंगे, उन्हें उन लोगों ने साफ कर दिया। ऐसे अत्याचार दुनिया में कहीं नहीं हुए। ये केवल हिन्दुस्तान के ऊपर हुए हैं। इसका कारण हम हैं, क्योंकि हमने आज तक अपने आधे अंग पर जुल्म किया है। यदि ये जुल्म हम जानवरों पर करते, मुर्गे पर करते तो कोई और बात थी, परन्तु इन अज्ञानियों ने तो अपनी बेटी, बहिन, माँ और धर्मपत्नी को खाया है और रोज ही उनका जनाजा निकलता जा रहा है। हम बच्ची को पढ़ाना नहीं चाह रहे हैं, क्योंकि हमें दहेज में मोटी रकम देनी होगी।
सामाजिक अत्याचार की बात हम क्या कहें? हमारे पिताजी की जब मृत्यु हुई तो हमें याद है कि हमारे घर में महाब्राह्मण आये थे। उन्होंने भोजन किया, उसके बाद उन्होंने कहा कि हमारे मुँह को भरो। फिर उन्होंने अपना मुँह खोल दिया और सभी लोगों ने उनके मुँह में पैसा डालना शुरू किया। उस सस्ते के जमाने में उनके मुँह में लगभग चालीस या पचास रुपये आ गये। उस जमाने में उनका ही काफी महत्त्व था। आज जो दहेज माँग रहे हैं, उन निखट्टू लोगों की तुलना हम उन महाब्राह्मणों से करते हैं, जिन्हें कोई शर्म नहीं कि घर में शोक का वातावरण है और हम पैसे के लिए बाध्य कर रहे हैं। हमने समाज के अन्तर्गत नारियों को शिक्षा से, घर के सामान्य अधिकारों से वंचित कर दिया है और दहेज के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। वास्तव में हमने इन्हें इनके मौलिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया है। हमने यह कभी नहीं सोचा कि इससे समाज की क्या स्थिति होगी? हर संस्था वालों ने, सरकार ने इस बात की पुष्टि की है कि हर आदमी अपने मौलिक अधिकारों का उपभोग करने के लिए स्वतंत्र है। फिर भी हमने स्त्रियों को इससे वंचित क्यों किया? यह एक मूल प्रश्न हम सबके सामने हैं।
हम पूछते हैं कि आप क्या लड़की का कन्यादान करेंगे? क्यों? यह कोई बेचने का सामान है, जो आप बुड्ढे से मोल-तोल करके बेच रहे हैं। यह सम्पत्ति नहीं है, इनसान है। राष्ट्रसंघ के संविधान में यह स्वीकार किया गया है कि नर एवं नारी दोनों के मौलिक अधिकार एक हैं। दोनों मनुष्य हैं इसलिए उन्हें समान अधिकार प्राप्त हैं। हमारे भारतीय संविधान ने भी यह घोषणा की है कि हम नर एवं नारी की भिन्नता को नहीं मानते हैं। हम दोनों को समान मानते हैं। दोनों को इनसान मानते हैं। दोनों को स्वाधीन मानते हैं। दोनों की स्वेच्छा एवं सहयोग पर विश्वास करते हैं। कोई किसी की सम्पत्ति या मिलकियत नहीं हो सकते हैं। परन्तु हमारे व्यवहार में यह कहाँ आ रहा है? आज भी स्त्री तो हमारे गले का पत्थर बनी हुई है, वह भार बनी हुई है। आज वह हमारे लिए सहायक नहीं है। उसके बाप ने पढ़ने नहीं दिया, हमने उसे पढ़ने नहीं दिया। उसके विकास के लिए किसी ने प्रयास ही नहीं किया। वह स्वावलम्बी नहीं है, कोई उद्योग नहीं कर सकती है, खेती-बाड़ी नौकरी नहीं कर सकती है। वह तो चार-पाँच बच्चों की माँ है। वह क्या कर सकती है?
हमारी नौकरी क्लर्क की है। हमें ढाई सौ या तीन सौ रुपये मासिक वेतन मिलता है। हम उस परिस्थिति में मर जाते हैं तो हमारे मरने के बाद उस बीबी का क्या होगा, जिसके पास चार-पाँच बच्चे मौजूद हैं। कोई जमाना था जब जेठ, देवर बच्चों को पाल लिया करते थे। कोई जमाना था जब भाई कहता था कि हम अपनी बहिन का पालन कर लेंगे, हमें कोई चिन्ता नहीं है। परन्तु आज जमाना बदल चुका है, परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। आज कोई एक भी उसके सहयोगी या सहायक नहीं बन पा रहे हैं। यह कलियुग है, यह सन् उन्नीस सौ पचहत्तर है, जिसमें भाई अपने भाई के खून का प्यासा बना हुआ है। वह चाहता है कि भाई की मृत्यु के बाद भाभी को हम जहर दे देंगे, बच्चों को हम लावारिस कर देंगे, ताकि खेत के हम मालिक बन जाएँ। उनका पैसा, गहना हमें मिल जाए। कहीं भाभी को घर से भगा देते हैं। कहते हैं तू कौन होती है? ये मेरे भाई की कमाई है, इसमें मेरा हक है। इन पाँच बच्चों का क्या होगा? वह मायके जाती है, तो उससे कहा जाता है वापस वहीं जाओ और देवर-जेठ के जूठे बर्तन साफ करो। ये उन स्त्रियों का हाल है, जिन्हें हम धर्मपत्नी, अर्द्धांगिनी कहते हैं। बेटे हमें ही यह सोचना होगा कि हमारी भी कोई जिम्मेदारी है या नहीं? हम तो कपड़े और चार रोटी के टुकड़े फेंककर निश्चिन्त हो जाते हैं। आप बी.ए. पास हैं तथा आपकी पत्नी मैट्रिक हैं, तो आप उसे पढ़ाने का प्रयास करें, उसे भी बी.ए. पास कराइए। अधिक बच्चे पैदा करके उसकी सेहत खराब न करें, उसके लिए जालिम तथा हत्यारे न बनें। आप इनसान हैं तो इनसानियत की बात कीजिए और इस समस्या को गम्भीरता के साथ सोचिए।
महात्मा गाँधी दक्षिणी अफ्रीका गये थे। वहाँ गोरे एवं काले में अन्तर समझा जाता था। काले में अधिकांश हिन्दुस्तानी थे। उनके साथ गोरे लोग गलत व्यवहार करते थे। उनके स्कूल, बसें सब अलग थीं। गोरे, काले लोगों को बहुत नीच समझते थे। गाँधी जी ने वहाँ सत्याग्रह प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने कहा हमें और लोगों की तरह रहने का मौका मिलना चाहिए। इस काले-गोरे की मान्यता को विश्व की मानवीय संस्था राष्ट्रसंघ ने अस्वीकृत कर दिया। उन्होंने कहा कि नस्ल की वजह से कोई बड़ा-छोटा नहीं हो सकता है। अच्छे काम करेंगे तो आपका सम्मान हो सकता है तथा बुरे काम करेंगे तो आपका अपमान हो सकता है। वंश-जाति की वजह से आप अपने को बड़ा नहीं समझ सकते। आपके बाप-दादा ब्राह्मण थे, परन्तु आप ब्राह्मण का कर्तव्य नहीं करते हैं तो ब्राह्मण नहीं हो सकते। गाँधीजी ने वहाँ कहा कि गोरे-काले का अन्तर नहीं होना चाहिए। इस पर उन लोगों ने कहा कि आप जो हमसे कहते हैं, वह भेदभाव पहले भारत में समाप्त कीजिए।
मित्रो! स्त्रियाँ भी इनसान हैं, उन्हें भी वे अधिकार प्राप्त होने चाहिए, जो मर्दों को प्राप्त हैं। उन्हें भी यज्ञोपवीत, हवन, यज्ञ, गायत्री उपासना का अधिकार होना चाहिए। इसके लिए हमने अब तक लड़ाई लड़ी है और आगे भी लड़ेंगे। बाप-दादों की बातों को हम नहीं जानते, वे अंधकार के जमाने में पैदा हुए थे। मध्यकालीन युग में स्त्रियों पर तरह-तरह के बंधन लगाये गये थे। उससे पहले प्राचीनकाल का जो समय था, वह दिन का समय था। उस समय में उनका गौरवमय अतीत था। वे लक्ष्मीनारायण, सीताराम, राधेश्याम के रूप में विराजमान थीं। शक्ति को शिव से पहले पूजा जाता था। हम सरस्वती का त्यौहार, वसंत पंचमी, लक्ष्मी का दिन, दीपावली तथा दुर्गा का दशहरा, गायत्री का गंगा दशहरा मनाते हैं। यह क्या है? बेटे यह स्त्रियों का सम्मान है। प्राचीनकाल में दोनों एक-दूसरे को सम्मान देते और कंधे से कंधा मिलाकर चलते थे। ये देवी थीं। हर नारी के नाम के साथ देवी शब्द इसीलिए प्रयुक्त होता था। शास्त्रों में नारी को हमने भगवान् माना है और सारे पूजा-पाठ उसी के निमित्त हैं। नवरात्रि में हम नवदेवियों की पूजा करते हैं।
मध्यकाल में बाप-दादों ने आपके अन्दर जो मान्यताएँ बना दीं, वे वस्तुतः अज्ञानता और अंधकार युग की देन हैं। हमें मालूम है एक जमाना ऐसा भी आया था, जिसमें जिसकी लाठी उसकी भैंस होती थी। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती थी। यह जंगल के कानून थे जो इनसान को खा जाते थे। आल्हा-ऊदल, मलखान की कहानी तो आपने पढ़ी है न। वे क्यों लड़ाई लड़ना चाहते थे? ये लड़ाई बिना सिर-पैर की थीं। इसमें न कोई इन्साफ की, न इनसानियत की और न ही आजादी की लड़ाई थी, यह तो केवल उनके अहंकार की लड़ाई थी और वह यह थी कि हम उसकी लड़की को छीनकर भाग जाएँगे। यह सामन्तवादी, जमींदार एवं ठाकुरों का युग था। इनका साम्राज्य सारे हिन्दुस्तान में और कहीं-कहीं तो हिन्दुस्तान से बाहर भी फैल गया था। उस जमाने में लुटेरे दो चीजें लूटते थे। एक तो जवान मर्दों को, जिनसे बैलों की तरह काम कराते और गुलाम बनाकर रखते थे। आपको मालूम नहीं, मिस्र के पिरामिड में तीस लाख गुलामों का खून किया गया था। जब तक गुलाम जवान रहे, उनका उपयोग किया जाता रहा और जब वे बुड्ढे, असमर्थ हो गये तो उन्हें मार दिया गया।
इसी सामन्तशाही युग में लूट का दूसरा चरण यह उठा कि जहाँ कहीं भी जवान औरतें दिखीं, उनको चुरा लिया गया, अपहरण कर लिया गया। रईस, जमीदारों के यहाँ सौ से लेकर एक हजार तक औरतें रखी गयीं। आप सोच सकते हैं कि इस परिस्थिति में वहाँ बगावत पैदा हो सकती थी या नहीं? इन लोगों ने उन स्त्रियों पर लगाम लगाकर, चेहरे पर नकाब, बुर्का लगाकर बहुत ही कन्ट्रोल में रखा। आपको मालूम नहीं है, जब आजादी मिल गयी तो हैदराबाद के राजा निजाम पर साढ़े सात सौ औरतों ने ‘क्लेम’ किया था। आज जरा विचार करके देखें कि किसी के यहाँ अगर दो औरतें होती हैं तो खून-खच्चर नहीं होगा तो क्या होगा? इसी कारण उन्हें बन्धनों में रखा जाता था ताकि वे बगावत न करें, कहीं जहर न दे दें और अपने द्वेष एवं अहंकारवश कोई घटना ना कर दें। उन्हें घूँघट में इसलिए रखा जाता था ताकि उनके आँसू उनके पड़ोसी, भाई, बाप को दिखायी न पड़ सकें, नहीं तो कोई भी उनके साथ सहानुभूति कर सकता है। यह उस जमाने की बात है जब मुसलमान हमारे देश में आये और उन्होंने बहुपत्नी प्रथा को प्रारंभ किया था। इसके बाद हिन्दुओं के यहाँ भी यह परम्परा धीरे-धीरे शुरू हो गयी।
उस जमाने में पंडित लोग भी कहीं-कहीं ऐसे उदाहरण दे दिया करते थे कि जब भगवान श्रीकृष्ण के सोलह हजार छह सौ आठ पत्नियाँ हो सकती हैं तो आप क्यों नहीं रख सकते? आप कम से कम सोलह सौ तो रख ही सकते हैं। ऐसी विडम्बना मध्यकाल में पण्डों-पुरोहितों ने फैलाकर नारी समाज पर घोर अपराध किया था। वे लोग राजा जनक के सौ रानियों का, उनकी पटरानियों का विवरण देते थे। वे राजा दशरथ की भी चार रानियों की बातें करते थे। क्या आप उन्हें ही बाप-दादे कहेंगे, जो लूटकर औरतें लाते थे और बंदिशों में रखकर उनके साथ अत्याचार करते थे। आप उन्हें बाप-दादा मानने से इनकार करें, यह हमारी राय है। इन्हीं लुटेरों से सयानी लड़कियों को बचाने के लिए माँ-बाप ने छोटी उम्र में शादी-ब्याह यानि बाल-विवाह शुरू कर दिये। तब सोलह वर्ष की लड़की की गोद में बच्चा आ जाता था। वह कमजोर हो जाती थी, चल-फिर भी नहीं सकती थी, परन्तु माँ-बाप यह कहकर संतोष कर लेते थे कि हमारी लड़की जैसी भी है, कम से कम जिन्दा तो रह जाएगी। कोई डाकू-लुटेरा उठाकर तो नहीं ले जाएगा। उस जमाने में जो कुछ भी रहा हो, उसे हम यह मान सकते हैं कि लोगों ने आपत्ति धर्म का पालन किया और कम उम्र में बच्चों का विवाह करा दिया। मजबूरी में आदमी न जाने क्या-क्या कर देता है?
बेटे, आज ये परिस्थितियाँ हमारे सामने अस्वाभाविक हैं। इनका समापन होने की, सुधार होने की आवश्यकता है। हम अपनी मान्यताएँ, अपना दृष्टिकोण बदलें अन्यथा ऐसी स्थिति में मनुष्य का जीवन कैसे चल सकता है? हमने अपनी जिन्दगी में ही अपने बीबी-बच्चों को अनाथ कर दिया। उनके भविष्य में गुजारे का भी कोई प्रबन्ध नहीं किया। हमने इस बात पर गंभीरता से विचार किया है कि स्त्रियों को स्वावलम्बी होना चाहिए। इसके लिए उन्हें पढ़ाने की, प्रोत्साहन की आवश्यकता है। विदेशों में महिलाओं के जिम्मे सौ प्रतिशत काम हैं। वहाँ पुरुष वर्ग फैक्ट्री तथा सरकारी ऑफिसों में काम करते हैं, बाकी कृषि, सामाजिक कार्य तथा स्कूल --कॉलेजों में स्त्रियाँ ही काम करती हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और एक गाड़ी के दो पहियों की तरह हैं। क्या वहाँ लोग जीवन नहीं जी रहे? अपने देश में लोगों को यह शंका है कि यहाँ की नारी आगे बढ़ जाएगी तो हमारा जीवन गुजारना मुश्किल हो जाएगा। इन मान्यताओं को हमें बदलना होगा। जब तक हम एक-दूसरे के पूरक बनकर काम नहीं करेंगे, हमारा विकास संभव नहीं है। जापान में जाकर देखिये—वहाँ महिलाएँ कैसे आत्मविश्वास से काम करती हैं।
एक हम हैं जो सोचते हैं कि वह आगे बढ़ेगी तो उसके पंख निकल आएँगे। वह हमें मारेगी, गाली देगी, जवाब देगी और भी न जाने क्या-क्या कुकल्पना करते हैं। अगर आप कोई गलत कार्य करते हैं तो वह नाराज क्यों नहीं होगी? अगर आप गाली देंगे तो वह गाली देगी। आप शराफत के साथ पेश आएँगे तो वह भी शराफत से पेश आएगी। अगर आप प्यार भरा व्यवहार करेंगे तो वह भी आपसे प्यार भरा व्यवहार ही करेगी। अतः आप गलत काम की बजाय अच्छा काम ही करें। आप शीशे के सामने हाथ जोड़ेंगे तो उधर से भी हाथ जोड़ता व्यक्ति नजर आएगा। अतः आप जैसा व्यवहार करेंगे वैसा ही उसका व्यवहार होगा। हम अपना सुधार कर लें तो सब ठीक हो जाएगा। बेटे, हम कठोर हैं, स्त्रियाँ कठोर नहीं होतीं। औरतें माँ होती हैं, बहिन होती हैं, बेटी होती हैं, पत्नी होती हैं, जिनके हृदय में करुणा, दया एवं प्यार भरा हुआ होता है। यह समय दूसरा आ गया है। अब हमें इनसाफ को और सत्य को लेकर चलना होगा। हमारे मिशन का उद्देश्य धर्मप्रचार का तो है ही, उसके साथ ही बेइन्साफी के विरुद्ध लोहा लेना भी हमारा काम है। केवल ज्ञान-अर्जन, अनुष्ठान कराना हमारा उद्देश्य नहीं है, बल्कि दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन करना भी हमारा उद्देश्य है।
एक बार द्रोणाचार्य से लोगों ने पूछा—आप अपनी पीठ पर तीर-धनुष क्यों रखते हैं? आप तो संत हैं, ब्राह्मण हैं। उन्होंने कहा—
अग्रे चतुरो वेदाः पृष्ठे सशरोधनुः।
इदं ब्राह्मम् इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि।।
हमारे आगे चारों वेद हैं अर्थात् जहाँ लोगों में शराफत है, वहाँ पर हम ज्ञान, अनुष्ठान, पूजा-उपासना की बात बतलाते हैं, परन्तु जहाँ भलेमानस नहीं हैं, शराफत नहीं है, वहाँ हमारे पास की दूसरी औषधि काम आती है, यानि कि हमारा धनुष और तीर काम आता है। इसके बिना काम नहीं बनता। जानवरों को हम ज्ञान से नहीं समझा सकते हैं, उसके लिए लाठी का होना आवश्यक है। इसलिए ये हम अपनी पीठ पर लिए फिरते हैं। ब्रह्मबल, क्षात्रबल दोनों हमारे पास हैं ।। हम शाप देने की क्षमता भी रखते हैं और तीर चलाने का साहस भी रखते हैं। बेटे, भगवान के अवतार लेने का उद्देश्य केवल धर्म की स्थापना करना तथा पापियों का विनाश करना ही नहीं है। यद्यपि इसके द्वारा ही सज्जनों की रक्षा संभव है, परन्तु भगवान का उद्देश्य महाभारत करना भी है तथा लंका का दहन करना भी है।
गुरु गोविन्दसिंह जी ने भी एक हाथ में माला तथा दूसरे में भाला का संदेश दिया था, ताकि हम लोगों को ज्ञान दें, पूजा-पाठ भी बतलाएँ, परन्तु जब दुष्ट एवं अनीति करने वाले हमारे आड़े आ जाएँ, तो उनको भी हम रास्ता दिखा सकें। मित्रो, हमारा मिशन भी इसी तरह के दो उद्देश्यों पर आधारित है। आप जहाँ भी जाएँ भगवान राम का चरित्र सुनाएँ। उनका भाई-भाई का प्रेम, माँ-बाप के प्रति सद्भावना के साथ यह भी बताएँ कि रामचन्द्र जी ने खर-दूषण और मारीच को मारा था ताकि अभद्रता न पनप सके, अराजकता न रह सके। उस समय के राक्षस मनुष्य के रूप में विद्यमान थे। वे दिखायी पड़ते थे। आज के राक्षस हैं तो विशाल, किन्तु दिखाई नहीं पड़ते। जो दिखाई पड़े, उनका तो इन्तजाम शीघ्र कर सकते हैं, परन्तु न दिखायी पड़ने वालों को मारने में विलम्ब होता है। हमारे जमाने के राक्षस मलेरिया की तरह, आँखों के फ्ल्यू की तरह हैं। यों मूढ़-मान्यताओं, अज्ञानता, कुरीतियों और प्रथा-परम्पराओं के रूप में वे हमारे समाज में भयंकर रूप से फैले हुए हैं। इन्हें दूर करना होगा। आपको दिखायी नहीं पड़ता? आज स्त्री-पुरुष के बीच की बुराइयाँ किस कदर बढ़ रही हैं? पचास प्रतिशत जनसंख्या लकवा से पीड़ित है। हम भारत में साठ करोड़ हिन्दू हैं, फिर भी तीस करोड़ महिलाएँ बंगलादेश से आये शरणार्थियों की तरह हैं। वे कोई काम नहीं कर सकतीं, अपनी सुरक्षा नहीं कर सकतीं, अस्पताल नहीं जा सकतीं, बाजार नहीं जा सकतीं, जेठ-देवर के अत्याचार के विरुद्ध कोर्ट में याचिका दायर नहीं कर सकतीं, अपनी पति की सहायता भी नहीं कर सकती हैं, क्योंकि हमने इनके हाथ-पाँव तोड़कर लकवा के मरीज की तरह अपंग बनाकर रख दिया है। आजकल अपने देश में एक गिरोह सक्रिय है, जो छोटे-छोटे बच्चों के हाथ-पाँव तोड़-मरोड़कर उन्हें अपंग बना देते हैं और उनसे भीख माँगने का काम कराते हैं। इस तरह का उनका व्यापार शहरों में चलता है। हमने भी स्त्रियों को इसी श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। वे समाज के ऊपर भार बनकर रह गयी हैं। हमें भारतीय स्त्रियों की हिमायत के लिए खड़ा होना होगा। उनकी सहायता करके इस समस्या के समाधान के लिए ठोस कदम उठाने होंंगे।
बेटे, जिस काम के लिए आपको क्षेत्रों में भेज रहे हैं, उसमें केवल पूजा-पाठ, अनुष्ठान बतलाना ही नहीं है, बल्कि इनसान को इनसान बनाना है। उनके अन्दर की दैवी शक्तियों का जागरण करना है। भगवान का सवा लाख नाम जप लेने से पैसा, औलाद, नौकरी मिलेगी, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। भगवान नाम के भूखे नहीं हैं। राम, हनुमान, गायत्री माता का पूजा-पाठ, अनुष्ठान करने का एक ही मकसद है, वह यह कि इनसाफ, ईमान, न्याय और शराफत को जिन्दा करना। अच्छा इनसान बनना। भगवान का नाम, कुम्भकरण की तरह सोयी हुई शक्तियों को जाग्रत करता है। गायत्री माता का स्मरण करने से मतलब विवेक का जागरण करना है। वह हंस के ऊपर नहीं, आपके ऊपर सवार है। हमने आपको यहाँ जप-अनुष्ठान के लिए बुलाया था ताकि आपके अंदर वाला भलामानुष तथा शराफत जिन्दा हो जाए। फिर आपको धर्मचेतना जगाने हेतु क्षेत्रों में भेज सकें। वहाँ उन लोगों के बीच अंधकार दूर कीजिए तथा प्रकाश को पैदा कीजिए। धर्म को फैलाने के लिए अधर्म को समाप्त कीजिए। दोनों एक साथ नहीं जी सकते, एक को तो मरना ही होगा। नहीं साहब इनसाफ भी जियेगा और बेइन्साफी भी! बेटे ऐसा सम्भव नहीं है। एक म्यान में एक ही तलवार रह सकती है। इस समाज में या तो सत्य जियेगा या झूठ। धर्म के अन्तर्गत जो अन्धकार है, उसे निकालने का प्रयास कीजिए। साथ ही हमें पचास प्रतिशत लोगों को, मरी हुई नारी जाति को फिर से जिन्दा करना है, उन्हें सही मार्ग दिखाना है, उनके जिन मानवीय अधिकारों का हनन हुआ है, उन्हें दिलाकर समाज में पुनः उनको प्रतिष्ठा दिलानी होगी।
मित्रो! आपके मिशन ने पुनः नये सिरे से महिला जाग्रति अभियान शुरू किया है। यह न तो आंदोलन है और न ही अभियान। यह एक ऐसी क्रान्ति है, जिसमें हमें इनसान के अधिकारों की हिमायत करनी है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, गोरा हो या काला। अगर वह नहीं माँगता है तो हमें उसे प्रेरणा देनी होगी ताकि वह अपने अधिकार माँग सके। हमारे कहने का मतलब यह कि जो चीजें गलत हैं, उनके विरुद्ध आपको लोहा लेना चाहिए। मर्दों को मजबूर करें कि स्त्रियों के पक्ष में वे अपना दृष्टिकोण साफ रखें और उनके बंधनों को तोड़ने के लिए आगे आएँ। पाप जिसने किया है, उसका प्रायश्चित उनको ही करना चाहिए। स्त्रियों को दयनीय स्थिति में डालने का कार्य मर्दों ने किया है, तो उनको ही प्रायश्चित करने की आवश्यकता है। स्त्रियों के साथ जो बेइन्साफी हुई है, उसका इतिहास एक हजार वर्षों से ज्यादा का नहीं है। इसे दूर करने के लिए ही हम आपको क्षेत्रों में भेज रहे हैं। कमजोरों की हिमायत में एक काम यह भी है कि जानवरों के ज्यादा वजन ढोने, उन्हें काटकर खा जाने जैसे कार्यों का हम विरोध करें।
जवाहर लाल नेहरू को क्या कमी थी? वे मोतीलाल नेहरू के बेटे थे, आनन्द भवन में आनन्द एवं मौज का जीवन जी रहे थे। उन्होंने जब महसूस कि या कि भारत के लोगों को आजादी मिलनी चाहिए और जो पीड़ित हैं, पददलित हैं, जिनको नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया है उनकी हिमायत, उनकी पीठ पर हाथ रखना चाहिए। तब वे सारे सुख छोड़कर स्वतंत्रता-संग्राम में कूद पड़े। यह मिशन लम्बे समय से नारी-उत्कर्ष के लिए प्रयत्न कर रहा है। अब आपको भी इसे आगे बढ़ाने में मदद करनी होगी। इसमें आपको क्या-क्या करना पड़ेगा, ये कुछ कार्य हम बताते हैं—
१. जनसाधारण के मन में यह धारणा बिठानी होगी कि स्त्रियाँ भी सामान्य नागरिक हैं। उन्हें गुलाम, अंधी, लँगड़ी बनाकर रखने में हमें कोई फायदा नहीं है। आप गाय, बैल को ज्यादा मजबूत बनाएँगे तो ज्यादा फायदा होगा। अतः अपनी बहिन, माँ, पत्नी और बेटी को शिक्षित, योग्य एवं मजबूत बनाएँगे तभी वे आपका सहयोग हर कार्य में कर सकती हैं।
२. विवाह-शादियों में दहेज प्रथा को हटाना होगा। शिक्षा का विकास करना होगा और घर की अर्थव्यवस्था को ठीक करना होगा। उन कसाइयों को भी ठीक करना होगा, जो कि दहेज के नाम पर लड़कियों का जीवन बर्बाद कर देते हैं। इसके कारण हर आदमी को बेईमान और गरीब बनना पड़ता है। हमारे देश में इतना ही लोगों के पास है कि वे किसी तरह अपना और बच्चों का पेट भर सकें, तन ढक सकें। हमारा देश अमीरों का देश नहीं है। यहाँ बच्चों को पढ़ाना भी एक समस्या है। उन्हें अपने खर्च में कटौती करनी पड़ती है। दहेज के लिए खेत, मकान बेचना पड़ जाता है। इसके कारण पूरे के पूरे समाज के लोग अनाचार एवं अत्याचार में लगे हुए हैं, अगर इससे लोहा नहीं लेंगे तो स्त्रियाँ भारभूत और अपमानित होती चली जाएँगी। उनकी हत्या होती रहेगी। उन्हें कलंकित करके घर से निकाल दिया जाएगा। घर वाले पुनः दहेज लेकर दूसरी शादी की तैयारी कर रहे होंगे। इसके लिए आपको वातावरण तैयार करना चाहिए। यह धर्म है और यही धर्म का प्रचार। धर्म का मतलब के वल भागवत् की कथा सुनाना नहीं, बल्कि धर्म वह है जिससे इनसानियत की, कर्तव्यों की प्रेरणा मिले। लकीर पीटना धर्म नहीं है। गीता-पाठ का तात्पर्य उसकी शिक्षा, प्रेरणा ग्रहण करना है।
मित्रो! आपको मालूम नहीं है कि हमने अपनी जिंदगी का आखिरी वाला हिस्सा इस काम के लिए रखा है, जिसके लिए हमें वहाँ से भेजा गया था। सारी जिंदगी भर हमने धर्म एवं भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। लोगों को जाग्रत किया। अब नारी जागरण के अध्याय को हम यहाँ से शुरू करते हैं। फाल्गुन के महीने में होली जलाई जाती है। उसमें से प्रत्येक घर के लोग थोड़ी-थोड़ी अग्नि ले जाते हैं और अपने-अपने घरों में होली जलाते हैं। उसे हमारे यहाँ घर-होली कहते हैं। उसमें चावल, जौ, आलू पकाते हैं। इसकी खास बात यह है कि उसके लिए अग्नि बड़ी होली से ही लाते हैं। ठीक उसी प्रकार हम आज शान्तिकुञ्ज से बड़ी होली जलाते हैं और यहाँ की चिनगारी आप एवं हम हर जगह बिखेरने का प्रयास करेंगे। हम यहाँ पर लड़कियों को बुलाकर उन्हें प्रशिक्षित करते हैं, प्रेरणा देते हैं कि आप इनसान के तरीके से जीना और इनसानियत अपने अंदर जीवित रखना। अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना। माँ, सास, बहिन, ननद, बेटी का सम्मान एवं प्यार करना। ईमान एवं कर्तव्य से प्यार करना। हम महिलाओं को इस तरह का बनाएँगे कि वे यहाँ से जाकर घरों में स्वर्ग का वातावरण बना सकें। हम परिवार-संस्था को जिन्दा करेंगे। आज लोगों ने व्यक्ति एवं समाज के विकास के लिए तो सोचा है, परन्तु परिवार के लिए नहीं सोचा। वास्तव में यही वह कड़ी है, जो दोनों को जिन्दा करती है। इसे हम जाग्रत करेंगे। यह खदान है, इसी में से नर-रत्न निकलते हैं। बिनोवा की माँ ने तीन बच्चे पैदा किए—बिनोवा, बिठोबा, और बालकोवा तीनों को संत और ब्रह्मज्ञानी बनाया। उन्होंने जिन्दगी भर ब्रह्मचर्य से रहते हुए गाँधीजी का कार्य किया। ये परिवार रूपी गुरुकुल में ही पढ़े थे, अगर इसे जाग्रत नहीं किया जा सका तो न तो इसमें व्यक्ति पैदा होगा और न समाज बनेगा। यह गृहस्थ योग है, यह योगाभ्यास है। इस आश्रम के रूप में घर को विकसित करना चाहते हैं। इसकी प्राचार्या होनी चाहिए गृहलक्ष्मी। वह घर की प्रिंसिपल, वाइस चांसलर हो सकती है। गृहिणी का नाम घर है, घर का नाम गृहिणी है ‘‘गृहिणी गृह वर्चते।’’
इसके लिए हमें नारी को सुयोग्य बनाने से न के वल पति, बच्चे को लाभ होगा, बल्कि समाज, राष्ट्र को भी लाभ होगा। अगर देश का प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति ठीक नहीं होगा तो देश कैसे ठीक चलेगा? इसलिए आप यह प्रयत्न कीजिए कि अपनी कन्याओं को यहाँ पढ़ने के लिए भेजें। हम यहाँ वास्तविक होमसाइंस पढ़ाएँगे, सर्वगुण सम्पन्न बनाएँगे। उन्हें यह भी बतलाएँगे कि घर की संस्था का विकास कैसे करना चाहिए? आप एक बात का ध्यान रखें कि योग्य कन्याएँ और महिलाएँ ही यहाँ भेजें। बेकार की गूँगी, बहरी, बच्चे वाली, बिना बच्चे वाली, मनोकामना वाली न आएँ। हमें तो प्रतिभाशाली कन्याओं एवं महिलाओं की आवश्यकता है। जिनमें जीवट हों, जो यहाँ से जाने के बाद आग लगा सकें। बेटे अच्छा तो सब लोग अपने घर रख लेते हैं और फालतू, बेकार को हमारे पास भेज देते हैं। आज लोग पूजा वाली सुपारी दुकान से लाते हैं, वह सड़ी वाली। हमें ऐसा नहीं चाहिए। अच्छे लोग भेजें। गायत्री परिवार के लोगों में, बाहर के लोगों में ऐसी कन्याएँ एवं महिलाएँ हों, जो अपनी संस्था की प्रिंसिपल हो सकती हों, वाइस चांसलर हो सकती हों, जिनमें प्रतिभा हो, उन्हें एक वर्ष एवं तीन-तीन महीने के लिए यहाँ भेजना। हमारी आग, यह चिनगारी भारतवर्ष में सब जगह पहुँचा देना।
यहाँ जो कन्याएँ हैं, उनको हमने तैयार किया है। वे इस वर्ष महिला सम्मेलन के माध्यम से पूरे भारतवर्ष में धूम मचाएँगी। हर गाँव-गाँव की महिलाओं, कन्याएँ क्षेत्र से ही निकालें तथा भारतवर्ष के हर गाँव में भेजें। आपको मालूम है कि महिलाएँ भारतवर्ष की पढ़ी-लिखी नहीं हैं। उनसे साहित्य के माध्यम से ज्यादा काम नहीं ले सकते। अतः हम उन्हें गीत, प्रवचन, कथा के माध्यम से प्रेरणा देंगे ताकि वे साप्ताहिक सत्संग, हवन, संस्कार आदि करा सकें, गोष्ठी कर सकें। इसके लिए हम हर जगह महिला शाखा का गठन करेंगे। अतः आपके यहाँ भी शाखा गठन करने का प्रयास करेंगे। महिलाओं में, कन्याओं में भी हमने वह आग भर दी है जो हमारे अन्दर है। ये छोटी हैं तो क्या बात है, शुकदेव जी भी तो छोटे थे। आप शाखा गठन करना, महिला जागरण के कार्यक्रम करने का प्रयास करना, कुछ तो हम यहाँ से भेजेंगे। महिला जाग्रति, महिला क्रान्ति के लिए आपको एवं हमको नए सिरे से प्रयास करना चाहिए।
मित्रो! आपको भी पचास प्रतिशत मूर्छित पड़ी स्त्रियों के लिए लक्ष्मण जी की तरह संजीवनी बूटी लाकर देनी होगी। मरी हुई मातृशक्ति को जिंदा करने के लिए आपको हनुमान की तरह से काम करना होगा। अगर आप ऐसा करने में सफल हो जाएँगे तो हम लोग भारत में नये तीस करोड़ व्यक्ति पैदा कर सकते हैं। भारत का विकास कर सकते हैं। इस प्रकार तीस करोड़ जिंदा आदमी की जगह साठ करोड़ हो जाएँगे। हम चाहते हैं कि भारत में एक सौ बीस करोड़ हाथ, एक सौ बीस करोड़ पैर काम करें। साठ करोड़ दिमाग, साठ करोड़ दिल काम करें। हम देश की समृद्धि को बढ़ाना चाहते हैं। हम भावनात्मक शक्ति को बढ़ाना चाहते हैं। इस चेतनात्मक शक्ति को बढ़ाए बिना हमारी प्राचीन संस्कृति की खोयी हुई गरिमा को वापस लाने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। आप कदम से कदम मिलाइए और कंधे से कंधा मिलाकर हमारे साथ चलिए। आप हमारी अँगुलियाँ हैं। हम अकेले कुछ काम नहीं कर सकते हैं। आप हमारी अँगुलियाँ बन जाइए, ताकि हम और आप बढ़-चढ़कर महिला-जागरण का कार्य कर सकें और महाकाल की योजना को सफल बना सकें। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्तिः